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पीछे तन मंजन कर सार, पहरे धवल वस्त्र सुविचार । भाव सहित सो पूजा करं? मन, वच तन वसु मंगल धरै ।।११४॥ प्रासुक योग्यकाल में सार, देइ सुपात्र मधुर प्राहार । पाप जोग अपराहण काल, साधे सामायिक बिधि हाल ॥११५|| पीछे जिन केबलिको वृन्द, संघ सहित बंदें जगचन्द्र । शुभ कर्मन के प्रापति काज, धर्मतीर्थ वर्धक सुख साज ।।११६।। तहाँ सुमर्ध सुन्यौ भवतार, मिश्रित तत्व आदि आचार । राग रहित तिष्टं इमि भूप, बहुत भोग भुगतं सख कूप ।।११७।। वात्सल्य घरमी जन कर, धर्म बड़े मिथ्या परिहरै। दान मान बहु मुनिको देइ, प्रीति सहित गुण रंजित गेय ।।११।। जिन मन्दिर बनवावै पांति, प्रतिष्ठादि पूजा बहुभांति । जिन शासन माहात्म्य अपार, कोनौ बुध सुख वर्धनहार ।।११९11 पुण्यवन्त भो भव्य महान, कीजो इहि विध शक्ति प्रमान । जाके कछू शक्ति है नाहि, सो अनुमोद धरो मनमाहि ।।१२०।। इहि प्रकार बह विध माचार, धर्म जिनेश्वर भाषत सार । मन यच काय आप संचरं, भव्यजनको उपदेश जु करै ।।१२।। तीन काल पाले निजराज, न्याय धनी वरधै सुख साज । पालै प्रजा पुत्र सम जान, पुण्य उदधि उर हिय धर ज्ञान ।।१२२।। एक दिना कछ कारण पाइ, चितावत भयौ नर राई । उदासीन भव भोग विरक्त, है विवेक घर उज्वल चित ।।१२३।। श्रुतसागर योगीश्वर नाम, श्रुत ज्ञानाभ्यासी गुण धाम । तीन प्रदक्षिण दे शिर नाय, प्रणमैं जाय मुनीश्वर पाय ॥१२४।। जो प्रभ कृपावन्त हिय होय, कहिए मेरो संशय खोय । लक्षण कहा पाल्मातनौ, किही प्रकार जड़ चेतन भनौ ।।१२५।। किहि विध बंध कुटुम्न सभाय, कारण कह दुःख अधिकाय । कैसे सुक्त शाश्वती जान, जातै विनसै आशा थान ||१२६।।
करता था। सवेरे शय्या त्याग करने के साथ ही उसका सामायिक तथा स्तवन पाठ प्रारम्भ हो जाता था इसके बाद वह स्वच्छ वस से युक्त होकर अर्थ-धर्म काम आदिकी सिद्धिके लिये जिनालय में जाकर देव पूजा करता था। मान कषाय आदि दुर्गुणोंसे मुक्त होकर सुपात्रोंको विधिवत दान किया करता था। उसका दान स्वादिष्ट और प्रासक हना करता था।
वह जितेन्द्रिय संध्याके समय कल्याणकारक सामायिक आदि उत्तम कार्य सम्पन्न किया करता था। केवल यही नहीं बल्कि धर्मतीर्थकी प्रवृत्ति के लिये वह अर्हत केवली योगीन्द्र और मुनिश्वरोंके संघ यात्रामें भी सम्मिलित हुआ करता था। वह राजा सुखोंके समुद्र जैसे तत्व-चर्चा तथा श्रेष्ठ धर्मोका श्रवण किया करता था। उसे साधर्मी भाइयोंसे बड़ी प्रीती थी। उनके गुणोंसे मुग्ध होकर वह उनका बड़ा सम्मान करता था । अनेक प्रकार के प्राचरणोंका पालन करता हा वह राजा धर्मके पालनके फल से प्राप्त भोग्य सामग्रियोंका उपभोग करने लगा। प्रतएव हे भव्य पुरुषो! यदि तुम श्रेष्ठ सुखकी उपलब्धि चाहते हो तो कठोर प्रयत्न करके भी धर्मको धारण करो।
कर्मोको परास्त करने वाले तथा रुद्र द्वारा किये उपसगों को सहन करने वाले, वीरों में अग्रगण्य जिनेन्द्र भगवा कोनमैं नमस्कार करता हूं।
एक दिनकी घटना है । हरिषेण महाराजने विवेक पूर्वक निर्मल चित्तसे विचार किया कि मैं कौन हूं, मेरा शरीर क्या है, और बन्धके इस कुटुम्बकी स्थिति क्या है मुझे अविनश्वर सुख की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है. मेरी तृष्णा किस प्रकारसे शान्त होगी और संसार में हित्-अहित क्या वस्तुए हैं। इन विषयों पर पूर्ण विचार करनेके बाद, हरिषेण महाराजको ज्ञान हा कि, यह प्रात्मा सम्यग्दर्शन और ज्ञान चारित्र स्वरूप है और ये शरीरादि अवयव दुर्गन्धयुक्त अचेतन हैं । जिस प्रकार इस लोक में पक्षियोंवा समूह रात्रिके समय निवास करता हैं, और प्रात: सब अलग हो जाते हैं, उसी प्रकार स्त्री कुटुम्ब आदि परिवार वर्ग भी हैं।
वस्तुतः मोक्षके अतिरिक्त अन्य दूसरा कोई भी अविनश्वर सुख नहीं दिखलाई देता। पर उस सुखकी उपलब्धि इस क्षणभंगुर शरीरका ममत्व त्यागने से ही हो सकती है तपका प्राप्ति भी सम्यग्दर्शन ज्ञान और चरित्रसे ही हो सकेगी । ये मोह और इन्द्रिय विषय तो अत्यन्त प्रहित करने वाले हैं। अतएव प्रात्म-हित चाहने वालेको बिना किसी प्रकारका विचार किये ही विषय स्खको तिलांजलि दे देना चाहिये और रत्नत्रय तपको ग्रहण कर मोक्षका मार्ग प्रशस्त कर लेना चाहिये ।