________________
माता वैदिक-धर्म और सभ्यता से नितान्त भिन्न थी। एक विद्वान् ने उन्हें "ब्रात्य" सिद्ध किया है यौर मनुके अनुसार "ब्रात्य" वह बेद-विरोधी संप्रदाय था जिसके लोग द्विजों द्वारा उनको सजातीय पत्नियों से उत्पन्न हुए थे, किन्तु जो (वैदिक) धार्मिक नियमों का पालन न कर सकने के कारण सावित्री से प्रथक कर दिये गये थे।” (मनु १०।२०) बह मुख्यत: क्षत्री थे। मनु एक व्रात्य क्षत्री से ही भल्ल, मल्ल, लिच्छवि, नात, कारण, खस और द्राविड़ वंशों की उत्पत्ति बतलाते हैं। (मनु १०।२२) यह पहले भी लिखा जा चका है। सिंधुदेश के उपरोक्त मनुष्य इसी प्रकार के क्षत्री थे और वे ध्यान तथा योग का स्वयं अभ्यास करते थे और योगियों की मुर्तियों की पूजा करते थे 1 मोहन-जोदरो से जो कतिपय मुर्तियां मिली हैं उनकी दृष्टि जैनमुर्तियों के सदशनासाग्रदृष्टि' है। किन्तु ऐसी जैनमूर्तियां प्राय: ईस्वी पहली शताब्दि तक की हो मिलती विद्वान् प्रकट करते हैं: यद्यपि जनों की मान्यता के अनुसार उनके मंदिरों में बहुप्राचीनकाल की मुर्तियां मौजूद हैं। उस पर, हाथी गुफा के शिलालेख से कुमारी पर्वतपर नन्दकाल की पियों का होना प्रमाणित है तथा मथुरा के 'देवों' द्वारा निर्मित जैनस्तुप' से भगवान् पार्श्वनाथ के समय में भी ध्यानदष्टिमय मुतियों का होना सिद्ध है। इसके अतिरिक्त प्राचीन जैन साहित्य तथा बौद्धों के उल्लेख से भ० पार्श्वनाथ और भ० महाबीर के पहले के जनोंमें भी ध्यान और योगाभ्यास के नियमोंका होना प्रमाणित है। 'संयुत्तनिकाय' में जैनोंक वितर्क और अविचार धेणी के ध्यानों का उल्लेख है और "दीघनिकाय" के ब्रह्मजालसूत्त' से प्रकट है कि गौतम बुद्ध से पहले ऐसे साध थे जो ध्यान और विचार द्वारा मनुष्य के पूर्वभवों को बतलाया करते थे। जैनशास्त्रों में ऋपभादि प्रत्येक तीर्थडर के शिप्यसमदाय में ठीक ऐसे साधुनों का वर्णन मिलता है तथापि उपनषिदों में जनों के 'शुक्लध्यान' का उल्लेख मिलता है, यह पहले ही लिखा जा चुका है। अत: यह स्पष्ट है जैनसाधु एक अतीव प्राचीनकाल से ध्यान और योग का अभ्यास करते आये हैं। तथा मल्ल, मल्ल, लिच्छवि, ज्ञात् प्रादि व्रात्य क्षत्रिय प्राय: जैन थे। अन्यत्र यह सिद्ध किया जा चुका है कि "व्रात्य" क्षत्रिय बहत कर के जैन थे और उनमें के ज्येष्ठ नात्य सिवाय 'दिगंबरमुनि के' और कोई न थे। इस अवस्थाम सिंधुदेश के उपरोक्त कालवों मनष्यों का प्राचीन जैन ऋषियों का भक्त होना बहुत कुछ संभव है। किन्तु मोहन जोदरो से जो मूर्तियां मिली हैं वह वस्त्र संयुक्त हैं और उन्हें विद्वान् लोग 'पुजारी' (Priest) व्रात्यों का मूर्तियां अनुमान करते हैं। हमारे विकारसे वे होन-व्रात्य (अलावती पावकों की मतियां हैं। व्रात्य-साधकी मूति वह हो नहीं सकती; क्योंकि उसे शास्त्र में नग्न प्रगट किया गया है। वहां जोष्ठयात्य' का एक विशेषण 'समनिचमेद्र' अर्थात् 'पुरुषलिंग' से रहित' दिया हुआ है जो नग्नता का द्योतक है। हीनद्रात्यों की पोशाक के वर्णन में कहा गया है कि वे एक पगड़ी (नियन्नद्ध), एक लाल कपड़ा और एक चांदी का आभूषण 'नश्क' नामक
उक्त मतिकी पोशाक भी इसी ढंग की है। माथे पर एक पट्ट रूप पगड़ी जिसके बीच में एक आभूषण जड़ा है, वह पहने हये प्रगट है और वगल से निकला हुमा एक छीटदार कपड़ा वह ओढ़े हुये है । इस अवस्था में इन मूर्तियों को हीनतात्यों
मातियां मामना ही ठीक है और इस तरह पर यह सिद्ध है कि व्रात्य-क्षत्रिय एक अतीव प्राचीनकाल में अवश्य ही एक वेद-विरोधी संप्रदाय था; जिसमें ज्येष्टवात्य दिगम्बर मुनि के अनुरूप थे। अतः प्रकारान्तर से भारत का सिंघदेशवर्ती सर्वप्राचीन पुरातत्व भी दिगंबर मुनि और उनकी योगमुद्रा का पोषक है।
अशोक के शासन लेख में निर्गन्ध सिंधदेश के पूरातत्व के उपरान्त सम्राट अशोक द्वारा निर्मित पुरातत्व ही सर्व प्राचीन है। वह पुरातत्त्व भी दिगम्बर मनियों के अस्तित्व का द्योतक है । सम्राट अशोक ने अपने एक शासन लेख में आजीविका साधुओं के साथ निग्रंथ साघुओं का भी उल्लेख किया है।
१. Ibid pp. 25-34
२. Ibid. pp. 25-26 ४. वीर बर्ष ४ पु० २६६
३. JBORS. ५. PTS. 17, 287 ६. भमः , पृ० २१--२२० ७. भपा०, प्रस्तावना पृ० ४४-४५
८. SPCIV., Plate 1, Fig, 'b' E. SPCTV. pp. 25-33 में मोहन जोनरो की मूर्तियों को जिन मूतियों के समान और उनका पूर्ववर्ती टाइप प्रकट किया
गया है। १०. स्थंभलेख नं.
७२०