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पदस्थ ध्यान निरूपण
अब सुन सकल पदस्थ विचारा, साथै शिवपद कर विहारा । मात्रा बंचन अक्षर तनो, प्रादि सिद्ध सब शोभा गनी ।।३-७।। तिनको ध्यान वृत्त मुनिराय, जथाजुगत ज्यों बेद कहाय । षोडश दलको कमल अनुप, चित नाभिमध्यता रूप ||३|| दल दल प्रति तहं रच विचित्र, स्वर हैं सोरह परम पवित्र । अप्राइई उहि ऊशुभ गनी, और जुक्त ऋऋ स ल भनौ ।।३।। ए ऐ पो पो प्रमः जान, ए सोरह स्वर जे परबान । फिर चितवं कमल इक और, जाकी है हिरदै में ठौर ॥३६ ताके दल गन वीस रु चार, मध्य कणिका रूप अपार । कु च टु तु पू हैं वरण पत्रीस, तापर रचं ध्यानको ईश ।।१११॥ बदन कमल वसु दल पर रचे, य र ल व आदि वर्ण वसु सवै : अनुक्रम उमस प्रदक्षिकर, यल दल प्रति अक्षर अनुसरं ॥३६२।। मंत्रराज अवलंबे जीव, ह्रींकार धर हदै सदीव। यह विधि वर्णमाल उद्धर, द्वादशांग वाणो बल करै ॥३ ॥ श्रत समुद्र तर लागे तीर, ज्ञानतनी तह दोसै भीर। एसब पत्र रु उदर समेय जो ध्यावे जोगी चित चेत ।।२ जपत जासू सूख रुचि प्रानंद, प्रगट तीव्र प्रगान ज्यों मन्द । कुष्ट न रहै न उदर विकार, कास श्यामको आने हार का या भब प्रजनीक जिय कर, प्रागे को शिव-सुख विस्तरं । सकल पदनको राजा जान, सब तत्वनको ईश वखान ॥३६६|| ऐसौ मंत्र अनाहत रूप, सुनौ तासको परम सरूप । ग्रादि ऊर्ध्व रेफा जा शीस, मध्य बिन्दु रेखा रजनीश की जे नव वर्ण पूर्व कहि तन, इनि मिलि मंत्र अनाहत भने । मंत्रराज याही को नाम, चन्द्रकलासम है अभिराम । सो बह कमन कणिका महि, धरिकं जपं न कर्म रहाय । जिन सरूपत चितत ऐन, निरमल भाजित महिमा बैन । याहो मंत्र तनों कर ध्यान, भय सर्वत्र सर्वगत जान । ज्ञान बोज जगवय करबंद, मित्र महेश्वर सब सुख कंद ।।४|| जन्म अग्नि की जहं उतपात, जलयर सम करता सुनि धात । जिन लीन। मुखत इकवार, खयो पंथ शिव पायो सार ।।४०१|| जन्म मरीरहको विस्तार, तिन सु मूलते दियो उखार । मंत्रराजको साबन रूप, बरण सुनाऊ विमल अनूप ||४०२।। मध्य रूप तोता थल ज्ञान, तासे रूपको कर तहं ध्यान । लावं मुख पंकज फिर ताहि, तालु रंध्र पुन विव प्रमतबिन्द तहां पय परषाय, नत्र पत्र फिर दरस पाय | अलख वाट ब्रह्माण्ड विदार, ज्योतिष मण्डल कर विहार ॥४०४।। शशि ताकी सरवर नहि होय. कछुक तहां रह उछल सोय । कर्म कलंक तनों तम जान, भवको भ्रमनाशक निर्वान ।।४।। फिर पाबे वह परम स्थान, जुग ध्रुवलता जु भाषी जान । पूरक रेचक कुंभक तीन, पवनभ्यास त्रविध परवीन ।।४०६।। परक जहां पवन खैचाय, कुंभक रहै अचल तन लाय । रेचक जब ही जिय निरकार, ध्यान अंत भारत निरधार ॥४०७१।
(अह मंत्र)
वा मंत्रहि कुंभक कर चित, अर्ह शब्द सुनौ बिरतंत । सकल त्याग इहि विधि यह जपं, सपने ह न दृष्टित क्षपै ॥४०८।। जाको प्रादि प्रकार सरूप, मध्य बिन्दु जुत रेफ अनूप । अंत हकार दिये गुणवान, परम तत्व याको यह जान ।।४०६।। पहिले चित सब कर जुक्त, करै ध्यान फिर उनत मुक्त। फिर चितै जिमि चन्दा रेख, ताको चुति सुरज सम पेख ।।४१०।। मंत्रराज चितन गण सार, जन्म मरण भवसागर पार । बाल अग्र सम फिर चितव, निहचे हू इक चित संभ मणिमा आदि अष्ट जो सिद्धि, होइ प्रगट बहु लक्ष्मी वृद्धि । सकल सुरासुर चरनन नवै, शिवपद लहि चारौं गण वमैं ।।४१२।
रहित केवल मात्र प्राकाश है उसको अलोककिाश कहते हैं। यह अलोकाकाश अनन्त, अमर्त, क्रियाहीन और नित्य है। इसे सर्वज्ञोंने देखा है जो कि द्रव्योंकी नवीन और प्राचीन अवस्थाके रूप बदल देने वाला है वह समयादि स्वरूप व्यवहार काल है। लोकाकाशके विभिन्न प्रदेशों पर रत्न-राशिकः समान जो एक-एक अणु पृथक्-पृथक क्रियाहीन होकर स्थिर रूपेण अवस्थित हैं उन असंख्य कालाणुओंको जिनेन्द्र प्रभुने निश्चय काल कहा है। धर्म, अधर्म जीव और लोकाकाशके असंख्य प्रदेश हैं। कालके
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