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शोक कर मरु दुष्ट स्वभाव, परनिन्द्य निज कहै बढ़ाव । इच्छा युद्ध कुमुरुकी सेव, यह कापोत धनीको भेव ॥२१३।। विद्यावत दया परिणाम, कार्य अकाय विचारत जाम । लाभ अला- समट याचरे. लेण्या णत जहां उर घरं ।।२१४।। क्षमावत दाता बुधवान, कर देव पूजा द्यति ध्यान । सब जीवन सों समताभाव, यही पद्मलेश्या ठहराव ।।२१।। राग द्वषनिज डारे खोय, निद्रा शोक न दीसे कोय । उत्तम भाव धर जब जीब, ता सा लेश्या शुक्ल कहीव ॥२१६।। सन इनको दृष्टान्त विचार, गये पुरुष षट बनहि मंझार । तहाँ आम्रतरु फलजुत देख, बैठे निर्मल छाया पेख ।।२१७॥ फल भक्षण की इच्छा धार, बोल निज निज भाव सम्हार । कृष्ण धनी कहि जर काटिये, पीछे यानो फल बांटिये ॥२१॥ तब बोल्यौ जाके अंग नील, पेड़ो कारत' करी नदील । अब कापीत बनी इम कहो, याकी डारे काटो सही ।।२१६॥ कपीत पति ऐसौ भेव, कोंचा कोना तोर जु लेव । बोल्यो पद्म धनी यह बात, पके पके फल टोरो भ्रात ॥२२०॥ कहै शुक्लचारी यह गाथ, गिरे लेउ, मत लोबो हाथ । सट पटलेश्या के संग अनूप, नाचत फिर जीव चिद् प ॥२२॥
भव्यमार्गणा
भव्य अभव्य राशि द्वै जान, इनके अब सुन भेद बखान । गुरु थुत देव तनी जु प्रतीति, जाके उर श्रद्धाको रीति ।।२२।। आर्जव परिणामी बुधवान, अरु गनती में प्रापौ जान । जो कमनि वश जाय निमोद, फिर निकस निज वचन विनोद ।।२२३|| काल लन्धित शिवपुर जाय, भव्य राशि को यही स्वभाव । जहां न गुरुके वचन प्रतीत, गहिल रूप नाहि इंद्रिय जीत ।।२२४।। तपबल जो ग्रीवक ली जाय, फिर वहत निगोद ठहराय । सदा काल जग भ्रमतो रहै, अभाव राशि याही सौं कहैं ।।२२।।
सम्यक्त्वमार्गणा
प्रथम मिथ्यात दतिय सासान, तीजौ सम्यक मिल्छ बखान । उपशम वेदक क्षायिक एह, तिनको कथन सुनो घर नेह ।।२२६॥
सम्यकत्व के भेद
दोहा क्षय उपशम वरतं त्रिविध, वेदक चार प्रकार । क्षायिक उपशम जुगल जुत, नवविध समकित धार ।।९२७।। (१) चार खिपइ त्रय उपशमइ, (२) पन खय उपशम दोय । (३) क्षय षट उपशम एक जो, क्षय उपशम त्रिक होय ॥२२॥ (४) जहाँ चार प्रकृतिन खिपय, दो उपशम इक वेद । क्षय उपशम वेदक दशा, तास प्रथम यह भेद ॥२२६।। (५) पंच खिपद इक उपशमड, एक वेदै जिहि ठौर । सो क्षय इक उरवेदकी, दशा दुतिय यह और ॥२३॥ (६) क्षय पट वेदै एक जो, क्षायिक वेदक जोय । (७) षट उपशम इक प्रकृति विदि, उपशम क्षायिक सोय ||२३१। () षट उपशम या खिपइ जो, उपशम क्षायिक सोय । सातम प्रकृति उदोत सौं, वेदक समकित होय ।।२३२||
खय उपशम, वेदक खइय, उपशम, समकित चार । तीन, चार, इक, एक मिले, सब नत्र भेद विचार ||२३॥
सोरठा अब निश्च व्यौहार, अरु सामान्य विशेषता । कयौ चार परकार, महिमा समकित रतनकी ।।२३४।।
यानी अर्हत प्रभ है। जोकि शरीर रहित है ऐसे सिद्ध-महा-पुरुष निकल परमात्मा कहे जाते हैं। जो कि घातिया कर्मों का एकदम नाशकर उनसे रहित हो गये हैं, नव कोवल लब्धि बाले मोक्षके अभिलाषी हैं, तीनों जगत् मनुष्य एवं देवों के द्वारा सदैव ध्यान करने के योग्य हैं और संसार सागर में डूबते हुए भव्य-प्राणियों को अपने धर्मोपदेश रूपी कोमल करोंसे उवारने के लिए सतत प्रयत्नशील रहते हैं तथा अत्यन्त बुद्धिमान महा-पुरुषों के गुरु हैं, धर्म-तीर्थ प्रवर्तक हैं, साक्षात् तीर्थकर स्वरूप हैं, सामान्य