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इस प्रकार संसार में जो सभ्यता पुज रही है उसकी यह स्पष्ट घोषणा है कि मनुष्य जाति को स्वस्थ रखने के लिये वस्त्रों की तिलाञ्जलि देनी पड़ेगी। नग्नता रोगियों के लिये ही केवल एक महान पौषधि नहीं है, बल्कि स्वस्थ जीवों के लिए भी अत्यन्त आवश्यक है ! स्विटजरलैंड के नगर लेयसन (Leysen) निवासी डा रोलियर (Dr. Rollier) ने केवल नग्नचिकित्सा द्वारा ही अनेक रोगियों को मारोग्यता प्रदान कर जगत में हलचल मचा दी है। उनकी चिकित्सा-प्रणाली का मुख्य अङ्ग हैं स्वच्छ वायु अथवा धूप में नंगे रहना, नंगे टहलना और नंगे दौड़ना । जगत् विख्यात् ग्रन्थ 'इनसाइक्लोपीडिया बिटेनिका' में नग्नता का बड़ा भारी महत्त्व वर्णित है। वास्तव में डाक्टरों का यह कहना कि जबसे मनुष्य जाति वस्त्रों के लपेट में लिपटी है तबसे ही सर्दी, जुकाम, क्षय, प्रादि रोगों का प्रादुर्भाव हा है, कुछ सत्य-सा-प्रतीत होता है । प्राचीनकाल में लोग नगे रहने का महत्व जानते थे और दीर्घजीवी होते थे। ।
किन्तु दिगम्बरत्व स्वास्थ्य के साथ-साथ सदाचार का भी पोषक है। इस बात को भी आधुनिक विद्वानों ने अपने अनुभव से स्पष्ट कर दिया है। इस विषय में श्री प्रोलिवर हर्ट सा० "The New Statesman and Nation" नामक पत्रिका में प्रकट करते हैं कि "अन्ततः अब समाज बाईबिल के पहिले अध्याय के महत्व को (जिसमें आदम और हव्वा के नंगे रहने का जिकर है) समझने लगी है और नग्नता का भय अथवा झूठी लज्जा मन से दूर होती जा रही है । जर्मनी भर में बीसों ऐसी सोसाइटियां कायम हो गई हैं जिनमें मनुष्य पूर्ण नग्नावस्था में स्वच्छ वायु का उपयोग करते हए नाना प्रकार के खेल खेलते हैं। वे लोग नग्न रहना प्राकृतिक, पवित्र और सरल समझते हैं । शताब्दियों से जिसके लिये उद्यम हो रहा था, वह यही पवित्रता का आन्दोलन है। यह पवित्रता कसी है ? इसको स्वयं उसके निवास स्थान गेलैन्ड (Gelande) के देखने से जाना जा सकता है, जबकि वहां पर सैकड़ों स्त्री-पुरुष, बालक-बालिकायें प्रानन्दमय स्वाधीनता का उपभोग करते दृष्टिगत हों! ऐसे दृश्य के देखने से मन पर क्या असर पड़ता है, वह बताया नहीं जा सकता ! जिस प्रकार कोई मैला-कुचला आदमी स्नान करके स्वच्छ दिखाई दे, ठीक उसी तरह यह दृश्य सर्व प्रकार के सूक्ष्म अन्तरंग-विषां से शून्य दिखाई पडगा। ऐसे पवित्र मानवों के सामने जो वस्त्रधारी होगा वह लज्जा को प्राप्त हो जायगा। ऐसे प्रानन्दमय वातावरण में...."ताजी हवा और धूप का जो प्रभाव शरीर पर पड़ता है उसको सर्वसाधारण अच्छी तरह जान सकते हैं, परन्तु जो मानसिक तथा प्रात्मीक लाभ होता है, वह विचार के बाहर है। यह क्रांति दिनों दिन बढ़ रही है और कभी अवनत नहीं हो सकती । मानवों को उन्नति के लिये यह सर्वोत्कृष्ट भट जर्मनी संसार को देगा, जैसे उसने प्रापेक्षिक-सिद्धांत उसे अर्पण किया है। बलिन में जो अभी इन सोसाइटियों की सभा हुई थी उसमें भिन्न-भिन्न नगरों के ३००० सदस्य शरीक हुए थे। उसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों और राष्ट्रीय कौन्सिल के मेम्बरों ने अपनीअपनी स्त्रियों के साथ देखा था। उन स्त्रियों के भाव उसे देखकर बिलकूल बदल गये । नग्नता का विरोध करने के लिए कोई हेतु नहीं है, जिस पर मह टिक सके। जो इसका विरोध करता है, वह स्वयं अपने भावों को गन्दगी प्रगट करता है। किन्तु यदि वह इन लोगों के निवास स्थान को गौर से देखे तो उसे अपना विरोध छोड़ देना होगा । वह देखेगा कि सैकड़ों स्त्री-पुरुपों-माता, पिता और बच्चों ने कैसी पवित्रता प्राप्त कर ली है।
अतएव पाश्चात्य विद्वानों की अनुभव-पूर्ण गवेषणा से दिगम्बरत्व स्पष्ट है। दिगम्बरत्व मनुष्य की प्रादर्श स्थिति है और यह धर्म-मार्ग में उपादेय है, यह पहले भी लिखा जा चुका है। स्वास्थ्य और सदाचार के पोषक नियम का वैज्ञानिक धर्म में आदर होना स्वाभाविक है । जैन धर्म एक धर्म विज्ञान है और वह दिगम्बरत्व के सिद्धांत का प्रचारक अनादि से रहा है । उसके साध इस प्राकृतवेष में शीलधर्म के उत्कट पालक और प्रचारक तथा इंद्रियजयो योगो रहे हैं, जिनके संमुख सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य और सिकन्दर महान् जसे शासक नतमस्तक हुये थे और जिन्होंने सदा ही लोक का कल्याण किया, ऐसे ही दिगंबर मुनियों के संसर्ग में पाये हुये अथवा मुनि धर्म से परिचित अाधुनिक विद्वान भी आज इन तपोधन दिगंबर मनियों के चारित्र से अत्यन्त प्रभावित हये हैं। वे उन्हें राष्ट्र की बहुमूल्य वस्तु समझते हैं। देखिये साहित्याचार्य श्री कन्नोमल जी एम० ए० जज उनके विषय में लिखते हैं कि "मैं जैन नहीं हूँ, पर मुझ जैन साधुनों और गृहस्थों से मिलने का बहुत अवसर मिला है। जैन साधुओं के विषय में मैं बिना किसी संकोच के कह सकता हूं कि उनमें शायद ही कोई ऐसा साधु हो, जो अपने प्राचीन पवित्र आदर्श से गिरा हो । मैंने तो जितने साधु देखे उनसे मिलने पर चित्त में यही प्रभाव पड़ा कि वे धर्म, त्याग, अहिंसा तथा सदुपदेश की मूर्ति हैं। उनसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता होती है"। बंगाली विद्वान् श्री वरदाकान्त मुख्योपाध्याय एम० ए० इस
१. दि. मुनि भूमिका, पृ. 'ख' २. जमि०, वर्ष ३२ १० ७१२ ३. दिमु०, पृ० २३
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