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धर्म फल कर पित्र माता, पुत्र तीर्थकर लहै । धर्मसों भव कर्म छुट, धर्म शिवपदवी गहैं ।। यह जान भविजन धर्म घर, दृढ़ धर्म सुपथहि ठानिये। करि "नवलशाह" प्रणाम नितप्रति, धरम हित जग जानिये ॥२३२॥
दोहा
महिमा गर्भ कल्याण की, को वुध वरनहि आप। कह्या सकल संक्षेप कर, जिनवाणी परताप ।।२३३॥ वीर धीर गम्भीर प्रति, वीर कर्म अरि जीत । वीर सुभट गुणवीर है, बीर सुगुण धर प्रीत॥२३४॥
स्मरण रहे वि श्रेष्ठ धर्म के पालन करने से अच्युतेन्द्र का देव सुख के समस्त साधनों का उपभोग कर तीर्थकर पद को प्राप्त किया। ऐसा जानकर हे भव्य पुरुषों ! यदि तुम मुख प्राप्त करना चाहते हो तो वीतराग भगवान के आदेश के अनुसार श्रेष्ठ धर्म का विधिवत पालन करो।
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