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पद्धडि छन्द
श्रीवत्स शंख स्वस्तिक सरोज, वर शंख चक्र दल नील बोज । सरवर तुरंग ध्वज चमर छत्र, तोरन गाँपद अरु श्रातपत्र || १६|| नरनारी सागर कामधेन पर धनुष वच कमला सुन वह कल्पवृक्ष कच्छप सुगंग, भू महल वैन वीणा मृदंग || १७|| केहरी कलश पुनि वृषभ श्वेत, कपि गरुड मीन माला सुहेत । अंकुश पाटंवर रतनदीप, सोवण वीजना ग्रहि समीप ।। १८ ।। राज भवन पतिय सुर विमान, सिद्धारथ जम्बू बृक्षमान चूड़ामणि शारद गिरि सुमेर, भेंडा वराह मृग महिप फेर ||१६|| पतिग्रह भूषण से ही अजंग गु जान, शुभ साल येत कुल वसान रवि शशि आदिक नवग्रह सहेत, तीस नखत नवनिधि समेत ॥२०॥
दोहा
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प्रमुख हि लक्षण ठौर भ्रष्टोत्तर शत प्रमिति इति, नव सय व्यंजन और ||२१|| सुरनर लखह न किद्ध । शक इष्ट प्रथमहि लहै, सो लक्षण सुप्रसिद्ध ||२२|| दाहिन पद शोमंत लक्षण केहरि हरिसुपर सो जय जय जयवंत ||२३||
चौपाई
सौम्य कान्ति दो प्रभु अंग, कनकवरन सम दीप्ति अभंग कला, ज्ञान, चातुर्य विवेक, धर्म विचार करें प्रभु टेक जब प्रभु आठ कर के भये, श्रावक व्रत द्वादश परणये । वीरनाथ प्रभु वालकुमार, धीर वीर शूरा बगवार देव सहित प्रभू जाइट धान, इमली सोमे तिहि धान देव विषयामय जब करो, अतिशय मत मतंग तन घरी गज यावत यो जनराय, भय बिन परिसियो छिन पाय तव कुटुम्ब मिलि अरु सब देव, थति प्रारंभ करो प्रभु सेब इन धीरज सम को जगमाहि, अचरजयान भये सब ताहि तुम स्वामी त्रिजगत घर धीर, कर्म शत्रु के हंता वीर तुमरो नाम सुमिर अब हरे, सुर यहमिन्द्र सुवत विस्तरं
कच देव पर जब कथा परस्पर भास ||२४|| मसी शुद्ध शाम संचर, क्षायिक सम्यक् चादरें ||२५|| नर सुर सभा मध्य जिमिभान, अद्भुत वीरज परम प्रधान ॥२६॥ | दिव्य रूप गुणगणहि सुधार, कीडावृति करे अधिकार ||२७|| वालक रूप देख मितमात पीछे घर वाले प्रभु साथ ||२६|| दूर पलाइ गये जन सबै भय प्रातुर देखो वह तबै ||२६|| प्रभु निरास निःशंक प्रधान, गज धारूढ़ भये उद्यान ||१०|| तीन जगत जिय तृणवत सबै महाबली जिन देखे अब ||३१|| प्रभु के गुण को अपरंपार या कह कह हरये परिवार ||३२|| । तुमरी चुति के तेज
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प्रताप छिप चन्द्र सूरज किरणाय ||३३|| नमो दिव्यमूरति प्रभु तोय, नमीं दिव्य भर्ता अचलोय ||३४||
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प्रातिहार्य मंगल दरव, परं केवल दृष्टि ते वर्धमान भगवान के.
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सोधर्मइने मोतियों की माला और चन्दन से युक्त बजश को हाथ में लिया और कल्पवासी देव जय जय शब्द करते हुए कल्याणक सम्बन्धी कार्य करने लगे। इन्द्राणी देवियां भी कार्य करने में संलग्न हो गयीं। उनके हर्षका पारावार नहीं था। स्वय भगवान का शरीर स्वभावसे ही पवित्र है । उनका लोहूका रंग दूधके सदृश हैं। प्रतएव उनके लिए क्षीर समुद्र के जल के अतिरिक्त और कोई व स्पर्श करना ठीक नहीं। ऐसा सोचकर वे देवगण पर्वत से लेकर समुद्र तक कतारें बांस कर बड़े हो गये। उस समय इन्द्र ने जिनेन्द्र को स्नान कराने के लिये उस माठ योजन गहरे और एक योजना मुलबारी मोतियों के हार से सुशोभित ऐसे सुवर्ण-मय कलश को पकड़ने के उद्देश्य से दिव्य आभूषणों से युक्त हजार भुजायें बना लीं। उस समय इन्द्र की शोभा देखने लायक मी एक सह हाथों से एक हजार कलशों को लिए हुए इन्द्र ऐसा प्रतीत होता था मानो वह भाजनांग जातिका कहपवृक्ष ही हो सौधर्म इन्द्र ने जय जय शब्द का गंभीर उच्चारण करते हुए भगवान के मस्तक पर बड़ी मोटी जल धारा छोड़ी और भी देव उस समय जय हो, हमारी रक्षा करो आदि घोष करने लगे। उनके गम्भीर शब्दों से पर्वत राज पर बड़ा कोलाहल मचा । दूसरे देवेन्द्र भी सौधर्म के साथ भगवान के मस्तक पर गंगाकी तीव्र प्रवाहित धारा के सदृश जलधारा छोड़ने लगे।
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वह जल धारा बड़ी तीव्र गति से भगवान के मस्तक पर पड़ने लगी। वह घारा यदि दूसरे पहाड़ों पर पड़े तो उसके
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