________________
.
.
अव त्रिजगपति प्रादि जिनेता, एकाकी बन ज्यों मिरगेश। विहरै वर्ष जु एक हजार, मौन सहित पुरववत सार ॥८४।। घातिक रिपु द्यौ घोर, शुकल-कृपाण ध्यान के जोर । केवल ज्ञान लक्ष्मी भई, सभोशरण सूनक सुर ठई ।।८५॥ रतन सुवर्णभूमि सहं लमै, मानी जनो मान उह नस ! गम्दादिक गुरगुजन काज, आये निज-निज वाहन साज ।।६।। भरतराय आदिक सव भूप, प्राये मून प्रभु केवल रूप । कन्छ मादि लिगिन सुन सबै, मोक्षव-य जिनवरको नवं ।।८७॥ प्राये प्रभुके बन्दन हेत, संग मरीचि कवर समचेत । तब थी जिन मुखबाणी भई, वृषभसेन गणधर अथरई।1८८ | तव पदारथ आदिक कहै, सकल समा हितसो सरदहै । भरतराय उठि नायो गीस, कृपावात कहिय जगदीश ||६|| मो वाल में उत्तप जिय कन, होनहार नीर्थकर जोय । तव गणपति बोल्यौ इमि बैन, भो नरेश ! सुनि मन चैन ||१०|| अन्तिम तीर्थकर जगतार, हाँग मारीच, कुमार। हरपत भयो नवं मनमांहि, जिगवर बाह। सु बिकलप नाहि ।।११।। जिनपति के वच गुन मारीच, दाइक मोक्ष हरन पद नीच । तबऊन तज्यौ कुमत मिथ्यात, भव कारण माने गुख गात ह॥ वेष विदण्डी कबुध छापान, काय वालेश ज़ दायक पाप हाथ कमन्डल अत्रित सोड, मुरख ट्रिये विचार न कोइ ।।६३|| प्रात शीत जल न्हवन करेय, कन्दमूल आदि भक्षेत्र । बाहिज को उपाधि को त्याग, कर आतमा में सब ग ।।६४|| कपिल आदि ता शिष्य प्रलीन, कलगिन सत अतंर परवीन 1 इन्द्रजाल राम निन्ध अपार, जथा अर्य प्रतिलोपन हार ||५|| यह प्रकार भुल्यो बहसोय, मिथ्या गारग में सुध खोय । प्राय यन्त वश पायो मीच, भरतराय मून जो मारीच ॥६६॥ तप प्रज्ञान भयो फल एच, ब्रह्मा स्वर्ग उपज्यों सौ देव । दश सागर ता अायु प्रमान, ऋद्धि अनेक मंपत सुख खान ।।६।। कुपत लनी देखो पर भाव, पायो सुरमन्दिर शुभ ठाव । सूपत कर ज नर विचार, जिनके फमोनाही पार ||१८|| याही भरत क्षेत्र में जान, साता नगरो पहिचान | ब्राह्मण कपिल उस ता ठाम, प्रिया तातको काल नाम IIEEN
Moue
-,
-
-
-
पुज्य के कनी मनिगण धर्मोपदेश करते हए चार प्रकार के संघों के साथ विहार किया करते हैं। यह देश, ग्राम, पत्तन, ऊंच नारी बड़े-बड़े ऊंचे भव्य जिन मन्दिरों से गोभायमान था। यहां की बनस्थली ध्यानारद यागियोमे सदा भरपूर रहनो थी और नवोन फल-फूलों से सदा लदी रहती थी। उस देश के मध्य अयोध्या नामकी नगरी थी। वहां भव्य पुरुषों का निवास था। अतएव जैसा रमगीक उसका नाम था, वैसी ही गुणकी धारणा करनेवाली नगरी थी।
इस नगरीका निर्माण इन्द्र ने श्री आदिनाथ तीर्थ करके जन्म के लिये किया था। वह स्वर्ण, रत्नमयो चैत्यालयोंसे शोभायमान थी अयोध्या में ऐसे ऊंचे-ऊंचे कोट और दरवाजे थे, जिसे शत्र भी नहीं लांच सकते थे। उस नगरीकी लम्बाई-चोड़ाई बारह और नव योजन थी; जो देवों को बड़ी ही प्रिय थी। इस नगरी की सुन्दरताका वर्णन वचनों द्वारा नहीं किया जा सकता। यहां के विशाल भवनों में निवास करने वाले दानी, धर्मात्मा, पुण्य उपार्जन करनेवाले अत्यन्त धनाढ्य थे। उनके गुणांकी प्रशंसा करना सूर्यको दीपक दिखाना है। वे सर्वगण सम्पन्न विमानों में देवों के समान और वहांको स्त्रियां देवियों के समान सुखोपभोग करती थी। जिस अयोध्या में देवगण भी मोक्ष प्राप्ति के उदयसे जन्म धारण करने को लल वाले हैं, भला ऐसा स्वर्ग मोक्ष प्रदान वाली नगरी की यह शुन्छ लेखनी क्या प्रशंसा कर सकती है। जिस नगरी का स्वामित्व आदि धर्म प्रवर्तक श्री ऋषभदेव के पुत्र राजा भरतके अधिकृत था, जहां भरत चत्रोके चरण कमलाकी अकंपनादि राजा नमि आदि विद्याधर मागध आदि देव सदा वंदना किया करते थे, सेखडके स्वामी चरम शरीरी पूण्यवान को सुख प्रदान करनेवालो धारिणी नामको पटरानी यी । वह सुन्दरी अपूर्व गुणवनी थी। इन दोनोंके वह देव (पूररुवा भोलका जीव) स्वर्गसे चयकर मरीचि नाम वा अनेक गुणों से सम्पन्न पुत्र उत्पन्न हया। वह काम बढ़ने लगा। जब उसकी अवस्था कुछ अधिक हई तब अनेक शास्त्रों का अध्ययन कर अपने योग्य सम्पत्तिकी उपलब्धिकर ववादिमें कोड़ा रत हुया।
एक समय की घटना है, थी ऋषभदेव को देवांगनाओंके नत्य देखकर भोगों से सर्वथा विरक्ति उत्पन्न हुई। वे पालकी में सवार होकर लौकान्तिक को साथ लेकर वनमें पहुंचे। उन्होंने वहाँ जाकर वाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारके परियह त्याग कर मोक्ष मार्ग प्रतिपादक तप धारण किया। ठीक उसी समय स्वामी भक्त कच्छ आदि चार सहन गजायाने नग्न भेष रूपी द्रव्यसंयम को धारण किया, किन्तु इनके चित्तमें चारित्र धारण करनेको संयम पूर्ण भावना नहीं था। परन्तु श्री ऋषभदेव ने देहको ममता का भी परित्याग कर सुमेरु पर्वत जैसे निश्चल कर्म रूपी वैरियों को परास्त करने के लिए छः मासको परम समाधि लगा ली।
पश्चात् कन्छ मरीचि आदि ने भूख प्यास ग्रादि कठिन परिषहों को, स्वामी के साथ कुछ दिनों तक सहन किया। पर पीछे उन्होंने अपने को इस महान कार्य में असमर्थ पाया । कलेश के भार से दबे हुए उन लोगों ने परम्पर इस प्रकार का वार्तालाप
३०३