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दोहा दर्शन चह वसू जान सब, ये ब्यौहार रारूप । निहवं चेतन शुद्ध नय, दर्शन ज्ञान अनूप ।।३।।
अथ अमूर्तिक भेद निरूपण
चौपाई
वरण पंचरस पंच दुगन्ध, आठ फास गुण वीस प्रबंध । पुद्गलोक गुण सबै यतीव, इनमें मरतिबंत जु जीव ।। ३२॥ यह व्यवहार रूप मानिये, निह और भेद जानिये। जब इनहीको त्याग जु कर, अमूर्तीक पद तब जिय धरै ॥३३॥
___ कर्तत्व भेद निरूपण
पदगल सम्बन्धी जब जीव, कर्म कर्मको कर सदीव । यह अगद नयको व्यवहार, रागद्वेष उपजावनहार ||३४||
पुरुप कौन हैं ? इसके सम्बन्धमें पाप नातिविस्तार रूपेण उपदेश करें और साथ ही यह भी बतायें कि भूत, भविष्यत्, वर्तमान इन तीनों कालके विषय में द्वादशांगुल से उत्पन्न सम्पूर्ण ज्ञान को आप कृपापूर्वक भव्यजीवों के उपकार के लिये एवं स्वर्ग मोक्षकी प्राप्तिके लिये अपनी अनुपम गम्भीर ध्वनिमे उपदेश करें। गौतम ब्राह्मणकी इस प्रश्नावलीको सुनकर भव्यजीवोंकी भलाईके लिये सतत प्रयत्नशील तीर्थराज महावीर प्रभुने मोक्ष-मको पि, नाक र नसमें प्रवृत्त कराने की इच्छासे तत्वादि प्रश्नोंका सम्यक् उत्तर गम्भीर ध्यान में देना प्रारम्भ किया।
विकल्प करते हैं, उसी जाति के अच्छे या बुरे कार्माणवर्गणाएं (Karmic Molecules) योग शक्ति से आत्मा में खिंचकर आ जाती हैं। श्रीकृष्ण जी ने भी गीता में यही बात कही है कि जब जैसा संकल्प क्रिपा जावे वैसा ही उसका सूक्ष्म व स्थूल शरीर बन जाता है और जैसा स्थूल, सूक्ष्म शरीर होता है उसी प्रकार उसके आसपास का वायु मण्डल होता है। वंज्ञानिक दृष्टि से भी यह बात सिद्ध है कि मारमा जैसा संकल्प करता है वैसा ही उरा संकल्प का वायु मण्डल में चित्र उतर जाता है। अमरीका के बंज्ञानिकों ने इन चित्रों के फोट भी लिये हैं, इन चित्रों को जैन दर्शन की परिभाषा में कार्माणवर्गणाएं कहते हैं। जो पांच प्रकार के मिथ्यात्व बारह प्रकार के आश्रत, २५ प्रकार के कपाय, १५ प्रकार के योग, ५७ कारणों मे आत्मा की ओर इस तरह खिचकर आ जाते हैं जिस तरह लोहा मुम्बक की योग शक्ति से आपरा आप विच आता है और जिस तरह चिकनी चीज पर गरद प्रासानी से चिपक जाती है। कमों के इस तरह खिंच कर आने कोजन धर्म में "आस्त्रद" और चिपटने को वध कहते हैं। केवल किसी कार्य के करने से ही कगों का आरत्रव या अन्य नहीं होता बल्कि पाप या पुण्य के जैसे विचार होते हैं. उनसे उसी प्रकार का अच्छा या बरा आम्रव व बन्ध होता है । इसलिये जैन धर्म में कर्म के भाव में व द्रव्य कर्म नाम के दो भेद है। वैने नो अनेक प्रकार के कर्म करने के कारण द्रव्य कर्म के ८४ लावद हैं जिनके कारण यह जीव ८४ लाख योनियों में भटकता फिरता (जिनका विस्तार 'महाबन्ध' व 'गोम्मटसार कर्म काण्ड' आदि हिन्दी व अंग्रेजी में छपे हुए अनेक जैन ग्रन्थों में देखिये) परन्तु कर्मों के आठ मख्य भेद इस प्रकार है
१. ज्ञानादरणो-जो दुसरे के ज्ञान में बाधा डालते हैं. पुस्तकों या गुरुओं का अपमान करने हैं, अपनी विद्या का मान करते हैं, सच्चे शास्त्रों को दोष लगाते है और विद्वान होने पर भी विद्या-दान नहीं देते, उन्हें ज्ञानावरणी फर्मों की उत्पत्ति होती है जिससे ज्ञान उब जाते है. और
जाले जन्म में एवं होते हैं। जो ज्ञान दान देते हैं. विद्वानों का सत्कार करते हैं, मर्वज्ञ भगवान् के वचनों को पढ़ते-पढ़ाते सुनते-सुनाते हैं, उनका ज्ञानाबरसी कर्म ढीसा पड़कर, शान बढ़ता है।।
२. दर्शनावरणी-- जो पिसी के देने में रुकावट या आंखों में बाधा डालते हैं, अन्धी का मखौल उड़ाते हैं उनके दर्शनावरणी कर्म की उत्पत्ति होकर आंखों का रोगी होना पड़ता है। जो दूसरे के देखने की शक्ति बढ़ाने में सहायता देते हैं उनका दर्शनावरणी कम कमजोर पड़ जाता है।
३. वेदनीयकर्म-जो दूसरों को दुख देते हैं, अपने दु.खों को शान्त परिणामों से गहन नहीं करते, दूसरों के लाभ और अपनी हानि पर खेद करते हैं वह असाता वेननीय क्रम वा बन्ध करके महादुःख भोगते हैं और जो दूसरों के दुखों को यथाशक्ति दर करते हैं अपने दालों को सरल स्वभाव से सहन करते हैं, सबका भशा चाहते हैं उन्हें, साता वेदनीय कमें का बन्ध होने के कारण अवश्य सुखो की प्राप्ति होती है।
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