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आगा
एमअनमो नमो निम्मलदंसणस्स गम आगम पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर-गुरुभ्यो नमः
(भाग
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
आगम ४२ “दशवैकालिक” मूलं एवं वृत्ति:
मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब अभिनव-संकलनकर्ता :- आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि
पूज्य शासनप्रभावक आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से
'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
OFITE OFF OED
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श्री आगम मंदिर
पालिताणा
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मराज आचममा
नमो नमो निम्मलदसणस्स
सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि
मूल संशोधक
अभिनव-संकलनकर्ता
।
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महायज
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि]
प्रत-प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका
मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 19825306275
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आजम
MIGHT
आजम उगम
GININ
HIPITA
आगम आजम आजग आगार
आगम आगम आगम
SROCHE & STITH B
आजम
अभागन आजम
Went Insign
आजम
Jake Hire
म आजमान
आजम आणम आजम
आगम
FOCUS
आगम
Hem & Hone's Hous
राजम आराम आगम आगम
रागम
शाम
BRIGINA
BRINTER 30-11 आजम SHOT
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आगम
राम
वाचना शताब्दी वर्ष म
आश्रम आवार
There's Share
आजम आगम
BATSAR
आलम
CRISTA- आगम
RICH
Imple
आन्म
AUSTL
SPISTET
STOICE
आजम
आजम
Hanes dread & Wong many have many many more m
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[भाग-३४] श्री दशवैकालिक (मूलसूत्रम्-3)
नमो नमो निम्मलदसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम:
"दशवैकालिक" मूलं एवं वृत्ति: [मूलं + नियुक्ति: + (भाष्यगाथा) + हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः]
[आद्य संपादकश्री] पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.
(किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि)
28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५
'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-34
श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट'
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सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र - मेधावी, समाधिमृत्यु प्राप्त, बहुमुखी प्रतिभाधारक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
• जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक् श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह - ममत्व के त्याग के द्वारा कायोत्सर्ग नामक अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है फ़िर भी • गुरुभक्ति बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है |
"
* चारित्र ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ़ कर्मों का प्रभाव मानकर अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, व्याकरण - न्याय - साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए।
• एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हुए सिर्फ अकेले ही "जैन आगम - शास्त्रों को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक • हस्तप्रतो से शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और निर्युक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस पत्थर के ऊपर ये सभी आगम साहित्य को कंडारा सूरतमें ताम्रपत्र पर भी अंकित करवाए और
,
• "आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए । वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | * सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, निर्युक्ति, अवचूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की । कितने ही ग्रंथो की प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक् श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की ।
* ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया । राजाओं को प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य- संरक्षण, तिथि प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईंओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था |
* सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ८७० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये |
....ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"....
———.
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.. मुनि दीपरत्नसागर...
......
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संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
:
... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी , जो एक | पून्यवान् आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या ! शिष्यो कि संख्या बढ़ती चली, बढ़ते हुए पुन्य के । • साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की: प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का । स्वीकार किया | खुद भी संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे।
... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेल दिखाए । एक और भी अनसरणीय बात उन के जीवन में देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. | कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि : | आराधना कभी नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही |
रटण बारबार चालु हो गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनु शरण' इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे : | समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना |
... मुनि दीपरत्नसागर... | ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ।। पूज्य आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य , शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजय-गिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां : |४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्षों के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो द्वारा रचित समवसरण | के शास्त्र वर्णन-अनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है । ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है।
- मुनि दीपरत्नसागर... - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .
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___ 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब
पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय' के सुचारु संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये "सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण द्रव्यराशि प्राप्त हुई, उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन-अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं
समय मिलने पर शास्त्र-वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर : का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे-छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के | पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हए अपनी मेधावी बुद्धि का : परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से पुजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हुए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है ।
.. मुनि दीपरत्नसागर
[कात्रजपूना, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यास, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब
(एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र
परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब
इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ :-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..-..
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-1, मूलं -], नियुक्ति: [-], भाष्या-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
NARNARWARIAMARNAMAG
SANNANTARIANAANANARIAAWARAANAANAANANAANANANAe
श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ४७.
श्रीमच्छय्यम्भवसूरीश्वरसूत्रितं धर्मतो याकिनीपुत्रश्रीमद्धरिभद्रसूरिवरशिष्यबोधिनीसंज्ञक विवरणयुतं श्रीदशवकालिकसूत्रम् ।
mas
प्रसिद्धिकारकः शाह-नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी, अस्यैकः कार्यवाहकः ।
NAAMANARMANANNARNA
-reso---
इदं पुस्तकं मुम्बय्यां-शाह नगीनभाई घेलाभाई जव्हेरी, ४२६ जव्हेरी बाजार इत्यनेन निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभादवीभ्यां २३ तमे आलये रामचन्द्र येसू शेडगे द्वारा मुद्रयित्वा प्रकाशितम् ।
वीरसंवत् २४४. विक्रमसंवत् १९०४. (पण्यं सार्धं रुप्यकवयम्) काट १९१८. प्रतयः १०... JUMUNUNUA MANUNUNUNNARUMMUM
दशवैकालिक सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज"
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५१४
मूलाङ्का: २१+५१५ दशवैकालिक मूल-सूत्रस्य विषयानुक्रम
दीप-अनुक्रमा:५४० मूलांक: अध्ययन | पृष्ठांकः | | मूलांक | अध्ययन पृष्ठांक: | | मलांक अध्ययन पृष्ठांक: ००१ १-द्रमपुष्पिका
०५१ २२६ ६-महाचारकथा ३९२
९/३- उद्देशक -३ ००६ २-श्रामण्यपूर्वक
२९४ ७-वाक्यशुद्धिः
४२५
९/४- उद्देशक -४ ५२१ ०१७ ३-क्षुल्लकाचारकथा ३५१ ८-आचारप्रणिधी ४५८
|१०-- सभिक्षुः
५२७ |४-षडजीवनिकाया | २५० ।। ४१५ |९-विनयसमाधि: ४८९
चूलिका |५-पिन्डैषणा
३३२ | ९/१- उद्देशक -१ ४९५ ।। |१-रतिवाक्यं
५४९ | ५/१- उद्देशक- १ ३३६
|९/२- उद्देशक -२
५०३ ।। २-विविक्तचर्या ५६६ |५/२ उद्देशक- २ ३७४
उपसंहार-नियुक्ति: ५७८
१७५ २१०
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४२] मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[दशवैकालिक- मूलं एवं वृत्तिः ] इस प्रकाशन की विकास- गाथा
यह प्रत सबसे पहले “दशवैकालिक सूत्र” के नामसे सन १९९८ (विक्रम संवत १९७४) में देवचन्द्र लालभाइ पुस्तकोद्धार संस्था द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब |
इसी प्रत को फिर अपने नामसे 'जिनशासन आराधना ट्रस्ट' की तरफ से आचार्य श्री हेमचन्द्रसूरिजीने छपवाई, जिसमें उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के ऊपर अपना नाम एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. यह स्पष्ट रूपसे एक प्रकारसे अदत्तादान ही है, ऐसी अनेक प्रतो के अगले दो पेज पलटकर या नए डालकर उन्होंने अपने नामसे छपवाई है, इस तरह वो अपने आपको बड़ा आगम संरक्षक साबित करनेकी अनुचित चेष्टा कर चुके है।
इसी दशवैकालिक-सूत्र की प्रत को ऑफसेट की मदद से दुसरोने भी भी प्रकाशित करवाई है, किसीने पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराजश्री का नाम बड़ी इज्जत के साथ अपनी जगह पे ही रखा है, और खुदका नाम पुनः संपादक रूप से पेश किया है तो किसीने अपना नाम आगे कर दिया है और पूज्य सागरानंदसूरीश्वरजीका नाम गौण कर दिया है या उड़ा दिया है ।
* हमारा ये प्रयास क्यों ? * आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५ आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्यश्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर अध्ययन--मूलसूत्र - निर्युक्ति-भाष्य आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा अध्ययन, सूत्र, निर्युक्ति, भाष्य आदि चल रहे है उसका सरलतासे ज्ञान हो शके । बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके । हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशन और क्रमशः आगे बढते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ | |- || ऐसी दो लाइन खींची या 'गाथा' शब्द लिखा है। हर पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट दी है ।
क
शासनप्रभावक पूज्य आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी म०सा० की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक -आगम- सुत्ताणि भाग ३४ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है |
.... मुनि दीपरत्नसागर.
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-1/गाथा ||-II, नियुक्ति: [-], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४२श,मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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श्रेष्ठिदेवचन्द्रलालभाइ-जैनघुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः
॥अहम् ॥ श्रीमद्भद्रबाहुविरचितनियुक्तियुतं । श्रीमच्छय्यम्भवसूरिवर्यविहितं । श्रीहरिभद्रसूरिकृतबृहवृत्तियुतं । श्रीदशवैकालिकम् ।
ॐॐॐE
जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् । विमलनासविरहितस्बिलोकचिन्तामणिर्वीरः ॥ १॥ इहार्थतोऽर्हत्मणीतस्य सूत्रतो गणधरोपनिबद्धपूर्वगतोद्धृतस्य शारीरमानसादिकटुकदुःखसंतानविनाशहेतोदेशकालिकाभिधानस्य शास्त्रस्यातिसूक्ष्ममहार्यगोचरस्य व्याख्या प्रस्तूयते-तत्र प्रस्तुतार्थप्रचिकटविषयैवेष्ट-12 देवतानमस्कारद्वारेणाशेषविविनायकापोहसमर्थी परममङ्गलालयामिमा प्रतिज्ञागाधामाह नियुक्तिकार:
JaElications
वृत्तिकार-कृत् मंगलम् एवं सूत्र-प्रस्तावना
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
___ अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
मङ्गलम्
दशवैका
- सिद्धिगइमुवगयाणं कम्मविसुद्धाण सव्वसिद्धाणं । नमिऊणं दसकालियणिजुति कित्तइस्सामि ॥ १॥ हारि-वृत्तिः
व्याख्या-सिद्धिगतिमुपगतेभ्यो नत्वा दशकालिकनियुक्ति कीर्तयिष्यामीति क्रिया । तत्र सिद्ध्यन्ति-नि॥१॥ ष्ठितार्था भवन्त्यस्यामिति सिद्धिः-लोकाग्रक्षेत्रलक्षणा, तथा चोक्तम्-इह बॉदि चइत्सा ण, तस्थ गंतूण दसिज्झई" । गम्यत इति गतिः, कर्मसाधनः सिद्धिरेव गम्यमानत्वाद्गतिः सिद्धिगतिस्तामुप-सामीप्येन गताः
प्राप्तास्तेभ्यः, सकललोकान्तक्षेत्रप्राप्तेभ्य इत्यर्थः, प्राकृतशैल्या चतुथ्यर्थे षष्ठी, यथोक्तम्-“छट्ठीविभत्तीऍ भपणइ चउत्थी' । तत्र एकेन्द्रियाः पृथिव्यादयः सकर्मका अपि तदुपगमनमात्रमधिकृत्य यथोक्तखरूपा भवत्यत आह-'कर्मविशुद्धेभ्यः' क्रियते इति कर्म-ज्ञानावरणीयादिलक्षणं तेन विशुद्धा-वियुक्ताः कर्मविशुद्धाःकर्मकलङ्करहिता इत्यर्थः, तेभ्यः कर्मविशुद्धेभ्यः । आह-एवं तर्हि वक्तव्यं, न सिद्धिगतिमुपगतेभ्यः, अव्यभिचारात्, तथाहि-कर्मविशुद्धाः सिद्धिगतिमुपगता एव भवन्ति, न, अनियतक्षेत्रविभागोपगतसिद्धपतिपादनपरदुर्नयनिरासार्थत्वावस्य, तथा चाहुरेके-"रागादिवासनामुक्तं, चित्तमेव निरामयम् । सदानियतदेशस्थं, सिद्ध इत्यभिधीयते ॥१॥” इत्यलं प्रसङ्गेन । ते च तीर्थादिसिद्धभेदादनेकप्रकारा भवन्ति, तथा चोक्तम्-"तित्थसिद्धा अतित्थसिद्धा तित्थगरसिद्धा अतित्वगरसिद्धा सयंबुद्धसिद्धा पत्तेयबुद्धसिद्धा बु
१ह बोग्दि खक्त्वा तन्त्र गत्वा सिध्यति. २ पाटी विभक्त्या भव्यते चतुर्थी. तीर्थसिद्धा अतीसियाः तीर्थंकरसिद्धा अतीर्थकरसिद्धाः खयंयुद्धसिद्धाः। प्रत्येकयुद्धसिद्धाः तुमबोधितसियाः त्रीलिदगसिद्धाः पुरुषलिकासिद्धा मपुंसकलिङ्ग सिद्धाः खलिङ्गसिद्धा अन्यलिम सिखा रहिलिश सिद्धा एकसिद्धा अनेकसिद्धाः।
JamEdicination
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
R
योहियसिद्धा इत्थीलिंगसिद्धा पुरिसलिंगसिद्धा नपुंसगलिंगसिद्धा सलिंगसिद्धा अन्नलिंगसिद्धा गिहिलिंगसिद्धा एगसिद्धा अणेगसिद्धा" इत्यत आह-'सर्वसिद्धेश्यः सर्वे च ते सिद्धाश्चेति समासस्तेभ्यः, अ-12 थवा-सिद्धिगतिमुपगतेभ्यः' इत्यनेन सर्वथा सर्वगतात्मसिद्धपक्षप्रतिपादनपरदुर्नयस्य व्यवच्छेदमाह, तथा|
चोक्तमधिकृतनयमतानुसारिभिः- "गुणसत्त्वान्तरज्ञानानिवृत्तप्रकृतिक्रियाः । मुक्ताः सर्वत्र तिष्ठन्ति, व्यो-मा ६ मवत्तापवर्जिताः॥१॥" व्यवच्छेदश्चतेषां सामीप्येन सर्वात्मना सिद्धिगतिगमनाभावात्, 'कर्मविशुद्धेश्या' दाइत्यनेन तु सकर्मकाणिमादिविचित्रैश्वर्यवत्सिद्धप्रतिपादनपरस्येति, उक्तं च प्रक्रान्तनयदर्शनाभिनिविष्टे:
"अणिमाद्यष्टविधं प्राप्यैश्वर्यं कृतिनः सदा । मोदन्ते सर्वभावज्ञास्तीर्णाः परमदुस्तरम् ॥१॥” इत्यादि, व्यवच्छेदश्चैतेषां कर्मसंयोगेन अनिष्ठितार्थत्वाद्वस्तुतः सिद्धत्वानुपपत्तेरिति, 'सर्वसिद्धेभ्यः' इत्यनेन तु भङ्गधैव सर्वथा अद्वैतपक्षसिद्धप्रतिपादनपरस्येति, तथा चोक्तं प्रस्तुतनयाभिप्रायमतावलम्बिभिः-"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ १॥” व्यवच्छेदश्चास्य सर्वथा अद्वैते बहु
वचनगर्भसर्वशब्दाभावात् [सिद्धिगतिगमनाभावात् ]। 'नत्वा' प्रणम्पेति, अनेन तु समानकर्तृकयोः पूर्वहै काले क्त्वाप्रत्ययविधानान्नित्यानित्यैकान्तवादासाधुत्वमाह, तत्र क्वाप्रत्ययार्थानुपपत्तेः, तत्र नित्यैकान्तवादे वातावदात्मन एकान्तनित्यत्वादपच्युतानुत्पन्नस्थिरैकस्वभावत्वाद्भिन्नकालक्रियाद्वयकर्तृत्वानुपपत्तेः, क्षणिकैका
१ गुणाः सत्वरजस्तमोरूपाः सत्वमात्मा तोरन्तर विशेष इति वि. प.
ESS
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
___ अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
मङ्गलत्रयम्
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॥२॥
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दशवैकान्तवादे चात्मन उत्पत्तिव्यतिरेकेण व्यापाराभावाद्भिन्नकालक्रियाद्वयकर्तृत्वानुपपत्तिरेवेत्यलं विस्तरेण, गम-3 हारि-वृत्तिः निकामात्रमेवैतदिति । भवति च चतुर्थ्यप्येवं नमनक्रियायोगे, अधिकृतगाथासूत्रान्यथानुपपत्ते, आप्तश्च ।
नियुक्तिकारः, 'पित्रे सवित्रे च सदा नमामी'त्येवमादिविचित्रप्रयोगदर्शनाच, कर्मणि वा षष्ठी । सर्वसिद्धेभ्यो। मत्त्वा किमित्याह-'दशकालिकनियुक्ति कीर्तयिष्यामि तत्र कालेन निर्वृत्तं कालिक, प्रमाणकालेनेति भावः, दशाध्ययनभेदात्मकत्वाद्दशप्रकारं कालिकं प्रकारशब्दलोपाइशकालिकं, विशब्दार्थ तूत्तरत्र व्याख्यास्यामः, तत्र नियुक्तिरिति-नियुक्तानामेव सूत्रार्थानां युक्ति:-परिपाट्या योजनं नियुक्तयुक्तिरिति वाच्ये युक्तशब्दलोपानियुक्तिस्तां-विप्रकीर्णायोजनां व्याख्यास्यामि कीर्तयिष्यामीति गाथार्थः ॥ शास्त्राणि चादिमध्यावसानमङ्गलभाति भवन्तीत्यत आह
आइमज्यवसाणे काउं मंगलपरिग्रहं विहिणा । व्याख्या-शास्त्रस्यादौ-प्रारम्भे मध्ये-मध्यविभागे अवसाने-पर्यन्ते, किं-कृत्वा मङ्गलपरिग्रहम् , कथम् । -'विधिना' प्रवचनोक्तेन प्रकारेण, आह-किमर्थ मङ्गलत्रयपरिकल्पनम् ? इति, उच्यते, इहादिमङ्गलपरिग्रहः सकलविमापोहेनाभिलषितशास्त्रार्थपारगमना), तत्स्थिरीकरणार्थं च मध्यमङ्गलपरिग्रहः, तस्यैव शिष्यमशिष्यसन्तानाव्यवच्छेदायावसानमङ्गलपरिग्रह इति । अत्र चाक्षेपपरिहारावावश्यकविशेषविचरणादवसेयौ इति । सामान्यतस्तु सकलमपीदं शास्त्रं मङ्गलं, निर्जरार्धत्वात्तपोवत्, न चासिद्धो हेतुः, यतो वचनविज्ञान
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॥२॥
आदि-मध्य-अवसान मंगलवयं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
ॐॐॐ
रूपं शास्त्र, ज्ञानस्य च निर्जरार्थता प्रतिपादितैव, यत उक्तम्-"ज रहओ कम्मं खवेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं । तं नाणी तिहि गुत्तो खवेइ ऊसासमेत्तेणं ॥१॥" इत्यादि । इह चादिमङ्गलं द्रुमपुष्पिकाध्ययनादि, धर्मप्रशंसाप्रतिपादकत्वातंत्खरूपत्वादिति, मध्यमङ्गलं तु धर्मार्थकामाध्ययनादि, प्रपञ्चाचारकथाद्यभिधायकत्वात्, चरममङ्गलं तु भिक्ष्वध्ययनादि, भिक्षुगुणायवलम्बनत्वादित्येवमध्यपनविभागतो मगलत्रयविभागो निदर्शिता, अधुना सूत्रविभागेन निदश्यते-तत्र चादिमङ्गलम् 'धम्मो मंगल' इत्यादिसूत्रं, धर्मोपलक्षितखात्, तस्य च मङ्गलत्वादिति, मध्यममङ्गलं पुनः 'णाणदसणे'त्यादि सूत्र, ज्ञानोपलक्षितत्वात् , तस्य च मङ्गलस्वादिति, अवसानमङ्गलं तु 'णिक्खम्ममाणा इय' इत्यादि, भिक्षुगुणस्थिरीकरणार्थ विविक्तचर्याभिधायकत्वात्, भिक्षुगुणानां च मङ्गलस्वादिति । आह-मङ्गलमिति कः शब्दार्थः, उच्यते, 'अगिरगिलगिवगिम-1 गीति' दण्डकधातुः, अस्य "इदितो नुम् धातो" (पा०७-१-५८) रिति नुमि विहिते औणादिकालचूप्रत्ययान्तस्य अनुवन्धलोपे कृते प्रथमैकवचनान्तस्य मङ्गलमितिरूपं भवति । मङ्गयते हितमनेनेति मङ्गलं, मन्यते-- धिगम्यते साध्यत इतियावत्, अथवा मङ्ग इति धर्माभिधानं, 'ला आदाने अस्य धातोर्मले उपपदे "आतोऽ नुपसर्गे का" (पा०३-२-३) इति कमत्ययान्तस्यानुबन्धलोपे कृते "आतोलोपइटिच" (पा०६-४-६४) कृिति इत्यनेन सूत्रेणाकारलोपे च कृते प्रथमैकवचनान्तस्यैव मङ्गलमिति भवति, मलातीति मङ्गलं, धर्मोपादान
१यौरविकः कर्म क्षपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । तरज्ञानी त्रिभितः क्षपयत्युच्छ्रासमात्रेण ॥१॥२ मालखरूपत्वात् वि. प. ३ करणभिक्षु प्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
___ अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [२], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
क
तेऽनुयो
दशवैका हेतुरित्यर्थः, अथवा मां गालयति भवादिति मङ्गलं, संसारादपनयतीत्यर्थः । तच्च नामादि चतुर्विधं, तद्यथा- मङ्गलहारि-वृत्तिः नाममङ्गलं स्थापनामहलं द्रव्यमङ्गलं भावमङ्गलं चेति, एतेषां च स्वरूपमावश्यकविशेषविवरणादवसेयमिति निक्षेपः श्रु
दि अमुमेव गाथार्थमुपसंहरन्नाह नियुक्तिकार:॥३॥ नामाइमंगलंपिय चउब्विहं पनवेऊणं ॥२॥
गाः ४ व्याख्या-नामादिमङ्गलं चतुर्विधमपि प्रज्ञाप्य' प्ररूप्येति गाथार्थः ॥ तत्र समानकर्तृकयोः पूर्वकाले क्त्वानत्ययविधानात् प्रज्ञाप्य किमत आह
. सुयनाणे अणुओगेणाहिगयं सो चउन्विहो होइ । चरणकरणाणुओगे धम्मे गणिए (काले) य दविए य ॥ ३॥ 181 व्याख्या-श्रुतं च तदू ज्ञानं च श्रुतज्ञानं तस्मिन् श्रुतज्ञाने अनुयोगेनाधिकृतम्, अनुयोगेनाधिकार इत्यर्थः,
इयमत्र भावना-भावमङ्गलाधिकारे श्रुतज्ञानेनाधिकारः, तथा चोक्तम्-"एत्थं पुण अहिगारो सुयणाणेणं जओ सुएणं तु । सेसाणमप्पणोऽविय अणुओगु पईवदिलुतो ॥१॥” तस्य चोद्देशादयः प्रवर्त्तन्ते इति, उक्तं च-"सुअणाणस्स उद्देसो समुद्देसो अणुन्ना अणुओगो पवत्तई” तत्रादावेवोद्दिष्टस्य समुद्दिष्टस्य समनुज्ञा-15 तस्य च सतः अनुयोगो भवतीत्यतो नियुक्तिकारेणाभ्यधायि 'श्रुतज्ञानेऽनुयोगेनाधिकृत'मिति । 'स'अनुयोग-14 १ अत्र पुनरधिकारा भुतहानेन यतः श्रुतेनैव । शेषाणामारमनोऽपि च अनुयोगः प्रदीपदृष्टान्तः (न्तात् ॥1॥२ भुतज्ञान उदेशः समरेशः अनुहाटी
॥ ३॥ अनुयोगः प्रयतैते.
RECORDSCAMSCASSES
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अनुयोगस्य चतुर्विधत्वं वर्णयते
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
_ अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
ऐश्चतुर्विधो भवति, कथम्?-'चरणकरणानुयोग' चर्यत इति चरण-व्रतादि, यथोक्तम्-"वय संमणधम्मसंजम
वेपावचं च बंभगुत्तीओ। णाणादितियं तव कोहनिग्गहाई चरणमेयं ॥१॥" क्रियते इति करणं-पिण्डवि
शुद्धयादि, उक्तं च-"पिंडबिसोही समिई भावणे पडिमी य इंदियंनिरोहो । पडिलेहंण गुत्तीओ अभिग्गेहा ६ चेव करणं तु ॥१॥" चरणकरणयोरनुयोगश्चरणकरणानुयोगः, अनुरूपो योगोऽनुयोगः-सूत्रस्यार्थेन सार्द्ध-18
मनुरूपः सम्बन्धो, व्याख्यानमित्यर्थः, एकारान्तः शब्दः प्राकृतशैल्या प्रथमा[द्वितीयान्तोऽपि द्रष्टव्यः, यथा "कयरे आगच्छह दित्तरूवे" इत्यादि, 'धर्म' इति धर्मकथानुयोगः, 'काले' चेति कालानुयोगश्च गणितानुयोगश्चेत्यर्थः, 'द्रव्ये चेति द्रव्यानुयोगश्च । तत्र कालिकश्रुतं चरणकरणानुयोगा, ऋषिभाषितान्युत्तराध्ययनादीनि धर्मकथानुयोगः, सूर्यप्रज्ञप्यादीनि गणितानुयोगः, दृष्टिवादस्तु द्रव्यानुयोग इति, उक्तं च-"कालियसुअंच इसिभासियाइ तइया य सूरपन्नत्ती। सव्वोय दिहिवाओ चउत्थओ होइ अणुओगो॥१॥” इति गाथार्थः॥ इह चार्थतोऽनुयोगो द्विधा-अपृथक्त्वानुयोगः पृथक्त्वानुयोगच, तत्रापृथक्त्वानुयोगो यबैकस्मिन्नेव सूत्रे सर्व एव चरणादयः प्ररूप्यन्ते, अनन्तगमपर्यायत्वात्सूत्रस्थ, पृथक्त्वानुयोगश्च यत्र कचित्सूत्रे चरणकरणमेव क
तानि श्रमणधर्मः संयमो वैयावत्य च महायुतयः । ज्ञानादित्रयं तपः क्रोधनिग्रहादि चरणमेतत् ॥१॥ २ पिण्डविशुद्धिः समितया भावनाः प्रतिमाष इन्द्रियनिरोधः । प्रतिलेखना गुप्तयः अभिग्रहाव करणं तु ॥१॥ ३ कतर आगच्छति दीप्तरूपा, ४ कातिकश्रुतं च ऋषिभाषितानि तृतीया (गणितानुयोममयी) व सूर्यप्रज्ञप्तिः । सर्वश्च दृष्टिवादश्चतुर्थों भवखनुयोगः ॥१॥
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अनुक्रम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य |+ अध्ययनं [–], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [३], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥४॥
Ja Education
चित्पुनर्धर्मकथैवेत्यादि, अनयोश्च वक्तव्यता 'जावंत अज्जवइरा अछुतं कालियाणुओगस्स । तेणारेण पुहु कालियसुय दिट्टिवाए य ॥ १ ॥ इत्यादेर्ग्रन्थादावश्यकविशेषविवरणाच्चावसेयेति ॥ इह पुनः पृथक्त्वानुयोगेनाधिकारः, तथा चाह नियुक्तिकार:
अपुताई निदिसि एत्थ होइ अहिगारो चरणकरणाणुओगेण तस्स द्वारा इमे हुंति ॥ ४ ॥
व्याख्या- 'अष्टथक्त्व पृथक्त्वे' लेशतो निर्दिष्टस्वरूपे निर्दिश्य 'अ' प्रक्रमे भवत्यधिकारः, केन ? - 'चरणकरणानुयोगेन' 'तस्य' चरणकरणानुयोगस्य 'द्वाराणि' प्रवेशमुखानि 'अमूनि' वक्ष्यमाणलक्षणानि भवन्तीति गाथार्थः ॥
+ वृत्ति:)
निखेवेगवनिरुत्तविही पवित्तीय केण वा कैस्स ? । तदारभेयलक्खेण तयरिपरिसा य सुत्तत्य ॥ ५ ॥
व्याख्या - अस्याः प्रपञ्चार्थः आवश्यकविशेषविवरणादवसेयः, स्थानाशून्पार्थं तु सङ्क्षेपार्थः प्रतिपाद्यत इति, 'णिक्खेव'त्ति अनुयोगस्य निक्षेपः कार्यः, तद्यथा-नामानुयोग इत्यादि, 'एगहत्ति' तस्यैव एकार्थिकानि वतव्यानि तद्यथा - अनुयोगो नियोग इत्यादि, 'निरुत्तन्ति तस्यैव निरुक्तं वक्तव्यम्, अनुयोजनमनुयोगः अनुरूपो वा योग इत्यादि, 'विहि'त्ति तस्यैव विधिर्वक्तव्यो वक्तुः श्रोतुश्च तत्र वक्तुः 'सुतत्थो खलु पढमो
२ सूत्रार्थः ख प्रथमो द्वितीयो
१ यावदार्यया अष्टथक्त्वं कालिकानुयोगस्य । ततोऽर्वाक् (तत आरात् ) पृथक्त्वं कालिकते दृष्टिवादे च ॥ १ ॥ निर्मुक्ति मिथितो मणितः । तृतीयच निरवशेष एष विभिर्भवति अनुयोगे ॥ १ ॥
For & Personal Use City
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अनुयोगविधिद्वाराणि ११
॥ ४ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
दीप
बीओ णिज्जुत्तिमीसिओ भणिओ । तइओ य निरवसेसो एस विही होइ अणुओगे ॥१॥" श्रोतुश्चायम्"मूयं हुंकारं वा वाढक्कार पडिपुच्छ वीमंसा। तत्तो पसंगपारायणं च परिनिट्ट सत्तमए ॥१॥" 'पवित्ती यत्ति अनुयोगस्य प्रवृत्तिश्च वक्तव्या, सा चतुर्भङ्गानुसारेण विज्ञेया, उक्तं च-"णिचं गुरू पमाई सीसा य गुरूण
सीसगा तह य । अपमाइ गुरू सीसा पमाइणो दोवि अपमाई ॥१॥ पंढमे नस्थि पवित्ती बीए तइए य आणस्थि थोवं वा । अस्थि चउत्थि पवित्ती एत्थं गोणी दिटुंतो॥२॥ अप्पण्डया उ गोणी व य दोद्धा स
मुजओ दोढुं । खीरस्स कओ पसवो? जइवि य बहुखीरदा साउ ॥३॥बितिएंवि पत्थि खीरं थोवं तह विजए व तइएवि । अत्थि चउत्थे खीरं एसुवमा आयरियसीसे ॥४॥ गोणिसरिच्छो उ गुरू दोहा इव
साहुणो समक्खाया। खीरं अस्थपवित्ती नत्थि तहिं पढमबितिएम ॥५॥ अहवा अणिच्छमार्ण अवि किंलाचि उ जोगिणो पवतंति । तइए सारतमी होज पवित्ती गुणिसे वा॥६॥ अपमाई जत्थ गुरू सीसाविय
१मूकं हुशार या बादकार प्रतिपूछा विमर्शः । ततः प्रसपारायणं परिनिष्ठा च सप्तमके ॥१॥ २ बकल्या प्र. ३ निबं गुयः प्रमादी शिष्या गुरुः न शिष्याखथा । अप्रामादी गुरुः शिष्याः प्रमादिनो दुयेऽप्यप्रमादिनः ॥1॥ ४ प्रथमे मास्ति प्रवृत्तिक्तिीवे तृतीये च नास्ति सोका या । मस्ति चतुर्थे प्रवृत्तिरत्र गोयन्तः ॥ १॥ ५ अप्रस्तुता गौर च योग्या समुद्यतो दोग्धुम् । क्षीरस्य कुतः प्रसवो यद्यपि बहु क्षीरदा सातु॥1॥ द्वितीयेऽपि गाखि हीर खोकं 14 तथा विद्यते भवेद, वा तृतीयेऽपि । अस्ति चतुर्षे क्षीरनेषोपमानार्थशिष्ययोः ॥ ७ गोसशस्तु गुरुग्वेव साधवा समाख्याताः । क्षीरमर्थप्रवृत्तिनांसि तत्र प्रथमद्वितीययो॥1॥ अथवा अनिच्छन्तमपि किमित्त योगिनः प्रवर्तयन्ति । तृतीये सारयति भवेत् प्रवृत्तिर्गणिखे वा॥॥अप्रमादी यत्र गुरुः शिष्या अपि च विनयमहणसंयुक्ताः ।बाई तत्र प्रवृत्तिः क्षीरस्येव चरमभरे ॥१॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
___ अध्ययनं -], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका०विणयगहणसंजुत्ता । धणियं तत्थ पवित्ती खीरस्सव चरिमभंगमि ॥७॥" 'केण सि केनानुयोगः कर्त्तव्य इति [अनुयोगहारि-वृत्ति वक्तव्यं, तत्र य इत्थंभूत आचार्यस्तेन कर्त्तव्यः, तद्यथा-"देसकुलजाइरूबी संघयणधिइजुओ अणासंसी। अविकत्थणो अमाई थिरपरिवाडी गहिययको ॥१॥ जियपरिसो जियनिदो मज्झत्थो देसकालभावन्नू । आ
राणि ११ सन्नलद्धपइभो णाणाविहदेसभासन्नू ॥२॥ पंचविहे आयारे जुत्तो सुत्तत्थतदुभयविहिण्णू । आहरणहेउकारणणयनिउणो गाहणाकुसलो ॥ ३ ॥ ससमयपरसमयविऊ गंभीरो दित्तिमं सिवो सोमो । गुणसयकलिओ जग्गो पचयणसारं परिकहेउं ॥४॥” आसामर्थः कल्पादवसेयः, प्राथमिकदशकालिकव्याख्याने तु लेशत उच्यते-आर्यदेशोत्पन्नः सुखावयोधवाक्यो भवतीति देशग्रहणं, पैतृकं कुलं विशिष्टकुलोद्भवो यथोत्क्षिप्तभारवहने न श्राम्यति, मातृकी जातिः तत्सम्पन्नो विनयान्वितो भवति, रूपवानादेयवचनो भवति, आकृतौ च |गुणा वसन्ति, संहननधृतियुक्तो व्याख्यानतपोऽनुष्ठानादिषु न खेदं याति, अनाशंसी न श्रोतृभ्यो वस्त्राद्याकासति, अविकत्थनो बहुभाषी न भवति, अमायी न शाव्येन शिष्यान वायति, स्थिरपरिपाटी स्थिरपरि
चितग्रन्धस्य सूत्रं न गलति, गृहीतवाक्योऽप्रतिघातवचनो भवति, जितपरिषत् परप्रवादिक्षोभ्यो न भवति, द्रजितनिद्रोऽप्रमत्तस्वादू व्याख्यानरतिर्भवति प्रकामनिकामशायिनश्च शिष्याँश्चोदयति, मध्यस्थः संवादको
भवति, देशकालभावज्ञो देशादिगुणानवबुद्ध्याप्रतिबद्धो विहरति देशनां च करोति, आसन्नलब्धप्रतिभो
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
___ अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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माजात्युत्तरादिना निगृहीतः प्रत्युत्तरदानसमर्थों भवति, नानाविधदेशभाषाविधिज्ञो नानादेशजविनेयप्रत्याय
नसमर्थों भवति, ज्ञानादिपञ्चविधाचारयुक्तः श्रद्धेयवचनो भवति, सूत्रार्थोभयज्ञः सम्यगुत्सर्गापवादप्ररूपको दाभवति, उदाहरणहेतुकारणनयनिपुणस्तद्गम्यान भावान् सम्यक प्ररूपयति नागममात्रमेव, ग्राहणाकुशलः शिष्याननेकधा ग्राहयति, स्वसमयपरसमयवित् सुखं परमताक्षेपमुखेन स्खसमयं प्ररूपयति, गम्भीरो महत्यप्यकार्ये न रुष्यति, दीप्तिमान परमवादिक्षोभमुत्पादयति, शिवो मारिरोगाद्युपद्वविधातकृद् भवति, सौम्यः प्रशान्तदृष्टितया सकलजनप्रीत्युत्पादको भवति, इत्थंभूत एव गुणशतकलितो योग्यः प्रवचनम्-आगमस्तस्य सारस्तं कथयितुमिति, यतोऽसावनेकभव्यसत्त्वप्रबोधहेतुर्भवति, उक्तं च-"गुणसुटिअस्स वयणं घयमहुसित्तोव्व पावओ भाइ । गुणहीणस्स न सोहइ णेहविहीणो जह पईवो ॥१॥" तथा चान्येनाप्युक्तम्
क्षीरं भाजनसंस्थं न तथा वत्सस्य पुष्टिमावहति । आवल्गमानशिरसो यथा हि मातृस्तनास्पिवतः॥१॥ तद्वत्सुभाषितमयं क्षीरं दुःशीलभाजनगतं तु । न तथा पुष्टिं जनयति यथा हि गुणवन्मुखात्पीतम् ॥ २ ॥ शीतेऽपि यनलब्धो न सेव्यतेऽग्निर्यथा श्मशानस्थः । शीलविपन्नस्य वचः पथ्यमपि न गृह्यते तद्वत् ॥ ३ ॥ चारित्रेण विहीनः श्रुतवानपि नोपजीव्यते सद्धिः। शीतलजलपरिपूर्णः कुलजैश्चाण्डालकूप इव ॥४॥"क
न्यायसूत्रे पश्चमाभ्यायापालिके सविस्तर आतिखरूपम्. २°पि कार्वे. ३°तसमन्वितःप्र.४ गुणसुस्थितस्य चनं घृतमधुसिक्तः पावक इस भाति । गुणहीनस्य न शोभते नेहविहीनो यथा प्रदीपः ॥१॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
___ अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सत्रांक
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दशका०स्सत्ति कस्यानुयोग? इति वक्तव्यं, तत्र सकलश्रुतज्ञानस्याप्यनुयोगो भवति, अमुं पुनः प्रारम्भमाश्रित्य दश-दशबैकअहारि-वृत्तिः कालिकस्येति। अत्राह-ननु "दसकालियनिहुत्ति कीत्तइस्सामित्ति” अस्मादेव वचनतः प्रकृतद्वारार्थस्यावगत-ICI
नुयोगात्वात् तदुपन्यासोऽनर्थक इति, न, अधिकृतनिक्षेपादिद्वारकलापस्याशेषश्रुतस्कन्धविषयत्वात्, तहलेनैव च
रम्भः नियुक्तिकारेणापि तथोपन्यस्तत्वात्, अस्मादेव स्थानादन्यत्राप्यादौ शास्त्राभिधानपूर्वक उपन्यासः क्रियत
इति भावना । व्याख्यातं लेशतो नियुक्तिगाधादलं, पश्चाई त्वध्ययनाधिकारे यथाऽयसरं व्याख्यास्यामः, यत-| कस्तत्रैवोपक्रमाद्यनुयोगद्वारानुपूर्व्यादितङ्गेदसूत्रादिलक्षणतदर्हपर्षदादयश्च वक्तुं शक्यन्ते, नान्यत्र, निर्विषयट्रवादित्यलं प्रसङ्गेन । साम्प्रतं प्रकृतयोजनामेवोपदर्शयन्नाह नियुक्तिकार:
एयाइँ परूबे कप्पे वणियगुणेण गुरुणा उ । अणुओगो दसवेयालियरस विहिणा कहेयब्वो ॥६॥ व्याख्या-'एतानि' निक्षेपादिद्वाराणि 'प्ररूप्य' व्याख्याय कल्पे वर्णितगुणेन गुरुणा, षट्त्रिंशद्गुणसमन्विट्रातेनेत्यर्थः । अनुयोगो दशकालिकस्य विधिना' प्रवचनोक्तेन 'कथयितव्य' आख्यातव्य इति गाथार्थः॥सम्प्रत्यजानानः शिष्यः पृच्छति-यदि दशकालिकस्यानुयोगस्ततस्तद्दशकालिकं भदन्त ! किमङ्गमशानि? श्रुतस्कन्धः श्रुतस्कन्धाः? अध्ययनमध्ययनानि? उद्देशक उद्देशका? इत्यष्टौ प्रश्नाः, एतेषां मध्ये त्रयो विकल्पाः खल| प्रयुज्यन्ते, तद्यथा-दशकालिकं श्रुतस्कन्धः अध्ययनानि उद्देशकाश्चेति, यतश्चैवमतो दुशादीनां निक्षेपः कर्सव्या, तद्यथा-दशानां कालस्य श्रुतस्कन्धस्याध्ययनस्य उद्देशकस्य चेति, तथा चाह नियुक्तिकार:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ अध्ययनं [–], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [७], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
वृश. २
इसकालियंति नामं संखाए कालओ य निदेसो दसकालियसुअसंध अञ्झयणुद्देस निक्खिविडं ॥ ७ ॥
व्याख्या- 'दशकालिकं' प्राग्निरूपितशब्दार्थम् 'इति' एवंभूतं यत् 'नाम' अभिधानं इदं किम् ? - संख्यानं संख्या तया, तथा 'कालतश्च' कालेन चायं-- 'निर्देश:' निर्देशन निर्देशः, विशेषाभिधानमित्यर्थः, अस्य च नियन्धनं विशेषेण वक्ष्यामः 'मणगं पड़च' इत्यादिना ग्रन्थेन, यतश्चैवमतः 'दसकालियंति कालेन निर्वृत्तं कालिकं दशशब्दस्य कालशब्दस्य च निक्षेपः, निर्वृत्तार्थस्तु निक्षेपः, तथा श्रुतस्कन्धं तथाऽध्ययनं 'उद्देश' तदेकदेशभूतं किम् ? - निक्षेमनुयोगोऽस्य कर्त्तव्य इति गाथार्थः ॥ तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इति न्यायादधिकृत शास्त्राभिधानोपयोगित्वाच दशशब्दस्यैवादौ निक्षेपः प्रदर्श्यते-तत्र दशैकाद्यायत्ता वर्त्तन्ते, एकाद्यभावे दशानामप्यभावाद्, अत एकस्यैव तावन्निक्षेपप्रतिपिपादयिषयाऽऽह
uri aur दबिए माउयपयसंगकए चैव । पज्जवभावे य तहा सत्तेए एकगा होति ॥ ८ ॥
+ वृत्ति:)
व्याख्या-इहैक एब एककः, तत्र 'नामैककः' एक इति नाम 'स्थापनैकः' एक इति स्थापना, 'द्रव्यैकक' त्रिधा - सचितादि, तत्र सचित्तमेकं पुरुषद्रव्यं, अचित्तमेकं रूपकद्रव्यं, मिश्रं तदेव कटकादिभूषितं पुरुषद्रव्यमिति, 'मातृकापदैककम्' एकं मातृकापदं, तथथा - 'उपपन्ने इ वे' त्यादि, इह प्रवचने दृष्टिवादे समस्तनयवादबीजभूतानि मातृकापदानि भवन्ति, तथथा – “उप्पन्ने इ वा विगमे इ वा धुवे इ वा" अमूनि च (वा) मातृकापदानि "अ आ इ ई" इत्येवमादीनि, सकलशब्दव्यवहारव्यापकत्वान्मात कापदानि, इह चाभि
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
___ अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका धेयवल्लिङ्गवचनानि भवन्तीति कृत्वेत्थमुपन्यासः, 'सङ्ग्रहैकक' शालिरिति, अयमत्र भावार्थ:-सङ्ग्रहः-समु-११ दुमपुझरि-वृत्तिः दायः तमप्याश्रित्यैकवचनगर्भशब्दप्रवृत्तेः, तथा चैकोऽपि शालिः शालिरित्युच्यते बहवोऽपि शालयः शा-1 |पिका
लिरिति, लोके तथादर्शनात्, अयं चादिष्टानादिष्टभेदेन द्विधा-तत्रानादिष्टो यथा शालि:, आदिष्टो यथा एककनिकलमशालिरिति, एवमादिष्टानादिष्टभेदावुत्तरद्वारेष्वपि यथारूपमायोज्यो, 'पर्यायैकक' एक पर्यायः, प-14
यो विशेषो धर्म इत्यनान्तरं, स चानादिष्टो वर्णादिः आदिष्टः कृष्णादिरिति । अन्ये तु समस्तश्रुतस्कन्धवस्त्वपेक्षयेत्धं व्याचक्षते-अनादिष्टः श्रुतस्कन्धः आदिष्टो दशकालिकास्य इति, अन्यस्त्वनादिष्टो दशकालिकास्यः आदिष्टस्तु तदध्ययनविशेषो दुमपुष्पिकादिरिति व्याचष्टे, न चैतदतिचारु, दशकालिकाभिधानत एवादेशसिद्धेः । 'भावैकैक' एको भावः, स चानादिष्टो भाव इति, आदिष्टस्त्वौदयिकादिरिति ।
१ पदेष्वपि प्र०२ चूर्णी-अण्णाइई दसगालियं आइह दुमपुफिर्भ सामण्णश्वियं एवमादि. ३ उदश्यभावेदन दुबिई-अणाइई उदइओ भावो आइई पसत्वमएसाथं च, तत्थ पसत्येकगं तित्थगरनामगोत्तस्स कम्मस्स उदो एक्मादी, अपसत्येक कोहोदओ एवमादि । इयाणि उवसामयसइवसओयसमिया, ते तिमिणवि भावकगा पिच्छयणयस्त पसत्यगा चेच, एतेसि अपसत्यो पटिवक्लो त्थि, कन्हा ?, जम्हा मिच्छविहीर्ण केह कर्मसखीणा केइ उवसंता, खओवसमेष य काहाणबुद्धी पाडवाविष्णो गुणा संवापि तेसि बिपरीयगा हित्तणेणं उम्मत्तवयणमिच अप्पमाणं चेच, तम्हा उक्सामिनखइअखओक्समिया भावा सम्मद्दितिको चेव लामति ।
॥ ७॥ परिणामिअभावकगं दुविहं अण्णाइह परिणामिओ भावो, आइह दुविई-सादिपरिणामिएक्कगं च अप्पाइपरिणामिएक्कगं च, तत्थ साइपरिणामिएक्कर्म जहा कसायपरिणओ एवमादी, अपाइपरिणामिएक्कगं जहा जीवो जीनभावेण निश्चमेव परिणाओ। एत्य कवरेण एक्केग अहिगारो!, महियायरिओवएसेण-संगहेक्कगेण दत्तिलायरिभोवएसेण भावेक्कगेणं अहिगारो, दोणिवि एवे आएसा भविष्वा । इति चूर्णिः.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्ति: + अध्ययनं [–], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [८], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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सप्त एते अनन्तरोक्ता एकका भवन्ति, इह च किल यस्माद्दश पर्याया अध्ययनविशेषाः सङ्ग्रहैककेन संग्रहीतास्तस्मात्तेनाधिकारः, अन्ये तु व्याचक्षते यतः किल श्रुतज्ञानं क्षायोपशमिके भावे वर्त्तते तस्माद्भावेककेनाधिकार इति गाथार्थः ॥ इदानीं व्यादीन् विहाय दशशब्दस्यैव निक्षेपं प्रतिपादयन्नाह
णामं ठवणा दविए खित्ते काले तहेव भावे अ । एसो खलु निक्खेवो दसगस्स उ छब्बिहो होइ ॥ ९ ॥
व्याख्या-आह किमिति व्यादीन् विहाय दशशब्दः उपन्यस्तः १, उच्यते एतत्प्रतिपादनादेव यादीनां गम्यमानत्वात्, तत्र नामस्थापने सुगमे, द्रव्यदशकं दश द्रव्याणि सचित्ताचित्तमिश्राणि मनुष्यरूपककटकादिविभूषितानीति, क्षेत्रदशकं दश क्षेत्रप्रदेशाः, कालदशकं दश कालाः, वर्त्तनादिरूपत्वात्कालस्य दशावस्थाविशेषा इत्यर्थः वक्ष्यति च - 'बाला किड्डा मंदे' त्यादिना, भावदशकं दश भावाः, ते च सान्निपातिकभावे खरूपतो भावनीयाः अथ चैत (चैत) एव विवक्षया दशाध्ययनविशेषा इति, 'एष' एवंभूतः खलु 'निक्षेपों' न्यासो दशशब्दस्य बहुवचनान्तत्वादशानां षड़िधो भवति, तत्र खशब्दोऽवधारणार्थः, एष एव प्रक्रान्तोपयोगीति, तुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ? - नायं दशशब्दमात्रस्य, किन्तु तद्वाच्यस्यार्थस्यापीति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं प्रस्तुतोपयोगित्वात्कालस्य कालदशकद्वारे विशेषार्थप्रतिपिपादयिष वेदमाहबाला किडा मंदावला व पन्ना य हायणि पवंचा। पब्भार मम्मुही सायणी य दसमा उ कालसा ॥ १० ॥ व्याख्या वाला क्रीडा च मन्दा च वला (च) प्रज्ञा च हायिनी ईषत्प्रपञ्चा प्राग्भारा मृन्मुखी शायिनी
दश आदि शब्दस्य निक्षेपाः प्रदर्श्यते
+ वृत्ति:)
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः)
अध्ययनं [–], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [१०], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ ८ ॥
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तथा । एता हि दश दशाः - जन्त्ववस्थाविशेषलक्षणा भवन्ति । आसां च खरूपमिदमुक्तं पूर्वमुनिभिः- “जांयमित्तस्स जंतुस्स जा सा पढमिया दसा । ण तत्थ सुहदुक्खाई, बहुं जाणंति बालया ॥ १ ॥ विइयं च दसं पत्तो, णाणाकिड्डाहिं किड्डइ । न तत्थ कामभोगेहिं तिब्बा उप्पजाई मई ॥ २ ॥ तइयं च दसं पत्तो, पंच कामगुणे नरो । समत्थो भुंजिउ भोए, जइ से अस्थि घरे धुवा ॥ ३ ॥ चत्थी उबला नाम, जं नरो दसमस्सिओ। समत्यो बलं दरिसिउं, जइ होइ निरुवद्दवो ॥ ४ ॥ पंचमिं तु दसं पत्तो, आणुपुब्वीर जो नरो। इच्छियत्थं विचिंतेह, कुटुंबं वाऽभिखई ॥ ५ ॥ छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ विरज्जइ य कामेसु, इंदिएसु य हायई ॥ ६ ॥ सतमिं च दसं पत्तो, आणुपुवीह जो नरो। निहुहर चिकणं खेलं, खासइ य अभिक्खणं ||७|| संकुचियवलीचम्मो, संपत्तो अट्ठमिं दसं । णारीणमणभिप्पेओ, जराए परिणामिओ ||८|| पणवमी मम्मुही नाम, जं नरो दसमस्सिओ । जराघरे विणस्संतो, जीवो वसइ अकामओ ॥ ९ ॥ हीणभि
१ जातमात्रस्य जन्तोय सा प्रथमा दशा न तत्र सुखदुःखानि बहूनि जानन्ति बालकाः ॥ १ ॥ द्वितीयां च दश प्राप्तो नानाक्रीडाभिः क्रीडते न तत्र कामभोगेषु सीमोत्पयते मतिः ॥ २ ॥ सूतीयां च दशां प्राप्तः पञ्च कामगुणावर समर्थो भोक्तुं भोगान् यदि तस्य (सन्ति) रहे भुवाः ॥ ३ ॥ चतुर्थी तु बला नाम यां नरो दशामाजितः समर्थों व दर्शयितुं यदि भवति निषयः ॥ ४ ॥ एवमों तु दशां प्राप्त आनुपूय यो नः ईप्सितार्थं विचिन्तयति कुटुम्बं वाऽ निकाहुति ॥ ५ ॥ पीतु हायिनी नाम यां नरो दशामाश्रितः । विरज्यते च कामेभ्य इन्द्रियार्थेषु च हीयते ॥ ६ ॥ सप्तमीं च दशां प्राप्त आनुपूर्व्या यो नरः । निष्ठीवति चिक्कणं माणं कासति चाभीक्ष्णम् ॥ ७॥ सङ्कुचितपविर्मा सम्प्राप्तोऽष्टमी दशाम् नारीणामनभिप्रेतः जरया परिणामतः ॥ ८ ॥ नवमी सम्मुखी नाम यां नरो दशामाश्रितः। जरागृहे विनश्यन् जीवो वसत्यकामः ॥ ९ ॥ हीनमि
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१ दुमपु ष्पिकाध्य०
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [–], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [१०], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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सरो दीणो, बिवरीओ विचित्तओ । दुब्बलो दुक्खिओ सुबह, संपत्तो दसमिं दसं ॥ १० ॥" इत्यलं विस्तरेणेति गाथार्थः ॥ इदानीं कालनिक्षेपप्रतिपादनायाह
वे अ अहा उवकमे देसकालकाले य । तह य पमाणे वण्णे भावे परायं तु भावणं ॥ ११ ॥
व्याख्या- 'द्रव्य' इति वर्त्तनादिलक्षणो द्रव्यकालो वाच्यः, 'अद्वे'ति चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धवृतीयद्वीपसमुद्रान्तद्धा कालः समयादिलक्षणो वाच्यः, तथा 'यथायुष्ककालो' देवाचायुष्कलक्षणो वाच्यः, तथा 'उपक्रमकाल:' अभिप्रेतार्थसामीप्यानयनलक्षणः सामाचार्यायुष्कभेदभिन्नो वाच्यः, तथा देशकालो वाच्यः, देशः प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम्, ततश्चाभीष्टवस्त्ववात्यवसरः काल इत्यर्थः, तथा कालकालो वाच्यः, तत्रैकः कालशब्दः प्राग्निरूपितशब्दार्थ एव, द्वितीयस्तु सामयिकः, कालो मरणमु च्यते, मरणक्रियायाः कलनं काल इत्यर्थः चः समुचये, तथा 'प्रमाणकालः' अद्धाकालविशेषो दिवसादिलक्षणो वाच्यः, तथा वर्णकालो वाच्यः, वर्णश्वासौ कालश्चेति, 'भावेत्ति अधिकादिभावकालः सादिसपर्यवसा नादिभेदभिनो वाध्य इति । प्रकृतं तु 'भावेनेति भावकालेन, इह पुनर्दिवसप्रमाणकालेनाधिकारः, तत्रापि तृतीयपौरुष्या, तत्रापि यहतिक्रान्तयेति । आह-यदुक्तं- 'पगयं तु भावेणंति' तत्कथं न विरुध्यते इति ?, उच्यते, क्षायोपशमिकभावकाले शय्यम्भवेन निर्व्यूढं प्रमाणकाले चोक्तलक्षण इत्यविरोधः, अथवा प्रमाण१ असारो दोनो विपरीतो विचित्तकः । दुबैको दुःखितः खपिति संत्राप्तो दशमी दशाम् ॥ १० ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [११], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका कालोऽपि भावकाल एव, तस्याद्धाकालखरूपत्वात्, तस्य च भावत्वादिति गाथासमुदायार्थः ॥ अवयवा- १ दुमपुहारि-वृत्तिः |स्तु सामायिकविशेषविवरणादवसेयः । तथा चाह नियुक्तिकार:
Xपिकाध्य ___सामाइयअणुकमओ वण्णे विगयपोरिसीए ऊ । निजूढं किर सेजंभवेण दसकालियं तेणं ॥ १२ ॥
अभिधानव्याख्या-सामायिकम्-आवश्यकप्रथमाध्ययनं तस्यानुक्रमः-परिपाटीविशेष: सामायिके वाऽनुक्रमः सामायिकानुक्रमः ततः सामायिकानुक्रमत:-सामायिकानुक्रमेण वर्णयितुम् , अनन्तरोपन्यस्तगाथाद्वाराणीति प्रक्रमाद् गम्यते, विगतपौरुष्यामेव, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् , 'नियू' पूर्वगतादुदृत्य विरचितं, किलशब्दः परोक्षाप्तागमवादसंसूचकः शय्यम्भवेन चतुर्दशपूर्वविदा 'दशकालिक प्राग्निरूपिताक्षरा 'तेम' का-II
रणेनोच्यत इति गाथार्थः ॥ श्रुतस्कन्धयोस्तु निक्षेपश्चतुर्विधो द्रष्टव्यो यथाऽनुयोगद्वारेषु, स्थानाशून्यार्थ कि-13 कश्चिदुच्यते-इह नोआगमतः ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तं द्रव्यश्रुतं पुस्तकपत्रन्यस्तं, अथवा सूत्रमण्डजादि,
भावश्रुतं त्वागमतो ज्ञाता उपयुक्तः, नोआगमतस्त्विदमेव दशकालिकं, नोशब्दस्य देशवचनत्वात्, एवं नोआगमतो ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यस्कन्धः सचेतनादिः, तत्र सचित्तो द्विपदादिः, अचित्तो है द्विपदेशिकादिः, मिश्रा सेनादि(दे)र्देशादिरिति, तथा भावस्कन्धस्त्वागमतस्तदर्थोपयोगपरिणाम एव, नोआगमतस्तु दशकालिकश्रुतस्कन्ध एवेति, नोशन्दस्य देशवचनत्वादिति, इदानीमध्ययनोद्देशकन्यासप्रस्तावः,
॥ ९॥ १ कियारूपरवेन
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [१२], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दातं चानुयोगद्वारप्रक्रमायातं प्रत्यध्ययनं यथासम्भवमोघनिष्पन्ने निक्षेपे लाघवार्धं वक्ष्याम इति ॥ ततश्च य
दुक्तं-"दसकालिय सुअक्खधं अज्झयणुद्देस णिक्खिविउँ" अनुयोगोऽस्य कर्तव्य इति, तदंशतः सम्पा|दितमिति । साम्प्रतं प्रस्तुतशास्त्रसमुत्थवक्तव्यताभिधित्सयाह
जेण व जं व पडुमचा जत्तो जावंति जह य ते ठविया । सो तं च तो ताणि य तदा य कमसो कहेयव्वं ॥ १३ ॥ | व्याख्या-'येन वा' आचार्येण 'यद्वा' वस्तु प्रतीत्य' अङ्गीकृत्य 'यतो वा' आत्मप्रवादादिपूर्वतो 'यावन्ति वा' अध्ययनानि 'यथा च येन प्रकारेण 'तानि' अध्ययनानि 'स्थापितानि' न्यस्तानि, स च-आचार्यः तच्चवस्तु ततः-तस्मात्पूर्वात् तानि च-अध्ययनानि तथा च-तेनैव प्रकारेण 'क्रमशः' क्रमेणानुपूा 'कथयितव्यं प्रतिपादयितव्यमिति गाथासमासार्थः ॥ अवयवार्थ तु प्रतिद्वारं नियुक्तिकार एव यथाऽवसरं वक्ष्यति । तप्राधिकृतशास्त्रकर्तुः स्तवद्वारेणाद्यद्वारावयवार्थप्रतिपादनायाह
सेज्जंभवं गणधरं जिणपडिमाईसणेण पडिबुद्धं । मणगपिअरं दसकालियस्स निजूहगं वंदे ॥ १४ ॥ दारं ।। व्याख्या-सेजंभव मिति नाम 'गणधर मिति अनुत्तरज्ञानदर्शनादिधर्मगणं धारयतीति गणधरस्त, 'जिनप्रतिमादर्शनेन प्रतिबुद्धं तत्र रागद्वेषकषायेन्द्रियपरीषहोपसर्गादिजेतृत्वाजिनस्तस्य प्रतिमा-सद्भावस्थापनारूपा तस्या दर्शनमिति समासः, तेन-हेतुभूतेन, किम् ?–'प्रतिबुद्धं मिथ्यात्वाज्ञाननिद्रापगमेन सम्य
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका त्वविकाशं प्राप्त 'मनकपितर मिति भनकाख्यापत्यजनक 'दशकालिकस्य' प्राग्निरूपिताक्षरार्थस्य 'नियूहकी दुमपुहारि-वृत्तिः पूर्वगतोद्धृतार्थविरचनाकारं 'वन्दे स्तौमि इति गाथाक्षरार्थः ।। भावार्थः कथानकादवसेयः, तचेदम्-एत्य पिकाध्य
'ट्रबहमाणसामिस्स चरमतित्थगरस्स सीसो तित्वसामी सुहम्मो नाम गणधरो आसी, तस्सवि जंबणामो. येनेतिय॥१०॥ तस्सवि य पभवोत्ति, तस्सऽन्नया कयाइ पुष्वरत्तावरत्तम्मि चिंता समुप्पन्ना-को मे गणहरो होज्जत्ति ?, अ-1
वेतिद्वारे प्पणो गणे य संघे य सम्वओ उवओगो कओ, ण दीसइ कोइ अब्बोच्छित्तिकरो, ताहे गारत्येसु उवउत्तो,
शय्यम्भ४ उवओगे कए रायगिहे सेनंभवं माहणं जन्नं जयमाणं पासइ, ताहे राअगिह णगरं आगंतूणं संघाडयं वा-४
वकथा वारेइ-जन्नवाडगं गंतुं भिक्खट्ठा धम्मलाहेह, तत्थ तुन्भे अदिच्छाविजिहिह, ताहे तुम्भे भणिजह-"अहो कष्टं तत्त्वं न ज्ञायते” इति, तेओ गया सादु अदिच्छाविया अ, तेहिं भणिअं-'अहो कष्टं तत्वं न ज्ञायतें, तेण य सेजंभवेण दारमूलेठिएण तं वयणं सुअं, ताहे सो विचिंतेइ-एए उवसंता तवस्सिणो असचं ण
१अत्र वईमानस्वामिनश्चरमतीर्थकरस्य शिष्यः तीर्थखामी सुधर्मा नाम गणधर आसीत् , तस्यापि जम्बूनामा, तस्यापि च प्रभव इति, तस्यान्यदा कदा|चित्पूर्वरात्रापरराने चिन्ता समुत्पना को गणधरो भविष्यतीति ।, आत्मनो गणेच सके व सर्वतः उपयोगः कृतः, न दृश्यते कोऽपि अम्युरिछत्तिकर, तदा | खस्थेषूपयुका, उपयोगे ते राजगृहे शम्यम्भव ब्राह्मणं यां यजमानं पश्यति, तदा राजगृह नगरमागत्व सहाटकं (साधुयुग्मम् ) व्यापारयति यधपाटकं गत्वा
मिक्षार्थ धर्मलाभया, सत्र बुवां अपिल्सियेथे (निषेत्त्येचे) तदा युवा भणेतम्-ततो गती साधू अदित्सितौ (निषिद्धौ) च, ताभ्यां भनितम्-वेन च शम्यम्भवेन माद्वारमूले स्थितेन तवचनं श्रुतं, तदा स विचिन्तयति-एनौ उपशान्ती दुपखिनौ अम्रखं न न दानयोचरीभविष्यथः, वि. प. ३ निग्गया प्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [१४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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वयंतित्तिकाउं अज्झावगसगासं गंतुं भणइ-किं तत्तं ?, सो भणइ-वेदाः, ताहे सो असि कहिऊण भणइसीसं ते छिंदामि जइ मे तुम तत्तं न कहेसि, तओ अज्झावओ भणइ-पुण्णो मम समओ, भणियमेयं बेयत्ये-परं सीसच्छेए कहियवंति, संपयं कहयामि जं एत्य तत्तं, एतस्स जूवस्स हेढा सब्बरयणामयी पडिमा अरहओ सा धुव्वत्ति अरहओ धम्मो तत्तं, ताहे सो तस्स पाएसु पडिओ, सो य जन्नवाडओवक्खेवो तस्स चेव दिपणो, ताहे सो गंतूणं ते साहू गवेसमाणो गओ आयरियसगासं, आयरियं वंदित्ता साहुणो (य)| भणइ-मम धम्मं कहेह, ताहे आयरिया उवउत्ता-जहा इमो सोत्ति, ताहे आयरिएहिं साहुधम्मो कहिओ, संबुद्धो पब्वइओ सो, चउद्दसपुब्वी जाओ । जया य सो पव्वइओ तया य तस्स गुम्विणी महिला होत्था, तम्मि य पव्वइए लोगो णियल्लओ तंतमस्सति-जहा तरुणाए भत्ता पव्वइओ अपुत्ताए, अवि अस्थि तव
बदेतामितिकरवा अध्यापकराकाशं गरमा भणति-कि तत्वम् । स भगति-वेदाः, तदा सोनिका भणति-कीर्ष तव छिनधि यदि मयं तत्वं न कथयति, ततोऽध्यापको भणति-पूणों में समयः, भणितमेतद् वेदार्थ-परं शीर्षच्छेदे कथयितन्ममिति, साम्प्रतं कथयामि, पदन तत्पम्, एतस्य यूपस्याधस्वात् सर्वरसमयी प्रतिमा अर्हतः सा धुवेति माईतो धर्मस्तश्चम् , तदा स तस्य पादयोः पतितः, सच यशपाटकोपस्करः तस्मायेव दत्तः । तदा स गत्वा दी साधू गवेपयन् गत आचार्यसकाशम् , भाचार्य बन्दित्वा साधूंष भणति-मयं धर्म कथयत, तदा आचार्या उपयुका-यथाऽयं स इति । तदाऽऽचार्यः साधुधर्मः कथितः, संबुद्धः प्रबजितः, चतुर्दशपूर्वी जातः । यदा बस प्रवजितः तदा च तस्य गर्मिणी महिलाऽभवत्, तस्मिंश्च प्रबजिते लोको निनक आमन्दाति-यथा तरुणाया भर्ता मनजित्तोऽपुत्रायाः, अपि च अस्ति तब
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [-], उद्देशक [-] मूलं [-1, निर्युक्तिः [१४], आष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ ११ ॥
किंचि पोहेति पुच्छर, सा भणइ उवलक्खेमि मणगं, तओ समएण दारगो जाओ। ताहे णिव्वत्तवारसाहस्स नियलगेहिं जम्हा पुच्छिनंतीए मायाए से भणिअं 'मणगं'ति तम्हा मणओ से णामं कर्यति । जया सो अ| हवरिसो जाओ ताहे सो मातरं पुच्छर को मम पिआ ?, सा भणइ-तब पिआ पव्वइओ, ताहे सो दारओ नासिकणं पिउसगासं पट्टिओ । आयरिया य तं कालं चंपाए विहरंति, सोऽवि अ दारओ चंपयमेवागओ, आयरिएण य सण्णा भूमिं गएण सो दारओ दिट्ठो, दारपण वंदिओ आयरिओ, आयरियस्स य तं दारगं पिच्छंतस्स हो जाओ, तस्सवि दारगस्स तहेव, तओ आयरिएहिं पुच्छियं-भो दारगा! कुतो ते आगमणंति?, सो दारगो भणइ - रायगिहाओ, आयरिएण भणियं रायगिहे तुमं कस्स पुन्तो नत्तुओ वा ?, सो इ- सेज्भवो नाम वंभणो तस्साहं पुन्तो, सो य किर पव्वइओ, तेहिं भणियं तुमं केण कलेण आग -
भणइ
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१ किमि उदरे इति पृच्छति सा भणति-उपलक्षयामि मना, ततः समयेन दारको जातः। तदा निवृत्तद्वादशाहस्य निजः यस्मात् पृच्छयमानया मात्रा तस्य भणितं मनागिति तस्मात् मनकस्तस्य नाम कृतमिति । यदा सोऽष्टवर्षो जातस्तदा स मातरं पृच्छति को मे पिता ?, सा भगति-तब पिता प्रमजितः, तदा स दारकः नड्डा पितृसका प्रस्थितः, आचार्याथ तस्मिन् काले चम्पायां विहरन्ति, सोऽपि च चम्पामेागतः, आचार्येण व संज्ञा (बिहार) भूमिं गतेन स दारको दृष्टः, दारकेण वन्दित आचार्य, आवार्यस्य च तं दारकं प्रेक्षमाणस लेहो जातः, तस्यापि दारकस्य तथैव तत आयार्यैः पृष्ठः- भो दारक! कुतस्ते आगमनमि ति, स दारको भनति राजगृहात् आचार्येण भणितम् राजगृहे एवं कस्य पुत्रो नको वाई, स भणतिय्यम्भवो नाम ब्राह्मणः तस्याहं पुत्रः, स च किल प्रवजितः, तैर्भणितः त्वं फेन कार्येण आगतोऽसि ?,
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१ दुमपु
ष्पिकाध्य
श्रीशय्य
स्भवकथा
॥ ११ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः :+ भाष्य + + वृत्ति:) निर्युक्ति: [१४], भाष्यं [-]
अध्ययनं [–], उद्देशक [ - ], मूलं [ - ], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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ओसि१, सो भइ-अहंपि पव्वइस्सं, पच्छा सो दारओ भणड़-तं तुम्हे जाणह ?, आयरिया भणति -जाणेमो, तेण भणियं !-सो कहिंति ?, ते भांति सो मम मित्तो एगसरीरभूतो, पब्वयाहि तुमं मम सगासे, तेण भणियं एवं करोमि । तओ आयरिया आगंतुं पडिस्सए आलोअंति-सचित्तो पप्पन्नो, सो पव्वइओ, | पच्छा आयरिया उवउत्ता - केवतिकालं एस जीवदन्ति ?, णायं जावं छम्मासा, ताहे आयरियाणं बुद्धी समु पन्ना-इमस्स थोवगं आई, किं कायव्वंति ?, तं चउहसपुथ्वी कम्हिवि कारणे समुप्पन्ने णिज्जूहूति, दसपुब्बी पुण अपच्छिमो अवत्समेव णिज्जूहइ, ममंपि इमं कारणं समुप्पन्नं, तो अहमयि णिजूहामि, ताहे आदत्तो णिज्जूहिडं, ते उ णिज्जूहिजता वियाले णिज्जूढा थोवावसेसे दिवसे, तेण तं दसवेयालियं भणिजति" । अनेन च कथानकेन न केवलं 'येन वे'त्यस्यैव द्वारस्य भावार्थोऽभिहितः, किन्तु यद्वा प्रतीत्यैतस्यापीति, तथा चाह नियुक्तिकार:
१ स भगति - अहमपि प्रमजिष्यामि पश्चात् स दारको भणति तं पूर्व जानीथ, आचार्या भणन्ति जानीमः तेन भणितम्स कुत्रेति ते भणन्ति - स मम मित्रमेकशरीरभूतः प्रवज त्वं मम सकाशे, तेन भणितं एवं करोमि आचार्या आगत्य प्रतिश्रयं आढोचयन्ति - सचित्तः प्रत्युत्पन्नः ( सम्धः ), स प्रव जितः पचादाचार्या उपयुक्ताः कियन्तं कालमेष जीविष्यति ?, ज्ञातं यावत्यण्मासान् तदाचार्याणां बुद्धिः समुत्पन्ना - अस खोकमायुः, किं कर्त्तव्यमिति, तत् चतुर्दशपूर्वी कस्मिंश्चिदपि कारणे समुत्पन्ने उद्धरति, दशपूर्वी पुनरपश्चिमः अवश्यमेव उद्धरति ममापीदं कारणं समुत्पत्रं तस्मादहमपि उद्धरामि तदा आरत उद्ध तानि द्रियमाणानि विकाले उद्धृतानि स्तोकावशेषे दिवसे, तेन तदशवेकालिकं भण्यत इति, २ पूई उद्धरण इत्यागमिको धातुरिति न्यायसंग्रहः.
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दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ १२ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [–], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [१५], भाष्यं [-]
मण पष सेजंभवेण निज्जूहिया दसऽज्झयणा । वैयालिवाइ ठबिया तम्हा दसकालियं णामं ।। १५ ।। द्वारं ॥ व्याख्या -'मनकं प्रतीत्य' मनकाख्यमपत्यमाश्रित्य 'शय्यम्भवेन' आचार्येण 'निदान' पूर्वगतादुद्धृत्य विरचितानि 'दशाध्ययनानि' द्रुमपुष्पिकादीनि 'वैथालियाइ ठविपत्ति विगतः कालो विकालः चिकलने वा विकाल इति, विकालोऽसकलः खण्डश्चेत्यनर्थान्तरम्, तस्मिन् विकाले - अपराण्हे 'स्थापितानि' न्यस्तानि द्रुमपुष्पिकादीन्यध्ययनानि यतः तस्मादशकालिकं नाम, व्युत्पत्तिः पूर्ववत्, दशवैकालिकं वा, विकालेन निर्वृत्तम्, संकाशादिपाठाश्चातुरर्थिकष्टक (पा० ४-२-८०) तद्वितेष्वचामादे ( पा० ७-२-११७) रित्यादिष्टदेवैकालिकं, दशाध्ययननिर्माणं च तद्वैकालिकं च दशवैकालिकमिति गाथार्थः ॥ एवं येन वा यद्वा प्रतीत्येति व्याख्यातम् इदानीं यतो निर्व्यूढानीत्येतद् व्याचिख्यासुराह
आप्पवायव्वा निज्जूढा होइ धम्मपन्नची | कम्मप्पवायपुब्बा पिंडस्स उ एसणा तिविहा ॥ १६ ॥
पपुवा निज्जूढा होइ वकसुद्धी उ । अवसेसा मिळूढा नवमस्स उ तइयवत्थूओ ॥ ॥ १७ ॥ haste अ आएसो गणिपिङगाओ दुवालगाओ। एवं फिर मिळूढं मणगस्स अणुगट्टाए ॥ १८ ॥ व्याख्या - इहात्मप्रवादपूर्व - यत्रात्मनः संसारिमुक्तायनेकभेदभिन्नस्य प्रवदनमिति, तस्मान्निर्व्यूढा भवति धर्मप्रज्ञसिः, षड्जीवनिका इत्यर्थः, तथा कर्मप्रवादपूर्वात् किम् ? - पिण्डस्य तु एषणा त्रिविधा, निर्व्यूढेति ब
१] कुमुदादेराकृतिगणत्वात् युञ्छनिखादिना ठक्, संकाशादीति तु लेखकभ्रममूलः पाठस्तत्र व्यभावात् २ विकाले पठ्यते इति वैकालिकमिति चूर्णिः
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१ दुमपुष्पिकाध्य
यत उद्धारः
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दश. ३
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः
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अध्ययनं [–], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [१८], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
+ वृत्ति:)
:+ भाष्य +
र्त्तते, कर्मप्रवादपूर्व नाम-पत्र ज्ञानावरणीयादिकर्मणो निदानादिप्रवदनमिति तस्मात् किम् ? - पिण्डस्यैषणा त्रिविधा - गवेषणाग्रहणैषणाग्रा सैषणाभेदभिन्ना निर्व्यूढा, सा पुनस्तत्रामुना सम्बन्धेन पतति - आधाकर्मीपभोक्ता ज्ञानावरणीयादिकर्मप्रकृतीर्वभाति, उक्तं च "आहाकम्मं णं भुंजमाणे समणे अट्टकम्पपगडीओ बंध" इत्यादि, शुद्धपिण्डोपभोक्ता वा शुभा बनातीत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः, सत्यप्रवादपूर्वान्निर्व्यूढा भवति वाक्यशुद्धिस्तु तत्र सत्यप्रवादं नाम-यत्र जनपदसत्यादेः प्रवदनमिति, वाक्यशुद्धिर्नाम सप्तममध्ययनम्, 'अवशेषाणि' प्रथमद्वितीयादीनि निर्व्यूढानि नवमस्यैव प्रत्याख्यानपूर्वस्य तृतीयवस्तुन इति । द्विती योऽपि चादेशः 'आदेशो' विध्यन्तरं 'गणिपिटकाद्' आचार्य सर्वस्वाद् 'द्वादशाङ्गाद्' आचारादिलक्षणात् 'इदं' दशकालिकं, किलेति पूर्ववत्, निर्व्यूढमिति च, किमर्थम् ? 'मनकस्य' उक्तस्वरूपस्य अनुग्रहार्थमिति गाथात्र्यार्थः ॥ एवं यत इति व्याख्यातम्, अधुना यावन्तीत्येतत्प्रतिपाद्यते
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दुमपुफियाइया खलु दस अज्झयणा सभिक्खुयं जाव अहिगारेवि य एतो वोच्छं पत्तेयमेकेके ॥ १९ ॥ दारं ॥ व्याख्या - तत्र द्रुमपुष्पिकेति प्रथमाध्ययननाम, तदादीनि दशाध्ययनानि 'सभिक्खुयं जाव'त्ति समिवध्ययनं यावत्, खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-तदन्ये द्वे चूडे, यावन्तीति व्याख्यातं । यथा चेत्येतत्
१ आधाकमै भुजानः श्रमणः अष्टकर्मप्रकृती भाति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [१९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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अध्ययनााधिकाराः
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वशका पुनरधिकाराभिधानद्वारेणैव च व्याचिख्यासुः सम्बन्धकत्वेनेदं गाथादलमाह-अधिकारानपि चातो वक्ष्ये हारि-वृत्तिः प्रत्येकमेकैकस्मिन् अध्ययने, तत्रा अध्ययनपरिसमाप्तेर्योऽनुवर्तते सोऽधिकार इति गाथार्थः॥
पढमे धम्मपसंसा सो व इहेब जिणसासणम्मित्ति । बिदए धिइए सका कार्ड जे एस धम्मोक्ति ॥ २०॥ ॥१३॥
तहए आयारकहा उ खुड़िया आयसंजमोवाओ। तह जीवसंजमोऽवि य होइ चउत्थंमि अज्झवणे ॥२१॥ मिक्सविसोही तवसंजमस्स गुणकारिया उ पंचमए । छट्रे आयारकहा महई जोग्गा महयणस्स ॥ २२॥
वयणविभत्ती पुण सत्तमम्मि पणिहाणमहमे भणियं । णवमे विणओ दसमे समाणियं एस मिक्चुत्ति ॥ २३ ॥ व्याख्या-प्रथमाध्ययने कोर्थाधिकार इत्यत आह-'धर्मप्रशंसा' दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः दातस्य प्रशंसा-स्तवः सकलपुरुषार्थानामेव धर्मः प्रधानमित्येवंरूपा, तथाऽन्यैरप्युक्तम्-"धनदो धनार्थिनां|
मोक्ता, कामिनां सर्वकामदः । धर्म एवापवर्गस्य, पारम्पर्येण साधकः ॥१॥” इत्यादि । स चात्रैव-जिनशा-| 18सने धर्मो नान्यत्र, इहैव निरवद्यवृत्तिसद्भावाद, एतचोत्तरत्र न्यक्षेण वक्ष्यामः । धर्माभ्युपगमे च सत्यपि
मा भूवभिनवप्रवजितस्याधृतेः सम्मोह इत्यत्तस्तन्निराकरणाधिकारवदेव द्वितीयाध्ययनम्, आह च-द्विती-| येऽध्ययनेऽयमर्थाधिकार:-धृत्या हेतुभूतया शक्यते कर्तुम, 'जे' इति पूरणार्थों निपातः 'एष जैनो धर्म इति, | उक्तं च-"जस्स धिई तस्स तवो जस्स तवो तस्स सोग्गई सुलहा । जे अधितिमंत पुरिसा तवोचि खल
१ यस भूतिस्तस्य तपो यस्य तपास सुगतिः सुलभा । वेऽधृतिमन्तः पुष्पासापोऽपि स दुर्लभं तेषाम् ॥ १॥
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॥१३॥
दश अध्ययनस्य अर्थाधिकार: वर्णयते
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [२३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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व दुल्लहो तेसिं ॥१॥” सा पुनर्बुतिराचारे कार्या न त्वनाचारे इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव तृतीयाध्ययनम् , आह|
च-तृतीयेऽध्ययने कोऽर्थाधिकार इत्यत आह-आचारगोचरा कथा आचारकथा, सा चेहैवाणुविस्तरभेदात्, य(अत आह-क्षुल्लिका' लध्वी, सा च 'आत्मसंयमोपायः' संयमनं संयमः आत्मनः संयम आत्मसंयमस्तपाया, उक्तं च-"तस्यात्मा संयमो यो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः
॥” इति, स चाचार: पडूजीवनिकायगोचरः प्राय इत्यतश्चतुर्थेमध्ययनम्, अथवाऽऽत्मसंयमा-तवन्यजीवप-14 रिज्ञानपरिपालनमेव तत्त्वत इत्यतस्तदाधिकारवदेव चतुर्थमध्ययनम् , आह च-तथा जीवसंयमोऽपि च' भवति चतुर्थेऽध्ययनेाधिकार इति, अपिशब्दादात्मसंयमोऽपि तद्भावभाव्येव वर्तते, उक्तं च-"छसु जी-18 निकाएमुं, जे बुहे संजए सया । से चेव होइ विष्णेए, परमत्येण संजए ॥१॥” इत्यादि । एवमेव च धर्मः, स च देहे वस्थे सति सम्यक् पाल्यते, स चाहारमन्तरेण प्रायः खस्थो न भवति, स च सावधेतरभेद इत्यनवद्यो ग्राथ इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेव पञ्चममध्ययनमिति, आह च-'भिक्षाविशोधिस्तपःसंयमस्य गुणकारिकैव 3 पश्चमेऽध्ययनेऽर्थाधिकार' इति, तत्र भिक्षणं भिक्षा तस्याः विशोधिः-सावद्यपरिहारेणेतरस्वरूपकथनमित्यर्थः, तपाप्रधानः संयमस्तपःसंयमस्तस्य गुणकारिकैवेयं वर्तत इति, उक्तंच-से संजए समक्खाए, निरवजाहार में
१ पदल जीवनिकायेषु यो दुधः संयतः सदा । स चैव भवति विज्ञेयः परमायेंन संयतः ॥५॥ २ स संयतः समाश्यातो निरवद्याहार यो विद्वान् ।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [२३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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अध्ययनार्थाधिकाराः
दशवैकाजे विऊ । धम्मकायट्ठिए सम्म, सुहजोगाण साहए ॥१॥” इत्यादि । गोचरप्रविष्ठेन च सता वाचारं पृष्टेन हारि-वृत्तिः । तद्विदापि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्या, अपि तु आलये, गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्य- मतस्तदाधिकारवदेव षष्ठमध्ययनमिति, आह च-षष्ठेऽध्ययनेऽाधिकारः आचारकथा साऽपि महती,
न ॥१४॥
क्षल्लिका, 'योग्या' उचिता 'महाजनस्य' विशिष्टपरिषद इत्यर्थः, वक्ष्यति च-"गोअरग्गपविढे उन निसि-| एज कत्थई। कहं च न पबंधिजा चिद्वित्ताण व संजए ॥१॥" इत्यादि । आलयगतेनापि तेन गुरुणा (वा) वचनदोषगुणाभिज्ञेन निरवद्यवचसा कथयितव्य इत्यतस्तदर्थाधिकारचदेव सप्तममध्ययनमिति, आह च“वयणविभत्ती त्यादि, वचनस्य विभक्तिर्वचनविभक्तिः, विभजनं विभक्तिः-एवंभूतमनवद्यमित्थंभूतं च सावद्यमित्यर्थः, पुनःशब्दः शेषाध्ययनार्थाधिकारेभ्यः अस्याधिकृतार्थाधिकारस्य विशेषणार्थ इति सप्तमेध्ययनाधिकार इति, उक्तंच-"सावजणवजाणं चयणाणं जो ण याणइ विसेसं । वोत्तुं पि तस्स न खमं किमंग पुण देसणं कार्ड? ॥१॥” इत्यादि । तच निरवयं वचः आचारे प्रणिहितस्य भवति इत्यतस्तदर्थाधिकारवदेवाष्टममध्ययनमिति, आह च-प्रणिधानमष्टमेऽध्ययनेाधिकारखेन 'भणितम् उक्तम्, प्रणिधान नाम-विशिष्ट श्वेतोधर्म इति, उक्तंच-"पणिहाणरहियस्सेह, निरवलंपि भासियं । सावज्जतुलं बिन्नेयं, अ
धर्मकायस्थितः सम्यक् शुभयोगानां साधकः ॥१॥२ गोवरापप्रविष्टस्तु न निर्धादेव कुत्रचित् । कथा चन प्रबनीयात् स्थित्वा वा संयतः ॥१॥ ३ सावधानवयाना वचनामा यान जानाति विशषम् । पकुमाप तस्य नाह किमा पुनर्देशनो कर्तुम् ॥1॥४ प्रनिधानरहितस्येह निरवयमपि भाषितम् ।। सावद्यतुल्यं वियमध्यात्मस्थेनेह संवृतम् ॥ १॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [२३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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ज्झत्थेणेह संवुडं ॥ १॥” इत्यादि । आचारप्रणिहितश्च यथोचितविनयसम्पन्न एव भवतीत्यतस्तदर्थाधिकारशवदेव नवममध्ययनमिति, आह च-नवमेऽध्ययने विनयोऽर्थाधिकार' इति, उक्तं च-"आयारपणिहाणंमि,
से सम्मं वहई बुहे। णाणादीणं विणीए जे, मोक्खट्ठा णिबिगिच्छए ॥१॥” इत्यादि । एतेषु एव नवखध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यग भिक्षुरित्यनेन सम्बन्धेन सभिश्वध्ययनमिति, आह च-दशमेऽध्यमायने समाप्ति नीतमिदं साधुक्रियाभिधायक शास्त्रम् एतक्रियासमन्वित एव भिक्षुर्भवत्यत आह-एष भि
क्षुरिति गाथाचतुष्टयार्थः । स एवंगुणयुक्तोऽपि भिक्षुः कदाचित् कर्मपरतन्त्रत्वात्कर्मणश्च बलवा(चत्त्वाोत्सी-13 दादेत् ततस्तस्य स्थिरीकरणं कर्त्तव्यमतस्तदर्थाधिकारवदेव चूडायमित्याह
दो अजायणा चूलिय विसीययंते थिरीकरणमेगं । विइए विवित्तचरिया असीयणगुणाइरेगफला ॥ २४ ॥ व्याख्या-द्वे अध्ययने, किम् ?-चूडा चूडेव चूडा, तत्र प्रमादशाद्विषीदति सति साधौ संयमे स्थिरीकरणम् 'एक' प्रथम स्थिरीकरणफलमित्यर्थः, तथा च तत्रावधावनप्रेक्षिणः साधोः दुष्पजीवित्वनरकपातादयो दोषा वपर्यन्त इति । तथा च द्वितीयेऽध्ययने विविक्तचर्या वर्ण्यते, किंभूता?-'असीदनगुणातिरेकफला' तत्र विविक्तचर्या एकान्तचर्या-द्रव्यक्षेत्रकालभावेष्वसम्बद्धता, उपलक्षणं चैषानिपतचर्यादीनामिति, असीदन|गुणातिरेक: फलं यस्याः सा तथाविधेति गाथार्थः॥
१माचारप्रणिधाने स सम्यक् वर्तते बुधः । ज्ञानादिषु विनीतो यो मोक्षार्थ निर्षिचिकित्सः ॥१॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [२५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सबैका इसकालिअस्स एसो पिंडत्थो वणिो समासेणं । एत्तो एकेक पुण अज्झयणं कित्तइस्सामि ॥ २५॥
ओषादिहारि-वृत्ति व्याख्या-'दशकालिकस्य' प्राग्निरूपितशब्दार्थस्य एषः' अनन्तरोदितः 'पिण्डार्थ' सामान्यार्थो 'वर्णितः।
निक्षेपाः ॥१५॥ प्रतिपादितः 'समासेन' संक्षेपेण, अतः ऊर्वं पुनरेकैकमध्ययनं 'कीर्तयिष्यामि' प्रतिपादयिष्यामीति, पुन:
शब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाधार्थ: ।। तत्र प्रथमाध्ययनं दुमपुष्पिका, अस्य च चत्वायनुयोगद्वाराणि र
भवन्ति, तद्यथा-उपक्रमो निक्षेपोऽनुगमो नया, एषां चतुणोंमप्यनुयोगद्वाराणामध्ययनादावुपन्यासः तत्थं | काच क्रमोपन्यासे प्रयोजनमावश्यकविशेषविवरणादवसेयं स्वरूपं च प्रायश इति । प्रकृताध्ययनस्य च शास्त्रीटूयोपक्रमे आनुपूर्व्यादिभेदेषु स्वबुद्ध्याऽवतारः कार्यः, अर्थाधिकारश्च वक्तव्याः, तथा चाह नियुक्तिकार:
___ पढमज्झयणं दुमपुष्फियंति चत्तारि तस्स दाराई । वण्णेऽवकमाई धम्मपसंसाइ अहिगारो ॥ २६ ॥ | व्याख्या-प्रथमाध्ययनं द्रुमपुष्पिकेति, अस्य नामनिष्पन्ननिक्षेपावसर एव शब्दार्थ वक्ष्यामा, चत्वारि तस्य | 'द्वाराणि' अनुयोगद्वाराणि, किम् ?-वर्णयित्वोपक्रमादीनीति, किम् ?-धर्मप्रशंसयाऽधिकारो वाच्य इति गाथार्थः ॥ तथा निक्षेपः, स च त्रिविधः, तद्यथा-ओघनिष्पन्नो नामनिष्पन्न: सूत्रालापकनिष्पन्नति, तत्रीघ:सामान्यं श्रुताभिधानम्, तथा चाह नियुक्तिकारः
* ॥ १५॥ ओहो जं सामन्नं सुभाभिहाण पउन्विहं तं च । अज्झयणं अमीणं आय जावणा य पत्ते ।। २७ ।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [२७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
व्याख्या-ओघो यत्सामान्य 'श्रुताभिधानं' श्रुतनाम चतुर्विधं तच, कथम् ?-अध्ययनमक्षीणमायाक्षपणा च द इदं च 'प्रत्येकं' पृथक पृथक् ॥ किम् ?
नामाइ चजन्भेयं वण्णेऊणं सुआणुसारेणं । दुमपुष्फि आओज्जा चउसुपि कमेण भावेसुं ॥ २८ ॥ व्याख्या-नामादिचतुर्भेदं वर्णयित्वा, तद्यथा-नामाध्ययनं स्थापनाध्ययनं द्रव्याध्ययनं भावाध्ययनं चेति, एवमक्षीणादीनामपि न्यासः कर्त्तव्यः, 'श्रुतानुसारेण अनुयोगद्वाराख्यसूत्रानुसारेण, किम् ?-'दुमपुष्पिका आयोज्या प्रकृताध्ययनं सम्बन्धनीयम्, चतुर्वप्यध्ययनादिषु क्रमेण भावेष्विति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं भावाध्ययनादिशब्दार्थ प्रतिपादयन्नाह
अजाप्पस्साणयणं कम्माणं अवचओ उपचिआणं । अणुवचओ अ नवार्ण तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥ २९ ॥ अहिगम्मति व अस्था इमेण अहिगं च नयणमिच्छति । अहिगं च साहु गच्छइ तम्हा अज्झयणमिच्छति ॥ ३० ॥ जह दीवा दीवसयं पइपई सो अदिप्पई दीवो। दीवसमा आयरिया दिपंति परं च दीवंति ॥ ३१ ॥ माणस्स दंसणस्सऽवि चरणस्स य जेण आगमो होई। सो होइ भावआओ आओ लाहो त्ति निदिहो ॥ ३२ ॥
अट्ठविहं कम्मर पोराणं जे खवेइ जोगेहिं । एवं भावज्झयणं नेभवं आणुपुब्बीए ।। ३३ ॥ व्याख्या-आसां गमनिका-इह प्राकृतशैल्या छान्दसत्त्वाच अज्झप्पस्साणयणं पकारस(स्स)कारआकारणदाकारलोपे अज्झयणं ति भण्णइ, तच संस्कृतेऽध्ययनम् , भावार्थस्त्वयं-अधि आत्मनि चर्तत इति निरुक्तादध्या
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [३३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवका०त्म चेतः तस्यानयनम् आनीयतेऽनेनेत्यानयनम्, इह कर्ममलरहितः खल्वात्मैव चेतःशब्देन गृह्यते, यथाऽव- अध्ययनाहारि-वृत्तिः स्थितस्य शुद्धस्य चेतस आनयनमित्यर्थः, तथा चैतदश्यासाद्भवत्येव, किम् ?-'कर्मणां' ज्ञानावरणीयादीनाम् क्षीणाय॥१६॥ IT'अपचयों हासः, किंविशिष्टानाम् ?-'उपचितानां मिथ्यात्वादिभिरुपदिग्धानां बद्धानामितिभावः, तथा क्षपणार्थी
'अनुपचयच अवृद्धिलक्षणः 'नवानां प्रत्यग्राणांकर्मणाम् , यतश्चैवं तस्मात् प्राकृतशैल्याऽध्यात्मानयनमेवाध्यसायनमिच्छन्त्याचार्या इति गाथार्थः ॥ 'अधिगम्यन्ते' परिच्छिद्यन्ते वा अर्थी अनेनेत्यधिगमनमेव प्राकृतशैल्या
तथाविधार्थप्रदर्शकत्वाचास्य वचसोऽध्ययनमिति, तथा अधिकं च नयनमिच्छन्त्यस्याध्यापि तथाविधार्थप्रदर्श-IA कत्वादेव वचसोऽयमर्थः, 'अय वयं' इत्यादिदण्डकधातुपाठान्नीतिर्नयनम्, भावे ल्युट्प्रत्ययः, परिच्छेद इत्यर्थः। अधिकं नयनमधिकनयनं चार्थतोऽध्ययनमिच्छन्ति, चशब्दस्य च व्यवहित उपन्यासः, अधिकं च साधुर्गच्छति, किमुक्तं भवति?-अनेन करणभूतेन साधुर्बोधसंयममोक्षान् प्रत्यधिकं गच्छति, यस्मादेवं तमादध्ययका नमिच्छन्ति, इह च सर्वत्र अधिकं नयनमध्ययनमित्येवं योजना कार्येति गाथार्थः ॥ इदानीमक्षीणम्-तच भावाक्षीणमिदमेव, शिष्यप्रदानेऽप्यक्षयत्वात्, तथा चाह-यथा दीपाहीपशतं प्रदीप्यते, स च दीप्यते दीपः, एवं 'दीपसमा दीपतुल्या आचार्या दीप्यन्ते खतो विमलमत्याापयोगयुक्तत्वात् 'परं च' विनेयं 'दीपयन्ति प्रकाशयन्त्युज्ज्वलं वा कुर्वन्तीति गाथार्थः॥ इदानीमायः स च भावत इदमेव, यत आह-शानस्य मत्याः | 'दर्शनस्य' चौपशमिकादेः 'चरणस्य च' सामायिकादः येन हेतुभूतेन 'आगमो भवति प्राप्सिर्भवति.स.स
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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भवति भावायः, आयो लाभ इति निर्दिष्टः, अध्ययनेन च हेतुभूतेन ज्ञानाद्यागमो भवतीति गाथार्थः ॥ अधुना
क्षपणा, साऽपि भावत इदमेवेति, आह च–'अष्टविधम् अष्टप्रकारं कर्मरजः, तत्र जीवगुण्डनपरत्वात्कमैव रजः कर्मरजः 'पुराण' प्रागुपातं यत्' यस्मात्क्षपयति 'योगैः' अन्तःकरणादिभिरध्ययनं कुर्वन् तस्मादिदमामेव कारणे कार्योपचारात् क्षपणेति । तथा चाह-इदं भावाध्ययनं 'नेतव्यं' योजनीयम् 'आनुपूर्यो' परिपाच्या
अध्ययनाक्षीणादिष्विति गाथार्थः । उक्त ओघनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं नामनिष्पन्न उच्यते-तत्रौघनिष्पनेऽध्ययनं नामनिष्पझे दुमपुष्पिकेति, आह-द्रुम इति कः शब्दार्थः ?, उच्यते, “दु तु गती" इत्यस्य दुरस्मिन् देशे विद्यत इति तदस्यास्त्यस्मिन्निति (पा०५-२-९४) मतुपि प्राप्ते “दुद्रुभ्यां मः" (पा०५-२-१०८) इति मप्रत्ययान्तस्य दुम इति भवति । साम्प्रतं द्रुमपुष्पनिक्षेपप्ररूपणायाह
णामदुमो ठवणदुमो दवदुमो चेव होइ भावदुमो । एमेव य पुष्फस्स वि चउव्विहो होइ निक्खेवो ॥ ३४ ॥ व्याख्या-'नामद्रुमो' यस्य दुम इति नाम द्रुमाभिधानं वा, स्थापनाद्रुमो दुम इति स्थापना, 'द्रव्यद्रुमश्चैव भवति भावद्रुमः' तत्र द्रव्यदुमो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्न, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्ता, नोआगमतस्तु|| ज्ञशरीरभव्यशरीरोभयव्यतिरिक्तस्त्रिविधः, तद्यथा-एकभविको बद्धायुष्कोऽभिमुखनामगोत्रश्च, तत्रैकमविको नाम य एकेन भवेनानन्तरं द्रुमेषूत्पत्स्यते, बद्धायुष्कस्तु येन दुर्मनामगोत्रे कर्मणी बद्धे इति, अभिमुखनाम
१ आयुर्विशिष्टे इति शेयम् , तथा च म क्वायुष्मताऽसंगतिः,
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अत्र प्रथम अध्ययनस्य परिचय-नियुक्ति: आरब्धा:
'द्रुम' शब्दस्य नामादि निक्षेपा;;
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [३४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवका०15 गोत्रस्तु येन ते नामगोत्रे कर्मणी उदीरणावलिकायां प्रक्षिप्ते इति, अयं च विविधोऽपि भाविभावदुमकार-1 दुमनिक्षेहारि-वृत्तिःणवाद्रव्यदुम इति, भावटुमोऽपि द्विविधः-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमतो ज्ञातोपयुक्तः, नोआगम-18 |पाः दुम
मतस्तु दुम एव द्रुमनामगोत्रे कर्मणी वेदयन्निति । एवमेव च यथा द्रुमस्य तथा किम् ?-पुष्पस्यापि वस्तत-IIपुष्पैकार्थी ॥१७॥
स्तद्विकारभूतस्य चतुर्विधो भवति निक्षेप इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं नानादेशजविनेयगणासम्मोहार्थमागमे दुमपर्यायशब्दान् प्रतिपादयन्नाह
तुमा य पायघा रुक्खा, अगमा विडिमा तरू । कुहा महीरुहा वच्छा, रोवगा रंजगावि भ ॥ ३५॥ व्याख्या-टुमाश्च पादपा वृक्षा अगमा विटपिनः तरवः कुहा महीरुहा वच्छा रोपका रुक्षकादयश्च । तन्त्र मान्वयंसंज्ञा पूर्ववत्, पयां पिबन्तीति पादपा इत्येवमन्येषामपि यथासम्भवमन्वर्थसंज्ञा वक्तव्या, रूढिवेशीशब्दा वा एत इति गाथार्थः॥ इदानी पुष्पैकार्थिकप्रतिपादनायाह
पुष्पाणि अ कुसुमाणि अ फुलाणि सहेब होति पसवाणि । सुमणाणि अ मुहुमाणि अ पुष्काणं होति पगट्ठा ॥ ३६॥ व्याख्या-पुष्पाणि कुसुमानि चैव फुल्लानि प्रसवानि च सुमनांसि चैव 'सूक्ष्माणि' सूक्ष्मकायिकानि चेति॥ साम्प्रतमेकवाक्यतया दुमपुष्पिकाध्ययनशब्दार्थ उच्यते-ट्रमस्य पुष्पं द्वमपुष्पम्, अवयवलक्षणः षष्ठीसमासा, दुमपुष्पशब्दस्य "प्रागिवात्कः” (पा०५-३-७) इति वर्तमाने अज्ञाते (७३) कुत्सिते (७४)(के)
॥१७॥ संज्ञायां कनि (७) ति कनि प्रत्यये नकारलोपे च कृते द्रुमपुष्पक इति, प्रातिपदिकस्य स्त्रीत्वविवक्षायाम
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'द्रुम' एवं 'पुप्फ़ शब्दयो: पर्याय-शब्दानाम् कथनं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः अध्ययनं [–], उद्देशक [-], मूलं [-], निर्युक्ति: [३७], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
"अजाद्यतष्टापू” (४-१-४ ) इति टाप्पत्ययेऽनुबन्धलोपे च कृते “प्रत्ययस्थात् कात्पूर्वस्यात इदाप्यसुपः ( पा० ७-३-४४ ) इतीत्वे कृते "अकः सवर्णे दीर्घः” ( पा० ६-१-१०१) इति दीर्घत्वे परगमने च द्रुमपुष्पिकेति भवति, द्रुमपुष्पोदाहरणयुक्ता द्रुमपुष्पिकेति द्रुमपुष्पिका चासो अध्ययनं चेति समानाधिकरणस्तत्पुरुषः, | द्रुमपुष्पिकाध्ययनमिति । अस्य चैकार्थिकानि प्रतिपादयन्नाह -
दुमपुफिआ य आहारएसणा गोअरे तथा उंछो। मेस जलूगा सप्पे वणऽक्खसुगोलपुत्तुदः ॥ ३७ ॥
Ja Education remat
व्याख्या- तत्र द्रुमपुष्पोदाहरणयुक्ता द्रुमपुष्पिकेति वक्ष्यति च - "जहा दुमस्स पुष्फेसु" इत्यादि, तथा आहारस्यैषणा आहारैषणा, एषणाग्रहणाद् गवेषणादिग्रहः, ततश्च तदर्थसूचकत्वादाहारैषणेति, तथा गोचरः साम| चिकत्वाद गोरिव चरणं गोचरोऽन्यथा गोचारः, तदर्थसूचकत्वाच्चाधिकृताध्ययनविशेषो गोचर इति, एवं सर्वत्र भावना कार्येति, भाषार्थस्तु यथा गौश्वरत्येवमविशेषेण साधुनाऽप्यटितव्यं, न विभवमङ्गीकृत्योत्तमाधममध्यमेषु कुलेष्विति, वैणिग्वत्सकदृष्टान्तेन वेति, तथा 'त्वगिति' त्वगिवासारं भोक्तव्यमित्यर्थसूचकत्वात् त्वगुच्यत इति, उक्तं च परममुनिभिः -- "जैहा मसारि घुणा पण्णत्ता, तंजड़ा-तयक्खाए छल्लिक्खाए कट्ठक्खाए सारक्खाए, एवमेव चत्तारि भिक्खुगा पक्षप्ता, तंजहा-तयक्खाए छल्लिक्खाए कटुक्खाए सारक्खाए,
+ वृत्ति:)
'द्रुमपुप्फ़िआ' शब्दस्य एकार्थक नामानि
:+ भाष्य +
१ यथा सालङ्कारवगिग्बधूहस्ताद्भक्ष्यमात्वाऽति वत्सस्तद्रूपात राबनिरीक्षमाणस्तया साधुरपि २ यया चत्वारो गुणाः प्रप्ताः, तद्यथा-लक्लादकः मादकः कालाः सारखादकः । एवमेव चत्वारो भिक्षुकाः प्रहप्ताः, तद्यथा त्वक्वादकः खादकः ( अन्तस्त्वक् छी ) काष्ठखादकः सारन्तादकः ।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [३७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशकातयक्खाए णामं एगे नो सारक्खाए सारक्खाए णाम एगे नो तयक्खाए एगे तयक्खाए वि सार-एतदध्ययहारित्तिभक्खाए वि एगे नो तयक्खाए णो सारक्खाए । तयक्खायसमाणस्स णं भिक्खुस्स सारक्खायसमाणे तवेनैकार्था
भवइ, एवं जहा ठाणे तहेव दट्टव्वं" भावार्थस्तु भावतस्त्वकल्पासारभोक्तुः कर्मभेदमङ्गीकृत्य वज्रसारं तपोभिधानानि ॥१८॥ भवति, तथा 'उंछम्' इति अज्ञातपिण्डोज्छसूचकत्वादिति, तथा 'मेष' इति यथा मेषोऽल्पेऽध्यम्भसि अनु
द्वालयन्नेवाम्भः पिबति, एवं साधुनाऽपि भिक्षाप्रविष्टेन बीजाक्रमणादिष्वनाकुलेन भिक्षा ग्राह्येत्येवंविधार्थसूचकत्वादधिकृताभिधानप्रवृत्तिरिति, तथा 'जलौका' इति अनेषणाप्रवृत्तदायकस्य मृदुभावनिवारणार्धसूचकवादिति, तथा 'सर्प इति यथाऽसावेकदृष्टिर्भवत्येवं गोचरगतेन संयमैकदृष्टिना भवितव्यमित्यर्थसूचकत्वादिति, अथवा-यथा द्रागस्पृशन् सो विलं प्रविशत्येवं साधुनाऽप्यनास्वादयता भोक्तव्यमिति, तथा 'वर्ण' इत्यरक्तद्विष्टेन व्रणलेपदानवडोक्तव्यम् , तथा 'अक्ष' इत्यक्षोपाङ्गदानवचेति, उक्तं च "वणलेपाक्षोपाङ्गवदसङ्गयोगभरमात्रयात्रार्थम् । पन्नग इवाभ्यवहरेदाहारं पुत्रपलवच्च ॥ १॥" इत्यादि, तथा 'इसुत्ति तत्र 'इषुः' शरो भण्यते, तत्र सूचनात्सूत्रमिति कृत्वा "जह रहिओऽणुवउत्तो इसुणा लक्खं ण विंधइ तहेव । साहू गो
वक्वादको मामैकः भो सारणायकः सारवादको नामैको नो वक्खादकः एकस्त्वक्खादकोऽपि सारवादकोऽपि एको नो स्वखादको नो सारखादकः । त्ववादकसमानस्य भिक्षोः सारखाएकसमानं तपो भवति, एवं यथा स्थानाने तथैव द्रष्टव्यम् . २ यथा रपिकोऽनुपयुक्त इषुणा लक्ष्यं न विष्यति तथैव । साधु!चरप्राप्तः संयमलक्ष्ये हातव्यः ॥1॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [-], उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति: [३७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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अरपत्तो संजमलक्खम्मि नायव्यो॥१॥" गोल' इति "जह जउगोलो अगणिस्स णाइदूरेण आवि आसन्ने। सासकह काऊण तहा संजमगोलो निहत्थाणं ॥१॥ दूरे अणेसणाऽदसणाइ इयरम्मि तेणसंकाइ । तम्हा मिय-18
भूमीए चिडिजा गोपरग्गगओ ॥१॥'पुत्र'इति पुत्रमांसोपमया भोक्तव्यम् , सुसमादृष्टान्तोऽत्र वक्तव्यः । 'उदक मिति पूत्युदकोपमानतः खल्वन्नपानमुपभोक्तव्यमिति, अत्रोदाहरणम्-जहा एगेणं वाणियएणं दारिद्दछादुक्खाभिभूएणं कहंवि हिंडतेणं रयणदीवं पावित्ता तेलुक्कसुंदरा अणग्घेया रयणा समासादिआ, सो अते
चोराकुलदीहद्धाणभएण ण सक्कइ णित्थारिऊणमुवओगभूमिमाणे, तओ सो बुद्धिकोसल्लेण ताणि एगम्मि पएसे ठवेऊण अण्णे जरपाहाणे घेत्तुं पढिओगहिल्लगवेसेणं "रयणवाणिओ गच्छत्ति"भावितण तिपिण वारे. जाहे कोई पा उद्दड ताहे घेत्तूण पलाओ, अडवीए तिब्बतिसाए गहिओ जाव कुहियपाणि छिल्लरं विणटुंडू
१ यथा जतुगोलोऽमेनानिदूरे न चाप्यासने । शक्यचे कत्तु तथा संयमगोलो गृहस्थानाम् (संयमलक्षे हातव्यः)॥१॥२ दूरेऽनेषणाऽदर्शनादि इतरसिन् | स्तेनशहादिः । तस्मानिमतभूनी गोचराप्रगतः तिक्षेत् ॥१॥ ३ बकेन वणिजा दारिशदुःखाभिभूतेन कथमपि हिण्डमानेन रजद्रीय प्राप्य त्रैलोक्यमुन्दराणि अनोणि रबानि समासादितानि, स च नानि चौराकुलदीर्घावमयेन न शनोति निस्वार्य उपभोगभूमिमानेतुम्, ततः स बुद्धिकौशल्येन तानि एकस्मिन् प्रदेको स्थापयित्वा अन्यान् जरत्याषाणान् गृहीत्वा प्रस्थितो प्रहगृहीतवेषेण रजवणिम् गच्छतीति भावअन् तिम्रो बाराः, यदा कोऽपि नोतिष्ठति तदा यहीवा
कायतपानाय पल्वल वनट पश्यति, तत्रापि बहवो हरिणादयो मृताः, तेन तत्सर्वमुदकं सारूपं जातं, तदा तसेना भनुच्यताऽनाखादयता पौरा, निस्तारितानि चानेन रत्नानि, एवं रजस्थानकानि ज्ञानदर्शनचारित्राणि चौरस्थानीया विषयाः कृषितोदकस्थानीवानि प्रामुकैषणीयानि | भन्तप्रान्तानि आहारादीनि आहारयता। तदा तद्लेन यथा वणिक् इह भवे सुखी जातः, एवं साधुरपि सुखी भविष्यति इति । भटमीस्थानीय संसार निसरति इति।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं -1, उद्देशक [-], मूलं [-], नियुक्ति : [३७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक
दीप
दशकापासइ, तत्थवि बहवे हरिणादयो मआ, तेण तं सव्वं उदगं वसा जायं, ताहे तं तेण अणुस्सासियाए8१ दुमपुहारि-वृत्तिःअणासायंतेण पीअं, नित्थारियाणि यऽणेण रयणाणि। एवं रयणस्थाणगाणिणाणदंसणचरित्ताणि चोरत्थाणिआत पिका०
विसया कुहिओदगत्थाणिआणि फासुगेसणिजाणि अंतपंताणि आहाराइयाणि आहारतेण | ताहे तब्बलेण अर्थाधि॥१९॥HIMMATAPER
जहा वाणियगो इह भवे सुही जाओ, एवं साह वि सुही भविस्सइत्ति । अडवित्थाणीअं संसारं णित्थरेइत्तिकाराः हैएवमेतान्यथैकार्घिकानि, अर्थाधिकारा एवान्ये इति गाथार्थः। उक्तो नामनिष्पन्नः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्न
स्यावसरः, स च प्रासलक्षणोऽपि न निक्षिप्यते, कस्मात् कारणात् ?, यस्मादस्ति इह तृतीयमनुयोगद्वारमनुगमाख्यं, तत्र निक्षिप्त इह निक्षिप्तो भवति, इह निक्षिप्तो वा तत्र निक्षिप्तो भवति, तस्माल्लाघवार्य तत्रैव निक्षेप्स्यामः । अत्र चाक्षेपपरिहारावावश्यकविशेषविवरणादवसेयौ, साम्प्रतमनुगमः, स च द्विधा-सूत्रानुगमो नियुक्त्यनुगमश्च, तत्र नियुक्त्यनुगमस्त्रिविधा, तद्यथा-निक्षेपनियुक्त्यनुगमः उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः सूत्र-12 स्पिर्शिकनियुक्त्यनुगमश्चेति, तत्र निक्षेपनियुक्त्यनुगमो गतः, य एषोऽध्ययनादिनिक्षेप इति, उपोद्घातनियु-18 है। क्त्यनुगमस्तु द्वारगाथाद्वयादवसेया, तचेदम्-उद्देसे निद्देसे य निग्गमे खित्तकालपुरिसे य । कारण पचय लक्खण नए समोयारणाऽणुमए ॥१॥ किं कइविहं कस्स कहिं केसु कहं केचिरं हवा कालं । कइसंतरमविरहियं ॥१९॥
एषोऽधो नामादिनिक्षेपः प्र० २ उद्देशः निर्देशश्च निर्गगः क्षेत्र कालः पुरुषश्च । कारणं प्रत्ययः लक्षणं नवाः समवतारणाऽनुमतम् ॥ १॥ कि कतिविध कसक केषु कथं कियचिरं भवति कालम् । कति सान्तरमविरहितं.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः :+ भाष्य + + वृत्ति:) अध्ययनं [–], उद्देशक [ - ], निर्युक्ति: [३७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
मूलं [ - ],
भवारिस फासण निरुती ॥ २ ॥ अस्य च द्वारगाथाद्वयस्य समुदायार्थोऽवयवार्थश्वावश्यकविशेषविवरणादेवावसेय इति । प्रकृतयोजना पुनस्तीर्थकरोपोद्घातमभिधायार्यसुधर्मस्य च तत्प्रवचनस्य पञ्चाज्जम्बूनानस्ततः प्रभवस्य ततोऽप्यार्यशय्यम्भवस्य पुनर्यथा तेनेदं निर्व्यूढमिति तथा कथनेन कार्या इति । आह् च "जेण व जं च पहुंचे" त्यादिना यत्पूर्वमुक्तं तदत्रैव क्रमप्राप्ताभिधानत्वात् तत्रायुक्तमिति, न, अपान्तरालोपोद्घातप्रतिपादकत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति, आह-एवमपि महासम्बन्धपूर्वकत्वादपान्तरालोपोद्घातस्यान्त्रैवाभिधानं न्याय्यमिति, न, प्रस्तुतशास्त्रान्तरङ्गत्वेन तत्राप्युपयोगित्वादिति कृतं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनिकामात्र फलत्वात्प्रयासस्य । गत उपोद्घातनिर्युक्त्यनुगमः, साम्प्रतं सूत्रस्पर्शिकनिर्युक्त्यनुगमावसरः, स च सूत्रे सति भवति, आहयद्येवमिहोपन्यासोऽनर्थकः, न, निर्युक्तिसामान्यादिति, सूत्रं च सूत्रानुगमे, स चावसरप्राप्त एव, इह चास्व| लितादिप्रकारं शुद्धं सूत्रमुचारणीयम्, तद्यथा-अस्खलितममिलितमव्यत्याग्रेडितमित्यादि यथाऽनुयोगद्वारेषु, ततस्तस्मिनुचरिते सति केषाञ्चिद्भगवतां साधूनां केचनार्थाधिकारा अधिगता भवन्ति केचन त्वनधिगताः, तत्रानधिगताधिगमायाल्पमतिविनेयानुग्रहाय च प्रतिपदं व्याख्येयम् । व्याख्यालक्षणं चेदम्-संहिता च पर्द चैव पदार्थः पदविग्रहः । चालनाप्रत्यवस्थानं, व्याख्या तत्रस्य षड़िधा ॥ १ ॥ इत्यलं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः । किं च प्रकृतम् ?, सूत्रानुगमे सूत्रमुच्चारणीयमिति, तचेदं सूत्रम्
१ व आकर्षः स्पर्धाना निरुक्तिः ॥ २ ॥ २षु धर्मः सुधर्मः कार्यः सुधर्मो यस्येति आर्यधर्मास्येति विगृह्य कार्य, धर्मस्य केवलस्योत्तरपदत्वाभावात् परमधर्म इतिचत् न समासान्तप्रसङ्गः न चैवं समासान्ता नित्यत्व कल्पना गौरवम पि.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३७], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक गाथांक ||१||
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धम्मो मंगलमुक्ट्रि, अहिंसा संजमो तवो। देवावि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥१॥ दुमपुहारि-वृत्तिः व्याख्या-तत्रास्खलितपदोचारण संहिता, सा पाठसिद्धैव । अधुना पदानि-धर्मः मङ्गलम् उत्कृष्टम् अ- | प्पिका० हिंसा संयमः तपः देवाः अपि तं नमस्यन्ति यस्य धर्मे सदा मनः। तत्र “धृश् धारणे" इत्यस्य धातोर्मप्रत्य-12
| अर्धाधि॥२०॥
हायान्तस्येदं रूपं धर्म इति । मङ्गालरूपं पूर्ववत् । तथा "कृष् विलेखने" इत्यस्य धातोरुत्पूर्वस्य निष्ठान्तस्येदं रूप-10 काराः मुस्कृष्टमिति । तथा "तृहि हिसि हिंसायाम्" इत्यस्य "इदितो नुम् धातोः” (पा०७-१-५८) इति नुमि कृते ख्यधिकारे टावन्तस्य नपूर्वस्येदं रूपं यदुताहिंसेति। तथा "यमु उपरमें" इत्यस्य धातोः संपूर्वस्यापम-15 त्ययान्तस्य संयम इति रूपं भवति । तथा "तप सन्तापे' इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य तप इति । तथा[ट्र "दिबु क्रीडाविजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिखमकान्तिगतिः" इत्यस्य धातोरच्प्रत्ययान्तस्य जसि देवा इति भवति । अपिशब्दो निपातः । तदित्येतस्य सर्वनाम्नः पुंस्त्वविवक्षायां द्वितीयैकवचनं तमिति भवति । तथा नमसित्यस्य प्रातिपदिकस्य "नमोवरिवश्चित्रका क्यच्” (पा०३-१-१९) इति क्यजन्तस्य लट् क्रियान्ता-1 देशस्ततश्च नमस्सन्तीति भवति । तथा यदितिसर्वनाम्नः षष्ठ्यन्तस्य यस्येति भवति । धर्मः पूर्ववत् । सदेति सर्वस्मिन् काले “सवैकान्यकिंयत्तदः.काले दा" (पा०५-३-१५) इति दाप्रत्ययः “सर्वस्य सोऽन्यतरस्यां | दि" (पा०५-३-१६) इति स आदेशः सदा । तथा “मन ज्ञाने" इत्यस्य धातोरसुन्प्रत्ययान्तस्य मन इति|४|| भवति । इति पदानि । साम्प्रतं पदार्थ उच्यते-तत्र दुर्गती प्रपतन्तमात्मानं धारयतीति धर्मः, तथा चोक्तम्
॥२०॥
अथ अध्ययनं -१- “द्रुमपुष्पिका" आरभ्यते
'धर्म', 'मंगल', 'अहिंसा', आदि शब्दानाम् विशद् व्याख्या:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३७], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
4
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
-रे
-“दुर्गतिप्रसृतान् जीवान् , यस्माद्धारयते ततः । धत्ते चैतान् शुभे स्थाने, तस्माद् धर्म इति स्मृतः॥१॥ मायते हितमनेनेति महालमित्यादि पूर्ववत्, 'उत्कृष्ट प्रधानम्, न हिंसा अहिंसा प्राणातिपातविरतिरित्यर्थः,13 I'संयमः' आश्रवद्वारोपरमः, तापयत्य नेकभवोपात्तमष्टप्रकारं कर्मेति तपः-अनशनादि, दीव्यन्तीति देवाः क्रीडन्तीत्यादि भावार्थः, अपिः सम्भावने देवा अपि मनुष्यास्तु सुतरां, 'तमित्येवंविशिष्टं जीवं, नमस्यन्तीति प्रकटार्थम् , यस्य जीवस्य किम् ?-'धर्मे प्रागभिहितखरूपे 'सदा' सर्वकालं 'मन' इत्यन्तःकरणम् । अयं पदार्थ इति । पदविग्रहस्तु परस्परापेक्षसमासभाक्पदपूर्वकत्वेनेह निवन्धनाभावान प्रदर्शित इति । चालनाप्रत्यवस्थाने तु प्रमाणचिन्तायां यथावसरमुपरिष्टादू वक्ष्यामः । प्रवृत्तिः पुनस्तयोरमुनोपायेनेति प्रदर्शनायाह-14
कथइ पुच्छइ सीसो कहिंच पुट्ठा कहंति आयरिया । सीसाणं तु हियट्ठा विपुलतरागं तु पुच्छाए ॥ ३८ ॥ व्याख्या-कचित्किञ्चिदनवगच्छन् पृच्छति शिष्यः कथमेतदिति इयमेव चालना, गुरुकथनं प्रत्यवस्थानम्,४ इत्थमनयोः प्रवृत्तिः । तथा कचिदपृष्टा एव सन्तः पूर्वपक्षमाशङ्कय किश्चित्कथयन्त्याचार्याः, तत्प्रत्यवस्थान|मिति गम्यते, किमर्थ कथयन्त्यत आह-शिष्याणामेव हितार्थम् , तुशब्द एवकारार्थः, तथा 'विपुलतरं तु' प्रभूततरं तु कथयन्ति 'पुच्छाएंत्ति शिष्यप्रश्ने सति, पटुप्रज्ञोऽयमित्यवगमादिति गाथार्थः ॥ एवं तावत्समासेन, व्याख्यालक्षणयोजना । कृतेयं प्रस्तुते सूत्रे, कार्येवमपरेष्वपि ॥१॥ अन्धविस्तरदोषान्न, वक्ष्याम उप-13 योगि तु । वक्ष्यामः प्रतिसूत्रं तु, यत् सूत्रस्पर्शिकाऽधुना ॥२॥ प्रोच्यतेऽनुगमनियुक्तिविभागश्च विशेषतः ।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [३८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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दशवैका०सामायिकबृहद्भाष्याज्ज्ञेयस्तोदितं यतः ॥३॥"होई कयत्यो वोत्तुं सपयच्छेअं सुअं मुआणुगमो । सुत्ता- द्रुमपुहारि-वृत्तिः लावगनासो नामादिण्णासविणिओगं ॥१॥ सुत्तफासिजनित्तिणिओगो सेसओ पयत्थाइ । पार्य सो-पिका०
चिय नेगमणयाइमयगोअरो होइ ॥२॥ एवं सुत्ताणुगमो सुत्तालावगकओ अ निक्खेवो । सुत्तप्फासिअ-18 चालना॥ २१॥
माणिज्जुत्ति णया अ समगं तु वच्चन्ति ॥ ३॥" इत्यलं प्रसङ्गेन, गमनिकामात्रमेतत् । तत्र धर्मपदमधिकृत्य सूत्र- प्रत्यवस्पर्शिकनियुक्तिप्रतिपादनायाह
स्थाने णामंठवणाधम्मो दव्वधम्मो अ भावधम्मो अ । एएसि नाणत्तं बुच्छामि अहाणुपुवीए ॥ ३९ ॥ VI व्याख्या-'णामंठवणाधम्मोति अन धर्मशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, नामधर्मः स्थापनाधर्मो द्रव्यधर्मों।
भावधर्मश्च । एतेषां नानात्वं' भेदं 'वक्ष्ये' अभिधास्ये 'यथानुपूलं यथानुपरिपाट्येति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं15 दानामस्थापने क्षुण्णवादागमतो नोआगमतश्च ज्ञानुपयुक्तज्ञशरीरेतरभेदांश्चानात्य ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यअतिरिक्तद्रव्यधर्माद्यभिधित्सयाह
दव्वं च अस्थिकायप्पयारधम्मो अ भावधम्मो अ । व्वस्स पजवा जे ते धम्मा तस्स व्वस्स ॥ ४० ॥ व्याख्या-इह विविधोऽधिकृतो धर्मः, तद्यथा-द्रव्यधर्मः अस्तिकायधर्मः प्रचारधर्मति । तत्र द्रव्यं चेत्यनेन
1॥२१ १ भवति कृताधं उक्त्वा सपदच्छेदं सूत्र सूत्रानुगमः । सूत्रालापकन्यासो नामादिन्यासविनियोगम् ॥1॥२ सूत्रस्पर्शिकनियुकिनियोगः शेषकः पदार्थादीन् । प्रायः स एव नैगमनयादिमतगोचरो भवति ॥ २॥ ३ एवं सूत्र सूत्रानुगमः सूत्रालापककृतश्च निक्षेपः । सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः नयाष युगपत्तु नजन्ति ॥३॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४०], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
धर्मधर्मिणोः कथश्चिदभेदाद द्रव्यधर्ममाह, तथास्तिकाय इत्यनेन तु सूचनात् सूत्रमितिकृत्वा उपलक्षणवाद-15 है वयव एव समुदायशब्दोपचारादस्तिकायधर्म इति, प्रचारधर्मश्चेत्यनेन अन्धेन द्रव्यधर्मदेशमाह । भावधर्मश्चेत्य
नेन तु भावधर्मस्य खरूपमाह ॥ साम्प्रतं प्रथमोद्दिष्टद्रव्यधर्मखरूपाभिघित्सयाऽऽह-द्रव्यस्य पर्याया-ये उत्पा-12 हदविगमादयस्ते धर्मास्तस्य द्रव्यस्य, ततश्च द्रव्यस्य धर्मा द्रव्यधर्मा इत्यन्यासंसलैकद्रव्यधर्माभावप्रदर्शनार्थों *बहुवचननिर्देश इति गाथार्थः । इदानीमस्तिकायादिधर्मस्वरूपप्रतिपिपादयिषयाऽऽह
धम्मत्थिकायधम्मो पयारधम्मो ये विसयधम्मो य । लोइयकुप्पावयणिअ लोगुत्तर लोगऽणेगविहो ॥४१॥ व्याख्या-धर्मग्रहणाद् धर्मास्तिकायपरिग्रहः, ततश्च धर्मास्तिकाय एव गत्युपष्टम्भकोऽसंख्येयप्रदेशात्मकः
अस्तिकायधर्म इति । अन्ये तु व्याचक्षते-धर्मास्तिकांयादिस्वभावोऽस्तिकायधर्म इति, एतचायुक्तम्, तत्र ध-16 शर्मास्तिकायादीनां द्रव्यत्येन तस्य द्रव्यधर्माव्यतिरेकादिति । तथा प्रचारधर्मश्च विषयधर्म एव, तुशब्दस्यैव-17
कारार्थत्वात् , तत्र प्रचरणं प्रचारः, प्रकर्षगमनमित्यर्थः, स एवात्मखभावत्वाद्धर्मः प्रचारधर्मः, स च किम् ?-18 विषीदन्त्येतेषु प्राणिन इति विषया-रूपादयस्तद्धर्म एव, तथा च वस्तुतो विषयधर्म एवायं यद्रागादिमान । सत्त्वस्तेषु प्रवर्त्तत इति, चक्षुरादीन्द्रियवशतो रूपादिषु प्रवृत्तिः प्रचारधर्म इति हदयम्, प्रधानसंसारनिवन्धनत्वेन चास्य प्राधान्यख्यापनार्थ द्रव्यधर्मात् पृथगुपन्यासः । इदानीं भावधर्मः, स च लौकिकादिभेदाभिन्न
१ देसि पंचण्हषि धम्मो णाम राभायो लक्षणंति एगवा इति चूर्णिः. २ जो जस्स इंदिजस्स बिसओ इति पूर्णि.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दशकाइति, आह च-लौकिक: कुमावनिक लोकोत्तरस्तु, अत्र 'लोगोऽणेगविहो'त्ति लौकिकोऽनेकविध इति गा- दम हारि-वृत्तिः धार्थः । तदेवानेकविधत्वमुपदर्शयन्नाह
|पिका० गम्भपसुदेसरजे पुरवरगामगणगोद्विराईणं । सावज्जो उ कुतित्थियधम्मो न जिणेहि उ पसत्थो ॥ ४२ ॥
लधर्मनिक्षेपः ॥२२॥ व्याख्या-तन्त्र गम्यधर्मो-यथा दक्षिणापथे मातुलदुहिता गम्या उत्तरापथे पुनरगम्पैव, एवं भक्ष्याभक्ष्यपे
मायापेयविभाषा कर्तव्येति, पशूधर्मो-मात्रादिगमनलक्षणः, देशधर्मो देशाचारः, स च प्रतिनियत एच नेप
थ्यादिलिङ्गभेद इति, राज्यधर्म:-प्रतिराज्यं भिन्नः, स च करादिः, पुरवरधर्म:-प्रतिपुरवरं मिन्नः कचित्किचिद्विशिष्टोऽपि पौरभाषाप्रदानादिलक्षणः सद्वितीया योषिद्गदेहान्तरं गच्छतीत्यादिलक्षणो वा, ग्रामधर्म:
प्रतिग्राम भिन्न:, गणधर्मो-मल्लादिगणव्यवस्था, यथा समपादपातेन विषमग्रह इत्यादि, गोष्ठीधर्मो-गोलाठीव्यवस्था, इह च समवयसां समुदायो गोष्टी, तव्यवस्था पुनर्वसन्तादाविदं कर्त्तव्यमित्यादिलक्षणा, रा
जधर्मों-दुष्टेतरनिग्रहपरिपालनादिरिति । भावधर्मता चास्य गम्यादीनां विवक्षया भावरूपत्वात् द्रव्यपर्यायत्वाद्वा, तस्यैव च द्रव्यानपेक्षस्य विवक्षितत्वात्, लौकिकैर्वा भावधर्मत्वेनेष्टत्वात्, देशराज्यादिभेदश्चैकदेश एवानेकराज्यसम्भव इत्येवं स्वधिया भाव्यम् इत्युक्तो लौकिका, कुमावनिक उच्यते-असावपि साब-| द्यप्रायो लौकिककल्प एव, यत आह-"सावजो उ” इत्यादि, अवयं-पापं सहावद्येन सावा, तुशब्दस्त्वे
१ पियंति समवाएणं इति चूर्णिः. २ अत्तर्णेऽवि भवरादे ण खामिजइ चू
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४२], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
वकारार्थः, स चावधारणे, सावद्य एव, कः?-कुतीर्थिकधर्मः' चरकपरिव्राजकादिधर्म इत्यर्थः, कुत एतदित्याह -न जिनः अर्हद्भिः तुशब्दादन्यैश्च प्रेक्षापूर्वकारिभिः 'प्रशंसितः स्तुतः, सारम्भपरिग्रहत्वात्, अत्र बहु :
वक्तव्यम् , तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रफलत्वात् प्रस्तुतव्यापारस्येति गाथार्थः ॥ उक्तः कुप्रावनिकः, साकम्प्रतं लोकोत्तरं प्रतिपादयन्नाह
दुविहो लोगुत्तरिओ सुअधम्मो खलु चरित्तधम्मो अ । सुअधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो ॥ ४३ ॥ व्याख्या-द्विविधो-द्विप्रकारो'लोकोत्तरों लोकप्रधानो, धर्म इति वर्तते, तथा चाह-श्रुतधर्मः खलु चारित्रधर्मश्च, तत्र श्रुतं-द्वादशाङ्गं तस्य धर्मः श्रुतधर्मः, खलुशब्दो विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-स हि वाचनादिभेदाचित्र इति, आह च-श्रुतधर्मः स्वाध्यायः-वाचनादिरूपः, तत्त्वचिन्तायां धर्महेतुखाद्धर्म इति । तथा चारि
धर्मश्च, तत्र "चर गतिभक्षणयोः" इत्यस्य "अतिलघूसूखनसहचर इत्रन्" (पा०३-२-१८४) इतीत्रन्प्रत्यमायान्तस्य चरित्रमिति भवति, चरन्त्यनिन्दितमनेनेति चरित्रं क्षयोपशमरूपं तस्य भावनारित्रम्, अशेषकर्मक्ष-18
याय चेष्टेत्यर्थः, ततश्चारित्रमेव धर्मः चारित्रधर्म इति । चः समुच्चये । अयं च श्रमणधर्म एवेत्याह-चारित्रधर्मः श्रमणधर्म इति, तत्र श्राम्यतीति श्रमणः "कृत्यल्युटो बहुलम्" (पा० ३-३-११३) इति वचनात् कर्त्तरि ल्युट, श्राम्यतीति-तपस्यतीति, एतदुक्तं भवति-प्रवज्यादिवसादारभ्य सकलसावद्ययोगविरती गुरूपदेशाद
१प्रयासस्येति प्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक मूलसूत्र ३ ( मूलं+निर्युक्तिः + भाष्य + वृत्तिः ) मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [ ४३] भाष्यं [-]
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1,
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २३ ॥
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नशनादि यथाशक्त्याऽऽ प्राणोपरमात्तपश्चरतीति उक्तं च- " यः समः सर्वभूतेषु श्रसेषु स्थावरेषु च । तपश्चरति शुद्धात्मा, श्रमणोऽसौ प्रकीर्त्तितः ॥ १ ॥” इति, तस्य धर्मः खभावः श्रमणधर्मः, स च क्षान्त्यादि
१ खमा महवं अजवं सोयं सवं सेजमो तयो चाओ अकिंणियतमं वंभचेरमिति । तत्थ समा आकुहस्स वा तालियरस वा अहिया तस्स कम्भक्खओ भवइ, अणहिया तस्स कम्मबंधो भवइ, तरहा कोइस्स निम्हो कायदो, उदयपत्तस्स वा विफलीकरणं, एस समत्ति या तितिक्खत्ति वा कोनिग्गति या एगा। महवं नाम जाइकुलादीहीणस्स अपरिभवगसीलत्तणं जहाऽहं उत्तमजातीओ एस नीयजातीओति मदो न कायन्यो, एवं च करेमाणस्स कम्मनिजरा भवद, अक तरस य कम्मोवचयो भवइ, माणस्स उद्दिनस्स निरोहो उदयपत्तस्स विफलीकरणमिति । अज्जनं नाम उज्जुगत्तर्णति मा अकुडिलसति वा एवं च कुव्यमाणस्स कम्मनिचरा भगद, अकुव्यमाणस्स व कम्मोवचयो भगइ मायाए उदंतीए णीरोहो कायथ्यो उदिष्णाए विफलीकरणंति सोए नाम अलद्धया धम्मो वगरणेसुनि एवं च कुव्यमाणस्स कम्मनिजरा भवति, अकुष्यमाणस्स कम्मोवचओ तरहा । लोभरा उतस्स गिरोड़ो कायव्यो उदयपत्तस्स वा विफलीकरणमिति । सर्व्वं नाम सं. चितेय असावनं ततो भासिय सयं च एवं च करेमाणस्स कम्मनिन्दरा भवर, अकरेमाणस्सय कम्मोवचयो भनद संजमो तबो य एते एत्यं न भन्नंति, किं कारणं?, जं एए उवरि अहिंसा संजमो तो एत्थवि सुत्तालागे संजमो तवी वा चैव तेण खापयत् इह न भणिया । इयाणि लागो, चागो णाम वैयावमाकरणेण आयरियोवज्झायादीण महंती कम्मनिज्जरा भयइ, तन्हा स्थपत्तसहादी हिं साहूण संविभागकरणं कायव्वंति । अकिंचिणिया नाम सदेहे निस्संगता निम्भमत्तति वुत्तं भवइ एवं च करेमाणस्स कम्मनिजरा भवइ, अकरेमाणस्स व कम्मोवच भवइ, तन्हा अकिंचणीयं साहूणा सव्यपवत्तेणं अहिडेबलं ददाि बंभचेरं तं अहारसपगारं तं जहा - ओरालयकामभोगे माणसा ण सेवह ण सेवावे सेवतं णाशुजाण, एवं नवविधं गर्म एवं दिव्यापि कामभोगा मणसावि न सेवइ न सेवाने सेवतं नाशुनाइ, एवं जायाएव न सेवेइ न सेवावेद सेवतं नाथुजाणइ एवं काएणामि न सेवेद न सेवावेद सेवतं नानुजाण एवं एवं जङ्कारसविधं बंगचेरं सम्मं आयरंतस्त्र कम्मनिज्रा भवइ, अणायरंतस्स कम्मबंधो भवइति नाऊण आसेवियब्वं । दसविहो समणधम्मो भणिओ, इदाणिं एवं दस बहे सम यथम्मे मूलगुणा उत्तरगुणा समययारिजति - संजमसयम किंचणियंबकचेरगहण मूलगुणा गहिया भवति, तंजा— संजमग्गहणं पदमा अहिंसा गहिया,
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१ द्रुमपु
ष्पिका०
धर्मनिक्षेपः
॥ २३ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४३], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
* A
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
लक्षणो वक्ष्यमाण इति गाथार्थः। उक्तो धर्मः, साम्प्रतं मङ्गलस्यावसरः, तच प्राग्निरूपितशब्दार्थमेव, तत्पुनर्नामादिभेदतचतुओं, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वात्साक्षादनादृत्य द्रव्यभावमङ्गलानिधित्सयाऽऽह
दव्वे भावेऽवि अ मंगलाई दवम्मि पुण्णकलसाई । धम्मो उ भावमंगलमेत्तो सिद्धित्ति काऊणं ॥ ४४ ।। व्याख्या- द्रव्यं' इति द्रव्यमधिकृत्य भाव इति भावं च मङ्गले अपिशब्दानामस्थापने च । तन्त्र 'दब्वम्मि पुण्णकलसाई द्रव्यमधिकृत्य पूर्णकलशादि, आदिशब्दात् खस्तिकादिपरिग्रहः, धर्मस्तु तुशब्दोऽवधारणे धर्म एव भावमङ्गलं । कुत एतदित्यत आह-अतः' अस्माद्धात्क्षान्त्यादिलक्षणात् 'सिद्धिरितिकृत्वा' मोक्ष इतिकृत्वा, भवगालनादिति गाथार्थः ॥ अयमेव चोत्कृष्टं-प्रधानं मङ्गलम्, एकान्तिकत्वादात्यन्तिकत्वाच्च, न पूर्णकलशादि, तस्य नैकान्तिकत्वादनात्यन्तिकत्वाच ॥ साम्प्रतं 'यथोदेशं निर्देश' इतिकृत्वा हिंसाविपक्षतो|ऽहिंसा, तां प्रतिपादयन्नाह
हिंसाए पडिबक्यो होइ अहिंसा चलम्विहा सा उ । दब्वे भावे अ तहा अहिंसऽजीवाइवाओत्ति ॥ ४५॥ | सञ्चग्गहणेणं मुसाबाद विरती गहिया, भरगहणेणं मेहुणविरती गहिया, अकिंचाणियगणेणं अपरिग्गहो गहिलो अदतादाणविरती य गहिया, जेण सदेहेवि गि| संगता कायचा तमा ताव अपरिम्पहिया गहिया, जो सहहे निस्वंगी कह सो अदिलं गेहति ?, तम्हा अकिंचगिवगहणेण अदत्तादाणविरती गहिया चेव, भदवा | एगग्गहणे तज्जातीयागं गर्ग कयं भवतित्ति वम्हा अहिंसागहोण अदिनादाणविरती गहिया, संत्तिमवज्जवतवोगहणेण उत्तरगुणाणं गहणं कयं भवत्ति, धम्मोतिदारं गयं. १ तत्र संयमादिना शान्तिप्रमुखेन मूलोत्तरगुणाख्यान,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति : [४५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दशबैका व्याख्या-तत्र प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा, अस्याः हिंसायाः किम् ?-प्रतिकूल: पक्ष प्रतिपक्षा-अ- दुमपुहारि-वृत्तिःप्रमत्ततया शुभयोगपूर्वकं प्राणाव्यपरोपणमित्यर्थः, किम् ?-भवत्यहिंसेति, तत्र 'चतुर्विधा' चतुष्पकारा अ- पिका.
हिंसा, 'दव्ये भावे अत्ति द्रव्यतो भावतश्चेत्येको भङ्गा, तथा द्रव्यतो नो भावतः तथा न द्रव्यतो भावता, धर्मनिक्षेपः ॥२४॥ तथा न द्रव्यतो न भावत इति तथाशब्दसमुचितो भङ्गत्रयोपन्यासः, अनुक्तसमुखयार्थकत्वादस्येति, उक्तं
च "तथा समुचयनिर्देशावधारणसादृश्यप्रकारवचनेवित्यादि, तत्रायं भनकभावार्थ:-द्रव्यतो भावतश्चेति, "जहा केइ पुरिसे मिअवहपरिणामपरिणए मियं पासित्ता आयनाइहियकोदंडजीवे सरं णिसिरिजा, से अ४ मिए तेण सरेण विद्धे मए सिआ, एसा दब्बओ हिंसा भावओवि" या पुनद्रव्यतो न भावतःसा खल्बीर्या-3 दिसमितस्य साधो कारणे गच्छत इति, उक्तं च-"उच्चालिअम्मि पाए इरियासमिअस्स संकमहाए । वावजेज कुलिंगी मरिज तं जोगमासज्जा ॥१॥ य तस्स तपिणमित्तो बंधो सुहुमो वि देसिओ समए । जम्हा | सो अपमत्तो सा य पमाओत्ति निहिट्ठा ॥२॥” इत्यादि । या पुनर्भावतो न द्रव्यतः, सेयम्-जहाँ केवि पु-13
१ यथा कथित पुरुषो गूगषपरिणामपरिणतः मृर्ग दृष्ट्वा आकांकृष्टकोदण्डजीवः शरै निमजेत , सच मृगस्तेन पारेण विद्धो मृतः स्यात्, एषा द्रव्यतो हिंसा भावतोऽपि. २ उपालिते पादे दैयाँसमितेन संक्रमणार्थम् । व्यापयेत कुलिशी वियेत तं योगमासाद्य ॥१॥३वीन्द्रियाविः वि. प. ४ म च तस्य तनिमित्तो बन्धः सूक्ष्मोऽपि देशितः समये । यस्मात्सोऽप्रमत्तः सा च प्रमाद इति निर्दिष्य ॥२॥ ५ यथा कविमुख्यः मन्दमन्दप्रकाशदेशे संस्थिताभीषदलितकार्य रखें वादा ॥२४॥ | एषोऽहिरि ति तपपरिणामपरिणतः निकृष्ठासिपत्रो बुत हुतं छिन्यात, एषा भावतो दिसा न इव्यतः,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ४५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दश. ५
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रिसे मंदमंदष्पगासप्पदेसे संठियं ईसिवलिअकायं रचुं पासिता एस अहित्ति तव्वहपरिणामपरिणए णिकहियासिपत्ते दुअं अं छिंदिया एसा भावओ हिंसा न दव्बओ ॥ चरमभङ्गस्तु शून्य इति, एवंभूतायाः हिंसायाः प्रतिपक्षोऽहिंसेति । एकार्थिकाभिधित्सयाऽऽह - 'अहिंसऽजीवाइवा ओति' न हिंसा अहिंसा, न जीवातिपातः अजीवातिपातः, तथा च तद्वतः स्वकर्मातिपातो भवत्येव, अजीवश्च कर्मेति भावनीयमिति । उपलक्षणत्वाचेह प्राणातिपातविरत्यादिग्रह इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं संयमव्याचिख्यासयाऽऽहपुढविद्गभगणिमारुयवणस्सईमितिचडपणिदिजीवे ॥ पेहोपेपमाणपरिवणमणोवई काए ॥ ४६ ॥
व्याख्या- पुढवाइयाण जाव य पंचिंदिय संजमो भवे तेसिं । संघहणादि ण करे तिविहेणं करणजोएणं ॥ १ ॥ अजीवेहिं जेहिं गहिएहिं असंजमो इहं भणिओ । जह पोत्थदूसपणए तणपणए चम्मपणए अ ॥ २ ॥ गंडी कच्छवि मुट्टी संपुडफलए तहा छिवाडी अ । एवं पोत्थयपणयं पण्णत्तं वी अराएहिं ॥ ३ ॥ बहलपुहुतेहिं गंडी पोत्यो उ तुलगो दीहो। कच्छवि अंते तणुओ मज्झे पिहुलो मुणेअन्वो ॥ ४ ॥ चरंगुलदीहो वा वागिति मुट्ठिपोत्थगो अहवा । चउरंगुलदीहो चिअ चउरस्सो होइ विण्णेओ ॥ ५ ॥ संर्पुडओ दुगमाई
* उपकरणसंजमो चूकालं पुण पहुच चरणकरणा अयोच्छित्तिनिमित्तं व गेव्हमाणस्स पोत्यए संजमो भवद, चू० १ पृथ्व्यादीनां पञ्चेन्द्रियाण संगमो भवेत्तेषाम् । संघनादि न करोति त्रिविधेन करणयोगेन ॥ १ ॥ २ अधीवेषु येषु गृहीतेषु असंयमो भणित इह यथा पुस्तकदुष्यपञ्चके तृणपथके चर्मपथके च ॥ २ ॥ ३ गण्डी की मुष्टिफलर्क तथा सूपाटिका । एतत्पुस्तकपर्क प्रमं वीतरागेः ॥३॥ ४ माहल्यष्टयुत्वाभ्यां गण्डीपुस्तकं तुल्यं दीर्थम् कच्छपी अन्ते तनुकं मध्ये पृथु ज्ञातव्यम् ॥४॥ ५ चतुरलदीर्घ वा वृताकृति मुष्टिपुस्तकमथवा चतुरदीर्घमेव चतुरस्रं भवति विज्ञेयम् ॥५॥ ६ संपुटकं द्विकादिफलकं
अत्र “संयम” शब्दस्य भेद-प्रभेदानां विस्तृत वर्णनं क्रियते
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ४६ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
।। २५ ।।
फलगा वोच्छं छिवाडिमेसाहे । तणुपत्तोसिअरूवो होइ छिवाडी बुहा बेति ॥ ६ ॥ दीहो वा हस्सो वा जो पिहुलो होइ अप्पबाहल्लो। तं सुणिअ समयसारा छिवाडिपोत्थं भणतीह ॥ ७ ॥ दुविहं च दूसपणअं समासओ तंपि होइ नायध्वं । अप्पडिलेहियद्सं दुप्पडिलेहं च विष्णेयं ॥ ८ ॥ अप्पडिलेहिअदूसे तूली जबधाणगं च णायव्वं । गंडुबधाणालिंगिणि मसूरए चैव पोत्तमए ॥ ९ ॥ पल्हेंवि कोयवि पावर णवतए तहय दॉढिगालीओ। दुष्पडिलेहिअ दूसे एवं बीअं भवे पणगं ॥ १० ॥ पल्देवि हत्थुत्थरणं कोयवओ रूअपूरिओ पडओ । दढगालि धोइ पोती सेस पसिद्धा भवे भेदा ॥ ११ ॥ तणपणगं पुण भणियं जिणेहिं कम्मट्ठगंठि दहणेहिं । साली बीही कोदव रालग रण्णेतणारं च ॥ १२ ॥ ॐय एल गावि महिसी मियाणमजिणं च पंचमं होइ । तैलिया खल्लग कोसग कित्ती य बितिए य॥ १३॥ तह विअडहिरण्णाई ताइँ न गेण्हइ असंजमं साहू ।
वक्ष्ये रूपादिकामतः । तनुपत्रोच्छ्रितरूपं भवति संपादिकां बुधा ब्रुवते ॥ ६ ॥ १ दीर्घे वा हवं वा यत्पृथु भवत्यल्पबाहल्यं । तमुणितसमयसाराः पाटिकापुस्तकं भणन्ति इह ॥ ७ ॥ २ द्विविधं च दूष्यपथकं समासतस्तदपि भवति ज्ञातव्यम् । अप्रतिलेखितदूष्यं दुष्प्रतिडेयध्यं च विज्ञेयम् ॥ ८ ॥ ३ अप्रतिलेखित दृष्ये तुलिका उपधानकं च शतव्यं गण्डोपधानमालिङ्गिनी मसूरकश्चैव पोतमयः ॥ ९ ॥ (१) खरडियो. (२) भूरविगा. (३) सलोम पटः. (४) जीर्णे. (५) सरशवि.प. ४ प्रहादि कुतुषि प्रावारकः नवत्वक् तथा च इदगालिका दुष्प्रतिलेखितदूष्ये एतद् द्वितीयं भवेत्पथकम् ॥ १० ॥ ५ प्रह्लादि हस्तास्तरणं कुतुपो रुतपूरितः पटकः । हगाली घोतपोतं शेषाः प्रशिद्धा भवन्ति भेदाः ॥ ११ ॥ ६ तृणपथकं पुनर्भणितं जनैः कर्माष्टकप्रन्थिदद्दनैः । शालिनीहिः कोद्रवो रालकोऽरण्य तृणानि च ॥ १२ ॥ ७ अगोमहिषीगाणामजिनं च (वर्ग) पथकं भवति । तलिका सहकं व कोशकः कृतिश्च द्वितीये च ॥ १३ ॥ (६) उपानद वर्धः पिपलकस्थानं धर्मवि०प० ८ तथा विकटहिरण्यादीनि तानि न गृहाति असंयमत्वात्साधुः ।
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१ दुमपुष्पिका० संयमः
।। २५ ।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
त
ठाणाइ जत्थ चेए पेह पमज्जितु तत्थ करे ॥ १४ ॥ एसा पेह उवेहा पुणोवि दुविहा उ होइ नायब्वा । वावारावावारे वावारे जहउ गामस्स ॥१५॥ एसो उविक्खगोह अव्वावारे जहा विणस्संतं । किं एयं नु उविक्खसि? दुविहाएवित्थ अहियारो॥१६॥ वावारुविक्ख तहिं संभोइय सीयमाण चोएइ । चोएई ईयर पिहु पावयणीअम्मि कजम्मि ॥१७॥ अव्वावारउवेक्खा णवि चोएइ गिहिं तु सीअंतं । कम्मेसु बहुविहेसुं संजम एसो उवेक्खाए ॥१८॥ पंडिसागरिए अपमज्जिएसु पाएसु संजमो होइ । ते चेव पमजते -
सागरिऍ संजमो होइ ॥१९॥ पाणाईसंसत्तं भत्तं पाणमहवा वि अविसुद्धं । उवगरणभत्तमाई जं वा अहहै रित्त होजाहि ॥ २०॥ तं पैरिट्टप्पविहीए अवह९संजमो भवे एसो । अकुसलमणवहरोहो कुसलाण उदी
रणं चेव ॥ २१॥ र्जुयलं मणवहसंजम एसो काए पुण-जं अवस्सकजम्मि । गमणागमणं भवइ तं उवउत्तो | स्थानादि यत्र चेतयति प्रेक्ष्य प्रमाचं तत्र कुर्यात् ॥ १४ ॥ १ एषा प्रेक्षा उपेक्षा पुनरिह द्विविधा भवति ज्ञातव्या । व्यापाराव्यापारयोः व्यापारे यौन प्रामस्य ॥ १५॥ २ एष उपेक्षकवाव्यापारे यथा विनश्यन्तम् । किमेतं नपेक्षसे द्विविधयाप्यत्राधिकारः ॥ १६॥ व्यापारोपेक्षा तत्र साम्भोगिकान् सीदतश्चोदयाति । चोदयतीतरमपि प्रावधानिके कार्ये ॥ १७॥ (१) पावस्थादिकम् वि०प० । अव्यापारोपेक्षा नैव चोदयति गृहिनं सीदन्तम् । कर्म | बहुविधेषु एष संयम उपेक्षायाम् ॥१८॥ ५ प्रतिसामारिके अप्रमार्जितयोः पादयोः संयमो भवति । तावेग प्रमृज्यमानयोरसागारिके संयमो भवति ॥ १९॥ (२) अपसागारिए चू. प्राणादिसंसकं भर्फ पानमथवाऽपि अपिशुद्धम् । उपकरणमकादि यद्वातिरिकं भवेत् ॥ २०॥ तत्परिष्ठापनविधिना | अपहलपर्सयमो भवेदेषः । अकुशलमनोवचोरोधः कुशलानामुदीरणं चैव ॥२१॥ ८ युगलं मनोवचा संयम एष काये पुनरवश्वकायें । गमनागमने भवतस्ते उपयुक्तः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप
दशवैका०कुणइ सम्मं ॥ २२ ॥ तव्वज कुम्मस्स व सुसमाहियपाणिपायकायस्स । हवह य काइयसंजम चिट्ठतस्सेव दमयहारि-वृत्तिः साहुस्स ॥ २३ ॥ उक्तः संयमः । आह-अहिंसैव तत्त्वतः संयम इतिकृत्वा तद्भेदेनास्याभिधानमयुक्तम्, न, पिका
संयमस्याहिंसाया एव उपग्रहकारित्वात्, संयमिन एव भावतः खल्वहिंसकत्वादिति कृतं प्रसङ्गेन । साम्प्रतं तपोऽधिक तपः प्रतिपाद्यते-तच द्विधा-वाद्यमाभ्यन्तरं च । तत्र तावहाद्यमतिपादनायाह
अणसणमूणोअरिआ वित्ती संखेवणं रसञ्चाओ। कायकिलेसो संलीणया य बझो तबो होइ ।। ४७ ॥ HI व्याख्या-न अशनमनशनम्-आहारत्याग इत्यर्थः, तत्पुनर्द्विधा-इत्वरं यावत्कथिकं च, तत्रेवरं-परिमित-II
कालं, तत्पुनश्चरमतीर्थकृत्तीर्थे चतुर्धादिषण्मासान्तम् , यावत्कधिकं त्वाजन्मभावि, तत्पुनश्चेष्टाभेदोपाधि-13 |विशेषतनिधा, तद्यथा-पादपोपगमनमिङ्गितमरणं भक्तपरिज्ञा चेति, तत्रानशनिनः परित्यक्तचतुर्विधाहारस्याधिकृतचेष्टाव्यतिरेकेण चेष्टान्तरमधिकृत्यैकान्तनिष्प्रतिकर्मशरीरस्य पादपस्येवोपगमनं सामीप्येन वर्तनं पादपोपगमनमिति, तच द्विधा-व्याघातवन्निाघातवच, तत्र व्याघातवन्नाम यत्सिहागुपद्रवव्याघाते सति क्रियत इति, उक्तं च-"सीहादिसु अभिभूओ पादवगमणं करेइ थिरचित्तो। आउम्मि पहुप्पते विआणि नवरि गीअस्थो ॥१॥” इत्यादि, निर्व्याघातवत्पुनर्यत्सूत्रार्थतदुभयनिष्ठितः शिष्यान्निष्पाद्योत्सर्गतः द्वाकरोति सम्यक् ॥१॥१सद्वर्ग कूर्मस्येव सुसमाहितपाणिपादकायस । भवति च कायिका संयमस्तिष्ठत एष साधोः ॥२॥ (१) अहिंसाया उपकारका ॥२६॥ ला(२) सवात्मना, रसिंहादिभिरभूतः पादपोपगमनं करोति स्थिरचित्तः । मायुधि प्रभवति विज्ञाय केवल गीतार्थः ॥१॥
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तपस: द्वादश-भेदानां वर्णनं क्रियते
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दश समाः कृतपरिकर्मा सन्काल एव करोति, उक्तं च "चत्तारि विचित्ताई विगईनिज्जूहियाइं चत्तारि। संवच्छरे अ दोषिण उ एगंतरिअं च आयामं ॥ १॥णाइविगिट्ठो अ तवो छम्मासे परिमिअंच आयाम ।
अन्ने वि अ छम्मासे होइ विगिटुं तवोकम्मं ॥२॥ वासं कोडीसहियं आयामं काउ आणुपुव्वीए । गिरि४कंदरं तु गंतुं पायवगमणं अह करेइ ॥३॥" इत्यादि । तथा इङ्गिते प्रदेशे मरणमिनितमरणम्, इदं च संह-12
ननापेक्षमनन्तरोदितमशकुवतश्चतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपं स्वत एवोद्वर्तनादिक्रियायुक्तस्थावगन्तव्यमिति, उक्तं च-"इंगिअदेसंमि सब चउविहाहारचायणिप्फण्णं । उव्वत्तणादिजुत्तं णाणेण उ इंगिणीमरणं ॥१॥"K इत्यादि । भक्तपरिज्ञा पुनस्त्रिविधचतुर्विधाहारविनिवृत्तिरूपा, सा नियमात्सप्रतिकर्मशरीरस्यापि धृतिसंह-15 ननवतो यथासमाधि भावतोऽवगन्तव्येति, उक्तं च-"भत्तपरिणाणसणं तिविहाहाराइचायनिएफपणं । |सपडिकम्मं नियमा जहासमाहिं विणिहि ॥१॥” इत्यादि उक्तमनशनम्, अधुना ऊनोदरता-ऊनोदरस्य | भाव ऊनोदरता, सा पुनर्द्विविधा-द्रव्यतो भावतश्च, तत्र द्रव्यत उपकरणभक्तपानविषया, तत्रोपकरणे
१ चत्वारि विचित्राणि विकृतिनियूडानि चत्वारि । संवत्सरी व द्वौ तु एकान्तरितं चाचाम्लम् ॥१॥ (१) रहितानि वि.प्र.२ नाति विकृष्टं च तपः घमासान् परिमितं चाचाम्लम् । अन्यानपि च षण्मासान् भवति विकृष्ट उपःकर्म ॥१॥ ३ वर्षे कोटीसहितमाचामाम्लं कृत्वाऽऽनुपूर्वा । गिरिकन्दरांतु गत्वा पादपोपगमनमथ करोति ॥ ३ ॥४ इशितदेशे खयं चतुर्षियाहारसायनिष्पनं । उर्सनादियुकं नान्येनैव इशिनीमरणम् ॥ १॥ ५ भक्तपरिज्ञाऽनशन त्रिविघाहारादियामनिणनम् । सप्रतिकर्म नियमात् यथासमाधि विनिर्दिम् ॥१॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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दशवैका. जिनकल्पिकादीनामन्येषां वा तश्यासपराणामवगन्तव्या, न पुनरन्येषाम्, उपध्यभावे समग्रसंयमाभावाद्दु मपुहारि-वृत्ति |अतिरिक्ताग्रहणतो वोनोदरतेति, उक्तं च-"जं वह उवयारे उवगरणं तं सि होइ उवगरणं । अइरेग अ-1|पिका.
दहिगरण अजयं अजओ परिहरंतो ॥१॥” इत्यादि । भक्तपानोदरता पुनरात्मीयाहारादिमानपरित्यागवतो तपोऽधिक ॥२७॥
वेदितव्या, उक्तं च-"बत्तीसं किर कवला आहारो कुच्छिपूरओ भणिओ । पुरिसस्स महिलिआप अट्ठा-1 वीसं हवे कवला ॥१॥ कैवलाण य परिमाणं कुकुडिअंडयपमाणमेतं तु । जो वा अविगिअवयणो वयणम्मि लहेज वीसत्थो ॥शा" इत्यादि, एवं व्यवस्थिते सत्यूनोदरता अल्पाहारादिभेदतः पञ्चविधा भवति, उक्तं चअप्पाहार अवड्डा दुभाग पत्ता तहेव किंचूणा । अट्ठ दुवालस सोलस चउवीस तहेक्कतीसा य ॥१॥ अयमत्र भावार्थ:-अल्पाहारोनोदरता नामैककवलादारभ्य याबदष्टी कवला इति, अत्र चैककवलमाना जघन्या, अ-18 ष्टकवलमाना पुनरुत्कृष्टा, शेषभेदा मध्यमा च, एवं नवभ्य आरश्य यावद् द्वादश कवलास्तावदपाङ्खनोदरता जघन्यादिभेदा भावनीया इति, एवं त्रयोदशभ्य आरभ्य यावत्षोडश तावद् द्विभागोनोदरता, एवं सप्तदशभ्य आरभ्य यावचतुर्विशतिस्तावत्मासा, इत्थं पञ्चविंशतेरारभ्य यावदेकत्रिंशत्तावत्किञ्चिदूनोदरता, जघन्यादिभेदाः सुधियाऽवसेया, एवमनेनानुसारेण पानेऽपि वाच्याः, एवं योषितोऽपि द्रष्टव्या इति, भावो
M२७॥ यद्वर्तत उपकारे उपकरणं तदस्य भवत्युपकरण । अतिरेकमधिकरणमयतमयतः परिभुषन् ॥ १॥ २ द्वात्रिशस्किल कबला आहारः कुक्षिपुरको भगितः ४ पुरुषस महिलायाः अष्टाविंशतिः सुः कवताः ॥1॥ ३ कवलानां च परिमार्ण कुकुख्यण्डकप्रमाणमात्रमेव । यो वाऽविकतवदनो वदने क्षिपेत् विश्वलः ॥२॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
नोदरता पुनः क्रोधाविपरित्याग इति, उक्तं च-"कोहाईणमणुदिणं चाओ जिणवयणभावणाओ अ । भा
वेणोणोदरिआ पण्णत्ता वीअरागेहि ॥१॥” इत्यादि । उक्तोनोदरता, इदानी वृत्तिसङ्ग्रेप उच्यते-सचा IPIगोचराभिग्रहरूपः, ते चानेकप्रकाराः, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, तत्र द्रव्यतो निलेपादि प्रा-IP
मिति, उक्तं च-"लेडमलेवढं वा अमुर्ग दव्वं च अज घिच्छामि । अमुगेण व दवेणं अह दब्बाभि-|| ग्गहो नाम ॥१॥ अट्ट उ गोअरमूमी एलुगविक्खभमित्तगहणं च । सग्गामपरग्गामे एवइय घरा य खिभत्तम्मि ॥२॥ जुज गंतुपचागई अ गोमुत्तिा पयंगविही। पेडा य अद्भपेडा अम्भितरवाहिसंचुका ॥३॥
काले अभिग्गहो पुण आदी मज्झे तहेव अवसाणे । अप्पत्ते सइकाले आदी बिइ मज्झ तहते ॥४॥
दिर्तगपहिच्छयाणं भवेज मुहम पि मा हु अचियत् । इति अप्पत्तअतीते पवत्तणं मा य तो माझे ॥५॥ Kउक्खित्तमाइचरगा भावजुआ खलु अभिग्गहा होति । गायन्तो अरुअंतोज देह निसन्नमादी वा ॥६॥
कोधादीनामनुदिनं त्यागः जिनवचनभावनातच । भावेनोनोदरता प्राप्ता वीतरागैः॥१॥२ लेपकर अलेपकदाऽमुकं व्यं चाय महीष्यामि । अमुकेण |वा द्रव्येणासौ द्रव्याभिषदो नाम ॥१॥ ३ अष्ट तु गोचरभूमयः एतक (देहली) विष्कम्भमात्रपर्ण च । खपाने परपामे एतावन्ति गृहाणि च क्षेत्रे ॥२॥ INIऋची गत्वाप्रत्यागविश्व गोमूत्रिका पताकीची। पेटा चापेटा अभ्यन्तरबाबशम्बके कालेऽभिप्रहः पुनरादी मध्ये तथैवावसाने । अप्राप्त
स्मृतिकाले आदिः द्वितीये मध्यः तृतीयेऽन्तः ॥४॥६दायकपदीच्छकवोर्भूत सूक्ष्माऽपि मैवाप्रीतिः । इत्यप्राप्ताशीतयोः प्रवर्तनं च मा च (भूत) ततो मध्ये ॥५॥ | उत्क्षिप्तचरकरवाया भावयुतार खल अभियहा भवन्ति । गायन क्ष ययाति निषण्णादियों ॥1॥
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[१]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ४७ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ २८ ॥
| ओसकण अहिसकणपरंमुहालंकिओ नरो वावि । भावण्णयरेण जुओ अह भावाभिग्गहो णाम ||७||” उक्तो वृत्तिसंक्षेपः, साम्प्रतं रसपरित्याग उच्यते तत्र रसाः क्षीरादयस्तत्परित्यागस्तप इति उक्तं च- "बिगेहूं विगईभीओ विगहगयं जो उ भुंजए साहू । विगई विगहसहावा विगई विगई बला इ ॥ १ ॥ विगई। परिणइधम्मो मोहो जमुदिजए उदिष्णे अ । सुहृवि चित्तजयपरो कहं अकज्जे ण वहिहिति ? ॥२॥ दावानलमज्झगओ को तदुवसमट्टयाइ जलभाई । सन्तेवि ण सेविज्जा ? मोहाणलदीविएसुवमा ॥ ३ ॥ इत्यादि, उक्तो रसपरित्यागः, साम्प्रतं कायक्लेश उच्यते स च वीरासनादिभेदाचित्र इति उक्तं च- "वीरासण उक्कडगासगाइ लोआइओ य विष्णेओ । कायकिलेसो संसारवासनिव्वेअ हेउन्ति ॥ १ ॥ वीरासणाइसु गुणा कायनिरोहो दया अ जीवेसु । परलोअमई अ तहा बहुमाणो चेव अन्नेसिं ॥ २ ॥ निस्संगया य पच्छापुरकम्मविवज्रणं च लोअगुणा । दुक्खसहत्तं नरगादिभावणाए य निब्बेओ ॥ ३ ॥” तथाऽन्यैरप्युक्तम्- "पश्चात्कर्म
१] अवष्यष्णमभिष्वष्कणपरामुखालतो नरो वाऽपि । भावेनान्यतरेण युतः असौ भावाभिप्रहो नाम ॥ ७ ॥ २ विकृर्ति विकृतिभीतः विकृतियतं यस्तु मुझे साधुः । विकृतिर्विकृतिखभावा विकृतिर्विगर्ति बलात्रयति ॥ १ ॥ ३ विकृतिः परिणतिधर्मा मोहो यदुदीर्यते उदीर्णे च सुपि चित्तजयपरः कथमकायें न वर्त्स्यति ॥ ९ ॥ ४ दावानलमध्यगतः कादुपशमार्थाय जलादीनि । सन्यपि न सेवेत ? मोहानलदीपित एषोपमा ॥ ३ ॥ ५ बीरासनमुत्कटुकासनं व छोवादिकच विज्ञेयः । कायक्लेशः संसारवासनिर्वेदहेतुरिति ॥ १ ॥ ६ वीरासनादिषु गुणाः कायनिरोधो दया व जीवेषु । परलोकमतिच तथा बहुमान वैवान्येषाम् ॥ २ ॥ ७ निस्संगता च पचात्पूर्वकर्मविवर्जनं न लोचगुणाः । दुःसहत्वं नरकादिभावनया व निर्वेदः ॥ ३ ॥
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१ द्रुमपु
ष्पिका०
तपोऽधि०
॥ २८ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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पुरको (मई ) र्यापथपरिग्रहः । दोषा ह्येते परित्यक्ताः, शिरोलोचं प्रकुर्वता ॥१॥” इत्यादि । गतः कायक्लेशा, साम्प्रतं संलीनतोच्यते इयं चेन्द्रियसंलीनतादिभेदाचतुर्विधेति, उक्तं च-"इंदिअकसायजोए पडच संलीणया मुणेयब्धा । तहय विवित्ताचरिआ पण्णत्ता बीअरागेहिं ॥१॥” तत्र श्रोत्रादिभिरिन्द्रियः शब्दादिषु सुन्दरेतरेषु रागद्वेषाकरणमिन्द्रियसंलीनतेति, उक्तं च-"सद्देसु अ भद्दयपावएसु सोअविसयमुवगएसु । तुट्टेण व रुटेण व समणेण सया ण होअव्वं ॥१॥" एवं शेषेन्द्रियेष्वपि वक्तव्यम् , यथा-- वेसु अभद्दगपावएसु" इत्यादि । उक्तेन्द्रियसल्लीनता, अधुना कषायसंलीनता-सा च तदुदयनिरोधोदीर्णवि-2 कलीकरणलक्षणेति, उक्तं च-"उदयस्सेब निरोहो उदयं पत्ताण वाऽफलीकरणं । जं इत्थ कसायाणं कसायसंलीनता एसा ॥१॥” इत्यादि, उक्ता कषायसंलीनता, साम्प्रतं योगसंलीनता-सा पुनर्मनोयोगादीनामकुश
लानां निरोधः कुशलानामुदीरणमित्येवंभूतेति, उक्तं च-"अपसत्थाण निरोहो जोगाणमुदीरणं च कुसलाणं। ४ कजम्मि य विहिगमणं जोए संलीणया भणिआ॥१॥” इत्यादि । उक्ता योगसंलीनता, अधुना विविक्तचर्या,
१ इन्द्रियकषाययोगान प्रतीम सलीनता मुणितव्या । तथा च थियिका चर्या प्राप्ता वीतरागीः ॥ ५॥ २ शब्देषु च भद्रकथापकेषु श्रोत्रविषयमुपगतेषु ।
हेन चा कडेन वा श्रमणेन सदा न भवितव्यम् ॥ १॥ ३ रूपेषु च भनकपापकेषु, ४ उदयस्यैव निरोध उदयत्राप्तानां वाऽकलीकरणम् । यत्र कषायाणां 151 कवायसंलीनतैषा ॥ १॥ ५ अप्रशस्तानां निरोधो योगानामुदीरक व कुशलानाम् । कार्ये च विधिगमनं योगे संप्लीनता भगिता ॥ १ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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वशवैका०सा पुनरियम्-"आरामुज्जाणादिसु थीपसुपंडगविवजिएसुजं ठाणं । फलगादीण य गहणं तह भणियं १ दुमपुहारि-वृत्तिः एसणिजाणं ॥१॥" गता विविक्तचर्या, उक्ता संलीनता । 'बजझो तवो होही' इति एतदनशनादि वायं तपो । पिका
भवति, लौकिकैरप्यासेव्यमानं ज्ञायत इतिकृत्वा बाह्यमित्युच्यते विपरीतग्राहेण वा कुतीर्थिकैरपि क्रियत ॥२९॥
तपोऽधि० 18 इतिकृत्वा इति गाथार्थः॥ उक्तं बाह्यं तपः, इदानीमाभ्यन्तरमुच्यते । तच प्रायश्चित्तादिभेदमिति, आह च
पौकिछत्तं विणओ वेआवश्चं तहेव सज्झाओ । साणं उस्सग्गोऽवि अ अम्भितरो तवो होइ ॥४८॥
आरामोद्यानादिषु श्रीपशुपण्डकविवर्जितेषु स्थानम् । फलकादीनां च महर्ण तथा भणितमेषणीयानाम् ॥१॥ (1) तव मालोचणा नाम अवस्सकरपिजेसु ५ भिक्खायरियाइएस जइपि भवराहो नत्थि तहाचि अणालोइए अविणओ भक्दत्ति काऊण अचस्स बालोएतव्यं, तो अइ किचि अणेसणाइभवराई सरेबा, सो वा
आयरिओ किचि सारेला, तम्हा आखोएयवं, आलोयगंति वा पगासकरणति वा अक्षणति वा विसोहित्ति वा एमड़ा । इदाणि पदिकमणं, तं च मिच्छामिदुकडसहुतं भाभवड तंजहा-कोई सार भिक्मायरियाए गच्छन्तो कदापमत्तो इरियं न सोहेइ, न य संनि समए किचि पाणविराहणं करी. ताहे सो मिच्छादकडेणेच सज्मा एवं
सेससमितीमुनि गुत्तीमु, जत्य असमितित्तर्ण कर णय महन्तो अवराहो भने पिच्छादुकडेणेच मुद्धी भवतित्ति । तदुभयं नाम जत्थ आलोवर्ण पडिकमर्ण एगिवियागं जीवाणं संघपरितावणाविषु कएमु आउतस्स भवन्ति । विवेगो नाम परिहावणं, तेच आहारोवाहिसेवासणाणसंभत्ताम उम्पमादीस य कारणेसु असुद्धाणं भवद । इदाणि काउत्सग्गे, सोय काउसम्मोत्ति वा विउत्सगोत्ति वा एगहा, सोय काउस्तम्भो इमेहिं किबह तंजदा-गावानईसंतारे गमणागमणमुभिणदसणावरसगादिसु कारणेसु बहुविदो भवद । इदाणि तबो, सो पंचराईवियाणि आदिकाऊण बहुवियप्पो भवइत्ति । तथा छेदो नाम अस्स कस्सनि साहुणो तहारूवं अवराई पाऊण परिवाओ छिजा, तंजहा- अहोरत्तं वा पक्वं वा मास वा संवच्छरं वा, एवमादिच्छेदो भवति । मूले नाम खो चेच से परियाओ मूलतो छिनइ । मगबहुप्पो नाम IC ॥२९॥ सम्बच्छेदपत्तो किंचि कार्य करेऊण तवं तत्तो पुणोनि विक्खा कजा। पारधी नाम वेत्तातो देसतो वा निच्छुमद । उदअणबदमूलपारंचियाणि देसं कालं संजनविराइर्ष पुरिसं पडुब विज्वतित्ति पच्छित्तं गतं.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
व्याख्या-तन्त्र पापं छिनत्तीति पापच्छित्, अथवा यथावस्थितं प्रायश्चित्तं शुद्धमस्मिन्निति प्रायश्चित्तमिति,
उक्तं च-"पावं छिंदह जम्हा पायच्छित्तंति भण्णए तम्हा । पाएण वावि चित्तं चिसोहई तेण पच्छित्तं ॥१॥ दि तत्पुनरालोचनादि दशधेति, उक्तं च-"आलोयणपडिक्कमणे मीसविवेगे तहा विउस्सग्गे । तवछेअमूल
अणवठ्ठया य पारंथिए व ॥१॥" भावार्थोऽस्या आवश्यकविशेषविवरणादवसेय इति । उक्तं प्रायश्चित्तं,
साम्प्रतं विनय उच्यते-तत्र विनीयतेऽनेनाष्टप्रकारं कर्मेति विनय इति, उक्तं च-"विनयफलं शुश्रूषा गुरुहिशुश्रूषाफलं श्रुतज्ञानम् । ज्ञानस्य फलं विरतिर्विरतिफलं चावनिरोधः ॥ १॥ संवरफलं तपोबलमथ तपसो
निर्जरा फलं दृष्टम् । तस्मारिक्रयानिवृत्तिः क्रियानिवृत्रयोगित्वम् ॥ २ ॥ योगनिरोधाद्भवसन्ततिक्षयः सन्ततिक्षयान्मोक्षः । तस्मात्कल्याणानां सर्वेषां भाजनं विनयः॥ ३ ॥" स च ज्ञानादिभेदात् सप्तधा, उक्तं च-"णाणे दंसणचरणे मणवाइकाओवयारिओ विणओ। णाणे पंचपगारों महणाणाईण सद्दहणं ॥१॥ भत्ती तह बहुमाणो तद्दिद्वत्थाण सम्मभावणया । विहिगहणभासोवि अ एसो विणओ जिणाभिहिओ ॥२॥
पापं छित्ति यस्मात् प्रायश्चित्तमिति भण्यते तस्मात् । प्रायेण वापि चित्तं विशोधयति तेन प्रायश्चित्तम् ॥ १॥ २ आलोचना प्रतिक्रमणं मित्रं | विवेकस्तथा व्युत्सर्गः । परछेको मूलमनवस्थाप्यं च पाराधिकं चैव ॥१॥ अत एव नात्र चूणांविष स्थानदर्शनम्. ४ ज्ञाने दर्शने चरणे मनोवाकायेषु औपचारिको विनयः । ज्ञाने पचप्रकार: मतिज्ञानादीनां श्रद्धानम् ॥ १॥ ५ भक्तिसावा बहुमानः तदृष्टार्थानां सम्पग्भावनता । विधिमहणमभ्यासोऽपि |च एष विनयो जिनाभिहितः ॥२॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ४८ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशकाo हारि-वृत्तिः
11 2011
सुस्सूसणा अणासायणा य विणओ अ दंसणे दुविहो । दंसणगुणाहिए कज्जइ सुस्मृसणाविणओ ॥ ३ ॥ संकारम्भुट्ठाणे सम्माणासण अभिग्गहो तह य । आसणअणुप्पयाणं किइकम्मं अंजलिगहो अ ॥ ४ ॥ एंतस्मैणुगच्छणया ठिअस्स तह पज्जुवासणा भणिया । गच्छंताणुव्वयणं एसो मुस्सूसणाविणओ ॥ ५ ॥ इत्थ य सक्कारो-थुणणवंदणादि अभुट्ठाणं-जओ दीसह तओ चैव कायव्वं, संमाणो वस्थपत्तादीहिं पूजणं, आसणाभिग्गहो पुण-अच्छंतस्सेवापरेणासणाणयणपुब्वगं उबविसह एत्थति भणणंति, आसणअणुप्पदाणं तु ठाणाओ ठाणं संचारणं, किइकम्मादओ पगडत्था । अणासायणाविणओ पुण पण्णरसविहो, तंजहा - "तिस्थगर घम्म आयरिअ वायगे थेर कुलगणे संधे । संभोइय किरियाएँ महणाणाईण य तहेव ॥ १ ॥” एत्थ भावणा-तित्थगराणमणासायणाए तित्थगरपन्नत्तस्स धम्मस्स अणासायणाए । एवं सर्वत्र द्रष्टव्यम् । “काँ
१ शुश्रूषा अनाशातना च विनयः दर्शने द्विविधः । दर्शनगुणाधिकेषु क्रियते शुश्रूषाविनयः ॥ ३ ॥ २ सत्कारोऽभ्युत्थानं सन्मानमासनाभिप्रहस्वधा व आसमानुप्रदानं कृतिकर्माहि ॥ ४ ॥ ३ आगच्छतोऽनुगमने स्थितस्थ तथा पर्युपासना मणिता गच्छतोऽनुवजनमेष शुश्रूषाविनयः ॥ ५ ॥ ४ अत्र च सरकारः--सावनयन्दनादि अभ्युत्थानं---यत्र दृश्यते तत्रैव कर्तव्यं सम्मानं वम्रपानादिभिः पूजनम् आसनाभिग्रहः पुनः तिष्ठत एवादरेणासनानयनपूर्वकमुपविशतात्रेतिभणनम् आसनानुप्रदानं तु स्थानात् स्थानं सञ्चारणं, कृतिकर्मादयः प्रसिद्धाः अनाशातनाविनयः पुनः पादशविधस्तद्यथा तीर्थंकरधर्माचार्य वाचके स्थविरकुलगणे । साम्भोगिके क्रियायां च मतिज्ञानादीनां च तथैव ॥ १ ॥ ५ किरिआ णाम अत्यवाओ मण्णति तंगहा—अस्थि आया अस्थि जीवा एवमादी, जो एवं ण सद्दद्दद्द विवरीयं वा पण्णने तेन किरिना आसादिता भवति ६ अत्र भावना तीर्थकराणामनाशातनया तीर्थंकरप्रप्रस्थ धर्मस्थानाकानमा ७ कर्तव्या पुनर्भर्बिहुमानस्तथैव वर्णवादव अर्हदादीनां केवलज्ञानावसानानाम् ॥ १ ॥
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तपोऽधि०
॥ ३० ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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यव्या पुण भत्ती बहुमाणो तह य वणवाओ अ। अरिहंतमाइयाणं केवलणाणावसाणाणं ॥१॥” उक्तो दर्शनविनयः, साम्प्रतं चारित्रविनय:-"सामाइयाइचरणस्स सदहाणं तहेव कारणं । सफासणं परवणमह पु-|४|| रजो भब्वसत्ताणं ॥१॥ मेणवइकाइयविणओ आयरियाईण सव्वकालंपि । अकुसलमणोनिरोहो कुसलाण उदीरणं तहय॥२॥” इदानीमौपचारिकविनया, स च सप्तधा,-अभासऽच्छणछंदाणुवत्तणं कयपडिकिई तहय। कारियणिमित्तकरणं दुक्खत्तगवेसणा तय ॥१॥तई देसकालजाणण सब्बत्थेसु तहयणुमई भणिया। उचआरिओ उ विणओ एसो भणिओ समासेणं ॥२॥" तेत्थ अभासक्छणं आएसस्थिणा णिच्चमेव आ
यरियस्स अन्भासे-अदूरसामत्थे अच्छेअब्ब, छंदोऽणुवत्तियब्यो, कयपडिकिई णाम पसपणा आयरिया सुउत्तस्थतदुभयाणि दाहिति ण णाम निजरति आहारादिणा जइयव्यं, कारियणिमित्तकरणं सम्ममत्थपदमहेजाविएण विणएण बिसेसेण वहिअव्यं, तयट्ठाणुढाणं च कायन्वं, सेस भेदा पसिद्धा । उक्तो विनयः, इदानीं
सामायिकाविचरणाना बद्धान तथैव कायेन । संस्पर्शनं प्ररूपणमध पुरतो भव्यसत्यानां ॥१॥ २ मनोवाकायिकविनयः भाचायौदीनां सर्वकालमपि । कुशालमनोनिरोधः कुशलामामुदीरणं तथैव ॥२॥ (१) आयरिमाइंग अवाणपरिस्संताणं सौसा उ आरम्भ जान पायतला ताव परमेण आदरेण विस्थामणं चू. | ३ अभ्यासस्थानं छन्दोऽनुवर्तनं कृतप्रतिकृतिसार । कारितनिमित्तकरणं दुःखातगवेषणं तथा च ॥१॥ ४ तथा देशकालक्षानं साधु तथा चानुमतिर्भ|णिता । औपचारिकस्तु विनय एष भणितः समासेन ॥ १॥ ५ तत्र अभ्यासस्थान आदेशाधिना निख मेवाचार्यस्य अभ्यासे--अदूरासने स्थातव्यम् , छन्दोऽनुवर्तितव्यः, कृतप्रतिकतिनाम-प्रसमा आचार्या सत्रमर्थ तनुभयं वा दास्यन्ति न नाम निर्जरेति आहारादिना यवितव्यं, कारित निमित्तकरणं सभ्ययर्थपदमध्यापिसमस्या विनयेन विशेषेण वर्तितव्यं, तदनुष्ठानं च कर्तव्य, शेषाः मेवाः प्रसिद्धाः ।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति : [४८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
SSC
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[वैयावृत्त्यम्-तत्र व्याप्तभावो वैयावृत्त्यमिति, उक्तं च-"बेआवच्चं वावडभावो इह धम्मसाहणणिमित्त दुमपुहारि-वृत्तिः अण्णादियाण विहिणा संपायणमेस भावत्थो ॥१॥ आयरिअ उचज्झाए थेर तवस्सी गिलाणसेहाणं । सा-1 पिका
हम्मियकुलगणसंघसंगयं तमिह कायव्वं ॥२॥ तत्थ आयरिओ पंचविहो, तंजहा-पच्चावणायरिओ दिसा- तपोऽधि० ॥३१॥
दायरिओ सत्तस्स उद्देसणायरिओ सुसस्स समुद्देस्सणायरिओ वायणायरिओशि, उवज्झाओ पसिद्धो चेच,
थेरो नाम जो गच्छस्स संठिति करेइ, जाइसुअपरियायाइसु वा थेरो, तवस्सी नाम जो उग्गतवचरणरओ, गिलाणो नाम रोगाभिभूओ, सिक्खगो णाम जो अहुणा पब्वइओ, साहम्मिओ णाम एगो पवयणओ ण लिंगओ, एगो लिंगओ ण पवयणओ, एगो लिंगओ वि पवयणओ वि, एगो ण लिंगओ ण पवयणओ, कुलगणसंघा पसिद्धा चेव । इदानीं सज्झाओ, सो अ पंचविहो-वायणा पुच्छणा परिअहणा अणुप्पेहा धम्मकहा,
*जिनस्य धर्मो जिनधर्मः, विनयधम्मः । स च-"मूलाव संधप्पभव्यो दुमरस " इत्यावि, यतः "विणो सासणे मूलं विणको निम्नाणसाहगो । विणयाउ | विष्णमुझस्स को धम्मो को तो ॥१॥ विणयाउ नाणं नागाउ सण सणाउ चरणं तु । चरणहितो मुक्तो मुक्खे मुक्तं अणाबाई ।। २ इति प्र. विनयात्परं" मापत्य व्यापूतभावः इह धर्मसाधननिमित्तम्, अभाविकानां विधिना सम्पादन मेष भावार्थः ॥१॥ आचावें उपाध्याये स्थपिरे तपखिनि ग्लाने शैक्षके।
वह कत्तव्यम् ॥ २॥ तत्राचार्यः पञ्चविधः। तद्यथा-प्रजाजनाचायः दिशाचायः सूत्रस्वादशनाचायः सूत्रस समुद्देशनाचायः वाचनाचार्य इति, उपाध्यायः प्रसिद्ध एव, स्थपिरो नाम यो गच्छस्य संस्थितिं करोति, जाति (जन्म) श्रुतपर्यायैर्वा स्थविरः, तपसी नाम य उपतपक्षरणरतः | | ग्लानो नाम रोगामिभूतः, शैक्षको नाम योऽधुना प्रबजितः, साधर्मिको नाम एकः प्रवचनतो न लिङ्गतः, एको लिश्तो म प्रवचनतः, एको लिमतोऽपि प्रवचन-18 तोऽपि, एको न सितो न प्रवचनतः, फुलगणसहाः प्रसिद्धार्थव । इदानी खाध्यायः, सच पत्रविधः-वाचना प्रच्छना परिवर्तनापेक्षा भर्मकया ।
8 साधर्मिक
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [४८], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
वायणा नाम सिस्सस्स अज्झावणं, पुच्छणा सुत्तस्स अत्थस्स वा हवइ, परिअहणा नाम परिअणंति वा अ-LPI
भस्सणंति वा गुणणंति एगट्ठा, अणुप्पेहा नाम जो मणसा परिअद्देइ णो वायाए, धम्मकहा णाम जो अ-18 हिंसाइलक्खणं सब्वण्णुपणीअं धम्म अणुओर्ग वा कहेइ, एसा धम्मकहा । गतः स्वाध्यायः, इदानीं ध्यानमुच्यते-तत्पुनराादिभेदाचतुर्विधम् , तद्यथा-आर्तध्यानं रौद्रध्यानं धर्मध्यानं शुक्लध्यान ति, तत्र "रा-IP ज्योपभोगशयनासनवाहनेषु, स्त्रीगन्धमाल्यमणिरत्नविभूषणेषु । इच्छाभिलाषमतिमात्रमुपैति मोहादु, ध्यान तदातमिति तत्पवदन्ति तज्ज्ञाः ॥ १ ॥ संछेदनदहनभञ्जनमारणश्च, बन्धप्रहारदमनैर्विनिकृन्तनैश्च । यो याति रागमुपयाति च नानुकम्पां, ध्यानन्तु रौद्रमिति तत्प्रवदन्ति तज्ज्ञाः॥२॥ सूत्रार्थसाधनमहाव्रतधार-2 ४ाणेषु, बन्धनमोक्षगमनागमहेतुचिन्ता । पञ्चेन्द्रियव्युपरमश्च दया च भूते, ध्यानं तु धर्ममिति तत्प्रवदन्ति है तज्ज्ञाः ॥३॥ यस्येन्द्रियाणि विषयेषु पराशुखानि, सङ्कल्पकल्पनविकल्पविकारदोषैः । योगैः सदा बिभिरहो। निभृतान्तरात्मा, ध्यानोत्तमं प्रवरशुक्लमिदं वदन्ति ॥४॥ आर्ते तियेगितिस्तथा गतिरधो ध्याने तु रौद्रे सदा, धर्म देवगतिःशुभं बत फलं शुक्ले तु जन्मक्षयः । तस्माद् व्याधिरुगन्तके हितकरे संसारनिर्वाहके, ध्याने शुक्लबरे रजाप्रमथने कुर्यात् प्रयत्नं बुधः॥५॥” इति । उक्तं समासतो ध्यान, विस्तरतस्तु ध्यानशतवाचना नाम शिष्यस्याध्यापनम् । प्रच्छना सूत्रस्य अर्थस्य वा भवति । परिवर्तना नाम परिवर्तनमिति बा अभ्यसनामिति वा गुणनमिति वा एकार्थाः । अनुप्रेक्षा। नाम यो मनसा परिवत्तेपति न वाचा । धर्मकथा नाम योऽहिंसादिलक्षणं सर्वप्रणीतं धम्मै मनुयोग वा कथयति, एषा धर्मकथा.
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:+ भाष्य +
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [४८ ], भाष्यं [-]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
।। ३२ ।।
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कादवसेयमिति । साम्प्रतं व्युत्सर्गः, स च द्विधा द्रव्यतो भावतश्च द्रव्यतश्चतुर्धा - गणशरीरोपध्याहारभेदात्, भावतश्चित्रः क्रोधादिपरित्यागरूपत्वात्तस्येति, उक्तं च- "देव्वे भावे अ तहा दुहा विसग्गो चउ व्विहो दब्बे । गणदेहोवहिभत्ते भावे कोहादिचाओ ति ॥ १ ॥ काले गणदेहाणं अतिरित्ता सुद्धभत्तपागाणं। कोहाइयाण सययं कायव्यो होइ चाओ ति ॥ २ ॥ उक्तो व्युत्सर्गः, 'अभितरओ तवो होह' त्ति, इदं प्रायश्चित्तादि व्युत्सर्गान्तमनुष्ठानं लौकिकैरनभिलक्ष्यत्वात्तन्नान्तरीयेश्व भावतोऽनासेध्यमानत्वान्मोक्षप्रास्यन्तरङ्गत्वा चाभ्यन्तरं तपो भवतीति गाथार्थः ॥ शेषपदानां प्रकटार्थत्वात् सूत्रपदस्पर्शिका निर्युतिकृता नोक्ता, खधिया तु विभागे (न) स्थापनीयेति । अत्राह - 'धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्यादी धर्मग्रहणे सति अहिंसासंयमत पोग्रहणमयुक्तं, तस्याहिंसासंयमतपोरूपत्वाव्यभिचारादिति, उच्यते, न, अहिंसादीनां धर्मकारणत्वादर्म्मस्य च कार्यत्वात्कार्यकारणयोश्च कथञ्चिद्भेदात् कथंचिद्भेदश्च तस्य द्रव्यपर्यायो भयरूपत्वात् उक्तं च - "र्णत्थि पुढवीविसिद्धो घटोति तेण जुज्जइ अणण्णो । जं पुण घडति पुष्वं नासी पुढबीह तो अन्नो ॥ १ ॥" इत्यादि, गम्यादिधर्मव्यवच्छेदेन तत्खरूपज्ञापनार्थ वाऽहिंसादिग्रहणमदुष्टमित्यलं विस्तरेण ॥ आह
+ वृत्ति:)
१ द्रव्ये भावे च तथा द्विधा व्युत्सर्गः चतुर्विधो द्रव्ये । गणदेहोपथिमकेषु भावे कोधादियाग इति ॥ १ ॥ काले गणदेहयोः अतिरिकाशुभपानानाम् । श्रोषादिकानां सततं कर्त्तव्यो भवति स्वाग इति ॥ २ ॥ २ नास्ति पृथ्वीविश्वष्ट पट इति यत्तेन युज्यते अनन्यः । पुनर्वट इति पूर्वे नासीबिव्याखतोऽन्यः ॥ १ ॥
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१ दुमपु
ष्पिका० तपोऽधि०
॥ १२ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [४८ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
Ja Education Un
- अहिंसासंयमतपोरूपों धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमित्येतद्वचः किमाशासिद्धमाहोस्वियुक्तिसिद्धमपि ?, अशोच्यते, उभयसिद्धं, कुतो ?, जिनवचनत्वात्, तस्य च विनेयसत्त्वापेक्षयाऽऽज्ञादिसिद्धत्वात्, आह च निर्युतिकारः - जिणवणं सिद्धं चैव भण्णए कत्थई उदाहरणं । आसज्ज व सोयारं हेऊऽवि कर्हिचि भण्णेला ॥ ४९ ॥ व्याख्या - जिना: प्राग्निरूपितवरूपाः तेषां वचनं तदाज्ञया सिद्धमेव-सत्यमेव प्रतिष्ठितमेव अविचार्यमेवेत्यर्थः कुतः ?, जिनानां रागादिरहितत्वात्, रागादिमतश्च सत्यवचनासम्भवात् उक्तं च-- "रागाद्वा द्वेषाद्वा मोहाद्वा वाक्यमुच्यते ह्यनृतम् । यस्य तु नैते दोषास्तस्यानृतकारणं किं स्यात् ? ॥ १ ॥" इत्यादि, तथापि तधाविधश्रोत्रपेक्षया तत्रापि भण्यते कचिदुदाहरणम्, तथा आश्रित्य तु श्रोतारं हेतुरपि कचिद्भण्यते, न तु नियोगतः, तुशब्दः श्रोतृविशेषणार्थः, किंविशिष्टं श्रोतारम् ? - पटुधियं मध्यमधियं च न तु मन्दधियम् इति, तथाहि पटुधियो हेतुमात्रोपन्यासादेव प्रभूतार्थाय गतिर्भवति, मध्यमधीस्तु तेनैव बोध्यते, न वितर इत्यर्थः । तत्र साध्यसाधनान्वयव्यतिरेक प्रदर्शनमुदाहरणमुच्यते, दृष्टान्त इत्यर्थः, साध्यधर्मान्वयव्यतिरेकलक्षणच हेतुः, इह च हेतुमुलस्य प्रथममुदाहरणाभिधानं न्यायानुगतत्वात्तद्बलेनैव हेतोः साध्यार्थसाधकत्वोपपत्तेः कचिद्धेतुमनभिधाय दृष्टान्त एवोच्यत इति न्यायप्रदर्शनार्थं वा, यथा गतिपरिणामपरिणतानां जीवपुद्गलानां गत्युपष्टम्भको धम्र्मास्तिकायः, चक्षुष्मतो ज्ञानस्य दीपवत्, उक्तं च- “जीवानां पुद्गलानां च गत्युपष्टम्भकारणम् । धर्मास्तिकायो ज्ञानस्य, दीपचक्षुष्मतो यथा ॥ १ ॥” तथा कचिद्धेतुरेव केवलोऽभिघी
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [४९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ ३३ ॥
অঅ
यते न दृष्टान्तः, यथा मदीयोऽयमश्वो, विशिष्ट चिह्नोपलब्ध्यन्यथानुपपत्तेरित्यलं प्रसङ्गेनेति गाथार्थः ॥ तथाकत्थइ पंचावयवं दसहा वा सव्वहा न पढिसिद्धं । न व पुण सव्वं भण्णइ हंदी सविआरमक्खायं ॥ ५० ॥ व्याख्या- श्रोतारमेवाङ्गीकृत्य कचित्पश्चावयवं 'दशधा वेति कचिदशावयवं, 'सर्वथा' गुरुश्रोत्रपेक्षया न प्रतिषिद्धमुदाहरणाद्यभिधानमिति वाक्यशेषः, यद्यपि च न प्रतिषिद्धं तथाप्यविशेषेणैव न च पुनः सर्व भण्यते उदाहरणादि किमित्यत आह- 'हंदी सविआरमक्खायं हन्दीत्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति ?, यस्मादिहान्यत्र च शास्त्रान्तरे 'सविचार' सप्रतिपक्षमाख्यातं साकल्यत उदाहरणाद्यभिधानमिति गम्यते, प श्चावयवाश्च प्रतिज्ञादय:, यथोक्तम्- “प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः' (न्यायद० १-१-३२ ) | दश पुनः प्रतिज्ञाविभक्त्यादयः, वक्ष्यति च "ते व पइण्णविहत्ती" इत्यादि । प्रयोगाश्चैतेषां लाघवार्थमिहैव स्वस्थाने दर्शयिष्याम इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं यदुक्तम्- 'जिणवयणं सिद्धं चैव भण्णई कत्थई उदाहरणं” इत्यादि, तत्रोदाहरणहेत्वोः खरूपाभिधित्सयाऽऽह
तत्थाहरणं दुविहं चउम्विहं होइ एकमेकं तु । हेऊ चडव्विहो खलु तेण उ साहिजए अत्थो ॥ ५१ ॥ व्याख्या - तत्रशब्दो वाक्योपन्यासार्थो निर्धारणार्थं वा, उदाहरणं पूर्ववत्, तच्च मूलभेदतो 'द्विविधं द्विप्रकारं, चरितकल्पितभेदात्, उत्तर भेदतस्तु चतुर्विधं भवति, तयोर्द्वयोरेकैकमुदाहरणमाहरण १ तद्देश रतदोषो ३पन्यास४भेदात्, तच वक्ष्यामः, तथा हिनोति-गमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानर्थानिति हेतु:, स 'चतुर्विधः'
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१ द्रुमपु
ष्पिका० प्रतिज्ञादयोऽवयवाः
॥ ३३ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५१], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
दीप
ELESSERTAL
चतुष्पकारः, खलुशब्दो व्यक्तिभेदादनेकविधश्चेति विशेषणार्थः, तुशब्दस्य पुनःशब्दार्थत्वात् तेन पुनहेंतुना साध्यार्थाविनाभावबलेन 'साध्यते निष्पाद्यते ज्ञाप्यते वा 'अर्थ' प्रतिज्ञार्थ इति गाधार्थः ॥ साम्प्रतं नानादेशजविनेयगणहितायोदाहरणैकार्धिकप्रतिपिपादयिषयाऽऽह
नायमुदाहरणंतिम दिलुतोवम निदरिसणं तहव । एगटुं तं दुविहं चउन्विहं चेव नायब्वं ॥५२॥ व्याख्या-ज्ञायतेऽस्मिन सति दान्तिकोऽर्थ इति ज्ञातम्, अधिकरणे निष्ठाप्रत्ययः, तथोदाहियते प्राबल्येन गृह्यतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इति उदाहरणम् , दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्तः, अतीन्द्रियप्रमाणादृष्टं संवेदननिष्ठां नयतीत्यर्थः, उपमीयतेऽनेन दान्तिकोऽर्थ इत्युपमानम् , तथा च 'निदर्शन' निश्चयेन दइयतेऽनेन दाष्टोन्तिक एवार्थ इति निदर्शनम्, 'एगटुंति इदमेकार्थम् एकाधिकजातम्, इदं च तत्प्रागुपन्यस्तं द्विविधमुदाहरणं चतुर्विधं चैवाङ्गीकृत्य ज्ञातव्यं प्रत्येकमपि, सामान्यविशेषयोः कथञ्चिदेकत्वाद, अत एव सामान्यस्थापि प्राधान्यख्यापनार्थमेकवचनाभिधानम् एकार्थमिति, अब बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते अन्धविस्तरभयादू, गमनिकामात्रमेवैतदिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं यदुक्तं तत्रोदाहरणं द्विविध मित्यादि, तद् द्वैविध्यादिनदशनायाह
चरिच कपि वा दुविहं तत्तो चउठिवहेोकं । आहरणे तसे तहोसे चेवुवन्नासे ॥ ५३ ॥ व्याख्या-चरितं च कल्पितं चे(वे)ति द्विविधमुदाहरणम् , तत्र चरितमभिधीयते यवृत्तं, तेन कस्यचिद् दाटी
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ५३ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ ३४ ॥
न्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते, तद्यथा दुःखाय निदानं यथा ब्रह्मदत्तस्य । तथा कल्पितं खबुद्धिकल्पनाशिल्पनिर्मितमुच्यते, तेन च कस्यचिद्दाष्टन्तिकार्थप्रतिपत्तिर्जन्यते, यथा- पिष्पलपत्रैरनित्यतायामिति, उक्तं च - "जहे तुम्भे तह अम्हे तुम्भेवि अ होहिहा जहा अम्हे । अप्पाहेर पडतं पंडुअपतं किसलयाणं ॥ १ ॥ णवि अत्थि णवि अ होही उल्लावो किसलपंडुपत्ताणं । उवमा खलु एस कथा भविअजणविवोहणद्वार ||२||” इत्यादि। आह-इदमुदाहरणं दृष्टान्त उच्यते, तस्य च साध्यानुगमादि लक्षणमिति, उक्तं च- "साध्येनानु गमो हेतोः, साध्याभावे च नास्तिता । स्याप्यते यत्र दृष्टान्तः, स साधर्म्येतरो द्विधा ॥ १ ॥" अस्य पुनस्तलक्षणाभावात् कथमुदाहरणत्वमिति १, अत्रोच्यते, तदपि कथञ्चित्साध्यानुगमादिना दाष्टन्तिकार्थप्रतिपत्तिजनकत्वात्फलत उदाहरणम्, इहापि च साऽस्त्येवेतिकृत्वा किं नोदाहरणतेति । साध्यानुगमादि लक्षणमपि सामान्यविशेषोभयरूपानन्तधर्मात्मके वस्तुनि सति कथञ्चिद्भेदवादिन एव युज्यते, नान्यस्य, एकान्तभेदाभेदयोस्तदभावादिति, तथाहि सर्वथा प्रतिज्ञादृष्टान्तार्थ भेदवादिनोऽनुगमतः खलु घटादौ कृतकत्वादेरनित्यत्वादिप्रतिबन्धदर्शनमपि प्रकृतानुपयोग्येव, भिन्नवस्तुधर्मत्वात्, सामान्यस्य च परिकल्पितत्वादसत्त्वाद्, | इत्थमपि च तद्वलेन साध्यार्थप्रतिबन्धकल्पनायां सत्यामतिप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थ
पाण्डुरप
१ यथा सूर्य तथा वयं यूयमपि भविष्यथ यथा वयम् । उपालभते पतत् पाण्डरपत्रं किशलयान् ॥ १ ॥ नैवास्ति नैव भविष्यति उकापः प्रयोः । उपमा खल्येषा कृता भविकजनविबोधनार्थाय २ ॥
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१ दुमपुष्पिका०
उदाहरण भेदी
॥ ३४ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५३], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
दीप
विस्तरभयादिति, एवं सर्वथा अभेदवादिनोऽप्येकत्वादेव तदभावो भावनीय इति, अनेकान्तवादिनस्त्वन-2 मन्तधर्मात्मके वस्तुनि तत्तद्धर्मसामर्थ्यात्तत्तद्वस्तुनः प्रतिबन्धबलेनैव तस्य तस्य वस्तुनो गमकं भवति, अन्यथा
ततस्तसिंस्तत्प्रतिपत्त्यसम्भव इति कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः-चरितं च कल्पितं चे(व)त्यनेन विधिना द्विविधम् ,
पुनश्चतुर्विध-चतुष्पकारमेकैकम् , कथमत आह–'उदाहरणं तद्देशः तद्दोषश्चैव उपन्यास' इति । तत्रोदाह-12 धारणशब्दार्थ उक्त एव, तस्य देशस्तदेशा, एवं तद्दोषः, उपन्यसनमुपन्यासः, स च तद्वस्वादिलक्षणो वक्ष्यमाण: इति गाथार्थः । साम्प्रतमुदाहरणमभिधातुकाम आह
चहा खलु आहरण होइ अवाओ उवाय ठवणा य । तह्य पडुपनविणासमेव पढ़म चरविगप्पं ।। ५४ ।।। व्याख्या-चतुर्धा खलु उदाहरणं भवति, अथवा चतुर्धा खलु उदाहरणे विचार्यमाणे भेदा भवन्ति, तद्यथाअपायः उपायः स्थापना च तथा च प्रत्युत्पन्नविनाशमेवेति, खरूपमेषां प्रपशेन भेदतो नियुक्तिकार एव व-13 क्ष्यति, तथा चाह-प्रथमम् अपायोदाहरणं 'चतुर्विकल्प चतुर्भेदम् । तत्रापायश्चतुःप्रकारः, तद्यथा-द्रव्यापायः क्षेत्रापायः कालापायो भावापायश्च इति गाधार्थः। तत्र द्रव्यादपायो द्रव्यापाया, अपाय:-अनि-४ टप्राप्तिः द्रव्यमेव वा अपायो द्रव्यापाया, अपायहेतुत्वादित्यर्थः, एवं क्षेत्राविष्वपि भावनीयम् । साम्प्रतं द्रव्यापायप्रतिपादनायाह
दयावाए दोन्नि उ वाणिभगा भायरो धणनिमित्तं । वहपरिणएकमेकं दई मि मच्छेण निव्वेओ ।। ५५ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक अध्ययनं [१], उद्देशक [-], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
।। ३५ ।।
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मूलसूत्र ३ ( मूलं+निर्युक्तिः + भाष्य + वृत्तिः ) मूलं [-] / गाथा || १ || निर्युक्ति: [ ५५ ], भाष्यं [-] संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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व्याख्या- द्रव्यापाये उदाहरण द्वौ तु तुशब्दादन्यानि च वणिजी भ्रातरौ 'धननिमित्तं' धनार्थं बधपरिणतो 'एकैकम्' अन्योऽन्यं हदे मत्स्येन निर्वेद इति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तवेदम्एगंमि संनिवेसे दो भायरो दरिहप्पाया, तेहिं सोरहं गंतूण साहस्सिओ उलओ स्वगाणं विढविओ, ते अ सयं गामं संपत्थिया, इंता तं पणउलयं वारएण बहंति, जया एगस्स हत्थे तदा इयरो चिंतेइ - 'मारेमिणवरमेए रूवगा ममं होतु एवं बीओ चिनेह "जहाऽहं अं मारेमि” ते परोप्परं वह परिणया अज्झवस्संति । तओ जाहे सग्गामसमी पत्ता तत्थ नईतडे जिहेअरस्स पुणरावित्ति जाया- 'धिरत्धु ममं, जेण मए दव्वस्स कए भाउविणासो चिंतिओ' परुण्णो, इअरेण पुच्छिओ, कहिओ, भणई-ममंपि एयारिसं चित्तं होतं, ताहे एअस्स दोसेणं अम्हेहिं एवं चिंतिअंतिकार्ड तेहिं सो उलओ दहे छूढो, ते अ घरं गया, सो अ ण्डलओ तत्थ पडतो मच्छरण गिलिओ, सो अ मच्छो मेएण मारिओ, वीहीए ओयारिओ । तेसिं च भागाणां भगिणी मायाए बीहिं पट्टविआ जहा मच्छे आणेह जं भाउगाणं ते सिज्झति, ताए अ संमावतीए सो चेव
अथ चूर्णि / वृत्तिकारः विविध उदाहरणानि दर्शयन्ते
१ एकस्मिन् सन्निवेशे द्वौ भ्रातरौ दरिद्रप्रायौ, ताभ्यां सौराष्ट्रं गत्वा साहस्रिको नकुलको रूपकाणामर्जितः, तौ च खकं ग्रामं संप्रस्थिती, आयान्तौ तं नकु लकं बारकेण वहतः, यदा एकस्स इस्ते तदा इतरचिन्तयति मारयामि केवलमेते रूप्यका मम भवन्तु एवं द्वितीयश्चिन्तयति--सथाऽहमेतं मारयामि, तौ परस्परं थपरिणतावयवस्यतः ततो यदा स्वग्रामसमीपं प्राप्तौ तत्र नदीतटे ज्येष्ठेतरस्य पुनरावृत्तिर्जाता 'धिगस्तु मां येन मया द्रव्यस्य कृते भ्रातृविनाशविन्तितः प्रह दितः, इतरेण पृष्टः कथितः, भणति ममाप्येतादृशं चित्तमभूत्, तदेतस्य दोषेणायाभ्यामेतचिन्तितमिति कृत्वा ताभ्यां स नकुलको हरे क्षिप्तः, तौ च गृहं गतौ, २ स च नकुलस्तत्र पतन् मत्स्येन गिलितः, स च मत्स्यः श्वपचेन मारितः, वीभ्यामवतारितः । तयोश्रोर्भगिनी च मात्रा वीथी प्रस्थापिता यथा मत्स्यानानय मातृभ्यां ते सियन्ति तथा च समापत्त्या स एव. (१) भवितव्यत्तया वि० प्र०.
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१ द्रुमपु
ष्पिका०
द्रव्यापायाचा आ
हरणभेदाः
।। ३५ ।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१५], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
मच्छओ आणीओ, चेडीए फालिंतीए णउलओ दिहो, चेडीए चिंतिअं-एस णउलओ मम चेव भविस्सइत्ति उच्छंगे कओ, ठवितो य घेरीए विट्ठो णाओ अ, तीए भणियं-किमेअं तुमे उच्छंगे कर्य?, सावि लोहा गयाण साहइ, ताओ दोवि परोप्परं पहयातो, सा थेरी ताए चेडीए तारिसे मम्मप्पएसे आहया जेण तक्खणमेव जीवियाओ वषरोविया, तेहिं तु दारएहिं सो कलहवइअरो णाओ, सणउलओ दिट्ठोधेरी गाढप्प-III हारा पाणविमुका निस्सहूं धरणितले पडिया विट्ठा, चिंति च हिं-इमो सो अवायबहुलो अ(ण)त्थोत्ति। एवं दवं अवायहेउत्ति ॥ लौकिका अप्याहु:-"अर्थानामर्जने दु:खमर्जितानां च रक्षणे । आये दुःखं व्यये ।। दुःखं, धिम् द्रव्यं दुःखवर्धनम् ॥१॥ अपायबहुलं पापं, ये परित्यज्य संश्रिताः। तपोवनं महासत्यास्ते धन्यास्ते || तपस्विनः ॥ २॥” इत्यादि । एतावत्यकृतोपयोगि । तेओ तेसिं तमवायं पिच्छिऊण णिवेओ जाओ, तओ|8 तं दारियं कस्सइ दाऊण निविणकामभोआ पब्वइयत्ति गाथार्थः ॥ इदानी क्षेत्राद्यपायप्रतिपादनायाह
१ मत्स्स आनीतः, या विदारयन्या नकुलको राष्टः, चेव्या चिन्तितम् - एष नकुलको ममैव भविष्यति इति उत्सझे कृतः, स्थाप्यमानव स्थविरया दृष्टो | ज्ञातच, तया भणितम्--किगेतत्त्वयोत्सङ्गे कृवम् ?, सापि लोभं गतान साधयति, ते द्वे अपि परस्परं प्रहते, सा स्थविर तया चेव्या तारशे मर्मप्रदेशे आहता, येन तरक्षणमेव जीविताद् व्यपरोपिता, ताभ्यां तु दारकाभ्यां स कलहत्यतिकरो हातः, स नकुलको दृष्टः, स्थदिरा गावप्रहारा प्राणविमुक्ता निसरी धरणीतले पतिता दृष्टा, चिन्तितं चाभ्याम्-अयं सोऽपायबाटुलोर्थ इति । एवं बव्यमपायहेतरिति. २ ततस्तयोस्तमपाय वा निवेदो जातः, ततस्ता दारिका कस्मैचिद्दत्वा निर्विष्णकामभोगौ प्रनजिताविति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ५६ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ ३६ ॥
खेत्तंमि अवक्रमणं दसारवनारस होइ अवरेणं । दीवायणो अ काले भावे मंडकिभाखवओ ॥ ५६ ॥
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ष्पिका० द्रव्यापायाद्या आ
व्याख्या -तत्र क्षेत्र इति द्वारपरामर्शः, ततश्च क्षेत्रादपायः क्षेत्रमेव वा तत्कारणत्वादिति । तत्रोदाहरणमपक्रमणम्-अपसर्पणं 'दशारवर्गस्य' दशारसमुदायस्य भवति 'अपरेण' अपरत इत्यर्थः, भावार्थः कथानकादवसेयः, तच वक्ष्यामः । 'द्वैपायनश्च काले' द्वैपायनऋषिः, काल इत्यत्रापि कालादुपायः कालापायः काल एव वा तत्कारणत्वादिति, अन्त्रापि भावार्थः कथानकगम्य एव तच वक्ष्यामः । 'भावे मंडकिकाक्षपक' इत्य- हरणभेदाः त्रापि भावादपायो भावापायः स एव वा तत्कारणत्वादिति, अन्त्रापि च भावार्थः कथानकादवसेयः, तच वक्ष्याम इति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थ उच्यते खित्तापाओदाहरणं दसारा हरिवंसरायाणो एत्थ महई कहा जहा हरिवंसे । उबओगियं चेव भण्णए, कंसंमि विणिवाइए सावायं खेत्तमेयंतिकाऊण जरासंधरायभरण दसारवग्गो महुराओ अवकमिऊण बारव गओति । प्रकृतयोजनां पुनर्नियुक्तिकार एवं करिष्यति, किमकाण्ड एव नः प्रयासेन ? | कालावाए उदाहरणं पुण-कण्हपुच्छिएण भगवयाऽरिहणेमिणा बागरियं - बारसहिं संवच्छरेहिं दीवायणाओ बारवईणयरीविणासो, उज्जोततराए णगरीए परंपरएण सुणिऊण दीवायणपरि
१ क्षेत्रापायोदाहरणम् – दशाही हरिवंशराजानः अत्र महती कथा, यथा हरिवंशे औपयोगिकमेव भण्वते, कंसे विनिपातिते सापायं क्षेत्रमेतदिवित्वा जरासन्धराजभयेन दशाच मधुरातोऽपक्रम्य द्वारवतीं गत इति २ कालापाये उदाहरणं पुनः कृष्णपृष्टेन भगवताऽरिष्टनेमिना व्याकृतम्- द्वादशभिः संवत्सरैर्द्वैपायनाद् द्वारवतीनगरी विनाशः, उद्योततरायां नगर्यो परम्परकेण श्रुत्वा द्वैपायनपरिवाजको
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ५६ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दश. ७
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व्यायओ मां णगरिं विणासेहामित्ति कालावधिमण्णओ गमेमित्ति उत्तरावहं गओ, सम्मं कालमाणमयाणिऊण य वारसमे चैव संबच्छरे आगओ, कुमारेहिं खलीकओ, कयणिआणो देवो उबवण्णो, तओ य णगरीए अवाओ जाओन्ति, णण्णहा जिणभासियति । भावावाए उदाहरणं खमओ- एगो खमओ चेल्लएण समं भिक्खायरियं गओ, तेण तत्थ मंडुकलिया मारिआ, चिल्लएण भणिअं मंडुकलिआ तए मारिआ, खवगो भाइ-रे दुहू सेह! चिरमइआ चेव एसा, ते गआ, पच्छा रत्ति आवस्सए आलोईताण खमगेण सा मंडकलिया नालोइया ताहे चिल्लएण भणिअं खमगा ! तं मंडुक्कलियं आलोएहि, खमओ रुट्ठो तस्स चेल्लयस्स खेलमल्लयं घेत्तूण उडाइओ, अंसियालए खंभे आवडिओ वेगेण इंतो, मओ य जोइसिएस उवबन्नो, तओ चइत्ता दिट्ठीविसाणं कुले दिट्ठीविसो सप्पो जाओ, तत्थ य एगेण परिहिंडतेण नगरे रायपुत्तो सप्पेण खइओ, अहितुंडएण विज्ञाओ सब्वे सप्पा आवाहिआ, मंडले पबेसिआ भणिया-अण्णे सच्वे गच्छंतु, जेण
१ मा नगरी विनिनशमिति (विनाशयिष्यामीति ) कालावधिमन्त्र गमयामीति उत्तरापथं गतः । सम्यकालमानमज्ञात्वा च द्वादशे चैव संवत्सरे आगतः, कुमारैरुपसर्गितः कृत निदानो देव उत्पन्नः तत्तव नगर्यो अपायो जात इति नान्यथा जिनभाषितमिति भावापाये उदाहरणं क्षपकः एकः क्षपकः शिष्येण सम निक्षाचर्यां गतः तेन तत्र मण्डकिका मारिता, शिष्येण भणियम्-मण्डूकिका त्वया मारिता, क्षपको गणविरे दुष्टयक्ष चिरागत पात्रा वावश्यके आलोचयतां क्षपकेण सा महूकिका नालोचिता तदा शिष्येण भणितम् क्षपक! तो मण्डूकिकामालोचय, क्षपको रुस्तलै शिष्याय, श्लेष्मनाइ गृहीतोद्धारितः स्यालये स्तम्भे आपतितः वेगेनाऽवान् मृत ज्योतिष्केषूत्पन्नः, ततथ्युत्वा दृष्टिविषाणां कुठे दृष्टिविषः सर्पो जातः, रात्र चैकेन परिहिण्डमानेन नगरे राजपुत्रः खर्पेण दष्टः, आहितुण्डिकेन विद्यया सर्वे सर्पा आहूताः, मण्डले प्रवेशिता भणिताः अन्ये सर्वे गच्छन्तु येन.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ५६ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
'दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ ३७ ॥
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पुण रायपुत्तो खड़ओ सो अच्छउ, सब्बे गया, एगो ठिओ, सो भणिओ-अहवा विसं आविग्रह अहवा एत्थ अग्गिमि णिवडाहि, सो अ अगंधणो, सप्पाणं किल दो जाईओ-गंधणा अगंधणा य, ते अगंधणा माणिणो, ताहे सो अरिंगमि पविट्ठो, ण य तेण तं वतं पञ्चाइयं, रायपुत्तोवि मओ, पच्छा रण्णा रुट्टेण घोसावियं रज्जे-जो मम सप्पसीसं आणेइ तस्साहं दीणारं देमि, पच्छा लोगो दीणारलोभेण सप्पे मारेडं आढतो, तं च कुलं जत्थ सो खमओ उप्पन्नो तं जाइसरं रतिं हिंडर दिवसओ न हिंडइ, मा जीवे दहेहामित्तिकाएं, अण्णया आहितुंडिगेहिं सप्पे मग्गंतेहिं रतिंचरेण परिमलेण तस्स खमगसप्पस्स बिलं दिति दारे से ठिओ, ओसहिओ आबाहेर, चिंतेह-दिट्ठो मे कोवस्स विवाओ, तो जइ अहं अभिमुो णिगच्छामि तो दहिहामि, ताहे पुच्छेण आढत्तो निम्फिडिजं, जन्तियं निष्फेडेइ तावइयमेव आहिंडओ छिंदेह, जाव सीसं छिपणं, मओ य, सो सप्पो देवयापरिग्गहिओ, देवयाए रण्णो सुमिणए दरिसणं दिण्णं-जहा मा
१ पुना राजपुत्रो दष्टः स तिष्ठतु सर्वे गताः एकः स्थितः स भणितः अथवा विनापित, अथवा ग्रामीनिषत, सागन्धनः सर्पाणां किल जातीगन्ना अगन्धा च ते अगन्धना मानिनः, तदा सोऽमी प्रविष्टः न च तेन तद्वान्तं प्रथापीतं राजपुत्रोऽपि मृतः पचाद्राज्ञा रुन घोषितं राज्ये यो मम सर्पशमानयेत् तस्माय दीनारं ददामि पश्चाहोको दीनारलोभन सपन मारयितुमाहतः, तच कुलं यत्र स क्षपक उत्पातिर रात्री हिण्डते दिवसे न हिण्डते, मा जीवान् धाक्षमितिकृत्वा अन्यदाहितुण्डः सर्पान् मार्गयद्भिः रात्रिचरेण परिमलेन तस्य क्षपकसर्पस्य बिलं दृष्टमिति द्वारे तस्य स्थितः औषधित आह्वयति, चिन्तयति रथे मया कोपा विपाकः ततो यथमभिमुखो निगच्छामि तदा पक्ष्यामि ततः पुच्छेनादृतो निःस्फिटितुं यावभिस्फिति तावदेवाहितुण्डिक निति वच्छी छिनं, तब स सप देवतापरिगृहीतः देवतया राज्ञः स ददर्शनं दत्तं यथा मा.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ५६ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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सप्पे मारेह पुत्तो ते नागकुलाओ उन्बहिण भविस्सर, तस्स दारयस्स नागदत्तनामं करेजाहि सो अ खमगसप्पो मरिता तेण पाणपरिधारण तस्सेव रण्णो पुत्तो जाओ, जाए दारए णामं कथं नागदत्तो, खुट्ट लओ चैव सो पञ्चइओ, सो अ किर तेण तिरियाणुभावेण अतीव छुहालुओ, दोसीणवेलाए चेव आढवे भुंजिडं जाव सूरस्थमणवेलं, उबसंतो धम्मसद्धिओ य, तम्मि अ गच्छे वत्तारि खमगा, तंजा पाउम्मासिओ तिमासिओ दोमासिओ एगमासिओति, रतिं च देवया बंदिडं आगया, चाउम्मासिओ पढमडिओ, तस्स पुरओ तेमासिओ, तस्स पुरओ दोमासिओ, तस्स पुरओ एगमासिओ, ताण य पुरओ खुड्डूओ । सब्वे खमगे अतिकमित्ता ताए देवयाए खुट्टओ बंदिओ, पच्छा ते खमगा रुट्ठा, निग्गच्छंती अ गहिया चाउम्मासिअखमएण पोत्ते, भणिआ य अणेण कडपूयणि अम्हे तवस्सिणो ण बंदसि, एवं कूरभाषणं बंदसित्ति, सा देवया भणइ अहं भावखमयं वंदामि, ण पूआसकारपरे माणिओअ वंदामि, पच्छा ते चेल्लयं तेण अमरिसं
१ सर्पान् भारय पुत्रस्ते नागकुला भविष्यति, तस्य दारकस्य नागदतनाम कुर्याः स च क्षपकस त्या तेन प्राणपरित्यागेन तस्यैव राज्ञः पुत्रो जातः, जाते दारके नाम तं नागदत्तः, हक एव स प्रवजितः स च किल तेन तिर्यगनुभावेनातीय क्षुधाः, प्रभातवेलायामेवाद्रियते मोकुं यावत्सूर्यासमयनयेला, उपशान्तो धर्मश्रद्विव तस्मिन् गच्छे चत्वारः क्षपकास्तथा चातुर्मासिक त्रैमासको द्वैमासिक एकमासिक इति, रात्रौ च देवता वन्दितुमागता. रविण रात्रिसकेन वि० प० चातुर्मासिकः प्रथमः स्थितः तस्य पुरतः त्रैमासिकः तस्य पुरतो द्वैमासिकः तस्य पुरत एकमासिकः तेषां च पुरतः शुकः । सर्वान् क्षपकानतिक्रम्य तथा देवताको बन्दितः पचाते क्षपका रुष्टाः, निर्गच्छन्ती च गृहीता चातुर्मासिकेन पोते, भणिता पानेनकटपूतने! अस्माँस्तपखिनो न बन्द एनं कूरभाजनं वन्दस इति सा देवता भणति अहं भावक्षपकं वन्दे न पूजासत्कारपरान् मानिन बन्दे पञ्चासे काय तेनामर्ष.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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दशबैका I वहति, देवया चिंतेह-मा एए चेल्लयं खरंटेहिंति, तो सपिणहिआ चेव अच्छामि, ताहं पडियोहेहामि.
१दुमपुहारि-वृत्तिः बितिअदिवसे अचेल्लओ संदिसावेऊण गओ दोसीणस्स, पडिआगओ आलोइत्ता चाउम्मासियखमग
पिका Pाणिमंतेइ, तेण पडिग्गहे से णिच्छूढ, चेल्लओ भणइ-मिच्छामिदुक्कडं जं तुम्भे मए खेलमल्लओ ण पणामिओ./ ॥३८॥1
द्रव्याद्य तं तेण उप्पराज व फेडित्ता खेलमल्लए छुडं, एवं जाव तिमासिएणं जाव एगमासिएणं णिच्ढे, तं तेण
पाया: तहा चेव फेडिअं, अडयालिसा लंबणे गिण्हामित्तिकाउं खमएण चेल्लओ वाहं गहिओ, तं तेण तस्स चेल्लगस्स अदीणमणसस्स विसुद्धपरिणामस्स लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं तदावरणिजाणं कम्माणं खएण| | केवलनाणं समुप्पपणं, ताहे सा देवया भणइ-किह तुम्भे वंदिअव्वा? जेणेवं कोहाभिभूआ अच्छह, ताहे ते | Kखमगा संवेगमावपणा मिच्छामिदुक्कडंति, अहो बालो उवसंतचित्तो अम्हेहिं पावकम्मेहिं आसाइओ,
१ वहन्ति, देवता चिन्तयति-मैते क्षुतकं निर्भतयिष्यन्ति, ततः सनिहितैव तिष्ठामि, तदाऽहं प्रतिबोधयिष्यामि, द्वितीय दिवसे चकः संदिश्य गतः पर्युषिताय, प्रयागत आलोच्य चातुर्मासिकक्षपक निमन्त्रवति, तेन पतबहे तस्य श्रेष्म नितम् , धुलको भणति-मिथ्या मे दुष्कतं यक्षुभ्यं मया श्रेष्ममाको न दत्तः, तत्तेनोपरित एव स्फेटयित्वा ममतके क्षिप्तम्, एवं यावत् त्रिमासिकेन यावदेकमासिकेन निक्षित, सतेन तथैव फेदितम् , आश्रित्य(बलात्कार कृत्वा) लम्बनान् हामीतिकरवा क्षपकेन को बाही गृहीता, तदा तेग तख शुशकस्यादीनमनसो विशुग्यमानपरिणामस्य लेश्यामिश्रिव्यमानाभिस्तदावरणीयानां कर्मणां क्षयेण फेवलज्ञानं समुत्पर्य, तदा सा देवता भणति-कये यूयं बन्दितव्याः । येनैवं कोधानिभूतास्तिष्टथ, तदा ते क्षपकाः संयमापना मिथ्या मे तुम्कृत-X॥३८॥ मिति, महो पास उपशान्तचित्तोऽसाभिः पापकर्मभिराशातितः,एवं तेषामपि शुभाध्यषसानेन केवलज्ञानं समुत्पत्रम् .
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
एवं तेसिपि सुहझवसाणेणं केवलनाणं समुप्पण्णं, एवं पसंगओ कहियं कहाणय, उवणओ पुण कोहादिगाओ अपसत्थभावाओ दुग्गइए अवाओ ति॥ परलोकचिन्तायां प्रकृतोपयोगितां दर्शयन्नाह
सिक्खगभसिक्खगाणं संवेगविरहयाइ दोण्हपि । दव्वाईया एवं दंसिजते अवाया उ ।। ५७।। ल व्याख्या-शिक्षकाशिक्षकयोः' अभिनवप्रवजितचिरप्रवजितयोः अभिनवप्रवजितगृहस्थयो संवेगस्थै-14
या द्वयोरपि द्रव्याचा 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण वक्ष्यमाणेन वा दयन्ते अपाया इति, तत्र संवेगो-मोक्षसुखाभिलाषः स्थैर्य पुनः अभ्युपगतापरित्यागः, ततश्च कथं नु नाम दुःख निवन्धनद्रव्यायवगमात्तयोः संवेदागस्थैर्ये स्यातां? द्रव्यादिषु चाप्रतिबन्ध इति गाथार्थः ॥ तथा चाह
विरं कारणगहि विगिंचिअव्बमसिवाइखेत्तं च । बारसहिं एस्सकालो कोहाइविवेग भावम्मि ॥ ५८ ॥ Bा व्याख्या-इहोत्सर्गतो मुमुक्षुणा द्रव्यमेवाधिकं वस्त्रपात्राद्यन्यद्वा कनकादि न पाद्य, शिक्षकाहिसंदिष्टादिकारणगृहीतमपि तत्परिसमाप्तौ परित्याज्यम् , अत एवाह-द्रव्यं कारणगृहीतं, किम् ! 'विकिंचितव्य' परित्याज्यम् , अनेकैहिकामुष्मिकापायहेतुत्वात्, दुरन्ताग्रहाद्यपायहेतुता च मध्यस्थैः खधिया भावनीयेति । एवमशिवादिक्षेत्रं च, परित्याज्यमिति वर्तते, अशिवादिप्रधानं क्षेत्रमशिवाविक्षेत्रम्, आदिशब्दादूनोदरताराजद्विष्टादिपरिग्रहः, परित्याज्यं चेदमनेकैहिकामुष्मिकापायसम्भवादिति । तथा द्वादशभिर्वरेष्यत्काला,
१ एवं (तत्) प्रसातः कथितं कथानकम् , उपनयः पुनः क्रोधादिकात अप्रशस्तभावात् दुर्गतेरपाय इति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [५८], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
१द्रुमपुपिका० द्रव्याद्या | अपायाः
दीप अनुक्रम
दशवैका परित्याज्य इति वर्तते, तत एवापायसम्भवादिति भावना, एतदुक्तं भवति-अशिवादिदुष्ट एष्यत्काल हारि-वृत्तिा द्वादशभिर्वरनागतमेवोज्झितव्य इति, उक्तं चं-"संवैच्छरचारसरण होहिति असिवंति ते तओ णिति । ॥३९॥ सुत्सत्थं कुब्वंता अतिसयमादीहिं नाऊणं ॥१॥” इत्यादि । तथा 'क्रोधादिविवेको भाव' इति क्रोधादयोऽ-
प्रशस्तभावास्तेषां विवेक:-नरकपातनाद्यपायहेतुत्वात्परित्यागः, भाव इति-भावापाये, कार्य इत्ययं गाथार्थः॥ एवं तावद्वस्तुतश्चरणकरणानुयोगमधिकृत्यापायः प्रदर्शितः, साम्प्रतं द्रय्यानुयोगमधिकृत्य प्रदर्यते
बबादिएहिं निचो एगंतेणेव जेसि अप्पा उ । होइ अभावो तेसिं सुद्दयुएसंसारमोक्खाणं ।। ५९ ॥ I व्याख्या-'द्रव्यादिभिः' द्रव्यक्षेत्रकालभावैः नारकत्वविशिष्टक्षेत्रवयोऽवस्थितखाप्रसन्नत्वादिभिः 'नित्यः । वि अविचलितखभावः 'एकान्तेनैव' सर्वथैव 'येषां वादिनाम् 'आत्मा' जीवः तुशब्दादन्यच वस्तु भवति
संजायते 'अभावः' असंभवः 'तेषां वादिनां केषाम् ?-सुखदु:खसंसारमोक्षाणाम् तत्राहादानुभवरूपं क्षणं सुखम् , तापानुभवरूपं दुःखम् , तिर्यग्नरनारकामरभवसंसरणरूपः संसारः, अष्टप्रकारकर्मवन्धवियोगो मोक्षः, तत्र कथं पुनस्तेषां वादिनां सुखायभावः?, आत्मनोऽप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावत्वाद्, अन्यथावापरिणतेः सदैव नारकत्वादिभावाद, अपरित्यक्ताप्रसन्नवे पूर्वरूपस्य च प्रसन्नत्वेनाभवनादू, एवं शेषेप्वपि भावनीयमिति गाथार्थः । ततश्चैवम्
संवत्सरद्वादया केन भविष्यति अधिवनिति ते तसो निर्यान्ति । सूत्रार्थ कुर्वन्तोऽतिवादिभिज्ञात्वा ॥१॥
॥ ३९॥
JamEachan
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
SEARCCCARE
CASSESCRICK
सुहदुक्खसंपओगो न विजई निचवायपक्खंनि । एगंतुच्छेअंमि अ सुहदुक्सविगप्पणमजुत्तं ॥ ६॥ व्याख्या-सुखदुःखसंप्रयोगः, सम्यक संगतो वा प्रयोगः संप्रयोगः अकल्पित इत्यर्थः 'न विद्यते नास्ति न घटत इत्यर्थः, क?-'नित्यवादपक्षे नित्यवादाभ्युपगमे संप्रयोगो न विद्यते, कल्पितस्तु भवत्येव, यथाऽऽहुनित्यवादिन:-"प्रकृत्युपधानतः पुरुषस्य सुखदुःखे स्त:, स्फटिके रक्ततादिवद बुद्धिप्रतिबिम्बाद्वाऽन्ये" इति, क-13 ल्पितत्वं चास्य आत्मनस्तत्वत एव तथापरिणतिमन्तरेण सुखाद्यभावाद् उपधानसन्निधावप्यन्धोपले रक्ततादिवत्, तदभ्युपगमे चाभ्युपगमक्षतिः, बुद्धिप्रतिबिम्बपक्षेऽप्यविचलितस्यात्मनः सदैवैकखभावत्वात् सदैवैकरूपप्रतिविम्यापत्तेः, स्वभावभेदाभ्युपगमे चानित्यत्वप्रसङ्ग इति । मा भूदनित्यैकान्तग्रह इत्यत आह'एकान्तेन' सर्वथा उत्-प्राबल्येन छेदो-विनाशः एकान्तोच्छेदः-निरन्वयो नाश इत्यर्थः, असिश्च किम् ?-सुखदुःखयोर्विकल्पनं सुखदुःखविकल्पनम्, 'अयुक्तम् अघटमानकम् , अयमन भावार्थ:-एकान्तोच्छेदेऽपि सुखायनुभवितुस्तत्क्षण एवं सर्वथोच्छेदादहेतुकत्वात्तदुत्तरक्षणस्योत्पत्तिरपि न युज्यते, कुतः पुनस्तद्विकल्प
नमिति गाथार्थः ॥ उक्तोऽपायः, साम्प्रतमुपाय उच्यते-तत्रोप-सामीप्येन (आय.) विवक्षितवस्तुनोऽविकलाललाभहेतुखाद्वस्तुनो लाभ एवोपाय:-अभिलषितवस्त्ववाप्तये व्यापारविशेष इत्यर्थः, असावपि चतुर्विध|* एव, तथा चाह
एमेव चउविगप्पो होइ उवाओऽवि तत्थ दब्बंमि । धातुब्बाओ पलमो नंगल कुलिपहि खेतं तु ॥ ६१ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६१], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
सामान पाचपापा'मातापिका
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दशवैका
व्याख्या-एवमेव' यथा अपाय:, किम् ?-'चतुर्विकल्प चतुर्भेदः भवत्युपायोऽपि, तद्यथा-द्रव्योपायः हारि-वृत्ति क्षेत्रोपायः कालोपायः भावोपायच, तत्र 'द्रव्य' इति द्वारपरामर्शः द्रव्योपाये विचार्य 'धातुर्वाद' सुवर्णपात-13 दिनोत्कर्षलक्षणो द्रव्योपायः 'प्रथम' इति लौकिका, लोकोत्तरे त्वध्यादौ पर्टलादिप्रयोगतः प्रासुकोदककरणम् ,
द्रव्याधा क्षेत्रोपायस्तु लाङ्गालादिना क्षेत्रोपक्रमणे भवति, अत एवाह-लाङ्गलकुलिकाभ्यां क्षेत्रम्' उपक्रम्यत इति ।
व उपाया: गम्यते, ततश्च लाङ्गलकुलिके तदुपायो लौकिका, लोकोत्तरस्तु विधिना प्रातरशनाद्यर्थमटनादिना क्षेत्रभाव-8 नम्, अन्ये तु योनिमाभृतप्रयोगतः काञ्चनपातनोत्कर्षलक्षणमेव सङ्घातप्रयोजनादी द्रव्योपायं व्याचक्षते, विद्यादिभिश्च दुस्तराध्वतरणलक्षणं क्षेत्रोपायमिति । अत्र च प्रथमग्रहणपदार्थोऽतिरिच्यमान इवाभाति, पाठान्तरं वा 'धाउब्वाओ भणित्ति अत्र च कश्चिदविरोध एवेति गाधार्थः॥
कालो अनालियाइहि होइ भावमि पंडिओ अभओ । चोरस्स कए नर्स्टि वडकुमारि परिकहेइ ।। ६२ ।। व्याख्या-कालश्च नालिकादिभिः ज्ञायत इति शेषः, नालिका-घटिका आदिशब्दाच्छक्कादिपरिग्रहः, ततश्च नालिकादयः कालोपायो लौकिका, लोकोत्तरस्तु सूत्रपरावर्तनादिभिस्तथा भवति, "भावे' चेति द्वारपरामर्शवाद्भावोपाये विचार्य निदर्शनं, क इत्याह-'पण्डितों विद्वान् 'अभयः' अभयकुमारस्तथा चाह-चौर-13 |निमित्तं नर्तक्यां (नाट्ये ) वह (वृद्ध) कुमारी, किम् ?, त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थमाह-परिकथयति, त-IPI
१ तकखरण्टितचीग्रादि वि. प्र.
SAK
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4-5%-50-45-
46515645454454560
JanEditor
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६२], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप अनुक्रम
तश्च यथा तेनोपायतश्चौरभावो विज्ञातः एवं शिक्षकादीनां तेन तेन विधिनोपायत एव भावो ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ नवरं भावोवाए उदाहरण-रायगिह णाम णयर, तत्थ सेणिओ राया, सो भजाए भणिओ जहा। मम एगखंभं पासायं करेहि, तेण बहुइणो आणत्ता, गया कट्ठच्छिदगा, तेहिं अडवीए सलक्खणो सरलो महइमहालओ दुमो विट्ठो, धूवो दिण्णो, जेणेस परिग्गहिओ रुक्खो सो दरिसावेउ अप्पाणं, तो णं ण छिंदामोत्ति, अहण देइ दरिसावं तो छिंदामोत्ति, ताहे तेण रुक्खवासिणा वाणमंतरेण अभयस्स दरिसावो दिपणो, अहं रपणो एगखंभं पासायं करेमि, सब्वोउयं च आरामं करेमि सव्ववणजाइउवेयं, मा छिंदहत्ति, एवं तेण कओ पासाओ। अन्नया एगाए मायंगीए अकाले अंबयाण दोहलो, सा भत्तारं भणइ-मम अययाणि आणेहि, तदा अकालो अंबयाणं, तेण ओणामिणीए विजाए डालं ओणामियं, अंबयाणि गहिआणि, पुणो अ उपणमणीए उपणामियं, पभाए रपणा दिट्ठ, पयं ण दीसह, को एस मणुसो अतिगओ,?
भाषोपाये उदाहरण राजगह नाम नगर, तत्र गिको राजा, स भार्यया भगितः-या ममैकस्तम्भ प्रासादं कारय, तेन वर्षकिन भावप्ताः, गताः काष्ठच्छे. दकाः (काष्ठानि छेतुं), तैरटब्यो सलक्षणः सरलो महाऽतिमहालयो हुमो रयः,धूपी दत्तः, येनैष परिगृहीतो वृक्षः स दर्शयत्यारमानं, उदा एनं न छिन्यः इति, अध न दास्यथ दर्शनं तदा छेत्स्याम इति, तदा तेन वृक्षवासिना व्यन्तरेणाभयाय दर्शनं दत्तम् अहं राज्ञ एकस्वम्भ प्रासादं करोमि सर्व कं चारामं करोमि सर्वचनजात्युपेतं, मा छिन्धि (छेत्सीः) इति, एवं तेन कृतः प्रासादः । अन्यदैकस्या मातनया मकाले दोहद आत्राणाम् , सा भत्तार भणति-मामामानानय, तदाऽकाल आम्रागी, तेनावनामिन्या नियया शाखाऽवनामिता मामा गृहीताः पुनधोनामिन्योनामिता, प्रभाते राशा दष्ट, पदानि न दृश्यन्ते, क एष भन्योऽतिगतः ।,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६२], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप अनुक्रम
दशबैका | जस्स एसा एरिसी सत्तित्ति सो मम अंतेउरंपि धरिसेहित्तिकाउं अभयं सहावेऊण भणइ-सत्तरत्तस्स ा१दुमपुहारि-वृत्तिः अभंतरे जंइ चोरं णाणेसि तो णत्थि ते जीविरं। ताहे अभओ गवेसिउं आढत्तो, णवरं एगमि पएसे|| | पिका
गोजो रमिउकामो, मिलिओ लोगो, तत्थ गंतुं अभओ भणति-जाच गोजो मंडेइ अप्पाणं ताव ममेगं अ- 'पद्रव्याद्या ॥४१॥
क्खाणगं सुणेह जहा कहिंपि णयरे एगो दरिद्दसिट्ठी परिवसति, तस्स धूया वुडकुमारी अईव रूविणी य,81 उपाया स्वरणिमित्तं कामदेवं अधेड, सा य एगमि आरामे चोरिए पुप्फाणि उचेती आरामिण विट्ठा, कयत्थिउमा
उत्सा, तीए सो भणिओ-मा मई कुमारि विणासेहि, तवावि भयणीभाणिज्जीओ अस्थि, तेण भणिआ-एकाए ववत्थाए मुयामि, जइ णवरं जम्मि दिवसे परिणेजसि तद्दिवसं चेव भत्तारेण अणुग्घाडिया समाणी मम सयासं एहिसि तो मुयामि, तीए भणिओ-एवं हवउत्ति, तेण विसजिआ अन्नया परिणीआ,
१ यस्दशी शकिरिवि स ममान्तःपुरमपि वर्षयति इतिकरवाऽभव पादयित्वा भणति. सतरावस्याभ्यन्तरे यदि थोर नानयसि तदा ते नाति जीवितम् । | तदाऽभयो गवेषयितुमाइतः, भयरमेकस्मिन् प्रदेशे नतशे रस्तुकामः, मिलितो लोकः, तत्र गत्वाऽभयो भणति यावतको मण्डयति आत्मानं तावन्ममैकमाख्यान | शृणुत यथा फस्निमपि नगरे एको दरिदश्रेष्ठी परिषराति, वम पुत्री वृद्धकुमारी अतीक रूपिणी च, बरनिमित्तं कामदेवमर्चगति, सा कस्मिनाराने चौर्या पुष्पाण्युचिन्यती आरामि केण राधा, कयार्थितुमारब्धा, तया स भहीत:--मा मा कुमारी बिनाशय, तथापि भगिनीभागिनेण्यः सन्ति, तेन भणिता-एकया व्यवस्थया |
॥४१॥ मुच्चामि यदि पर यसिन दिवस परिणयसि तमिव दिवसे भत्रोऽनुद्घाटिता सती मम सकाशमायास्य सि तदा मुखामि, तया माणितः-एवं भवविति, तेन । ' | विस्था अन्यदा परिणीता.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६२], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
जाहे अपवरके पवेसिआ ताहे भत्तारस्स सम्भावं कहेइ, विसजिया बच्चा, पट्ठिया आराम, अंतरा अ चोरेहि गहिया, तेसिंपि सम्भावो कहिओ, मुका, गच्छंतीए अंतरा रक्खसो विट्ठो, जो छपहं मासाणं आहारेइ, तेण गहिया, कहिए मुक्का, गया आरामियसगासं, तेण दिट्ठा, सो संभंतो भणइ-कहमागयासि,ताए भणिअं-४ मया कओ सो पुदिव समओ, सो भणइ-कहं भत्तारेण मुक्का?, ताहे तस्स तं सव्वं कहिअं, अहो सचपइन्ना एसा महिलत्ति, एत्तिएहिं मुक्का किहाहं दुहामित्ति तेण विमुका, पडियंती अ गया सब्वेसिं तेसिं मज्झेणं, आगता तेहिं सब्वेहिं मुक्का, भत्तारसगासं अणहसमग्गा गया । ताहे अभओ तं जणं पुच्छइ-अक्खह एत्थ केण दुर कर्य?, ताहे इस्सालुया भणति-भत्तारेणं, छुहालुया भणंति-रक्खसेणं, पारवारिया भणंति-माला
दीप अनुक्रम
१ यदाऽपवरकं प्रविष्टा तदा भतुंः सद्भावं कथयति, विनष्टा बजति, प्रस्थिताऽऽराममन्तरा व धोरग्रहीता, तेभ्योऽपि सद्भावः कथितः, मुका, गच्छन्यान्तरा राक्षसो राष्टः, या पह्निमसिराहारयति, तेन गृहीता, कथिते मुक्ता, गताऽऽरामिकस काशं, तेन दृशश, स सम्भ्रान्तो भणति-कथमागताऽसि ?, तया भणितम् -मया कृतः स पूर्व समगः (सोतः), स भणनि-कथं भा मुक्ता ! सदा तस्मै तत्सर्व कवितम् , अहो सत्यप्रतिषा महिलेति, इयनिमुक्ता कथमहं दूषयामि ! इति तेनापि मुका, प्रतिवान्ती च गता सर्वेषां तेषां मध्येन, आगया ससौमुंका, भर्तुः सकाशमनषखमार्गा गता। तदाऽभयवान् जनान् पृच्छतिआख्यातात्र केन दुष्कर कृतं । तदा दांडका भणन्ति-भा, धुपालका भणन्ति-राक्षसेन, पारदारिका भगन्ति-मालाकारेण, हरिकेशेन भणितम्चौरैः, पचास गृहीतः यथेष चौर इति ।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६२], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप अनुक्रम
दशकागारेणं, हरिएसेण भणिअं-चोरोहि, पच्छा सो गहिओ, जहा एस चोरोत्ति । एतावत्प्रकृतोपयोगि । जहा
एतावत्मकृतापपागजहादुमपुहारि-वृत्तिः अभएण तस्स चोरस्स उवाएण भावो णाओ एवमिहवि सेहाणमुवट्ठायंतयाणं उवाएण गीअत्थेण विपरि- पिका
णामादिणा भावो जाणिअब्वोत्ति, किं एए पब्बावणिज्जा नवत्ति, पब्वाविएसुवि तेसु मुंडावणाइसु एमेव ॥४२॥
द्रव्याद्या विभासा, यदुक्तम्-"पब्वाविओ सियत्ति अमुंडावेळ न कप्पई” इत्यादि । कहाणयसंहारो पुण-चोरो सेणि
| उपायाः यस्स उवणीओ, पुच्छिएण सम्भावो कहिओ, ताहे रण्णा भणियं-जइ नवरं एयाओ विज्ञाओ देहि तो न मारेमि, देमित्ति अब्भुवगए आसणे हिओ पढई, न ठाई, राया भणई-किं न ठाई?, ताहेतं मायंगो भणइ
जहा अविणएणं पढसि, अहं भूमीए तुम आसणे, णीयतरे उचविट्ठो, ठियातो सिद्धाओ य विजाओत्ति। *कृतं प्रसङ्गेन । एवं तावल्लौकिकमाक्षिप्तं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्ता द्रव्योपायादयः, साम्प्रतं द्रव्यानुयोगमधिकृत्य प्रदश्यन्त इति । तत्राप्युपायदर्शमतो नित्यानित्यैकान्तवादयोः सुखादिव्यवहाराभावप्रसङ्गेन तथा प्रत्यक्षगोचरातिक्रान्तेश्च वस्तुत आत्माभाव एवेति मा भूच्छिष्यकाणां मतिविभ्रमोऽत उपायत एवात्मास्तित्वमभिधातुकाम आह
यथाऽभयेन तस्य चौरस्थोपायेन भावो बातः एव मिहापि शक्षकाणानुपस्थाप्यमानानामुपायेन गीतार्थेन विपरिणामादिना भाषो ज्ञातव्य इति–किमेते| Tाप्रमाजनीया नवेति, प्रज्ञाजितेष्वपि तेषु मुण्डनादिषु एवमेव विकरूपः (विभाषा) "प्रजाजितः स्यादिति च मुण्डयितुं न कल्पते" कथानकसंहारः पुनः चौरः- ४ ॥ माणिकायोपनीता, प्रटेन सद्भावः कचितः, तदा राहा भणित-यदि नवरमेते विद्ये ददासि तदान मारवामि, दागीसभ्युपगते भासने स्थिती भणति, न तिष्ठतः, | राजा भणति-किन तितः । तदा तं मातको भणति-गया अविनयेन पठसि, अहं भूमौ त्यमासने, नीचतरे उपविष्टः, स्थिते सिद्धे च विद्ये इति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६३], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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एवं तु यह आया पश्चक्खं अणुवलब्भमाणोऽवि । सुहृदुक्खमाइपहिं गिज्झइ हेहि अस्थित्ति ।। ६३ ॥ व्याख्या-एवमेव यथा धातुवादादिभिर्द्रव्यादि 'इह' अस्मिल्लोके 'आत्मा' जीवः 'प्रत्यक्ष मिति तृतीयार्थे द्वितीया प्रत्यक्षेण 'अनुपलभ्यमानोऽपि' अदृश्यमानोऽपि 'सुखदुःखादिभिः' आदिशब्दात् संसारपरिग्रहो गृह्यते 'हेतुभिः' युक्तिभिः 'अस्ति विद्यत इति-एवं गृह्यते, तथाहि-सुखदुःखानां धर्मवाद्धर्मस्य चावश्यम-12 नुरूपेण धर्मिणा भवितव्यं, न च भूतसमुदायमात्र एव देहोऽस्थानुरूपो धर्मी, तस्याचेतनत्वात् सुखादीनां: च चेतनत्वादिति, अत्र बहु वक्तव्यमिति गाथार्थः॥
जह वऽस्साओ हत्यि गामा नगरं तु पाउसा सरयं । ओदइयाउ उबसम संकंती देवदत्तस्स ।। ६४ ॥ व्याख्या-यथाति प्रकारान्तरदर्शने 'अश्वात' घोटकात् 'हस्तिन' गर्ज ग्रामात् नगरं तु प्रावृषः शरदं। जमावृदकालाग्छरत्कालमित्यर्थे, औदयिकादू भावाद् 'उपशम'मित्यौपशमिकं 'संक्रान्तिः' संक्रमण सङ्क्रान्तिः। कस्य?-देवदत्तस्य, प्रत्यक्षेणेति शेषः।।
एवं सउ जीवस्सवि दवाईसंकर्म पडुच्चा उ । अस्थित्तं साहिजइ पचक्रण परोक्वंपि ।। ६५॥ व्याख्या-एवं' यथा देवदत्तस्य तथा, किम् ?–'सतो' विद्यमानस्य जीवस्यापि द्रव्यादिषु संक्रमः, आदि-18 शब्दात् क्षेत्रकालभावपरिग्रहः, तं'प्रतीत्य आश्रित्य 'अस्तित्वं विद्यमानत्वं 'साध्यते' अवस्थाप्यते । आह|सतोऽस्तित्वसाधनमयुक्तम् , न, अव्युत्पन्नविप्रतिपन्नविषयत्वात् साधनस्य, 'प्रत्यक्षेण' अश्वादिसंक्रमण, स-ही
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दश.८
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६५], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप अनुक्रम
दशवैकाथा साक्षात्परिच्छित्तिमङ्गीकृत्य 'परोक्षमपि' अप्रत्यक्षमपि, अवग्रहादिखसंवेदनतो लेशतस्तु प्रत्यक्षमेवैतत्पू १ द्रुमपु. हारि-वृत्तिः एतदुक्तं भवति-यथा अश्वादिसङ्कान्तिन देवदत्ताख्यं धर्मिणमतिरिच्य वर्तते, एवमियमप्यौदारिकाद्वैक्रियेापिका
तिर्यग्लोकावलोके परिमितवर्षायुष्कपर्यायादपरिमितवर्षायुष्कपर्याये चारित्रभावादविरतभाये च सङ्का-13 उपाया ॥४३॥
|न्तिन जीवाख्यं धर्मिणमन्तरेणोपपद्यत इति वृद्धा व्याचक्षते । अन्ये तु द्वितीयगाथापश्चार्द्ध पाठान्तरतो- हरणम् न्यथा ब्याचक्षते-तत्रायमभिसम्बन्धः,-'एवं तु इहं आये' त्यादिगाथयोपायत एवात्मास्तित्वमभिधायाधुनोपायत एव सुखदुःखादिभावसङ्गतिनिमितं नित्यानित्यैकान्तपक्षव्यवच्छेदेनात्मानं परिणामिनमभिधित्स- राह-जहवस्साओं' गाथाब्याख्या पूर्ववत् ॥
एवं सउ जीवस्सवि दवाईसंकर्म पडुच्चा उ । परिणामी साहिजइ पच्चक्खेणं परोक्खेवि ॥६६॥ पूर्वार्द्ध पूर्ववत्, पश्चाईभावना पुनरियम्-न होकान्तनित्यानित्यपक्षयोईष्टाऽपि द्रव्यादिसान्तिर्देवदत्तस्य युज्यते इत्यतस्तद्भावान्यथानुपपत्त्यैव परिणामसिद्धेरिति, उक्तं च-"नार्थान्तरगमो यस्मात्, सर्वथैव न चागमः । परिणामः प्रमासिद्ध, इष्टश्च खलु पण्डितः॥१॥घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-IN प्रमोदमाध्यस्थ्य, जनो याति सहेतुकम् ॥२॥पयोवतो न दध्यत्ति, न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे, तस्माद्वस्तु प्रयात्मकम् ॥३॥” इति गाथाद्यार्थः ।। उक्तमुपायद्वारमधुना स्थापनाद्वारमनिधित्सुराह- ॥४३॥
ठवणाकम्मं एक दिळतो तत्थ पोंडरीअं तु । अहवाऽवि सन्नढकणहिंगुसिवकवं उदाहरणं ॥ ६७ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६७], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
व्याख्या-स्थाप्यते इति स्थापना तया तस्यास्तस्यां वा कर्म-सम्यगभीष्टार्थप्ररूपणलक्षणा क्रिया स्थापनाकर्म, 'एक मिति तज्जास्यपेक्षया 'दृष्टान्तों निदर्शनं 'तत्र' स्थापनाकर्मणि पौण्डरीकं तु तुशब्दात्तधाभूतमन्यच, तथा च पौण्डरीकाध्ययने पौण्डरीकं प्ररूप्य प्रक्रिययैवान्यमतनिरासेन खमतं स्थापितमिति, अथवेत्यादि पश्चार्द्धं सुगमम् , लौकिकं चेदमिति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थस्तु कथानकादबसेयः, तच्चेदम्-जहा हैगम्मि णगरे एगो मालायारो सण्णाइओ करंडे पुप्फे घेसूण वीहीए एइ, सो अईव अचाओ, ताहे तेण सिग्धं वोसिरिऊणं सा पुप्फपिडिगा तस्सेव उवरि पल्हथिया, ताहे लोओ पुच्छइ-किमयंति ?, जेणिस्थ पुफाणि छड्डेसित्ति, ताहे सो भणइ-अहं आलोविओ, एत्थ हिंगुसिबो नाम, एतं तं वाणमंतरं हिंगुसिवं नाम उप्पन्नं, लोएण परिग्गहियं, पूया से जाया, खाइगयं अज्जवि तं पाडलिपुत्से हिंगुसिवं नाम वाणमंतरं। दी एवं जद किंचि उड्डाहं पावयणीयं कयं होजा केणवि पमाएण ताहे तहा पच्छाएयब्वं जहा पचुपणं पवयणु
१वकस्मिन् नगरे एको मालाकारः ज्ञायिता करण्ठे पुष्पाणि ग्रहीत्वा वीभ्यामेति, सोऽतीय व्यथितः, तदा तेन शीय ब्युसज्य सा पुष्पपिटिका तस्यैवोपरि पर्यस्ता, तदा लोकः पृच्छति-किमेतदिति, येनात्र पुष्पाणि खजसि इति, तदा स भगति-अहमलोपिकः, अत्र हिशियो नाम, एतत् तत् व्यन्तरिक हितशिवं नामोत्पत्र, लोकेन परिगृहीतं, पूजा तसा जाता, स्वातिगतमद्यापि तत्पाटलिपुत्र हिशिवं नाम व्यन्तरिकम् । एवं यदि किचिद् अपभाजनाका प्रायचनिकं कृतं भवेत् केनापि प्रमावेन तदा तथा प्रकछादवितव्य यथा प्रत्युत प्रवचनोद्भावना भवति 'संजातायामपभाजनायो यथा गिरिसिद्धः कुशलबुद्धिभिः । लोकस्य धर्मश्रद्धा प्रवचनवणेन मुष्ठ कृता ॥१॥1(6) संज्ञापीडितः। बाधितः वि. प. (२) प्रक्षिसा. वि. प. (१) लोठिओ देवतया खयमवलोकितः वि. प.(४) पण प्रत्युत पि. प.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६७], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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दशवैका०म्भावणा हवइ । “संजाए उड्डाहे जह गिरिसिद्देहिं कुसलबुद्धीहिं । लोयस्स धम्मसद्धा पवयणवण्णेण सुट्ठ दुमपुहारि-वृत्तिःकया ॥१॥" एवं तावञ्चरणकरणानुयोगं लोकं चाधिकृत्य स्थापनाकर्म प्रतिपादितम्, अधुना द्रव्यानुयोग- पिका० मधिकृत्योपदर्शयन्नाह
स्थापनो॥४४॥ सम्वभिचार हेतुं सहसा बोत्तुं तमेव अन्नेहिं । उववूहइ सप्पसरं सामत्थं चऽप्पणो नाउं ॥ ६८ ॥
दा०हिङ्गुव्याख्या-सह व्यभिचारेण वर्तत इति सव्यभिचारस्तं हेतुं' साध्यधर्मान्वयादिलक्षणं 'सहसा तत्क्ष- शिवो णमेव 'बोत्तुं अभिधाय 'तमेव हेतुम् 'अन्यैः' हेतुभिरेव 'उपद्व्हतें समर्थयति 'सप्रसरम्' अनेकधा स्फारयन् 'सामध्ये प्रज्ञाबलम्, चशब्दो भिन्नक्रमः 'आत्मनश्च स्वस्य च 'ज्ञात्वा' विज्ञाय, चशब्दात्परस्य चेति गाथार्थः ॥ भावार्थस्त्वयम्-द्रव्यास्तिकाद्यनेकनयसकुलप्रवचनज्ञेन साधुना तत्स्थापनाय नयान्तरमतापेक्षया सव्यभिचारं हेतुमभिधाय प्रतिपक्षनयमतानुसारतः तथा समर्थनीयः यथा सम्यगनेकान्तवादप्रतिपत्तिर्भवतीति । आह-उदाहरणभेदस्थापनाधिकारचिन्तायां सव्यभिचारहेत्वभिधानं किमर्थमिति, उच्यते, तदाश्रयेण भूयसामुदाहरणानां प्रवृत्तः, तदन्वितं चोदाहरणमपि प्राय इति ज्ञापनार्थम्, अलं प्रसङ्गेन । अभिहितं स्थापनाकर्मेद्वारम् , अधुना प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारमभिधातुकाम आहहोति पडुप्पन्नविणासणमि गंधब्विया उदाहरणं । सीसोऽवि कत्थवि जइ अझोवज्जिज्ज तो गुरुणा ।। ६९ ॥
॥४४॥ व्याख्या-भवन्ति प्रत्युत्पन्नविनाशने विचार्ये गान्धर्विका उदाहरणं लौकिकमिति । तत्र प्रत्युत्पन्नस्य।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६९], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
वस्तुनो विनाशनं प्रत्युत्पन्नविनाशनं तस्मिन्निति समासः । गान्धर्विका उदाहरणमिति यदुक्तं तदिदम्-जहा |
एगम्मि णगरे एगो वाणियओ, तस्स बहुयाओ भयणीओ भाइणिज्जा भाउज्जायाओ य, तस्स घरसमीवे मराउलिया गंधब्बिया संगीयं करेंति दिवसस्स तिन्नि बारे, ताओ वणियमहिलाओ तेण संगीयसद्देण तेसु
गंधब्धिएम अज्झोववन्नाओ किंचि कम्मादाणं न करेंति, पच्छा तेण वाणियएण चिंतियं-जहा विणवा एयाKओत्ति, को उवाओ होज्जा ? जहा न विणस्संतित्तिका मित्तस्स कहियं, तेण भण्णइ-अप्पणो घरसमीवे वाण
मंतरं करावेहि, तेण कयं, ताहे पाडहियाणं रूवए दाउं वायावेइ, जाहे गंधब्विया संगीययं आढवेति ताहे शते पाडहिया पडहे दिति वंसादिणो य फुसंति गायंति य, ताहे तेसिं गंधब्बियाणं विग्घो जाओ, पडहसद्देण यण सुब्बड गीयसहो, तओ ते राउले उचट्ठिया, वाणिओ सहाविओ, किं विग्घं करेसित्ति? भणइ-मम घरे देवो, अहं तस्स तिन्नि वेला पडहे दवावेमि, ताहे ते भणिया-जहा अन्नत्थ गायह, किं देवस्स दिवे दिवे
१ यथैकसिन् नगरे एको वणिक तस्य बहुका भगिन्यः भागिनेय्यः प्रातूजावाच, तस्य गृहसमीपे राजकुलीया गान्धर्विकाः सनीतं कुर्वन्ति दिवसे श्रीन् वारान् , ता पणिमाहिलास्तेन सझौतशम्वेन तेषु गान्धविकेषु अध्युपपन्नाः किचित्कर्मादानं न कुर्वन्ति, पवात्तेन वणिजा चिन्तितम्-यथा विनया एता इति, क उडापावो भवेत् । यथा न विनश्यन्तीतिकृत्वा मित्राय कथितं, तेन भव्यते-आत्मनो गृहसमीपे यन्तरिक कारग, तेन कृतम्, सदा पाटहिकेभ्यो रूप्यकान् दत्त्वा दावादयति, यदा गान्धर्षिकाः राशीतमाद्रियन्ते तदा ते पाटहिकाः पटहान् ददति वंशादीच स्पृशन्ति गायन्ति च तदा तेषां गान्धर्विकाणां विनो जातः, कापटहाब्देन च न भूबते गीतशब्दः, ततस्ते राजकुले उपस्थिताः, वणिक् शब्दावितः, किं विभं करोषीति !, भणति-मम गृहे देवः, अई तस्य तिखो मेलाः पटई
दापयामि, तदा ते भणिताः-यथाऽन्यत्र गायत, कि देवस्य दिवसे दिवसे
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [६९], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप अनुक्रम
दशवैका अंतराइयं कजह? । एवं आयरिएणवि सीसेसु अगारीसु अझोववजमाणेसु तारिसो उवाओ कायन्वो द्रुमपुहारि-वृत्तिः जहा तेसिं दोसस्स तस्स णिवारणा हवइ, मा ते चिंतादिएहिं णरयपडणादिए अवाए पावहिंति, उक्तं पिका०
च-"चिंतेई दह्वमिछह दीहं णीससह तह जैरो दोहो । भत्तारोयंग मुच्छा उम्मत्तो णे याणई मरणं ॥१॥ प्रत्युत्पन्न॥४५॥
पढमे सोयई वेगे बढें तं गच्छई बिइयवेगे । णीससइ तइयवेगे आरुहइ जरो चउत्थंमि ॥२॥ इज्झइविनाशे पंचमवेगे छठे भत्तं न रोयए वेगे। सत्तमियंमि य मुच्छा अट्ठमए होइ उम्मत्तो॥३॥णवमे ण याणइ किंचि गान्धर्विदसमे पाणेहिं मुच्चइ मणूसो । एएसिमवायाणं सीसे रक्खंति आयरिया ॥ ४॥ परलोइया अवाया भग्गप-11 कोदा. इण्णा पडति नरएमाण लहंति पुणो बोहिं हिंडंति य भवसमुदंमि ॥५॥"अमुमेवार्थ चेतस्यारोप्याह-शिप्योऽपि विनेयोऽपि 'कचित् विलयादौ 'यदी त्यभ्युपगमदर्शने 'अभ्युपपद्यत' अभिष्वङ्गं कुर्यादित्यर्थः ततो 'गुरुणा' आचार्येण, किम् ?-गाथा
अन्तरायः कियते । एवमाचार्वेणापि शिष्येवगारिणीषु अध्युपपद्यमानेषु तास उपायः कर्तव्यो यथा तेषां दोषस्य तस्य निवारणं भवति, मा ते चिन्तादिकैनरकपतनादिकान् अपायान प्राप्स्यन्दीति-चिन्तयति द्रष्टुमिच्छति दीर्थ निःश्वसिति तथा उपरो दाहः । भकारोचको मूर्छा उन्मत्तो न जानाति मरणम् ॥१॥ प्रथमे शोचति वैगे द्रष्टुं सो गच्छति द्वितीयगे । निःश्वसिति तृतीयवैगे आरोहति वरचतुर्थे ॥ ३ ॥ दाते पचगे वैगे षष्ठे भक्तं न रोचते वैगे । सप्तमे च मूच्छ अष्टमे भवत्युन्मत्तः ॥ ३॥ नगमे न जानाति किश्चिदशमे प्राणैर्मुच्यते मनुष्यः । एतेभ्योऽपायेभ्यः शिष्यं रक्षामन्याचार्याः ॥ ४ ॥ पारलौकिका अपाया भनप्रतिज्ञाः पतन्ति नरकेषु । न लभन्ते पुनर्बोधि हिण्डन्ते च भवसमुदे ॥ ५॥ त्यादी वि. प.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ७० ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
Ja Education in
वारेय उवाएण जइवा वाऊलिओ वदेजाहि । सब्वेऽवि नत्थि भावा किं पुण जीवो स वोत्तव्वो ।। ७० ।। व्याख्या—'वारयितव्यो' निषेद्धव्यः, किं यथाकथञ्चित् ? नेत्याह- 'उपायेन' प्रवचनप्रतिपादितेन, यथाऽसौ सम्यग्वर्त्तत इति भावार्थः । एवं तावलौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वारम् अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्याह-यदिवा 'वातूलिको' नास्तिको वदेत्, किं ? - 'सर्वेऽपि घटपटादयः 'णस्थिति प्राकृतशैल्या न सन्ति 'भावाः' पदार्थाः किं पुनर्जीवः ? सुतरां नास्तीत्यभिप्रायः, 'स वक्तव्यः' सोऽभिधातव्यः किमित्याह
जं भणसि नत्थि भावा वयणमिणं अत्थि नत्थि ? जइ अस्थि एव पइन्नाहाणी असभ णु निसेहर को णु ! ।। ७१ ।। व्याख्या- 'यद्भणसि' यद्रवीषि 'न सन्ति भावा' न विद्यन्ते पदार्था इति, 'वचनमिदं' भावप्रतिषेधकमस्ति नास्तीति विकल्पौ ?, किं चातो ?, यद्यस्ति एवं प्रतिज्ञाहानिः प्रतिषेधवचनस्यापि भावत्वात् तस्य च सत्त्वादिति भावार्थः, द्वितीयं विकल्पमधिकृत्याह - 'असओ पुति अथासन्निषेधते को नु ?, निषेधवचनस्यैवासत्त्वादित्ययमभिप्राय इति गाधात्र्यार्थः । यदुक्तम्- 'किं पुनर्जीवः' इत्यत्रापि प्रत्युत्पन्नविनाशमधिकृत्याहणो य विवखापुoat सोऽजीवुब्भवोत्ति न थ सावि। जमजीक्स्स उ सिद्धो पडिसेहधणीओ तो जीवो ॥ ७२ ॥ व्याख्या-चशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वात् 'न च' नैव 'विवक्षापूर्वी' विवक्षाकारणः इच्छाहेतुरि
Forte & Personal Use City
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [७२], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
दशवैका
हारि-वृत्तिः दिवा
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
॥४६॥
ॐॐॐॐ
दीप अनुक्रम
त्यर्थः, 'शब्दों ध्वनिः 'अजीवोद्भवः' अजीवप्रभव इत्यर्थः, विवक्षापूर्वकश्च जीवनिषेधका शब्द इति, मा भू- दुमपुद्विवक्षाया एव जीवधर्मत्वासिद्धिरित्यत आह–'न च' नैव 'सापि' विवक्षा 'यदू' यस्मात् कारणाद् 'अजी-18 पिका वस्य तु' अजीवस्यैव, घटादिष्वदर्शनात्, किन्तु मनस्त्वपरिणता(त्य)न्विततत्तद्रव्यसाचिव्यतो जीवस्यैव, है यतश्चैवमतः 'सिद्धा' प्रतिष्ठितः 'प्रतिषेधध्वन' नास्ति जीव इति प्रतिषेधशब्दादेवेत्यर्थः, 'ततः तस्मात् 'जीवहरणभेदाः आत्मेति, अत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं प्रत्युत्पन्नविनाशद्वार, तदन्वाख्यानाचोदाहरणमिति मूलद्वारम् , अधुना तद्देशद्वारावयवार्थमभिधित्सुराह
आहरणं तदेसे चउहा अणुसहि तह उबालंभो । पुच्छा निस्सावयणं होइ सुभद्दाऽणुसहीए ॥७३॥ व्याख्या-उदाहरणमिति पूर्ववद्, उपलक्षणं चेदमत्र, तथा चाह-तस्य देशस्तद्देश उदाहरणदेश इत्यर्थः, अयं 'चतुर्दा चतुष्प्रकारः, तदेव चतुष्पकारत्वमुपदर्शयति-अनुशासनमनुशास्तिः-सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहणमि-४ त्यर्थः, तथोपालम्भनमुपालम्भ:-भायैव विचित्रं भणनमित्यर्थः, पृच्छा-प्रश्नः किं कथं केनेत्यादि, निश्रावचनम्-एकं कश्चन निश्राभूतं कृत्वा या विचित्रोक्तिरसौ निश्रावचनमिति । तत्र भवति सुभद्रा नाम श्राविकोदाहरणम्, क?-अनुशास्ताविति गाथाक्षरार्थः ॥ तत्थं अणुसट्ठीए सुभद्दा उदाहरणं-चंपाए णयरीए X ॥४६॥
१ तत्रानुशास्तौ सुभद्रोदाहरणम्-चम्पायाँ नगाँ
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [७३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
ॐA5%
|जिणदत्तस्स सुसावगस्स सुभदा नाम धूया, सा अईव स्ववई सा य चणिय उवासएण दिवा, सो ताए अझोववष्णो, तं मग्गई, सावगो भणइ-नाहं मिच्छादिहिस्स धूयं देमि, पच्छा सो साहुणा समीपं गओ धम्मो य अणेण पुच्छिओ, कहिओ साहूर्हि, ताहे कवडसावयधम्म पगहिओ, तस्थ य से सम्भावेणं चेव
उवगओ धम्मो, ताहे तेण साहूणं सम्भावो कहिओ, जहा मए कवडेणं दारियाए कए, णं णायं जहा कव४ डेणं कजहित्ति, अण्णमियाणि देह मे अणुव्वयाई, लोगे स पयासो सावओ जाओ, तओ काले गए वरया: & मालया पट्ठवेह, ताहे तेण जिणदत्तेण सावओत्तिकाऊण सुभद्दा दिपणा, पाणिग्गहर्ण वत्तं, अन्नया सो
भणइ-दारियं घरं मि, ताहे तं सावओ भणइ-तं सव्वं उवासयकुलं, एसा तं णाणुवत्तिहिति, पच्छा छोभयं ४ावा लभेवत्ति, णिवंधे विसज्जिया, णेऊण जुगयं घरं कर्य, सासूणणंदाओ पउट्ठाओ भिक्खूण भत्ति ण करेइत्ति,
जिनदत्तस्य सुभाचकस सुभदा नाम पुत्री, साऽतीन रूपिणी, सा च तचनिक(बौद)उपासकेन दृष्टा, स तस्यामध्युपपना, सो मार्गयति, धावको भणतिनाई मिथ्यादृष्टये पुत्रीं ददामि, स पश्चात, साधूनां सभीपे गतः. धर्मधानेन पृष्टः, कथितः साधुभिः, कपटश्रावकेण तदा धर्मः प्रगृहीतः, तत्र च तस्य सद्भावेने योपगतो धर्मः, तदा तेग साधुन्या सावः कथितः, यथा मया कपटेन दारिकायाः कृते, एतज्ज्ञातं यथा कपटेन कियते इति, अन्यत् पानी देहि महामणुमतानि, लोके स प्रकाशः श्रावको जातः, ततः काळे गते वरकाः मालाः प्रस्थापयन्ति, सदा तेन जिमदत्तेन धावक इतिफला सुभद्रा दत्ता, पानिप्रहण वृत्तम् , अभ्यदा
स भणति-दारिका यह नयामि, तदा से भागको भणति-तत् सर्वमुपासककुलम् एषा तमानपत्स्यति, पश्चात् अपमानं वा तेति, निर्वगो विवध्य, गीला मा पृथग गई कृतं, अभूननन्दरः प्रद्विष्टाः भिक्षणां भक्ति न करोतीति । (१) तव्वणिय० प्र० (१) नेवम् प्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [७३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
तद्देशेऽनु
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दशवैका० अन्नया ताहिं मुभदाए भत्तारस्स अक्खायं-एसा य सेअवडेहिं समं संसत्ता, सावओ ण सबहेह8/१ दुमपु.. हारि-वृत्तिःअन्नया खमगस्स भिक्खागयस्स अछिमि कणुओ पविट्ठो, सुभद्दाए जिन्भाए सो किणुओ फेडिओ, पिका ॥४७॥
सुभद्दाए चीणपितॄण तिलओ कओ, सो अखमगस्स निलाडे लग्गो, उवासियाहिं सावयस्स दरिसिओ, सावएण पत्तीयं, ण तहा अणुपत्तइ, सुभद्दा चिंतेइ-किं अच्छेरयं? जं अहं गिहत्थी छोभगं लभामि,
ज शास्तौ सुपवयणस्स उडाहो एवं मे दुक्खइत्ति, सा रत्तिं काउस्सग्गेण ठिया, देवो आगओ, संदिसाहि किं करेमि ?, भद्रोदा० सा भणइ-ए मे अयसं पमजाहित्ति, देवो भणइ-एवं हवउ, अहमेयस्स णगरस्स चत्तारि दाराई ठवे-2 हामि, घोसणयं च घोसेहामित्ति, जहा-जा पहब्बया होइ सा एयाणि दाराणि उग्घाडेहिति, तत्थ तुमं|8/ चेव एगा उग्घाडेसि ताणि य कवाडाणि, सयणस्स पचयनिमित्तं चालणीए उदगं छोदण दरिसिज्जासि,
अन्यदा तामिः सुभदाया भरि प्रति आख्यातम् एषा च श्वेतपटैः संसक्ता, श्रावको न अधाति, अन्यदा क्षपकस्य भिक्षागरास अधिक रजः प्रमिष्ट, | सुभदया जिदया तब्रजः स्फेठित, सुभद्रया सिन्दूरेण तिलकः कृतः, स चक्षपकस्य ललाटे नमः, उपासिकाभिः पावकस्य दर्शितः, श्रावकेण प्रत्यायितं, न | तथाऽनुवर्सयति, सुभद्रा चिन्तयति-किमाश्चर्यम् । यदहं सहस्थाऽपमा भे, मत्प्रवचनस्थापनाजना एतन्मां दुःखयति इति, सा रात्री कायोत्सर्येण स्थिता, देव आगतः, संदिश किं करोमि ?, सा भणति-एतन्मेऽयशः प्रमाणयेति, देवो भगति एवं भवतु, अहमेतस नगरस्य चत्वारि द्वाराणि स्थगयिच्यामि, पोषणां च घोषयिष्यामि इति, यथा-या पतिव्रता भवति सा एतानि द्वाराणि उद्घाटयिष्यतीति, तत्र लगेकोद्घाटयिष्यसि तानि कपाटानि, खजनस्य प्रत्ययनिमित्तं
॥४७॥ थालण्यामुदकं क्षिप्त्या दर्शये,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [७३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
तओ चालणी फुसियमवि ण गिलिहिति, एवं आसासेऊण णिग्गओ देवो, गयरदाराणि अणेण ठवियाणि, |णायरजणो य अद्दण्णो, इओ य आगासे वाया होइ 'णागरजणा मा णिरत्थर्य किलिस्सह,जा सीलवई चालदाणीए छुढे उदगंण गिलति सा तेण उद्गेण दारं अच्छोडेइ, तओ दारं उग्घाडिजिस्सति', तत्थ बहुयाओ
सेडिसत्यवाहादीणं धूयसुण्हाओ ण सकति पलयंपि लहिउं, ताहे सुभद्दा सयणं आपुच्छइ, अविसज्जंताण य| चालणीए उदयं छोटूण तेसिं पाडिहेरं दरिसेइ, तओ विसज्जिया, उवासिआओ एवं चिंतिउमाढसाओ-जहा एसा समणपडिलेहिया उग्घाडेहिति, ताए चालणीए उदयं छहं, ण गिलइत्ति पिच्छित्ता विसन्नाओ, तओ महाजणेण सकारिज्जती तं दारसमीर्य गया, अरहंताणं नमोकाऊण उदएण अच्छोडिया कवाडा, महया |सद्देणं कोंकारवं करेमाणा तिन्नि वि गोपुरदारा उग्घाडिया, उत्तरदारं चालणिपाणिएणं अच्छोडेऊण भणइ-15
दीप अनुक्रम
कल
सतपालन्या बिन्दुरपि न पतिष्यति, एवमाश्वास्य निर्गतो देवः. नगरदाराग्यनेन स्थगितानि, नागरजनश्वाञ्चतिमापना, इतथाकाशे वागभूत्-नागरजनाः। मा निरर्थक शिषुः, या शीलवती (यया) चालन्यामुदकं क्षिप्तं (सत्) न गिलति सा तेनोदकेन द्वारमाच्छोटयति, ततो द्वारमुपाटिष्यते इति, तत्र वयः बेष्ठिसार्थवाहादीनां पुत्रीस्नुषाः न पाकुवन्ति प्रचारमपि ल , तदा भुभदा खजनमापृच्छते, अविसजताच चान्यानुदक क्षिात्या वेषां प्रातीहाय दर्शयति, यो बिस्या, उपासिका एवं चिन्तितमाहता यथैषा श्रमणप्रतिलेखितोद्घाटयिष्यति, तया चालन्यामुदकं शिक्ष, न गिलति इति श्रेषण विषण्णाः, ततो महाजनेन | सत्कियमाणा तं द्वारसमीपं गता, अहंतो नमस्कृत्योदकेन आच्छोटितानि कपाटानि, महता शब्देन कोदारवं कुर्वन्ति त्रीण्यपि गोपुरद्वाराणि उद्घाटितानि, उत्तरद्वारं चालनीपानीयेनाच्छोव्य भगति. (१) पलिकामात्रमपि वि. प.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [७३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
||१||
दशवैका०४ाजा मया सरिसी सीलवई होहिति सा एवं दारं उग्घाडेहिति, तं अज्जचि दक्कियं चेव अच्छइ, पच्छा णाय- १दुमपुहारि-वृत्तिः रजणेण साहुकारो कओ-अहो महासइत्ति, अहो जयइ धम्मोत्ति । एवं लोइयं, चरणकरणाणुओर्ग पुण पडुचपिका० यावञ्चादिसु अणुसासियव्या, उज्जुत्ता अणुज्जुत्ता य संठवेयब्बा जहा सीलवंताणं इह लोए एरिसं फल
तद्देशेऽनु॥४८॥ मिति । अमुमेवार्थमुपदर्शयन्नाह
४ शास्तौ सुसाहुक्कारपुरोगं जह सा अणुसासिया पुरजणेणं । वेयावश्चाईसु वि एव जयंते णुवोहेया ।। ७४ ॥
भद्रोदा० व्याख्या-साधुकारपुरःसरं यथा सुभद्रा 'अनुशासिता' सद्गुणोत्कीर्तनेनोपबृंहिता, केन ?-पुरजनेन' नागरिकलोकेन, वैयावृत्त्यादिष्वपि-आदिशब्दात् स्वाध्यायादिपरिग्रहः, 'एवं यथा सा सुभद्रा यतमानान् उद्य-18 मवतः, किम् ?-उपद्व्हयेत्, सद्गुणोत्कीर्तनेन तत्परिणामवृद्धिं कुर्यात् , यथा-"भरहेणवि पुन्वभवे यावचं कयं सुविहियाणं । सो तस्स फलविवागेण आसी भरहाहिवो राया ॥१॥ध्रुजिन भरहवासं सामण्णमणत्तरं अणुचरित्ता। अट्ठविहकम्ममुक्को भरहनरिंदो गओ सिद्धिं" ॥ इति गाथार्थः ।। उदाहरणदेशता पुनरस्योदाहतै
या ममसरशी शीलवती भविष्यति सैतत् द्वारमुपाटयिष्यति, तदद्यापि स्थगितमेवास्ति, पचानागरजनेन साधुकारः कृतः, अहो महासतीति, अहो जयति ॥४८॥ धर्म इति । एतलीनिक, चरणकरणानुयोग पुनः प्रतीय वैवावृत्त्यादिषु अनुशासितव्याः, उयुक्त
इत्यादिष अनुशासितव्याः, उद्युक्ता अनुपताश्च संस्थापवितव्याः यथाशीलवतामिट ठोके । | फलनिति. २ भरतेनापि पूर्वंभवे वैयावृत्त्यं कृतं मुविहितानाम् । स तस्य फल विषाकेन आसीद भरताधिपो राजा ॥9॥ ३ भुक्त्वा भरतवर्ष श्रामण्यमनुत्तरमनुचर्य । अष्टविधकमैमुको भरवनरेन्द्रो गतः सिद्धिम् ॥१॥
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प्रत
सूत्रांक/
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [७४ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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कदेशस्यैवोपयोगित्वात्तेनैव चोपसंहारात्, तथा च अप्रमादवद्भिः साधूनां कणुकापनयनादि कर्त्तव्यमिति विहायानुशास्त्योपसंहारमाह, वैयावृत्त्यादिष्वपि देशेनैवोपसंहारः, गुणान्तररहितस्य भरतादेर्निश्चयेन तदकरेणादिति भावनीयमिति, एवं तावलौकिकं चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्योक्तं तदेशद्वारे अनुशास्तिद्वारम्, अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य दर्शयति
जेसिपि अस्थि आया बत्तव्या तेऽवि अम्हवि स अस्थि । किंतु अकत्ता न भवइ बेययइ जेण सुहदुक्खं ॥ ७५ ॥ orror - 'येषामपि द्रव्यास्तिकादिनयमतावलम्बिनां तत्रान्तरीयाणां किम् ?-- 'अस्ति' विद्यते 'आत्मा' जीवः वक्तव्याः 'तेऽपि' तन्त्रान्तरीयाः, साध्वेतत् अस्माकमप्यस्ति सः, तदभावे सर्वक्रियावैफल्यात्, किन्तु 'अकर्त्ता न भवति' सुकृतदुष्कृतानां कर्मणामकर्त्ता न भवति-अनिष्पादको न भवति, किन्तु ? कर्त्तव अत्रैवोपपत्तिमाह- 'वेदयते' अनुभवति 'येन' कारणेन, किम् ? - 'सुखदुःखं' सुकृतदुष्कृतकर्मफलमिति भावः ॥ ॐ न चाकर्तुरात्मनस्तदनुभावो युज्यते, अतिप्रसङ्गात्, मुक्तानामपि सांसारिकसुखदु:ख वेदनाऽऽपत्तेः, अकर्तृत्वाविशेषात् प्रकृत्यादिवियोगस्याप्यनाधेयातिशयमेकान्तेनाकर्त्तारमात्मानं प्रत्यकिञ्चित्करत्वाद्, अलं वि स्तरेणेति गाथार्थः । उदाहरणदेशता त्वत्राप्युदाहृतस्यैकदेशेनैवोपसंहारात् तत्रैव चासंप्रतिपत्तौ समर्थनाय | निदर्शनाभिधानादिति । गतमनुशास्तितदेशद्वारम् अधुनोपालम्भद्वारविवक्षयाऽऽह
१ वैयाकरणात् वि. प्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [७६], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
||१||
दशवैका उबलम्भम्मि मिगावइ नाहियवाईवि एव वत्तव्यो । नवित्ति कुविन्नाणं आयाऽभावे सइ अजुतं ।। ७६ ॥
१दुमपुहारि-वृत्तिः व्याख्या-उपालम्भे प्रतिपाये मृगावतिदेव्युदाहरणम् । एयं च जहा आवस्सए दय्वपरंपराए भणियं तहेव || |पिका
४ दट्टब्वं, जाव पव्वइया अज्जचंदणाए सिस्सिणी दिपणा । अन्नया भगवं विहरमाणो कोसंबीए समोसरिओ, ॥४९॥
तद्देशे उ. चंदादिचा सविमाणेहिं वंदिर आगया, चउपोरसीयं समोसरणं काउं अत्यमणकाले पडिगया, तओ मिगा- पालम्भो० Vावई संभंता, अयि! वियालीकयंति भणिऊणं साहुणीसहिया जाव अजचंदणासगासं गया, ताव य अंध-14 यारयं जार्य, अजचंदणापमुहाहिं साहुणीणं ताव पडिकंतं, ताहे सा मिगावई अजा अजचंदणाए उवाल
भइ, जहा एवं णाम तुमं उत्तमकुलप्पसूया होइऊण एवं करेसि?, अहो न लट्ठयं, ताहे पणमिऊण पाएम पडिया, परमेण विणएण खामेह, खमह मे एगमवराहं, णाहं पुणो एवं करेहामित्ति । अज्जचंदणा य किल तमि समए संथारोवगया पमुत्ता, इयरीए वि परमसंवेगगयाए केवलनाणं समुप्पन्नं, परमं च अंधयारं वइ,
१ एतश्च यथाऽऽवश्यके व्यपरम्परायां भाणित तथैव द्रष्टव्यं यावत्प्राजिता आर्यवन्दनाय शिष्या दत्ता । अन्यदा भगवान् बिहरन् कोशाम्ब्यां समक्सतः, चन्द्रादिली स्वविमानाभ्यां वन्दितुमागती, चतुष्पौरुषीक समवसरणं कृत्वाऽस्तगयनकाले प्रतिगतो, ततो मृगावती सम्बान्ता-अपि विडालीकृत मिति भगित्वा साच्चीसहिता यावदार्यचन्दनासकाशं गता ताबचान्धकार जातम्, आर्यचन्दनाप्रमुखाभिः साध्वीमितावत्प्रतिकान्त, तदा सा मृगावत्यार्या मार्यचन्दनयोपालभ्यते -थै नाम त्वमुत्तमकुलप्रसूता भूया एवं करोपि!, अहो मलई, तदा प्रणम्य पादयोः पविता परमेण विनयेन क्षमयति, क्षमस ममैकमपराध, गाई पुनरेवं
॥४९॥ करिष्यामि इति । आर्यचन्दना वकिल तस्मिन् समये संसारोपगता प्रसप्ता, इतरवा अपि परमसवेमगतायाः केवलज्ञानं समुत्पन, परमं चान्मकार वर्तते.
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[१]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ७६ ], भाष्यं [-]
सप्पो य तेणंतरेण आगच्छइ, पत्रवत्तिणीए य हत्थो लंबमाणो तीए उप्पाडिओ, पडिवुद्धा य अलचंदणा, पुच्छिया- किमेयं ?, सा भणइ दीहजाइओ, कहं तुमं जाणसि किं कोइ अतिसओ? आमंति, पडिबाइ अप्पडिवाइति पुच्छिया सा भणइ-अप्पडिवाइत्ति, तओ खामिया । लोग लोगुत्तरसाहरणमेयं । एवं पमायंतो | सीसो उवालंभेयव्वोत्ति । उदाहरणदेशता पूर्ववद्योजनीयेति । एवं तावचरण करणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातमुपालम्भद्वारम् अधुना द्रव्यानुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते— 'नास्तिकवाद्यपि' चार्वाकोऽपि जीवनास्तित्वप्रतिपादक इत्यर्थः एवं 'वक्तव्यः' अभिधातव्यः - 'नास्ति' न विद्यते का? प्रकरणाज्जीव इति, एवंभूतं 'कुविज्ञानं' जीवसत्ताप्रतिषेधावभासीत्यर्थः, आत्माभावे सति न युक्तम्, आत्मधर्मत्वाद् ज्ञानस्येति भावना, भूतधर्मता पुनरस्य धर्म्यननुरूपत्वादेव न युक्ता, तत्समुदायकार्यताऽपि प्रत्येकं भावाभावविकल्पद्वारेण तिरस्क| र्त्तव्येति गाथार्थः ॥ अमुवेवार्थ समर्थयन्नाह
अत्थित्ति जा वियका अहवा नत्थिति जं कुविन्नाणं । अर्थताभावे पोग्गलस्स एवं चिअ न जुत्तं ॥ ७७ ॥ व्याख्या अस्ति जीव इति एवंभूता या वितर्काऽथवा 'नास्ति' न विद्यत इति एवंभूतं यत्कुविज्ञानं
१] सर्प तेनान्तरेण ( मार्गेण मध्येन वा ) आगच्छति, प्रवर्तिन्याच हस्तो सम्बमानस्योत्पादितः प्रतिबुद्धाचार्य चन्दना ष्टष्टा किमेतत् ? सा भणति - दीर्घजातीयः कथं एवं जानाति किं कश्चिदतिशयः १ ओमिति प्रतिकल्यप्रतिपाती वेति पृष्टा सा भणति अप्रतिपातीति ततः क्षामिता ठोकठोकोसरसाधारणमेतत् एवं प्रमाचन् शिष्य उपालम्भनीय इति २र्थमुपसंहरन्नाह. प्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [७७ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ ५० ॥
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लोकोत्तरापकारि अत्यन्ताभावे 'पुद्गलस्य' जीवस्य 'इदमेव न युक्तम्', इदमेवान्याय्यं । भावना पूर्ववदिति गाथार्थः । उदाहरणदेशता नास्तिकस्य परलोकादिप्रतिषेधवादिनो जीवसाधनाद् भावनीयेति । गतमुपालम्भद्वारम् अधुना शेषद्वारद्वयं व्याचिख्यासुराह
पुच्छre कोणिओ खलु निस्सावयणंभि गोयमस्सामी । नाहियवाई पुच्छे जीवत्थितं अणिच्छतं ॥ ७८ ॥ व्याख्या-'पृच्छायाँ' प्रश्न इत्यर्थः, 'कोणिकः' श्रेणिकपुत्रः खलुदाहरणम् । जहा तेण सामी पुच्छिओ-चकवद्विणो अपरिचत्तकामभोगा कालमासे कालं किचा कहिं उववांति ?, सामिणा भणियं-अहे सत्तमीए चक्कवट्टीणो उववज्जंति, ताहे भणइ अहं कत्थ उववज्जिस्सामि ?, सामिणा भणियं तुमं छट्टीपुढबीए, सो भ इ-अहं सत्तमीए किं न उबवज्जिस्सामि ?, सामिणा भणियं-सत्तमीए चक्कवट्टिणो उबवज्जंति, ताहे सो भाइ- अहं किं न होमि चक्कवही ? ममवि चउरासी दन्तिसयसहस्साणि, सामिणा भणियं तव रयणाणि निहीओ य णत्थि, ताहे सो कित्तिमाई रयणाई करिता ओवतिमारदो, तिमिसगुहाए पविसिउं पवतो,
१ यथा तेन स्वामी पृष्टः – चक्रवर्त्तिनोऽपरित्यक्तकामभोगाः कालमासे कालं कृत्वा कोपयन्ते ?, स्वामिना भणितम् अवः सप्तम्यां चक्रवर्त्तिन उत्पद्यन्ते, तदा भणति - अहं कोत्परस्ये, खामिना भणितं पापां पृथिव्यां स भणति - अहं सप्तम्यां कि नोत्पत्स्ये ? स्वामिना भणितं सप्तम्यां चक्रवर्तिन उत्पयन्ते, तदा स भगति - अहं किं चक्रवर्ती न भवामि ममापि चतुरशीतिर्दन्ति शतसहस्राणि खामिना भणितं तव रत्नानि निधयश्च न सन्ति तदा स कृत्रिमाणि रत्नानि वाडवपति ( जेतुं ) आरब्धः तमिस्रागुद्दायां प्रहुं प्रवृत्तः
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१ द्रुमपुष्पिका०
तद्देशे पृच्छानि
श्रोदा०
॥ ५० ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [७८], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप अनुक्रम
भणिओ य किरिमालएणं-बोलीणा चकवहिणो वारसवि, विणस्सिहिसि तुमं, वारिजंतो वि ण ठाई, पच्छा | कियमालएण आहओ, मओ य छहिँ पुढविं गओ, एवं लोइयं । एवं लोगुत्तरेवि बहुस्सुआ आयरिया अट्ठा
णि हेऊ य पुच्छियचा, पुच्छित्ता य सकणिज्जाणि समायरियब्वाणि, असक्कणिज्जाणि परिहरियब्वाणि, भ*णियं च-"पुच्छह पुच्छावेह य पंडियए साहवे चरणजुत्ते। मा मयलेवविलित्ता पारत्तहियं ण याणिहिह
॥१॥" उदाहरणदेशता पुनरस्याभिहितैकदेश एव प्रष्टुग्रहात् तेनैव चोपसंहारादिति । एवं तावचरणकरमणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छाद्वारम्, अधुनैतत्प्रतिवद्धां द्रव्यानुयोगवक्तव्यतामपास्य गाथोपन्या
सानुलोमतो निश्रावचनमभिधातुकाम आह-निश्रावचने निरूप्ये गौतमखाम्युदाहरणमिति । एत्थ गागलिमादी जहा पब्वइया तावसा य एवं जहा बहरसामिउप्पत्तीए आवस्सए तहा ताव नेयं जाव गोयमसा
मिस्स किल अधिई जाया । तत्थ भगवया भण्णइ-चिरसंसट्ठोऽसि मे गोयमा! चिरपरिचितोऽसि मे गोजयमा! चिरभाविओऽसि मे गोयमा! तं मा अघिई करेहि, अंते दोनिवि तुल्ला भविस्सामो, अन्ने य
भषिराव किरिमालकेन-व्यतिक्रान्ता द्वादशापि भकमसिना, बिनपसि , वार्यमाणोऽपि न तितति, पचास्कृतमालकेनाहतः, भूतब वह पृथ्वी गतः। का एजौकिकमेयं लोकोत्तरेऽपि बहुक्षुता आचार्याः प्रष्टव्या अर्थान् देतूंच, पृष्ट्वा च शकभीयान्याचरितव्यानि अशकनीयानि परिहर्तव्यानि, भणितं च "पूरछश्च पृच्छएच
पण्डितान् साधून चरणयुकान् ।मा मदलेपविलिप्ताः पारत्रिकहितं न ज्ञासिष्ठ ॥ १॥ २ अत्र गाजल्यापयो यथा प्रजितास्वापसाच, एवं मया पत्रखाम्युत्पत्तावावश्यके कातमा तापशेयं यावद् गीतमखामिनः किलाभूतिर्जाता। तत्र भगवता भग्वदे-चिरसंमोऽसि मम गौतम चिरपरिचितोऽसि मग गौतम! चिरभावितोऽसि मे
गीतम! तन्माणति काष, अन्ते द्वावपि दुल्यौ भविष्यावः, अन्ये व
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [७८], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
पिका
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
वशबैका तन्निस्साए अणुसासिया दुमपत्तए अज्झयणित्ति। एवं जे असहणा विणेया ते अन्ने महवसंपन्ने णिस्सं काऊण १ दुमपुहारि-वृत्तिःतहाऽणुसासियव्या उवाएण जहा सम्म पडिवजंति । उदाहरणदेशता त्वस्य देशेन-प्रदर्शितलेशत एव31 तथानुशासनादू । एवं तावचरणकरणानुयोगमधिकृत्य व्याख्यातं पृच्छानिश्रावचनद्वारद्वयम्, अधुना द्रव्या-1
| तद्देशे नि॥५१॥ 1नुयोगमधिकृत्य व्याख्यायते-तत्रेदं गाधादलम् –णाहियवाहमित्यादि, 'नास्तिकवादिन' चार्वाकं पृच्छेज्जी-1 वास्तित्वमनिच्छन्तं सन्तमिति गाधार्थः ॥ किं पृच्छेत् -
केणति नस्थि आया जेण परोक्खोत्ति तव कुविन्नाणं । होइ परोक्खं तम्हा नस्थित्ति निसेहए को णु? ॥ ७९ ॥ व्याख्या-केनेति' केन हेतुना ? 'नास्त्यात्मा' न विद्यते जीव इति पृच्छेत्, स चेद् ब्रूयात् 'येन परोक्ष द इति येन प्रत्यक्षेण नोपलभ्यत इत्यर्थः, स च वक्तव्या-भद्र ! तब 'कुविज्ञान' जीवास्तित्वनिषेधकध्वनिनि| मिसत्वेन तनिषेधकं भवति परोक्षम्, अन्यप्रमाणामिति गम्यते, 'तम्मादू भवदुपन्यस्तयुक्त्या नास्तीति
कृत्वा निषेधते को नु?, विवक्षाऽभावे विशिष्टशब्दानुत्पत्तेरिति गाथार्थः॥ उदाहरणदेशता चास्य पूर्ववदिति ६ गतं पृच्छाद्वारम् ॥
अन्नावएसओ नाहियवाई जेसि नस्थि जीवो उ । दाणाइफलं तेसिं न विज्जइ चउह तहोस ॥ ८० ।। व्याख्या-'अन्यापदेशतः' अन्यापदेशेन 'नास्तिकवादी' लोकायतो वक्तव्य इति शेषः, अहो धिक्कष्टं 'येषां १ तनित्रयाऽनुशासिता धुमपत्रलेोऽध्ययम इति । एवं येऽसहना पिनेयास्तेऽन्यान् माईवसंपन्नान् निश्रीकृत वयाऽनुशासितव्या उपायेन यथा सम्प प्रतिपद्यन्ते.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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हावादिनां 'नास्ति जीव एवं' न विद्यते आत्मैव 'दानादिफलं तेषां न विद्यते' दानहोमयागतपासमाध्यामादिफलं-वर्गापवर्गादि तेषां-वादिनां न विद्यते-नास्तीत्यर्थः । कदाचित्त एवं श्रुत्वैवं यः-मा भवत, का
नो हानिः?, 'न घभ्युपगमा एवं बाधायै भवन्ती ति, ततश्च सत्ववैचित्र्यान्यथानुपपत्तितस्ते सम्प्रतिपत्तिमानेतव्याः, इस्खलं विस्तरेण,गमनिकामात्रमेतद, उदाहरणदेशता चरणकरणानुयोगानुसारेण भावनीयेति।गतं निश्राद्वार, तदन्वाख्यानाच तद्देशद्वारम् , अधुना तद्दोषद्वारावयवार्थप्रचिकटविषयोपन्यासार्थ गाथावयवमाह 81-'चउह तड़ोसं चतुर्धा तद्दोष-इति उदाहरणदोषः, अनुखारस्त्वलाक्षणिकः, अथवोदाहरणेनैव सामाना
धिकरण्यं, तत तद्दोषमिति तस्योदाहरणस्यैव दोषा यस्मिंस्तत्तदोषमिति गाधाथैः॥ उपन्यस्तं चातुर्विध्यं प्रति|पादयन्नाह
पढमं अहम्मजुत्तं पटिलोमं अत्तणो उपन्नासं । दुरुवणियं तु चउत्यं अहम्मजुत्तमि नलदामो ॥ ८१ ॥ व्याख्या-'प्रथमम्' आयम् 'अधर्मयुक्त' पापसम्बद्धमित्यर्थः, तथा 'प्रतिलोम प्रतिकूलम् , 'आत्मन उपन्यास' इति आत्मन एवोपन्यासः-तथानिवेदनं यस्मिन्निति, दुरुपनीतं चेति दुष्टमुपनीतं-निगमितमस्मिनिति चतुर्थमिदं वर्तते, अमीषामेव यथोपन्यासमुदाहरणैर्भावार्थमुपदर्शयति-अधर्मयुक्ते नलदामः कुविन्दा, लीकिकमुदाहरणमिति गाथाक्षरार्थः ॥ पर्यन्तावयवार्थः कथानकादवसेयः, तचेदम्-चाणकेण गंदे उत्थाइए
१°णानुसारेण प्र. २ चाणक्येन नन्दै उत्थापिते
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प्रत
सूत्रांक/
गाथांक
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अनुक्रम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ८१ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ ५२ ॥
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चंदगुत्ते रायाणए ठविए एवं सव्वं वण्णित्ता जहा सिक्खाए, तत्थ णंदसंतिएहिं मणुस्सेहिं सह चोरग्गाहो मिलिओ, णगरं मुसइ, चाणक्कोऽवि अन्नं चोरग्गाहं ठविउकामो तिदंडं गहेऊण परिवायगवेसेण णघरं पविट्ठो, गओ णलदामकोलियसगासं, उबविट्ठो वर्णणसालाए अच्छर, तस्स दारओ मक्कोडएहिं खइओ, तेण कोलिएण बिलं खणित्ता दहा, ताहे चाणकेण भण्णइ किं एए डहसि ?, कोलिओ भाइ जइ एए समूलजाला ण उच्छाइज्जति, तो पुणोऽचि खाइस्संति, ताहे चाणक्केण चिंतियं-एस मए लद्धो चोरग्गाहो, एस णंदतेणया समूलया उद्धरिस्सिहिइत्ति चोरग्गाहो कओ, तेण तिखंडिया विसंभिया अम्हे संमिलिया मुसामोत्ति, तेहिं अनेवि अक्खाया जे तत्थ मुलगा, बहुया सुहतरागं मुसामोत्ति, तेहिं अन्नेवि अक्खाया, ताहे ते तेण चोरग्गाहेण मिलिऊण सव्वेऽवि मारिया । एवं अहम्मत्तं ण भाणियव्वं, पण य कायव्वंति । इदं तावलौकिकम्, अनेन लोकोत्तरमपि चरणकरणानुयोगं चाधिकृत्य सूचितमवगन्तव्यम्, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण
१ चन्द्रगुप्ते राजनि स्थापिते एवं सर्व वर्णयित्वा यथा शिक्षायाम्, तत्र नन्दसर कैमनुष्यैः सह चौरग्राहो मिठितः, नगरं मुष्णाति चाणक्योऽपि अन्यं | चौरमा स्थापवितुकामः त्रिदण्डं गृहीत्वा परित्राजकरेषेण नगरं प्रविष्टः गतो नलदामकोलिकसकाशमुपविष्ठो वयनशालायां तिष्ठति, तस्य दारको मत्कोटकैः खादितः तेन कोलिकेन बिलं स्वनित्वा दग्धाः, तदा चाणक्येन भव्यते किमेतान् दहति १, कोलिको भगति यद्येवे समूलजाला नोच्छायन्ते तदा पुनरपि खादिष्यन्ति तदा चाणक्यैन चिन्तितम् — एष मया धीरप्राहः, एष नन्दस्तेनकान् समूलान् उदरिष्यतीति चौराहः कृतः तेन त्रिखण्डिकाः (स्वेदाः) विश्रभिताः वयं सम्मिलिता मुग्णाम इति, तैरन्येऽप्याख्याता ये तत्र मोषकाः, बहवः सुखतरं मुष्णीम इति, तैरन्येऽप्याख्याताः, तदा तेन ते चौरा मिलित्वा सर्वेऽपि मारिताः । एवमधर्मयुक्तं न भणितव्यं न च कर्तव्यमिति
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१ दुमपुष्पिका०
तोषे - धर्मयुकं
॥ ५२ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८१], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
मिति न्यायात् । तत्र चरणकरणानुयोगेन'णेवं अहम्मजुत्तं कायव्वं किंचि भाणियब्वं वा । थोवगुणं बहुदोसं विसेसओ ठाणपत्तेणं ॥१॥ जम्हा सो अन्नेसिपि आलंयणं होई । द्रव्यानुयोगे तु-वादम्मितहास्वे विज्ञाय बलेण पवयणढाए । कुज्जा सावनं पिहु जह मोरीणउलिमादीसु ॥१॥ सो परिवायगो विलक्वी-13 कओत्ति । उदाहरणदोषता चास्याधर्मयुक्तत्वादेव भावनीयेति । गतमधर्मयुक्तद्वारम् , अधुना प्रतिलोमदारावयवार्थव्याचिख्यासयाऽऽह
पडिलोमे जह अभओ पजोयं हरइ अवहिओ संतो । गोविंदवायगोऽविय जह परपक्खं नियत्तेइ ॥ ८२ ॥ व्याख्या-प्रतिलोमें उदाहरणदोषे यथा 'अभया' अभयकुमारः प्रद्योतं राजानं हतवान् अपहृतः सन्निति, एतद् ज्ञापकम् , इह च त्रिकालगोचरसूत्रप्रदर्शनार्थों वर्तमाननिर्देश इत्यक्षरार्थः । भावार्थः कथानकादबसेयः, मातच यथाऽऽवश्यके शिक्षायां तथैव द्रष्टव्यमिति । एवं तावल्लौकिक प्रतिलोम, लोकोत्तरं तु द्रव्यानुयोगमधि-15 कृत्य सूचयनाह-गोविंदे'त्यादि गाथादलम् , अनेन चरणकरणानुयोगमप्यधिकृल सूचितमवगन्तव्यम् , आचन्तग्रहणे तन्मध्यपतितस्य तद्ग्रहणेनैव ग्रहणात्, तत्र चरणकरणे 'णो किंचि प पडिलोमं कायब्वं
नैवमधर्मयुक्तं कर्तव्यं किभितू माणितव्य गा । लोकगुणं बहुदोष विशेषतः स्थान प्राप्तेन ॥१॥ यस्मात् सोअन्येषामयालम्बनं भवति । वादे तथारूपे वि. काचाया बलेन प्रवचनार्थाय । कुमार साययमपि यथा मयूरीनकुल्यादिभिः ॥१॥परिवार विलक्षीकता इति. १ नो किमिदपि प्रतिलोम कर्तव्य
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८२], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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दशबैका भवभएण मण्णेसि । अविणीयसिक्खगाण उ जयणाइ जहोचिअं कुज्जा ॥१॥ द्रव्यानुयोगे तु गोपेन्द्रवा- १दुमपुहारि-वृत्तिःचकोऽपि च यथा परपक्षं निवर्त्तयतीत्यर्थः । सो य किर तच्चण्णिओ आसि, विणा (ण्णा) सणणिमित्तं पव्व-| पिका०
आइओ, पच्छा भावो जाओ, महावादी जात इत्यर्थः । सूचकमिदम् , अत्र च-देवट्टियस्स पज्जवणयट्ठिय- तद्दोषे प्र
मेयं तु होइ पडिलोमं । मुहदुक्खाइअभावं इयरेणियरस्स चोइज्जा ॥१॥ अण्णे उ दुट्ठवादिम्मि, किंचि|| तिलोमो. *बूया उ किल पडिकूलं । दोरासिपइपणाए तिपिण जहा पुच्छ पडिसेहो ॥२॥ उदाहरणदोषता त्वस्य प्रथ
मपक्षे साध्यार्थासिहे., द्वितीयपक्षे तु शास्त्रविरुद्धभाषणादेव भावनीयेति गाथार्थः ॥ गतं प्रतिलोमद्वारम् , इदानीमात्मोपन्यासद्वारं विवृण्वन्नाह
अत्तउवन्नासंमि य तलागभेयंमि पिंगलो थवई । व्याख्या-आत्मन एवोपन्यासो-निवेदनं यसिंस्तदात्मोपन्यासं तत्र च तडागभेदे पिङ्गलस्थपतिः उदाहरणमित्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकगम्या, तच्चेदम्-इह एगस्स रपणो तलागं सब्बरजस्स सारभूअं, तं च
१ भवभयेना (जननम) म्येषाम् । अविनीतशिक्षकाणां तु यतनया यथोचितं कुर्यात् ॥ १॥२सब किक बीब मासीव, विनापान( विज्ञान )निमित्तं नजितः, 'पञ्चाद्भावो जातः. ३ च्यार्थिकस्य पर्यायनार्थिक (क्वनम् ) एतत्तु भवति प्रतिकूलम् । सुखदुःखाद्यभावमितरस्वेतरेण (रः) चोदयेत् ॥१॥ M अन्ये तु दुष्ठलादिनि किविडूवातु किल प्रतिकूलम् । द्विराशिप्रतिज्ञायां, यो यथा पृच्छा प्रतिषेधः ॥२॥ ५ एकस्य राजस्व टाकः सर्वराज्यस्य सारभूतः, सच
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८३], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
तलागं वरिसे वरिसे भरियं भिजइ, ताहे राया भणइ-को सो उवाओ होजा? जेण तं न भिलेजा, तस्थ
एगो कविलओ मणूसो भणइ-जइ नवरं महाराय ! इत्थ पिंगलो कविलियाओ से दाढियाओ सिर से। है कविलियं सो जीवंतो चेव जंमि ठाणे भिजइ तंमि ठाणे णिक्खमह, तो णवरंण भिजइ, पच्छा कुमारामचेण
भणिय-महाराय! एसो व एरिसो जारिसयं भणइ, एरिसो णत्थि अनो, पच्छा सो तस्येव मारेत्ता 18|निक्खित्तो । एवं एरिसं न भाणियब्वं जं अप्पवहाए भवद । इदं लौकिकम्, अनेन च लोकोत्तरमपि सूचि-13 टातम्, एकग्रहणे तजातीयग्रहणात्, तत्र चरणकरणानुयोगे नैवं यात् यदुत-'लोइयधम्माओविहु जे
पन्भट्ठा णराहमा ते उ। कह दव्वसोयरहिया धम्मस्साराहया होंति ? ॥१॥ इत्यादि । द्रव्यानुयोगे पुनरेके|न्द्रिया जीवाः, व्यक्तोच्छ्रासनिश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावात्, घटवत्, इह ये जीवा न भवन्ति न तेषु व्यरातोडासनिश्वासादिजीवलिङ्गसद्भावो, यथा घटे, न च तथैतेष्वसद्भाव इति, तस्माज्जीवा एवैत इति, अ
वात्मनोऽपि तद्रूपाऽऽपत्यात्मोपन्यासत्वं भावनीयमिति । उदाहरणदोषता चास्यात्मोपघातजनकत्वेन प्रकटाहायवेति न भाव्यते । गतमात्मोपन्यासद्वारम् , अधुना दुरुपनीतद्वारं व्याचिख्यासुराह
१ सटाको वर्षे वर्षे मृतो भिद्यते, तदा राजा गणति-कास उपायो भवेत् येनासौ न भियते, तकः कपिलको मनुष्यो भणति-यदि पर महाराज! का अत्र पिल: कपिलास्तस्य श्मश्रुकेशाः शिरस्तस्य कपिलं स जीवमेव यस्मिन् स्थाने भिद्यते तस्मिन् स्थाने निक्षिप्यते ततः परं न भियते, पश्चात् कुमारामात्येन
भणितं--महाराज! एष एवईशो यादर्श भणति तारो नास्यन्यः, पचास तत्रैव मारयिस्वा निक्षिप्तः । एवनीदर्शन भणितव्यं यदारमवधाय भवति.लि. 13 लौकिकधमादपि ये प्रवधा नराधमास्ते तु । कर्य द्रव्यशौचरहिता धर्मस्वाराधका भवन्ति ॥१॥ एकेत्रियत्वापरया.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८३], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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आत्मोपन्यासदुरुपनीते
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अणिमिसगिहण भिक्खुग दुरुवणीए उदाहरणं ॥ ८३ ॥ हारि-वृत्तिः । व्याख्या-अनानिमिषा-मत्स्यास्तद्ग्रहणे भिक्षुरुदाहरणम् , इदं च लौकिकम्, अनेन चोक्तन्यायाल्लोको
त्त रमप्याक्षिप्तं वेदितव्यमिति गाथादलाक्षरायः॥ भावार्थः कथानकादवसेयः, तचेदम्-किल कोइ तचणिओ
जालवावडकरो मच्छगवहाए चलिओ, धुत्तेण भण्णइ-आयरिय! अघणा ते कंथा, सो भणइ जालमेतमित्यादि श्लोकादवसेयम्-"कन्धाऽऽचार्याधना ते ननु शफरवधे जालमनासि मत्स्यान , ते मे मद्योपदंशान। पिथसि ननु ? युतो वेश्यया यासि वेश्याम् ? । कृत्वाऽरीणां गलेही क नु तव रिपचो? येषु सन्धि छिनधि, चौरस्त्वं? यूतहेतोः कितव इति कथं? येन दासीसुतोऽस्मि ॥१॥ इदं लौकिकं, चरणकरणानुयोगे तु-ईय सासणस्सवण्णो जायइ जेणं न तारिसं व्या । वादेवि उवहसिज्जइ निगमणओ जेणतं चेव ॥१॥ उदाहरणदोषता पुनरस्य स्पष्टैवेति । गतं दुरुपनीतद्वारं, मूलद्वाराणां चोदाहरणदोषद्वारमिति, साम्मतमुपन्यासद्वारं व्याख्यायते, तत्राह
पत्तारि उपनासे तव्वत्थुग अन्नवत्थुगे चेव । पडिणिभए हेउम्मि य होति इणमो उदाहरणा ।। ८४ ॥ व्याख्या-चत्वारः 'उपन्यासे विचार्ये अधिकृते वा, भेदा भवन्ति इति शेषः, ते चामी-सूचनात् सूत्र
१ किल कश्चित् बौद्धः आलव्यातकरो मत्स्यवधाय पलितः, धूर्तेन भण्यते--आचार्या अपना ते कन्या, स भणति–जालमेतत्. २ इति शासनस्याव? हैजायते येन म ताबूयात् । यादेऽप्युपहरयते निगमनतो येन तचैव ॥१॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
मितिकृत्वा तथाधिकारानुवृत्तेश्च तद्वस्तूपन्यासस्तथा तदन्यवस्तूपन्यासः तथा प्रतिनिभोपन्यासः तथा हेतूपन्यासश्च । तत्रैतेषु भेदेषु भवन्ति 'अमूनि' वक्ष्यमाणान्युदाहरणानीति गाधार्थः ॥ भावार्थस्तु प्रतिभेदं खयमेव वक्ष्यति नियुक्तिकारः। तत्राद्यभेदव्याचिण्यासयाऽऽह
. तब्बत्थ्यंमि पुरिसो सव्वं भमिऊण साहइ अपुव्वं ।। अस्या व्याख्या-तद्वस्तुके' तद्वस्तूपन्यास इत्यर्थः, पुरि शयनात्पुरुषः 'सर्व भ्रान्त्वा' सर्वमाहिण्ड्य किम् ?-18 कथयति अपूर्वम् , वर्तमाननिर्देशः पूर्ववदिति गाथादलार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेया, तच्चेदम्-पगम्मि देवकुले कप्पडिया मिलिया भणति-केण भे भमन्तेहिं किंचि अच्छेरियं दिट्ठी, तस्थ एगो कप्पडिगो भणइमए विवति, जइ पुण एस्थ समणोवासओ नत्थि तो साहेमि, तओ सेसेहिं भणियं-णस्थित्य समणोवासओ, पच्छा सो भणइ-मए हिंडतेणं पुव्ववेतालीए समुदस्स तडे रुक्खो महइमहतो विट्ठो, तस्सेगा साहा समुद्दे पइट्ठिया, एगा य थले, तत्थ जाणि पत्ताणि जले पडंति ताणि जलचराणि सत्ताणि हवंति, जाणि थले ताणि थलचराणि हवंति, ते कप्पडिया भपांति-अहो अच्छेरयं देवेण भट्टारएण णिम्मियंति, तत्थेगो सावगो
एकस्मिन् देवाले काटिफा मिलिता भणन्ति-केनचित् भवतां भ्रमता किशिदाश्चर्य रष्ठं?, तत्रैकः काठिको भणति-मया इष्टमिति, यदि पुनरत्र श्रमणोपासको नास्ति तदा कथयामि, ततः कर्मणित-नास्यत्र धमणोपासका, पश्चात्स भणति-मया हिण्डमानेन पूर्वबैटालिकायां समुद्रस तहे प्रक्षोऽतिगुरुको [दृष्टः, तस्यैका शाखा समुद्र प्रतिष्टिता एका च स्थले, तत्र यानि पत्राणि जले पतन्ति तानि जलचराः सत्त्वा भवन्ति, यानि स्थले तानि स्थलचरा भवन्ति, ते काठिका भपरित-अझे आव देवेन मारकेन निर्मितमिति, तत्रैकः आयकः (१) पूर्वकूल वि. प.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति : [८४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
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दशवैका कप्पडिओ, सो भणइ-जाणि अद्धमज्झे पडंति ताणि किं हवंति?, ताहे सो खुद्धो भणइ-मया पुव्वं चेव भ- १ दुमपुहारि-वृत्तिः णियं-जह सावओ नस्थि तो कहेमि । एतेणं तं चेव पडणवत्थुमहिकिचोदाहरियं । एवं तावल्लौकिकम्, इदं | पिका.
चोक्तन्यायाल्लोकोत्तरस्यापि सूचकं, तन्त्र चरणकरणानुयोगे यः कश्चिद्विनेयः कञ्चनासदाहं गृहीत्वा न सम्य-IN तद्वस्तुनि ॥ ५५॥ ग्वर्त्तते स खलु तद्वस्तूपन्यासेनैव प्रज्ञापनीयः, यथा कश्चिदाह-"न मांसभक्षणे दोषो, न मये न च मैथुने ।
पत्राणा प्रवृत्तिरेषा भूतानां, निवृत्तिस्तु महाफला ॥१॥” इदं च किलैवमेव युज्यते, प्रवृत्तिमन्तरेण निवृत्तेः फला
सत्त्वभाषा भावात् , निर्विषयत्वेनासम्भवाच, तस्मात्फलनिबन्धननिवृत्तिनिमित्तत्वेन प्रवृत्तिरप्यदुष्टैवेति, अनोच्यते, इह निवृत्तमहाफलत्वं किं दुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेनाहोखिददुष्टप्रवृत्तिपरिहारात्मकत्वेनेति !, यद्यायः पक्षः कथं प्रवृत्तेरदुष्टत्वम्, अथापरस्ततो निवृत्तेरप्यदुष्टत्वात् तन्निवृत्तेरपि प्रवृत्तिरूपाया महाफलस्वप्रसार, तथा च सति पूर्वापरविरोध इति भावना । द्रव्यानुयोगे तु य एवमाह-एकान्तनित्यो जीवः अमूर्तत्वादाकाशवदिति, स खलु तदेवामूर्त्तत्वमाश्रित्य तस्योत्क्षेपणादावनित्ये कर्मण्यपि तावद्वक्तव्यः, कर्मामूर्तमनित्यं
१ काटिकः स भणति-यानि अर्धगये पतन्ति तानि के भवन्ति ?, तदा स भुन्धो भणति-मवा पूर्वमेव भणितं यदि आपको नास्ति ततः कथयामि, एतेन तदेव पतनवस्त्वधिकृत्योदाहृतम्. (१) खत्यो विलक्षः वि. प्र. २ दुष्टत्वाङ्गीकारात्तस्याः, दुष्टपरिहारात्मकत्वात् निवृत्तेः ३ विवक्षितायाः.
NR ॥५५॥ निवृत्तर्नितिः प्रवृत्तिः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८४], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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चेत्ययं वृद्धदर्शनेनोदाहरणदोष एव, यथाऽन्येषां साधर्म्यसमा जातिरिति । गतं तद्वस्तूपन्यासद्वारम्, अधुना तदन्यवस्तूपन्यासद्वारमभिधातुकाम आह
तयअन्नवत्थुगंमिवि अन्नत्ते होइ एगत्तं ।। ८४ ॥ I व्याख्या-तदन्यवस्तुकेऽपि उदाहरणे, किम् ?-अन्यस्वे भवत्येकत्वमित्यक्षरार्थ भावार्थस्वयम्-कश्चिदाह इह यस्य वादिनोऽन्यो जीवः अन्यच्च शरीरमिति, तस्यान्यशब्दस्याविशिष्टत्वात्तयोरपि तद्वाच्याविशिष्टत्वेनैकवप्रसङ्ग इति, तस्य जीवशरीरापेक्षया तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहार कर्तव्यः, कथम्?, नन्वेवं सति सर्व भावानां परमाणुध्यणुकघटपटादीनामेकत्वप्रसङ्गः, अन्यः परमाणुरन्यो द्विप्रदेशिक इत्यादिना प्रकारेणान्यशब्दस्याविशिष्टत्वात् , तेषां च तद्बाच्यत्वेनाविशिष्टत्वादिति, तस्मादन्यो जीवोऽन्यच्छरीरमित्येतदेव शोभनमिति । एत-13
द्रव्यानुयोगे, अनेन चेतरस्याप्याक्षेपः, तत्र चरणकरणानुयोगे 'न मांसभक्षण' इत्यादावेव कुमाहे तदन्यवाद जस्तूपन्यासेन परिहारः, कथम् ?, 'न हिंस्यात् सर्वाणि भूतानी'त्येतदेवं विरुध्यते इति । लौकिकं तु तस्मिन्नेवो-IM
दाहरणे तदन्यवस्तूपन्यासेन परिहार:-जहा जाणि पुण पाडिऊण पाडिऊण कोइ खाइ वीणेइ वा ताणि किं| हवंति ति ? । गतं तदन्यवस्तूपन्यासद्वारम्, साम्प्रतं प्रतिनिभमभिधित्सुराह
१ भतेन. २ नैयायिकानां. ३ वादिनः. ४ जीवशरीरयोः. ५ अन्यशब्दवाच्याभेदेन. । वथा यानि पुनः पातयित्वा पातयित्वा कश्चित्वादति (अव) विनुदे वा तानि के भवन्ति ?.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
दशका०॥
दुमपु
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
तुज्य पिया मह पिउणो धारेइ अणूणय पडिनिभमि । हारि-वृत्तिःला गाथादलम् । अस्य व्याख्या-तव पिता मम पितुर्धारयत्यनूनं शतसहस्रमित्यादि गम्यते । 'प्रतिनिभपिका
इति द्वारोपलक्षणम्, अपमक्षराफ, भावार्थ: कथानकादवसेयः, तच्चेदम्-ऐगम्मि नगरे एगो परिव्यापगो सोच- प्रतिनिमे ॥५६॥ ण्णएण खोरएण तहिं हिंडइ, सो भणइ-जो मम असुयं सुणावेइ तस्स एयं देमि खोरयं, तत्थ एगो सावओ,
शतसहस्र तेण भणि"तुज्झ पिया मम पिउणो धारेइ अणूणयं सयसहस्सं । जइ सुयपुष्वं विजउ अहन सुयं हेती यवखोरयं देहि ॥१॥ इदं लौकिकम् , अनेन च लोकोत्तरमपि सूचितमवगन्तव्यम्, तत्र चरणकरणानुयोगे क्रयर्ण येषां सर्वधा हिंसायामधर्मः तेषां विध्यनशनविषयोद्रेकचित्तभङ्गादात्महिंसायामपि अधर्म एवेति तदकरणम् ।
द्रव्यानुयोगे पुनरदष्टं मदचनमिति मन्यमानो यः कश्चिदाह-अस्ति जीव' इति, अन्न वद किञ्चित्, सब-1* भक्तव्यो यद्यस्ति जीवः एवं तर्हि घटादीनामप्यस्तित्वाज्जीवत्वप्रसङ्ग इति । गतं प्रतिनिभम् , अधुना हेतुमाह
किं नु जवा किर्जते ? जेण मुहाए न लम्भंति ॥ ८५॥ व्याख्या-किं नु यवाः क्रीयन्ते?, येन मुधा न लभ्यन्त इत्यक्षरार्थः। भावार्थस्त्वयम्-कोवि गोधो जथे किणाह,
१ एकस्मिन् नगरे एकः परिमाजकः सौवर्णेन खोरकेण (तापसभाजनेन) तत्र हिण्डते, स भपति-यो मख्यमश्रुतं श्रावयति तस्मै एतद्ददामि खोरक, त
कः श्रावकः, तेन भणितम्-"तब पिता मम पितुः धारयति अनूनं शतसहस्रम् । यदि श्रुतपूर्व ददातु अथ न श्रुतं खोरक देहि ॥१॥२ कोऽपि व्यवहारी ॥५६॥ लियबानू कीणाति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८५], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
सो अनेण पुच्छिन्नइ-किं जवे किणासि ?, सो भणइ-जेण मुहियाए ण लब्भामि । लौकिकमिदं हेतूपन्यासोदाहरणम् , अनेन च लोकोत्तरमप्याक्षिप्तमवगन्तव्यम्, तत् चरणकरणानुयोगे तावत् यद्याह विनेयः-किPामितीयं भिक्षाटनाद्याऽतिकष्टा क्रिया क्रियते?, स वक्तव्यो-येन नरकादिषु न कष्टतरा वेदना वेद्यत इति ।।
द्रव्यानुयोगे तु ययाह कश्चित्-किमित्यात्मा न चक्षुरादिभिरुपलभ्यते?, स वक्तव्यो-येनातीन्द्रिय इति । गत हेतुद्वारम् , तदभिधानाचोपन्यासद्वारम् , तदभिधानाचोदाहरणद्वारमिति ।। ८५ ॥ साम्प्रतं हेतुरुच्यते-तथा चाह
अहवावि इमो हेऊ विन्नेओ तत्थिमो चउविअप्पो । जावग थावग वंसग लूसग हेऊ चउत्थो उ ।। ८६ ।। KI व्याख्या-अधवा तिष्ठतु एष उपन्यासः, उदाहरणचरमभेदलक्षणो हेतुः, 'अपि:' सम्भावने, किं सम्भा-1
वयति ?, 'इमो अयं अन्यद्वार एवोपन्यस्तत्वात्तदुपन्यासनान्तरीयकत्वेन गुणभूतत्वादहेतुरपि, किंतु हेऊ वि-13
पणेओ तत्थिमोत्ति व्यवहितोपन्यासात् तत्रायं-वक्ष्यमाणो हेतुर्विज्ञेयः 'चतुर्विकल्प' इति चतुर्भेदः, विकपाल्पानुपदर्शयति-यापकः स्थापकः व्यसका लूषकः हेतुः चतुर्थस्तु । अन्ये वेवं पठन्ति-हेउत्ति दारमहुणा, चन्विहो सोख होइ नायव्वोत्ति, अत्राप्युक्तमुदाहरणम् , हेतुरित्येतद् द्वारमधुना-तुशब्दस्य पुनःशब्दा
१ सोऽन्येन पृश्यते किं यवान् कीपाति ?, स भगति-येन मुधिकया न लगे. (१) पूर्वोक्के. (२) पूर्वोत. (१) अवन्तरभाषित्वान्, (४) प्रस्तुत उदाहरण परमभेदरूपः,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८६], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
| यापकहे
दीप
दशवैकार्थत्वात् स पुनर्हेतुश्चतुर्विधो भवति ज्ञातव्य इत्येवं गमनिका क्रियते, पश्चार्द्ध तु पूर्ववदेवेति गाथाक्षरार्थः॥ दुमपुहारि-वृत्तिः भावार्थ तु यथावसरं स्वयमेव वक्ष्यति ॥८६॥ तत्रायभेदव्याचिख्यासयाऽह
पिका उम्भामिगा व महिला जावगहेडेमि उंटलिंडाई । ॥५ ॥
I गाथादलम।व्याख्या-असती महिला, किम् ?-यापयतीति यापकःयापकश्चासौ हेतुश्च यापकहेतुः तस्मिन् उ-IN| तावुष्टलिदाहरणमिति शेषः, उष्ट्रलिण्डानीति कथानकसंसूचकमेतदिति अक्षरार्थः।। भावार्थः कथानकादबसेयः, तच्चेदं ण्डिका कथानकम्-एगो वाणियओ भजं गिण्हेऊण पच्चंतं गओ, पाएण वीणदव्वा धणियपरद्धा कयावराहा या पचंतं
सेवंती पुरिसा दुरहीयविजा यशासा य महिला उम्भामिया, एगमि पुरिसे लग्गा, तं वाणिययं सागारिपंति ४ चिंतिऊण भणइ-वच वाणिज्जेण, तेण भणिया-किं घेतूण वचामि?, सा भणइ-उद्दलिंडियाओ घेत्तुणं वच से उज्जणि, पच्छा सो सगडं भरेत्ता उजेणिं गतो, ताए भणिओ य-जहा एकेकयं दीणारेण दिजहत्ति, सा चिंतेइ P-वरं खु चिरं खिप्पंतो अच्छउ, तेण ताओ चीहीए उड्डियाओ, कोइ ण पुच्छह, मूलदेवेण दिहो, पुच्छिओ य,
१एको वणिर मायाँ गृहीत्वा प्रत्यन्त यतः,-प्रायेण क्षीणद्रव्या (धनिकापरासाः) धनिकप्रारब्धाः कृतापराधाच । प्रसन्त सेवन्ते पुरुषा दुरधीत विद्याशा१॥ सा च महिला उद्भामिका, एकस्मिन् पुरुष लगा, तं वणिज सापारिकमिति चिन्तयित्वा भणति-व्रज वाणिज्येन, तेन मणिता-कि गृहीत्वा बजामि !, सा भपातिउष्ट्रलिण्डिका गृहीत्वा प्रजोजविनी, पश्चात व शकटं भृत्योनयिनी गतः, तथा भणितश्च यथैकेकिकां दीनारेण दद्या इति, सा चिन्तयति-वरमेव चिरं (क्षिप्यन्)
॥ ५७॥ प्रतीक्षमाणस्तितु तेन ता वीभ्यामवतारिता, कोऽपि न पृच्छति, मूलदेवेन रणः, पृष्टव,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८७], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
CAMERASA
दसिंह तेण, मूलदेवेण चिंतियं-जहा एस बराओ महिलाछोमिओ, ताहे मूलदेवेण भण्णति-अहमेयाउK
तव विकिणामि जइ ममवि मुल्लस्स अद्धं देहि, तेण भणियं-देमित्ति, अब्भुवगए पच्छा मूलदेवेणं सो हंसो
जाएऊण आगासे उप्पइओ, णगरस्स मज्झे ठाइऊण भणइ-जस्स गलए चेडरूचस्स उलिंडिया न बद्धा तं, ट्रामारेमि, अहं देवो, पच्छा सव्वेण लोएण भीएण दीणारिकाओ उद्दलिंडियाओ गहियाओ, विक्रियाओ य.
ताहे तेण मूलदेवस्स अद्धं दिन्नं । मूलदेवेण य सो भणइ-मंदभग्ग! तव महिला धुत्ते लग्गा, ताए तव एयं कर्य, ण पत्तियति, मूलदेवेण भण्णइ-एहि बच्चामोजा ते दरिसेमि जदि ण पशियसि, ताहे गया अ-10 नाए लेसाए, वियाले ओवासो मग्गिओ, ताए दिण्णो, तस्थ एगमि पएसे ठिया, सो धुत्तो आगओ, इयरी 8 वि धुत्तेणसह पियेउमादत्ता, इमं च गायइ–इरिमंदिरपण्णहारओ, मह कंतु गतो वणिजारओ । बरिसाण सयं च जीवउ मा जीवंतु घरं कयाइ एउ॥१॥ मूलदेवो भणइ-कयलीवणपत्तवेदिया, पइ भणामि
वि तेन, मूलदेवेन चिन्तितं यथैष वराको महिलाक्षोभितः, तदा मूलदेवेन भन्यते-गहमेतास्तव विद्यापयामि, यदि ममापि मूल्यमाई दास्यसि,18 तेन भणितं-ददामीति, अभ्युपगते पश्चान्मूलदेवेन स हंसो याचयित्वा आकाशे उत्पतितं, नगरस्य मध्ये स्थित्वा भणति-यस्य गलके (श्रीवायां) चेटरूपस्य गष्ट्रलिण्डिका न बद्धा तं मारयामि, महदेवा, पचात् सर्वेण लोकेन भीतेन दैनारिका उष्ट्रविधिका ग्रहीताः, विकीताब, तदा तेन मूलदेवाबाई दर्स, मूलदेवेन न भष्यते सः मन्दभाग्य । तब महिला धूर्ते लमा, तया तवैतकतं, न प्रखेति, मूलदेवेन मण्यते-एहि प्रजावो यावत्तव दर्शयामि यदि न प्रत्येषि, तदा बतीत अन्यया लेवयया, विकालेऽवकाशो मार्गितः, तया दत्तः, तत्रैकस्मिन् प्रदेशे स्थिती, स धूर्त मागतः, इतरापि धूर्तेन सह पातुमारब्धा, एतच गायति-सक्ष्मीम-5 न्दिरपण्यधारकः, मम कान्तो गतो चगिज्यारतः । वर्षाणां शतं जीवतु मा जीवन् गृई कदाचिद् गमत् ॥१॥ मूलवेवो भणति-कदलीवनपत्रवेष्टिते । प्रतिभणाकित
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८७], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप अनुक्रम
देवं जं महलएण गज्जती, मुणउ तं मुहत्तमेव ॥१॥ पच्छा मूलदेवेण भणति-किं धुत्ते?, तओ पभाए नि-18
१दुमपुहारि-वृत्तिः गंतूर्ण पुणरवि आगओ, तीय पुरओ ठिओ, सा सहसा संभंता अब्भुट्टिया, तओ खाणपियणे वदंते तेण | पिका
लावाणिएणं सच तीए गीयपजन्तयं संभारियं । एसो लोइओ हेऊ, लोउत्तरेवि चरणकरणाणुयोगे एवं सीसोऽपि स्थापकहे॥५८॥
केइ पयत्थे असद्दहतो कालेण विजादीहिं देवतं आयंपइत्ता सहावेयब्वो । तहा दव्वाणुओगेवि पडिवाई| तौ लोकनाऊण तहा विसेसणबहुलो हेऊ कायब्बो जहा कालजावणा हवा, तओ सो णावगच्छा पगयं, कुत्तियाव-18 मध्यं णचच्चरी वा कज्जइ, जहा सिरिगुत्तेण छलुए कया । उक्तो यापकहेतुः, साम्पतं स्थापकहेतुमधिकृत्याह
लोगस्स मज्झजाणण थावगहेऊ उदाहरणं ।। ८७ ॥ अस्य व्याख्या-'लोकस्य' चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य मध्यज्ञानम् , किम् ?, स्थापकहेताबुदाहरणमित्यक्षरार्थः ।। भावार्थः कथानकादवसेया, तचेदम्-ऐगो परिवायगो हिंडद, सो य परूवेइ-खेत्ते दाणाई सफलंतिक
१ देव (देव) यत् । मालफेन गर्जति गुणतु तन्मुहूर्तमेव ॥१॥ पश्चान् मूलदेवेन मण्यते किं पूर्ते !, ततः प्रभाते निर्यत्व पुनरपि आयतः, तस्याः पुरतः स्थितः, सा सहसा सम्भ्रान्ता अभ्युत्थिता, ततः खादनपाने वर्तमाने तेन वाणिजा सर्व तथा बीतपर्यन्तं संस्मारितम् । एष लौकिको हेतुः, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे एवं शिष्योऽपि कांचित् पदार्थान् अश्रद्दधानः कालेन विद्यादिभिर्देवतामाकम्प्य श्रद्धावान् कर्तव्यः । तथा द्रव्यानुयोगेऽपि प्रतिपादन ज्ञास्या तथा
का॥५८॥ विशेषणबहुलो हेतुः कर्तव्यो यमा कालमापना भवति, यतः स भावगच्छति प्रकृतं, कुत्रिकापणचचरी वा कियवे, यथा श्रीगुप्तेन पडलके कृता. २ एका परिवाजको का हिडते, स च प्ररूपयति-क्षेने दानादि सफलमितिकृत्या,
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सूत्रांक/
गाथांक
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अनुक्रम [१]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य|+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ ८७ ], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
Ja Education in
समखेते कायव्वं, अहं लोअस्स मज्झं जाणामि ण पुण अन्नो, तो लोगो तमाढाति, पुच्छिओ य संतो चङमुि दिसासु खीलए णिणिऊण रज्जूए पमाणं काऊण माइट्ठाणिओ भणइ एवं लोयमज्झति, तओ लोओ विम्हयं गच्छइ-अहो महारएण जाणियंति, एगो य सावओ, तेण नायं, कहूं धुत्त लोयं पयारेइन्ति ?, तो अहंपि वंचामिति कलिऊण भणियं ण एस लोयमज्झो, भुल्लो तुमंति, तओ सावरण पुणो मवेऊण अण्णो देसो कहिओ, जहेस लोयमज्झोत्ति, लोगो तुझे, अण्णे भणति - अणेगहाणेसु अन्नं अन्नं मज्झं परूवंतयं दद्दूण विरोधो चोइओन्ति । एवं सो तेण परिवायगो णिष्पिट्टपसिणवागरणो कओ । एसो लोहओ थावगहेऊ, लोउत्तरेऽवि चरणकरणाणुयोगे कुस्तीस असंभावणिजासग्गाहरओ सीसो एवं चैव पण्णवेयव्वो । दब्बाजोगे वि साहुणा तारिसं भाणियन्वं तारिसो य पक्खो गेण्हियवो जस्स परो उत्तरं चेच दाउ न तीरह, पुव्वावरविरुद्धो दोसो य ण हवइ ॥ ८७ ॥ उक्तः स्थापकः, साम्प्रतं व्यंसकमाह
१ समक्षेत्रे कर्तव्यम् अहं लोकस्य मध्यं जानामि न पुनरन्यः ततो लोकस्तमाद्रियते, पृष्टञ्च सन् चतसृष्वपि दिक्षु कीलकान् निहल रज्ज्या प्रमाणं कृत्वा मातृस्थानिकः ( मायिकः ) भणति एतलोकमण्यमिति ततो लोको विस्मयं गच्छति अहो भट्टारकेण ज्ञातमिति, एकच धावकः तेन ज्ञातं कथं धूत्तों लोकं प्रतारयति इति ततोऽहमपि वचये इति कलवित्वा भणितं नैतलोकमध्यं भ्रान्तस्त्वमिति, ततः श्रावकेण पुनः मित्वाऽन्यो देशः कथितः यथैतलोकमध्यमिति, लोकस्तुष्टः । अन्ये भणन्ति अनेकस्थानेषु अन्यदन्यन्मध्यं प्ररुपयन्तं दृष्ट्वा विरोधवोदित इति । एवं स तेन परिव्राजको निष्टष्टप्रश्रव्याकरणः कृतः । एष लौकिकः स्थापकहेतुः, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे कुश्रुतिभिरसम्भावनीयासद्वाहरतः शिष्य एवमेव प्रज्ञापयितव्यः, ब्यायोगेऽपि साधुना वाह कन्यं तादृशच पक्षो ग्रहीतव्यो यस्य परः उत्तरमेव दातुं न शक्नोति पूर्वापरविरुद्धो दोष न भवति.
For ane & Personal Use City
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दशवैका हारि-वृत्तिः ॥ ५९॥
दीप अनुक्रम
सा सगडतित्तिरी बंसर्गमि हेउम्मि होइ नायव्वा ।
४१दुमपु
पिका व्याख्या-सा शकटतित्तिरी व्यंसकहेतौ भवति ज्ञातव्येत्यक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेया, तचेदम्-| जहाँ एगो गामेल्लगो सगडं कट्ठाण भरेऊण णगरं गच्छद्द, तेण गच्छंतेण अंतरा एगा तित्तिरी मइया दिट्ठा, यसकह सो तं गिण्हेऊण सगडस्स उवारें पक्खिविऊण णगरं पइहो, सो एगेण नगरधुत्तेण पुच्छिओ-कहं सगडति-18ता शकट
तित्तिरी त्तिरी लग्भइ, तेण गामेल्लएण भण्णइ-तप्पणादुयालियाए लन्भति, तओ तेण सक्खिण उआहणित्ता स-16 गडं तित्तिरीए सह गहियं, एत्तिलगो चेव किल एस वंसगो त्ति, गुरवो भणंति-तओ सो गामेल्लगो दीणमणसो अच्छइ, तत्थ य एगो मूलदेवसरिसो मणुस्सो आगच्छइ, तेण सो दिट्टो, तेण पुच्छिओ-किं शि-13 यायसि अरे देवाणुप्पिया?, तेण भणियं-अहमेगेण गोहेण इमेण पगारेण छलिओ, तेण भणियं-मा बीहिहाती तप्पणादुयालियं तुमं सोवयारं मग्ग, माइट्ठाणं सिक्खाविओ, एवं भवउत्ति भणिऊण तस्स सगासं गओ, IM
१यको मामेयकः शकट काठ त्वा नगर गच्छति, तेन गच्छता अन्तरका वित्तिरिका मृता दृष्टा, स तां गृहीत्वा शकटस्योपरि प्रक्षिप्य नगर प्रविष्टः, स एकेन नगरधूर्तेन पृष्टः कथं शकटतित्तिरी लभ्यते?, तेन प्रामेबकेम भम्पते, मध्यमानसातुकेन (प्राकृतत्वायत्ययः) लभ्यते, ततस्तेन साक्षिण उपाहल शकट वित्तियों सह गृहीतम्, एतावानेव किलष यंसक इति । गुरचो भगान्ति-ततः स प्राभयको दीनमनाः विष्ठति. तत्र को मूलदेवसरको मनुष्य भागमत,, तेन स दृष्टः, तेन पृष्ठः-किं ध्यायति अरे देवानुत्रिय ?, तेन भाणितम्-अह मेकेन व्यवहारिणाऽनेन प्रकारेण खितः, तेन भनित-मा भैषीः, मध्यमानसक्तुकं ॥ ५९॥ सं सोपचार मार्गम, मातृस्वानं शिक्षितः, एवं भवस्थिति भगित्वा तस्य सकाशं गतो,
JaElication.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
भणियं चणेण-मम जइ सगडं हियं तो मे इयाणिं तप्पणादुयालियं सोवयार दवावेहि, एवं होत्ति, घरं णीओ, महिला संदिवा, अलंकियविभूसिया परमेण विणएण एअस्स तप्पणादुयालियं देहि, सा वयणसमं उचट्ठिया, तओ सो सागडिओ भणति-मम अंगुली छिन्ना, इमा चीरेणावेढिया, ण सक्केमि उड्डयालेऊ, तुमं| अदुयालि देहि, अदुआलिया तेण हत्येण गहिया, गामं तेण संपढिओ, लोगस्स य कहेर-जहा मए सतित्तिरीगेण सगडेण गहिया तप्पणादुयालिया, ताहे तेण धुत्तेण सगडं विसज्जियं, तं च पसाएऊण भज्जा णियत्तिया । एस पुण लूसओ चेव कहाणयवसेण भणिओ। एस लोइओ, लोगुत्तरेऽवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिभावियस्स तस्स तहा बंसगो पउज्जति जहा संमं पडिवजह । दव्वाणुओगे पुण कुप्पाचयणिओ |चोइजा-जहा जइ जिणपणीए मग्गे अस्थि जीवो अत्थि घडो, अस्थित्तं जीवेऽपि घडेवि, दोसु अविसेसेण|
भणितं चानेन मम यदि शफट हतं तदा मामिदानी मध्यमानसन्तुकं सोपचार दापय, एवं भवस्थिति, गृहं नीता, महिला संदिष्टा, असंतविभूषिता परमेण विनयेनेती मध्यमानसक्तुकं देहि, सा वचनसममुपस्थिता, ततः स शाकटिको भणति-ममाहुली छिना, इयं चीवरेणावेष्टिता, न शक्नोमि मथितूं, त्यं मथायित्वा देहि, मथिका तेन एस्तेन गृहीता, प्रार्म तथा समं (याममाण) प्रस्थितः, लोकाय च कथयति-यथा मया सतित्तिरिकेण शकटेन गृहीता सक्तुमक्षिका, तदा तेन धूर्तेन शकट
वितंच प्रसाद्य भार्या निर्तिता, एष धुनषका एवं कथानकवशेन भाणितः । एष लौकिका, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे कुश्रुतिभावितस्य तस्य तथा व्यसका प्रयुज्यते यथा सम्यक् प्रतिपद्यते । द्रव्यानुयोगे पुनः कुत्रावचनिका चोदयेत् यथा यदि जिनप्रणीते मार्गेखि जीवः अस्ति घटः, अस्तित्वं जीवेऽपि घटेऽपि, दूयोरप्यविशेषेण,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
॥६
॥
दशवकावइत्ति, तेण अत्थित्तसद्दतुल्लत्तणेण जीवघडाणं एगत्तं भवति, अह अत्थिभावाओ वतिरित्तो जीवो, दुमपुहारि-वृत्तिः तेण जीवस्स अभावो भवइत्ति। एस किल एद्दहमेत्तो चेव वंसगो, लूसगेण पुण एस्थ इमं उत्तरं भाणितव्वं- पिका
जह जीवघडा अत्थिते वति, तम्हा तेसिमेगतं संभावेहि, एवं ते सव्वभावाणं एगत्तं भवति, कह?, अ-11 व्यंसकहेलास्थि घडो अस्थि पडो अस्थि परमाणू अस्थि दुपएसिए खंधे, एवं सब्वभावसु अस्थिभावो वइत्तिकातौ शकट
किं सब्वभावा एगीभवंतु, एत्थ सीसो भणति-कई पुण एवं जाणियब्वं? सब्वभाषेसु अस्थिभावो यह तित्तिरी न य ते एगीभवंति, आयरिओ आह-अणेगताओ एयं सिज्झइ, एस्थ दिहतो-खइरो वणस्सई वणस्सई।
पुण खदिरो पलासो वा, एवं जीवोऽवि णियमा अस्थि, अस्थिभावो पुण जीवो व होज्ज अन्नो वा धम्मा*धम्मागासादीणं ति । उक्तो व्यंसकः, साम्प्रतं लूषकमधिकृत्याह
तउसगवंसग लूसगहेउम्मि य मोयओ य पुणो ॥ ८८॥ वर्तत इति, तेनास्तित्वशब्दतुल्यत्वेन जीवघटयोरेकत्वं भवति, अथालिभावाव्यतिरिको जीवस्तेन जीवस्वाभावो भवतीति । एष किल एतावन्मात्रथैव | व्यंसकः, षण पुनरौतदुत्तरं भनितव्यं यदि (यतो) जीरपटौ अस्तित्वे वत्तेते तस्मात्तयोरेकवं सम्भावयसि, एवं तव सर्वभावानामेकत्वं भवति, कथम्।। अन्ति घटः अस्ति पटः अस्ति परमाणुः अस्ति दिनदेशिकः स्कन्धः, एवं सर्वभावेमस्तिभावो वर्तत इतिकृया कि सर्वभावा एकीभवन्तु ? अत्र शिष्यो भगतिकथं पुनरेतत् ज्ञातव्यं सर्वभावेष्वसिरवं वर्तत, नववे एकीभवन्ति, आचार्य आह-अनेकान्तादेत सिधाति, अत्र दृष्यन्तः अदिरो वनस्पतिः वनस्पतिः पुनः४ खदिर पलाशो वा, एवं जीयोऽपि नियमादस्ति, अस्तिभावः पुनर्जीयो वा भवेदन्यत्तमो वा धर्माधर्माकाशादीनामिति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
व्याख्या-त्रपुषव्यसकप्रयोगे पुनर्लेषके हेतौ च मोदको निदर्शनमिति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थः कथानकादवसेया, तचेदम्-जहा एगो मणुस्सो तउसाणं भरिएण सगडेण नयरं पविसह, सो पविसंतो धुत्तेण भण्णइ
जो एयं तउसाण सगडं खाइज्जा तस्स तुमं किं देसि ?, ताहे सगडत्तेण सो धुत्तो भणिओ-तस्साहं तं मोरायगं देमि जो नगरहारेण ण णिप्फडइ, धुत्तेण भण्णति-तोऽहं एयं तउससगड खयामि, तुमं पुण तं मोयगं
देजासि जो नगरद्दारेण ण नीसरति, पच्छा सागडिएण अन्भुवगए धुत्तेण सक्खिणो कया, सगड अहि-18 द्वित्ता तेसिं तउसाणं एकेकायं खंडं अवणित्ता पच्छा तं सागडियं मोदकं मग्गति, ताहे सागडिओ भणतिइमे तउसा ण खाइया तुमे, धुत्तेण भण्णति-जह न खाइया तउसा अग्घवेह तुमं, तओ अग्घविएसु कइया| आगया, पासंति खंडिया तउसा, ताहे कइया भणंति-को एए खइए तउसे किणइ ?, तओ करणे ववहारो जाओ खइयत्ति, जिओ सागडिओ। एस वंसगो चेव लूसगनिमित्तमुवपणत्यो, ताहे धुत्तेण मोदर्ग मग्गि
यको मनुष्य अपुषा भतेन धाकटेन नगर प्रविशति, स प्रविशन् एतेन भम्पते-य एतत् वपुषां शकर सावेत तसे वंकि ददाधि सदा शाकटिकेन स धूर्तो भणित:--तस्मायहं तं मोदकं ददामि यो नगरद्वारेण न निस्सरति, धूर्तेन मण्यते तदाहमेतबपुषां शकटं वादामि, स्वं पुना मोदकं दद्याः यो नगरद्वारेण न निस्सरति, पचात् शाकटिकेनाभ्युपगते धूर्तेन साक्षिणः कूताः, शकटमधिष्ठाय तेषां वपुषामेकैक खण्डमपनीय पश्चात्तं शाकटिक मोदकं मार्गयति. तदा शाकटिको भणति-इमानि अघि म खादितानि त्वया, भूतेन भण्पते.-यदा न खावितानि तदा प्रषित्वं अर्धय, ततोऽचितेषु कयिका भागताः
अपश्यन् खण्डितानि प्रषि, तदा कयिका भणन्ति- एतानि खादितानिषि कीणाति, ततः करणे व्यवहारो जातः सादितानीति, जितः शाकटिकः, एष व्यं. कासकय छपकनिमित्तमुपन्यतः । तदा धूर्तन मोदको मायैते.
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श.११
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
दशवका० हारि-वृत्तिः
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
अति, अचाइओ सागडिओ, जूतिकरा ओलग्गिया, ते तुट्टा पुच्छंति, तेसिं जहावसं सब कहेति, एवं कहिते दुमपु. तेहिं उत्तरं सिक्खाविओ-जहा तुमं खुडयं मोदगं णगरदारे ठवित्ता भण एस स मोदगो ण णीसरह णग- प्पिका० रदारण, गिण्हाहि, जिओ धुत्तो । एस लोइओ, लोगुत्तरेवि चरणकरणाणुयोगे कुस्सुतिभावितस्स तहा लूस- लूषकहेतौ |गो पजइ-जहा सम्म पडिवजा । बब्वाणुजोगे पुण पुज्जा भणति-पुब्वं दरिसिओ चेव । अण्णे पुण भणति- पुषउदा. पुवं सयमेव सव्वभिचारं हे उच्चारेऊण परविसंभणानिमित्तं सहसा वा भणितो होला, पच्छा तमेव हे अण्णेणं निरुत्सवयणेणं ठायेह । उक्तो लूषकस्तदभिधानाच हेतुरपि । साम्प्रतं यदुक्तं 'कचित्पञ्चावयव मिति, तदधिकृतमेव सूत्रं 'धम्मो मंगल'मित्यादिलक्षणमधिकृत्य निदर्यते-अहिंसासंयमतपोरूपो धर्मः मङ्गलमुत्कृष्टमिति प्रतिज्ञा, इह च धर्म इति धर्मिनिर्देशः, अहिंसासंयमतपोरूप इति धर्मिविशेषणम् , उस्कृष्टं मङ्ग-1 | लमिति साध्यो धर्मः, धर्मिधर्मसमुदाया प्रतिज्ञा, इयं श्लोकानोक्ता इति, देवादिपूजितत्वादिति हेतुः, आ-3|| दिशब्दात् सिद्धविद्याधरनरपरिग्रहः, अयं च श्लोकतृतीयपादेन खलूक्तोऽवसेयः, अहंदादिवदिति दृष्टान्तः,
दीप अनुक्रम
॥६१॥
व्यथितः वायटिकी, चूतकरा अपलगिताः, ते तुष्टाः पृच्छन्ति, तेभ्यो यथारसं सर्व कथयति, एवं कथिते तैकतर शिक्षितं यथा संचालक मोदक नगरद्वारे स्थापयित्वा भण-एष स मोदको न निस्सरति नगरद्वारेण, गृहाण, जितो धूर्तः । एष लौकिका, लोकोत्तरेऽपि चरणकरणानुयोगे धुतिभाविताय तथा [षकः प्रयोक्तव्यो यथा सम्पर प्रतिपयते । द्रव्यानुयोगे पुनः पूज्या भणन्ति-पूर्व दर्शित एव । अन्ये पुनर्भणन्ति--पूर्व खपमेव सव्यभिचार देवमुचार्य परविशम्भहेतवे सहसा वा भणितो भवेत् पश्चात् तमेव हेतुमन्येन निरुकवचनेन स्थापयति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [८८], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
अत्रापि चादिशब्दादू गणधरादिपरिग्रहा, अयं च श्लोकचरमपादेनोक्तो वेदितव्य इति । न च भाषमनोऽधि18|कृत्याहंदूदृष्टान्तेऽस्ति कश्चिद्विरोध इति, इह यो यो देवादिपूजितः स स उस्कृष्टं मङ्गलं यथाऽहंदादयस्तथा च
देवाविपूजितो धर्म इत्युपनयः, तस्मादेवादिपूजितत्वादुत्कृष्टं मङ्गलमिति निगमनम् । इदं राषयषद्वयं सूरात्रोक्तावयवत्रयाविनाभूतमितिकृत्वा तेन सूचितमवगन्तव्यमित्यलं विस्तरेण ।। ८८॥ साम्प्रतमेत्तानेवावय४ वान सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रतिपादयन्नाह
धम्मो गुणा अहिंसाइया छ ते परममंगल पइना । देवावि लोगपुज्जा पणमंति सुधम्ममिइ हेऊ ॥ ८९ ॥ II व्याख्या-'धर्म' प्राग्निरूपितशब्दार्थः, स च क हत्याह-गुणा अहिंसादयः, आदिशब्दात् संयमतपाप
रिग्रहः, तुरेवकारार्थः, अहिंसावय एव, ते परममङ्गलमिति प्रतिज्ञा, तथा देवा अपि, अपिशब्दात् सिद्धविद्याधर नरपतिपरिग्रहः, लोकपूज्या' लोकपूजनीयाः प्रणमंति' नमस्कुर्वन्ति, कम् ?-'सुधर्माणं' शोभवधर्मकाव्यवस्थितमिति, अर्थ हेत्वर्थसूचकत्वाद्धेतुरिति गाथार्थः ॥ ८९॥
दिलुतो अरहंता अणगारा य बहलो उ जिणसीसा । बत्तणुवते नजर जं नरवइणोऽवि पणमंति ॥ ९॥ | ब्याख्या दृष्टान्त प्राग्निरूपितशब्दार्थः, स चाशोकायष्टमहामातिहार्यादिरूपां पूजापहन्तीत्यर्हन्त:, तथा अनगाराच बहव एव जिनशिष्या इति, न गच्छन्तीत्यगा-वृक्षास्तैः कृतमगारं-वयेषां पिचत्त इति
৭ নম্বল ঘুৰীৰখালাসি ৰা,
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सूत्रांक / गाथांक
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अनुक्रम [१]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [९०], भाष्यं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशचैका०
अर्श आदराकृतिगणत्वादच्प्रत्ययः अगारा-गृहस्थाः न अगारा-अनगारा, चशब्दः समुचयार्थः, तुरेवकारार्थः, हारि-वृत्तिः । ततश्च बहव एव नाल्पाः, रागादिजेतृत्वाज्जिनास्तच्छिष्याः तद्विनेया गौतमादयः, आह- अर्हदादीनां परोक्षत्वात् दृष्टान्तत्वमेवायुक्तम्, कथं चैतद्विनिश्चीयते ? यथा ते देवादिपूजिता इति उच्यते, यत्तावदुक्तं 'परोक्ष॥ ६२ ॥ ॐ त्वादिति, तदुष्टम्, सूत्रस्य त्रिकालगोचरत्वात् कदाचित्प्रत्यक्षत्वात्, देवादिपूजिता इति च एतद्विनिश्चयायाह-वृत्तम्-अतिक्रान्तम् अनुवर्त्तमानेन - साम्प्रतकालभाविना ज्ञायते कथमित्यत आह- 'यद्' यस्माद् नरपतयोऽपि राजानोऽपि प्रणमन्ति इदानीमपि भावसाधुं ज्ञानादिगुणयुक्तमिति गम्यते । अनेन गुणानां पूज्यत्वमावेदितं भवतीति गाथार्थः ॥ ९० ॥
Ja Educato
उबसंहारो देवा जह तह रायावि पणमइ सुधम्मं । तम्हा धम्मो मंगलमुकिट्ट मित्र अ निगमणं ॥ ९१ ॥
व्याख्या- 'उपसंहारः' उपनयः स चायम्- देवा यथा तीर्थकरादीन् तथा राजाऽप्यन्योऽपि जनः प्रणमतीदानीमपि सुधर्माणमिति । यस्मादेवं तस्माद्देवादि पूजितत्वाद् धर्मो मङ्गलमुत्कृष्टमिति च निगमनम् । 'प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचनं निगमन मिति गाथार्थः ॥ ९१ ॥ उक्तं पञ्चावयवम्, एतदभिधानाचार्थाधिकारोऽपि धर्मप्रशंसा | साम्प्रतं दशावयवं तथा स चेहैव जिनशासन इत्यधिकारं चोपदर्शयति-इह च दशावयवाः-प्रतिज्ञादय एव प्रतिज्ञादिशुद्धिसहिता भवन्ति । अवयवत्वं च तच्छुद्धीनामधिकृत वाक्यार्थोपकारकत्वेन प्रतिज्ञा
For ane & Personal Use City
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१ द्रुमपुष्पिका० पञ्चावयवं धर्मे
॥ ६२ ॥
brary dry
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-1, मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [९१], भाष्यं -] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीनामिव भावनीयमिति, अत्र बहु वक्तव्यं, तत्तु नोच्यते, गमनिकामात्रत्वात् प्रारम्भस्येति ॥ साम्प्रतमधिकृतदशावयवप्रतिपादनायाह
विश्वपइन्ना जिणसासणंमि साहेति साहबो धम्मं । हेऊ जम्हा सम्भाविएसुऽहिंसाइसु जयंति ।। ९२ ॥ | व्याख्या-द्वितीया पश्चावयबोपन्यस्तप्रथमप्रतिज्ञापेक्षया, प्रतिज्ञा पूर्ववत्, द्वितीया चासौ प्रतिज्ञा च द्वितीयप्रतिज्ञा, सा चेयम्-जिनशासने जिनप्रवचने, किम् ?–'साधयन्ति' निष्पादयन्ति 'साधवः' प्रबजिताः 'धर्म | माग्निरूपितशब्दार्थम् । इह च साधच इति धम्मिनिर्देशः, शेषस्तु साध्यधर्म इति, अयं प्रतिज्ञानिर्देशः । हेतु-1 निर्देशमाह-हेतुर्यमात् 'साभाविकेषु' पारमार्थिकेषु निरुपचरितेष्ववित्यर्थः अहिंसादिषु, आदिशब्दान्मूपावादादिविरतिपरिग्रहः, अन्ये तु व्याचक्षते-'सम्भाविएहिं ति सद्भावेन निरुपचरितसकलदुःखक्षयायवेत्यर्थः 'यतन्ते' प्रयत्नं कुर्वन्ति इति गाथार्थः ॥ ९२ ॥ साम्प्रतं प्रतिज्ञाशुद्धिमभिधातुकाम आह
जह जिणसासणनिरया धम्म पालेंति साहयो सुद्धं । न कुतित्थिएसु एवं दीसइ परिचालणोवाओ ॥ ९३ ॥ व्याख्या-'यथा' येन प्रकारेण जिनशासननिरता-निश्चयेन रता 'धर्म' प्राग्निरूपितशब्दा) 'पालयन्ति' रक्षन्ति 'साधवः' प्रव्रजिताः षड्जीवनिकायपरिज्ञानेन कृतकारितादिपरिवर्जनेन च 'शुद्धम् अकलक, नैवं तत्रान्तरीयाः, यस्मान्न कुतीर्थिकेषु, 'एवं यथा साधुषु दृश्यते परिपालनोपायः, षड्जीवनिकायपरिज्ञानाद्य
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [ - ], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्तिः [ ९३ ], भाष्यं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशबैका ० भावात् । उपायग्रहणं च साभिप्रायकम्, शास्त्रोक्तः खलूपायोऽत्र चिन्त्यते, न पुरुषानुष्ठानं, कापुरुषा हि हारि-वृत्तिः ४ वितथकारिणोऽपि भवन्त्येवेति गाथार्थः ॥ ९३ ॥ अत्राह -
॥ ६३ ॥
सुवि य धम्मसदो धम्मं निचयं व ते पसंसंति । नगु भणिओ सावज्जो कुतित्थिधम्मो जिणवरेहिं ॥ ९४ ॥ व्याख्या- 'तेष्वपि च' तनान्तरीयधर्मेषु, किम् ? - धर्मशब्दो लोके रूढः, तथा धर्म 'निजं च' आत्मीयमेव यथातथं ते 'प्रशंसन्ति' स्तुवन्ति ततश्च कथमेतदिति, अत्रोच्यते, 'नन्वि'त्यक्षमायां 'भणित' उक्तः पूर्व 'सावध:' सपापः 'कुतीर्थिकधर्मः' चरकादिधर्मः । कैः ? – 'जिनवरैः' तीर्थकरैः "ण जिणेहिं उ पसत्थों" इति वचनात्, षड्जीवनिकायपरिज्ञानाद्यभावादेवेति, अत्रापि बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते ग्रन्थविस्तरभयादिति गाथार्थः ।। ९४ ।। तथा
Jam Education
जो तेसु धम्मसदो सो वारेण निच्छएण इहूं। जह सीहसहु सीहे पाहण्णुवयारओऽण्णत्व ।। ९५ ।। व्याख्या-य: 'तेषु' तत्रान्तरीयधर्मेषु धर्मशब्दः स 'उपचारेण' अपरमार्थेन, निश्चयेन 'अत्र' जिनशासने, कथम् ? - यथा सिंहशब्दः सिंहे व्यवस्थितः प्राधान्येन, 'उपचारतः' उपचारेण 'अन्यत्र' माणवकादौ, यथा सिंहो माणचकः, उपचारनिमित्तं च शौर्यक्रौर्यादयः धर्मे खहिंसाद्यभिधानादय इति गाथार्थः ।। ९५ ।।
एस पइन्नासुद्धी हेऊ अहिंसाइए पंचसुवि । सब्भावेण जयंती हे विसुद्धी इमा तत्थ ॥ १ ॥ (भाष्यम्) | व्याख्या- 'एषा' उक्तस्वरूपा प्रतिज्ञायाः शुद्धिः प्रतिज्ञाशुद्धि:, हेतुरहिंसादिषु पञ्चस्खपि सद्भावेन यतन्त
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१ द्रुमपु.
ष्पिका० प्रतिज्ञा
शुद्धिः
॥ ६३ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [ - ], मूलं [-] / गाथा || १ || निर्युक्ति: [ ९५ ], भाष्यं [२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
इति, अयं च प्राग् व्याख्यात एव, शुद्धिमभिधातुकामेन च भाव्यकृता पुनरुपन्यस्त इति, अत एवाह-हैतोर्विशुद्धि र्हेतुविशुद्धिः, विषयविभाषाव्यवस्थापनं विशुद्धिः, 'इमा' इयं 'तत्र' प्रयोग इति गाथार्थः ॥
जं भत्तपाणउबगरणवसहिसयणासणासु जयंति । फालुयञकय अकारियअणणुमयाणुट्टिभोई य ॥ २ ॥ ( भाष्यम् ) ॥ व्याख्या—'यद्' यस्मात्, भक्तं च पानं चोपकरणं च वसतिश्च शयनासनादयश्चेति समासस्तेषु, किम् ? – 'यतन्ते' प्रयत्नं कुर्वन्ति, कथमेतदेवमित्यत्राह यस्मात् प्रासुकं चाकृतं चाकारितं चाननुमतं चानुद्दिष्टं च तद्भोक्तुं शीलं येषां ते तथाविधाः, तत्रासवः प्राणाः प्रगता असवः प्राणा यस्मादिति प्रासुकं-निर्जीवम्, तच्च स्वकृतमपि भवत्यत आह-अकृतम्, तदपि कारितमपि भवत्यत आह-अकारितम्, तदप्यनुमतमपि भवत्यत आह- अननुमतम्, तदप्युद्दिष्टमपि भवति यावदर्शिकादि न च तदिष्यत इत्यत आह-अनुद्दिष्टमिति । एतत्प| रिज्ञानोपायश्चोपन्यस्तसकलप्रदानादिलक्षणसूत्रादवगन्तव्य इति गाथार्थः ॥ तदन्ये पुनः किमित्यत आहअफासुयकयकारियअणुमयद्दिभोइणो हंदि । तस्थावरहिंसाए जणा अकुसला उलिप्पति ॥ ३ ॥ (भाष्यम्) |
व्याख्या - अप्रासुककृतकारितानुमोदितोद्दिष्टभोजिनश्वरकादयः, हन्दीत्युपप्रदर्शने, किमुपप्रदर्शयति ? -त्रसन्तीति त्रसाः - द्वीन्द्रियादयः तिष्ठन्तीति स्थावराः - पृथिव्यादयः तेषां हिंसा-प्राणव्यपरोपणलक्षणा तया 'जनाः' प्राणिनः 'अकुशला': अनिपुणाः स्थूलमतयश्वरकादयो 'लिप्यन्ते' सम्बध्यन्त इत्यर्थः इह च हिंसाक्रि
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -1/गाथा ||२|| नियुक्ति: [९५...], भाष्यं [४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्पिका
सूत्रांक/ गाथांक ||२||
दशबैका- याजनितेन कर्मणा लिप्यन्त इति भावनीयम् , कारणे कार्योपचारात्, ततश्च ते शुद्धधर्मसाधका न भवन्ति, दुमपुहारि-वृत्तिःसाधव एव भवन्तीति गाथार्थः ॥
एसा हेविसुद्धी दिलुतो तस्स चेव य विसुद्धी । सुत्ते भणिया उ फुडा सुत्तफासे उ इयमन्ना ।। ४ ।। (भाष्यम् )॥ हेतुवि॥६४॥ व्याख्या-'एषा' अनन्तरोक्ता हेतुविशुद्धि' प्राग्निरूपितशब्दार्थी, अधुना 'दृष्टान्त' प्राग्निरूपितशब्दार्थः,12 शुद्धि
तथा 'तस्यैव च दृष्टान्तस्य विशुद्धिः, किम् ?-सूत्रे भणिता, उक्तैव 'स्फुटा' स्पष्टा ॥ तचेदं सूत्रम्
जहा दुमस्स पुप्फेसु, भमरो आवियइ रसं । ण य पुष्फ किलामेइ, सो अ पीणेइ अप्पयं ॥२॥
अस्य व्याख्या-अत्राह-अथ कस्माद्दशावयवनिरूपणायां प्रतिज्ञादीन् विहाय सूत्रकृता दृष्टान्त एवोक्त। इति ?, उच्यते, दृष्टान्तादेव हेतुप्रतिज्ञे अभ्यो इति न्यायप्रदर्शनार्थम् , कृतं प्रसङ्गेन प्रकृतं प्रस्तुमः । तत्र 'यथायेन प्रकारेण 'दुमस्य' माग्निरूपितशब्दार्थस्य 'पुष्पेषु' प्राग्निरूपितशब्दार्थेष्वेव, असमस्तपदाभिधानमनुमेये (उपमेये) गृहिद्रुमाणामाहारादिपुष्पाण्यधिकृत्य विशिष्टसंबन्धप्रतिपादनार्थमिति, तथा च अन्यायोपार्जितवित्तदानेऽपि ग्रहणं प्रतिषिद्धमेव, 'भ्रमरः चतुरिन्द्रियविशेषः, किम् ?-'आपिबति' मर्यादया पिबत्यापिवति, कम् ?-रस्यत इति रसस्त-निर्यासं मकरन्दमित्यर्थः, एष दृष्टान्तः, अयं च तदेशोदाहरणमधि-18 कृत्य वेदितव्य इति, एतच्च सूत्रस्पर्शिकनियुक्ती दर्शयिष्यति, उक्तं च 'सूत्रस्पर्श वियमन्येति । अधुना रष्टा-IN६४ ॥
१ उदाहरणभेदचतुष्के प्रथमभेदगतं, स्यापितं च प्राक् एतत् २ भाष्यगतबर्थगाथायाम,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -]/गाथा ||२|| नियुक्ति : [१६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||२||
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तविशुद्धिमाह-'न च' नैव 'पुष्पं प्राग्निरूपितखरूपं 'क्लामयति' पीडयति, 'सच' भ्रमर: 'प्रीणाति' तर्पय४त्यात्मानमिति सूत्रसमुदायार्थः ॥ अवयवार्थ तु नियुक्तिकारो महता प्रपशेन व्याख्यास्यति । तथा चाह
जा भमरोत्ति य एत्थं विलुतो होइ आहरणदेसे । चंदमुहि दारिगेयं सोमत्तवहारण ण सेसं ॥ ९६ ॥ व्याख्या-यथा भ्रमर इति च 'अन' प्रमाणे दृष्टान्तो भवत्युदाहरणदेशमधिकृत्य, यथा चन्द्रमुखी दारिकेयमित्यत्र सौम्यत्वावधारणं गृह्यते, न शेष-कलङ्काङ्कितत्वानवस्थितत्त्वादीति गाथार्थः॥९६ ॥
एवं भमराहरणे अणिययवित्तित्तणं न सेसाणं । गहणं दिहुंतविसुद्धि सुत्त भणिया इमा पऽना ॥ ९॥ व्याख्या-एवं भ्रमरोदाहरणे अनियतवृत्तित्त्वं, गृह्यत इति शेषः, न 'शेषाणाम् अविरत्यादीनां भ्रमरध४ाणां ग्रहणं, दृष्टान्त इति। एषा दृष्टान्तविशुद्धिः सूत्रे भणिता, इयं चान्या सूत्रस्पर्शनियुक्ताविति गाथार्थः।।९७॥
एत्य य भणिज कोई समणार्ण कीरए सुविहियाणं । पागोवजीविणो त्ति व लिप्पंतारंभदोसेणं ॥ ९८ ॥ व्याख्या-अत्र चैवं व्यवस्थिते सति यात्कश्चिद्यथा-श्रमणानां क्रियते सुविहितानामिति, एतदुक्तं 'भ-12 वति-यदिदं पाकनिर्वर्तनं गृहिभिः क्रियते, इदं पुण्योपादानसंकल्पेन श्रमणानां क्रियते 'सुविहिताना मिति तपस्विनां, गृह्णन्ति च ते ततो भिक्षामित्यतः पाकोपजीविन इतिकृत्वा लिप्यन्ते आरम्भदोषेण-आहारकरणक्रियाफले नेत्यर्थः, तथा च लौकिका अप्याहु:-'क्रयेण क्रायको हन्ति, उपभोगेन खादकः । घातको वधचिसेन, इत्येष विविधो वधः ॥१॥ इति गाथार्थः ॥९८॥ साम्पतमेतत्परिहरणाय गुरुराह- .
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं -]/गाथा ||२|| नियुक्ति : [९९], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
दशवैका० हारि-बृत्तिः
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||२||
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वासइ न तणस्स कए न तणं बढइ कए भयकुलाणं । न य रुक्खा सयसाला फुल्लन्ति कए महुपराणं ॥ ९९ ।।
दुमपुर व्याख्या-वर्षति न तृणस्य कृते, न तृणार्थमित्यर्थः, तथा न तृणं वर्धते कृते मृगकुलानाम्-अर्थाय तथापिका नच वृक्षाः शतशाखाः पुष्प्यन्ति 'कृते' अर्थाय मधुकराणाम् , एवं गृहिणोऽपि न साध्वर्थ पार्क निर्वर्तयन्ती- दृष्टान्तत्यभिप्राय इति गाथार्थः ॥ ९९ ॥ अत्र पुनरप्याह
8 विशुद्धिः अग्गिम्मि हवी हूबइ आइचो तेण पीणिओ संतो। वरिसइ पयाहियाए तेणोसहिओ परोहति ॥ १० ॥ हा व्याख्या-इह यदुक्तं वर्षति न तृणार्थ मित्यादि, तदसाधु, यस्मादनौ हविईयते, आदित्यः 'सेन' हविषा घृतेन
प्रीणितः सन् वर्षति, किमर्थम्?–'प्रजाहितार्थ लोकहिताय, 'तेन' पर्षितेन, किम् ?, औषध्यः 'प्ररोहन्ति उद्गच्छन्ति, तथा चोक्तम्-"अग्नावाज्याहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते । आदित्याज्जायते वृष्टिवृष्टेर ततः प्रजाः ॥१॥” इति गाथार्थः ॥ १०॥ अधुनैतत्परिहारायेदमाह
किं दुन्भिक्खं जायइ ? जइ एवं अह भवे दुरिलु तु । किं जायइ सव्वस्था दुब्भिक्खं अह भवे इंदो? ॥१०१॥
वासइ तो कि विग्धं निग्धायाईहिं जावए तस्स । अह वासइ उउसमए न वासई तो तणद्वाए ॥ १०२॥ व्याख्या-किं दुर्भिक्षं जायते यद्येवम् ?, कोऽभिप्रायः ?-सद्धतिः सदा हयत एव, ततश्च कारणाविच्छेदेन कार्यविच्छेदो युक्त इति, अथ भवेद् 'दुरिष्टं तु दुर्नक्षत्रं दुर्यजनं वा, अत्राप्युत्तरम्-किं जायते सर्वत्र दु
॥६५॥ १ वर्षातॄणानि तस्य प्रतिषेथे इत्येतच भाष्यकता पाक प्रपतिमेवेति वचनात् प्रतीयते यदुवैता एकोनविंशतिर्भाष्यगाथा.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति: [१०२], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||२||
[भिक्ष !, नक्षत्रस्य दुरिष्टस्य वा नियतदेशविषयत्वात्, सदैव सयज्वनां भावात्, उक्तं च "सदैव देवाः। सद्गाचो, ब्राह्मणाम क्रियापराः। यतयः साधवश्चैव, विद्यन्ते स्थितिहेतवः ॥ १ ॥” इत्यादि, अथ भवेदिन्द्र इति, किम् ?, वर्षति, ततः किं विनः' अन्तरायो निर्घातादिभिर्जायते?, आदिशब्दादिग्दाहादिपरिग्रहा, 'तस्य' इन्द्रस्थ, परमैश्वर्ययुक्तत्वेन विनानुपपत्तेरिति भावना, अथ वर्षति ऋतुसमये गर्भसवात इति वाक्पशेषः, न वर्षति ततस्तॄणार्थ, तस्येत्थम्भूतस्याभिसन्धेरभावादिति गाथाबयार्थः ॥१०१-१०२॥ किंच
किं च दुमा पुष्प॑ति भमराणं कारणा अहासमयं । मा भमरमहुवरिगणा किलामएला अणाहारा ।। १०३ ॥ व्याख्या-किं च द्रुमाः पुष्प्यन्ति भ्रमराणां 'कारणात् कारणेन 'यथासमयं यथाकालं मा भ्रमरमधुकरीगणाः 'क्लामन्' (लामिषुः) ग्लानिं प्रतिपद्यरन् , 'अनाहारा अविद्यमानाहाराः सन्तः, काका नैवैतदित्यमिति गाथार्थः ॥ १०३ ।। साम्प्रतं पराभिप्रायमाह
कस्सा बुद्धी एसा वित्ती उवकप्पिया पयावइणा । सत्ताणं तेण दुमा पुर्फति मटुयरिंगणट्ठा ॥ १०४ ॥ व्याख्या-अथ 'कस्यचिद्बुद्धिः कस्यचिदभिप्रायः स्याद्यदुत-एषा वृत्तिरुपकल्पिता, केन ?-प्रजापतिना, के-/ षाम् ?–'सत्यानां प्राणिनां तेन कारणेन द्रुमाः पुष्प्यन्ति मधुकरीगणार्थमेवेति गाथार्थः॥१०४॥अत्रोत्तरमाह
तं न भवइ जेण दुमा नामागोयस्स पुञ्चविहिवस्स । उदएणं पुष्फफलं निवतयंती इमं चऽनं ॥ १०५ ॥ व्याख्या-पदुक्तं परेण तन भवति, कुत इत्याह-येन ट्रमा नामगोत्रस्य कर्मणः 'पूर्वविहितस्य'
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||२|| नियुक्ति: [१०५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशकान्त रोपात्तस्य 'उदयेन' विपाकानुभवलक्षणेन पुष्पफलं 'निवर्तयन्ति' कुर्वन्ति, अन्यथा सदैव तद्भावप्रसङ्ग|| दुमपुहारि-वृत्तिः इति भावनीयम् । इदं चान्यत्कारणं, वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ १०५॥ अस्थि बहू वणसंडा भमरा जत्थ न उति न वसंति । तत्थऽवि पुष्प॑ति दुमा पगई एसा दुमगणाणं ।। १०६॥
दृष्टान्त
शुद्धिः व्याख्या-सन्ति बहूनि बनखण्डानि तेषु तेषु स्थानेषु, भ्रमरा यत्र नोपयान्ति अन्यतः, न वसन्ति तेष्वेव, तथापि पुष्प्यन्ति द्रुमाः, अतः 'प्रकृतिरेषा' स्वभाव एष द्रुमगणानामिति गाथार्थः॥१०६ ॥ अत्राह
जइ पगई कीस पुणो सव्वं कालं न देंति पुष्फफलं । जं काले पुष्फफलं दयंति गुरुराह अत एव ।। १०७ ॥
पगई एस दुमाणं जं उउसमयम्मि आगए संते । पुर्फति पायवगणा फलं च कालेण पंधति ।। १०८॥ 8 व्याख्या-यदि प्रकृतिः किमिति पुनः सर्वकालं 'न ददति' न प्रयच्छन्ति, किम् ?-पुष्पफलम् ?, एवमाश-18
थाह-पद्न्यस्मात्काले नियत एव पुष्पफलं ददति, गुरुराह-अत एव-अस्मादेव हेतोः ॥ प्रकृतिरेषा दुमाणां यदू 'ऋतुसमये वसन्तादावागते सति पुष्ष्यन्ति 'पादपगणा' वृक्षसङ्घाताः तथा फलं च कालेन यान्ति, तदर्थानभ्युपगमे तु नित्यप्रसङ्ग इति गाथाद्वयार्थः ॥ १०७-१०८ ॥ साम्प्रतं प्रकृतेऽप्युक्तार्ययोजनां कुर्वनाह
किं नु गिही रंधती समणाणं कारणा अहासमयं । मा समणा भगवंतो किलामएजा अणाहारा ।। १०९॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [१०९], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दश. १२
व्याख्या - किं नु गृहिणो 'राध्यन्ति' पाकं निर्वर्तयन्ति श्रमणानां कारणेन यथाकालं?, 'मा श्रमणा भगवन्तः क्लामन्ननाहारा' इति पूर्ववदिति गाथार्थः ॥ १०९ ॥ न चैतदित्थमित्यभिप्रायः ।। अत्राह-
समणऽणुकंपनिमित्तं पुण्णनिमित्तं च गिनिवासी उ कोइ भणिज्जा पार्ग करेंति सो भण्णइ न जन्हा ॥ ११० ॥ कंतारे दुब्भिकले आके वा महइ समुप्पन्ने। रतिं समणसुबिहिया सव्वाहारं न भुंजंति ॥ १११ ॥
अह कीस पुण गित्था रत्तिं आयरतरेण रंधति । समणेहिं सुविहिएहिं चउव्विहाहारविरहिं ? ।। ११२ ।। व्याख्या - श्रमणेभ्योऽनुकम्पा श्रमणानुकम्पा तन्निमित्तम् न होते हिरण्यग्रहणादिना अस्माकमनुकम्पां | कुर्वन्तीति मत्वा भिक्षादानार्थं पार्क निर्वर्तयन्त्यतः श्रमणानुकम्पानिमित्तं, तथा सामान्येन पुण्यनिमित्तं च गृहनिवासिन एव कश्चिद् ब्रूयात्पाकं कुर्वन्ति, स भण्यते नैतदेवम्, कुतः १ - यस्मात् 'कान्तारे' अरण्यादौ 'दुर्भिक्षे' अन्नाकाले 'आतङ्के वा' ज्वरादी महति समुत्पन्ने सति रात्रौ श्रमणाः 'सुविहिताः' शोभनानुछानाः, किम् ? - 'सर्वाहारम्' ओदनादि न भुञ्जते ॥ अथ किमिति पुनर्गृहस्थाः तत्रापि रात्रौ 'आदरतरेण' अत्यादरेण राध्यन्ति, श्रमणैः सुविहितैश्चतुर्विधाहारविरतैः सद्भिरिति गाथाश्रयार्थः ॥ ११०-१११११२ ॥ किंच
अस्थि बहुगामनगरा समणा जत्थ न उवेंति न वसंति । तत्थवि रंथंति गिद्दी पगई एसा गिहत्थाणं ॥ ११३ ॥ १ प्राकृतवाक्यप्रतिरूपकमिति, तत्र च सप्तम्यर्थे तृतीया हेतुत्वापेक्षया वा.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [११३], भाष्यं [४ ...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका० हारि-वृत्तिः
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व्याख्या सन्ति बहूनि ग्रामनगराणि तेषु तेषु देशेषु 'श्रमणाः साधवो पत्र नोपयान्ति अन्यतो, नव- ४१ दुमपुसन्ति तत्रैव, अथ च तत्रापि राध्यन्ति गृहिणः, अतः प्रकृतिरेषा गृहस्थानामिति गाथार्थः ॥ ११३ ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टयन्नाह
ष्पिका० दशावयवं
पराई एस गिहीणं जं गिहिणो गामनगरनिगमेसुं । रंधंति अप्पणो परियणस्स कालेज अट्ठार ॥ ११४ ॥ व्याख्या- प्रकृतिरेषा गृहिणां वर्त्तते यहिणो ग्रामनगरनिगमेषु, निगमः - स्थानविशेषः, राध्यन्ति आत्मनः परिजनस्य 'अर्था' निमित्तं कालेनेति योग इति गाथार्थः ॥ ११४ ॥
सत्थ समणा तवस्सी परकडपरनिट्ठियं विगयधूमं । आहारं एसंति जोगाणं साहणाए । ११५ ।।
व्याख्या- तत्र श्रमणाः 'तपखिन' इति उद्यतविहारिणो नेतरे, परकृतपरनिष्ठितमिति कोऽर्थः ? - परार्थं कृतम् आरब्धं परार्थं च निष्ठितम्-अन्तं गतं, विगतधूमम्- धूमरहितम्, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति न्यायाद्विगताङ्गारं च रागद्वेषमन्तरेणेत्यर्थः उक्तं च- "रागेण सइंगालं दोसेण सधूमगं विद्याणाहि" 'आहारम्' | ओदनादिलक्षणम् 'एवन्ते' गवेषन्ते, किमर्थम् ? अत्राह - 'योगानां' मनोयोगादीनां संयमयोगानां वा साधनार्थ, न तु वर्णाद्यर्थमिति गाथार्थः ॥ ११५ ॥
नवकोडीपरिसुद्धं उग्गमउपायणेसणासुद्धं उद्वाणरक्षणट्ठा अहिंसअणुपालनहार ॥ १ ॥ रागेण सारं द्वेषेण राघूमकं विजानीहि.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [११६], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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व्याख्या इयं च किल भिन्नकर्तृकी, अस्या व्याख्या- नवकोटिपरिशुद्धम्, तत्रैता नव कोव्यः, यदुत हुइ १ ण हणावे २ हणतं नाणुजाणइ ३, एवं न किणइ ३, एवं न पयई ३, एताभिः परिशुद्ध, तथा उद्गमोस्पादनैषणाशुद्धमिति, एतद्वस्तुतः सकलोपाधिविशुद्धकोडिख्यापनमेव, एवम्भूतमपि किमर्थं भुञ्जते ?-- षट्स्थानरक्षणार्थम्, तानि चामूनि - 'वेयंणवेयावचे इरियट्टाए य संजमद्वाए। तह पाणवत्तियाए पुण ध म्मचिंता ॥ १ ॥ अमून्यपि च भवान्तरे प्रशस्त भावनाभ्यासादहिंसानुपालनार्थम्, तथा चाह - "नाहारत्यागतोऽभावितमतेर्देहत्यागो भवान्तरेऽप्यहिंसायै भवती" तिगाथार्थः ॥ १ ॥
दितसुद्ध एसा उवसंहारो य सुत्तनिदिट्ठो। संति विज्जतित्ति य संतिं सिद्धिं च सार्हेति ॥ ११६ ॥ व्याख्या-दृष्टान्तशुद्धिरेषा, प्रतिपादिता, 'उपसंहारस्तु' उपनयस्तु 'सूत्रनिर्दिष्टः' सूत्रोक्तः, तचेदं सूत्रम्एमेए समणा मुत्ता, जे लोए संति साहुणो । विहंगमा व पुष्फेसु, दाणभत्तेसणा ( णे) रया ॥ ३ ॥ अस्य व्याख्या-'एवम्' अनेन प्रकारेण 'एते' येऽधिकृताः प्रत्यक्षेण वा परिभ्रमन्तो दृश्यन्ते श्राम्यन्तीति श्रमणाः, तपस्यन्तीत्यर्थः एते च तन्त्रान्तरीया अपि भवन्ति, यथोक्तम् — “निग्गंधसकतावसगेरुप आजीव पंचहा समणा” अत आह— 'मुक्ता' बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्थेन, ये 'लोके' अर्धतृतीयद्वीपसमुद्रपरिमाणे 'सन्ति' १ न इन्ति न पातयति मन्तं नानुजानाति, एवं न कीणाति २ एवं न पचति २. २ वेदनाये वैयावृत्त्यायेयचे च संयमार्थे च तथा प्राण प पुनः धर्मचिन्तायै ॥ १ ॥ ३ निशाक्य तापसगैरिकाजीयाः पंचधा श्रमणाः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [११६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशबैका०विद्यन्ते, अनेन समयक्षेत्रे सदैव विद्यन्त इत्येतदाह, साधयन्तीति साधवः, किं साधयन्ति?-ज्ञानादीति ग- १दुमपुहारि-वृत्ति म्यते । अत्राह-ये मुक्तास्ते साधव एवेत्यत इदमयुक्तम्, अत्रोच्यते, इह व्यवहारेण निहवा अपि मुक्ता भ
वन्त्येव न च ते साधव इति तद्वयवच्छेदार्थत्वान्न दोषः। आह-न च ते 'सदैवसन्ती'स्यनेनैव व्यवच्छिन्नाथदशावयवे ॥ ६८॥ इति, उच्यते, वर्तमानतीर्थापेक्षयैवेदं सूत्रमिति न दोषः, अथवा-अन्यथा व्याख्यायते-ये लोके सन्ति साधव |
रष्टान्तइत्यत्र य इत्युदेशः, लोक इत्यनेन समयक्षेत्र एव नान्यत्र, किम् ?-शान्ति:-सिद्धिरुच्यते तां साधयन्तीति ।
NI शुद्धिः शान्तिसाधवा, तथा चोक्तं नियुक्तिकारण-"संति विजंतित्ति य संतिं सिद्धिं व साहेति" इदं व्याख्यातमेव । 'विहंगमा इव' भ्रमरा इव पुष्पेषु, किम् ?-दानभक्तैषणासु रताः दानग्रहणादत्तं गृह्णन्ति नादत्तम्, भक्तग्रहणेन तदपि भक्तं प्रासुकं न पुनराधाकर्मादि, एषणाग्रहणेन गवेषणादित्रयपरिग्रह, तेषु स्थानेषु 'रताः' सक्ता इति सूत्रसमासार्थः । अवयवार्थ सूत्रस्पर्शिकनियुक्त्या प्रतिपादयति-तत्रापि च विहङ्गमं व्याचष्टे-स द्विविधः-द्रव्यविहङ्गमो भावविहङ्गमश्च । तत्र तावद्रव्यविहङ्गमं प्रतिपादयन्नाह
धार तं तु दवं तं दवविहङ्गमं वियाणाहि । भावे विहंगमो पुण गुणसन्नासिद्धिमओ दुविहो । ११७॥ व्याख्या-'धारयति' आत्मनि लीनं धत्ते तत्तु 'द्रव्य'मित्यनेन पूर्वोपातं कर्म निर्दिशति, येन हेतूभूतेन विहङ्गमेषूत्पत्स्यत इति, तुशब्द एवकारार्थः, अस्थानप्रयुक्तश्च, एवं तु द्रष्टव्यः-धारयत्येव, अनेन च धार-1
मा।६८॥ यत्येव यदा तदा द्रव्यविहङ्गमो भवति नोपभुत इत्येतदावेदितं भवति, द्रव्यमिति चात्र कर्मपुद्गलद्रव्य
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||२|| नियुक्ति : [११७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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गृह्यते, न पुनराकाशादि, तस्यामूर्त्तत्वेन धारणायोगात्, संसारिजीवस्य च कथञ्चिन्मूतत्वेऽपि प्रकृतादनुपयोगित्वात्, तथाहि-यदसौ भवान्तरं नेतुमलं यच्च विहङ्गमहेतुतां प्रतिपद्यते तदत्र प्रकृतं, न चैवमन्यः
संसारिजीव इति, 'तं द्रव्यविहङ्कम मित्यत्र यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धादन्यतरोपादानेनान्यतरपरिग्रहादयं वाक्यार्थ उपजायते-धारयत्येव तद्रव्यं यस्तं द्रव्यविहङ्गममिति, द्रव्यं च तद्विहङ्गमश्च स इति द्रव्यविहङ्गमः, द्रव्य जीवद्रव्यमेव, विहङ्गमपर्यायेणाऽऽवर्तनाद्, विहङ्गमस्तु कारणे कार्योपचारादिति, तं विजानीहि' अनेकैः प्रकारैरागमतो ज्ञाताऽनुपयुक्त इत्येवमादिभिर्जानीहि भावे विहङ्गम' इत्यत्रायं भावशब्दो बहः, कचिद्रव्यवाचकस्तद्यथा 'नासओ भुवि भावस्स, सद्दो हवह केवलों' भावस्य-द्रव्यस्य वस्तुन इति गम्यते, कचिच्छुक्लादिस्वपि वर्तते-"जं जं जे जे भावे परिणमई" इत्यादि यान २ शुक्लादीन भावानिति गम्यते, कचिदौदयिकादिष्वपि वर्तते यथा-'ओदइए ओषसमिए' इत्याद्युक्त्वा छविहो भावलोगो' औदयिकादय एव भावा लोक्यमानत्वादु भावलोक इति, तदेवमनेकार्थवृत्तिः सन्नौदयिकादिष्वेव वर्तमान इह गृहीत इति, भवनं भावः भवन्त्यस्मिन्निति वा भावः तस्मिन भावे-कर्मविपाकलक्षणे, किम् ?-'विहङ्गमों वक्ष्यमाणशब्दार्थः, पुनःशब्दो विशेषणे, न पूर्वस्मादत्यन्तमयमन्य एव जीवः, किंतु स एव जीवस्त एव पुद्गलास्तथाभूता इति विशेषयति, गुणश्च संज्ञा च गुणसंज्ञे गुण:-अन्वर्थः संज्ञा पारिभाषिकी ताभ्यां सिद्धिः गुणसंज्ञासिद्धिः, सिद्धिशब्दः सम्ब
नासतो भुवि भावसा शब्यो भवति केवलः, २ यद्याच्या भावान् परिणमति. बीदयिक श्रीपशमिका र पदियो भावलोकः,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [११७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैकान्धवाचकः, तथा च लोकेऽपि “सिद्धिर्भवतु" इत्युक्ते इष्टार्थसम्बन्ध एव प्रतीयत इति, तया गुणसंज्ञासिद्ध्या १द्रुमपुहारि-वृत्तिः हेतुभूतया, किम् ?-द्विविधो' द्विप्रकारः, गुणसिद्ध्या-अन्वर्थसम्बन्धेन तथा संज्ञासिङ्ख्या च-यदृच्छाभिधान- पिका.
योगेन च । आह-यद्येवं द्विविध इति न वक्तव्यम् , गुणसंज्ञासिद्धयेत्यनेनैव द्वैविध्यस्य गतत्वात्, न, अनेनैव विहङ्गम॥ ६९॥ " प्रकारेणेह दैविध्य, आगमनोआगमादिभेदेन . नेति ज्ञापनार्थमिति गाथार्थः ॥ ११७॥ तत्र 'यथोद्देशं निर्देश | निक्षेपाः ४ इति न्यायमाश्रित्य गुणसिद्ध्या यो भावविहङ्गामस्तमभिधित्सुराह
विहमागास भण्णइ गुणसिद्धी तप्पइदिओ लोगो । तेण उ विहङ्गमो सो भावत्थो वा गई दुविहा ।। ११८ ।। व्याख्या-विजहाति-विमुञ्चति जीवपुद्गलानिति विहं, ते हि स्थितिक्षयात्स्वयमेव तेभ्य आकाशप्रदेशेभ्यश्यवन्ते, ताँश्यवमानान्विमुञ्चतीति, शरीरमपि च मलगण्डोलकादि विमुञ्चयेव (इति) मा भूत् संदेह इत्यत आह-आकाश भण्यते, न शरीरादि, संज्ञाशब्दत्वात्, आकाशन्ते-दीप्यन्ते खधर्मोपेता आत्मादयो यत्र तदाकाशम्, किम् ?-संतिष्ठत इत्यादिक्रियाव्यपोहार्थमाह-'भण्यते' आख्यायते, गुणसिद्धिरित्येतत्पदं गाथाभङ्गभयावस्थाने प्रयुक्तम् , संबन्धश्चास्य 'तेन तु विहंगमः स' इत्यत्र तेन स्वित्यनेन सह वेदितव्य इति, ततश्चायं वाक्यार्थ:-तेन तुशब्दस्यैवकारार्थत्वेनावधारणार्थत्वाद्येन विमाकाशं भण्यते तेनैव कारणेन गुणसिङ्ख्या-अन्वर्थसम्बन्धेन विहङ्गमः, कोऽभिधीयत? इत्याह-तत्पतिष्ठितो लोका' तदित्यनेनाकाशपरामर्श, | |६९॥
१ भेदेनेति प्र. २ विहङ्गमा प्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्ति: +
+ वृत्ति:)
: + भाष्य + अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||३|| निर्युक्तिः [११८ ], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
तस्मिन्नाकाशे प्रतिष्ठितः तत्प्रतिष्ठितः, प्रतिष्ठति स्म प्रतिष्ठितः - प्रकर्षेण स्थितवानित्यर्थः, अनेन स्थितः स्थास्यति चेति गम्यते, कोऽसावित्थमित्यत आह-'लोकः' लोक्यत इति लोक:, केवलज्ञानभास्वता दृश्यत इत्यर्थः इह धर्मादिपञ्चास्तिकायात्मकत्वेऽपि लोकस्याकाशास्तिकायस्याधारत्वेन निर्दिष्टत्वाच्चत्वार एवास्तिकाया गृह्यन्ते, यतो नियुक्तिकारेणाभ्यधायि— 'तत्प्रतिष्ठितो लोकः', 'विहङ्गमः स' इत्यत्र विहे नभसि गतो गच्छति गमिष्यति चेति विहङ्गमः, गमिरयमनेकार्थत्वाद्धातूनामवस्थाने वर्त्तते, ततश्च विहे स्थितवां| स्तिष्ठति स्थास्यति चेति भावार्थ:, स इति चतुरस्तिकायात्मकः, 'भावार्थ' इति भावश्चासावर्थश्च भावार्थः, अयं भावविहङ्गम इत्यर्थः । उक्त एकेन प्रकारेण भावविहङ्गमः पुनरपि गुणसिद्धिमन्येन प्रकारेणाभिधातुकाम आह- 'वा गतिर्विविधेति वाशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, एवं तु द्रष्टव्यः गतिर्वा द्विविधेति, तत्र | गमनं गच्छति वाऽनयेति गतिः, द्वे विधे यस्याः सेयं द्विविधा, द्वैविध्यं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ॥ ११८ ॥ तथा चेदमेव द्वैविध्यमुपदर्शयन्नाह -
भाई कम्मगई भावगई पप्प अस्थिकाया उ । सव्वे विहंगमा खलु कम्मगईए इमे भैया ॥ ११९ ॥
व्याख्या- भवन्ति भविष्यन्ति भूतवन्तश्चेति भावाः, अथवा भवन्त्येतेषु स्वगता उत्पादविगमनौव्याख्याः परिणामविशेषा इति भावा- अस्तिकायास्तेषां गतिः- तथापरिणामवृत्तिर्भावगतिः, तथा कर्मगतिरित्यत्र क्रियत | इति कर्म-ज्ञानावरणादि पारिभाषिकम्, क्रिया वा, कर्म च तद्गतिश्चासौ कर्मगतिः, गमनं गच्छत्यनया वेति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [११९], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशबैका गतिः, तत्र 'भावगति प्राप्य अस्तिकायास्तु' इति अत्र भावगतिः पूर्ववत्ता प्राप्य-अभ्युपगम्याश्रित्य, किम् ? दुमपुहारि-वृत्ति का अस्तिकायास्तु धर्मादयः, तुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, तस्य च व्यवहितः प्रयोगः, भावगतिमेवाष्पिका ॥ ७० ॥
प्राप्य न पुनः कमेंगति, 'सर्वे विहङ्गमाः खलु' सर्वे-चत्वारः नाकाशमाधारत्वात्, 'विहङ्गमा इति' विहं गच्छ-II विहङ्गमत्यवतिष्ठन्ते स्वसत्तां बिभ्रतीति विहङ्गमाः, खलुशब्दोऽवधारणे, विहङ्गमा एव, न कदाचिन्न विहङ्गमा इति । निक्षेपाः कर्मगते' प्राग्निरूपितशब्दार्थायाः, किम्?-'इमौ भेदी' वक्ष्यमाणलक्षणाविति गाथार्थः ॥ ११९ ।। तावेवोप-131 दर्शयन्नाह
विहगगई पलणगई कम्मगई उ समासओ दुविहा । तदुद्यवेययजीवा विहंगमा पप्प विहगगई ॥ १२०॥ व्याख्या-इह गम्यतेऽनया नामकर्मान्तर्गतया प्रकृत्या प्राणिभिरिति गतिः, विहायसि-आकाशे गतिर्विशहायोगतिः, कर्मप्रकृतिरित्यर्थः, तथा चलनगतिरिति, चलिरयं परिस्पन्दने वर्तते, चलनं स्पन्दनमित्येकोऽर्थः,
चलनं च तद्गतिश्च सा चलनगतिः-गमनक्रियेति भावः । कर्मगतिस्तु समासतो द्विविधेत्यत्र तुशब्द एवकाकारार्थः, स चावधारणे, कर्मगतिरेव द्विविधा न भावगतिः, तस्या एकरूपत्वेन व्याख्यातखात्, तत्र 'तदुदय
वेदकजीवा' इति, अत्र तदित्यनेनानन्तरनिर्दिष्टां विहायोगतिं निर्दिशति, तस्या-विहायोगतेः जदयस्तदुदयो विपाक इत्यर्थः, तथा वेदयन्ति-निर्जरयन्ति उपभुञ्जन्तीति वेदकाः तदयस्य वेदकाच ते जीवाश्रेति समासः,
II ७०॥ आह-तदुदयवेदका जीवा एव भवन्तीति विशेषणानर्थक्यम् , न, जीवानां वेदकत्वावेदकत्वयोगेन सफल
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [१२०], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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स्वात् , अवेदकाच सिद्धा इति । विहङ्गमाः प्राप्य विहायोगति मिति, अत्र विहे विहायोगतेरुदयादुद्गच्छतीति विहङ्गमाः,'प्राप्य' आश्रित्य, किं प्राप्य ?-'विहायोगतिम् विहायोगतिरुक्ता तां, विपर्यस्तान्यक्षराण्येवं तु द्रष्टव्यानि-विहायोगतिं प्राप्य तदुदयवेदकजीवा विहङ्गमा इति गाथार्थः॥१२० । अधुना द्वितीयकर्मगतिभेदमधिकृत्याह
चलनकम्मगई खलु पधुच संसारिणो भवे जीवा । पोग्गलवाई वा विहंगमा एस गुणसिद्धी ॥ १२१ ॥ I व्याख्या-चलनं-स्पन्दनं, तेन कर्मगतिर्विशेष्यते, कथम् ?-चलनाण्या या कर्मगतिः सा चलनकर्मगतिः, एतदुक्तं भवति-कर्मशब्देन क्रियाऽभिधीयते, सैव गतिशब्देन सैव चलनशब्देन च । तत्र गतेर्विशेषण क्रिया क्रियाविशेषणं चलनम् । कुतः-मयभिचाराद, इह गतिस्तावन्नरकादिका भवति अतः क्रियया विशे
ध्यते, क्रियाऽप्यनेकरूपा भोजनादिका ततश्चलनेन विशेष्यते, अतश्चलनाख्या कर्मगतिश्चलनकर्मगतिस्ताम् , * अनुखारोऽलाक्षणिका, खलुशब्द एवकारार्थः, स चावधारणे, चलनकर्मगतिमेव, न विहायोगति, 'प्रतीत्य'
आश्रित्य, किम् ?-संसरणं संसार, संसरणं ज्ञानावरणादिकर्मयुक्तानां गमनं, स एषामस्तीति संसारिणः, अनेन सिद्धानां व्युदासः, 'भवें' इति, अयं शब्दो भवेयुरित्यस्यार्थे प्रयुक्ता, 'जीवा' उपयोगादिलक्षणाः । ततवार्य वाक्यार्थ:-चलनकर्मगतिमेव प्रतीत्य संसारिणो भवेयुर्जीवा विहङ्गमा इति, विहं गच्छन्ति-चलन्ति सर्वरात्मप्रदेशीरिति विहङ्गमाः । तथा 'पुनलद्रव्याणि वे'त्यादि, पूरणगलनधर्माणः पुद्गलाः, पुद्गलाच ते द्र-15
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [१२१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका०व्याणि च तानि पुद्गलद्रव्याणि, द्रव्यग्रहणं विप्रतिपत्तिनिरासार्थम् , तथा चैते पुद्गलाः कैश्चिगव्याः सन्तो- दुमपुहारि-वृत्तिः |ऽभ्युपगम्यन्ते, 'सर्वे भावा निरात्मानः' इत्यादिवचनाद्, अतः पुद्गलानां परमार्थसद्रूपताख्यापनार्थ द्रव्यन-I&ापिका
हणम्, वाशब्दो विकल्पवाची, पुद्गलद्रव्याणि वा संसारिणो वा जीवा विहङ्गमा इति । तत्र जीवानधिकृत्या- विहङ्गमइन्वर्थों निदर्शितः, पुद्गलास्तु विहं गच्छन्तीति विहङ्गमाः, तच गमनमेषां खतः परतश्च संभवति, अत्र खतः निक्षेपाः
परिगृह्यते, विहङ्गमा इति च प्राकृतशैल्या जीवापेक्षया वोक्तम्, अन्यथा द्रव्यपक्षे विहङ्गमानीति वक्तव्यम् ,
एष भावविहङ्गमः, कथम्? –गुणसिद्ध्या' अन्वर्थसम्बन्धेन, प्राकृतशैल्या वाऽन्यथोपन्यास इति गाधार्थः॥१२॥ हाएवं गुणसिद्ध्या भावविहङ्कम उक्तः, साम्प्रतं संज्ञासिद्ध्या अभिधातुकाम आह
सन्मासिद्धि पप्पा विहंगमा होति पक्खिणो सके । इदई पुण अहिगारो विहासगमणेहि भमरेहि ॥ १२२ ॥ व्याख्या-संज्ञानं संज्ञा नाम रूढिरिति पर्यायाः तया सिद्धिः संज्ञासिद्धिः, संज्ञासम्बन्ध इतियावत्, तां संज्ञासिद्धिं प्राप्य' आश्रित्य, किम् ?-विहे गच्छन्तीति विहङ्गमा भवन्ति, के?-पक्षा येषां सन्ति ते पक्षिणः, 'सर्वे समस्ता हंसादयः, पुद्गलादीनां विहङ्गमत्वे सत्यप्यमीषामेव लोके प्रतीतत्वात्, इत्थमनेकप्रकारं विहङ्गममभिधाय प्रकृतोपयोगमुपदर्शयति-'इह' सूत्रे, पुनाशब्दोऽवधारणे, इहैव नान्यत्र 'अधिकार' प्रस्ताव: प्रयोजनम् , कैरिस्याह-विहायोगमनैः' आकाशगमनैः'भ्रमर' षट्पदैरिति गाथार्थः ॥ १२२॥
१ पुगलाव्याणां नपुंसकत्वादत्र पुंस्त्वनिर्देशः प्रातत्यात्, र तृतीया प्रश्वमेति.
॥७१॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||४|| नियुक्ति : [१२३], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||४||
दाणेति दत्तगिहण भत्ते भज सेव फासुगेण्हणया । एसणतिगंमि निरया उवसंहारस्स सुद्धि इमा ।। १२३ ॥ व्याख्या-'दानेति' सूत्रे दानग्रहणं वत्सग्रहणप्रतिपादनार्थम्, दत्तमेव गृह्णन्ति, नादत्तम्, 'भक्त' इति भक्तग्रहणं 'भज सेवायाम्' इत्यस्य निष्ठान्तस्य भवति, अर्थश्चास्य प्रासुकग्रहणं, प्रामुकम्-आधाकर्मादिरहितं
गृह्णन्ति, नेतरदिति, एसण त्ति एषणाग्रहणम्, 'एपणात्रितये गवेषणादिलक्षणे 'निरताः' सक्ताः, उपसं-IN |8हारस्य-उपनयस्य शुद्धिः 'इयं वक्ष्यमाणलक्षणेति गाथार्थः॥१२३ ॥
अवि भमरमहुयरिगणा अविदिन्नं आवियंति कुसुमरसं । समणा पुण भगवन्तो नादिन्नं भोतुमिच्छति ।। १२४ ॥ | व्याख्या-अपि भ्रमरमधुकरीगणा, मधुकरीग्रहणमिहापि स्त्रीसंग्रहार्थं, जातिसंग्रहार्थमिति चान्ये, अविदत्तं सन्तं, किम्?-आपियन्ति 'कुसुमरसं' कुसुमासवम्, श्रमणाः पुनर्भगवन्तो नादत्तं भोक्तुमिच्छन्तीति विशेष इति गाथार्थः ॥१२४ ॥ साम्प्रतं सूत्रेणैवोपसंहारविशुडिरुच्यते-कश्चिदाह-दाणभत्तेसणे रया' इत्युक्तम्, यत एवमत एव लोको भक्त्याकृष्टमानसस्तेभ्यः प्रयच्छत्याधाकर्मादि, अस्य ग्रहणे सत्त्वोपरोध:, अग्रहणे स्ववृत्त्यलाभ इति, अत्रोच्यते
वयं च वित्तिं लब्भामो, न य कोइ उवहम्मइ । अहागडेसु रीयंते, पुप्फेसु भमरा जहा ॥४॥ अस्य व्याख्या-वयं च वृत्ति 'लप्स्यामः' प्रापस्यामः तथा यथा न कश्चिदुपहन्यते, वर्तमानैष्यत्कालोपन्या
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||५|| नियुक्ति: [१२४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५||
दशवैका सस्कालिकन्यायप्रदर्शनार्थः, तथा चैते साधवः सर्वकालमेव 'यथाकृतेषु' आत्मार्थमभिनिवर्तितेष्वाहारादिषु दुमपुहारि-वृत्तिरीयन्ते' गच्छन्ति, वर्तन्ते इत्यर्थः, 'पुष्पेषु भ्रमरा यधा' इति, एतच पूर्व भावितमेवेति सूत्राधेः ॥ ४॥ यत-ICI पिका० ॥७२॥ श्चैवमतो
उपसंहारमहुगारसमा बुद्धा, जे भवंति अणिस्सिया।नाणापिंडरया दंता, तेण वुचंति साहुणो ॥५॥: शुद्धिः
त्तिबेमि। पढमं दुमपुफियज्झयणं समत्तं ॥१॥ अस्य व्याख्या-'मधुकरसमा भ्रमरतुल्याः बुध्यन्ते स्म बुद्धा-अधिगततत्वा इत्यर्थः, क एवंभूता इत्यत आह-ये भवन्ति भ्रमन्ति वा 'अनिश्रिताः' कुलादिष्वप्रतिबद्धा इत्यर्थः, अत्राह
अस्संजएहिं भमरेहि जइ समा संजया खलु भवंति । एवं(य) उवर्म किच्चा नूर्ण अस्संजया समणा ॥ १२५ ॥ व्याख्या-'असंयतः कुतश्चिदप्यनिवृत्तः 'भ्रमरैः षट्पदैः यदि 'समाः' तुल्याः 'संयता' साधवः, खIIल्विति समा एव भवन्ति, ततश्चासंझिनोऽपिते, अत एवैनामित्यप्रकारामुपमां कृत्वा इदमापचते-नूनमसं
यताः श्रमणा इति गाथार्थः ॥ १२५ ॥ एवमुक्ते सत्याहाचार्य:-एतचायुक्तं, सूत्रोक्तविशेषणतिरस्कृतत्वात्, तथा च बुद्धग्रहणादसंज्ञिनो व्यवच्छेदः, अनिश्रितग्रहणाचासंयतवस्येति । नियुक्तिकारस्त्वाह
॥७२॥ उवमा खलु एस कया पुबुत्ता देसलक्खणोवणया । अणिययवित्तिनिमित्तं अहिंसअणुपालणद्वाए ॥ १२६ ।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१२६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
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दीप
व्याख्या-उपमा खलु 'एषा' मधुकरसमेत्यादिरूपा कृता 'पूर्वोक्तात्' पूर्वोक्तेन 'देशलक्षणोपनयाद' देशलक्षणोपनयेन, यथा चन्द्रमुखी कन्येति, तृतीयाथों चेह पञ्चमी, इयं चानियतवृत्तिनिमित्तं कृता, अहिंसानुपालनार्थम, इदं च भावय(यिष्य)त्येवेति गाथार्थः ॥ १२६ ॥
जह दुमगणा उ तह नगरजणवया पयणपायणसहावा । जह भमरा तह मुणिणो नवरि अदत्तं न मुंजति ॥ १२७ ॥ व्याख्या-यथा 'दुमगणाः' वृक्षसङ्घाताः स्वभावत एव पुष्पफलनखभावाः तथैव 'नगरजनपदा' नगरादिलोकाः खपमेव पचनपाचनखभावा वर्तन्ते, यथा भ्रमरा इति, भावार्थं वक्ष्यति, तथा मुनयो नवरम्-एतावा|विशेषः-अदत्तं खामिभिने भुञ्जन्त इति गाथार्थः ॥ १२७ ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टपति
कुसुमे सहावफुल्ले आहारंति भमरा जह नहा उ । भत्तं सहावसिद्धं समणसुविहिया गवेसंति ॥ १२८ ॥ व्याख्या-'कुसुमे पुष्पे 'स्वभावफुल्ले प्रकृतिविकसिते 'आहारयन्ति' कुमुमरसं पिबन्ति 'भ्रमरा' मधुकरार 'यथा' येन प्रकारेण कुसुमपीडामनुत्पादयन्तः 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'भक्तम्' ओदनादि 'खभावसिद्धम्। आत्मार्थ कृतम् उद्गमादिदोषरहितम् इत्य, श्रमणाश्च ते सुविहिताश्च श्रमणसुविहिता:-शोभनानुष्ठा-1 नवन्त इत्यर्थः 'गवेषयन्ति' अन्वेषयन्तीति गाथार्थः ॥१२८ ॥ साम्प्रतं पूर्वोक्को यो दोषः मधुकरसमा इत्यत्र तत्परिजिहीर्षयैव यावतोपसंहारः क्रियते तदुपदर्शयन्नाह
उवसंहारो भमरा जह तह समणावि अवहजीवित्ति । दंतत्ति पुण पर्यमी नायव्वं वफसेसमिणं ॥ १२९॥.
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RAMESHOCIEOSROCKS
दा.१३०
JamEducataithe
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१२९], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दशवैका हारि-वृत्ति ॥७३॥
यवा:
दीप
व्याख्या-'उपसंहार' उपनयः, भ्रमरा यथा अवधजीविनः तथा 'श्रमणा अपि साधवोऽप्येतावतवां-18 दुमपुशेनेति गाथादलार्थः । इतव भ्रमरसाधूनां नानात्वमवसेयं, यत आह सूत्रकार:-नानापिण्डरया दन्तादपिका० इति नाना-अनेकप्रकारोऽभिग्रहविशेषात्पतिगृहमल्पाल्पग्रहणाच पिण्ड-आहारपिण्डा, नाना चासो पिडश्च | दशावनानापिण्डः, अन्तमान्तादिर्वा, तस्मिन् रता-अनुढेगवन्तः, 'दान्ता' इन्द्रियदमनेन, अनयोश्च स्वरूपमधस्तपसि प्रतिपादितमेव, अब चोपन्यस्तगाथाचरमदलस्यावसरः 'दान्ता' इति पुनः पदे सौत्रे, किम् ?-ज्ञातव्यो । वाक्पशेषोऽयमिति गाथाथैः ॥ १२९॥ किंविशिष्टो वाक्यशेषः?, दान्ता ईर्यादिसमिताश्च । तथा चाह
जह इत्थ चेव इरिथाइएमु सव्वमि दिक्खियपयारे । तसथावरभूयहियं जयंति सम्भावियं साह ।। १३०॥ है। व्याख्या-यथा 'अत्रैव' अधिकृताध्ययने भ्रमरोपमयैषणासमिती यतन्ते, तथा ईयादिष्वपि तथा सर्वस्मिन् 'दीक्षितपचारे' साध्वाचरितव्य इत्यर्थः, किम् ?-बसस्थावरभूतहितं यतन्ते 'सादाविक' पारमार्थिक साधष इति गाथार्थः ॥१३०॥ अन्ये पुनरिदं गाथादलं निगमने व्याख्यानयन्ति, न च तदतिचारु, यत आह
उपसंहारविसुद्धी एस समत्ता उ निगमणं तेणं । वुश्चति साहुणोत्ति (य) जेणं ते महुयरसमाणा ।। १३१॥ व्याख्या-उपसंहारविशुद्धिरेषा समाप्ता तु, अधुना निगमनावसरः, तच सौत्रमुपदर्शयति-निगमनमिति द्वारपरामर्शः, तेनोच्यन्ते साधव इति, येन प्रकारेण ते मधुकरसमाना-उक्तन्पायेन भ्रमरतुल्या इति गाथार्थः॥१३१ । निगमनार्थमेव स्पष्टयति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१३२], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप
तम्हा दयाइगुणमुट्ठिएहि भमरोव अपहवित्तीहिं । साहूहिं साहिउ त्ति उचिटुं मंगलं धम्मो ॥ १३२॥ व्याख्या-तस्मादयादिगुणसुस्थितैः, आदिशब्दात् सत्यादिपरिग्रहः, भ्रमर इवावधवृत्तिभिः, कै?-साधुभिः15 'साधितो निष्पादितः, 'उत्कृष्टं मङ्गलम्' प्रधानं महाल 'धर्मः' प्राग्निरूपितशब्दार्थ इति गाथार्थः ॥१३२॥ इदानीं निगमनविशुद्धिमभिधातुकाम आह
निगमणसुद्धी तित्वंतरावि धम्मस्थमुजया विहरे । भण्णइ कायाण ते जयणं न मुणति न फरेंति ॥ १३ ॥ व्याख्या-निगमनशुद्धिः प्रतिपाद्यते, अत्राह-तीर्थान्तरीया अपि' चरकपरिव्राजकादयः, किम् ?-'धर्मार्थ धर्माय 'उद्यता' उद्युक्ता विहरन्ति, अतस्तेऽपि साधवः एवेत्यभिप्रायः । भण्यतेऽत्र प्रतिवचनम्, 'कायानां| पृथिव्यादीनां 'ते' चरकादयः, किम्-यतना-प्रयत्नकरणलक्षणां 'न मन्यन्ते(मुणन्ति) न जानन्ति न मन्वते| वा तथाविधागमाश्रवणात्, न कुर्वन्ति, परिज्ञानाभावात्, भावितमेवेदमधस्तादिति गाथार्थः ॥१३शा किंच
न य उम्पामाइसुखं भुजंती महुयरा वडणुवरोही । नेव य तिगुत्तिगुत्ता जह साहू निच्चकालंपि ॥ १३४ ॥ व्याख्या-न चोद्गमादिशुद्धं भुञ्जते, आदिशब्दादुत्पादनादिपरिग्रहा, 'मधुकरा इव' भ्रमरा इंव सत्त्वानामनुपरोधिनः सन्तो, नैव च त्रिगुप्तिगुप्ताः, यथा साधवो नित्यकालमपि, एतदुक्तं भवति-यथा साधवो
१ यथा साधयोऽनुपरोधिनः सन्तो भ्रमरा इव उद्गमादिशुद्धं भुनते न तथा ते चरकादयः न च विपत्तिप्ता यथा साधवः,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१३४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५||
दशबैका०1४नित्यकालं त्रिगुप्तिगुप्ता एवं ते न कदाचिदपि, तत्परिज्ञानशून्यत्वात् , तस्माते साधव इति गाथार्थः ॥१३॥ हारि-वृत्तिःसाधव एव तु साधवः, कथम् , यतः
|पिका कार्य वायं च मणं च इंदियाई च पंच दमयंति । धारेति यंभचेरं संजमयंति कसाए य ॥ १३५ ॥
दशावव्याख्या-कायं वाचं मनश्चेन्द्रियाणि च पञ्च दमयन्ति, तत्र कायेन सुसमाहितपाणिपादास्तिष्ठन्ति यवा: गच्छन्ति वा, वाचा निष्प्रयोजनं न युवते प्रयोजनेऽप्यालोच्य सत्त्वानुपरोधेन, मनसा अकुशलमनोनिरोधं| कुशलमनउदीरणं च कुर्वन्ति, इन्द्रियाणि पश्च दमयन्ति इष्टानिष्टविषयेषु रागद्वेषाकरणेन, पञ्चेति साथ
परिकल्पितकादशेन्द्रियव्यच्छेदार्थम्, तथा च वाक्पाणिपादपायूपस्थमनासीन्द्रियाणि तेषामिति, धारयन्ति IN ब्रह्मचर्य, सकलगुप्तिपरिपालनात्, तथा संयमयन्ति कषायाँश्च, अनुदयेनोदयविफलीकरणेन चेति गाथार्थः॥१३५॥
जं च तवे उजुत्ता तेणेसि साछुलक्षणं पुणं । तो साहुणो त्ति भण्णति साहवो निगमणं घेयं ॥ १३६ ॥ व्याख्या-यच 'तपसि' प्राग्वर्णितस्वरूपे, किम् ?-'उद्युक्ता' उद्यताः तेन कारणेनैषां साधुलक्षणं 'पूर्णम्' अविकलम् , कथम् ?-अनेन प्रकारेण साधयन्त्यपवर्गमिति साधवः, यतश्चैवं ततः साधव एव भण्यन्ते साधयो, न चरकादय इति, निगमनं चैतदिति गाथार्थः ॥१३६॥ इत्थमुक्तं दशावयवम् , प्रयोगं खेवं वृद्धा दर्शयन्ति-||॥७४॥ अहिंसादिलक्षणधर्मसाधकाः साधव एव, स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारित्वात्, तदन्यैवंविधपुरुषवत्, विपक्षो
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१३६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक/
गाथांक ||५||
दिगम्बरभिक्षुभौतादिवत्, इह ये स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिणस्ते उभयप्रसिद्धैवंविधपुरुषवदहिंसादिलक्षणधर्मसाधका दृष्टाः, तथा च साधवः स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिण इत्युपनयः, तस्मात्स्थावरजङ्गमभूतोपरोधपरिहारिवातेऽहिंसादिलक्षणधर्मसाधकाः साधव एवेति निगमनम्, पक्षादिशुद्धयस्तु निदर्शिता एवेति न प्रतन्यन्ते ॥१३६ ॥ एवमर्थाधिकारद्वयवशात् पश्चावयवदशावयवाभ्यां वाक्याभ्यां व्याख्यातमध्ययनमिदम् , इदानीं भूयोऽपि भयन्तरभाजा दशावयवेनैव वाक्येन सर्वमध्ययनं व्याचष्टे नियुक्तिकार:
ते व पइन्न विभत्ती हे विर्भत्ती विवेकखपंडिसेहो । "विट्ठतो आँसंका तप्पेडिसेहो निर्गमणं च ।। १३७ ॥ ४ व्याख्या-'ते' इति अवयवाः, तुः पुनःशब्दार्थः, ते पुनरमी प्रतिज्ञादया-तन्त्र प्रतिज्ञानं प्रतिज्ञा-वक्ष्यमाणखरूपेत्येकोऽवयवः, तथा विभजनं विभक्तिः-तस्या एव विषयविभागकथनमिति द्वितीयः, तथा हिनोतिगमयति जिज्ञासितधर्मविशिष्टानानिति हेतुस्तृतीयः, तथा विभजनं विभक्तिरिति पूर्ववच्चतुर्थः, तथा विसदृशः पक्षो विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति पश्चमः, तथा प्रतिषेधनं प्रतिषेधः विपक्षस्येति गम्यते इत्ययं षष्ठः, तथा दृष्टमर्थमन्तं नयतीति दृष्टान्त इति सप्तमः, तथा आशङ्कनमाशङ्का प्रक्रमाद् दृष्टान्तस्यैवेत्यष्टमः, तथा तत्पतिषेधः अधिकृताशङ्काप्रतिषेध इति नवमः, तथा निश्चितं गमनं निगमनं निश्चितोऽवसाय इति दशमः, चशब्द उक्तसमुचयार्थ इति गाथासमासार्थः ॥१३७॥ व्यासाथै तु प्रत्यवयवं वक्ष्यति अन्धकार एव, तथा चाह
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१३८], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५||
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दशबैका धम्मो मंगलमुजिट्ठति पइन्ना अत्तवयणनिहेसो । सो य इहेब जिणमए नन्नत्य पइन्नपविभत्ती ॥ १३८ ॥
१दुमपुहारि-वृत्तिः व्याख्या-धर्मों मङ्गलमुत्कृष्ट' मिति पूर्ववत् इयं प्रतिज्ञा, आह-केयं प्रतिज्ञेति?, उच्यते, 'आप्तवचननिर्देश
|ष्पिका० ॥७५॥ इति तत्राप्त:-अप्रतारकः, अप्रतारकश्वाशेषरागादिक्षयाचति, उक्तंच-"आगमो याप्तवचनमासं दोष-181
दशावक्षयाद्विदः । वीतरागोऽनुतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धेखसंभवात् ॥१॥" तस्थ वचनम् आप्तवचनं तस्य निर्देश यवा आप्तवचन निर्देशः, आह-अयमागर्म इति, उच्यते, विप्रतिपन्नसंप्रतिपत्तिनिवन्धनत्वेनैष एवं प्रतिज्ञेति में| दोषः, पाठान्तरं वा साध्यवचननिर्देश इति, साध्यत इति साध्यम् उच्यत इति वचनम्-अर्थः परमास एवो-14 Vाच्यते. साध्यं च तद्वचनं च साध्यवचनं साध्याथें इत्यर्थः, तस्य निर्देशः प्रतिज्ञेति, उक्तः प्रथमोऽवयवः. अ18|धना द्वितीय उच्यते-सच-अधिकृतो धमें किम् ?-'इहैव जिनमते' अस्मिन्नेव मौनीन्द्र प्रवचने 'नान्यत्र' कपि-15 ट्रालादिमतेषु, तथाहि-प्रत्यक्षत एवोपलभ्यन्ते वस्त्राद्यपूतप्रभूतोदकाग्रुपभोगेषु परिवादप्रभृतयः प्राण्युपमर्द कु* णाः, ततश्च कुतस्तेषु धर्मः?, हत्यायन बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, अन्धविस्तरभया भावितत्वाचेति । प्रतिज्ञाप्रविभक्तिरियं-प्रतिज्ञाविषयविभागकथनमिति गाथार्थः ॥ १३८॥ उक्तो द्वितीयोऽवयवः, अधुना तृतीय | उच्यते-तत्र सरयूमोत्ति हेऊ धम्मट्ठाणे ठिया उजं परमे । हेउविभत्ति निरुबहि जियाण अवहेण य जिवंति ॥ १३९ ॥
॥ ७५॥ १ सज्म, २ अषमागमो गचनरूपत्वात, न प्रतिज्ञा. ३ नैप- प्र. ४ अर्थः,
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प्रत सूत्रांक/
गाथांक
||५||
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[4]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| निर्युक्ति: [१३९], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
Ja Education i
व्याख्या - मुरादेवास्तैः पूजितः सुरपूजितः, सुरग्रहणमिन्द्राद्युपलक्षणम्, इतिशब्द उपप्रदर्शने, कोऽयम् ?'हेतु:' पूर्ववत्, हेत्वर्थसूचकं चेदं वाक्यम्, हेतुस्तु सुरेन्द्रादिपूजितत्वादिति द्रष्टव्यः अस्यैव सिद्धतां दर्शयति - 'धर्मः' पूर्ववत् तिष्ठत्यस्मिन्निति स्थानम्, धर्मश्चासौ स्थानं च धर्मस्थानम्, स्थानम् - आलय:, तस्मिन् स्थिताः, तुरयमेवकारार्थः, स चावधारणे, अयं चोपरिष्टात् क्रियया सह योक्ष्यते, 'यद्' यस्मात्, किंभूते घ मस्थाने?-'परमे' प्रधाने, किम् ? - सुरेन्द्रादिभिः पूज्यन्त एवेति वाक्यशेषः, इति तृतीयोऽवयवः, अधुना चतुर्थ उच्यते-हेतुविभक्तिरियम् - हेतुविषयविभागकथनम्, अथ क एते धर्मस्थाने स्थिता इत्याह- 'निरुपधयः' उपधिः छद्म मायेत्यनर्थान्तरम्, अयं च क्रोधाद्युपलक्षणम्, ततश्च निर्गता उपध्यादयः सर्व एव कषाया येभ्यस्ते निरुपधयो - निष्कषायाः, 'जीवानां' पृथ्वीकायादीनाम् 'अवधेन' अपीडया, चशब्दात्तपश्चरणादिना च हेतुभूतेन 'जीवन्ति' प्राणान् धारयन्ति ये त एव धर्मस्थाने स्थिताः, नान्य इति गाथार्थः ॥ १३९ ॥ उक्तचतुर्थोऽवयवः, अधुना पञ्चममभिधित्सुराह
जिणवयणपदुद्वेवि हु समुराईए अधम्मरुइणोऽवि । मंगलबुद्धीइ जणो पणमइ आईंदुयधिवक्सो ॥ १४० ॥ व्याख्या - इह विपक्षः पञ्चम इत्युक्तम् स चायम्-प्रतिज्ञाविभक्त्योरिति, जिना:- तीर्थकराः तेषां वचनम् - आगमलक्षणं तस्मिन् प्रद्विष्टा- अप्रीता इति समासस्तान्, अपिशब्दादप्रद्विष्टानपि, हु इत्ययं निपातोऽवधा
१ विपक्षः प्रतिज्ञाविभक्त्योः सरका
For ne&Personal Use City
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brary dig
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४०], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५||
दीप
दशबैकारणार्थः अस्थानप्रयुक्तच, स्थानं तु दर्शयिष्यामः, श्वशुरादीन' श्वशुरो-लोकप्रसिद्धः, आदिशब्दारिपत्रादि-IPRहारि-वृत्तिः परिग्रहः, न विद्यते धर्मे रुचिर्येषां तेऽधर्मरुचयस्तान्, अपिशब्दाद्धर्मरुचीनपि, किम् ?-'मङ्गलवुद्ध्या' मङ्गल- |पिका.
प्रधानया धिया, मङ्गल बुद्ध्यैव नामङ्गलबुद्ध्येत्येवमवधारणस्थानम्, किम्-'जनों लोक, प्रकर्षेण नमति प्रण॥७६॥का
दशावमति, 'आद्यद्वयविपक्ष' इति अत्रायद्वयं प्रतिज्ञा तच्छुद्धिश्च तस्य विपक्षः साध्यादिविपर्यय इति आयद्वय- यवाः विपक्षः, तत्राधर्मरुचीनपि मङ्गलबुद्ध्या जनः प्रणमतीत्यनेन प्रतिज्ञाविपक्षमाह, तेषामधर्माव्यतिरेकात्, जिनवचनप्रद्विष्टानपीत्यनेन तु तच्छुद्धे, तत्रापि हेतुप्रयोगप्रवृत्त्या धर्मसिद्धेरिति गाथार्थः ॥ १४॥
बिइयदुयस्स विवक्खो सुरेहि पूजंति जण्णजाईवि । बुद्धाईवि सुरणया बुञ्चन्ते णायपडिवक्खो ॥ १४ ॥ व्याख्या-द्वयोः पूरणं द्वितीयं द्वितीयं च तद्वयं च द्वितीयद्वयं-हेतुस्तच्छुद्धिश्च, इदं च प्रागुक्तद्वयापेक्षया द्वितीयमुच्यते, तस्यायं विपक्ष:-इह सुरैः पूज्यन्ते यज्ञयाजिनोऽपीति, इयमत्र भावना-यज्ञयाजिनो हि महलरूपा न भवन्त्यथ च सुरैः पूज्यन्ते ततश्च सुरपूजितत्वमकारणमिति, एष हेतुविपक्षा, तथा अजितेन्द्रियाः सोपधयश्च यतस्ते वर्तन्ते अतोऽनेनैव ग्रन्थेन 'धर्मस्थाने स्थिताः परम' इत्यादिकाया हेतुविभक्तेरपि विपक्ष उक्तो वेदितव्य इति । उदाहरणविपक्षमधिकृत्याह-बुद्धादयोऽप्यादिशब्दात्कपिलादिपरिग्रहः, ते किम् ?-'सुरनता' देवपूजिता 'उकयन्ते' भण्यन्ते तच्छासनप्रतिपन्नैरिति ज्ञातप्रतिपक्ष इति गाथार्थः ॥१४॥ आह-मनु दृष्टान्तमु-10७॥ अपरिष्टाद्वक्ष्यति, एवं ततश्च तत्वरूप उक्ते तत्रैव विपक्षस्तत्प्रतिषेधश्च वक्तुं युक्तः तत्किमर्थमिह विपक्षः तस्य
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक/
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SSSSSSSSEX
तिषेधवाभिधीयते?, उच्यते, विपक्षसाम्यादधिकृत एव विपक्षद्वारे लाघवार्थमभिधीयते, अन्यथेदमपि पृथ
द्वारं स्यात्, तथैव तत्प्रतिषेधोऽपि द्वारान्तरं प्रामोति, तथा च सति ग्रन्थगौरवं जायते, तस्माल्लाघवार्थमन्त्रै-11 दबोच्यत इत्यदोषः । आह-"दिट्टतो आसंका तप्पडिसेहो" ति वचनात् उत्तरत्र दृष्टान्तमभिधाय पुनरा
शा तत्प्रतिषेधं च वक्ष्यत्येव, तदाशङ्का च तद्विपक्ष एव, तत् किमर्थमिह पुनर्विपक्षप्रतिषेधावभिधीयेते?, उच्यते, अनन्तरपरम्पराभेदेन दृष्टान्तद्वैविध्यख्यापनार्थम् , यः खल्वनन्तरमुक्तोऽपि परोक्षत्वादागमगम्यखाराष्टोन्तिकार्थसाधनायालं न भवति तत्प्रसिद्धये चाध्यक्षसिद्धो योऽन्य उच्यते स परम्परादृष्टान्तः, तथा। च तीर्थकरांस्तथा साधुश्च द्वावपि भिन्नावेवोत्तरत्र दृष्टान्तावभिधास्येते, तत्र तीर्थकृल्लक्षणं दृष्टान्तमङ्गीकृत्येहा विपक्षपतिषेधावती, साधस्त्वधिकत्य तत्रैवाशकातत्पतिषेधौ दर्शयिष्येते इत्यदोषः । स्थान्मत-प्रागुक्तेन वि-13 लाधिना लाघवार्थमनुक्ते एव दृष्टान्ते उच्यता कामम् , इहैव दृष्टान्तविपक्षस्तत्प्रतिषेधश्न, स एव दृष्टान्तः किमिप्रत्युत्तरत्रोपदिश्यते? येन हेतुविभक्तेरनन्तरमिहैव न भण्यते, तथाहि-अत्र दृष्टान्ते भण्यमाने प्रतिज्ञादीना
मिव द्विरूपस्यापि दृष्टान्तस्याहत्साधुलक्षणस्य एतावेव विपक्षतत्प्रतिषेधावुपपोते, ततश्च साधुलक्षणस्य दृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग् वक्तव्यौ भवतः, तथा च सति ग्रन्धलाघवं जायते, तथा प्रतिज्ञाहेतूदाहरणरूपाः सविशुद्धिकानयोऽप्यवयवाः क्रमेणोक्ता भवन्तीति, अत्रोच्यते, इहाभिधीयमाने दृष्टान्त
१ दृष्टान्त आशा तत्प्रतिवेधः.
JanEducatani
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक/
१दुमपु|ष्पिका दशावयवाः
गाथांक ||५||
दशबैकास्येव प्रतिज्ञादीनामपि प्रत्येकमाशङ्कातत्प्रतिषेधौ वक्तब्यौ स्तर, तथा च सत्यवयवबहुत्वं, दृष्टान्तस्य वा प्रति-| हारि-वृत्तिः ज्ञादीनामिव विपक्षतत्प्रतिषेधाभ्यां पृथगाशङ्कातत्प्रतिषेधौ न वक्तब्यौ स्याताम्, एवं सति दशावयवा न
प्रामुवन्ति, दशावयवं चेदं वाक्यं भजयन्तरेण प्रतिपिपादयिषितम् , अस्यापि न्यायस्य प्रदर्शनार्थम् , अत एव ॥७७॥
यदुक्तं 'साधुलक्षणदृष्टान्तस्याशङ्कातत्प्रतिषेधावुत्तरत्र न पृथग वक्तव्यौ स्याता मित्यादि तदपाकृतं वेदितव्यम्, इत्यलं प्रसङ्गेन । एवं प्रतिज्ञादीनां प्रत्येकं विपक्षोऽभिहितः, अधुनाऽयमेव प्रतिज्ञादिविपक्षः पश्चमोऽवयवो वर्तत इत्येतद्दर्शयन्निदमाह
एवं तु अवयवाणं चतह परिवक्ल पंचमोऽवयवो । एत्तो छट्ठोऽवयवो विवक्खपतिसेह तं वोच्छं ।। १४२ ॥ व्याख्या-'एवम्' इत्ययम्, एव(व)कार उपप्रदर्शने, तुरवधारणे, अयमेव 'अवयवानां प्रमाणाङ्गलक्षणानां 'चतुर्णी' प्रतिज्ञादीनां 'प्रतिपक्षों विपक्षः, पञ्चमोऽवयव इति, आह-दृष्टान्तस्याप्यत्र विपक्ष उक्त एव, तत्किमर्थ चतुर्णामित्युक्तम् ?, उच्यते, हेतोः सपक्षविपक्षाभ्यामनुवृत्तिव्यावृत्तिरूपत्वेन दृष्टान्तधर्मत्वात् , तद्विपक्ष एव चास्यान्तर्भावाददोष इति । उक्तः पञ्चमोऽवयवः, षष्ठ उच्यते, तथा चाह-इत' उत्तरत्र 'षष्ठोऽवयवो' विपक्षप्रतिषेधस्तं 'वक्ष्ये' अभिधास्य इति गाथार्थः ॥ १४२ ॥ इत्थं सामान्येनाभिधायेदानीमाथद्वयविपक्षणतिषेधमभिधातुकाम आह
सायं संमत्त पुमं हार्स रइ आउनामगोयसुहं । धम्मफलं आइदुगे विवक्खपडिसेह मो एसो ।। १४३ ॥
दीप अनुक्रम
॥ ७७॥
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४३], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक/
गाथांक ||५||
CARE
व्याख्या-'सार्य'ति सातवेदनीयं कर्म 'संमतंति सम्यक्त्वं सम्यग्भावः सम्यक्ख-सम्यक्त्वमोहनीयं कमैव.IN पुमति पुंवेदमोहनीयं 'हासंति हस्यतेऽनेनेति हासः तद्भावो हास्य-हास्यमोहनीयम्, रम्यतेऽनयेति रतिःक्रीडाहेतुःरतिमोहनीय कमैव, 'आउनामगोयसुहं ति अत्र शुभशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते अन्ते वचनात् ,ततश्च आय: शुभ नाम शुभं गोत्रं शुभम्, तत्रायुः शुभं तीर्थकरादिसम्बन्धि नामगोत्रे अपि कर्मणी शुभे तेषामेव भवतः, तथाहि-यशोनामादि शुभंतीर्थकरादीनामेव भवति, तथोर्गोषं तदपि शुभं तेषामेवेति, धर्मफल मिति धर्मस्य फलम् धर्मफलं, धर्मेण था फलं धर्मफलम् , एतद् अहिंसादेर्जिनोक्तस्यैव धर्मस्य फलम्, अहिंसादिना जिनोक्तेनैव वा धर्मेण फलमवाप्यते, सर्वमेव चैतत्सुखहेतुत्वाद्धितम् , अतः स एव धर्मो मङ्गलं न श्वशुरादयः,
तथाहि-मजयते हितमनेनेति मङ्गलम् , तच यथोक्तधर्मेणैव मन्यते नान्येन, तस्मादसावेव मङ्गलं न जिनवचन-19 दायाद्याः श्वशुरादय इति स्थितम् । आह-'मङ्गलबुद्ध्यैव जनः प्रणमती'त्युक्तं तत्कथम् ? इति, उच्यते, मङ्गल
बुद्ध्यापि गोपालाङ्गनादिर्मोहतिमिरोपप्लुतबुद्धिलोचनो जनः प्रणमन्नपि न मङ्गलवनिश्चयायालम्, तथाहिन तैमिरिकद्विचन्द्रोपदर्शनं सचेतसां चक्षुष्मतां द्विचन्द्राकारायाः प्रतीतेः प्रत्ययतां प्रतिपद्यते, अतद्रूप एव तद्रूपाध्यारोपद्वारेण तत्प्रवृत्तेरिति । 'आइदुर्गति आद्यद्वयं प्रागुक्तं तस्मिन् आद्यद्वयविषये, विपक्षप्रतिषेधः, 'मों' इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः 'एष' इति यथा वर्णित इति गाथार्थः ॥ १४३ ॥ इत्थमाद्यद्वयविपक्षप्रतिषेधः प्रतिपादितः, सम्प्रति हेतुतच्छुद्ध्योर्विपक्षप्रतिषेधप्रतिपिपादयिषयेदमाह
दीप अनुक्रम
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आगम
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प्रत
सूत्रांक/
गाथांक
||५||
दीप
अनुक्रम
[4]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| निर्युक्तिः [१४४], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ ७८ ॥
Ju Education
अजिइंदिय सोबहिया वहगा जइ तेऽवि नाम पुञ्जंति । अग्गीवि होज सीओ हेउविभत्तीण पडिसेहो ॥ १४४ ॥ व्याख्यान जितानि श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि यैस्ते तथोच्यन्ते, उपधिश्छद्म मायेत्येनर्थान्तरम्, उपधिनासह वर्त्तन्त इति सोपधयो- मायाविनः परव्यंसका इतियावत् अथवा उपदधातीत्युपधिः- वस्त्राद्यनेकरूपः परिग्रहः तेन सह वर्त्तन्ते ये ते तथाविधा महापरिग्रहा इत्यर्थः वर्धन्तीति वधकाः - प्राण्युपमकर्त्तारः, 'जह तेऽवि नाम पुज्जंति'त्ति यदीति पराभ्युपगमसंसूचकः, त इति याज्ञिकाः, अपिः संभावने, नाम इति निपातो वाक्यालङ्कारार्थः, येऽजितेन्द्रियादिदोषदुष्टा यज्ञयाजिनो वर्त्तन्ते, यदि ते नाम पूज्यन्ते तग्निरपि भवेच्छीतः, न च कदाचिदप्यसौ शीतो भवति, तथा वियदिन्दीवरस्रजोऽपि वान्ध्येयोरःस्थलशोभामादधीरन्, न चैतद् भवति, यथैवमादिरत्यन्ताभावस्तथेदमपीति मन्यते, अथापि कालदौर्गुण्येन कथञ्चिदविवेकिना जनेन पूज्यन्ते तथापि तेषां न मङ्गलत्वसंप्रसिद्धिः, अप्रेक्षावतामतद्रूपेऽपि वस्तूनि तद्रूपाध्यारोपेण प्रवृत्तेः तथाहि - अकलङ्कधियामेव प्रवृत्तिर्वस्तुनस्तद्वत्तां गमयति, अतथाभूते वस्तुनि तद्बुद्ध्या तेषामप्रवृत्तेः, सुविशुद्धबुद्धयश्च दैत्यामरेन्द्रादयः, ते चाहिंसादिलक्षणं धर्ममेव पूजयन्ति न यज्ञयाजिनः तस्मादैत्यामरेन्द्रादिपूजितत्वाद्धर्म एवोत्कृष्टं मगलं न याज्ञिका इति स्थितम्, 'हेउविभत्तीणन्ति एष हेतुतद्विभक्त्योः
१ पर्यायाः प्र०२ व हिंसायामित्यन्यपठितधातुगणापेक्षयाऽयं प्रयोगः, अगणपठितं वधि हिंसार्थमाश्रित्य स्यात्परं तत्रात्मनेपदसम्भवः, यदि तेषामर्थान्तरेऽपि अनियमस्त्यादीन् प्रतीसपेक्ष्य स्वात्परस्मैपदिता तदा तत्रापि न दोषः,
For & Personal Use City
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१ दुमपुष्पिका●
दशाव
यवाः
॥ ७८ ॥
Cyg
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक/
गाथांक ||५||
'पडिसेहोति विपक्षप्रतिषेधः, विपक्षशब्द इहानुक्तोऽपि प्रकरणाज्ज्ञातव्य इति गाथार्थः ॥ १४४ ॥ एवं हेतुतच्छुद्धयोर्विपक्षप्रतिषेधो दर्शितः, साम्प्रतं दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधं दर्शयन्नाह
धुदाई उवयारे पूयाठाणं जिणा उ सम्भावं । दिढते पहिसेहो छट्ठो एसो अवयवो उ ॥ १४५ ॥ | व्याख्या-'बुद्धादयः आदिशब्दात्कपिलादिपरिग्रहः, उपचार इति 'मुपां सुपो भवन्तीति न्यायादपचारेण | किश्चिदतीन्द्रियं कथयन्तीतिकृत्वा न वस्तुस्थित्या पूजायाः स्थानं पूजास्थानम् , जिनास्तु 'सद्भावं' परमाथे-1 मधिकृत्येति वाक्पशेषः सर्वज्ञत्वाद्यसाधारणगुणयुक्तत्वादिति भावना, 'दृष्टान्तप्रतिषेध' इति विपक्षशब्दलो- पादु दृष्टान्तविपक्षप्रतिषेधः, किम् ?-षष्ठ एषोऽवयवः, तुर्विशेषणार्थः, किं विशिनष्टि ?-सर्वोऽप्ययमनन्तरोदितः प्रतिज्ञादिविपक्षप्रतिषेधः पञ्चप्रकारोऽप्येक एवेति गाथार्थः ॥ १४५ ॥ षष्ठमवयवमभिधायेदानीं सप्तमं दृष्टान्तनामानमभिधातुकाम आह
अरिहंत मग्गगामी विलुतो साहुणोऽवि समचित्ता । पागरणसु गिहीसु एसते अवहमाणा ॥ १४६ ॥ व्याख्या-पूजामहन्तीत्यहन्ता, न रुहन्तीति वा अरुहन्ता, किम् ?-दृष्टान्त इति सम्बन्धः, तथा 'मार्गगाट्रामिन' इति प्रक्रमात्तदुपदिष्टेन मार्गेण गन्तुं शीलं येषां त एवं गृह्यन्ते, के च त इत्यत-आह-साधवः' सा-1
धयन्ति सम्यग्दर्शनादियोगैरपवर्गमिति साधवः, तेऽपि दृष्टान्त इति योगः, किंभूताः?-समचित्ता' रागद्वेपरहितचित्ता इत्यर्थः, किमिति तेऽपि दृष्टान्त इति ?, अहिंसादिगुणयुक्त त्वात् , आह च-पाकरतेषु' आस्मा-16
35555
दीप अनुक्रम
दश.१४
JamElicationlinodA
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक/
गाथांक ||५||
दीप अनुक्रम
दशबैकार्थमेव पाकसक्तेषु 'गृहिषु' अगारिषु 'एषन्ते' गवेषयन्ति पिण्डपातमित्यध्याहारः, किं कुर्वाणा इत्यत आहू- १ द्रुमपुहारि-वृत्तिः 'अवहमाणा उनघ्नन्तोऽनन्तः, तुरवधारणार्थः, ततश्चान्त एच, आरम्भाकरणेन पीडामकुर्वाणा इत्यर्थः।पिका. एवं द्विविधोऽपि दृष्टान्त उक्तः, दृष्टान्तवाक्यं चेदं, स तु संस्कृत्य कर्त्तव्योऽर्हदादिवदिति गापाथेंः॥ १४६ ॥
1प्रतिज्ञात॥७२॥ दिउक्तः सप्तमोऽवयवः, साम्प्रतमष्टममभिधित्सुराह
४च्छुद्याद्या तत्थ भवे आसंका उद्दिस्स जइवि कीरए पागो । तेण र विसमं नायं वासतणा तस्स पडिसेहे ॥ १४७ ।।
दशावव्याख्या-तत्र तस्मिन् दृष्टान्ते 'भवेदाशङ्का' भवत्याक्षेपः, यथा 'उद्दिश्य अङ्गीकृत्य 'यतीनपि' संयता- यवा: नपि, अपिशब्दादपत्यादीन्यपि, क्रियते' निर्बलते पाकः, कैः?-गृहिभिरिति गम्यते, ततः किमित्यत आहतेन कारणेन, र इति निपातः किलशब्दार्थः, 'विषमम्' अतुल्यं ज्ञातम्' उदाहरणं, वस्तुतः पाकोपजीवित्वेन साधूनामनवद्यवृत्त्यभावादिति, भावितमेवैतत् पूर्वम् , इत्यष्टमोऽवयवः, इदानीं नवममधिकृत्याह-वर्षातृ-19 |णानि तस्य प्रतिषेधे इति, एतच्च भाष्यकृता प्राक प्रपश्चितमेवेति न प्रतन्यत इति गाथार्थः ॥ १४७ ॥ उक्तो नवमोऽवयवः, साम्प्रतं चरममभिधित्सुराह
तम्हा उ सुरनराणं पुजत्ता मंगलं सया धम्मो । दसमो एस अवयवो पइनहेऊ पुणोवयणं ।। १४८ ।। व्याख्या-यस्मादेवं तस्मात् 'सुरनराणां देवमनुष्याणां पूज्यत इति पूज्यस्तद्भावस्तस्मात् पूज्यत्वात् 'मङ्गलं माग्निरूपितशब्दार्थ 'सदा सर्वकालं 'धर्मः' प्रागुक्ता, 'दशम एषोऽवयव' इति सङ्ख्याकथनम्, किंविशिष्टो
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४८], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५||
यमित्यत आह-प्रतिज्ञाहेत्वोः पुनर्वचन' पुनर्हेतुप्रतिज्ञावचनमिति गाथार्थः ॥ १४८ ॥ उक्तं द्वितीयं दशा--2 | वयवं, साधनाङ्गता चावयवानां विनेयापेक्षया विशिष्टपतिपत्तिजनकत्वेन भावनीयेति । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नया उच्यन्ते-ते च नैगमसंग्रहव्यवहारऋजुसूत्रशब्दसमभिरूदैवंभूतभेदभिन्नाः खल्वोघतः सप्स भवन्ति, स्वरूपं चैतेषामध आवश्यकसामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवातो नेह प्रतन्यते, इह पुनः स्थानाशून्यार्थमेते ज्ञानक्रियानयद्वयान्तर्भावद्वारेण समासतःप्रोच्यन्ते-ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तत्र ज्ञाननयदशेनमिदम्-ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्त्वात् , तथा चाह
___णायंनि गिव्हियन्वे अगिणियव्यंमि चेव अत्यंमि । जइयव्वमेव इइ जो उबएसो सो नओ नाम ॥ १४९ ॥ ख्याख्या 'णार्यमि'त्ति ज्ञाते सम्पपरिच्छिन्ने 'गिण्हियब्वेत्ति ग्रहीतव्य उपादेये 'अगिपिहयवंमित्ति अग्रहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः, चशब्दः खलूभयोग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थ: उपेक्षणीयसमुचयार्थों वा, एवकारस्त्ववधारणार्थः, तस्य चैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्या-ज्ञात एव ग्रहीतब्ये तथाऽग्रहीतब्ये तथोपेक्षणीये चार्थे तु ज्ञात एव नाज्ञाते, 'अत्थंमिति अर्थे ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिको ग्रहीतव्यः सकुचन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्टकादिः उपेक्षणीयः तृणादिः, आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सम्यग्दर्शनादिः
अग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिः उपेक्षणीयो विवक्षयाऽभ्युदयादिरिति, तस्मिन्नर्थे 'यतितव्यमेवे'ति अनुखारलो४/ पाद्यतितव्यम्, एवम्-अनेन प्रक्रमेणैहिकामुष्मिकफलपास्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कायें इ
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JanEducatai
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४९], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
S
प्रत
Ci
सूत्रांक/
गाथांक
का
|4||
दशवैका०त्यर्थः । इत्थं चैतदनीकर्तव्यम् , सम्यगज्ञाते प्रवर्तमानस्य फलविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युक्तम्
का१दुमपुहारि-वृत्तिः "विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिथ्याज्ञानात्मवृत्तस्य, फलप्राप्तेरसंभवात् ॥१॥" तथाऽऽमु- पिका
मिकफलप्रात्यर्थिनापि ज्ञात एव यतितव्यम् , तथा चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तम्-"पढमं नाणं ज्ञानकि॥ ८॥ीतओ दया, एवं चिट्ठ सव्वसंजए । अन्नाणी किं काही?, किंवा णाहिति छेयपावगं ? ॥१॥” इतश्चैतदेवाङ्गीक- यानयो
व्यं यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केवलानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा, तथा चागमः-"गीयस्थो य विहारो वीओ गीयत्वमीसिओ चेव । इत्तो तइयविहारो णाणुन्नाओ जिणवरेंहि ॥१॥” यस्मादन्धनान्धः समापाकृष्यमाणः सम्यक्पन्धानं न प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकम-18| (प्य)ङ्गीकृत्य विशिष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम् , यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षां प्रतिपन्नस्योत्कृटतपश्चरणवतोऽपि न तावदपवर्गप्राप्तिः संजायते यावज्जीवाजीवायखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्प-12 नमिति, तस्माज्ज्ञानमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् 'इति जो उवएसो सो णओ णाम'|ति 'इति एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशो-ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम-ज्ञाननय इत्यथें:, अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, वचनक्रिये तु तत्कायेंत्वात्तदाय
१ प्रथमं ज्ञानं ततो दया एवं शिप्रति सवैसंयतः । अहानी कि करिष्यति ! किया ज्ञास्थति छेकपापकम् ॥१॥ १ गीताव विहारो द्वितीयो गीतार्थमिवितवैव । इतस्तृतीयो विहारो नानुज्ञातो जिनवरैः॥१॥
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Jamachar
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं 1-1 /गाथा ||५|| नियुक्ति: [१४९R], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक/
ह
गाथांक ||५||
हात्तत्वान्नेच्छति, गुणभूते चेच्छति इति गाथार्थः ॥ १४९ ॥ उक्तो ज्ञाननया, अधुना क्रियानयावसरः, तद्दर्शनं पाचवम्-क्रियैव प्रधान, ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्वात् , तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव स्वपक्षसिद्धये गाथामाह
णायमि गिहियग्वे अगिहियव्बंमि चेव अत्यमि । जइयत्वमेव इइ जो उबएसो सो नो नामं ॥ १४९ ॥ है। अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या-ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुष्मिकफलप्राप्त्यहार्थिना यतितव्यमेव, न यस्मात्प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयत्नव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्थावाप्तिदृश्यते, तथा
चान्यैरप्युक्तम्-"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥” तथाऽऽमुष्मिकफलप्राप्त्यर्थिनाऽपि क्रियैव कर्तव्या, तथा च मौनीन्द्रप्रवचनमप्येवमेव व्यवस्थितम् , यत उक्तम्-"चेइयकुलगणसंघे आयरियाणं च पवयणसुए य । सब्वेमुवि तेण कयं तवसंजममुला जमतेणं ॥१॥” इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यम्, यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेचोक्तं,
तथा चागम:-"सुषहुंपि सुयमहीयं किं काही चरणविप्पमुकस्स ? । अंधस्स जह पलिता दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥” इशिक्रियाविकलत्वात्तस्येत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिक चारित्रमङ्गीकृत्योक्तम्,
१चैत्यकुलगणसझे आचार्येषु च प्रवचने भुते थ । सम्यपि तेन कृतं तपःसंयमयोध्यप्छता ॥२ मुबहकमपि श्रुतमचीतं किं करिष्यति चरणविप्रमु
दीप अनुक्रम
CHRISTIANTAX
कव!। अन्धव यथा प्रदीप्ता दीपघातसहसकोग्यपि ॥१॥
अत्र मूल संपादने मुद्रणदोषात् नियुक्ति-क्रम १४९ द्विवारान् मुद्रितं, तत् कारणात् मया १४९ R' इति लिखितं
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक/ गाथांक
||५||
दीप
अनुक्रम
[4]
:+|भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्ति: अध्ययनं [१], उद्देशक [ - ], मूलं [ - ] / गाथा ||५|| निर्युक्ति: [ १४९२], भाष्यं [ ४... ]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ ८१ ॥
चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरम्, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयम्, यस्मादर्हतोऽपि भगवतः | समुत्पन्नकेवलज्ञानस्यापि न तावन्मुक्त्यवाप्तिः संजायते यस्मा (पाव) दखिलकर्मेन्धनानलभूता हखपश्चाक्षरोचारणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंवररूपा चारित्रक्रिया नावासेति, तस्मात्क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणमिति स्थितम् । 'इति जो उवएसो सो णओ णामं'ति 'इति' एवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः किम् ?क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम-क्रियानय इत्यर्थः । अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूपमेवेदमिच्छति, तदात्मकत्वादस्य, ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति गुणभूते चेच्छतीति गायार्थः ॥ १४९ ॥ उक्तः क्रियानयः, इत्थं ज्ञाननयक्रियानयखरूपं श्रुत्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह-किमत्र तस्त्वं ?, पक्षद्वयेऽपि युक्तिसंभवाद्, आचार्यः पुनराह अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिघायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन् पुनराह -
सब्वेसिंपि नयाणं बहुविह्वत्तब्वयं निसामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणट्टिओ साहू ॥ १५० ॥
व्याख्या- 'सर्वेषामिति मूलनयानामपिशब्दा सद्भेदानां च द्रव्यास्तिकादीनां 'बहुविधवक्तव्यतां' सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपाम्, अथवा नामादीनां नयानां कः कं साधुमिच्छतीत्यादिरूपां 'निशम्य' श्रुत्वा तत् 'सर्वनयविशुद्धं' सर्वनयसंमतं वचनं 'यचरणगुणस्थितः साधुः' यस्मात्सर्वनया एव (सर्वेऽपि नया ) भावविषयं निक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थः ॥ १५० ॥
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१ दुमपुष्पिका० स्थितपक्षः
॥ ८१ ॥
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||५|| नियुक्ति: [१५१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
द
प्रत
|| दुमपुफियनिज्जुत्ती समासओ वणिया विभासाए । जिणचउद्दसपुश्वी वित्थरेण कयंति से अई ॥ १५१ ॥ दुमपुफियनिजुत्ती समचा।
सुगमा । इत्याचार्यश्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवकालिकटीकायां द्रुमपुष्पिकाध्ययनं समाप्तम् ।। व्याख्यायाध्ययनमिदं प्राप्तं यत्कुशलमिह मया किश्चित् । सद्धर्मलाभमखिलं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥१॥
सूत्रांक/
गाथांक ||५||
दीप अनुक्रम
इति सूरिपुरन्दरश्रीमद्धरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्ती
प्रथममध्ययनं दुमपुष्पिकाख्यं समाप्तम् ।।
ECE
अध्ययनं -१- परिसमाप्तं
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक/ गाथांक
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दीप
अनुक्रम
[..]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य |+ + वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [ - ], मूलं [ - ] / गाथा || ५.. || निर्युक्तिः [१५२ ], भाष्यं [ ४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशबैका०
हारि-वृत्तिः
व्याख्यातं द्रुमपुष्पिकाध्ययनम् अधुना श्रामण्यपूर्वकाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहानन्तराध्ययने धर्मप्रशंसक्ता, सा चेहेब जिनशासन इति, इह तु तदभ्युपगमे सति मा भूदभिनवप्रब्रजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता भवितव्यमित्येतदुच्यते, उक्तं च "जस्स धिई तस्स तयो जस्स तवो तस्स सुग्गई सुलभा । जे अधिहमंत पुरिसा तवोऽवि खलु दुल्लहो तेसिं ॥ १ ॥” अनेनाभिसंबन्धेनायातस्यास्याध्ययनस्य ४ चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववत्, नवरं नामेवदध्ययन विषयत्वादुपक्रमा दिद्वारकलापस्य व्याप्तिप्राधान्यतो नामनिष्पन्नं निक्षेपमभिधित्सुराह नियुक्तिकारः-
॥ ८२ ॥
सामण्णवस उ निस्बो होइ नामनिष्पन्नो । सामण्णस्स चडको तेरसगो पुण्ययस्स भवे ।। १५२ ।।
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व्याख्या- श्राम्यतीति श्रमण:, [श्राम्यति तपस्यति ] तद्भावः श्रामण्यं तस्य पूर्व-कारणं श्रामण्यपूर्व तदेव श्रमण्यपूर्वकमिति संज्ञायां कन्, श्रामण्यकारणं च धृतिः, तन्मूलत्वात्तस्य, तत्प्रतिपादकं चेदमध्ययनमिति भावार्थः । अतः श्रामण्यपूर्वकस्य तु निक्षेपो भवति नामनिष्पन्नः कोऽसौ ? - अन्यस्याश्रुतत्त्वात् श्रामण्यपूर्वकमित्ययमेव, तुशब्दः सामान्यविशेषवन्नामविशेषणार्थः, श्रामण्यपूर्वकमिति सामान्यम्, श्रमण्यं पूर्व चेति विशेष:, तथा चाह-भ्रामण्यस्य चतुष्ककत्रयोदशकः पूर्वकस्य भवेन्निक्षेप इति गाथार्थः ॥ १५२ ।। निक्षेपमेव विवृणोति
१ यस्य प्रतिस्तस्य तपो यस्य तपस्तस्य सुमतिः सुलभा । येऽप्रतिमन्तः पुरुषास्तपोऽपि खल दुर्लभं तेषाम् ॥ १ ॥ २ रुढनामेति ३ नामनिष्पनिक्षेपस्य
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अध्ययनं -२- श्रामण्यपूर्वकं आरभ्यते
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२ श्रमण्य
पूर्वकाध्य०
श्रमणपूर्वयोनिक्षेपाः
॥ ८२ ॥
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||५...|| नियुक्ति: [१५३], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५..||
समणस्स उ निकखेवो चउक्को होइ आणुपुबीए । बब्वे सरीरभविओ भावेण उ संजओ समणी ॥ १५३॥ व्याख्या-श्रमणस्य तु तुशब्दोऽन्येषां च मङ्गलादीनामिह तु श्रमणेनाधिकार इति विशेषणार्थः, निक्षेप|श्चतुर्विधो भवति, 'आनुपूा' नामादिक्रमेण, नामस्थापने पूर्ववत्, द्रव्यश्रमणो द्विधा-आगमतो नोआगमतश्च, आगमतो ज्ञाताऽनुपयुक्ता, नोआगमतस्तु ज्ञशरीरभव्यशरीरतद्यतिरिक्तोऽभिलापभेदेन दुमयदव-17 सेयः, तं चानेनोपलक्षयति-'दब्वे सरीरभविउत्ति । भावभ्रमणोऽपि द्विविध एव-आगमतो ज्ञातोपयुक्तः नोआगमतस्तु चारित्रपरिणामवान् यतिः, तथा चाह-भावतस्तु संयतः श्रमण इति गाथार्थः॥ १५३ ॥ अ-16
स्यैव स्वरूपमाह४ जह मम न पियं दुक्खं जाणिय एमेव सब्वजीवाणं । न हणइ न हणावेइ य सममणई तेण सो समणो ॥ १५४ ॥
व्याख्या-यथा मम न प्रियं दुःखं, प्रतिकूल वात्, ज्ञात्वैवमेव सर्वजीवानां दुःखप्रतिकूलत्वम् न हन्ति खयं न घातयत्यन्यैः, चशब्दाद अन्तं च नानुमन्यतेऽन्यम् , इत्यनेन प्रकारेण समम् अणति-तुल्यं गच्छति यतस्तेनासौ श्रमण इति गाथार्थः ॥१५४॥
नत्वि र सि कोइ वेसो पिओ व सम्बेसु चेव जीवेसु । एएण होह समणो एसो अन्नोऽवि पज्जाओ ।। १५५ ॥ व्याख्या-नास्ति च 'सि' तस्य कश्चिद् द्वेष्यः प्रियो वा सर्वेष्वेव जीवेषु, तुल्यमनस्त्वात्, एतेन भवति सममनाः, समं मनोऽस्येति सममना, एषोऽन्योऽपि पर्याय इति गाथार्थः ॥ १५५ ॥
दीप
625*525-256*25*******
अनुक्रम
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'श्रमण' शब्दस्य निक्षेपा: एवं व्याख्या:
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||५...|| नियुक्ति: [१५६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५..||
दीप
दशवैका तो समणो जब सुमणो भावेण व जइ न होइ पावमणो । सवणे य जणे व समो समो व माणावमाणेसु ॥ १५६॥
२ श्रमण्यहारि-वृत्तिः व्याख्या-ततः श्रमणो यदि सुमनाः, द्रव्यमन: प्रतीत्य, भावेन च यदि न भवति पापमनाः, एतत्फलमेवर पूर्वकाध्य० दर्शयति-खजने च जने च समः, समश्च मानापमानयोरिति गाधार्थः॥१५६ ॥
श्रमणपूर्वउरणगिरिजलणसागरनहबलतरुगणसमो व जो होई । भमरमिगधरणिजलरुहरविषवणसमो जओ समणो ॥ १५७ ॥
योनिक्षेपाः ____ व्याख्या-उरगसमः परकृतबिलनिवासिवादाहारानावादनात्संयमैकदृष्टित्वाच, गिरिसमः परीपहपथनाकम्प्यत्वात्, ज्वलनसमः तपस्तेजःप्रधानत्वात् तृणादिष्विव सूत्रार्थेष्वतृप्तेः एषणीयाशनादौ चाविशेषण
वृत्तेरिति, सागरसमो गम्भीरत्वाज्ज्ञानादिरत्नाकरत्वात् स्वमर्यादानतिक्रमाच, नभस्तलसमः सर्वत्र निरासे लम्बनत्वात्, तरुगणसमः अपवर्गफलार्थिसत्वशकुनालयत्वात् वासीचन्दनकल्पत्वाच, भ्रमरसमः अनियत-IN
वृत्तिखात्, मृगसमः संसारभयोद्विग्नत्वात्, धरणिसमः सर्वखेदसहिष्णुत्वात्, जलरुहसमः कामभोगोव| खेऽपि पङ्कजलाभ्यामिव तयवृत्तेः, रविसमः धर्मास्तिकायादिलोकमधिकृत्य विशेषेण प्रकाशकत्वात्, पव|नसमा अप्रतिबद्धविहारित्वात्, इत्थमुरगादिसमश्च यतो भवति ततः श्रमण इति गाथार्थः ॥१५७॥ | विसतिणिसवायवंजुलकणियारुपलसमेण समणेणं । भमरुंदुरुनउकुकुडअद्दागसमेण होयध्वं ॥ १ ॥ (प.)
| प्रक्षेपगाथा | व्याख्या-श्रमणेन विषसमेन भवितव्यं भावतः सर्वरसानुपातित्वमधिकृत्य, तथा तिनिशसमेन मानपरि-12॥ ८ ॥
विषे सर्वरसानामन्तर्भावात् , न तेषामनुभवस्तस्मिन्.
अनुक्रम
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सूत्रांक/
गाथांक
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य |+ + वृत्तिः) अध्ययनं [२], उद्देशक [ - ], मूलं [-] / गाथा || ५...|| निर्युक्तिः [ १५७ ], भाष्यं [ ४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
त्यागतो नम्रेण, वातसमेनेति पूर्ववत्, वलो-वेतसस्तत्समेन क्रोधादिविषाभिभूतजीवानां तदुपनयनेन, एवं हि श्रयते किल वेतसमवाप्य निर्विषा भवन्ति सर्पा इति, कर्णिकारसमेनेति तत्पुष्पवत्प्रकटेन अशुचिगन्धापेक्षया च निर्गन्धेनेति, उत्पलसदृशेन प्रकृतिधवलतया सुगन्धित्वेन च, भ्रमरसमेनेति पूर्ववत्, उन्दुरुसमेन उपयुक्तदेशकालचारितया, नटसमेन तेषु तेषु प्रयोजनेषु तत्तद्वेषकरणेन, कुर्कुटसमेन संविभागशीलतया, स हि किल प्राप्तमाहारं पादेन विक्षिप्यान्यैः सह भुङ्ग इति, आदर्शसमेन निर्मलतया तरुणायनुवृत्तिप्रतिविम्बभावेन च, उक्तं च--"तरुणंनि होइ तरुणो थेरो थेहिं डहरए डहरो । अदाओविव रूवं अणुयतह जस्स जं सीलं ॥ १ ॥ एवंभूतेन श्रमणेन भवितव्यमिति गाथार्थः ॥ इयं किल गाथा भिन्नकर्तृकी, अतः पवनादिषु न पुनरुक्तदोष इति ॥ १ ॥
साम्प्रतं 'तत्त्वभेदपर्यायैव्र्याख्येति न्यायाच्छ्रमणस्यैव पर्यायशब्दानभिधित्सुराह
पease अणगारे पासंडे चरग तावसे मिक्लू । परिवाइए व समणे निमांचे संजय मुते || १५८ ॥ व्याख्या प्रकर्षेण व्रजितो गतः प्रत्रजितः, आरम्भपरिग्रहादिति गम्यते, अगारं गृहं तदस्यास्तीत्यगारोगृही न अगारोऽनगारः, द्रव्यभावगृहरहित इत्यर्थः, पाखण्डं व्रतं तदस्यास्तीति पाखण्डी, उक्तं च- " पाखण्डं व्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलं भुवि । स पाखण्डी वदन्त्यन्ये, कर्मपाशाद्विनिर्गतः (तम् ॥ २ ॥ चरतीति चरकः तरुणे भवति तरुणः स्थविरः स्थविरेषु वाले बालः आदर्श इव रूपमनुवर्तते यस्य यच्छखम् ॥ १ ॥
'श्रमण' शब्दस्य पर्याय शब्दानाम् व्याख्या:
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||५...|| नियुक्ति: [१५८], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||५..||
॥८४॥
दशबैका० तप इति गम्यते, तपोऽस्यास्तीति तापसः, भिक्षणशीलो भिक्षुः भिनत्ति वाऽष्टप्रकारं कर्मेति भिक्षुः, परि-1 श्रमण्यहारि-वृत्तिः समन्तात्पापवर्जनेन ब्रजति-गच्छतीति परिव्राजका, चः समुच्चये, अमणः पूर्ववत्, निर्गतो ग्रन्धान्निग्रन्थःपूर्वकाध्य
बाह्याभ्यन्तरग्रन्धरहित इत्यर्थः, सम्-एकीभावेनाहिंसादिषु यतः-प्रयत्नवान् संयतः, मुक्तो बाह्याभ्यन्तरेणाश्रमणपग्रन्थेनैवेति गाथार्थः ॥१५८॥
र्याया० तिने ताई दबिए मुणी व खते य दन्त विरए य । लहे तीरद्धेऽविय हवंति समणस्स नामाई ।। १५९ ॥ व्याख्या-तीर्णवांस्तीर्णः, संसारमिति गम्यते, त्रायत इति त्राता, धर्मकथादिना संसारदुःखेभ्य इति भावः, रागादिभावरहितत्वाद्रव्यम् , द्रवति-गच्छति ताँस्तान ज्ञानादिप्रकारानिति द्रव्यम् , मुनिः पूर्ववत्, चः समुचये, क्षाम्यतीति क्षान्त:-क्रोधविजयी, एवमिन्द्रियादिदमनाहान्तः, विरत:-प्राणातिपातादिनिवृत्तः, स्नेहपरित्यागाद्भक्षा, तीरेणार्थोऽस्येति तीरार्थी, संसारस्येति गम्यते, तीरस्थो वा सम्यक्त्वादिप्राप्तेः संसारपरिमाणात, एतानि भवन्ति श्रमणस्य 'नामानि अभिधानानीति गाथार्थः ॥ १५९॥ निरूपितः श्रमणशब्दः, अधुना पूर्वशब्दश्चिन्त्यते-अस्य च त्रयोदशषिधो निक्षेपः, तथा चाह
णाम ठवणा दविए खेत्ते काले दिसि तावखेत्ते य । पन्नवगपुव्ववत्थू पाटुडअइपाहुढे भावे ।। १६० ॥ 4. व्याख्या-नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यपूर्वम् अकराबीजं वनः क्षीरं फाणितास इत्यादि, क्षेत्रपूर्व यवक्षेत्राच्छा-14॥४॥ लिक्षेत्रं, तत्पूर्वकस्वात्तस्य, अपेक्षया चान्यथाऽप्यदोषः, कालपूर्व पूर्वः कालः शरदः प्रावृह रजन्या दिवस
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६०], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
॥ इत्यादि आवलिकाया वा समय इत्यादि, दिक्पूर्व पूर्वा दिग, इयं च रुचकापेक्षया, तापक्षेत्रपूर्वम्-आदित्योदयमधिकृत्य यत्र या पूर्वी दिक, उक्तं च-"जस्स जओ आदियो उदेह सा तस्स होइ पुवदिसा” इत्यादि, प्रज्ञापकपूर्व-प्रज्ञापनं (क) प्रतीत्य पूर्वा दिक् यदभिमुख एवासौ सैव पूर्वा, पूर्वपूर्व चतुर्दशानां पूर्वाणामाद्यं, तच उत्पादपूर्वम् , एवं वस्तुपाभूतातिप्राभृतेष्वपि योजनीयम् , अप्रत्यक्षस्वरूपाणि चैतानि, भावपूर्वम्-आयो भावः स चौदयिक इति गाथार्थः ॥ १६०॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्ननिक्षेपस्यावसरः, इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् , तश्चेदम्
कहं नु कुजा सामण्णं, जो कामे न निवारए । पए पए विसीदंतो, संकप्पस्स वसं गओ? ॥१॥
अस्थ व्याख्या-इह च संहितादिक्रमेण प्रतिसूत्रं व्याख्याने ग्रन्थगौरवमिति तत्परिज्ञाननिवन्धनं भावार्थमात्रमुच्यते-तत्रापि कत्यहं कदाहं कथमहमित्याद्यदृश्यपाठान्तरपरित्यागेन दृश्यं व्याख्यायते-'कथं नु कुर्याच्छ्रामण्यं यः कामान निवारयति? 'कथं केन प्रकारेण, नु क्षेपे, यथा कथं नु स राजा यो न रक्षति?, कथं नु स वै-18 याकरणो योऽपशब्दान् प्रयुक्रे, एवं कथं नु स कुर्यात् 'श्रामण्यं श्रमणभावं यः कामान् 'न निवारयति'न | प्रतिषेधते', किमिति न करोति?, तत्र "निमित्तकारणहेतुषु सर्वासां विभक्तीनां प्रायो दर्शनम्" इति वचनात् |
१ यस्य यत आदिख उदेति सा तस्य भवति पूर्वदिग्, २ पूर्ववृत्तौ दर्शनेऽप्यादर्शक्षु दृश्यमानेष्वदृश्यमानता
दीप अनुक्रम
दश-१५
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(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६०], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
॥८५॥
दीप अनुक्रम
दशवैका कारणमाह-'पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः' कामानिवारणेनेन्द्रियाद्यपराधपदापेक्षया पदे पदे
विश्रामण्यहारि-वृत्तिःषीदनात्संकल्पस्य वशंगतत्वात् । [अप्रशस्ताध्यवसाय: संकल्पः] इति सूत्रसमासार्थः॥ १॥ अवयवार्थं तापूर्वकाध्य.
सूत्रस्पर्शनियुक्त्या प्रतिपादयति-तत्रापि शेषपदार्थान् परित्यज्य कामपदार्थस्य हेयतयोपयोगिखाल्ख- कामनिरूपमाह
क्षेपाः नामंठवणाकामा दबकामा य भावकामा य । एसो खलु कामाणं निकलेवो चउबिहो होइ ।। १६१ ।। व्याख्या-नामस्थापनाकामा इत्यत्र कामशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते, द्रव्यकामाश्च भावकामाश्च, चशब्दो खगतानेकभेदसमुच्चयाओं, एष खलु कामानां निक्षेपश्चतुर्विधो भवतीति गाथार्थः ॥ ११॥ तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यकामान् प्रतिपादयन्नाह
सहरसरूवगंधाफासा उदयंकरा य जे दव्या । दुविहा य भावकामा इच्छाकामा मवणकामा ॥ १६२ ।। व्याख्या-शब्दरसरूपगन्धस्पर्शाः मोहोदयाभिभूतैः सत्त्वैः काम्यन्त इति कामाः, मोहोदयकारीणि च यानि द्रव्याणि संघाटकविकटमासादीनि तान्यपि मदनकामाख्यभावकामहेतुत्वाद्रव्यकामा इति, भावकामानाह-'द्विविधाच द्विप्रकाराश्च भावकामा:, इच्छाकामा मदनकामाश्च, तत्रैषणमिच्छा सैव चित्ताभिलाषरूपत्वात्कामा इतीच्छाकामा, मदयतीति तथा मदन:-चित्रोमोहोदयः स एव कामप्रवृत्तिहेतुत्वात्कामा मदनकामा इति गाथार्थः ।। १६२॥ इच्छाकामान् प्रतिपादयति
'काम' शब्दस्य निक्षेपा: वर्णयते
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(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६३], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
इच्छा पसत्यमपसत्थिगा व मयणमि वेवउवओगो। तेणहिगारो तस्स उ अयंति धीरा निरुत्तमिण ।। १६३ ॥ व्याख्या-इच्छा प्रशस्ता अप्रशस्ता च, अनुस्वारोऽलाक्षणिकः सुखमुखोच्चारणार्थः, तत्र प्रशस्ता धर्मेच्छा मोक्षेच्छा, अप्रशस्ता युद्धेच्छा राज्येच्छा, उक्ता इच्छाकामाः, मदनकामानाह-'मदने' इति उपलक्षणार्थत्वान्मदनकामे निरूप्ये कोऽसावित्यत आह-वेदोपयोगः' वेद्यत इति वेदः-स्त्रीवेदादिस्तदुपयोगः-तद्विपाकानुभवनम् , तद्धापार इत्यन्ये, यथा स्त्रीवेदोदयेन पुरुषं प्रार्थयत इत्यादि, 'तेनाधिकार' इति मदनकामेन, |शेषा उच्चारितसदृशा इति प्ररूपिताः, 'तस्य तु मदनकामस्य वदन्ति धीराः' तीर्थकरगणधरा निरुक्तम् , 'इदं वक्ष्यमाणलक्षणमिति गाथार्थः ॥१६३ ॥
विसबसुहेसु पसत्तं अबुहजणं कामरागपडिबद्धं । उक्कामयंति जीव धम्माओ तेण ते कामा ॥ १६४ ॥ व्याख्या-विषीदन्ति-अवबध्यन्ते एतेषु प्राणिन इति विषयाः-शब्दादयः तेभ्यः सुखानि तेषु प्रसक्ताआसक्तस्तं, जीवमिति योगः, स एव विशेष्यते-अबुधः-अविपश्चिजना-परिजनो यस्य सः अबुधजनस्तम् , अकल्याणमित्रपरिजनमित्यर्थः, अनेन बाचं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह, 'कामरागप्रतिवद्ध'मिति कामा-15 मदनकामास्तेभ्यो रागा-विषयाभिष्वङ्गास्तैः प्रतिबद्धो-व्याप्तस्तम्, अनेन त्वान्तरं विषयसुखप्रसक्तिहेतुमाह, ततश्चाबुधजनत्वात्कामरागप्रतिबद्धत्वाथ विषयसुखेषु प्रसक्तमिति भावः, किम् ?-निरुक्तवैचित्र्यादाहतत्प्रत्यनीकत्वादुत्क्रामयन्ति-अपनयन्ति जीवमनन्तरविशेषितम्, कुतो, धर्मात्, यत्तदोर्नित्याभिसंबन्धात्
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति : [१६४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
येन कारणेन तेन (त) सामान्येनेच कामरागः कामा इति गाथार्थः ॥ अन्ये पठन्ति-उत्क्रामयन्ति यस्मादिति, श्रामण्यहारि-वृत्तिः ट्राअन चाबुधजन एव विशेष्यः, शेषं पूर्ववत् ॥ १६४ ॥
&पूर्वकाध्य. अन्नंपिय से नाम कामा रोगत्ति पंडिया विति । कामे परमाणो रोगे पत्थेइ खलु जंतू ।। १६५ ।।
कामस्य प॥८६॥
व्याख्या-अन्यदपि च 'एषां कामानां नाम, किंभूतमित्याह-कामा रोगा 'इति' एवं पण्डिता ब्रुवते, कि-13 मित्येतदेवमत आह-कामान् प्रार्थयमान:-अभिलषन् रोगान् प्रार्थयते खलु जन्तुः, तद्रूपत्वादेव, कारणे का
निक्षेपाः कार्योपचारादिति गाथार्थः ॥ १६५ ॥ इत्थं पूर्वार्धे सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमभिधायाधुनोत्तरार्धे पदावयवमधिकृत्याह
णामपयं ठवणपर्य दम्बपर्य चेव होइ भावपयं । एकपिय एत्तो रोगविहं होइ नायव्यं ॥ १६६ ॥ व्याख्या-नामपदं स्थापनापदं द्रव्यपदं चैव भवति भावपदम् , एकैकमपि च 'अत' एतेभ्योऽनेकविधं भवति ज्ञातव्यमिति गाथासमासार्थः ॥ १३ ॥ अवयवार्थे तु नामस्थापने क्षुण्णत्वादनाहत्य द्रव्यपदमभिधित्सुराह
आउट्टिमउचिन्न उणेजं पीलिमं च रंगं च । गंथिमवेढिमपूरिम वाइमसंघाइमळेज ।। १६७।। व्याख्या-आकोटिम जहा रूवओ हेट्ठा वि उवरिं पि मुहं काऊण आउडिजति, उत्कीर्ण शिलादिषु ना१ बाहिकं यथा रूप्यकोचसादपि उपर्यपि मुखं कृत्वाऽअकुल्यते.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
मकादि, तहा पउलादिपुप्फसंठाणाणि चिक्खिल्लमयपडियिंवगाणि काउं पचंति, तओ तेसु बग्घारित्ता म-8 यणं छुम्भति, तओ मयणमया पुष्फा हवन्ति, एतदुपनेयम्, पीडावच्च-संवेष्टितवस्त्र भावलीरूपं, रत्तावयवच्छविविचित्तरूवं रझं, चः समुच्चये, 'अथितं मालादि, 'वेष्टिम' पुष्पमयमुकुटरूपं, चिकिखल्लमयं कुण्डिकारूपं अणेगच्छिदं पुप्फथामं पूरिम, वातव्यं कुविन्दैवस्त्रविनिर्मितमश्वादि, संघात्यं-कञ्चकादि, छेद्य-पत्रच्छेद्यादि। पदता चास्य पद्यतेऽनेनेत्यर्थयोगात्, द्रव्यता च तद्रूपत्वादिति गाथाः ॥ १६७ ।। उक्तं द्रव्यपदम्, अधुना भावपदमाह
भावपर्यपि य दुविई अवराहपयं च नो व अवराई । नोअबराह दुविहं माउगनोमाउगं चेव ।। १६८॥ व्याख्या-भावपदमपि च द्विविधम् , द्वैविध्यमेव दर्शयति-अपराधहेतुभूतं पदमपराधपदम्-इन्द्रियादि| वस्तु, चशब्दः खगतानेकभेदसमुचयार्थः, 'णोअवराहति चशब्दस्य व्यवहितोपन्यासानोअपराधपदं च, मचः पूर्ववत्, नोअपराधमिति-नोअपराधपदं द्विविधम्-'माउअ नोमाउअंचेव'त्ति मातृकापदं नोमातृका
पदं च, तत्र मातृकापदं-मातृकाक्षराणि, मातृकाभूतं वा पदं मातृकापदं, यथा दृष्टिवादे "उप्पन्ने इ वा" इत्यादि, नोमातृकापदं त्वनन्तरगाथया वक्ष्यतीति गाथार्थः ॥ १६८॥
१ तथा अकुलाविपुष्पसंस्थानानि कर्दममयप्रतिबिम्बानि कृत्वा पच्यन्ते ततस्तेषु उनी कृत्य मदनं क्षिप्यते, ततो मदनमयानि पुष्पाणि भवन्ति, २ रकावयरच्छविविचित्ररूपम्, ३ कर्दनमयं कृषिटकारूपम् अनेकच्छिदं पुष्पस्थानम्,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१६९], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
दीप अनुक्रम
दशवैका० नोमाउगपि दुविहं गद्वियं च पइन्नयं च बोद्धव्वं । गहियं चउप्पयारं पइन्नग होइ[४] ग्रेगविहं ॥ १६९ ॥
श्रामण्यहारि-वृत्तिः व्याख्या-नोमाउयंपि' सिनोमातृकापदमपि द्विविधम् , कथमित्याह-'ग्रथितं च प्रकीर्णकं च योद्धव्यम्' पूर्वकाध्य.
ग्रथितं रचितं वद्धमित्यनर्थान्तरम्, अतोऽन्यत्प्रकीर्णक-प्रकीर्णककथोपयोगिज्ञानपदमित्यर्थः, ग्रथितं चतुष्पकारं- पदनि
गद्यादिभेदात्, प्रकीर्णकं भवत्यनेकविधम्, उक्तलक्षणवादेवेति गाथार्थः ॥ १६९ ॥ प्रथितमभिधातु- क्षेपाः Mकाम आह
गर्ज पर्ज गेयं चुणं च चउल्विहं तु गहियपयं । तिसमुहाणं सव्वं इइ बेंति सलक्षणा करणी ।। १७० ॥ महुरं हेउनि जुलै गहियमपायं विरामसंजुत्तं । अपरिमियं चऽवसाणे कव्वं गज ति नायथ्यं ॥ १७१ ॥ पज तु होइ तिविहं सममद्धसमं च नाम विसमं च । पाएहि अक्खरेहि व एव विहिण्णू कई बेति ।। १७२ ।। तंतिसमं तालसमं वण्णसमं गहसमं लयसमं च । कव्वं तु होइ गेयं पंचविहं गीयसनाए ॥ १७३ ॥
अत्थबहुलं महत्थं हेउनिवाओवसग्गगंभीरं । बहुपायमवोच्छिन्नं गमणयसुद्धं च चुण्णपयं ।। १७४ । नोअवराहपर्य गर्व व्याख्या-गयं पयं गेयं चौर्ण च चतुर्विधमेव अथितपदम्, एभिरेव प्रकारैर्ग्रथनात्, एतच त्रिभ्यो धर्मापर्थकामेभ्यः समुत्थान-तद्विषयत्वेनोत्पत्तिरस्येति त्रिसमुत्थानं 'सर्व' निरवशेषम्, आह-एवं मोक्षसमुत्था
नस्य गद्यादेरभावप्रसङ्गः, न, तस्य धर्मसमुत्थान एवान्तर्भावात, धर्मकार्यत्वादेच मोक्षस्येति, लौकिकपद-II॥ ७॥ लक्षणमेवैतदित्यन्ये, अतस्त्रिसमुत्थानं सर्वम् , 'इई' एवं ब्रुवते 'सलक्षणा' लक्षणज्ञाः कवय इति गाथार्थः ॥१७०।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
गद्यलक्षणमाह-'मधुर' सूत्रार्थोभयैः श्रव्यम् 'हेतुनियुक्तं सोपपत्तिकम् 'ग्रथितं' बद्धमानुपूा 'अपादं विशिष्टच्छन्दोरचनायोगात्पादवर्जितम् विरामः-अवसानं तत्संयुक्तमर्थतो न तु पाठतः इत्येके, जहा-जिणवरपादारविंदसंवाणिजरुणिम्मल्लसहस्स एवमादि असमाणि न चिहइत्ति, यतिविशेषसंयुक्तं अन्ये, अप-10 रिमितं चावसाने बृहद्भवतीत्येके, अन्ये त्वपरिमितमेव भवति बृदित्यर्थः, अवसाने मृदु पठ्यत इति शेषः, काव्यं गद्यम् , 'इति' एवंप्रकारं ज्ञातव्यमिति गाथार्थः ॥ १७१ ॥ अधुना पचमाह-पद्यं तु, तुशब्दो विशेषणार्थः, भवति 'त्रिविधं त्रिप्रकार, सममर्धसमं च नाम विषमंच, कैः सममित्यादि, अब्राह-पादैरक्षरैश्च, पादैः चतुःपादादिभिरक्षरैः गुरुलघुभिा, अन्ये तु व्याचक्षते-समं यत्र चतुर्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्ध-15 समं यत्र प्रथमतृतीययोतिीयचतुर्थयोश्च समान्यक्षराणि, विषमं तु सर्वपादेष्वेव विषमाक्षरमित्येवं विधिज्ञा छन्दःप्रकारज्ञाः कवयो ब्रुवत इति गाथार्थः ॥ १७२ ॥ अधुना गेयमाह-तश्रीसमं तालसमं वर्णसमं ग्रहसमं । लयसमं च काव्यं तु भवति, तुशब्दोऽवधारणार्थ एव, गीयत इति गेयं, 'पञ्चविधम्' उक्तैर्विधिभिः 'गीतसंज्ञायां' गेयाख्यायाम्, तत्र तत्रीसम वीणादितन्त्रीशब्देन तुल्यं मिलितंच, एवं तालादिष्वपि.योजनीयम. नवरं ताला-हस्तगमाः, वर्णा-निषादपञ्चमादयः, ग्रहा-उत्क्षेपाः, प्रारम्भरसविशेषा इत्यन्ये, लया:-तनीखन-C
१ यथा जिनवरपादारविन्दसदानितोगनिर्मलसहन एवमायसमाप्य न तिष्ठति.
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सूत्रांक / गाथांक
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अनुक्रम [६]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| निर्युक्ति: [ १७४], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशबैकro हारि-वृत्तिः
|| ૮૮ ॥
Education
| विशेषाः । तत्थं किल कोणएण तंती छिप्पड़ तओ हेहि अणुमज्जिज्जइ, तत् अण्णारिसो सरो उट्ठेइ, सो लयो ति गाथार्थः ॥ १७३ ॥ साम्प्रतं चौर्ण पदमाह- अर्थों बहुलो यस्मिंस्तदर्थबहुलम्, 'कचित्प्रवृत्तिः कचिदप्रवृत्तिः, कचिद्विभाषा कचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य, चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ॥ १ ॥ ततवैभिः प्रकारैर्वहर्थम्, महान प्रधानो हेयोपादेयप्रतिपादकत्वेनार्थी यस्मिंस्तन्महार्थम्, 'हेतुनिपातोपसर्गभीरम्' तत्रान्यथाऽनुपपत्तिलक्षणो हेतु:, यथा-मदीपोऽयमश्वो विशिष्टचिहोपलक्षितत्वात्, चवाखल्वादयो निपाताः पर्युतसमवादय उपसर्गाः, एभिरगाधम्, 'बहुपादम्' अपरिमितपादम् 'अव्यवच्छिन्नं' लोकवनिरामरहितम्, गमनयैः शुद्धम्, गमाः तदक्षरोचारणप्रवणा भिन्नार्थाः, यथा 'इह खलु छजीवणिया० कयरा खलु सा छज्जीवणिया०' इत्यादि, नयाः - नैगमादयः प्रतीताः, तुरवधारणे, गमनयशुद्धमेव चौर्ण पदं ब्रह्मचर्याध्ययन पदवदिति गाधार्थः ॥ १७४ ॥ उक्तं ग्रथितं प्रकीर्णकं लोकादवसेयम्, उक्तं नो अपराधपदम् अधुना
अपराधपदमाह -
इंदियविसयकसाया परीसदा बेयणा य उवसग्गा । एए अवराहपया जत्थ वितीयंति दुम्मेहा ॥ १७५ ॥ व्याख्या - इन्द्रियाणि-स्पर्शनादीनि विषयाः-स्पर्शादयः कषायाः क्रोधादयः इन्द्रियाणि चेत्यादिद्वन्द्वः, 'परीषहाः' क्षुत्पिपासादयः 'वेदना' असातानुभवलक्षणा उपसर्गा-दिव्यादयः, एतानि 'अपराधपदानि' १ तत्र किल कोणकेन तत्री स्पृश्यते, ततो नखैरनुभ्यते, तत्रान्यादृशः खर उत्तिष्ठते, राज्य इति २ इह खलु षड्जीवनिका कतरा खसा पड्जीवनिका.
अपराधपदस्य वर्णनं क्रियते
Fore&Personal Use City
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२ श्रामण्य
पूर्वकाध्य०
पदनिक्षेपाः
॥ ८८ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
मोक्षमार्ग प्रत्यपराधस्थानानि, 'यत्र' येष्विन्द्रियादिषु सत्सु विषीदन्ति आ(अव)वध्यन्ते, किंसर्व एव?, नेत्याह
-दुर्मेधसः क्षुल्लकवत्, कृतिनस्तु एभिरेव कारणभूतैः संसारकान्तारमुत्तरन्तीति गाथार्थः ॥१७॥ क्षुल्लकस्तु पदे पदे विषीदन् संकल्पस्य वशं गतः, कोऽसौ खुल्लओ त्ति?, कहाणयं-कुंकुणओ जहा एगो खंतो सपुत्तो पब्वइओ, सो य चेल्लओ तस्स अईव इट्टो, सीयमाणो य भणइ-खंता! ण सकेमि अणुवाहणो हिंडिलं, अणुकंपाए खंतेण दिण्णाओ उवाहणाओ, ताहे भणइ-उवरितलासीएणं फुदंति, खल्लिता से कयाओ, पुणो भणइ-४ सीसं में अईव डज्झइ, ताहे सीसवारिया से अणुण्णाया, ताहे भणह-ण सकेमि भिकखं हिंडिलं, तो से प-14 डिसए ठियस्स आणेइ, एवं ण तरामि खंत! भूमिए सुविउं, ताहे संथारो से अणुण्णाओ, पुणो भणइ-ण तरामि खंता लोयं काउं, तो खुरेण पकिल्जियं, ताहे भणइ-अण्हाणयं न सकेमि, तओ से फासुयपाणएण कप्पो| दिजइ, आयरियपाउग्गं वत्थजुयलयं धिप्पड़, एवं जं जं भणइ तं तं सो खंतोणेहपडिबडो तस्सणुजाणइ, एवं काले गच्छमाणे पणिओ-न तरामि अविरइयाए विणा अच्छिउँ खंतत्ति, ताहे खंतो भणइ-सढो, अजो
१ क्षुल्लक इति ?, कथानकम्-कोकणकः वथा एको श्रद्धः सपुत्रः प्रबजितः, स च क्षुलकः तस्यातीचेष्टः, सीदंश्च भणति-वृद्ध ! न शक्रोमि भनुषानरको हिण्डितुमनुकम्पया वृद्धेन दत्तो उपानहौ, तदा भणति-उपरितली शीतेन स्काटयतः, खल्यौ तस्य कृते, पुनर्भणति-शोष मे अतीव दह्यते, तदा शीर्घद्वारिका तस्मायनुज्ञाता, तदा भणति-न शक्नोमि भिक्षा हिण्डितुं, ततस्तस्य प्रतिश्रये स्थितस्य आनयति, एवं न शक्रोमि वृद्ध! भूमौ सतुम, तदा संस्तारकः तस्य अनुज्ञातः, पुनर्भणतिन शक्रोमि पद! लोचं कर्तुं, ततः क्षुरेण प्रकृतं, तदा भवति-अमानतां न शक्नोमि, ततस्तस्य प्रामुकरानकेन कल्यं ददाति, आचार्यप्रायोग्य वन युगलकं गृह्यते, एवं यद् समयति तत्तत् स वृद्धः स्नेह प्रतिबद्धः तस्यानुजानाति, एवं काले गच्छति प्रभनतिन शक्रोमि अविरतिकया विना स्थातुं वृद्ध ! इति, तदा युद्धो भणति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||१|| नियुक्ति : [१७५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
दशवैका गोसि काऊण पडिसयाओ णिप्फेडिओ, कम्म कार्ड ण याणेइ, अयाणतो खणसंखडीए धाणिं काउं अजिण्णेण श्रामण्यहारि-वृत्तिःमओ, विसयविसट्टो मरि महिसो आयाओ, वाहिज्जइ य, सो य खंतो सामण्णपरियागं पालेऊण आउकखए पूर्वकाध्य.
कालगओ देवेसु उबवण्णो, ओहिं पउंजइ, ओहिणा आभोएऊण तं चेल्लयं तेण पुवणेहेणं तसिं गोहाणं हत्यओ संकल्पककिणइ, वेउब्धियभंडीए जोएइ, वाहेइ य गरुग, तं अतरंतो वोढुं तोत्तएण विधेउं भणइ-ण तरामि खंता!
क्षुल्लको |भिक्खं हिण्डि, एवं भूमीए सयणं लोपं काउं एवं ताणि वयणानि सवाणि उच्चारेइ जाब अविरययाए विणा न तरामि खंतत्ति, ताहे एवं भर्णतस्स तस्स महिसस्स इमं चित्तं जायं-कहिं एरिसं वकं सुअंति, ताहे ईहावुहमग्गणगवेसणं करेइ, एवं चिंतयंतस्स तस्स जाईसरणं समुप्पन्नं, देवेण ओही पउत्ता, संबुद्धो, पच्छा भत्तं पचक्खाइत्ता देवलोगं गओ। एवं पए पए विसीदन्तो संकप्पस्स वसं गच्छह, जम्हा एस दोसो तम्हा अट्ठारससीलंगसहस्साणं सारणाणिमित्तं एए अवराहपए वज्जेज । तथा चाह
१.शठः, अयोग्य इतिकृत्वा प्रतिश्रयात् निष्कासितः, कर्म कर्तुन जानाति, अजानन् क्षणसंखण्डयां प्राणि कृत्वाऽजीर्णेन मृतः, विषयविषातों मृत्वा महियो जातः, बाह्यते थ, सच पद्धः श्रामण्यपर्याय पालयित्या आयुक्षये कालगतो देवे घूत्पन्नः अवधि प्रयुपकि, अवधिना आभोगयित्वा द शुजकं तेन पूर्वस्नेहेन तेषां गोधान्दो
हखात् कोणाति, वैकिवगमया योजयति, वाहयति व गुरुकतं अवाकुवन्तं बोई तोत्रकेण वेधयित्वा भणति न शक्रोमि वृद्ध! भिक्षा हिण्डितुम् , एवं भूमी शयनं, लोचं *कर्तुम , एवं तानि बचनानि सर्वाणि उच्चारयति, याचदविरतिकया बिना न मानोमि वृद्धति, तदा एवं भणतस्वस्थ महिपस्य इदं चित्तं जातं-कृष। एतादर्श वाक्यं । Kातमिति, तदा देहापोहमार्गणगवेषणाः करोति, एवं चिन्तयतस्तस्य जातिभरणं समुत्प, देवेनावधिः प्रयका संबद्धः पक्षात् भर्फ प्रवाश्याय. देवलोक गत९ि ॥ Hएवं पदे पदे विषीदन् संकल्प वर्श गच्छति, मसात् एष दोषः तस्मादष्टादशीलासहसाणा सरणनिमित्तं एतानि अपराधपदानि बजयत,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७६], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
अट्ठारस उ सहरसा सीलंगाणं जिणेहिं पन्नत्ता । तेस पडि(रि)रक्खणा अवराहपए उ बोशा ।। १७६ ॥ व्याख्या-अष्टादश सहस्राणि, तुरवधारणे, अष्टादशैव, शीलं-भावसमाधिलक्षणं तस्याङ्गानि-भेदाः कार-19 दणानि वा शीलाङ्गानि तेषां जिनैः प्राग्निरूपितशब्दाथै: 'प्रज्ञप्तानि' प्ररूपितानि, 'तेषां शीलाङ्गानां 'परिर-8
क्षणार्थ'परिरक्षणनिमित्तम् 'अपराधपदानि' प्राग्निरूपितस्वरूपाणि 'वर्जयेत्' जह्यादिति गाथार्थः ॥१७६ ॥ साम्मतं शीलाङ्गसहस्रप्रतिपादनोपायभूतमिदं गाथासूत्रमाह
जोए करणे सन्ना इंदिय भोमाइ समणधम्मे य । सीलंगसहस्साणं अट्ठारसगस्स निष्फत्ती ॥ १७४ ।। सामण्णपुब्वयनिजुत्ती समत्ता ॥२॥ र व्याख्या-तस्थ ताव जोगो तिविहो, कायेण वायाए मणेणं ति, करणं तिविहं-कयं कारियं अणुमोइयं, सन्ना
चउव्विहा, तंजहा-आहारसपणा भयसपणा मेहुणसपणा परिग्गहसण्णा, इंदिए पंच, तंजहा-सोइंदिए चम्खिदिए घाणिदिए जिभिदिए फासिदिए, पुढविकाइयाइया पश्च, बेइंदिया जाव पंचेंदिया अजीबनिकायपंचमा,स-10 मणधम्मो दसविहो, तंजहा-खंती मुत्ती अजवे महवे लाघवे सचे तवे संजमे य आकिंचणया बंभचेरवासे ।
CAR
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तत्र तावद्योगनिविधः-कायेन वाचा मनसेति, करणं त्रिविध-कृतं कारितमनुमोदितं, संज्ञा चतुर्विषा, तयथा-आहारसंक्षा भवसंझा मैथुनसंज्ञा परिमह-18 संज्ञा, इन्द्रियाणि पक्ष, तयथा-श्रोत्रेन्द्रियं चहुरिन्द्रियं प्राणेन्दियं जिलेन्द्रियं स्पर्शनेन्द्रिय, पृथ्वीकाविकादयः पञ्च, दीन्द्रिया यावत् पश्चेन्द्रियाः अजीवनिकायपश्चमाः, धमणधर्मी दशविधः, तद्यथा-शान्तिर्मुक्तिराजवं मादेने लापर्व सहा तपः संयमध अकिमानता माचर्यवासः,
"अष्टादश सहस्राणि शिलांग"स्य वर्णनं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||१|| नियुक्ति: [१७७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||१||
॥९
॥
दीप अनुक्रम
दशवैका एसा ठाणपरूवणा, इयाणिं अट्ठारसहं सीलंगसहस्साणं समुकित्तणा-काएणं न करेमि आहारसन्नाप- श्रामण्यहारिवृत्ति डिविरए सोइंदियपरिसंवुडे पुढविकायसमारंभपडिविरए खंतिसंपजुत्ते, एस पढमो गमओ १, इयाणिं पूर्वकाध्य.
[विइओ भण्णइ-काएणण करेमि आहारसपणापडिविरए सोइंदियपरिसंवुढे पुढविकायसमारंभपडिविरुए मुत्ति-१८ स.
|संपजुत्ते, एस बीइओगमओ, इयाणिं तइयओएवं एएण कमेण जाव दसमो गमओ बंभचेरसंपउत्सो, एस दस- शीलाङ्गानि ट्रमओ गमओ । एए दस गमा पुढचिकायसंजर्म अमुचमाणेण लद्धा, एवं आउकाएणवि दस चेच, एवं जाव अ-13
जीवकाएणवि दस चेव, एवमेयं अणूणं सयं गमयाणं सोइंदियसंवुडं अमुचमाणेण लळू, एवं चकिंखदिएणवि सर्य, धार्णिदिएणवि सयं, जिन्भिदिएणवि सयं, फासिदिएणवि सयं, एवमेयाणि पंच गमसयाणि आहारसण्णापडिविरयममुंचमाणेणं लद्धवाणि, एवं भयसपणाएविपंच सयाणि, मेहुणसपणाएवि पंचसयाणि, परिग्गह
एषा स्थानप्ररूपणा, इदानी अष्टायाना धौलांसहस्राणां समुत्कीर्तना-कायेन न करोमि भाचारसंशापतिविरतः धोत्रेन्नियतः पृथ्वीकायसमारम्भप्रति| विरतः शान्तिसंप्रयुक्तः, एष प्रथमो गमः, इदानी द्वितीयो भव्यते-कायेन न करोमि भादारसंशाप्रतिपिरतः ओमेन्द्रियसंवतः पृथ्वीकायसमारम्भप्रतिविरतः मुक्तिसंप्रयुक्तः एष द्वितीयो गमः,इदानीं तृतीयः, एवमेतेन क्रमेण यावदशमो गमः ब्रह्मचर्यसंप्रयुक्तः एष दयामो गमः, एते दश गमाः पृथ्वीकायसंयमममुपता लन्भार, एवमकायेनाऽपि दीव, एवं यावदजीवकायेनापि दशैष, एवमेतत् अनून शतं गमकाना श्रोत्रेन्द्रियसंघृतममुखता सम्धम् , एवं वधुरिन्द्रियेणापि शतं, प्राणेन्द्रियेणापि शतं, जिडेन्दियेणापि शतं, स्पर्शनेन्द्रियेगापि शत, एवमेतानि पाश गभशतानि याहारसंझापतिविरतममुचता सन्मानि, एवं भयसंज्ञयाऽपि पञ्च शतानि मैथुन
G ॥९ ॥ संत्रयाऽपि पश्च शतानि परिग्रहवापि
JamEscahani
सूत्रकारकृत् त्यागी-अत्यागिनाम् व्याख्या
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं+निर्युक्तिः+ भाष्य + वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [१७७], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दश. १६
सण्णापवि पंच सयाणि, एवमेयाणि वीसं गमसयाणि ण करेमि अमुञ्चमाणेण लद्धाणि, एवं ण कारवेमित्ति वीसं सयाणि, करंतंपि अन्नं न समणुजाणामित्ति वीसं सपाणि, एवमेयाणि छ सहस्साणि कार्य अमुंचमाणेण लद्धाणि, एवं वायाएचि छ सहस्साणि, एवं मणेणचि छ सहस्साणि । एवमेतेन प्रकारेण शीलाङ्गसहत्राणामष्टादशकस्य निष्पत्तिर्भवतीति गाथार्थः ॥ १७७ ॥ न केवलमयमधिकृतसूत्रोक्तः उक्तवच्छ्रामण्याकर णादश्रमणः किन्त्वा जीविकाद्विभयप्रव्रजितः संक्लिष्टचित्तो व्यक्रियां कुर्वन्नप्यश्रमण एव अत्याग्येव, कथम् ?, यत आह सूत्रकारः
गंधमलंकार, इत्थीओ सयणाणि य । अच्छंदा जे न भुंजंति, न से चाइत्ति वुच्च ॥२॥ अस्य व्याख्या- 'वगन्धालङ्कारानिति, अत्र वस्त्राणि चीनांशुकादीनि गन्धाः- कोष्ठपुटादयः अलङ्काराः -कटकादयः, अनुखारोऽलाक्षणिकः, स्त्रियोऽनेकप्रकाराः, 'शयनानि पर्यङ्कादीनि चशब्द आसनाद्यनुक्तसमुच्चयार्थः, एतानि वस्त्रादीनि किम् ?, 'अच्छन्दाः' अस्ववशा ये केचन 'न भुञ्जते' नासेवन्ते, किं बहुवचनोदेशेऽप्येकवचननिर्देश: ?, विचित्रत्वात्सूत्रगतेर्विपर्ययश्च भवत्येवेतिकृत्या, आह- 'नासौ व्यागीत्युच्यते' सुबन्धुवन्नासी भ्रमण इति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ कः पुनः सुबन्धुरिति, अत्र कथानकम् जया णंदो चंद्रगुत्तेण
१ पद्म शतानि एवमेतानि विंशतिर्गमशतानि न करोमीति अनुसता लम्पानि एवं न कारयामीति विद्यातिः शतानि कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुज्ञानाभीति विंशतिः शतानि एवमेतानि षट् सहसान कायममुचता उच्धानि एवं वाचाऽपि षद् सहस्राणि, एवं मनसाऽपि पद सहस्राणि यदा नन्दन्द्रसेन
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [२] उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [ १७७...]. भाष्यं [V...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ ९१ ॥
पिच्छे हो, तया तस्स दारेण निगच्छंतस्स दुहिया चंदगुत्ते दिहिं बंधेइ, एयं अक्खाणयं जहा आवस्सए जाव बिंदुसारो राया जाओ, नंदसंतिओ य सुबंधू णाम अमचो, सो चाणकस्स पदोसमावण्णो छिद्दाणि मग्गह, अण्णा रायाणं विष्णवे - जइवि तुम्हे अम्हें वित्तं ण देह तहावि अम्हेहिं तुम्ह हियं वक्तव्यं, भणियं च तुम्ह माया चाणक्केण मारिषा, रण्णा धाई पुच्छिया, आमंति, कारणं ण पुच्छियं, केणवि कारणेण रण्णो य सगासं चाणक्को आगओ, जाय दिहिं न देई ताव चाणक्को चिंतेह-रुद्धो एस राया, अहं गयाओत्तिकाडं दव्वं पुत्तपत्ताणं दाऊणं संगोबित्ता य गंधा संजोइआ, पत्तयं च लिहिऊण सोऽवि जोगो समुग्गे छूढो, समुग्गो य चउसु मंजूसासु छूढो, तासु छुभित्ता पुणो गन्धोवरए छूढो, तं बहूहिं कीलियाहिं सुघडियं करेत्ता दब्बजायं णातिवग्गं च धम्मे णिओइत्ता अडवीए गोकुलट्ठाणे इंगिणिमरणं अन्भुवगओ, रण्णा य पुच्छियं
१ निक्षिप्तः (निष्काशितः), तदा तस्य द्वारेण निर्गच्छतो पुत्री चन्द्रगुप्ते दृष्टिं बध्नाति एतदाख्यान यथावश्यके यावद्विन्दुसारो राजा जातः, नन्दसत्कच सुबन्धुनामाऽमालयः स चाणक्ये प्रद्वेषमापन्नः छिद्राणि मार्गयति अन्यदा राजानं विज्ञापयति यद्यपि यूयमस्मभ्यं न दत्थ तथाप्यस्माभिर्युष्माकं हितं वयं भणितं च- युष्माकं माता चाणक्येन मारिता, राक्ष घाश्री पृष्टा, ओमिति कारणं न पृष्टं केनापि कारणेन राइच सकाशं चाणक्य आगतः, यावदृष्टि न ददाति तावचाणक्यः चिन्तयति रुष्ट एष राजा, अहं गतायुरितिकृत्वा द्रव्यं पुत्रपौत्रेभ्यो दस्या संगोप्य च गन्धाः संयोजिताः, पत्रकं च लिखित्या सोऽपि योगः समुद्रे क्षिप्तः, समुद्रव चतरा माषा क्षिप्तः तासु सिल्वा पुनर्गन्धापवरके क्षिप्तः तं बहुभिः कीलिकाभिः सुपटितं कृत्वा द्रव्यजातं ज्ञातिवर्गे धर्मे नियोज्याटव्यां गोकुलस्थाने इङ्गिनीमरणमभ्युपगतवान् राज्ञा पृष्
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१२ श्रामण्य
पूर्वकाभ्य सुबन्धूदाहरणं
०
॥ ९१ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-]/गाथा ||२|| नियुक्ति : [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
||२||
चाणको किं करेइ ?, धाई य से सव्वं जहावत्तं परिकहेइ, गहियपरमत्येण य भणियं-अहो मया असमिक्खियं कयं, सब्बतेउरजोहबलसमग्गो खामेउं निग्गओ, दिट्ठो अणेण करीसमज्झटिओ, खामियं सबहुमाणं, भ|णिओ अणेण-गरं बचामो, भणइ-मए सब्बपरिचाओ कओत्ति । तओ सुबंधुणा राया विष्णविओ-अहं से
पूर्व करेमि अणुजाणह, अणुण्णाए धूवं डहिऊण तंमि चेव एगप्पएसे करीसस्सोवरि ते अंगारे परिहवेइ, सो द्रय करीसो पलित्तो, दह्रो चाणको, ताहे सुबंधुणा राया विषणविओ-चाणकस्स संतियं घरं ममं अणुजाणह,
अणुण्णाए गओ, पवुविक्खमाणेण य घरं विट्ठो अपवरओ घट्टिओ, सुबंधू चिंतेइ-किमवि इत्थत्ति कवाडे भंजित्ता उग्घाडिओ, मंजूसं पासइ, सावि उग्घाडिया, जाव समुग्गं पासइ, मघमघंतं गंधं सपत्तयं पेच्छह, तं पत्तयं वाएर, तस्स य पत्तगस्स एसो अस्थो-जो एयं चुपणयं अग्घाइ सो जइ हाइ वा समालभइ वा अलंकारेइ सीउदगं पिवइ महईए सेजाए सुबइ जाणेण गच्छइ गंधव्वं वा सुणेइ एवमाई अपणे वा इडे
चाणक्यः किं करोति !, भात्री च तस्मै सर्वं यथावसं परिकथयति, ग्रहीतपरमार्थेन च भगित-अहो मया असगीक्षितं कृतं, सन्तःपुरयोधवलसमप्रः क्षमयितुं निर्गतः, स्टोऽनेन करीषमध्यस्थितः, क्षमितं सबहुमाने, माणितमनेन-नगरं ब्रजामः, भणति-मया सर्वपरित्यागः कृत इति । ततः सुबन्धुना राजा विज्ञप्तः -अहं तस्य पूजा करोमि अनुजागीत, अनुज्ञाते धूपं दावा तमिवैकप्रदेशे करीषस्योपरि तामहारान् परिस्थापयति, सच करीषः प्रदीप्तः, दग्धचाणक्यः, तदा सुबन्धुनाराजा विज्ञतःचाणक्यख सकं गृहं महयमनमानीत.अनुज्ञाते गत्ता, प्रत्यक्षमाणेन च गृह रोवरको पहिता, सुबन्धुधिन्तयति-किमप्योति कपाटी, भक्त्वोद्घाटितः, मजूषां पश्यति, साऽप्युपादिता, यावरसमुह पश्यति,मघमघायमानं गन्धं सपत्रकं पश्यति, तं पत्रं वाचयति, तसच पत्रषोऽर्थः- एतचूर्ण | जिप्रति स यदि माति वा समालभते दाऽलधारयति शीतोदक पिबति महलो शय्यायां खपिति यानेन गच्छति गान्धर्व वा शृणोति एवमादीनन्यानपि इथन्
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||३||
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दशका०18 विसए सेवेइ जहा साहुणो अच्छंति तह सो जइ ण अच्छेइ तो मरइ, ताहे सुबंधुणा विण्णासणत्धं अपणो र श्रामण्यहारि-वृत्तिः पुरिसो अग्घावित्ता सहाइणो विसए मुंजाविओ मओ य, तओ सुबंधू जीवियट्ठी अकामो साहू जहा पूर्वकाध्य.
अच्छंतोवि ण साहू । एवमधिकृतसाधुरपि न साधुः, अतो न त्यागीत्युच्यते, अभिधेयार्थाभावात् ॥ सुबन्धू. ॥१२॥ यथा चोच्यते तथाऽभिधातुकाम आह- .
कादाहरणं जे य कंते पिए भोए, लद्धे विपिट्टिकुव्वइ । साहीणे चयई भोए, से हु चाइत्ति वुच्चई ॥३॥ ___ अस्य व्याख्या-चशब्दस्यावधार(णार्थ)त्वात्य एव 'कान्तान् कमनीयान् शोभनानित्यर्थः 'प्रियान्' इष्टान् इह कान्तमपि किश्चित् कस्यचित् कुतश्चिन्निमितान्तरादप्रियं भवति, यथोक्तम्-"उहिं ठाणेहिं संते गुणे णासेजा, तंजहा-रोसेणं पडिनिवेसेणं अकयण्णुयाए मिच्छत्ताभिनिवेसणं" अतो विशेषणं प्रियानिति, 'भोगान् शब्दादीन् विषयान् लब्धान्' प्राप्तान् उपनतानितियावत्, 'विपिट्टिकुवईत्ति विविधम्-अनैकैः प्रकारैःशुभभावनादिभिः पृष्ठतः करोति, परित्यजतीत्यर्थः, स च न बन्धनबद्धः प्रोषितो वा किन्तु? 'खाधीनः' अपरायत्तः स्वाधीनानेव त्यजति भोगान् , पुनस्त्यागग्रहणं प्रतिसमयं त्यागपरिणामवृद्धिसंसूचनार्थम्, भोगग्रहणं तु
विषयान् सेवते यथा साधवस्तिष्ठन्ति तथा स दिन तिवति तदा नियते । तदा सुबन्धुना विन्यासनार्थ (जिज्ञासाथै) पुरुषोऽन्य प्राप्य शब्दादीन् ॥१२॥ विषयान भोजितः मृतब । ततः सुबन्धुभाषितार्थी अकामः साधुर्वथा विष्ठश्नपि न साधुः । २ चतुर्भिः स्थानः रातो गुणानाशयेत्, तद्यथा-रोषेण प्रतिनिवेशेन । अकृतश्तया मिथ्यात्वाभिनिवेशेन.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [२], उद्देशक [ - ], मूलं [ - ] / गाथा || ३ || निर्युक्तिः [ १७७...], भाष्यं [ ४...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
संपूर्ण भोगग्रहणार्थ - त्यक्तोपनतभोगसूचनार्थ वा ततश्च य ईदृश: हुशब्दस्यावधारणार्थत्वात् स एव त्यागीत्युच्यते, भरतादिवदिति । अत्राह-जइ भरहजबुनामाइणो जे संते भोए परिचयंति ते परिचाइणो, एवं ते भणंतस्स अयं दोसो हवइ-जे केऽवि अत्थसारहीणा दमगाइणो फवऊण भावओ अहिंसाइगुणजुत्ते सा - मण्णे अन्या ते किं अपरिचाइणो हवंति ?, आयरिय आह-तेऽवि तिणि रयणकोडीओ परिचऊण पव्व| इया-अग्गी उदयं महिला तिरिण रयणाणि लोगसाराणि परिचइऊण पब्बइया, दिहंतो एगो पुरिसो सुधम्मसामिणो सयासे कट्ठहारओ पन्वइओ, सो भिकखं हिंडतो लोएण भण्णइ एसो कट्टहारओ पव्वइओ, सो सेहत्तेण आयरियं भणइ-ममं अण्णत्थ णेह, अहं न सकेमि अहियासेत्तए, आयरिएहिं अभओ आपुच्छिओ -चचामोत्ति, अभओ भाइ-मासकप्पपाउग्गं खित्तं किं एयं न भवइ ? जेण अत्थक्के अण्णत्थ वचह ?, आयरि| एहिं भणियं जहा सेहनिमित्तं, अभओ भणइ-अच्छह बीसत्था, अहमेयं लोगं उवाएण निवारेमि, डिओ
१] यदि भरतजम्मूनामादयः ये सो भोगान् परित्यजन्ति से परित्यागिनः एवं तब भगतोऽयं दोषो भवति ये केऽपि अर्थसारहीना दमकादयः प्रब्रज्य भावतोऽहिंसादियुके धामण्ये अभ्युद्यताः ते किमपरियागिनो भवन्ति ? आचार्य आहतेऽपि तिम्रो रमकोटी परित्यज्य प्रब्रजिताः -- अनिरुदकं महिला त्रीणि रत्नाने लोकसाराणि परिाज्य प्रत्रजिताः दृष्टान्तः एकः पुरुषः सुधखामिनः सकाशे काष्ठदारकः प्रजजितः स भिक्षां हिण्डमानो लोकेन भण्यते एष काष्ठद्दारकः प्रब्रजितः स शैक्षत्वेनावाने भणति मामन्यत्र नयत, अहं न शक्नोम्पध्यासितुम् आचार्यैरभय आपृष्टो बनाम इति, अभयो भणति – मासकल्पप्रायोग्यं क्षेत्रं किमेतन्न भ बति येनाकाण्डेऽन्यत्र ब्रजथ - आचार्यैर्भणितं यथा शैक्ष निमित्तम्, अभयो भणति - विश्व विश्वस्ताः, अहमेनं लोकमुपायेन निवारणामि, स्थितः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||३|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||३||
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दशवैकाआयरिओ। बिइए दिवसे तिण्णि रयणकोडीओ ठवियाओ, उग्घोसावियं नगरे-जहा अभओ दाणं देइ, श्रामण्यहारि-वृत्तिःलोगो आगओ, भणियं चऽणेण-तस्साहं एयाओ तिपिण कोडिओ देमि जो एयाई तिषिण परिहरइ-अग्गीपूर्वकाध्य.
पाणियं महिलियं च, लोगो भणइ-एएहिं विणा किं सुवन्नकोडिहिं!, अभओ भणइ-ता किं भणह-दमओ- ॥ ९३॥
अग्न्यादित्ति पव्वइओ, जोऽवि णिरत्यओ पव्वइओ तेणवि एयाओ तिणि सुवन्नकोडीओ परिचत्ताओ, सच्चं सामित्यागे त्याद्र ठिओ लोगो पत्तीओ। तम्हा अस्थपरिहीणोऽवि संजमे ठिओ तिपिण लोगसाराणि अग्गी उदयं महिलाओगी काष्ठ|य परिचयंतो चाइत्ति लब्भइ । कृतं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ ३॥
हारोदा. समाइ पेहाइ परिव्ययंतो, सिया मणो निस्सरई बहिद्धा । न सा महं नोवि अहंपि
तीसे, इच्चेव ताओ विणइज रागं ॥४॥ तस्यैवं त्यागिनः 'समया' आत्मपरतुल्यया प्रेक्ष्यतेऽनयेति प्रेक्षा-दृष्टिस्तया प्रेक्षया-दृष्ट्या परि-समन्ताद
१ आचार्यः । द्वितीये दिवसे तिखो रमकोब्धः स्थापिताः, उद्घोषितं नगरे-यथा अभयो दानं ददाति, लोक आगतः, भणितं पानेन-तस्मायहमेतातितोऽपि कोटीददामि य एतानि त्रीणि परिहरति-अमिं पानीय महिलांच, लोको भणति-रविना कि सुवर्णकोटीभिः १, भभयो भणति तदा कि भणथ
। ९३॥ दमक इति प्रबजितः, योऽपि निरर्थकः प्रबजितः तेना बेवास्तिनः सुपर्णकोव्यः परित्यकाः, सर्व खानिन्। स्थितो लोकः प्रवीतः । तस्मादर्थपरिहीनोऽपि संयमे स्थितस्त्रीणि लोकसाराणि.--अमिमुदकं महिलाच परिखजन् खागीति लभ्यते.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं [-]/गाथा ||४|| नियुक्ति : [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||४||
बजतो-गच्छतः परिव्रजतः, गुरूपदेशादिना संयमयोगेषु वर्तमानस्येत्यर्थः, 'स्यात् कदाचिदचिन्त्यत्वात् कर्म-18 गतेः मनो निःसरति 'बहिर्धा' वहिः भुक्तभोगिनः पूर्वक्रीडितानुस्मरणादिना अभुक्तभोगिनस्तु कुतूहलादिना मन:-अन्तःकरणं निःसरति-निर्गच्छति बहिर्धा-संयमगेहाहहिरित्यर्थः। एत्थ उदाहरणम्-जहा एगो रायपुत्तो बाहिरियाए उबट्ठाणसालाए अमिरमंतो अच्छइ, दासी य तेण अंतेण जलभरियघडेण बोलेइ, तओ तेण तीए दासीए सो घडो गोलियाए भिन्नो, तं च अधिई करिति दहण पुणरावती जाया, चिंतियं च | -जे चेव रक्खगा ते चेव लोलगा कत्थ कुविउं सका?। उदगाउ समुज्जलिओ अग्गी किह विज्झयब्वो ॥१॥ पुणो चिक्खलगोलएण तक्खणा एव लहुहत्थयाए तं घडछिडुं दक्कियं । एवं जइ संजयस्स संजमं करेंतस्स ब-15 हिया मणो णिग्गच्छद तत्थ पसत्येण परिणामेण तं असुहसंकप्पछि९ चरित्तजलरक्खणहाए ढक्केयव्वं । केनालम्बनेनेति ?, यस्यां राग उत्पन्नस्तां प्रति चिन्तनीयम्-न सा मम नाप्यहं तस्याः, पृथक्कर्मफलभुजो हि प्रा-10 णिन इति, एवं ततस्तस्याः सकाशाद्व्यपनयेत रागं, तत्त्वदर्शिनो हि सन्निवर्तन्त (स निवर्त्तते) एव, अतत्त्व
दीप अनुक्रम
___ १ अनोबाहरणम्-यथैको राजपुत्रः बाहिरिकायामास्थानसभायामभिरममाणस्तिति, दासी च तेन मार्मेण अमृतपटेन ब्रजति, ततस्तेन तस्सा दास्याः स घटो गोलिकया भिन्नः, तां चाभूतिं कुर्वती रष्ट्वा पुनरावृत्तिर्जाता, चिन्तितं च, य एव रक्षकास्त एव लोठकाः कुन कूजितुं शक्यम् । उदकात् समुपलितोऽभिः कथं विध्यापयितव्यः । ॥१॥ पुनः कर्दमगोलकेन तत्क्षणादेव वहस्ततया तद् घटच्छिदं स्थगितम् । एवं सदि संयतस्य संयम कुवैतो बहिर्मनो निर्गच्छति तत्र प्रास्तेन परिणामेन तदशुभसंकल्पच्छिदं मारित्रजलरक्षणार्थाय स्थगयितव्यम्,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||४|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||४||
SCAM
दीप अनुक्रम
दशवकालदर्शननिमित्तत्वात्तस्येति । तत्थ न सा महं णोऽवि अहंवि तीसेत्ति, एस्थ उदाहरणं-एगो वाणियदारओ, श्रामण्यहारि-वृत्तिः सो जायं उज्झित्ता पब्वइओ, सोय ओहाणुप्पेही भूओ, इमं च घोसेइ-न सा महं णोवि अहंपि तीसे, सोपूर्वकाध्य.
|चिंतेइ-सावि ममं अहंपि तीसे, सा ममाणुरत्ता कहमहं तं छड्डेहामित्तिकाउं गहियायारभंडगणेवस्थो चेवर ॥९४॥का
नसेत्यत्रसंपट्टिओ। गओ अतं गामं जत्थ सा सोद (य) णिवाणतई संपत्तो, तत्थ य सा पुथ्वजाया पाणियस्स आ-16
वणिग्दार
कोदा० गया, सा य साविया जाया पब्बइउकामा य, ताए सो जाओ, इयरो तं न याणइ, तेण सा पुच्छिया-अम-12 गस्स धया किं मया जीवह पा?, सो चिंतेइ-जइ सासहरा तो उपव्ययामि, इयरहा ण, ताए णायं-जहा एस| पव्यजं पयहिउकामो, तो दोथि संसारे भमिस्सामि (मो) त्ति, भणियं चऽणाए-सा अण्णस्स दिण्णा, तओ। सो चिंतिउमारद्धो-सच्चं भगवंतेहिं साहूहिं अहं पाढिओ-जहा ण सा महं णोवि. अहंपि तीसे, परमसंवेग-1
तत्र न सा गम नो भपि अहमपि तस्या इति । अत्रोदाहरणम् -एको वप्पिग्दारकः, स जायामुजिल्ला प्राशितः, स चावधावनायुप्रेक्षी भूतः, इदं घोषयति-मसाममनो अपि अदमपि तस्याः स चिन्तयति-सापि मम अहमपि तस्याः, सा मण्यनुरका कथमई ता खजामीतिला हीताचारभाधनेपथ्य एव संस्थितागतष प्रामं यत्र सा, धोतो (स ) निपानतर्द प्राप्ता तत्र सा पूर्वजाया पानीवावागता, सा चश्राविका आता प्रजितकामा च. तयास शात इतरता न जानाति, तेन सा पुश-अमुकस्य दुहिता किंमूता जीवति वा स चिन्तयति-यदिवासघरा तदोत्सवमामि, इतरधान,सया हात-- यथेष e xn | प्रवज्यां प्रहातुकामः, ततो द्वापि संसारे भ्रमिष्याव इति, भणितं चानया-साऽन्यले दत्ता, ततः स चिन्तयितुमारक्षःखं भगवनिः साधुभिरब पाठितः यथा लि मानसा मम नो अपि अहमपि तस्याः, परमसंवेग
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||५|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक/
गाथांक ||५||
दीप अनुक्रम
मावण्णो, भणियं चणेण-पडिणियत्तामि, तीए वेरग्गपडिओत्ति णाऊण अणुसासिओ 'अणिचं जीवियं का-17 समभोगा इत्तरिया' एवं तस्स केवलिपन्नत्तं धम्म पडिकहेइ, अणुसिहो जाणाविओ य पडिगओ आयरियस-8 गासं पवजाए चिरीभूओ। एवं अप्पा साहारेतब्बो जहा तेणंति सूत्रार्थः ॥ ४॥ एवं तावदान्तरो मनोनिग्र-8 हविधिरुक्ता, न चायं वाह्यविधिमन्तरेण कर्तुं शक्यते अतस्तद्विधानार्थमाह
आयावयाहि चय सोगमल्लं, कामे कमाही कमियं खु दुक्खं । छिंदाहि दोसं विणएज
रागं, एवं सुही होहिसि संपराए ॥५॥ अस्य व्याख्या-संयमगेहान्मनसोऽनिर्गमनार्थम् 'आतापर्य' आतापनां कुरु, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणसमिति न्यायाद्यथानुरूपमूनोदरतादेरपि विधिः, अनेनात्मसमुत्थदोषपरिहारमाह, तथा 'त्यज सौकुमार्य परि-4
त्यज सुकुमारत्वम्, अनेन तूभयसमुत्थदोषपरिहारम् , तथाहि-सौकुमार्यात्कामेच्छा प्रवर्तते योषितां च | मार्थनीयो भवति, एवमुभयासेवनेन 'कामान' प्राग्निरूपितस्वरूपान् 'क्राम उल्लङ्य, यतस्तैः कान्तः क्रान्तमेव दुःखं, भवति इति शेषः, कामनिवन्धनवाहुःखस्य, खुशब्दोऽवधारणे, अधुनाऽऽन्तरकामक्रमणविधिमाहछिन्द्धि द्वेषं व्यपनय रागं सम्यग्ज्ञानबलेन विपाकालोचनादिना, क?, कामेष्विति गम्यते, शब्दादयो हि
मापनः, भणितं चानेन-प्रतिनिवते, तथा वैराग्यपतित इति ज्ञात्वाऽनुशासितः, 'अनिलं जीवितं कामभोगा इत्वराः' एवं सस्मै केवलिप्रज्ञप्तं धर्म कापरिकथयति, अनुखिो शापितच प्रतिगत आचार्यसकाशं प्रत्रयायां स्थिरीभूतः, एमाला धारयितव्यः यथा तेनेति.
[१०]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||६|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||६||
कोदा०
दीप अनुक्रम [११]
दशका०विषया एव कामा इतिकृत्वा । एवं कृते फलमाह-एवम् अनेन प्रकारेण प्रवर्तमानः, किम् ?-सुखमस्या-४२ श्रामण्यहारि-वृत्तिःस्तीति सुखी भविष्यसि, क?-संपराये' संसारे, यावदपवर्ग न प्राप्स्यसि तावत्सुखी भविष्यसि, 'संपराये पूर्वकाध्य०
परीषहोपसर्गसंग्राम इत्यन्ये । कृतं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥५॥ किं च संयमगेहान्मनस एवानिर्गमनार्थमिदं नसेत्यत्र॥ ९५॥ चिन्तयेत् , यदुत
वणिग्दारपक्खंदे जलियं जोइं, धूमकेउं दुरासयं । नेच्छन्ति वंतयं भोत्तुं, कुले जाया अगंधणे ॥६॥ |
अस्य व्याख्या-'प्रस्कन्दन्ति' अध्यवस्यन्ति 'ज्वलितं' ज्यालामालाकुलं न मुर्मुरादिरूपं, कम् ?-'ज्योतिषम् अग्निं 'धूमकेतुं धूमचिहूं धूमध्वजं नोल्कादिरूपं 'दुरासद' दुःखेनासाद्यतेऽभिभूयत इति दुरासदस्तं, है दुरभिभवमित्यर्थः, पशब्दलोपात् न चेच्छन्ति-न च वाञ्छन्ति 'वान्तं भोक्तुं' परित्यक्तमादातुं, विषमिति
गम्यते, के ?-नागा इति गम्यते, किंविशिष्टा इत्याह-कुले 'जाताः समुत्पन्ना अगन्धने । नागानां हि भेदद्वयं-गन्धनाश्चागन्धनाच, तत्थ गंधणा णाम जे डसिए मंतेहिं आकडिया तं विसं वणमुहाओ आवियंति, अगंधणाओ अवि मरणमझयस्संति ण य वंतमावियंति । उदाहरणं दुमपुष्पिकायामुक्तमेव । उपसंहारस्वेवं भावनीयः-यदि तावत्तिर्यशोऽप्यभिमानमात्रादपि जीवितं परित्यजन्ति न च बान्तं भुञ्जते तत्कथमहं जिनवचनाभिज्ञो विपाकदारुणान विषयान् वान्तान् भोक्ष्ये ? इति सूत्रार्थः । अस्मिन्नेवार्थे द्वितीयमुदाहरणम्- ॥९५॥
पतन गधना नाम ये दशा मग्राकृटास्तद्विष वणमुसादापिकन्ति, अगन्धना अपि मरणमध्यवस्यन्ति न च वान्तमापियन्ति इति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||७|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक ||७||
यदा किल अरिटणेमी पब्बइओ तया रहणेमी तस्स जेट्टो भाउओ राइमई उवयरइ, जइ णाम एसा ममं | इच्छिज्जा, सावि भगवई निविष्णकामभोगा, णायं च तीए-जहा एसो मम अज्झोववण्णो, अण्णया य तीए माधयसंजुत्ता पेज्जा पीया, रहनेमी आगओ, मयणफलं मुहे काऊण य तीए बंतं, भणियं च-एयं पेज पियाहि, तेण भणियं-कहं वन्तं पिज्जइ ?, तीए भणिओ-जइ न पिज्जा वंतं तओ अहंपि अरिष्टनेमिसामिणा वंता कहं पिविउमिच्छसि? । तथा ह्यधिकृतार्थसंवाद्यवाह
धिरत्थु ते जसोकामी, जो तं जीवियकारणा । वंतं इच्छसि आवेडं, सेयं ते मरणं भवे ॥७॥ व्याख्या-तत्र राजीमतिः किलैवमुक्तवती-धिगस्तु धिक्शब्दः कुत्सायाम् 'अस्तु' भवतु 'ते' तव, पौरुषमिति गम्यते, हे यशस्कामिन्निति साम्यं क्षत्रियामन्त्रणम्, अथवा अकारप्रश्लेषादयशस्कामिन् !, धिगस्त तव यस्त्वं 'जीवितकारणात् असंयमजीवितहेतोः वान्तमिच्छस्यापातुं-परित्यक्तां भगवता अभिलषसि भोतुम् , अत उत्क्रान्तमयोदस्य 'श्रेयस्ते मरणं भवेत् शोभनतरं तव मरणं, न पुनरिदमकार्यासेवनमिति सू
दीप अनुक्रम
[१२]
यदा किलारिनेमिः प्रमजितः तदा स्थने मिस्तस्य ज्येष्डो मासा राजीमतीमुपचरति, यदि मामैया मामिच्छेन, सापि भगवती निर्विणकामभोगा, हातं च तया-बर्थप मवि अध्युपपमः। अन्यदा च तया मथपतसंबक्का पेया पीता, रचनेमिरागतः, मदनफल
प्रतसंबका पेया पीता, रखनेमिरागतः, मदनफले मुखे कृत्वा व तया वान्त, भणितं च--एना पेयां पिब, तेन । भणितम्-कथं वान्त पीयते ?, तया भणित:---यदि न पीवते वान्तं तदाऽहमपि अरिष्टनेमिखामिना वान्ता कथं पातुमिच्छसि १.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/ गाथा ||७|| नियुक्ति: [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक/
पूर्वकाध्य रथने मिबोधः
गाथांक
दशवकावार्थः ॥ तओ धम्मो से कहिओ, संवुद्धो पब्बइओ य, राईमईवि तं बोहेऊणं पम्वइया । पच्छा अन्नया कयाइ हारि-वृत्तिः सो रहनेमी वारवईए भिक्खं हिंडिऊणं सामिसगासमागच्छन्तो वासबद्दल एण अब्भाहओ एक गुहं अणु-
प्पविट्ठो । राईमईवि सामिणो बंदणाए गया, बंदित्ता पडिस्सयमागच्छइ, अंतरे य वरिसिउमादत्तो, तिता ॥९६ ॥
य (भिन्ना) तमेव गुहमणुप्पचिट्ठा-जत्थ सो रहनेमी, वत्थाणि य पविसारियाणि, ताहे तीए अंगपचंग दि8, सो रहणेमी तीए अज्झोयवन्नो, दिट्ठो अणाए इंगियागारकुसलाए य णाओ असोहणो भावो एयस्स । ततो|ऽसाविदमवोचत
अहं च भोगरायस्स, तं चऽसि अंधगवण्हिणो । मा कुले गंधणा होमो, संजमं निहुओ चर ॥८॥ जइ तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीओ । वायाविडुव्व हडो, अटिअप्पा भविस्ससि ॥९॥ तीसे सो वयणं सोच्चा, संजयाइ सुभासियं ।
अंकुसेण जहा नागो, धम्मे संपडिवाइओ॥ १०॥ एवं करति संबुद्धा, पंडिया पवि१ ततो धर्मसी कथितः, संबुद्धः प्रबजितच, राजीमयपि तं बोधयित्वा प्रजिता । पश्चादन्यदा कदाचित स रचनेनिहारिकायां मिक्षां हिण्डवित्या खानिसकाशमायछन्, वर्षायादलेनाभ्यात एकां गुफा अनुप्रविष्टः, राजीमलपि स्वामिनो वन्दनाय गता, पन्दित्वा प्रतिध्यमागच्छति, अन्तरा प वर्षितुमारब्धः, मित्रा (किमा) सामेक गुफामनुप्रविष्टा, यत्र स रथने मिः, बत्राणि च प्रबिसारितानि । तदा तथा अप्रानि दृष्टानि, स रथनेमिस्तस्यामप्युपपनो, इष्टोऽनया, इशिताकारकुशलयाचज्ञातोऽशोभनो भाय एतस्य.
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दीप अनुक्रम
[१२]
NCar
हा।।९६॥
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सूत्रांक/
गाथांक
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दीप
अनुक्रम
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:+भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + अध्ययनं [२], उद्देशक [ - ], मूलं [ - ] / गाथा || ११ || निर्युक्ति: [ १७७...], भाष्यं [४ ...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
बुश. १७
यक्खणा । विणियति भोगेसु, जहा से पुरिसुत्तमो ॥ ११ ॥ तिमि ॥ सामन्नपुव्वियज्झयणं समत्तं ॥ २ ॥
अहं च भोगराज्ञः-उग्रसेनस्य, दुहितेति गम्यते, त्वं च भवसि अन्धकवृष्णे ः- समुद्रविजयस्य, सुत इति गम्यते, अतो मा एकैकप्रधानकुले आवां गन्धनी भूव, उक्तं च- 'जह न सप्पतुल्ला होमुत्ति भणियं होइ' अतः संयमं निभृतश्वर-सर्वदुःखनिवारणं क्रियाकलापमव्याक्षिप्तः कुर्विति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ किञ्च यदि त्वं करिष्यसि भावम्-अभिप्रायं प्रार्थनामित्यर्थः, क ? - या या द्रक्ष्यसि नारी:- स्त्रियः, तासु तासु एताः शोभना एताश्राशोभना अतः सेवे काममित्येवंभूतं भावं यदि करिष्यसि ततो वाताविद्ध इव हड: वातप्रेरित इवाबद्धमूलो वनस्पतिविशेषः अस्थितात्मा भविष्यसि, सकलदुःखक्षयनिबन्धनेषु संयमगुणेष्व[ प्रतिबद्धमूलत्वात् संसारसागरे प्रमादपवनप्रेरित इतश्चेतश्च पर्यदिष्यसीति सूत्रार्थः ॥९॥ 'तस्याः' राजीमत्या 'असी' रथनेमिः 'वचनम्' अनन्तरोदितं 'श्रुखा' आकर्ण्य, किंविशिष्टायास्तस्याः १ - 'संयतायाः ' मत्रजिताया इत्यर्थः, किंविशिष्टं वचनम् ?'सुभाषितं' संवेगनिबन्धनम्, अङ्कुशेन यथा 'नागो' हस्ती एवं धर्म संप्रतिपादित धर्मे स्थापित इत्यर्थः, केन ?| अङ्कुशतुल्येन वचनेन । 'अङ्कुशेन जहा नागो' त्ति, एत्थ उदाहरणं- बसंतपुरं नयरं, तत्थ एगा इन्भण्हुया नदीए १ थान (गन्धन) सर्पतुल्यी भवाय इति भणितं भवति. २ यथा नाग इति, अत्रोदाहरणं, बसन्तपुरं नगरं तत्रैववधूनयां नाति, अन्यच तरुणस्तां दृष्ट्रा भणति मुखातं ते पृच्छति एषा नदी
अत्र 'नूपुरपण्डिता' या; दृष्टांत: प्रस्तुयते
For P&Praise City
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सूत्रांक / गाथांक
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टीप
अनुक्रम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [२] उद्देशक [-] मूलं [-] / गाथा ||११|| निर्युक्तिः [ १७७...]. आष्यं [V...]]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ ९७ ॥
व्हाइ, अन्नो य तरुणो तं दद्दूण भणइ सुण्हायं ते पुच्छइ एसा नइ वरसोहियतरङ्गा । एए य नदीरुक्खा अहं च पाएसु ते पडिओ ॥ १ ॥ ताहे सा पडिभणइ - 'सुहया होउ नईते चिरं च जीवंतु जे नईरुक्खा । सुण्हायपुच्छयाणं घत्तीहामो पियं काउं ॥ १ ॥' सोय तीसे घरं वा दारं वा पण याणइ तीसे य वितिज्जियाणि चेडरुवाणि रुक्खे पलोयंताणि अच्छंति, तेण ताणं पुष्कफलाणि सुबहृणि दिष्णाणि पुच्छियाणि य-का एसा', ताणि भणन्ति अमुगस्स सुण्हा, सोय तीए विरहं न लहति, तओ परिव्वाइयं ओलग्गिउमाढत्तो, भिकखा दिन्ना, सा तुट्ठा भणइ-किं करेमि ओलगाए फलं ?, तेण भणिया- अमुगस्स सुन्हं मम कए भणाहि, तीए गन्तृण भणिया-अमुगो ते एवंगुणजातीओ पुच्छई, ताए रुहाए पउल्लङ्गाणि घोवन्तीए मसिलिन्तएण हत्थेण पिट्ठीए आहया, पंचंगुलियं उट्टियं, अवदारेण निच्छुडा, गया तस्स साहइ णामं पि सातवण सुणेइ, तेण णायं कालपंचमीए अवदारेण अइगंतव्यं, अइगओ य, असोगवणियाए मिलियाणि सुत्ताणि य, जाव पस्सवणागरण ससुरेण
१ प्रवरशोभितत्तरा । एते च नदीक्षा अहं च पादयोस्ते पतितः ॥ १ ॥ तदा सा प्रतिभणति शुभता भवतु नयाः चिरं च जीवन्तु ते नदीवृक्षाः । मुनातप्रच्छकानां यतिभ्यामहे प्रियं कर्तुम् ॥ १॥ स च तस्या गृहं वा द्वारं वा न जानाति, तस्याथ द्वैतीविकावेटरूपा वृक्षान् प्रलोकयन्तस्तिष्ठन्ति तेन तेभ्यः पुष्पफलानि सुबहूनि दत्तानि पृथ्वकैषा ते भणन्ति — अमुकस्य खुषा, स च तया विरहं न लमते ततः परित्राजिकामवलगितुमारब्धः, भिक्षा दत्ता सा तुष्टा भगति - किं करोमि सेवायाः फलं १, तेन भणिता अमुकस्य खुप मम कृते भणे, तया गत्वा भणिता एवंगुणजातीयो मुकस्ते पृच्छति, तदा या भाज नानि प्रक्षालन्या मीलितेन हस्तेन पृछ्यामाहता, पालक उत्थितः अपद्वारेण निष्काशिता, गता तस्मै कथयति नामापि सा तव न शृणोति तेन ज्ञातंकृष्णपश्चम्यानपद्वारेणातिगन्तव्यं, अतिगराव, अशोकवनिकायां मिलितौ च यावत् प्रश्रवणावागतेन वशुरेण
For ane & Personal Use Oily
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२ श्रामण्य
पूर्वकाध्य०
नूपुरपण्डिता
ख्यानं हस्तिदृष्टान्ते
॥ ९७ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/गाथा ||११|| नियुक्ति : [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
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दिवाणि, तेण णायं-ण एस मम पुत्तो, पारदारिओ कोइ, पच्छा पायाओ तेण णेउरं गहियं, चेइयं च तीए, सो भणिओ-णास लहुं, आवइकाले साहेनं करेजासि, इयरी गंतूण भत्तारं भणइ-एस्थ धम्मो असोयवणियं बच्चामो, गंतूण सुत्ताणि, खणमेत्तं सुविऊणं भत्तारं उद्दवेइ भणइ य-एयं तुज्झ कुलाणुरूवं? जं णं मम पायाओ ससुरो उरं कडूइ, सो भणइ-मुबसु पभाए लन्भिहिति, पभाए थेरेणं सिट्ठ, सोय रुटो भणइविवरीओ थेरोत्ति, धेरो भणइ-मया दिट्ठो अन्नो पुरिसो, विवाए जाए सा भणइ-अहं अप्पाणं सोहयामि, एवं करेहि, तओ पहाया कयबलिकम्मा गया जक्खघरं, तस्स जक्खस्स अंतरेणं गच्छंतो जो कारगारी सो8. लग्गइ, अकारगारी नीसरइ, तओ सो विडपियतमो पिसायरूवं काऊण णिरंतरं घणं कंठे गिण्हइ, तओ सा गंतूण तं जक्खं भणइ-जो मम मायापिउदिन्नओ भत्तारोतं च पिसार्य मोतूण जइ अन्नं पुरिसं जाणामि ___1दृष्टी, तेन ज्ञात-नैष मम पुत्रः, पारदारिकः कश्चित् , पश्चात्पदो नूपुर तेन गृहीतं, शार्ट च तया, स भगितः-श्य लघु, आपत्काले साहाय्यं कुर्याः, इतरा गत्या भत्तार भणति-अत्र धर्मः अशोकवनिका बजावः, गत्वा सुप्तौ, क्षणमात्र सुत्ला मारमुत्थापयति भणति ग-एतत्तव कुलानुरूपं यन्मम पदः श्वशरो भूपुरं कर्षति, स भणति-खपिहि प्रातलप्स्यते, प्रभाते स्थविरेण शिष्ट, स च रुष्टो भणति-विपरीतः स्थविर इति, स्थविरो भावि या दृष्टोऽन्यः पुरुषः, विवादजा सा भणति-अहमात्मानं शोधयामि!, एवं कुक ततः साता मृतबलिकर्मा यता यक्षगाई, तख यक्षस पदोरन्तरेण मच्छन् योऽपराधी सरगति,
अनपराधी निस्सरति, ततः स विटः प्रियतमः पिशाचरूपं कृत्वा निरन्तरं पनं कण्ठे गृहाति, ततः सा गया तं यक्ष मातियो मम मातापितूदत्ता भत्तो तेच |पिशाचं मुक्त्वा यद्यन्य पुरुषं जानामि
दीप
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आगम
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सूत्रांक / गाथांक
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [२] उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा ||१९|| निर्युक्तिः [ १७७...]. आष्यं [४...J पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ ९८ ॥
Jam Educin
तो मे तुमं जाणिलसित्ति, जक्खो विलक्खो चिंतेइ एस य (पास) केरिसाई घुत्ती मंतेइ ?, अहगंपि वंचिओ तीए, णत्थि सहसणं खु घुप्तीए, जाव जक्खो चिंतेइ ताथ सा णिम्फिडिया, तओ सो थेरो सम्बलोगेण विलक्खीकओ हीलिओ य । तओ थेरस्स तीए अधिईए णिद्दा हा, रन्नो य कन्ने गयं, रन्ना सहाविऊण अंडरवालओ कओ, अभिसेकं च हस्थिरयणं वासघरस्स हेट्ठा बद्धं अच्छइ, इओ य एगा देवी हत्थिमिंठे आसत्ता, णवरं हत्थी चोंवालयाओ हत्थेण अवतारेह, पभाए पडिणीणेइ, एवं वचइ कालो । अन्नया य एगाए रयणीए चिरस्स आगया हत्थिमिंठेण रुद्वेण हत्थिसंकलाए आया, सा भाइ एयारिसो तारिलो य ण सुब्बर, मा मज्झ रूसह, तं घेरो पिच्छह, चिंतियं च णेण एवंपि रक्विजमाणीओ एयाओ एवं ववहरंति, किं पुण ताओ सदा सच्छंदाओ त्ति ? सुत्तो, पभाए सव्वलोगो उडिओ, सो ण उट्ठेह, रन्नो कहियं, रन्ना भणियं सुवड, चिरस्स य उडिओ पुच्छिओ य, कहियं सव्यं, भणइ-जहा एगा देवीण याणामि कयरावि, तओ
१ तदा मां त्वं जानीया इति, यक्षो विलक्षश्विन्तयति - एषा धूत कीशि मन्त्रयति ?, अहमपि वचितोऽनया, नास्ति सतीत्वं धूतीयाः, यावद्यक्ष चिन्तयति तावत् सा निर्माता, ततः स स्थविरः सर्वलोकेन विलक्षीकृतो हीति । ततः स्थविरस्य तयाऽल्या निद्रा नष्टा, राइच कर्णे गतं राज्ञा शब्ददित्वा अन्तःपुरपालकः कृतः, अभिषेकी हस्तिनं वासगृहस्यास्तात् बद्धं तिष्ठति । इतका राज्ञी हस्तिभिष्ठे आसका, परं हस्ती मालात् हस्तेनावतारयति प्रभाते प्रतिभुति, एवं व्रजति कालः । अन्यदा चैकस्य रजन्यां विरेणागता हस्तिमिण्टेन रुष्टेन हस्तिशृङ्गतयाऽऽहता, सा भगति ईरशस्तादृशच न स्वपिति मा मयं रौषीः, तद् स्वविरः प्रेक्षते, चिन्तितं चानेन --एवमपि रक्ष्यमाणा एता एवं व्यवहरन्ति किं पुनस्ताः सदा स्वच्छन्दा इति सुप्तः प्रभावे सर्वो लोक उत्थितः स नोतिष्ठते, राजे कथितं राज्ञा भणितं खपि विरेणोत्थितः पृष्ठः कथितं सर्वे, भणति यथैका देवी न जाने कतरापि ततो
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२ श्रामण्य
पूर्वकाध्य० नूपुरपण्डिता
ख्यानं ह स्तिदृष्टान्ते
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by dig
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आगम
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गाथांक
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[भाग-३४] “दशवैकालिक" - मूलसूत्र - ३ ( मूलं+निर्युक्तिः *| (मूलं+निर्युक्तिः+भाष्य | + वृत्तिः) अध्ययनं [२] उद्देशक [-1, मूलं [-] / गाथा ||१९|| निर्युक्तिः [ १७७...]. भाष्यं [V...J पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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रोहणा मंडहस्थी काराविओ, भणियाओ-एयस्स अञ्चणियं काऊणं ओलंडेह, तओ सव्वाहिं ओलंडिओ, एगा णेच्छइ, भणइ य-अहं बीहेमि, तओ रन्ना उप्पलेण आहया, मुच्छिया पडिया, रन्ना जाणियं एसा का रिसि, भणियं चणेण मत्तगयं आरुहंतीऍ भंडमयस्स गयस्स वीहीहि । तत्थ न मुछिय संकलाया, एत्थ मुच्छिय उप्पलाया ॥ १ ॥ तओ सरीरं जोइयं जाव संकलापहारो दिट्ठो । तओ परुद्वेण रण्णा देवी मिंठो हत्थी य तिष्णिवि छिन्नकडए चडावियाणि, भणियो य मिठो-एत्थं वाहेहि हत्थि, दोहि य पासेहिं ते (बे) लुग्गाहा उडिया, जाव एगो पाओ आगासे ठविओ, जगो भणइ-किं एस तिरिओ जाणह?, एयाणि मारियवाणि, तहवि राया रोसं न सुयह, जाव तिष्णि पाया आगासे कथा, एगेण ठिओ, लोगेण कओ अक्कन्दो -किमेयं हत्थिरयणं विणासिज्जई १, रण्णा मिठो भणिओ-तरसि णियत्तेउं ?, भगहू-जइ दुयगाणंपि अभयं देसि, दिण्णं, तओ तेण अंकुसेण नियत्तिओ हत्थिति । दाष्टन्तिकयोजना कृतैवेति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ एवं १] [राशा भिण्ड ( नृत्य ) हस्ती कारितः, भणिताः -- एतस्यार्चनं कृत्य ततः सर्वाभिलतिः, एका नेच्छति, भणति - अहं विभेमि ततो राशोत्पलेनाहता मूर्च्छिता पतिता राज्ञा ज्ञातं एषाऽपराधिनीति, भणितं चानेन-मसं गजमारोहन्ती भिण्ड (मृन् ) मवाजाद्विभेषि तत्र न मूर्च्छिता याहताऽत्र मूच्छितोत्पलादता ॥ १ ॥ ततः शरीरं काप्रहारो दृष्टः यावत् ततः प्ररुटेन राज्ञा देवी मेण्डो हस्ती च त्रयोऽपि छिन्नकटके ठापितानि भणितथ मेष्ठः अत्र पातय हस्तिनं द्वयो पार्श्वयाः स्थापिताः, यावदेकः पाद आकाशे स्थापितः जनो भगति एवं तिर्यक कि जानीते, एतौ मारयितव्यों, तथापि राजा रोषं न मुञ्चति यावत्रयः पादा आकाशे कृताः एकेन स्थितः लोकेनाकन्दः कृतः किमेतत् हस्तिरलं विनाश्यते है राजा मिष्ठो भणित-शोषि निवर्तयितुं १, भणति यदि द्वाभ्यामप्यभयं ददासि दत्तं ततस्तेनाशेन निवर्तितो हस्तीति
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [२], उद्देशक [-], मूलं -1/गाथा ||११|| नियुक्ति : [१७७...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक/ गाथांक
दशवैका कुर्वन्ति 'संबुद्धा' बुद्धिमन्तो बुद्धाः सम्यग-दर्शनसाहचर्येण दर्शनैकीभावेन वा बुद्धाः संबुद्धा-विदितविषय-२ श्रामण्यहारि-वृत्तिः खभावाः, सम्यग्दृष्टय इत्यधैः, त एव विशेष्यन्ते-पण्डिताः प्रविचक्षणाः, तत्र पण्डिता:-सम्यग्ज्ञानवन्तः प्र-पूर्वकाध्य.
है विचक्षणा:-चरणपरिणामवन्तः, अन्ये तु ब्याचक्षते-संबुद्धाः सामान्येन बुद्धिमन्तः पण्डिता वान्तभोगासे- रथनेम्यु
वनदोषज्ञाः प्रविचक्षणा अवद्यभीरव इति, किं कुर्वन्ति?-'विनिवर्तन्ते भोगेभ्या विविधम्-अनेकैः प्रकार1 दाहरणKIरनादिभवाभ्यासवलेन कदर्थ्यमाना अपि मोहोदयेन विनिवर्तन्ते भोगेभ्यो-विषयेभ्यः, यथा क इत्यत्राह-य- मनियत
थाऽसौ 'पुरुषोत्तमः' रथनेमिः । आह-कथं तस्य पुरुषोत्तमत्वं, यो हि प्रव्रजितोऽपि विषयाभिलाषीति ?, उ- त्वात्
च्यते, अभिलाषेऽप्यप्रवृत्ते, कापुरुषस्त्वभिलाषानुरूपं चेष्टत एवेति । अपरस्त्वाह-दशवकालिकं नियत श्रुत-12 हमव, यत उक्तम्-"णायज्झयणाहरणा इसिभासियमो पइन्नपसुया य । एए होति अणियया णिययं पुण
सेसमुस्सन्नं ॥१॥" तत्कथमभिनवोत्पन्नमिदमुदाहरणं युज्यते इति?, उच्यते, एवम्भूतार्थस्यैव नियतश्रुतेऽपि भावाद, उत्सन्नग्रहणाचादोषः, प्रायो नियतं न तु सर्वथा नियतमेवेत्यर्थः । ब्रवीमीति न खमनीषिकया किन्तु तीर्थकरगणधरोपदेशेन । उक्तोऽनुगमो, नयाः पूर्ववदिति ॥ इत्याचार्यश्रीहरिभद्रसरिविरचितायां दशकालिकटीकायां द्वितीयं श्रामण्यपूर्वकाध्ययनं सम्पूर्णम् ॥ २॥
इति श्रीदशवकालिके द्वितीयाध्ययनं सवृत्तिकं समाप्तम् ।। १ दर्शनपरिणाम प्र. २ शाताध्ययनाहरणानि अपिभाषितानि प्रकीर्णकश्रुतं च । एतानि भवन्ति भनियतानि नियतं पुनः शेषमुत्तमं (प्रायः) ॥१॥
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ॐ1-75%
अध्ययनं -२- परिसमाप्तं
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१७८], भाष्यं [४...]
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प्रत
सूत्रांक
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अथ तृतीयाध्ययनं क्षुल्लिकाचारकथाख्यं ॥ व्याख्यातं श्रामण्यपूर्वकाध्ययनमिदानी क्षुल्लिकाचारकथाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः, इहानन्तराध्ययने धर्माभ्युपगमे सति मा भूदभिनवप्रवजितस्याधृतेः संमोह इत्यतो धृतिमता भवितव्यमित्युक्तं,
इह तु सा धृतिराचारे कार्या नत्वनाचारे, अयमेवात्मसंयमोपाय इत्येतदुच्यते, उक्तश-"तस्यात्मा संपतो दयो हि, सदाचारे रतः सदा । स एव धृतिमान् धर्मस्तस्यैव च जिनोदितः ॥१॥” इत्यनेनाभिसम्बन्धेनाया
तस्यास्याध्ययनस्य चत्वार्यनुयोगद्वाराणि पूर्ववत्, नामनिष्पन्ने निक्षेपे क्षुल्लिकाचारकथेति नाम, तत्र क्षुल्लक-12 निक्षेपः कार्य:, आचारस्य कथायाश्च, महदपेक्षया च क्षुल्लकमित्यतश्चित्रन्यायप्रदर्शनार्थमपेक्षणीयमेव महदभिधित्सुराह
नामंठवणादविए खेते काले पहाण पइभावे । एएसि महंताणं पडिवखे खुडया होंति ॥ १७८॥ पइखुट्टएण पगयं आयारस्स उ चउकनिक्खेवो । नामंठवणादधिए भावायारे य बोडब्बे ॥ १७९ ॥ नामणधावणवासणसिक्खावणसुकरणाविरोहीणि । दुव्याणि जाणि लोए दव्वायारं वियाणाहि ।। १८०॥ नाममहन्महदिति नाम, स्थापनामहन्महदिति स्थापना, द्रव्यमहानचित्तमहास्कन्धः,क्षेत्रमहल्लोकालोकाका
दीप अनुक्रम
[१६..]
मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[४२], मूल सूत्र-[३] “दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरि-विरचिता वृत्ति:
अध्ययनं -३- "क्षुल्लिकाचारकथा" आरभ्यते
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८०], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
लिकाचारकथा महालकनिक्षेपाः
सूत्रांक
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दीप अनुक्रम
दशका. शम्, कालमहानतीतादिभेदः सम्पूर्णः कालः, प्रधानमहत्रिविधम्-सचित्ताचिसमिश्रभेदात्, सचित्तं त्रिविधम्- हारि-वृत्तिः द्विपदचतुष्पदापदभेदात्, तत्र द्विपदानां तीर्थकरः प्रधानः चतुष्पदानां हस्ती अपदानां पनसः अचित्तानां
वैडूर्यरत्नं मिश्राणां तीर्थकर एव वैडूर्यादिविभूषितः प्रधान इत्यत एव चैतेषां महत्वमिति, प्रतीत्यमहदू- ॥१० ॥
आपेक्षिकम् , तद्यथा-आमलकं प्रतीत्य महत् बिल्वं बिल्वं प्रतीत्य कपित्थमित्यादि, भावमहविविध-प्राधान्यतः कालत आश्रयतश्चेति, प्राधान्यतः क्षायिको महान् मुक्तिहेतुखेन तस्यैव प्रधानत्वात्, कालतः पारिणामिका, जीवत्वाजीवत्वपरिणामस्यानाद्यपर्यवसितत्वान्न कदाचिज्जीवा अजीवतया परिणमन्ते अजीवाश्च जीवतयेति, आश्रयतस्त्वौदपिका, प्रभूत[संसारि] सत्त्वाश्रयत्वात् सर्वसंसारिणामेवासी विद्यत इति, 'एतेषाम्'अनन्तरोदितानां महतां प्रतिपक्षे क्षुल्लकानि भवन्ति, 'अभिधेयवल्लिङ्गवचनानि भवन्तीति न्यायात् यथार्थ क्षुल्लकलिङ्गवचनमिति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यक्षुल्लकः परमाणुः, द्रव्यं चासी क्षुल्लकबेति, क्षेत्रक्षुल्लक आकाशप्रदेशः, कालक्षुल्लक: समयः, प्रधानक्षुल्लक त्रिविधम्-सचित्ताचित्तमिश्रभेदात्, सचित्तं त्रिविधम्-द्विपदचतुपदापदभेदात्, द्विपदेषु क्षुल्लकाः प्रधानाचानुत्तरमुराः, शरीरेषु क्षुल्लकमाहारकम् , चतुष्पदेषु प्रधानः क्षुल्लकच सिंहा, अपदेषु जातिकुसुमानि, अचित्तेषु वजं प्रधानं क्षुल्लकं च, मिश्रेष्वनुत्तरसुरा एव शयनीयगता इति, प्रतीत्यक्षुल्लकं तु कपित्थं प्रतीत्य बिल्वं क्षुल्लकं बिल्वं प्रतीत्यामलकमित्यादि, भावक्षुल्लकस्तु क्षायिको भावः स्तोकजीवाश्रयत्वादिति गाथार्थः । इत्थं क्षुल्लकनिक्षेपमभिधायाधुना प्रकृतयोजनापुरःसरमाचारनि
[१६..]
SSSS
॥१०॥
क्षुल्लक एवं आचार शब्दयो: व्याख्यानम्
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आगम
(४२)
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सूत्रांक
।।१९..।।
दीप
अनुक्रम [१६..]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं+निर्युक्तिः+ भाष्य | + वृत्तिः)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-] / गाथा ||११...|| निर्युक्ति: [ १८० ], भाष्यं [४ ...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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क्षेपमाह-प्रतीत्य यत् क्षुल्लकमुपदिष्टं तेनात्राधिकारः, यतो महती खल्वाचारकथा धर्मार्थकामाध्ययनं तदपेक्षया क्षुल्लिकेयमिति ॥ आचारस्य तु चतुष्को निक्षेपः, स चायम् - नामाचारः स्थापनाचारो द्रव्याचारो भावाचारश्च बोद्धव्य इति गाथाक्षरार्थः ॥ भावार्थे तु वक्ष्यति, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, अतो द्रव्याचारमाह-नामनधावनवासन शिक्षापनसुकरणाविरोधीनि द्रव्याणि यानि लोके तानि द्रव्याचारं विजानीहि । अयमत्र भावार्थः - आचरणं आचारः द्रव्यस्याचारो द्रव्याचारः, द्रव्यस्य यदाचरणं तेन तेन प्रकारेण परिणमनमित्यर्थः, तत्र नामनमवनतिकरणमुच्यते, तत्मति द्विविधं द्रव्यं भवति - आचारवदनाचारवच, तत्परिणामयुक्तमयुक्तं चे त्यर्थः तत्र तिनिशलतादि आचारवत्, एरण्डाद्यनाचारवत्, एतदुक्तं भवति-तिनिशलताचाचरति तं भावं तेन रूपेण परिणमति न त्वेरण्डादि, एवं सर्वत्र भावना कार्या, नवरमुदाहरणानि प्रदर्श्यन्ते-घावनं प्रति हरिद्वारकं वस्त्रमाचारवत् सुखेन प्रक्षालनात्, कृमिरागरक्तमनाचारवत् तस्मनोऽपि रागानपगमात्, वासनं प्रति कवेलुकाद्याचारवत् सुखेन पाटलाकुसुमादिभिर्वास्यमानत्वात् वैडूर्याद्यनाचारवत् अशक्यत्वात्, शिक्षणं प्रत्याचारवच्छुकसारिकादि सुखेन मानुषभाषासम्पादनात्, अनाचारवच्छकुन्तादि तदनुपपत्तेः, सुकरणं प्रत्याचारवत् सुवर्णादि सुखेन तस्य तस्य कटकादेः करणात्, अनाचारवत् घण्टालोहादि तत्रान्यस्य तथाविधस्य कर्तुमशक्यत्वादिति, अविरोधं प्रत्याचारवन्ति गुडदद्ध्यादीनि रसोत्कर्षादुपभोगगुणाच्च, अनाचारवन्ति तैलक्षीरादीनि विपर्ययादिति, एवम्भूतानि द्रव्याणि यानि लोके तान्येव तस्याचारस्य तद्र
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं 1-1 /गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८०], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका०व्याव्यतिरेकाद्रव्याचारस्य च विवक्षितत्वात्तथाऽऽचरणपरिणामस्य भावत्वेऽपि गुणाभावाद्रव्याचारं विजानीहि
मावायाचाररावजानाहि- ३ क्षुल्लिकाहारि-वृत्ति |अवबुध्यखेति गाधार्थः । उक्तो द्रव्याचारः, साम्प्रतं भावाचारमाह
चारकथा दसणनाणचरिते तबआवारे य वीरियायारे। एसो भावायारो पंचविहो होइ नायव्वो ॥१८१।। निस्संकिय निकंखिय निविति॥१०१॥
आचारगिच्छा अमूढदिट्टी म । उववूह थिरीकरणे वच्छल्लपभावणे अट्ठ ॥१८२|| अइसेसइडियायरियवाइधम्मकहीखमगनेमित्ती । निक्षेपाः विजारायागणसंमवा व तित्वं पभाविति ।। १८३ ।। काले विणए बहुमाणे उवहाणे तह य अनिण्हवणे । वंजणअस्थतदुभए ५आचारा अट्ठविहो नाणमायारो ।। १८४ । पणिहाणजोगजुत्तो पंचहिं समिइहिं तिहि य गुत्तीहिं । एस परित्तायारो अवविहो होइ नायव्यो । १८५ ।। बारसविहम्मिवि तवे सम्भितरबाहिरे कुसलदिडे । अगिलाइ अणाजीवी नायव्यो सो तवायारो
॥ १८६ ।। अणिगृहिययल विरियो परकमइ जो जहुत्तमाउत्तो । जुंजइ अ जहाथामं नायव्यो वीरियायारो ॥ १८ ॥ | व्याख्या-दर्शनज्ञानचारित्रादिष्वाचारशब्दः प्रत्येकमभिसम्बध्यते, दर्शनाचारो ज्ञानाचारश्चारित्राचारस्तप-10 आचारो वीर्याचारश्चेति, तत्र दर्शनं सम्यग्दर्शनमुच्यते, न चक्षुरादिदर्शनं, तब क्षायोपशमिकादिरूपत्वाद्भाव एव, ततश्च तदाचरणं दर्शनाचार इत्येवं शेषेष्वपि योजनीयं, भावार्थ तु वक्ष्यति-एष भावाचारः पञ्चविधो भ-18 भवति ज्ञातव्यः, इति गाथाक्षरार्थः । अधुना भावार्थ उच्यते-तत्र 'यथोद्देशं निर्देश' इत्यादी दर्शनाचारभावार्थ:. दर्शनाचारश्चाष्टधा, तथा चाहगाथा-निस्संकी'त्यादि, निःशङ्कित इत्यत्र शङ्का शङ्कितं निर्गतं शङ्कितं यतोऽसौर
ID॥१०१॥ निःशङ्कितः देशसर्वशङ्कारहित इत्यर्थः, तत्र देशशङ्का समाने जीवखे कथमेको भव्योऽपरस्त्वऽभव्य इति श
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दर्शन आदि पंच-आचाराणां नियुक्ति: तथा तेषां भेदानां व्याख्या: ।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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IPइते, सर्वशङ्का तु प्राकृतनिबद्धत्वात्सकलमेवेदं परिकल्पितं भविष्यतीति, न पुनरालोचयति यथा-भावा हेतु
ग्राह्या अहेतुग्राह्याश्च, तत्र हेतुग्राह्या जीवास्तित्वादयः, अहेतुग्राह्या भव्यत्वादयः, अस्मदाद्यपेक्षया प्रकृष्टज्ञानगोचरत्वात् तद्धेतूनामिति, प्राकृतनिबन्धोऽपि बालादिसाधारण इति, उक्तश्च-"बालस्त्रीमूढमूर्खाणां, नृणां चारित्रकाडिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्वज्ञैः, सिद्धान्तः प्राकृतः स्मृतः॥१॥" दृष्टेष्टाविरुद्धश्चेति, उदाह
रणं चात्र पेयापेयको यथाऽऽवश्यके, ततश्च निःशङ्कितो जीव एवार्हच्छासनप्रतिपन्नो दर्शनाचरणात् तत्प्रादाधान्यविवक्षया दर्शनाचार उच्यते, अनेन दर्शनदर्शनिनोरभेदमाह, तदेकान्तभेदे त्वदर्शनिन इव तत्फला-दि।
भावात् मोक्षाभाव इति, एवं शेषपदेष्वपि भावना कार्येति । तथा निष्कासितो-देशसर्वकाङ्क्षारहितः, तत्र | देशकाला एक दर्शनं काहुति दिगम्बरदर्शनादि, सर्वकाला तु सर्वाण्येवेति, नालोचयति षड्जीवनिकायपीडा-18 मसत्प्ररूपणांच, उदाहरणं चात्र राजामात्यो यथाऽऽवश्यक इति।विचिकित्सा-मतिविभ्रमः निर्गता विचिकित्सा-मतिविभ्रमो यतोऽसौ निर्विचिकित्सः, साध्वेव जिनदर्शनं किन्तु प्रवृत्तस्यापि सतो ममामात्फलं
भविष्यति न भविष्यतीति ?, क्रियायाः कृषीयलादिषुभयोपलब्धेरिति विकल्परहितः, न घविकल्प उपाय उतापयवस्तुपरिप्रापको न भवतीति सनातनिश्चयो निर्विचिकित्स उच्यते एतावताउंशेन निःशङ्किताद्भिन्नः, उदा
हरणं चात्र विद्यासाधको यथाऽऽवश्यक इति, यद्वा निर्विजुगुप्सः-साधुजुगुप्सारहितः, उदाहरणं चात्र श्रावकदुहिता यथाऽऽवश्यक एव श तथाऽमूढदृष्टिश्च बालतपखितपोविद्याऽतिशयदर्शनेने मूढा-खरूपान्न च-1
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
प्रदर्शनाचा
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दीप अनुक्रम
दशवैका०लिता दृष्टिा सम्यग्दर्शनरूपा यस्यासावमूढदृष्टिः, अत्रोदाहरणं सुलसा साविया, जहा लोइयरिसी अंबडो मालिका हारि-वृत्तिः रायगिहं गच्छंतो बहुयाणं भवियाणं थिरीकरणणिमित्तं सामिणा भणिओ-मुलसं पुच्छिनासि, अंबडो चिंतेइ
चारकथा. -पुन्नमतिया सुलसा जं अरहा पुच्छेइ, तओ अम्बडेण परिक्षणाणिमित्तं सा भत्तं मग्गिया, ताए ण दिन्नं, ॥१०२॥ तओ तेण बहणि रूवाणि विउव्वियाणि, तहवि ण दिन्नं, ण य संमूढा, तह कुतित्थियरिद्धीओ वढूण अमूढ
रा:८ दिविणा भषियब्वं । एतावान गुणिप्रधानो दर्शनाचारनिर्देशा, अधुना गुणप्रधानः 'उपबृंहणस्थिरीकरणे' इति, उपबृहणं च स्थिरीकरणं च उपबृंहणस्थिरीकरणे, तत्रोपबृंहणं नाम समानधार्मिकाणां सद्गुणप्रशंसनेन तदृद्धिकरणम्, स्थिरीकरणं तु धर्माद्विषीदतां सतां तत्रैव स्थापनं । उववूहणाए उदाहरणं जहा रायगिहे नयरे सेपिओ राया, इओ य सको देवराया सम्मत्तं पसंसह । इओ य एगो देवो असद्दहतो नगरबाहिं सेणियस्स मणिग्गयस्स चेल्लयरूवं काऊणं अणिमिसे गेण्हइ, ताहे तं निवारेइ, पुणरवि अण्णस्थ संजई गुन्विणी ट्रापुरओ ठिया, ताहे अपवरगे ठविऊण जहा ण कोइ जाणइ तहा सूइगिहं कारवेद, जं किंचि सुइकम्मं तं सयमेव
१सुलसा धाविका यथा लौकिकन पिरम्बडो राजगृहं गच्छन् बहूनां भव्यानां स्थिरीकरणनिमित्तं खामिना भणितः-मुलसा पुच्छर, अम्बचिन्तयतिपुण्यवती सुउसा यामईन् पृच्छति, ततोऽम्बडेन परीक्षणनिमित्तं सा भक्तं मार्मिता, तया न दतं, ततस्तेन बहूनि रूपाणि विकषितानि, तथापि न दत्तं, न च सं-18 मूढा, तथा कुतीथिकावाऽमूटिना भवितव्यं, २ उपबृंहणायामुदाहरणं यथा राजगृहे नगरे श्रेणिको राजा, इतष शाको देवराजः सम्पतवं प्रशंसति, इतक्षेको | देवोऽवधानो नगरावहिः श्रेणिके निर्गते चलकरूपं कृत्वाऽनिमेषान् सहाति, तदा व निवारयति, पुनरप्यन्यत्र संयती गर्भिणी पुरतः स्थिता, तदाऽअवरके
॥१०२॥ स्थापयित्वा यथा न कोऽपि आमाति तथा सूतिकागृई कारयति यरिकश्चिदपि सूतिकाकर्म तत् खयमेष
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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करेइ, तओ सो देवो संजईरूवं परिचहऊण दिव्वं देवरूवं दरिसेह, भणइ य-भो सेणिय! सुलद्धं ते जम्म-17 भाजीवियस्स फलं जेण ते पवयणस्सुवरि एरिसी भत्ती भवइत्ति उबवूहेऊण गओ। एवं उबवूहियव्वा साह|म्मिया ॥ स्थिरीकरणे उदाहरणं जहा उजेणीप अजासाटो कालं करेंते संजए अप्पाहेइ-मम दरिसावं दिजह,
जहा उत्तरज्झयणेसु एतं अक्खाणयं सव्वं तहेच, तम्हा जहा सो अजासाढो थिरो कओ एवं जे भविया ते थिरीकरेयचा । तथा 'वात्सल्यप्रभावना' इति वात्सल्यं च प्रभावना च वात्सल्यप्रभावने, तत्र वात्सल्यंसमानधार्मिकमीत्युपकारकरणं प्रभावना-धर्मकथादिभिस्तीर्थख्यापनेति, तत्र वात्सल्ये उदाहरणं अजवइरा, जहा तेहिं दुम्भिक्खे संघो निस्थारिओ एवं सव्यं जहा आवस्सए तहा नेयं, पभावणाए उदाहरणं ते व | अजवइरा जहा तेहिं अग्गिसिहाओ सुहुमकाइआई आणेऊण सासणस्स उम्भावणा कया एयमक्खाणयं जहा आवस्सए तहा कहेयव्वं, एवं साहुणावि सब्वपयत्तेण सासणं उम्भावेयब्वं । अष्टावित्यष्टप्रकारो दर्श
१ करोति, रातः स देवः संयतीरूपं परित्यज्य दिव्यं देवरूपं दर्शयति, भणति च-भोः श्रेणिक! मुलम् त्वया जम्मजीवितयोः फलं येन ते प्रवचनमोपरि। ईरशी भक्तिरस्तीति उपचुंध गतः, एवमुपयाः साधर्मिकाः ॥ स्थिरीकरणे उदाहरणं यथोनायिन्यामार्याषाढः कालं कुर्यतः संपतान संदिशति-मम दर्शनं 12 | दद्यात, यथोत्तराध्ययनेषु एतदाख्यान सर्व तय, तस्मात् स यथा आयौपाडः स्थिरीकृत एवं चे भव्यास्ते स्थिरीकर्तव्याः, २ आर्यवजा यथा तैदुर्भिक्षे सको & निस्तारित एतत, सर्व वयाऽऽवश्यके तथा शेयं, प्रभावनायो त एवोदाहरणमार्यवत्रा यथा तैरमिशिवात् (पुष्पाणि) सूक्ष्मकायिकाण्यानीय शासनस्योडावना कृता
एतदाधानकं यथाऽऽनश्यके तथा कथयितव्यं, एवं साधुनाऽपि सर्वप्रयन शासनमुडाययितव्यम्, दश. १८
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैकानाचारः, प्रकाराश्चोक्ता एव निःशक्षितादयः, गुणप्रधानश्चायं निर्देशो गुणगुणिनोः कथंचिढ़ेदख्यापनार्थः,३ क्षुलिकाहारि-वृत्तिः एकान्ताभेदे तन्निवृत्ती गुणिनोऽपि निवृत्तेः शुन्यतापत्तिरिति गाथार्थः । स्वपरोपकारिणी प्रवचनप्रभावना तीर्थ-चारकथा करनामकर्मनिवन्धनं चेति भेदेन प्रवचनप्रभावकानाह-अतिशयी-अवध्याविज्ञानयुक्तः ऋद्धिग्रहणादामपौष-II
ज्ञाना
चारा ध्यादिऋद्धिमाप्तः ऋद्धि(मत)मनजितो वा आचार्यवादिधर्मकथिक्षपकनैमित्तिकाः प्रकटार्थाः विद्याग्रहणादू विद्यासिद्धः आर्यखपुटवत् सिद्धमनः 'रायगणसंमया' राजगणसंमताश्चेति राजसंमता-मच्यादयः गणसंमता-महत्तरादयः चशब्दादानश्राद्धकादिपरिग्रहा, एते तीर्थ-प्रवचनं प्रभावयन्ति-वतः प्रकाशस्वभावमेव सहकारितया प्रकाशयन्तीति गाथार्थः। उक्तो दर्शनाचारः, साम्प्रतं ज्ञानाचारमाह-'काल' इति, यो यस्याङ्गप्रविष्ठादेः श्रुतस्य काल उक्तः तस्य तस्मिन्नेव काले स्वाध्यायः कर्तव्यो नान्यदा, तीर्थकरवचनात्, दृष्टं च कृष्यादेरपि कालग्रहणे फलं विपर्यये च विपर्यय इति, अत्रोदाहरणम्-एको साहू पादोसियं कालं घेत्तूण अइक्कताएवि पदमपोरिसीए अणुवओगेण पढइ कालियं सुयं, सम्मट्टिी देवया चिंतेइ-मा अण्णा पंतदेवया छलिजइत्तिकाउं तक कुंडे |घेणं तक तकति तस्स पुरओ अभिक्खणं अभिक्खणं आगयागयाइं करेइ, तेण य चिरस्स सज्झायस्स
१ एकः साधुः प्रादोषिकं कालं गृहीत्वा अतिकान्तायामपि प्रथमपोयामनुपयोगेन पठति कालिकश्रुतं, सम्यग्दृष्टिदेवता चिन्तयति माऽन्या प्रान्ता देवता ॥१० ॥ Pीदितिवरमा त कुन्दे गृहीत्वा तक तकमिति तल्प पुरखोऽभीषणमभीषणं गतागतानि करोति, देन च चिराय खाध्यायस्थ
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अनुक्रम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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दीप अनुक्रम
वाघायं करेइत्ति, भणिआ य-अयाणिए! को इमो तकस्स विकणकालो?, वेलं ता पलोएह, तीएवि भणियं -अहो को इमो कालियसुअस्स य सज्झायकालोत्ति, तओ साहुणा णायं-जहा ण एसा पागइत्थित्ति उवउत्तो, णाओ अहरसो, दिण्णं मिच्छादुकर्ड, देवयाए भणिय-मा एवं करेजासि, मा पंता छलेजा, तओ काले सज्झाइयव्वं ण उ अकालेत्ति । तथा श्रुतग्रहणं कुर्वता गुरोविनयः कार्यः, विनय:-अभ्युत्थानपावधावनादिः। अविनयगृहीतं हि तदफलं भवति, इत्थ उदाहरणं सेणिओ राया भज्जाए भण्णइ-ममेगखंभं पासायं करेहि, एवं दुमपुफियज्झयणे वक्खाणियं, तम्हा विणएण अहिझियव्वं णो अविणएण । तथा श्रुतग्रहणोद्यतेन गुरोबहुमानः कार्यः, बहुमानो नामाऽन्तरो भावप्रतिबन्धः, एतस्मिन् सत्यक्षेपेणाधिकफलं श्रुतं भवति, विणयबहुमाणेसु चउभंगा-एगस्स विणओ ण बहुमाणो अवरस्स बहुमाणो ण विणओ अण्णस्स विणओऽवि बहुमाणोऽवि अन्नस्स ण विणओ ण बहुमाणो । एत्थ दोण्हवि बिसेसोवर्दसणत्वं इमं उदाहरणं-एगंमि
१व्याचातं करोतीति, भगिता प--हे! कोऽयं तकस्य विक्रयकालः ?, वेलां तावत् प्रलोकय, तयाऽपि भणित-अहोभयं का कालिकश्रुतस्य व स्वाध्याय-- काल इति ?, ततः साधुना ज्ञातं-यथा नैथा प्राकृता श्रीत्युपयुक्तः, ज्ञातोऽर्धरात्रः, बत्तं मिथ्यादुष्कृतं, देवत या भनितं-मैव कुयोः मा प्रान्ता छलीन , ततः काले। खाध्येयं नत्वकाल इति. २,अत्रोदाहरणं श्रेणिको राजा भार्यया गण्यते-ममैकस्तम्भ प्रासाद कुरु, एवं यथा दुमपुषिकाम्ययने व्याख्यात, तस्माद्विनयेनाध्येयं नाविनयेन, विनयवहुमानयोचतुर्भही-एकस्य विनयो न बहुमानोऽपरस्ख बहुमानो न बिनयोऽन्यस्य बिनयोऽपि महुमानोऽपि भन्यस्य न विनयो न बहुभानः ।। अत्र इयोरपि विशेषोपदर्शनार्थमिदमुदाहरण-एकस्या
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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चाराः
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दीप अनुक्रम
दशबैका०गिरिकंदरे सियो,तं च भणो पुलिंदोय अचंति,वंभणो उवलेवणसम्मजणावरिसे य पयओ सहभूओ अचित्ता क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिः धुणइ विणयजुत्तो, ण पुण बहुमाणेण, पुलिंदो पुण तंमि सिवे भावपडिबद्धो गल्लोदएण पहावेइ, ण्हविऊण|
चारकथा उबविट्ठो, सियो य तेण समं आलावर्सलावकहाहिं अच्छइ, अपणया य तेसिं बंभणेणं उल्लावसहो सुओ, तेण ॥१०४ ॥
ज्ञानापडियरिऊण उवलडो-तुर्म एरिसो चेव कडपूयणसिवो जो एरिसेण उच्छिट्टएण समं मंतेसि, तओ सिवो भणइ-एसो मे बमाणेइ, तुमं पुणो ण तहा, अण्णया य अच्छीणि उक्खणिऊण अच्छह सिवो, बंभणो अIN आगंतुं रडिमुवसंतो, पुलिंदो य आगओ सिवस्स अच्छिं ण पेच्छइ, तओ अप्पणयं अच्छि कंडफलेण ओक्खणित्ता सिवस्स लाएइ, तओ सिबेण बंभणो पत्तियाविओ, एवं णाणमंतेसु विणओ बहुमाणो य दोऽपि कायब्वाणि । तथा श्रुतग्रहणमभीप्सतोपधानं कार्य, उपधातीत्युपधानं-तपः, तद्धि यात्राध्ययने आगाढादियोगलक्षणमुक्तं तत्तत्र कार्य, तत्पूवेकश्रुतग्रहणस्यैव सफलत्वात्, अनोदाहरणम्-एगे आपरिया, ते वायणाए
गिरिकन्दरायां शिवा, संचमााणः पुलिन्दधार्च यता, माह्मण उपलेपनसंमार्जनयर्षणेषु प्रवचः शुचीभूतोऽविश्वा भौति विनययुको न पुनहुमानेन, पुलिन्दः पुनस्तसिन् शिवे भावप्रतिबद्धो गोदकेन अपयति, स्पयित्वोपविष्टः, शिपथ तेन सममालापसंलापकथाभितिष्ठति, अन्यथा च तयो झनोलापशब्दः *श्रुतः, तेन प्रतिथयाँपालम्पा-यमीदश एवं कटपूतनाशियो य ईदशेनोरिण्टेन समं मन्नयसे, ततः शियो गणति-एष मा बहुमानयति, वं पुनर्न तथा, अन्यदा चाक्षि उत्साय तिष्ठति शिवः, साह्मणवागत्य रुदित्योपशान्तः, पुलिन्दश्चागतः शिवस्माक्षि नेक्षते, तत आत्मीयमति कायफलेगोत्साय शिवाय ददाति, ततः
१०४॥ IMiशिवेन ब्राह्मणः प्रत्यायितः, एवं ज्ञानवत्यु बिनयो बहुमानश्च द्रावधि कर्तव्यो. २एके भाचार्याः ते वाचनायो
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संता परितंता सज्झाएऽवि असज्झाइयं घोसेउमारद्धा, णाणतरायं पंधिऊण कालं काऊण देवलोकं गया, तओ देवलोगाओ आउक्खएण चुया आहीरकुले पचायाया भोगे मुंजंति, अन्नया य से धूया जाया, सा य अईव रूवस्सिणी, ताणि य पचंतयाणि गोचारणणिमित्तं अन्नत्य वचंति, तीए दारियाए पिउणो सगडंग सव्वसगडाणं पुरओ गच्छद, सा य दारिया तस्स सगडस्स धुरतुंडे ठिया वचइ, तरुणइत्तेहिं चिंतियंसमाई काउंसगडाई दारियं पेच्छामो, तेहिं सगडाओ उप्पहेण खेडिया, विसमे आवडिया समाणा भग्गा, तओ लोएण तीए दारियाए णाम कयं असगडत्ति, ताए दारियाए असगडाए पिया असगडपियत्ति, तओ तस्स तं चेव वेरग्गं जायं, तं दारियं एगस्स दाऊण पब्वइओ जाव चाउरंगिजं ताव पढिओ, असंखए उदि तं णाणावरणिजं से कम्म उदिन्नं, पढ़तस्सऽवि किंचि ण ठाइ, आयरिया भणंति, छटेणं ते अणुन्नवइत्ति,
दीप अनुक्रम
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आन्तपरिधान्ताः साध्यायिफेऽध्यखाध्यायिक घोषवितुमारब्धाः, शानान्तरायं बढा कालं कृत्वा देवलोकं गताः, ततो देवलोकादायुःक्षयेण च्युता आभीरफूले प्रत्यायाता भोगान् भुअन्ति, अभ्यदा प तस्य दुहिता जाता, सा चातीवरूपिणी, तौ च प्रत्यन्तग्रामान् गोचारणनिमित्तमन्यत्र प्रजतः, | तस्या दारिकायाः पितुः पाकलं सर्वशकढाना पुरतो गच्छति, सा च दारिका तव शकटस्य धुरि स्थिता गति, तबिन्तितं, समानि शकठानि कृत्या
दारिका प्रेक्षामहे, ते शकटान्युत्तथे खेटितानि, विषमे आपतितानि सन्ति भन्मानि, ततो लोकेन तस्या दारिकाया नाम स्तमशकटेति, तस्या दारिकाया अशकटायाः सापिता अशकवितेति, सतस्तस्य तदैव वैराग्यं जातं, ता दारिकामेकसौ दत्वा प्रनजितः बावचतुरमीय तावत् पठितः, असंस्कृते रिसे तक भानावरणीय वसा
कर्मोदीण, पटतोऽपि न किञ्चित्तिष्ठति, आचार्या भणन्ति-तष षष्ठेनानुमायते इति,
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दशवैका तओ सो भणइ-एयस्स केरिसो जोओ?, आयरिया भणंति-जाव ण ठाइ ताव आयंबिलं कायचं, M३ क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिःतओ सो भणह-तो एवं चेव पढामि, तेण तहा पढ़तेण वारस रूवाणि पारससंबच्छरेहिं अहियाणि, चारकथा
ताव से आयंबिलं कयं, तओ णाणावरणिशं कम्मं खीणं, एवं जहाऽसगडपियाए आगाढजोगो अणुपा- ज्ञानालिओ तहा सम्म अणुपालियव्वं, उवहाणेत्ति गयं । तथा 'अनिण्हवणि'त्ति गृहीतश्रुतेनानिहवः कार्यः, य- चाराः द्यस्य सकाशेऽधीतं तत्र स एव कथनीयो नान्यः, चित्तकालुष्यापत्तेरिति, अत्र दृष्टान्त:-ऐगस्स पहावियस्स खुरभंड विजासामत्येण आगासे अच्छा, तं च एगो परिवायगो वहहिं उवसंपजणाहिं उवसंपज्जिऊण, तेण
सा विजा लद्धा, ताहे अन्नत्थ गंतुं तिदंडेण आगासगएण महाजणेण पूहजइत्ति, रन्ना य पुच्छिओ-भयवं! ४ किमेस विजाइसयो उय तवाइसओ त्ति?, सो भणइ-विजाइसओ, कस्स सगासाओ गहिओ?, सो भणइ8) दि-हिमवंते फलाहारस्स रिसिणो सगासे अहिजिओ, एवं तु वुत्ते समाणे संकिलेसदुट्ठयाए तं तिदंडं खडसि
ततः स भणति-एतस्य कीडशो योगः१, आचार्या भणन्ति-यावमायाति तावदाचामाम्लं कर्त्तव्यं, ततः स भणति-तदैवमेव पठामि, तेन तथा पन्ता। द्वादश काव्यानि द्वादशभिः संवत्सरैरधीतानि, तावत्तेनाचाम्लानि कृतानि, ततो ज्ञानावरण कर्म क्षीणं, एवं यथाऽशकट पित्राऽऽगादयोगोऽनुपालितसाधा। सम्यगनुपालवितव्यः उपचानमिति गतं। २ एकस्य नापितस्य सुरप्राविभाजन विश्वासामोनाकाशे विष्वति, तं का परिवार बहुभिरूपसंपद्भिरूपसंपय
6॥१०५ (स्थितः), ततस्ता विद्या सन्धवान्, ततोऽन्यत्र गरवा त्रिदण्टेनाकाशगतेन महामनेन पूज्यते.राशा च पृष्ठ-भगवन् । किमेष विद्यातिशय उत। तपोऽतिशय इति!, स भणति--विद्यातिशया, फस्य सकाशाद् गृहीतः, स भणति-हिमवति फलाहाराहपेः सकाशे अधीतः, एवं तूकमाने संक्लेशदुष्टतया ताभिदण्टं सटदिति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
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पडियं, एवं जो अप्पागम आयरियं निण्हवेऊण अन्नं कहेइ तस्स चित्तसंकिलेसदोसेणं सा विजा परलोए ६ ण हवइत्ति, अनिण्हवणित्ति गयं । तथा व्यञ्जनार्थतदुभयान्याश्रित्य भेदो न कार्य इति वाक्यशेषः, एतदुक्तं है। भवति-श्रुतप्रवृत्तेन तत्फलमभीप्सता व्यञ्जनभेदोऽर्थभेद उभयभेदश्च न कार्य इति, तत्र व्यञ्जनभेदो यथा -'धम्मो मंगलमुफिहमिति वक्तव्ये 'पुण्णं कल्लाणमुकोस'मिति, अर्थभेदस्तु यथा 'आवन्ती केयावन्ती लो-131 गंसि विपरामुसन्ती' स्यत्राचारसूत्रे यावन्तः केचन लोके-अस्मिन् पाखण्डिलोके विपरामृशन्तीत्येवंविधार्थाभिधाने अवन्तिजनपदे केया-रज्जुर्वान्ता-पतिता लोकः परामृशति कूप इत्याह, उभयभेदस्तु द्वयोरपि याथाम्योपमर्देन यथा-'धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टः अहिंसा पर्वतमस्तक' इत्यादि, दोषश्चात्र व्यञ्जनभेदेऽर्थभेदस्त दे क्रियाया भेदस्तङ्गेदे मोक्षाभावस्तदभावे च निरर्थिका दीक्षेति, उदाहरणं चात्रांधीयतां कुमार इति सर्वत्र योज-18 नीयं, क्षुण्णत्वादनुयोगद्वारेषु चोक्तत्त्वान्नेह दर्शितमिति । अष्टविधः-अष्टप्रकार कालादिभेदद्वारेण ज्ञानाचारो -ज्ञानासेवनाप्रकार इति गाथार्थः ॥ उक्तो ज्ञानाचारः, साम्प्रतं चारित्राचारमाह-प्रणिधानं-चेतःस्वास्थ्यं तत्प्रधाना योगा-व्यापारास्तैर्युक्तः-समन्वितः प्रणिधानयोगयुक्तः, अयं चौघतोऽविरतसम्यग्दृष्टिरपि भवत्यत आह-पञ्चभिः समितिभिस्तिमृभिश्च गुप्तिभिर्यः प्रणिधानयोगयुक्तः, एतद्योगयुक्त एतद्योगवानेच, अथवा ६ १ पतितं, एवं योऽस्यागमामाचार्य निस्वान्यं कथयति तस्य वित्तसंकित्तादोषेण सा विद्या परलोके न भवति । अनिलव इति गतं ।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१८७], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक ||११..||
दीप
दशकापञ्चसु समितिमु तिमृषु गुप्तिष्वस्मिन् विषये-एता आश्रित्य प्रणिधानयोगयुक्तो य एष चारित्राचार, आचारा-1 क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिः चारवतोः कथंचिदव्यतिरेकादष्टविधो भवति ज्ञातव्या, समितिगुप्तियोगभेदात्, समितिगुप्तिरूपं च शुभं प्रवी- चारकथा.
चाराप्रवीचाररूपं यथा प्रतिक्रमणे इति गाथार्थः । उक्तश्चारित्राचारः, साम्प्रतं तपआचारमाह-द्वादशविधेऽपिचारित्रत॥१०६॥
तपसि-प्रथमाध्ययनोक्तखरूपे साभ्यन्तरवाद्येऽनशनादिप्रायश्चित्तादिलक्षणे कुशलदृष्टे-तीर्थंकरोपलब्धे अ- पआचारी ग्लान्या न राजवेष्टिकल्पेन यथाशक्त्या वा अनाजीविको-निःस्पृहः फलान्तरमधिकृत्य यो ज्ञातव्योऽसौ तप-13 आचारः, आचारतद्वतोरभेदादिति गाथार्थः । उक्तस्तपआचारः, अधुना वीर्याचारमाह-अनिगृहितबलवीर्य:अनिद्भुतवाद्याभ्यन्तरसामर्थ्यः सन् पराक्रमते-चेष्टते यो यथोक्तं षट्त्रिंशल्लक्षणमाचारमाश्रित्येति वाक्यशेषः, षत्रिंशद्विधत्त्वं चाचारस्य ज्ञानदर्शनचारित्राचाराणामष्टविधत्वात्सपआचारस्य च द्वादशविधत्त्वाचेति, उपयुक्त इत्यनन्यचित्तः, पराक्रमते ग्रहणकाले, तत ऊर्ध्व युनक्ति च योजयति च-प्रवर्तयति च यथोक्तं षट्त्रिंशल्लक्षणमाचारमिति सामागम्यते, यथास्थाम-पथासामर्थ्य यो ज्ञातव्योऽसौ वीर्याचारः आचाराचारसवतोः कश्चिदव्यतिरेकादिति गाथार्थः ।। अभिहितो वीर्याचारः, तदभिधानाचाचार इति, साम्प्रतं कथामाह
अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया व कहा । एत्तो एकेकावि य णेगविहा होइ नायव्या ॥ १८८ ॥ विजासिपमुवाओ अणिवेओ संचओ य दक्खत्तं । साम दंडो भेओ उवप्पयाणं च अस्थकहा ।। १८९ ।। सस्थाहसुनो दक्खत्तणेण सेट्ठीसुओ य रूवेणं । बुद्धीऍ अमच्चसुओ जीवइ पुनेहिं रायसुभो ॥ १९ ॥
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अथ 'कथा शब्दस्य व्याख्या (भेदादि सहित)
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
1994
6455
||११..||
दक्सत्तणयं पुरिसस्स पंचगं सइगमाहु मुंदेरं । बुद्धी पुण साहस्सा सयसाहस्साई पुन्नाई ॥ १९१ ॥ व्याख्या-'अर्थकथे'ति विद्यादिरर्थस्तत्प्रधाना कथाऽर्थकथा, एवं कामकथा धर्मकथा चैव मिश्रा च कथा, अत आसां कथानां चैकैकापि च कथा अनेकविधा भवति ज्ञातव्येत्युपन्यस्तगाथार्थः। अधुनाऽर्थकथामाह-विद्याशिल्पं उपायोऽनिर्वेदः सञ्चयश्च दक्षत्वं साम दण्डो भेद उपपदानं चार्थकथा, अर्थप्रधानस्वादित्यक्षरार्थः, भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तचेदम्-विज पडुचऽत्थकहा जो बिजाए अत्थं उबविणति, जा एगेण विजा साहिया सा तस्स पंचयं पइप्पभायं देइ, जहा वा सचइस्स विजाहरचकवहिस्स विजापभावेण भोगा उवणया, सच्चइस्स उप्पत्ती जहा य सहकुलेऽवस्थितो जहा य महेसरो नाम कयं एवं निरवसेसं जहावस्सए| जोगसंगहेसुतहा भाणियव्वं विज्जत्ति गयं। इयाणिं सिप्पेत्ति, सिप्पेणत्यो उवजिणइ त्ति, एत्य उदाहरणं को-18 कासो जहावस्सए, सिप्पेत्ति गयं, इयाणि उवाएत्ति, एत्थ दिलुतो चाणको, जहा चाणक्केण नाणाविहेहिं उवायेहि |अत्यो उजिओ, कहं ?-दो मज्झ धाउरत्ताओ०, एयंपि अक्खाणयं जहावस्सए तहा भाणियब्वं । उवाए त्ति
दीप अनुक्रम
[१६..]
१ विद्या प्रतीत्यापैकथा यो विद्ययाऽर्थमुपार्जयति, यावदेकेन विद्या साधिता सा तस्मै पच्चकं प्रतिप्रभातं ददाति, यथा या सस्य किनो विद्याधरचक्रवर्तिनो विद्याप्रभावेण भोगा उपनता, ससकिम उत्पत्तिमा पाचकुलेऽवस्थितो यथा च महेश्वरो नाम कृत, एतमिरवशेष गधाऽऽमायके योगसमहेषु तथा माणितव्यं । विद्येविगतं, इदानीं शिल्पमिति, शिल्पेनाथ उपायते इति, भत्रोदाहरणं कोकाशो यथाऽऽवश्यके । शिल्पमिति यतं, इदानीमुपाय इति, अत्र एष्टान्तवाणक्या, यथा| चाणक्येन बहुविधिपावर उपार्जितः, कर्थ !, दे मम धातुरके, एतदप्याख्यान यथावश्यके तथा भणितव्यं । उपाय इति
Jamaication
अर्थकथा आदि चत्वार: कथानां दृष्टान्ता:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
दशबैका हारि-वृत्तिः ॥१०॥
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दीप अनुक्रम
गयं, इयाणि अणिब्वेए संचए य एकमेव उदाहरणं मम्मणवाणिओ, सोवि जहावस्सए तहा भाणियब्यो। क्षुल्लिकासाम्पतं दक्षत्वं तत्सप्रसङ्गमाह-दक्षत्वं पुरुषस्य सार्थवाहमुतस्य पश्चगमिति-पश्चरूपकफलं, शतिक-शत
चारकथा फलमाहुः सौन्दर्य श्रेष्ठीपुत्रस्य, वुद्धिः पुनः सहस्रवती-सहस्रफला मत्रिपुत्रस्य, शतसहस्राणि पुण्यानि-शत
अर्धकथा
यांदक्षत्वासहस्रफलानि राजपुत्रस्येति गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्तु कथानकादवसेयः, तवेदम्-जहा संभदत्तो कुमारो कुमा- मारामच्चपुत्तो सेट्टिपुत्तो सत्यवाहपुत्तो, एए चउरोवि परोप्परं उल्लावेइ-जहा को भे केण जीवइ?, तस्थ राय- त्रादिपुत्तेण भणियं-अहं पुन्नेहिं जीवामि, कुमारामच्चपुत्तेण भणियं-अहं बुद्धीए, सेट्टिपुत्तेण भणियं-अहं स्वस्सि- त कथा त्तणेण, सत्यवाहपुत्तो भणइ-अहं दक्खत्तणेण, ते भणंति-अन्नत्थ गंतुं विनाणेमो, ते गया अन्नं गयरं जत्थ ण णति, उजाणे आवासिया, दक्खस्स आदेसो दिनो, सिग्धं भत्तपरिव्वयं आणेहि, सो वीहिं गंतुं एगस्स थेरवाणिययस्स आवणे ठिओ, तस्स बहुगा कइया एंति, तदिवसं कोवि ऊसवो, सो ण पटुप्पति
१गतं, इदानीमनिटे संचये च एकमेवोदाहरणं मम्मणवाणिग् , सोऽपि यथावश्यके तथा भनितव्यः २ गथा महादत्ता कुमारः कुमारामात्यपुत्रः श्रेरिपुत्रः। सार्थवाहपुत्रः, एते चरवारोऽपि परस्परमणपन्ति यथाऽस्माकं कः केन जीवति !, वन राजपुत्रेणो-अहे पुण्वीयामि, मुमारामात्यपुत्रेण भणित-अहं बुया, श्रेधिपुगेण भणितं-अहं रूपितया, सार्थवाहपुत्रो भणति-अहं दक्षत्वेन, ते भणन्ति-अन्यत्र गत्वा परीक्षामहे, ते गता अन्यनगरं यन्त्र न ज्ञायन्ते, उद्याने आवासिताः, दक्षायादेशो दत्तः शीघ्र भरूपरिव्ययमानय, स बीथीं गत्वा एकस्य स्थविरवणिज आपणे स्थितः, तस्य बहसः कविका आयान्ति, तदिवसे | कोऽयुत्सवः, सन प्रभवति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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दीप अनुक्रम
पुंडए बंधेउं, तओ सत्यवाहपुत्तो दक्खत्तणेण जस्स जं उवउज्जइ लवणतेल्लघयगुडसुंठिमिरियएचमाइ तस्स। तं देइ, अइविसिट्टो लाहो लदो, तुट्ठो भणइ-तुम्हेत्थ आगंतुया उदाहु वस्थब्वया?, सो भणइ-आगंतुया, तो अम्ह गिहे असणपरिग्गहं करेजह, सो भणइ-अन्ने मम सहाया उजाणे अच्छति तेहिं विणा नाहं eजामि, तेण भणियं-सब्वेवि एंतु, आगया, तेण तेसिं भत्तसमालहणतंबोलाइ उवउत्तं तं पश्चण्हं रूवयाणं । बिइयदिवसे रूवस्सी वणियपुत्तो कुत्तो-अज्ज तुमे दायब्वो भत्तपरिव्यओ, एवं भवउत्ति, सो उट्ठेऊण गणि-IP यापाडगं गओ अप्पयं मंडेउ, तत्थ य देवदत्ता नाम गणिया पुरिसवेसिणी बहुहिं रायपुत्तसेट्टिपुत्तादीहिं5 मग्गिया णेच्छइ, तस्स य तं रूवसमुदयं दट्ठण खुन्भिया पडिदासियाए गंतूण तीए माऊए कहियं जहा दारिया सुंदरजुवाणे दिष्टिं देइ, तओ सा भणइ-भण एवं मम गिहमणुवरोहेण एजह इहेव भत्सवेलं करेजह से
१ पुटिका बडूं, ततः सार्थवाहपुत्रो दक्षत्वेन यद्यस्योपयुज्यते लवणतलगृतगुरशुण्ठीमरीच्यावि तस तददाति, अतिविशिष्टो लाभो लब्धः, तुरी भणति-- | यूयमत्र आगन्तुका उताहो वालव्याः ?, स भणति-आगन्तुकाः, तदाऽस्माकं गृहेऽशनपरिग्रहं कुर्वात, स भणति-अन्ये मम साहाय्यका उद्याने विधन्ति तैर्चिना नाह मुझे, तेन भणितं-सर्वेऽप्यायान्तु, आगताः, तेन तेषां भक्तसमालभगताम्बूलायुपयुक्त यत्तद्रूपकाणां पश्चानां । द्वितीयदिवसे रूपी वणिक पुत्र उक्तः-अब रक्या भक्तपरिव्ययो दातव्यः, एवं भवरिवति, स उत्थाव गणिकापाटकं गव आत्मानं मन्डयित्वा, तत्र च देवदत्तानाम्नी चणिका पुरुषद्वेषिणी बहुभिः राजपुत्रवेष्ठि-IN पुत्रादिभिर्मागिता नेच्छति, तख च तद, रूपसमुदय हा क्षुब्धा प्रतिदास्या गत्वा तथा मानुः कषितं यथा दारिका गुन्दरयूनि दृष्टिं ददाति, ततः सा भणतिभणैतान्न मम गृहमनुषरोधेनायास्त इहैव भक्तवेलां कुर्याद.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्राक ||११..||
दीप अनुक्रम
दशवकालातहेवागया साओ दब्यवओ कओ। तइयदिवसे बुद्धिमन्तो अमचपुत्लो संविट्ठो अज तुमे भत्तपरिवओ क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिः दायब्बो, एवं हवउ त्ति, सो गओ करणसाल, तत्थ य तईओ दिवसो ववहारस्स छिज्जंतस्स परिच्छे न चारकथा
गच्छद, दो सवत्तीओ, तासिं भत्ता उवरओ, एकाए पुत्तो अत्थि इयरी अपुत्ता य, सा तं दारयं णेहेण उच- अर्थकथा॥१०८॥
चरइ, भणह य-मम पुत्सो, पुत्तमाया भणइ य-मम पुत्तो, तासिं ण परिछिजइ, तेण भणियं-अहं छिंदामियां दक्षत्वाववहारं, दारओ दुहा कजउ दब्वंपि दुहा एच, पुत्तमाया भणइ-ण मे दव्वेण कर्ज दारगोऽवि तीए भवउ दिए सार्थजीवन्तं पासिहामि पुतं, इयरी तुसिणिया अच्छइ, ताहे पुत्तमायाए दिपणो, तद्देव सहस्सं उवओगो । चउ- पुत्रादिस्थे दिवसे रायपुत्सो भणिओ-अज्ज रायपुत्त! तुम्हेहिं पुण्णाहिएहिं जोगवहणं वहियब्वं, एवं भवउ त्ति,
कथा तओ रायपुत्सो तेसिं अंतियाओ णिग्गंतुं उजाणे ठियो, तंमि य णयरे अपुत्तो राया मओ, आसो अहिवासिओ, जीए रुकखछायाए रायपुत्तो णिवण्णो सा ण ओयत्तति, तओ आसेण तस्सोवरि ठाइऊण हिंसितं,
तथैवागताः पातिको व्यव्यगः कृतः. तृतीयदिवसे बुद्धिमान् अमात्यपुत्रः संविष्टः-अय स्वया भक्तपरिव्ययो दातव्यः, एवं भवस्थिति, स गतः करणशाला, तत्र च तृतीयो दिवसो व्यवहार छिन्दतः, परिच्छेदं न गच्छतिसपरन्यी, सयोभत्तापरतः, एकस्याः पुत्रोऽस्ति इतरापुत्रा च, सात दारक मेहेनोपचरति भणति च-मम पुत्रः, पुत्रमाता भणति च-मम पुत्रः, तयोर्ने परिछियते, तेन भणित-अहं छिनमि व्यवहार, दारक द्विधा करोतु द्रव्यमपि द्विधव, पुनमाता भगति-न मे द्रव्येण कार्य दारकोऽपि तस्या भवतु जीवन्तं द्रक्ष्यामि पुत्रं, इठरा टूष्णीका तिष्ठति, तदा पुत्रगाने दत्तः, तपैन सहस्रस्योपयोगः । चतुर्थे दिवसे राजपुत्रो भणितः अद्य राजपुत्र! भवता पुण्याधिकेन योगबहन बोडव्य, एवं भवरिवति, ततो राजपुत्रस्तेषां पार्थात् निर्गलोद्याने स्थितः, तमिष नगरेऽपुत्रो ॥१०८।। राजा मता, अश्वोऽपिवासितः, यस्यां वृक्षरछायायो राजपुत्रो निषण्णो न सा परावर्तते, ततोऽनेन तसोपरि स्थित्वा हेषित,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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राया य अभिसित्तो, अणेगाणि सयसहस्साणि जायाणि, एवं अत्थुप्पत्ती भवइ । दक्खत्तणं ति दारं गये, इयाणिं सामभेयदण्डवप्पयाणेहिं चरहिं जहा अत्थो विढप्पति, एत्थिमं उदाहरणं-सियालेण भर्मण हत्थी मओ दिहो, सो चिंतेइ-लद्धो मए उवाएण ताव णिच्छएण खाइयब्वो, जाव सिंहो आगओ, तेण चिन्तियं-सचिट्टेण ठाइयव्वं एयस्स, सिंहेण भणियं-किं अरे! भाइणेज अच्छिज्जइ?, सियालेण भणियं|आमंति माम!, सिंहो भणइ-किमेयं मयं ति?, सियालो भणइ-हत्थी, केण मारिओ ?-वग्घेण, सिंहो चि-17 तेइ-कहमहं ऊणजातिएण मारियं भक्खामि?, गओ सिंहो, णवरं वरघो आगओ, तस्स कहियं-सीहेण | मारिओ, सो पाणियं पाउं णिग्गओ, वग्यो णट्ठो, एस भेओ, जाव काओ आगओ, तेण चिन्तियं-जइ एयस्स ण देमि तओ काउ काउत्तिवासियसद्देणं अण्णे कागा एहिंति, तेसिं कागरडणसद्देणं सियालादि अण्णे
राजा चाभिषिकः, अनेकानि शतसहस्राणि जातानि, एवमधोत्पतिर्मयति । दक्षस्वमिति द्वारं गतं, इदानीं सामभेददण्डोपप्रदानश्चतुभिर्यथाऽर्थ उपाज्यंते, अत्रेदमुदाहरणं-गालेन ब्राम्यता हस्ती मृतो राष्टः, स चिन्तयति-लब्धो मयोपायेन तावनिययेन खादितव्यः, यापरिसह आगतः, तेन चिन्तित एतस्य सचेष्टेन स्थातव्यं, सिंहेन भणित-किमरे भागिनेय ! स्वीयते, भूगालेन माणितं-ओमिति माल !, सिंहो भणति-किमेतत् मृत्तमिति, गालो भणति-हस्ती, केन मा रितः !, ब्यानेण, सिंहश्चिन्तयति-कथमहमूनजाती येन मारितं मक्षयामि !, गतः सिंहः, नवरं व्याघ्र आगतः, तसै कथित-सिंहेन मारितः, स पानीयं पातुं निर्गतः, व्याघ्रो मष्टः, एष भेदः, यावत् काक आगतः, तेन चिन्तितं-वयेतस्मै म ददामि ततः काक काकेति वासितशब्देनान्ये काका एष्यन्ति, तेषा काकरटनमान्देन भगालादयोऽन्ये
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९१], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशका० हारि-वृत्तिः ॥१०९॥
सूत्रांक
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दीप अनुक्रम
बहवे एहिंति, कित्तिया वारेहामि, ता एयस्स उवप्पयाणं देमि, तेण तओ तस्स खंड छित्ता विपणं, सो शुलिकातं घेनूण गओ, जाच सियालो आगओ, तेण णायमेयस्स हठेण धारणं करेमित्ति भिडिं काऊण वेगोचारकथा. दिण्णो, णट्ठो सियालो, उक्तं च-"उत्तम प्रणिपातेन, शूरं भेदेन योजयेत् । नीचमल्पप्रदानेन, सदृशं च अर्थकथापराक्रमः॥१॥” इत्युक्तः कथागाधाया भावार्थः, उक्ताऽर्थकथा, साम्प्रतं कामकथामाह
यां शृगा. रूवं वओ य बेसो दक्षत सिक्खियं च विसपमुं । दिई सुयमणुभूयं च संथवो चेव कामकहा ।। १९२ ।।
लदृष्टान्तः रूपं सुन्दरं वयश्चोदग्रं वेषः उज्ज्वला दाक्षिण्यं-मादेवं, शिक्षितं च विषयेषु-शिक्षा च कलासु, दृष्टमद्भुतद- कामकथा र्शनमाश्रित्य श्रुतं चानुभूतं च संस्तवन-परिचयश्चेति कामकथा । रूपे च वसुदेवादय उदाहरणं, वयसि सर्व एव प्रायः कमनीयो भवति लावण्यात्, उक्तं च-"यौवनमुदग्रकाले विदधाति विरूपकेपि लावण्यम् । दर्शयति पाकसमये निम्बफलस्यापि माधुर्यम् ॥१॥” इति, वेष उज्जवलः कामाझं, 'यं कश्चन उजवलवेषं पुरुष दृष्ट्वा स्त्री कामयते' इति बचनात्, एवं दाक्षिण्यमपि “पश्चाल: स्त्रीषु मादेवम्" इति वचनात्, शिक्षा च क-1 लासु कामा वैदग्ध्यात्, उक्तं च-"कलानां ग्रहणादेव, सौभाग्यमुपजायते । देशकालौ खपेक्ष्यासां, प्रयोगः संभवेन्न वा ॥१॥" अन्ये त्वत्राचलमूलदेवी देवदत्तां प्रतीत्येक्षुयाचनायां प्रभूतासंस्कृतस्तोकसंस्कृतप्र
१ वहब एष्यन्ति, क्रियतो वारयिष्यामि ?, तस्मादेतस्सै वपनदानं ददामि, तेन ततस्तस्मै खण्यं छित्त्वा दत्तं, स तत् गृहीत्वा गतः, यावच्छृगाल आगतः, १०९॥ तेन हात-एतस्य हठेन चारणां करोमि, मृकुटि कृत्वा वेगो दत्तः, गधः भगालः,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [१९२], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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नादानद्वारेणोदाहरणमभिदधति, दृष्टमधिकृत्य कामकथा यथा नारदेन रुक्मिणीरूपं दृष्ट्वा वासुदेचे कृता, श्रुतं ४ स्वधिकृत्य यथा पद्मनाभेन राज्ञा नारदाद्रौपदीरूपमाकये पूर्वसंस्तुतदेवेभ्यः कथिता, अनुभूतं चाधिकृत्य
कामकथा यथा-तरङ्गवत्या निजानुभवकथने, संस्तवश्च-कामकथापरिचयः 'कारणानीतिकामसूत्रपाठात्,
अन्ये त्वभिदधति-'सइदसणाउ पेम्म पेमाउ रई रईय विस्संभो । विस्संभाओ पणओ पञ्चविहं वहुए || पेम्म ॥१॥” इति गाथार्थः । उक्ता कामकथा, धर्मकथामाह
धम्मकहा बोद्धव्वा चउब्विहा धीरपुरिसपन्नत्ता । अखेवणि विक्खेवणि संवेगे चेव निव्वेए ॥ १९३ ।। आयारे ववहारे पन्नती व दिट्टीवाए य । एसा चउब्विहा खलु कहा उ अक्खेवणी होइ ।। १९४ ॥ विजा परणं च तवो पुरिसकारो य समिइगुत्तीओ । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ अक्खेवणीइ रसो।। १९५॥ कहिऊण ससमयं तो कहेइ परसमयमह विवचासा । मिच्छासम्मावाए एमेव हवंति दो भेया ॥ १९६ ॥ जा ससमयवजा खलु होइ कहा लोगवेयसंजुता । परसमयाणं च कहा एसा विक्खेवणी नाम ॥ १९७ ॥ जा ससमएण पुब्बि अक्खाया तं छुभेज परसमए । परसासणवक्खेवा परस्स समयं परिकहेइ ॥ १९८ ॥ आयपरसरीरगया इहलोए चेव तहय परलोए । एसा चउबिहा खलु कहा उ संवेयणी होई ॥ १९९ ॥ बीरियविउव्वणिड्डी नाणचरणदसणाण तह इट्टी । उवइस्सइ खलु जहियं कहाइ संवेयणीइ रसो ॥ २०॥ पावाणं कम्माण असुभविवागो कहिजए जत्थ । इह य परत्थ य लोए कहा उणिवेयणी नाम ॥२०१॥ थोपि पमायकयं कम्मं साहिजई जहिं नियमा । पउरासुहपरिणामं कहाइ निव्वेयणीइ रसो । २०२ ।। सिद्धी य
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०३], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
क्षुल्लिकाचारकथा | आक्षेपण्याचा धर्मकथाः
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दीप अनुक्रम
दशवका०
देवलोगो मुकुलुपती य होइ संवेगो । नरगो तिरिक्खजोणी कुमाणुसत्तं च निवेओ। २०३ ॥ येणइयरस [पढमया हारि-वृत्तिः
कहा उ अक्खेवणी कहेयव्या । तो ससमयगहियस्थो कहिज विक्खेवणी पच्छा ॥ २०४॥ अक्खेवणीअक्खित्ता जे ॥११ ॥
जीवा ते लभन्ति संमत्तं । विक्खेवणीऍ भज गाढतरागं च मिच्छत् ।। २०५ ।।
धर्मविषया कथा धर्मकथा असौ बोद्धव्या चतुर्विधा धीरपुरुषप्रज्ञप्ता-तीर्थकरगणधरप्ररूपितेत्यर्थः, चातुर्वि&ाध्यमेवाह-आक्षेपणी विक्षेपणी संवेगश्चैव निर्वेद इति, 'सूचनात्सूत्र मितिन्यायात् संवेजनी निर्वेदनी चैवे
त्युपन्यासगाथाक्षरार्थः॥ भावार्थ त्वाह-आचारो-लोचारलानादिः व्यवहार:-कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः प्रज्ञप्तिश्चैव-संशयापन्नस्य मधुरवचनैः प्रज्ञापना दृष्टिवादश्च-श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादिभावकधनं, अन्ये त्वभिधति-आचारादयो ग्रन्था एव परिगृह्यन्ते, आचाराद्यभिधानादिति, एषा-अनन्तरोदिता चतुर्विधा खलुशब्दो विशेषणार्थः श्रोत्रपेक्षयाऽऽचारादिभेदानाश्रित्यानेकप्रकारेति कथा त्वाक्षेपणी भवति, तुरेवकारार्थः, कथैव प्रज्ञापकेनोच्यमाना नान्येन, आक्षिप्यन्ते मोहात्तत्त्वं प्रत्यनया भव्यप्राणिन इत्याक्षेपणी भवतीति गाथार्थः । इदानीमस्या रसमाह-विद्या-ज्ञानं अत्यन्तापकारिभावतमोभैदकं चरणं-चारित्रं समग्रविरतिरूपं तपः-अनशनादि पुरुषकारश्च-कर्मशत्रून् प्रति स्ववीर्योत्कर्षलक्षणः समितिगुप्तया-पूर्वोक्ता एव, एतदुपदिश्यते खलु-श्रोतृभावापेक्षया सामीप्येन कथ्यते, एवं यत्र कचिदसावुपदेशः कथाया आक्षेपण्या रसो-निष्यन्दा सार इति गाधार्थः ।गताऽऽक्षेपणी, विक्षेपणीमाह-कथयित्वा खसमयं-खसिद्धान्तं ततः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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RSC+Sk
सूत्रांक
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दीप अनुक्रम
SCO
कथयति परसमयं-परसिद्धान्तमित्येको 'भेदः, अथवा विपर्यासाद-व्यत्ययेन कथयति-परसमयं कथयित्वा | खसमयमिति द्वितीयः, मिथ्यासम्यग्वादयोरेवमेव भवतो द्वौ भेदाविति, मिथ्यावादं कथयित्वा सम्यग्वाद कथयति सम्यग्वादं च कथयित्वा मिथ्यावादमिति, एवं विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे | श्रोतेति विक्षेपणीति गाथाक्षरार्थः। भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तचेदम्-विक्खेवणी सा चउविवहा पनत्ता, तंजहा-ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेइ १ परसमयं कहेत्ता ससमयं कहेइ २ मिच्छावादं कहेत्ता सम्मावादं कहेइ ३ सम्मावादं कहेत्ता मिच्छावायं कहेइ ४ तस्थ पुब्धि ससमयं कहेत्ता परसमयं कहेइ-ससमयगुणे दीवेइ परसमयदोसे उचदंसेइ, एसा पढमा विक्खेवणी गया। इयाणि बिइया भन्नइ-पुचि परसमयं कहेता तस्सेव दोसे उवदंसेइ, पुणों ससमयं कहेइ, गुणे य से उवदंसेह, एसा विइया विक्खेवणी गया। इयाणिं तइया-परसमयं कहेता तेसु चेव परसमएम जे भावा जिणप्पणीएहिं भावेहिं सह विरुद्धा असंता चेव वियप्पिया ते पुब्बि कहित्ता दोसा तेसिं भाविऊण पुणो जे जिणप्पणीयभावसरिसा घुणक्खरमिव
१ विक्षेपणी सा चतुर्विधा प्रशता, तद्यथा-खसमय कथयित्वा पररामयं कथयति, परसमयं कथयित्वा खसमयं कथयति, मिथ्यावावं कथयित्वा सम्यवाद। | कथयति, सम्यग्वादं कथयित्वा मिथ्यावाद कथयति, तत्र पूर्व खसमयं कथयित्वा परसमयं कथयति-खसमयगुणान् दीपयति परसमयदोषान् उपदर्शयति, एषा प्रथमा विक्षेपदी गता । इदानी द्वितीया भव्यते-पूर्व परसमयं कथयित्वा तस्यैव दोषान् उपदर्शयति पुनः खसमयं कथयति गुणांच तस्योपदर्शयति, एषा द्वितीया विक्षेपणी मता । इदानीं तृतीया-परसमयं कवयित्या सेवेव परसमयेषु ये भावा जिनप्रणीत वैविरुद्धा असन्त एवं विकल्पितासान, पूर्व कथाविरवा दोषास्तेषामुक्त्वा पुनय जिनप्रणीतभावसहशा धुणाक्षरमिव.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक ||११..||
दीप अनुक्रम
दशवैका कहवि सोभणा भणिया ते कहपह, अहवा मिच्छावादोणत्थित्तं भन्नइ सम्मावादो अस्थित्तं भण्णति, तत्थ पुब्बि क्षलिकाहारि-वृत्तिःणाहियवाईणं दिट्ठीओ कहित्ता पच्छा अस्थित्तपक्खवाईणं विट्ठीओ कहेइ, एसा तझ्या विक्खेवणी गया। चारकथा.
द इयाणिं चउत्थी विक्नेवणी, सा वि एवं चेव, णवरं पुब्धि सोभणे कहेइ पच्छा इयरेत्ति, एवं विक्खिवति ॥ १११॥
| आक्षेपसोयारं ति गाथाभावार्थः । साम्प्रतमधिकृतकथामेव प्रकारान्तरेणाह-या खसमयवर्जा खत्खुशब्दस्य विशेष- लण्याद्या सणार्थवाढत्यन्तं प्रसिद्धनीत्या स्वसिद्धान्तशून्या, अन्यथा विधिप्रतिषेधद्वारेण विश्वव्यापकत्वात् स्खसमयस्य धर्मकथाः
तद्बर्जा कथैव नास्ति, भवति कथा 'लोकवेदसंयुक्ता', लोकग्रहणाद्वामायणादिपरिग्रहः वेदास्तु ऋग्वेदादय एव, एतदुक्ता कथेत्यर्थः, परसमयानां च सायशाक्यादिसिद्धान्तानां च कथा या सा सामान्यतो दोषदर्शनद्वारेण वा एषा विक्षेपणी नाम, विक्षिप्यतेऽनया सन्मार्गात् कुमार्गे कुमार्गाद्वा सन्मार्गे श्रोतेति विक्षेपणी,13 तथाहि-सामान्यत एव रामायणादिकथायामिदमपि तत्त्वमिति भवति सन्मार्गाभिमुखस्य जुमतेः कुमार्गप्रवृत्तिः, दोषदर्शनद्वारेणाप्येकेन्द्रियप्रायस्याहो मत्सरिण एत इति मिध्यालोचनेनेति गाथार्थः । अस्या अकथने प्राप्ते विधिमाह-या खसमयेन-खसिद्धान्तेन करणभूतेन पूर्वमाख्याता-आदी कथिता तां क्षिपेत् परसकथमपि शोभना भणितास्तान् कथयति, अथवा मिथ्यावादो नास्तिक्यं भण्यते सम्पग्वाद आस्तिक्यं भव्यते, तत्र पूर्व नास्तिकवाविना रटी कवयित्वा
१११॥ पवादासिकपक्षवादिना दृष्टीः कथयति, एषा तृतीया निक्षेपणी गता, इदानी चतुर्थी विक्षेपणी-साऽप्येवमेव, नवरं पूर्व शोभनान कथयति पत्रादितरान् इत्येवं विक्षिपति ओताराम ति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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मये कचिदोषदर्शनद्वारेण यथाऽस्माकमहिंसादिलक्षणो धर्मः साङ्ख्यादीनामप्येवं, 'हिंसा नाम भवेद्धर्मों न भूतो न भविष्यति' इत्यादिवचनप्रामाण्यात्, किंवसावपरिणामिन्यात्मनि न युज्यते, एकान्तनित्यानित्ययो|हिंसाया अभावादिति, अथवा परशासनव्याक्षेपात्-'सुपा सुपो भवन्ति' इति सप्तम्यर्थे पञ्चमी, परशासनेन कथ्यमानेन व्याक्षेपे-सन्मार्गाभिमुखतायां सत्यां परस्य समयं कथयति, दोषदर्शनद्वारेण केबलमपीति गाथार्थः । उक्ता विक्षेपणी, अधुना संवेजनीमाह-आत्मपरशरीरविषया इहलोके चैव तथा परलोके-इहलोक-| विषया परलोकविषया च एषा चतुर्विधा खलु अनन्तरोक्तेन प्रकारेण कथा तु संवेजनी भवति, संवेज्यतेसंवेगं ग्राह्यतेऽनया श्रोतेति संजनी, एषोऽधिकृतगाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तचेदम्-1 संवेयणी कहा चउम्विहा, तंजहा-आयसरीरसंवेयणी परसरीरसंवेयणी इहलोयसंवेयणी परलोयसंवेयणी, तत्थ आयसरीरसंवेयणी जहा जमेयं अम्हचयं सरीरयं एवं सुक्कसोणियमंसवसामेदमजविण्हारुचम्मकेसरोमणदंतअंतादिसंघायणिफण्णत्तणेण मुत्तपुरीसभायणत्तणेण य असुइत्ति कहेमाणो सोयारस्स संवेगं उप्पाएइ, एसा आयसरीरसंवेयणी, एवं परसरीरसंवेयणीवि परसरीरं एरिसं चेव असुई, अहवा परस्स सरीरं
संवेजनी कथा चतुर्विधा, तपथा-आत्मशरीरसंवेजनी परशरीरसंवेजनी इहलोकसंवेजनी परलोकसंवैजनी, तत्रामशरीरसंवैजनी यथा यदेतदस्मदीयं | शरीरकमेवं शुकशोणितमांसवसामेदोमजास्थिमायुचर्मकेशरोमनखदन्तानादिसंघातनिष्पन्नत्वेन मूत्रपुरीषभाजनत्वेन चाचीति कथयन् श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषा|ऽऽत्मशरीरसंवेबनी, एवं परशारीरसंवेजन्यपि परशरीरमीदशमेवाशुचि, अथवा परस्य शरीर
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
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सूत्राक ||११..||
क्षुल्लिकाचारकथा. आक्षेपण्याद्या धर्मकथा:
दीप अनुक्रम
दशवकावण्णेमाणो सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, परसरीरसंवेयणी गया, इयाणिं इहलोयसंवेयणी-जहा सब्वमेयं माणुस- हारि-वृत्तिः त्तणं असारमधुवं कदलीघंभसमार्ण एरिसं कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संबेगमुप्पाएइ, एसा इह- ॥११२॥
लोयसंवेयणी गया, इयाणि परलोयसंवेयणी जहा देवावि इस्साविसायमयकोहलोहाइएहिं दुक्खेहिं अभिभूया |किमंग पुण तिरियनारया, एयारिसं कहं कहेमाणो धम्मकही सोयारस्स संवेगमुप्पाएइ, एसा परलोयसंवेयणी गयत्ति गाथाभावार्थः । साम्प्रतं शुभकर्मोदयाशुभकर्मक्षयफलकथनतः संवेजनीरसमाह-वीर्यवेक्रियर्द्धि' तपासामोद्भवा आकाशगमनजङ्घाचारणादिवीर्यवैक्रियनिर्माणलक्षणा 'ज्ञानचरणदर्शनानां तथर्डि' तत्र ज्ञानद्धिः 'पभू णं भंते ! चोदसपुब्वी घडाओ घडसहस्सं पडाओ पडसहस्सं विउवित्तए ?, हंता पहू विउवित्तए' तहा-"जं अन्नाणी कम्म खवेइ यहुयाहिं वासकोडीहिं । तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥१॥" इत्यादि, तथा चरणद्धिः नास्त्यसाध्यं नाम चरणस्य, तद्वन्तो हि देवैरपि पूज्यन्त इ
वर्णवन् श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, परशरीरसंवेजनी गता, इदानीमिहलोकसंवैजनी-यथा सर्वमेतत् मानुषमसारमधुवं कदलीसाम्भसमानमीदशी कथा कथयन् धर्मकथी श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषा इहलोकसंवेजनी बता, इदानी परलोकसंबेजनी, यथा देवा अपि या विषादमदकोषलोमादिभिःसैरभिभूता *किमा पुनः वियनारका, इंदशी कथा कथयन् धर्मकथी श्रोतुः संवेगमुत्पादयति, एषा परलोकसबैजनी गतेति. २ प्रभुर्भदन्त ! चतुर्दशपूर्वी पात् घटस कापटात् पटसहवं विकषितुं ।, हन्त प्रभुर्विनितुं. ३ यदज्ञानी कर्म क्षपयति बटुकाभि कोटीभिः । तद् ज्ञानी तिमभितः क्षपयत्युच्छ्रासमात्रेण ॥1॥
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दीप अनुक्रम
त्यादि, दर्शनर्द्धि: प्रशमादिरूपा, तथा-"सम्मरिट्ठी जीवो विमाणवण बंधए आउं । जइवि ण सम्मत्त-11 जदो अहव ण बद्धाउओ पुब्बि ॥१॥” इत्यादि, उपदिश्यते-कथ्यते खलु यत्र प्रक्रमे कथायाः संवेजन्या रसो निष्यन्द एष इति गाथार्थः । उक्ता संवेजनी, निर्वेदनीमाह-पापानां कर्मणां चौर्यादिकृतानामशुभवि
पाक:-दारुणपरिणामः कथ्यते यत्र-यस्यां कथायामिह च परब च लोके-इहलोके कृतानि कर्माणि इहलोक माएवोदीर्यन्ते इति, अनेन चतुर्भगिकामाह, कथा तु निवेदनी नाम, निर्वेद्यते भवादनया श्रोतेति निर्वेदनी राएष गाथाक्षरार्थः । भावार्थस्तु वृद्धविवरणादवसेयः, तचेदम्-इयाणि निश्वेयणी, सा थउब्धिहा, तंजहा
इहलोए दुचिपणा कम्मा इहलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवन्तित्ति, जहा चोराणं पारदारियाणं एवमाइ|| पाएसा पढमा निब्वेयणी, इयाणिं पिइया, इहलोए दुचिण्णा कम्मा परलोए दुहविवागसंजुत्ता भवन्ति, कहं ?,
जहा नेरइयाणं अन्नम्मि भवे कयं कर्म निरयभवे फलं देइ, एसा बिइया निब्वेयणी गया, इयाणी तइया, परलोए दुचिपणा कम्मा इहलोए दुहविवागसंजुत्ता भवंति, कहं ?, जहा बालप्पभितिमेव अंतकुलेसु उप्पन्ना
१ सम्यग्दमिजावो विमानवजैन यनाव्यायुः । यदि नैव यकसम्यक्त्वोऽथवा न पूर्व बदायुष्कः ॥१॥ २६दानी निवेदनी, सा चतुर्विधा, तयथा--- खोके दुधीर्णानि कमागि इहलोक शुव दुःखविपाकसयुक्तानि भवन्तीति, यथा चौराणी पारदारिकाणा एवमायेषा प्रथमा निरनी, इदानी द्वितीया -इहलोक दुम्बीणानि कर्माणि परलोके दुःखविपाकसंयुलानि भवन्ति, कथं ?, यथा नैरविकैरन्यस्मिन् भये कृतं कर्म निरयभवे फलं ददाति, एषा द्वितीया निवेदनी गता, पानी तृतीया, परलोके दुधीर्णागि कमाणि इहलोके दुःखविपाकसंयुक्तानि भवन्ति, कय !, यथा यास्याप्रमत्येवान्तकुलेषरपन्नाः
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दीप अनुक्रम
दशवैका खयकोढादीहिं रोगेहिं दारिदेण य अभिभूया दीसन्ति, एसा तइया णिवेयणी, इयाणिं चउत्थी णिब्वेयणी, ३ क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिःपरलोए दुचिण्णा कम्मा परलोए चेव दुहविवागसंजुत्ता भवंति, कहं ?, जहा पुलिंब दुधिणेहिं कम्महिं जीवाचारकथा०
संडासतुंडेहिं पक्खीहिं उववजति, तओतेणरयपाउग्गाणि कम्माणि असंपुण्णाणि ताणि ताए जातीए पूरिति, आक्षेप॥११३॥ दिपूरिऊण नरयभवे वेदेन्ति, एसा चउत्था निब्वेयणी गया, एवं इहलोगो परलोगो वा पण्णवयं पडच भवइ, ण्याद्या
तत्थ पन्नवयस्स मणुस्सभवो इहलोगो अवसेसाओ तिणिवि गईओ परलोगोत्ति गाथाभावार्थः ॥ इदानी-धर्मकथाः कामस्या एव रसमाह-स्तोकमपि प्रमादकृतम्-अल्पमपि प्रमादजनितं कर्म-वेदनीयादि 'साहिजई 'त्ति कथ्यते|
यत्र नियमात्-नियमेन, किंविशिष्टमित्याह-प्रभूताशुभपरिणाम बहुतीव्रफलमित्यथें, यथा यशोधरादी-18 नामिति कथाया निदिन्या रसः-एष निष्यन्द इति गाथार्थः संक्षेपतः । संवेगनिर्वेदनिबन्धनमाह-सिद्विश्च देवलोकः सुकुलोत्पत्तिश्च भवति संवेगा, एतत्परूपणं, संवेगहेतुत्वादिति भावः, एवं नरकस्तिर्यग्योनिः | |कुमानुषत्वं च निर्वेद इति गाथार्थः । आसां कथानां या यस्य कथनीयेत्येतदाह-विनयेन चरति वैनयिक:
१क्षयकुष्टादिमौ रोगैरिण चाभिभूता श्यन्ते, एषा तृतीया निवेदनी, इदानी चतुर्थी निदनी-परलोके दुधीर्णानि कर्माणि परलोक एप दुःसवि. पाकयुकानि भवन्ति, कथे !, यथा पूर्व दुधीर्णैः कर्मभिजायाः संबंशतुण्डेषु पक्षिषु उत्पद्यन्ते, ततस्ते नरकमायोग्याणि कर्माणि असंपूर्णानि तानि तरूया जाती पूर| सन्ति, पूरवित्वा नरकम बेदयन्ति, एषा चतुर्थी निदनी गता, एवं इहलोक परलोको पा प्रशापर्क प्रतील भवति, तत्र प्रज्ञापकस्य मनुष्यभव इहलोकः अवशे- ॥११३॥ पासिलोऽपि गतयः परलोक इति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२०५], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||११..||
दीप अनुक्रम
454545%-500-6054%95%-545
शिष्यस्तस्मै प्रथमतया-आदिकधनेन कथा तु आक्षेपणी उक्तलक्षणा कथयितव्या, ततः खसमयगृहीताथें सति तस्मिन् कथयेद् विक्षेपणी-उक्तलक्षणामेव पश्चादिति गोथार्थः । किमित्येतदेवमित्याह-आक्षेपण्या कथया आक्षिप्ता:-आवर्जिता आक्षेपण्याक्षिप्ता ये जीवास्ते लभन्ते सम्यक्त्वम्, तथा आवर्जनं शुभभावस्य मिथ्यात्वमोहनीयक्षयोपशमोपायत्वात्, विक्षेपण्यां भाज्य-सम्यक्त्वं कदाचिल्लभन्ते कदाचिन्नेति तच्छ्वणात्तथाविधपरिणामभावात्, गाढतरं वा मिथ्यात्वं, जडमलेः परसमयदोषानवबोधान्निन्दाकरिण एते न द्रष्टण्या इत्यभिनिवेशेनेति गाथार्थः ॥ उक्ता धर्मकथा, साम्प्रतं मिश्रामाह
धम्मो अत्थो कामो उवइस्सइ जत्थ सुत्तकम्बेसुं । लोगे वेए समये सा उ कहा मीसिया णाम ।।२०६।। इथिकहा भत्तकहा रायकहा चोरजणववकहा य । नडनहजलमुडियकहा उ एसा भवे विकहा ॥ २०७ ।। एया व कहाओ पन्नवगपरूवर्ग समासज्ज । अकहा कहा व विकहा हविज पुरिसंतरं पप्प ।। २०८॥ मिच्छत्तं यन्तो जं अन्नाणी कहं परिकहेइ । लिंगस्थो व गिही वा सा अकहा देसिया समए । २०९ ॥ तवसंजमगुणधारी जं चरणस्था कहिति सम्भावं । सबजगजीवहियं सा उ कहा देसिया समए ।। २१० ।। जो संजओ पमत्तो रागद्दोसवसगओ परिकहेइ । सा उ विकहा पक्यणे पण्णता धीरपुरिसेहिं ॥ २११ ।। सिंगाररसुत्तइया मोहकुवियफुफुगा सहासिति । जे सुणमाणस्स कहं समणेण ण सा फहेयव्या ॥ २१२ ॥ समणेण कहेयब्बा तबनियमकहा विरागसंजुत्ता । जं सोऊण मणुरसो बच्चइ संवेगनिव्वेयं ॥ २१३ ॥ अस्थ
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२१४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
दशका० हारि-वृत्तिः
सूत्राक ||११..||
॥११४॥
दीप अनुक्रम
55555555
महतीवि कहा अपरिकिलेसबहुला कहेवव्या । हंदि महया चडगरतणेण अस्थं कहा हणइ ।। २१४ ॥ खेतं कालं पुरिसं
३ क्षुल्लिकासामत्वं चप्पणो वियाणेत्ता । समणेण उ अणवजा पगयंमि कहा कहेयन्या ।। २१५ ।। तइयज्झयणनिजुत्ती समन्ता ।।।
चारकथा व्याख्या-धर्म:-प्रवृत्यादिरूपः अर्थों-विद्यादिः काम:-इच्छादिः उपदिश्यते-कथ्यते यत्र 'सूत्रकाव्येषु' सू- मिश्रकथा त्रेषु काव्येषु च-तल्लक्षणवत्सु, केत्यत आह-लोके-रामायणादिषु वेदे-यज्ञक्रियादिषु समये-तरङ्गवत्यादिषुकथाऽक. सा पुनः कथा 'मिश्रा' मिश्रानाम, संकीर्णपुरुषार्थाभिधानात् इति गाथार्थः । उक्ता मिश्रकथा, तदभिधानाचतु-धाविकथार्षिया कथेति । साम्प्रतं कथाविपक्षभूतां त्याज्यां विकथामाह, अज्ञातखरूपायास्त्यागासंभवादिति-स्त्रीकथा- खरूपं च एवंभूता द्रविडा इत्यादिलक्षणा भक्तकथा सुन्दर शाल्योदन इत्यादिरूपा राजकथा अमुकः शोभन इत्यादिलक्षणा चौरजनपदकथा च गृहीतोऽद्य चौरः स इत्थं कदर्थितः तथा रम्यो मध्यदेश इत्यादिरूपा नटनर्तकजल्लमुष्टिककथा च एषा भवेद्विकथा प्रेक्षणीयकानां नटो रमणीयः यद्वा नर्तकः यद्वा जल्लः, जल्लो नाम धरनाखेलका मुष्टिको मल्ला, इत्यादिलक्षणा विकथा, कथालक्षणविरहादिति गाथार्थः । उक्ता विकथा, इदानीं|| प्रज्ञापकापेक्षयाऽऽसां प्राधान्यमाह-एता एवोक्तलक्षणा: कथाः प्रज्ञापयतीति प्रज्ञापकः प्रज्ञापकश्वासी प्ररूपकश्चेति विग्रहस्तमववोधकमरूपकं न तु घरभ्रमणकल्पं यतो न किञ्चिदवगम्यत इत्यर्थः समाश्रित्य-प्राप्य किमित्याह-'अकथा' वक्ष्यमाणलक्षणा कथा चोक्तखरूपा विकथा चोक्तखरूपैच भवति, पुरुषान्तरं-श्रीतृलक्षणं प्राप्य-आसाद्य, साध्वसाध्वाशयवैचित्र्यात् सम्यकश्रुतादिवत्, अन्ये तु प्रज्ञापर्क-मूलकर्तारं प्ररू
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११...|| नियुक्ति: [२१४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||११..||
दीप अनुक्रम [१६..]
पर्क-तत्कृतस्याख्यातारमिति व्याचक्षते, न चैतदतिशोभनं, 'पपणवयपरूवगे समासज्ज'त्ति पाठप्रसङ्गादिति गाधार्थः । इदानीमकथालक्षणमाह-मिथ्यात्वमिति-मिथ्यात्वमोहनीयं कर्म वेदयन् विपाकेन यां काश्चिदज्ञानी कथां कथयति, अज्ञानिस्त्वं चास्य मिध्यादृष्टित्वादेव, यवं नार्थोऽज्ञानिग्रहणेन मिथ्यात्ववेदकस्याज्ञानित्त्वाव्यभिचारादिति चेद, न, प्रदेशानुभववेदकेन सम्यग्दृष्टिना व्यभिचारादिति, किंविशिष्टोऽसावित्याह-लिङ्गस्थो वा' द्रव्यमब्रजितोऽङ्गारमर्दकादिः 'गृही वा' यः कश्चिदितर एव 'सा' एवं प्ररूपकप्रयुक्तलायुक्त्या श्रोतर्यपि प्रज्ञापकतुल्यपरिणामनिवन्धना अकथा देशिता समये, ततः प्रतिविशिष्टकथाफलाभावा-13
| दिति गाथार्थः ॥ अव प्रक्रमे कथामाह-तपासंयमगुणान् धारयन्ति तच्छीलाश्चेति तपासंयमगुणधारिणः ४ायां काश्चम चरणरता:-चरणप्रतिबद्धा न स्वन्यत्र निदानादिना कथयन्ति सद्भाव-परमार्थ, किंविशिष्टमि
त्याह-सर्वजगज्जीवहितं, नतु व्यवहारतः कतिपयसत्त्वहितमित्यर्थः, तुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, सैव कथा निश्चयतो देशिता समये, निर्जराख्यखफलसाधनात्कर्तृणां ओतणामपि चेत कुशलपरिणामनिवन्धना क-1 साथैव, नो चेद्राज्येति गाथार्थः॥ इहैव विकथामाह-यः संयतः प्रमस:-कषायादिना प्रमादेन रागद्वेषवशं गतः सन् | लान तु मध्यस्थः परिकथयति किश्चित् सा तु विकथा प्रवचने-सा पुनर्विकथा सिद्धान्ते मज्ञप्ता धीरपुरुषः-तीक
रादिभिः, तथाविधपरिणामनिवन्धनत्वात् कर्तृश्रोत्रोरिति, श्रोतृपरिणामभेदे तु तं प्रति कथान्तरमेव, एवं सवित्र भावना कार्येति गाधाः । साम्प्रतं श्रमणेन यथाविधान कार्या तथाविधामाह-शृङ्गाररसेन-मन्मथदी-18
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक -], मूलं [-]/गाथा ||१|| नियुक्ति : २१४], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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*
दशवैका पकेन उत्तेजिता-अधिकं दीपिता, केत्याह-मोह एव-चारित्रमोहनीयकर्मोदयसमुत्थात्मपरिणामरूपः कुपित- क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिः फुफुका-घटितकुकुला 'हसहसिंतित्ति जाज्वल्यमाना जायत इति वाक्यशेषः, यां शृण्वतः कथां मोहोदयो चारकथा.
जायत इत्यर्थः, श्रमणेन-साधुना न सा कथयितव्या, अकुशलभावनिबन्धनत्वादिति गाथार्थः। यत्पकारा कथादि॥११५॥
कथनीया तत्प्रकारामाह-श्रमणेन कथयितव्या, किंविशिष्टेत्याह-तपोनियमकथा' अनशनादिपञ्चाश्रवविर- स्वरूपं मणादिरूपा, साऽपि विरागसंयुक्ता न निदानादिना रागादिसंगता, अत एवाह-यां कथां श्रुत्वा मनुष्याश्रोता ब्रजति-गच्छति 'संवेयणिब्वेद ति संवेगं निवेंदं चेति गाथार्थः । कथाकथनविधिमाह-महाापि
कथा अपरिक्लेशबहुला कथयितव्या, नातिविस्तरकथनेन परिक्लेशः कार्य इत्यर्थः, किमित्येवमित्यत आह-हदीदी'त्युपदर्शने महता चडकरत्वेन-अतिप्रपञ्चकथनेनेत्यर्थः किमित्याह-अर्थ कथा हन्ति-भावार्थ नाशयतीति
गाथार्थः । विधिशेषमाह-क्षेत्रं-भौतादिभावितं कालं-क्षीयमाणादिलक्षणं पुरुष-पारिणामिकादिरूपं सामध्ये चात्मनो ज्ञात्वा प्रकृते वस्तुनीति योगः श्रमणेन त्वनवद्या-पापानुवन्धरहिता कथा कथयितव्या, नान्येति गाधार्थः । उक्ता कथा, तदभिधानाद्गतो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चे: पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयम् , तचेदम्
॥११५॥ संजमे सुट्रिअप्पाणं, विप्पमुक्काण ताइणं । तेसिमेयमणाइपणं, निग्गंथाण महेसिणं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1/गाथा ||१-१०|| नियुक्ति : २१४...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१-१०||
दीप अनुक्रम [१७-२६]
॥१॥ उद्देसिथं कीयगडं, नियागमभिहडाणि य । राइभत्ते सिणाणे य, गंधमल्ले य वीपणे ॥२॥ संनिही गिहिमत्ते य, रायपिंडे किमिच्छए । संवाहणा दंतपहोयणा य संपुच्छणा देहपलोयणा य ॥३॥ अट्ठावए य नालीए, छत्तस्स य धारणहाए । तेगिच्छं पाहणा पाए, समारंभं च जोइणो॥४॥ सिज्जायरपिंडं च, आसंदीपलियंकए । गिहतरनिसिज्जा य, गायस्सुव्वदृणाणि य ॥ ५ ॥ गिहिणो वेआवडियं, जा य आजीववत्तिया । तत्तानिव्वुडभोइत्तं, आउरस्सरणाणि य॥ ६॥ मूलए सिंगबेरे य, उच्छखंडे अनिव्वुडे । कंदे मूले य सञ्चित्ते, फले बीए य आमए ॥ ७॥ सोवच्चले सिंधवे लोणे, रोमालोणे य आमए । सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे य आमए ॥८॥ धुवणे त्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे । अंजणे दंतवणे य, गायाब्भंगविभूसणे ॥९॥ सव्वमेयमणाइन्नं, निग्गंथाण महेसिणं । संजमंमि अ जुत्ताणं, लहभूयविहारिणं ॥१०॥
| अनाचरित' वस्तूनां स्वरुप-कथनं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1/गाथा ||१-१०|| नियुक्ति : २१४...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१-१०||
%
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दशवैका० अस्य व्याख्या-इह संहितादिक्रमः क्षुण्णः, भावार्थस्त्वयम्-'संयमें दुमपुष्पिकाव्यावर्णितस्वरूपे शोभ-३ क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिः लानेन प्रकारेण आगमनील्या स्थित आत्मा येषां ते सुस्थितात्मानस्तेषां, त एव विशेष्यन्ते-विविधम्- अनेकैःचारकथा.
प्रकारैः प्रकर्षेण-भावसारं मुक्ता-परित्यक्ताः बाह्याभ्यन्तरेण ग्रन्धेनेति विप्रमुक्तास्तेषां, त एव विशेष्यन्ते-त्रा- अनाचीर्ण॥११६॥ यन्ते आत्मानं परमुभयं चेति त्रातारः, आत्मानं प्रत्येकबुद्धाः परं तीर्थकराः, खतस्तीर्णखाद्, उभयं स्थविरा| खरूपं
[इति, तेषामिद-वक्ष्यमाणलक्षणं अनाचरितम्-अकल्प्यं, केषामित्याह-निर्मेन्थानां' साधूनामित्यभिधान
मेतत्, महान्तश्च ते ऋषयश्च महर्षयो यतय इत्यर्थः, अथवा महान्तं एषितुं शीलं येषां ते महषिणस्तेषां, इह । शाच पूर्वपूर्वभाव एव उत्तरोत्तरभावो नियमितो हेतुहेतुमद्भावेन वेदितव्यः, यत एव संयमे सुस्थितात्मानोऽत
एव विप्रमुक्ताः, संयमसुस्थितात्मनिवन्धनत्वाद्विप्रमुक्तेः, एवं शेषेष्वपि भावनीयं, अन्ये तु पश्चानुपूळ हेतु
हेतुमद्भावमित्धं वर्णयन्ति-यत एव महर्षयोऽत एव निर्ग्रन्धा, एवं शेषेष्वपि द्रष्टव्यमिति सूत्रार्थः ।। सासम्प्रतं यदनाचरितं तदाह-'उद्देसिय'ति उद्देशनं साध्याद्याश्रित्य दानारम्भस्येत्युद्देशः तत्र भवमोद्देशिकं १,४ *क्रयणं-क्रीतं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, साध्वादिनिमित्तमिति गम्यते. तेन कृतं-निवर्तितं क्रीतकृतं २, 'नियाग-14
मित्यामन्त्रितस्य पिण्डस्य ग्रहणं नित्यं न त्वनामश्रितस्य ३, 'अभिहडाणि यत्ति खग्रामादेः साधुनिमित्तमभिमुखमानीसमभ्याहृतं, बहुवचनं खग्रामपरग्रामनिशीथादिभेदख्यापनार्य४, तथा रात्रिभक्तं रात्रिभोजनं दिवसगृहीतदिवसभुक्तादिचतुर्भङ्गलक्षणं ५, 'स्वानं च देशसर्वभेदभिन्नं, देशस्नानमधिष्ठानशौचातिरेकेणा
॥११६॥
दीप अनुक्रम [१७-२६]
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-5
JanEchain
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1/गाथा ||१-१०|| नियुक्ति : २१४...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१-१०||
दीप
क्षिपक्ष्ममक्षालनमपि, सर्वनानं तु प्रतीतं ६, तथा 'गन्धमाल्यव्यजनं च गन्धग्रहणात्कोष्टपुटादिपरिग्रहः माल्यग्रहणाच प्रथितवेष्टितादेर्माल्यस्य वीजनं तालवृन्तादिना धर्म एव, ७८-९ इदमनाचरितं, दोषाश्चौदेशिकादिष्वारम्भप्रवर्तनादयः स्वधियाऽवगन्तव्या इति सूत्रार्थः ॥ इदं चानाचरितमित्याह-'संनिहित्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-संनिधीयतेऽनयाऽऽस्मा दुर्गताविति संनिधिः-घृतगुडादीनां संचयक्रिया १०, 'गृहिमा' ग्रहस्थभाजनं च ११, सथा 'राजपिण्डों पाहारः, कः किमिच्छतीत्येवं यो दीयते स किमिच्छका, राजपिण्डोऽन्यो वा सामान्येन १२, तथा 'संबाधनम् अस्थिमांसत्वग्रोमसुखतया चतुर्विधं मर्दनं १३, ‘दन्तप्रधावनं' चाङ्गुल्यादिना क्षालनं १४, तथा 'संप्रश्नः' सावद्यो गृहस्थविषयः, राढाथै कीडशो वाऽहमित्यादिरूपः १५,
देहप्रलोकनं च' आदर्शादावनाचरितम् १६, दोषाश्च संनिधिप्रभृतिषु परिग्रहप्राणातिपातादयः स्वधियैव भावाच्या इति सूत्रार्थः॥ किंच-'अट्ठावए ये सूत्रम्, अस्य व्याख्या-अष्टापदं चेति, 'अष्टापदं घूतम् , अर्थ|पवं वा-गृहस्थमधिकृत्य नीत्यादिविषयमनाचरितं १७, तथा 'नालिका चेति यूतविशेषलक्षणा, यत्र मा
भूस्कलयाऽन्यथा पाशकपातनमिति नलिकया पात्यन्त इति, इयं चानाचरिता १८, अष्टापदेन सामान्यतो मयूतग्रहणे सत्यप्यभिनिवेशनिबन्धनत्वेन नालिकायाः प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेन उपादानम्, अर्थपदमेवो
तार्थं तदित्यन्ये अभिदधति, अस्मिन् पक्षे सकलद्यूतोपलक्षणार्थ मालिकाग्रहणम्, अष्टापदयूतविशेषपक्षे चोभयोरिति । तथा 'छत्रस्य च लोकप्रसिद्धस्य धारणमात्मानं परं वा प्रत्यन_येति, आगाढग्लानाबाल
अनुक्रम [१७-२६]
ॐॐॐ
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प्रत
सूत्रांक
॥१-१०||
दीप
अनुक्रम [१७-२६]
:+|भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + अध्ययनं [३], उद्देशक [−], मूलं [-] / गाथा ||१-१०|| निर्युक्तिः [२१४...], भाष्यं [४ ...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४२] मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दसवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ ११७ ॥
Education
क्षुल्लिकाचारकथा०
र्णस्व●
स्वनं मुक्त्वाऽनाचरितं, प्राकृतशैल्या चात्रानुखारलोपोऽकारनकारलोपौ च द्रष्टव्यौ, तथाश्रुतिप्रामाण्यादिति १९, तथा 'तेगिच्छति, चिकित्साया भावश्चैकित्स्यं व्याधिप्रतिक्रियारूपमनाचरितं २०, तथोपानही पादयोरनाचरिते, पादयोरिति साभिप्रायकं, न स्वापत्कल्पपरिहारार्थमुपग्रहधारणेन २१, तथा 'समारम्भव' : अनाचीसमारम्भणं च 'ज्योतिषः' अग्नेस्तदनाचरितमिति २२, दोषा अष्टापदादीनां क्षुण्णा एवेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ किंच- 'सज्जायर' सूत्रम्, अस्य व्याख्या - शय्यातरपिण्डश्चानाचरितः, शय्या वसतिस्तया तरति संसारमिति शय्यातरः- साधुवसतिदाता, तत्पिण्डः २३, तथा आसन्दकपर्यङ्की अनाचरितौ, एतौ च लोकप्रसिद्धावेव २४-२५, तथा गृहान्तरनिषया अनाचरिता, गृहमेव गृहान्तरं गृहयोर्वा अपान्तरालं तत्रोपवेशनम्, चशब्दास्पाटकादिपरिग्रहः २६, तथा गात्रस्य कायस्योद्वर्तनानि चानाचरितानि, उद्वर्तनानि-पङ्कापनयनलक्षणानि, चशब्दादन्यसंस्कारपरिग्रहः २७, इति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ तथा--'गिहिणोत्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या--'गृ हिणो' गृहस्थस्य 'वैयावृत्त्यं'' व्यावृत्तभावो वैयावृत्त्यं, गृहस्थं प्रत्यन्नादिसंपादनमित्यर्थः, एतदनाचरितमिति २८, तथा च 'आजीववृत्तिता' जातिकुलगणकर्मशिल्पानामाजीवनम् आजीवस्तेन वृत्तिस्तद्भाव आजीववृत्तिता-जात्याद्याजीवनेनात्मपालनेत्यर्थः, इयं चानाचरिता २९ तथा 'तप्तानिर्वृतभोजित्वम्' तसं च तदनिर्वृतं च-अत्रिदण्डोद्वृत्तं चेति विग्रहः, उदकमिति विशेषणान्यथानुपपत्त्या गम्यते, तद्भोजित्वं-मिश्रसचितोदकभोजित्वम् इत्यर्थः, इदं चानाचरितम् ३०, तथा 'आतुरस्मरणानि च क्षुधायातुराणां पूर्वोपभुक्तस्म
Forane & Personal Use City
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॥ ११७ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं -1/गाथा ||१-१०|| नियुक्ति : २१४...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१-१०||
दीप अनुक्रम [१७-२६]
रणानि च अनाचरितानि, आतुरशरणानि वा-दोषातुराश्रयदानानि ३१, इति सूत्रार्थः॥६॥ किंच-मूलए'त्ति सूत्रम् , अस्य व्याख्या-मूलको लोकप्रतीतः, 'शृङ्गवेरं च आर्द्रकम् च तथा 'इक्षुखण्डं च लोकप्रतीतम् , अनिर्वृतग्रहणं सर्वत्राभिसंबध्यते, अनिर्घतम्-अपरिणतमनाचरितमिति, इक्षुखर्ड चापरिणतं द्विपर्वान्तंभ यद्वर्तते ३२-३३-३४, तथा 'कन्दो' बज्रकन्दादिः ३५, 'मूलं च सद्दामूलादि, सचित्तमनाचरितम् ३६, तथा| 'फलं' अपुष्यादि ३७, 'बीजं च तिलादि ३८, "आमकं सचित्तमनाचरितमिति सूत्रार्थः॥ ७ ॥ किंच
-'सोचञ्चले'त्ति सूत्रम् , अस्य व्याख्या-सौवर्चलं ३९, सैन्धवं ४०, 'लवणं च' सांभरिलवणं ४१, रुमालवणं ६च ४२, आमकमिति सचित्तमनाचरितम् , सामुद्र-समुद्रलवणमेव ४३, 'पांशुक्षारच' ऊषरलवणं ४४, 'कृष्ण-18
लवणं च' सैन्धवलवणपर्वतैकदेशजम् ४५, आमकमनाचरितमिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ किं च-'धूवणे'त्ति |
सूत्रम्, अस्य व्याख्या-धूपनमित्यात्मवत्रादेरनाचरितम्, प्राकृतशेल्या अनागतव्याधिनिवृत्तये धूमपान४|मित्यन्ये व्याचक्षते ४६, वमनं मदनफलादिना ४७, वस्तिकर्म पुटकेनाधिष्ठाने स्नेहदानं ४८, विरेचनं द-13
न्यादिना ४९, तथा अञ्जनं रसाञ्जनादिना ५०, दन्तकाष्ठं च प्रतीतं ५१, तथा गात्राभ्यङ्गस्तैलादिना ५२, विभूषणं गात्राणामेव ५३, इति सूत्रार्थः॥९॥ क्रियासूत्रमाह-'सबमेयं ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-सर्व६|मेतद्-औद्देशिकादि यदनन्तरमुक्तमिदमनाचरितं, केषामित्याह-निर्ग्रन्धानां महर्षीणां साधूनामित्यर्थः, त8
एव विशेष्यन्ते-संयमे, चशब्दात्तपसि, युक्तानाम्-अभियुक्तानां 'लघुभूतविहारिणां लघुभूतो-चायुः, त
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/गाथा ||११-१५|| नियुक्ति : [२१४...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
दशवैका हारि-वृत्तिः
क्षुलिकाचारकथा. साधुस्वरूपं
सूत्रांक
॥११८॥
||११-१५||
या तश्च वायुभूतोऽप्रतिबद्धतया विहारो येषां ते लघुभूतविहारिणस्तेषां, निगमनक्रियापदमेतदिति सूत्रार्थः ॥१०॥ किमित्यनाचरितं ?, यतस्त एवंभूता भवन्तीत्याह
पंचासवपरिषणाया, तिगुत्ता छसु संजया । पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदंसिणो ॥ ११॥ आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा । वासासु पडिसंलीणा, सं. जया सुसमाहिया ॥ १२॥ परीसहरिऊदंता, धूअमोहा जिइंदिया। सव्वदुक्खप्पहीणट्रा, पक्कमंति महेसिणो ॥ १३ ॥ दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु य । केइस्थ देवलोएसु, केइ सिज्झंति नीरया ॥ १४ ॥ खवित्ता पुव्वकम्माई, संजमेण तवेण य । सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिणिव्वुड ॥१५॥ त्ति बेमि। गाथा पं०३१॥इइ खुड्डि
यायारकहज्झयणं तइयं ॥३॥ 'पञ्चाश्रवा' हिंसादयः 'परिज्ञाता द्विविधया परिज्ञया-ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च परि-समन्ताज्ज्ञाता यैस्ते पश्चाश्रवपरिज्ञाताः, आहितान्यादेराकृतिगणत्वान्न निष्ठायाः पूर्वनिपात इति समासो युक्त एव, परिज्ञातपश्चाश्रवा इति वा, यत एव चैवंभूता अत एव 'त्रिगुप्ता' मनोवाकायगुप्तिभिः गुप्ता । 'षट्सु संयता
दीप अनुक्रम [२७-३१]
।।११८॥
JEScannCE
अथ साधुत्व-स्वरुपस्य कथनं क्रियते
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/ गाथा ||११-१५|| नियुक्ति: [२१४...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक ||११
HERE
-१५||
षट्सु जीवनिकायेषु पृथिव्यादिषु सामस्त्येन यताः, 'पञ्चनिग्रहणा' इति निगृह्णन्तीति निग्रहणाः कर्तरिम ल्युट् पश्चानां निग्रहणाः पश्चनिग्रहणाः, पश्चानामितीन्द्रियाणां, 'धीरा' बुद्धिमन्तः स्थिरावा, 'निर्ग्रन्थाः' साधवा, 'ऋजुदर्शिन' इति ऋजुर्मोक्षं प्रति ऋजुत्वात्संयमस्तं पश्यन्त्युपादेयतयेति ऋजुदर्शिनः-संयमप्रतिबद्धाः इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ ते च ऋजुदर्शिनः कालमधिकृत्य यथाशक्तयेतत्कुर्वन्ति-'आयावयंति'त्ति सूत्रम् , अस्य व्याख्या-'आतापयन्ति-ऊर्ध्वस्थानादिना आतापनां कुर्वन्ति 'ग्रीष्मेषु' उष्णकालेषु, तथा हेमन्तेषु' शीतकालेषु 'अमावृता' इति प्रावरणरहितास्तिष्ठन्ति, तथा 'वर्षासु' वर्षाकालेषु 'संलीना' इत्येकाश्रयस्था भवन्ति 'संयता' साधवः 'सुसमाहिता' ज्ञानादिषु यत्नपराः, ग्रीष्मादिषु बहुवचनं प्रतिवर्षकरणज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः ।। १२॥ 'परीसह सि सूत्रम् , अस्य व्याख्या-मार्गाच्यवननिर्जराथ परिषोढव्याः परीषहा:-क्षुत्पिपासादयात एव रिपवस्तत्तुल्यधर्मस्वात्परीषहरिपवस्ते दान्ता-उपशमं नीता यैस्ते परीषहरिपुदान्ताः, समासः पूर्ववत्, न प्राकृते पूर्वापरपदनियमव्यवस्था 'नाणविमलजोहाग मिति यथा, तथा 'धुतमोहा' |विक्षिप्तमोहा इत्यर्थः, मोहा-अज्ञानं, तथा जितेन्द्रियाः शब्दादिषु रागद्वेषरहिता इत्यर्थः, त एवंभूताः 'स-13 बदुःखप्रक्षयाथै शारीरमानसाशेषदुःखप्रक्षयनिमित्तं 'प्रक्रामन्ति' प्रवर्तन्ते, किंभूताः ?-'महर्षयः' साधव इति सूत्रार्थः॥ १३ ॥ इदानीमेतेषां फलमाह-दुक्कराईति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-एवं दुष्कराणि कृत्वौद्देशिकादित्यागादीनि तथा दुःसहानि सहित्त्वाऽऽतापनादीनि केचन तन्त्र 'देवलोकेषु' सौधर्मादिषु, गच्छन्तीति
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दीप अनुक्रम [२७-३१]
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [३], उद्देशक [-], मूलं [-]/गाथा ||११-१५|| नियुक्ति : २१४...], भाष्यं [४...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
साधुस्व
||११
दशवका. वाक्यशेषः। तथा केचन सिद्ध्यन्ति, तेनैव भवेन सिद्धि प्राप्नुवन्ति । वर्तमाननिर्देशः सूत्रस्य त्रिकालवि- क्षुल्लिकाहारि-वृत्तिः
दापयत्वज्ञापनार्थः । 'नीरजस्का' इत्यष्टविधकर्मविप्रमुक्ताः, न त्वेकेन्द्रिया इव कर्मयुक्ता एवेति सत्रार्थः ॥ १४ ॥चारकथा.
येऽपि चैवंविधानुष्ठानतो देवलोकेषु गच्छन्ति तेऽपि ततश्च्युता आर्यदेशेषु सुकुले जन्मावाप्य शीघ्र सि॥ ११९॥
यन्येतदाह-खवित्त'त्ति सूत्रम्, अस्य व्याख्या-ते देवलोकच्युताः क्षपयित्वा पूर्वकर्माणि सावशेषाणि,8 केनेत्याह-संयमेन' उक्तलक्षणेन तपसा च, एवं प्रवाहेण 'सिद्धिमार्ग' सम्यग्दर्शनादिलक्षणमनुप्राप्ताः स-1 न्तखातार आत्मादीनां परिनिर्वान्ति' सर्वथा सिद्धि प्रामुवन्ति, अन्ये तु पठन्ति-परिनिव्वुडत्ति, तत्रापि
प्राकृतशैल्या छान्दसत्वाचायमेव पाठो ज्यायान्, इति अधीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः । उक्तोऽनुगमः, सासम्प्रतं नया, ते च पूर्ववद्रष्टव्याः । इति व्याख्यातं क्षुल्लकाचारकथाध्ययनम् ॥३॥
-१५||
दीप अनुक्रम [२७-३१]
RECECANCESAX
इति श्रीदशवकालिके हरिभद्रमूरिकृतटीकायां तृतीयमध्ययनम् ॥ ३॥
॥११९॥
Jamachannel
अध्ययनं -3- परिसमाप्त
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आगम
(४२)
प्रत सूत्रांक
[१]
दीप
अनुक्रम [३२]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [– ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्ति: [ २१५], भाष्यं [५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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॥ अथ चतुर्थाध्ययनम् ॥
सुअं मे आउसंतेगं भगवया एवमक्खायं इह खलु छज्जीवणियानामज्झयणं समणेणं भगवया महावीरेण कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेअं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ॥ ( सू० १ )
व्याख्यातं क्षुल्लिकाचारकथाध्ययनमिदानीं षड्जीवनिकायाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तराध्ययने 'साधुना धृतिराचारे कार्या न त्वनाचारे, अयमेव चात्मसंयमोपाय' इत्युक्तम्, इह पुनः स आचारः षड्जीवनिकायगोचरः प्राय इत्येतदुच्यते, उक्तं च- "छसुं जीवनिकाएसु, जे बुहे संजय सया । से चेव होइ विण्णेए, परमत्थेण संजय ॥ १ ॥ इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, आह च भाष्यकारःजीवाहारो भण्णइ आयारो तेणिमं तु आयावं । छज्जीवणिज्झयणं तस्सऽहिगारा इमे होति ॥ भाष्यम् ॥ २१५ ॥ व्याख्या जीवाधारो भण्यत आचारः, तत्परिज्ञानपालनद्वारेणेति भावः, येनैतदेवं तेनेदम् 'आयातम्' १ षट्सु जीवनिकायेषु यो बुधः संयतः सदा। स एव भवति विज्ञेयः परमार्थेन संयतः ॥ १ ॥
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अध्ययनं -४- " षड्जीवनिकाय" आरभ्यते
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1.
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२१५], भाष्यं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दशवैका हारि-वृत्तिः ॥१२॥
[१]
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अवसरप्राप्त, किं तदित्याह-षड्जीवनिकाध्ययनम् , अत्रान्तरे अनुयोगद्वारोपन्यासावसरः, तथा चाहतस्य' षड्जीवनिकाध्ययनस्यार्थाधिकाराः 'एते भवन्ति' वक्ष्यमाणलक्षणा इति गाथार्थः॥ तानाह
निकाया० जीवाजीवाहिगमो परित्तधम्मो तहेव जयणा य । जबएसो धम्मफलं छज्जीवणियाइ अहिगारा ॥ २१६ ॥
एकपट्योव्याख्या-जीवाजीवाभिगमों' जीवाजीवखरूपमभिगम्यतेऽस्मिन्नित्यभिगम इतिकृस्खा, खरूपे च सत्यभि-निपाः गम्यत इति भावः, तथा 'चारित्रधर्म:' प्राणातिपातादिनिवृत्तिरूपः, तथैव 'यतना च' पृथिव्यादिष्वारम्भपरिहारयत्नरूपा, तथा 'उपदेशः' यथाऽऽत्मा न बध्यत इत्यादिविषयः, तथा धर्मफलम्' अनुत्तरज्ञानादि, एते षड्जीवनिकाया अधिकारा इति गाथार्थः । अत्रान्तरे गत उपक्रमः, निक्षेपमधिकृत्याह
छजीवणियाए खलु निक्खेवो होइ नामनिफनो । एएसि तिण्हपि उ पत्तेयपरूवणं वोच्छ । २१७ ॥ व्याख्या-'षड्जीवनिकायायाः' प्रक्रान्तायाः खल्विति पूरणार्थों निपाता, निक्षेपो भवति नामनिष्पन्न: षड्जीवनिकायिकेत्ययमेव, यतश्चैवमत एतेषां 'त्रयाणामपि षड्जीवनिकायपदानां 'प्रत्येक मिति एकमेकं| प्रति प्ररूपणां सूत्रानुसारेण 'वक्ष्ये अभिधास्य इति गाथार्थः ॥ तत्रैकस्याभावे षपणामभाव इत्येकररूपणामाहणाम ठवणा दविए मालगपवसंगहेकर चेव । पञवभावे य तहा सत्तेए एकगा होति ।। २१८॥
॥१२०॥ नाम ठवणा दबिए खेते काले तहेब भाचे अ । एसो उ छकगस्सा निक्खेवो छठिवहो होइ ॥ २१९ ॥
अनुक्रम [३२]
षड़ जीवनिकायं स्वरुपम् प्रकाश्यते
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : २१९], भाष्यं [५...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
व्याख्या-इयं द्रुमपुष्पिकायां व्याख्यातेति नेह व्याख्यायते, संग्रहैककेन चात्राधिकारः ॥ साम्प्रतं यादीन विहाय षट्प्ररूपणामाह-तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यषट्-पडू द्रव्याणि सचित्ताचित्तमिश्राणि पुरुषकार्षापणालङ्कृतपुरुषलक्षणानि, क्षेत्रषटुं-पडाकाशप्रदेशाः, यद्वा भरतादीनि, कालषटुं-षट् समयाः षड् ऋतवः, तथैव भावे चेति भावषट्-पडू भावा औदयिकादयः, अन च सचित्तद्रव्पषदेनाधिकार इति गाथार्थः ।। आह-अब वायनभिधानं किमर्थम् ?, उच्यते, एकषडभिधानतः आचन्तग्रहणेन तद्गतेरिति । व्याख्यातं षट्पदम्, अधुना जीवपदमाह
जीवस्स उ निक्खेवो परूवणा लक्षणं च अत्थित्तं । अन्नामुत्तत्तं निचकारगो देहवावित्तं ।। २२०॥
गुणिउगइत्ते या निम्मयसाफल्लता व परिमाणे। जीवस्त तिविहकालम्मि परिक्खा होइ कायव्या ॥२२१॥ दो दारगाहाओ। एतद्वारगाथाद्वयम् , अस्य व्याख्या-जीवस्य तु 'निक्षेपों'नामादिः, 'प्ररूपणा' द्विविधाश्च भवन्ति जीवा इत्यादिरूपा लक्षणं च-आदानादि 'अस्तित्वं सत्त्वं शुद्धपदवाच्यत्वादिना 'अन्यत्वं देहात् 'अमूर्तत्वं' स्वतः 'नित्यत्वं विकारानुपलम्भेन 'कर्तृत्वं' खकर्मफलभोगात् 'देहव्यापित्वं' तत्रैव तल्लिङ्गोपलब्ध्या 'गुणित्वं' योगादिना 'ऊर्ध्वगतित्वम्' अगुरुलघुभावेन 'निर्मा(म)यता' विकाररहितत्वेन, सफलता-च कर्मणः 'परिमाणं'
लोकाकाशमात्र इत्यादि (ग्रन्थाग्रं ३०००) एवं जीवस्य 'त्रिविधकाल' इति त्रिकालविषया, परीक्षा भदश. २१||वति कर्तव्या इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः ।। व्यासार्थस्तु भाच्यादवसेयः, तथा च निक्षेपमाह
अनुक्रम [३२]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[3]
दीप
अनुक्रम
[३२]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [– ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्ति: [ २२२ ], भाष्यं [६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशका हारि-वृत्तिः
॥ १२१ ॥
नामंठवणाजीव दव्वजीवो य भावजीवो य । ओह भवग्गहणंमि य तत्रभवजीवे य भावम् ॥ २२२ ॥ व्याख्या- 'नामस्थापनाजीव' इति जीवशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामजीवः स्थापनाजीव इति, तथा द्रव्यजीवश्च 'भावजीवश्च' वक्ष्यमाणलक्षणः, तत्र 'ओघ' इति ओघजीवः, 'भवग्रहणे चेति भवजीवः, 'तद्भवजीवश्च' तद्भव एवोत्पन्नः, 'भावे' भावजीव इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थं त्वाह
नामंठवण गयाओ दव्वे गुणपज्जवेहि रहिउत्ति । तिविहो य होइ भावे आहे भव तत्रभवे चैव ॥ ६ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-नामस्थापने गते, क्षुण्णत्वादिति भावः, 'द्रव्य' इति द्रव्यजीवो 'गुणपर्यायाभ्यां' चैतन्यमनुष्यत्वादिलक्षणाभ्यां रहितः, बुद्धिपरिकल्पितो, न त्वसावित्थंविधः संभवतीति, त्रिविधश्च भवति भाव इति, भावजीवत्रैविध्यमाह-ओघजीवो भवजीवस्तद्भवजीवश्चेति, प्राग्गाधोक्तमप्येतदित्थंविध भाष्यकारशैलीप्रामाण्यतोदुष्टमेवेति । अन्ये तु पठन्ति - 'भावे उ तिहा भणिओ, तं पुण संखेवओ वोच्छं' 'भाव' इति भावजीवः, 'त्रिधे'ति त्रिप्रकारो 'भणितो' नियुक्तिकारण ओघजीवादिः, तमपि च भावार्थमधिकृत्य संक्षेपतो वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ तत्रौघजीवमाह
संते आयकम्मे धरई तस्सेच जीवई उदए । तस्सेव निजराए मत्र त्ति सिद्धो नयमएणं ॥ ७ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या- 'सति' विद्यमान आयुष्ककर्मणि सामान्यरूपे धियते सामान्येनैव तिष्ठति भवोदधौ, कथमित्थमवस्थानमात्राजीवत्वमस्येत्याशङ्कया त्रैवान्वर्धयोजनामाह-'तस्यैव' ओघायुष्ककर्मणो 'जीवत्युदये' उदये सति
'जीव' शब्दस्य नामादि निक्षेपाः कथयते
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४ षड्जीवनिकाध्य० जीवसिद्धिः
॥ १२१ ॥
beary dig
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२२...], भाष्यं [७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
*जीवस्यासंसारं प्राणान धारयति, अतो जीवनाजीव इति, तस्यैवीघायुष्ककर्मणो 'निर्जरपा' क्षयेण, मृत इति,
सर्वथा जीवनाभावात्, स च सिद्धो मृतो, नान्यः, विग्रहगतावपि तथाजीवनसद्भावात्, 'नयमतेने ति सर्वनयमतेनैव मृत इति गाधार्थः। उक्त ओघजीवितविशिष्ट ओघजीवः, साम्प्रतं भवजीवं तद्भवजीवं चाह
जेण व धरइ भवगओ जीवो जेण च भवाउ संकलई । जाणाहि तं भवाउं चउव्विहं तब्भवे दुविहं ॥ ८॥ भाष्यम् । निक्खेवो त्ति गर्य । | व्याख्या-'येन च' नारकाद्यायुष्केण 'ध्रियते' तिष्ठति भवगतों नारकादिभवस्थितो जीवा, तथा येन च
मनुष्याचायुष्केण 'भवात्' नारकादिलक्षणात् 'संक्रामति' याति, मनुष्यादिभवान्तरमिति सामोद्गम्यते, KI'जानीहि' विद्धि, तदित्थंभूतं "भवायुः भवजीवितं, चतुर्विधं नारकतिर्यअनुष्यामरभेदेन, तथा तद्भवें तद्भ-15
विषयम्, आयुरिति वर्तते, तब द्विविध-तिर्यक्तद्भवायुर्मनुष्यतद्भवायुश्च, यस्मात्तावेव मृतौ सन्तौ भूयस्तस्मिन्नेव भव उत्पद्यते, नान्ये, तद्भवजीवितं च तस्मान्मृतस्य तस्मिन्नेवोत्पन्नस्य यत्तदुच्यत इति । अत्रापि |च भावजीवाधिकारात्तद्भवजीवितविशिष्टश्च जीव एव ग्राह्यः, जीवितं तु तविशेषणत्वादुक्तमिति गाथार्थः॥ उक्तो निक्षेपः, इदानी प्ररूपणामाह
दुविहा य हुंति जीवा मुहुमा तह घायरा य लोगम्मि । सुहुमा य सव्वलोए दो चेव य बायरविहाणे ॥ ९ ॥ भाष्यम् ॥
अनुक्रम [३२]
NAGACKSSSSSSSSC
१ अत्र 'जीवल्पनेनेति जीव ओपेन सामान्येन जीव ओषजीवितविशिष्ट जीवः, मध्यमपदोत्तरपदलोपाइ इत्थं भवति' इत्यधिक केचिदादर्शपु.
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सूत्रांक
[8]
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अनुक्रम [३२]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [ २२२...], भाष्यं [९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
व्याख्या- 'द्विविधा' द्विप्रकाराश्च चशब्दान्नवविधाश्च पृथिव्यादिद्वीन्द्रियादिभेदेन भवन्ति जीवाः, द्वैवि ध्यमाह-सूक्ष्मास्तथा बादराश्च तत्र सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मा बादरनामकमदयाच वादरा इति, 'लोक' इति लोकग्रहणमलोके जीवभवनव्यवच्छेदार्थ, तत्र सूक्ष्माश्च सर्वलोक इति चशब्दस्यावधारणार्थत्वात्सूक्ष्मा ॥ १२२ ॥ ५ एव सर्वलोकेषु न बादराः, कचित्तेषामसंभवात्, 'द्वे एव च' पर्याप्तकापर्याप्त लक्षणे 'बादरविधाने' बादर* विधी, चशब्दात्सूक्ष्मविधाने च तेषामपि पर्याप्तकापर्यातकरूपत्वादिति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह— सुमा य सव्वलो परियावन्ना भवंति नायव्वा दो चैव बायराणं पजत्तियरे अ नायव्या ॥ १० ॥ भाष्यम् ॥ परूवणादारं गयं ति ।।
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
Ja Educator
व्याख्या सूक्ष्मा एव पृथिव्यादयः 'सर्वलोके' चतुर्दशरजवात्मके 'पर्यायापन्ना भवन्ति ज्ञातव्याः' 'पर्याव्यापन्ना' इति तमेव सूक्ष्मपर्यायमापन्नाः भावसूक्ष्मा न तु भूतभाविनो द्रव्यसूक्ष्मा इति भावः । तथा द्वौ भेदौ बादराणां पृथिव्यादीनां चशब्दात् सूक्ष्माणां च, 'पर्याप्तकेतरी ज्ञातव्यौ' पर्यातकापर्यातकाविति गाथार्थः ॥ उक्ता प्ररूपणा, अधुना लक्षणमुच्यते, तथा चाह भाष्यकारः
araणमिवाणि दारं धिं हेऊ अ कारणं लिंग । उक्खणमिइ जीवस्स उ आयाणाई इमं तं च ॥ ११ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या - लक्षणमिदानीं द्वारमवसरप्राप्तम्, अस्य च प्रतिपत्त्यङ्गतया प्रधानत्वात्सामान्यतस्तावत्तत्स्वरूपमेवाह-चिह्नं हेतु कारणं लिङ्गं लक्षणमिति । तत्र चिह्नम् उपलक्षणं यथा पताका देवकुलस्य हेतु:-निमित्तलक्षणं यथा कुम्भकारनैपुण्यं घटसौन्दर्यस्य कारणम्-उपादानलक्षणं यथा मृन्मसृणत्वं घटवलीय
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४ षड्जीवनिकाध्य० जीवसिद्धिः
॥ १२२ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: २२३], भाष्यं [११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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स्त्वस्य, लिङ्ग-कार्यलक्षणं यथा धूमोऽग्ने, पर्यायशब्दा वा एत इति । लक्षणमित्येतल्लक्षणं लक्ष्यतेऽनेन परोक्षं वस्त्वितिकृत्वा, जीवस्य पुनरादानादि लक्षणमनेकप्रकारमिदं, तच वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ।।
आयाणे परिभोगे जोगुवभोगे कसायलेसा य । आणापाणू इंदिय बंधोदयनिजरा चेव ।। २२३ ॥
चित्तं चेयण सन्ना विनाणं धारणा य बुद्धी अ । ईहामईविथका जीवस्स लक्खणा एए ॥ २२४ ॥ दारं ॥ AT व्याख्या-एतत्पतिद्वारगाथाद्यम्, अस्य व्याख्या-आदानं परिभोगस्तथा योगोपयोगी कषायलेश्याश्च
तथाऽऽनापानी इन्द्रियाणि बन्धोदयनिर्जराश्चैव, तथा चित्तं चेतना संज्ञा विज्ञानं धारणा च बुद्धिश्च तथा पाईहामतिवितर्का जीवस्य तु लक्षणान्येतानि, तुशब्दस्यावधारणार्थवाज्जीवस्यैव नाजीवस्य इति प्रतिद्वारगाथाद्वयसमासार्थः॥ व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः, तच्चेदम्
लक्खिजत्ति नजद पञ्चक्खियरो व जेण जो अस्थो । तं तस्स लक्खणं खलु धूमुण्डाइ च अग्गिस्स ।। १२ । भाष्यम् ।। व्याख्या-लक्ष्यत इति ज्ञायते कोऽसावित्याह-'प्रत्यक्षः' अक्षगोचरापन्नः 'इतरो वा परोक्षः 'येन' उष्णलावादिना 'योऽर्थः' अश्यादिस्तत्तस्य लक्षणं खल्विति, तदेव स्पष्टयति-धूमौष्पयादिवदग्नेरिति, सभीषण्येन का प्रत्यक्षो लक्ष्यते, परोक्षो धूमेनेति गाधार्थः । तत्रादानादीनां दृष्टान्तानाह
- अयगार कूर परसू अग्गि सुवण्णे अ खीरनरवासी । आहारो दिट्ठता आयाणाईण जहसंखं ।। १३ ।। भाग्यम् ।। व्याख्या-अयस्कारः कूरस्तथा परशुरग्निः सुवर्ण क्षीरनरवास्यः तथा आहारो दृष्टान्ता 'आदानादीनां
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[१]
दशवैका प्रक्रान्तानां यथासंख्यं, प्रतिज्ञाद्युल्लइनेन चैतदभिधानं परोक्षार्थप्रतिपत्तिं प्रति प्रायः प्रधानाङ्गताख्यापनार्थ- षड्जीवहारि-वृत्तिः मिति गाथार्थः॥ साम्प्रतं प्रयोगानाह
निकाध्य देहिदियाइरित्तो आया खलु गमगाहगपओगा । संडासा अयपिंटो अययाराश्यय विन्नेओ ॥ १४ ॥ भाष्यम् ॥
जीवसिद्धि ॥१२३।।
| व्याख्या-देहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, खलुशब्दो विशेषणार्थः, कथंचित्, न सर्वथाऽतिरिक्त एव, तदसंबेदनादिप्रसङ्गादिति, अनेन प्रतिज्ञार्थमाह, प्रतिज्ञा पुनः-अर्थेन्द्रियाणि आदेयादानानि विद्यमानादातृकाणि, कुत इत्याह-ग्राह्यग्राहकप्रयोगात्, ग्राह्या-रूपादयः ग्राहकाणि-इन्द्रियाणि तेषां प्रयोगः-वफलसाधनव्यापारस्तस्मात्, न ह्यमीषां कर्मकरणभावः कर्तारमन्तरेण खकार्यसाधनप्रयोगः संभवति, अनेनापि हेत्वर्थमाह, हेतुवादेयादानरूपत्वादिति । दृष्टान्तमाह-संदंशाद् आदानात् अयस्पिण्डादू आदेयात् 'अयस्कारादिवत्' लो-12 हकारवद्विज्ञेयः अतिरिक्तो विद्यमान आदातेत्यनेनापि दृष्टान्तार्थमाह, दृष्टान्तस्तु संदंशकायस्पिण्डवत्, यस्तु तदनतिरिक्तः न ततो ग्राह्यग्राहकप्रयोगः, यथा देहादिभ्य एवेति व्यतिरेकार्थी, व्यतिरेकस्तु यानि विद्यमाना
दातृकाणि न भवन्ति तान्यादानादेयरूपाण्यपि न भवन्ति, यथा मृतकद्रव्येन्द्रियादीनीति गाथार्थः । उक्तदामादानद्वारम् , अधुना परिभोगद्वारमाहII
M ॥१२३॥ देहो सभोत्तिओ खलु भोज्जत्ता ओयणाइथालं व । अन्नप्पउत्तिगा खलु जोगा परसुब्ब करणत्ता ।। १५॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-देहः सभोक्तृकः खल्विति प्रतिज्ञा, भोग्यत्वादिति हेतुः, ओदनादिस्थालवत्-स्थालस्थितीदनव
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दिति दृष्टान्तः, भोग्यत्वं च देहस्य जीवेन तथा निवसतोपभुज्यमानत्वादिति । उक्तं परिभोगद्वारम् , अधुना योगद्वारमाह-अन्यप्रयोक्तृकाः खलु योगाः, योगा:-साधनानि मन:प्रभृतीनि करणानीति प्रतिज्ञार्थः, करणवादिति हेतुः, परशुचदिति दृष्टान्तः । भवति च विशेषे पक्षीकृते सामान्य हेतुः-यथा अनित्यो वर्णात्मकः शब्दः, शब्दत्वात्, मेघशब्दवदिति गाथार्थः ॥ उक्तं योगद्वारं, साम्प्रतमुपयोगद्वारमाह
उवोगा नाभावो अग्गिव्य सलक्षणापरिचागा । सकसाया णाभावो पज्जयगमणा सुवणं व ॥ १६ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-'उपयोगात्' साकारानाकारभेदभिन्नान्नाभावो, जीव इति गम्यते, कुत इत्याह-खलक्षणापरि-12 त्यागाद्' उपयोगलक्षणासाधारणात्मीयलक्षणापरित्यागात्, अग्निवद्, यथाऽग्निरौष्ण्यादिखलक्षणापरित्या-15 है गान्नाभावः तथा जीवोऽपीति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-सन्नात्मा, स्खलक्षणापरित्यागाद्, अग्निवदिति । उक्तमु|पयोगद्वारम्, अधुना कषायद्वारमाह-सकषायस्वादू-अचेतनविलक्षणक्रोधादिपरिणामोपेतत्त्वादित्यर्थः, नाभावो जीवा, कुत इत्याह-पर्यायगमनात्-क्रोधमानादिपर्यायप्राप्ते, सुवर्णवत्, कटकादिपर्यायगमनोपेतसुवर्णवदिति प्रयोगाथें, प्रयोगस्तु-सन्नात्मा, पर्यायगमनात्, सुवर्णवदिति गाथार्थः ॥ उक्तं कषायद्वारम्, इदानीं लेश्याद्वारमाह
लेसाओ णाभावो परिणमणसभाबओ य खीरं व । उस्सासा णाभावो समसभावा खउ व्व नरो ॥ १७॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-'लेश्यातो' लेश्यासद्भावेन नाभावो जीवः, किंतु भाव इति, कुत इत्याह-परिणमनखभावत्वात्
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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हारि-वृत्तिः
निकाध्य
॥१२४॥
(१)
-कृष्णाविद्रव्यसाचिव्येन जम्बूखादकादिदृष्टान्तसिद्धतथाविधपरिणामधर्मत्वात्, क्षीरवदिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-सन्नात्मा, परिणामित्वात् , क्षीरवदिति । गतं लेश्याद्वारम्, प्राणापानद्वारमाह-पुच्छ्रासादिति, अचेतनधर्मविलक्षणप्राणापानसद्भावानाभावो जीवः, किंतु भाव एवेति, श्रमसद्भावेन परिस्पन्दोपेतपुरुषवदिति जीवसिद्धिः प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु पुनरब व्यतिरेकी द्रष्टव्यः, सात्मकं जीवच्छरीरं, प्राणादिमत्वादू, यत्तु सात्मकं न भवति तत्पाणादिमदपि न भवति, यथाऽऽकाशमिति गाधाथैः । उक्तं प्राणापानद्वारम्, अधुना इन्द्रियद्वारमुच्यते___ अक्खाणेयाणि परस्थगाणि वासाइवेह करणत्ता । गहवेयगनिजरओ कम्मस्सऽनो जहाहारो ।। १८ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-'अक्षाणि' इन्द्रियाणि 'एतानीति लोकप्रसिद्धानि देहाश्रयाणि 'परार्थानि' आत्मप्रयोजनानि, वास्यादिवदिह करणत्वात् इहलोके वास्यादिवदिति प्रयोगार्थः । आह-आदानान्येवेन्द्रियाणि तत् किमर्थं भेदोपन्यासः?, उच्यते, निवृत्युपकरणद्वारेण द्वैविध्यख्यापनार्थ, ततश्च तत्रोपकरणस्य ग्रहणमिह त निर्यत्ते-II रिति, प्रयोगस्तु-परार्थाश्चक्षुरादयः, संघातत्वात् , शयनासनादिवत्, न चायं विशेषविरुद्धः, कर्मसंवद्धस्या-18 त्मनः संघातरूपत्वाभ्युपगमात् । गतमिन्द्रियद्वारम् , अधुना बन्धादिद्वाराण्याह-ग्रहणवेदकनिर्जरकः कर्मणो|न्यो, यथाऽऽहार इति,तत्र ग्रहणं-कर्मणो बन्धः वेदनम्-उदयः निर्जरा-क्षयः, यधाऽऽहारे इति-आहारविषयाणि १२४॥ ग्रहणादीनि न कळदिव्यतिरेकेण तथा कर्मणोऽपीति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-विद्यमानभोक्तृकमिदं कर्म, ग्रह
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:+|भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [ २२४...], भाष्यं [१८]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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णवेदननिर्जरणसद्भावाद, आहारवदिति गाथार्थः ॥ उक्तानि बन्धादिद्वाराणि, व्याख्याता च प्रथमा प्रतिद्वारगाथा, साम्प्रतं द्वितीयामधिकृत्य चित्तादिखरूपव्याचिख्यासयाऽऽह
चित्तं तिकालविस चेयण पञ्चक्ख सन्नमणुसरणं । विष्णाणऽगभेयं कालमसंखेयरं धरणा ॥ १९ ॥ भाष्यम् ॥
व्याख्या-चित्तं त्रिकालविषयम्-ओघतोऽतीतानागतवर्तमानग्राहि, चेतनं चेतना-सा प्रत्यक्षवर्तमानार्थग्राहिणी, संज्ञानं संज्ञा-सा अनुस्मरणमिदं तदिति ज्ञानं, विविधं ज्ञानं विज्ञानम् अनेकभेदम् - अनेकप्रकारम्, अनेकधर्मिणि वस्तुनि तथा तथाऽध्यवसाय इत्यर्थः, 'कालमसंख्येयेतरम्' असंख्येयं संख्येयं वा, धारणा| अविच्युतिस्मृतिवासनारूपा, तत्र वासनारूपा असंख्येयवर्षायुषामसंख्येयं संख्येयवर्षायुषां च संख्येयमिति गाथार्थः ॥
अस्स्स ऊह बुद्धी ईहा चेट्टत्थअवगमो उ मई संभावणत्थतका गुणपचक्खा घडोव्वऽस्थि ॥ २० ॥ भाष्यम् ॥
व्याख्या - अर्थस्योहा बुद्धिः संशिनः परनिरपेक्षोऽर्धपरिच्छेद इति भावः, ईहा चेष्टा किमयं स्थाणुः किंवा पुरुष ? इति सदर्भपर्यालोचनरूपा, 'अर्थावगमस्तु' अर्थपरिच्छेदस्तु शिरः कण्डूयनादिधर्मोपपत्तेः पुरुष एवायमित्येवंरूपा मतिः, 'संभावणत्थतक्क'सि प्राकृतशैल्या अर्थसंभावना - एवमेव चायमर्थ उपपद्यत इत्या| दिरूपा तर्का । इत्थं द्वाराणि व्याख्याय सर्व एते चित्तादयो गुणा वर्तन्त इति जीवाख्यगुणिप्रतिपादकेन प्रयोगार्थेनोपसंहरन्नाह-गुणप्रत्यक्षत्वाद्धेतोर्घटवदस्ति जीव इति गम्यते, एष गाथार्थः । एतदेव स्पष्टयति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका० जम्हा चित्ताईया जीवस्स गुणा हवंति पञ्चक्खा । गुणपञ्चक्खतणओ घडुब्ब जीवो अओ अस्थि ॥ २१ ॥ भाष्यम् ।
षड्जीवहारि-वृत्तिः व्याख्या-यस्मात् 'चित्तादयः अनन्तरोक्ताः जीवस्य गुणाः, नाजीवस्य, शरीरादिगुणविधर्मत्वात्, एते निकाध्य च भवन्ति प्रत्यक्षाः, स्वसंवेद्यत्वात्, यतश्चैवं गुणप्रत्यक्षत्वाद्धेतोर्घटवजीवः अतोऽस्तीति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु
जीवसिद्धिः ॥१२५॥
3-सन्नात्मा, गुणप्रत्यक्षखात्, घटवत्, नायं घटवदात्मनोऽचेतनत्वापादनेन विरुद्धा, 'विरुद्धोऽसति बाधने
इतिवचनात्, एतचैतन्यं प्रत्यक्षेणैव बाधनमिति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं मूलद्वारगाथाद्वये प्रतिद्वारगाथाद्वयन लक्षणद्वारम् , इदानीमस्तित्वद्वारावसरः, तथा चाह भाष्यकार:
अधित्ति दारमहुणा जीवस्सइ अस्थि विजए नियमा । लोआवयमवधायस्थमुचए तथिमो देऊ ॥ २२ ॥ भाष्यम् ।। EL व्याख्या-अस्तीति द्वारमधुना-साम्प्रतमवसरमाप्त, तत्रैतदुच्यते-जीवः सन, पृथिव्यादिविकारदेहमात्ररूपः।
सन्निति सिद्धसाध्यता न तु ततोऽन्योऽस्तीत्याशङ्कापनोदायाह-अस्त्यन्यश्चैतन्यरूपः, तदपि मातृचैतन्योपा-12
दानं भविष्यति परलोकयायी तु न विद्यते इति मोहापोहायाह-विद्यते 'नियमात् नियमेन, तथा चाहहा'लोकायतमतघातार्थ नास्तिकाभिप्रायनिराकरणामुच्यत एतत्, तस्य चानन्तरोदित एवाभिप्राय इति स
फलानि विशेषणानि, 'तत्र' लोकायतमतविघाते कर्तव्ये 'अयं वक्ष्यमाणलक्षणो 'हेतुः' अन्यथानुपपत्तिरूपो ४ युक्तिमार्ग इति गाथार्थः ॥
॥१२५॥ जो चिंतेइ सरीरे नत्थि अहं स एव होइ जीवो ति । न तु जीवमि असंते संसयउप्पायओ अन्नो ॥ २३ ॥ भाष्यम् ।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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व्याख्या-यश्चिन्तयति 'शरीरें' अन लोकमतीते नास्त्यहं 'स एवं' चिन्तयिता भवति जीव इति । कथमेतदेवमित्याह-न यस्माजीवेऽसति मृतदेहादौ संशयोत्पादकः 'अन्य' प्राणादिः, चैतन्यरूपत्वात्संशयस्येति गाथार्थः ॥ एतदेव भावयतिआ जीवस्स एस धम्मो जा ईहा अस्थि नस्थि वा जीवो । खाणुमणुस्साणुगया जह ईहा देवदत्तस्स ॥ २४ ॥ भाष्यम् ॥
व्याख्या-जीवस्यैष खभाव:-एष धर्मः या 'ईहा' सदर्थपर्यालोचनात्मिका, किंविशिष्टेत्याह-अस्ति नास्ति | चा जीव इति, लोकप्रसिद्धं निदर्शनमाह-'स्थाणुमनुष्यानुगता' किमयं स्थाणुः किं वा पुरुष इत्येवंरूपा येहा| देवदत्तस्य जीवतो धर्म इति गाथार्थः ॥ प्रकारान्तरेणैतदेवाह
सिद्धं जीवस्स अस्थित्तं, सद्दादेवाणुमीयए । नासओ भुवि भावस्स, सहो हवइ केवलो ॥ २५ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-सिद्धं प्रतिष्ठितं 'जीवस्य उपयोगलक्षणस्यास्तित्वं, कुत इत्याह-'शब्दादेव' जीव इत्यस्मादनुमीयते, कथमेतदेवमित्याह-'नासत' इति न असता-अविद्यमानस्य 'भुवि' पृथिव्यां 'भावस्य' पदार्थस्य शब्दो भवति वाचक इति, खरविषाणादिशब्दैर्व्यभिचारमाशङ्कयाह-केवल' शुद्धः अन्यपदासंसृष्टः, स्वरादिपवसंमृष्टाय विषाणादिशब्दा इति गाथार्थः । एतद्विवरणायैवाह भाष्यकार:
अस्थिति निव्यिगप्पो जीवो नियमाउ सहओ सिद्धी । कम्हा ? सुद्धपयत्ता घडखरसिंगाणुमाणाओ ।। २६ ॥ भाष्यम् । व्याख्या-अस्तीति निर्विकल्पो जीवा, 'निर्विकल्प' इति निःसंदिग्धः, 'नियमात्' नियमेनैव, प्रतिपत्रपेक्षया|
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशबैका० 'शब्दतः सिद्धि वाचकाद्वाच्यप्रतीतेः, एतदेव प्रश्नद्वारेणाह-'कस्मात् कुत एतदेवमिति ?, आह–'शुद्धपद- षड़जीवहारि-वृत्तिःत्वात् केवलपदत्वाज्जीवशब्दस्य, घटखरशृङ्गानुमाना, अनुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः, घटखरशृङ्गदृष्टान्तादिति निकाल
प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-मुख्येनार्धनार्थवान जीवशब्दः, शुद्धपदत्वाद्, घटशब्दवत्, यस्तु मुख्येनार्थेनार्थवान् नाजीवसिटि ॥१२६ ।।
भवति स शुद्धपदमपि न भवति, यथा खरशृङ्गशब्द इति गाथार्थः ॥ पराभिप्रायमाशङ्कय परिहरन्नाह
चोयग-सुद्धपयत्ता सिद्धी जइ एवं मुण्णसिद्धि अम्हं पि । तं न भवइ संतेणं जं सुझं सुनगेहं च ॥ २७ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-उक्तवच्छुद्धपदत्त्वात्सिद्धिर्यदि जीवस्य एवं तर्हि शून्यसिद्धिरस्माकमपि, शून्यनष्टशब्दस्यापि शुद्धपदत्वादित्यभिप्रायः, अत्रोत्तरमाह-तन्न भवति यदुक्तं परेण, कुत इत्याह-'सता विद्यमानेन पदार्थेन 'य' यस्माच्छ्न्यं शून्यमुच्यते, किंवदित्याह-शून्यगृहमिव, तथाहि-देवदत्तेन रहितं शून्यगृहमुच्यते, निवृत्तो घटो नष्ट इति, नत्वनयोर्जीवशब्दस्य जीववदव(वि)शिष्टं वाच्यमस्तीति गाथार्थः ॥ प्रकारान्तरेणास्तित्वपक्षमेच समर्थयन्नाह
मिच्छा भवेत सम्बत्था, जे केई पारलोइया । कत्ता चेवोपभोत्ता य, जइ जीवो न विजइ ॥ २८ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-'मिथ्या भवेयुः अनृताः स्युः, सर्वेऽर्धा ये केचन पारलौकिका-दानादयः, यदि किमित्याह-कर्ता चैव कर्मणः उपभोक्ता च तत्फलस्य, यदि जीवो न विद्यते परलोकयायीति गाथार्थः ॥ एतदेवाव्युत्पन्नशिव्यानुग्रहार्थ स्पष्टतरमाह
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [२८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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पाणिदयातवनियमा बंभ विक्खा य इंदियनिरोहो । सब्बं निरस्थयमेयं जइ जीवो म विजई ॥ २९ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-प्राणिदयातपोनियमाः करुणोपवासहिंसाविरत्यादिरूपाः, तथा 'ब्रह्म ब्रह्मचर्य 'दीक्षा च' यागलक्षणा 'इन्द्रियनिरोध' प्रव्रज्याप्रतिपत्तिरूपः, सर्व 'निरर्थक' निष्फलमेतत्, यदि जीवो न विद्यते परलोकयायीति गाधार्थः ।। किंच-शिष्टाचरितो मार्गः, शिष्टरनुगन्तव्य' इति, तन्मार्गख्यापनायाह
लोइया वेइया चेव, तहा सामाइया विऊ । निशो जीवो पिहो देहा, इइ सव्वे वत्थिया ।। ३० ।। भाष्यम् । व्याख्या-लोके भवा लोके वा विदिता इति लौकिका-इतिहासादिकर्तारः, एवं वैदिकाश्चैव-त्रैविद्यवृद्धाः, तथा सामयिकाः-ब्रिपिटकादिसमयवृत्तयो 'विद्वांसः' पण्डिताः, नित्यो जीवो, नानित्यः, एवं पृथग् 'देहात् शरीरादित्येवं सर्वे व्यवस्थिताः, नान्यथेति गाथार्थः ॥ एतदेव व्याचष्टे
लोगे अच्छे नभेजो वेए सपुरीसदद्धगसियालो । समएजहमासि गओ तिविहो दिवाइसंसारो ॥ ३१ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-लोकेऽच्छेद्योऽभेद्य आत्मा पठ्यते, यथोक्तं गीतासु-"अच्छेद्योऽयमभेद्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते। नित्यः संततगः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥१॥” इत्यादि । तथा वेदे सपुरीषो दग्धः शृगालः पठ्यत इति,
यथोक्तम्-शृगालो वै एष जायते यः सपुरीषो दह्यते, अधापुरीषो दह्यते आक्षोधुका अस्य प्रजाः प्रादुलाभेवन्ति" इत्यादि । तथा समये "अहमासीगजः” इति पठ्यते, तथा च बुद्धवचनम्-"अहमासं भिक्षवो
१ आयहिमासंगज इति । अति प्र. २ क्षुधा रहिता इति वि०प०.
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अथ जीवस्वरुपम् प्रकाश्यते
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अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका हस्ती, षड्दन्तः शसंनिभः । शुकः पञ्जरवासी च, शकुन्तो जीवजीवकः ॥१॥” इत्यादि । तथा विविधोपजीवहारि-वृत्तिः दिव्यादिसंसारः कैश्चिदिष्यते, देवमानुषतिर्यगभेदेन, आदिशब्दाचतुर्विधः कैश्चिन्नारकाधिक्येनेति गाथार्थः निकाध्यक अत्रैव प्रकारान्तरेण तदस्तित्वमाह
जीवस्वरूपं ॥१२७||
अस्थि सरीरविहाया पइनिययागारयाइभावाओ । कुंभस्स जह कुलालो सो मुत्तो कम्मजोगाओ ॥ ३२ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-अस्ति शरीरस्य-औदारिकादेर्विधाता, विधातेति कर्ता, कुत इत्याह-'प्रतिनियताकारादिसावात् आदिमत्प्रतिनियताकारत्खादित्यर्थः, दृष्टान्तमाह-कुम्भस्य यथा कुलालो विधाता । कुलालवदेवमसाविपि मूर्तः प्रामोतीति विरुद्धमाशङ्कय परिहरन्नाह-'स' आत्मा यः शरीरविधाता असी मूतः 'कर्मयोगा-18 दिति मूर्तकर्मसंबन्धादिति गाथार्थः । अत्रैव शिष्यव्युत्पत्तयेऽन्यथा तद्हणविधिमाह
फरिसेण जहा बाऊ, गिजाई कायसंसिओ । नाणाईहिं तहा जीवो, गिज्झई कायसंसिओ ।। ३३ ।। भाष्यम् ॥ व्याख्या-'स्पर्शन' शीतादिना यथा वायुद्यते 'कायसंस्तों देहसंगतः अदृष्टोऽपि, तथा 'ज्ञानादिभिः' ज्ञानदर्शनेच्छादिभिर्जीवो गृह्यते 'कायसंस्तों देहसंगत इति गाथार्थः ॥ असकृदनुमानादस्तित्वमुक्तं जीवस्य, अनुमानं च प्रत्यक्षपूर्वकं, न चैनं केचन पश्यन्तीति, ततश्वाशोभनमेतदित्याशङ्कयाहअणिदियगुणं जीवं, दुन्नेयं मंसचक्खुणा । सिद्धा पासंति सव्वन्नू, नाणसिद्धा य साहुणो ॥ ३४ ॥ भाष्यम् ॥
१२७॥ व्याख्या-'अनिन्द्रियगुणम्' अविद्यमानरूपादीन्द्रियग्राह्यगुणं 'जीवम्' अमूर्तत्वादिधर्मकं 'दुर्जेयं दुर्लक्ष
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२४...], भाष्यं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
|'मांसचक्षुषा' छद्मस्थेन, पश्यन्ति सिद्धाः सर्वज्ञाः, अञ्जनसिद्धादिव्यबच्छेदार्थ सर्वज्ञग्रहणं, ततश्च ऋषभादय इत्यर्थः, ज्ञानसिद्धाश्च साधयो-भवस्थकेवलिन इति गाधार्थः ॥ साम्पतमागमादस्तित्वमाह
अत्तववणं तु सत्यं दिहा य तओ अइंदियाणपि । सिद्धी गहणाईणं तहेव जीवस्स विन्नेया ।। ३५ ।। भाष्यम् ॥ .. व्याख्या-आसवचनं तु शास्त्रम् , आप्तो-रागादिरहितः, तुशब्दोऽवधारणे, आप्तवचनमेव, अनेनापौरुषेयव्यवच्छेदमाह, तस्यासंभवादिति । 'दृष्टा च तत' इति उपलब्धा च ततः-आप्तवचनशास्त्रात् 'अतीन्द्रियाणामपि इन्द्रियगोचराप्तिक्रान्तानामपि, 'सिद्धिः ग्रहणादीना'मिति उपलब्धिश्चन्द्रोपरागादीनामित्यर्थः, तथैव जीवस्य विज्ञेयेति, अतीन्द्रियस्याप्याप्तवचनप्रामाण्यादिति गाथार्थः ॥ मूलद्वारगाथायां व्याख्यातमस्तित्वद्वारम्, अधुनाऽन्यत्वादिद्वारत्रयव्याचिख्यासुराह
अण्णत्तमगुत्तत्तं निशर्त चेव भण्णए समयं । कारणअविभागाईहेऊहिं इमाहि गाहाहिं ।। ३६ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-अन्यत्वं देहादू अमूर्तत्वं स्वरूपेण नित्यत्वं चैव-परिणामिनित्यत्वं भण्यते 'समकम्' एकैकेन हेतुना त्रितयमपि युगपदिति-एककालमित्यर्थः, 'कारणाविभागादिभिः' वक्ष्यमाणलक्षणहेतुभिः 'हमाभिः' द तिमभिर्नियुक्तिगाधाभिरेवेति गाथार्थः॥
कारणविभागकारणविणासबंधस्स पञ्चथाभावा । विरुद्धस्स य अत्थस्सापाउरभावाविणासा य ।। २२५ ।। व्याख्या-'कारणविभागकारणविनाशवन्धस्य प्रत्ययाभावादिति अब्राभावशब्दः प्रत्येकमभिसंवध्यते, का
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: २२५], भाष्यं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
re
दशवैका
रणविभागाभावात न खलु जीवस्य पटादेरिव तन्वादिकारणविभागोऽस्ति, कारणाभावादेव । एवं कारण- पद्धजीवहारि-वृत्तिः विनाशाभावेऽपि योज्यं, तथा बन्धस्य-ज्ञानावरणादिपुद्गलयोगलक्षणस्य प्रत्ययाभावात्-हेतुत्वानुपपत्ते, ब-ICIT
निकाध्य न्धस्येति वध्यमानव्यतिरिक्तबन्धज्ञापनार्थमसमासः, व्यतिरेकी चायमन्वयव्यतिरेकावर्थसाधकाविति दर्श-जीवस्वरूपं ॥ १२८॥
नार्थमिति, तथा विरुद्धस्य चार्थस्य पटादिनाशे भस्मादेरिव 'अप्रादुर्भावादविनाशाच' अप्रादुर्भावेऽनुत्पत्ती || सत्यामविनाशाच हेतोः जीवस्य नित्यत्वं, नित्यस्वादमूर्तत्वम्, अमूर्तत्वाच देहादन्यत्वमिति प्रतिपत्त्यानुगु-I ण्यतो व्यत्ययेन साध्यनिर्देशः । वक्ष्यति च नियुक्तिकारः-'जीवस्स सिद्धमेवं, निश्चत्तममुत्तमन्नत' इति | गाथासमासार्थः । व्यासार्थस्तु भाष्यादवसेयः, तत्राव्युत्पन्नविनेयासंमोहनिमित्तं यथोपन्यासं तावद्द्वाराणि व्याख्याय पश्चानियुक्तिकाराभिप्रायेण मीलयिष्यतीत्यत आह
अन्नत्ति दारमहुणा अन्नो देहा गिहाउ पुरिसो च । तज्जीवतस्सरीरियमयघायथं इमं भणियं ॥ ३७॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-अन्यो देहादिति द्वारमधुना, तदेतद्व्याख्यायते-अन्यो देहात्, जीव इति गम्यते, गृहादिगतपुरुषवदिति दृष्टान्तः, तद्भावेऽपि तत्रानियमतो भावादिति हेतुरभ्यूयः, न चासिद्धोऽयं, मृतदेहेऽदर्शनात्, प्रयोगफलमाह-तज्वीवतच्छरीरवादिमतविघातार्थम् 'इदं प्रयोगरूपं भणितमिति गाथार्थः॥ प्रयोगान्तरमाह
देहिं दियाइरित्तो आया खल तदुबलवभत्थाणं । तविगमेऽवि सरणओ गेहगवक्खेहिं पुरिसो व्व ॥ ३८ ॥ भाष्यम् ।। १ नियुलिमूलधारापेक्षणा संग्रहीतानाचका गाथा नियुक्तिः, तस्याश्च यविवरण तद्भाष्य, कर्त्ता वनयोरेफ एलोभयोरपीति बि.प.
HASEENERY
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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व्याख्या-खलुशब्दः विशेषणार्थत्वात्कथञ्चिदेहेन्द्रियातिरिक्त आत्मेति प्रतिज्ञार्थः, 'तदुपलब्धार्थाना मिति संभवतः परामर्शत्वात् इन्द्रियोपलब्धार्थानां तद्विगमेऽपि' इन्द्रियविगमेऽपि स्मरणादिति हेत्वर्थः, स्मरन्ति चान्धवधिरादयः पूर्वानुभूतं रूपादीति, गेहगवाक्षः पुरुषवदिति दृष्टान्तः। प्रयोगस्तु-कथश्चिदेहेन्द्रियातिरिक्त आत्मा, तद्विगमेऽपि तदुपलब्धार्थानुस्मरणात, पञ्चवातायनोपलब्धार्थानुस्मर्तृदेवदत्तवदिति गाथार्थः । इन्द्रि-18 योपलब्धिमत्त्वाशङ्कापोहायाह
न : इंदिवाई उपलद्धिर्मति विगएसु विसयसंभरणा । जह गेहगवखेहिं जो अणुसरिया स उबलशा ।। ३९ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-न पुनरिन्द्रियाण्येवोपलब्धिमन्ति-द्रष्टणि, कुत इत्याह-विगतेष्विन्द्रियेषु विषयसंस्मरणात्-तहीतरूपाद्यनुस्मृतेरन्धवधिरादीनामिति, निदर्शनमाह-यथा गेहगवाक्षः करणभूतैः दृष्टानाननुस्मरन् योऽनुस्मर्ता स उपलब्धा, न तु गवाक्षाः, एवमत्रापीति गाथार्थः ॥ उक्तमेकेन प्रकारेणान्यत्वद्वारम्, अधुना अ-121 मूतेद्वारावसर इत्याह भाष्यकार:
संपयममुत्तदारं अइंदियत्ता अछेयभेयत्ता । रूवाइविरहओ वा अणाइपरिणामभावाओ ॥ ४०॥ भाष्यम् ।। व्याख्या साम्प्रतममूर्तद्वारं, तद्व्याख्यायते, अमूर्ती जीवः, 'अतीन्द्रियत्वात्' द्रव्येन्द्रियाग्राणत्वात् , अच्छेद्याभेयत्वात्-खड्गशूलादिना, रूपादिविरहतश्च-अरूपत्वादित्यर्थः । तथा 'अनादिपरिणामभावादिति खभा- वतोऽनाद्यमूर्तपरिणामत्वादिति गाथार्थः ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
दशवैका. हारि-वृत्तिः
सूत्रांक
षड्जीवनिकाध्य जीवस्वरूपं
R
॥ १२९॥
अनुक्रम [३२]
उत्तमत्थाणुवलंभा तहेव सम्वन्नुवयणी चेव । लोयाइपसिद्धीओ जीवोऽमुचो ति नायन्वो ॥४१॥ भाष्यम् ॥ . व्याख्या-छद्मस्थानुपलम्भादू' अवधिज्ञानिप्रभृतिभिरपि साक्षादगृह्यमाणत्वात्, तथैव 'सर्वज्ञवचनाचैव |सत्यवतवीतरागवचनादित्यर्थः, "लोकादिप्रसिद्धे' लोकादावमूर्तत्वेन प्रसिद्धत्वात्, आदिशब्दावेदसमयप|रिग्रहः, अमूर्ती जीव इति ज्ञातव्या, सर्वत्रैवेयं प्रतिज्ञेति गाधाथैः । उक्तममूतेंद्वारम्, अधुना नित्यत्वद्वारप्रस्तावः, तथा चाह भाष्यकार:
णिघोत्ति दारमहुणा णिको अविणासि सासओ जीवो । भावत्ते सइ जम्माभावाउ नई व विन्नेओ ॥ ४२ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-'नित्य' इति नित्यद्वारमधुनाऽवसरप्राप्तं, तयाचिख्यासयाऽऽह-नित्यो जीव इति, एतावत्युच्यमाने परैरपि संतानस्य नित्यत्वाभ्युपगमात्सिद्धसाध्यतेति तन्निराकरणायाह-अविनाशी-क्षणापेक्षयापिन निरन्वयनाशधर्मा, एवमपि परिमितकालावस्थायी कैश्चिदिष्यते–'कम्पवाई पुढवी भिक्खू वेति वचनात्तदपोहायाह-शाश्वत' इति सर्वकालावस्थायी, कुत इत्याह-भावत्वे सति वस्तुत्वे सतीत्यर्थः, 'जन्माभावात्' अनुत्पत्तेः 'नभोवंद' आकाशवद्विज्ञेयः, भावत्वे सतीति विशेषणं खरविषाणादिव्यवच्छेदार्थमिति गाधाथैः ॥ हेत्वन्तराण्याह
१ कल्पस्थायिनी पृथ्वी निक्षयो पा. २ न ५ वायं मनुर्नभोऽझिरो यती' (ति० १-१-२४)ल्यनेन नभखवित्येव स्यादिति, लोकप्रसिद्धच्छान्दसशब्दसाधनमूलस्वात्तरप्रयासस्य, अत एव 'नमोऽशिरोमनुषां नेत्युपसंख्यान मिति वैदिक्यामाख्यातवान् दीक्षितः, कैबटो भाष्यप्रदीपेऽपि 'उपसंस्थानान्येतानि छन्दोविषयाणीसाहु रिति | जमाद, नभोऽस्साश्रयत्वेनेति मभखच्छन्द व्युत्पादयामामुनव्याख्याकारा अतः वायुशब्दपर्यायव्याख्यान ।
ASALESESEXASA
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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संसाराओ आलोवणाउ तह पणभिन्नभावाने । खणभंगविघावत्थं भणि तेलोणावंसीहिं ।। ४३ ।। भाष्यम् ।। व्याख्या-संसारादिति संसरण संसारस्तस्मात्, स एव नारकः स एव तिर्यगादिरिति नित्या, 'आलोच-18 |नादिति आलोचनं-करोम्यहं कृतवानहं करिष्येऽहमित्यादिरूपं त्रिकालविषयमिति नित्यः, तथा 'प्रत्यभिज्ञाभावात् स एष इति प्रत्यभिज्ञाप्रत्यय आविद्ववङ्गानादिसिद्धः तदभेदग्राहीति निस्य इति, उक्ताभिधानफलमाह-क्षणभङ्गविघाताथै निरन्वयक्षणिकवस्तुवादविघातार्थ भणितं त्रैलोक्यदर्शिभिः' तीर्थकरैः एतदनन्तरोदितं, न पुनरेष एव परमार्थ इति गाथार्थः ॥ एतदेव दर्शयति
लोगे बेए समए निको जीवो बिभासओ अम्हं । इहरा संसाराई सव्वंपि न जुज्जए तस्स ।। ४४ । भाष्यम् ॥ व्याख्या-लोके–'नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणी'त्यादिवचनप्रामाण्यात्, वेदे ‘स एष अक्षयोज' इत्यादिश्रुतिप्रामाण्यात् समये 'न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुष' इति वचनप्रामाण्यात्, किमित्याह-नित्यो जीव-अपच्युतानुत्पन्नस्थिरैकखभावः, एकान्तनित्य एव, न चैतन्याय्यम्, एकखभावतया संसरणादिन्यवहारोच्छेदप्रसङ्गा-18 दिति वक्ष्यति, अत आह-'विभाषयाऽस्माकं' विकल्पेन-भजनया स्यान्नित्य इत्यादिरूपया न्यार्थादेशा-1
नित्यः पर्यायार्थादेशादनित्य इत्यर्थः, 'इतरथा' यद्येवं नाभ्युपगम्यते ततः 'संसारादि संसारालोचनादि स-1 पूर्वमेव न युज्यते 'तस्य' आत्मनः, खभावान्तरानापत्त्या एकखभावतया वार्तमानिकभावातिरेकेण भावान्त-18
रानापसे, एवममूर्तत्वान्यस्खयोरपि विभाषा चेदितव्या, अन्यथा व्यवहाराभावप्रसङ्गात्, एकान्तामूर्तस्यै
STOCKSCAMERA
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JamElicated
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२५...], भाष्यं [४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
पजीव
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निकाध्य
जीवस्वरूपं
दशवैका कान्तदेहभिन्नस्य चातिपाताद्यसंभवादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, अक्षरगमनिकामात्रत्वात्मारम्भस्येति हारि-वृत्तिः४गाधार्थः ॥ एवमन्यत्वादिद्वारत्रयं व्याख्यायाधिकृतनियुक्तिगाथा व्याचिल्यासुराह
___कारणअविभागामओ कारणअविणासओ य जीवस्स । निश्चत्तं विनेयं आगासपडाणुमाणाओ ॥ ४५ ॥ भाष्यम् ॥ ॥१३॥
व्याख्या-'कारणाविभागात्' पटादेस्तन्वादेरिव कारणविभागाभावादित्यर्थः, 'कारणाविनाशतश्च' कारमीणाविनाशश्च कारणानामेवाभावात्, किमित्याह-जीवस्य आत्मनो नित्यत्वं विज्ञेयम्, कुत इत्याह-आ
काशपटानुमानात्' अत्रानुमानशब्दो दृष्टान्तवचनः, आकाशपटदृष्टान्तात् । ततश्चैवं प्रयोग:-नित्य आत्मा, स्वकारणविभागाभाबाद, आकाशवत्, तथा कारणविनाशाभावाद, आकाशवदेव, यस्त्वनित्यस्तस्य कारणविभागभावः कारणविनाशभावो वा यथा पटस्येति व्यतिरेका, पटाद्धि तन्तवो विभज्यन्ते विनश्यन्ति | चेति नित्यत्वसिद्धिः । नित्यत्वादमूर्तः, अमूर्तत्वाद्देहादन्य इति गाथार्थः ॥ नियुक्तिगाथायां कारणविभागाभावात्कारणविनाशाभावाचेति द्वारद्वयं व्याख्याय साम्प्रतं बन्धस्य प्रत्ययाभावादिति व्याचिख्यासुराह
हेप्पभवो बंधो जम्माणतरहयस्स नो जुत्तो । तज्जोगविरहओ खलु चोराइघडाणुमाणाओ ॥ ४६॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-हेतुप्रभवों' हेतुजन्मा 'बन्धों ज्ञानावरणादिपुद्गलयोगलक्षणः, 'जन्मानन्तरहतस्य उत्पत्त्यनन्त-| रविनष्टस्य 'न युक्तों' न घटमानः 'तयोगविरहत' इति तैः-बन्धहेतुभिर्मिध्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगलक्षणैर्यो योगः-संवन्धस्तद्विरहतः-तदभावादेव, खलुशब्दस्यावधारणार्थत्वात्, 'चौरादिघटानुमाना'दित्यनु
अनुक्रम [३२]
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HA
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दीप
अनुक्रम [३२]
+ वृत्ति:)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + :+ भाष्य + अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा || १५...|| निर्युक्ति: [ २२५...], भाष्यं [ ४६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
Juer Educatio
मानशब्दो दृष्टान्तवचनः, चौरादिघटादिदृष्टान्तात्, न हि उत्पत्त्यनन्तरविनाशी चौरशौर्यक्रियाभावेन बध्यते, स्थायी हि घटो जलादिना संयुज्यते इति व्यतिरेकार्थः, प्रयोगश्चात्र-न क्षणिक आत्मा, बन्धप्रत्ययत्वाचौरवत्, नित्यत्वामूर्तत्त्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववद्विति गाथार्थः ॥ मुक्तिगाथायां बन्धस्य प्रत्ययाभावादिति व्याख्यातम्, अधुना 'विरुद्धस्य चार्थस्याप्रादुर्भावाविनाशाचे 'ति व्याख्यायते—
अविणासी खलु जीवो विगारणुवलंभओ जहागासं । उवलब्भंति विगारा कुंभाइविणासिदव्वाणं ॥ ४७ ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या - अविनाशी खलु जीवो, नित्य इत्यर्थः, कुत इत्याह 'विकारानुपलम्भात्' घटादिविनाशे कपालादिवद्विशेषादर्शनाद्, यथाऽऽकाशम् आकाशवदित्यर्थः, एतदेव स्पष्टयति- 'उपलभ्यन्ते विकारा' दृश्यन्ते कपालादयः कुम्भादिविनाशिद्रव्याणां न चैवमत्रेत्यभिप्रायः, नित्यत्वामूर्तत्वदेहान्यत्वयोजना पूर्ववत्, इति गाथार्थः । प्रकृतसंबद्धामेव नियुक्तिगाथामाह
निरामयामयभावा बालकयाणुसरणादुवत्थाणा । सुत्ताईहिं अगहणा जाईसरणा थणभिलासा ।। २२६ ।।
व्याख्या- 'निरामयामयभावात्' निरामयस्य-नीरोगस्याऽऽमयभावाद्-रोगोत्पत्तेः उपलक्षणं चैतत् सामयनिरामयभावस्य, तथा चैवं वक्तार उपलभ्यन्ते-पूर्व निरामयोऽहमासं सम्प्रति सामयो जातः सामयो वा निरामय इति, न चैतन्निरन्वयलक्षणविनाशिन्यात्मन्युपपद्यते, उत्पत्त्यनन्तराभावादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-अवस्थित आत्मा, अनेकावस्थानुभवनात्, बालकुमाराद्यवस्थानुभवितृदेवदत्तवत्, नित्यत्वादमूर्तः,
For & Personal Use City
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२६], भाष्यं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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(RN
अनुक्रम [३२]
दशका० अमूर्तत्वादेहावन्य इति योजना सर्वत्र कार्या । तथा 'बालकृतानुस्मरणात् कृतशब्दोऽत्रानुभूतवचनः, ततश्च पड्जीवहारि-वृत्सिवालानुभूतानुस्मरणात्, तथा च बालेनानुभूतं वृद्धोऽप्यनुस्मरन् दृश्यते, न च अन्येनानुभूतमन्यः स्मरति निकाध्य०
अतिप्रसङ्गात्, न चेदमनुस्मरणं भ्रान्तं, बाधाऽसिद्धेः, न च हेतुफलभावनिवन्धनमेतत्, निरन्ययक्षणविना- जीवस्वरूपं ॥१३१॥
शपक्षे तस्यैवासिद्धे, हेतोरनन्तरक्षणेऽभावापत्तेः, असतश्च सद्भावविरोधादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-अवस्थित आत्मा, पूर्वानुभूतार्थानुस्मरणात्, तदन्यैवंविधपुरुषवत् । उपस्थानादिति कर्मफलोपस्थानमत्र गृह्यते. ययेनोपातं कर्म स एव तत्फलमुपभुले, अन्यश्च क्रियाकालोऽन्यश्च फलकाल:, एकाधिकरणं चैतद्यम् , अ-12 न्यथा खकृतवेदनासिद्धेः, अन्यकृतान्योपभोगस्य निरुपपत्तिकत्वात्, कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गात्, संतानपक्षेऽपि कर्तृभोक्तृसंतानिनो नावाविशेषात, शक्तिभेदात्, तस्यैव तथाभावाभ्युपगमे नित्यत्वापत्तेरिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च-अवस्थित आत्मा, खकृतकर्मफलवेदनात्, कृषीवलादिवत् । श्रोत्रादिभिरग्रहणात्
श्रोत्रादिभिरिन्द्रियैरपरिच्छित्तेः, न च श्रोत्रादिभिरपरिच्छिद्यमानस्य असत्वम्, अवग्रहादीनां खसंवेदनटासिद्धत्वात्, बौद्धैरप्यतीन्द्रियज्ञानाभ्युपगमात्, ज्ञानस्य च गुणत्वात्, गुणस्य च गुणिनमन्तरेणाभावात्,
प्राक्तनज्ञानस्यैव गुणित्वानुपपत्तेः, तस्यापि गुणत्वादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च-नित्य आत्मा, गुणिखे सत्य-12 तीन्द्रियत्वात् , आकाशवत् । तथा जातिस्मरणादिति, जातेरतिक्रान्तायाः स्मरणात्, न चेदमनुस्मरणमननुभूतस्यान्यानुभूतस्य च भवति, अतिप्रसङ्गात्, दृश्यते च कचिदिदं, न चासौ प्रतारका, तत्कथितार्थसंवा
SCSSROCESSASSSS
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२६], भाष्यं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दनात्, अनुभवाविशेषे सर्वेषामेव कमान्न भवतीति चेद, उच्यते, कर्मप्रतिबन्धाद् दृढानुभवाभावाद्,
इह लोकेऽपि सर्वेषां सर्वत्रानुस्मरणादर्शनात्, न खलु इह लोके सर्वत्रानुस्मरणदर्शनं, तदिहापि, कचि-18/ दजाती सर्वेषामस्त्विति चेन्न, नष्टचेतसां सर्वत्रानुस्मरणशून्येन व्यभिचारादिति प्रयोगार्थः, प्रयोगश्च बाल
कृतानुस्मरणवद्रष्टव्य इति । तथा स्तनाभिलाषादिति, तद्हर्जातबालकस्यापि स्तनाभिलाषदर्शनात्, न चान्यकालाननुभूतस्तनपानस्यायमुपपद्यते, प्रयोगश्च-तदहातबालकस्याऽऽयस्तनाभिलाषोऽभिलाषान्तरपूर्वक, अभिलाषत्वाद् , तदन्यस्तनाभिलाषवत् , तद्वदप्रथमत्वसाधना विरुद्धो हेतुरिति चेन्न, प्रथमस्वानुभवेन वाधनात्, 'असति च बाधने विरुद्ध' इति न्यायाद्, अन्यथा हेतूच्छेदप्रसङ्गादित्यत्र बहु वक्तव्यं तत्तु नोच्यते, | अक्षरगमनिकामात्रस्य प्रस्तुतत्वादिति । नित्यादिक्रियायोजना पूर्ववदिति नियुक्तिगाथार्थः ॥ एतामेव नियु-18 |क्तिगाथा लेशतो व्याचिख्यासुराह भाष्यकार:
रोगस्सामयसन्ना बालकयं जं जुवाऽणुसंभरइ । जं कयमन्नंमि भवे तस्सेवन्नत्थुवत्थाणा ।। ४८ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-रोगस्यामय इति संज्ञा, बालकृतं किमपि वस्तु 'यद्' यस्मायुवाऽनुस्मरति, तथा यत्कृतमन्यस्मिन् दाभवे-कुशलाकुशलं कर्म तस्यैव-कर्मणोऽन्यत्र-भवान्तरे उपस्थानात, सर्वत्र भावार्थपोजना कृतैवेति गाथार्थः॥
णियो भणिवियत्ता खणिो नवि होइ जाइसंभरणा | थणअभिलासा य तहा अमभो नउ मिम्मजन्य घडो ।। ४९ ॥ भाष्यम् ।।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: २२७], भाष्यं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(९)
दशवैका० व्याख्या-नित्य इति, सर्वत्र क्रियाभिसंवध्यते, अतीन्द्रियत्वात्-श्रोत्रादिभिरग्रहणादित्यर्थः, विज्ञेयों' ज्ञा-४ षड्जीवहारि-वृत्तिः तव्यः । तथा च जातिस्मरणात्, पाठान्तरं वा 'क्षणिको न भवति जातिस्मरणादिति, एतदप्यदृष्टमेव, वि-निकाध्य.
धिप्रतिषेधाभ्यां साध्यार्थाभिधानात्, स्तनाभिलाषाच्च, तथा अमयोऽयमात्मा, नतु मृन्मय इच घटा, ततश्ना-माजीवस्वरूप ॥१३२॥
कारण इत्यर्थः । एतदपि नित्यत्वादिप्रसाधकमिति नियुक्तिगाथायामनुपन्यस्तमप्युक्तं सूक्ष्मधिया भाष्यकारेMणेति गाथार्थः ॥ तृतीयां नियुक्तिगाथामाह
सम्वन्नुवविद्वत्ता सकम्मफलभोयणा अमुत्तत्ता । जीवस्स सिद्धमेवं निच्चत्तममुत्तमन्नत्तं ॥ २२७ ॥ IXI व्याख्या-'सर्वज्ञोपदिष्टत्वा'दिति नित्यो जीव इति सर्वज्ञोक्तखात्, अवितथं च सर्वज्ञवचनं, तस्य रागाKादिरहितत्वादिति । तथा 'स्वकर्मफलभोजनादिति खोपात्तकर्मफलभोगादित्यर्थः, उपस्थानादेतन्न भियत इति
चेन्न, अभिप्रायापरिज्ञानात्, तत्र हि येन कृतं तस्मिन्नेव कर्तरि कर्मापतिष्ठत इत्युक्तं तचैकस्मिन्नपि जन्मनि संभवति, इदं त्वन्यजन्मान्तरापेक्षयाऽपि गृह्यत इति न दोषः । तथा 'अमूर्तत्वादिति मूर्तिरहितत्वाद्, एतदपि श्रोत्रादिभिरग्रहणादित्यस्मान्न भिद्यत इति चेन्न, तन्त्र हि श्रोत्रादिभिर्न गृह्यते इत्येतदुक्तम्, इह तु तत्स्वरूपमेव नियम्यते इति, मूर्ताणूनामपि श्रोत्रादिभिरग्रहणादिति । द्वारत्रयमप्युपसंहरन्नाह-जीवस्य सिद्धमेवं नित्यत्वममूर्तवमन्यत्वमिति गाथार्थः ॥ मूलद्वारगाथाद्ये व्याख्यातमन्यत्वादिद्वारत्रयम्, इदानीं | कद्वारावसरः, तथा चाह
अनुक्रम [३२]
KI॥१३२॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२७...], भाष्यं [१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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(१)
अनुक्रम [३२]
कत्तत्ति दारमहुणा सकम्मफलभोइणो जभो जीवा । वाणियकिसीवला इस कविलमयनिसेहणं एवं ॥ ५० ॥ भाष्यम् ॥ व्याख्या-कर्तेति द्वारमधुना-तदेतद्व्याख्यायते, खकर्मफलभोगिनो यतो जीवास्ततः कर्तार इति, वणिकषी-18 चलादय इव, म हामी अकृतमुपभुञ्जते इति प्रयोगार्थः, प्रयोगस्तु-कर्ताऽऽत्मा, खकर्मफलभोकृत्वात् , करेकादिवत् । ऐदम्पर्यमाह-कपिलमतनिषेधनमेतत् सांख्यमतनिराकरणमेतत्, तत्राकर्तृवादपसिडेरिति गाथार्थः॥ मूलद्वारगाथाद्वये व्याख्यातं कर्तृद्वारम्, इदानी देहव्यापित्वद्वारावसर इत्याह भाष्यकार:
वावित्ति दारमहुणा देहब्बावी मओऽग्गिउण्हं व । जीवो नउ सव्वगओ देहे लिंगोवलंभाओ ।। ५१ ।। भाष्यम् ।। NI व्याख्या-व्यापीति द्वारमधुना-तदेतदयाख्यायते, 'देहव्यापी शरीरमानं व्याप्तुं शीलमस्येति तथा 'मत'
इष्टः प्रवचनज्ञैः जीवो, नतु सर्वग इति योगः, तुशब्दस्यावधारणार्थवान्न चाण्वादिमात्रा, कुत इत्याह-'देहे| लिङ्गोपलम्भात्' शरीर एवं सुखादितल्लिकोपलब्धः, अग्यौष्पयवत्, उष्णत्वं हाग्निलिई नान्यत्राग्नेः न च ना-1 प्राविति [गाथा प्रयोगार्थः। प्रयोगस्तु-शरीरनियतदेश आत्मा, परिमितदेशे लिटोपलब्धेः, अन्योष्ण्यवत् इति | गाथा: ।। व्याख्याता प्रथमा मूलद्वारगाथा, साम्प्रतं द्वितीया व्याख्यायते-तत्र प्रथमं गुणीत्याद्यद्वारं, तव्याचिख्यासयाह भाष्यकार:
अहुणा गुणित्ति दारं होद गुणेहिं गुणित्ति विन्नेओ। ते भोगजोगउवओगमाइ रुवाइ व पडस्स ।। ५२ ॥ भाष्यम् ।।
व्याख्या-अधुना गुणीति द्वारं-तदेतद्वयाख्यायते, भवति गुणैर्हि गुणी, न तव्यतिरेकेण 'इति एवं वि. वश०२३|
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२७...], भाष्यं [५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
अनुक्रम [३२]
बक- ज्ञेयः, अमेन गुणयुणिनोर्मेदाभेदमाह, ते भोगयोगोपयोगादयो गुणा इति, आदिशब्दादमर्तस्वादिपरिग्रहः. ४ षड्जीवहारि-वृत्तिः निदर्शनमाह-रूपादय इक घटस्य गुणा इति गाथार्थः ।। व्याख्यातं मूलद्वारगाथायां गुणिद्वारम्, अधुनोर्व-निकाध्य. गतिद्वारावसर इत्याह भाष्यकार:
जीवस्वरूपं ॥१३॥
उडुंगइत्ति अहुणा अगुरुलहुत्ता सभावउड़गई । दिटुंतलाउएर्ण एरंडफलाइएहिं च ।। ५३ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-ऊर्द्धगतिरित्यधुना द्वारं-तदेतद्व्याख्यायते, अगुरुलघुत्वात्कारणात्स्वभावतः कर्मविप्रमुक्तः सर्वगतिः, जीव इति गम्यते, यद्येवं तर्हि कथमधो गच्छति?, अत्राह-दृष्टान्तः 'अलावुना' तुम्बकेन, यथा तत्व
भावत ऊर्ध्वगमनरूपमपि मृल्लेपाजलेऽधो गच्छति तदपगमार्चमा जलान्ताद, एवमात्माऽपि कर्मलेपादयो ट्र गच्छति तदपगमादूर्वमा लोकान्तादिति । एरण्डफलादिभिश्च दृष्टान्त इति, अनेन दृष्टान्तबाहुल्यं दर्शयति, पायथा चैरण्डफलमपि बन्धनपरिभ्रष्टमूर्द्ध गच्छति, आदिशब्दादग्न्यादिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं द्वि४ातीयमूलद्वारगाथायामूर्ध्वगतिद्वारं, साम्प्रतं निर्मयद्वारव्याचिख्यासयाऽऽह
अमओ य होइ जीवो कारणविरहा जहेच आगासं । समर्व च होअनिच्चं मिम्मवघडतंतुमाईयं ॥ ५४ । भाष्यम् । व्याख्या-अमयश्च भवति जीवः, न किम्मयोऽपीत्यर्थः, कुत इत्याह-कारणविरहात्' अकारणत्वात् , य- ॥१३३ थैवाकाशम्-आकाशवदित्यर्थः, समयं च वस्तु भवत्यनित्यम्, एतदेव दर्शयति-मृन्मयघटतन्त्वादि, यथा
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२७...], भाष्यं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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CCCCESS
मुन्मयो घटस्तन्तुमयः पट इत्यादि, न पुनरात्मा, नित्य इति दर्शितम् । आह-अस्मिन् द्वारे सति 'अमयो नतु| मृन्मय इव घट' इति प्राकिमर्थमुक्तमिति, उच्यते, अत एव द्वारादनुग्रहार्थमुक्तमिति लक्ष्यते, भवति चासकच्वणादकृच्छ्रेण परिज्ञानमित्यनुग्रहः, अतिगम्भीरत्वाद्भाष्यकाराभिप्रायस्य न (वा) वयमभिप्राय विद्म इति ।। अन्ये त्वभिदधति-अन्यकर्तृकैवासी गाथेति गाथार्थः॥ व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायां निर्मयद्वारम्, अधुना साफल्यद्वारावसरः, तथा चाह भाष्यकार:
साफलदारमहुणा निच्चानिच्चपरिणामिजीवम्मि । होइ तयं कम्माणं इहरेगसभावओऽजुत्तं ॥ ५५ ॥ भाष्यम् ।। व्याख्या-साफल्यद्वारमधुना-तदेतद्व्याख्यायते, नित्यानित्य एव परिणामिनि जीव इति योग, भवति तत् साफल्यं कालान्तरफलमदानलक्षणम् , केषामित्याह-कर्मणां-कुशलाकुशलानां, कालभेदेन कर्तृभोक्तपरिणा-II2 मभेदे सत्यात्मनस्तदुभयोपपत्तेः कर्मणां कालान्तरफलप्रदानमिति, 'इतरथा' पुनर्ययेवं नाभ्युपगम्यते तत एकस्वभावत्वतः कारणादयुक्तं 'तत्' कर्मणां साफल्यमिति, एतदुक्तं भवति-यदि नित्य आत्मा कर्तृवभाव
एव कुतोऽस्य भोगः?, भोत्कृखभावत्वे चाकर्तृवं, क्षणिकस्य तु कालद्वयाभावादेवैतदुभयमनुपपन्नम् , उभये है च सति कालान्तरफलप्रदानेन कर्म सफलमिति गाथार्थः ।। द्वितीयमूलद्वारगाथायां व्याख्यातं साफल्यद्वारम्, अधुना परिमाणद्वारमाह
भाष्यगाथा ४९ अन्यभागः
अनुक्रम [३२]
ॐ
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२२७...], भाष्यं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[१]
दशबैका जीवस्स उ परिमाणं विस्थरपओ जाव लोगमेत्तं तु । ओगाहणा य सुहुमा तस्स पएसा असंखेजा ।। ५६ ॥ भाष्यम् ॥
षड्जीवहारि-वृत्तिः हा व्याख्या-जीवस्य तु परिमाणं विततस्य 'विस्तरतो विस्तरेण यावल्लोकमात्रमेव, एतच केवलिसमुद्घातच- निकाध्यक
तुर्थेसमये भवति, तत्रावगाहना च 'सूक्ष्मा' विततैकैकप्रदेशरूपा भवति, 'तस्य' जीवस्य प्रदेशाश्चासंख्येयाः जीवस्वरूपं ॥१३४॥
सवें एव लोकाकाशप्रदेशतुल्या इति गाधार्थः ।। अनेकेषां जीवानां गणनापरिमाणमाह
पत्थेण व कुलएण व जह कोइ मिणेज सव्वधन्नाई । एवं मविजमाणा हवंति लोगा अर्णता उ ।। ५७ ॥ भाष्यम् ।।
व्याख्या-'प्रस्थेन वा' चतुःकुडवमानेन 'कुडवेन वा चतुःसेतिकामानेन यथा कश्चित्पमाता मिनुयात् 'स-15 विधान्यानि' बीयादीनि एवं मीयमाना असद्भावस्थापनया भवन्ति लोका अनन्तास्तु, जीवभूता इति भावः।।
आह-यद्येवं कथमेकस्मिन्नेव ते लोके माता इति?, उच्यते, सूक्ष्मावगाहनया, यत्रैकस्तत्रानन्ता व्यवस्थिताः, इह तु प्रत्येकावगाहनया चिन्त्यन्ते इति न दोषः, दृष्टं च चादरद्रव्याणामपि प्रदीपप्रभापरमाण्वादीनां तथापरिणामतो भूयसामेकत्रैवावस्थानमिति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं द्वितीयमूलद्वारगाथायां परिमाणद्वार, तद्वया-1 ख्यानाच द्वितीया मूलद्वारगाथा जीवपदं चेति । साम्प्रतं निकायपदं व्यापिण्यामुराह-- __णामं ठवणसरीरे गई णिकाय स्थिकाय दविए य । माजगपजवसंगहमारे सह भावकाए य ।। २२८ ॥ व्याख्या-नामस्थापने क्षुण्णे, शरीरकाय:-शरीरमेव, तत्मायोग्याणुसंघातात्मकत्वात्, गतिकायो-यो भवा-IXI
कायापा ॥१३४॥ न्तरगती, स च तैजसकार्मणलक्षणः, निकायकाय:-षड्जीवनिकाया, अस्तिकायो-धर्मास्तिकायादिः, द्रव्य
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अनुक्रम [३२]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२८], भाष्यं [१७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
कायश्व-व्यादिघटादिद्वव्यसमुदायः, मातृकाकायः त्र्यादीनि मातृकाक्षराणि, पर्यायकायो द्वेषा-जीवाजी-| Mवभेदेन, जीवपर्यायकायो-ज्ञानादिसमुदायः, अजीवपर्यायकायो-रूपादिसमुदायः, संग्रहकाय:-संग्रहकश-14
ब्दवाच्यविकटुकादिवत्, भारकाय:-कापोती, वृद्धास्तु व्याचक्षते-'एगो काओ दुहा जाओ, एगो चिट्ठह ४ एगो मारिओ। जीवंतो मएण मारिओ, तल्लव माणव! केण हेउणा? ॥१॥ उदाहरणम्-एगो काहरो तलाए
दो घडा पाणियस्स भरेऊण कावोडीए वहइ, सो एगो आउकायकायो दोसु घडेसु दुहा कओ, तओ सो काहरो गच्छंतो पक्खलिओ, एगो घडो भग्गो, तम्मि जो आउक्काओ सो मओ, इयरम्मि जीवइ, तस्स
अभावे सोऽवि भग्गो, ताहे सो तेण पुब्वमएण मारिओ त्ति भण्णइ । अहवा-एगो घडो आउक्कायभरिओ, दाताह तमाउकार्य दुहा काऊण अद्धो ताविओ, सो मओ, अताविओ जीवइ, ताहे सोऽवि तत्व पक्खित्तो,।
तण मएण जीवंतो मारिओ त्ति । एस भारकाओ गओ । भावकायश्चौदयिकादिसमुदाय:, इह च निकायः काय इत्यनर्थान्तरमितिकृत्वा कायनिक्षेप इत्यदुष्ट एवेति गाथार्थः॥
CROC+S
अनुक्रम [३२]
१ एका कायो विधा जात एकत्तिपतिएको मतः । जीवन मतेन मारितः तापमान! केन हेतुना ॥१॥उदाहरण एका कापोतीकखदाका द्वाँ पा. नायस्थ घटी मत्वा कापोखा बहति. स एकोऽप्कायो योधडयोबिधा क्रत्तः, ततः स कापोतीको गच्छन् प्रस्वालितः, एको घढी भभः, तमिन् योऽकायः स वृतः,
तस्मिन् जीवति, तसाभावे सोऽपि भनः तदा स तेन पूर्वमतेन मारित इति भण्यते । अबको घटोऽष्कायन्तः, ततस्तमकार्य विधाकृत्वाखापितः, स | सत्तः, भतापितो बीचति, ततः सोऽपि तत्रैव प्रक्षिप्तः, तेन मृतेन जीवन् मारित इति । एष भारकायो गतः,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२९], भाष्यं [५७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
वसका हारि-वृत्ति ॥१५॥
(RN
अनुक्रम [३२]
इत्थं पुण अधिगारो विकावकारण होइ सुत्तनि । उचारिअत्थसदिसाण कित्सक सेसगाणपि ।। २२९ ॥
षड्जीव| व्याख्या-अत्र पुनः सूत्र इति योगः, [सूत्र इत्यधिकृताध्ययने] किमित्याह-अधिकारी निकायकायेन भवति,
निकाध्य अधिकार:-प्रयोजनं, शेषाणामुपन्यासयय॑माशयाह-उच्चरितार्थसाशामां-उच्चरितो निकायः तदर्थेतु-12
जीवस्वरूपं ल्यानां कीर्तन-संशब्दनं शेषाणामपि-नामादिकायानां व्युत्पत्तिहेतुत्वात्मदेशान्तरोपयोगित्वाचेति गा-1 पार्थः । व्याख्यातं निकापपदम् , उक्तो नाममिपनो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तापद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम्
सुयं मे आउसंतेण भगवया एवमक्खायं-इह खल छज्जीवणिया नामज्झयणं, समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेड्या सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपपणती। कयरा खल्लु सा छज्जीवणियानामज्झयणं समजेणं भयवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया सुपन्नत्ता सेये मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नती।इमा खलु सा छजीवणिया नामज्झयणं समजेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइया सुअक्खाया
॥१३५॥ सुपन्नत्ता सेयं मे अहिजिउं अज्झयणं धम्मपन्नत्ती ॥ तंजहा-पुढविकाइया आउकाइया
सूत्रकारेण सूत्रितं पृथ्वि आदि षड् जीवनिकाय स्वरुपम्
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२२९...], भाष्यं [५७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
तेउकाइया वाउकाइया वणस्सइकाइया ससकाइया। पुडवी चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्य सस्थपरिणएणं, आऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तेऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसता अन्नस्थ सत्थपरिणएणं वाऊ चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नस्थ सत्थपरिणएणं, वणस्सई चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं, तंजहाअग्गबीया मूलबीया पोरबीया खंधबीया बीयरुहा संमुच्छिमा तणलया, वणस्सइकाइया सबीया चित्तमंतमक्खाया अणेगजीवा पुढोसत्ता अन्नत्य सत्यपरिणएणं ॥ से जे पुण इमे अणेगे बहवे तसा पाणा, तंजहा-अंडया पोयया जराउया रसया संसेइमा समुच्छिमा उब्भिया उववाइया । जेसिं केसिंचि पाणाणं अभिकंतं पडिकतं संकुचियं पसारियं रुयं भंतं तसियं पलाइयं आगइगइविन्नाया जे य कीडपयंगा जा य कुंथुपिपीलिया सव्वे बेइंदिया सव्वे तेइंदिया सव्वे चउरिंदिया सव्वे पं.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२९...], भाष्यं [५७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दशवैका० हारि-वृत्तिः
निकाध्य
॥१३६॥
[१]
चिंदिया सव्वे तिरिक्खजोणिया सव्वे नेरइया सव्वे मणुआ सव्वे देवा सव्वे पाणा षड्जीकपरमाहम्मिआ। एसो खल्लु छट्टो जीवनिकाओ तसकाउ त्ति पवुच्चइ ॥ (सूत्रं १)
जीवस्वरूप श्रूयते तदिति श्रुतम्-प्रतिविशिष्टार्थप्रतिपादनफलं वाग्योगमात्रं भगवता निसृष्टमात्मीयश्रवणकोटरमविष्टं क्षायोपशमिकभावपरिणामाविर्भावकारणं श्रुतमित्युच्यते, श्रुतमवधृतमवगृहीतमिति पर्यायाः, 'मयेत्यात्मपरामर्शः, आयुरस्यास्तीत्यायुष्मान् तस्यामन्त्रणं हे आयुष्मन् !, कः कमेवमाह ?-सुधर्मखामी जम्बूखामिन|मिति, 'तेने ति भुवनभर्तुः परामर्शः, भगः-समप्रैश्वर्यादिलक्षण इति, उक्तं च-"ऐश्वर्यस्य समग्रस्य, रूपस्य यशसः श्रियः। धर्मस्याथ प्रयत्नस्य, षण्णां भग इतीङ्गना ॥१॥" सोऽस्यास्तीति भगवांस्तेन भगवता-वर्धमानवामिनेत्यर्थः, 'एव'मिति प्रकारवचनःशब्दः, आख्यात मिति केवलज्ञानेनोपलभ्याचेदित, किमत आह-इह खलु षड्जीवनिकायनामाध्ययनम् , अस्तीति वाक्यशेषः, 'इहेति लोके प्रवचने वा, खलुशन्दादन्यतीर्थकत्प्रवचनेषु च, 'षड़जीवनिकायेति पूर्ववत्, 'नामें त्यभिधानम्, 'अध्ययन मिति पूर्ववदेव । इह च 'श्रुतं मये-14 त्यनेनात्मपरामर्शेनैकान्तक्षणभङ्गापोहमाह, तत्रेत्थंभूतार्धानुपपत्तेरिति, उक्तंच,-"एगंतखणियपक्खे गहणं| चिअ सब्वहा ण अत्थाणं । अणुसरणसासणाई कुओ उ तेलोगसिद्धाइं?॥१॥" तथा 'आयुष्म निति च
॥१३६॥ १ एकान्तक्षणिकपक्षे प्रहणमेव सर्वथा नार्थानाम् । अनुस्मरणशासनानि कुतस्तु त्रैलोक्य (ते लोक.) सिद्धानि ॥१॥२°लोकप्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२२९...], भाष्यं [५७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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प्रधानगुणनिष्पन्नेनामन्त्रणवचसा गुणवते शिष्यायागमरहस्यं देयं नागुणवत इत्याह, तदनुकम्पाप्रवृत्तेरिति, उक्तं च-"आमे घडे निहतं जहा जलं तं घड विणासह । इअ सिद्धृतरहस्सं अप्पाहारं विणासेइ ॥१॥" आयुख प्रधानो गुणः, सति तस्मिन्नव्यवच्छित्तिभावात्, तथा तेन भगवता एवमाख्यात'मित्यनेन खमनी-114 पिकानिरासाच्छाखपारतक्यप्रदर्शनेन न घसर्वज्ञेन अनात्मवता अन्यतस्तथाभूतात्सम्यगनिश्चित्य परलोक-1 देशना कार्येत्येतदाह, विपर्ययसंभवाद, उक्तं च-"किं' इत्तो पावयरं? संमं अणहिगयधम्मसम्भावो । अण्णं कुदेसणाए कट्टयरागमि पाडेइ ॥१॥" अथवाऽन्यथा व्याख्यायते सूत्रैकदेश:-आउसंतेणं'ति भगवत एव विशेषणम् , आयुष्मता भगवता-चिरजीविनेत्यर्थः, मङ्गलवचनं चैतद्, अथवा जीवता साक्षादेव, अनेन च गणधरपरम्परागमस्य जीवनविमुक्तानादिशुद्धवक्तचापोहमाह, देहायभावेन तथाविधप्रयत्नाभावात्, उक्तं च-"वयर्ण न कायजोगाभावे ण य सो अणादिसुद्धस्स । गहणंमि य णो हे सत्थं अत्तागमो कह णु ॥१॥" अथवा 'आवसंतेणं ति गुरुमूलमावसता, अनेन च शिष्येण गुरुचरणसेविना सदा भान्यमित्येतदाह, ज्ञानादिवृद्धिसद्भावाद, उक्तं च-"णाणस्स होइ भागी थिरयरओ दंसणे चरिते य । धन्ना
अनुक्रम [३२]
5*5*
555454
मामे घटे निहितं यथा जलं ते घट विनाशयति । इति (एवं) सिद्धान्तरहस्यमल्पाधार बिनाशयति ॥१॥ २ किमेतमायापकर सम्यगनषिमतधमः *सद्भावः । अन्य देशमया कहकरागसि पातयति ॥१॥३वचनं न काययोगाभावेन सोऽनादिशुद्धस्य पदणे चनो देता शाखमात्मागमः (आप्तागमः)
कथं तुर॥१॥ ४ कायस्येति. ५ज्ञानस भागी भवति स्थिरतरः दर्शने चारिने च । धन्या यावत्कथं गुमकुछवासन मुशन्ति ॥१॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२२९...], भाष्यं [५७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[१]
अनुक्रम [३२]
दशवैका आवकहाए गुरुकुलवासं न मुंचंति ॥१॥" अथवा 'आमुसंतेणं आमृशता भगवत्पादारविन्दयुगलमुत्तमा-पिजीवहारि-वृत्तिः नेन, अनेन च विनयप्रतिपसेर्गरीयस्त्वमाह, विनयस्य मोक्षमूलवात्, उक्तं च-"मूलं संसारस्सा होंति निकाध्य
कसाया अणंतपत्तस्स । विणओ ठाणपउत्तो दुक्खविमुक्खस्स मोक्खस्स ॥१॥” कृतं प्रसङ्गेन, प्रकृतं प्रस्तुमः | जीवस्वरूपं ॥१३७॥
६-तत्र इह खलु षड्जीवनिकायिकानामाध्ययनमस्तीत्युक्तम्, अत्राह-एषा षड्जीवमिकापिका केन प्रवेदिता
प्ररूपिता बेति?, अनोच्यते, तेनैव भगवता, यत आह–'समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेड्या ।
मुअक्खाया सुपन्नत्ते'ति, सा च तेन 'श्रमणेन' महातपस्विना "भगवता' समग्रैश्वर्यादियुक्तेन 'महावीरेण | हैशर वीर विक्रान्ताविति कषायादिशत्रुजयान्महाविक्रान्तो महावीर, उक्तं च-"विदारयति यत्कर्म,
तपसा च विराजते । तपोवीर्येण युक्तम्ब, तस्माद्वीर इति स्मृतः॥१॥" महांश्वासौ वीरव महावीरः तेन महावीरेण, 'काश्यपेने ति काश्यपसगोत्रेण, 'प्रवेदिता' नान्यतः कुतश्चिदाकपर्य ज्ञाता किं तर्हि, स्वयमेव केवलालोकेन प्रकर्षण वेदिता प्रवेदिता-विज्ञातेत्यर्थः, तथा खाण्याते ति सदेवमनुष्यासुरायां पर्षदि सुष्टु आख्याता खाख्याता, तथा 'सुप्रज्ञसे ति मुष्ठ प्रज्ञप्ता यथैवाख्याता तथैव सुष्टु-सूक्ष्मपरिहारासेवनेन प्रकर्षण सम्यगासेवितेत्यर्थः, अनेकार्थत्वाद्धातूनां ज्ञपिरासेवनार्थः, तां चैवंभूतां षड़जीवनिकायिकां 'श्रेयो मेऽध्येतुं श्रेयः-पथ्यं हितं, ममेत्यात्मनिर्देशः, छान्दसत्वात्सामान्येन ममेत्यात्मनिर्देश इत्यन्ये, ततश्च श्रेय
१ मूल संसारस्य भवन्ति कषावा अनन्तपत्रस । बिनवः स्थानप्रयुक्तो दुःसविमुक्तस्य मोक्षस्य ॥१॥ २ आत्मार्थः.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२२९...], भाष्यं [५७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आत्मनोऽध्येतुम्, 'अध्येतु'मिति पठितुं श्रोतुं भावयितुं, कुत इस्याह-'अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिः निमि
सकारणहेतुषु सर्वासां प्रायो दर्शन मिति वचनात् हेती प्रथमा, अध्ययनवादू-अध्यात्मानयनाचेतसो ताविशुद्ध्यापादनादित्यर्थः, एतदेव कुत इस्याह-'धर्मप्रज्ञप्ते' प्रज्ञपनं प्रज्ञप्तिः धर्मस्य प्रज्ञप्तिः धर्मप्रशसिः
ततो धर्मप्रशसेः कारणाचेतसो विशुळ्यापादनं चेतसो विशुद्ध्यापादनाच श्रेय आत्मनोऽध्येतुमिति । ४ अन्ये तु व्याचक्षते-अध्ययनं धर्मप्रज्ञप्तिरिति पूर्वोपन्यस्ताध्ययनस्यैवोपादेयतयाऽनुवादमात्रमेतदिति ॥
शिष्यः पृछति-कतरा खल्वि'त्यादि, सूत्रमुक्तार्थमेव, अनेनैतदर्शयति-विहायाभिमान संविग्नेन शिमध्येण सर्वकार्येष्वेव गुरु प्रष्टव्य इति, आचार्य आह-इमा खल्वि'त्यादि सूचमुक्तार्थमेव, अनेनाप्येतदर्श
यति-गुणवते शिष्याय गुरुणाऽप्युपदेशो दातव्य एवेति । 'तंजहा-पुढविकाइया' इत्यादि, अन्न तद्यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः, पृथिवी-काठिन्यादिलक्षणा प्रतीता सैव काय:-शरीरं येषां ते पृथिवीकायाः पृथिवीकाया एवं पृथिवीकायिकाः, स्वार्थिकष्ठक, आपो-द्रवाः प्रतीता एव ता एव काय:-शरीरं येषां तेऽप्कायाः अप्काया एष अप्कायिकाः। तेज-उष्णलक्षणं प्रतीतं तदेव काय:-शरीरं येषां ते तेजाकायाः तेजाकाया एव तेजाकायिकाः। वायु:-चलनधर्मा प्रतीत एव स एव काय:-शरीरं येषां ते वायुकायाः वायुकाया एव वायुकायिकाः । वनस्पति:-लतादिरूपः प्रतीतः, स एव काय:-शरीरं येषां ते वनस्पतिकायाः, वनस्पतिकाया एवं
१ विभतीना.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२२९...], भाष्यं [५७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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पड़जीवनिकाध्य जीवस्वरूप
(१)
दशवका०वनस्पतिकायिकाः। एवं त्रसनशीलास्त्रसाः-प्रतीता एव, प्रसाः काया:-शरीराणि येषां ते सकायाः, स- हारि-वृत्तिः । काया एव त्रसकायिकाः । इह च सर्वभूताधारत्वात् पृथिव्याः प्रथमं पृथिवीकायिकानामभिधानं, तदनन्तरं
तत्पतिष्ठितत्वादकायिकानामपि, तदनन्तरं तत्प्रतिपक्षत्वात्तेजस्कायिकानां, तदनन्तरं तेजस उपष्टम्भकत्वा- ॥ १३८॥
द्वायुकायिकानां, तदनन्तरं वायोः शाखाप्रचलनादिगम्यत्वानस्पतिकायिकानां, तदनन्तरं वनस्पतेरसोपग्राहकत्वाप्रसकायिकानामिति । विप्रतिपत्तिनिरासाथै पुनराह-'पुढवी चित्तमंतमक्खाया' 'पृथिवी' उक्तलक्षणा 'चित्तवती'ति चित्तं-जीवलक्षणं तदस्या अस्तीति चित्तवती-सजीवेत्यर्थः, पाठान्तरं वा 'पुढवी चित्तमत्तमक्खाया' अत्र मात्रशब्दः स्तोकवाची, यथा सर्षपत्रिभागमात्रमिति, ततश्च चित्तमात्रा-स्तोकचित्तेत्यर्थः, तथा च प्रवलमोहोदयात्सर्वजघन्यं चैतन्यमेकेन्द्रियाणां, तदश्यधिक द्वीन्द्रियादीनामिति, 'आख्याता' सर्वज्ञेन कथिता, इयं च 'अनेकजीवा' अनेके जीवा यस्यां साऽनेकजीवा, न पुनरेकजीवा, यथा वैदिकानां 'पृथिवी देवतेत्येवमादिवचनप्रामाण्यादिति । अनेकजीवाऽपि कैश्चिदेकभूतात्मापेक्षयेष्यत एव, यथाहुरेके"एक एव हि भूतात्मा, भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैच, दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥१॥” अत आह -'पृथकसत्त्वा' पृथग्भूताः सत्त्वा-आत्मानो यस्यां सा पृथक्सत्त्वा, अङ्गुलासंख्येयभागमात्रावगाहनया पारमार्थिक्याऽनेकजीवसमाश्रितेति भावः । आह-यद्येवं जीवपिण्डरूपा पृथिवी ततस्तस्यामुचारादिकरणे नियमतस्तदतिपातादहिंसकत्वानुपपत्तिरित्यसंभवी साधुधर्म इत्यत्राह-'अन्यत्र शस्त्रपरिणतायाः शस्त्रप
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॥१३८॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३०], भाष्यं [५७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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|रिणतां पृथिवीं विहाय-परित्यज्यान्या चित्तवत्याख्यातेत्यर्थः । अथ किमिदं पृथिव्याः शस्त्रमिति शस्नमस्तावात्सामान्यत एवेदं द्रव्यभावभेदभिन्न शस्त्रमभिधित्सुराह
दठबं सत्यग्गिविसनेहविल खारलोणमाईयं । भावो उ दुष्पउत्तो वाया काओ अबिरई अ ।। २३० ।। व्याख्या-'द्रव्य मिति द्वारपरामर्शः, तत्र द्रव्यशत्रं खड्गादि, अग्निविषस्नेहाम्लानि प्रसिद्धानि, 'क्षारलवणादीनि' अन तु क्षार:-करीरादिप्रभवः, लवणं-प्रतीतम् , आदिशब्दात्करीषादिपरिग्रहः । उक्तं द्रव्यशस्त्रम् , अधुना भावशतमाह-भावस्तु दुष्पयुक्ती वाकायौ अविरतिश्च भावशस्त्रमिति, तत्र भावो दुष्पयुक्त इत्यनेन द्रोहाभिमानेयादिलक्षणो मनोदुष्प्रयोगो गृह्यते, वागदुष्प्रयोगस्तु हिंस्रपरुषादिवचनलक्षणः, कायदष्प्रयोगस्तु धावनवल्गनादिः, अविरतिस्त्वविशिष्टा प्राणातिपातादिपापस्थानकप्रवृत्तिः, एतानि खपरव्यापादकखात्कर्मबन्धनिमित्तत्वाझावशस्त्रमिति गाथार्थः॥ इह न भावशस्त्रेणाधिकारः, अपितु द्रव्यशस्त्रेण, तच त्रिप्रकारं भवतीत्याह
किंची सकायसत्यं किंची परकाय तदुभयं किंचि । एयं तु दबसस्थं भाषे अस्संजमो सत्यं ।। २३१ ॥ व्याख्या-किंचित्खकायशस्त्रं, यथा कृष्णा मृदू नीलादिमृदः शस्त्रम्, एवं गन्धरसस्पर्शभेदेऽपि शस्त्रयोजना कार्या, तथा 'किश्चित्परकायेति परकायशखं, यथा पृथ्वी अप्सेजाप्रभृतीनाम् असेजाप्रभृतयो वा पृ[थिव्याः, 'तदुभयं किश्चि'दिति किञ्चित्तदुभयशस्त्रं भवति, यधा कृष्णा मृदू उदकस्य स्पर्शरसगन्धादिभिः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३१], भाष्यं [ ५७... ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ १३९ ॥
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पाण्डुमृदश्च यदा कृष्णमृदा कलुषितमुदकं भवति तदाऽसौ कृष्णमृद् उदकस्य पाण्डुमृदश्च शस्त्रं भवति, एवं (तत्) तु द्रव्यशस्त्रं, तुशब्दोऽनेकप्रकारविशेषणार्थः, एतदनेकप्रकारं द्रव्यशस्त्रम्, 'भाव' इति द्वारपरामर्शः, असंयमः शस्त्रं चरणस्येति गाथार्थः । एवं च परिणतायां पृथ्व्यामुचारादिकरणेऽपि नास्ति तदतिपात इत्यहिंसकत्वोपपत्तेः संभवी साधुधर्म इति । एष तावदागमः, अनुमानमप्यत्र विद्यते - सात्मका विद्रुमलवणोपलादयः पृथिवीविकाराः, समानजातीयाङ्करोत्पस्युपलम्भात्, देवदत्तमांसाङ्कुरवत्, एवमागमोपपत्तिभ्यां व्यवस्थितं पृथिवीकायिकानां जीवत्वम् उक्तं च- “ आगमयोपपत्तिश्च, संपूर्ण दृष्टिलक्षणम् । अतीन्द्रियाणामर्थानां सद्भावप्रतिपत्तये || १ || आगमो ह्याप्तवचनमासं दोषक्षयाद्विदुः । वीतरागोऽनृतं वाक्यं, न ब्रूयाद्धे| त्वसंभवात् || २ ||" इत्यलं प्रसङ्गेन । एवमापश्चित्तवत्य आख्याताः, तेजश्चित्तवदाख्यातं, वायुवित्तवानाख्यातः, वनस्पतिश्चित्तवानाख्यातः, इत्याद्यपि द्रष्टव्यम्। विशेषस्त्वभिधीयते - सात्मकं जलं, भूमिस्वातस्वाभा विकसंभवात्, दर्दुरवत्। सात्मकोऽग्निः, आहारेण वृद्धिदर्शनात्, बालकवत् । सात्मकः पवनः, अपरप्रेरिततिर्यग्निगनियमितदिग्गमनादू, गोवत् । सचेतनास्तरवः सर्वस्वगपहरणे मरणाद्, गर्दभवत् । वनस्पतिजीवविशे|षप्रतिपादनायाह-'संजहा अग्गबीया' इत्यादि, तद्यथेत्युपन्यासार्थः, अग्रवीजा इति-अनं बीजं येषां ते अग्रबीजा:- कोरण्टकादयः, एवं मूलं बीजं येषां ते मूलबीजा-उत्पलकन्दादयः पर्व बीजं येषां ते पर्वबीजा -इक्ष्वादयः, स्कन्धो बीजं येषां ते स्कन्धवीजाः शलक्यादयः, तथा बीजाद्रोहन्तीति बीजरुहाः शाल्यादयः,
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४ षड्जीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३१], भाष्यं [१७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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संमूर्छन्तीति संमूछिमाः-प्रसिद्धबीजाभावेन पृथिवीवर्षादिसमुद्भवास्तथाविधास्तृणादयः, न चैते न संभवन्ति, दग्धभूमावपि संभवात् , तथा तृणलतावनस्पतिकायिका इति, अत्र तृणलताग्रहणं स्वगतानेकभेदसंदर्शनार्थ, वनस्पतिकायिकग्रहणं सूक्ष्मयादराद्यशेषवनस्पतिभेदसंग्रहार्थम्, एतेन पृथिव्यादीनामपि खगताः भेदाः पृथिवीशर्करादया तथाऽवश्यायमिहिकादया तथा अङ्गारज्वालादयः, तथा झण्झामण्डलिकादयो [भेदा:]] सूचिता इति । 'सथीजाश्चित्तवन्त आख्याता' इति, एते धनन्तरोदिता वनस्पतिविशेषाः सबीजा:-खस्खनिवन्धनाश्चित्तवन्तः-आत्मवन्त आख्याता:-कथिताः । एते च अनेकजीवा इत्यादि ध्रुवगण्डिका पूर्ववत् । सबीजाश्चित्तवन्त आख्याता इत्युक्तम्, अत्र च भवत्याशङ्का-किं बीजजीव एव मूलादिजीवो भवत्युतान्यस्तमिनुकान्ते उत्पद्यते इति?, अस्य व्यपोहायाह-"
श्रीए जोणिन्भूए जीवो तुकमा सो व अन्नो वा । जोऽवि य मूले जीवो सोऽवि य पत्ते पढमयाए ॥ २३२ ॥ व्याख्या-धीजे योनिभूते इति, बीजं हि द्विविधं भवति-योनिभूतमयोनिभूतं च, अविध्वस्तयोनि विध्वस्तयोनि च, प्ररोहसमर्थं तदसमर्थ चेत्यर्थः । तत्र योनिभूतं सचेतनमचेतनं च, अयोनिभूतं तु नियमादचेतदानमिति । तत्र वीजे योनिभूते इत्यनेनायोनिभूतस्य व्यवच्छेदमाह, तत्रोत्पत्यसंभवाद, अबीजवादित्यर्थः ।।
योनिभूते तु-योन्यवस्थे बीजे, योनिपरिणाममत्यजतीत्युक्तं भवति, किमित्याह-जीवो व्युत्क्रामति-उत्पद्यते, स एव-पूर्वको बीजजीवा, बीजनामगोत्रे कर्मणी वेदायित्वा मूलादिनामगोत्रे चोपनियख्य, अन्यो वा पृथिवी
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२], भाष्यं [१७...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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४ षड्जीवनिकाध्य. जीवस्वरूपं
[१]
दशवैका. कायिकादिजीव एवमेव, 'योऽपि च मूले जीव' इति य एव मूलतया परिणमते जीवः सोऽपि च पन्ने प्रथ- हारि-वृत्तिःमतयेति स एव प्रथमपत्रतयाऽपि परिणमत इत्येकजीवकर्तृके मूलप्रथमपत्रे इति । आह-यद्येवं 'सव्वोऽवि
किसलओ खलु उग्गममाणो अणंतओ भणिओ इत्यादि कथं न विरुध्यते इति?, उच्यते, इह बीजजी- ॥ १४०॥
वोऽन्यो वा बीजमूलखेनोत्पद्य तदुच्छूनावस्थां करोति, ततस्तदनन्तरभाविनी किसलयावस्थां नियमेनानन्तजीवाः कुर्वन्ति, पुनश्च तेषु स्थितिक्षयात्परिणतेष्वसावेव मूलजीवोऽनन्तजीवतनुं परिणम्य(मय्य) खशरीरतया तावद्र्धते यावत्प्रथमपत्रमिति न विरोधः । अन्ये तु व्याचक्षते-प्रथमपत्रकमिह याऽसौ बीजस्य समुच्छूनावस्था, नियमप्रदर्शनपरमेतत्, शेषं किसलयादि सकलं नावश्यं मूलजीवपरिणामाविर्भावितमिति मन्तव्यं, ततश्च 'सब्वोऽवि किसलओ खलु उग्गममाणो अर्णतओ होई' इत्याद्यप्यविरुडं, मूलपत्रनिर्वर्तनारम्भकाले |किसलयत्वाभावादिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह भाष्यकार:
विद्वत्थाविद्वत्था जोणी जीवाण होइ नायब्वा । तत्थ अविद्धत्याए बुकमई सो य अन्नो वा ।। ५८ ॥ भाष्यम् ॥
व्याख्या-विध्वस्ताऽविध्वस्ता-अप्ररोहप्ररोहसमर्था योनिर्जीवानां भवति ज्ञातव्या, तत्राविध्वस्तायां योनौ हव्युत्क्रामति स चान्यो वा, जीव इति गम्यत इति गाथार्थः॥
जो पुण मूले जीवो सो निव्वत्तेइ जा पढमपत्तं । कंदाइ जाव बीर्य सेसं अन्ने पकुवंति ।। ५९ ॥ भाष्यम् ।। १ सर्वोऽपि किशलया खलु उद्गच्छन् अनन्तको भणितः,
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
व्याख्या-यः पुनर्मूले जीवो बीजगतोऽन्यो वा स निर्वर्तयति यावत् प्रथमपत्रं तावदेक एवेति, अत्रापि भावार्थः पूर्ववदेव । कन्दादि यावटीजं शेषमन्ये प्रकुर्वन्ति, वनस्पतिजीवा एव, व्याख्याद्वयपक्षेऽप्येतदवि
रोधि, एकतः समुच्छूनावस्थाया एव प्रथमपत्रतया विवक्षितत्वात्तदनु कन्दादिभावतः अन्यत्र कन्दादेवेन-12 || स्पतिभेदत्वात्तस्य च प्रथमपत्रोत्सरकालमेव भावादिति गाथार्थः ॥ अतिदेशमाह
सेसं सुत्तप्कासं काए काए अहकर्म बूया । अज्झयणत्था पंच य पगरणपयवंजणविसुद्धा ।। ६० ॥ भाष्यम् ।। | व्याख्या-शेषं सूत्रस्पर्श उक्तलक्षणं 'काये कायें पृथिव्यादी 'यथाक्रम यथापरिपाटि ब्रूयात् अनुयोगधर एच, न केवलं सूत्रस्पर्शमेव, किंतु अध्ययनार्थान् पञ्च च-प्रागुपन्यस्तान् जीवाजीवाभिगमादीन् प्रकरणपद-3 व्यञ्जनविशुद्धान ब्रूयात, सूत्र एव जीवाभिगमः काये काये इत्यनेनैव लब्ध इति पञ्चग्रहणम्, अन्यथा षडिहााधिकारा इति । प्रक्रियन्तेऽर्था अस्मिन्निति प्रकरणम्-अनेकार्थाधिकारवस्कायप्रकरणादि, पदं सुबन्तादि, कादीनि व्यञ्जनानि, एभिर्विशुद्धान ब्यादिति गाथार्थः । इदानीं त्रसाधिकार एतदाह-से जे पुण इमें इति, सेशब्दोऽथशब्दार्थः, असावप्युपन्यासार्थः, 'अब प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्गालोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेविति वचनात्, अथ ये पुनरमी-बालादीनामपि प्रसिद्धा अनेके-द्वीन्द्रियादिभेदेन बहवः एकैकस्यां जाती। लात्रसाः प्राणिन:-त्रस्यन्तीति बसाः प्राणा-उच्छ्रासादय एषां विद्यन्त इति प्राणिना, तद्यथा-अण्डजा इत्यादि,
एष खलु षष्ठो जीवनिकायः त्रसकाय इति प्रोच्यत इति योगः, तवाण्डाजाता अण्डजाः-पक्षिगृहकोकि
अनुक्रम [३२]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
(RN
अनुक्रम [३२]
दशवैकालादयः, पोता एव जायन्त इति पोतजाः, "अन्येष्वपि दृश्यते" (पा०३-२-१०१) उप्रत्ययो जनेरिति वच- ४ षड्जीवहारि-वृत्तिानात् । ते च हस्तिवल्गुलीचर्मजलौकाप्रभृतयः, जरायुवेष्टिता जायन्त इति जरायुजा-गोमहिष्यजाविकमनु-जानकाध्यः
दाव्यादयः, अत्रापि पूर्ववडप्रत्ययः, रसाजाता रसजा:-तक्रारनालदधितीमनादिषु पायुकृम्याकृतयोऽतिसूक्ष्मा जविस्वरूप ॥ १४१॥
भवन्ति, संखेदाजाता इति संखेदजा-मत्कुणयूकाशतपदिकादयः, संमूर्च्छनाजाताः संमूच्र्छनजाः-शलभपि
पीलिकामक्षिकाशालूकादयः, उद्भेदाजन्म येषां ते उद्भेदाः, अथवा उद्भेदनमुद्रित् उद्भिज्जन्म येषां ते उद्भिजाः दि-पतङ्गखञ्जरीटपारिप्लवादयः, उपपाताजाता उपपातजाः अथवा उपपाते भवा औपपातिका-देवा नारकाश्च ।
एतेषामेव लक्षणमाह-येषां केषाश्चित्सामान्येनैव प्राणिनां-जीवानामभिक्रान्तं भवतीति वाक्यशेषः, अभिक्रमणमभिक्रान्तं, भावे निष्ठाप्रत्ययः, प्रज्ञापकं प्रत्यभिमुखं क्रमणमित्यर्थः, एवं प्रतिक्रमणं प्रतिक्रान्तं-प्रज्ञापकात्मतीपं क्रमणमिति भावः, संकुचनं संकुचितं-गात्रसंकोचकरणं, प्रसारणं प्रसारित-पात्रविततकरणं, - वर्ण रुत-शब्दकरणं, भ्रमणं भ्रान्तम्-इतश्चेतश्च गमनं, असनं त्रस्तं-दुःखादुद्वेजनं, पलायनं पलायितं-फुतश्चिनाशनं, तथाऽऽगते:-कुतश्चित्कचित्, गतेश्च-कुतश्चित्कचिदेव, 'विण्णाया' विज्ञातारः । आह-अभिक्रान्तमतिकान्ताभ्यां नागतिगत्योः कश्चिद्भेद इति किमर्थ भेदेनाभिधानम्?, उच्यते, विज्ञानविशेषख्यापनार्थम्, ए
तदुक्तं भवति-य एव विजानन्ति यथा वयमभिक्रमामः प्रतिक्रमामो वा त एवं प्रसाः, न तु वृतिं प्रत्यभिकधामणवन्तोऽपि वयादय इति । आह-एवमपि द्वीन्द्रियादीनामत्रसत्वप्रसङ्गः, अभिक्रमणप्रतिक्रमणभावेऽप्येवं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
विज्ञानाभावात् , नैतदेवं, हेतुसंज्ञाया अवगतः, बुद्धिपूर्वकमिव छायात उष्णमुष्णाद्वा छायां प्रति तेषामभि-81 क्रमणादिभावात्, न चैवं वल्ल्यादीनामभिक्रमणादि, ओघसंज्ञया प्रवृत्तेरिति कृतं प्रसङ्गेन । अधिकृतनसभेदानाह-'जे य' इत्यादि, ये च कीटपतङ्गा इत्यत्र कीटा:-कृमयः, 'एकग्रहणे तजातीयग्रहण मिति द्वीन्द्रियाः। शङ्खादयोऽपि गृह्यन्ते, पतङ्गाः-शलभा, अत्रापि पूर्ववच्चतुरिन्द्रिया भ्रमरादयोऽपि गृयन्त इति, तथा याश्च कुन्थुपिपीलिका इत्यनेन त्रीन्द्रियाः सर्व एव गृह्यन्ते, अत एवाह-सर्वे द्वीन्द्रिया:-कृम्यादयः सर्वे जीन्द्रिया:कुन्ध्वादयः, सर्वे चतुरिन्द्रिया-पतङ्गादयः । आह-ये च कीटपतङ्गा इत्यादावुद्देशव्यत्ययः किमर्थम् ?, उच्यते, 'विचित्रा सूत्रगतिरतन्नः क्रम इति ज्ञापनार्थम् , सर्वे पश्चेन्द्रियाः सामान्यतो, विशेषतः पुनः सर्वे तिर्यग्योनयो-गवादयः, सर्वे नारका-रत्नप्रभानारकादिभेदभिन्नाः, सर्वे मनुजा:-कर्मभूमिजादयः, सर्वे देवा-भवन-| वास्यादयः, सर्वशब्दश्चात्र परिशेषभेदानां त्रसत्वख्यापनार्थः, सर्व एवैते बसाः न वेकेन्द्रिया इव प्रसाः स्थावराश्चेति, उक्तं च-"पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः" "तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः" (तत्त्वा० अ० २ सू०१३-१४) इति । 'सर्वे प्राणिनः परमधर्माण' इति सर्व एते प्राणिनो-दीन्द्रियादयः पृथिव्यादयश्च परमधर्माण इति-अत्र परम-सुखं तद्धर्माणः सुखधर्माणः-सुखाभिलाषिण इत्यर्थः, यतश्चैवमित्यतो दुःखोत्पादपरिजिहीर्षया एतेषां षण्णां जीवनिकायानां नैव स्वयं दण्डं समारभेतेति योगः। षष्ठं जीवनिकायं निगमयन्नाह-एष खलु-अनन्तरोदितः कीटादिः 'षष्ठो जीवनिकायो' पृथिव्यादिपश्चकापेक्षया षष्ठत्वमस्य, त्रसकाय
अनुक्रम [३२]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[१]
दशवैका इति पोच्यते' प्रकर्षणोच्यते सर्वैरेवतीर्थकरगणधरैरिति प्रयोगार्थः ॥ प्रयोगश्च-विद्यमानकर्तृकमिदं शरीरम् , आ- षड्जीवहारि-वृत्तिः । दिमत्प्रतिनियताकारत्वात् , घटवत् । आह-इदं त्रसकायनिगमनमनभिधाय अस्थाने 'सर्वे प्राणिनः परमध- निकाध्य.
माण' इत्यनन्तरसूत्रसंबन्धिसूत्राभिधानं किमर्थम् ?, उच्यते, निगमनसूत्रव्यवधानवदर्थान्तरेण व्यवधानख्याप- जीवस्वरूप ॥१४२॥
नार्थम्, तथाहि-त्रसकायनिगमनसूत्रावसानो जीवाभिगमः, अत्रान्तरे अजीवाभिगमाधिकारः, तदर्थमभिधाय चारित्रधर्मों वक्तव्यः, तथा च वृद्धव्याख्या-एसो खलु छट्टो जीवनिकाओ तसकाउत्ति पचह, एस ते जीवाभिगमो भणिओ, इयाणि अजीवाभिगमो भण्णइ-अजीचा दुविहा, तंजहा-पुरगला य नोपोग्गला य,
पोग्गला छविहा, तंजहा-सुहममुहुमा सुहुमा सुहुमबायरा बायरसुहमा बायरा बायरवापरा । मुहु-II ४मसुहमा परमाणुपोग्गला, सुहमा दुपएसियाओ आढत्तो जाव सुहुमपरिणओ अणंतपएसिओ खंधो, सुह-/
मवायरा गंधपोग्गला, बायरसुहुमा वाउक्कायसरीरा, बादरा आउकायसरीरा उस्सादीणं, बायरबायरा तेउवणस्सइपुढवितससरीराणि । अहवा चउब्विहा पोग्गला, तंजहा-खंधा खंधदेसा खंधपएसा परमाणुपोग्गला,
SXSASAR
RASACX
अनुक्रम [३२]
१ एष खलु षष्ठो जीवनिकायः त्रसकाब इति प्रोच्यते, एष तुभ्यं जीवाभिगमो भणितः, इदानीमजीवाभिगमो भव्यते-भजीवा द्विविधाः, तद्यथा-पुलाव नोपुद्गलाष, पुद्गलाः षडियाः, सबधा--सूक्ष्मसूक्ष्माः सुक्ष्माः सक्ष्मवादरा बादरमुक्ष्मा बादरा बादस्या
ब्धी यानरसूक्ष्मपरिणतोऽनन्तप्रदेशिकः स्कन्धः, सूक्ष्मबादरा गन्धपुरलाः, बादरसूक्ष्मा वायुकायशरीरागि, बादरा बकायशरीराणि अवश्यायादीनां, बादरबादरा-IR॥१४॥ |स्तेजोवनस्पतिचीत्रसशरीराणि । अथवा चतुर्विधाः पुरलाः, तबया-स्कन्धाः स्वन्धवेशाः स्कन्यप्रदेशात परमाणपदकाः ।
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
5
एस पोग्गलस्थिकाओ गहणलक्षणो, णोपोग्गलस्थिकाओ तिविहो, तंजहा-धम्मस्थिकाओ अधम्मत्थिकाओ आगासस्थिकाओ, तत्थ धम्मधिकाओ गइलक्षणो, अधम्मस्थिकाओ ठिइलक्षणो, आगासस्थिकाओ अवगाहलक्षणो, तथा चैतत्संवाद्यार्षम्-"दुविहा हुंति अजीवा पोग्गलनोपोग्गला य छ सिविहा परमाणुमादि पोग्गल णोपोग्गल धम्ममादीया ॥१॥ सुहुमसुहुमा य मुहमा तह चेव य मुहुमायरा णेया। वायरसुहमा बोयर तह वायरवायरा चेव ॥२॥ परमाणु दुप्पएसादिगा उ तह गंधपोग्गला होन्ति । वीज आउसरीरा तेऊमादीण चरिमा उ ॥ ३॥ धम्माधम्माऽऽगासा लोए णोपोग्गला तिहा होति । जीवाईण गइहिइअवगाहणिमित्तगा णेया ॥४॥”
इच्चेसि छण्हं जीवनिकायाणं नेव सयं दंडं समारंभिजा नेवन्नेहिं दंडं समारंभाविजा दंडं समारंभंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं १ एष पुनलासिकायो ग्रहणलक्षणः, नोपुगणस्तिकायविविधः, तद्यथा-धर्मास्तिकायः अधति कायः भाकाषाास्तिकायः, तत्र धर्मास्तिकायो गतिलक्षणः अधमर्मास्तिकायः स्थितिलक्षणः आकाशास्तिकायोऽवगाहलक्षणः ।-विविधा भवन्यजीवाः पुगला नोपुलाव पद्मिविधाः । परमावादयः पुगला | नोपला धमोखिकायादयः ॥१॥सुक्ष्मसूश्माबसमाखन सूक्ष्मवादरा शेषाः। बादरसमा बादरास्तथा बादरवादराव ॥२॥ परमात प्रवेशिकास्तु तथा गन्धपुरला भवन्ति । वायुरछरीराणि तेजभादीनां परमारतु ॥ ३॥ धर्माधर्माकाशास्तिकामा लोके नोपुलानिया भवन्ति । जीवादीनां गतिथिसमाहानिमित्ता शियाः॥४॥
अनुक्रम [३२]
525*5*5
-96
Jamacaron
| षड् जीव-निकायानाम् हिंसाया: विरमणस्य प्रतिज्ञा
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [२] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक
95+%
षड्जीवनिकाध्य जीवस्वरूप
दीप अनुक्रम [३३]
दशवैका. मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि तस्स हारि-वृत्तिः
भंते ! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । (सूत्र०२) ॥ १४३॥
उक्तो जीवाभिगमः, साम्प्रतं चारित्रधर्मः, तत्रोक्तसंबन्धमेवेदं सूत्रम्-'इचेसिं' इत्यादि, सर्वे प्राणिनः परमधर्माण इत्यनेन हेतुना 'एतेषां षण्णां जीवनिकायाना मिति, सुपा सुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी, एतेषु षट्सु जीवनिकायेपु-अनन्तरोदितस्वरूपेषु नैव 'खयम् आत्मना 'दण्डं' संघनपरितापनादिलक्षणं 'समारभेत प्रवर्तयेत्, तथा नैव 'अन्यः प्रेष्यादिभिः 'दण्डम् उक्तलक्षणं 'समारंभयेत्' कारयेदित्यर्थः, दण्ड समारभमाणानप्यन्यान् प्राणिनो 'न समनुजानीयात् नानुमोदयेदिति विधायकं भगवद्वचनम् । यतश्चैवमतो यावजीव मित्यादि यावद् व्युत्मजामि, एवमिदं सम्यक प्रतिपद्यतेस्यैदम्पर्य, पदार्थस्तु-जीवनं जीवा यावज्जीवा यावज्जीवम्-आप्राणोपरमादित्यर्थः, किमित्याह-'त्रिविधं त्रिविधेनेति तिस्रो विधा-विधानानि कृतादिरूपा अस्येति त्रिविधः, दण्ड इति गम्यते, तं त्रिविधेन-करणेन, एतदुपन्यस्यति-मनसा वाचा कायेन, एतेषां
खरूपं प्रसिद्धमेव, अस्य च करणस्य कर्म उक्तलक्षणो दण्डा, तं वस्तुतो निराकार्यतया सूत्रेणैवोपन्यस्यन्नाह ल-न करोमि स्वयं, न कारयाम्यन्यैः, कुर्वन्तमप्यन्यं न समनुजानामी'ति, 'तस्य भवन्त ! प्रतिक्रामामीति
१ लिटो तत्त्वाइ, तथा व नागपुरुषवचनेनाप्युचौ क्षतिः.
॥१४३॥
JanElicitatli
SUnabraryang
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [२] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [३३]
तस्येत्यधिकृतो दण्डः संबध्यते, संबन्धलक्षणा अवयवलक्षणा वा षष्ठी, योऽसौ त्रिकालविषयो दण्डस्तस्य सं
बन्धिनमतीतमवयवं प्रतिक्रामामि, न वर्तमानमनागतं वा, अतीतस्यैव प्रतिक्रमणात्, प्रत्युत्पन्नस्य संवरणादादनागतस्य प्रत्याख्यानादिति, भदन्तेति गुरोरामन्नणम्, भदन्त भवान्त भयान्त इति साधारणा श्रुतिः, माएतच गुरुसाक्षिक्येव व्रतप्रतिपत्तिः साध्वीति ज्ञापनार्थ, प्रतिक्रामामीति भूताद्दण्डान्निवर्तेऽहमित्युक्तंभ
वति, तस्माच निवृत्तिर्यत्तदनुमतेविरमणमिति, तथा 'निन्दामि गोमीति, अत्रात्मसाक्षिकी निन्दा परसादिक्षिकी गहाँ-जुगुप्सोच्यते, 'आत्मानम् अतीतदण्डकारिणमइलाध्यं 'व्युत्सृजामीति विविधाओं विशेषार्थों
वा विशब्दः उच्छब्दो भृशार्थः सजामीति-त्यजामि, ततश्च विविधं विशेषेण वा भृशं त्यजामि व्युत्सृजामीति । आह-यद्येवमतीतदण्डप्रतिक्रमणमात्रमस्यैदम्पर्य न प्रत्युत्पन्नसंवरणमनागतप्रत्याख्यानं चेति, नैतदेचं, न करोमीत्यादिना तदुभयसिद्धेरिति ॥
पढमे भंते! महव्वए पाणाइवायाओ वेरमणं, सव्वं भंते! पाणाइवायं पञ्चक्खामि, से सुहुमं वा बायरं वा तसं वा थावरं वा, नेव सयं पाणे अइवाइजा नेवऽन्नेहि पाणे अइवायाविज्जा पाणे अइवायतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि, जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजा
प्राणातिपात-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य विस्तृत व्याख्या
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[3]
दीप
अनुक्रम
[३४]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [३] / गाथा ||१५...|| निर्युक्ति: [ २३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैकाo हारि-वृत्तिः
॥ १४४ ॥
णामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पढने भंते! महव्वए उवट्टिओमि सव्वाओ पाणाइवायाओ वेरमणं ॥ १ ॥ (सूत्र० ३ ) अयं चात्मप्रति दण्डनिक्षेपः सामान्यविशेषरूप इति, सामान्येनोक्तलक्षण एव, स तु विशेषतः पञ्चमहाव्रतरूपतयाऽप्यङ्गीकर्तव्य इति महाव्रतान्याह - 'पढमे भंते' इत्यादि, सूत्रक्रमप्रामाण्यात् प्राणातिपातविरमणं प्रथमं तस्मिन् भदन्तेति गुरोरामन्त्रणं, 'महाव्रत' इति महच्च तद्वतं च महाव्रतं, महत्त्वं चास्य श्रावकसंवन्ध्यणुव्रतापेक्षयेति । अत्रान्तरे सप्तचत्वारिंशदधिकप्रत्याख्यान भङ्गकुशताधिकारः, तत्रेयं गाथा'सीयालं भंगस्यं पञ्चक्खाणंभि जस्स उचलद्धं । सो पचखाणकुसलो सेसा सव्वे अकुसला उ ॥ १ ॥ एनां चासंमोहार्थमुपरिष्टाद्व्याख्यास्यामः । तस्मिन् महाव्रते 'प्राणातिपाताद्विरमण' मिति प्राणा-इन्द्रियादयः तेषामतिपातः प्राणातिपातः - जीवस्य महादुःखोत्पादनं, न तु जीवातिपात एव, तस्मात् प्राणातिपाताद्विरमणं, विरमणं नाम सम्यगज्ञानश्रद्धानपूर्वकं सर्वथा निवर्तनं, भगवतोक्तमिति वाक्यशेषः, यतश्चैवमत उपादेयमेतदिति विनिश्चित्य 'सर्वे भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामीति सर्वमिति निरवशेषं न तु परिस्थूरमेव, भदअन्तेति गुर्वमन्त्रणं, प्राणातिपातमिति पूर्ववत्, प्रत्याख्यामीति प्रतिशब्दः प्रतिषेधे आङाभिमुख्ये ख्या प्रकधने, प्रतीपमभिमुखं ख्यापनं प्राणातिपातस्य करोमि प्रत्याख्यामीति, अथवा प्रत्याचक्षे संवृतात्मा साम्प्रतमनाग
Forane & Personal Use City
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४ पड़जीवनिकाध्य० जीवस्वरूपं
॥ १४४ ॥
brary dig
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [३] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
[३]
दीप
तप्रतिषेधस्य आदरेणाभिधानं करोमीत्यर्थः, अनेन व्रतार्थपरिज्ञानादिगुणयुक्त उपस्थानाई इत्येतदाह, उक्तं माच-"पढिए य कहिय अहिगय परिहरउघठावणाइ जोगोत्ति । छकं तीहि विसुद्धं परिहर णवएण भेदेण M॥१॥ पडपासाउरमादी विट्ठता होंति वयसमारुहणे । जह मलिणाइसु दोसा सुद्धाइसु वमिहइंपि ॥२॥"IX
इत्यादि, एतेसिं लेसुद्देसेण सीसहियट्ठयाए अत्थो भण्णइ-पढियाए सत्थपरिणाए दसकालिए छज्जीवणि-14 काए वा, कहियाए अत्थओ, अभिगयाए संमं परिक्खिऊण-परिहरइ छज्जीवणियाए मणवयणकाएहिं कय-14 कारावियागुमइभेदेण, तओ ठाविजइ, ण अन्नहा । इमे य इत्थ पडादी दिटुंता-मइलो पडो ण रंगिनहर सोहिओ रंगिजइ, असोहिए मूलपाए पासाओ ण किन्नइ सोहिए किजइ, वमणाईहिं असोहिए आउरे ओसहं न दिन्नइ सोहिए दिजइ, असंठविए रयणे पंडिबंधो न किजा संठविए किजह, एवं पढियकहिया
१ पठिते व करिते अधिगते परिहरति उपस्थापनाश योग्य इति । पटू निभिर्विशुद्धं परिहर नवकेन भेदेन ॥१॥ पटप्रासादातुरादयो दृष्टान्ता भवन्ति तिसमारोहणे । यथा मलिनादिषु दोषाः शष नैवमिहापि ॥२॥ एतयोलेशद्देशेन शिष्यहितार्थायार्थी भण्पते-पठितायो शत्रपरिज्ञायाँ दशवैकालिकस्य पथ्
जीवनिकायां वा, कथितायामर्धतः, अमिगतायो सम्यक् परीक्ष्य-परिहरति षड्जीवनि कायान् मनोवचनकायैः कृतकारितानुमति देन तत उपस्थाप्यते, ना| न्यथा । इने चात्र पटादयो दृष्टान्ताः-मलिनः पटो न रज्यते शोधितो रज्यते, अशोषिते मूलपादे प्रासादो न क्रियते शोभिते क्रियते, वमनादिभिरशोधिते आतुरे
औषधं न दीयते शोधिते दीयते, असंस्थापिते रने प्रतिबन्धो न क्रियते संस्थापित क्रियते, एवं पठितकवितादिभिरशोधिते शिष्य न तारोपणं कियते शोधिते
कियते, अशोधिते च (उपस्थापनामा) करणे पुरोदोषाः, शोषितेालने शिष्यस्य दोष इति तं प्रसोन, २ अलदारेषु न्यास दश०२५
अनुक्रम
[३४]
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अनुक्रम [३४]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:) अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [३] / गाथा ||१५...|| निर्युक्ति: [ २३२...], भाष्यं [६०...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैकro हारि-वृत्तिः
॥ १४५ ॥
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ईहिं असोहिए सीसे ण वयारोवणं किज्जइ सोहिए किज्जह, असोहिए य करणे गुरुणो दोसा, सोहियापालणे सिस्सस्स दोसो त्ति कयं पसंगेण । यदुक्तम्- 'सर्व भदन्त ! प्राणातिपातं प्रत्याख्यामी'ति तदेतद्विशेषेण अभिधित्सुराह - 'से मुहुमं वेत्यादि, सेशब्दो मागधदेशीप्रसिद्धः अथशब्दार्थः, स चोपन्यासे, तद्यथा - 'सूक्ष्मं वा बादरं वा असं वा स्थावरं वा' अत्र सूक्ष्मोऽल्पः परिगृह्यते न तु सूक्ष्मनामकर्मोदयात्सूक्ष्मः, तस्य कायेन व्यापादनासंभवात्, तदेतद्विशेषतोऽभिधित्सुराह— 'बादरोऽपि स्थूरः, स चैकैको द्विधा त्रसः स्थावरश्च, सूक्ष्मनसः कुन्ध्वादि: स्थावरो वनस्पत्यादिः, बादरस्त्रसो गवादिः स्थावरः पृथिव्यादिः एतान, 'णेव सर्य | पाणे अइवाएजति प्राकृतशैल्या छान्दसत्वात्, 'तिङां तिङो भवन्ती'ति न्यायात् नैव स्वयं प्राणिनः अतिपातयामि, नैवान्यैः प्राणिनोऽतिपातयामि, प्राणिनोऽतिपातयतोऽप्यन्यान्न समनुजानामि, यावज्जीवमित्यादि पूर्ववत्। इह च 'सूक्ष्मं या बादरं वेत्यादिनोपलक्षित 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण' मिति चतुर्विधः प्राणातिपातो द्रष्टव्यः, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्चेति, तत्र द्रव्यतः षट्सु जीवनिकायेषु सूक्ष्मादिभेदभिन्नेषु, क्षेत्रतो लोके तिर्यग्लोकादिभेदभिन्ने, कालतोऽतीतादी राज्यादौ वा, भावतो रागेण वा द्वेषेण वा, मांसादिरागशत्रुद्वेषाभ्यां तदुपपत्तेरिति । चतुर्भङ्गिका चात्र दव्वंओ णामेगे पाणाहवाए ण भावओ इत्यादिरूपा यथा द्रुमपुष्पिकायां तथा द्रष्टव्येति । व्रतप्रतिपत्तिं निगमयन्नाह प्रथमे भदन्त ! महाव्रते 'उपस्थितोऽस्मि'उप-सा
१ द्रव्यतो नामकः प्राणातिपातो न भावतः
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षड्जीव
निकाध्य० जीवस्वरूपं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [३] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
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[३]
दीप
न तत्परिणामापत्त्या स्थितः, इत आरभ्य मम सर्वस्मात्माणातिपाताद्विरमणमिति । 'भदन्त' इत्य : नेन चादिमध्यावसानेषु गुरुमनापृच्छय न किंचित्कर्तव्यं कृतं च तस्मै निवेदनीयमेवं तदाराधितं भवतीत्येवमाह । उक्तं प्रथमं महाव्रतम् ॥
अहावरे दुच्चे भंते! महव्वए मुसावायाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! मुसावायं पच्चक्खामि, से कोहा वा लोहा वा भया वा हासा वा, नेव सयं मुसं वइज्जा नेवऽन्नेहिं मुसं वायाविजा मुसं वयंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । दुच्चे भंते ! महव्वए उवट्रिओमि सव्वाओ मुसावायाओ वेरमणं २॥ (सू०४) इदानी द्वितीयमाह-'अहावरें' इत्यादि, 'अथापरस्मिन् द्वितीये भदन्त ! महाव्रते मृषावादाद्विरमणं, सर्व भदन्त ! मृषावादं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-'क्रोधादा लोभाद्वे'त्यनेनावन्तग्रहणान्मानमायाप-| रिग्रहः, 'भयादा हास्याद्वा' इत्यनेन तु प्रेमद्वेषकलहाभ्याख्यानादिपरिग्रहा, 'णेव सर्य मुसं वएजत्ति नैव
अनुक्रम
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मषावाद-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [४] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [३५]
दशवैका खयं मृषा वदामि नैवान्यैर्मृषा वादयामि मृषा बदतोऽप्यन्यान् न समनुजानामि इत्येतत् 'यावज्जीव'मि-18 पद्धजीवहारि-वृत्तिः त्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम्-मृषावादश्चतुर्विधा, तद्यथा-सद्भावप्रतिषेधः असद्भावो-निकाध्य ॥१४॥
दावन अर्थान्तरं गहीच, तत्र सद्भावप्रतिषेधो यथा-नास्त्यात्मा नास्ति पुण्यं पापं घेत्यादि, असद्भावो- जीवस्वरूप द्भावनं यथा-अस्त्यात्मा सर्वगतः श्यामाकतन्दुलमात्रो बेत्यादि, अर्थान्तरं गामश्वमभिदधत इत्यादि, गहो| काणं काणमभिदधत इत्यादिः, पुनरयं क्रोधादिभावोपलक्षितश्चतुर्विधः, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो
भावतश्च, द्रव्यतः सर्वद्रव्येष्वन्यथाप्ररूपणात् क्षेत्रतो लोकालोकयोः कालतो राव्यादी भावतः क्रोधादिभिः [इति । द्रव्यादिचतुर्भश्री पुनरियम्-दवओ णामेगे मुसावाए णो भावओ भावओ णामेगे णो दव्यओ एगे
दव्वओऽवि भावओऽवि एगे णो दव्यओ णो भावओ । तत्थ कोइ कहिंचि हिंसुजओ भणइ-इओ तए पसुमिणा(गा)इणो दिट्टत्ति?, सो दयाए दिहावि भणइ-ण विट्ठत्ति, एस दब्बओ मुसावाओ नो भावओ, अवरो मुसं भणीहामित्तिपरिणओ सहसा सर्च भणइ एस भावओ नो दध्वओ, अवरो मुसं भणीहा|मित्तिपरिणओ मुसं चेव भणह, एस ब्वओऽवि भावओऽषि, चरमभंगो पुण सुण्णो २॥
१व्यतो नामैको मृषावाद नो भावतः भावतो नामैको नो द्रव्यतः एको द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि एको नो द्रव्यतो नो भावतः, तत्र कोऽपि कुत्रचित् हिंसोकायतो भणति-इतस्वचा पारागादयो या इति !, स दयया दृधा अपि भणति न रश इति, एष इव्यतो मृषाबादो न भावतः, अपरी भूषा भणियामीति परिणतः।
१४६॥ लिसहसा सर्व भणति एष भावतो नो द्रव्यतः, अपरो सूषा भणियामीवि परिणतो भूषेय भापति एष इब्बतोऽपि भावतोऽपि, चरमभाः पुनः शून्यः,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [9] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
दीप अनुक्रम [३६]
अहावरे तच्चे भंते! महव्वए अदिन्नादाणाओ वेरमणं, सव्वं भंते! अदिन्नादाणं पञ्चक्खामि, से गामे वा नगरे वा रणे वा अप्पं वा बहुं वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं अदिन्नं गिहिजा नेवऽन्नेहिं अदिन्नं गिहाविज्जा अदिन्नं गिण्हते वि अन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि । तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । तच्चे भंते ! महव्वए उवढिओमि
सव्वाओ अदिन्नादाणाओ वेरमणं ३॥ (सू०५) उक्तं द्वितीय महाव्रतम्, अधुना तृतीयमाह-'अहावरे' इत्यादि, अथापरमिंस्तृतीये भदन्त ! महावते अदत्तादानाद्विरमणं, सर्व भदन्त! अदसादानं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-'ग्रामे वा नगरे वा अरण्ये वा' इति, अनेम क्षेत्रपरिग्रहः, तत्र ग्रसति बुढ्यादीन गुणानिति ग्रामः तस्मिन्, नामिन् करो विद्यत इति। नकरम्, अरण्य-काननादि । तथा 'अल्पं वा वह वा अणु वा स्थूलं वा चित्तबदा अचित्तवद्दा इति, अनेन तु द्रव्यपरिग्रहः, तत्राल्प-मूल्यत एरण्डकाष्ठादि बहु-बज्रादि अणु-प्रमाणतो वज्रादि स्थूलम्-एरण्डकाष्ठादि,
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अदत्तादान-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या
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(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [५] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [३६]
दशवैका. एतच चित्तवदा अचित्सवद्वेति-चेतनाचेतनमित्यर्थः। 'णेव सयमदिपणं गेण्हिजत्ति नैव स्वयमदत्तं गृहामि षड्जीवहारि-वृत्तिः नवान्यैरदत्तं ग्राहयामि अदत्तं गृहृतोऽप्यन्यान न समनुजानामीत्येतद्यावजीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य निकाध्य ॥१४॥
पूर्ववत, विशेषस्त्वयम्-अदत्तादानं चतुर्विधं-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भाषतच, द्रव्यतोऽल्पादौ क्षेत्रतोजीचस्वरूप
ग्रामादौ कालतो राथ्यादी भावतो रागद्वेषाभ्याम् । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियम्-दव्यओ णामेगे अदिण्णादाणे| प्राणो भावओ भावओ णामेगे णो दव्यओ एगे दव्वओवि भावओऽवि एगे णो दवओ णो भावओ। सातत्थ अरसदुट्ठस्स साहुणो कहिंचि अणणुपणवेऊण तणाइ गेण्हओ दवओ अदिण्णादाणं णो भावओ.
हरामीति अन्भुजयस्स तदसंपत्तीए भावओ नो दब्बओ, एवं चेव संपत्तीए बच्चओपि भावओषि, चरिमभंगो पुण सुन्नो॥
अहावरे चउत्थे भंते ! महव्वए मेहुणाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! मेहणं पञ्चक्खामि, से दिव्वं वा माणुसं वा तिरिक्खजोणियं वा, नेव सयं मेहणं सेविजा नेवऽन्नेहि मेहणं १दव्यतो नामैकमदत्तादानं नो भावतः भावतो नामैकं नो द्रव्यतः एकं दव्यतोऽपि भावतोऽपि एकं नो द्रव्यतो नो भावतः, तबारक्तद्विष्टस्य साधोः फुत्रचित् अननुज्ञाप्य तृणादि गहतो द्रव्यतोऽवत्तादानं न भावतः हरामीसभ्युद्यतस्य तदसंपत्तौ भावतो नो इव्यतः एवमेव संपत्ती द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, परमभः
IM॥१४७॥ पुनःशून्यः।
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मैथुन-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [६] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [३७]
सेवाविजा मेहणं सेवंतेऽवि अन्ने न समणुजाणामि जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । चउत्थे भंते! महव्वए
उवट्टिओमि सव्वाओ मेहुणाओ वेरमणं ४॥ (सू०६) उक्तं तृतीय महाव्रतम्, इदानीं चतुर्थमाह-अहावरे' इत्यादि, अथापरमिश्चतुर्थे भदन्त ! महाव्रते मैथुनाद्विरमण, सर्व भदन्त ! मैथुनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-दैवं चा मानुषं वा तैर्यग्योनं वा, अनेन द्रव्यपरिग्रहः, देवीनामिदं देवम्, अप्सरोऽमरसंवन्धीतिभावा, एतच्च रूपेषु वा रूपसहगतेषु वा द्रव्येषु भवति, |तन्त्र रूपाणि-निर्जीवानि प्रतिमारूपाण्युच्यन्ते, रूपसहगतानि तु सजीवानि, भूषणविकलानि वा रूपाणि भूषणसहितानि तु रूपसहगतानि, एवं मानुषं तैर्यग्योनं च चेदितव्यमिति, 'णेव सर्य मेहुणं सेविज्जा' नैव खयं मैथुन सेवे, नैवान्यमैथुन सेवयामि, मैथुनं सेवमानानप्यन्यान समनुजानामि इत्येतद्याचज्जीवमित्यादि। |च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम्-मैथुनं चतुर्विधं द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, द्रव्यतो ट्रादिव्यादी क्षेत्रतत्रिषु लोकेषु कालतो रात्र्यादी भावतो रागद्वेषाभ्याम् । दोसेणमिमीए वर्ष भंजेमित्ति दोसु
१द्वेषेणास्या प्रतं भवामि इति द्वेषोद्भव, रागेण भवति.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [६] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
हारि-वृत्तिः
षड्जीवनिकाध्य. जीवस्वरूप
[६]
दीप अनुक्रम [३७]
दशवैका०म्भवं, रागेण होइ । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी वियम्-दवओ णामेगे मेहुणे णो भावओ १ भावओ णामेगे णो
यादवओ र एगे दव्योऽवि भावओऽवि ३ एगे णो दब्बओ णो भावओ४, तत्थ अरत्तदुवाए इत्थियाए ॥१४८ लापला परि जमाणीए दव्यओ मेहुणं णो भावओ, मेहुणसण्णापरिणयस्स तदसंपत्तीए भाषओ णो दचओ,
एवं चेव संपत्तीए दवओवि भावओऽवि, चरमभंगो पुण सुन्नो ॥
अहावरे पंचमे भंते ! महव्वए परिग्गहाओ वेरमणं, सव्वं भंते ! परिग्गहं पञ्चक्खामि, से अप्पं वा बई वा अणुं वा थूलं वा चित्तमंतं वा अचित्तमंतं वा नेव सयं परिग्गहं परिगिहिज्जा नवऽन्नेहिं परिग्गहं परिगिण्हाविजा परिग्गहं परिगिण्हतेऽवि अन्ने न समणुजाणिजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरि
व्यतो नामैक मैथुन म भावतः भावतो नामकं न द्रव्यतः २ एक द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ एक न द्रव्यतो न भावतः ४ । तत्र भरतद्विष्टायाः स्त्रिया बलात् पारभुज्यमानाया द्रव्यतो मैथुनं न भावतः, मैथुनापरिणतस्य तदसंपत्ता भावतो न द्रव्यतः, एवमेव संपत्तौ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, चरमभकः पुनः शून्यः
॥१४८॥
| परिग्रह-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [७] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दीप अनुक्रम [३८]
हामि अप्पाणं वोसिरामि । पंचमे भंते! महव्वए उवट्टिओमि सव्वाओ परिग्गहाओ
वेरमणं ५॥ (सू०७) उक्तं चतुर्थं महाव्रत, साम्प्रतं पश्चममाह-'अहावरे' इत्यादि, अथापरस्मिन् पञ्चमे भदन्त ! महाबते परिग्रहाद्विरमण, सर्व भदन्त ! परिग्रहं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत् । तद्यथा-अल्पं वेत्याद्यवयवव्याख्यापि पूर्ववदेव, नैव खयं परिग्रहं परिगृहामि नैवान्यैः परिग्रहं परिग्राहयामि परिग्रहं परिगृह्णतोऽप्यन्यान समनुजानामीत्येतद्यावज्जीवमित्यादि च भावार्थमधिकृत्य पूर्ववत्, विशेषस्त्वयम्-परिग्रहश्चतुर्विधः, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः । कालतो भावतश्च, द्रव्यतः सर्वद्रव्येषु क्षेत्रतो लोके कालतो राश्यादौ भावतो रागद्वेषाभ्याम् , अन्यद्वेष परिग्रहोपपत्तेः । द्रव्यादिचतुर्भङ्गी पुनरियम्-दवओ नामेगे परिग्गहे णो भावओ१ भावओ णामेगे णो दवओ २ एगे दब्बओवि भावोऽवि ३ एगे णो दब्वओ णो भावओ८ा तत्थ अरत्तदुहस्स धम्मोवगरणं दचओ परिग्गहो णो भावओ, मुच्छियस्स तदसंपत्तीए भावओ ण दब्बओ, एवं चेव संपत्तीए दब्बओऽवि भावओऽवि, चरमभंगो उण सुनो।
.१व्यतो नामैका परिग्रहो नो भावतः १ भावतो नामैको मो इन्यतः २एको इव्यतोऽपि भावतोऽपि । एको नो व्यतो नो भावतः ४ । तत्रारक्तद्विष्टस्य साधर्मोपकरण द्रव्यतः परिग्रहो नो भावतः, मूर्षियतस्य तदसंपत्ती भावतो नो द्रव्यतः, एषनेव संपत्तौ द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, धरममाः पुनः कान्यः.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
षड्जीव
निकाध्य
प्रत सूत्रांक [८-९]
जीवस्वरूप
दीप अनुक्रम [३९-४०]
दशवैका
अहावरे छट्टे भंते ! वए राईभोयणाओ वेरमणं, सव्वं भंते! राईभोयणं पच्चक्खामि, हारि-वृत्तिः
से असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा, नेव सयं राई भुंजेज्जा नेवऽन्नेहिं राई ॥ १४९॥
भुंजाविजा राई भुंजंतेऽवि अन्ने न समणुजाणेजा जावजीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कापणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पमिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । छट्टे भंते! वए उवट्रिओमि सव्वाओ राईभोयणाओ वेरमणं ६॥ (सू०८) इच्चेयाई पंच महव्वयाई
राइभोयणवेरमणछटाई अत्तहियट्टयाए उवसंपजित्ता णं विहरामि ॥ (सू०९) उक्तं पश्चम महाव्रतम्, अधुना षष्ठं व्रतमाह-'अहावरें' इत्यादि, अथापरस्मिन् षष्ठे भदन्त ! व्रते रात्रिभोजनाद्विरमणं, सर्व भदन्त। रात्रिभोजनं प्रत्याख्यामीति पूर्ववत्, तद्यथा-अशनं वा पानं वा स्वाचं वा
खाचं या, अश्यत इत्यशनम्-ओदनादि, पीयत इति पानं-मृद्वीकापानादि खाद्यत इति खाद्य-खजूरादि| ६ खाद्यत इति खायं-ताम्बूलादि, 'णेव सयं राई भुंजेजा' नैव खयं रात्रौ भुझे नैवान्यै रात्री भोजयामि रात्री
भुञ्जानानप्यन्यान्नैव समनुजानामि इत्येतद्यावजीवमित्यादि च भावार्धमधिकृत्य पूर्ववत् । विशेषस्त्वयम्-रात्रि
60-70-505495%-4-6-594-96
॥१४९॥
| रात्रिभोजन-विरमणस्य प्रत्याख्यानं एवं अस्य सूत्रस्य व्याख्या
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(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८-९]
दीप अनुक्रम [३९-४०]
C-AACOCC-SG
PIभोजनं चतुर्विध, तद्यथा-द्रव्यतः क्षेत्रतः कालतो भावतश्च, द्रव्यतस्त्वशनादौ क्षेत्रतोऽर्धतृतीयेषु द्वीपस-| मुद्रेषु कालतो राण्यादी भावतो रागद्वेषाभ्यामिति । स्वरूपतोऽप्यस्य चातुर्विध्यं, तद्यथा-रात्री गृह्णाति रात्री मुझे रात्री गृह्णाति दिवा भुङ्क्ते २ दिवा गृह्णाति रात्रौ भुङ्क्ते ३ दिवा गृह्णाति दिवा भुङ्गे ४ संनिधिपरिभोगे, द्रव्यादिचतर्भली पुनरियम्-दव्यओ णामेगे राई मुंजइ णो भावओभावओ णामेगे णो दब्वओर एगे|
दवओऽवि भावओऽवि ३ एगे णो दवओ णो भावओ ४, तत्थ अणुग्गए सूरिए उग्गओत्ति अत्थमिए8 सावा अणथमिओत्ति अरत्तदुहस्स कारणओत्ति रयणीए वा भुजमाणस्स दव्वओ राईभोअणं णो भावओ.
रयणीए भुंजामि मुच्छियस्स तदसंपत्तीए भावओ णो दव्यओ, एवं चेव संपत्तीए दब्बओऽवि भाव४ ओऽवि, चउत्थभंगो उण सुन्नो । एतच रात्रिभोजनं प्रथमचरमतीर्थकरतीथयोः फजुजडवक्रजडपुरुषापेक्षया मूलगुणत्वख्यापनार्थं महाव्रतोपरि पठितं, मध्यमतीर्थकरतीर्थेषु पुनः ऋजुप्रज्ञपुरुषापेक्षयोत्तरगुणवर्ग इति ।
समस्तवताभ्युपगमख्यापनायाह-'इयाई इत्यादि, 'इत्येतानि' अनन्तरोदितानि पञ्च महाव्रतानि रात्रिभोजनविरमणषष्ठानि, किमित्याह-'आत्महिताय' आत्महितो-मोक्षस्तदर्थम्, अनेनान्यार्थं तत्त्वतो व्रता
१व्यतो नामैको रात्री भुक्ते नो भावतः १ भावतो नामैको नो दव्यतः १ एको दव्यतोऽपि भावतोऽपि ३ एको नो द्रव्यतो नो भावतः ४ । तत्रानुगते | सूर्ये उद्त इति अस्तमिते वाऽनसामित इति अरक्तद्विष्टस्य कारणतो वा रात्री भुनानस्य द्रव्यतो रात्रिभोजनं नो भावतः, रात्री भुओ इवि मूर्षिछतस्य तदसंपत्ती | | भावतो नो द्रव्यतः, एवमेव संपनी द्रव्यतोऽपि भावतोऽपि, चतुर्क भनः पुनः शून्यः.
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
[८-९]
दीप
दशबैका भावमाह, तदेभिलाषानुमत्या हिंसादावनुमत्यादिभावात्, 'उपसंपद्य सामीप्येनाङ्गीकृत्य व्रतानि 'विहरामिषड्जीवहारि-वृत्तिः सुसाधुविहारेण, तदभावे चाङ्गीकृतानामपि व्रतानामभावात् , दोषाश्च हिंसादिकर्दणामल्पायुर्जिहाच्छेद- निकाध्य. ॥१५॥
दारियपण्डकदुःखितत्वादयो वाच्या इति । साम्प्रतं प्रागुपन्यस्तगाथा व्याख्यायते–'सप्तचत्वारिंशदधिक-जीवस्वरूप भङ्गशतं वक्ष्यमाणलक्षणं 'प्रत्याख्याने प्रत्याख्यानविषयं, यस्योपलब्धं भवति 'स' इत्थंभूतः प्रत्याख्याने कुशलो-निपुणः, शेषाः सर्वे 'अकुशलाः तदनभिज्ञा इति गाथासमासार्थः । अवयवार्थस्तु भङ्गकयोजनाप्रधाना, स चैवं द्रष्टव्यः-'तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिनिकेका य होति जोएसु । तिदुएकं तिदुएकं तिदुएक चेव करणाई ॥१॥ त्रयस्त्रिकाः (३३३) त्रयो द्विकाः (२२२) त्रयश्चैकका (१११) भवन्ति योगेषु । कायवाङ्मनोव्यापारलक्षणेषु, त्रीणि द्वयमेकं त्रीणि द्वयमेकं त्रीणि द्वयमेकं चैव करणानि-मनोवाकायलक्षणानि इति पदघटना । भावार्थस्तु स्थापनया निर्दिश्यते, (दश्य) सा चेयम्-11 काऽत्र भावना ?, न करेमि न
कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि मणेणं वायाए कारणं एको भेओ । इयाणि विइओ-ण करेइ ण साकारवेइ करतंपि अन्नं न समणुजाणइ मणेणं वायाए इको भंगो तहा मणेणं कारणं बिहओ भंगो तहा चायाए कारण य तइओ भंगो, बिइओ मूलभेओ गओ । इयाणिं तइओ-ण करेइ ण कारवेइ करतंपि अन्नं न
१ नरेन्द्रत्वाधभिलाधहेतुना. २ दोषप्राप्त्यवगमातू. ३ प्रथमनते त्रिविधं त्रिविधेनेस्यस्य व्यास्थाने.
अनुक्रम [३९-४०]
Mil॥१५॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८-९]
दीप अनुक्रम [३९-४०]
समणुजाणइ मणेणं एको वायाए विइयो कारणं तइओ. गओ तहओ मूलभेओ।याणि चउत्थो-ण करे ण कारवेइ मणेणं वायाए काएणं इक्को न करेइ करतं णाणुजाणइ बिइओ ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ तइओ, गओ चउत्थो मूलभेओ । इयाणि पंचमो-ण करेइ ण कारवेइ मणेणं वायाए एकोण करेह करतं णाणुजाणइ
विइओ ण कारवेइ करतं णाणुजाणइ तइओ, एए तिन्नि भंगा मणेणं वायाए लद्धा, अन्नेवि तिन्नि मणेणं पकाएण य लभंति, तहावरेऽवि वायाए काएण य लभंति तिन्नि, एवमेव सव्वे एए नय, पंचमोऽप्युक्तो मूल-13
भेदः । इदानीं षष्ठः-ण करेइ ण कारवेइ मणेणं इको, तहा ण करेइ करतं णाणुजाणइ मणेणं बिइओ, ण कार-1 वेइ करंतं णाणुजाणइ मनसैव तृतीया, एवं चायाए काएणवि तिन्नि तिन्नि भंगा लन्भंति, एएऽवि सब्वे णव, उक्तः षष्ठो मूलभेदः । सप्तमोऽभिधीयते-ण करेइ मणेणं वायाए कारणं एको, एवं ण कारवेद मणादीहिं बिइओ, करंतं णाणुजाणइ तइओ, सप्तमोऽप्युक्तो मूलभेदः । इदानीमष्टमः-ण करेइ मणेणं वायाए एको, मणेणं कारण य बिइओ, तहा वायाए कारण य तइओ, एवं ण कारवेइ एत्थंपि तिन्नि भंगा, एवमेव करतं | णाणुजाणइ एत्यपि तिन्नि भंगा, एए सब्बे णव, उक्तोऽष्टमः । इदानीं नवमः-ण करेइ मणेणं एको, ण कारवह बिइओ, करंतं णाणुजाणइ तइओ, एवं वायाए बिइयं कायेणवि होइ तइयं, एवमेते सब्वेवि मिलिया णव, नवमोऽप्युक्तः । आगतगुणनमिदानी क्रियते-लद्धफलमाणमेयं भंगा उ हवंति अउणपन्नास ।
१ लब्धं फलमानमेतत् भजास्तु भवन्ति एकोनपश्चाशत् ।
पश०२६
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [८-९] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक [८-९]
षड्जीवनिकाध्य. जीवस्वरूपं
दीप
दशकातीयाणागयसंपतिगुणियं कालेण होइ इम॥१॥सीयालं भंगसयं, कह ? कालतिएण होति गुणणा उ । तीतस्स हारि-वृत्तिः पडिकमणं पशुप्पन्नस्स संवरणं ॥२॥ पचखाणं च तहा होइ य एसस्स एस गुणणा उ । कालतिएणं भणियं
|जिणगणधरवायएहिं च ॥३॥ इति गाथार्थः ॥ उक्तश्चारित्रधर्मः, साम्प्रतं यतमाया अवसर, सथा बाह॥१५१॥
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से पुढविं वा भित्तिं वा सिलं वा लेलं वा ससरक्खं वा कार्य ससरक्खं वा वत्थं हत्थेण वा पाएण वा कटेण या किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सिलागाए वा सिलागहत्थेण वा न आलिहिज्जा न विलिहिज्जा न घहिजा न भिंदिजा अन्नं न आलिहाविजा न विलिहाविजा न घट्टाविज्जा न भिंदाविज्जा अन्नं आलिहंतं वा विलिहंतं वा घहतं वा भिंदंतं वा न सम
णुजाणेजा जावजीचाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कापणं न करेमि न कार१ अतीतानागतसंप्रतिकालेन गुणितं भवतीयम् ॥१॥ सप्तचत्वारिंशं भाशतं, कर्ष! कालत्रयेण भवति गुणनात्तु । अतीतस प्रतिक्रमणं प्रत्युत्पन्नस्त्र (संवरणम् ॥ २॥ प्रत्याख्यानं च तथा भवति च एष्यात एषा (एतस्मात् ) गुणना तु । कालत्रिकेण भणिता जिनगणधरखापर्कः ॥३॥
अनुक्रम [३९-४०]
ARRASSOSSES
AMOXICROS
8
॥१५॥
JanEcitatil
अथ “यतना" धर्म प्रकाश्यते
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१०] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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प्रत सुत्रांक [१०]
दीप अनुक्रम [४१]
वेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि
अप्पाणं वोसिरामि १॥ (सू०१०) 'से' इति निर्देशे स योऽसौ महाव्रतयुक्तो, भिक्षुर्वा भिक्षुकी वा-आरम्भपरित्यागाद्धर्मकायपालनाय, भिक्षणशीलो भिक्षुः, एवं भिक्षुक्यपि, पुरुषोसमो धर्म इति भिक्षुर्विशेष्यते, तद्विशेषणानि च भिक्षुक्या अपि द्रष्टव्यानीति, आह–संयतविरतप्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा' तत्र सामस्त्येन यतः संयतः-सप्तदश-18 प्रकारसंयमोपेतः, विविधम्-अनेकधा द्वादशविधे तपसि रतो विरतः, प्रतिहतमल्याख्यातपापकर्मेति-प्रतिहतंस्थितिहासतो ग्रन्धिभेदेन प्रत्याख्यातं-हेत्वभावतः पुनर्वृद्ध्यभावेन पापं कर्म-ज्ञानावरणीयादि येन स तथा-17 द विधः, "दिवा वा रात्री घा एको वा परिषद्तो वा सुप्तो वा जाग्रदा' रात्रौ सुप्तो दिवा जाग्रत्, कारणिक
एका, शेषकालं परिषद्गतः, इदं च वक्ष्यमाणं न कुर्यात् । 'से पुढविं या' इत्यादि, तद्यथा-पृथिवीं या भित्ति या शिलां वा लोष्टं वा, तत्र पृथिवी-लोष्टादिरहिता भित्तिः-नदीसटी शिला-विशाल: पाषाणः लोष्टः-प्र|सिद्धः, तथा सह रजसा-आरण्यपांशुलक्षणेन वर्तत इति सरजस्कस्तं सरजस्कं वा 'कायम्' कायमिति देहं |
तथा सरजस्कं वा वस्त्रं-चोलपट्टकादि 'एकग्रहणे सज्जातीयग्रहण मिति पात्रादिपरिग्रहः, एतत् किमित्याह६ हस्तेन वा पादेन वा काष्ठेन वा कलिओन वा-शुद्रकाष्ठरूपेण अङ्गुल्या वा शलाकया वा-अयाशलाकादिरू
SANCHAR ACT
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१०] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सुत्रांक [१०]
परजीवनिकाध्य जीवस्वरूपं
दीप अनुक्रम [४१]
दशकापया शलाकाहस्तेन वा-शलाकासंघातरूपेण 'णालिहिजत्ति नालिखेत् न विलिखेत् न घयेत् न भिन्द्यात्, हारि-वृत्तिः तत्र ईषत्सकृद्धाऽऽलेखनं, नितरामनेकशो वा विलेखन, घहनं चालनं, भेदो विदारणम्, एतत् वयं न कुर्यात्,
तथा अन्यमन्येन वा नालेखयेत् न विलेखयेत् न घट्येत् न भेदयेत्, तथाऽन्यं खत एव आलिखन्तं वा ॥१५२॥ विलिखन्तं वा घड्यन्तं वा भिन्दन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से उदगं वा ओसं वा हिमं वा महियं वा करगं वा हरतणुगं वा सुद्धोदगं वा उदउल्लं वा कार्य उदउल्लं वा वत्थं ससिणिद्धं वा कार्य ससिणिद्धं वा वत्थं न आमुसिज्जा न संफुसिजा न आवीलिज्जा न पवीलिज्जा न अक्खोडिज्जा न पक्खोडिज्जा न आयाविज्जा न पयाविजा अन्नं न आमुसाविजा न संफुसाविजा न आवीलाविजा न पवीलाविजा न अक्खोडाविज्जा न पक्खोडाविजा न आयाविजा न पयाविज्जा अन्नं आमुसंतं वा संफुसतं वा आवीलंतं वा पविलंतं वा अक्खोडतं वा पक्खोडतं वा आयावंतं वा पयावंतं वा न सम
RHI १५२॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[११]
दीप
अनुक्रम
[४२]
+ वृत्ति:)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + :+ भाष्य + अध्ययनं [४], उद्देशक [– ], मूलं [११] / गाथा ||१५...|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
Ja Education in
जाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए काएणं न करेमि न कारवेमि करंतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिक्कमामि निंदामि गरिहामि
अप्पार्ण वोसिरामि ॥ ( सू० ११ )
तथा 'से भिक्खू वा इत्यादि यावज्जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव । 'से उदगं वेत्यादि, तद्यथा-उदकं वा अवश्यायं वा हिमं वा महिकां वा करकं वा हरतनुं वा शुद्धोदकं वा, तत्रोदकं-शिरापानीयम् अवश्यायःहः हिमं-स्त्यानोदकम् महिका - घूमिका करक:- कठिनोदकरूपः हरतनुः- भुवमुद्भिय तृणाग्रादिषु भवति, शुद्धोदकम्-अन्तरिक्षोदकं, तथा उदका वा कार्य उदकार्ड वा वस्त्रं, उदकार्द्रता चेह गलहिन्दुतुषाराद्यनन्तरोदितोदक भेदसंमिश्रता तथा सस्निग्धं वा कार्य सलिग्धं वा वस्त्रम्, अत्र स्नेहनं निग्धमिति भावे निष्ठाप्रत्ययः, सह निग्धेन वर्तत इति सनिग्धः, सस्निग्धता मेह विन्दुरहितानन्तरोदितोदक भेदसंमिश्रता, एतत् किमित्याह-'णामुसेज' ति नामुषेन्न संस्पृशेत् नापीडयेन्न प्रपीडयेत् नास्फोटयेत् न प्रस्फोटयेत् नातापयेत् न प्रतापयेत्, तत्र सकृदीषद्वा स्पर्शनमामर्षणम् अतोऽन्यत्संस्पर्शनम्, एवं सकृदीषद्वा पीडनमापीडनमतोऽन्यत्प्रपीडनम्, एवं सकृदीषद्वा स्फोटनमास्फोटनमतोऽन्यत्प्रस्फोटनम्, एवं सकृदीपद्वा तापनमातापनं विप रीतं प्रतापनम् एतत्स्वयं न कुर्यात्तथाऽम्यमन्येन वा नामर्षयेन संस्पर्शयेत् नापीडयेत् न प्रपीडयेत् नास्फो
For te&Personal Use Cily
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [११] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
दशवैका हारि-वृत्तिः ॥१५॥
पूर्ववत् ॥
सत्राक
दीप अनुक्रम [४२]
येत् न प्रस्फोटयेत् नातापयेत् न प्रतापयेत्, तथाऽन्य खत एव आमृषन्तं वा संस्पृशन्तं वा आपीडयन्सार षड्जीववा प्रपीडयन्तं वा आस्फोटयन्तं वा प्रस्फोटयन्तं या आतापयन्तं वा प्रतापयन्तं वा न समनुजानीयादित्वादिनिकाध्य
जीवस्वरूपं से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से अगणिं वा इंगालं वा मुम्मुरं वा अञ्चिं वा जालं वा अलायं वा सुद्धागणिं वा उक्कं वा न उजेज्जा न घवेजा न उजालेज्जा न निव्वावेजा अन्नं न उंजावेजा न घडावेजा न उजालावेज्जा न निव्वावेजा अन्नं उजंतं वा घट्टतं वा उजालंतं वा निव्वावंतं वा न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिकमामि निंदामि गरिहामि अप्पाणं
वोसिरामि ॥ (सू० १२) 'से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, से अगणि वेखादि, तद्यथा-अग्निं धा अङ्गार
१५३॥
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१२] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[१२]
दीप अनुक्रम [४३]
वा मुमुरं वार्चिा ज्याला वा अलातं वा शुद्धाग्निं वा उल्कां वा, इह अयस्पिण्डानुमतोऽग्निः, ज्वालार-13 हितोऽङ्गारः, विरलाग्निकणं भस्म मुर्मुरः, मूलाग्निविच्छिन्ना ज्वाला अर्चि, प्रतिबद्धवा ज्वाला, अलातमुल्मुकं, निरिन्धन:-शुद्धोऽग्निः उल्का-गगनाग्नि, एतत् किमित्याह-'न उंजेवा' नोत्सिचेत् 'न घटेजा न घयेत् न उज्यालयेतन निर्यापयेत्, तत्रोञ्जनमुत्सेचनं, घट्टनं-सजातीयादिना चालनम. उज्ज्चालन-व्यजनादिभिवजयापादन, निर्वापणं-विध्यापनम्, एतत्खयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमन्येन वा नोत्सेचयेन्न घट्येन्नोज्ज्वालयेन्न निर्वापयेत्, तथाऽन्य खत एव उत्सिञ्चयन्तं वा घट्टयन्तं वा उज्ज्वालयन्तं वा निर्वापयन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववत् ॥
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपञ्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से सिएण वा विहुणेण वा तालिअंटेण वा पत्तेण वा पत्तभंगेण वा साहाए वा साहाभंगेण वा पिहुणेण वा पिहुणहत्येण वा चेलेण वा चेलकपणेण वा हत्यण वा मुहेण वा अप्पणो वा कार्य बाहिरं वावि पुग्गलं न फुमेजा न बीएज्जा अन्नं न कुमावेजा न वीआवेज्जा अन्नं फुमंत वा वी१ न टीकाकूला व्याख्यातं परं दीपिकानां व्याख्यानात स्थितिः, अन्यथाऽपिकाये निदेना जाने क्या कोपोऽभविष्यदस्य.
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(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१३] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[१३]
दीप अनुक्रम
दशवैका.
अंतं वा न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न ४ पडूजीवहारि-वृत्तिः करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते! पडिकमामि निं
निकाध्य
जीवस्वरूपं ॥१५४॥
दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि ॥ (सू०१३) 'से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, ‘से सिएण वेत्यादि, तद्यथा-सितेन वा विधवनेन वा तालवृन्तेन वा पत्रेण वा शाखया वा शाखाभङ्गेन वा पेहुणेन वा पेहुणहस्तेन वा चेलेन वा चेलकर्णेन वा हस्तेन वा मुखेन वा, इह सितं-चामरं विधवन-व्यजनं तालवृन्तं-तदेव मध्यग्रहणच्छिद्रं द्विपुटं। पत्र-पद्मिनीपत्रादि शाखा-वृक्षडालं शाखाभङ्गं-तदेकदेशः पेहुण-मयूरादिपिच्छ पेहुणहस्त:-तत्समूहः चेलं-वस्त्रं चेलकर्णः-तदेकदेशः हस्तमुखे-प्रतीते, एभिः किमित्याह-आत्मनो वा कार्य-खदेहमित्यर्थः, बाह्य
वा पुद्गलम्-उष्णौदनादि, एतत् किमित्याह-'न फुमेला' इत्यादि, न फूत्कुर्यात् न व्यजेत्, तत्र फूत्कपारणं मुखेन धमनं व्यजनं चमरादिना वायुकरणम्, एतत्खयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमन्येन वा न फूत्कारयेन्न व्याजयेत्, तथाऽन्यं स्वत एव फूत्कुर्वन्तं व्यजन्तं वा न समनुजानीयादित्यादि पूर्ववदेव ॥
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से बीएसु वा बीयपइट्टेसु वा
[४४]
॥१५४॥
+
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१४] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[१४]
दीप अनुक्रम [४५]
रूढेसु वा रूढपइटेसु वा जाएसु वा जायपइटेसु वा हरिएसु वा हरियपइट्रेसु वा छिन्नेसु वा छिन्नपइहेसु वा सचित्तेसु वा सचित्तकोलपडिनिस्सिपसु वा न गच्छेज्जा न चिट्रेजा न निसीइजा न तुअद्वेज्जा अन्नं न गच्छावेजा न चिट्ठावेजा न निसीयावेजा न तुअट्टाविजा अन्नं गच्छंतं वा चिटुंतं वा निसीयंतं वा तुयदृतं वा न समणुजाणेजा जावज्जीवाए तिविहं तिविहेणं, मणेणं वायाए कारणं न करेमि न कारवेमि करतंपि अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भंते ! पडिकमामि निंदामि गरिहामि
अप्पाणं वोसिरामि ॥ (सू०१४) 'से भिक्खू वा इत्यादि जाव जागरमाणे वत्ति पूर्ववदेव, 'से बीएसु वेत्यादि, तद्यथा-बीजेषु वा बीजप्रतिष्ठितेषु वा रूढेषु वा रूढप्रतिष्ठितेषु वा जातेषु वा जातप्रतिष्ठितेषु वा हरितेषु वा हरितप्रतिष्ठितेषु वा छिनेषु वा छिन्नप्रतिष्ठितेषु वा सचित्तेषु वा सचित्तकोलप्रतिनिश्रितेषु वा, इह बीज-शाल्यादि तत्पतिष्ठितम्आहारशयनादि गृह्यते, एवं सर्वत्र वेदितव्यं, रूढानि-स्फुटितवीजानि जातानि-स्तम्बीभूतानि हरितानिदूर्वादीनि छिन्नानि-परश्वादिभिषक्षात् पृथक स्थापितान्याणि अपरिणतानि तदङ्गानि गृह्यन्ते सचित्तानि
Jiancubani
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१४] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[१४]
दीप अनुक्रम [४५]
दशवैका अण्डकादीनि कोलो-घुणस्तत्प्रतिनिश्रितानि-जदुपरिवर्तीनि दादीनि गृह्यन्ते, एतेषु किमित्याह-मग-४ षड्जीवहारि-वृत्तिःच्छेज्जा' न गच्छेत् न तिष्ठेत् न निषीदेत् न त्वग्धतेत, तत्र गमनम्-अन्यतोऽन्यत्र स्थानम् एकत्रैव निषीदनम्-निकाध्य..
उपवेशनं त्वरवर्तनं-खपनम् , एतत्वयं न कुर्यात्, तथाऽन्यमेतेषु न गमयेत् न स्थापयेत् न निषीदयेत् न खा- जीवस्वरूपं ॥१५५॥ ६पयेत्, तथाऽन्यं खत एव गच्छन्तं वा तिष्ठन्तं या निषीदन्तं वा वपन्तं चा न समनुजानीयादिस्यादि पूर्ववत् ॥3
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा संजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे दिआ वा राओ वा एगओ वा परिसागओ वा सुत्ते वा जागरमाणे वा से कीडं वा पयंगं वा कुंथु वा पिपीलियं वा हत्थंसि वा पायंसि वा बाहुंसि वा ऊरुसि वा उदरंसि वा सीसंसि वा वत्थंसि वा पडिग्गेहंसि वा कंबलंसि वा पोयपुंछणसि वा रयहरणंसि वा गोच्छगंसि वा उंडगंसि वा दंडगंसि वा पीढगंसि वा फलगंसि वा सेजसि वा संथारगंसि वा अन्नयरंसि वा तहप्पगारे उवगरणजाए तओ संजयामेव पडिलेहिअ पडिलेहिअ पमजिअ पमजिअ एगंतमवणेजा नो णं संघायमावजेजा ॥ (सू०१५) ৭ নননি প্রাযযালানি খ্রীস্কাযা বীথিন্ধ্যায় মু আব্দমারানি,
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक -1, मूलं [१५] / गाथा ||१५...|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सत्राक
[१५]
दीप अनुक्रम [४६]
'से भिक्खू वा इत्यादि यावजागरमाणे वत्ति पूर्ववत्, से कीडं बा' इत्यादि, तद्यथा-कीटं वा पसङ्गं वा कुन्युं वा पिपीलिकां था, किमित्याह-हस्ते या पादे वा बाहो वा अरुणि या उदरे वा वस्त्रे वा रजोहरणे वा गुच्छ वा उन्दके वा दण्डके वा पीठे वा फलके या शय्यायां वा संस्तारके वा अन्यतरस्मिन् वा तथा-14 प्रकारे साधुक्रियोपयोगिनि उपकरणजाते कीटादिरूपं त्रसं कथञ्चिदापतितं सन्तं संयत एव सन प्रयनेन वा
प्रत्युपेक्ष्य प्रत्युपेक्ष्य-पौनापुन्येन सम्यक प्रमृज्य प्रमृज्य-पौनापुन्येनैव सम्पक, किमित्याह-एकान्ते' तस्यादनुपघातफे स्थाने 'अपनयेत्' परित्यजेत् , 'नैनं असं संघातमापादयेत् नैनं त्रसं संघात-परस्परगात्रसंस्पर्शपीडा
रूपमापादयेत्-पापयेत्, अनेन परितापनादिप्रतिषेध उक्तो वेदितव्या, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणादू' अन्यकारणानुमतिप्रतिषेधश्च, शेषमत्र प्रकटार्थमेव, नवरमुन्दकं-स्थण्डिलं, शय्या-संस्तारिका वसतिर्वा । इत्युक्ता |यतना, गतश्चतुर्थोऽर्थाधिकारः॥
अजयं चरमाणो अ (उ), पाणभूयाइं हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥१॥ अजयं चिट्ठमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥२॥ अजयं आसमाणो अ, पाणभूयाइ हिंसइ । बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥३॥ अजयं सयमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई पावयं
25%
"अयतना"या: फलस्य वर्णनं तथा यतनया प्रवर्तने उपदेश:
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-९|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
दशवैका. हारि-वृत्तिः ॥१५६॥
सूत्रांक ||१-९||
दीप अनुक्रम [४७-५५]
545-5-4-3454545438
कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥ ४॥ अजयं भुंजमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । बंधई
षड्जीवपावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥ ५॥ अजयं भासमाणो अ, पाणभूयाई हिंसइ । दनिकाध्य. बंधई पावयं कम्म, तं से होइ कडुअंफलं ॥ ६॥ कहं चरे कहं चिट्टे, कहमासे कह
जीवस्वरूपं सए । कहं भुजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ ? ॥ ७॥ जयं चरे जयं चिट्ठे, जयमासे जयं सए । जयं भुंजंतो भासंतो, पावं कम्मं न बंधइ॥८॥ सव्वभूयप्पभू
अस्स, सम्मं भूयाई पासओ। पिहिआसवस्स दंतस्स, पावं कम्मं न बंधइ ॥९॥ साम्प्रतमुपदेशाख्यः पञ्चम उच्यते-'अजय'मित्यादि, 'अयतं चरन्' अयतम् अनुपदेशेनासूत्राज्ञया इति, क्रियाविशेषणमेतत्, चरन्-गच्छन्, तुरेवकारार्थः, अयतमेव चरन्, ईर्यासमितिमुल्लङ्घ्य, न खन्यथा, किमित्याह-प्राणिभूतानि हिनस्ति' प्राणिनो-दीन्द्रियादयः भूतानि-एकेन्द्रियास्तानि हिनस्ति-प्रमादाना-IK भोगाभ्यां व्यापादयतीति भावः, तानि च हिंसन् 'बध्नाति पापं कर्म' अकुशलपरिणामादादत्ते क्लिष्टं ज्ञानावरणीयादि, 'तत् से भवति कटुकफलं' तत्-पापं कर्म से-तस्यायतचारिणो भवति, कटुकफलमित्यनुखारोडलाक्षणिक: अशुभफलं भवति, मोहादिहेतुतया विपाकदारुणमित्यर्थः ॥१॥ एवमयतं तिष्ठन् ऊर्ध्वस्थाने
॥ १५६॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||१-९||
दीप
अनुक्रम [४७-५५]
:+भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ अध्ययनं [४], उद्देशक [ - ], मूलं [१५...] / गाथा ||१९|| निर्युक्तिः [२३२...], भाष्यं [६०...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दश० २७
Ja Education
नासमाहितो हस्तपादादि विक्षिपन् शेषं पूर्ववत् ॥ २ ॥ एवमयतमासीनो- निषण्णतया अनुपयुक्त आकुञ्चनादिभावेन, शेषं पूर्ववत् ॥ ३ ॥ एवमयतं खपन्-असमाहितो दिवा प्रकामशय्यादिना (वा), शेषं पूर्ववत् ||४|| एवमयतं भुञ्जानो - निष्प्रयोजनं प्रणीतं काकशृगालभक्षितादिना (बा), शेषं पूर्ववत् ||५|| एवमयतं भाषमाणोगृहस्थभाषया निष्ठुरमन्तरभाषादिना (चा), शेषं पूर्ववत् ॥६॥ अत्राह-यद्येवं पापकर्मबन्धस्ततः 'कहं चरे' इत्यादि, 'कथं केन प्रकारेण चरेत् कथं तिष्ठेत् कथमासीत, कथं खपेत्, कथं भुञ्जानो भाषमाणः पापं कर्म न बना तीति ? ॥ ७ ॥ आचार्य आह- 'जयं चरे' इत्यादि, यतं चरेत् सूत्रोपदेशेनेर्यासमितः, यतं तिष्ठेत् समाहितो हस्तपादाद्यविक्षेपेण, यतमासीत उपयुक्त आकुञ्चनाद्यकरणेन, यतं खपेत् समाहितो रात्रौ प्रकामशय्यादिपरिहारेण, यतं भुञ्जानः- सप्रयोजनमप्रणीतं प्रतरसिंह भक्षितादिना एवं यतं भाषमाणः - साधुभाषया मृदु कालप्राप्तं च 'पापं कर्म' क्लिष्टमकुशलानुबन्धि ज्ञानावरणीयादि 'न बनाति' नादत्ते, निराश्रवत्वात् विहितानुष्ठानपरत्वादिति ॥ ८ ॥ किंच- 'सव्वभूय' इत्यादि, सर्वभूतेष्वात्मभूतः सर्वभूतात्मभूतो, य आत्मवत् सर्वभूतानि पश्यतीत्यर्थः, तस्यैवं सम्यग वीतरागोक्तेन विधिना भूतानि पृथिव्यादीनि पश्यतः सतः 'पिहि ताश्रवस्य' स्थगितप्राणातिपाताद्याश्रवस्य 'दान्तस्य' इन्द्रियनोइन्द्रियदमेन 'पापं कर्म न बध्यते' तस्य पापकर्म
[१] प्रतिक्रमणं कृत्वा खाध्यायः ततः शयनं वि. प.
For ane & Personal Use City
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१०-१३|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||१०-१३||
दशवैकाबन्धो न भवतीत्यर्थः ॥९॥ एवं सति सर्वभूतदयावतः पापकर्मबन्धो न भवतीति, ततश्च सर्वात्मना दयायामेवी षड्जीवहारि-वृत्तिः यतितव्यम् , अलं ज्ञानाभ्यासेनापि (नेति) मा भूदव्युत्पन्नविनेयमतिविभ्रम इति तदपोहायाह
निकाध्य
४ जीवस्वरूपं ॥१५७॥ पढमं नाणं तउ दया, एवं चिटुइ सवसंजए । अन्नाणी किं काही, किंवा नाही छ
अपावगं? ॥१०॥ सोचा जाणइ कल्लाणं, सोच्चा जाणइ पावगं । उभयपि जाणए सोच्चा, जं छेयं तं समायरे ॥ ११ ॥ जो जीवेवि न याणेइ, अजीवेवि न याणेइ । जीवाजीवे अयाणंतो, कह सो नाहीइ संजमं? ॥ १२॥ जो जीवेवि वियाणेइ, अजी
वेवि वियाणेइ । जीवाजीवे वियाणतो, सो हु नाहीइ संजमं ॥ १३ ॥ 'पढम णाण'मित्यादि, प्रथमम्-आदौ ज्ञानं-जीवस्वरूपसंरक्षणोपायफलविषयं ततः तथाविधज्ञानसमनन्तरं दया' संयमस्तदेकान्तोपादेयतया भावतस्तत्प्रवृत्तेः, 'एवम्' अनेन प्रकारेण ज्ञानपूर्वकक्रियाप्रतिपत्तिरूआपण 'तिष्ठति' आस्ते 'सर्वसंपतः' सर्व प्रवजितः, य: पुन: 'अज्ञानी' साध्योपायफलपरिज्ञानचिकल: स किं करिष्यति ?, सर्वत्रान्धतुल्यत्वात्प्रवृत्तिनिवृत्तिनिमित्ताभावात्, किं वा कुर्वन् ज्ञास्यति 'छेक' निपुणं हितं ॥१५७॥ कालोचितं 'पापकं या' अतो विपरीतमिति, ततश्च तत्करणं भावतोऽकरणमेव, समग्रनिमित्ताभावात्,
दीप अनुक्रम [५६-५९]
F
inabraryang
ज्ञानस्य महत्ता प्रतिपाद्यते
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||१०-१३|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
॥१०
-१३||
अन्धप्रदीप्सपलायनघुणाक्षरकरणवत्, अत एवान्यत्राप्युक्तम्-"गीअत्यो अ विहारो बीओ गीअत्थमी-1 सिओ भणिओ" इत्यादि, अतो ज्ञानाभ्यासः कार्यः॥१०॥ तथा चाह-'सोचा' इत्यादि, 'श्रुत्वा' आकये ससाधनखरूपविपाक 'जानाति' बुद्ध्यते 'कल्याणं कल्यो-मोक्षस्तमणति-प्रापयतीति कल्याण-दयाख्यं संयमस्वरूपं, तथा श्रुत्वा जानाति पापकम्-असंयमस्वरूपम्, 'उभयमपि संयमासंयमस्वरूपं श्रावकोपयोगि जानाति श्रुवा, नाश्रुत्वा, यतश्चैवमत इत्थं विज्ञाय यत् छेक-निपुणं हितं कालोचितं तत्समाचरेत्कुर्यादित्यर्थः। ॥११॥ उक्तमेवार्थ स्पष्टयन्नाह-'जो जीवेऽवि'इत्यादि, यो 'जीवानपि' पृथिवीकायिकादिभेदभिन्नान् न जा
नाति 'अजीवानपि' संयमोपघातिनो मद्यहिरण्यादीन्न जानाति, जीवाजीवानजानन्कथमसी ज्ञास्यति 'सं४ यमं?' तद्विषयं, तद्विषयाज्ञानादिति भावः ॥ १२ ॥ ततश्च यो जीवानपि जानात्यजीवानपि जानाति जीवा-15 जीवान विजानन् स एव ज्ञास्यति संयममिति । प्रतिपादितः पश्चम उपदेशार्थाधिकारः ॥१३॥
जया जीवमजीवे अ, दोऽवि एए वियाणइ । तया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ ॥ १४ ॥ जया गई बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ । तया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ ॥ १५॥ जया पुण्णं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाणइ । तया नि१ गीताश्च बिहारो द्वितीयो गीतार्थ मिश्रितो भणितः.
दीप अनुक्रम [५६-५९]
धर्मफ़ल्स्य
अधिकार: वर्णयते
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||१४-२५|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
दशवैका
४ षड्जीवनिकाध्य जीवस्वरूप
प्रत
हारि-वृत्ति
॥ १५८॥
सूत्रांक ||१४
-२५||
दिए भोए, जे दिव्वे जे अ माणुसे ॥ १६ ॥ जया निविदए भोगे, जे दिब्वे जे अ माणुसे । तया चयइ संजोगं, सभितरबाहिरं ॥ १७॥ जया चयइ संजोगं, सभितरबाहिरं । तया मुंडे भवित्ता णं, पव्वइए अणगारिअं ॥ १८॥ जया मुंडे भवित्ता णं, पब्वइए अणगारिअं । तया संवरमुक्टुिं, धम्म फासे अणुत्तरं ॥ १९ ॥ जया संवरमुक्टुिं, धम्म फासे अणुत्तरं । तया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसंकडं ॥ २० ॥ जया धुणइ कम्मरयं, अबोहिकलुसंकडं । तया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ ॥ २१ ॥ जया सव्वत्तगं नाणं, दंसणं चाभिगच्छइ । तया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली ॥ २२ ॥ जया लोगमलोगं च, जिणो जाणइ केवली। तया जोगे निलंभित्ता, सेलेसिं पडिवजइ ॥ २३ ॥ जया जोगे निलंभित्ता, सेलेसि पडिवजइ। तया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ ॥२४॥ जया कम्मं खवित्ता णं, सिद्धिं गच्छइ नीरओ । तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवइ सासओ ॥२५॥
दीप
अनुक्रम [६०-७१]
॥१५८॥
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१४-२५|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||१४
454555555
-२५||
। साम्प्रतं पष्ठेऽधिकारे धर्मफलमाह-'जया' इत्यादि, 'यदा' यस्मिन् काले जीवानजीवांश्च द्वावप्येती विजानाति-विविधं जानाति 'तदा' तस्मिन् काले 'गति' नरकगत्यादिरूपां 'बहुविधां खपरगतभेदेनानेकप्रकारां
सर्वजीवानां जानाति, यथाऽवस्थितजीवाजीवपरिज्ञानमन्तरेण गतिपरिज्ञानाभावात् ॥ १४ ॥ उत्तरोत्तरां लफलवृद्धिमाह-'जया' इत्यादि, यदा गतिं बहुविधां सर्वजीवानां जानाति तदा पुण्यं च पापं च-बहुविधगतिनिवन्धनं [च तथा 'वन्ध जीवकर्मयोगदुःखलक्षणं 'मोक्षं च तद्वियोगसुखलक्षणं जानाति ॥ १५॥ 'जया इत्यादि, यदा पुण्यं च पापं च बन्धं मोक्षं च जानाति तदा निर्विन्ते-मोहाभावात् सम्यग्विचारयत्यसारदु:खरूपतया "भोगान्' शब्दादीन् यान दिव्यान् यांश्च मानुषान, शेषास्तु वस्तुतो भोगा एव न भवन्ति ॥१६॥ 'जया' इत्यादि, यदा निर्विन्ते भोगान् यान् दिव्यान् यांश्च मानुषान् तदा त्यजति 'संयोग' संबन्ध द्रव्यतो भावतः 'साभ्यन्तरवाह्य क्रोधादिहिरण्यादिसंबन्धमित्यर्थः ॥ १७॥ 'जया' इत्यादि, यदा त्यजति संयोग साभ्यन्तरवायं तदा मुण्डो भूत्वा द्रब्यतो भावतश्च 'प्रव्रजति' प्रकर्षेण व्रजस्यपवर्ग प्रत्यनगार, द्रव्यतो भाव-18 तश्चाविद्यमानागारमिति भावः ॥१८॥ 'जया' इत्यादि, यदा मुण्डो भूत्वा प्रवजयनगारं तदा 'संवरमुक्कि ति| प्राकृतशैल्या उत्कृष्टसंवरं धर्म-सर्वप्राणातिपातादिविनिवृत्तिरूपं, चारित्रधर्ममित्यर्थः, स्पृशत्यनुत्तर-सम्यगासेवत इत्यर्थः ॥ १९ ॥ 'जया' इत्यादि, यदोत्कृष्टसंवरं धर्म स्पृशत्यनुत्तरं तदा धुनोति-अनेकार्थत्वात्पात-ट्रि यति 'कर्मरजा' कमैव आत्मरक्षनाद्रज इव रजः, किंविशिष्टमित्याह-अयोधिकलुषकृतम्' अयोधिकलुषेण
दीप
अनुक्रम [६०-७१]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१४-२५|| नियुक्ति : [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
||१४
-२५||
दशवैका मिथ्यादृष्टिनोपात्तमित्यर्थः ॥ २०॥ 'जया' इत्यादि, यदा धुनोति कर्मरजः अबोधिकलुषकृतं तदा 'सर्वत्रगं षड्जीवहारि-वृत्तिः । ज्ञानम्' अशेषज्ञेयविषयं 'दर्शनं च' अशेषदृश्यविषयम् 'अधिगच्छति' आवरणाभावादाधिक्येन प्राप्नोती-निकाध्यक
त्यर्थः ॥ २१ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा सर्वत्रगं ज्ञानं दर्शनं चाधिगच्छति तदा 'लोक' चतुर्दशरजवात्मकम् 'अ- जीवस्वरूपं ॥१५९॥
लोकं च' अनन्तं जिनो जानाति केवली, लोकालोकौ च सर्व नान्यतरमेवेत्यर्थः ॥ २२ ॥ जया' इत्यादि, यदा लोकमलोकं च जिनो जानाति केवली तदोचितसमयेन योगाग्निरुद्धय मनोयोगादीन् शैलेशी प्रतिपद्यते, भवोपग्राहिकर्मीशक्षयाय ॥ २३ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा योगाग्निरुद्ध्य शैलेशी प्रतिपद्यते तदा कर्म क्षपयिस्खा भवोपग्राह्यपि 'सिद्धिं गच्छति' लोकान्तक्षेत्ररूपां 'नीरजाः' सकलकर्मरजोविनिर्मुक्तः ॥ २४ ॥ 'जया' इत्यादि, यदा कर्म क्षपयित्वा सिद्धिं गच्छति नीरजाः तदा 'लोकमस्तकस्थः' त्रैलोक्योपरिवर्ती सिद्धो भवति 'शाश्वतः' कर्मवीजाभावादनुत्पत्तिधर्मेति भावः । उक्तो धर्मफलाख्यः षष्ठोऽधिकारः ॥ २५ ॥
सुहसायगस्स समणस्स, सायाउलगस्स निगामसाइस्स । उच्छोलणापहोअस्स, दुलहा सुगई तारिसगस्स ॥ २६ ॥ तवोगुणपहाणस्स उज्जुमइ खंतिसंजमरयस्स। परीसहे जिणंतस्स सुलहा सुगई तारिसगस्स ॥ २७ ॥ पेच्छावि ते पयाया, खिप्पं
॥१५९॥ १ नैषा गाथा विद्वता पूज्यैः हरिभद्राचार्यैर्णिकद्भिश्च.
दीप अनुक्रम [६०-७१]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||२६-२८|| नियुक्ति: [२३२...], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक ||२६-२८||
गच्छंति अमरभवणाई। जेसि पिओ तवो संजमो अखंती अ बंभचेरं च ॥१॥ (प्र.) प्रक्षेप-गाथा इच्चेअं छज्जीवणिअं सम्मट्टिी सया जए । दुल्लहं लहित्तु सामपणं, कम्मुणा न विराहिजासि ॥ २८ ॥ तिबेमि ॥ चउत्थं छज्जीवणिआणामज्झयणं समत्तं ॥ ४ ॥ साम्प्रतमिदं धर्मफलं यस्य दुर्लभं तमभिधित्सुराह-सुहे'ति, सुखास्वादकस्य-अभिष्वङ्गेण प्राप्तसुखभोक्तुः 'श्रमणस्य' द्रव्यप्रवजितस्य 'साताकुलस्य भाविसुखार्थे व्याक्षिप्तस्य 'निकामशायिनः सूत्रार्थवेलामप्युल्लध्य शयानस्य 'उत्सोलनाप्रधाविन' उत्सोलनया-उदकायतनया प्रकर्षेण धावति-पादादिशुद्धिं करोति यस तथा तस्य, किमित्याह-'दुर्लभा' दुष्पापा 'सुगतिः सिद्धिपर्यवसाना 'तादृशस्य भगवदाज्ञालोपका|रिण इति गाथार्थः ॥ २६॥ इदानीमिदं धर्मफलं यस्य सुलभं तमाह-तवोगुणे'त्यादि, 'तपोगुणप्रधानस्य षष्ठाष्टमादितपोधनवतः 'ऋजुमतेः' मार्गप्रवृत्तबुद्धेः 'क्षान्तिसंयमरतस्य' क्षान्तिप्रधानसंयमासेविन इत्यर्थः, 'परीषहान् क्षुत्पिपासादीन 'जयतः' अभिभवतः सुलभा 'सुगतिः' उक्तलक्षणा तादृशस्य' भगवदाज्ञाकारिण का इति गाथार्थः ॥ २७ ॥ महार्था षड्जीवनिकायिकेति विधिनोपसंहरनाह-'इचेय'मित्यादि, 'इत्येतां षड्जीवनिकायिकाम्' अधिकृताध्ययनप्रतिपादितार्थरूपां, न विराधयेदितियोगः, 'सम्यग्दृष्टिः' जीवस्तत्त्वश्रद्धावान 'सदा यतः' सर्वकालं प्रयत्नपरः सन्, किमित्याह-'दुर्लभं लब्ध्वा श्रामण्यं दुष्पापं प्राप्य अमणभावं-षड्
दीप
अनुक्रम [७२-७५]
~330~
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [४], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२६-२८|| नियुक्ति: [२३३], भाष्यं [६०...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
॥१६॥
॥२६
दशबैका
जीवनिकायसंरक्षणकरूपं 'कर्मणा' मनोवाकायक्रियया प्रमादेन 'न विराधयेत्'न खण्डयेत, अप्रमत्तस्य तापजीवहारि-वृत्तिः द्रव्यविराधना यद्यपि कथञ्चिद् भवति तथाऽप्यसावविराधनैवेत्यर्थः । एतेन 'जले जीवाः स्थले जीवा, आ-||
|निकाध्य काशे जीवमालिनि । जीवमालाकुले लोके, कथं भिक्षुरहिंसकः? ॥१॥' इत्येतत्प्रत्युक्तं, तथा सूक्ष्माणां वि- जीवस्वरूप माराधनाभावाच । ब्रवीमीति पूर्ववत् । अधिकृताध्ययनपर्यायशब्दप्रतिपादनायाह नियुक्तिकार:
जीवाजीवाभिगमो आयारो चेव धम्मपन्नत्ती । तत्तो चरित्तधम्मो चरणे धम्मे अ एगट्ठा ।। २३३ ॥ KI व्याख्या-'जीवाजीवाभिगमः' सम्यग्जीवाजीवाभिगमहेतुत्वात् एवम् 'आचारश्चैव' आचारोपदेशत्वात 'धर्ममज्ञप्तिः' यथावस्थितधर्मप्रज्ञापनात् ततः 'चारित्रधर्मः' तन्निमित्तत्वात् 'चरणं' चरणविषयत्वात् 'धर्मश्च' श्रुतधर्मस्तत्सारभूतत्वात्, एकार्थिका एते शब्दा इति गाथार्थः । अन्ये त्विदं गाथासूत्रमनन्तरोदितसूत्रस्थाधो। व्याख्यानयन्ति, तत्राप्यविरुद्धमेव । उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयास्ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातं षड्जीवनिकाध्ययनम् ॥ २८॥
-२८||
दीप अनुक्रम
[७२-७५]
इति श्रीहरिभद्रसूरिकृतौ दशवकालिकटीकायां चतुर्थाध्ययनम् ॥ ४॥
॥१६
॥
अध्ययनं -४- परिसमाप्तं
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२८...|| नियुक्ति: [२३४], भाष्यं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||२८..||
दीप अनुक्रम [७५..]
अथ पञ्चमाध्ययनम् ।
Demaem. अधुना पिण्डैषणाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने 'साधोराचारः षड्जीवनिकायगोचरः प्राय' इत्येतदुक्तम् , इह तु धर्मकाये सत्यसौ वस्थे सम्यक्पाल्यते, स चाहारमन्तरेण प्रायः खस्यो न भवति, स च सावयेतरभेद इत्यनवद्यो ग्राह्य इत्येतदुच्यते, उक्तं च-"से संजए समक्खाए, निरवज्जाहारि जे बिऊ । धम्मकायट्टिए सम्मं, सुहजोगाण साहए ॥१॥” इत्यनेनाभिसंवन्धेनायातमिदमध्ययनं, भद्य-| न्तरेणैतदेवाह भाष्यकार:
मूलगुणा वक्खाया उत्तरगुणअवसरेण आयायं । पिंडल्झयणमिवाणि निक्खेवे नामनिष्फन्ने ॥ ६१ ॥ भाष्यम् ॥ ___ व्याख्या-'मूलगुणा'प्राणातिपातनिवृत्यादयः 'व्याख्याता सम्यक् प्रतिपादिता अनन्तराध्ययने, ततश्च 'उत्तरगुणावसरेण उत्तरगुणप्रस्तावेनायातमिदमध्ययनम्-इदानीं यत्प्रस्तुतम् । इह चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तथा चाह-निक्षेपे नामनिष्पन्ने, किमित्याह
पिंडो म एसणा व दुपयं नामं तु तस्स नायव्यं । चउचउनिक्खेवेहिं परुवणा तस्स कायव्वा ।। २३४॥ १स संयतः समाख्यातो निरवद्याहार यो विद्वान् । धर्मकायस्थितः सम्यक् शुभयोगाना साधकः ॥ १॥
अध्ययनं -4- "पिन्डैषणा" आरभ्यते
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२८...|| नियुक्ति : [२३५-२४४], भाष्यं [६२]
(४२)
दशवैका० हारि-वृत्तिः
५पिण्डैषणाध्य०
प्रत
॥१६१॥
सूत्रांक
||२८..||
नामंठवणापिंडो दब्बे भावे अ होइ नायब्वो । गुडओयणाइ दब्वे भावे कोहाइया चउरो ।। २३५॥ पिडि संघाए जम्हा ते उद्या संघया य संसारे । संघाययंति जीवं कम्मेणट्टप्पगारेण ॥ २३६ ॥ दव्वेसणा उ तिविहा सचित्ताचित्तमीसदव्वाणं । दुपयचउप्पयअपया नरगयकरिसावणदुमाणं ।। २३७ ॥ भावेसणा उ दुविहा पसत्य अपसत्थगा य नायब्बा । नाणाईण पसस्था अपसत्था कोहमाईणं ।। २३८ ।। भावस्सुवगारित्ता एवं दवेसणाइ अहिगारो । तीइ पुण अत्थजुत्ती वत्तव्वा पिंडनिम्जुत्ती ।। २३९ ।। पिण्डेसणा य सव्या संखेवेगोयरइ नवसु कोडीसु । न हणइ न पयइ न किणइ कारावणअणुमईहि नव ।। २४० ॥ सा नबहा दुह कीरइ उग्गमकोडी विसोहिकोडी अ । छसु पढमा ओयरइ कीयतियम्मी विसोही 3 ।। २४१ ॥ कोडीकरणं दुविहं उग्गमकोडी विसोहिकोडी अ । उग्गमकोडी छकं विसोहिकोडी अणेगविहा ।। ६२॥ भाष्यम् ।। कम्मुरेसिअचरिमतिग पूइयं मीसचरिमपाहुडिआ । अझोयर अविसोही विसोहिकोडी भवे सेसा ॥ २४२ ॥ नव चेवहारसगा सत्तावीसा तहेब चउपना । नउई दो चेव सया सत्तरिआ हुँति कोडीणं ।। २४३ ॥
रोगाई मिच्छाई रागाई समणधम्म नाणाई । नव नव सत्तावीसा नव नउईए य गुणगारा ।। २४४ ॥ व्याख्या-पिण्डश्ऋषणा च 'द्विपदं नाम तु' द्विपदमेव विशेषाभिधानं 'तस्य' उक्तसंवन्धस्याध्ययनस्य ज्ञा
१प्रतिभातीय प्रक्षिप्तप्राया, पदपटना वेषम् - रागद्वेषी नवनिर्मिथ्यात्वाज्ञानाविरतयो नवमिः रागद्वेषौ सप्तविंशस्या श्रमणधर्मवशर्क मामिः ज्ञानदर्शनधारि- आणि नवत्या च (एवं) गुणकाराः,
4%ARRORA
दीप अनुक्रम [७५..]
॥१६ ॥१११
॥
'पिण्ड तथा 'एषणा' शब्दयो: निक्षेपा:
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२८...|| नियुक्ति : [२३५-२४४], भाष्यं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
R
प्रत
सूत्रांक
||२८..||
दीप अनुक्रम [७५..]
तव्यं, चतुश्चतुर्निक्षेपाभ्यां नामादिलक्षणाभ्यां प्ररूपणा 'तस्य' पदद्वयस्य कर्तव्येति गाथार्थः ॥ अधिकृतप्ररू-1 पणामाह-नामस्थापनापिण्डो द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्या, पिण्डशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामस्थापने क्षुण्णे, द्रव्यपिण्डं वाह-गुडौदनादिः 'द्रव्य' मिति द्रव्यपिण्डा, भावे क्रोधादयश्चत्वारः पिण्डा इति गाथार्थः॥ अत्रैवान्वर्थमाह-'पिडि संघाते' धातुरिति शब्दवित्समयः, यस्मात्ते क्रोधादय उदिताः सन्तो चिपाकप्रदेशोदयाभ्यां संहता एव संसारिणं संघातयन्ति-जीचं योजयन्तीत्यर्थः, केनेत्याह-कर्मणाऽष्टप्रकारेण-ज्ञानावरणीयादिना, अतः क्रोधादयः पिण्ड इति गाथार्थः ॥ प्ररूपितः पिण्डः, साम्प्रतमेषणाऽवसरः, तत्र क्षुण्णत्वान्नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यैषणामाह-द्रव्यैषणा तु त्रिविधा भवति, सचित्ताचित्तमिश्रद्रव्याणामेषणा द्रव्यैषणा, सचित्तानां द्विपदचतुष्पदापदानां यथासंख्यं नरगजदुमाणामिति, कार्षापणग्रहणादचित्तद्रव्यैषणा अलङ्कृत-18 द्विपदादिगोचरमिश्राद्रव्यैषणा च द्रष्टव्येति गाथार्थः ॥ भावैषणामाह-भावैषणा तु पुनर्द्विविधा, प्रशस्ता अप्रशस्ता च ज्ञातव्या, एतदेवाह-'ज्ञानादीना मिति ज्ञानादीनामेषणा प्रशस्ता क्रोधादीनामप्रशस्तैषणेति गाधार्थः ॥ प्रकृतयोजनामाह-'भावस्य ज्ञानादेरुपकारित्वाद् 'अत्र' प्रक्रमे द्रव्यैषणयाधिकार', 'तस्याः पुनद्रव्यैषणायाः 'अर्धयुक्ति' हेयेतररूपा अर्थयोजना वक्तव्या पिण्डनियुक्तिरिति गाथार्थः ॥ सा च है | पिण्डनियुकेः पृथक्स्थापितत्वात् तत्र भद्रबाहुलामिनाऽर्थयुक्तिाल्यानेति नानाध्ययनाधिकारे तयाख्यानम् । अन्यथा वाऽस्ति हरिभद्रसूरिकता पिडनियुक्तिवृत्तिरिति तामाविलापि स्वादिदं वचः.
SSER
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२८...|| नियुक्ति : [२३५-२४४], भाष्यं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||२८..||
दशबैका०पृथक्स्थापनतो मया व्याख्यातैवेति नेह व्याख्यायते । अधुना प्रकृताध्ययनावतारप्रपञ्चमाह-पिण्डैषणा च५ पिण्डैहारि-वृत्तिः सर्वा उद्गमादिभेदभिन्ना संक्षेपेणावतरति नवसु कोटीषु, ताश्चमा:-न हन्ति न पचति न क्रीणाति खयं, तथा पणाध्य.
न घातयति न पाचयति न क्रापयत्यन्येन, तथा नन्तं वा पचन्तं वा क्रीणन्तं वा न समनुजानात्यन्यमिति नव।। ॥१६२॥
॥ एतदेवाह-कारणानुमतिभ्यां नवेति गाथार्थः ।। सा नवधा स्थिता पिण्डैषणा द्विविधा क्रियते-पुदमकोटी विशो|धिकोटी च, तत्र पदसु हननधातनानुमोदनपचनपाचनानुमोदनेषु प्रथमा-उद्गमकोटी अविशोधिकोट्यवतरति, क्रीतत्रितये क्रयणकापणानुमतिरूपे विशोधिस्तु-विशोधिकोटी द्वितीयेति गाधार्थः । एतदेव व्याचिख्यासुराह| भाष्यकार:-कोटीकरण मिति कोट्येव कोटीकरणं, कोटी(करण) द्विविधम्-उद्गमकोटी विशोधिकोटी। च, उद्गमकोटी षट्रं-हननादिनिष्पन्नमाधाकर्मादि, विशोधिकोटी-क्रीतत्रितयनिष्पन्ना अनेकधा ओघौद्देशिकादिभेदेनेति गाथार्थः ॥ षटकोट्याह-कर्म-संपूर्णमेव औद्देशिकचरमत्रितयं-कौदेशिकस्य पाखण्डश्रमणनि-18 ग्रन्थविषयं, पूति-भक्तपानपूत्येव मिश्रग्रहणात्पाखण्डश्रमणनिर्ग्रन्थमिश्रजातं चरमप्राभृतिका बादरेत्यर्थः, अध्यवपूरक इत्यविशोधिरित्येतत्पदं। विशोधिकोटीभवति शेषा-ओघौद्देशिकादिभेदभिन्नाऽनेकविधेति गाधार्थः।। इहैव रागादियोजनया कोटीसंख्यामाह-नव चैव कोव्यः तथाऽष्टादशक कोटीनां तथा सप्तविंशतिः कोटीनां ॥१६२ ।। तथैव चतुष्पश्चाशत्कोटीनां तथा नवतिः कोटीनां वे एव च शते सप्तत्यधिके कोटीनामिति गाथाक्षरार्थः ।।
१ संख्या समाहारे द्विगुधानाध्ययम् (सि-३-1-९९) इति द्विगुभावेनैकगानः.
ERA
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प्रत
सूत्रांक
||१-२||
दीप
अनुक्रम [७६-७७]
:+|भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१-२ || निर्युक्तिः [२४४...], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दश० २८
Ja Education
भावार्थस्तु वृद्धसंप्रदायादवसेयः स चायम् पर्व कोडीओ दोहिं रामदोसेहिं गुणियाओ अट्ठारस हवंति, ताओ चैव नव तिहिं मिच्छत्ताणाणअविरतीहिं गुणिताओ सत्तावीसं हवंति, सत्तावीसा रागदोसेहिं गुणिया चउपन्ना हवंति, ताओ चैव णत्र दसविहेण समणधम्मेण गुणिआओ विसुद्वाओ गडती भवंति, सा णउती | तिहिं नाणदंसणचरितेहिं गुणिया दो सया सत्तरा भवतीति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं तचेदम्
संपत्ते भिक्खकालंमि, असंभंतो अमुच्छिओ। इमेण कमजोगेण, भत्तपाणं गवेसए ॥ १ ॥ सेगामे वा नगरे वा, गोअरग्गगओ मुणी । चरे मंदमणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेअसा ॥ २ ॥
अस्य व्याख्या- 'संप्रासे' शोभनेन प्रकारेण स्वाध्यायकरणादिना प्राप्ते 'भिक्षाकाले' भिक्षासमये, अनेनासंप्राप्ते भक्तपानैषणाप्रतिषेधमाह, अलाभाज्ञाखण्डनाभ्यां दृष्टादृष्टविरोधादिति, 'असंभ्रान्तः' अनाकुलो
१ नव कोट्यो द्वाभ्यां रागद्वेषाभ्यां गुणिता अष्टादश भवन्ति सा एवं नव त्रिभिर्निध्यात्वाज्ञाना विरतिभिर्गुणिताः सप्तविंशतिः भवति, सप्तविंशतिः रागद्वेषाभ्यां गुणिदा चतुष्पात् भवति, ता एवं नव दशविधेन अमणधर्मेण गुणिता विशुद्धा नयतिर्भवति सा एवं नवतिः त्रिभिः ज्ञानदर्शनपरिमिता द्वे शते सप्ततित्र भवति.
पंचमे अध्ययने प्रथम उद्देशक: आरब्धः
For ane & Personal Use City
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१-२|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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R
५ पिण्डै
भाषणाध्य
प्रत सूत्रांक ||१-२||
-
दीप
*-
दशबैका यथावदुपयोगादि कृत्या, नान्यथेत्यर्थः, 'अमूछितः पिण्डे शब्दादिषु वा अगृद्धो, विहितानुष्ठानमितिकृत्वा, हारि-वृत्तिः न तु पिण्डादावेवासक्त इति, 'अनेन' वक्ष्यमाणलक्षणेन 'क्रमयोगेन' परिपाटीव्यापारेण "भक्तपानं' यति
योग्यमोदनारनालादि गवेषयेद' अन्वेषयेदिति सूत्रार्थः॥१॥ यत्र यथा गवेषयेत्सदाह-से' इत्यादि सूत्र, ।। १६३।
व्याख्या-से' इत्यसंभ्रान्तोऽमूञ्छितः ग्रामे वा नगरे वा, उपलक्षणवादस्य कर्बटादौ वा, 'गोचराग्रगत' इति टैगोरिव चरणं गोचर:-उत्तमाधममध्यमकुलेष्वरक्तद्विष्टस्य भिक्षाटनम् अग्र:-प्रधानोऽध्याहृताधाकर्मादिपरि
|त्यागेन तद्गत:-तद्वर्ती मुनि:-भावसाधुः चरेत-गच्छेत् 'मन्दं शनैः शनैर्न दुतमित्यर्थः, 'अनुद्विग्न' प्रशान्तः KI परीषहादिभ्योऽविभ्यत् 'अव्याक्षिप्तेन चेतसा' वत्सवणिग्जायादृष्टान्तात् शब्दादिष्वगतेन 'चेतसा' अन्त:करणेन एषणोपयुक्तेनेति सूत्रार्थः ॥२॥
पुरओ जुगमायाए, पेहमाणो महिं चरे । वजंतो बीअहरियाई, पाणे अ दगमहि॥३॥ ओवायं विसमं खाणुं, विज्जलं परिवजए । संकमेण न गच्छिज्जा, विजमाणे परक्कमे ॥ ४॥ पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजए । हिंसेज पाणभूयाई, तसे अदुव थावरे ॥ ५॥ तम्हा तेण न गच्छिज्जा, संजए सुसमाहिए । सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे ॥ ६॥ इंगालं छारियं रासिं, तुसरासिं च गोमयं । ससर
अनुक्रम [७६-७७]
RESS
MARROR
१६॥
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अथ प्रथम-व्रते यतना-अधिकार:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३-८|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||३-८||
दीप अनुक्रम [७८-८३]
क्खेहिं पाएहिं, संजओ तं नइक्कमे ॥ ७॥ न चरेज वासे वासंते, महियाए वा पडं
तिए । महावाए व वायंते, तिरिच्छसंपाइमेसु वा ॥८॥ PI यथा चरेत्तथैवाह-पुरतो' इति सूत्रं, व्याख्या-पुरतः' अग्रतो 'युगमात्रया' शरीरप्रमाणया शकटोर्द्धि
संस्थितया, दृष्ट्येति वाक्यशेषः, 'प्रेक्षमाणः' प्रकर्षेण पश्यन् 'महीं भुवं 'चरेत्' यायात्, केचिन्नेत्ति योजयन्ति, Kान शेषदिगुपयोगेनेति गम्यते, न प्रेक्षमाण एव अपि तु 'वर्जयन्' परिहरन वीजहरितानीति, अनेमानेकभे
दस्य वनस्पतेः परिहारमाह, तथा 'प्राणिनों द्वीन्द्रियादीन् तथा 'उदकम् अकार्य 'मृत्तिकां च पृथिवी
कायं, चशब्दात्तेजोवायुपरिग्रहः । दृष्टिमानं त्वत्र लघुतरयोपलब्धावपि प्रवृत्तितो रक्षणायोगात् महत्सरया दातु देशविप्रकर्षणानुपलब्धेरिति सूत्रायः ॥३॥ उक्तः संयमविराधनापरिहार, अधुना खात्मसंयमविराधना
परिहारमाह-ओवाय मिति सूत्रं, व्याख्या-'अवपातं गादिरूपं 'विषम निमोन्नतं 'स्थाणुम्' अर्चकाष्ठं
'विजल' विगतजलं कर्दम 'परिवर्जयेत् एतत्सर्वं परिहरेत् , तथा 'संक्रमण' जलगर्तापरिहाराय पाषाणकालाठरचितेन न गच्छेत् , आत्मसंयमविराधनासंभवात्, अपवादमाह-विद्यमाने पराक्रमे-अन्धमार्ग इत्यर्थः,
असति तु तस्मिन् प्रयोजनमाश्रित्य यतनया गच्छेदिति सूत्रार्थः॥४॥ अवपातादौ दोषमाह-पबईतेत्ति ४|| सूत्र, व्याख्या-प्रपतन्याऽसी 'तन' अवपातादी प्रस्खलन्या 'संयतः साधुः 'हिंस्याद् व्यापादयेत् प्राणिमू-IM
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३-८|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||३-८||
दीप अनुक्रम [७८-८३]
दशकातानि' प्राणिनो-द्वीन्द्रियादयः भूतानि-एकेन्द्रियाः, एतदेवाह-प्रसानधया स्थावरान् , प्रपातेनात्मानं चेत्येहारि-यत्तिःवमुभयविराधनेति सूत्रार्थः ॥५॥ यतश्चैवं 'तम्हा' सूत्रं, व्याख्या-तस्मात्तेन-अवपातादिमार्गेण न गच्छेत
पणाध्य० संयतः सुसमाहितो, भगवदाज्ञावर्तीत्यर्थः, 'सत्यन्येने ति अन्यस्मिन् समादौ 'मार्गेणे ति मार्ग, छान्दसत्वा॥ १६४॥ प्रात्सप्तम्यर्थे तृतीया, असति वन्यस्मिन्मार्गे तेनैवावपातादिना 'यतमेव पराक्रमेत् यतमिति क्रियाविशेषणं.पाल
कायतमात्मसंयमविराधनापरिहारेण यायादिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ अत्रैव विशेषतः पृथिवीकाययतनामाह--
गाल'मिति सूत्रम्, आजारमिति अङ्काराणामयमाङ्गारस्तमाङ्गार राशिम्, एवं क्षारराशि, तुषराशिं च गोम-12 सायराशि च, राशिशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते 'सरजस्काभ्यां पङ्ग्यां' सचित्तपृथिवीरजोगुण्डिताभ्यां पादाभ्यां 'संयतः साधुः तम् अनन्तरोदितं राशि नाकामेत्, मा भूत्पृथिवीरजोविराधनेति सूत्रार्थः ॥ ७॥ अत्रैवाकायादियतनामाह-'न चरेज'त्ति सूत्रं, न चरेद्वर्षे वर्षति, भिक्षार्थ प्रविष्टो वर्षणे तु प्रच्छन्ने तिष्ठेत्, तथा महिकायां वा पतन्त्यां, सा च प्रायो गर्भमासेषु पतति, महाबाते या वाति सति, तदुत्खातरजोविराधनादोपात्, तिर्यक्संपतन्तीति तिर्यसंपाता-पतङ्गादयः तेषु वा सत्सु कचिदशनिरूपेण न चरेदिति सूत्रार्थः ॥८॥ न चरेज वेससामंते, बंभचेरवसाणु(ण)ए । बंभयारिस्स दंतस्स, हुजा तत्थ विसु
॥१६४ १ ईतिरूपो हि पतङ्गादेरापात इति पूर्वणान्वयः, यता हेतौ तृतीयेति साधुस्वरूपाख्यानं.
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चतुर्थ-व्रते यतना-अधिकारः
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सूत्रांक ॥९-११ ||
दीप
अनुक्रम [८४-८६ ]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९-११ || निर्युक्तिः [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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त्तिआ ॥ ९ ॥ अणायणे चरंतस्स, संसग्गीए अभिक्खणं । हुज वयाणं पीला, सामन्नंमि अ संसओ ॥ १० ॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । वज्जए वेससा
मंतं, मुणी एगंतमस्सिए ॥ ११ ॥
उक्त प्रथमतता, साम्प्रतं चतुर्थव्रतयतनोच्यते- 'न चरेज'त्ति सूत्रं, 'न चरेद्वेश्यासामन्ते' न गच्छेद्गणिकागृहसमीपे, किंविशिष्ट इत्याह-'ब्रह्मचर्यवशानयने ( नये) ' ब्रह्मचर्य -मैथुनविरतिरूपं वशमानयति-आत्मायन्तं करोति दर्शनाक्षेपादिनेति ब्रह्मचर्यवशानयनं तस्मिन् दोषमाह - 'ब्रह्मचारिणः' साधोः 'दान्तस्य' इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां भवेत् 'तंत्र' वेश्यासामन्ते 'विस्रोतसिका' तद्रूपदर्शनस्मरणापध्यानकच्चरनिरोधतः ज्ञानश्रद्धाजलोज्झनेन संयमस (श) स्वशोषफला चित्तविक्रियेति सूत्रार्थः ||९|| एष सकृचरणदोषो वेश्यासामन्तसंगत उक्तः, साम्प्रतमिहान्यत्र चासकृचरणदोषमाह - 'अणायणेति सूत्रम्, अनायतने-अस्थाने वेश्यासामन्तादी 'चरतो' गच्छतः 'संसर्गेण' संबन्धेन 'अभीक्ष्णं' पुनः पुनः किमित्याह भवेत् 'व्रतानां' प्राणातिपातविरत्यादीनां पीडा, तदाक्षिप्तचेतसो भावविराधना, 'आमण्ये च' भ्रमणभावे च द्रव्यतो रजोहरणादिधारणरूपे भूयो भाववतप्रधान हेती संशयः, कदाचिदुन्निष्क्रामत्येवेत्यर्थः तथा च वृद्धव्याख्या- वेसा१] श्यादिगतभावस्य मैथुनं पौच्यते, अनुपयोगनैषणा करणे हिंसा, प्रत्युत्पादने ( वर्त्तमाने ) अभ्यष्टच्छायामपलापेऽसत्यवचनम्, अननुज्ञातश्याया दर्शनेदत्तादानं, ममता करणे परिग्रहः एवं सर्ववतपीटा, द्रव्यामध्ये पुनः संशय उन्त्रिकमणेन
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९-११|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
दशवैका हारि-वृत्तिः ॥१६५॥
५ पिण्डै| षणाध्य
सूत्रांक
||९-११||
दीप अनुक्रम [८४-८६]
दिगयभावस्स मेहुणं पीडिज्जह, अणुषओगेणं एसणाकरणे हिंसा, पडुप्पापणे अन्नपुच्छणअवलवणाऽसचव- यणं, अणणुण्णायवेसाइदंसणे अदत्तादाणं, ममत्तकरणे परिग्गहो, एवं सव्ववयपीडा, दख्वसामन्ने पुण सं-1 सयो उण्णिक्षमणेण त्ति सूत्रार्थः ॥१०॥ निगमयन्नाह–तम्हा' इति सूत्रम् , यस्मादेवं तस्मादेतत् विज्ञाय | 'दोषम् अनन्तरोदितं दुर्गतिवर्धनं वर्जयेद्वेश्यासामन्तं मुनि' 'एकान्तं' मोक्षमाश्रित इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ आह-प्रथमव्रतविराधनानन्तरं चतुर्थव्रतविराधनोपन्यासः किमर्थम् ?, उच्यते, प्राधान्यख्यापनार्थम्, अन्यव्रतविराधनाहेतुत्वेन प्राधान्यम् , तच्च लेशतो दर्शितमेवेति । अत्रैव विशेषमाह
साणं सूइअं गाविं, दित्तं गोणं हयं गयं । संडिम्भं कलह जुद्धं, दूरओ परिवजए ॥१२॥ अणुन्नए नावणए, अप्पहिढे अणाउले । इंदिआणि जहाभागं, दमइत्ता मुणी चरे ॥ १३ ॥ दवदवस्स न गच्छेजा, भासमाणो अ गोअरे । हसंतो नाभिगच्छिज्जा, कुलं उच्चावयं सया ॥ १४ ॥ आलोअंथिग्गलं दारं, संधि दगभवणाणि अ । चरंतो
न विनिज्झाए, संकटाणं विवजए ॥ १५॥ रणो गिहबईणं च, रहस्सारक्खियाण १ पमबणाऽकरणे प्र. २ दर्शने वि. प.
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॥१६५॥
भिक्षाचर्या-गमने विधि:
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सूत्रांक
||१२
-१८||
दीप
अनुक्रम [८७-९३]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा || १२-१८ || निर्युक्तिः [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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य । संकिलेसकरं ठाणं, दूरओ परिवज्जए ॥ १६ ॥ पडिकुटुकुलं न पविसे, मामगं परिवज्जए । अचिअत्तकुलं न पविसे, चिअन्तं पविसे कुलं ॥ १७ ॥ साणीपावारपिहिअं, अपणा नावपंगुरे | कवाडं नो पशुहिजा, उग्गहंसि अजाइआ ॥ १८ ॥
'सा' ति सूत्र, 'श्वानं' लोकप्रतीतम्, 'सूतां गाम्' अभिनवप्रसूतामित्यर्थः 'हर्स' च दर्पितं किमित्याह - गावं हयं गजं, गौ:-बलीवर्दी हयः- अश्वो गजो-हस्ती । तथा 'संडिम्भ' बालक्रीडास्थानं 'कल' वाक्प्रतिबद्ध 'युद्ध' खड्गादिभिः, एतत् 'दूरतों' दूरेण परिवर्जयेत्, आत्मसंयमविराधनासंभवात् श्वसूतगोप्रभृतिभ्य आत्मविराधना, डिम्भस्थाने वन्दनाद्यागमनपतन भण्डनप्रलुठनादिना संयमविराधना, सर्वत्र चात्मपात्रभेदादिनो| भयविराधनेति सूत्रार्थः ॥ १२॥ अत्रैव विधिमाह - 'अणुण्णए 'त्ति सूत्रम्, 'अनुन्नतों' द्रव्यतो भावतश्च, द्रव्यतो नाकाशदर्शी भावतो न जात्याद्यभिमानवान्, 'नावनतो' द्रव्यभावाभ्यामेव द्रव्यानवनतोऽनीचकायः भावानवनतः अलब्ध्यादिनाऽदीनः 'अमहृष्टः' अहसन् 'अनाकुलः' क्रोधादिरहितः 'इन्द्रियाणि' स्पर्शनादीनि 'यथाभागं यथाविषयं 'दमयित्वा' इष्टानिष्टेषु स्पर्शादिषु रागद्वेषरहितो 'मुनिः' साधुः 'चरेद्' गच्छेत्, विपर्यये प्रभूतदोषप्रसङ्गात्, तथाहि द्रव्योन्नतो लोकहास्यः भावोन्नत ईयों न रक्षति द्रव्यावनतः बक इति संभाव्यते भावावनतः क्षुद्रसत्त्व इति, महृष्टो योषिदर्शनाद्रक्त इति लक्ष्यते, आकुल एवमेव, अदान्तः प्रवज्यानई इति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१२-१८|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
दशबैका
प्रत सूत्रांक ||१२
॥१६६॥
-१८||
दीप अनुक्रम [८७-९३]
सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ किंच-दवदवस'त्ति सूत्रं, 'दुतं दुतं त्वरितमित्यर्थः न गच्छेत् भाषमाणो वा न गोचरे ५ पिण्डै
गच्छेत्, तथा हसन्नाभिगच्छेत्, कुलमुच्चावचं सदा, उचं-द्रव्यभावभेदाद्विधा-द्रव्योचं धवलगृहवासि | साषणाध्य &भावोचं जास्यादियुक्तम्, एवमवचमपि द्रव्यतः कुटीरकवासि भावतो जात्यादिहीनमिति । दोषा उभय
विराधनालोकोपघातादय इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ अत्रैव विधिमाह-'आलोचिग्गल' ति सूत्रम्, 'अवलोकं ४नि!हकादिरूपं 'थिग्गलं' चितं द्वारादि, संधिः-चितं क्षत्रम्, 'उदकभवनानि' पानीयगृहाणि चरन भिक्षार्थ
न 'विनिध्यायेत्' विशेषेण पश्येत्, शङ्कास्थानमेतदवलोकादि अतो विवर्जयेत्, तथा च नष्टादौ तत्राशङ्कोपजायत इति सूत्रार्थः ॥ १५॥ किंच-'रपणों'त्ति सूत्रं, राज्ञः-चक्रवादेः 'गृहपतीनां श्रेष्ठिप्रभृतीनां रहसाठाणमिति योगः, 'आरक्षकाणां च दण्डनायकादीनां 'रहास्थानं गुह्यापवरकमनगृहादि 'संक्लेशकरम् असदिच्छाप्रवृत्त्या मन्त्रभेदे वा कर्षणादिनेति, दूरतः परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ किंच-'पडिकुट्टत्ति सूत्रं, प्रतिकुष्टकुलं द्विविधम्-इत्वरं यावत्कथिकं च, इत्वरं सूतकयुक्तं, यावत्कधिकम्-अभोज्यम्, एतन्न विशेत् शासनलघुत्वप्रसङ्गात्, 'मामक' यत्राऽऽह गृहपतिः-मा मम कश्चिद्गृहमागच्छेत्, एतत् वर्जयेत्, भण्डनादिप्रसङ्गात्, 'अचिअत्तकुलम्' अप्रीतिकुलं यत्र प्रविशद्भिःसाधुभिरप्रीतिरुत्पद्यते, न च निवारयन्ति, कुतश्चिन्निमित्तान्तरात्, एतदपि न प्रविशेत्, तत्संक्लेशनिमित्तत्वप्रसङ्गात्, 'चिअसम् अचिअत्तविपरीत विशेत्कुलं, तदनुग्रहप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥१७॥ किं च-'साणि'सि सूत्र, 'शाणीप्रावारपिहित मिति शाणी
II॥१६६॥
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सूत्रांक
||१२
-१८||
दीप
अनुक्रम [८७-९३]
:+|भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१९|| निर्युक्ति: [ २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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अतसीवल्कजा पटी, प्रावारः प्रतीतः कम्बल्यानुपलक्षणमेतत् एवमादिभिः पिहितं स्थगितं, गृहमिति वाक्यशेषः । 'आत्मना ' स्वयं 'नापवृणुयात्' नोद्घाटयेदित्यर्थः, अलौकिकत्वेन तदन्तर्गत भुजिक्रियादिकारिणां प्रद्वेषप्रसङ्गात्, तथा 'कपार्ट' द्वारस्थगनं 'न प्रेरयेत्' नोद्घाटयेत् पूर्वोक्तदोषप्रसङ्गात् किमविशेषेण १, नेत्याह- 'अवग्रहमयाचित्वा' आगाढप्रयोजनेऽननुज्ञाप्यावग्रहं विधिना धर्मलाभमकृत्वेति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ गोअरग्गपविट्ठो अ, वञ्चमुत्तं न धारए । ओगासं फासुअं नच्चा, अणुन्नविअ वोसिरे ॥ १९ ॥ विधिशेषमाह-- 'गोपरग्गति सूत्रं, गोचराग्रप्रविष्टस्तु वर्चो मूत्रं वा न धारयेत् अवकाशं प्रासुकं ज्ञात्वाऽनुज्ञाप्य व्युत्सृजेदिति । अस्य विषयो वृद्धसंप्रदायादवसेयः, स चायम्-पुब्बमेव साहुणा सन्नाकाइओबयोगं काऊण गोअरे पविसिअव्वं, कहिंवि ण कओ कए वा पुणो होजा ताहे वयमुक्तं ण धारेअव्वं, जओ मुत्तनिरोहे चक्खुवधाओ भवति, वचनिरोहे जीविओवघाओ, असोहणा अ आयविराहणा, जओ भणिअं - 'सव्वत्थ संजम 'मित्यादि, अओ संघाडयस्स सयभायणाणि समप्पिअ पडिस्सए पाणयं गहाय सन्नाभूमीए विहिणा वोसिरिजा । वित्थरओ जहा ओहणिजसीए । इति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥
१ पूर्वमेव साधुना संज्ञाकायिकोपयोगं कुला गोचरे प्रवेष्टव्यं कदाचित्र कृतः कृते वा पुनर्भवेत् तदा वचमूत्रं न धारथितव्यं यतो मूत्रनिरोधे चक्षुष उपपातो भवति वचनिरोधे जीवितोपपातः, अशोभना चात्मविराधना, यतो भणितम्- सर्वत्र संयममित्यादि, अतः सहाटकाय लकभाजनानि समर्प्य प्रतिश्रयायानीयं गृहीत्वा संहभूम विधिना व्युत्सृजेत् विस्तरतो यथा ओपनिर्युकी
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२०-२२|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
4
५ पिण्डै
प्रत सूत्रांक ||२०-२२||
दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥१६॥
णीअदुवारं तमसं, कुछगं परिवज्जए । अचक्खुविसओ जत्थ, पाणा दुप्पडिलेहा (हगा)
षणाध्य ॥२०॥ जत्थ पुप्फाई बीआई, विप्पइन्नाई कुट्ठए। अहुणोवलितं उल्लं, दट्टणं परिवजए ॥२१॥ एलगं दारगं साणं, बच्छगं बावि कुट्टए । उल्लंघिआ न पविसे, विउहित्ताण
व संजए॥ २२॥ तथा 'नीयदुवारन्ति सूत्रं, 'नीचद्वारं नीचनिर्गमप्रवेशं 'तमसमिति तमोवन्तं 'कोष्ठकम्' अपवरकं प-17 रिवर्जयेत्, न तत्र भिक्षां गृह्णीयात्, सामान्यापेक्षया सर्व एवंविधो भवत्यत आह-अचक्षुर्विषयो यन्त्र' न चक्षुापारो यत्रेत्यर्थः, अत्र दोषमाह-प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीया भवन्ति, ईर्याशुद्धिन भवतीति सूत्रार्थः ॥२०॥ किंच-'जत्यत्ति सूत्र, यत्र 'पुष्पाणि' जातिपुष्पादीनि 'बीजानि' शालिबीजादीनि 'विपकीणोंनि' अने-17 कधा विक्षिप्सानि, परिहर्तुमशक्यानीत्यर्थः, कोष्टके कोष्ठकद्वारे वा, तथा 'अधुनोपलिस' साम्यतोपलिसम्18 'आद्रेम्' अशुष्कं कोष्ठकमन्यद्बा दृष्ट्वा परिवर्जयेहरत एव, न तु तत्र धर्मलाभं कुर्यात, संपमात्मविराध-| नापत्तेरिति सूत्रायः ॥ २१ ॥ किंच-'एलगति सूत्रम्, 'एडक' मेषं 'दारक' बाल 'श्वानं' मण्डलं 'चरसकं वापि क्षुद्रवृषभलक्षणं कोष्ठके उल्लङ्घय पदुभ्यां न प्रविशेत्, 'व्यूख वा' मेर्य वेत्यर्थः, 'संयतः' साधुः आ-18॥१६७ ॥ त्मसंयमविराधनादोषाल्लाघवाचेति सूत्रार्थः ।। २२ ।।
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अनुक्रम [९५-९७]]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२३-२६|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||२३-२६||
दीप अनुक्रम
असंसत्तं पलोइजा, नाइदूरा वलोअए । उप्फुल्लं न विनिज्झाए, निअद्विज अर्यपिरो ॥ २३ ॥ अइभूमि न गच्छेज्जा, गोअरग्गगओ मुणी । कुलस्स भूमि जाणित्ता, मिअं भूमि परक्कमे ॥ २४ ॥ तत्थेव पडिलेहिजा, भूमिभागं विअक्खणो । सिणाणस्स य वच्चस्स, संलोगं परिवजए ॥ २५ ॥ दगमट्टिअआयाणे, बीआणि हरिआणि अ।
परिवजंतो चिट्ठिजा, सविदिअसमाहिए ॥ २६ ॥ इहैव विशेषमाह-'असंसत्त' ति सूत्रम्, 'असंसक्तं प्रलोकयेत्' न योषिदृष्टेदृष्टिं मलयेदित्यर्थः, रागोत्पत्तिलोकोपघातदोषप्रसङ्गात्, तथा 'नातिदूरं प्रलोकयेत् दायकस्यागमनमात्रदेश प्रलोकयेत्, परतश्चौरादिशङ्कादोषः, तथा 'उत्फुल्लं' विकसितलोचनं 'न विणिज्झाए' तिन निरीक्षेत गृहपरिच्छदमपि, अदृष्ट-18 कल्याण इति लाघवोत्पत्तेः, तथा निवर्तेत गृहादलब्धेऽपि सति अजल्पन-दीनवचनमनुचारयन्निति ॥ २३ ॥ तथा-'अइभूमि न गच्छि जा' इति सूत्रम्, अतिभूमि न गच्छेद्-अननुज्ञातां गृहस्थैः, यत्रान्ये भिक्षाचरा न यान्तीत्यर्थः, गोचराग्रगतो मुनिः, अनेनान्यदा तगमनासंभवमाह, किं तर्हि ?, कुलस्य भूमिम्-उत्तमादि-| रूपामवस्थां ज्ञात्वा 'मितां भूमि' तैरनुज्ञातां पराक्रमेत, यत्रैषामप्रीतिर्नोपजायत इति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ वि-14 विशेषमाह-'तत्थेव'त्ति सूत्रं, 'तत्रैव' तस्यामेव मितायां भूमौ प्रत्युपेक्षेत सूत्रोक्तेन विधिना 'भूमिभागम्'
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भिक्षा-ग्रहणे यत् विधि: तत् प्रदर्श्यते
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प्रत
सूत्रांक
||२३
-२६||
दीप
अनुक्रम
[९८
-१०१]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा ||२३-२६ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशका उचितं भूमिदेशं 'विचक्षणों' विद्वान्, अनेन केवलागीतार्थस्य भिक्षाटनप्रतिषेधमाह, तत्र च तिष्ठन् स्नानस्य द्वारि-वृत्तिः । तथा 'वर्चसो' विष्ठायाः संलोकं परिवर्जयेत्, एतदुक्तं भवति-लानभूमिकायिकादिभूमिसंदर्शनं परिहरेत्, प्रवचनलाघवप्रसङ्गात्, अप्रावृतस्त्रीदर्शनाच रागादिभावादिति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥ किंच- 'दग'ति सूत्रम् 'उदकमृत्तिकादानम्' आदीयतेऽनेनेत्यादानो-मार्गः, उदकमृत्तिकानयनमार्गमित्यर्थः, 'बीजानि' शाल्यादीनि 'हरितानि च' दूर्वादीनि चशब्दादन्यानि च सचेतनानि परिवर्जयंस्तिष्ठेदनन्तरोदिते देशे 'सर्वेन्द्रियसमाहितः शब्दादिभिरनाक्षिप्तचित्त इति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥
।। १६८ ।।
तत्थ से चिट्टमाणस्स आहरे पाणभोअणं । अकप्पिअं न गेव्हिज्जा, पडिगाहिज्ज कपिअं ॥ २७ ॥ आहरंती सिआ तत्थ, परिसाडिज भोअणं । दितिअं पडिआइक्खे, पतारसं ॥ २८ ॥ संमदमाणी पाणाणि, बीआणि हरिआणि अ । असंजमकरिं नच्चा, तारिसिं परिवज्जए ॥ २९ ॥
'तत्य'त्ति सूत्रं, 'तंत्र' कुलोचितभूमौ 'से' तस्य साधोस्तिष्ठतः सतः 'आहरेव' नयेत्पानभोजनं, गृहीति गम्यते, तत्रायं विधिः-- 'अकल्पिकम्' अनेषणीयं न गृह्णीयात्, प्रतिगृह्णीयात् 'कल्पिकम्' एषणीयम् एतचार्थापन्नमपि कल्पिकग्रहणं द्रव्यतः शोभनमशोभनमप्येतदविशेषेण ग्राह्यमिति दर्शनार्थं साक्षादुक्तमिति
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५ पिण्डै
पणाध्य०
॥ १६८ ॥
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२७-२९|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक ||२७
-२९||
दीप
सूत्रार्थः ॥ २७ ॥'आहरंति' त्ति सूत्रम्, 'आहरन्ती' आनयन्ती भिक्षामगारीति गम्यते 'स्यात्' कदाचित् 'तत्र' देशे 'परिशारयेद्' इतश्चेतश्च विक्षिपेद् भोजनं वा पानं वा, ततः किमित्याह-ददती 'प्रत्याचक्षीत प्रतिषेधयेत्तामगारी, ख्येव प्रायो भिक्षां ददातीति स्त्रीग्रहणं, कथं प्रत्याचक्षीतेत्यत आह-नमम कल्पते ता-14 दृशं-परिशाटनावत्, समयोक्तदोषप्रसङ्गात्, दोषांश्च भावं ज्ञात्वा कथयेद् मधुविन्ददाहरणादिनेति सूत्रार्थः ॥२८॥ किंच-संमद्दत्ति सूत्रं, 'संमर्दयन्ती' पद्भ्यां समाक्रामन्ती, कानित्याह-प्राणिनोंदीन्द्रियादीन् 'बी-12 जानि शालिवीजादीनि 'हरितानि दूर्वादीनि 'असंयमकरीं साधुनिमित्तमसंयमकरणशीलां ज्ञावा तादृशीं| परिवर्जयेत्, ददतीं प्रत्याचक्षीत इति सूत्रार्थः ॥२९॥
साहद्द निक्खिवित्ता णं, सचित्तं घट्टियाणि यातहेव समणट्राए, उदगं संपणुल्लिया॥३०॥
ओगाहइत्ता चलइत्ता, आहरे पाणभोअणं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥३१॥ पुरेकम्मेण हत्थेण, दळवीए भायणेण वा । दितिअं पडिआइक्खे, न
मे कप्पइ तारिसं ॥ ३२ ॥ एवं उदउल्ले ससिणिद्धे, ससरक्खे महिआउसे । हरि१ मधु क्षीरे जले नये इति हैमोरित्तककथाप्रतिपादितक्षीरेबीदृष्टान्तोऽत्र गम्यः,
अनुक्रम [१०२-१०४]
दश० २९
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||३०
-३४||
दीप
अनुक्रम
[१०५
-१०९]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा ||३०-३४|| निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैकro हारि-वृत्तिः
।। १६९ ॥
Ja Education
आले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे ॥ ३३ ॥ गेरुअवन्नि असेढिअसोरट्टि पिट्ठकुक्कुसकए य । उक्किट्ठमसंसट्टे, संसट्टे चैव बोद्धव्वे ॥ ३४ ॥
तथा 'साहद्दु'ति सूत्रं, संहत्यान्यस्मिन् भाजने ददाति, 'तं फासुगमवि वजए, तत्थ फासुए फासूयं साहरइ फासुए अफासु साहरइ अफासुए फासूयं साहरइ अफासुए अफासुअं साहरइ, तत्थ जं फासुअं फासुए साहरइ तत्थवि थेवे थेवं साहरइ थेवे बहुअं साहरइ बहुए थेवं साहरइ बहुए बहुअं साहरइ । एवमादि यथा पिण्डनिर्युक्तौ । तथा निक्षिप्य भाजनगतमदेयं षट्सु जीवनिकायेषु ददाति, 'सचित्तम्' अलातपुष्पादि 'घयित्वा' संचाल्य च ददाति तथैव 'श्रमणार्थी' प्रव्रजितनिमित्तमुदकं 'संप्रय' भाजनस्थं प्रेर्य ददातीति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ 'ओगाहइत्ता' सूत्रं, तथा च 'अवगाह्य' उदकमेवात्माभिमुखमाकृष्य ददाति तथा चालयित्वा उदकमेव ददाति, उदके नियमादनन्तवनस्पतिरिति प्राधान्यख्यापनार्थं सचितं घयित्वेत्युक्तेऽपि भेदेनोपादानम्, अस्ति चायं न्यायो यदुत सामान्यग्रहणेऽपि प्राधान्यख्यापनार्थं भेदेनोपादानं, यथा ब्राह्मणा आयाता वशिष्ठोऽप्यायात इति, ततश्चोदकं चालयित्वा 'आहरेत्' आनीय दद्यादित्यर्थः, किं तदित्याह -
१ तत्प्राकमपि वर्जयेत्, तत्र प्रामुके प्रासु संहरति प्राशुकेऽप्रायुकं संदरति अप्रामुके प्रायुकं संहरति अप्रामुके अप्राकं संहरति, तत्र यत् प्राचुके प्रा. युकं संदरति तत्रापि स्तोके खोकं संहरति स्तोके बहु संहरति वही स्तोकं संदरति बही बहु संहरति
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५ पिण्डै
पणाध्य०
१ उद्देशः
॥ १६९ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३०-३४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||३०
-३४||
दीप
पानभोजनम्' ओदनारनालादि तदित्थंभूतां ददती 'प्रत्याचक्षीत' निराकुर्यात् न मम कल्पते तादृशमिति || पूर्ववदेवेति सूत्रद्वयार्थः ॥३१॥ 'पुरेकम्मे त्ति सूत्रं, पुरकर्मणा हस्तेन-साधुनिमित्तं प्राकृतजलोजानव्यापारण,
तथा 'दा' डोवसदृशया 'भाजनेन वा' कांस्यभाजनादिना ददतीं 'प्रख्याचक्षीत' प्रतिषेधयेत्, न मम ककल्पते तादृशमिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३२॥ एवं ति सूत्रम्, 'एवम् उदकाण 'हस्तेन' करेण, उदकाद्रों
नाम गलदुदकबिन्दुयुक्तः, एवं सलिग्धेन हस्तेन, सस्निग्धो नाम ईषद्कयुक्तः, एवं 'सरजस्केन हस्तेन सरजस्को नाम-पृथिवीरजोगुण्डितः, एवं 'मृद्गतेन हस्तेन' मृगतो नाम-कर्दमयुक्ता, एवमूपादिष्वपि योजनीयम् , एतावन्ति एव एतानि सूत्राणि, नवरमूषः-पांशुक्षारः, हरितालहिङ्गुलकमनःशिला:-पार्थिवा 8 वर्णकभेदाः, अञ्जनं-रसाचनादि लवर्ण-सामुद्रादि ॥ ३३ ॥ तथा 'गेरुअ'त्ति सूत्रं, गैरिका-धातु, वर्णिकादापीतमृत्तिका, श्वेतिका-शुक्लमृत्तिका, सौराष्ट्रिका-तुबरिका, पिष्टम्-आमतण्डुलक्षोदा, कुसाः प्रतीता, 'कृतेनेति' एभिः कृतेन, हस्तेनेति गम्यते, तथोत्कृष्ट इति उत्कृष्टशब्देन कालिङ्गालावुत्रपुषफलादीनां शस्त्रकृतानि श्लक्ष्णखण्डानि भण्यन्ते, चिश्चिणिकादिपत्रसमुदायो वा उदूखलकण्डित इति, तथा असंसृष्टोव्यञ्जनादिना अलिप्तः, संसृष्टश्चैव व्यञ्जनादिलिप्तो बोद्धव्यो हस्त इति, विधि पुनरत्रो वक्ष्यति स्वयमेवेति सूत्रार्थः ॥ ३४॥
असंसट्टेण हत्थेण, दबीए भायणेण वा । दिजमाणं न इच्छिज्जा, पच्छाकम्मं जहिं
अनुक्रम [१०५-१०९]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक"-मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३५-३६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||३५
५ पिण्डे.
-३६||
दीप
दशवैका. भवे ॥ ३५॥ संसट्टेण य हत्थेण, दवीए भायणेण वा । दिजमाणं पडिच्छिजा, जं हारि-वृत्तिः तत्थेसणियं भवे ॥ ३६॥
पणाध्य ॥ १७०॥
आह च-'असंसट्टेण ति सूत्रम् , असंसृष्टेन हस्तेन-अन्नादिभिरलिप्तेन दा भाजनेन वा दीयमानं उद्देशा नेच्छेत, किं सामान्येन ?, नेत्याह-पश्चात्कर्म भवति यत्र' ध्यादौ, शुष्कमण्डकादिवत् तदन्यदोषरहितं 15 गृह्णीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥ 'संस?ण' ति सूत्रं, संसृष्टेन हस्तेन-अन्नादिलिप्तेन, तथा दा भाजनेन वा दीयमानं 'प्रतीच्छेद्' गृह्णीयात्, किं सामान्येन ? नेत्याह-यत्तत्रैषणीयं भवति, तदन्यदोषरहितमित्यर्थः, इह ||
च वृद्धसंप्रदाया-संसढे हत्थे संसढे मत्ते सावसेसे दब्बे, संसट्टे हत्थे संसट्टे मत्ते हिरवसेसे दब्वे, एवं अट्ठ | भंगा, एस्थ पढमभंगो सब्बुत्तमो, अन्नेसुऽवि जत्थ सावसेसं दव्वं तस्थ घिप्पड़, ण इयरेसु, पच्छाकम्मदोहै साउ सि सूत्रार्थः ॥ ३६॥ किंच
दुण्हं तु भुंजमाणाणं, एगो तत्थ निमंतए । दिजमाणं न इच्छिज्जा, छंदं से पडि
लेहए ॥३७॥ दुहं तु भुंजमाणाणं, दोऽवि तत्थ निमंतए । दिजमाणं पडिच्छिज्जा, 1 संसृष्टो हसः संपष्ट मात्रक ( ममत्र ) सावशेष द्रव्य, संसृष्टो हस्तः संसृष्टं मात्र निरवशेष द्रव्यम्, एवमष्टी भाः, अत्र प्रथमो भागः सर्वोत्तमः, ब-| न्येष्वपि यत्र सावशेषं द्रव्यं तत्र गृहीवाद, नेतरेषु, पधारकर्मदोषातू.
अनुक्रम [११०
।॥१७०॥
JamElcanonil
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३७-४४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक ||३७
-४४||
दीप
जं तत्थेसणियं भवे ॥ ३८ ॥ युक्षिणीए उवपणत्थं, विविहं पाणभोअणं । भुंजमाणं विवज्जिज्जा, भुत्तसेसं पडिच्छए ॥ ३९ ॥ सिआ य समणटाए, गुठ्विणी कालमासिणी । उट्रिआ वा निसीइज्जा, निसन्ना वा पुणुट्रए ॥४०॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि । दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिस ॥४१॥ थणगं पिजेमाणी, दारगं वा कुमारिअं। तं निक्खिवित्तु रोअंतं, आहरे पाणभोअणं ॥ ४२ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥४३॥ जं भवे भत्तपाणं तु, कप्पाकप्पंमि संकि। दितिअं पडिआइक्खे, न
मे कप्पइ तारिसं ॥४४॥ 'दुहति सूत्र, 'द्वयोर्भुजतो' पालनां कुर्वतोः, एकस्य वस्तुनः स्वामिनोरित्यर्थः, एकस्तत्र 'निमन्त्रयेत्' तहान प्रत्यामनयेत, तद्दीयमानं नेच्छेदुत्सर्गतः, अपितु 'छन्दम्' अभिप्राय 'सें तस्य द्वितीयस्य प्रत्युपेक्षेत नेत्रवकादिविकारः, किमस्येदमिष्टं दीयमानं नवेति, इष्टं चेलहीयान्न चेन्नैवेति, एवं शुञ्जओनयोः-अभ्यवहारायोद्य
१ इच्छिद्रस्याकालयवाहजिः पालनार्थोऽत्र. २ अत्राणे 'भुनजोऽपाण' इत्यात्मनेपदभावान्,
अनुक्रम [११२
-११९]
अकल्पित वस्तून: विधानं प्रदर्श्यते
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३७-४४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||३७-४४||
दीप
दशवैका तयोरपि योजनीयं, यतो भुजिः पालनेऽभ्यवहारे च वर्तत इति सूत्रार्थः ॥ ३७॥ ततो 'दुहंति सूत्र, द्वयोस्तु ५ पिण्डैहारि-वृत्तिः पूर्ववत् भुञ्जतो जानयोर्वा द्वावपि तत्रातिप्रसादेन निमन्त्रयेयातां, तत्रायं विधिः-दीयमानं 'प्रतीच्छेद' गृह्णी-1 षणाध्य०
यात् यत्तत्रैषणीयं भवेत् , तदन्यदोषरहितमिति सूत्रार्थः ॥३८॥ विशेषमाह-'गुब्विणीए'त्ति सूत्रं, 'गुर्विण्या १उद्देशः ॥ १७१॥
गर्भवत्या 'उपन्यस्तम्' उपकल्पितं, किं तदित्याह-विविधम् अनेकप्रकारं 'पानभोजनं द्राक्षापानखण्डखाद्यकादि, तत्र भुज्यमानं तया विवज्य, मा भूत्तस्या अल्पत्वेनाभिलाषानिवृत्त्या गर्भपतनादिदोष इति, भुक्त|| शेष भुक्तोदरितं प्रतीच्छेत् , यत्र तस्या निवृत्तोऽभिलाष इति सूत्रार्थः॥ ३९ ॥ किंच-'सिआ यत्ति सूत्र, |'स्याच' कदाचिच 'श्रमणार्थ साधुनिमित्तं 'गुर्विणी' पूर्वोक्ता 'कालमासवती' गर्भाधानानवममासवतीत्यर्थः,
उत्थिता वा यथाकथश्चिन्निषीदे निषण्णा ददामीति साधुनिमित्तं, निषण्णा वा खव्यापारेण पुनरुत्तिष्ठेदन दिददामीति साधुनिमित्तमेवेति सूत्रार्थः॥४०॥'तं भवे' ति सूत्र, तद्भवेद्भक्तपानं तु तथा निषीदनोत्था
नाभ्यां दीयमानं संयतानामकल्पिकम् , इह च स्थविरकल्पिकानामनिषीदनोत्थानाभ्यां यथावस्थितया दीयमानं ४ कल्पिक, जिनकल्पिकानां त्वापन्नसत्त्वया प्रथमदिवसादारभ्य सर्वथा दीयमानमकल्पिकमेवेति सम्प्रदायः, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमित्येतत्पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥४१॥ किं च-यणगीति सूत्रं, स्तनं (न्यं) पाययन्ती, किमित्याह-दारकं वा कुमारिका, वाशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, अत एव नपुंसकं वा, ॥१७१॥
१ छन्देन निमन्त्रणाकापनार्थमतीत्यादि.
अनुक्रम [११२-११९]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||३७-४४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक ||३७
-४४||
दीप
तिहारकादि निक्षिप्य रुदद्भूम्यादी आहरेस्पानभोजनम्, अत्रायं वृद्धसंप्रदाया-गच्छवासी जइ थणजीवी पि
अंतो णिक्खितो तो न गिण्डंति, रोबउ वा मा वा, अह अन्नंपि आहारेइ तो जति ण रोवर तो गिण्हंति, अह रोवई तो न गिण्हंति, अह अपिअंतो णिक्खित्तो थणजीवी रोबइ तओ ण गिण्हंति, अहण रोवइ तो गिण्हंति, गच्छणिग्गया पुण जाव थणजीवी ताव रोवउ वा मा वा पिवंतओ (वा) अपिवंतओ वा ण गिण्हंति, जाहे अन्नपि आहारे आढत्तो भवति ताहे जइ पिवंतओ तो रोवउ वा मा वा ण गेण्हंति, 'अह अपिबतओ तो जह रोवइ तो परिहरंति, अरोविए गेहंति, सीसो आह-को तत्थ दोसोऽस्थि?, आयरिओ भणइ-1 तस्स णिक्खिप्पमाणस्स खरेहिं हत्थेहिं घिप्पमाणस्स अथिरतणेण परितावणादोसा मज्जारादि वा अवह-18/ रेज त्ति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ तं भवें' त्ति सूत्र, तद्भवेद्भक्तपानं त्वनन्तरोदितं संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥४३॥ कि यहुनेति, उपदेशसर्वखमाह-'जं भवें
गच्छदासी यदि स्तन्यजीवी पियन् निक्षिप्तस्तदान गृहाति, रोदितु वा मा वा, अथान्यदप्याहारयति तदा यदि न रोदिति तदा गृह्णाति, अथ रोदिति तदान रहाति, अथापियन् निक्षिप्तः सान्यजीवी रोदिति तदान गृहाति, अब न रोविति तदा एकाति, यच्छनिर्गताः पुनयाँवरस्वन्यजीजी तावद रोदिति वा मा वा पिबन् अपिबन् वा न गृहन्ति, यदा अन्यदप्याह माहतो भवति तदा यदि पिचन् तदा रोदिति वा मा वा न शान्ति, अथापिचन् तदा यदि रोपिति तदा परिहरन्ति अरुबति गृहन्ति । शिष्य बार-तत्र दोषोऽस्ति !, आचार्यों भणति-तस्स निक्षिप्यमाणस्य खराभ्यां हस्ताभ्यां नशामाणसास्थिरत्वेन परितापनादोषा माजोरादि || | वाऽपहरेत,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||४५-४६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
*5*5-
5
॥४५-४६||
दीप
दशवकासि सूत्रं, यद्भवेद्भक्तपानं तु 'कल्पाकल्पयोः' कल्पनीयाकल्पनीयधर्मविषय इत्यर्थः, किम् ?-शङ्कितं न विद्मः५ पिण्डैहारि-वृत्तिः किमिदमुद्गमादिदोषयुक्तं किंवा नेत्याशङ्कास्पदीभूतं, तदित्थंभूतमसति कल्पनीयनिश्चये ददती प्रत्याचक्षीत साषणाध्य. न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥४४॥
|१ उद्देशः ॥१७२॥
दगवारेण पिहि, नीसाए पीढएण वा लोढेण वावि लेवेण, सिलेसेणवि केणइ ॥४५॥ तं च उभिदिआ दिजा, समणट्राए व दावए । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़
तारिसं ॥४६॥ || किं च-'दगवारेण त्ति सूत्र, 'दकवारेण' उदककुम्भेन 'पिहित भाजनस्थं सन्तं स्थगित, तथा 'नीसा-12
ए'त्ति पेषण्या, 'पीठकेन वा' काष्ठपीठादिना, 'लोन वापि' शिलापुत्रकेण, तथा 'लेपेन' मूल्लेपनादिना 'श्लेषेण वा' केनचिजतुसिक्थादिनेति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ तं च' ति सूत्रं, 'तच' स्थगितं लिप्तं वा सत् उद्भिद्य | दद्याच्छ्रमणार्थ दायका, नात्माद्यर्थ, तदित्थंभूतं ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥४६॥
असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज सुणिज्जा वा, दाणटा पगडं इमं ॥४७॥ तारिसं भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दितिअं पडिआइक्खे, न १ मधूच्छिष्टं तु सिक्थकम्.
अनुक्रम [१२०-१२१]
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65
॥१७२॥
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सूत्रांक
||४७
-५४॥
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[१२२
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा ||४७-५४|| निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
Ja Educator e
मे कप्पइ तारिसं ॥ ४८ ॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज सुणिज्जा वा, पुण्णट्टा पगडं इमं ॥ ४९ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ५० ॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज सुणिज्जा वा, वणिमट्ठा पगडं इमं ॥ ५१ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दिंतिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ५२ ॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । जं जाणिज सुणिज्जा वा, समणट्ठा पगडं इमं ॥ ५३ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिअं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पड़ तारिसं ॥ ५४ ॥
किंच- 'असणं'ति सूत्र, अशनं पानकं वापि खायं खाद्यम्, 'अशनम्' ओदनादि 'पानकं' च आरनालादि, 'स्वायं' लड्डुकादि, 'खायं' हरीतक्यादि, यज्जानीयादामन्त्रणादिना शृणुयाद्वा अन्यतः, यथा दानार्थं प्रकृत
१श्यमानेष्वाद 'ओदनारनाकलकहरीतक्यादि' इत्येतावन्मात्रमेव २ गुडसंस्कृतदन्तपवनादि मायं, बायकावधिवासोतिमोदकादिभोजनप्रकार इति पचासको के.
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||४७-५४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
॥४७-५४||
दीप
दशवैका०मिवं, दानार्थ प्रकृतं नाम-साधुवादनिमित्तं यो ददास्यव्यापारपाखण्डिभ्यो देशान्तरादेरागतो वणिक्प्रभृति- ५ पिण्डैहारि-वृत्तिः रिति सूत्रार्थः॥४७॥'तारिसंति सूत्रं, तादृशं भक्तपानं दानार्थ प्रवृत्तव्यापार संयतानामकल्पिकं, यतश्चै- |षणाध्य
वमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः॥४८॥'असणं' ति सूत्रम्, एवं पुण्यार्थ, पुण्यार्थी |१ उद्देशः प्रकृतं नाम-साधुवादानङ्गीकरणेन यत्पुण्यार्थं कृतमिति । अत्राह-पुण्यार्थप्रकृतपरित्यागे शिष्टकुलेषु वस्तुतो |भिक्षाया अग्रहणमेव, शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाकप्रवृत्तेः, तथाहि-न पितृकर्मादिव्यपोहेनात्मार्थमेव क्षुद्रसक्विवत्प्रवर्तन्ते शिष्टा इति, नैतदेवम्, अभिप्रायापरिज्ञानात्, खभोग्यातिरिक्तस्य देयस्यैव पुण्यार्थकृतस्य निषेधात् , स्वभृत्यभोग्यस्य पुनरुचितप्रमाणस्येत्त्वरयदृच्छादेयस्य कुशलप्रणिधानकृतस्याप्यनिषेधादिति, एतेनाऽ-18 देयदानाभावः प्रत्युक्तः, देयस्यैव यदृच्छादानानुपपत्तेः, कदाचिदपि वा दाने यदृच्छादानोपपत्तेः, तथा व्यवहारदर्शनात्, अनीदशस्यैव प्रतिषेधात्, तदारम्भदोषेण योगात्, यदृच्छादाने तु तदभावेऽप्यारम्भप्रवृत्तेः नासी तदर्थे हत्यारम्भदोषायोगात्, दृश्यते च कदाचित्सूतकादाविव सर्वेश्य एव प्रदानविकला शिष्टाभिम-15 तानामपि पाकप्रवृत्तिरिति, विहितानुष्ठानत्वाच तथाविधग्रहणान्न दोष इत्यलं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनिकामात्रफल खात्प्रयासस्येति ।। ४९॥ तं भवें त्ति सूत्रं, प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥ ५० ॥'असणं ति सूत्रं, एवं वनीपकार्थे । | वनीपका:-कृपणाः ॥५१॥ तं भवेत्ति सूत्रं, प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥५२॥ असणं ति सूत्रं, एवं अमणार्थ,
एवं श्रमणार्थ. ॥१७३ ॥ श्रमणा-निन्धाः शाक्यादयः ॥ १३ ॥ 'तं भवे' त्ति सूत्रं, प्रतिषेधः पूर्ववत् ॥५४॥
अनुक्रम [१२२-१२९]
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||५५|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||५||
दीप अनुक्रम [१३०]
कष्टकर
उदेसिअंकीअगडं, पूइकम्मं च आहडं । अज्झोअर पामिच्चं, मीसजायं विवज्जए॥ ५५॥ किंच-'उद्देसिति सूत्रं, उद्दिश्य कृतमौद्देशिकम्-उद्दिष्टकृतकर्मादिभेदं, क्रीतकृतं-द्रव्यभावक्रयकीतभेदं पूतिकर्म-संभाव्यमानाधाकर्मावयवसंमिश्रलक्षणम् , आहृतं-खग्रामाहृतादि, तथा अध्यवपूरक-खार्थमूलाद्रहणप्रक्षेपरूपं, पामित्यं-साध्वर्थमुच्छिद्य दानलक्षणं, मिश्रजातं च-आदित एव गृहिसंयतमिश्रोपस्कूतरूपं, वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५५॥
उग्गमं से अ पुच्छिज्जा, कस्सट्टा केण वा कडं? । सुच्चा निस्संकिअं सुद्धं, पडिगा
हिज संजए ॥ ५६ ॥ ा संशयव्यपोहायोपायमाह-उग्गम' ति सूत्रं, 'उद्गमं तत्प्रसूतिरूपम् से तस्य शङ्कितस्याशनादेः 'पृ-18 च्छेत् तत्खामिनं कर्मकरं वा, यथा-कस्थार्थमेतत् केन वा कृतमिति, श्रुत्वा तद्बचो न भवदर्थ किं त्वन्यार्थमित्येवंभूतं निम्शङ्कितं 'शुद्ध' सदृजुत्वादिभावगत्या प्रतिगृह्णीयात्संयतो, विपर्ययग्रहणे दोषादिति सूत्रार्थः ।।५।।
असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । पुप्फेसु हुज उम्मीसं, बीएसु हरिएसु वा ॥ ५७ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दिति पडिआइक्खे, न मे
गौचरी संबंधी दोषाणां वर्णनं
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||५७-६४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
दशवैका० हारि-वृत्तिः
प्रत सूत्रांक ||५७-६४||
पणाध्य १ उद्देश:
॥१७४॥
कप्पइ तारिसं ॥ ५८ ॥ असणं पाणगं वावि, खाइमं साइमं तहा । उदगंमि हुज्ज निक्खित्तं, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ५९॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६० ॥ असणं पाणगं वावि, खाइम साइमं तहा। तेउम्मि हुज निक्खित्तं, तं च संघट्टिआ दए ॥ ६१ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि।दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६२ ॥ एवं उस्सक्किया, ओसकिया, उज्जालिआ, पजालिआ, निव्वाविया, उस्सिचिया, निसिंचिया, उववत्तिया, ओयारिया दए ॥६३॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाणं अकप्पिअं। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ६॥
6456767-06-15
दीप
अनुक्रम [१३२-१३९]
तथा 'असणं' ति सूत्रं, अशनं पानकं वापि खाद्यं स्वायं तथा 'पुष्पैः' जातिपाटलादिभिः भवेदुन्मिनं, वीजैहरितैति सूत्रार्थः ॥ ५७॥'तारिसंति सूत्रं, तादृशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।।५८॥ तथा 'असणं' ति सूत्रं, अशनं पान वापि
॥१७४।
SCAS
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||५७-६४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||५७-६४||
22-254564-%%
दीप
खाद्यं खायं तथा, उदके भवेन्निक्षिप्तमुत्तिंगपनकेषु वा कीटिकानगरोल्लीषु वेत्यर्थः, उदयनिक्खित्तं दुविहंअणंतरं परंपरं च, अणंतरं णवणीतपोग्गलियमादि, परोप्परं जलघडोवरिभायणत्थं दधिमादि, एवं उत्तिंग-2 पणएसु भावनीयमिति सूत्रार्थः ।। ५९ ॥ तं भवेत्ति सूत्रं, तद्भवेद्भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो दवती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ६० ॥ तथा 'असणीति सूत्रं, अशनं पानकं वापि| खाद्य खाद्य तथा, तेजसि भवेन्निक्षित, 'तेजसि' इत्यग्नौ तेजस्काय इत्यर्थः, तच संघट्य, यावद्भिक्षां ददामि। तावत्तापातिशयेन मा भूदुर्तिष्यत इत्याघट्य दद्यादिति सूत्रार्थः ।। ६१ ॥ 'तं भवेत्ति सूत्रं, तद्भवेद्भक्तपानं, तु संयतानामकल्पिकमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ।। ६२॥ एवं 'उस्सकि
यत्ति यावद्भिक्षां ददामि तावन्मा भूद्विध्यास्थतीत्युत्सिच्य दद्याद्, एवं 'ओसक्किया' अवसl अतिदाहभहायादुल्मकान्युत्सार्येत्यर्थः, एवं 'उजालिया पजालिया' 'उवाल्य' अर्धविध्यातं सकृदिन्धनप्रक्षेपेण, 'प्रज्वाल्य' पुनः पुनः । एवं 'निव्वाविया' निर्वाप्य दाहभयादेवेति भावः, एवं उस्सिंचिया निस्सिचिया, 'उत्सिच्य' अतिभृतादुज्झनभयेन ततो वा दाना तीमनादीनि, 'निषिच्य तद्भाजनारहितं द्रव्यमन्यत्र भाजने तेन दद्यात्, उद्वर्तनभयेन चाऽऽद्रहितमुदकेन निषिच्य, एवं 'ओवत्तिया ओयारिया', 'अपवर्य' तेनैवाग्निनिक्षिप्तेन
१ उपकनिक्षिप्त विविधम् --अनन्तरं परम्परं च, अनन्तरं नवनीतनांसादि, परम्परं जलपटोपरिभाजन च्यापि, एषमुत्तिापनकयो,
अनुक्रम [१३२-१३९]
चश०३०
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आगम
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प्रत
सूत्रांक
॥६५
-६९||
दीप
अनुक्रम
[१४०
-१४२]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा ||६५- ६९ || निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशका० 2 भाजनेनान्येन वा दद्यात्, तथा 'अवतायें दाहमयादानार्थं वा दद्यात्, अत्र तदन्यच साधुनिमित्तयोगे न हारि-वृत्तिः कल्पते ॥ ६३ ॥ 'तं भवे सि सूत्रं पूर्ववत् ॥ ६४ ॥
॥ १७५ ॥
Jan Education in
हुज्ज कट्टं सिलं वावि, इट्टालं वावि एगया । ठविअं संकमट्टाए, तं च होज चलाचलं ॥ ६५ ॥ ण तेण भिक्खू गच्छिजा, दिट्ठो तत्थ असंजमो । गंभीरं झुसिरं चेव, सव्विदिअसमाहिए ॥ ६६ ॥ निस्सेणिं फलगं पीढं, उस्सवित्ता णमारुहे । मंच कीलं च पासा, समणट्टा एव दावए ॥ ६७ ॥ दुरूहमाणी पवडिज्जा, हत्थं पायं व लूसए । पुढविजीवे विहिंसिज्जा, जे अ तन्निस्सिया जगे ॥ ६८ ॥ एआरिसे महादोसे, जाणिऊण महेसिणो । तम्हा मालोहडं भिक्खं, न पडिगिण्हंति संजया ॥ ६९ ॥
गोचराधिकार एव गोचरप्रविष्टस्य 'होज' त्ति सूत्रं भवेत् काष्ठं शिला वापि इद्वालं वाऽपि 'एकदा एकस्मिन् काले प्रावृडादौ स्थापितं संक्रमार्थे तच भवेत् 'चलाचलम्' अप्रतिष्ठितं, न तु स्थिरमेवेति सूत्रार्थः ॥ ६५ ॥ 'ण तेण' त्ति सूत्रं, न 'तेन' काष्ठादिना भिक्षुर्गच्छेत्, किमिति?, अत्राह दृष्टस्तत्रासंयमः, तचलने प्राण्युपमसंभवात्, तथा 'गम्भीरम्' अप्रकाशं 'शुषिरं चैव' अन्तःसाररहितम्, 'सर्वेन्द्रियसमाहितः' शब्दा
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५. पिण्डै
पणाध्य०
१ उद्देशः
॥ १७५ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||७०-७४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक ||७०
-७४||
दीप
दिषु रागद्वेषावगच्छन्, परिहरेदिति सूत्रार्थः ॥६६॥ किं च-णिस्सेणि' ति सूत्रं, निश्रेणिं फलकं पीठम् 'उस्सवित्ता' उत्सृत्य ऊर्द्ध कृत्वा इत्यर्थः, आरोहेन्मञ्च, कीलकं च उत्सृत्य कमारोहेदित्याह-प्रासाद, 'श्रमणार्थ साधुनिमित्तं 'दायकों दाता आरोहेत्, एतदप्यग्राह्यमिति सूत्रार्थः ।। ६७ ॥ अत्रैव दोषमाह-दुरूहमाणि त्ति सूत्र, आरोहन्ती प्रपतेत्, प्रपतन्ती च हस्तं पादं वा लूपयेत्' खक खत एव खण्डयेत, तथा पृथ्वीजी-IKI वान् विहिं स्यात, कथंचित्तत्रस्थान, तथा यानि च तनिश्रितानि 'जगन्ति' प्राणिनस्तांश्च हिंस्यादिति सूत्रार्थः॥ १८॥एआरिसे' सि सूत्रं, ईशान्' अनन्तरोदितरूपान्महादोषान् ज्ञात्वा 'महर्षयः साधवः। यस्माद्दोषकारिणीयं तस्मात् 'मालापहृतां मालादानीतां भिक्षां न प्रतिगृह्णन्ति संयताः, पाठान्तरं वा | हंदि मालोहडं' ति, हन्दीत्युपप्रदर्शन इति सूत्रार्थः ॥ ६९ ॥
कंदं मूलं पलंब वा, आमं छिन्नं व सन्निरं । तुंबागं सिंगबेरं च, आमगं परिवजए ॥ ७० ॥ तहेव सत्तुचुन्नाई, कोलचुन्नाइं आवणे । सकुलिं फाणिपूअं, अन्नं वावि तहाविहं ॥७१॥ विकायमाणं पसढं, रएणं परिफासि। दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७२ ॥ बहुअद्वियं पुग्गलं, अणिमिसं वा बहुकंटयं । अच्छियं
अनुक्रम [१४५-१४९]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||७०-७४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||७०-७४||
दीप
दसवैका
तिंदुयं बिल्लं, उच्छृखंडं व सिंबलिं ॥ ७३ ॥ अप्पे सिआ भोअणज्जाए, बहुउज्झियध- ४५ पिण्डैहारि-वृत्तिः म्मियं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७४ ॥
पणाध्य. ॥ १७६॥
१ उद्देशः प्रतिषेधाधिकार एवाह-'कंदं मूलं' ति सूत्रं, 'कन्द' सूरणादिलक्षणम् 'मूलं' विदारिकारूपम् 'प्रलम्ब भावा' तालफलादि, आमं छिन्नं वा 'सन्निरम्' सन्निरमिति पत्रशाकम्, 'तुम्बा' त्वग्मिजान्तर्वति आद्री वा तुलसीमित्यन्ये, 'शृङ्गायेर चाकम् , आम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७० ॥'तहेव' त्ति सूत्रं, तथैव 'सक्त
न' सक्तून् 'कोलचूर्णान' बदरसक्तून् 'आपणे वीथ्यां, तथा 'शाकुली' तिलपर्पटिकां 'फाणितं' वगुट I'पूर्व' कणिकादिमयम् , अन्पदा तथाविधं मोदकादि ।।७१॥ किमित्याह-'विकायमाण' ति सूत्र, विक्रीय-1 माणमापणे इति वर्तते, 'प्रसह्य' अनेकदिवसस्थापनेन प्रकटम्, अत एव 'रजसा पार्थिवेन 'परिस्पृष्टं व्याप्त, तदित्थमभूतं तत्र ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रद्वयार्थः ॥७२॥ किंच-'बहुअद्वियं|ति सूत्रं, यहस्थि 'पुद्गल' मांसम् 'अनिमिषं वा' मत्स्य वा बहुकण्टकम् , अयं किल कालावपेक्षया ग्रहणे प्रतिषेधः, अन्ये त्वभिदधति-वनस्पत्यधिकारात्तथाविधफलाभिधाने एते इति, तथा चाह-अस्थिकं' अस्थि
॥१७६॥ लकवृक्षफलम्, 'तेंदुकं तेंदुरुकीफलम् , विल्वम् इक्षुखण्डमिति च प्रतीते, 'शाल्मलिं वा' बल्लादिफलिं
वा, वाशब्दस्य व्यवहितः संवन्ध इति सूत्रार्थः ॥ ७३ ॥ अत्रैव दोषमाह-'अप्पे'त्ति सूत्र, अल्पं|
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अनुक्रम [१४५-१४९]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||७५-८१|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||७५
-८१||
दीप
स्थाभोजनजातमत्र, अपि तु बहुज्झनधर्मकमेतत्, यतश्चैवमतो ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशमिति सूत्रार्थः ॥७४॥
तहेवुच्चावयं पाणं, अदुवा वारधोअणं । संसेइमं चाउलोदगं, अहणाधो विवजए ॥ ७५॥ जं जाणेज चिराधोयं, मईए दंसणेण वा । पडिपुच्छिऊण सुच्चा वा, जं च निस्संकिअं भवे ॥ ७६ ॥ अजीवं परिणयं नच्चा, पडिगाहिज्ज संजए । अह संकियं भविजा, आसाइत्ताण रोअए ॥७७॥ थोवमासायणटाए, हत्थगंमि दलाहि मे । मा मे अचंबिलं पूअं, नालं तण्हं विणित्तए ॥ ७८॥ तं च अचंबिलं प्रयं, नालं तण्हं विणित्तए । दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ ७९ ॥ तं च होज्ज अकामेण, विमणेणं पडिच्छि। तं अप्पणा न पिये, नोवि अन्नस्स दावए ॥८॥
एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ । जयं परिट्रविजा, परिट्रप्प पडिक्कमे ॥ ८१॥ उक्तोऽशनविधिः, साम्प्रतं पानविधिमाह तहेवत्ति सूत्र, तथैव यथाशनमुच्चावचं तथा पानम् 'उच्चं वर्णागुपेतं द्राक्षापानादि 'अवचं वर्णादिहीनं पूत्यारनालादि अथवा 'वारकधावनं' गुढघदधावनमित्यर्थः
अनुक्रम [१५०-१५६]
अशन संबंधी विधि: प्रदर्शिता: अथ पान संबंधी विधि: कथयते
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||७५-८१|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||७५-८१||
दीप
दशवेकानसंखेदज' पिष्टोदकादि, एतदशनवदुत्सर्गापवादाभ्यां गृह्णीयादिति वाक्यशेषा, तन्दुलोदकम्' अडिकरका
५ पिण्डैहारि-वृत्तिः। अधुनाधौतम्' अपरिणतं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ७५ ॥ अत्रैव विधिमाह-'जं जाणिज'सि सूत्रं, यत्तन्दु- | षणाध्य.
१ उद्देश: ॥१७७॥
दालोदकं 'जानीयात् विद्याचिरौतम् , कथं जानीयादित्यत आह-मत्या दर्शनेन वा, 'मत्या तहणादिकर्म-13
जया 'दर्शनेन चा वर्णादिपरिणतसूत्रानुसारेण च, वा चशब्दार्थः तदप्येवंभूतं कियती वेलाऽस्य धौतस्येति। पृष्ट्वा गृहस्थं, श्रुत्वा वा' महती वेलेति श्रुत्वा च प्रतिवचनं 'यचेति यदेव निःशङ्कितं भवति निरवयवप्रशा-10 ततया तन्दुलोदकं तत्प्रतिगृह्णीयादिति, विशेषः पिण्डनियुक्तायुक्त इति सूत्रार्थः ।। ७६ ॥ उष्णोदकादिवि-18 धिमाह-'अजीवंति सूत्रं, उष्णोदकमजीवं परिणतं 'ज्ञात्वा' त्रिदण्डपरिवर्तनादिरूपं मत्या दर्शनेन वेत्यादि । वर्तते, तदित्थंभूतं प्रतिगृह्णीयात्संयतः, चतुर्थरसमपूत्यादि देहोपकारक मत्यादिना ज्ञात्वेत्यर्थः, अथ शङ्कित भवेत् तत आवाय 'रोचयेद्' विनिश्चयं कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥७७ ॥ तचैवं-'योति सूत्रं, स्तोकमाखादना) 13/ प्रथमं तावत् हस्ते देहि मे, यदि साधुपायोग्यं ततो ग्रहीष्ये, मा मे अत्यम्ल पूति नालं तृडपनोदाय । ततः।
किमनेनानुपयोगिनेति सूत्रार्थः ॥ ७८॥ तं च सि सूत्रं, सुगमम् ॥ ७९ ॥ आस्वादितं च सत्साधुपायोग्य पाचगृह्यत एव नो चेदग्राह्यं । 'तं चत्ति सूत्रं, 'तच' अत्यम्लादि भवेद् 'अकामेन' उपरोधशीलतया 'विमन-13
॥१७७॥ स्केन अन्यचितेन 'प्रतीप्सितं गृहीतम् तदात्मना कायापकारकमित्यनाभोगधर्मश्रद्धया न पिबेत् नाप्यतान्येभ्यो दापयेत्, रत्नाधिकेनापि स्वयं दानस्य प्रतिषेधज्ञापनार्थ दापनग्रहणम् , इह च 'सम्वत्थ संजमं संज
अनुक्रम [१५०-१५६]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८२-८६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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प्रत
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सूत्रांक
||८२
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-८६||
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SSAISASSACREA
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दीप
माओ अप्पाणमेवे'त्यादि भावनयेति सूत्रार्थः ॥ ८॥ अस्यैव विधिमाह-एगतंति सूत्रं, एकान्तम् 'अवक्रम्य' गत्वा 'अचित्तं' दग्धदेशादि प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य रजोहरणेन स्थण्डिलमिति गम्यते 'यतम्।
अत्वरित प्रतिष्ठापयेद्विधिना निर्वाक्यपूर्व व्युत्सृजेत् । प्रतिष्ठाप्य वसतिमागतः प्रतिक्रामेदीर्यापथिकाम् । दाएतच बहिरागतनियमकरणसिद्धं प्रतिक्रमणमवहिरपि प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रमणनियमज्ञापनार्थमिति सूत्रार्थः॥८॥
सिआ अ गोयरग्गगओ, इच्छिज्जा परिभुत्तुअं(भुंजिउं)। कुटुगं भित्तिमूलं वा, पडिलेहिताण फासुअं ॥ ८२ ॥ अणुन्नवित्तु मेहावी, पडिच्छन्नंमि संवुडे । हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ भुंजिज्ज संजए ॥ ८३॥ तत्थ से भुंजमाणस्स, अट्रिअं कंटओ सिआ। तणकटुसकर बावि, अन्नं वावि तहाविहं ॥ ८४ ॥ तं उक्खिवित्तु न निक्खिवें, आसपण न छड्डए । हत्थेण तं गहेऊण, एगतमवक्कमे ॥ ८५॥ एगंतमवक्कमित्ता, अचित्तं पडिलेहिआ। जयं परिदृविज्जा, परिटुप्प पडिक्कमे ॥ ८६ ॥ एवमन्नपानग्रहणविधिमभिधाय भोजनविधिमाह-सिआ अत्ति सूत्रं, 'स्यात्' कदाचिद् 'गोचराग्रगतो' ग्रामान्तरं भिक्षां प्रविष्ट इच्छेत्परिभोक्तुं पानादि पिपासाद्यभिभूतः सन , तत्र साधुवसत्यभावे 'कोष्टक'
0-0-3
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अनुक्रम [१५७-१६१]
20-%
प्रतिक्रमण व परिष्ठापन संबंधी उपदेश:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८२-८६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||८२
-८६||
*,
दीप
दशवका०शून्यचट्टमठादि भित्तिमूलं वा कुड्यैकदेशादि, प्रत्युपेक्ष्य चक्षुषा प्रमृज्य च रजोहरणेन प्रासुकं बीजादिर- ५ पिण्डैहारि-वृत्तिःहितं चेति सूत्राधेः ॥ ८२ ॥ तत्र 'अणुन्नवित्ति सूत्रं, 'अनुज्ञाप्य' सागारिकपरिहारतो विश्रमणण्याजेन त-IIपणाध्य.
स्वामिनमवग्रहं 'मेधावी' साधुः 'प्रतिच्छन्ने तत्र कोष्ठकादौ 'संवृत' उपयुक्तः सन् साधुरीर्याप्रतिक्रमणं कृत्वा । ॥१७८॥
तदनु 'हस्तकं मुखवत्रिकारूपम्, आदायेति वाक्यशेषः, संप्रमृज्य विधिना तेन कायं तत्र भुञ्जीत 'संयतो ४ रागद्वेषावपाकृत्येति सूत्रार्थः ॥ ८३ ॥ 'तत्यत्ति सूत्रं, 'तत्र' कोष्ठकादौ से तस्य साघोर्भुनानस्य अस्थि क& ण्टको वा स्यात्, कथंचिगृहिणां प्रमाददोषात् , कारणगृहीते पुद्गल एवेत्यन्ये, तृणकाष्ठशर्करादि चापि स्यात्,
उचितभोजनेऽन्यदापि तथाविधं बदरकर्कटकादीति सूत्रार्थः ।। ८४॥ 'तं उक्खिवितु' इति सूत्रं, 'तद्'अस्थ्यादि उत्क्षिप्य हस्तेन यत्र कचिन्न निक्षिपेत्, तथा 'आस्येन' मुखेन नोज्झेत्, मा भूद्विराधनेति, अपितु हस्तेन गृहीत्वा तद् अस्थ्यादि एकान्तमवक्रामेदिति सूत्रार्थः ॥ ८५।। 'एगंतत्ति सूत्रं, एकान्तमचक्रम्य अचित्तं प्रत्युपेक्ष्य यतं प्रतिष्ठापयेत्, प्रतिष्ठाप्य प्रतिक्रामेदिति, भावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ।। ८६ ॥
सिआ य भिक्खू इच्छिज्जा, सिजमागम्म भुतु। सपिंडपायमागम्म, उंडुरं पडिलेहिआ॥ ८७ ॥ विणएणं पविसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी । इरियावहियमायाय,
॥१७८॥ आगओ अ पडिकमे ॥ ८८ ॥ आभोइत्ताण नीसेसं, अईआरं जहक्कम । गमणाग
अनुक्रम [१५७-१६१]
**,中式中K*k
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक"-मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८७-९६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||८७-९६||
दीप अनुक्रम [१६२-१७१]
SACROSCORT
मणे चेव, भत्तपाणे व संजए ॥ ८९॥ उजुप्पन्नो अणुव्विग्गो, अव्वक्खित्तेण चेअसा । आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहिरं भवे ॥ ९ ॥न सम्ममालोइअं हुजा, पुचि पच्छा व जं कडं । पुणो पडिक्कमे तस्स, वोसट्टो चिंतए इमं ॥ ९१ ॥ अहो जिणेहिं असावज्जा, वित्ती साहण देसिआ। मुक्खसाहणहे उस्स, साहुदेहस्स धारणा ॥९२॥ णमुक्कारेण पारित्ता, करिता जिणसंथवं । सज्झायं पटुवित्ता णं, वीसमेज खणं मुणी ॥ ९३ ॥ वीसमंतो इमं चिंते, हियम, लाभमस्सिओ। जइ मे अणुग्गहं कुज्जा, साहू हुज्जामि तारिओ ॥९४॥ साहवो तो चिअत्तेणं, निमंतिज जहक्कम । जइ तत्थ केइ इच्छिज्जा, तेहिं सद्धिं तु भुंजए ॥ ९५ ॥ अह कोई न इच्छिज्जा, तओ भुंजिज्ज
एक्कओ। आलोए भायणे साहू, जयं अप्परिसाडियं ॥ ९६ ॥ वसतिमधिकृत्य भोजनविधिमाह-'सिआ यत्ति सूत्रं, 'स्थात् कदाचित् तदन्यकारणाभावे सति भिक्षुरिच्छेत् ‘शय्यां वसतिमागम्य परिभोक्तुं, तत्रायं विधिः-सह पिण्डपातेन-विशुद्धसमुदानेनागम्य, वसति
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक"-मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८७-९६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
५पिण्डै
सूत्रांक
दशवैका हारि-वृत्ति ॥१७९॥
षणाध्य० १ उद्देशः
||८७
-९६||
दीप अनुक्रम [१६२-१७१]
मिति गम्यते, तन्त्र बहिरेवोन्दुकं-स्थानं प्रत्युपेक्ष्य विधिना तत्रस्थः पिण्डपातं विशोधयेदिति सूत्रार्थः॥८॥ तत ऊर्व 'विणएण'त्ति सूत्रं, विशोध्य पिण्डं बहिः 'विनयेन नैषेधिकीनमाक्षमाश्रमणेभ्योऽञ्जलिकरणलक्ष- णेन प्रविश्य, वसतिमिति गम्यते, सकाशे गुरोः मुनिः, गुरुसमीप इत्यर्थः, इपिथिकामादाय "इच्छामि |पडिमिउं इरियावहियाए” इत्यादि पठित्वा सूत्र, आगतश्च गुरुसमीपं प्रतिक्रामेत्-कायोत्सर्ग कुर्यादिति सूत्रार्थः ॥ ८८॥ 'आभोइत्ताण'त्ति सूत्रं, तत्र कायोत्सर्गे 'आभोगयित्वा' ज्ञाखा निःशेषमतिचारं 'यथाक्रम परिपाट्या, केत्याह-गमनागमनयोश्चैव' गमने गच्छत आगमन आगच्छतो योऽतिचारः तथा 'भक्तपानयोश्च' भक्त पाने च योऽतिचारः तं 'संयतः साधुः कायोत्सर्गस्थो हृदये स्थापयेदिति सूत्रार्थः ॥ ८९॥ विधिनोत्सारिते चैतस्मिन् 'उज्जुप्पन्न'त्ति सूत्रं, 'ऋजुप्रज्ञः' अकुटिलमतिः सर्वत्र 'अनुद्विनः क्षुवादिजयात्म-| शान्तः अव्याक्षिप्तेन चेतसा, अन्यत्रोपयोगमगच्छतेत्यर्थः, आलोचयेद्गुरुसकाशे, गुरोर्निवेदयेदिति भावः, 'यदू' अशनादि 'यथा' येन प्रकारेण हस्तदा (धाव) नादिना गृहीतं भवेदिति सूत्रार्थः ॥१०॥ तदनु च 'न संमति सूत्र, न सम्यगालोचितं भवेत् सूक्ष्मम् अज्ञानात्-अनाभोगेनाननुस्मरणाद्वा, पूर्व पश्चादा यस्कृतं, पुरको पश्चात्कर्म वेत्यर्थः, 'पुनः' आलोचनोत्तरकालं प्रतिक्रामेत् 'तस्य' सूक्ष्मातिचारस्य 'इच्छामि पडिकमिउं गोअरचरिआए, इत्यादि सूत्रं पठित्वा 'व्युत्सृष्टः' कायोत्सर्गस्थश्चिन्तयेदिद-वक्ष्यमाणलक्षणमिति सूत्रार्थः॥११॥ 'अहो जिणेहिं' सूत्रं, 'अहो' विस्मये 'जिन' तीर्थकरैः 'असावद्या' अपापा 'वृत्तिः' वर्तना साधूनां दर्शिता|
॥१७९॥
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||८७-९६|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||८७
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दीप अनुक्रम [१६२-१७१]
देशिता या 'मोक्षसाधनहेतोः सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रसाधनस्य साधुदेहस्य 'धारणाय' संधारणार्थमिति| सूत्रार्थः ॥ ९२ ॥ ततश्च णमोकारेण'त्ति सूत्रं, नमस्कारेण पारयित्या 'नमो अरिहंताण'मित्यनेन, कृत्वा | जिनसंस्तवं "लोगस्सुजोअगरे" इत्यादिरूपं, ततो न यदि पूर्व प्रस्थापितस्ततः खाध्यायं प्रस्थाप्य मण्डल्युपजीवकस्तमेव कुर्यात् यावदन्य आगच्छन्ति, य: पुनस्तदन्यः क्षपकादिः सोऽपि प्रस्थाप्य विश्राम्येत् 'क्षणं स्तोककालं मुनिरिति सूत्रार्थः ॥ ९३ ॥ 'वीसमंत'त्ति सूत्रं, विश्राम्यन्निदं चिन्तयेत् परिणतेन चेतसा,-हित कल्याणप्रापकमर्थ-वक्ष्यमाणं, किंविशिष्टः सन् ?-भावलाभेन-निर्जरादिनाऽर्थोऽस्येति लाभार्थिकः, यदि में मम अनुग्रहं कुर्युः साधवः प्रासुकपिण्डग्रहणेन ततः स्यामहं तारितो भवसमुद्रादिति सूत्रार्थः ॥ ९४ ॥ एवं संचिन्त्योचितवेलायामाचार्यमामब्रयेद्, यदि गृह्णाति शोभनं, नो चेद्वक्तव्योऽसौ भगवन् ! देहि केभ्योऽप्यतो यद्दातव्यं, ततो यदि ददाति सुन्दरम् , अथ भणति त्वमेव प्रयच्छ, अत्रान्तरे-'साहवोत्ति सूत्रं, साधूंस्ततो , गुर्वनुज्ञातः सन् 'चिअत्तेणं'ति मन:प्रणिधानेन निमअयेत् 'यथाक्रम' यथारनाधिकनया, ग्रहणौचित्यापेक्षया बालादिक्रमेणेत्यन्ये, यदि तत्र 'केचन' धर्मवान्धवाः 'इच्छेयुः अभ्युपगच्छेयुस्ततस्तैः सार्धं भुञ्जीत उचितसं-1 विभागदानेनेति सूत्रार्थः ॥९४-९५।। 'अह कोईत्ति सूत्रं, अथ कश्चिन्नेच्छेत् साधुस्ततो भुञ्जीत 'एकको' रागा-11
दिरहित इति, कथं भुञ्जीतेत्यत्राह-आलोके भाजने मक्षिकाद्यपोहाय प्रकाशप्रधाने भाजन इत्यर्थः 'साधुः। 18|| प्रवजितः 'यतं' प्रयत्नेन तन्नोपयुक्तः 'अपरिशाट' हस्तमुखाभ्यामनुजझन् इति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥
4%b24note
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||९७
-१००||
दीप
अनुक्रम
[१७२
-१७५]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९७-१००|| निर्युक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवेका० हारि-वृत्तिः
।। १८० ।।
तित्तगं व कडुअं व कसायं, अंबिलं व महुरं लवणं वा । एअलद्धमन्नत्थ पउत्तं, महुघयं व भुंजिज संजए ॥ ९७ ॥ अरसं विरसं वावि, सूइअं वा असूइअं । उलं वा जड़वा सुकं, मधुकुम्मासभोअणं ॥ ९८ ॥ उप्पवणं नाइहीलिजा, अप्पं वा बहु फासु। मुहालद्धं मुहाजीवी, भुंजिज्जा दोसवज्जिअं ॥ ९९ ॥ दुलहा उ मुहादाई, मुहाजीवि दुहा। मुहादाई मुहाजीवी, दोऽवि गच्छति सुग्गई ॥ १०० ॥ ति बेमि । पिंडेसणाए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ १ ॥
भोज्यमधिकृत्य विशेषमाह - तित्तगं वत्ति सूत्रं, तिक्तकं वा एलुकवालुङ्कादि, कटुकं वा आर्द्रकतीमनादि, कषायं बल्लादि, अम्लं तक्रारनालादि, मधुरं क्षीरमध्वादि, लवणं वा प्रकृतिक्षारं तथाविवं शाकादि लवणोत्कटं वाऽन्यत्, एततिक्तादि 'लब्धम्' आगमोक्तेन विधिना प्राप्तम् 'अन्यार्थम्' अक्षोपाङ्गन्यायेन परमार्थतो मोक्षार्थं प्रयुक्तं तत्साधकमितिकृत्वा मधुघृतमिव च भुञ्जीत संयतः, न वर्णाद्यर्थम्, अथवा मधुष्टतमिव 'णो वामाओ हणुआओ दाहिणं हणुअं संचारेज'ति सूत्रार्थः ॥ ९७ ॥ किंच- 'अरसंति सूत्रं, अर१ द्रवत्वात् यथाशीघ्र जेव्यते तथा. २ न वामादनुनी दक्षिण हनु संचारयेत्
भोज्यं अधिकृत्य विशेष उपदेश:
Forte & Personal Use City
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५ पिण्डैपणाध्य०
१ उद्देशः
॥ १८० ॥
brary dig
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९७-१००|| नियुक्ति: २४४..., भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
*
सूत्रांक
||९७-१००||
45*5
RECAXECTSC
दीप
सम्-असंप्राप्तरसं हिङ्ग्वादिभिरसंस्कृतमित्यर्थः, 'विरसं वापि' विगतरसमतिपुराणौदनादि 'सूचित व्यअनादियुक्तम् 'असूचितं वा तद्रहितं वा, कथयित्वा अकथयित्वा वा दत्तमित्यन्ये, 'आ' प्रचुरव्यञ्जनम् , यदिचा शुष्कं स्तोकव्यञ्जनं वा, किं तदित्याह-'मन्थुकुल्माषभोजनं' मन्धु-बदरचूर्णादि कुल्माषा:-सिभाषा:, यवमाषा इत्यन्ये इति सूत्रार्थः ॥ ९८ ॥ एतद्भोजनं किमित्याह-उप्पण्ण'ति सूत्रं, 'उत्पन्नं विधिना प्रासं 'नातिहीलयेत् सर्वथा न निन्देत् , अल्पमतन्न देहपूरकमिति किमनेन ?, बहु वा असारप्रायमिति, वा
शब्दस्य व्यवहितः संवन्धः, किंविशिष्टं तदित्याह-प्रासुक' प्रगतासु निर्जीवमित्यर्थः, अन्ये तु व्याचक्षते AI-अल्पं वा, वाशब्दाद्विरसादि वा, बहुप्रामुक-सर्वथा शुद्धं नातिहीलयेदिति, अपि वेवं भावयेत्-यदेवेह | |लोका ममानुपकारिणः प्रयच्छन्ति तदेव शोभनमिति । एवं 'मुधालब्ध' कोण्ट लादिव्यतिरेकेण प्राप्त 'मुधाजीवी' सर्वथा अनिदानजीवी, जात्यायनाजीवक इत्यन्ये, भुञ्जीत 'दोषवर्जितं' संयोजनादिरहितमिति सू-14 त्रार्थः ॥ ९९ ॥ एतदुरापमिति दर्शयति–'दुल्लहत्ति, दुर्लभा एव मुधादातारः, तथाविधभागवतवत्, मुधाजीविनोऽपि दुर्लभाः, तथाविधचेल्लकवत् । अमीषां फलमाह-मुधादातारो मुधाजीविनश्च द्वावप्येती गच्छतः 'सुगति' सिद्धिगति कदाचिदनन्तरमेव कदाचिदेवलोकसुमानुषप्रत्यागमनपरम्परया । ब्रवीमीति |पूर्ववत् । अत्र भागवतोदाहरणम्-जहाँ एगो परिव्यायगो सो एग भागवयं उपढिओ, अहं तव गिहे
१ यथैकः परिमानकः, स एक भागवतमुपस्थितः, अहं तव गृहे
अनुक्रम [१७२-१७५]
*352
दश. ३१
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९७-१००|| नियुक्ति: २४४..., भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||९७-१००||
दीप
दशबैका बरिसारत्तं करेमि, मम उदंतं वहाहि, तेण भणिओ-जइ मम उदंतं न वहसि, एवं हवउ ति।सो से भागवओ ५ पिण्डैहारि-वृत्तिः सेजभत्तपाणादिणा उदंतं वहति । अन्नया य तस्स घोडओ चोरोहिं हिओ, अतिप्पभायंतिकाऊण जालीए भाषणाध्य.
Vबद्धो, सो अ परिब्बायगो तलाए पहायओ गओ, तेण सो घोडओ दिहो, आगंतुं भणइ-मम पाणीयतडे १ उद्देश ॥१८॥ पापोती चिस्सरिया, गोहो विसजिओ, तेण घोडओ दिट्ठो, आगंतुं कहिये, तेण भागवएण णायं, जहा-परि-12
व्वायगेण कहियं । तेण परिव्वायगो भण्णति-जाहि, णाहं तव णिब्बिर्ट उदंतं वहामि, णिग्विद अप्पफलं
भवति । एरिसो मुधादाई ।। मुधाजीविमि उदाहरणं-एको राया धम्म परिक्खई, को धम्मो ?, जो अणिव्विर्ट हाभुंजइ ति, तोतं परिक्खामित्ति काऊण मणुस्सा संदिट्ठा, राया मोदए देह, तस्थ बहवे कप्पडियादयो|
आगया, पुच्छिशति-तुम्हे केण भुंजह ?, अन्नो भणइ-अहं मुहेण भुंजामि, अन्नो-अहं पाएहिं, अन्नो-अहं हत्थेहि, अन्नो-अहं लोगाणुग्गहेण, चेल्लगो भणइ-अहं मुहियाए । रण्णा पुच्छिअं-कहं चि, एगेण
वर्षारानं करोमि ममोदन्तं यह, तेन भपितः यदि ममोदन्तं न वह सि, एवं भवरिवति, सभागवतस्तस्मै शय्याभकपानादिनोदन्तं वहति । अन्यदा च तख पोटकबीरतः, अतिप्रभातमितिकृत्वा जाल्या बद्धः, सच परिव्राजकस्तटाके नातं गतः, तेन स घोटको स्टः, भागल भणति-मम पोतिका पानीयतटे
विस्मृता, कर्मको विसृष्टः, तेन घोटको दृष्टः, भागय कथितं । टेन भागवतेन ज्ञातं, यथा-परिमाजकेन कथितं । तेन परिवाजको भष्यते-याहि, नाई तव सानिविष्ट (ससेवं) उदन्तं बहामि, निश्मिल्पफल भवति । ईदशो मुपादायी। मुभाजीचिन्युदाहरणम्-एको राजा धर्म परीक्षते, को धर्मः ।, योनिविष्ट भुइतिIX
॥१८१॥ ततखत परीक्षे इतिकृत्वा मनुष्याः संदिष्टः, राजा मोदकान् ददाति, तत्र बहाः काठिकादब आगताः, पृच्छयन्ते-यूर्व केन भुवम् ?, अन्यो भणति--अहं मुखेन भुजे, अन्यः-अहं पादाभ्याम् , अन्यः-अहं हस्ताभ्याम्, अन्यः-अई लोकानुग्रहेण, शुरुको भणति-अई मुधिकया । राज्ञा पृष्-कथमेव है, एकेन
अनुक्रम [१७२-१७५]
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||९७-१००|| नियुक्ति: २४४..., भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||९७-१००||
कहिअं-अहं कहगो अओ मुहेण, अण्णेण भणिअं-अहं लेहवाहगो अओ पाएहिं, अण्णेण भणिअं-अहं लेहगो । अओ हत्थेहि, भिक्खुणा भणि-अहं पब्बइओ अओ लोगाणुग्गहेण, चेल्लएण भणि-अहं संजायसंसारविरागो अओ मुहियाए, ताहे सो राया एस धम्मोत्तिकाऊण आयरियसमीवं गओ, पडिबुद्धो पब्व-18 इओ य । एसो मुहाजीवित्ति मूत्रार्थः॥ १०॥
इति श्रीहरिभद्सरिविरचितायां दशवकालिकवृत्तौ पिण्डैषणाध्ययनस्य प्रथमोदेशकः॥१॥
दीप
अनुक्रम [१७२-१७५]
पडिग्गहं संलिहिता णं, लेवमायाए संजए । दुगंधं वा सुगंधं वा, सव्वं भुंजे न
छड्डुए ॥१॥ पिण्डैषणायाः प्रथमोदशके प्रक्रान्तोपयोगि यन्नोक्तं तदाह-पडिग्गह'ति सूत्रं, 'प्रतिग्रह भाजनं 'संलिख्य' प्रदेशिन्या निरवयवं कृत्वा, कथमित्याह-लेपमर्यादया' अलेपं संलिहा 'संयतः साधुः दुर्गन्धि वा
१ कथितम्-अहं कथकः अतो मुखेन, अन्येन भगितम्-नई लेख्वाहकः अतः पादाभ्यां, अन्येन भणितम्-अहं लेखकोऽतो हस्ताभ्याम् , अन्येन भणितम्-नई भिक्षुरतो लोकानुग्रहेग, शुक्रकेन भनितम्-अहं संजातसंसारवैराम्योऽतो मुधिकया । तदा स राजा एष धर्म इतिकरवाचार्यसमीपं गतः, प्रतिबुद्धः प्रवजितच, एष मुघाजीवीति.
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अत्र पञ्चम-अध्ययने प्रथम-उद्देशक: समाप्त: एवं वितिय उद्देशक: आरम्भ:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं+निर्युक्तिः+ भाष्य + वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा || १ || निर्युक्ति: [ २४४ ...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः * ॥ १८२ ॥
सुगन्धि वा भोजनजातं, गन्धग्रहणं रसानुपलक्षणं, 'सर्व' निरवशेषं 'भुञ्जीत' अश्नीयात् 'नोज्झेत्' नोत्सृजेत् किञ्चिदपि मा भूत्संयमविराधना । अस्यैवार्थस्य गरीयस्त्वख्यापनाय सूत्रार्धयोर्व्यत्ययोपन्यासः, प्रतिग्रहशब्दो माङ्गलिक इत्युद्देशादौ तदुपन्यासार्थं वा, अन्यथैवं स्यात् - दुर्गन्धि वा सुगन्धि वा, सबै भुञ्जीत नोज्शेत् । प्रतिग्रहं संलि लेपमर्यादया संयतः । विचित्रा च सूत्रगतिरिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥
सेज्जा निसीहियाए, समावन्नो अ गोअरे । अयावयट्ठा भुच्चा णं, जइ तेणं न संथरे ॥२॥ तओ कारणमुपपणे, भत्तपाणं गवेसए । विहिणा पुव्वउत्तेणं, इमेणं उत्तरेण य ॥ ३ ॥ विधिविशेषमाह—'सेज्ज'त्ति सूत्रं, 'शय्यायां वसतो 'नैषेधिक्यां' स्वाध्यायभूमौ शय्यैव वाऽसमञ्जसनिषेधान्नषेधिकी तस्यां समापन्नो वा गोचरे, क्षपकादिः छन्नमठादौ अयावदर्थं भुक्त्वा न यावदर्थम् - अपरिसमाप्तमित्यर्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे । यदि तेन भुक्तेन 'न संस्तरेत्' न यापयितुं समर्थः, क्षपको विषमवेळापत्तनस्थो ग्लानो वेति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ 'तओ'त्ति सूत्रं ततः कारणे' वेदनादावुत्पन्ने पुष्टालम्बनः सन् भक्तपानं 'गवेषयेद्' अन्विष्ये (न्वेषयेत्, अन्यथा समृद्धतमेव यतीनामिति 'विधिना' पूर्वोक्तेन संप्राप्ते भिक्षाकाल इत्यादिना, अनेन च वक्ष्यमाणलक्षणेनोत्तरेण चेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥
काले निक्खमे भिक्खू, कालेण य पडिक्कमे । अकालं च विवजित्ता, काले कालं स
शय्या, नैषेधिक्या आदि संबंधी विशेष विधिः प्रदर्श्यते
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५ पिण्डै
पणाध्य०
२ उद्देशः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [१], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४-१३|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||४-१३||
दीप अनुक्रम
SAHEBSITE
मायरे ॥ ४॥ अकाले चरसी भिक्खू , कालं न पडिलेहसि । अप्पाणं च किलामेसि, संनिवेसं च गरिहसि ॥५॥ सइ काले चरे भिक्खू , कुज्जा पुरिसकारिअं। अलाभुत्ति न सोइजा, तवृत्ति अहिआसए ॥ ६॥ तहेवुच्चावया पाणा, भत्तट्टाए समागया । तं उजुअं न गच्छिज्जा, जयमेव परकमे ॥ ७ ॥ गोअरग्गपविट्ठो अ, न निसीइज कस्थई । कहं च न पबंधिज्जा, चिट्टित्ता ण व संजए ॥ ८ ॥ अग्गलं फलिहं दारं, कवाडं वावि संजए । अवलंबिआ न चिट्ठिज्जा, गोअरग्गगओ मुणी ॥९॥ समणं माहणं वावि, किविणं वा वणीमगं । उवसंकमंतं भत्तट्ठा, पाणटाए व संजए ॥१०॥ तमइकमित्तु न पविसे, नवि चिट्टे चक्खुगोअरे । एर्गतमवक्कमित्ता, तत्थ चिट्रिज संजय ॥ ११॥ वणीमगस्स वा तस्स, दायगस्सुभयस्स वा। अप्पत्तिअं सिआ हुजा, लहुत्तं पवयणस्स वा ॥ १२॥ पडिसेहिए व दिन्ने वा, तओ तम्मि नियत्तिए । उवसंकमिज भत्तहा, पाणट्ठाए व संजए ॥ १३॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४-१३|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
पणाध्य २ उद्देशः
||४-१३||
दीप अनुक्रम
दशवैका. 'कालेणीति सूत्र, यो यस्मिन् ग्रामादावुचितो भिक्षाकालस्तेन करणभूतेन 'निष्कामेद'भिक्षुर्वसतेर्भिक्षाय, हारि-वृत्तिः काकालेन चोचितेनैव यावता स्वाध्यायादि निष्पद्यते तावता प्रतिक्रामेत्' निवर्तेत । भर्णिअंच-स्वेतं कालो
भायणं तिन्निवि पहुप्पंति हिंडउत्ति अट्ट भंगा।'अकालं च वर्जयित्वा' येन स्वाध्यायादि न संभाव्यते स ॥ १८ ॥
खल्वकालस्तमपास्य काले कालं समाचरेदिति सर्वयोगोपसंग्रहार्थ निगमनं, भिक्षावेलायां भिक्षा समाचरेत् , खाध्यायादिवेलायां खाध्यायादीनीति, उक्तं च-जोगो जोगो जिणसासणंमी'त्यादि, इति सूत्रार्थः ॥४॥ अकालचरणे दोषमाह-'अकाले त्ति सूत्रं, अकालचारी कश्चित् साधुरलब्धभैक्षः केनचित् साधुना प्राप्ता भिक्षा नवेत्यभिहितः सन्नेचं ब्रूयात्-कुतोऽत्र स्थण्डिलसंनिवेशे भिक्षा?, स तेनोच्यते-अकाले चरसि भिक्षो ! प्रमासादात्वाध्यायलोभादा, कालं न प्रत्युपेक्षसे, किमयं भिक्षाकालो नवेति, अकालचरणेनात्मानं च ग्लपयसि दादीघाटनन्यूनोदरभावेन, संनिवेशं च गर्हसि भगवदाज्ञालोपतो दैन्यं प्रतिपयेति सत्रार्थः॥५॥ यस्मादयं दोषः। संभाव्यते तस्मादकालाटनं न कुर्यादिति । 'सति'त्ति सूत्रं, 'सति' विद्यमाने 'काले भिक्षासमये चरेद्भिक्षुः, अन्ये तु व्याचक्षते-स्मृतिकाल एव भिक्षाकालोऽभिधीयते, स्मर्यन्ते यत्र भिक्षाकाः स स्मृतिकालस्तमिन, 'चरेभिक्षुः भिक्षार्थ यायात्, कुर्यात् पुरुषकारं, जवाबले सति वीर्याचारं न लयेत्। तत्र चालाभेऽपि भिक्षाया |अलाभ इति न शोचयेद्, वीर्याचाराराधनस्य निष्पन्नत्वात् , तदर्थं च भिक्षाटनं नाहारार्थमेवातो न शोचेत्,
१ भणितं च-क्षेत्र कालो भाजनं त्रीण्यपि प्रभवन्ति हिण्डमानस्पेसटी भन्नाः २ योगो योगो जिनशासने.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४-१३|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||४-१३||
अपितु तप इत्यधिसहेत, अनशनन्यूनोदरतालक्षणं तपो भविष्यतीति सम्पग्विचिन्तयेदिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ है उक्ता कालयतना, अधुना क्षेत्रयतनामाह-तहेवत्ति, तथैव 'उच्चावचाः' शोभनाशोभनभेदेन नानाप्रकाराः
प्राणिनो भक्ता समागता बलिप्राभृतिकादिष्वागता भवन्ति, 'तहजुक' तेषामभिमुखं न गच्छेत् , तत्संत्रासनेनान्तरायाधिकरणादिदोषात्, किंतु यतमेव पराक्रामेत् , तदुद्वेगमनुत्पादयन्निति सूत्रार्थः ॥७॥ किं च 'गोअरगत्ति सूत्रं, गोचराग्रप्रविष्टस्तु भिक्षार्थ प्रविष्ट इत्यर्थः 'न निषीदेत् नोपविशेत् 'कचिदू' गृहदेवकुलादी, संयमोपघातादिप्रसङ्गात्, 'कथांच'धर्मकथादिरूपां 'न प्रबध्नीयात् प्रबन्धेन न कुर्यात्, अनेनैकव्याकरणकज्ञातानुज्ञामाह, अत एवाह-स्थित्वा कालपरिग्रहेण संयत इति, अनेषणाद्वेषादिदोषप्रसंगादिति सूत्रार्थः॥८॥ उक्ता क्षेत्रयतना, द्रव्ययतनामाह-'अग्गलं'ति सूत्रं, 'अगलं' गोपुरकपाटादिसंवन्धिनं परिघ नगरद्वारादिसंबन्धिनं 'द्वार शाखामयं 'कपाई' द्वारयनं वाऽपि संयतः अवलम्ब्य न तिष्ठेत् , लाघवविराधनादोषात्,
गोचराग्रगतो' भिक्षाप्रविष्टा, मुनिः संयत इति पर्यायौ तदुपदेशाधिकाराददुष्टायेवेति सूत्रार्थः॥९॥ उक्ता द द्रव्ययतना, भावयतनामाह-'समर्ण ति सूत्र, 'श्रमणं' निर्ग्रन्थादिरूपं, 'ब्रामण' धिग्वर्ण वापि 'कृपणं
वा' पिण्डोलकं 'वनीपर्क' पश्चा(नां वनीपका)नामप्यन्यतमम् 'उपसंक्रामन्तं सामीप्येन गच्छन्तं गतं वा भतार्थ पानार्थ वा 'संयतः' साधुरिति सूत्रार्थः ॥ १० ॥'त'मिति सूत्रं, 'त' श्रमणादिम् 'अतिक्रम्य' उल्लङ्य न प्रविशेत्, दीयमाने च समुदाने तेभ्यो न तिष्ठेच्चक्षुर्गोचरे । कस्तत्र विधिरित्याह-एकान्तमवक्रम्य तत्र ति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४-१३|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका हारि-वृत्तिः
५ पिण्डैषणाध्य. उद्देशः
सूत्रांक
||४-१३||
दीप अनुक्रम
छेत् संयत इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ अन्यथते दोषा इत्याह-वणीमगरस'त्ति सूत्र, 'वनीपकस्य वा तस्येत्येत- च्छ्रमणागुपलक्षणं, दातुर्वा उभयोा अप्रीतिः कदाचित् स्यात्-अहो अलोकज्ञतेतेषामिति, लघुत्वं प्रवचनस्य वाऽन्तरायदोषश्चेति सूत्रार्थः॥१२॥ तस्मान्नैवं कुर्यात्, किंतु-पडिसेहिअति सूत्रं, प्रतिषिद्धे वा दत्ते वा ततः' स्थानात् 'तस्मिन् वनीपकादौ निवर्तिते सति उपसंक्रामेद्भतार्थ पानार्थं वापि संयत इति सूत्रार्थः॥१३॥
उप्पलं पउमं वावि, कुमुअं वा मगदंतिअं । अन्नं वा पुप्फसच्चित्तं, तं च संलुंचिआ दए ॥ १४ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पिरं । दितिअं पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥१५॥ उप्पलं पउमं वावि, कुमुअं वा मगदंतिअं । अन्नं वा पुष्फसञ्चित्तं, तं च संमद्दिआ दए ॥ १६ ॥ तं भवे भत्तपाणं तु, संजयाण अकप्पि। दिति पडिआइक्खे, न मे कप्पइ तारिसं ॥ १७॥ सालुअं वा विरालिअं, कुमुअं उप्पलनालि। मुणालिअं सासवनालिअं, उच्छृखंडं अनिव्वुडं ॥ १८ ॥ तरुणगं वा पवालं, रुक्खस्स तणगस्स वा । अन्नस्स वावि हरिअस्स, आमगं परिवजए ॥ १९ ॥ तरुणिों वा छिवाडिं, आमिअं भजिअं सई। दितिअं पडिआइक्खे,
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१४-२४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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प्रत सूत्रांक ||१४-२४||
न मे कप्पइ तारिसं ॥ २०॥ तहा कोलमणुस्सिन्नं, वेल्लुअं कासवनालिअं। तिलपप्पडगं नीम, आमगं परिवज्जए ॥ २१ ॥ तहेव चाउलं पिटुं, विअडं वा तत्तऽनिव्वुडं । तिलपिट्टाइपिन्नागं, आमगं परिवजए ॥ २२ ॥ कविटुं माउलिंगं च, मूलगं मूलगत्तिअं । आमं असत्थपरिणयं, मणसावि न पत्थए ॥ २३ ॥ तहेव फलमंथूणि, बीअ
मंचणि जाणिआ। बिहेलगं पियालं च, आमगं परिवजए ॥ २४ ॥ परपीडाप्रतिषेधाधिकारादिदमाह-'उप्पलं ति सूत्रं, 'उत्पलं' नीलोत्पलादि 'पद्मम्' अरविन्दं वापि । 'कमदं वा गईभकं वा 'मगदन्तिका मेत्तिका, मल्लिकामित्यन्ये, तथाऽन्यदा पुष्पं सचि-शाल्मलीपु-ला पादि, तच 'संलुक्य' अपनीय छित्त्वा दद्यादिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥'तारिसंति सूत्रं, तादृशं भक्तपानं तु संयतानामकल्पिकं, यतश्चैवमतो ददती प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते ताशमिति सूत्रार्थः ॥ १५॥ एवं तच संमृद्य दयात्, संमर्दनं नाम पूर्वच्छिन्नानामेवापरिणतानां मर्दनं, शेषं सूत्रद्वयेऽपि तुल्यम् । आह-एतत्पूर्वमप्युक्तमेव-'संमद्दमाणी पाणाणि वीआणि हरिआणि अ' इत्यत्र, उच्यते, उक्तं सामान्येन विशेषाभिधा-12 नाददोषः ॥१६-१७ ॥ तथा 'सालु'ति सूत्रं, 'शालूकं वा' उत्पलकन्दं 'विरालिकां' पलाशकन्दरूपां, पर्वव
दीप अनुक्रम [१८९-१९९]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१४-२४|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
Kापणा
||१४
-२४||
दशवैका.
ल्लिप्रतिपर्ववल्लिप्रतिपर्वकन्दमित्यन्ये, कुमुदोत्पलनालौ प्रतीती, तथा 'मृणालिका पद्मिनीकन्दोत्यां 'सर्षपना- ID५पिण्डेहारि-वृत्तिः
लिका सिद्धार्थकमञ्जरी तथा इक्षुखण्डम् 'अनिवृत' सचित्तम् । एतच्चानिर्धतग्रहणं सर्वत्राभिसंबध्यत इति ॥ १८५॥ सूत्रार्थः ॥ १८॥ किंच-तरुणयंति सूत्रं, तरुणं वा 'प्रवाल' पल्लवं 'वृक्षस्य चिश्चिणिकादेः तृणस्य वा' म
धुरतणादेः अन्यस्य वापि हरितस्य आर्यकादेः 'आमम्' अपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ तथा'तरुणिति सूत्र, 'तरुणां वा असंजातां 'छिवाडिमिति मुगादिफलिम् 'आमाम्' असिद्धां सचेतना, तथा भर्जितां 'सकृद्' एकवारं, ददतीं प्रत्याचक्षीत न मम कल्पते तादृशं भोजनमिति सूत्रार्थः ॥ २०॥'तहा कोलंति सूत्रं, तथा 'कोलं' बदरम् 'अखिन्नं' वह्नयुदकयोगेनानापादितविकारान्तर, 'वेणुक' वंशकरिल्लं 'कासवनालिअं श्रीपर्णीफलम् , अखिन्नमिति सर्वत्र योज्यं, तथा 'तिलपर्पट' पिष्टतिलमयम् 'नीमं नीमफलमाम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २१॥ तहेव'त्ति सूत्रं, तथैव तान्दुलं पिष्टं, लोहमित्यर्थः, विकटं वा-शुद्धोदक तथा तप्तनिवृतं कथितं सत् शीतीभूतम् , तप्सानिवृतं वा-अप्रवृत्तत्रिदण्ड, तिलपिष्टं-तिललोई, 'पूतिपिण्यार्क'
सर्षपखलमाम परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २२॥ कविढ'ति सूत्रं, 'कपित्थं कपित्थफलं, 'मातुलिङ्गं च' बीजKI पूरकं, 'मूलकं' सपत्रजालक 'मूलवर्तिका मूलकन्दचक्कलिम् 'आमाम्' अपकामशस्त्रपरिणतां स्वकायशस्त्रालादिनाविध्वस्ताम् , अनन्तकायत्वाद्गुरुत्वख्यापनार्थमुभयं, मनसापि न प्रार्थयेदिति सूत्रार्थः ॥२३॥ तहेवत्ति
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[भाग-३४] “दशवैकालिक"-मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||२५-२८|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||२५-२८||
सूत्रं, तथैव 'फलमन्थून्' बदरचूर्णान् 'बीजमन्यून' यवादिचूर्णान् ज्ञात्वा प्रवचनतो 'विभीतक' विभीतकफल 'प्रियालं वा' प्रियालफलं च 'आमम्' अपरिणतं परिवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥
समुआणं चरे भिक्खू , कुलमुच्चावयं सया। नीयं कुलमइक्कम्म, ऊसढं नाभिधारए ॥२५॥ अदीणो वित्तिमेसिज्जा, न विसीइज पंडिए । अमुच्छिओ भोअणमि, मायपणे एसणारए ॥ २६ ॥ बहुं परघरे अत्थि, विविहं खाइमसाइमं । न तत्थ पंडिओ कुप्पे, इच्छा दिज परो न वा ॥ २७ ॥ सयणासणवत्थं वा, भत्तं पाणं व संजए ।
अदितस्स न कुप्पिज्जा, पञ्चक्खेवि अ दीसओ ॥ २८॥ | विधिमाह-समुआण'ति सूत्र, समुदानं भावभक्ष्यमाश्रित्य चरेद्रिक्षुः, केत्याह-कुलमुचावचं सदा, अगर्हितत्वे सति विभवापेक्षया प्रधानमप्रधानं च, यथापरिपाट्येव चरेत् 'सदा' सर्वकालं, नीचं कुलमतिक्रम्य विभवापेक्षया प्रभूततरलाभार्थम् 'उत्सृतम्' ऋद्धिमत्कुलं 'नाभिधारयेत्' न यायात, अभिष्वङ्गलोकलाघवादिप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥२५॥ किंच-अदीण'त्ति सूत्र, 'अदीनों' द्रव्यदैन्यमङ्गीकृत्याम्लानवदनः 'वृत्ति' वर्सनम् 'एषयेद्' गवेषयेत्, 'न विषीदेदू' अलाभे सति विषादं न कुर्यात् 'पण्डितः साधुः 'अमूञ्छितः'
दीप अनुक्रम [२००-२०३]
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||२५
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अनुक्रम
[२००
२०३]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [ २ ], मूलं [ १५...] / गाथा ||२५-२८|| निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ १८६ ।।
Jan Education in
अगृद्धो भोजने, लाभे सति मात्राज्ञ आहारमात्रां प्रति 'एषणारतः' उद्गमोत्पादनेषणापक्षपातीति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ एवं च भावयेत् -'बहुं'ति सूत्रं, 'बहु' प्रमाणतः प्रभूतं 'परगृहे' असंयतादिगृहेऽस्ति 'विविधम् अनेकप्रकारं खायं खायम्, एतचाशनाद्युपलक्षणं, 'न तत्र पण्डितः कुप्येत्' सदपि न ददातीति न रोषं कु र्यात्, किंतु- इच्छया दद्यात् परो न वेति इच्छा परस्य, न तन्त्रान्यत् किञ्चिदपि चिन्तयेद्, सामायिकबाधनादिति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ एतदेव विशेषेणाह - 'सयण' ति सूत्रं शयनासनवस्त्रं चेत्येकवद्भावः भक्तं पानं वा संयतोऽददतो न कुप्येत् तत्स्वामिनः, प्रत्यक्षेऽपि च दृश्यमाने शयनासनादाविति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥
इत्थि पुरिसं वावि, डहरं वा महल्लगं । वंदमाणं न जाइज्जा, नो अ णं फरुसं वए
॥ २९ ॥ जे न वंदे न से कुप्पे, वंदिओ न समुकसे । एवमन्नेसमाणस्त, सामपणमचिट्ठ ॥ ३० ॥
'इत्थिति सूत्रं, स्त्रियं वा पुरुषं वापि, अपिशब्दात्तथाविधं नपुंसकं वा, 'डहरं' तरुणं 'महल्लकं वा' वृद्धं वा, वाशब्दान्मध्यमं वा, वन्दमानं सन्तं भद्रकोऽयमिति न याचेत, विपरिणामदोषात्, अन्नाद्यभावेन याचितादाने न चैनं परुषं ब्रूयात्-वृथा ते वन्दनमित्यादि, पाठान्तरं वा वन्दमानो न याचेत लल्लिव्याकरणेन । शेषं पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २९ ॥ तथा-'जेण वंदित्ति सूत्रं यो न वन्दते कश्विद्गृहस्थादिः न तस्मै
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५ पिण्डै
षणाध्य०
२ उद्देशः
॥ १८६ ॥
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||२९
-३०||
दीप
अनुक्रम
[२०४
-२०५]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [ २ ], मूलं [ १५...] / गाथा ||२९-३०|| निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दश० ३२
कुप्येत् तथा वन्दितः केनचिनृपादिना न समुत्कर्षेत् । 'एवम्' उक्तेन प्रकारेण 'अन्वेषमाणस्य' भगवदाज्ञामनुपालयतः श्रामण्यमनुतिष्ठत्यखण्डमिति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥
सिआ एगइओ लखुं, लोभेण विणिगृहइ । मामेयं दाइयं संतं, दद्दणं सयमायए ॥ ३१ ॥ अत्तट्ठा गुरुओ लुद्धो, बहुं पावं पकुव्वइ । दुत्तोसओ अ सो होइ, निव्वाणं च न गच्छइ ॥ ३२ ॥ सिआ एगइओ लहुं, विविहं पाणभोअणं । भहगं भद्दगं भुच्चा, विवन्नं विरसमाहरे ॥ ३३ ॥ जाणंतु ता इमे समणा, आययट्ठी अयं मुणी । संतुो सेव पंतं, लहवित्ती सुतोसओ ॥ ३४ ॥ पूअणट्टा जसोकामी, माणसम्माणकामए । बहु पवई पावं, मायासलं च कुव्वइ ॥ ३५ ॥
स्वपक्षस्तेयप्रतिषेधमाह - 'सिअ'त्ति सूत्रं, 'स्यात्' कदाचिदू 'एकः' कश्चिदत्यन्तजघन्यो लब्ध्वोत्कृष्टमाहारं 'लोभेन' अभिष्वङ्गेण 'विनिगूहते' अहमेव भोक्ष्य इत्यन्तप्रान्तादिनाऽऽच्छादयति-किमित्यत आह-मा मम 'इदं' भोजनजातं दर्शितं सद्दृष्ट्वाऽऽचार्यादिः “स्वयमादद्याद्' आत्मनैव गृह्णीयादिति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ अस्य दोषमाह - 'अत्त'ति सूत्रं, आत्मार्थ एव जघन्यो- गुरुः पापप्रधानो यस्य स आत्मार्थगुरुर्लुग्धः
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||३१-३५|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||३१-३५||
दीप
दशकापसन् क्षुद्रभोजने 'बहु' प्रभूतं पापं करोति, मायया दारिद्रं कर्मेत्यर्थः, अयं परलोकदोषः, इहलोकदोषमाह- ५ पिण्डै. हारि-वृत्तिः 'दुस्तोषश्च भवति' येन केनचिदाहारेणास्य क्षुद्रसत्वस्य तुष्टिः कर्तुं न शक्यते, अत एव 'निर्वाणं च न पणाध्य.
गच्छति इहलोक एव धृतिं न लभते, अनन्तसंसारिकत्वाद्वा मोक्षं न गच्छतीति सूत्रार्थः ॥३२॥ एवं यः २ उद्देशः ॥१८७॥
प्रत्यक्षमपहरति स उक्तः, अधुना यः परोक्षमपहरति स उच्यते-सित्ति सूत्र, स्यादेको लब्ध्वेति | | पूर्ववत्, 'विविधम् अनेकप्रकारं पानभोजनं भिक्षाचर्यागत एव 'भद्रकं भद्रक' घृतपूर्णादि भुक्त्वा 'विवर्ण विगतवर्णमाम्लखलादि 'विरसं' विगतरसं-शीतौदनादि 'आहरेद्' आनयेदिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ स किमर्थमेवं कुर्यादित्यत आह-जाणंतु'त्ति सूत्रं, जानन्तु तावन्मां 'श्रमणाः शेषसाधयो यथा 'आयतार्थी
मोक्षार्थी अयं 'मुनि' साधुः 'संतुष्टो' लाभालाभयोः समः सेवते 'प्रान्तम्' असारं रूक्षवृत्तिः' संयमवृत्ति है 'सुतोष्या' येन केनचित्तोष नीयत इति सूत्रार्थः ॥ ३४॥ एतदपि किमर्थमेवं कुर्यात्तत्राह-'पूअणट्ठत्ति
सूत्र, 'पूजार्थम्' एवं कुर्वतः खपक्षपरपक्षाभ्यां सामान्येन पूजा भविष्यतीति 'यशस्कामी' अहो अयमिति प्रवादाथै वा, तथा मानसन्मानकाम एवं कुर्यात्, तत्र वन्दनाभ्युत्थानलाभनिमित्तो मान:-बापात्रादि-12 लाभनिमित्तः सन्मानः, स चैवंभूतः 'बहु' अतिप्रचुरं प्रधानसंक्लेशयोगात् 'प्रसूते' निर्वर्त्तयति पापं तद्गुरु- ॥१८॥ त्वादेव सम्यगनालोचयन 'मायाशल्यं च भावशल्यं च करोतीति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥
अनुक्रम [२०६-२१०]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक"-मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||३६-४१|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||३६
-४१||
दीप
सुरं वा मेरगं वावि, अन्नं वा मजगं रसं । ससक्खं न पिबे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो ॥ ३६॥ पियए एगओ तेणो, न मे कोइ विआणइ । तस्स पस्सह दोसाई, निअर्डिं च सुणेह मे ॥ ३७॥ वड्डई सुंडिआ तस्स, मायामोसं च भिक्खुणो । अयसो अ अनिव्वाणं, सययं च असाहुआ ॥३८॥ निञ्चविग्गो जहा तेणो, अत्तकम्मेहिं दुम्मई । तारिसो मरणंतेवि, न आराहेइ संवरं ॥ ३९ ॥ आयरिए नाराहेइ, समणे आवि तारिसे । गिहत्थावि ण गरिहंति, जेण जाणंति तारिसं ॥४०॥ एवं
तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजए । तारिसो मरणंतेऽवि, ण आराहेइ संवरं ॥४१॥ प्रतिषेधान्तरमाह-'सुरं वत्ति सूत्रं-'सुरां वा' पिष्टादिनिष्पन्नां, 'मेरकं वापि' प्रसन्नाख्या, सुराप्रायोKI ग्यद्रव्यनिष्पन्नमन्यं वा 'मायं रसं सीध्वादिरूपं 'ससाक्षिक' सदापरित्यागसाक्षिकेवलिप्रतिषिद्धं न पियेशिक्षुः, अनेनात्यन्तिक एव तत्प्रतिषेधः, सदासाक्षिभावात् । किमिति न पिबेदित्याह-यशः संरक्षनात्मनः, यशाशब्देन संयमोऽभिधीयते, अन्ये तु ग्लानापवादविषयमेतत्सूत्रं अल्पसागारिकविधानेन व्याचक्षत
। सदा परिणागे साक्षिणः केवल्यावयो ये तैः प्रतिसिदं, अरिहतसक्रियमित्यागुतेभवत्येव ते साक्षिणः.
अनुक्रम [२११-२१६]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||३६
-४१||
दीप
अनुक्रम
[२११
-२१६]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [५], उद्देशक [ २ ], मूलं [ १५...] / गाथा ||३६-४१|| निर्युक्तिः [ २४४...], भाष्यं [६२...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशबैका ० द्वारि-वृत्तिः
॥ १८८ ॥
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| इति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ अत्रैव दोषमाह - 'पिथए'ति सूत्रं पिवति 'एको' धर्मसहायविप्रमुक्तोऽल्पसागारि कस्थितो वा 'स्तेनः' चौरोऽसौ भगवददत्तग्रहणात् अन्यापदेशयाचनाद्वा न मां कञ्चिज्जानातीति भावयन्, तस्येत्थंभूतस्य पश्यत दोषानैहिकान् पारलौकिकांश्च 'निकृतिं च' मायारूपां शृणुत ममेति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ 'वह' ति सूत्रं, वर्धते 'शौण्डिका' तदत्यन्ताभिष्वङ्गरूपा तस्य माया मृषावादं चेत्येकवद्भावः प्रत्युपलब्धाप| लापेन वर्धते तस्य भिक्षोः, इदं च भवपरम्पराहेतु:, अनुबन्धदोषात्, तथा अयशश्च खपक्षपरपक्षयोः, तथा | अनिर्वाणं तदलाभे सततं चासाधुता लोके व्यवहारतः चरणपरिणामबाधनेन परमार्थत इति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ किंच- 'निचुब्बिग्गो'त्ति सूत्रं, स इत्थंभूतो 'नित्योद्विग्नः' सदाऽप्रशान्तो यथा स्तेनः' चौर: 'आत्मकर्मभिः स्वदुश्चरितैः दुर्मतिः-दुष्टबुद्धिः 'तादृश:' क्लिष्टसत्त्वो 'मरणान्तेऽपि' चरमकालेऽपि नाराधयति 'संवरं' चारित्रं, सदैवाकुशलबुद्ध्या तद्वीजाभावादिति सूत्रार्थः ॥ ३९ ॥ तथा - 'आयरिए 'ति सूत्रं, आचार्यान्नाराधयति, अशुद्धभावत्वात् श्रमणांश्चापि तादृशान्नाराधयत्यशुभभावत्वादेव, गृहस्था अप्येनं दुष्टशीलं 'गर्हन्ते' कुत्सन्ति, किमिति ?-येन जानन्ति 'तादृशं' दुष्टशीलमिति सूत्रार्थः ॥ ४० ॥ एवं तु'त्ति सूत्रं, 'एवं तु' उक्तेन प्रकारेण 'अगुणप्रेक्षी' अगुणान् प्रमादादीन प्रेक्षते तच्छीलच य इत्यर्थः, तथा 'गुणानां च' अप्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां च प्रद्वेषेण 'विवर्जकः' त्यागी 'तादृशः क्लिष्टचित्तो मरणान्तेऽपि नाराधयति 'संवरं' चारित्रमिति सूत्रार्थः ॥ ४१ ॥
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५ पिण्डै
पणाध्य०
२ उद्देशः
॥ १८८ ॥
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४२-४५|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||४२-४५||
दीप
तवं कुम्वइ मेहावी, पणीअं वजए रसं । मजप्पमायविरओ, तवस्सी अइउक्कसो ॥४२॥ तस्स पस्सह कल्लाणं, अणेगसाहुपूइअं । विउलं अत्थसंजुत्तं, कित्तइस्सं सुणेह मे ॥४३॥ एवं तु सगुणप्पेही, अगुणाणं च विवजए । तारिसो मरणंतेऽवि, आराहेइ संवरं ॥ ४४ ॥ आयरिए आराहेइ, समणे आवि तारिसे । गिहत्थावि ण
पूयंति, जेण जाणंति तारिसं ॥४५॥ यतश्चैवमत एतदोषपरिहारेण 'त'ति सूत्रं, तपः करोति 'मेधावी' मर्यादावर्ती 'प्रणीत लिग्धं चर्जयति 'रस' घृतादिकं, न केवलमेतत्करोति, अपितु मद्यप्रमादविरतो, नास्ति क्लिष्टसत्त्वानामकृत्यमित्येवं प्रतिषेधः, 'तपस्वी' साधुः 'अत्युत्कर्षः अहं तपस्वीत्युत्कर्षरहित इति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ 'तस्सति सूत्र, 'तस्य' इत्थंभूतस्य पश्यत 'कल्याणं' गुणसंपद्रूपं संयम, किंविशिष्टमित्याह-अनेकसाधुपूजितं, पूजितमिति-सेवितमाचरितं, 'विपुलं' विस्तीर्ण विपुलमोक्षावह त्वात् 'अर्थसंयुक्तं' तुच्छतादिपरिहारेण निरुपमसुखरूपमोक्षसाधनत्वात् कीर्तयिष्येऽहं शृणुत में ममेति सूत्रार्थः ॥४३॥ एवं तु' उक्तेन प्रकारेण 'स' साधुः 'गुणप्रेक्षी गुणान्अप्रमादादीन् प्रेक्षते तच्छीलश्च य इत्यर्थः, तथा 'अगुणानां च प्रमादादीनां स्वगतानामनासेवनेन परगतानां
अनुक्रम [२१७-२२०]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४२-४५|| नियुक्ति: [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
दशवैका हारि-वृत्तिः ॥ १८९॥
॥४२
दीप
चाननुमत्या 'विवर्जक त्यागी तादृशः' शुद्धवृत्तो 'मरणान्तेऽपि चरमकालेऽप्याराधयति 'संवर' चारित्रं, पिण्डैसदैव कुशलबुद्ध्या तदबीजपोषणादिति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तथा 'आयरिए'त्ति सूत्रं, आचार्यानाराधयति. पणाध्य. || शुद्धभावत्वात, श्रमणांश्चापि तादृश आराधयति, शुद्धभावत्वादेव, गृहस्था अपि शुद्धवृत्तमेनं पूजयन्ति,18|२ उद्देश: किमिति ?, येन जानन्ति 'तादृशं शुद्धवृत्तमिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥
तवतेणे वयतेणे, रूवतेणे अ जे नरे । आयारभावतेणे अ, कुठबई देवकिविसं ॥४६॥ लद्रूणवि देवत्तं, उववन्नो देवकिव्विसे । तत्थावि से न याणाइ, किं मे किच्चा इम फलं? ॥ ४७॥ तत्तोवि से चइत्ताणं, लब्भिही एलमूअयं । नरगं तिरिक्खजोणि वा, बोही जत्थ सुदुल्लहा ॥ ४८ ॥ एअं च दोसं दट्ठणं, नायपुत्तेण भासिअं । अणुमा
यपि मेहावी, मायामोसं विवजए ॥ १९ ॥ स्तेनाधिकार एवेदमाह-तव'त्ति सूत्रं, तपस्तेनो वास्तेनो रूपस्तेनस्तु यो नरः कश्चित् आचारभावस्तेनश्च, पालयन्नपि क्रियां तथाभावदोषादेवकिल्विषं करोति-किल्बिषिकं कर्म निर्वतयतीत्यर्थः, तपस्तेनो नाम क्षपकरूपकल्पः कश्चित् केनचित् पृष्टस्त्वमसौ क्षपक इति, स पूजाद्यर्थमाह-अहम्, अथवा वक्ति-साधव एव
अनुक्रम [२१७-२२०]
१८९॥
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक"-मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||४६-४९|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
||४६-४९||
दीप
क्षपकाः, तूष्णीं वाऽऽस्ते, एवं वाकस्तेनो धर्मकथकादितुल्यरूपः कश्चित्केनचित् पृष्ट इति, एवं रूपस्तेनो राजपुत्रादितुल्यरूपः, एवमाचारस्तेनो विशिष्टाचारवत्तुल्यरूप इति, भावस्तेनस्तु परोत्पेक्षितं कथञ्चित् किश्चित् श्रुखा । खयमनुत्पेक्षितमपि मयैतत्पपञ्चेन चर्चितमित्याहेति सूत्रार्थः ॥ ४६॥ अयं चेत्थंभूतः 'लण सि सूत्रं, लब्ध्वापि
देवत्वं तथाविधक्रियापालनवशेन उपपन्नो 'देवकिल्बिर्षे देवकिल्बिषिका ये, तत्राप्यसौ न जानात्यविशुद्धाहै बधिना, किं मम कृत्वा 'इदं फलं किल्बिषिकदेवत्वमिति सूत्रार्थः ।। ४७ ॥ अत्रैव दोषान्तरमाह-तत्तोवित्ति सूत्रं, 'ततोऽपि देवलोकादसौ च्युत्वा लप्स्यते 'एलमूकताम्' अजाभाषानुकारित्वं मानुषत्वे, तथा नरकं तिर्यगयोनि वा पारम्पर्येण लप्स्यते, 'बोधिर्यत्र सुदुर्लभः सकलसंपन्निबन्धना यत्र जिनधर्मप्राप्तिरापा । इह च प्रामोत्येलमूकतामिति वाच्ये असकृद्भावप्राप्तिख्यापनाय लप्स्यत इति भविष्यत्कालनिर्देश इति सूत्रार्थः॥४८॥ प्रकृतमुपसंहरति-'एअंचत्ति सूत्रं, एनं च दोषम्-अनन्तरोदितं सत्यपि श्रामण्ये किल्बिषिकस्वादिमाप्तिरूपं दृष्ट्वा आगमतो 'ज्ञातपुत्रेण भगवता बर्द्धमानेन 'भाषितम्' उक्तम् 'अणुमात्रमपि स्तोकमात्रमपि किमुत प्रभूतं? 'मेधावी' मर्यादावर्ती 'मायामृषावादम् अनन्तरोदितं 'वर्जयेत् परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥ ४९॥ __ सिक्खिऊण भिक्खेसणसोहि, संजयाण बुद्धाण सगासे । तत्थ भिक्खु सुप्पणिहिई
अनुक्रम [२२१-२२४]
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [५], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||५०|| नियुक्ति : [२४४...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
५ पिण्डैपणाध्य. २ उद्देश:
सूत्रांक
55-%
दबाबका दिए, तिव्वलजगुणवं विहरिजासि ॥ ५० ॥ तिबेमि समत्तं पिंडेसणानामज्झयण हारि-वृत्तिः
पंचमं ॥५॥ ॥१९॥
अध्ययनार्थमुपसंहरन्नाह-'सिक्खिऊणत्ति सूत्रं, 'शिक्षित्वा' अधीत्य 'भिषणाशुद्धिम् पिण्डमार्गणाशुद्धिमुद्गमादिरूपां, केश्यः सकाशादित्याह-संयतेभ्यः' साधुभ्यो 'बुद्धेश्या' अवगततत्त्वेभ्यः गीतार्थेभ्यो न द्रव्यसाधुभ्यः सकाशात् , ततः किमित्याह-तत्र भिषणायां 'भिक्षुः साधुः 'सुप्रणिहितेन्द्रिय श्रोत्रादिभिर्गादं तदुपयुक्तः 'तीवलज्ज' उत्कृष्टसंयमः सन् , अनेन प्रकारेण गुणवान् विहरेत्-सामाचारीपालनं
कुर्याद्, इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः । उक्तोऽनुगमः । साम्प्रतं नयाः,ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातं पिण्डैजषणाध्ययनम् ॥५०॥
| अत्र अध्ययन ५ उद्देशक: २ समाप्त:
||५०||
दीप अनुक्रम २२५]
इति श्रीहरिभद्रसरिविरचितायां दशवकालिकशब्दार्थवृत्ती
पिण्डैषणाध्ययनं समाप्तम् ॥५॥
॥१९॥
25*35*35
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अध्ययनं -4- परिसमाप्तं
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आगम
(४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||५०...|| नियुक्ति : [२४५], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||५०..||
दीप
अथ महाचारकथाख्यं षष्ठमध्ययनम् । अधुना महाचारकथाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-हहानन्तराध्ययने साधोमिक्षाविशोधिरुक्ता. ४ इह तु गोचरप्रविष्टेन सता खाचारं पृष्टेन तद्विदापि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य इति,
अपि त्वालये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमित्येतदुच्यते, उक्तं च-"गोअरग्गपविट्ठो उ, न निसीएज्ज कत्था । कहं च न पचंधेजा, चिद्वित्ता ण व संजए॥१॥" इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य | चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च महाचारकथेति नाम, एतच तत्वतःप्रानिरूपितमेवेत्यतिदिशन्नाह
जो पुरिव दिवो आयारो सो अहीणमइरित्तो । सच्चेव य होइ कहा आयारकहाए महईए ॥ २४५ ॥ व्याख्या-यः 'पूर्व क्षुल्लकाचारकथायां निर्दिष्ट' उक्तः 'आचारों ज्ञानाचारादिः असावहीनातिरिक्तो वलक्तव्यः, सैव च भवति 'कथा' आक्षेपण्यादिलक्षणा वक्तव्या, चशब्दात्तदेव क्षुल्लकप्रतिपक्षोक्तं महद्वक्तव्यम् ,
आचारकथायां महस्यां प्रस्तुतायामिति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेप इत्यादिचर्चः पूर्ववत्ताचद्याव|त्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं, तचेदम्
१ गोचरामप्रविधस्तु न निधी देव कुत्रचित् । कथां च च प्रबन्धयेत् स्थित्वा च संयतः ॥१॥
+5%सकस
अनुक्रम [२२५..]
अध्ययनं -६- "महाचारकथा" आरभ्यते
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-५|| नियुक्ति: २४५...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
+
प्रत सूत्रांक ||१-५||
दशका. हारि-वृत्तिः ॥ १९१॥
२उद्देश:
+
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दीप अनुक्रम [२२६-२३०]
नाणदंसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं । गणिमागमसंपन्नं, उजाणम्मि समोसढं ॥१॥ ६महाचारायाणो रायमच्चा य, माहणा अदुव खत्तिआ । पुच्छंति निहुअप्पाणो, कहं भे आ
रकथाध्य यारगोयरो? ॥२॥ तेसिं सो निहुओ दंतो, सव्वभूअसुहावहो । सिक्खाए सुसमाउत्तो, आयक्खइ विअक्खणो ॥३॥ हंदि धम्मत्थकामाणं, निग्गंथाणं सुणेह मे। आयारगोअरं भीम, सयलं दुरहिट्रिअं ॥४॥ नन्नत्थ एरिसं वुत्तं, जे लोए परमदु
वरं । विउलट्ठाणभाइस्स, न भूअं न भविस्सइ ॥५॥ अस्य व्याख्या 'ज्ञानदर्शनसंपन्नं ज्ञानं-श्रुतज्ञानादि दर्शन-क्षायोपशमिकादि ताभ्यां संपन्न युक्तं 'संयमें पञ्चाश्रवविरमणादौ तपसिच' अनशनादौ 'रतम्' आसक्तं, गणोऽस्यास्तीति गणीतं गणिनम्-आचार्यम् 'आगमसंपन्न' विशिष्टश्रुतधरं, बह्वागमखेन प्राधान्यस्थापनार्थमेतत् , 'उद्याने' कचित्साधुप्रायोग्ये 'समवमृत' स्थित धर्मदेशनार्थ वा प्रवृत्तमिति सूत्रार्थः॥१॥ तरिकमित्याह-रायाणों'त्ति सूत्रं, 'राजानों नरपतयः 'राजामा-1 त्याश्च मत्रिणः 'ब्राह्मणाः प्रतीताः 'अदुबत्ति तथा क्षत्रियाः' श्रेष्ठ्यादयः पृच्छन्ति 'निभृतात्मानः' असंभ्रान्ता 8|॥१९१॥ रचिताञ्जलयः कथं में भवताम् 'आचारगोचर' क्रियाकलापः स्थित इति सूत्रार्थः ॥२॥'तेर्सिति सूत्रं,
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... षष्ठे अध्ययने नास्ति उद्देशकः, अत्र सर्वत्र शिर्षक-स्थाने यत् “२ उद्देश:" लिखितं तत् मुद्रण-दोष: मात्र.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-५|| नियुक्ति: [२४६], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [२२६-२३०]
तेभ्यों' राजादिभ्यः 'असौं' गणी 'निभृतः' असंभ्रान्त उचितधर्मकायस्थित्या, दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियाभ्यां, 'सर्वभूतसुखावहः' सर्वप्राणिहित इत्यर्थः, शिक्षया' ग्रहणासेवनरूपया 'सुसमायुक्त' सुष्टु-एकीभावेन युक्त।
'आख्याति कथयति 'विचक्षण' पण्डित इति सूत्रार्थः ॥ ३॥ 'हंदि ति सूत्रं, हन्दीत्युपप्रदर्शने, तमेन 'धPार्मार्थकामाना मिति धर्म:-चारित्रधर्मादिस्तस्यार्थः-प्रयोजनं मोक्षस्तं कामयन्ति-इच्छन्तीति विशुद्धविहिता8/नुष्ठानकरणेनेति धर्मार्थकामा-मुमुक्षवस्तेषां 'निर्ग्रन्थानां बाधाभ्यन्तरग्रन्धरहितानां शृणुत मम समीपाद
आचारगोचर' क्रियाकलापं 'भीम' कर्मशञ्चपेक्षया रौद्रं 'सकलं' संपूर्ण 'दुरधिष्ठं' क्षुद्रसत्त्वैर्दुराश्रयमिति सूत्रार्थः । धर्मार्थकामानामित्युक्तं, तदेतत्सूत्रस्पर्शनियुक्त्या निरूपयति-तत्र धर्मनिक्षेपो यथा प्रथमाध्ययने, 3/ नवरं लोकोत्तरमाह--
धम्मो बाबीसविहो अगारधम्मोऽणगारधम्मो अ। पढमो अ बारसविहो दसहा पुण बीयओ होइ ॥ २४६ ॥ व्याख्या-धर्मों 'द्वाविंशतिविधा' सामान्येन द्वाविंशतिप्रकार, 'अगारधर्मों गृहस्थधर्मः 'अनगारधर्मश्च साधुधमें, 'प्रथमच' अगारधर्मों द्वादशविधा, दशधा पुनः 'द्वितीया' अनगारधर्मों भवतीति गाधासमासाथैः॥ व्यासार्थं त्वाह- पंच व अणुव्बयाई गुणरुवयाई च होति तिन्नेव । सिक्खावयाई चउरो गिहिधम्मो बारसविहो अ ।। २४७ ॥ व्याख्या-पञ्चाणुव्रतानि-स्थूलपाणातिपातनिवृत्त्यादीनि, गुणवतानि च भवन्ति त्रीण्येव-दिग्वतादीनि
IXII
धर्मस्य भेद-प्रभेद प्रदर्शयते
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आगम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२४७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१-५||
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दीप अनुक्रम [२२६-२३०]
दशवका० शिक्षापदानि चत्वारि-सामायिकादीनि, गृहिधर्मों द्वादशविधस्तु एष एवाणुव्रतादिः । अणुव्रतादिस्वरूपं महाचाहारि-वृत्तिः चावश्यके चर्चितत्वानोक्तमिति गाथार्थः ॥ साधुधर्ममाह
दारकथाध्य खंती अ महवऽलव मुत्ती तवसंजमे अ बोद्धव्वे । सञ्चं सोचं आकिंचणं च बंभं च जइधम्मो ।। २४८ ॥
२ उद्देश ॥१९२॥
व्याख्या-क्षान्तिश्च मार्दवम् आर्जवं मुक्तिः तपासंयमौ च बोदव्यौ सत्यं शौचमाकिश्चन्यं ब्रह्मचर्यं च यतिधर्म इति गाथाक्षरार्थः। भावार्थः पुनर्यथा प्रथमाध्ययने ॥
धम्मो एसुवइट्ठो अस्थस्स चउव्विहो उ निक्खेवो । ओhण छव्विहऽत्यो चउसद्विविहो विभागेणं ॥ २४९ ॥ &ा व्याख्या-धर्म एष 'उपदिष्टों व्याख्याता, अधुना त्वर्थावसरः, तत्रेदमाह-अर्थस्य चतर्विधस्त निक्षेपो-नामामादिभेदात, तत्र 'ओघेन' सामान्यतः पडिधोऽर्थे आगमनोआगमव्यतिरिक्तो द्रव्याः , चतुःषष्टिविधो|
'विभागेन' विशेषेणेति गाथासमुदायार्थः ॥ अवयवार्थ त्वाह| धन्नाणि रयण थावर दुपयचउप्पय तहेव कुवि च । ओहेण छब्बिहत्थो एसो धीरेहिं पन्नत्तो ॥ २५ ॥
व्याख्या-धान्यानि' यवादीनि, रत्न-सुवर्ण स्थावर-भूमिगृहादि द्विपद-गड्यादि चतुष्पदं-गवादि तथैव | कुर्य च-ताम्रकलशायनेकविधम् । ओपेन षड्डिधोऽथे 'एषः' अनन्तरोदितः 'धी तीर्थकरगणधरैः 'प्रज्ञसका प्ररूपित इति गाथाङ्कः ॥ एनमेव विभागतोऽभिधित्सुराह
ला॥१९२॥ १ चरित्तधम्मो समणधम्मो इत्यत्र पूर्णिकृद्धिर्विकृत्योः संलीनतासयमादी वा व्याख्यानादेवमाहुः,
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सूत्रांक
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अनुक्रम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं+निर्युक्तिः+भाष्य | + वृत्तिः) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| निर्युक्तिः [२५० ], भाष्यं [ ६२...]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दश० ३३
Jar Education is
चबीसा तिगदुगदसहा अणेगविह एव । सब्वेसिपि इमेसि विभागमहयं पवक्खामि ।। २५१ ।।
व्याख्या- चतुर्विंशतिः चतुर्विंशतीति चतुर्विंशतिविधो धान्यार्थी रखार्थ, 'त्रिद्विदशधे 'ति त्रिविधः स्थावरार्थः द्विविधो द्विपदार्थः दशविधञ्चतुष्पदार्थ, 'अनेकविध एवेत्यनेकविधः कुप्यार्थः सर्वेषामप्यमीषां चतुर्वि | शत्यादिसंख्याभिहितानां धान्यादीनां 'विभागं' विशेषम् 'अर्थ' अनन्तरं संप्रवक्ष्यामीत्यर्थः ॥
धन्नाई चडब्बीसं जब१गोहुम २ सालि ३ वीहि ४ सडीआ५ । कोदव ६ अणुया७ कंगूट रालग९ विल १० मुग११ मासा१२ ॥ २५२ ॥ अयसि १ ३ हरिमन्थ १४ विडग १५ निष्फाव १६ सिलिंद १७रायमासा १८अ । इक्लू१९मसूर२० तुवरी २१ कुलत्थ २२ तह २३ धन्नगकलाया २४ ॥
व्याख्या - धान्यानि चतुर्विंशतिः, यवगोधूमशालिनीहिषष्टिकाः कोद्रवाणुकाः करालगतिलमुद्गमाषाश्च अतसीहरिमन्यत्रिपुटकनिष्पावसिलिन्दराजमाषाश्व इक्षुमसूरतुवर्यः कुलत्था धान्यककलायाश्चेति, एतानि प्रायो लौकिक सिद्धान्येव, नवरं षष्टिकाः-शालिभेदाः कडुः-उदकडः तद्भेदो रालका हरिमन्धाः - कृष्णचणकाः निष्पावा बल्ला: राजमाषा :- चवलकाः शिलिन्दा-मकुष्ठाः धान्यकं कुस्तुम्भरी कलायका-वृत्तचणका इति गाथाद्वयार्थः ॥ उक्तो धान्यविभागः, अधुना रत्नविभागमाह
रणाणि चडब्बीसं सुवण्णतउतंबरथयलोहाई। सीसगहिरण्णपासाणवइरमणिमोत्तिअपवा ॥ २५४ ॥ संखो तिणिसागुरुचंदणाणि वत्थामिलाणि कट्टाणि । तह चम्मतवाला गंधा दुव्वोसाई च ॥ २५५ ॥
व्याख्या - रत्नानि चतुर्विंशतिः, सुवर्णत्रपुताम्ररजतलोहानि सीसकहिरण्यपापाणवज्रमणिमौक्तिकप्रथा
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२५५], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||१-५||
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दशवैका लानि । शङ्खतिनिशागरुचन्दनानि वस्त्रामिलानि काष्ठानि तथा चर्मदन्तवाला गन्धा द्रव्योषधानि च धर्मार्थहारि-वृत्तिः एतान्यपि प्रायो लौकिकसिद्धान्येव नवरं रजतं-रूप्यम् हिरण्यं-रूपकादि पाषाणा-विजातीयरत्नानि मणयो- कामा०
जात्यानि । तिनिशो-वृक्षविशेषः अमिलानि-कर्णावस्त्राणि काष्ठानि-श्रीपादिफलकादीनि चर्माणि सिं-18|२ उद्देशः ॥१९३॥
हादीनां वन्ता गजादीनां वालाः चमर्यादीनां द्रव्योषधानि-पिप्पल्यादीनीति गाथावयार्थः ॥ उक्तो रनवि-12 भागः, स्थावरादिविभागमाह
भूमी घरा य तरुगण तिविहं पुण थावरं मुणेअवं । चकारवद्धमाणुस दुविहं पुण होइ दुपयं तु ॥ २५६ ।। व्याख्या-भूमिगृहाणि तरुगणाश्च, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, त्रिविधं पुनरोघतः स्थावरं मन्तव्यं, पुनाशब्दो विशेषणार्थः, किं चिशिनष्टि?, स्वगतान भेदान , तद्यथा-भूमि:-क्षेत्रं, तच निघा-सेतु केतु सेतुकेतु च, गृहाणि प्रासादाः, तेऽपि त्रिविधाः-खातोत्छुितोभयरूपाः, तरुगणा नालिकेर्याचारामा इति, 'चक्राकारबद्धमानुष'मिति चक्रारवर्द्ध-गझ्यादि मानुषं-दासादि, एवं द्विपदं पुनर्भवति द्विविधमिति गाथार्थः ॥ उक्तं स्थावरादि, चतुष्पदमाह
गायी महिसी उट्ठा भयएलगआसआसतरगा अ । घोडग गदह हत्थी चउप्पर्य होइ दसहा ॥ २५७ ॥ व्याख्या-गौमहिषी उष्ट्री अजा एडका अश्वा अश्वतराश्च घोटका गर्दभा हस्तिनश्चतुष्पदं भवति दशधा
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२५७], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
दीप अनुक्रम [२२६-२३०]
तु, एते गवादयः प्रतीता एव, मवरमश्वा-वाल्हीकादिदेशोत्पन्ना जात्याः अश्वतरा-वेगंसराः अजात्या घो-ती का इति गाथार्थः । उक्तं चतुष्पदं, कुप्यमाह
नाणाविहोवगरणं णेगविहं कुप्पलक्षणं होइ । एसो अत्थो भणिओ छम्बिह पाउसद्विमेओ उ ॥ २५८ ।। व्याख्या-'नानाविधोपकरण' ताम्रकलशकडिल्लादि जातितः अनेकविध व्यक्तित: कुप्यलक्षणं भवति । 'एषः अनन्तरोदितोऽधों 'भणित' उक्तः पविधः, चतुःषष्टिभेदस्तु ओघविभागाभ्यां प्रकृतोपयोगो द्रव्यार्थ दाइति गाथार्थः ॥ उक्तोऽर्थः, साम्प्रतं काममाह
कामो चउचीसविहो संपत्तो खलु तहा असंपत्तो । संपत्तो चउदसहा दसहा पुण होअसंपत्तो ।। २५९ ॥ | व्याख्या-कामश्चतुर्विशतिविधः ओघता, संप्राप्तः खलु तथा असंप्राप्तो वक्ष्यमाणस्वरूपः, संप्राप्तः 'चतुर्ददशधा-चतुर्दशप्रकारः, दशधा पुनर्भवत्यसंप्राप्त इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासाथै त्वाह, तत्राप्यल्पतरवक्तव्यवादसंप्राप्तमाह
तत्थ असंपत्तो अस्थो १ किंवा २ वह सद्ध ३ संसरणमेव ४। विक्कवय ५ लजनासो ६ पमाय ७ उम्माय ८ तब्भावो ९ ॥२६॥ । व्याख्या-तत्रासंप्राप्तोऽयं काम:, 'अर्थे ति अर्थनमर्थः अदृष्टेऽपि विलयादी, श्रुत्वा तदभिप्रायमात्रमित्यर्थः । तत्रैवाहो रूपादिगुणा इत्यभिनिवेशेन चिन्तनं चिन्ता, तथा श्रद्धा-तत्संगमाभिलाषा, संस्मरणमेव-संक-1 ल्पिकतद्रूपस्यालेख्यादिदर्शनं, वियोगतः पुनः पुनरतिविक्लवता-तच्छोकातिरेकेणाहारादिष्वपि निरपेक्षता,
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सूत्रांक
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अनुक्रम
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-२३०]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं+निर्युक्तिः+भाष्य | + वृत्तिः) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा || ५...|| निर्युक्ति: [ २६० ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ १९४ ॥
लज्जानाशो-गुर्वादिसमक्षमपि तद्गुणोत्कीर्तनं, प्रमादः - तदर्थमेव सर्वारम्भेष्वपि प्रवर्तनम्, उन्मादो - नष्टचित्ततया आलजालभाषणं, तद्भावना-स्तम्भादीनामपि तद्बुद्ध्याऽऽलिङ्गनादिचेष्टेति गाथार्थः ॥
मरणं १० च होइ दसमी संपत्तंपि समासओ वोच्छं । दिट्ठीए संपाओ १ दिडीसेवा य सभासो २ ॥ २६१ ।। व्याख्या - मरणं च शोकाद्यतिरेकेण क्रमेण भवति दशमः असंप्राप्तकामभेदः । संप्राप्तमपि च कामं समासतो वक्ष्य इति, तत्र दृष्टेः पुनः संपातः स्त्रीणां कुचायवलोकनं दृष्टिसेवा व भावसारं तद्दृष्टेर्दृष्टिमेलनं, | संभाषणम्-उचितकाले स्मरकथाभिर्जल्प इति गाथार्थः ॥
हसिन ३ललिज ४ वहिअ ५दंत ६नहनिवाय ७चुंबणं ८होइ। आलिंगण ९मायाणं १०कर ११ सेवण १२संग १३ किड्डा १४ अ ॥२६२॥ व्याख्या- हसितं - वक्रोक्तिगर्भ प्रतीतं ललितं-पाशकादिक्रीडा उपगृहितं परिष्वक्तं दन्तनिपातो-दशनच्छेद्यविधिः नखनिपातो-नखरदनजातिः चुम्बनं चैवेति- चुम्बनविकल्पः आलिङ्गनम् - ईषत्स्पर्शनम् आदानं| कुचादिग्रहणं 'करसेवणं'ति प्राकृतशैल्या करणा सेवने, तत्र करणं नाम-नागरकादिप्रारम्भयन्त्रम् आसेवनं -मैथुनक्रिया अनङ्गक्रीडा च अस्यादावर्धक्रियेति गाथार्थः ॥ उक्तः कामः, साम्प्रतं धर्मादीनामेव सपत्नतासपव्रते अभिधित्सुराह
धम्मो अत्यो कामो भिन्ने ते पिंडिया पडिसबत्ता । जिणवयणं उत्चिन्ना असबत्ता होंति नायव्वा ॥ २६३ ॥ व्याख्या-धर्मोऽर्थः कामः त्रय एते पिण्डिता युगपत्संपातेन 'प्रतिसपलाः' परस्परविरोधिनः लोके कुप्रवच
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६ धर्मार्थ
कामा०
२ उद्देशः
॥ १९४ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५...|| नियुक्ति: [२६३], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [२२६-२३०]
नेषु च, यथोक्तम्-"अर्थस्य मूलं निकृतिः क्षमा च, कामस्य वित्तं च वपुर्षयश्च । धर्मस्य दानं च दद्या दMमक्ष, मोक्षस्य सर्वोपरमः क्रियाश्च ॥१॥ इत्यादि एते च परस्परविरोधिनोऽपि सन्तो जिनवचनमवतीर्णाः
ततः कुशलाशपयोगतो व्यवहारेण धर्मादितत्त्वखरूपतो वा निश्चयेन 'असपत्नाः' परस्पराविरोधिनो भवन्ति । ला ज्ञातव्या इति गाथार्थः । तत्र व्यवहारेणाविरोधमाह
जिणवयणमि परिणए अवस्थपिहिमाणुठाणओ धम्मो । सच्छासयप्पयोगा अत्थो वीसंमओ कामो ॥ २६४।। व्याख्या-जिनवचने यथावत्परिणते सति अवस्थोचितविहितानुष्ठानात्-खयोग्यतामपेक्ष्य दर्शनादिश्रा-1 वकप्रतिमाङ्गीकरणे निरतिचारपालनाद्भवति धर्मः, खच्छाशयप्रयोगाद्विशिष्टलोकतः पुण्यबलाचार्थः, विश्र-13 म्भत उचितकलनाङ्गीकरणतापेक्षो विश्रम्भेण काम इति गाधार्थः॥ अधुना निश्चयेनाविरोधमाह
धम्मस्स फलं मोक्खो सासयमउलं सिर्व अणावाएं । तमभिष्पेया साहू तम्हा धम्मत्वकाम ति ॥ २६५ ॥ A व्याख्या-धर्मस्य निरतिचारस्य फलं 'मोक्षों निर्वाण, किंविशिष्टमित्याह-'शाश्वतं नित्यम् 'अतुलम् अनन्यतुलं 'शिव' पवित्रम् 'अनायाधं वाधावर्जितमेतदेवार्थः 'तं' धर्मार्थ मोक्षमभिप्रेता:-कामयन्तः साधबो | यस्मात्तस्माद्धर्मार्थकामा इति गाथार्थः॥ एतदेव दृढयन्नाह- परलोगु मुत्तिमग्गो नस्थि हु मोक्सो ति बिति अविहिन् । सो अस्थि अवितहो जिणमयंमि पवरो न अन्नत्थ ॥ २६६ ॥ व्याख्या-'परलोको' जन्मान्तरलक्षणो 'मुक्तिमार्गा' ज्ञानदर्शनचारित्राणि नास्त्येव 'मोक्ष' सर्वकर्मक्षय
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६-७|| नियुक्ति : [२६६], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका लक्षण: 'इति' एवं ब्रुवते 'अविधिज्ञा' न्यायमार्गाप्रवेदिनः, अत्रोत्तरं-स' परलोकादिः अस्त्येव 'अवितथा धर्मार्थहारि-वृत्तिः सत्यो 'जिनमते' वीतरागवचने, प्रवरः पूर्वापराविरोधेन, नान्यत्रैकान्तनित्यादौ, हिंसादिविरोधादिति गा-12 कामा० ॥ १९५॥धार्थः ॥ ४॥ व्याख्याता काचित्सूत्रस्पर्शनियुक्तिः, अधु
थार्थः॥ ४॥ व्याख्याता काचित्सूत्रस्पर्शनियुक्तिः, अधुना सूत्रान्तरायसरः, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहा- २ उद्देशः नन्तरसूत्रे निग्रन्धानामाचारगोचरकथनोपन्यासः कृतः, साम्प्रतमस्यैवाथेतो गुरुतामाह-णपणत्यत्ति सूत्रं न 'अन्यत्र' कपिलादिमते 'ईदृशम् उक्तमाचारगोचरं वस्तु यत् 'लोके' प्राणिलोके 'परमदुश्वरम्' अत्यन्तदु-12 करमित्यर्थः, ईदृशं च 'विपुलस्थानभाजिन' विपुलस्थान-विपुलमोक्षहेतुत्वात् संयमस्थानं तद्भजते-सेवते ४ तच्छीलश्च यस्तस्य, न भूतं न भविष्यति अन्यत्र जिनमतादिति सूत्रार्थः ॥५॥
सखुड्डगविअत्ताणं, बाहिआणं च जे गुणा । अखंडफुडिआ कायव्वा, तं सुणेह जहा तहा ॥६॥ दस अट्ट य ठाणाई, जाइं बालोऽवरज्झइ । तत्थ अन्नयरे ठाणे, निग्ग
थत्ताउ भस्सइ॥७॥ एतदेव संभावयन्नाह-'सखुड'त्ति सूत्र, सह क्षल्लकैः-द्रव्यभावयालये वर्तन्ते ते व्यक्ता-द्रव्यभाववृ
| |१९५॥ द्धास्तेषां सक्षुल्लकव्यक्तानां, सवालवृद्धानामित्यर्थः, व्याधिमतां चशब्दादब्याधिमा च, सरुजानां नीरुजानां चेति भावः, ये 'गुणा' वक्ष्यमाणलक्षणास्तेऽखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, अखण्डा देशविराधनापरि
दीप अनुक्रम [२३१-२३२]]
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||६-७|
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-२३२]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं+निर्युक्तिः+भाष्य | + वृत्तिः) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६-७ || निर्युक्ति: [ २६६ ], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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त्यागेन अस्फुटिताः सर्वविराधनापरित्यागेन, तत् शृणुत यथा कर्तव्यास्तथेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ ते चागुणपरिहारेणाखण्डास्फुटिता भवन्तीति अगुणास्तावदुच्यन्ते- 'दस 'त्ति सूत्रं, दशाष्टौ च 'स्थानानि' असंयमस्थानानि वक्ष्यमाणलक्षणानि 'पानि' आश्रित्य 'बालः' अज्ञः 'अपराध्यति' तत्सेवनयाऽपराधमाप्नोति, कथमपराध्यतीत्याह-तत्रान्यतरे स्थाने वर्तमानः प्रमादेन 'निर्ग्रन्थत्वात्' निर्ग्रन्थभावादू 'भ्रश्यति' निश्चयनयेनापैति बाल इति सूत्रार्थः ॥ अमुमेवार्थ सूत्रस्पर्शनियुच्या स्पष्टयति
अट्ठारस ठाणाई आयारकहाऍ जाई भणिवाई तेसिं अनतरागं सेवंतु न होइ सो समणो ।। २६७ ।।
व्याख्या- अष्टादशस्थानान्याचारकथायां प्रस्तुतायां यानि भणितानि तीर्थकरेः तेषामन्यतरस्थानं सेवमानो न भवत्यसो भ्रमण आसेवक इति गाथार्थः ॥ कानि पुनस्तानि स्थानानीत्याह नियुक्तिकार:
वयछकं काय कं, अकप्पो गिहिभायणं । पलियंकनिसेज्जा य, सिणाणं सोहवज्जणं ।। २६८ ।।
व्याख्या- 'व्रत' प्राणातिपातनिवृत्यादीनि रात्रिभोजनविरतिषष्ठानि षट् व्रतानि कायष-पृथिव्यादयः षड् जीवनिकाया: 'अकल्प:' शिक्षकस्थापनाकल्पादिर्वक्ष्यमाणः 'गृहिभाजनं' गृहस्थसंबन्धि कांस्य भाजनादि प्रतीतं 'पर्यङ्कः' शयनविशेषः प्रतीतः । 'निषया च' गृहे एकानेकरूपा 'लानं' देशसर्वभेदभिन्नं 'शोभावर्जनं' विभूषापरित्यागः, वर्जनमिति च प्रत्येकमभिसंबध्यते, शोभावर्जनं स्नानवर्जनमित्यादीति गाथार्थः ॥ ७ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||८-१०|| नियुक्ति : [२६८], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||८-१०||
६ धर्मार्थकामा० २ उद्देशः
दीप
दशवैका० तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसिअं । अहिंसा निउणा दिट्टा, सव्वभूएसु संहारि-वृत्तिः
जमो॥८॥ जावंति लोए पाणा, तसा अदुव थावरा । ते जाणमजाणं वा, न हणे ॥१९६॥
णोवि घायए ॥९॥ सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविडं न मरिजिउं । तम्हा पाणवह
घोरं, निग्गंथा वजयंति णं ॥१०॥ व्याख्याता सूत्रस्पर्शनियुक्तिः, अधुना सूत्रान्तरं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसंबन्धः-गुणा अष्टादशम स्थानेषु अखण्डास्फुटिताः कर्तव्याः, तत्र विधिमाह-तस्थिमं'ति सूत्रं । 'तत्र' अष्टादशविधे स्थानगणे व्रतसाषते वा अनासेवनाद्वारेण 'इदं वक्ष्यमाणलक्षणं प्रथम स्थानं 'महावीरेण भगवता अपश्चिमतीर्थकरेण 'देशित कथितं यदुताहिंसेति । इयं च सामान्यतः प्रभूतैर्देशितेत्यत आह-निपुणा' आधाकर्माद्यपरिभोगतः कृतकारितादिपरिहारेण सूक्ष्मा, न आगमद्वारेण देशिता अपितु 'दृष्टा' साक्षाद्धर्मसाधकत्वेनोपलब्धा, किमितीयमेव निपुणेत्यत आह-यतोऽस्यामेव महावीरदेशितायां 'सर्वभूतेषु' सर्वभूतविषयः संयमो, नान्यत्र, उद्दिश्यकसातादिभोगविधानादिति सूत्रार्थः॥८॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह-जावंति' सूत्रं, यतो हि भागवत्याज्ञा यावन्तः
केचन लोके प्राणिनखसा-द्वीन्द्रियादयः अथवा स्थावरा:-पृथिव्यादयः तान् जानन् रागायभिभूतो क्यापादनबुद्ध्या अजानन्या प्रमादपारतत्र्येण न हन्यात् स्वयं नापि घातयेदन्यैः 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणादू
अनुक्रम [२३३-२३५]
॥१९६॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||८-१०|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दीप अनुक्रम [२३३-२३५]
मतोऽप्यन्यान्न समनुजानीयाद्, अतो निपुणा दृष्टेति सूत्रार्थः ॥९॥ अहिंसैव कथं साध्वीखेतदेवाह-'सब्वेत्ति सूत्रं, सर्वे जीवा अपि दु:खितादिभेदभिन्ना इच्छन्ति जीवितुं न मर्तु प्राणवल्लभत्वात्, यस्मादेवं तस्मात्प्राणव, 'घोरं रौद्रं दुःखहेतुत्वाद् 'निर्ग्रन्थाः' साधवो वर्जयन्ति भावतः । णमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः ॥१०॥
अप्पणट्टा परट्रा वा, कोहा वा जइ वा भया। हिंसगं न मुसं चूआ, नोवि अन्नं वयावए ॥ ११ ॥ मुसावाओ उ लोगम्मि, सव्वसाहहिं गरिहिओ । अविस्सासो अ
भूआणं, तम्हा मोसं विवजए ॥ १२॥ उक्तः प्रथमस्थानविधिः, अधुना द्वितीयस्थानविधिमाह-'अप्पण?'त्ति सूत्रं, 'आत्मार्थम् आत्मनिमिसमग्लान एव ग्लानोऽहं ममानेन कार्यमित्यादि 'परार्थ वा' परनिमित्तं वा एवमेव, तथा क्रोधाद्वा त्वं दास इत्यादि, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहण'मिति मानाद्वा अबहुश्रुत एचाहं बहुश्रुत इत्यादि मायातो भिक्षाटनपरिMजिहीर्षया पादपीडा ममेत्यादि लोभाच्छोभनतरान्नलाभे सति प्रान्तस्यैषणीयत्वेऽप्यनेषणीयमिदमित्यादि,
यदिया 'भयात्' किश्चिद्वितथं कृत्वा प्रायश्चित्तभयान्न कृतमित्यादि, एवं हास्यादिष्वपि वाच्यम् , अत एवाह'हिंसकं' परपीडाकारि सर्वमेव न मृषा ब्रूयात् स्वयं नाप्यन्य वादयेत्, 'एकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्' अवतो
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दीप
अनुक्रम
[२३६
-२३७]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||११-१२ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ १९७ ॥
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प्यन्यान्न समनुजानीयादिति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ किमित्येतदेवमित्याह- 'मुसाबाउति सूत्रं, मृषावादो हि लोके सर्वस्मिन्नेव सर्वसाधुभिः 'गर्हितो' निन्दितः, सर्वव्रतापकारित्वात् प्रतिज्ञातापालनात्, 'अविश्वासश्च' अविश्वसनीयश्च भूतानां मृषावादी भवति यस्मादेवं तस्मान्मृषावादं विवर्जयेदिति सुत्रार्थः ॥ १२ ॥
चित्तमंतमचित्तं वा, अप्पं वा जइवा बहुं । दंतसोहणमित्तंपि, उग्गहंसि अजाइया ॥ १३ ॥ तं अप्पणा न गिव्हंति नोऽवि गिण्हावए परं । अन्नं वा गिण्हमाणंपि, नाजाणंति संजया ॥ १४ ॥
उक्त द्वितीयस्थानविधिः, साम्प्रतं तृतीयस्थानविधिमाह — 'चित्तमंत'त्ति सूत्रं, 'चिरावद्' द्विपदादि वा 'अचित्तवद्वा' हिरण्यादि, अल्पं वा मूल्यतः प्रमाणतश्च, यदिवा बहु मूल्यप्रमाणाभ्यामेव, किंबहुना ? - 'दन्तशोधनमात्रमपि तथाविधं तृणादि अवग्रहे यस्य तत्तमयाचित्वा न गृह्णन्ति साधवः कदाचनेति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ एतदेवाह - 'तं'ति सूत्रं, 'तत्' चित्तवदादि आत्मना न गृह्णन्ति विरतत्वात् नापि ग्राहयन्ति परं विरतत्वादेव, तथाऽन्यं वा गृह्णन्तमपि खयमेव 'नानुजानन्ति' नानुमन्यन्ते संयता इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥
अबंभचरिअं घोरं, पमायं दुरहिट्टि । नायरंति मुणी लोए, भेआययणवजिणो
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६ धर्मार्थकामा०
२ उद्देशः
॥ १९७ ॥
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||१५
-१६||
दीप
अनुक्रम
[२४०
-२४१]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१५-१६ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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॥ १५ ॥ मूलमेयमहम्मस्स, महादोससमुस्सयं । तम्हा मेहुणसंसग्गं, निग्गंथा वज्जयंति णं ॥ १६ ॥
उक्तस्तृतीयस्थानविधिः, चतुर्थस्थानविधिमाह – 'अयंभ'त्ति सूत्रं, 'अब्रह्मचर्य' प्रतीतं 'घोरं रौद्रं रौद्रानुष्ठानहेतुत्वात्, 'प्रमादं' प्रमादवत् सर्वप्रमादमूलत्वात् 'दुराश्रयं' दुस्सेवं विदितजिनवचनेनानन्तसंसारहेतुत्वात्, यतश्चैवमतो 'नाचरन्ति' नासेवन्ते मुनयो 'लोके' मनुष्यलोके, किंविशिष्टा इत्याह- 'भेदायतनवर्जिनों भेद:- चारित्रभेदस्तदायतनं तत्स्थानमिदमेवोतन्यायात्तद्वर्जिनः- चारित्रातिचारभीरव इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ एतदेव निगमयति- 'मूल'ति सूत्रं, 'मूलं' बीजमेतद् 'अधर्मस्य' पापस्येति पारलौकिकोऽपायः 'म हादोषसमुच्छ्रयं महतां दोषाणां चौर्यप्रवृत्त्यादीनां समुच्छ्रयं संघातवदित्यैहिकोऽपायः यस्मादेवं तस्मात् 'मैथुनसंसर्ग' मैथुनसंबन्धं योषिदालापाद्यपि निर्ग्रन्था वर्जयन्ति, णमिति वाक्यालङ्कार इति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥
बिडमुब्भेइमं लोणं, तिलं सप्पिं च फाणिअं । न ते संनिहिमिच्छंति, नायपुत्तवओरया ॥ १७ ॥ लोहस्सेस अणुप्फासे, मन्ने अन्नयरामवि । जे सिआ सन्निहिं कामे, गिही पव्वइप न से ॥ १८ ॥ जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । तंपि संज
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२१|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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हारि-वृत्तिः
कामा
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दशवैका० मलजटा, धारंति परिहरंति अ ॥ १९ ॥ न सो परिग्गहो वुत्तो, नायपुत्तेण ताइणा।
६ धर्मार्थमुच्छा परिग्गहो वुत्तो, इअ वुत्तं महेसिणा ॥ २०॥ सव्वत्थुवहिणा बुद्धा, संरक्ख
२ उद्देश: ॥१९८॥ णपरिग्गहे । अवि अप्पणोऽवि देहमि, नायरैति ममाइयं ॥ २१॥
प्रतिपादितश्चतुर्थस्थानविधिः, इदानीं पञ्चमस्थानविधिमाह-'बिड'त्ति सूत्रं, 'बिर्ड' गोमूत्रादिपकं 'उद्भेद्य सामुदादि या 'बिर्ड' प्रासुकम् 'उनेद्यम्' अप्रासुकमपि, एवं द्विप्रकारं लवणं, तथा तैलं सर्पिच फाणि-12
तम्, तत्र तैलं प्रतीतं, सर्पितं, फाणितं द्वगुडः, एतल्लवणायेवंप्रकारमन्यच न ते साधयः 'संनिधिं कुर्वन्ति। &ापर्युषितं स्थापयन्ति, 'ज्ञातपुत्रवचोरता' भगवद्बर्धमानवचसि निःसङ्गताप्रतिपादनपरे सक्ता इति सूत्रार्थः |
॥१७॥ संनिधिदोषमाह-लोभस्स'त्ति सूत्रं, 'लोभस्य चारित्रविघ्नकारिणश्चतुर्थकषायस्य 'एसोऽणुप्फासत्ति एषोऽनुस्पर्श:-एषोऽनुभावो यदेतत्संनिधिकरणमिति, यतश्चैवमतो 'मन्ये' मन्यन्ते, प्राक्तशैल्या एक-IX वचनम्, एवमाहुस्तीर्थकरगणधराः 'अन्यतरामपि' स्तोकामपि 'यः स्यात्' यः कदाचित्संनिधि 'कामयते।
सेवते 'गृही' गृहस्थोऽसौ भावतः प्रबजितो नेति, दुर्गतिनिमित्तानुष्ठानप्रवृत्तः, संनिधीयते नरकादिष्वात्मा४ाऽनयेति संनिधिरिति शब्दार्थात् प्रव्रजितस्य च दुर्गतिगमनाभावादिति सूत्रार्थः ॥ १८॥ आह-यद्येवं वस्त्रादि Aधारयतां साधूनां कथमसंनिधिरित्यत आह 'जंपित्ति सूत्रं, यदप्यागमोक्तं 'वखं वा' चोलपट्टकादि 'पात्रं
दीप अनुक्रम [२४२-२४६]
॥१९८॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२१|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक ||१७
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दीप अनुक्रम [२४२-२४६]
वा' अलावुकादि 'कम्बलं' वर्षाकल्पादि, 'पादपुंछन रजोहरणं, तदपि 'संघमलज्जार्थ मिति संयमार्थ पानादि, तव्यतिरेकेण पुरुषमात्रेण गृहस्थभाजने सति संयमपालनाभावात् , लज्जार्थ वस्त्रं, तव्यतिरेकेणाङ्गनादौ विशिष्टश्रुतपरिणत्यादिरहितस्य निर्लजतोपपत्तेः, अथवा संयम एव लज्जा तदर्थ सर्वमेतद्वस्त्रादि धारयन्ति, पुष्टालम्बनविधानेन 'परिहरन्ति च 'परिभुञ्जते चमूच्छारहिता इति सूत्रार्थः ॥१९॥ यतश्चैवमत:-'न सो'त्ति सूत्रं, नासौ निरभिष्वङ्गस्य वस्त्रधारणादिलक्षणः परिग्रह उक्तो, बन्धहेतुत्वाभावात्, केन? 'ज्ञातपुत्रेण ज्ञात-उदारक्षत्रियः सिद्धार्थः तत्पुत्रेण वर्धमानेन 'जात्रा' स्वपरपरित्राणसमर्थेन, अपि तु 'मी' असत्स्वपि वस्त्रादिष्वभिष्वङ्गः परिग्रह उक्तो, बन्धहेतुस्वाद, अर्थतस्तीर्थकरेण, ततोऽवधार्य 'इति' एवमुक्तो 'महर्षिणा गणधरेण, सूत्रे सेजंभव आहेति सूत्रार्थः॥ २०॥ आह-वखाद्यभावभाविन्यपि मूर्छा कथं वस्त्रादिभावे
साधूनां न भविष्यति?, उच्यते, सम्यग्बोधेन तबीजभूतायोधोपघातादू, आह च-'सब्बत्यत्ति सूत्रं, 'ससर्वत्र' उचिते क्षेत्रे काले च 'उपधिना 'आगमोक्तेन वस्त्रादिना सहापि 'बुडा' यथावद्विदितवस्तुतत्वाः साधवः
'संरक्षणपरिग्रह' इति संरक्षणाय षण्णां जीवनिकायानां वस्त्रादिपरिग्रहे सत्यपि नाचरन्ति ममत्वमिति पायोगः, किं चानेन?, ते हि भगवन्तः 'अध्यात्मनोऽपि देह' इत्यात्मनो धर्मकायेऽपि विशिष्टप्रतिबन्धसंगतिं न |
कुर्वन्ति 'ममत्वम्' आत्मीयाभिधानं, वस्तुतत्वावबोधात्, तिष्ठतु तावदन्यत्, ततश्च देहवदपरिग्रह एव त
दिति सूधार्थः ॥ २१॥ वश०३४ा
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दीप
अनुक्रम
[२४७-२५०]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२२- २५ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ १९९ ॥
अहो निचं तवो कम्मं, सव्वबुद्धेहिं वण्णिअं । जाव लज्जासमा वित्ती, एगभत्तं च भोजणं ॥ २२ ॥ संतिमे सुहुमा पाणा, तसा अदुव थावरा । जाई राओ अपासंतो, कहमेसणिअं चरे ? ॥ २३ ॥ उदउल्लं वीअसंसत्तं, पाणा निवडिया महिं । दिआ ताई विवज्जिज्जा, राओ तत्थ कहं चरे ? ॥ २४ ॥ एअं च दोसं दहूणं, नायपुत्त्रेण भासिअं ।
सव्वाहारं न भुंजंति, निग्गंथा राइभोअणं ॥ २५ ॥
उक्तः पञ्चमस्थानविधिः, अधुना षष्ठमधिकृत्याह - 'अहो' ति सूत्रं, 'अहो नित्यं तपः कर्मेति अहो विस्मये | नित्यं नामापायाभावेन तदन्यगुणवृद्धिसंभवादप्रतिपात्येव तपःकर्म- तपोऽनुष्ठानं 'सर्वबुद्धेः' सर्वतीर्थकरैः 'व'र्णितं' देशितं, किंविशिष्टमित्याह - 'यावल जासमा वृत्तिः' लज्जा-संयमस्तेन समा-सदृशी तुल्या संयमाविरोधिनीत्यर्थः वर्तनं वृत्ति:- देहपालना 'एकभक्तं च भोजनम्' एकं भक्तं द्रव्यतो भावतश्च यस्मिन् भोजने तत्तथा, द्रव्यत एकम् एकसंख्यानुगतं, भावत एक कर्मबन्धाभावादद्वितीयं तद्दिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ रात्रिभोजने प्राणातिपातसंभवेन कर्मबन्धसद्वितीयतां दर्शयति- 'संतिमेत्ति सूत्रं, सन्त्येते प्रत्यक्षोपलभ्यमानखरूपाः सूक्ष्माः 'प्राणिनो' जीवाः सा द्वीन्द्रियादयः अथवा स्थावराः - पृथिव्यादयः यान् प्राणिनो रात्रावपश्यन् चक्षुषा कथम् 'एषणीयं' सत्त्वानुपरोधेन चरि
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६ धर्मार्थ
कामा०
२ उद्देशः
॥ १९९ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [ १५...] / गाथा ||२२- २५ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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व्यति भोक्ष्यते च ?, असंभव एव रात्रावेषणीयचरणस्येति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ एवं रात्रौ भोजने दोषमभिधायाधुना ग्रहणगतमाह — 'उदउल्लेति सूत्रं, उदका पूर्ववदेकग्रहणे तज्जातीयग्रहणात्सस्निग्धादिपरिग्रहः, तथा 'बीजसंसक्तं' बीजैः संसक्तं-मिश्रम्, ओदनादीति गम्यते, अथवा वीजानि पृथग्भूतान्येव, संसक्तं चारनालाद्यपरेणेति, तथा 'प्राणिनः' संपातिमप्रभृतयो निपतिता 'मह्यां' पृथिव्यां संभवन्ति, ननु दिवाप्पेतत्संभवत्येव ?, सत्यं, किंतु परलोक भीरुश्चक्षुषा पश्यन् दिवा तान्युदकार्द्रादीनि विवर्जयेत्, रात्रौ तु तत्र कथं चरति संयमानुपरोधेन ?, असंभव एव शुद्धचरणस्येति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ उपसंहरन्नाह - 'एअं चन्ति सूत्रं, 'एतं च' अनन्तरोदितं प्राणिहिंसारूपमन्यं चात्मविराधनादिलक्षणं दोषं दृष्ट्वा मतिचक्षुषा 'ज्ञातपुत्रेण' भगवता 'भाषितम्' उक्तं 'सर्वाहारं' चतुर्विधमप्यशनादिलक्षणमाश्रित्य न भुञ्जते 'निर्ग्रन्थाः साधवो रात्रिभोजनमिति सूत्रार्थः ॥ २५ ॥
पुढविकार्यं न हिंसंति, मणसा वयस कायस । तिविहेणं करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥ २६ ॥ पुढविकायं विहिंसंतो, हिंसई उ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥ २७ ॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवड्डणं । पुढ़१] यद्यप्यवचूर्णिदीपिकयोस्तोदं तथापि प्रतिग्रहप्रतिलेखनादोष संपातिमसत्योपरोधसंग्रहार्थ स्वावेनासंभव इति मन्ये, सर्वादषु दर्शनात्.
पृथ्विकाय आदिकायानां हिंसा अकरण-उपदेश:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२६-३१|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा०] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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दशवैका
विकायसमारंभ, जावजीवाइ वजए ॥ २८ ॥ आउकायं न हिंसंति, मणसा वयस हारि-वृत्तिः ।
धर्मार्थकायसा । तिविहेण करणजोएण, संजया सुसमाहिआ॥ २९ ॥ आउकायं विहिंसंतो, कामा० ॥२० ॥ हिंसई उ तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥ ३०॥ तम्हा
| २ उद्देश एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । आउकायसमारंभं जावजीवाइ वजए ॥३१॥ उक्तं व्रतषट्रम्, अधुना कायषटमुच्यते, तत्र पृथिवीकायमधिकृत्याह-'पुढवित्ति सूत्रं, पृथ्वीकार्य न हिं-1 सन्त्यालेखनादिना प्रकारेण मनसा वाचा कायेन, उपलक्षणमेतदत एवाह-त्रिविधेन करणयोगेन' मनःप्रभृ-IX जातिभिः करणादिरूपेण, के न हिंसन्तीत्याह-संयता' साधकः 'सुसमाहिता' उद्युक्ता इति सूत्रार्थः ॥२६॥
अत्रैव हिंसादोषमाह-'पुढवित्ति सूत्रं, पृथिवीकार्य हिंसन्नालेखनादिना प्रकारेण 'हिनस्त्येव' तुरवधारणार्थों व्यापादयत्येव, 'तदाश्रितान् पृथिवीश्रितान 'सांश्च विविधान् प्राणिनो' द्वीन्द्रियादीन् चशब्दात्स्थाबरांश्चाप्कायादीन् 'चाक्षुषांश्चाचाक्षुषांश्च' चक्षुरिन्द्रियग्राह्यानग्राह्यांश्चेति सूत्रार्थः ॥२७॥ यस्मादेवं 'तम्ह'त्ति | सूत्रं, तस्मादेवं विज्ञाय दोषं तत्तदाश्रितजीवहिंसालक्षणं 'दुर्गतिवर्धनं संसारवर्धनं पृथिवीकायसमारंभमा-|
लेखनादि 'यावज्जीव' यावज्जीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ उक्तः सप्तमस्थानविधिः, अधुनाष्टमस्थानIN|विधिमधिकस्योच्यते-आउकार्य'ति सूत्रं, सूत्रत्रयमकायाभिलापेन नेयं, ततश्चायमप्युक्त एव २९-३०-३१॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||३२-३५|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२]मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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जायतेअं न इच्छंति, पावगं जलइत्तए । तिक्खमन्नयरंसत्थं, सव्वओऽवि दुरासयं ॥ ३२ ॥ पाईणं पडिणं वावि, उई अणुदिसामवि । अहे दाहिणओ वावि, दहे उत्तरओवि अ॥ ३३॥ भूआणमेसमाघाओ, हव्ववाहो न संसओ । तं पईवपयावट्ठा, संजया किंचि नारभे ॥ ३४॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइववणं । तेउका
यसमारंभ, जावजीवाइ वजए ॥ ३५॥ साम्प्रतं नवमस्थानविधिमाह-जायतेति सूत्रं, जाततेजा-अग्निः तं जाततेजसं नेच्छन्ति मनाप्रभृति-| भिरपि 'पाप' पाप एव पापकस्त, प्रभूतसत्त्वापकारित्वेनाशुभमित्यर्थः, किं नेच्छन्तीत्याह-'ज्यालयितुम्'। उत्पादयितुं वृद्धिं वा नेतुं, किंविशिष्टमित्याह-'तीक्ष्णं' छेदकरणात्मकम् 'अन्यतरत्शस्त्रं सर्वशस्त्रम् , एकधारादिशत्रव्यवच्छेदेन सर्वतोधारशस्त्रकल्पमिति भावः, अत एवं 'सर्वतोऽपि दुराश्रयं सर्वतोधारखेनानाश्रयणीयमिति सूत्रार्थः ॥ ३२॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह-पाईण ति सूत्रं, 'माच्या प्रतीच्यां वापि पूर्वायां पश्चिमायां चेत्यर्थः, ऊर्द्धमनुदिक्ष्वपि, 'सुपा सुपो भवन्तीति सप्तम्यर्थे षष्ठी, विदिश्वपीत्यर्थः, अधो दक्षिणतथापि 'दहति' दाद्यं भस्मीकरोत्युत्तरतोऽपि च, सर्वासु विक्षु विदिक्षु च दहतीति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ यतश्चे
१ वाचा कायेन चेच्यादर्शकचेशनिरोधात, २'भव पूर्वा वादी' अदिदादी समुपि वा पूर्वादयो भव सांदिरिति शाकटायनसूबरहस्यामापप्रयोगशका.
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा || ३६-३९ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका ० हारि-वृत्तिः |
॥ २०१ ॥
वमतो 'भूआण'त्ति सूत्रं, 'भूतानां' स्थावरादीनामेष 'आघात' आघातहेतुत्वादाघातः 'हव्यवाहः अग्निः 'न ६ धर्मार्थसंशय' इत्येवमेवैतद् आघात एवेति भावः, येनैवं तेन 'तं' हव्यवाहं 'प्रदीपप्रतापनार्थम्' आलोकशीतापनोदार्थ 'संयताः' साधवः 'किञ्चित्' संघटनादिनाऽपि नारभन्ते, संयतत्वापगमनप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ यस्मादेवं 'तम्ह'ति सूत्रं, व्याख्या पूर्ववत् ॥ ३५ ॥
कामा०
२ उद्देशः
अणिलस्स समारंभ, बुद्धा मन्नंति तारिसं । सावज्जबहुलं चेअं, नेअं ताईहि सेविअं ॥ ३६ ॥ तालिअंटेण पत्तेण, साहाविहुअणेण वा । न ते वीइउमिच्छति, वेआवेऊण वा परं ॥ ३७ ॥ जंपि वत्थं व पायं वा, कंबलं पायपुंछणं । न ते वायमुईरंति, जयं परिहरति अ ॥ ३८ ॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । बाउकायसमारंभ, जावजीवाइ वज्जए ॥ ३९ ॥
उक्त नवमस्थानविधिः, साम्प्रतं दशमस्थानविधिमधिकृत्याह – 'अणिलस्स'त्ति, 'अनिलस्य' वायो: 'समारम्भ' तालवृन्तादिभिः करणं 'बुद्धाः' तीर्थकरा 'मन्यन्ते' जानन्ति 'तादृशं' जाततेजः समारम्भसदृशं । 'सावयबहुलं' पापभूयिष्ठं चैतमितिकृत्वा सर्वकालमेव नैनं 'त्रातृभिः' सुसाधुभिः 'सेवितम्' आचरितं म
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॥ २०१ ॥
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||३६-३९|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा०] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत
सूत्रांक
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न्यन्ते बुद्धा एवेति सूत्रार्थः ॥ ३६ ॥ एतदेव स्पष्टयति-तालियंटेणत्ति सूत्रं, तालवृन्तेन पन्त्रेण शाखाविधूननेन वेत्यमीषां वरूपं यथा षड्जीवनिकायिकायां, न 'ते' साधवो वीजितुमिच्छन्त्यात्मानमात्मना, नापि
वीजयन्ति परैरात्मानं तालवृन्तादिभिरेव, नापि वीजयन्तं परमनुमन्यन्त इति सूत्रार्थः ॥ ३७ ॥ उपकरणादत्तद्विराधनेत्येतदपि परिहरन्नाह-जंपित्ति सूर्य, यदपि वस्त्रं वा पात्रं वा कम्बलं वा पादपुञ्छनम्, अमीषां | पूर्वोक्तं धर्मोपकरणं तेनापि न ते वातमुदीरयन्ति अयतप्रत्युपेक्षणादिक्रियया, किंतु यतं परिहरन्ति, परिभोगपरिहारेण धारणापरिहारेण चेति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ यत एवं सुसाधुवर्जितोऽनिलसमारम्भः, 'तम्ह'त्ति सूत्रं, व्याख्या पूर्ववत् ॥ ३९ ॥ उक्तो दशमस्थानविधिः, इदानीमेकादशमाश्रित्य उच्यते इति
वणस्सई न हिंसंति, मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥ ४०॥ वणस्सई विहिंसंतो, हिंसई अतंयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खुसे ॥४१॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवहणं । वणस्सइसमारंभ, जावजीवाइ वजए॥४२॥ तसकायं न हिंसंति, मणसा वयस कायसा । तिविहेण करणजोएणं, संजया सुसमाहिआ ॥४३॥ तसकायं विहिंसंतो, हिंसई उ
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४०-४५ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशबैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २०२ ॥
तयस्सिए । तसे अ विविहे पाणे, चक्खुसे अ अचक्खसे ॥ ४४ ॥ तम्हा एअं विआणित्ता, दोसं दुग्गइवडणं । तसकायसमारंभं, जावजीवाइ वज्जए ॥ ४५ ॥
'auter' इत्यादि सूत्रत्रयं वनस्पतेरभिलापेन ज्ञेयं, ततश्चैकादशस्थानविधिरप्युक्त एव ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥ साम्प्रतं द्वादशस्थानविधिरुच्यते--- 'तसकार्य'ति सूत्रं, 'वसकार्य' द्वीन्द्रियादिरूपं न हिंसन्त्यारम्भप्रवृत्या मनसा वाचा कायेन तदहितचिन्तनादिना 'त्रिविधेन करणयोयेन' मनःप्रभृतिभिः करणादिना प्रकारेण 'संयता:' साधवः 'सुसमाहिताः' उद्युक्ता इति सूत्रार्थः ॥ ४३ ॥ तत्रैव हिंसादोषमाह - 'तसकार्य' ति सूत्रं, त्रसकार्य विहिंसन् आरम्भप्रवृत्त्यादिना प्रकारेण हिनस्त्येव तुरवधारणार्थे व्यापादयत्येव 'तदाश्रितान्' त्रसान विविधांश्च प्राणिनः - तदन्यद्वीन्द्रियादीन, चशब्दात्स्थावरांच पृथिव्यादीन्, 'चाक्षुषानचाक्षुषांश्च' चक्षुरिन्द्रियग्राह्यानग्राद्यांश्चेति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ यस्मादेवं 'तम्ह'सि सूत्रं, तस्मादेतं विज्ञाय दोषं तदाश्रितजीवहिंसालक्षणं दुर्गतिवर्धनं संसारवर्धनं त्रयकायसमारम्भं तेन तेन विधिना 'यावज्जीवया' यावज्जीवमेव वर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥
जाई चचारि भुजाई, इसिणाऽऽहारमाइणि । ताई तु विवजंतो, संजमं अणुपालए ॥ ४६ ॥ पिंडं सिज्जं च वत्थं च चउत्थं पायमेव य । अकप्पिअं न इच्छिजा, पडि
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६ धर्मार्थ
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२ उद्देशः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४६ ४९ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
गाहिज्ज कप्पिअं ॥ ४७ ॥ जे निआगं ममायंति, कीअमुद्देसिआहडं । वहं ते समणुजाणंति, इअ उत्तं महेसिणा ॥ ४८ ॥ तम्हा असणपाणाई, कीअमुद्देसिआहडं । वजयंति ठिअप्पाणो, निग्गंथा धम्मजीविणो ॥ ४९ ॥
द्वादशस्थानविधिः प्रतिपादितं कायष्टुम् एतत्प्रतिपादनायुक्ता मूलगुणाः, अधुनैतद्वृत्तिभूतोत्तरगुणावसरः, ते चाकल्पादयः पटुत्तरगुणाः, यथोक्तम्- 'अकष्पो गिहिभायण मित्यादि, तत्राकल्पो द्विविधः - शिक्षकस्थापनाकल्पः अकल्पस्थापनाकल्पञ्च तत्र शिक्षकस्थापनाकल्पः अनधीतपिण्डनिर्युक्त्यादिनाऽऽनीतमाहारादि न कल्पत इति उक्तं च- “अणहीआ खलु जेणं पिंडेसणसज्जवत्थपाएसा । तेणाणियाणि जतिणो कप्पंति ण पिंडमाईणि ॥ १ ॥ उउबर्द्धमि न अणला वासावासे उ दोऽवि णो सेहा । दिक्खिजंती पायं ठवणाकप्पो इमो होइ ॥ २ ॥” अकल्पस्थापनाकल्पमाह - 'जाई'ति सूत्रं, यानि चत्वारि 'अभोज्यानि' संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि 'ऋषीणां' साधूनाम् 'आहारादीनि' आहारशय्यावस्त्रपात्राणि तानि तु विधिना वर्जयन् 'संयम' सप्तदशप्रकारमनुपालयेत्, तदत्यागे संगमाभावादिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ एतदेव स्पष्ट
१ अनीताः ख येन पिण्डेषणाशय्यामरूपात्रैषणाः । तेनानीतानि यतेः न कल्पन्ते पिण्डादीनि ॥ १ ॥ ऋतुबद्धे नावला: वर्षावासे तु द्वयेऽपि न - शका दीक्ष्यन्ते प्रायः स्थापनाकल्पोऽयं भवति ॥ २ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४६ ४९ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशबैका ० हारि-वृत्तिः
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यति - 'पिंड 'न्ति सूत्र, पिण्डं शय्यां च वस्त्रं च चतुर्थी पात्रमेव च एतत्स्वरूपं प्रकटार्थम्, अकल्पिकं नेच्छेत्, प्रतिगृह्णीयात् 'कल्पिकं यथोचितमिति सूत्रार्थः ॥ ४७ ॥ अकल्पिके दोषमाह - 'जे'ति सूत्रं, ये केचन द्रव्यसाध्वादयो द्रव्यलिङ्गधारिणो 'नियागंति नित्यमामन्त्रितं पिण्डं 'ममायन्तीति परिगृह्णन्ति, तथा 'क्रीतमौद्देशिकाहृतम्' एतानि यथा क्षुल्लकाचारकथायां 'वध' सस्थावराविघातं 'ते' द्रव्यसाध्वादयः 'अनुजानन्ति' दातृप्रवृत्यनुमोदनेन इत्युक्तं च 'महर्षिणा वर्धमानेनेति सूत्रार्थः ॥ ४८ ॥ यस्मादेवं 'तम्ह'त्ति सूत्रं, तस्मादर्शनपानादि चतुर्विधमपि यथोदितं क्रीतमौदेशिकमाहृतं वर्जयन्ति 'स्थितात्मानो' महासत्त्वा 'निग्रन्थाः' साधवो 'धर्मजीविनः' संयमैकजीविन इति सूत्रार्थः ॥ ४९ ॥
कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोपसु वा पुणो । भुंजंतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सइ ॥५०॥ सीओदगसमारम्भे, मत्तधोअणछडुणे । जाई छनंति (छिप्पंति) भूआई, दिट्ठो तत्थ असंजमो ॥ ५१ ॥ पच्छाकम्मं पुरेकम्मं सिआ तत्थ न कप्पइ । एअमट्टं न भुंजंति, निग्गंथा गिहिभायणे ॥ ५२ ॥
उक्त कल्पस्तदभिधानात्रयोदशस्थानविधिः, इदानीं चतुर्दशस्थानविधिमाह - 'कंसेमुत्ति सूत्रं, 'कंसेषु' करोदकादिषु 'कंसपात्रेषु' तिलकादिषु 'कुण्डमोदेषु' हस्तिपादाकारेषु मृन्मयादिषु भुञ्जानोऽशनपानादि तद
निर्ग्रन्थानाम् संयम- मर्यादा उपदेश:
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६ धर्मार्थकामा०
२ उद्देशः
॥ २०३ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५०-५२|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२]मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||५०
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न्यदोषरहितमपि 'आचारात्' श्रमणसंबन्धिनः 'परिभ्रश्यति' अपैतीति सूत्रार्थः॥५०॥ कथमित्याह-'सी-1 हओदर्गति सूत्रं, अनन्तरोद्दिष्टभाजनेषु श्रमणा भोक्ष्यन्ते भुक्तं वैभिरिति शीतोदकेन धावनं कुर्वन्ति, तदा
शीतोदकसमारम्भे' सचेतनोदकेन भाजनधावनारम्भे तथा 'मात्रकधावनोज्झने' कुण्डमोदादिषु क्षालनजलत्यागे यानि 'क्षिप्यन्ते' हिंस्यन्ते 'भूतानि' अप्कायादीनि सोऽत्र-गृहिभाजनभोजने 'दृष्ट' उपलब्धः केवल ज्ञानभाखता असंयमः तस्य भोक्तुरिति सूत्रार्थः ॥५१॥ किंच-पच्छाकम्मति सूत्रं, पश्चात्कर्म पुर:कर्म स्थात्-सत्र कदाचिद्भवेदहिभाजनभोजने, पश्चात्पुरकर्मभावस्तूक्तवदित्येके, अन्ये तु भुञ्जन्तु तावत्सा
वो वयं पश्चाद्भोक्ष्याम इति पश्चात्कर्म व्यत्ययेन तु पुरकर्म व्याचक्षते, एतच न कल्पते धर्मचारिणां, यतश्वमतः 'एतदर्थे पश्चात्कर्मादिपरिहारार्थं न भुञ्जते निग्रन्थाः, केत्याह-'गृहिभाजने' अनन्तरोदित इति सूत्रार्थः ॥५२॥
आसंदीपलिअंकेसु, मंचमासालएसु वा । अणायरिअमज्जाणं, आसइत्तु सइत्तु वा ॥ ५३ ॥ नासंदीपलिअंकेसु, न निसिज्जा न पीढए । निग्गंथाऽपडिलेहाए, बुद्धवुत्तमहिटगा ॥ ५४ ॥ गंभीरविजया एए, पाणा दुप्पडिलेहगा । आसंदी पलिअंको अ, एअमटुं विवजिआ॥ ५५॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५३-५५|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा०] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||५३-५५||
दशका० उक्तो गृहिभाजनदोषः, तदभिधानाचतुर्दशस्थानविधिः, साम्प्रतं पञ्चदशस्थानविधिमाह-आसंदित्ति धर्मार्थहारि-वृत्तिः सूत्रं, आसन्दीपर्यको प्रतीती, तयोरासन्दीपर्ययोः प्रतीतयोः, मचाशालकयोश्च, मश्च:-प्रतीतः आशाल
कामा० काकस्तु-अवष्टम्भसमन्वित आसनविशेषः एतयोः 'अनाचरितम्' अनासेवितम् 'आर्याणां साधूनाम् 'आसि- पहेचा ॥२०४॥
तुम् उपवेष्टुं 'खप्तुं वा' निद्रातिबाहनं वा कर्तु, शुषिरदोषादिति सूत्राधेः ॥ ५३॥ अत्रैवापवादमाह-नासं-II दित्ति सूत्रं, न 'आसन्दीपर्ययोः प्रतीतयोः न निषद्यायाम-एकादिकल्परूपायां न पीठके-बेत्रमयादी का निर्ग्रन्थाः' साधवः 'अप्रत्युपेक्ष्य' चक्षुरादिना, निषीदनादिन कुर्वन्तीति वाक्यशेषः, नञ् सर्वत्राभिसंबध्यते, न कुर्वन्तीति । किविशिष्टा निर्ग्रन्थाः, इस्याह-'बुद्धोक्ताधिष्ठातार तीर्थकरोक्तानुष्ठानपरा इत्यर्थः, इह चाप्रत्युपेक्षितासन्धादौ निषीदनादिनिषेधात् धर्मकथादी राजकुलादिषु प्रत्युपेक्षितेषु निषीदनादिविधिमाह, विशेषणान्यधानुपपत्तेरिति सूत्रार्थः ॥ ५४॥ तत्रैव दोषमाह-'गंभीर'त्ति सूत्रं, गम्भीरम्-अप्रकाशं विजय -आश्रयः अप्रकाशाश्रया 'एते प्राणिनामासन्धादयः, एवं च प्राणिनो दुष्प्रत्युपेक्षणीया एतेषु भवन्ति, पीयन्ते चैतदुपवेशनादिना, आसन्दः पर्यश्च चशब्दान्मश्नादयश्च एतदर्थ विवर्जिताः साधुभिरिति सूत्रार्थः॥ ५५॥ .
गोअरग्गपविट्रस्स, निसिज्जा जस्स कप्पइ । इमेरिसमणायारं, आवज्जइ अबोहिअं ॥२०४॥ ॥५६॥ विवत्ती बंभचेरस्स, पाणाणं च वहे वहो । वणीमगपडिग्धाओ, पडिकोहो
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दीप अनुक्रम [२७८-२८०]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१६-१९|| नियुक्ति: [२६८...], भाज्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२]मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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ॐ45
अगारिणं ॥ ५७ ॥ अगुत्ती बंभचेरस्स, इत्थीओ वावि संकणं । कुसीलवडणं ठाणं, दरओ परिवजए ॥ ५८॥ तिहमन्नयरागस्स, निसिज्जा जस्स कप्पई । जराए अभि
भूअस्स, वाहिअस्स तवस्सिणो॥ ५९॥ उक्तः पर्यवस्थानविधिः, तदभिधानात्पश्चदशस्थानम् , इदानीं षोडशस्थानमधिकृत्याह-'गोअरग्ग'त्ति सूत्रं, गोचरायप्रविष्टस्य भिक्षाप्रविष्टस्येत्यर्थः, निषद्या यस्य कल्पते, गृह एव निधीदनं समाचरति यः साधुरिति भावः, स खलु 'एवम्' ईदृशं वक्ष्यमाणलक्षणमनाचारम् 'आपद्यते' प्राप्नोति 'अबोधिक मिथ्यात्वफलमिति सूत्रार्थः ॥ ५६ ॥ अनाचारमाह-विवत्तित्ति सूत्र, विपत्तिब्रह्मचर्यस्य-आज्ञाखण्डनादोषतः साधुसमाचरणस्य प्राणिनां च वधे वधो भवति, तथा संवन्धादाधाकर्मादिकरणेन, वनीपकप्रतीघातः, सदाक्षेपणा
अदित्साभिधानादिना, प्रतिक्रोधश्चागारिणां तत्वजनानां च स्यात् तदाक्षेपदर्शनेनेति सूत्रार्थः ॥५७॥ तथा |'अगुत्ति'सि सूत्रं, अगुप्तिब्रह्मचर्यस्य तदिन्द्रियाद्यवलोकनेन, स्त्रीतश्चापि शङ्का भवति तदुरफुल्ललोचनदर्शनादिना अनुभूतगुणायाः, कुशीलवर्धनं स्थानम्-उक्तेन प्रकारेणासंयमवृद्धिकारक, दूरतः 'परिवर्जयेत्' परित्यजेदिति सूत्रार्थः ॥ ५८ ॥ सूत्रेणैवापवादमाह-तिहत्ति सूत्रं, 'त्रयाणां वक्ष्यमाणलक्षणानाम् 'अन्यतरस्य' एकस्य निषया गोचरप्रविष्टस्य यस्य कल्पते औचित्येन, तस्य तदासेवने न दोष इति वाक्यशेषः, कस्य पुनः कल्पत इत्याह-जरयाऽभिभूतस्य' अत्यन्तवृद्धस्य 'व्याधिमतः' अत्यन्तमशक्तस्य 'तपखिनो' विकृष्टक्ष
दीप अनुक्रम [२८१-२८४]
दश०३५
Jation
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||६०
-६३||
दीप
अनुक्रम
[ २८५
-२८८]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [६], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||६०-६३ || निर्युक्तिः [ २६८...], भाष्यं [ ६२...] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
दशवैका०पकस्य । एते च भिक्षाटनं न कार्यन्त एव, आत्मलब्धिकायपेक्षया तु सूत्रविषयः, न चैतेषां प्राय उक्तदोषाः हारि-वृत्तिः संभवन्ति, परिहरन्ति च वनीपकप्रतिघातादीति सूत्रार्थः ॥ ५९ ॥
11 204 11
वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए । बुक्कंतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ॥ ६० ॥ संति सुहुमा पाणा, घसासु भिलुगासु अ । जे अ भिक्खू सिणायंतो, विअडेणुप्पलावए ॥ ६१ ॥ तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाणमहिट्टगा ॥ ६२ ॥ सिणाणं अदुवा कक्कं, लुद्धं पउमगाणि अ । गायस्सुव्वट्टणट्टाए, नायरंति कयाइवि ॥ ६३ ॥
उक्त निषयास्थानविधिः, तदभिधानात्षोडशस्थानं, साम्प्रतं सप्तदशस्थानमाह - 'वाहिओ व 'न्ति सूत्रं, 'व्याधिमान् वा' व्याधिग्रस्तः 'अरोगी वा' रोगविप्रमुक्तो वा 'स्नानम्' अङ्गप्रक्षालनं यस्तु 'प्रार्थयते' सेवत इत्यर्थः तेनेत्थंभूतेन व्युत्क्रान्तो भवति 'आचारो' वाद्यतपोरूपः, अस्नानपरी पहानतिसहनात्, 'जदः' परित्यक्तो भवति 'संयमः' प्राणिरक्षणादिकः, अष्कायादिविराधनादिति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ प्रासुकस्नानेन कथं संयमपरित्याग इत्याह- 'संति'ति सूत्रं, सन्ति 'एते' प्रत्यक्षोपलभ्यमानखरूपाः 'सूक्ष्माः' लक्ष्णाः 'प्राणिनो' द्वीन्द्रियादयः 'घसासु' शुषिरभूमिषु 'भिलुगासु च' तथाविधभूमिराजीषु च, यांस्तु
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६ धर्मार्थकामा०
२ उद्देशः
।। २०५ ।।
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६०-६३|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा०] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक ||६०-६३||
भिक्षुः स्लानजलोज्झनक्रियया 'विकृतेन' प्रासुकोदकेनोल्लावयति, तथा च तबिराधनातः संयमपरित्याग इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ निगमयन्नाह–तम्हत्ति सूत्रं, यस्मादेवमुक्तदोषप्रसंगस्तस्मात् 'ते' साधयो न स्लान्ति शीतेन पोष्णेनोदकेन, प्रासुकेनाप्रामुकेन वेत्यर्थः, किंविशिष्टास्त इत्याह-यावज्जीवम्' आजन्म प्रतं 'घोरं दुरनुचरमस्तानमाश्रित्य 'अधिष्ठातार' अस्यैव कर्तार इति सूत्रार्थः॥३२॥ किंच 'सिणाण'ति सूत्र, 'स्लान' पूर्वो-IA क्तम्, अथवा 'कल्क' चन्दनकल्कादि''लोधं गन्धद्रव्यं 'पद्मकानि च कुडमकेसराणि, चशब्दादन्यञ्चैवंविध गात्रस्य 'उद्वर्त्तनार्थम्' उद्वर्त्तननिमित्तं नाचरन्ति कदाचिदपि, यावज्जीवमेव भावसाधव इति सूत्रार्थः ॥३३॥
नगिणस्स वावि मुंडस्स, दीहरोमनहसिणो । मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाइ कारिअं? ॥ ६४ ॥ विभूसावत्तिअं भिक्खू , कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे, जेणं पडइ दुरुत्तरे ॥६५॥ विभूसावत्तिअं चेअं, बुद्धा मन्नंति तारिस । सावजबहुलं
चेअं, नेयं ताईहिं सेविअं ॥६६॥ उक्तोऽस्नानविधिः, तदभिधानात्सप्तदशस्थानं, साम्प्रतमष्टादशं शोभावर्जनास्थानमुच्यते-शोभायां नास्ति । दोषः अलङ्कृतश्चापि चरेद्धर्म'मित्यादिवचनाद् (इति) पराभिप्रायमाशङ्कयाह-नगिणस्सत्ति सूत्रं, 'नग्नस्य वापि' कुचेलवतोऽप्युपचारनग्नस्य' निरुपचरितस्य नग्नस्य वा जिनकल्पिकस्येति सामान्यमेव सूत्रं मुण्डस्प
दीप अनुक्रम [२८५
-२८८]
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४-६६|| नियुक्ति: [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा०] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
धर्मार्थकामा० २ उद्देश:
प्रत सूत्रांक ||६४-६६||
दशका०
द्रव्यभावाभ्यां 'दीर्घरोमनखवतः' दीर्घरोमवतः कक्षादिषु दीर्घनखवतो हस्तादौ जिनकल्पिकस्य, इतरस्य तु हारि-वृत्तिः।
प्रमाणयुक्ता एव नखा भवन्ति यथाऽन्यसाधूनां शरीरेषु तमस्यपि न लगन्ति । मैथुनाद 'उपशान्तस्य' उप-
रतस्य, कि 'विभूषया' राढया कार्य?, न किञ्चिदिति सूत्रार्थः ॥ ६४ ॥ इत्थं प्रयोजनाभावमभिधायापाय- ॥२०६॥ माह-'विभूस'त्ति सूत्र, 'विभूषाप्रत्ययं विभूषानिमित्तं 'भिक्षुः साधुः कर्म बनाति 'चिकर्ण' दारुणं, संसा
रसागरे 'घोरें' रौद्रे येन कर्मणा पतति 'दुरुत्तारें अकुशलानुवन्धतोऽत्यन्तदीर्घ इति सूत्रार्थः ॥६॥ एवं मावाद्यविभूषापायमभिधाय संकल्पविभूषापायमाह-विभूस'त्ति सूत्रं, 'विभूषाप्रत्ययं विभूषानिमित्तं चेत
एवं चैवं च यदि मम विभूषा संपद्यत इति, तत्प्रवृत्त्य चित्तमित्यर्थः, 'बुद्धा' तीर्थकरा 'मन्यन्ते' जानन्ति
तादर्श' रौद्रकर्मवन्धहेतुभूतं विभूधाक्रियासदृशं 'सावद्यबहुलं चैतद्' आर्तध्यानानुगतं चेता, नैतदित्थंभूतं कात्रातृभिः' आत्मारामैः साधुभिः 'सेवितम्' आचरितं, कुशलचित्सवात्तेषामिति सूत्रार्थः ।। ६६॥
खवंति अप्पाणममोहदंसिणो, तवे रया संजमअजवे गुणे। धुणंति पावाई पुरेकडाई, नवाई पावाई न ते करंति ॥ ६७॥सओवसंता अममा अकिंचणा, सविजविज्जाणुगया जसंसिणो । उउप्पसन्ने विमलेव चंदिमा, सिद्धिं विमाणाई उति ताइणो ॥ ६८॥ तिबेमि ॥ छटुं धम्मत्थकामज्झयणं समत्तं ॥६॥
दीप
अनुक्रम [२८९-२९१]
॥२०६॥
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं [६], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६७-६८|| नियुक्ति : [२६८...], भाष्यं [६२...] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२]मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
प्रत सूत्रांक
||६७
-६८||
उक्तः शोभावर्जनस्थानविधिः, तदभिधानादष्टादशं पदं, तदभिधानाचोत्तरगुणाः, साम्प्रतमुक्तफलम-13 दर्शनेनोपसंहरन्नाह-खर्वति'त्ति सूत्रं, क्षपयन्त्यात्मानं तेन तेन चित्रायोगेनानुपशान्तं शमयोजनेन जीवं, किंविशिष्टा इत्याह-अमोहदर्शिनः' अमोहं ये पश्यन्ति, यथावत्पश्यन्तीत्यर्थः त एवं विशेष्यन्ते-तपसि-I
अनशनादिलक्षणे रताः-सक्ताः, किंविशिष्टे तपसीत्याह-संयमार्जवगुणे संयमार्जवे गुणो यस्य तपसस्तMस्मिन् , संयमकाजुभावप्रधाने, शुद्ध इत्यथें, त एवंभूता 'धुन्वन्ति' कम्पयन्त्यपनयन्ति पापानि 'पुरातानि
जन्मान्तरोपात्तानि 'नवानि' प्रत्यग्राणि पापानि न 'ते' साधवः कुर्वन्ति, तथाऽप्रमत्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥१७॥ किंच-सदोवसंतत्ति सूत्रं, 'सदोपशान्ताः' सर्वकालमेव क्रोधरहिताः, सर्वत्राममा-ममत्वशन्याः 'अकि-18 मानना' हिरण्यादिमिध्यात्वादिद्रव्यभावकिञ्चनविनिर्मुक्ताः, खा-आत्मीया विद्या वविद्या-परलोकोपकारिणी केवलश्रुतरूपा तया स्खविद्यया विद्ययानुगता-युक्ताः, न पुनः परविद्यया इहलोकोपकारिण्येति, त एव विशेष्यन्ते-'यशखिनः' शुद्धपारलौकिकयशोवन्तः, त एवंभूता ऋतौ 'प्रसन्ने' परिणते शरत्कालादी विमल | इव चन्द्रमाः चन्द्रमा इव विमला:, इत्येवंकल्पास्ते भावमलरहिताः 'सिद्धिं निवृति तथा सावशेषकर्माणो विमानानि' सौधर्मावतंसकादीनि 'उपयान्ति' सामीप्येन गच्छन्ति 'त्रातार' स्वपरापेक्षया साधवः, इति ब्रवीमीति पूर्ववत् । उक्तोऽनुगमा, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववत्, ॥ १८॥ व्याख्यातं षष्ठाध्ययनम्
इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकवृत्तौ षष्ठमध्ययनम् ॥६॥
दीप अनुक्रम [२९२-२९३]
CCCCCCCC
JanEducatatliN
अत्र षष्ठं अध्ययन परिसमाप्त
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
।।६८..।।
दीप
अनुक्रम [२९३..]
दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ २०७ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं +निर्युक्तिः+भाष्य|+ + वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| निर्युक्ति: [२६९], भाष्यं [६२...]
अथ वाक्यशुद्धयाख्यं सप्तममध्ययनम् ।
साम्प्रतं वाक्यशुद्ध्यायमध्ययनं प्रारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः - इहानन्तराध्ययने गोचरप्रविष्टेन सता वाचारं पृष्टेन तद्विदाऽपि न महाजनसमक्षं तत्रैव विस्तरतः कथयितव्य ( आचार) इति, अपि त्वालये गुरवो वा कथयन्तीति वक्तव्यमित्येतदुक्तम्, इह त्वालयगतेनापि तेन गुरुणा वा वचनदोषगुणाभिज्ञेन निरवयवचसा कथयितव्य इत्येतदुच्यते, उक्तं च- “सावजणवज्जाणं वयणाणं जो न याणइ विसेसं । वोतुंपि तस्स ण खमं किमंग पुण देसणं कार्ड १ ॥ १ ॥" इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र वाक्यशुद्धिरिति द्विपदं नाम, तत्र वाक्यनिक्षेपाभिधानायाह
निक्खेवो अ (उ) को वक्के दव्वं तु भासव्वाई । भावे भासासहो तस्स य एगडिआ इणमो ॥ २६९ ॥
व्याख्या - निक्षेपस्तु 'चतुष्को' नामस्थापनाद्रव्यभावलक्षणो 'वाक्ये' वाक्यविषयः, तत्र नामस्थापने क्षुण्णे, 'द्रव्यं तु' ब्रन्यवाक्यं पुनज्ञे शरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्तं 'भाषाद्रव्याणि' भाषकेण गृहीतान्यनुच्चार्यमाणानि, 'भाव' इति भाववाक्यं 'भाषाशब्द:' भाषाद्रव्याणि शब्दत्वेन परिणतान्युच्चार्यमाणानीत्यर्थः । तस्य तु वाक्यस्य एकार्थिकानि 'अमूनि' वक्ष्यमाणलक्षणानीति गाथार्थः ॥
बकं वयणं च गिरा सरस्साई भारही अ गो वाणी भासा पन्नवणी देसणी अ वयजोग जोगे अ ॥ २७० ॥
१] सावधानयोर्वचनयोर्यो न जानाति विशेषम्। वक्तुमपि न तस्य क्षमं किमङ्ग पुनर्देशनां कर्तुम् ॥१॥
७ वाक्य
शुद्ध्य० भाषावरूपम् २ उद्देश
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॥ २०७ ॥
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inbyg
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
अध्ययनं -७- “वाक्यशुद्धि” आरभ्यते
| अस्य अध्ययने उद्देशक: नास्ति, शिर्षकस्थाने यत् “२ उद्देश" इति मुद्रितं तत् मुद्रणदोष एव ि
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति : [२७०], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक
||६८..||
व्याख्या-वाक्यं वचनं च गी. सरस्वती भारती च गौर्वाक भाषा प्रज्ञापनी देशनी च वाग्योगो योगश्च, भएतानि निगदसिद्धान्येवेति गाथार्थः ॥ पूर्वोद्दिष्टां द्रव्यादिभाषामाह
दल्वे तिविहा गहणे अ निसिरणे तह भवे पराघाए । भावे दव्वे अ सुए चरित्तमाराहणी चेव ।। २७१ ।। व्याख्या-'द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, द्रव्यभाषा त्रिविधा-ग्रहणे च निसर्ग तथा भवेत्पराघाते । तत्र ग्रहणं भाषाद्रब्याणां काययोगेन यत् सा ग्रहणद्रव्यभाषा, निसर्गस्तेषामेव भाषाद्रव्याणां वाग्योगेनोत्स-८ गक्रिया, पराघातस्तु निसृष्टभाषाद्रब्यस्तदन्येषां तथापरिणामापादनक्रियावत्प्रेरणम्, एषा त्रिप्रकाराऽपि क्रिया द्रव्ययोगस्य प्राधान्येन विवक्षितत्वात् द्रव्यभाषेति । 'भाव' इति द्वारपरामर्शः, भावभाषा त्रिविधैव, द्रव्ये च श्रुते चारित्र इति, द्रव्यभावभाषा श्रुतभावभाषा चारित्रभावभाषा च, तत्र द्रव्यं प्रतीत्योपयुक्ता भाष्यते सा द्रव्यभावभाषा, एवं श्रुतादिष्वपि वाच्यम्, इयं त्रिप्रकारापि वकभिप्रायात्तद्रव्यभावप्राधान्यापेक्षया भावभाषा, इयं चौघत एवाराधनी चैवेति, द्रव्याचाराधनात्, चशब्दाद्विराधना चोभयं चानुभयं च 8 भवति, द्रव्याद्याराधनादिश्य इति । आह-इह द्रव्यभाववाक्यस्वरूपमभिधातव्यं, तस्य प्रस्तुतखात्, तत्किमनया भाषयेति, उच्यते, वाक्यपर्यायत्वाद्भाषाया न दोषः, तत्त्वतस्तस्यैवाभिधानादिति गाथासमुदायार्थः, अवयवार्थ तु वक्ष्यति । तत्र द्रव्यभावभाषामधिकृत्याराधन्यादिभेदयोजनामाह
आराहणी उ दवे सचा मोसा विराहणी होइ । सचामोसा मीसा असचमोसा य पडिसेहा ॥ २७२ ॥
SACSCGOCOCONSS
दीप अनुक्रम [२९३..]
SONG
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
द्रव्यभाषाया: अर्थ एवं भेदा:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२७३], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||६८..||
दशवैका व्याख्या-आराध्यते-परलोकापीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनयेत्याराधनी तु 'द्रव्य' इति द्रव्यविषया IN७वाक्यहारि-वृत्तिः भावभाषा सत्या, तुशब्दात् द्रव्यतो विराधन्यपि काचित्सत्या, परपीडासंरक्षणफलभावाराधनादिति, मृषा हा शुद्ध
विराधनी भवति, तद्रव्यान्यधाभिधानेन तद्विराधनादिति भावः, सत्यामृषा मिश्रा, मिश्रेत्याराधनी विरा- भाषास्व॥२०८॥
धनी च, असत्यामृषा च 'प्रतिषेध' इति नाराधनी नापि विराधनी, तद्बाच्यद्रव्ये तथोभयाभावादिति, आसां रूपम् Bाच स्वरूपमुदाहरणैः स्पष्ठीभविष्यतीति गाथार्थः ॥ तत्र सत्यामाह
२ उद्देश: जणवयसम्मयठवणा नामे रूवे पडुच्च सच्चे अ । ववहारभावजोगे दसमे ओवम्मसचे अ॥ २७३ ॥ व्याख्या-सत्यं तावद्वाक्यं दशप्रकारं भवति, जनपदसत्यादिभेदात्, तत्र जनपदसत्यं नाम नानादेश-18 भाषारूपमप्यविप्रतिपत्त्या यदेकार्थप्रत्यायनव्यवहारसमर्थमिति, यथोदकार्थे कोणकादिषु पयः पिचमुदकं । नीरमित्याद्यदुष्टविवक्षाहेतुत्वान्नानाजनपदेष्विष्टार्थप्रतिपत्तिजनकत्वाद्वयवहारप्रवृत्तेः सत्यमेतदिति, एवं शेष-18 प्वपि भावना कार्या । संमतसत्यं नाम कुमुदकुवलयोत्पलतामरसानां समाने पङ्कसंभवे गोपादीनामपि सं-Ik मतमरविन्दमेव पङ्कजमिति । स्थापनासत्यं नाम अक्षरमुद्राविन्यासादिषु यथा माषकोऽयं कार्षापणोऽयं शतमिदं सहस्रमिदमिति । नामसत्यं नाम कुलमवर्धयन्नपि कुलवर्द्धन इत्युच्यते धनमवर्धयमपि धनवर्द्धन इत्युच्यते अयक्षश्च यक्ष इति। रूपसत्यं नाम अतद्गुणस्य तथारूपधारणं रूपसत्वं, यथा प्रपञ्चयतेःप्रवजितरूपधारण-IN
M ॥२०८॥ समिति । प्रतीत्यसत्यं नाम यथा अनामिकाया दीर्घत्वं हखवं चेति, तथाहि-अस्थानन्तपरिणामस्य द्रव्यस्य
दीप अनुक्रम [२९३..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अथ भाषा स्वरुपम् प्रकाश्यते
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२७३], भाष्यं [६२...]
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प्रत सूत्रांक
||६८..||
तत्तत्सहकारिकारणसंनिधानेन तत्तद्पमभिव्यज्यत इति सत्यता । व्यवहारसस्यं नाम दयते गिरिगलति भाजनमनुदरा कन्या अलोमा एडकेति गिरिगततृणादिदाहे व्यवहारः प्रवर्तते तथोदके च गलति सति तथा संभोगजबीजप्रभवोदराभावे च सति तथा लवनयोग्यलोमाभावे सति । भावसत्यं नाम शुक्ला बलाका, सत्यपि पश्चवर्णसंभवे शुक्लवर्णोत्कटत्वाच्छुक्लेति । योगसत्यं नाम छत्रयोगाच्छत्री दण्डयोगाद्दण्डीत्येवमादि। दशममौपम्यसत्यं च, तत्रौपम्यसत्यं नाम समुद्रवत्तडाग इति गाथार्थः ॥ उक्ता सत्या, अधुना मृषामाह
कोहे माणे माया लोभे पेजे तहेव दोसे अ । हासभए अक्खाइय उवघाए निस्सिआ दसमा ।। २७४॥ व्याख्या-क्रोध इति क्रोधनिमृता, यथा क्रोधाभिभूतः पिता पुत्रमाह-न वं मम पुत्रः, यदा क्रोधाभिभूतो वक्ति तदाशयविपत्सितः सर्वमेवासत्यमिति, एवं माननिमृता मानाध्मातः कचिस्केनचिदल्पधनोऽपि पृष्ट आह-महाधनोऽहमिति, मायानिमृता मायाकारप्रभृतय आहुः-नष्टो गोलक इति, लोभनिसृता वणिक्मभृतीनामन्यथाक्रीतमेवेत्थमिदं क्रीतमित्यादि, प्रेमनिसृता अतिरक्तानां दासोहं तवेत्यादि, द्वेषनिमृता मत्सरिणां गुणवत्यपि निर्गुणोध्यमित्यादि, हास्यनिसृता कान्दर्पिकानां किंचित्कस्यचित्संबन्धि गृहीत्वा पृष्ठानां न दृष्टमित्यादि, भयनिस्ता तस्करादिगृहीतानां तथा तथा असमञ्जसाभिधानम्, आख्यायिकानिमृता तत्प्रतिबद्धोऽसत्प्रलापः, उपघातनिसृता अचौरे चौर इत्यभ्याख्यानवचनमिति गाथाधेः॥ पुरता मृषा, साम्प्रतं सत्यामृषामाह
दीप अनुक्रम [२९३..]
GANA
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२७४], भाष्यं [६२...]
(४२)
दशवैका हारि-वृत्ति
प्रत
॥२०९॥
सूत्रांक
||६८..||
उप्पन्नविगयमीसग जीवमजीवे अ जीवअज्जीवे । वहऽणतमीसगा खलु परित्त अद्धा अ अबद्धा ।। २७५ ॥
७वाक्यव्याख्या-'उत्पन्नविगतमिश्रके'ति उत्पन्नविषया सल्यामृषा यथैकं नगरमधिकृत्यास्मिन्नय दश दारका उ-18| शुद्ध त्पन्ना इत्यभिधतस्तन्यूनाधिकभावे, व्यवहारतोऽस्याः सत्यामृषावात्, श्वस्ते शतं दास्यामि इत्यभिधाय भाषाखपञ्चाशत्स्वपि दत्तेषु लोके मृषावादर्शनात्, अनुत्पन्नेष्वेवादत्तेष्वेव (च) मृषाखसिद्धे, सर्वथा क्रियाभावेन स-18/ रूपम् वधा व्यत्ययादित्येवं विगतादिष्वपि भावनीयमिति, तथाच विगतविषया सत्यामृषा यथैकं ग्राममधिकृत्या-८२ उद्देशः स्मिन्नध दश वृद्धा विगता इत्यभिधतस्तब्यूनाधिकभावे, एवं मिश्रका सत्यामृषा उत्पन्नविगतोभयसत्यामृषा, यथैकं पत्तनमधिकृत्याहास्मिन्नध दश दारका जाता दश च वृद्धा विगता इत्यभिधतस्तन्यूनाधिकभावे, जीवमिश्रा-जीवविषया सत्यामृषा यथा जीवन्मृतकृमिराशी जीवराशिरिति, अजीवमिश्रा च-अजीवविषयाट सत्यामृषा यथा तस्मिन्नेव प्रभूतमृतकृमिराशावजीवराशिरिति, जीवाजीवमिति-जीवाजीवविषया सत्या-| मृषा यथा तसिमक्षेव जीवन्मृतकृमिराशी प्रमाणनियमेनैतावन्तो जीवन्स्येताबन्तश्च मृता इत्यभिदधतस्तन्यू-18 नाधिकभावे । 'तधानन्तमिश्रा खस्विति अनन्तविषया सत्यामृषा यथा मूलकन्दादी परीतपत्रादिमत्यनन्तकायोऽयमित्यभिदधता, परीतमिश्रा-परीतविषया सत्यामृषा यथा अनन्तकायले शवति परीतम्लानमूलादी
॥२०९॥ परीतोऽयमित्यभिधतः । अद्धामिश्रा-कालविषया सत्यामृषा यथा कश्चित् कस्मिंश्चित् प्रयोजने सहायांस्वरयन् परिणतप्राये वासर एव रजनी वर्तत इति ब्रवीति, अद्धद्धमिश्रा च दिवसरजन्येकदेशः अद्धद्धोच्यते,
दीप अनुक्रम [२९३..]
Himcatani
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
~429~
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२७५], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||६८..||
तद्विषया सत्यामृषा यथा कर्मिश्चित् प्रयोजने त्वरयन प्रहरमात्र एव मध्याह इत्याह । एवं मिश्रशन्दा प्रत्येकमभिसंबध्यत इति गाथार्थः ।। उक्ता सत्यामृषा, साम्प्रतमसत्यामृषामाह____ आर्मतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणी अ पन्नवणी । पञ्चक्वाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा अ ॥ २७६ ॥
व्याख्या-आमन्त्रणी यथा हे देवदत्त इत्यादि, एषा किलाप्रवर्तकत्वात्सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतस्तथाविधदलोत्पत्तेरसत्यामृषेति, एवमाज्ञापनी यथेदं कुरु, इयमपि तस्य करणाकरणभावतः परमार्थेनैकत्राप्यनियमात्तथाप्रतीतेः अदुष्टविवक्षाप्रसूतत्वादसत्यामृषेति, एवं स्वबुद्ध्याऽन्यत्रापि भावना कार्येति । याचनी| यथा भिक्षां प्रयच्छेति, तथा प्रच्छनी यथा कथमेतदिति, प्रज्ञापनी यथा हिंसाप्रवृत्तो दुःखितादिर्भवति, प्रत्याख्यानी भाषा यथाऽदित्सेति भाषा, इच्छानुलोमा च यथा केनचित्कश्चिदुक्तः साधुसकाशं गच्छाम इति, स आह-शोभनमिदमिति गाथार्थः॥
अणभिन्गहिआ भासा भासा अ अभिग्गहमि बोद्धव्वा । संसयकरणी भासा बायड अव्वायडा चेव ।। २७७ ।। व्याख्या-अनभिगृहीता भाषा अर्थमनभिगृह्य योच्यते डित्थादिवत् , भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत्, तथा संशयकरणी च भाषा-अनेकार्थसाधारणा योच्यते सैन्धवमित्यादिवत्, व्याकृता-स्पष्टा प्रकटा देवदत्तस्यैषभ्रातेत्यादिवत्, अव्याकृता चैव-अस्पष्टाऽप्रकटार्था बालकादीनां थपनिकेल्यादिवदिति गाथाथैः । उक्ता असत्यामृषा, साम्प्रतमोघत एवास्याः प्रविभागमाह
दीप अनुक्रम [२९३..]
SESEORAXACUS
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२७८], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||६८..||
दशवैका० सव्यावि असा दुबिहा पजत्ता खलु तहा अपजत्ता । पढमा दो पजत्ता उवरिल्ला दो अपज्जत्ता ।। २७८ ॥
७वाक्यहारि-वृत्तिः व्याख्या-सर्वाऽपि च 'सा' सत्यादिभेदभिन्ना भाषा द्विविधा-पर्याप्सा खलु तथाऽपर्याप्ता, पर्यासा या एकपक्षे शुद्ध
मानिक्षिप्यते सत्या वा मृषा वेति तद्व्यवहारसाधनी, तद्विपरीता पुनरपोसा, अत एवाह-प्रथमे २ भाषे सस्था- भाषास्व॥२१ ॥
मृषे पर्याप्ते, तथाखविषयव्यवहारसाधनात्, तथा उपरितने द्वे सत्यामृषाऽसत्यामृषाभाषे अपर्याप्से, तथाख-181 रूपम् विषयव्यवहारासाधनादिति गाथार्थः ।। उक्ता द्रव्यभावभाषा, साम्प्रतं श्रुतभावभाषामाह
२ उद्देशः सुअधम्मे पुण तिविहा सच्चा मोसा असचमोसा अ । सम्मदिडी उ सुओवउत्तु सो भासई सबै ।। २७९ ॥ व्याख्या-'श्रुतधर्म' इति श्रुतधर्मविषया पुनस्त्रिविधा भवति भावभाषा, तद्यथा-सत्या मृषा असत्यामृषा चेति, तत्र 'सम्यग्दृष्टिस्तु' सम्यग्दृष्टिरेव 'श्रुतोपयुक्त' इत्यागमे यथावदुपयुक्तो यः स भाषते 'सत्यम्' आगमानुसारेण वक्तीति गाधार्थः॥
सम्मरिडी उ सुमि अणुवउत्तो अहेउगं चेव । जं भासइ सा मोसा मिच्छादिट्ठीवि अ तहेव ॥ २८॥ व्याख्या-सम्मट्ठिी सम्यग्दृष्टिरेव सामान्येन 'श्रुतें आगमे अनुपयुक्तः प्रमादायत्किचिद् 'अहेतुकं चैव' युक्तिविकलं चैव यद्भाषते तन्तुभ्यः पट एव भवतीत्येवमादि सा मृषा, विज्ञानादेरपि तत एच भा-18 वादिति । मिथ्यादृष्टिरपि 'तथैवे'त्युपयुक्तोऽनुपयुक्तो वा यद्भाषते सा मृषैच, घुणाक्षरन्याय(यात् संवादेऽपि ॥२१॥ सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तवदिति गाथार्थः॥
SANSAR
दीप अनुक्रम [२९३..]
is Etcu
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२८१], भाष्यं [६२...]
प्रत
सूत्रांक
||६८..||
हवइ उ असञ्चमोसा सुमि उवरिलए तिनाथमि । जं उवउचो भासइ एचो बोच्छं चरित्तंभि ।। २८१ ॥ व्याख्या-भवति तु असल्यामृषा 'श्रुते' आगम एव परावर्तनादि कुर्वतस्तस्यामाण्यादिभाषारूपत्वात्तथा उपरितने' अवधिमनःपर्यायकेवललक्षणे 'विज्ञान' इति ज्ञानत्रये यदुपयुक्तो भाषते सा असत्यामृषा, आम- ब्रण्यादिवत् तथाविधाध्यवसायप्रवृत्तेः, इत्युक्ता श्रुतभावभाषा । अत ऊर्दू वक्ष्ये 'चारित्र' इति चारित्रवि-| षयां भावभाषामिति गाथार्थः ॥
पढमविदा चरिते भासा दो व होति नायब्वा । सचरित्तस्स उ भासा सक्षा मोसा छ इअरस्स ।। २८२ ॥ | व्याख्या-प्रथमद्वितीये सत्यामुषे 'चारित्र' इति चारित्रविषये भाषे द्वे एव भवतो ज्ञातव्ये, खरूपमाह |
-'सचरित्रस्य' चारित्रपरिणामवतः, तुशब्दात्तद्धिनिबन्धनभूता च भाषा द्रव्यतस्तथाऽन्यथाभावेऽपि सत्या, सतां हितत्वादिति । मृषा तु 'इतरस्य' अचारित्रस्य तदृद्धिनिवन्धनभूता चेति गाथार्थः ॥ उक्तं वाक्यमधुना शुद्धिमाह
णामंठवणासुद्धी दव्यसुद्धी अ भावसुद्धी अ । एएसि पत्ते परूवणा होइ कायव्या ।। २८३ ॥ व्याख्या-नामशुद्धिः स्थापनाशुद्धिद्रव्यशुद्धिश्च भावशुद्धिश्च, 'एतेषां नामशुझ्यादीनां प्रत्येक प्ररूपणा भवति कर्तव्येति गाथार्थः । तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनङ्गीकृत्य द्रव्यशुद्धिमाह
तिविहा उदल्यसुद्धी तहव्वादेसओ पहाणे अ । तहबगमाएसो अणण्णमीसा हवइ सुद्धी ॥ २८४ ॥
दीप अनुक्रम [२९३..]
RECE0256*%A750
दश०३६
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अथ "शुद्धि" शब्दस्य नामादि चत्वारः निक्षेपा: दर्शयते
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२८४], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक
||६८..||
सवैका व्याख्या-विविधा तु द्रव्यशुद्धिर्भवति तद्रव्यत' इति तद्रव्यशुद्धिः 'आदेशत' इति आदेशद्रव्यशुद्धिः वाक्यहारि-वृत्तिः प्राधान्यतश्चेति प्राधान्यद्रव्यशुद्धिश्च । तत्र तद्रव्यशुद्धिः 'अनन्ये त्यनन्यद्रव्यशुद्धिः, यड्रव्यमन्येन द्रव्येण शुद्धः
सहासंयुक्तं सच्छुद्धं भवति क्षीरं दधि वा असौ तद्रव्यशुद्धिा, आदेशे मिश्रा भवति शुद्धिरन्यानन्यविषया, भाषास्व. ॥२११॥
एतदुक्तं भवति-आदेशतो द्रव्यशुद्धिर्द्विविधा-अन्यखेनानन्यत्वेन च, अन्यत्वे यथा शुद्धवासा देवदत्ता,का रूपम् अनन्यत्वे शुद्धदन्त इति गाथार्थः॥ प्राधान्यद्रव्यशुद्धिमाह
२ उद्देशः ___वण्णरसगंधफासे समणुण्णा सा पहाणओ सुद्धी । तत्थ उ सुकिल महुरा छ संमया चेव उक्कोसा ॥ २८५ ॥
व्याख्या-वर्णरसगन्धस्पर्शेषु या मनोज्ञता-सामान्येन कमनीयता अथवा मनोज्ञता-यथाभिप्रायमनुकू-18 हालता सा प्राधान्यतः शुद्धिरुच्यते, "तत्रं चैवंभूतचिन्ताव्यतिकरे शुक्मधुरौ वर्णरसी तुशब्दात्सुरभिमृद।
गन्धस्पशौं च संमती, यथाभिप्रायमपि प्रायो मनोज्ञी, बहूनामित्थंप्रवृत्तिसिद्धे, 'उत्कृष्टौ च' कमनीयौ च । चशब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः ।। उक्ता द्रव्यशुद्धिा, अधुना भावशुद्धिमाह
एमेव भावसुखी तब्भावाएसओ पहाणे अ । तम्भावगमाएसो अणण्णमीसा हवाइ सुद्धी ।। २८६ ॥ - व्याख्या-'एवमेवेति यथा द्रव्यशुद्धिस्तथा भावशुद्धिरपि, त्रिविधेत्यर्थः, 'तद्भाव' इति तद्भावशुद्धिः 'आ-12 देशत' इति आदेशभावशुद्धिः 'प्राधान्यतधेति प्राधान्यभावशुद्धिश्च, तत्र तावशुद्धिः 'अनन्ये'त्यनन्यभा-131 वशुद्धिस्तद्भावशुद्धिः, यो भावोऽन्येन भावेन सहासंयुक्तः सन् शुद्धो भवति बुभुक्षितादेरन्नायभिलाषव
दीप अनुक्रम [२९३..]
॥२११॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति: [२८६], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक
||६८..||
दसौ तद्भावशुद्धिः, आदेशे मिश्रा भवति शुद्धिस्तदन्यानन्यविषयेत्यर्थः, एतदुक्तं भवति-आदेशभावशुद्धि िविधा-अन्यत्वेऽनन्यत्वे च, अन्यत्वे यथा शुद्धभावस्य साधोगुरुः अनन्यत्वे शुद्धभाव इति गाथार्थः॥ प्रधानभावशुद्धिमाह
दसणनाक्चरित्ते तवोविसुद्धी पहाणमाएसो । जम्हा उ बिसुद्धमलो तेण विमुद्धो हवइ मुद्धो ।। २८७ ॥ व्याख्या 'दर्शनज्ञानचारित्रेषु' दर्शनज्ञानचारित्रविषया तथा तपोविशुद्धिः 'प्राधान्यादेश' इति यद्दर्शना-3 दीनामादिश्यमानानां प्रधानं सा प्रधानभावशुद्धिः, यथा दर्शनादिषु क्षायिकाणि ज्ञानदर्शनचारित्राणि,
तपाप्रधानभावशुद्धिः-आन्तरतपोऽनुष्ठानाराधनमिति। कथं पुनरियं प्रधानभावशुद्धिरिति?, उच्यते, एभिर्दर्श18नादिभिः शर्यमाद्विशुद्धमलो भवति साधुः, कर्ममलरहित इत्यर्थः, तेन च मलेन 'विशुद्धों मुक्तो भवति ।
सिद्ध इत्यतः प्रधानभावशुद्धिर्यथोक्तान्येव दर्शनादीनीति गाथार्थः ॥ उक्ता शुद्धिः, इह च भावशुख्याधिकारः, सा च वाक्यशुद्धेर्भवतीत्याह
जं वर्ष वयमाणरस संजयो सुज्झई न पुण हिंसा । न य अत्तकलुसभालो सेण इह बकसुद्धित्ति ।। २८८ ॥ व्याख्या-'यद्' यस्माद्वाक्यं शुद्धं वदतः सतः संयमः शुद्ध्यति, शुद्ध्यतीति निर्मल उपजायते, न पुनहिंसा भवति कोशिकादेरिव, न चात्मनः कलुषभावः कालुष्यं-दुष्टाभिसंधिरूपं संजायते, तेन कारणेन 'इह' प्रवचने वाक्यशुद्धिर्भावशुद्धेनिमित्तमित्यतोऽत्र प्रयतितव्यमिति गाथार्थः। ततश्चैतदेव कर्तव्यमित्याह
दीप अनुक्रम [२९३..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६८...|| नियुक्ति : [२८९], भाष्यं [६२...]
प्रत
सूत्रांक
||६८..||
दशवैका० ववणविभत्तीकुसलस संजमंमी समुजुयमइस्स । दुम्भासिएग हुज्जा हु विराहणा तत्थ जइअव्वं ॥ २८९ ॥
(७वाक्यहारि-वृत्तिः व्याख्या-'वचनविभक्तिकुशलस्य' वाच्येतरवचनप्रकाराभिज्ञस्य न केवलमित्थंभूतस्यापितु 'संयमे उ(समु)-18| शुख्य
चतमतेः' अहिंसायां प्रवृत्तचित्तस्येत्यर्थः तस्याप्येवंभूतस्य कथंचिदुर्भाषितेन कृतेन भवेत् विराधना-परलो- भाषास्व॥२१२॥ कपीडा अतः 'तत्र' दुर्भाषितवाक्यपरिज्ञाने 'यतितव्यं प्रयत्नः कायें इति गाथाथैः।। आह-ययेवमलमनेनैव|8| रूपम्
प्रयासेन, मौनं श्रेय इति, न, अज्ञस्य तत्रापि दोषाद, आह प
बयणविभत्तिअकुसलो वओगयं बहुविहं अयाणतो । जइवि न भासइ किंची न चेव वयगुत्तथं पत्तो ॥ २९० ।। व्याख्या-वचनविभक्त्यकुशलो' वाच्येतरप्रकारानभिज्ञः 'वाग्गतं बहुविधम्' उत्सर्गादिभेदभिन्नमजानानः यद्यपि न भाषते किश्चित् मौनेनैवास्ते, न चैव वाग्गुप्ततां प्राप्तः, तथाप्यसी अवारगुप्त एवेति गाथार्थः॥ व्यतिरेकमाह
वयणविभत्तीकुंसलो बओगयं बहुविहं वियाणतो । दिवसंपि भासमाणो तहावि क्यगुत्तयं पत्तो ॥ २९१ ।। दी व्याख्या-वचनविभक्तिकुशलों वाच्येतरप्रकाराभिज्ञः 'वाग्गतम्' बहुविधमुत्सर्गादिभेदभिन्नं विजानन् दिवसमपि भाषमाणः सिहान्तविधिना तथापि वारगुप्ततां प्राप्ता, वारगुप्त एवासाविति गाथार्थेः ॥ साम्प्रतं
R ॥२१२॥ ४ वचनविभक्तिकुशलस्यौघतो क्वनविधिमाह
पुलं युद्धीइ पेहिता, पच्छा वयमुयाहरे । अचक्खुओ व नेतार, बुद्धिमन्नेउ ते गिरा ॥ २९२ ॥
दीप अनुक्रम [२९३..]
CHCECA
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति: वचनविभक्ति-अकुशलानां उपदेश:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक , मूलं [१५...] / गाथा ||१-४|| नियुक्ति: [२९२], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||१-४||
व्याख्या-'पूर्व प्रथममेव वचनोचारणकाले 'बुद्ध्या प्रेक्ष्य' वाच्यं दृष्ट्वा पश्चाद्वाक्यमुदाहरेत् , अर्थापत्या कस्यचिदपीडाकरमित्यर्थः, दृष्टान्तमाह-'अचक्षुष्मानिव' अन्ध इव 'नेतारम्' आकर्षक 'बुद्धिमन्येतु ते गी' बुद्ध्यनुसारेण वाक्प्रवर्ततामिति श्लोकार्थः॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्थावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तच्चेदम्
चउण्हं खलु भासाणं, परिसंखाय पन्नवं । दुण्हं तु विणयं सिक्खे, दो न भासिज्ज सव्वसो ॥१॥ जा अ सच्चा अवत्तव्वा, सच्चामोसा अ जा मुसा । जा अ बुद्धेहिं नाइन्ना, न तं भासिज पन्नवं ॥२॥ असञ्चमोसं सच्चं च, अणवजमकक्कसं । समुप्पेहमसंदिद्धं, गिरं भासिज्ज पन्नवं ॥ ३॥ एअं च अट्ठमन्नं वा, जंतु नामेइ सासयं ।
स भासं सच्चमोसंपि, तंपि धीरो विवज्जए ॥४॥ | चतसृणां खलु भाषाणां, खलुशब्दोऽवधारणे, चतमृणामेव, नातोऽन्या भाषा विद्यत इति, "भाषाणां सत्यादीनां परिसंख्याय' सवैः प्रकाराखा, स्वरूपमिति वाक्यशेषः 'प्रज्ञावान्' प्राज्ञो बुद्धिमान साधुः, किमित्याह-द्वाभ्यां सत्यासत्यामृषाभ्यां तुरवधारणे द्वाभ्यामेवाभ्यां 'विनयं' शुद्धप्रयोगं विनीयतेऽनेन कर्मेतिकृस्वा
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दीप अनुक्रम [२९४-२१७]]
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्रा४२]मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
| सूत्रकारेण सूत्रितं भाषा स्वरुपम्
~436~
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||१-४||
दीप
अनुक्रम
[२९४
-२१७]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २१३ ॥
:+भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१-४|| निर्युक्तिः [२९२...], भाष्यं [६२...]
'शिक्षेत' जानीयात्, 'द्वे' असत्यासत्यामुषे न भाषेत 'सर्वशः' सर्वैः प्रकारैरिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ विनयमेवाह - 'जा अ सबत्ति सूत्रं, या च सत्या पदार्थतत्त्वमङ्गीकृत्य 'अवक्तव्या' अनुचारणीया सावद्यत्वेन, अमुत्र स्थिता पल्लीति कौशिकभाषावत्, सत्यामृषा वा यथा दश दारका जाता इत्यादिलक्षणा, मृषा च संपूर्णव, चशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, या च 'बुद्धेः' तीर्थकरगणधरैरनाचरिता असत्यामृषा आमन्त्रण्याज्ञापन्यादिल5 क्षणा अविधिपूर्वकं खरादिना प्रकारेण, 'नैनां भाषेत' नेत्थंभूतां वाचं समुदाहरेत् 'प्रज्ञावान्' बुद्धिमान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ यथाभूताऽवाच्या भाषा तथाभूतोक्ता, साम्प्रतं यथाभूता वाच्या तथाभूतामाह - 'असचमोस'ति सूत्रम्, 'असत्यामृषाम्' उक्तलक्षणां 'सत्यां च' उक्तलक्षणामेव, इयं च सावद्यापि कर्कशापि भवत्यत आह-'असावयाम्' अपापाम् 'अकर्कशाम्' अतिशयोक्त्या ह्यमत्सरपूर्वी 'संप्रेक्ष्य' खपरो|पकारिणीति बुद्ध्याऽऽलोच्य 'असंदिग्ध' स्पष्टामक्षेपेण प्रतिपत्तिहेतुं 'गिरं' वाचं 'भाषेत' ब्रूयात् 'प्रज्ञावान्' बुद्धिमान साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ साम्प्रतं सत्यासत्यानृषाप्रतिषेधार्थमाह--' एअं चन्ति सूत्रम्, 'एतं चार्थम्' अनन्तरप्रतिषिद्धं सावयकर्कशविषयम् 'अन्यं वा' एवंजातीयं, प्राकृतशैल्या 'यस्तु नामयति शाश्वतं य एव कश्चिदर्थो नामयति-अननुगुणं करोति शाश्वतं - मोक्षं तमाश्रित्य 'स' साधुः पूर्वोक्तभाषाभाषकत्वेनाधिकृतो भाषां 'सत्यामृषामपि' पूर्वोक्ताम्, अपिशब्दात्सत्यापि या तथाभूता तामपि 'धीरो' बुद्धिमान् 'विवर्जयेत्' न ब्रूयादिति भावः । आह- सत्यामृषाभाषाया ओघत एव प्रतिषेधातथाविधसत्यायाच
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७ वाक्य
शुज्य० भाषास्व
रूपम्
२ उद्देश
॥ २१३ ॥
Far P&Personal Use Chily
ayang
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक -1, मूलं [१५...] / गाथा ||५-७|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५-७||
सावद्यत्वेन गतार्थ सूत्रमिति, उच्यते, मोक्षपीडाकर सूक्ष्ममप्यर्थमङ्गीकृत्यान्यतरभाषाभाषणमपि न कर्तव्य-13/ मित्यतिशयप्रदर्शनपरमेतदुष्टमेवेति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥
वितहपि तहामुत्ति, जं गिरं भासए नरो । तम्हा सो पुट्रो पावेणं, किं पुणं जो मुसं वए? ॥ ५॥ तम्हा गच्छामो वक्खामो, अमुगं वा णे भविस्सइ । अहं वा णं करिस्सामि, एसो वा णं करिस्सइ ॥६॥ एवमाइ उ जा भासा, एसकालंमि संकिआ।
संपयाइअम? वा, तंपि धीरो विवज्जए ॥७॥ . साम्प्रतं मृषाभाषासंरक्षणार्थमाह-'वितहपिसि सूत्र, 'वितथम् अतध्यं 'तधामूर्यपि' कथंचित्तत्खरूपमपि वस्तु, अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः, एतदुक्तं भवति-पुरुषनेपथ्यस्थितवनितावप्यङ्गीकृत्य यां गिरं
भाषते नरः, इयं स्त्री आगच्छति गायति वेत्यादिरूपां, 'तस्माद् भाषणादेवभूतात्पूर्वमेवासी वक्ता भाषणा-18 दाभिसंधिकाले 'स्पृष्टः पापेन' बद्धः कर्मणा, किं पुनर्यो मृषा वक्ति भूतोपघातिनी याचं?, स सुतरां बद्ध्यत
इति सूत्रार्थः ॥ ५॥'तम्ह'त्ति सूत्रं, यस्माद्वितथं तथामूर्त्यपि वस्त्वङ्गीकृत्य भाषमाणो बयते तस्माद्गमिष्याम | 13 एव श्व इतोऽन्यत्र, वक्ष्याम एव श्वस्तत्तदोषधनिमित्तमिति, अमुकं वा नः कार्य वसत्यादि भविष्यत्येव, अहं8
चेदं लोचादि करिष्यामि नियमेन, एष वा साधुरस्माकं विश्रामणादि करिष्यत्येवेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ एव-14
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दीप अनुक्रम [२९८
-३००]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||८-१०|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||८-१०||
दशवका०12माइ'त्ति सूत्रम्, एवमाया तु या भाषा, आदिशब्दात् पुस्तकं ते दास्याम्पेवेत्येवमादिपरिग्रह, 'एष्यस्काले' ७ वाक्यहारि-वृत्तिः भविष्यत्कालविषया, बहुविनत्वात् मुहूर्तादीनां 'शङ्किता' किमिदमित्यमेव भविष्यत्युतान्पधेस्यनिश्चितगो-| शुख्य
चरा, तथा साम्प्रतातीतायोरपि या शङ्किता, साम्प्रतार्थे स्त्रीपुरुषाविनिश्चये एष पुरुष इति, अतीतार्थेड-I भाषास्व॥२१४॥
प्येवमेव वलीवर्दतत्रूयायनिश्चये तदाऽत्र गौरस्माभिदृष्ट इति । याप्येवंभूता भाषा शङ्किता तामपि धीरो रूपम् विवर्जयेत्, तत्तथाभावनिश्चयाभावेन व्यभिचारतो मृषात्वोपपत्तेः, विनतोऽगमनादौ गृहस्थमध्ये लाघवादि-18 २ उद्देश प्रसङ्गात्, सर्वमेव सावसरं वक्तव्यमिति सूत्रार्थः ॥ ७॥ किंच
अईअंमि अ कालंमि, पञ्चुप्पण्णमणागए । जम, तु न जाणिजा, एवमेअंति नो वए ॥८॥ अईअंमि अ कालंमि, पचुप्पण्णमणागए । जत्थ संका भवे तं तु, एवमेअंति नो वए ॥ ९॥ अईयंमि अ कालंमि, पञ्चुप्पण्णमणागए । निस्संकिअं भवे
जंतु, एवमेअंतु निदिसे ॥१०॥ 'अईयमिति सूत्रं, अतीते च काले तथा प्रत्युत्पन्ने वर्तमानेऽनागते च यमर्थ तु न जानीयात् सम्यगेव-13 समयमिति, तमङ्गीकृत्य एवमेतदिति न ब्रूयादिति सूत्रार्थः, अयमज्ञातभाषणप्रतिषेधः ॥ ८॥ तथा—'अईय-12 ४म्मित्ति सूत्रं, अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते यत्रार्थे शङ्का भवेदिति तमप्यर्थमाश्रित्यैवमेतदिति न ब्रूया
दीप अनुक्रम [३०१-३०३]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||११-२०|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
-
45
प्रत सूत्रांक ||११-२०||
दिति सूत्रार्थः, अयमपि विशेषतः शङ्कितभाषणप्रतिषेधः ॥९॥ तथा-'अईयंमित्ति सूत्र, अतीते च काले प्रत्युत्पन्नेऽनागते निःशङ्कितं भवेत्, यदर्थजातं तुशब्दादनवयं, तदेवमेतदिति निर्दिशेत, अन्ये पठन्ति'स्तोकस्तोक'मिति, तत्र परिमितया वाचा निर्दिशेदिति सूत्रार्थः ॥१०॥
तहेव फरुसा भासा, गुरुभूओवघाइणी । सच्चावि सा न वत्तव्वा, जओ पावस्स आगमो ॥ ११ ॥ तहेव काणं काणत्ति, पंडगं पंडगत्ति वा । वाहिअं वावि रोगित्ति, तेणं चोरत्ति नो वए ॥ १२ ॥ एएणऽन्नेण अटेणं, परो जेणुवहम्मइ । आयारभावदोसन्नू , न तं भासिज पन्नवं ॥ १३ ॥ तहेव होले गोलित्ति, साणे वा वसुलित्ति अ । दमए दुहए वावि, नेवं भासिज्ज पन्नवं ॥ १४ ॥ अज्जिए पजिए वावि, अम्मो माउसिअत्ति अ । पिउस्सिए भायणिज्जत्ति, धूए णन्तुणिअत्ति अ॥ १५॥ हले हलित्ति अन्नित्ति, भद्दे सामिणि गोमिणि । होले गोले वसुलित्ति, इथिअं नेवमालवे ॥ १६ ॥ नामधिजेण णं बूआ, इत्थीगुत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज वा
दीप
अनुक्रम [३०४-३१३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
भाषा, यत् तु नो वदेत्
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||११-२०|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक
-२०||
दशका ॥ १७ ॥ अजए पजए वावि, बप्पो चुल्लपिउत्ति अ। माउलो भाइणिज ति, पुत्ते ७वाक्यहारि-वृत्तिः द णतुणिअत्ति अ॥ १८ ॥ हे भो हलित्ति अन्नित्ति, भद्दे सामिअ गोमिअ । होल
शुद्ध्य
भाषास्व॥२१५॥ गोल वसुलि ति, पुरिसं नेवमालवे ॥ १९ ॥ नामधिज्जेण णं बूआ, पुरिसगुत्तेण वा पुणो । जहारिहमभिगिज्झ, आलविज लविज वा ॥ २० ॥
२ उद्देश: 'तहेवत्ति सूत्रं, तथैव 'परुषा भाषा' निष्ठुरा भावलेहरहिता 'गुरुभूतोपघातिनी' महाभूतोपघातवती, यथा कश्चित्कस्यचित् कुलपुत्रत्वेन प्रतीतस्तदा तं दासमित्यभिदधतः, सर्वथा सत्यापि सा बाखार्थातथाभा-- |वमङ्गीकृस्य न वक्तव्या, 'यतो' यस्या भाषायाः सकाशात् 'पापस्यागमः' अकुशलबन्धो भवतीति सूत्रार्थः। ॥ ११ ॥ 'तहेवत्ति सूत्रं, तथैवेति पूर्ववत् , 'काणति भिन्नाक्षं काण इति, तथा 'पण्डक नपुंसकं पण्डक इति वा, व्याधिमन्तं वापि रोगीति, स्तेनं चौर इति नो वदेत्, अप्रीतिलजानाशस्थिररोगबुद्धिविराधनादिदोघप्रसङ्गादिति गाथार्थः ॥ १२ ॥ 'एएण'त्ति सूत्रं, एतेनान्येन वाऽर्थेनोक्तेन सता परो येनोपहन्यते, येन केन-14 चित्प्रकारेण । आचारभावदोषज्ञो यतिनं तं भाषेत प्रज्ञावांस्तमर्थमिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ 'तहेवत्ति सूत्रं,
तथैवेति पूर्ववत्, होलो गोल इति श्वा वा वसुल इति वा द्रमको वा दुर्भगश्चापि नैवं भाषेत प्रज्ञावान् । इह 5/ ॥२१५॥ दाहोलादिशब्दास्तत्सदेशप्रसिद्धितो नैष्ठुर्यादिवाचकाः अतस्तत्प्रतिषेध इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ एवं स्त्रीपुरुषयोद
SSC
दीप
अनुक्रम [३०४-३१३]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||११-२०|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||११-२०||
सामान्येन भाषणप्रतिषेधं कृत्वाऽधुना स्त्रियमधिकृत्याह-अजिए'त्ति सूत्रं, आर्जिके प्रार्जिके वापि अम्ब मातृष्वस इति च पितृष्वसः भागिनेयीति दुहितः नप्त्रीति च । एतान्यामश्रणवचनानि वर्तन्ते, तन्त्र मातु: पितुर्वा माताऽऽर्यिका, तस्या अपि याऽन्या माता सा प्रार्यिका, शेषाभिधानानि प्रकटार्थान्येवेति सूत्रार्थः H॥१५॥ किं च-हले हले'त्ति सूत्रं, हले हले इत्येवमन्ने इत्येवं तथा मह खामिनि गोमिनि । तथा होले
गोले वसुले इति, एतान्यपि नानादेशापेक्षया आमन्त्रणवचनानि गौरवकुत्सादिगर्भाणि वर्तन्ते, यतश्चैवमतः स्त्रियं नैवं हलादिशब्दरालपेदिति, दोषाश्चैवमालपनं कुर्वतः सङ्गगहाँतत्पद्वेषप्रवचनलाघवादय इति सूत्रार्थः
॥१६॥ यदि नैवमालपेत् कथं तालपेदित्याह-नामधिजेणं ति सूत्रं, 'नामधेयेने ति नाम्नैव एनां ब्रूया|त्रिय कचित्कारणे यथा देवदत्ते! इत्येवमादि । नामास्मरणादौ गोत्रेण वा पुन—यात् स्त्रियं यथा काश्यपगोत्रे! इत्येवमादि, 'यथाई' यथायथं वयोदेशैश्वर्याद्यपेक्षया 'अभिगृह्य' गुणदोषानालोच्य 'आलपेल्लपेद्वाह ईषत्सकृद्वा लपनमालपनमतोऽन्यथा लपनं, तत्र वयोवृहा मध्यदेशे ईश्वरा धर्मप्रियाऽन्यत्रोच्यते धर्मशीले इत्यादिना, अन्यथा च यथा न लोकोपघात इति सूत्रार्थः ॥ १७॥ उक्तः स्त्रियमधिकृत्यालपनप्रतिषेधो विविश्व, साम्प्रतं पुरुषमाश्रित्याह-'अजएत्ति सूत्रं, आर्यकः प्रार्यकश्चापि वप्पश्चुल्लपितेति च, तथा मातुल |भागिनेयेति पुत्र नप्त इति च, इह भावार्थः स्त्रियामिव द्रष्टव्यः, नवरं चुल्लबप्पः पितृभ्योऽभिधीयत इति सूत्रार्थः॥१८॥किंच-'हे भोत्ति सूत्रं, हे भो हलेति। अन्नेत्ति भर्तः। स्वामिन् गोमिन् होल गोल वसुल इति
दीप
अनुक्रम [३०४-३१३]
Samekcisani
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२५|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक ||२१
-२५||
दशवैका० पुरुष नैवमालपेदिति, अबापि भावार्थः पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥१९॥ यदि नैवमालपेत्, कथं तालपेदि- वाक्यहारि-वृत्तिः त्याह-नामधिज्जेण'त्ति सूत्रं, व्याख्या पूर्ववदेव, नवरं पुरुषाभिलापेन योजना कार्येति ॥ २० ।।
शुद्ध्य ॥२१ ॥ पंचिंदिआण पाणाणं, एस इत्थी अयं पुमं । जाव णं न विजाणिज्जा, ताव जाइत्ति
भाषास्व
रूपम् आलवे ॥ २१ ॥ तहेव माणुसं पसुं, पक्खि वावि सरीसर्व । थूले पमेइले वझे, पा
२ उद्देशः यमित्ति अ नो वए ॥ २२ ॥ परिवूढत्ति णं बूआ, बूआ उवचिअत्ति अ । संजाए पीणिए वावि, महाकायत्ति आलवे ॥ २३ ॥ तहेव गाओ दुज्झाओ, दम्मा गोरहगत्ति अ। वाहिमा रहजोगित्ति, नेवं भासिज पन्नवं ॥ २४ ॥ जुवं गवित्ति णं आ,
घेणुं रसदयत्ति अ । रहस्से महल्लए वावि, वए संवहणित्ति अ॥ २५ ॥ उक्तः पुरुषमप्याश्रित्यालपनप्रतिषेधो विधिश्च, अधुना पञ्चेन्द्रियतिर्यग्गतं वाग्विधिमाह-'पंचिंदिआप्राण'सि सूत्र, 'पश्चेन्द्रियाणां गवादीनां प्राणिनां 'कचिदू' विप्रकृष्टदेशावस्थितानामेषा स्त्री गौरय पुमान् बपालीवर्दः, यावदेतद्विशेषेण न विजानीयात् तावन्मार्गप्रश्नादौ प्रयोजने उत्पन्ने सति 'जाति'मिति जातिमा-४॥२१६॥ श्रित्यालपेत्, अस्माद्गोरूपजातात्कियरेणेत्येवमादि, अन्यथा लिङ्गव्यत्ययसंभवान्मृषावादापत्तिः, गोपाला
दीप अनुक्रम [३०४-३१३]
RAHA%
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२५|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
4-MARA
प्रत
HISRUSSRP4
सूत्रांक ||२१
दीनामपि विपरिणाम इत्येवमादयो दोषाः, आक्षेपपरिहारौ तु वृद्धविवरणादवसेयौ, तच्चेदम्-जइ लिंगवच्चए
दोसो ता कीस पुढवादि नपुंसगत्तेवि पुरिसिथिनिद्देसो पयहइ, जहा पत्थरो महिआ करओ उस्सा मुम्मुरो। लाजाला वाओवाउली अंबओ अंपिलिआकिमिओजल्या मकोडओकीडिआ भमरओ मच्छिया इच्छेवमादि',
आयरिओ आह-जणवयसच्चेण चवहारसच्चेण य एवं पयइत्ति ण एत्थ दोसो, पंचिदिए पुण ण एयमगीकीरह, गोवालादीणवि ण सुविठ्ठधम्मत्ति विपरिणामसंभवाओ, पुच्छिअसामायारिकहणे वा गुणसंभवादिति इति सूत्रार्थः ॥ २१॥ किंच-तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैव' यथोक्तं प्राक् 'मनुष्यम्' आर्यादिकं 'पशुम्' अजादिकं 'पक्षिर्ण वापि' हंसादिकं 'सरीसृपम् अजगरादिकं स्थूल' अत्यन्तमांसलोऽयं मनुष्यादिः तथा 'प्रमेदुर' प्रकर्षेण मेदःसंपन्नः तथा 'वध्यों' व्यापादनीयः पाक्य इति च नो वदेत्, 'पाक्य' पाकप्रायोग्यः, कालप्राप्त इत्यन्ये, 'नो वदेत् न ब्रूयात् तदप्रीतितव्यापत्त्याशङ्कादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ २२॥ कारणे पुनरुत्पन्न एवं वदेदित्याह-परिवूढत्ति सूत्रं, परिवृद्ध इत्येनं-स्थूलं मनुष्यादिं ब्रूयात्, तथा यादुपचित इति च, संजातः प्रीणितश्चापि महाकाय इति चालपेत् परिवृद्धं, पलोपचितं परिहरेदित्यादाविति सूत्राथें।
१ यदि लिजव्यत्यये दोषः तदा कर्ष पृष्यादीनां नपुंसकरवेऽपि श्री सत्वेन निर्देश प्रवर्तते, यथा प्रसारो मृत्तिका करकोऽवश्यायो मुसुरो ज्याला बातो चातूली (वाया) बाम अम्लिका कमिः जलीकाः मत्कोटकः कीटिका भ्रमरो मक्षिका इत्येवमादि ?, आचार्य आह-जनपदसत्येन व्यवहारसत्येन पे प्रवर्तते इति गात्र दोषः, पवेन्द्रियेषु पुन तदीक्रियते, गोपालादीनामपि न सुदृष्टधर्माय इति विपरिणामसंभवाद, पृष्टसामाचारीकपने वा गुणसंभवात.
-२५||
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दीप अनुक्रम [३०४-३१३]
दश०३७
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२५|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...]
प्रत
सूत्रांक ||२१
-२५||
दशवका० ॥ २३ ॥ किंच-तहेवत्ति सूत्रं, तथैव गावो 'दोह्या' दोहाहीं दोहसमय आसां वर्तत इत्यर्थः, 'दम्या वाक्यहारि-वृत्तिः 18 दमनीया गोरथका इति च, गोरथकाः कल्होडाः, तथा वाह्याः सामान्येन ये कचित्तानाश्रित्य रथयोग्याश्चैत शुद्ध्य.
इति नैवं भाषेत प्रज्ञावान साधुः, अधिकरणलाघवादिदोषादिति सूत्रार्थः ॥ २४ ॥ प्रयोजने तु कचिदेवं भाषास्व॥२१७॥
भाषेतेत्याह-जुर्व ति सूत्रं, युवा गौरिति-दम्यो गौर्युवेति यात्, धेनुं गां रसदेति ब्रूयात्, रसदा गौ- रूपम् रिति, तथा इखं महल्लकं वापि गोरथकं हखं वाचं महल्लकं वदेत्, संवहनमिति रथयोग्यं संवहनं वदेत् | KI२ उद्देश: कचिद्दिगुपलक्षणादौ प्रयोजन इति सूत्रार्थः ॥ २५॥
तहेव गंतुमुजाणं, पव्वयाणि वणाणि अ। रुक्खा महल्ल पेहाए, नेवं भासिज पन्नवं ॥ २६ ॥ अलं पासायखंभाणं, तोरणाण गिहाण अ । फलिहऽग्गलनावाणं, अलं उदगदोणिणं ॥२७॥ पीढए चंगबेरे (रा) अ, नंगले मइयं सिआ। जंतलठ्ठी व नाभी वा, गंडिआ व अलं सिआ ॥ २८ ॥ आसणं सयणं जाणं, हुज्जा वा किंचुवस्सए । भूओवघाइणि भासं, नेवं भासिज्ज पन्नवं ॥ २९ ॥ तहेव गंतुमुजाणं, पव्वयाणि वणाणि अ । रुक्खा महल्ल पेहाए, एवं भासिज पन्नवं ॥ ३०॥ जाइमंता इमे रुक्खा,
RROGASC-I-KARMA
दीप अनुक्रम [३१४-३१८]
MIN२१७॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||२६
-३५||
दीप
अनुक्रम
[३१९
-३२८]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा || २६-३५ || निर्युक्तिः [२९२...], भाष्यं [ ६२...]
दीवा महालया । पयायसाला विडिमा, वए दरिसणित्ति अ ॥ ३१ ॥ तहा फलाई पक्काई, पायखज्जाई नो वए । वेलोइयाई टालाई, वेहिमाइ ति नो वए ॥ ३२ ॥ असंथडा इमे अंबा, बहुनिव्वडिमाफला । वइज बहुसंभूआ, भूअरूवत्ति वा पुणो ॥ ३३ ॥ तहेवोसहिओ पक्काओ, नीलिआओ छवीइ अ । लाइमा भज्जिमाउत्ति, पिहुखज त्ति नो वए ॥ ३४ ॥ रूढा बहुसंभूआ, थिरा ओसढावि अ । गम्भिआओ पसूआओ, संसाराउति आलवे ॥ ३५ ॥
'तव'त्ति सूत्र, 'तथैवेति पूर्ववत्, गत्वा 'उद्यानं' जनक्रीडास्थानं तथा पर्वतान् प्रतीतान् गत्वा तथा वनानि च तत्र वृक्षान् 'महतो' महाप्रमाणान् 'प्रेक्ष्य' दृष्ट्वा नैवं भाषेत 'प्रज्ञावान्' साधुरिति सूत्रार्थः ॥ २६ ॥ किमित्याह - 'अलं'ति सूत्रं, 'अलं' पर्याप्ता एते वृक्षाः प्रासादस्तम्भयोः, अत्रैकस्तम्भः प्रासादः, स्तम्भस्तु स्तंभ एव, तयोरलम्, तथा 'तोरणाना' नगरतोरणादीनां 'गृहाणां च' कुटीरकादीनाम्, अलमिति योगः, तथा 'परिधार्गलानावां चा' तत्र नगरद्वारे परिघः गोपुरकपाटादिष्वर्गला नौः प्रतीतेति आसामलमेते वृक्षाः, १ 'अलं निवारणे । अलङ्करणसामर्थ्य पर्याप्तिष्ववचारने' इत्युक्तेः अलमिति पर्याप्त्यर्थंग्रहणमित्युक्वात्र सामर्थ्यर्थग्रहणात्र चतुर्थी.
Far P&Personal Use City
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२६-३५|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
प्रत
सूत्रांक
||२६-३५||
दशवैका०तथा उदकद्रोणीनां अलम् , उदकद्रोण्योऽरहट्टजलधारिका इति सूत्रार्थः ॥ २७ ॥ तथा 'पीढएत्ति सूत्रं, वाक्यहारि-वृत्तिः पीठकायालमेते वृक्षाः, पीठकं प्रतीतं तदर्थम् , 'सुपां सुपो भवन्तीति चतुर्थ्यर्थे प्रथमा, एवं सर्वत्र योजनीयं,
शुद्ध तथा 'चंगवेरा येति चङ्गवेरा-काष्ठपात्री तथा नंगले'त्ति लागलं-हलं, तथा अलं मयिकाय स्यात्, मयिकम् भाषास्व॥२१८॥ ४-उप्तबीजाच्छादनं, तथा यत्रयष्टये वा, यनयष्टिः प्रतीता, तथा नाभये वा, नाभिः शकटरथाङ्ग, गण्डिकायै |
रूपम् वाऽलं स्युरेते वृक्षा इति, नैवं भाषेत प्रज्ञावानिति वर्तते, गण्डिका सुवर्णकाराणामधिकरणी (अहिगरणी) २उहेश स्थापनी भवतीति सूत्रार्थः ॥ २८ ॥ तथा 'आसणं'ति सूत्रं, 'आसनम् आसन्दकादि 'शयनं' पर्यादि 'यानं' युग्यादि भवेद्बा किश्चिदुपाश्रये-वसतावन्यद्-द्वारपात्राद्येतेषु वृक्षेष्विति 'भूतोपघातिनी' सत्त्वपीडाकारिणी भाषां नैव भाषेत प्रज्ञावान साधुरिति सूत्रार्थः ।। दोषाश्चात्र तदनस्वामी व्यन्तरादिः कुप्येत्, सलक्षणो वा वृक्ष इत्यभिगृह्णीयात्, अनियमितभाषिणो लाघवं चेत्येवमादयो योज्याः॥ २९ ॥ अत्रैव विधिमाह-तहेव'सि सूत्रं, वस्तुतः पूर्ववदेव, मवरमेवं भाषेत ॥ ३०॥ 'जाइमंत'त्ति सूत्रं, 'जातिमन्तः उत्तम-12 जातयोऽशोकादयः अनेकप्रकारा 'एत' उपलभ्यमानस्वरूपा वृक्षा 'दीर्घवृत्ता महालपाः' दीर्घा नालिकेरीप्र-IN
भृतयः वृत्ता नन्दिवृक्षादयः महालया वटादयः 'प्रजातशाखा' उत्पन्नडाला 'विटपिन' प्रशाखावन्तो वदेप्रदर्शनीया इति च । एतदपि प्रयोजन उत्पन्ने विश्रमणतदासन्नमार्गकधनादौ वदेशान्यदेति सूत्रार्थः ॥ ३१॥
या २९ ॥२१८।। 'तहा फलाणि'त्ति सूत्रं, तथा 'फलानि' आम्रफलादीनि 'पक्कानि' पाकप्राप्तानि तथा 'पाकखाद्यानि
दीप अनुक्रम
[३१९
-३२८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत सूत्रांक
||२६
-३५||
दीप
अनुक्रम
[३१९
-३२८]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा || २६-३५ || निर्युक्तिः [२९२...], भाष्यं [ ६२...]
बद्धास्वीनीति गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति नो वदेत् । तथा 'वेलोचितानि' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्तीत्यर्थः, 'टालानि' अवद्धास्थीनि कोमलानीति तदुक्तं भवति, तथा 'द्वैधिकानीति पेशी संपादनेन द्वैधीभावकरणयोग्यानीति नो वदेत् । दोषाः पुनरत्रात ऊर्ध्व नाश एवामीषां न शोभनानि वा प्रकारान्तरभोगेनेत्यवधार्य गृहिप्रवृत्तावधिकरणादय इति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ प्रयोजने पुनर्मार्गदर्शनादावेवं वदेदित्याह - 'असंधड 'त्ति सूत्रं, असमर्धा 'एते' आना, अतिभरण न शक्नुवन्ति फलानि धारयितुमित्यर्थः, आम्रग्रहणं प्रधानवृक्षोपलक्षणम्, एतेन पक्कार्थ उक्तः, तथा 'बहुनिर्वर्त्तितफलाः बहूनि निर्वर्त्तितानि - बद्धास्थीनि फलानि येषु ते तथा अनेन पाकखायार्थ उक्तः, वदेद् 'बहुसंभूताः' बहूनि संभूतानि - पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि फलानि येषु ते तथा, अनेन वेलोचितार्थ उक्तः, तथा भूतरूपा इति वा पुनर्वदेत्, भूतानि रूपाणि - अवद्धास्थीनि कोमल फलरूपाणि येषु ते तथा, अनेन टालाद्यर्थ उपलक्षित इति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ 'तहेव'त्ति सूत्रं, तथा 'ओषधयः' शाल्यादिलक्षणाः, पका इति, तथा नीलाइछ्वय इति वा वल्लचवलकादिफललक्षणाः तथा 'लवनवत्यो' लवनयोग्या: 'भर्जनवत्य' इति भर्जनयोग्याः तथा 'पृथुकभक्ष्या' इति पृथुकभक्षणयोग्याः, नो वदेदिति सर्वत्राभिसंबध्यते, पृथुका | अर्धपकशाल्यादिषु क्रियन्ते, अभिधानदोषाः पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ प्रयोजने पुनमर्गदर्शनादावेवमालपेदित्याह - 'रुट' ति सूत्रं, 'रूढाः' प्रादुर्भूताः 'बहुसंभूता' निष्पन्नप्रायाः 'स्थिर' निष्पन्ना: 'उत्सृता' इति
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yang
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||३६-३७|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
दशवैका हारि-वृत्तिः
प्रत
॥२१९॥
शुख्य भाषाव
रूपम् २ उद्देश:
सूत्रांक
||३६-३७||
उपघातेभ्यो निर्गता इति वा, तथा 'गर्भिता' अनिर्गतशीर्षकाः 'प्रसूता' निर्गतशीर्षकाः 'संसाराः संजात-IN तन्दुलादिसारा इत्येवमालपेत्, पक्काद्यर्थयोजना खधिया कार्येति सूत्रार्थः ॥ ३५ ॥
तहेब संखडिं नच्चा, किच्चं कजंति नो वए। तेणगं वावि वज्झित्ति, सुतिस्थिति अ आवगा ॥ ३६ ॥ संखडि संखडिं बूआ, पणिअट्ट त्ति तेणगं । बहुसमाणि तित्थाणि,
आवगाणं विआगरे ॥ ३७॥ वाग्विधिप्रतिषेधाधिकारेऽनुवर्तमान इदमपरमाह-तहेवत्ति सूत्रं, तथैव 'संखडिं ज्ञात्वा' संखण्ड्यन्ते । प्राणिनामायूंषि यस्यां प्रकरणक्रियायां सा संखडी तां ज्ञात्वा, 'करणीय'ति पित्रादिनिमित्तं कृत्यैवैषेति नो |वदेत्, मिथ्याखोपवृंहणदोषात्, तथा स्तेनकं वापि वध्य इति नो वदेत, तदनुमतत्वेन निश्चयादिदोषप्रस-1 झात्, सुतीर्थी इति च, चशब्दाहुस्तीर्था इति वा 'आपगा' नद्यः केनचित्पृष्टः सन्नो वदेत, अधिकरणविघातादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ।। ३६॥ प्रयोजने पुनरेवं वदेदित्याह-संखडिन्ति सूत्रं, संखडि संखडिं ब्रूयात, साधुकथनादौ संकीर्णा संखडीत्येवमादि, पणितार्थ इति स्तेनकं वदेत, शैक्षकादिकर्मविपाकदर्शनादौ, पणितेनार्थोऽस्येति पणिता, प्राणतप्रयोजन इत्यर्थः, तथा बहुसमानि तीर्थानि 'आपगानां नदीनां व्यागृणीयात् साध्वादिविषय इति सूत्रार्थः ॥ ३७॥
दीप अनुक्रम [३२९-३३०]
X EKACESSIL
॥२१९॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||३८
-४०||
दीप
अनुक्रम
[३३१
-३३३]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||३८-४० || निर्युक्तिः [२९२...], भाष्यं [ ६२...]
तहा नईओ पुण्णाओ, कायतिज्जति नो वए । नावाहिं तारिमाउत्ति, पाणिपिजत्ति नो वए ॥ ३८ ॥ बहुवाडा अगाहा, बहुसलिलुप्पिलोदगा । बहुवित्थडोदगा आवि, एवं भासिज पन्नवं ॥ ३९ ॥ तहेव सावज्जं जोगं, परस्सट्टा अ निट्टिअं । कीरमाणंति वा नच्चा, सावज्जं न लवे मुणी ॥ ४० ॥
वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह - 'तहा नईउ'ति सूत्रं, तथा नय: 'पूर्णा' भृता इति नो वदेत्, प्रवृत्तश्रवणनिवर्त्तनादिदोषात्, तथा 'कायतरणीयाः शरीरतरणयोग्या इति नो वदेत्, साधुवचनतोऽविममिति प्रवर्त्तनादिप्रसङ्गात्, तथा नौभिः-द्रोणीभिस्तरणीयाः -तरणयोग्या इत्येवं नो वदेत्, अन्यथा विनशङ्कया तत्प्रवर्त्तनात्, तथा 'प्राणिपेया:' तटस्थप्राणिपेया नो वदेदिति तथैव प्रवर्तनादिदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ प्रयोजने तु साधुमार्गकथनादावेवं भाषेतेत्याह-- 'बहुवाहड'त्ति सूत्रं, बहुभृताः प्रायशो भृता इत्यर्थः, तथा 'अगाधा' इति बह्नगाधाः प्रायोगम्भीराः, तथा 'बहुसलिलोत्पीलोदकाः' प्रतिस्रोतोवाहितापरसरित इत्यर्थः तथा 'विस्तीर्णोदकाच' खतीरलावनप्रवृत्तजलाच, एवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुः, न तु तदाऽऽगतष्पृष्टो न वेद्म्यहमिति ब्रूयात्, प्रत्यक्षमृषावादित्वेन तत्प्रद्वेषादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ३९ ॥ वाग्विधिप्रतिषेधाधिकार एवेदमाह - 'तहेब'सि सूत्रं तथैव 'सावयं' सपापं 'योगं' व्यापारमधिकरणं सभादिविषयं 'परस्यार्थाय'
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-४२|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
वाक्यशुख्य भाषास्व
प्रत
रूपम्
सूत्रांक
२ उद्देश:
||४१-४२||
दशवैका०परनिमित्तं निष्ठित निष्पन्नं तथा 'क्रियमाणं वा वर्तमानं वाशब्दाद्भविष्यत्कालभाविनं वा ज्ञात्वा 'सा- हारि-वृत्तिः वयं नालपेत्' सपापं न ब्रूयात् 'मुनिः' साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ४०॥ ॥२२०॥ सुकडित्ति सुपक्कित्ति, सुच्छिन्ने सुहडे मडे । सुनिट्रिए सुलट्रित्ति, सावज वजए
मुणी ॥४१॥ पयत्तपक्कत्ति व पक्कमालवे, पयत्तछिन्नत्ति व छिन्नमालवे । पयत्तल
द्वित्ति व कम्महेउअं, पहारगाढत्ति व गाढमालवे ॥ ४२ ॥ तत्र निष्ठितं नैवं ब्यादित्याह-'सुकडि'सि सूत्रं, 'सुकृत'मिति सुष्ठ कृतं सभादि 'सुपक मिति सुष्टु पार्क सहस्रपाकादि 'सुच्छिन्न मिति सुष्टु छिन्नं तदनादि 'सुहृत मिति सुष्टु हृतं क्षुद्रस्य वित्तं 'सुमृत' इति सुष्टु मृतः प्रत्यनीक इति, अत्रापि सुशब्दोऽनुवर्तते, 'सुनिष्टित'मिति सुष्टु निष्ठितं वित्ताभिमानिनो वित्तं 'मुलहित्ति सुष्टु सुन्दरा कन्या इत्येवं सावद्यमालपनं वर्जयेदू मुनिा, अनुमत्यादिदोषप्रसङ्गात्, निरवयं तु
न वर्जयेत्, यथा-'सुकृतमिति मुष्ठ कृतं वैयावृत्त्यमनेन 'सुपक मिति सुष्टु पकं ब्रह्मचर्य साधोः 'सुच्छिनिमिति सुष्टु छिन्नं स्नेहबन्धनमनेन, 'सुहृत'मिति सुष्टु हृतं शिक्षकोपकरणमुपसर्गे 'सुमृत' इति सुष्टु मृतः
पण्डितमरणेन साधुरिति, अत्रापि मुशब्दोऽनुवर्तते, 'सुनिष्ठित'मिति सुष्ठ निष्ठितं कर्माप्रमत्तसंयतस्य 'मुलट्ठत्ति सुष्टु सुन्दरा साधुक्रियेत्येवमादीति सूत्रार्थः ॥ ४१ ॥ उक्तानुक्तापवादविधिमाह-'पयत्तत्ति
दीप अनुक्रम [३३४-३३५]]
॥२२०॥
Edream
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत सूत्रांक
॥४१
-४२||
दीप
अनुक्रम
[३३४
-३३५]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-४२ || निर्युक्तिः [२९२...], भाष्यं [ ६२...]
सूत्रं, 'प्रयत्नपक' मिति वा प्रयत्नपक्कमेतत् 'पकं' सहस्रपाकादि ग्लानप्रयोजन एवमालपेत्, तथा 'प्रयत्नच्छि न मिति वा प्रयत्नच्छिन्नमेतत् 'छिन्नं' बनादि साधुनिवेदनादी एवमालपेत्, तथा 'प्रयत्नलष्टे'ति वा प्रयत्नसु न्दरा कन्या दीक्षिता सती सम्पक पालनीयेति 'कर्महेतुक' मिति सर्वमेव वा कृतादि कर्मनिमित्तमालपेदिति योग:, तथा 'गाढमहार' मिति वा कश्चन गाढमालपेत्- गाढप्रहारं ब्रूयात् कचित्प्रयोजने एवं हि तदप्रीत्यादयो दोषाः परिहृता भवन्तीति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥
सव्वुक्कसं परग्धं वा अउलं नत्थि एरिसं । अविक्किअमवत्तव्वं अचिअत्तं चैव नो व ॥ ४३ ॥ सव्वमेअं वइस्सामि सव्वमेअं ति नो वए । अणुवीइ सव्वं सव्वत्थ, एवं भासिज पनवं ॥ ४४ ॥ सुक्कीअं वा सुविक्कीअं, अकिज्जं किज्जमेव वा । इमं गियह इमं मुंच, पणीअं नो विआगरे ॥ ४५ ॥ अप्पग्धे वा महग्घे वा, कए वा विकएव वा । पणिअट्टे समुत्पन्ने, अणवजं विआगरे ॥ ४६ ॥
कचिद्व्यवहारे प्रक्रान्ते पृष्टोऽपृष्टो वा नैवं ब्रूयादित्याह - 'सब्बुकसं'ति सूत्रं, एतन्मध्य इदं 'सर्वोत्कृष्टं' स्वभावेन सुन्दरमित्यर्थः, 'परार्धे वा' उत्तमार्धं वा महा क्रीतमिति भावः अतुलं नास्तीदृशमन्यत्रापि कचित्, 'अविकिअं'ति असंस्कृतं सुलभमीदृशमन्यत्रापि, 'अवक्तव्य' मित्यनन्तगुणमेतत् अविअत्तं वा-अ
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४३-४६|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
28*
*
प्रत
*
*
सूत्रांक
२ उद्देशः
||४३-४६||
दशवेका हामीतिकरं चैतदिति नो वदेत्, अधिकरणान्तरायादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥४३॥ किं च-'सव्व
७वाक्यहारि-वृत्ति मेति सूखं, 'सर्वमेतद्वक्ष्यामीति केनचित् कस्यचित् संदिष्टे समेतत्वया वक्तव्यमिति सर्वमेतद्वक्ष्यामीति | शुख्य ॥२२१॥
नो वदेत्, सर्वस्य तथास्वरव्यञ्जनायुपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्, तथा सर्वमेतदिति नो वदेत, कस्यचित्संदेशं भाषास्वप्रयच्छन् सर्वमेतदित्येवं वक्तव्य इति नो वदेत्, सर्वस्य तथाखरव्यञ्जनायुपेतस्य वक्तुमशक्यत्वात्, असंभ-15 रूपम् वाभिधाने मृषावादः, यतश्चैवमतः 'अनुचिन्त्य' आलोच्य सर्व वाच्यं 'सर्वत्र' कार्येषु यथा असंभवाद्यभि-द धानादिना मृषावादो न भवत्येवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः॥४४ ॥ किंच-मुक्कीअं वत्ति सूत्रं, 'सुक्रीतं वेति किश्चित् केनचित् क्रीतं दर्शितं सत्सुक्रीतमिति न व्यागृणीयात् इति योगः, तथा 'सुविक्री
त'मिति किश्चित्केनचिद्विक्रीतं रष्टा पृष्टः सन् सुविक्रीतमिति न व्यागृणीयात्, तथा केनचित् क्रीते पृष्टः 11'अक्रेयं क्रयामेव न भवतीति न व्यागृणीयात, तथैवमेव 'केयमेव वा क्रयाईमेवेति, तथा 'इदं गुडादि दिगृहाणागामिनि काले महा भविष्यति तथा 'इदं मुञ्च घताद्यागामिनि काले समर्घ भविष्यतीतिकृत्वा
'पणितं पण्यं नैव व्यागृणीयात्, अप्रीत्यधिकरणादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४५ ॥ अत्रैव विधिमाह'अप्पग्घे वत्ति सूत्रं, अल्पाचै वा महार्धे वा, कस्मिन्नित्याह-क्रये वा विक्रयेऽपि वा 'पणितार्थे' पण्यवस्तुनि समुत्पन्ने केनचित् पृष्टः सन् 'अनवद्यम्' अपापं व्यागृणीयात् यथा नाधिकारोऽत्र तपखिना व्यापाराभावा|दिति सूत्रार्थः ॥ ४६॥
2-6436-0-5
दीप अनुक्रम [३३६-३३९]
R||२२१॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४७-४९|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||४७-४९||
तहेवासंजय धीरो, आस एहि करेहि वा । सय चिट्र वयाहित्ति, नेवं भासिज पन्नवं ॥४७॥ बहवे इमे असाहू, लोए वुच्चंति साहुणो । न लवे असाहु साहुत्ति, साहुं साहुत्ति आलवे ॥४८॥ नाणदंसणसंपन्नं, संजमे अ तवे रयं । एवंगुणसमाउत्तं,
संजय साहुमालवे ॥ ४९ ॥ किंच-तहेब'त्ति सूत्रं, तथैव 'असंयत' गृहस्थं 'धीर' संयतः आस्खेहैव, एहीतोऽत्र, कुरु वेद-संचयादि, तथा शेष्व निद्रया, तिष्ठो स्थानेन, ब्रज ग्राममिति नैवं भाषेत प्रज्ञावान् साधुरिति सूत्रार्थः ॥४७॥ किंच-बहवेत्ति सूत्रं, बहवः 'एते' उपलभ्यमानखरूपा आजीवकादयः असाधवः निर्वाणसाधकयोगापेक्षया 'लोके तु' प्राणिसंघाते उच्यन्ते साधवः सामान्येन, तत्र नालपेदसाधु साधु, भूषावादप्रसङ्गात्, अपितु साधु साधुमित्यालपेत्, न तु तमपि नालपेत्, उपबृंहणातिचारदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥४८॥ किंविशिष्टं साधु साधुमित्यालपेदित्यत आह-नाण'त्ति सूत्रं, ज्ञानदर्शनसंपन्नं-समृद्धं संयमे तपसि च रतं यथाशक्ति एवं-| गुणसमायुक्तं संयतं साधुमालपेत्, न तु द्रव्यलिङ्गधारिणमपीति सूत्रार्थः ॥ ४९ ॥
देवाणं मणुआणं च, तिरिआणं च बुग्गहे । अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ त्ति
दीप अनुक्रम [३४०-३४२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५०-५४|| नियुक्ति : [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
दशवैका० हारि-वृत्तिः ॥२२२॥
प्रत सूत्रांक ||५०-५४||
नो वए ॥५०॥ वाओ वुटं च सीउण्हं, खेमं धायं सिवंति वा । कया णु हुज्ज ए. ७ वाक्यआणि?, मा वा होउ ति नो वए ॥ ५१ ॥ तहेव मेहं व नहं व माणव, न देवदेव
शुद्ध त्ति गिरं वइजा । समुच्छिए उन्नए वा पओए, वइज्ज वा वुटु बलाहय त्ति ॥ ५२ ॥
भाषास्व
रूपम् अंतलिक्खत्ति णं बूआ, गुज्झाणुचरिअत्ति अ । रिद्धिमंतं नरं दिस्स, रिद्धिमंतंति
२ उद्देशा आलवे ॥ ५३॥ तहेव सावजणुमोअणी गिरा, ओहारिणी जा य परोवघाइणी । से
कोह लोह भय हास माणवो, न हासमाणोऽवि गिरं वइजा ॥ ५४॥ किंच-'देवाणीति सूत्रं, 'देवानां देवासुराणां 'मनुजानां नरेन्द्रादीनां 'तिरश्चा' महिषादीनां च 'विग्रहे। संग्रामे सति 'अमुकानां देवादीनां जयो भवतु मा वा भवत्विति नो वदे, अधिकरणतत्स्वाम्यादिद्वेषदो
प्रसङ्कादिति सूत्रार्थः॥५०॥ किं च–'वाउ'त्ति सूत्रं, 'वातो' मलयमारुतादिः, 'वृष्टं वा वर्षणं, शीतोष्णं प्रतीतं 'क्षेमं राजविड्वरशून्यं 'भातं' सुभिक्षं 'शिव'मिति चोपसर्गरहितं कदा नु भवेयुः 'एतानि वातादीनि, मा वा भवेयुरिति धर्माद्यभिभूतो नो वद्, अधिकरणादिदोषप्रसङ्गाद्, वातादिषु सत्सु सत्त्वपीडापत्तेः||॥२२२॥ तद्वचनतस्तथाभवनेऽप्यातध्यानभावादिति सूत्रार्थः ॥५१॥'तहेव'त्ति सूत्रं, तथैव मेघ वा नभो चा मानवं
२.%20-%ाकर
दीप अनुक्रम [३४३-३४७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत सूत्रांक
||५०
-५४||
दीप
अनुक्रम
[३४३
-३४७]
वश० ३८
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [७], उद्देशक [ - ], मूलं [ १५...] / गाथा ||५०-५४|| निर्युक्तिः [ २९२...], भाष्यं [६२...]
वाऽऽश्रित्य नो देवदेवन्ति गिरं वदेत्, मेघमुन्नतं दृष्ट्वा उन्नतो देव इति नो वदेत्, एवं 'नभ' आकाशं 'मानवं' राजानं वा देवमिति नो वदेत्, मिथ्यावादलाघवादिप्रसङ्गात् । कथं तर्हि वदेदित्याह उन्नतं दृष्ट्वा संमूछित उन्नतो वा पयोद इति वदेद्वा वृष्टो बलाहक इति सूत्रार्थः ॥ ५२ ॥ नभ आश्रित्याह-'अंतलिक्ख'त्ति सूत्रं, इह नभोऽन्तरिक्षमिति ब्रूयाद्यानुचरितमिति वा, सुरसेवितमित्यर्थः, एवं किल मेघोऽप्येतदुभयशदिवाच्य एव । तथा 'ऋद्धिमन्तं' संपदुपेतं नरं दृष्ट्वा, किमित्याह- 'रिद्धिमंत' मिति ऋद्धिमानयमित्येवमालपेत्, व्यवहारतो मृषावादादिपरिहारार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ५३ ॥ किंच- 'तहेब'त्ति सूत्रं तथैव सावधानुमोदिनी 'गी' वागू यथा सुष्ठु हतो ग्राम इति, तथा 'अवधारिणी' इदमित्थमेवेति संशयकारिणी वा, या च | परोपघातिनी यथा-मांसमदोषाय 'से' इति तामेवंभूतां क्रोधाल्लोभाद्रयाद्धासाद्वा, मानप्रेमादीनामुपलक्षणमेतत्, 'मानवः' पुमान् साधुने हसन्नपि गिरं वदेत्, प्रभूतकर्मबन्धहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ५४ ॥
सकसुद्धिं समुपेहिआ मुणी, गिरं च दुटुं परिवज्जए सया । मिअं अदुडे (इं) अणुवीइ भासए, सयाण मज्झे लहई पसंसणं ॥ ५५ ॥ भासाइ दोसे अ गुणे अ जाणिआ, तीसे अदुट्टे परिवज्जए सया । छसु संजए सामणिए सया जए, वइज बुद्धे हिअ
१ एवम समाप्तावित्यु केरेयमथोऽत्रेतिस्तेन न देवमिति विरुद्धम्
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः उपसंहार-रूपेण भाषाशुद्धिः विषयक उपदेशः
~ 456 ~
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५५-१७|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
७िवाक्य
दशवैका० हारि-वृत्तिः
शुद्यः
॥२२३॥
प्रत सूत्रांक ||५५
भाषास्व. रूपम्
-4७||
माणुलोमिअं ॥ ५६ ॥ परिक्खभासी सुसमाहिइंदिए, चउक्कसायावगए अणिस्सिए । से निहुणे धुन्नमलं पुरेकडं, आराहए लोगमिणं तहा परं ॥ ५७॥ ति बेमि ॥
सवक्कसुद्धीअज्झयणं समत्तं ॥७॥ वाक्यशुद्धिफलमाह-'सवक्क'त्ति सूत्रं, सद्वाक्यशुद्धिं खवाक्यशुद्धिं वा सवाक्य शुद्धिं वा, सती शो-| भना, खामात्मीयां, स इति वक्ता, वाक्यशुद्धिं 'संप्रेक्ष्य' सम्यग् दृष्ट्वा 'मुनि' साधुः गिरं तु 'दुष्टां यथोक्तलक्षणां परिवर्जयेत् सदा, किंतु 'मित' खरतः परिमाणतश्च, 'अदुष्टं देशकालोपपन्नादि 'अनुविचिन्त्य' पर्यालोच्य भाषमाणः सन् 'सतां' साधूनां मध्ये 'लभते प्रशंसन प्रामोति प्रशंसामिति सूत्रार्थः ॥ ५५ ॥ यतश्चैवमतः–'भासाईत्ति सूत्रं, "भाषाया' उक्तलक्षणाया दोषांश्च गुणांश्च 'ज्ञात्वा' यथावदवेत्य तस्याश्च दुष्टाया भाषायाः परिवर्जकः सदा, एवंभूतः सन् षड्जीवनिकायेषु संयता, तथा 'श्रामण्ये श्रमणभावे चरणपरिणामगर्भे चेष्टिते 'सदा यतः' सर्वकालमुटुक्तः सन् वदेद् बुद्धो 'हितानुलोम हितं-परिणामसुन्दरम् अनुलोमं -मनोहारीति सूत्रार्थः ॥५६॥ उपसंहरन्नाह-परिक्ख'त्ति सूत्रं, 'परीक्ष्यभाषी' आलोचितवक्ता तथा 'सुसमाहितेन्द्रिय सुप्रणिहितेन्द्रिय इत्यर्थः, 'अपगतचतुष्कषायः क्रोधादिनिरोधकर्तेति भावः, 'अनिश्रितों
दीप अनुक्रम
[३४८
-३५०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
~457~
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [७], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१५-१७|| नियुक्ति: [२९२...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५५
द्रव्यभावनिश्रारहितः, प्रतिबन्धविमुक्त इति हृदयम् , स इत्थंभूतो निधूयं प्रस्फोट्य 'धूनमल' पापमलं I'पुराकृतं' जन्मान्तरकृतं, किमिति?-'आराधयति' प्रगुणीकरोति लोकम् 'एनं मनुष्यलोकं वाक्संयतत्वेन,
तथा 'पर'मिति परलोकमाराधयति निर्वाणलोकं, यथासंभवमनन्तरं पारम्पर्येण वेति गर्भः। ब्रवीमीति पूर्व|वत् । नयाः पूर्ववदेव ॥ ५७॥
-4७||
इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवकालिकटीकायां (सप्तमस्य)
वाक्यशुद्ध्यध्ययनस्य व्याख्यानं समाप्सम् ॥७॥
दीप अनुक्रम [३४८-३५०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अत्र सप्तमं अध्ययनं परिसमाप्तं
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [२९३], भाष्यं [६२...]
(४२)
दशबैका हारि-वृत्तिः
प्रत
॥२२४॥
सूत्रांक
||५७..||
अथाष्टममाचारप्रणिधिनामाध्ययनं प्रारभ्यते ॥
आचार
प्रणिध्यव्याख्यातं वाक्यशुद्ध्यध्ययनम् , इदानीमाचारप्रणिध्यायमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहानन्तरा-16
ध्ययनम् ध्ययने साधुना वचनगुणदोषाभिज्ञेन निरवद्यवचसा वक्तव्यमित्येतदुक्तम्, इह तु तन्निरवयं वच आचारे| प्रणिहितस्य भवतीति तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुच्यते, उक्तं च-"पणिहाणरहिअस्सेह, निरवलंपि भासि सावज्जतल्लं विन्ने, अज्झत्थेणेह संवुडम् ॥१॥” इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र चाचारप्रणिधिरिति द्विपदं नाम, तत्राचारनिक्षेपमतिदिशन प्रणिधिं च प्रतिपादयन्नाह
जो पुर्दिव उद्दिटो आयारो सो अहीणमइरितो । दुविहो अ होइ पणिही दव्वे भावे अ नायव्दो ॥ २९३ ॥ व्याख्या-यः पूर्व क्षुल्लिकाचारकथायामुद्दिष्ट आचारः सोहीनातिरिक्त:-तदवस्थ एवेहापि द्रष्टव्य इति || वाक्यशेषा, क्षुण्णत्वासामस्थापने अनाहत्य प्रणिधिमधिकृत्याह-द्विविधश्च भवति प्रणिधिः, कथमित्याह'द्रव्य' इति द्रव्यविषयो 'भाव' इति भावविषयश्च ज्ञातव्य इति गाथार्थः । तत्र
॥२२४॥ १ प्रणिधानरहितस्पेह निरषद्यमपि भाषितम् । सायचतुल्य विज्ञेयं अध्यात्मस्नेह पूराम् ॥१॥
दीप अनुक्रम [३५०..]
4%4585
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अध्ययनं -८- "आचारप्रणिधि" आरभ्यते
...अस्य अध्ययने उद्देशक: नास्ति, शिर्षकस्थाने यत् “२ उद्देश" इति मुद्रितं तत् मुद्रणदोष एव अस्ति
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||५७..||
दीप
अनुक्रम
[३५०..]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + :+ भाष्य + + वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५७...|| निर्युक्तिः [२९४], भाष्यं [६२...]
दबे निहाणमाई माय उत्ताणि चैव दव्वाणि । भाविदिअनोइंदिअ दुविहो उ पसत्थ अपसत्थो ॥ २९४ ॥
व्याख्या- 'द्रव्य' इति द्रव्यविषयः प्रणिधिः निधानादि प्रणिहितं निधानं निक्षिप्तमित्यर्थः, आदिशब्दः स्वभेदप्रख्यापकः, मायाप्रयुक्तानि चेह द्रव्याणि द्रव्यप्रणिधिः, पुरुषस्य स्त्रीवेषेण पलायनादिकरणं स्त्रियो वा | पुरुषवेषेणेत्यादि । तथा 'भाव' इति भावप्रणिधिर्द्विविधः - इन्द्रियप्रणिधिर्नोइन्द्रियप्रणिधिश्च तत्रेन्द्रियप्रणिविर्द्विविधः-प्रशस्तोऽप्रशस्तश्चेति गाथार्थः ॥ प्रशस्तमिन्द्रियप्रणिधिमाह
सहेसु अ रुसु अ गंधेसु रसेसु तह व फासेसु । नवि रज्जइ न वि दुस्सइ एसा खलु इंदिअप्पणिही ॥ २९५ ॥ व्याख्या - शब्देषु च रूपेषु च गन्धेषु रसेषु तथा च स्पर्शेषु एतेष्विन्द्रियार्थेष्विष्टानिष्टेषु चक्षुरादिभिरि न्द्रियैर्नापि रज्यते नापि द्विष्यते एष खलु माध्यस्थ्यलक्षण इन्द्रियप्रणिधिः प्रशस्त इति भावार्थ:, अन्यथा त्वप्रशस्तः, तत्र दोषमाह
सोइंदिरस्सीहि उ मुकाहिं समुच्छिओ जीवो। आइभइ अणाउत्तो सद्दगुणसमुट्ठिए दोसे ।। २९६ ।।
व्याख्या- 'श्रोत्रेन्द्रियरश्मिभिः' श्रोत्रेन्द्रियरज्जुभिः 'मुक्ताभिः उच्छङ्गलाभिः किमित्याह - 'शब्द मूच्छितः' शब्दग्रदो जीवः 'आदत्ते' गृह्णात्यनुपयुक्तः सन् कानित्याह- शब्दगुणसमुत्थितान् दोषान्-शब्द एवेन्द्रि यगुणः तत्समुत्थितान् दोषान् बन्धवधादीन् श्रोत्रेन्द्रियरभिरादत्त इति गाधार्थः ॥ शेषेन्द्रियातिदेशमाहजह एसो सदेसुं एसेव कमो उ सेसएहिं पि । चहिंपि इंदिएहिं रूवे गंधे रसे फासे ।। २९७ ।।
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः "प्रणिधि" शब्दस्य द्रव्यादि भेद-प्रभेदाः वर्णनं
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५७...|| नियुक्ति : [२९७], भाष्यं [६२...]
(४२)
आचारप्रणिध्यध्ययनम् *२ उद्देश:
प्रत
CAUST
सूत्रांक
||५७..||
दशवैका
व्याख्या-यथैष 'शब्देषु शब्दविषयः श्रोत्रेन्द्रियमधिकृत्य दोष उक्तः, एष एव क्रमः शेषैरपि चक्षुरा- हारि-त्तिः कादिभिश्चतुर्भिरपीन्द्रियैर्दोषाभिधाने द्रष्टव्यः, तद्यथा-चक्विन्दिअरस्सीहि उ, इत्यादि, अत एवाह-रूपे ॥२२५॥ २२पर गन्धे रसे स्पर्शे' रूपादिविषय इति गाथार्थः ॥ अमुमेवार्थ दृष्टान्ताभिधानेनाह
जरस खलु दुष्पणिहिआणि इंदिआई तवं चरंतस्स । सो हीरइ असहीणेहि सारही वा तुरंगेहिं ।। २९८ ॥ व्याख्या-'यस्य खल्विति यस्यापि दुष्पणिहितानीन्द्रियाणि विश्रोतोगामीनि तपश्चरत' इति तपोऽपि कुर्वतः स तथाभूतो 'हियते' अपनीयते इन्द्रियैरेव निर्वाणहेतोश्चरणात्, दृष्टान्तमाह-'अखाधीन' अखवशेः 'सारथिरिव' रथनेतेव'तुरङ्गमै अश्वैरिति गाथार्थः ॥ उक्त इन्द्रियाणिधिः, नोइन्द्रियाणिधिमाह
कोहं माणं मायं लोहं च महब्भयाणि चत्तारि । जो रंभइ सुद्धप्पा एसो नोइंदिअप्पणिही ।। २९९ ॥ व्याख्या-क्रोधं मानं मायां लोभं चेत्येतेषां खरूपमनन्तानुबन्ध्यादिभेदभिन्नं पूर्ववत्, एत एव च महाभयानि चत्वारि, सम्यगदर्शनादिप्रतिवन्धरूपत्वात् । एतानि यो रुणद्धि शुद्धात्मा उदयनिरोधादिना 'एष निरोद्धा क्रोधादिनिरोधपरिणामानन्यत्वानोइन्द्रियप्रणिधिः, कुशलपरिणामत्वादिति गाथार्थः ॥ एतदनिरोधे दोषमाह
जस्सवि भ दुष्पणिहिमा होति कसाया तवं चरंतस्स । सो बालतवस्सीविव गयण्हाणपरिस्समं कुणइ ॥ ३०० ॥ १ अवश्य के बिसारेण पूर्व व्याख्यानात,
दीप अनुक्रम [३५०..]
AREE
M||२२५॥
Edream
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७...|| नियुक्ति: [३००], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||५७..||
व्याख्या-यस्यापि कस्यचिद्व्यवहारतपखिनो दुष्पणिहिता-अनिरुद्धा भवन्ति 'कषाया' क्रोधादयः 'तप-18 भारतः तपः कुर्वत इत्यर्थः स बालतपखीव उपवासपारणकप्रभूततरारम्भको जीवो (यथा) गजनानपरिश्रमं । करोति, चतुर्थषष्ठादिनिमित्ताभिधानतः प्रभूतकर्मबन्धोपपत्तेरिति गाथार्थः ॥ अमुमेवार्थ स्पष्टतरमाह
सामन्नमणुचरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होति । मन्नामि उच्छुफुलं व निष्फलं तस्स सामन्नं ।। ३०१॥ व्याख्या-'श्रामण्यमनुचरतः' भ्रमणभावमपि द्रव्यतः पालयत इत्यर्थः, कषाया यस्योत्कटा भवन्ति कोधादयः मन्ये इक्षुपुष्पमिव निष्फलं निर्जराफलमधिकृत्य तस्य श्रामण्यमिति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह
एसो दुविहो पणिही सुद्धो जइ दोसु तस्स तेसिं च । एत्तो पसस्थमपसत्य लक्षणमहास्थनिष्फर्म ॥ ३०२॥ .. व्याख्या-एषः' अनन्तरोदितो 'द्विविधः प्रणिधिः' इन्द्रियनोइन्द्रियलक्षणः 'शुद्ध' इति निर्दोषो भवति, यदि 'द्वयोः' याह्याभ्यन्तरचेष्टयोः 'तस्य' इन्द्रियकषायवतः तेषां च' इन्द्रियकषायाणां सम्यगयोगो भवति, एतदुक्तं भवति-यदि बाह्यचेष्टायामभ्यन्तरचेष्टायां च तस्य च प्रणिधिमत इन्द्रियाणां कषायाणां च निग्रहो| भवति ततः शुद्धः प्रणिधिरितरथा वशुद्धः, एवमपि तत्वनीत्याऽभ्यन्तरैव चेष्टेह गरीयसीस्याह, अत एवमपि तत्त्वे प्रशस्तं चारु, तथाऽप्रशस्तमचारु लक्षणं प्रणिधेः 'अध्यात्मनिष्पन्नम् अध्यवसानोद्गतमिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह
मायागारवसहिओ इंदिअनोइंदिएहि अपसत्यो । धम्मत्था अ पसत्यो इंदिअनोइंदिअप्पणिही ।। ३०३ ॥
दीप अनुक्रम [३५०..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||५७..||
दीप
अनुक्रम
[३५०..]
दशanto हारि-वृत्तिः
॥ २२६ ॥
:+भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५७...|| निर्युक्ति: [३०३], भाष्यं [६२...]
व्याख्या- 'मायागारवसहितो मातृस्थानयुक्त ऋद्ध्यादिगारवयुक्तञ्चेन्द्रियनोइन्द्रिययोर्निग्रहं करोति, मा तृस्थानत ईर्यादिप्रत्युपेक्षणं द्रव्यक्षान्त्याद्यासेवनं तथा ऋद्ध्यादिगारवाद्वेति 'अप्रशस्त' इत्ययमप्रशस्तः प्र| णिधिः । तथा धर्मार्थ प्रशस्त इति, मायागारवरहितो धर्मार्थमेवेन्द्रियनोइन्द्रियनिग्रहं करोति यः स तदभेदोपचारात 'प्रशस्तः' सुन्दर इन्द्रियनोइन्द्रियमणिधिर्निर्जरा फलत्वादिति गाथार्थः ॥ साम्प्रतमप्रशस्तेतरप्रणिधेर्दोषगुणानाह
अद्वविदं कम्मरयं बंधइ अपसत्थपणिहिमाउत्तो । तं चैव खवेइ पुणो पसत्थपणिही समात्तो ॥ ३०४ ॥
व्याख्या- 'अष्टविधं' ज्ञानावरणीयादिभेदात् कर्मरजो 'वृनाति' आदते, क इत्याह- 'अप्रशस्तप्रणिधिमायुक्तः' अप्रशस्तप्रणिधौ व्यवस्थित इत्यर्थः, तदेवाष्टविधं कर्मरजः क्षपयति पुनः कदेत्याह-प्रशस्तप्रणिधिसमायुक्त इति गाथार्थः ॥ संयमाद्यर्थे च प्रणिधिः प्रयोक्तव्य इत्याह
दंसणनाणचरिताणि संजमो तस्स साहणट्टाए । पणिही पउंजिअब्बो अणावणाई च बजाई ॥ ३०५ ॥
व्याख्या- दर्शनज्ञानचारित्राणि संयमः संपूर्णः, 'तस्य' संपूर्ण संयमस्य साधनार्थं प्रणिधिः प्रशस्तः प्रयोक्तव्यः, तथा 'अनायतनानि च' विरुद्धस्थानानि वर्जनीयानि इति गाथार्थः ॥ एवमकरणे दोषमाह
दुप्पणिहिअजोगी पुण लंडिज्जइ संजमं अयाणंतो । बीसत्यनिसगोब्ब कंटइले जह पडतो ॥ ३०६ ॥ व्याख्या- 'दुष्प्रणिहितयोगी पुनः सुप्रणिधिरहितस्तु प्रब्रजित इत्यर्थः लन्छयते-खण्ड्यते संयममजानानः
८ आचार
प्रणिष्य
ध्ययनम्
२ उद्देशः
~463~
॥ २२६ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
ay
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५७...|| नियुक्ति : [३०६], भाष्यं [६२...]
(४२)
45
प्रत
सूत्रांक
||५७..||
संयत एवेति । दृष्टान्तमाह-विश्रब्धो निसृष्टाङ्गस्तथा अयनपरः कंटकवति श्वनादौ यथा पतन कचिल्लछयते | तद्वदसौ संयत इति गाथार्थः ।। व्यतिरेकमाह
सुप्पणिहिअजोगी पुण न लिप्पई गुन्यमणिभदोसेहिं । निद्दहइ अ कम्माई सुकतणाई जहा अग्गी ।। ३०७ ।। व्याख्या-'सुप्रणिहितयोगी पुनः' सुप्रणिहितः प्रबजितः पुनः न लिप्यते 'पूर्वभणितदोषैः कर्मबन्धादिभिः, संवृताश्रवद्वारत्वात्, निर्दहति च कर्माणि प्राक्तनानि तपाप्रणिधिभावेन, दृष्टान्तमाह-शुष्कतृणानि यथा अग्निर्निर्दहति तद्वदिति गाथार्थः ।।
. तम्हा छ अपसरथं पणिहाणं उशिऊण समणेणं । पणिहाणमि पसत्थे भणिो आधारपणिहित्ति ॥ ३०८॥ | व्याख्या-यस्मादेवमप्रशस्तप्रणिधिदुःखद इतरश्च सुखदस्तस्माद् 'अप्रशस्तं प्रणिधानम्' अप्रशस्तं प्रणिधिम् 8 'उज्झित्वा' परित्यज्य 'श्रमणेन' साधुना 'प्रणिधाने' प्रणिधौ 'प्रशस्ते' कल्याणे, यनः कार्य इति वाक्यशेषः । निगमयन्नाह-भणित आचारप्रणिधिरिति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पनस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुच्चारणीयं, तवेदम्
आयारप्पणिहिं लद्धं, जहा कायव्व भिक्खुणा । तं भे उदाहरिस्सामि, आणुपुर्दिव सुणेह मे ॥१॥
दीप अनुक्रम [३५०..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
~464~
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||||
दीप
अनुक्रम
[३५१]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २२७ ॥
:+भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा || १ || निर्युक्तिः [ ३०८ ], भाष्यं [६२...]
अस्य व्याख्या- 'आचारप्रणिधिम्' उक्तलक्षणं 'लब्ध्वा' प्राप्य 'यथा येन प्रकारेण कर्तव्यं विहितानुष्ठानं 'भिक्षुणा' साधुना 'तं' प्रकारं 'मे' भवद्भ्यः 'उदाहरिष्यामि' कथयिष्यामि 'आनुपूर्व्या' परिपाठ्या शृणुत ममेति गौतमादयः स्वशिष्यानाहुरिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥
पुढविदगअगणिमारुअ, तणस्क्वस्वीयगा । तसा अ पाणा जीवति, इइ वृत्तं महेसिणा || २ || सिं अच्छणजोएण, निचं होअव्ययं सिआ । मणसा कायवक्केणं, एवं हवइ संजए ॥ ३ ॥ पुढविं भित्तिं सिलं लेलुं नेव भिंदे न संलिहे । तिविहेण करणजोएणं, संजए सुसमाहिए ॥ ४ ॥ सुद्धपुढवीं न निसीए, ससरक्खंमि अ आसणे । पमजित्तु निसीइज्जा, जाइत्ता जस्स उग्गहं ॥ ५ ॥ सीओदगं न सेविज्जा, सिलावुटुं हिमाणि अ । उसिणोदगं तत्तफासुअं, पडिगाहिज्ज संजए ॥ ६ ॥ उदउल्लं अपणो कार्य, नेव पुंछे न संलिहे । समुप्पेह तहाभूअं, नो णं संघट्टए मुणी ॥ ७ ॥ इंगालं अगणि अर्थि, अलायं वा सजोइअं । न उंजिज्जा न घट्टिज्जा, नो णं निव्वाव मुणी ॥ ८ ॥ तालिअंटेण पत्तेण, साहाए विहुणेण वा । न वीजsपणो कार्य,
८ आचारप्रणिध्यध्ययनम् २ उद्देशः
~465~
॥ २२७ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः सूत्रकारेण उक्त आचार-प्रणिधेः वर्णनं आरभ्यते
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१२|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
बाहिरं वावि पुग्गलं ॥९॥ तणरुक्खं न छिंदिजा, फलं मूलं च कस्सई । आमगं विविहं बीअं, मणसावि ण पत्थए ॥ १० ॥ गहणेसु न चिट्ठिज्जा, बीएसु हरिएसु वा । उदगंमि तहा निच्च, उत्तिंगपणगेसु वा ॥ ११ ॥ तसे पाणे न हिंसिज्जा, वाया
अदुव कम्मुणा । उवरओ सव्वभूएसु, पासेज विविहं जगं ॥ १२ ॥ तं प्रकारमाह-'पुढवित्ति सूत्रं, पृथिब्युदकाग्निवायवस्तृणवृक्षसवीजा एते पञ्चैकेन्द्रियकायाः पूर्ववत्, त्रसाश्च प्राणिनो द्वीन्द्रियादयो जीवा इत्युक्तं 'महर्षिणा' वर्धमानेन गौतमेन वेति सूत्रार्थः ॥२॥ यतश्चैवमतः 'तेसि'ति सूत्रं, अस्य व्याख्या-'तेषां पृथिव्यादीनाम् 'अक्षणयोगेन' अहिंसाव्यापारेण नित्यं 'भवितव्यं वर्तितव्यं स्यात् भिक्षुणा मनसा कायेन वाक्येन एभिः करणैरित्यर्थः, एवं वर्तमानोऽहिंसकः सन् भवति संपतो, नान्यथेति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ एवं सामान्येन षड्जीवनिकायाहिंसया संयतत्वमभिधायाधुना तद्गतविधीविधानतो विशेषेणाह-'पुढवित्ति सूत्रं, पृथिवीं शुद्धां 'भित्ति' ती 'शिला पाषाणात्मिका 'लेष्टुम् ।। इहालखण्डं नैव भिन्द्यात् नो संलिखेत, तत्र भेदनं द्वैधीभावोत्पादनं 'संलेखनम् ईषल्लेखनं 'त्रिविधेन करणयोगेन' न करोति मनसेत्यादिना 'संयतः' साधुः 'सुसमाहितः' शुद्धभाव इति सूत्रार्थः॥४॥ तथा 'सु'त्ति सूत्रं, 'शुद्धपृथिव्याम्' अशस्त्रोपहतायामनन्तरितायां न निषीदेत्, तथा 'सरजस्के वा' पृथ्वीरजोऽवगु
SONGRES
||२-१२||
दीप
अनुक्रम [३५२-३६२]]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१२|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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आचारप्रणिध्यध्ययनम् उद्देशः
प्रत सूत्रांक ||२-१२||
दशका०ण्ठिते वा 'आसने पीठकादौ न निषीदेत, निषीदनग्रहणात्स्थानत्वग्वर्तनपरिग्रहः, अचेतनायां तु प्रमृज्य हारि-वत्तिः तां रजोहरणेन निषीदेत 'ज्ञात्वे सचेतना ज्ञात्वा 'याचयित्वाऽवग्रह'मिति यस्य संबन्धिनी पृथिवी तमवन-
हमनुज्ञाप्येति सूत्रार्थः ॥५॥ उक्तः पृथिवीकायविधिः, अधुना अप्कायविधिमाह-'सीओदगं'ति सूत्रं, ॥२२८॥
शीतोदक' पृथिव्युद्भवं सचित्तोदकं न सेवेत, तथा शिलावृष्टं हिमानि च न सेवेत, तत्र शिलाग्रहणेन करकाः परिगृह्यन्ते, वृष्टं वर्षणं, हिमं प्रतीतं प्राय उत्तरापथे भवति । यद्येवं कथमयं वर्त्ततेत्याह-'उष्णोदक कथितोदकं तप्समासुक' तसं सत्प्रामुकं त्रिदण्डोत्तं, नोष्णोदकमात्र, प्रतिगृह्णीयाहत्यर्थ 'संयतः साधु.. एतच सौवीराद्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥६॥ तथा 'उदउल्लंीति सूत्रं, नदीमुत्तीणों भिक्षाप्रविष्टो वा वृष्टिहतः 'उदकाम्' उदकबिन्दुचितमात्मनः 'कार्य' शरीरं निग्धं वा नैव 'पुञ्छयेद्' वस्त्रतृणादिभिः 'न संलिखेत्' पाणिना, अपितु 'संप्रेक्ष्य निरीक्ष्य 'तधाभूतम्' उदकार्दादिरूपं नैव कार्य 'संघयेत्' मुनिर्मनागपि न स्पृशेदिति सूत्रार्थः ॥७॥ उक्तोऽष्कायविधिः, तेजाकायविधिमाह-इंगालं'ति सूत्रं, 'अङ्गार' ज्वालार-1 हितम् 'अग्निम्' अयापिण्डानुगतम् 'अर्चि' छिन्नज्वालम् 'अलातम्' उल्मुकं वा 'सज्योति' साग्निकमित्यर्थः,
किमित्याह-नोत्सिचेत् न घयेत्, तत्रोञ्जनमुत्सेचनं प्रदीपादः, घनं मिथचालनं, तथा नैनम्-अग्निं 'निर्वाट्रपयेद्' अभावमापादयेत् 'मुनिः' साधुरिति सूत्रार्थः ॥ ८॥ प्रतिपादितस्तेजाकायविधिः, वायुकायविधिमाह
-तालिअंटेणत्ति सूत्रं, 'तालवृन्तन' व्यजनविशेषेण 'पत्रेण' पद्मिनीपत्रादिना 'शाखया' वृक्षडालरूपया
दीप
अनुक्रम [३५२-३६२]]
॥२२८॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१२|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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प्रत
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सूत्रांक
विधूप(ब)नेन वा' व्यजनेन बा, किमित्याह-न वीजयेद् 'आत्मनः कार्य स्वशरीरमित्यर्थः 'बाह्यं वापि पुगलम्' उष्णोदकादीति सूत्रार्थः ॥९॥ प्रतिपादितो वायुकायविधिः, वनस्पतिविधिमाह-तण'त्ति सूत्रं, तृणवृक्षमित्येकवद्भावः, तृणानि-दर्भादीनि वृक्षा:-कदम्बादयः, एतान्न छिन्द्यात्, फलं मूलं वा कस्यचिदृक्षादेन छिन्यात्, तथा 'आमम्' अशस्त्रोपहतं 'विविधम्' अनेकप्रकारं बीजं न मनसाऽपि प्रार्थयेत्, किमुत अनीयादिति सूत्रार्थः ॥१०॥ तथा 'गहणेसुत्ति सूत्रं, 'गहनेषु' वननिकुशेपु न तिष्ठेत्, संघटनादिदोषप्रसङ्गात्, तथा 'बीजेषु' प्रसारितशाल्यादिषु 'हरितेषु वा' दूर्वादिषु न तिष्ठेत्, 'उदके तथा नित्यम्' अनोदकम्-अनतवनस्पतिविशेष:, यथोक्तम्-'उदए अवए पणए' इत्यादि, उदकमेवान्ये, तत्र नियमतो वनस्पतिभावात्, उत्तिमपनकयो न तिष्ठेत् , तत्रोसिङ्गः-सर्पच्छत्रादिः पनकः-उल्लिवनस्पतिरिति सूत्रार्थः ॥११॥ उक्तो वनस्पतिकायविधिः, त्रसकायविधिमाह-'तसत्ति सूत्रं, 'त्रसपाणिनों' द्वीन्द्रियादीन् न हिंस्यात्, कथमित्याह-वाचा अथवा 'कर्मणा' कायेन, मनसस्तदन्तर्गतवादग्रहणम् , अपि च-'उपरतः सर्वभूतेषु निक्षिप्तदण्डः सन् पश्येद्विविधं 'जगत् कर्मपरतन्त्रं नरकादिगतिरूपं, निर्वदायेति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥
अट्ठ सुहुमाइ पेहाए, जाई जाणित्तु संजए । दयाहिगारी भूएसु, आस चिट्ठ सएहि १ उदकं वनस्पतिविशेषः प्र. २ पदकमवकः पनका,
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अनुक्रम [३५२-३६२]
वघा० ३९
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति: आचार-प्रणिधे: स्थूलविधि: उक्तं, अधुना सूक्ष्म विधि: उच्यते
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१३-१६|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
दशवैका हारि-वृत्तिः ॥२२९॥
।
प्रत
सूत्रांक
||१३-१६||
वा ॥ १३॥ कयराइं अट्ट सुहुमाइं?, जाइं पुच्छिज्ज संजए । इमाई ताई मेहावी,
आचारआइक्विज विअक्षणो॥१४॥ सिणेहं पुप्फसुहमं च, पाणुतिंगं तहेव य । पणगं
प्रणिध्य
| ध्ययनम् बीअहरिअं च, अंडसुहुमं च अट्ठमं ॥ १५ ॥ एवमेआणि जाणिज्जा, सव्वभावेण सं.
२ उद्देश: जए । अप्पमत्तो जए निच्चं, सविदिअसमाहिए ॥ १६ ॥ उक्तः स्थूलविधिः, अथ सूक्ष्मविधिमाह-'अट्टत्ति सूत्रं, अष्टौ 'सूक्ष्माणि वक्ष्यमाणानि प्रेक्ष्योपयोगत आसीत तिष्ठेच्छयीत वेति योगः, किंविशिष्टानीत्याह-यानि ज्ञात्वा संयतो ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानपरिज्ञया च दयाधिकारी भूतेषु भवति, अन्यथा दयाधिकार्येव नेति, तानि प्रेक्ष्य तद्रहित एवासनादीनि कुर्याद्, अन्यथा तेषांसातिचारतेति सूत्रार्थः॥१३॥आह-'कयराणि सूत्रं, कतराण्यष्टौ सूक्ष्माणि यानि दयाधिकारित्वाभावभयात् पृच्छेत्संयतः?, अनेन दयाधिकारिण एव एवं विधेषु यत्नमाह, स ह्यवश्यं तदुपकारकाण्यपकारकाणि च पृच्छति, तत्रैव भावप्रतिबन्धादिति । 'अमूनि तानि अनन्तरं वक्ष्यमाणानि मेधावी आचक्षीत विचक्षण इति, अनेनाप्येतदेवाह-मर्यादावर्तिना तज्ज्ञेन तत्प्ररूपणा कार्या, एवं हि श्रोतुस्तत्रोपादेयबुद्धिर्भवति, अन्यथा से विपर्यय इति सूत्रार्थः ॥ १४॥ 'सिणेहति सूत्रं, 'स्नेह मिति लेहसूक्ष्मम्-अवश्यायहिममहिकाकरकहरत-15 ॥ २२९ ।।
१ सारम्भाणामशक्य वर्जन यस, निरारम्भः सूक्ष्मोपयोगेन वर्णनीयं यत् । सरुण वा सूक्ष्मताभाक्.
दीप अनुक्रम [३६३-३६६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१३-१६|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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नुरूपं, पुष्पमूक्ष्म चेति वटोदुम्बराणां पुष्पाणि, तानि तदर्णानि सूक्ष्माणीति न लक्ष्यन्ते, 'पाणी'ति प्राणिसूक्ष्ममनुद्धरिः कुन्थुः, स हि चलन विभाव्यते, न स्थितः, सूक्ष्मत्वात् । 'उत्तिंगं तथैव चेत्युत्तिंगसूक्ष्मकीटिकानगरं, तत्र कीटिका अन्ये च सूक्ष्मसत्त्वा भवन्ति । तथा 'पनकामिति पनकलूक्ष्म प्रायः प्रावृट्काले भूमिकाष्ठादिषु पञ्चवर्णस्तद्व्यलीनः पनक इति, तथा 'बीजसूक्ष्म शाल्यादिवीजस्य मुखमूले कणिका, या हे
लोके तुषमुखमित्युच्यते, 'हरितं चेति हरितसूक्ष्म, तच्चात्यन्ताभिनवोद्भिन्नं पृथिवीसमानवर्णमेवेति, 'अ-12 दण्डसूक्ष्मं चाष्टम मिति एतच मक्षिकाकीटिकागृहकोलिकाब्राह्मणीकृकलासाद्यमिति सूत्रार्थः ॥१५॥
एवमेआणित्ति सूत्रं, 'एवम् उक्तेन प्रकारेण एतानि सूक्ष्माणि ज्ञात्वा सूत्रादेशेन 'सर्वभावेन' शक्त्यनुरूपेण स्वरूपसंरक्षणादिना 'संयतः साधुः किमित्याह-'अप्रमत्तों निद्रादिप्रमादरहितः यतेत मनोवाकायः संरक्षणं प्रति 'नित्यं सर्वकालं 'सर्वेन्द्रियसमाहितः' शब्दादिषु रागद्वेषावगच्छन्निति सूत्रार्थः ।। १६ ।।
धुवं च पडिलेहिज्जा, जोगसा पायकंबलं । सिजमुच्चारभूमि च, संथारं अदुवाऽऽसणं ॥ १७ ॥ उच्चारं पासवणं, खेलं सिंघाणजल्लिअं । फासुझं पडिलेहिता, परिठ्ठाविज संजए ॥ १८ ॥ पविसित्तु परागारं, पाणटा भोअणस्स वा । जयं चिट्टे मिअं भासे, न य रूवेसु मणं करे ॥ १९ ॥ बहुं सुणेहि कन्नेहिं, वहुं अच्छीहिं पिच्छइ । न य
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दीप अनुक्रम [३६३-३६६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
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-२८||
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अनुक्रम
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-३७८]
दशचैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २३० ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य + वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा || १७-२८ || निर्युक्तिः [ ३०८], भाष्यं [६२...]
दि सुअं सव्वं, भिक्खू अक्खाउमरिहइ ॥ २० ॥ सुअं वा जइ वा दिट्टं, न लवि - जोवधाइअं । न य केणइ उवाएणं, गिहिजोगं समायरे ॥ २१ ॥ निद्वाणं रसनिज्जूढं, भगं पावगति वा । पुट्ठो वावि अपुट्टो वा लाभालाभं न निद्दिसे ॥ २२ ॥ न य भोअमि गिद्धो, चरे उंलं अयंपिरो । अफासुअं न भुंजिज्जा, कीअमुद्देसिआह ॥ २३ ॥ संनिहिं च न कुव्विज्जा, अणुमायंपि संजए । मुहाजीवी असंबद्धे, हविज जगनिस्सिए ॥ २४ ॥ हवित्ती सुसंतुट्टे, अपिच्छे सुहरे सिआ । आसुरतं न गच्छिना, सुच्चा णं जिणसासणं ॥ २५ ॥ कन्नसुक्खेहिं सदेहिं, पेम्मं नाभिनिवेस । दारुणं कसं फासं, कारण अहिआसए ॥ २६ ॥ खुहं पिवासं दुस्सिजं, सीउन्हं अरई भयं । अहिआसे अव्वहिओ, देहदुक्खं महाफलं ॥ २७ ॥ अत्थंगयंमि आइचे, पुरत्था अ अणुग्गए । आहारमइयं सव्वं, मणसावि ण पत्थए ॥ २८ ॥
तथा 'धुवन्ति सूत्रं, तथा 'ध्रुवं च' नित्यं च यो यस्य काल उक्तोऽनागतः परिभोगे च तस्मिन् प्रत्युपेक्षेत
८ आचारप्रणिध्यध्ययनम् २ उद्देशः
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॥ २३० ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२८|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
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-२८||
सिद्धान्तविधिना 'योगे सति' सति सामध्ये अन्यूनातिरिक्तं, किं तदित्याह-पात्रकम्बलम्' पात्रग्रहणादमलाबुदारुमयादिपरिग्रहा, कम्बलग्रहणादूर्णासूत्रमयपरिग्रहः, तथा 'शय्या वसतिं द्विकालं त्रिकालं च उच्चारभुवं ।।
च-अनापातववादि स्थण्डिलं तथा 'संस्तारक' तृणमयादिरूपमथया 'आसनम्' अपवावगृहीतं पीठकादि। प्रत्युपेक्षेतेति सूत्रार्थः ॥१७॥ तथा 'उञ्चाति सूत्रं, उच्चारं प्रस्रवणं श्लेष्म सिंघाणं जल्लमिति प्रती-1 Pातानि, एतानि प्रासुकं प्रत्युपेक्ष्य स्थण्डिलमिति वाक्यशेषः, 'परिस्थापयेत्' व्युत्सृजेत् संयत इति|
सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ उपाश्रयस्थानविधिरुतो, गोचरप्रवेशमधिकृत्याह-'पविसित्तु' सून, प्रविश्य 'परा-18 गारं' परगृहं पानार्थ भोजनस्य ग्लानादेरौषधार्थ वा यतं-गवाक्षकादीन्यनवलोकयन् तिष्ठेदुचितदेशे, मितं यतनया भाषेत आगमनप्रयोजनादीति, न च रूपेषु' दातृकान्तादिषु मनः कुर्यात, एवंभूतान्येतानीति न मनो निवेशयेत्, रूपग्रहणं रसाशुपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ गोचरादिगत एव केनचित्तथाविधं पृष्ट एवं ब्रूयादित्याह-'बहुन्ति सूत्रं, अथवा उपदेशाधिकारे सामान्ये नाह-'बहु'न्ति सूत्रं, 'बहु' अनेकप्रकार शोभनाशोभनं शृणोति कर्णाभ्यां, शब्दजातमिति गम्यते, तथा 'बहु' अनेकप्रकारमेव शोभनाशोभनभे
देनाक्षिभ्यां पश्यति, रूपजातमिति गम्यते, एवं न च दृष्टं श्रुतं सर्वं खपरोभयाहितमपि 'श्रुता ते रुदती ट्रपत्नी येवमादि भिक्षुराख्यातुमर्हति, चारित्रोपघातात् , अहेति च खपरोभयहितं 'दृष्ठस्ते राजानमुपशामय
शिष्य' इति सूत्रार्थः ॥ २०॥ एतदेव स्पष्टयनाह-'सुति सूत्रं, श्रुतं वा अन्यतः यदिवा दृष्टं खयमेव |
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अनुक्रम [३६७-३७८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२८|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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-२८||
दशवैकानालपेत्न भाषेत, 'औपचातिकम्' उपघातेन निवृत्तं तत्फलं वा, यथा-चौरस्त्वमित्यादि, अतो नालपे- आचारहारि-वृत्तिःदपीति गम्यते, तथा न च केनचिदुपायेन सूक्ष्मयाऽपि भझ्या 'गृहियोग' गृहिसंयन्धं तद्वालग्रहणादिरूपं प्रणिध्य॥ २३॥
गृहिव्यापारं वा-प्रारम्भरूपं 'समाचरेत् कुर्यान्नैवेति सूत्रार्थः ॥ २१॥ किंच-णिट्ठाण'ति सूत्रं, 'निष्ठानंध्ययनम् सर्वगुणोपेतं संभृतमन्नं रसं नियूटमेतद्विपरीतं कदशनम् , एतदाश्रित्याय भद्रकं द्वितीयं पापकमिति वा, पृष्टो| |२ उद्देश: वापि परेण कीदृग् लब्धमिति अपृष्टो चा खयमेव लाभालाभं निष्ठानादेन निर्दिशेद, अद्य साधु लब्धमसाधु17
वा शोभनमिदमपरमशोभनं वेति सूत्रार्थः ॥ २२ ॥ किं च-'न यति सूत्रं, न च भोजने गृहः सन् विशिपष्टवस्तुलाभायेश्वरादिकुलेषु मुखमङ्गलिकया चरेत्, अपितु उञ्छं भावतो ज्ञाताज्ञातमजल्पन (ग्रन्थानम् ५५००)
शीलो धर्मलाभमात्राभिधायी चरेत् , तत्रापि 'अप्रासुक' सचित्तं सन्मिश्रादि कथञ्चिद्गृहीतमपि न भुञ्जीत, तथा क्रीतमीदेशिकाहतं प्रासुकमपि न भुञ्जीत, एतद्विशोध्यविशोधिकोट्युपलक्षणमिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥ 'संनिहिंति सूत्र, 'संनिधि च' प्रानिरूपितस्वरूपां न कुर्यात् 'अणुमात्रमपि' स्तोकमपि 'संयतः साधुः,
तथा मुधाजीवीति पूर्ववत्, असंबद्धः पद्मिनीपत्रोदकवद्गृहस्थैः, एवंभूतः सन् भवेत् 'जगनिश्रितः' चराचरदसंरक्षणप्रतिबद्ध इति सूत्रार्थः ॥२४॥ किंच-लूह'त्ति सूत्रं, रूक्षैः-वल्लचणकादिभिवृत्तिरस्येति रुक्षवृत्तिः,
सुसंतुष्टो येन वा तेन वा संतोषगामी, अल्पेच्छो न्यूनोदरतयाऽऽहारपरित्यागी, सुभरः स्यात् अल्पेच्छत्वा- २३१॥ हादेव दुर्भिक्षादाविति फलं प्रत्येकं वा स्यादिति क्रियायोगः, रूक्षवृत्तिः स्यादित्यादि । तथा 'आसुरत्वं क्रो
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StockCROSOCIRCANCY
अनुक्रम
[३६७
-३७८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||१७-२८|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
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||१७-२८||
धभावं न गत् कचित् खपक्षादौ श्रुत्वा 'जिनशासन' क्रोधविपाकप्रतिपादकं वीतरागवचनं । “जहा चउहिं। ₹ठाणहिं जीचा आसुरसाए कम्मं परति, तंजहा-कोहसीलयाए पाहुडसीलयाए जहा ठाणे जाव जणं मएल
एस पुरिसे अण्णाणी मिच्छादिही अकोसइ हणइ वा तं ण मे एस किंचि अवरज्झइत्ति, किं तु मम एयाणि वेयणिजाणि कम्माणि अवरज्झंतित्ति सम्ममहियासमाणस्स निजरा एव भविस्सइति सूत्रार्थः ॥२५॥ तथा 'कपण'त्ति सूत्रं, कर्णसौख्यहेतवः कर्णसौख्याः शब्दा-वेणुवीणादिसंबन्धिनस्तेषु 'प्रेम' राग 'न अभिनिवेशयेत्' न कुर्यादित्यर्थः, 'दारुणम्' अनिष्टं 'कर्कशं' कठिनं स्पर्शमुपनतं सन्तं कायेनाधिसहेत् न तत्र द्वेष कुर्यादिति, अनेनावन्तयो रागद्वेषनिराकरणेन सर्वेन्द्रियविषयेषु रागद्वेषप्रतिषेधो वेदितव्य इति सूत्रार्थः । ॥ २६ ॥ किं च-खुहं पित्ति सूत्रं, 'क्षुधं' बुभुक्षा 'पिपासा' तृपं 'दुशय्यां' विषमभूम्यादिरूपां शीतोष्णं प्रतीतम् 'अरति' मोहनीयोद्भवां 'भयं' व्याघादिसमुत्थमतिसहेदेतत्सर्वमेव 'अव्यथिता' अदीनमनाः सन् देहे दुःखं महाफलं संचिन्त्येति वाक्यशेषः । तथा च शरीरे सत्येतहुःखं, शरीरं चासारं, सम्यगतिसह्यमानं च मोक्षफलमेवेदमिति सूत्रार्थः ॥ २७॥ किंच-'अत्यति सूत्रं, 'अस्तं गत आदित्वे अस्तपर्वतं प्राप्ते अद-17
१ यथा पनि स्थान वा मासुरवाय कर्म प्रकुर्वन्ति, सपा-कोधशीलतया प्राभूतशीलतया यथा खाना यावत् यन्मामेष पुरुषोऽक्षानी भिध्यारधि-18 राकोषाति हन्ति मा तन्त्र गे एष किचिदपराभ्यतीति, किन्तु ममैतानि वेदनीयानि कर्माणि अपराध्यतीति सम्यगन्यासीनस्य निरव भविष्यतीति.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||२९-४०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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आचार| प्रणिध्यध्ययनम् २ उद्देश:
सूत्रांक
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SROCESSAGADCREA
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दशवैका०र्शनीभूते वा 'पुरस्ताचानुगते' प्रत्यूषस्यनुदित इत्यर्थः, आहारात्मकं 'सर्व' निरवशेषमाहारजातं मनसापि हारि-वृत्तिन प्रार्थयेत्, किमङ्ग पुनर्वाचा कर्मणा वेति सूत्रार्थः ॥ २८॥
अतितिणे अचवले, अप्पभासी मिआसणे । हविज उअरे दंते, थोवं लद्धं न खिसए॥२९॥ न बाहिरं परिभवे, अत्ताणं न समुक्कसे । सुअलाभे न मजिज्जा, जच्चा तवस्सिबुद्धिए ॥३०॥ से जाणमजाणं वा, कटु आहम्मिों पयं । संवरे खिप्पमप्पाणं, बीअं तं न समायरे ॥३१॥ अणायारं परक्कम्म, नेव गूहे न निण्हवे । सुई सया वियडभावे, असंसते जिइंदिए ॥ ३२ ॥ अमोहं वयणं कुजा, आयरिअस्स महप्पणो । तं परिगिज्झ वायाए, कम्मुणा उववायए ॥ ३३ ॥ अधुवं जीविअं नच्चा, सिद्धिमग्गं विआणिआ। विणिअहिज भोगेसु, आउं परिमिअप्पणो ॥ ३४ ॥ बलं थामं च पेहाए, सद्धामारुग्गमप्पणो । खितं कालं च विनाय, तहप्पाणं निझुंजए ॥ ३५॥ जरा जाव न पीडेई, वाही जाव न वडई। जाविंदिआ न हायंति, ताव धम्म समायरे १ नैषा व्याख्याकृन्मता.
-४०||
दीप
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अनुक्रम [३७९-३९०]
॥२३२॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२९-४०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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प्रत
-G9629
सूत्रांक
||२९
-४०||
॥३६॥ कोहं माणं च मायं च, लोभं च पाववडणं । वमे चत्तारि दोसे उ, इच्छंतो हिअमप्पणो ॥ ३७॥ कोहो पीइं पणासेइ, माणो विणयनासणो । माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सबविणासणो॥३८॥ उवसमेण हणे कोहं, माणं महवया जिणे । मायं चजवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे ॥३९॥ कोहो अमाणो अ अणिग्गहीआ, माया अ लोभो अ पवढमाणा । चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाई पु
णव्भवस्स ॥४०॥ दिवाप्यलभमान आहारे किमित्याह-'अतितिणे'त्ति सूत्रं, अतिन्तिणो भवेत्, अतिन्तिणो नामालाकाभेऽपि नेषद्यत्किञ्चनभाषी, तथा अचपलो भवेत, सर्वत्र स्थिर इत्यर्थः । तथा 'अल्पभाषी' कारणे परिमित-12
वक्ता, तथा 'मिताशनो' मितभोक्ता 'भ'दित्येवंभूतो भवेत्, तथा 'उदरे दान्तो' येन वा तेन वा वृत्तिशीलः, तथा 'स्तोकं लब्ध्वा न खिंसयेत् देयं दातारं वा न हीलयेदिति सूत्रार्थः ॥ २९॥ मदवर्जनार्थमाह-'न बाहिरंति सूत्रं, न 'पाद्यम् आत्मनोऽन्यं परिभवेत्, तथा आत्मानं न समुत्कर्षयेत्, सामान्येनेत्थंभूतोऽहमिति, श्रुतलाभाभ्यां न मायेत, पण्डितो लब्धिमानहमित्येवं, तथा जात्या-ताप-1
दीप
अनुक्रम [३७९-३९०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||२९
-४०||
दीप
अनुक्रम
[३७९
-३९०]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २३३ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२९-४०|| निर्युक्ति: [ ३०८], भाष्यं [६२...]
स्वयेन बुद्ध्या वा, न मायेनेति वर्त्तते, जातिसंपन्नस्तपस्वी बुद्धिमानहमित्येवम् उपलक्षणं चैतत्कुलबलरूपाणाम्, कुलसंपन्नोऽहं वलसंपन्नोऽहं रूपसंपन्नोऽहमित्येवं न मायेतेति सूत्रार्थः ॥ ३० ॥ ओघत आभोगानाभोग सेवितार्थमाह-' से 'ति सूत्र, 'स' साधुः 'जानन्नजानन वा' आभोगतोऽना भोगतश्चेत्यर्थः ' कृत्वाऽधार्मिकं पदं कथञ्चिद्रागद्वेषाभ्यां मूलोत्तरगुणविराधनामिति भावः 'संवरेत्' 'क्षिप्रमात्मानं' भावतो निवर्त्यालोचनादिना प्रकारेण तथा द्वितीयं पुनस्तन्न समाचरेत्, अनुबन्धदोषादिति सूत्रार्थः ॥ ३१ ॥ एतदेवाह-'अणायारं 'ति सूत्रं, 'अनाचार' सावद्ययोगं 'पराक्रम्य' आसेव्य गुरुसकाश आलोचयन् 'नैव गृहयेत् न निदुवीत' तत्र गहनं किञ्चित्कथनं निहव एकान्तापलापः, किंविशिष्टः सन्नित्याह- 'शुचिः' अकलुषितमतिः सदा 'विकटभाष:' प्रकटभाव: 'असंसक्तः' अप्रतिबद्धः कचित् 'जितेन्द्रियो' जितेन्द्रियप्रमादः सनिति सूत्रार्थः ॥ ३२ ॥ तथा 'अमोहंति सूत्रं, 'अमोघम्' अवन्ध्यं 'वचनम्' इदं कुर्वित्यादिरूपं 'कुर्यादिति एवमित्यभ्युपगमेन, केषामित्याह - 'आचार्याणां महात्मनां श्रुतादिभिर्गुणैः, तत्परिगृह्य वाचा एवमित्यभ्युपगमेन 'कर्मणोपपादयेत्' क्रियया संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ ३३ ॥ तथा 'अधुवं'ति सूत्रं, 'अध्रुवम्' अनित्यं मरणाशङ्कि जीवितं सर्वभावनिबन्धनं ज्ञात्वा । तथा 'सिद्धिमार्ग' सम्यगदर्शनज्ञानचारित्रलक्षणं विज्ञाय विनिवर्तत भोगेभ्यो बन्धैकहेतुभ्यः, तथा ध्रुवमप्यायुः परिमितं संवत्सरशतादिमानेन विज्ञायात्मनो विनिवर्तेत भोगेभ्य इति सूत्रार्थः ॥ ३४ ॥ उपदेशाधिकारे प्रक्रान्तमेव समर्थयन्नाह - 'जर'ति सूत्रं, 'जरा' वयोहा
आचार
प्रणिध्य
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ध्ययनम्
२ उद्देशः
॥ २३३ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||२९-४०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
(४२)
49-60-50
प्रत
सूत्रांक
||२९
-४०||
निलक्षणा यावन्न पीडयति 'व्याधिः क्रियासामर्थ्यशत्रुर्यावन्न वर्द्धते यावद् 'इन्द्रियाणि' क्रियासामोप18कारीणि ओबादीनि न हीयन्ते तावदत्रान्तरे प्रस्ताव इतिकृत्वा धर्म समाचरेचारित्रधर्ममिति सूत्रार्थः ॥३५॥ ६॥ ३६॥ तदुपायमाह-कोहं' गाहा, क्रोधं मानं च मायां च लोभं च पापवर्धनं, सर्व एते पापहेतव इति
पापवर्द्धनव्यपदेशः, यतश्चैवमतो वमेचतुरो 'दोषान् एतानेव क्रोधादीन् हितमिच्छन्नात्मनः, एतद्वमने हि [४ सर्वसंपदिति मन्त्रार्थः॥ ३७॥ अवमने लिहलोक एवापायमाह-कोह'सि सूत्रं, क्रोधः प्रीतिं प्रणाशयति.13
क्रोधान्धवचनतस्तदुच्छेददर्शनात्, मानो विनयनाशनः, अवलेपेन मूर्खतया तदकरणोपलब्धेः, माया मिवाणि नाशयति, कौटिल्यवतस्तत्यागदर्शनात्, लोभः सर्वविनाशन, तत्त्वतस्त्रयाणामपि तद्भावभाविवादिति सूत्रार्थः ॥ ३८ ॥ यत एवमतः-'उवसमेण त्ति सूत्रं, 'उपशमेन' शान्तिरूपेण हन्यात् क्रोधम् , उदयनिरोधोदयमाप्साफलीकरणेन, एवं मानं मार्दवेन-अनुच्छिततया जयेत् उदयनिरोधादिनैव, मायां च फाज-16 भावेन अशठतया जयेत् उदयनिरोधादिनैव, एवं लोभं 'संतोषतः निःस्पृहत्वेन जयेत्, उदयनिरोधोदयप्राप्ताफलीकरणेनेति सूत्रार्थः ॥ ३९ ॥ क्रोधादीनामेव परलोकापायमाह-कोहोत्ति सूत्रं, क्रोधश्च मानश्चा-81 निगृहीती-उच्छृङ्खलौ,माया च लोभश्च विवर्धमानी च' वृद्धि गच्छन्ती, 'चत्वार' एते क्रोधादयः 'कृत्स्नात संपूर्णाः 'कृष्णा वा क्लिष्टाः कषायाः सिञ्चन्ति अशुभभावजलेन मूलानि तथाविधकर्मरूपाणि 'पुनर्भवस्या पुनर्जन्मतरोरिति सूत्रार्थः॥४०॥
दीप
अनुक्रम [३७९-३९०]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-५०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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दशका. हारि-वृत्तिः
प्रत
आचारप्रणिध्यध्ययनम् २ उद्देश:
सूत्रांक
॥२३४॥
॥४१
-५०||
रायाणिएसु विणयं पउंजे, धुवसीलयं सययं न हावइजा । कुम्मुव्व अल्लीणपलीणगुत्तो, परक्कमिज्जा तवसंजमंमि ॥४१॥ निई च न बहु मन्निज्जा, सप्पहासं विवज्जए। मिहो कहाहिं न रमे, सज्झायमि रओ सया ॥४२॥ जोगं च समणधम्ममि, जुंजे अनलसो धुवं । जुत्तो अ समणधम्ममि, अटुं लहइ अणुत्तरं ॥४३॥ इहलोगपारत्तहिअं, जेणं गच्छइ सुग्गइं । बहुस्सुअं पज्जुवासिज्जा, पुच्छिज्जत्थविणिच्छयं ॥४४॥ हत्थं पायं च कायं च, पणिहाय जिइंदिए । अल्लीणगुत्तो निसिए, सगासे गुरुणो मुणी ॥ ४५ ॥ न पक्खओ न पुरओ, नेव किच्चाण पिट्रओ। न य ऊरु समासिज्जा, चिट्ठिजा गुरुणंतिए ॥ ४६ ॥ अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा । पिट्टिमंसं न खाइज्जा, मायामोसं विवज्जए ॥ ४७ ॥ अप्पत्तिअं जेण सिआ, आसु कुप्पिज वा परो । सव्वसो तं न भासिज्जा, भासं अहिअगामिणि ॥४८॥ दिटुं मिअं असंदिद्धं, पडिपुन्नं विअं जिअं । अयंपिरमणुव्विग्गं, भास निसिर अत्तवं
दीप
अनुक्रम [३९१-४००
॥२३४॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-५०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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प्रत
सूत्रांक
॥४१
॥ १९ ॥ आयारपन्नत्तिधरं, दिट्टिवायमहिजगं । वायविक्खलिअं नच्चा, न त उवहसे
मुणी ॥५०॥ यत एवमतः कषायनिग्रहार्थमिदं कुर्यादित्याह-रायणिए'त्ति, 'रवाधिकेषु' चिरदीक्षितादिषु 'विनयम्' अभ्युत्थानादिरूपं प्रयुञ्जीत, तथा 'भुवशीलताम् अष्टादशशीलाङ्गसहस्रपालनरूपां 'सततम्' अनवरतं यथाशक्त्या(क्ति) न हापयेत्, तथा 'कूर्म इव' कच्छप इवालीनप्रलीनगुप्तः अङ्गोपाङ्गानि सम्यक संयम्येत्यर्थः, पराक्रमेत' प्रवर्सत 'तपःसंयमें तपःप्रधाने संयम इति सूत्रार्थः॥४१॥ किंच-निदं चत्ति सूत्र, 'निद्रा च न बहु मन्येत' न प्रकामशायी स्यात् । 'समहासंच' अतीवहासरूपं विवर्जयेत्, 'मिधाकथासु' राहस्थि-13 कीपु न रमेत, 'खाध्यायें पांचनादी रतः सदा, एवंभूतो भवेदिति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ तथा-'जोगं पति
सूत्र, 'योगं च' विविध मनोवाकायव्यापारं 'श्रमणधर्मे क्षान्त्यादिलक्षणे युञ्जीत 'अनलस' उत्साहवान्, 13'भुवं' कालाधौचित्येन नित्यं संपूर्ण सर्वत्र प्रधानोपसर्जनभावेन वा, अनुप्रेक्षाकाले मनोयोगमध्ययनकाले|
वाग्योगं प्रत्युपेक्षणाकाले काययोगमिति । फलमाह-'युक्त एवं व्याप्तः श्रमणधर्म दशविधेऽर्थे 'लभते' प्रामोत्यनुत्तरं भावार्थ ज्ञानादिरूपमिति सूत्रार्थः ॥४३॥ एतदेवाह-इहलोग'त्ति सूत्रं, 'इहलोकपरत्रहितम्' इहाकुशलप्रवृत्तिदुःखनिरोधेन परत्र कुशलानुवन्धत उभयलोकहितमित्यर्थः, 'येन' अर्थेन ज्ञानादिना
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अनुक्रम [३९१-४००
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-५०|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
||४१
-५०||
दशवैकाप करणभूतेन गच्छति सुगति, पारम्पर्येण सिद्धिमित्यर्थः, उपदेशाधिकार उक्तव्यतिकरसाधनोपायमाह- ८आचारहारि-वृत्तिः 'बहुश्रुतम्' आगमवृद्धं 'पर्युपासीत' सेवेत, सेवमानश्च पृच्छेद् 'अर्थविनिश्चयम्' अपायरक्षक कल्याणावह प्रणिध्य.
वार्थावितथभावमिति सूत्रार्थः ॥ ४४ ॥ पर्युपासीनश्च 'हत्य'ति सूत्रं, हस्तं पादं च कायं च 'प्रणिधायेति ध्ययनम् संयम्य जितेन्द्रियो निभृतो भूत्वा आलीनगुप्तो निषीदेत्, ईषल्लीन उपयुक्त इत्यर्थः, सकाशे गुरोर्मुनिरितिक | २ उद्देश: सूत्रार्थः ।। ४५॥ किं च-न पक्खओ'त्ति सूत्रं, न पक्षत:-पार्वतःन पुरता-अग्रतः नैव 'कृल्यानाम्' आचायोंणां 'पृष्ठतो'मार्गतो निषीदेदिति वर्तते, यथासंख्यमविनयचन्दमानान्तरायादर्शनादिदोषप्रसङ्गात्। न च'ऊरुं समा-2 श्रित्य' ऊरोरुपयूलं कृत्वा तिष्ठेद्गुर्वन्तिके, अविनयादिदोषप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ४६ ॥ उक्तः कायप्रणिधिः, | वाकप्रणिधिमाह-'अपुच्छिओत्ति सूत्रं, अपृष्टो निष्कारणं न भाषेत, भाषमाणस्य चान्तरेण न भाषेत, नेदमित्थं किं तवमिति, तथा 'पृष्ठिमांस' परोक्षदोषकीर्तनरूपं 'न खादेत् न भाषेत, 'मायामूषां मायाप्रधानां मृषावाचं विवर्जयेदिति सूत्रार्थः॥४७॥ किंच-अप्पत्तिति सूत्रं, 'अप्रीतिर्येन स्यादिति प्राकृतशैल्या येनेति-यया भाषया भाषितया अप्रीतिरित्यप्रीतिमात्रं भवेत् तथा 'आशु' शीघ्र 'कुप्येवा परोंद
रोषकार्य दर्शयेत् 'सर्वशः' सर्वावस्थासु 'ताम् इत्थंभूतां न भाषेत भाषाम् 'अहितगामिनीम्' उभयलोकXविरुद्धामिति सूत्रार्थः ।। ४८॥ भाषणोपायमाह-दिति सूत्र, 'दृष्टा' दृष्टार्थविषयां 'मिता' खरूपप्रयो-||3||
जनाभ्याम् 'असंदिग्धा निशविता प्रतिपूर्णी खरादिभिः 'व्यक्ताम्' अलल्लां 'जिता परिचिताम् 'अज-IC
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अनुक्रम [३९१-४००]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||४१-५०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
॥४१
-५०||
ल्पनशीला' नोचैर्लग्नविलग्नाम् 'अनुद्विग्ना नोद्वेगकारिणीमेवभूतां भाषां 'निसृजे' या 'आत्मवान् । सचेतन इति सूत्रार्थः ॥ ४२ ॥ प्रस्तुतोपदेशाधिकार एवेदमाह-आयार'त्ति सूत्रं, 'आचारप्रज्ञप्तिधर मित्याचारधरः स्त्रीलिङ्गादीनि जानाति प्रज्ञप्तिधरस्तान्येव सविशेषाणीत्येवंभूतम् । तथा दृष्टिवादमधीयानं प्रकृति-15 प्रत्ययलोपागमवर्णविकारकालकारकादिवेदिनं 'वागविस्खलितं ज्ञात्वा' विविधम्-अनेक प्रकारैर्लिङ्गभेदादिभिः स्खलितं विज्ञाय न 'तम्' आचारादिधरमुपहसेन्मुनिः, अहो नु खल्वाचारादिधरस्य वाचि कौशल-13 मित्येवम्, इह च दृष्टिबादमधीयानमित्युक्तमत इदं गम्यते-नाधीतदृष्टिवाद, तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतः स्खलनाऽसंभवादू, यवंभूतस्यापि स्खलितं संभवति न चैनमुपहसेदित्युपदेशः, ततोऽन्यस्य सुतरां संभवति, नासी हसितव्य इति सूत्रार्थः ॥५०॥
नक्खत्तं सुमिणं जोग, निमित्तं मंतभेसजं । गिहिणो तं न आइक्खे, भूआहिगरणं पयं ॥५१॥ अन्नटुं पगडं लयणं, भइज सयणासणं । उच्चारभूमिसंपन्नं, इत्थीपसुविवजिअं ॥५२॥ विवित्ता अ भवे सिज्जा, नारीणं न लवे कहं । गिहिसंथवं न कुज्जा, कुजा साहहिं संथवं ॥ ५३ ।। जहा कुक्कुडपोअस्स, निचं कुललओ भयं । एवं खु बंभयारिस्स, इत्थीविग्गहओ भयं ॥ ५४॥ चित्तभित्तिं न निज्झाए, नारिं वा सुअलं
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अनुक्रम [३९१-४००]
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-1, मूलं [१५...] / गाथा ||५१-६०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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दशबैका हारि-वृत्तिः
सूत्रांक
॥२३॥
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किअं । भक्खरंपिव दहणं, दिद्रिं पडिसमाहरे ॥ ५५ ॥ हत्थपायपलिच्छिन्नं, कण्ण- ८ आचारनासविगप्पि । अवि वाससयं नारिं, बंभयारी विवजए ॥ ५६ ॥ विभूसा इस्थिसं
प्रणिध्य
ध्ययनम् सग्गो, पणीअं रसभोअणं । नरस्सऽत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥ ५७॥ अंग
२ रद्देशाः पञ्चंगसंठाणं, चारुडविअपेहिअं। इत्थीणं तं न निज्झाए, कामरागविवडणं ॥ ५८॥ विसएसु मणुन्नेसु, पेमं नाभिनिवेसए । अणिञ्चं तेसिं विनाय, परिणामं पुग्गलाण उ॥ ५९॥ पोग्गलाणं परीणाम, तेसिं नच्चा जहा तहा। विणीअतण्हो विहरे, सी
ईभूएण अप्पणा ॥६॥ किंच-नक्षतंति सूत्र, गृहिणा पृष्टः सन्नक्षत्रम्-अश्विन्यादि 'ख' शुभाशुभफलममुभूतादि 'योग' वशीकरणादि निमित्तम्' अतीतादि 'मलं' वृश्चिकमन्नादि 'भेषजम् अतीसाराघौषधं 'गृहिणाम्' असंयतानां तदू नाचक्षीत, किंविशिष्टमित्याह-'भूताधिकरणं पद मिति भूतानि-एकेन्द्रियादीनि संघहनादिनाधिक्रियन्तेऽस्मिन्निति, ततश्च तद्प्रीतिपरिहारार्थमित्थं ब्रूयाद्-अनधिकारोऽत्र तपखिनामिति सूत्रार्थः॥५१॥ किंच-'अन्न8'ति सूत्र, 'अन्यार्थ प्रकृतं न साधुनिमित्तमेव निर्तितं 'लयन' स्थानं वसतिरूपं 'भजेत्।
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अनुक्रम [४०१-४१०]
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६
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५१-६०|| नियुक्ति : [३०८], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
-६०||
सेवेत, तथा 'शयनासन'मित्यन्याध प्रकृतं संस्तारकपीठकादि सेवेतेत्यर्थः, एतदेव विशेष्यते-'उच्चारभूमिसंपन्नम्' उच्चारप्रस्रवणादिभूमियुक्तं, तद्रहितेऽसकृत्तदर्थं निर्गमनादिदोषात्, तथा 'स्त्रीपशुविवर्जित'मित्येकग्रहणे तजातीयग्रहणात् खीपशुपण्डकविवर्जितं ख्याद्यालोकनादिरहितमिति सूत्रार्थः ।। ५२ ॥ तदित्थंभूतं लयन सेवमानस्य धर्मकथाविधिमाह-विवित्ता यत्ति सूत्रं, 'विविक्ता च' तदन्यसाधुभी रहिता च, चशब्दात्तथाविधभुजङ्गप्रायैकपुरुषयुक्ता च भवेच्छय्या-वसतियेदि ततो 'नारीणां' स्त्रीणां न कथयेत्कयां, शङ्कादिदोषप्रसङ्गात्, औचित्यं विज्ञाय पुरुषाणां तु कथयेत्, अविविक्तायां नारीणामपीति, तथा 'गृहिसंस्तवं गृहिपरिचर्य न कुर्यात् तत्लेहादिदोषसंभवात् । कुर्यात्साधुभिः सह 'संस्तव' परिचर्य, कल्याणमित्रयोगेन कुशलपक्षवृद्धिभावत इति सूत्राथेंः ॥ ५३॥ कथञ्चिद्गृहिसंस्तवभावेऽपि स्त्रीसंस्तयो न कर्तव्य एवेत्यत्र कारणमाह-जहत्ति सूत्रं, यथा 'कुकुटपोतस्य' कुक्कुटचेल्लकस्य 'नित्यं सर्वकालं 'कुललतो' मार्जारात् भयम् , एवमेव 'ब्रह्मचारिणः' साधोः 'स्त्रीविग्रहात्' स्त्रीशरीराद्भयम् । विग्रहग्रहणं मृतविग्रहादपि भयख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ ५४॥ यतश्चैवमत:-चित्त'त्ति सूत्रं, 'चित्तभिति' चित्रगतां स्त्रियं 'न निरीक्षेत' न पश्येत्, नारी वा सचेतनामेव खलङ्कृताम्, उपलक्षणमेतदनलङ्कृतां च न निरीक्षेत, कथञ्चिद्दर्शनयोगेऽपि
भास्करमिच' आदित्यमिव दृष्ट्वा दृष्टिं 'प्रतिसमाहरे' द्रागेव निवर्तयेदिति सूत्रार्थः ॥ ५५॥ किंबहुना - महत्य'त्ति सूत्र, 'हस्तपादप्रतिच्छिन्ना'मिति प्रतिच्छिन्नहस्तपादां 'कर्णनासाचिकृत्ता'मिति विकृत्तकर्णना
दीप
ADSEKASSSSC
अनुक्रम [४०१-४१०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||५१-६०|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
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दशवैका सामपि वर्षशतिका नारीम्, एवंविधामपि किमङ्ग पुनस्तरुणी?, तां तु सुतरामेव, 'ब्रह्मचारी' चारित्रधनोद आचारहारि-वृत्तिः महाधन इव तस्करान् विवर्जयेदिति सूत्रार्थः ॥५६॥ अपिच-'विभूस'त्ति सूत्रं, 'विभूषा' वस्त्रादिराढा 'स्त्रीसं- प्रणिध्य
सर्गः' येन केनचित्प्रकारेण खीसंबन्धः 'प्रणीतरसभोजन' गलनेहरसाभ्यवहारः, एतत्सर्वमेव विभूषादि| ध्ययनम् ॥२३७॥
नरस्य 'आत्मगवेषिण' आत्महितान्वेषणपरस्य 'विषं तालपुटं यथा' तालमात्रव्यापत्तिकरविषकल्पमहित- २ उद्देश: मिति सूत्रार्थः ॥५७॥ 'अंग'त्ति सूत्रं, 'अङ्गप्रत्यङ्गसंस्थान'मिति अङ्गानि-शिरप्रभृतीनि प्रत्यङ्गानि-नय-|
नादीनि एतेषां संस्थान-विन्यासविशेष, तथा चारु-शोभनं 'लपितपेक्षितं' लपितंजल्पित्तं प्रेक्षित-निरी-18 AIक्षितं स्त्रीणां संबन्धि, तदङ्गप्रत्यङ्गसंस्थानादि 'न निरीक्षेत न पश्येत्, किमित्यत आह-कामरागविवर्द्धन
मिति, एतद्धि निरीक्ष्यमाणं मोहदोषात् मैथुनाभिलाषं वर्द्धयति, अत एवास्य प्राक् स्त्रीणां निरीक्षणप्रतिषेदूधागतार्थतायामपि प्राधान्यख्यापनार्थों भेदेनोपन्यास इति सूत्रार्थः॥५८॥ किंच-'विसएसुत्ति सूत्रं, 'विषयेषु' शब्दादिषु 'मनोज्ञेषु' इन्द्रियानुकूलेषु 'प्रेम' रागं 'नाभिनिवेशयेत्' न कुर्यात्, एवममनोज्ञेषु द्वेषम्, आह-उक्तमेवेदं प्राक 'कण्णसोक्खेही त्यादौ किमर्थं पुनरुपन्यास इति?, उच्यते, कारणविशेषाभिधानेन विशेषोपलम्भार्थमिति, आह च-'अनित्यमेव परिणामानित्यतया 'तेषां पुद्गलानां, तुशब्दाच्छन्दादिविषयसंबन्धिनामिति योगः, 'विज्ञाय' अवेत्य जिनवचनानुसारेण, किमित्याह–'परिणाम' पर्यायान्तराप-11 त्तिलक्षणं, ते हि मनोज्ञा अपि सन्तो विषयाः क्षणादमनोज्ञतया परिणमन्ति अमनोज्ञा अपि मनोज्ञतया।
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अनुक्रम [४०१-४१०]
॥२३७॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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अनुक्रम
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [ - ], मूलं [१५...] / गाथा ||६१-६४ || निर्युक्तिः [ ३०८], भाष्यं [६२...]
इति तुच्छं रागद्वेषयोर्निमित्तमिति सूत्रार्थः ॥ ५९ ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह - 'पोग्गलाणं'ति सूत्रं, 'पुङ्गलानां शब्दादिविषयान्तर्गतानां 'परिणामम्' उक्तलक्षणं तेषां 'ज्ञात्वा' विज्ञाय यथा मनोज्ञेतररूपतया भवन्ति तथा ज्ञात्वा 'विनीततृष्णः' अपेताभिलाषः शब्दादिषु विहरेत् 'शीतीभूतेन' क्रोधाद्यम्युपगमात्प्रशान्तेनात्मनेति सूत्रार्थः ॥ ६० ॥
जाइ सखाइ निक्खतो, परिआयाणमुत्तमं । तमेव अणुपालिज्जा, गुणे आयरिअसंमए ॥ ६१ ॥ तवं चिमं संजमजोगयं च, सज्झायजोगं च सया अहिट्टए । सुरे व सेणाइ समत्तमाउहे, अलमप्पणो होइ अलं परेसिं ॥ ६२ ॥ सज्झायसज्झाणरयस्स ताइणो, अपावभावस्स तवे रयस्स । विसुज्झई जंसि मलं पुरेकडं, समीरिअं रुप्प - मलं व जोइणा ॥ ६३ ॥ से तारिसे दुक्खसहे जिइंदिए, सुरण जुत्ते अममे अकिंचणे । विरायई कम्मघणंमि अवगए, कसिणब्भपुडावगमे व चंदिमि ॥ ६४ ॥ ति बेमि ॥ आयारपणिही णाम अज्झयणं समत्तं ८ ॥
किं च — 'जाइ'ति सूत्रं, यया 'श्रद्धया' प्रधानगुणस्वीकरणरूपया निष्क्रान्तोऽविरतिजम्बालात् 'पर्याय
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६१-६४|| नियुक्ति: [३०८], भाष्यं [६२...]
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-६४||
दशकास्थानं प्रव्रज्यारूपम् 'उत्तम प्रधान प्राप्त इत्यर्थः, तामेव श्रद्धामप्रतिपतिततया प्रवर्द्धमानामनुपालयेद्यनेन, आचारहारि-वृत्तिः क इत्याह-गुणेषु मूलगुणादिलक्षणेषु, 'आचार्यसंमतेषु तीर्थकरादिबहुमतेषु, अन्ये तु श्रद्धाविशेषणमेत-18
प्रणिध्य॥२३८॥४ 18|दिति व्याचक्षते, तामेव श्रद्धामनुपालयेद्गुणेषु, किंभूताम् ?-आचार्यसंमतां, न तु स्वाग्रहकलतितामिति सू-पाध्ययनम्
वार्थः ॥ ११॥ आचारप्रणिधिफलमाह-तवं चिमति सूत्रं, तपश्चेदम्-अनशनादिरूपं साधुलोकप्रतीतं २ उद्देशः 'संयमयोगं च पृथिव्यादिविषयं संयमव्यापारं च 'स्वाध्याययोगं च' वाचनादिव्यापारं 'सदा सर्वकालम् । 'अधिष्ठाता तपःप्रभृतीनां कर्तेत्यर्थः, इह च तपोऽभिधानात्सद्भहणेऽषि स्वाध्याययोगस्य प्राधान्यख्यापनार्थ भेदेनाभिधानमिति । 'स' एवंभूतः 'शूर इवं विक्रान्तभट इव 'सेनया' चतुरङ्गरूपया इन्द्रियकषायादिरूपिया निरुद्धः सन् 'समाप्तायुधा' संपूर्णतपःप्रभृतिखद्गाद्यायुधः 'अलम्' अत्यर्थमात्मनो भवति संरक्षणाय अलं[४ |च परेषां निराकरणायेति सूत्रार्थः ॥ ६२ ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह-सज्झाय'त्ति सूत्रं, स्वाध्याय एव सद्ध्यानं खाद्ध्यायसध्यानं तत्र रतस्य-सक्तस्य 'त्रातु: खपरोभयत्राणशीलस्य 'अपापभावस्य लब्ध्याद्यपेक्षारहिततया शुद्धचित्तस्य 'तपसि' अनशनादौ यथाशक्ति रतस्य 'विशुध्यते' अपैति यद् 'अस्य साधोः 'मलं'
कर्ममलं 'पुराकृत' जन्मान्तरोपातं, दृष्टान्तमाह-'समीरितं' प्रेरितं रूप्यमलमिव 'ज्योतिषा' अग्निनेति सूभावार्थः ।। ६३ ॥ ततः-'से तारिसे'त्ति सूत्रं, 'स तादृशः' अनन्तरोदितगुणयुक्तः साधुः 'दुःखसहः' परीष- २३८॥ ४ हजेता 'जितेन्द्रियः पराजितोत्रेन्द्रियादिः 'श्रुतेन युक्तों विद्यावानित्यर्थः 'अममा सर्वत्र ममत्वरहितः४
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अनुक्रम [४११-४१४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
॥६१
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [८], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६१-६४ || निर्युक्तिः [ ३०८], भाष्यं [६२...]
'अकिञ्चनो' द्रव्यभावकिञ्चनरहितः 'विराजते' शोभते, 'कर्मघने' ज्ञानावरणीयादिकर्ममेघे अपगते सति, निदर्शनमाह - 'कुल्लाभ्रपुटापगम इव चन्द्रमा इति' यथा कृत्स्ने कृष्णे वा अभ्रपुढे अपगते सति चन्द्रो विराजते शरदि तद्वदसावपेतकर्मघनः समासादितकेवलालोको विराजत इति सूत्रार्थः ॥ ६४ ॥ ब्रवीमीति पूर्ववत्, उक्तोऽनुगमः, साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववदेव । व्याख्यातमाचारप्रणिध्यध्ययनम् ॥ ८ ॥
इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां दशवैकालिकबृहद्वृत्तावष्टमाध्ययनम्
संपूर्णम् ॥ ८ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
अत्र अष्टमं अध्ययनं परिसमाप्तं
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| नियुक्ति: [३०९], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||६४..||
पा-
२ उद्देशः
दशवैका अथ नवमं विनयसमाधिनामाध्ययनं प्रारभ्यते ॥
९ विनयहारि-वृत्तिटा
समाध्यअधुना विनयसमाध्याख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः-इहानन्तराध्ययने निरवयं वच आचारे प्र
ध्ययनम् ॥२३९॥
/णिहितस्य भवतीति तत्र यत्नवता भवितव्यमित्येतदुक्तम्, इह त्वाचारप्रणिहितो यथोचितविनयसंपन्न एव । विनय
भवतीत्येतदुच्यते, उक्तं च-"आयारपणिहाणंमि, से सम्मं बद्दई बुहे । णाणादीण विणीए जे, मोक्खडा भेदाः निविगिच्छए ॥१॥" इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम्, अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्या४ वनामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च विनयसमाधिरिति द्विपदं नाम, तनिक्षेपायाह
विणयस्स समाहीए निक्खेवो होइ दोहवि चउको । दव्वविणयंमि तिणिसो सुवण्णमिचेवमाईणि ॥ ३०९॥ PI व्याख्या-'विनयस्य' प्रसिद्धृतत्वस्य 'समाघेश्च प्रसिद्धतत्त्वस्यैव निक्षेपो-ग्यासो भवति द्वयोरपि चतुष्को
नामादिभेदात्, तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यविनयमाह-द्रव्यविनये ज्ञशरीरभव्यशरीरब्यतिरिक्त 'तिनिशों' वृक्षविशेष उदाहरणं, स रथाङ्गादिषु यत्र यत्र यथा यथा विनीयते तत्र तत्र तथा तथा परिणमति, योग्यत्वादिति । तथा सुवर्णमित्यादीनि कटककुण्डलादिप्रकारेण विनयनादू द्रव्याणि द्रव्यविनयः, आदिशब्दात्तत्तद्योग्यरूप्यादिपरिग्रह इति गाथार्थः ॥ साम्प्रतं भावविनयमाह
।। २३९॥ आचारप्रणिधाने स सम्पवर्तते चुः । ज्ञानादिषु विनीतो यो मोक्षार्भ निविचिकित्सकः ॥ १ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अध्ययनं -९- "विनयसमाधि" आरभ्यते
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| नियुक्ति : [३१०-३१३], भाष्यं [६२...]
प्रत
सूत्रांक ||६४..||
लोगोवयारविणो अत्यनिमित्तं च कामहेषु च । भवविणय मुक्खविणओ विणओ खलु पंचहा होइ ॥ ३१०॥ अम्भुहाणं अंजलि आसणदाणं अतिहिपूआ य । लोगोवयारविणो देवयपूआ व विहवेणं ॥ ३११॥ अब्भासवित्तिछंदाणुवत्तणं देसकालदाणं च । अब्भुट्ठाणं अंजलिआसणदार्ण च अस्थकए ।। ३१२ ॥ एमेव कामविणो भए अ नेअब्वमाणुपुब्बीए । मोक्खंमिऽवि पंचविहो परुवणा तस्सिमा होइ ।। ३१३ ।। व्याख्या-लोकोपचारविनयो लोकप्रतिपत्तिफल: 'अर्थनिमित्तं च अर्थप्राप्त्यर्थं च 'कामहेतुश्च कामनिमि-18 त्तिश्च तथा 'भयविनयों भयनिमित्तो 'मोक्षविनयों मोक्षनिमित्तः, एवमुपाधिभेदाद्विनयः खलु 'पञ्चधा' पञ्चप्रकारो भवतीति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थाभिधित्सया तु लोकोपचारविनयमाह-'अभ्युत्थान' तदुचितस्थागतस्याभिमुखमुत्थानम् 'अञ्जलिः' विज्ञापनादौ, आसनदानं च गृहागतस्य प्रायेण, अति-18 थिपूजा चाहारादिदानेन 'एष' इत्थंभूतो लोकोपचारविनयः, देवतापूजा च यथाभक्ति बल्यागुपचाररूपा 'विभवेने ति यथाविभवं विभवोचितेति गाथार्थः ॥ उक्तो लोकोपचारविनया, अर्थविनयमाह-'अभ्यासवृत्तिः नरेन्द्रादीनां समीपावस्थानं 'छन्दोऽनुवर्तनम्' अभिप्रायाराधनं 'देशकालदानं च कटकादौ विशिष्टनृपतेः प्रस्तावदानं, तथाऽभ्युत्थानमञ्जलिरासनदानं च नरेन्द्रादीनामेव कुर्वन्ति 'अर्थकृते' अर्थार्थमिति गाधार्थः ॥ उक्तोऽर्थविनयः, कामादिविनयमाह-एवमेव यथार्थविनय उक्तोऽभ्यासवृत्त्यादिः तथा कामविनयः 'भये चेति भयविनयश्च 'ज्ञातव्यों विज्ञेयः 'आनुपूा परिपाट्या, तथाहि-कामिनो
सस
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अथ "भावविनय प्रकाश्यते
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| नियुक्ति: [३१०-३१३], भाष्यं [६२...]
--
-
दशवैका० हारि-वृत्तिः
विनयसमाध्यध्ययनम्
॥२४
॥
प्रत सूत्रांक
विनय:
||६४..||
भेदाः २ उद्देश:
वेश्यादीनां कामार्थमेवाभ्यासवृत्त्यादि यथाक्रम सर्व कुर्वन्ति प्रेष्याश्च भयेन खामिनामिति, उक्तौ कामभ- यविनयौ, मोक्षविनयमाह-'मोक्षेऽपि' मोक्षविषयो विनयः 'पञ्चविधा' पश्चप्रकारः 'प्ररूपणा निरूपणा तस्यैषा भवति वक्ष्यमाणेति गाथार्थः ॥
दसणनाणचरिते तवे अ तह ओवयारिए चेवं । एसो अ मोक्खविणओ पंचविहो होइ नायथ्यो ॥ ३१४ ॥ दव्याण सव्वभावा उबइहा जे जहा जिणवरेहिं । ते वह सद्दहइ नरो ईसणविणओ हवइ तम्हा ।। ३१५ ॥ नाणं सिक्खइ नाणं गुणेइ नाणेण कुणइ किच्चाई । नागी नवं न बंधइ नाणविणीओ हवइ तम्हा ।। ३१६ ॥ अट्ठविहं कम्मचर्य जम्हा रित्तं करेइ जयमाणो । नवमन्नं च न बंधइ चरित्तविणओ हवइ तम्हा ॥ ३१ ॥ अवणेइ तवेण तम उवणेइ अ सग्गमोक्खमप्पाणं । तबविणयनिच्छयमई तवोविणीओ हवइ तम्हा ।। ३१८ ॥ अह ओवयारिओ पुण दुविहो विणो समासओ होइ । पडिरूवजोगजुंजण तह य अणासायणाविणओ ॥ ३१९ ।। पडिरूवो खलु विणो काइभजोए य बाइ माणसिओ । अट्ठ चउब्विह दुविहो परूवणा तस्सिमा होइ ।। ३२०॥ अब्भुट्ठाणं अंजलि आसणवाणं अभिगाह किई अ । सुस्सूसणमणुगच्छण संसारण काय अढविहो ।। ३२१ ॥ हिअमिअअफरुसवाई अणुवीईभासि वाइओ विणओ । अकुसलचित्तनिरोहो कुसलमणउदीरणा चेव ।। ३२२ ॥ व्याख्या-दर्शनज्ञानचारित्रेषु' दर्शनज्ञानचारित्रविषयः 'तपसि च' तपोविषयश्च तथा 'औपचारिकश्चैव प्रतिरूपयोगव्यापारव, एष तु मोक्षविनयो-मोक्षनिमित्तः पञ्चविधो भवति ज्ञातव्य इति गाथासमासाधे
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॥२४०॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
मोक्षविनयस्य पंच प्रकारा: सव्याख्या प्रकाश्यते
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आगम
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सूत्रांक
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| निर्युक्तिः [३१४-३२२] भाष्यं [ ६२...]
व्यासार्थे दर्शनविनयमाह - 'द्रव्याणां धर्मास्तिकायादीनां 'सर्वभावाः' सर्व पर्यायाः 'उपदिष्टाः कथिता 'ये' अगुरुलघ्वादयो 'यथा' येन प्रकारेण 'जिनवरैः' तीर्थकरैः 'तान्' भावान् 'तथा' तेन प्रकारेण श्रद्धत्ते नरः, श्रद्दधानश्च कर्म विनयति यस्माद्दर्शनविनयो भवति तस्माद्, दर्शनाद्विनयो दर्शनविनय इति गाथार्थः ॥ ज्ञानविनयमाह-- 'ज्ञानं शिक्षति' अपूर्व ज्ञानमादत्ते, 'ज्ञानं गुणयति' गृहीतं सत्प्रत्यावर्त्तयति, ज्ञानेन करोति 'कृत्यानि' संयमकृत्यानि, एवं ज्ञानी नवं कर्म न बध्नाति प्राक्तनं च विनयति यस्मात् 'ज्ञान| विनीतों ज्ञानेनापनीतकर्मा भवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ चारित्रचिनयमाह - 'अष्टविधम्' अष्टप्रकारं 'कर्मचयं कर्मसंघातं प्रागबद्धं यस्मादू 'रिक्तं करोति' तुच्छतापादनेनापनयति 'यतमानः' क्रियायां यत्नपरः तथा नवमन्यं च कर्मचयं न बध्नाति यस्मात् 'चारित्रविनय' इति चारित्राद्विनयश्चारित्रविनयः चारित्रेण विनीतकर्मा भवति तस्मादिति गाधार्थः ॥ तपोविनयमाह - अपनयति तपसा 'तमः' अज्ञानम् उपनयति च स्वर्गे मोक्षम् 'आत्मानं जीवं तपोविनयनिश्चयमतिः, यस्मादेवंविधस्तपोविनीतो भवति तस्मादिति गाथार्थः ॥ उपचारविनयमाह - अधौपचारिकः पुनर्द्विविधो विनयः समासतो भवति, द्वैविध्यमेवाह-प्रतिरूपयोग योजनं तथाऽनाशातनाविनय इति गाथासमासार्थः ॥ व्यासार्थमाह- 'प्रतिरूपः' उचितः खलु विनयस्त्रिविधः, 'काययोगे च वाचि मानसः' कायिको वाचिको मानसच, अष्टचतुर्विधद्विविधः कायिकोऽष्टविधः वाचिकअतुर्विधः मानसो द्विविधः । प्ररूपणा तस्य कायिकाष्टविधादेरियं भवति वक्ष्यमाणलक्षणेति गाथार्थः ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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||६४..||
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[४१४..]
दशबैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २४१ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| निर्युक्तिः [३१४-३२२], भाष्यं [६२...]
कायिकमाह-अभ्युत्थानमर्हस्य, अञ्जलिः प्रश्नादौ, आसनदानं पीठकागुपनयनम्, अभिग्रहो गुरुनियोगकरणाभिसंधिः, 'कृतिश्चेति कृतिकर्म वन्दनमित्यर्थः, 'शुश्रूषणं' विधिवद्दूरासन्नतया सेवनं, 'अनुगमनम्' आगच्छतः प्रत्युद्गमनं, 'संसाधनं च' गच्छतोऽनुवजनं चाष्टविधः कार्याविनय इति गाथार्थः ॥ वागादिविनयमाह - हितमितापरुषवा 'गिति हितवाक-हितं वक्ति परिणामसुन्दरं, मितबाग- मितं स्तोकैरक्षरैः, अपरुषवागपरुषम्-अनिष्ठुरं, तथा 'अनुविचिन्त्यभाषी' खालोचितवतेति वाचिको विनयः । तथा अकुशलमनोनिरोधः आर्तध्यानादिप्रतिषेधेन, कुशलमनउदीरणं चैव धर्मध्यानादिप्रवृत्येति मानस इति गाथार्थः ॥ आह-किमर्थमयं प्रतिरूपविनयः ?, कस्य चैष इति ?, उच्यते
पडिवो खलु विणओ पराणुअत्तिमइओ मुणेभब्वो। अप्पडिरूवो विणओ नायव्वो केवलीणं तु ॥ ३२३ ॥ एसो भे परिकहिओ विणओ पडिरूवलक्खणो तिविहो । बावन्नविहिविहाणं वेंति अणासावणाविषयं || ३२४ ॥ तित्थगरसिद्धकुलगणसंघकियाधम्मनाणनाणीणं । आयरिअर ओज्झागणीणं तेरस पयाणि ॥ ३२५ ॥ अणसायणा व भत्ती बहुमाणो तय वनसंजलणा । तित्वगराई तेरस चउग्गुणा होति बावन्ना ।। ३२६ ।।
व्याख्या- 'प्रतिरूप: ' उचितः खलु विनयः 'परानुवृत्यात्मकः' तत्तद्वस्त्वपेक्षया प्राय आत्मव्यतिरिक्तप्रधानानुवृत्यात्मको मन्तव्यः । अयं च बाहुल्येन छद्मस्थानां । तथा 'अप्रतिरूपो विनयः' अपरानुवृत्त्यात्मकः स च ज्ञातव्यः केवलिनामेव, तेषां तेनैव प्रकारेण कर्मविनयनात् तेषामपीत्वरः प्रतिरूपोऽज्ञातकेवल भावानां
९ विनय
समाध्य ध्ययनम् १ उद्देशः
~ 493 ~
॥ २४१ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [-], मूलं [१५...] / गाथा ||६४...|| नियुक्ति : [३२३-३२६], भाष्यं [६२...]
प्रत
सूत्रांक ||६४..||
भवत्येवेति गाथार्थः ॥ उपसंहरन्नाह-एषः' अनन्तरोदितो में भवतां परिकथितो विनयः प्रतिरूपलक्षणः त्रिविधा' कायिकादि: 'विपश्चाशद्विधिविधानम् एतावत्मभेदमित्यर्थः 'वते' अभिदधति तीर्थकरा 'अना|शातनाविनयं वक्ष्यमाणमिति गाथार्थः ॥ एतदेवाह-तीर्थकरसिद्धकुलगणसङ्घक्रियाधर्मज्ञानज्ञानिनां तथा आचार्यस्थविरोपाध्यायगणिनां संवन्धीनि त्रयोदश पदानि, अत्र तीर्थकरसिद्धी प्रसिद्धी, कुलं नागेन्द्रक-I लादि, गणः कोटिकादिः, सङ्घः प्रतीतः, क्रियाऽस्तिवादरूपा, धर्मः श्रुतधर्मादिः, ज्ञानं मत्यादि, ज्ञानिनस्तहै द्वन्ता, आचार्यः प्रतीतः, स्थविरः सीदतां स्थिरीकरणहेतुः, उपाध्यायः प्रतीतः, गणाधिपतिर्गणिरिति
गाथार्थः । एतानि त्रयोदश पदानि अनाशातनादिभिश्चतुर्भिगुणितानि द्विपश्चाशद्भवन्तीत्याह-अनाशा|तना च तीर्थकरादीनां सर्वथा अहीलनेत्यर्थः, तथा भक्तिस्तेष्वेवोचितोपचाररूपा, तथा बहुमानस्तेष्वेवान्तरभावप्रतिवन्धरूपः, तथा च वर्णसंज्वलना-तीर्थकरादीनामेव सद्भूतगुणोत्कीर्तना । एवमनेन प्रकारेण
तीर्थकरादयस्त्रयोदश चतुर्गुणा अनाशातनाद्युपाधिभेदेन भवन्ति द्विपञ्चाशद्भेदा इति गाथार्थः ॥ उक्तो 18 विनयः, साम्प्रतं समाधिरुच्यते, तत्रापि नामस्थापने क्षुण्णवादनात्य द्रब्यादिसमाधिमाह
दव्वं जेण व दम्वेण समाही आहिरं च जं दव्वं । भावसमाहि चउठिवह दंसणनाणे तवचरिते ॥ ३२७ ॥
व्याख्या-द्रव्य मिति द्रव्यमेव समाधिः द्रव्यसमाधिः यथा मात्रकम् अविरोधि वा क्षीरगुडादि तथा येन जावा द्रव्येणोपयुक्तेन समाधिस्त्रिफलादिना तद् द्रव्यसमाधिरिति । तथा आहितं वा यद्रव्यं समतां करोति
दीप अनुक्रम [४१४..]
+ISISASS
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समाधे: द्रव्यादि भेदा: कथयते
~494~
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३२७], भाष्यं [६२...]
(४२)
समाध्यध्ययनम्
प्रत
१उद्देश
सत्रांक
||2||
तुलारोपितपलशतादिवत्स्वस्थाने तद् द्रव्यं समाधिरिति । उक्तो द्रव्यसमाधिः, भावसमाधिमाह-भावहारि-वृत्तिः समाधिः' प्रशस्तभावाविरोधलक्षणश्चतुर्विधः, चातुर्विध्यमेवाह-दर्शनज्ञानतपश्चारित्रेषु । एतद्विषयो दर्शना
मादीनां व्यस्तानां समस्तानां वा सर्वथाऽविरोध इति गाथार्थः ॥ उक्तः समाधिः, तदभिधानान्नामनिष्पन्नो ॥२४२॥
निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत् तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं | सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम
थंभा व कोहा व मयप्पमाया, गुरुस्सगासे विणयं न सिक्खे । सो चेव उ तस्स
अभूइभावो, फलं व कीअस्स वहाय होइ ॥१॥ 'थंभा 'ति, अस्य व्याख्या-स्तम्भावा' मानाद्वा जात्यादिनिमित्तात् 'क्रोधाद्वा' अक्षान्तिलक्षणात् ला'मायाप्रमादादिति मायातो-निकृतिरूपायाः प्रमादाद-निद्रादेः सकाशात्, किमित्याह-'गुरोः सकाशे'
आचार्यादेः समीपे 'विनयम्' आसेवनाशिक्षाभेदभिन्नं 'न शिक्षते' नोपादत्ते, तत्र स्तम्भात्कथमहं जात्यादिमान जात्यादिहीनसकाशे शिक्षामीति, एवं क्रोधात्वचिद्वितथकरणचोदितो रोषाद्वा, मापातः शूलं मे क्रियत इत्यादिव्याजेन, प्रमादात्मक्रान्तोचितमनवबुद्ध्यमानो निद्रादिच्यासङ्गेन, स्तम्भादिक्रमोपन्यासश्चेत्थमेवामीषां विनयविघ्नहेतुतामाश्रित्य प्राधान्यख्यापनार्थः । तदेवं स्तम्भादिभ्यो गुरोः सकाशे विनयं न शि
दीप अनुक्रम [४१५]
KI1२४२॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||१|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सुत्रांक
5453
क्षते, अन्ये तु पठन्ति-गुरोः सकाशे 'विनये न तिष्ठति' विनये न वर्तते, विनयं नासेवत इत्यर्थः । इह च स एव तु स्तम्भादिविनयशिक्षाविघ्नहेतु: तस्य' जडमतेः 'अभूतिभाव' इति अभूतेर्भावोऽभूतिभावः, असंपद्भाव इत्यर्थः, किमित्याह-वधाय भवति' गुणलक्षणभावप्राणविनाशाय भवति, दृष्टान्तमाह-फलमिव कीचकस्य' कीचको-वंशस्तस्य यथा फलं वधाय भवति, सति तमिस्तस्य विनाशात्, तद्वदिति सूत्रार्थः॥१॥
जे आवि मंदित्ति गुरुं विइत्ता, डहरे इमे अप्पसुअत्ति नच्चा । हीलंति मिच्छं पडिवजमाणा, करति आसायण ते गुरूणं ॥२॥ पगईइ मंदावि भवंति एगे, डहरावि अ जे सुअबुद्धोववेआ । आयारमंतो गुणसुट्रिअप्पा, जे हीलिआ सिहिरिव भास कुजा ॥३॥जे आवि नागं डहरंति नच्चा, आसायए से अहिआय होइ। एवायरिश्रपि हु हीलयंतो, निअच्छई जाइपहं खु मंदो॥४॥ आसीविसो वावि परं सुरुट्रो, किं जीवनासाउ परं नु कुज्जा? । आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो॥ ५॥ जो पावर्ग जलिअमवक्कमिज्जा, आसीविसं वावि हु कोव
दीप
अनुक्रम [४१५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
~496~
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक ॥२- १० ॥
दीप
अनुक्रम
[४१६
-४२४]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २४३ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा || २- १० || निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
इज्जा । जो वा विसं खायइ जीविअट्ठी, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ॥ ६ ॥ सिआ हु से पावय नो डहिजा, आसीविसो वा कुविओ न भक्खे । सिआ विसं हलहलं न मारे, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥ ७ ॥ जो पव्वयं सिरसा भितुमिच्छे, सुतं व सीहं पडिबोहइज्जा । जो वा दए सतिअग्गे पहारं, एसोवमाऽऽसायणया गुरूणं ॥ ८ ॥ सिआ हु सीसेण गिरिंपि भिंदे, सिआ हु सीहो कुविओ न भक्खे । सिआ न मिंदिज व सत्तिअग्गं, न आवि मुक्खो गुरुहीलणाए ॥ ९ ॥ आयरिअपाया पुण अप्पसन्ना, अबोहिआसायण नत्थि मुक्खो । तम्हा अणाबाहसुहाभिकखी, गुरुप्पसायाभिमुो रमिजा ॥ १० ॥
• किं च- 'जे आवित्ति सूत्रं, ये चापि केचन द्रव्यसाधवोऽगम्भीराः किमित्याह - 'मन्द इति गुरुं विदित्वा' क्षयोपशमवैचित्र्यात्तत्रयुक्त्यालोचनाऽसमर्थः सत्प्रज्ञाविकल इति स्वमाचार्य ज्ञात्वा । तथा कारणान्तरस्थापितमप्राप्तवयसं 'डहरोऽयम्' अप्राप्तवयाः खल्वयं, तथा 'अल्पश्रुत' इत्यनधीतागम इति विज्ञाय, किमित्याह — 'हीलयन्ति' सूययाऽसूयया वा खिंसयन्ति, सूयया अतिप्रज्ञस्त्वं वयोवृद्धो बहुश्रुत इति, असू
९ विनय
समाध्यध्ययनम् १ उद्देशः
~ 497~
॥ २४३ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
wariy
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||२-१०||
६ पया तु मन्दप्रज्ञस्त्वमित्यायभिदधति, मिथ्यात्वं प्रतिपद्यमाना' इति गुरुन हीलनीय इति तत्त्वमन्यथाMऽवगच्छन्तः कुर्वन्ति 'आशातना' लघुतापादनरूपा 'ते' द्रव्यसाधवः 'गुरूणाम् आचार्याणां, तत्स्थापनाया है
अबहुमानेन एकगुर्वाशातनायां सर्वेषामाशातनेति बहुवचनम् , अथवा कुर्वन्ति 'आशाता स्वसम्यग्दर्श-10
नादिभावापहासरूपां ते गुरूणां संवन्धिनी, तन्निमित्तत्वादिति सूत्रार्थः ॥२॥ अतो न कार्या हीलनेति, से आह च-पगईत्ति सूत्रं, 'प्रकृत्या' खभावेन कर्मवैचित्र्यात् 'मम्दा अपि सद्बुद्धिरहिता अपि भवन्ति । 'एके' केचन वयोवृद्धा अपि तथा 'डहरा अपि च अपरिणता अपि च वयसाऽन्येऽमन्दा भवन्तीति वाक्यशेषः, किंविशिष्टा इत्याह-येच 'श्रुतबुझ्यपपेता तथा सत्मज्ञावन्तः श्रुतेन बुद्धिभावेन चा, भाविनी वृत्ति-पटू माश्रित्याल्पश्रुता इति, सर्वथा 'आचारवन्तों' ज्ञानाद्याचारसमन्विताः 'गुणसुस्थितात्मानों गुणेषु-संग्रहोपग्रहादिषु सुष्टु-भावसारं स्थित आत्मा येषां ते तथाविधा न हीलनीयाः, ये 'हीलिताः' खिसिताः 'शि-12 खीव' अग्निरिवेन्धनसंघातं 'भस्मसात्कुयुः ज्ञानादिगुणसंघातमपनयेयुरिति सूत्रार्थः॥३॥ विशेषेण डहरहीलनादोषमाह-जे आवित्ति सूत्र, यश्चापि कश्चिदज्ञो 'नाग' सपै 'डहर इति' बाल इति 'ज्ञाखा' वि
ज्ञाय 'आशातयति' किलिञ्चादिना कदर्थयति 'स' कर्थ्यमानो नागः 'से' तस्य कदर्थकस्य 'अहिताय भद्रवति भक्षणेन प्राणनाशाय भवति, एष दृष्टान्तोऽयमापनयः-एयमाचार्यमपि कारणतोऽपरिणतमेव स्था
पितं हीलयन निर्गच्छति 'जातिपन्थान द्वीन्द्रियादिजातिमार्ग 'मन्दः' अज्ञः, संसारे परिभ्रमतीति सूत्रार्थः
दीप अनुक्रम [४१६-४२४]
SCHOCESCANOAAAA
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक ॥२- १० ॥
दीप
अनुक्रम
[४१६
-४२४]
दशवैका० हारि-वृत्तिः
॥ २४४ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२ - १० || निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
॥ ४ ॥ अत्रैव दृष्टान्तदाष्टीन्तिकयोर्महदन्तरमित्येतदाह - 'आसित्ति सूत्रं, 'आशीविषश्चापि' सर्पोऽपि परं 'सुरुष्टः' सुक्रुद्धः सन् किं 'जीवितनाशात्' मृत्योः परं कुर्यात् ? न किंचिदपीत्यर्थः, आचार्यपादाः पुनः 'अप्रसन्ना' हीलनयाऽननुग्रह प्रवृत्ताः, किं कुर्वन्तीत्याह- 'अबोध' निमित्तहेतुत्वेन मिथ्यात्वसंहति, तदाशातनया मिध्यात्वबन्धात्, यतश्चैवमत आशातनया गुरोर्नास्ति मोक्ष इति, अबोधिसंतानानुबन्धेनानन्तसंसारिकत्वादिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥ किं च--'जो पावगं'ति सूत्रं यः 'पावकम्' अग्निं ज्वलितं सन्तम् ' अपकामेद्' अवष्टभ्य तिष्ठति, 'आशीविषं वापि हि' भुजङ्गमं वापि हि 'कोपयेत्' रोषं ग्राहयेत्, यो वा विषं खादति 'जीवितार्थी' जीवितुकामः, 'एषोपमा' अपायमातिं प्रत्येतदुपमानम्, आशातनया कृतया गुरूणां संचन्धिन्या तद्वदपायो भवतीति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ अत्र विशेषमाह - 'सिआ हुत्ति सूत्रं, 'स्यात् कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादसी 'पावकः' अग्निः 'न दहेत्' न भस्मसात्कुर्यात्, 'आशीविषो वा' भुजङ्गो वा कुपितो 'न भक्षयेत्' न खादयेत्, तथा 'स्यात्' कदाचिन्मन्त्रादिप्रतिबन्धादेव विषं 'हालाहलम्' अतिरौद्रं 'न मारयेत्' न प्राणांस्त्याजयेत्, एवमेतत्कदाचिद्भवति न चापि मोक्षो 'गुरुहीलनया' गुरोराशातनया कृतया भवतीति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ किंच- 'जो पव्वयंति सूत्रं यः पर्वतं 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन भेतुमिच्छेत्, सुप्तं वा सिंहं गिरिगुहायां प्रतिबोधयेत्, यो वा ददाति 'शक्त्य' प्रहरणविशेषाग्रे प्रहारं हस्तेन, एषोपमाऽऽशातनया ॐ ॥ २४४ ॥ गुरुणामिति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ अत्र विशेषमाह - 'सिआ हु'त्ति सूत्रं, 'स्यात्' कदाचित्कञ्चिद्वासु
२९ विनय
समाध्य
ध्ययनम्
१ उद्देशः
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||२-१०|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||२-१०||
देवादिः प्रभावातिशयाच्छिरसा 'गिरिमपि' पर्वतमपि भिन्द्यात्, स्यान्मन्त्रादिसामर्थ्यात्सिहः कुपितो न || भक्षयेत्, स्यादेवतानुग्रहावेर्न भिन्याद्वा शक्त्यग्रं प्रहारे दत्तेऽपि, एवमेतत्कदाचिद्भवति, न चापि मोक्षो IMI'गुरुहीलनया' गुरोराशातनया भवतीति सूचार्थः॥९॥ एवं पावकाद्याशातनाया गुर्वाशातना महतीत्यति
शयप्रदर्शनार्थमाह-आयरित्ति सूत्रं, आचार्यपादाः पुनरप्रसन्ना इत्यादि पूर्वार्ध पूर्ववत्, यस्मादेवं तस्माद् 'अनावाधसुखाभिकाही मोक्षसुखाभिलाषी साधुः 'गुरुप्रसादाभिमुखः' आचार्यादिप्रसाद उद्युक्तः सन् रमेत' वर्तेत इति सूत्रार्थः ॥ १०॥
जहाहिअग्गी जलणं नमसे, नाणाहुईमंतपयाभिसित्तं । एवायरिअं उवचिट्रइज्जा, अणंतनाणोवगओऽवि संतो॥ ११॥ जस्संतिए धम्मपयाई सिक्खे, तस्संतिए वेणइयं पउंजे । सकारए सिरसा पंजलीओ, कायग्गिरा भो मणसा अनिच्च ॥ १२ ॥ लज्जा दया संजम बंभचेरं, कल्लाणभागिस्स विसोहिठाणं । जे मे गुरू सययमणुसासयंति, तेऽहं गुरू सययं पूअयामि ॥ १३ ॥ जहा निसंते तवणच्चिमाली, पभासई केवल भारहं तु । एवायरिओ सुअसीलबुद्धिए, विरायई सुरमज्ञ व इंदो ॥ १४ ॥
दीप अनुक्रम [४१६-४२४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
॥११
-१७||
दीप
अनुक्रम
[ ४२५
-४३१]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २४५ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [ १५...] / गाथा ||११-१७|| निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
जहा ससी कोमुइजो जुत्तो, नक्खत्ततारागण परिवुडप्पा । खे सोहई विमले अन्भमुक्के, एवं गणी सोहइ भिक्खुमज्झे ॥ १५ ॥ महागरा आयरिआ महेसी, समाहिजोगेसुअसीलबुद्धिए । संपाविउकामे अणुत्तराई, आराहए तोसइ धम्मकामी ॥ १६ ॥ सुचाण मेहावि सुभासिआई, सुस्सूसए आयरिअप्पमत्तो । आराहइत्ताण गुणे अणेगे, से पावई सिद्धिमन्तरं ॥ १७॥ ति बेमि । विषयसमाहीए पढमो उद्देसो समत्तो ॥ ९- १॥
केन प्रकारेणेत्याह- 'जहाहि अग्गि'त्ति सूत्रं यथा 'आहिताग्मिः' कृतावसथादिर्ब्राह्मणो 'ज्वलनम्' अग्निं नमस्यति, किंविशिष्टमित्याह - 'नानाहृतिमन्त्र पदाभिषिक्तं' तत्राहुतयो घृतप्रक्षेपादिलक्षणा मन्त्रपदानि - अग्नये स्वाहेत्येवमादीनि तैरभिषिक्तं- दीक्षासंस्कृतमित्यर्थः, 'एवम्' अग्रिमिवाचार्यम् 'उपतिष्ठेत्' विनयेन सेवेत, किंविशिष्ट इत्याह- 'अनन्तज्ञानोपगतोऽपीति अनन्तं खपरपर्यायापेक्षया वस्तु ज्ञायते येन तदनन्तज्ञानं तदुपगतोऽपि सन्, किमङ्ग पुनरन्य इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ एतदेव स्पष्टयति- 'जस्स'त्ति सूत्रं, 'यस्यान्तिके' यस्य समीपे 'धर्मपदानि' धर्मफलानि सिद्धान्तपदानि 'शिक्षेत' आदयात् 'तस्थान्तिके' तत्समीपे किमित्याह- 'वैनयिकं प्रयुञ्जीत' विनय एव वैनयिकं तत्कुर्यादिति भावः, कथमित्याह-सत्कारयेदभ्युत्था
९ विनय
समाध्य ध्ययनम् १ उद्देशः
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॥ २४५ ॥
For P&Personal City
Sorry my
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||११-१७|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
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प्रत
C
सूत्रांक
||११-१७||
ristics
नादिना पूर्वोक्तेन 'शिरसा' उत्तमाङ्गेन 'प्राञ्जलि' प्रोगताञ्जलिः सन् 'कायेन' देहेन 'गिरा' वाचा मस्तकेन वन्दे इत्यादिरूपया "भो' इति शिष्यामन्त्रणं 'मनसा च भावप्रतिवन्धरूपेण 'नित्यं सदैव सत्कारयेत्, न तु सूत्रग्रहणकाल एच, कुशलानुवन्धव्यवच्छेदप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ एवं च मनसि कुर्यादित्याह'लज्जा दय'त्ति सूत्रं, 'लज्जा' अपवादभयरूपा 'दया' अनुकम्पा 'संयमः' पृथिव्यादिजीवविषयः 'ब्रह्मचर्य
विशुद्धतपोऽनुष्ठानम्, एतल्लज्जादि विपक्षव्यावृत्त्या कुशलपक्षप्रवर्तकत्वेन कल्याणभागिनो जीवस्य 'विशोदधिस्थान कर्ममलापनयनस्थानं वर्तते, अनेन ये मां 'गुरव' आचार्याः 'सततम्' अनवरतम् 'अनुशासयन्ति
कल्याणयोग्यतां नयन्ति तानहमेवभूतान गुरून सततं पूजयामि, न तेभ्योऽन्यः पूजाई इति सूत्रार्थः ।। १३॥ इतश्चैते पूज्या इत्याह-'जह'त्ति सूत्रं, यथा 'निशान्ते रात्र्यवसाने दिवस इत्यर्थः, तपन् 'अर्चिाली' सूर्यः 'प्रभासयति' उद्योतयति केवलं संपूर्ण 'भारत' भरतक्षेत्रं, तुशब्दादन्यच्च क्रमेण एवम्-अर्चिालीवाचार्यः 'श्रुतेन' आगमन 'शीलेन' परद्रोहविरतिरूपेण 'बुद्ध्या च' स्वाभाविक्या युक्तः सन् प्रकाशयति जीवादिभावानिति । एवं च वर्तमानः सुसाधुभिः परिवृतो विराजते 'सुरमध्य इव' सामानिकादिमध्यगत इव इन्द्र इति सूत्रार्थः॥१४॥ किंच-'जह त्ति सूत्र, यथा 'शशी' चन्द्रः 'कौमुदीयोगयुक्तः' कार्तिकपौर्णमास्यामुदित इत्यर्थः, स एव विशेष्यते-'नक्षत्रतारागणपरिवृतात्मा' नक्षत्रादिभिर्युक्त इति भावः, खे' आकाशे शोभते, किविशिष्टे खे?-'विमलेऽनमुक्ते' अभ्रमुक्तमेवात्यन्तं विमलं (तत्) भवतीति ख्यापनार्थमेतत् , एवं चन्द्र इव 'गणी'
दीप
अनुक्रम [४२५
-४३१]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [१], मूलं [१५...] / गाथा ||११-१७|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
प्रत
सूत्रांक ||११
(तत्) आचार्यः शोभते 'भिक्षुमध्ये' साधुमध्ये, अतोऽयं महत्त्वात्पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १५॥ किंच-'महाग-1 हारि- सित्ति सूत्रं, महाकरा ज्ञानादिभावरत्नापेक्षया आचार्या 'महैषिणों' मोक्षैषिणः, कथं महैषिण इत्याह-'समा-1
समाध्य|ाधियोगश्रुतशीलबुद्धिभिः' समाधियोग:-ध्यानविशेषः श्रुतेन-द्वादशाङ्गाभ्यासेन शीलेन-परद्रोहविरतिरूपेण[ध्ययनम ॥२४६॥ लवजया च औत्पत्तिक्यादिरूपया, अन्ये तु व्याचक्षते-समाधियोगश्रुतशीलबुद्धीनां महाकरा इति । तानेवाशा
भूतानाचार्यान् संप्राप्नुकामोऽनुत्तराणि ज्ञानादीनि आराधयेद्विनयकरणेन, न सकृदेव, अपि तु 'तोषयेद्'। असकृत्करणेन तोषं ग्राहयेत् धर्मकामो-निर्जराथ, न तु ज्ञानादिफलापेक्षयाऽपीति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ 'सोचाण'त्ति सूत्रं, श्रुत्वा मेधावी सुभाषितानि गुर्वाराधनफलाभिधायीनि, किमित्याह-शुश्रूषयेदाचार्यान् 'अप्रमत्तो' निद्रादिरहितस्तदाज्ञां कुर्वीतेखा, य एवं गुरुशुश्रूषापरःस आराध्य 'गुणान' अनेकान ज्ञानादीन प्रामोति सिद्धिमनुत्तरां, मुक्तिमित्यर्थः, अनन्तरं सुकुलादिपरम्परया वा । ब्रवीमीति पूर्ववदयं सूत्रार्थः ॥१७॥
इति श्रीदशवैकालिकटीकायां श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां नवमाध्ययने प्रथम उद्देशकः ॥१॥
-१७||
दीप
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अनुक्रम [४२५
॥२४६॥
अथ द्वितीय उद्देशः। मूलाउ खंधप्पभवो दुमस्स, खंधाउ पच्छा समुर्विति साहा । साहप्पसाहा विरुहंति
-४३१]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अत्र नवमे अध्ययने प्रथम उद्देशक: परिसमाप्त: तथा द्वितिय उद्देशक: आरब्ध:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१-२|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
DER
||१-२||
दीप
पत्ता, तओ सि पुष्पं च फलं रसो अ॥१॥ एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो
से मुक्खो। जेण कित्तिं सुअं सिग्घ, नीसेस चाभिगच्छइ ॥२॥ विनयाधिकारवानेव द्वितीय उच्यते, तत्रेदमादिमं सूत्रं-मूलाउ' इत्यादि, अस्य व्याख्या-मूलाद्' आदिप्रबन्धात् 'स्कन्धप्रभवः' स्थुडोत्पादः, कस्येत्याह-'द्रुमस्य' वृक्षस्य । 'ततः स्कन्धात् सकाशात् पश्चात्तदनु 'समुपयान्ति' आत्मानं प्रामुवन्त्युत्पद्यन्त इत्यर्थः, कास्ता इलाह-'शाखा' त जाकल्पाः। तथा 'शाखाभ्य' उक्तलक्षणाभ्यः प्रशाखास्तदंशभूता 'विरोहन्ति' जायन्ते, तथा तेभ्योऽपि 'पत्राणि पर्णानि विरो-४ |हन्ति । 'ततः तदनन्तरं 'से' तस्य द्रुमस्य पुष्पं च फलं च रसश्च फलगत एवैते क्रमेण भवन्तीति सूत्रार्थः। ॥१॥ एवं दृष्टान्तमभिधाय दाष्टोन्तिकयोजनामाह-एवं ति सूत्रं, 'एवं दुममूलबत् धर्मस्य परमकल्पवृ-12 क्षस्य बिनयो 'मूलम्' आदिप्रवन्धरूपं 'परम' इत्यग्रो रसः 'से तस्य फलरसवन्मोक्षा, स्कन्धादिकल्पानि तु४
देवलोकगमनसुकुलागमनादीनि, अतो विनयः कर्तव्यः, किंविशिष्ट इत्याह-येन' विनयेन 'कीति' सर्वत्र PIशुभप्रवादरूपां तथा 'श्रुतम् अङ्गमाविष्टादि 'लम्यं प्रशंसास्पदभूतं 'निःशेष संपूर्णम् 'अधिगच्छति' प्रा-12 मोतीति ॥२॥
जे अ चंडे मिए थद्धे, दुव्बाई नियडी सढे । वुज्झइ से अविणीअप्पा, कद्रं सोअगयं
अनुक्रम [४३२-४३३]
दश०४२
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||३-४||
दीप
अनुक्रम
[४३४
-४३५]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २४७ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ :+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||३-४ || निर्युक्तिः [३२७...], भाष्यं [६२...]
जहा ॥ ३ ॥ विणपि जो उवाएणं, चोइओ कुप्पई नरो । दिव्वं सो सिरिमिज्जतिं, दंडेण पडिसेहए ॥ ४ ॥
अविनयवतो दोषमाह - 'जे अत्ति सूत्रं यः 'चण्डो' रोषणो 'मृगः' अज्ञः हितमप्युक्तो रुष्यति तथा 'स्तब्धो' जात्यादिमदोन्मत्तः 'दुर्वाग' अप्रियवक्ता 'निकृतिमान' मायोपेतः 'शठः' संयमयोगेष्वनादृतः, एभ्यो दोषेभ्यो विनयं न करोति यः उत्यतेऽसौ पापः संसारस्रोतसा 'अविनीतात्मा' सकलकल्याणैकनिबन्धनवि| नयविरहितः । किमिवेत्याह-काष्ठं 'स्रोतोगतं' नयादिवहिनीपतितं यथा तद्वदिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ किं च'विषयंपी'ति सूत्रं, 'विनयम्' उक्तलक्षणं यः 'उपायेनापि एकान्तमृदुभणनादिलक्षणेनापि अपिशब्दस्य व्यवहितः संबन्धः 'चोदित' उक्तः 'कुप्यति' रुष्यति नरः । अत्र निदर्शनमाह - 'दिव्याम्' अमानुषीम् 'असो' नरः श्रियं लक्ष्मीम् 'आगच्छन्तीम्' आत्मनो भवन्तीं 'दण्डेन' काष्ठमयेन 'प्रतिषेधयति' निवारयति । एतदुक्तं भवति-विनयः संपदो निमित्तं, तत्र स्खलितं यदि कश्चिचोदयति स गुणस्तत्रापि रोषकरणेन वस्तुतः संपदो निषेधः, उदाहरणं चात्र दशारादयः कुरूपागतश्रीप्रार्थनाप्रणयभङ्गकारिणस्तद्रहितास्तदभङ्गकारी च तयुक्तः कृष्ण इति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥
तहेव अविणीअप्पा, उववज्झा हया गया । दीसंति दुहमेहंता, आभिओगमुवट्टिआ
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९ विनय
समाध्य
ध्ययनम् २ उद्देशः
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॥ २४७ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||५-६|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५-६||
॥५॥ तहेव सुविणीअप्पा, उववज्झा हया गया । दीसंति सुहमेहता, इड्डिं पत्ता
महायसा ॥६॥ अविनयदोषोपदर्शनार्थमेवाह-तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैवेति तथवैते 'अविनीतात्मानों विनयरहिता अ-12 नात्मज्ञाः, उपवाखाना-राजादिवल्लभानामेते कर्मकरा इत्यौपवायाः 'हया' अश्वाः 'गजा' हस्तिनः, उपलक्षणमेतन्महिषकादीनामिति । एते किमित्याह-दृश्यन्ते' उपलभ्यन्त एव मन्दुरादौ अविनयदोषेण उभयलो
कवर्सिना यवसादिवोढारः 'दुःखं' संक्लेशलक्षणम् 'एधयन्तः अनेकार्थत्वादनुभवन्तः 'आभियोग्य' कर्मकहारभावम् उपस्थिताः' प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥५॥ एतेष्वेव विनयगुणमाह-तहेब'त्ति सूत्रं. 'तथैवेति तथैवैते 'सुविनीतात्मानो' विनयवन्त आत्मज्ञा औपवाह्या राजादीनां हया गजा इति पूर्ववत् । एते किमित्याह
'दृश्यन्ते' उपलभ्यन्त एव सुखम्-आहादलक्षणम् 'एधमाना' अनुभवन्तः शुद्धि प्राप्ता इति विशिष्टभूषदाणालयभोजनादिभावतः प्राप्तईयो 'महायशसो' विख्यातसद्गुणा इति सूत्रार्थः ॥६॥
तहेव अविणीअप्पा, लोगंमि नरनारिओ । दीसंति दुहमेहता, छाया विगलितेंदिआ ॥ ७॥ दंडसत्थापरिजुन्ना, असम्भवयणेहि अ। कलुणाविवन्नच्छंदा, खुप्पि
दीप
अनुक्रम
[४३६
-४३७]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||७-९||
दीप
अनुक्रम
[४३८
-४४०]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २४८ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ :+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [२] मूलं [१५...] / गाथा ||७-९|| निर्युक्ति: [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
वासाइपरिगया ॥ ८ ॥ तहेव सुविणीअप्पा, लोगंसि नरनारिओ । दीसंति सुहमेहंता, इहिं पत्ता महायसा ॥ ९ ॥
एतदेव विनयाविनयफलं मनुष्यानधिकृत्याह - 'तहेव'त्ति सूत्रं, 'तथैव' तिर्यञ्च इव अविनीतात्मान इति पूर्ववत् । 'लोके' अस्मिन्मनुष्यलोके, नरनार्य इति प्रकटार्थे दृश्यन्ते दुःखमेधमाना इति पूर्ववत् 'छारा (ताः)' कस घातत्रणाङ्कितशरीरा: 'विगलितेन्द्रिया' अपनीतनासिकादीन्द्रियाः पारदारिकादय इति सूत्रार्थः ॥ ७ ॥ तथा 'दंड' त्ति सूत्र, दण्डा - वेत्रदण्डादयः शस्त्राणि खड्गादीनि ताभ्यां परिजीर्णाः समन्ततो दुर्बलभावमापादिताः तथा 'असभ्यवचनैश्व' खरकर्कशादिभिः परिजीर्णाः, त एवंभूताः सतां करुणाहेतुत्वात्करुणा-दीना व्यापन्नच्छन्दसः-परायत्तत्तथा अपेतखाभिप्रायाः क्षुधा वुभुक्षया पिपासया तृषा परिगता-व्याप्ता अन्नाद्विनिरोधस्तो कदानाभ्यामिति । एवमिह लोके प्रागविनयोपात्तकर्मानुभावत एवंभूताः परलोके तु कुशलाप्रवृत्तेर्दुःखिततरा विज्ञेया इति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥ विनयफलमाह - 'तहेवत्ति सूत्रं, 'तथैव' विनीततिर्यञ्च इव सुविनीतात्मानो लोकेऽस्मिन्नरनार्य इति पूर्ववत् । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः शुद्धिं प्राप्ता महायशस इति पूर्ववदेव, नवरं स्वाराधितनृपगुरुजना उभयलोकसाफल्यकारिण एत इति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥
तहेव अविणीअप्पा, देवा जक्खा अ गुज्झगा । दीसंति दुहमेहंता, अभिओगमुव
९ विनय
समाध्य
ध्ययनम्
२ उद्देशः
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॥ २४८ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
(४२)
प्रत सूत्रांक
||१०
११ ||
दीप
अनुक्रम [ ४४१
-४४२]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [ २ ], मूलं [ १५...] / गाथा ||१०- ११ || निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
ट्टिआ ॥ १० ॥ तव सुविणीअप्पा, देवा जक्खा अ गुज्झगा । दीसंति सुहमेहंता, ss पत्ता महायसा
११ ॥
एतदेव विनयाविनयफलं देवानधिकृत्याह — 'तहेब'ति सूत्रं, 'तथैव' यथा नरनार्यः 'अविनीतात्मानो' भवान्तरेऽकृतविनयाः 'देवा' वैमानिका ज्योतिष्का 'यक्षाश्च' व्यन्तराश्च 'गुह्यका' भवनवासिनः, त एते दृश्यन्ते आगमभावचक्षुषा दुःखमेघमानाः पराज्ञाकरणपरवृद्धिदर्शनादिना, अभियोग्यमुपस्थिता:-अभियोगः- आज्ञाप्रदानलक्षणोऽस्यास्तीत्यभियोगी तद्भाव अभियोग्यं कर्मकरभावमित्यर्थः उपस्थिताः प्राप्ता इति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ विनयफलमाह - 'तहेव'त्ति सूत्रं, 'तथैवेति पूर्ववत्, 'सुविनीतात्मानो' जन्मान्तरकृतविनया निरतिचारधर्माराधका इत्यर्थः, देवा यक्षाच गुह्यका इति पूर्ववदेव, दृश्यन्ते सुखमेधूमाना अर्हत्कल्याणादिषु 'ऋद्धिं प्राप्ता' इति देवाधिपादिप्रासर्द्धयो 'महायशसों' विख्यातसगुणा इति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥
जे आयरिअउवज्झायाणं, सुस्सूसावयणंकरा ! तेसिं सिक्खा पवइंति, जलसित्ता इव पावा ॥ १२ ॥ अप्पा परट्टा वा, सिप्पा णेउणिआणि अ । गिहिणो उवभोगट्टा, इहलोगस्स कारणा ॥ १३ ॥ जेणं बंधं वहं घोरं परिआवं च दारुणं । सिक्खमाणा
For P&Personally
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||१२-१६|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||१२१६||
दशवैका० निअच्छंति, जुत्ता ते ललिइंदिआ ॥ १४॥ तेऽवि तं गुरुं प्रअंति, तस्स सिप्पस्स
विनयहारि-वृत्तिः
समाध्यकारणा । सकारंति नमसंति, तुट्टा निदेसवत्तिणो ॥ १५॥ किं पुणं जे सुअग्गाही,
ध्ययनम् ॥२४९॥ अणंतहिअकामए । आयरिआ जं वए भिक्खू, तम्हा तं नाइवत्तए ॥ १६ ॥
२ उद्देश: एवं नारकापोहेन व्यवहारतो येषु सुखदुःखसंभवस्तेषु विनयाविनयफलमुक्तम्, अधुना विशेषतो लोकोहोत्तरविनयफलमाह-'जे आयरिति सूत्र, य आचार्योपाध्याययोः-प्रतीतयोः 'शुश्रूषावचनकरा' पूजाप्र
धानवचनकरणशीलास्तेषां पुण्यभाजां 'शिक्षा ग्रहणासेवनालक्षणा भावार्थरूपाः 'प्रवर्द्धन्ते' पृद्धिमुपयान्ति, दृष्टान्तमाह-जलसिक्ता इव 'पादपा' वृक्षा इति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ एतच्च मनस्याधाय विनयः कार्य इत्याह'आत्मार्थम्' आत्मनिमित्तमनेन मे जीविका भविष्यतीति, एवं 'परार्थं वा परनिमितं वा पुत्रमहमेतद्वाह-द्र यिष्यामीत्येवं 'शिल्पानि कुम्भकारक्रियादीनि 'नैपुण्यानि च' आलेख्यादिकलालक्षणानि 'गृहिणः' असंयता 'उपभोगार्थम् अन्नपानादिभोगाय, शिक्षन्त इति वाक्यशेषः 'इहलोकस्य कारणम्' इहलोकनिमित्त-18 मिति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ 'येन' शिल्पादिना शिक्ष्यमाणेन 'वन्धं निगडादिभिः 'वध कषादिभिः 'घोर' रौद्रंट परितापं च 'दारुणम् एतज्जनितमनिष्टं निर्भर्सनादिवचनजनितं च शिक्षमाणा गुरोः सकाशात् 'निय-IP॥२४९॥ च्छन्ति' प्राप्नुवन्ति 'युक्ता' इति नियुक्ताः शिल्पादिग्रहणे ते 'ललितेन्द्रिया' गर्भश्वरा राजपुचादय इति
दीप अनुक्रम [४४३-४४७]]
हमल
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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सूत्रांक
||१२
१६||
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [ १५...] / गाथा || १२-१६ || निर्युक्तिः [ ३२७... ], भाष्यं [ ६२...]
सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ तेऽपीत्वरं शिल्पादि शिक्षमाणास्तं गुरुं बन्धादिकारकमपि पूजयन्ति सामान्यतो मधुरवचनाभिनन्दनेन तस्य शिल्पस्येत्वरस्य कारणात्, तन्निमित्तत्वादिति भावः, तथा 'सत्कारयन्ति' वस्त्रादिना 'नमस्यन्ति' अञ्जलिप्रग्रहादिना । तुष्टा इत्यमुत इदमवाप्यत इति हृष्टा 'निर्देशवर्त्तिन' आज्ञाकारिण इति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ यदि तावदेतेऽपि तं गुरुं पूजयन्ति अतः 'किं' सूत्रं, किं पुनर्यः साधुः 'श्रुतग्राही' परमपुरुपप्रणीतागमग्रहणाभिलाषी 'अनन्तहितकामुकः' मोक्षं यः कामयत इत्यभिप्रायः तेन तु सुतरां गुरवः पूजनया इति, यतश्चैवमाचार्या यद्वदन्ति किमपि तथा तथाsनेकप्रकारं 'भिक्षुः' साधुस्तस्मात्तदाचार्यवचनं नातिवर्त्तेत, युक्तत्वात्सर्वमेव संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥
नीअं सिजं गईं ठाणं, नीअं च आसणाणि अ । नीअं च पाए वंदिजा, नीअं कुज्जा अ अंजलिं ॥ १७ ॥ संघट्टइत्ता काएणं, तहा उवहिणामवि । खमेह अवराहं मे, वइज्ज न पुत्ति अ ॥ १८ ॥ दुग्गओ वा पओएणं, चोइओ वहई रहं । एवं दुबुद्धि किच्चाणं, वृत्तो वृत्तो पकुव्वई ॥ १९ ॥ "आलवंते लवंते वा न निसिजाइ पडिस्सुणे । मुत्तूण आसणं धीरो, सुस्साए पडिस्सुणे ॥” कालं छंदोवयारं च, पडिलेहित्ता ण उहिं । तेण तेण उवाएणं, तं तं संपडिवायए ॥ २० ॥
प्रक्षेपगाथा-१
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति: :
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
॥१७
-२०||
दीप
अनुक्रम
[ ४४८
-४५२]
Casto
हारि-वृत्तिः
॥ २५० ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [ २ ], मूलं [ १५...] / गाथा ||१७-२०|| निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
विनयोपायमाह - नीचां 'शय्यां' संस्तारकलक्षणामाचार्य शय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः, एवं नीचां गतिं आचार्यगतेः, तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिद्रुतं यायादित्यर्थः एवं नीचं स्थानमाचार्यस्थानात्, यत्राचार्य आस्ते तस्मान्नी चतरे स्थाने स्थातव्यमिति भावः । तथा 'नीचानि' लघुतराणि कदाचित्कारणजाते 'आस नानि' पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञातः सेवेत, नान्यथा, तथा 'नीच' च सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्य सत्कौ वन्देत, नावज्ञया, तथा कचित्प्रनादी 'नीचं' नम्रकार्य 'कुर्यात्' संपादयेचाञ्जलिं न तु स्थाणुवत्स्तब्ध एवेति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ एवं कायविनयमभिधाय वाग्विनयमाह - 'संघहिय' स्पृष्ट्रा 'कायेन' देहेन कथंचित्तथाविधप्रदेशोपविष्टमाचार्य तथा 'उपधिनापि कल्पादिना कथंचित्संघद्व्य मिथ्यादुष्कृतपुरःसरमभिवन्द्य 'क्षमख' सहख 'अपराध' दोषं मे मन्दभाग्यस्यैवं 'वदेद्' ब्रूयात् 'न पुनरिति च' नाहमेनं भूयः करिष्यामीति सूत्रार्थः ॥ १८ ॥ एतच बुद्धिमान् स्वयमेव करोति, तदन्यस्तु कथमित्याह - 'दुगौरव' गलिबलीवईवत् 'प्रतोदेन' आरादण्डलक्षणेन 'चोदितो' विद्धः सन् 'वहति' नयति कापि 'रथं' प्रतीतम्, 'एवं' दुगौरिव 'दुर्बुद्धिः' अहितावहबुद्धिः शिष्यः 'कृत्यानाम्' आचार्यादीनां 'कृत्यानि वा' तदभिरुचितकार्याणि 'उक्त उक्तः पुनः पुनरभिहित इत्यर्थः, 'प्रकरोति' निष्पादयति प्रयुङ्क्ते चेति सूत्रार्थः ॥ १९ ॥ एवं च कृतान्यमूनि न शोभनानीत्यतः (आह) - 'काल' शरदादिलक्षणं, 'छन्द:' तदिच्छारूपम् 'उपचारम्' आराधनाप्रकारं, चशब्दादेशादिपरिग्रहः, एतत् 'प्रत्युपेक्ष्य' ज्ञात्वा 'हेतुभिः' यथानुरूपैः कारणैः किमित्याह तेन तेनोपायेन
९ विनय
समाध्य
ध्ययनम्र २ उद्देशः
~511~
॥ २५० ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२३|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
A5%
प्रत
सूत्रांक
||२१
-२३||
गृहस्थावर्जनादिना 'तत्तत् पित्तहरादिरूपमशनादि संप्रतिपादयेत् , यथा काले शरदादौ पित्तहरादिभोजनं प्रवातनिवातादिरूपा शय्या इच्छानुलोमं वा यद्यस्य हितं रोचते च आराधनामकारोऽनुलोमं भाषणं ग्रन्थाभ्यासवैयावृत्यकरणादि देशे अनूपदेशाशुचितं निष्ठीवनादिभिर्हेतुभिः श्लेष्माद्याधिक्यं विज्ञाय तदुचितं संपादयेदिति सूत्रार्थः ॥ २०॥
विवत्ती अविणीअस्स, संपत्ती विणिअस्स य । जस्सेयं दुहओ नाय, सिक्खं से अभिगच्छइ ॥ २१ ॥ जे आवि चंडे मइइडिगारवे, पिसुणे नरे साहसहीणपेसणे । अदिधम्मे विणए अकोविए, असंविभागी न हु तस्स मुक्खो ॥ २२ ॥ निद्देसवित्ती पुण जे गुरूणं, सुअत्थधम्मा विणयंमि कोविआ । तरित्तु ते ओघमिणं दुरुत्तरं, खवित्तु कम्मै गइमुत्तमं गय ॥ २३ ॥ त्ति बेमि ॥ विणयसमाहिअज्झयणे बीओ उद्देसो
समत्तो ॥२॥ किंच-विपत्तिरविनीतस्य ज्ञानादिगुणानां, संप्राप्तिर्विनीतस्य च ज्ञानादिगुणानामेव, 'यस्यैतत् ज्ञानादि-| मास्यपासिद्धयम् 'उभयतः' उभयाभ्यां विनयाविनयाभ्यां सकाशात् भवतीत्येवं 'ज्ञातम्' उपादेयं चैतदिति
दीप अनुक्रम [४५३-४५५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१], उद्देशक [२], मूलं [१५...] / गाथा ||२१-२३|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||२१
-२३||
दशवैका भवति 'शिक्षा ग्रहणासेवनारूपाम् 'असौं' इत्थंभूतः अधिगच्छति-प्रामोति, भावत उपादेयपरिज्ञानादिति विनयहारि-वृत्तिः सूत्रार्थः ॥ २१॥ एतदेव दृढयन्नविनीतफलमाह-यश्चापि 'चण्ड' प्रजितोऽपि रोषणः 'ऋद्धिगौरवमतिः' - समाध्य
द्विगौरवे अभिनिविष्टः पिशुनः पृष्ठिमांसखादकः 'नरों' नरव्यञ्जनो न भावनरः 'साहसिकः' अकृत्यकरण- ध्ययनम् ॥ २५१॥
परः 'हीनप्रेषण' हीनगुर्वाज्ञापरः 'अदृष्टधर्मा' सम्यगनुपलब्धश्रुतादिधर्मा 'विनयेऽकोविदों' विनयविषयेऽप-15 २ उद्देशः *ण्डितः 'असंविभागी' यत्र कचन लाभेन संविभागवान् । य इत्थंभूतोऽधमो नैव तस्य मोक्षः, सम्यग्दृष्टेखा-IN रित्रवत इत्थंविधसंक्लेशाभावादितिसूत्रार्थः ॥२२॥ विनयफलाभिधानेनोपसंहरन्नाह-निर्देश-आज्ञा तद्वर्तिनः पुनर्ये 'गुरूणाम्' आचार्यादीनां 'श्रुतार्थधर्मा' इति प्राकृतशैल्या श्रुतधर्मार्था गीतार्था इत्यर्थः, विनये कर्तव्ये कोविदा-विपश्चितो य इत्थंभूतास्ती| ते महासत्त्वा 'ओघमेन' प्रत्यक्षोपलभ्यमानं संसारसमुद्रं दुरुत्तारं तीवेव तीवा, चरमभवं केवलित्वं च प्राप्येति भावः, ततः क्षपयित्वा कर्म निरवशेष भवोपनाहिसंज्ञितं द गतिमुत्तमां सिद्ध्याख्यां 'गता प्राप्ताः । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २३ ॥
॥ इति विनयसमाधौ व्याख्यातो द्वितीय उद्देशः॥२॥
Act
दीप अनुक्रम [४५३-४५५]
॥२५१॥
जेच पेसर्ग पायरिएहिं दिणं तं देसकालादीहिं हीर्ण करेद.
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अत्र नवमे अध्ययने द्वितीय उद्देशक: परिसमाप्त:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||१-७||
दीप
अनुक्रम
[४५६
-४६२]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ :+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||१७|| निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
अथ तृतीय उद्देशः ।
आयरिअं अग्गिमिवाहिअग्गी, सुस्सूसमाणो पडिजागरिजा । आलोइअं इंगिअमेव नच्चा, जो छंदमाराहयई स पुज्जो ॥ १ ॥ आयारमट्ठा विणयं पउंजे, सुस्सूसमाणो परिगिज्झ वकं । जहोवइटुं अभिकखमाणो, गुरुं तु नासाययई स पुजो ॥ २ ॥ रायणिएसु विणयं पउंजे, डहराऽवि अ जे परिआयजिट्ठा । नीअत्तणे वहइ सच्चवाई, उवायवं वक्ककरे स पुज्जो ॥ ३ ॥ अन्नायउंछं चरई विसुद्धं, जवणट्टया समुआणं च निच्चं । अलअं नो परिदेवइजा, लडुं न विकत्थई स पुजो ॥ ४ ॥ संथारसिजास
भत्तपाणे, अपिच्छया अइलाभेऽवि संते। जो एवमप्पाणभितोसइज्जा, संतोस पाहन्नरएस पुज्जो ॥ ५ ॥ सक्का सहेउं आसाइ कंटया, अओमया उच्छहया नरेणं । 'अणासए जो उ सहिज्ज कंटए, वईमए कन्नसरे स पुज्जो ॥ ६ ॥ मुहुत्तदुक्खा उह
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
अथ नवमे अध्ययने तृतीय उद्देशक: आरब्धः
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||१-७||
दीप
अनुक्रम [४५६
-४६२]
दशका० हारि-वृत्तिः
॥ २५२ ॥
:+|भाष्य|+वृत्तिः)
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||१७|| निर्युक्ति: [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
कंटा, अओमया तेऽवि तओ सुउद्धरा । वायादुरुत्ताणि दुरुद्धराणि, वेराणुवंधीणि महभयाणि ॥ ७ ॥
साम्प्रतं तृतीय आरभ्यते, इह च विनीतः पूज्य इत्युपदर्शयन्नाह - 'आचार्य' सूत्रार्थप्रदं तत्स्थानीयं वाऽन्यं ज्येष्ठायै, किमित्याह- 'अग्निमिव' तेजस्कायमिव 'आहिताग्निः' ब्राह्मणः 'शुश्रूषमाणः' सम्यक्सेवमानः 'प्रतिजागृयात्' तत्तत्कृत्य संपादनेनोपचरेत् । आह-यथाऽऽहिताग्निरित्यादिना प्राणिदमुक्तमेव, सत्यं, किंतु तदाचार्यमेवाङ्गीकृत्य इदं तु रत्नाधिकादिकमप्यधिकृत्योच्यते, वक्ष्यति च- 'रायणीएस विणय' मित्यादि, प्रतिजागरणोपायमाह - 'आलोकितं' निरीक्षितम् 'इङ्गितमेव च' अन्यधावृत्तिलक्षणं 'ज्ञात्वा' विज्ञायाचार्याय 'यः' साधुः 'छन्दः' अभिप्रायमाराधयति । यथा शीते पतति प्रावरणावलोकने तदानयने, इङ्गिते वा निष्ठीवनादिलक्षणे शुण्ड्यायानयनेन 'स पूज्यः' स इत्थंभूतः साधुः पूजार्हः, कल्याणभागिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ प्रक्रान्ताधिकार एवाह-- 'आचारार्थे' ज्ञानायाचारनिमित्तं 'विनयम्' उक्तलक्षणं 'प्रयुद्धे' करोति यः 'शुश्रू पन् श्रोतुमिच्छन्, किमयं वक्ष्यतीत्येवम् । तदनु तेनोक्ते सति परिगृह्य वाक्यम् आचार्ययं ततश्च 'यथोपदिष्टं यथोक्तमेव अभिकाङ्गन, मायारहितः श्रद्धया कर्तुमिच्छन् विनयं प्रयुङ्क्ते, अतोऽन्यथाकरणेन 'गुरुं वि'ति आचार्यमेव 'नाशातयति' न हीलयति यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ २ ॥ किं च-रत्नाधिकेषु' ज्ञाना
९. विनय
समाध्य
ध्ययनम्
उद्देशः
~ 515 ~
॥ २५२ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः विनीतस्य पूज्यता प्रदर्श्यते
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||१-७|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
।
प्रत सूत्रांक ||१-७||
दिभावरत्नाभ्युच्छितेषु 'चिनयं' यथोचितं 'प्रयुत करोति, तथा डहरा अपि च ये वयः श्रुताभ्यां 'पर्याय-13 ज्येष्ठाः' चिरप्रजितास्तेषु विनयं प्रयुङ्क्ते, एवं च यो 'नीचत्वे' गुणाधिकान् पति नीचभावे वर्तते 'सत्यवादी
अविरुद्धवक्ता तथा 'अवपातवान' वन्दनशीलो निकटवर्ती वा एवं च यो 'वाक्यकरों' गुरुनिर्देशकरणशीलः | शास पूज्य इति सूत्रार्थः ॥३॥ किं च-'अज्ञातोञ्छ' परिचयाकरणेनाज्ञातः सन् भावोन्छ गृहस्थोद्धरितादि 'चरति अटित्वाऽऽनीतं भुङ्के, न तु ज्ञातस्तहहुमतमिति, एतदपि 'विशुद्धम्' उद्गमादिदोषरहितं, न तद्विप
रीतम्, एतदपि 'यापनार्थ' संयमभरोद्वाहिशरीरपालनाय नान्यथा 'समुदानं च उचितभिक्षालब्धं च नित्य मासर्वकालं न तछमप्येकत्रैव बहुलब्ध कादाचित्कं वा, एवंभूतमपि विभागतः 'अलब्ध्वा' अनासाथ 'न परि-131
देवयेत्' न खेदं यायात् , यथा-मन्दभाग्योऽहमशोभनो वाऽयं देश इति, एवं विभागतश्च 'लब्ध्वा' प्राप्योचितं 'न विकत्वते न श्लाघां करोति-सपुण्योऽहं शोभनो वाऽयं देश इत्येवं स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ४॥ किं च-संस्तारकशय्यासनभक्तपानानि प्रतीतान्येव, एतेषु 'अल्पेच्छता' अमूर्छया परिभोगोऽतिरिक्ताग्रहणं वा अतिलाभेऽपि सति संस्तारकादीनां गृहस्थेभ्यः सकाशात् य एवमात्मानम् 'अभितोषयति' येन वा तेन वा यापयति 'संतोषप्राधान्यरतः संतोष एवं प्रधानभावे सक्तः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥५॥ इन्द्रियसमा-1 |धिद्वारेण पूज्यतामाह-शक्याः सोदुम् 'आशयेति इदं मे भविष्यतीति प्रत्याशया, क इत्याह-कण्टका 'अयोमया' लोहात्मका: 'उत्सहता नरेष' अधोंयमवतेत्यर्थः, तथा च कुर्वन्ति केचिदयोमयकण्टकास्तरणशय
दीप अनुक्रम [४५६-४६२]]
--
पि-
*
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||१-७|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
मा
॥२५३॥1
प्रत सूत्रांक ||१-७||
दशवैकानमप्यर्थलिप्सया, न तु वाक्कण्टकाः शक्या इत्येवं व्यवस्थिते 'अनाशया' फलप्रत्याशया निरीहः सन् यस्तु | ९विनयहारि-वृत्तिः सहेत कण्टकान 'वाङ्मयान' खरादिवागात्मकान 'कर्णसरान' कर्णगामिनः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ६॥ समाध्य.
एतदेव स्पष्टयति-मुहूर्तदुःखा' अल्पकालदुःखा भवन्ति कंटका अयोमयाः, वेधकाल एव प्रायो दुःखभावात्, ध्ययनम् तेऽपि 'ततः' कायात् 'सद्धरा' सुखेनैवोद्रियन्ते व्रणपरिकर्म च क्रियते, वाग्दुरुक्तानि पुनः 'दुरुद्धराणि' दु:-14३ उद्देश: खेनोद्रियन्ते मनोलक्षवेधनाद 'वैरानुवन्धीनि' तथाश्रवणद्वेषादिनेह परत्र च वैरानुवन्धीनि भवन्ति, अत एच महाभयानि, कुगतिपातादिमहाभयहेतुत्वादिति सूत्रार्थः ॥७॥
समावयंता वयणाभिघाया, कन्नंगयां दुम्मणि जणंति । धम्मुत्ति किच्चा परमग्गसूरे, जिइंदिए जो सहई स पुज्जो ॥८॥ अवण्णवायं च परम्मुहस्स, पञ्चक्खओ पडिणीअं च भासं । ओहारणिं अप्पिअकारिणिं च, भासं न भासिज सया स पुजो ॥९॥ अलोलुए अकुहए अमाई, अपिसुणे आवि अदीणवित्ती । नो भावए नोऽविअ भाविअप्पा, अकोउहल्ले अ सया स पुज्जो ॥१०॥ गुणेहि साहू अगुणेहिऽसाहू, गिण्हाहि साहू गुण मुंचऽसाहू । विआणिआ अप्पगमप्पएणं, जो रागदोसेहिं समो
दीप अनुक्रम [४५६-४६२]]
CACANCE
1॥२५३।।
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
“दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||८-१५|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||८-१५||
स पुजो ॥११॥ तहेव डहरं च महल्लगं वा, इत्थीं पुमं पव्वइअं गिहिं वा । नो हीलए नोऽवि अ खिसइजा, थंभं च कोहं च चए स पुज्जो ॥ १२॥ जे माणिआ सययं माणयंति, जत्तेण कन्नं व निवेसयंति । ते माणए माणरिहे तवस्सी, जिईदिए सच्चरए स पुजो ॥ १३ ॥ तेसिं गुरूणं गुणसायराणं, सुच्चाण मेहावि सुभासिआई । चरे मुणी पंचरए तिगुत्तो, चउक्कसायावगए स पुजो ॥ १४ ॥ गुरुमिह सययं पडिअरिअ मुणी, जिणमयनिउणे अभिगमकसले । धुणिअ रयमलं पुरेकडं,
भासुरमउलं गई वइ ॥१५॥ त्ति बेमि ॥ विणयसमाहीए तइओ उद्देसो समत्तो ॥३॥ किं च-'समापतन्त' एकीभावेनाभिमुखं पतन्तः, क इत्याह-वचनाभिघाता' खरादिवचनपहारा: कअंगताः सन्तः प्रायोऽनादिभवाभ्यासात् 'दीर्मनस्य' दुष्टमनोभावं जनयन्ति, प्राणिनामेवंभूतान वचनाभिधातान् धर्म इतिकृत्वा सामायिकपरिणामापन्नो न त्वशक्त्यादिना परमाग्रशरों' दानसंग्रामशूरापेक्षया प्रधानः शूरो जितेन्द्रियः सन् यः सहते न तु तैर्विकारमुपदर्शयति स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥८॥ तथा-'अवर्णवाद च' अश्लाघावादं च 'पराबुखस्य पृष्ठत इत्यर्थः 'प्रत्यक्षतच प्रत्यक्षस्य च 'प्रत्यनीकाम् अपकारिणी चौ
दीप
अनुक्रम [४६३-४७०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
“दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति: अध्ययनं [१], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||८-१५|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
दशवैका० हारि-वृत्तिः
प्रत
॥२५४॥
सूत्रांक
||८-१५||
रस्त्वमित्यादिरूपां भाषां तथा 'अवधारिणीम् अशोभन एवायमित्यादिरूपाम् 'अप्रियकारिणी च' श्रोतु- रविनय. मृतनिवेदनादिरूपां "भाषां वाचं 'न भाषेत सदा' यः कदाचिदपि नैव ब्रूयात्स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥९॥
समाध्यतथा-'अलोलुप आहारादिष्वलुब्धः 'अकुहक' इन्द्रजालादिकुहकरहितः 'अमायी' कौटिल्यशून्यः 'अपि-18
ध्ययनम् शुनश्चापि' नो छेदभेदको 'अदीनवृत्तिः आहाराद्यलाभेऽपि शुद्धवृत्तिः (ग्रन्थानम् ६०००) नो भाव
|३ उद्देशः येद् अकुशलभावनया परं, यथाऽमुकपुरतो भवताऽहं वर्णनीयः 'नापि च भावितात्मा' खयमन्यपुरतः स्वगुणवर्णनापरः अकौतुकब सदा नटनकादिषु यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १०॥ किंच-'गुणैः' अनन्तरोदितैर्विनयादिभिर्युक्तः साधुर्भवति, तथा 'अगुणैः उक्तगुणविपरीतैरसाधुः, एवं सति गृहाण साधुगुणान् मुञ्चासाधुगुणानिति शोभन उपदेशः, एवमधिकृत्य प्राकृतशैल्या 'विज्ञापयति' विविधं ज्ञापयस्यात्मानमास्मना पा तथा 'रागद्वेषयोः समः' न रागवान द्वेषवानिति स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ ११॥ किंच-तथैवेति| पूर्ववत्, डहरं वा महलकं वा, वाशब्दान्मध्यमं वा, स्त्रियं पुमांसमुपलक्षणस्वान्नपुंसकं वा प्रबजितं गृहिणं वा, वाशब्दादन्यतीर्थिकं वा 'न हीलयति नापि च खिंसयति तत्र सूयया असूयया वा सकृदुष्टाभिधान हीलनं, तदेवासकृतिवसनमिति । हीलनखिंसनयोश्च निमित्तभूतं 'स्तम्भं च' मानं च 'क्रोधं च रोष। च त्यजति यः स पूज्यो, निदानत्यागेन तत्त्वतः कार्यत्यागादिति सूत्रार्थः ॥ १२॥ किं च-ये मानिता अभ्युत्थानादिसत्कारैः 'सततम्' अनवरतं शिष्यान् 'मानयन्ति' श्रुतोपदेशं प्रति चोदनादिभिः, तथा 'यत्नेन क- ।॥२५४।।
दीप
अनुक्रम [४६३-४७०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
“दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [३], मूलं [१५...] / गाथा ||८-१५|| नियुक्ति : [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||८-१५||
न्यामिव निवेशयन्ति यथा मातापितरः कन्यां गुणैर्वयसा च संवय योग्यभर्तरि स्थापयन्ति एवमाचार्याः शिष्य सूत्रार्थवेदिनं दृष्ट्वा महत्याचार्यपदेऽपि स्थापयन्ति । तानेवभूतान् गुरून्मानयति योऽभ्युत्थानादिना 'मानाहान्' मानयोग्यान तपस्वी सन् जितेन्द्रियः सत्यरत इति, प्राधान्यख्यापनार्थ विशेषणद्वयं, स पूज्य इति &ासूत्रार्थः॥१३ ॥ तेषां 'गुरूणाम्' अनन्तरोदिताना 'गुणसागराणां गुणसमुद्राणां संवन्धीनि श्रुत्वा मेधावी।
सुभाषितानि परलोकोपकारकाणि 'चरति आचरति 'मुनिः साधुः 'पश्चरतः पञ्चमहाबतसक्तः त्रिगुप्तो मनोगुत्यादिमान् 'चतु:कषायापगत' इत्यपगतक्रोधादिकषायो यः स पूज्य इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ प्रस्तुतफलालाभिधानेनोपसंहरबाह-गुरुम्' आचायोंदिरूपम् 'इह' मनुष्यलोके 'सततम् अनवरतं 'परिचर्य विधि-IN
नाऽऽराध्य 'मुनि' साधुः, किंविशिष्टो मुनिरित्याह-जिनमतनिपुणः' आगमे प्रवीणः 'अभिगमकुशलों लोकमाघूर्णकादिप्रतिपत्तिदक्षा, स एवंभूतः विधूय रजोमलं पुराकृत, क्षपयित्वाऽष्टप्रकार कर्मेति भावः, किमित्याह-भाखरां ज्ञानतेजोमयत्वात् 'अतुलाम् अनन्यसदृशीं 'गति सिद्धिरूपा 'बजतीति गच्छति तदा जन्मान्तरेण वा सुकुलप्रजात्यादिना प्रकारेण । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥१५॥
॥ इति विनयसमाधौ व्याख्यातस्तृतीय उद्देशः ॥ ३ ॥
दीप
अनुक्रम [४६३-४७०]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अत्र नवमे अध्ययने तृतीय उद्देशक: परिसमाप्त:
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आगम
“दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति: अध्ययनं [१], उद्देशक [४], मूलं [१] / गाथा [१] नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
+E
प्रत
दशवैका
विनयअथ चतुर्थ उद्देशः। हारि-वृत्तिः
समाध्यसुअं मे आउस ! तेणं भगवया एवमक्खायं-इह खल थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि वि
ध्ययनम् ॥ २५५॥
णयसमाहिटाणा पन्नत्ता, कयरे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिठाणा पन्नता ?, इमे खलु ते थेरेहिं भगवंतेहिं चत्तारि विणयसमाहिढाणा पन्नत्ता, तंजहाविणयसमाही सुअसमाही तवसमाही आयारसमाही । विणए सुए अ तवे, आयारे
निच्चपंडिआ । अभिरामयंति अप्पाणं, जे भवंति जिइंदिआ ॥१॥ अथ चतुर्थ आरभ्यते, तन्त्र सामान्योक्तविनयविशेषोपदर्शनार्थमिदमाह-श्रुतं मया आयुष्मंस्तेन भगवता एवमाख्यातमित्येतद्यथा षड़जीवनिकायां तथैव इष्टव्यम्, इह 'खल्वि'ति इह क्षेत्रे प्रवचने वा खलु
शब्दो विशेषणार्थः न केवलमत्र किं वन्यत्राप्यन्यतीर्थकृत्प्रवचनेष्वपि 'स्थविरैः' गणधरैः "भगवद्भिः परहै| मैश्वर्यादियुक्तैश्चत्वारि 'विनयसमाधिस्थानानि' विनयसमाधिभेदरूपाणि 'प्रज्ञप्तानि' प्ररूपितानि, भगवतः18
॥२५५॥ सकाशे श्रुत्वा ग्रन्थत उपरचितानीत्यर्थः, कतराणि खलु तानीत्यादिना प्रश्ना, अमूनि खलु तानीत्यादिना है ४ निर्वचनं, 'तद्यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः, विनयसमाधिः१ श्रुतसमाधिः २ तपासमाधिः ३ आचारसमाधिः
दीप अनुक्रम [४७१-४७२]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अथ नवमे अध्ययने चतुर्थ उद्देशक: आरब्ध:
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आगम
“दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति: अध्ययनं [१], उद्देशक [४], मूलं [१] / गाथा [१] नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
प, तत्र समाधानं समाधिः-परमार्थत आत्मनो हितं सुखं खास्थ्य, विनये विनयादा समाधिः विनयस-11 माधिः, एवं शेषेष्वपि शब्दार्थों भावनीयः ॥ एतदेव श्लोकेन संगृह्णाति-विनये यथोक्तलक्षणे 'श्रुते' अ
झादौ तपसि' वाह्यादौ 'आचारे च मूलगुणादी, चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, 'नित्यं सर्वकालं 'पण्डि-7 हताः सम्यक्परमार्थवेदिनः, किं कुर्वन्तीत्याह-'अभिरमयन्ति अनेकार्थत्वादाभिमुख्येन विनयादिषु युञ्जते ४
'आत्मान' जीवं, किमिति ?, अस्योपादेयत्वात, क एवं कुर्वन्तीत्याह-ये भवन्ति 'जितेन्द्रिया' जितचक्षुरादिभावशत्रवः, त एव परमार्थतः पण्डिता इति प्रदर्शनार्थमेतदिति सूत्रार्थः ॥ १॥
चउठिवहा खलु विणयसमाही भवइ, तंजहा-अणुसासिजंतो सुस्सूसइ १ सम्म संपडिवजइ २ वेयमाराहइ ३ न य भवइ अत्तसंपग्गहिए १ चउत्थं पयं भवइ । भवइ अ इत्थ सिलोगो-पेहेइ हिआणुसासणं, सुस्सूसई तं च पुणो अहिटए । न य मा
णमएण मजई, विणयसमाहि आययटिए ॥२॥ विनयसमाधिमभिधित्सुराह-चतुर्विधः खलु विनयसमाधिर्भवति, 'तद्यत्युदाहरणोपन्यासार्थः, 'अणु-12 सासिज्जतो' इत्यादि, 'अनुशास्यमानः तत्र तत्र चोधमानः 'शुश्रूपति' तदनुशासनमर्थितया श्रोतुमिच्छति १, इच्छाप्रवृत्तितः तत् 'सम्यक संपतिपद्यते' सम्यग-अविपरीतमनुशासनतत्वं यथाविषयमवबुध्यते २, स|
CCCCCCCCCCASGEET
दीप अनुक्रम [४७१-४७२]
KAASANS
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
[२]
||R||
दीप
अनुक्रम
[४७३
-४७५]
दशवेका० हारि-वृत्तिः
।। २५६ ॥
“दशवैकालिक”- मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + भाष्य|+वृत्तिः
अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [२] / गाथा ||२|| निर्युक्तिः [ ३२७...], भाष्यं [६२...]
चैवं विशिष्टप्रतिपत्तेरेव वेदमाराधयति, वेद्यतेऽनेनेति वेदः - श्रुतज्ञानं तद् यथोक्तानुष्ठानपरतया सफलीकरोति ३, अत एव विशुद्धप्रवृत्तेः न च भवत्यात्मसंप्रगृहीतः आत्मैव सम्यक प्रकर्षेण गृहीतो येनाहं विनीतः सुसाधुरित्येवमादिना स तथाऽनात्मोत्कर्षप्रधानत्वाद्विनयादेः, न चैवंभूतो भवतीत्यभिप्रायः, 'चतुर्थ पदं भवतीत्येतदेव सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरोत्तरगुणापेक्षया चतुर्थमिति, भवति च 'अत्र श्लोकः' अत्रेति विनय| समाधौ 'श्लोकः' छन्दोविशेषः ॥ स चायम्- 'प्रार्थयते हितानुशासनम्' इच्छतीह लोक परलोकोपकारिणमाचार्यादिभ्य उपदेशं, 'शुश्रूषती 'त्य नेकार्थत्वाद्यथाविषयमवबुध्यते तच्चावबुद्धं सत्पुनरधितिष्ठति यथावत् करोति, न च कुर्वपि 'मानमदेन' मानगर्वेण 'मायति' मदं याति 'विनयसमाधी' विनयसमाधिविषये 'आयतार्थिको मोक्षार्थीति सूत्रार्थः ॥ २ ॥
चव्विा खलु सुअसमाही भवइ, तंजहा सुअं मे भविस्सइत्ति अज्झाइअव्वं भ इ १, एगग्गचित्तो भविस्सामित्ति अज्झाइअव्वयं भवइ २, अप्पाणं ठावइस्सामित्ति अझ अव्वयं भवइ ३, ठिओ परं ठावइस्लामित्ति अज्झाइअव्वयं भवइ ४, चउत्थं पयं भवइ । भवइ इत्थ सिलोगो-नाणमेगग्गचित्तो अ, ठिओ अ ठावई परं । आणि अ अहिजित्ता, रओ सुअसमाहिए ॥ ३ ॥
९ विनय
समाध्यध्ययनम् ४ उद्देशः
~ 523~
| ।। २५६ ।।
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
“दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य +वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [३] / गाथा ||३|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
||३||
उक्तो विनयसमाधिः, श्रुतसमाधिमाह-चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति, 'तद्यथे'त्युदाहारणोपन्यासार्थः। श्रुतं मे आचारादि द्वादशाङ्ग भविष्यतीत्यनया बुद्ध्याऽध्येतव्यं भवति, न गौरवाचालम्बनेन १, तथाऽध्ययनं| | कुर्वन्नेकाग्रचित्तो भविष्यामि न विप्लुतचित्त इत्यध्येतव्यं भवत्यनेन चालम्बनेन २, तथाऽध्ययनं कुर्वन्विदितधर्मतत्त्व आत्मानं स्थापयिष्यामि शुधर्म इत्यनेन चालम्बनेनाध्येतव्यं भवति ३, तथाऽध्ययनफलात् स्थितः स्वयं धर्मे 'परं' विनेयं स्थापयिष्यामि तत्रैवेत्यध्येतव्यं भवत्यनेनालम्बनेन ४ चतुर्थ पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ स चायम्-'ज्ञानमित्यध्ययनपरस्य ज्ञानं भवति 'एकाग्रचित्तश्च तत्परतया एकाग्रालशाम्बनच भवति 'स्थित' इति विवेकाद्धर्मस्थितो भवति 'स्थापयति पर'मिति स्वयं धर्मे स्थितत्वादन्यमपि स्था-15 अपयति, श्रुतानि च नानाप्रकाराण्यधीतेऽधीत्य च 'रतः' सक्तो भवति श्रुतसमाधाविति सूत्रार्थः ॥३॥
चउठिवहा खलु तवसमाही भवइ, तंजहा-नो इहलोगट्टयाए तवमहिटिज्जा १ नो परलोगट्टयाए तवमहिटिज्जा २, नो कित्तिवण्णसदसिलोगट्टयाए तवमहिट्रिजा ३, नन्नत्थ निजरट्रयाए तवमहिट्रिजा ४, चउत्थं पयं भवइ । भवइ अ इत्थ सिलोगोविविहगुणतवोरए निच्चं, भवइ निरासए निजरहिए । तवसा धुणइ पुराणपावर्ग, जुत्तो सया तवसमाहिए ॥४॥
दीप अनुक्रम [४७६-४७८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
“दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [४] / गाथा ||४|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
प्रत
दशवैका० उक्तः श्रुतसमाधिः, तपासमाधिमाह-चतुर्विधः खलु तपासमाधिर्भवति, 'तद्यथे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः, विनयहारि-वृत्तिःलन 'इहलोकार्थम् इहलोकनिमित्तं लब्ध्यादिवाञ्छया 'तप' अनशनादिरूपम् 'अधितिष्ठेत्' न कुर्याहम्मि- समाध्य॥२५७॥
लवत् १, तथा न 'परलोकार्य जन्मान्तरभोगनिमित्तं तपोऽधितिष्ठेहह्मदत्तवत्, एवं न 'कीर्तिवर्णशब्दला- ध्ययनम् विधार्थ मिति सर्वदिव्यापी साधुवादः कीर्तिः एकदिगव्यापी वर्ण: अर्द्धदिग्व्यापी शब्दः तत्स्थान एवं 8/४ उद्देशः है श्लाघा, नैतदर्थ तपोऽधितिष्ठेत् , अपि तु 'नान्यत्र निर्जरार्थमिति न कर्मनिर्जरामेकां विहाय तपोऽधिति-द
ठेत्, अकामः सन् यथा कर्मनिर्जरैव फलं भवति तथाऽधितिष्ठेदित्यर्थः चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ स चायम्-विविधगुणतपोरतो हि नित्यम्-अनशनाद्यपेक्षयाऽनेकगुणं यत्तपस्तद्रत एव || सदा भवति 'निराशो' निष्प्रत्याश इहलोकादिषु 'निर्जरार्थिकः कर्मनिर्जरार्थी, स एवंभूतस्तपसा विशुद्धेन 'धुनोति' अपनयति 'पुराणपापं चिरन्तनं कर्म, नवं च न बनायेवं युक्तः सदा तपासमाधाविति सूत्रार्थः ॥४॥
चउव्विहा खल्लु आयारसमाही भवइ, तंजहा-नो इहलोगट्टयाए आयारमहिद्विजा १, नो परलोगट्टयाए आयारमहिट्रिजा २, नो कित्तिवण्णसहसिलोगट्टयाए आयारमहिद्विजा ३, नन्नत्थ आरहंतेहिं हेऊहिं आयारमहिटिजा ४ चउत्थं पयं भवइ । भवइ
X ॥२५७॥ अ इत्थ सिलोगो-जिणवयणरए अतितिणे, पडिपुन्नाययमाययट्ठिए । आयारसमा
दीप अनुक्रम [४७९-४८१]
CALCANCES
CRACe
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
“दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [४] / गाथा ||५-७|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५-७||
हिसंवुडे, भवइ अ दंते भावसंधए ॥५॥ अभिगम चउरो समाहिओ, सुविसुद्धो सुसमाहिअप्पओ। विउलहिअं सुहावहं पुणो, कुब्वइ अ सो पयखेममप्पणो ॥६॥ जाइमरणाओ मुच्चइ, इत्थंथं च चएइ सव्वसो । सिद्धे वा हवइ सासए, देवे वा अप्परए महड्डिए ॥७॥ त्ति बेमि ॥ चउत्थो उद्देसो समत्तो॥ ४॥ विणयसमाही
णामज्झयणं समत्तं ॥९॥ उक्तस्तपासमाधिः, आचारसमाधिमाह-चतुर्विधः खल्वाचारसमाधिर्भवति, 'तद्यधे'त्युदाहरणोपन्यासार्थः, नेहलोकार्थमित्यादि चाचाराभिधानभेदेन पूर्ववद्यावन्नान्यत्र 'आर्हतैः' अर्हत्संबन्धिभिर्हेतुभिरनाश्रवस्वादिभिः 'आचार' मूलगुणोत्तरगुणमयमधितिष्ठेन्निरीहः सन् यथा मोक्ष एव भवतीति चतुर्थं पदं भवति । भवति चात्र श्लोक इति पूर्ववत् ॥ स चायम्-'जिनवचनरत' आगमे सक्तः 'अतिन्तिन' न सकृत्किञ्चिदुक्तः सन्नसूपया भूयो भूयो वक्ता प्रतिपूर्णः सूत्रादिना, 'आयतमायतार्धिक' इत्यत्यन्तं मोक्षार्थी 'आचारसमाधिसंवृत' इति आचारे यः समाधिस्तेन स्थगिताश्रवद्वारः सन् भवति दान्त इन्द्रियनोइन्द्रियदमाभ्यां 'भावसंघकः' भावो-मोक्षस्तत्संधक आत्मनो मोक्षासन्नकारीति सूत्रार्थः॥५॥सर्वसमाधिफलमाह-'अ-1 भिगम्य विज्ञायासेव्य च 'चतुरः समाधीन' अनन्तरोदितान्, सुविशुद्धो मनोवाकायैः, सुसमाहितात्मा
दीप अनुक्रम
[४८२
-४८४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
“दशवैकालिक"- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति: अध्ययनं [९], उद्देशक [४], मूलं [४] / गाथा ||५-७|| नियुक्ति: [३२७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५-७||
दशका- सप्तदशविधे संयमे, एवंभूतो धर्मराज्यमासाद्य 'विपुलहितसुखावहं पुन'रिति विपुलं-विस्तीर्ण हितं तदावेदानिय हारि-वृत्तिः आयत्यां च पथ्यं सुखमावति-प्रापयति यत्तत् तथाविधं करोत्यसौ साधुः पद-स्थानं क्षेम-शिवम् आत्मन
समाध्यइत्यात्मन एव न त्वन्यस्य इत्यनेनैकान्तक्षणभङ्गव्यवच्छेदमाहेति सूत्रार्थः॥६॥ एतदेव स्पष्टयति-'जाति-18
ध्ययनम् ॥२५८॥
मरणात्' संसारान्मुच्यते असौ सुसाधुः इत्थंस्थं चेती दंप्रकारमापनमित्वम् इत्थं स्थितमित्यंस्थ-नारकादिव्यपदेशबीजं वर्णसंस्थानादि तच्च त्यजति 'सर्वशः सर्वैः प्रकारैरपुनर्ग्रहणतया एवं सिद्धो वा' कर्म-17 अक्षयात्सिद्धो भवति 'शाश्वतः' अपुनरागामी सावशेषकमों देवो चा 'अल्परतः कण्डूपरिगतकण्डूयनक-18 हैल्परतरहितः 'महर्द्धिक' अनुत्तरवैमानिकादिः । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः, उक्तोऽनुगमः, नयाः पूर्ववत् ॥७॥ इति चतुर्थः॥४॥ अत्र नवमे अध्ययने चतुर्थ उद्देशक: परिसमाप्त: इति श्रीमद्धरिभद्रसूरिविरांचतायां दशवेकालिकटाकाया व्याख्यात विनयसमाध्यध्ययनं नाम
नवममध्ययनम् ॥९॥
3%ॐSHAR
दीप अनुक्रम
[४८२
-४८४]
॥२५८॥
अथ दशमं सभिवध्ययनम् । अधुना सभिक्ष्वाख्यमारभ्यते, अस्य चायमभिसंबन्धः, इहामन्तराध्ययन आचारप्रणिहितो यथोचितवि
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अध्ययनं -१०- “सभिक्षु"आरभ्यते
~527~
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||७..||
दीप
अनुक्रम
[४८४..]
रा० ४४
“दशवैकालिक”– मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + | भाष्य |+वृत्तिः
अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| निर्युक्ति: [ ३२८ ], भाष्यं [६२...]
नयसंपन्नो भवति एतदुक्तम्, इह त्वेतेष्वेव नवस्वध्ययनार्थेषु यो व्यवस्थितः स सम्यगभिक्षुरित्येतदुच्यते, इत्यनेनाभिसंबन्धेनायातमिदमध्ययनम् अस्य चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्वष सावद्यावन्नामनिष्पन्नो निक्षेपः, तत्र च सभिक्षुरित्यध्ययननाम, अतः सकारो निक्षेप्तव्यो भिक्षुख, तत्र सकारनिक्षेपमाहनामंठवणसयारो ब्बे भावे अ होइ नायन्त्रो । दव्वे पसंसमाई भावे जीवो तदुवउत्तो ॥ ३२८ ॥
नामसकारः सकार इति नाम, स्थापनासकारः सकार इति स्थापना, 'द्रव्ये भावे च भवति ज्ञातव्यः' द्रव्यसकारो भावसकारश्च तत्र द्रव्य इत्यागमनो आगमज्ञशरीर भव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तः प्रशंसादिविषयो द्रव्यसकारः, भाव इति भावसकारो जीवः 'तदुपयुक्त:' सकारोपयुक्तः तदुपयोगानन्यत्वादिति गाथार्थः ॥ | प्रकृतोपयोगी त्यागमनोआगमज्ञशरीर भव्यशरीरातिरिक्तं प्रशंसादिविषयं द्रव्यसकारमाहनिदेसपसंसाए अत्यीभावे अ होइ उ सगारो । निद्देसपसंसाए अहिगारो इत्व अज्झवणे ३२९ ।।
निर्देशे प्रशंसायामस्तिभावे चेत्येतेष्वर्थेषु त्रिषु भवति तु सकारः । तत्र निर्देशे यथा सोऽनन्तरमित्यादि, प्रशंसायां यथा सत्पुरुष इत्यादि, अस्तिभावे यथा सद्भूतममुकमित्यादि । तत्र 'निर्देश प्रसंशाया' मिति निर्देशे प्रशंसायां च यः सकारस्तेनाधिकारोऽश्राध्ययने प्रक्रान्त इति गाथार्थः ॥ एतदेव दर्शयति
जे भावा दसवेअलिअम्मि करणिज्ज वण्णि जिणेहिं । तेसिं समावर्णमिति (भी) जो भिक्खू भन्नइ स भिक्खु ॥ ३३० ॥ ये 'भावाः' पदार्थाः पृथिव्यादिसंरक्षणादयो 'दशवैकालिके' प्रस्तुते शास्त्रे 'करणीया' अनुष्ठेया 'वर्णिता:'
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः 'स' एवं 'भिक्षु' शब्दयोः निक्षेपा:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति : [३३०], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक
दशबैकाकथिता जिन:-तीर्थकरगणधरैः, 'तेषां भावानां 'समापने यथाशक्त्या(क्ति) द्रव्यतो भावतश्चाचरणेन पर्यन्त-1८१० सभि
नयनेन 'यो भिक्षुः तदर्थं यो भिक्षणशीलो न तूदरादिभरणार्थ भण्यते स भिक्षुरिति, इसिशब्दस्य व्यव- वध्य.
साहित उपन्यासः । स भिक्षुरित्यत्र निर्देशे सकार इति गाथार्थः ॥ प्रशंसायामाह॥२५९॥
चरगमरुगाइआणं भिक्खुजीवीण काउणमपोहं । अज्झयणगुणनिउत्तो होइ पसंसाइ उ समिक्सू ।। ३३१ ।। | 'चरकमकादीना मिति चरका:-परिव्राजकविशेषाः मरुका-धिग्वर्णाः आदिशब्दाच्छाक्यादिपरिग्रहः, अ-16 हामीषां भिक्षोपजीविना भिक्षणशीलानामगुणवत्त्वेनापोहं कृत्वा 'अध्ययनगुणनियुक्तः प्रक्रान्तशास्त्रनिष्यन्दभूतप्रक्रान्ताध्ययनाभिहितगुणसमन्वितो भवति । प्रशंसायामवगम्यमानायां सद्भिक्षुः-संश्वासौ भिक्षुश्च तत्तदन्यापोहेन सद्भिक्षुरिति गाधार्थः ।। उक्तः सकारः, इदानी भिक्षुमभिधातुकाम आह
भिक्खुस्स व निक्षेवो निरुत्तएगहिआणि लिंगाणि । अगुणढिओ न मिक्खू अवयवा पंच दाराई ।। ३३२॥ है भिक्षोः 'निक्षेपों' नामादिलक्षणः कार्यः, तथा निरुक्तं वक्तव्यं भिक्षोरेव, तथा 'एकाधिकानि' पर्यायश-18 ब्दरूपाणि वक्तव्यानि, तथा 'लिङ्गानि' संवेगादीनि, तथा अगुणस्थितो न भिक्षुरपि तु गुणस्थित एवेत्येतद्वा
च्यम् । अत्र च 'अवयवाः पञ्च' प्रतिज्ञादयो वक्ष्यमाणा इति, द्वाराण्येतानीति गाथासमासार्थः । यथाक्रम दव्यासार्थमाह
॥२५९॥ णामठवणाभिक्खू दवभिक्खू अ भावमिक्खू अ । दवम्मि आगमाई अन्नोऽवि अ पावो इणमो ।। ३३३ ।।
ACC
||७..||
दीप
अनुक्रम [४८४..]
is Etcu
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३३३], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
||७..||
'नामस्थापनाभिक्षु रिति भिक्षुशब्दः प्रत्येकमभिसंबध्यते, नामभिक्षुः स्थापनाभिक्षुः द्रव्यभिक्षुश्च भावभिक्षुश्चेति । तत्र नामस्थापने क्षुण्णत्वादनादृत्य द्रव्यभिक्षुमाह-'द्रव्य' इति द्रव्यभिक्षुः 'आगमादिः आगमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरतव्यतिरिक्तैकभविकादिभेदभिन्नः, अन्योऽपि च 'पर्यायो' भेदः 'अयं' द्रव्यभिक्षोर्वक्ष्यमाणलक्षण इति गाथार्थः ।।
भेजओ मेमणं चेष, भिविअब्ब तहेव व । एएसि तिहपि अ, पत्तेअपरूवर्ण योच्छे ॥ ३३४ ॥ भेदकः पुरुषः भेदनं चैव परश्वादि भेत्तव्यं तथैव च काष्ठादीति भावः। एतेषां 'ब्रयाणामपि भेदकादीनां 'प्रत्येक पृथक्पृथक प्ररूपणां वक्ष्य इति गाथार्थः ॥ एतदेवाह
जह दारुकामगारो भेअणमित्तम्बसंजुओ मिक्खू । अन्नेवि दवमिक्खू जे जायणगा अविरया अ ।। ३३५ ।। यथा 'दारुकर्मकरों' वर्धक्यादिः भेदनभेत्तव्यसंयुक्तः सन्-क्रियाविशिष्टविदारणादिदारुसमन्वितो द्रव्य-18 भिक्षुः, द्रव्यं भिनत्तीतिकृत्वा, तथाऽन्येऽपि द्रव्यभिक्षवः-अपारमार्थिकाः, क इत्याह-ये 'याचनका' भिक्षणशीला 'अविरताश्च' अनिवृत्ताश्च पापस्थानेभ्य इति गाथार्थः ॥ एते च द्विविधा:-गृहस्था लिङ्गि-15 नश्चेति, तदाह
गिहिणोऽवि सयारंभग उञ्जष्पन्नं जणं विमग्गंता । जीवणिअ वीणकिविणा ते विजा दबभिक्खुत्ति ॥ ३३६ ।।। 'गृहिणोऽपि सकलत्रा अपि 'सदारंभका' नित्यमारम्भकाः षण्णां जीवनिकायानामृजुप्रज्ञं जनं अनालो-18
दीप अनुक्रम [४८४..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३३६], भाष्यं [६२...]
१० सभि
वध्य
प्रत
-
सूत्रांक
दशकाचकं विमृगयन्तः-अनेकप्रकारं द्विपदादि भूमिदेवा वयं लोकहितायावतीर्णा इत्यभिधाय याचमानाः, द्रव्य- हारि-वृत्तिः भिक्षणशीलवाद्रव्यभिक्षवा, एते च धिग्वर्णाः, तथा ये च 'जीवनिकाय जीवनिकानिमित्तं 'दीनकृ
पणा' कार्पटिकादयो भिक्षामटन्ति तान 'विद्याद' विजानीयाद्रव्यभिक्षुनिति, द्रव्याथै भिक्षणशीलत्वादिति ॥२६॥ गाथार्थः॥ उक्ता गृहस्थद्रव्यभिक्षवः, लिङ्गिनोऽधिकृत्याह
मिकहिट्ठी तसथावराण पुढवाइविंदिआईणं । निच्चे बहकरणरया अभयारी अ संचइआ ॥ ३३७ ।। शाक्यभिक्षुप्रभृतयो हि 'मिथ्यादृष्टयः' अतत्त्वाभिनिवेशिनः प्रशमादिलिङ्गशून्याः, बसस्थावराणां प्राणिनां पृथिव्यादीनां द्वीन्द्रियादीनां च, अत्र पृथिव्यादयः स्थावराः द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः, नित्यं वधकरणरताः
सदैतदतिपाते सक्ताः, कथमित्यत्राह-अब्रह्मचारिणः संचयिनश्च यतः, अतोऽप्रधानत्वाइव्यभिक्षवः, चशहाब्दस्य व्यवहित उपन्यास इति गाथार्थः । एते चाब्रह्मचारिणः संचयादेवेति संचयमाह
दुपयचउप्पयधणधनकुविअतिअतिअपरिम्गहे निरया । सचित्तमोइ पयमाणगा अ उद्दिभोई अ ।। ३३८॥ द्विपद-दास्यादि चतुष्पदं-गवादि धनं-हिरण्यादि धान्यं-शाल्यादि कुप्यम्-अलिञरादि एतेषु द्विपदादिषु क्रमेण मनोलक्षणादिना करणत्रिकेण त्रिकपरिग्रहे-कृतकारितानुमतपरिग्रहे निरताः-सक्ताः। न चैतदनार्षम्-"विहारान् कारयेद्रम्यान्वासयेच बहुश्रुतान्" इतिवचनात्, सद्भूतगुणानुष्ठायिनो नेत्थंभूता इत्याशङ्कयाह-सचित्तभोजिनः, तेऽपि मांसापकायादिभोजिनः, तदप्रतिषेधात्, 'पचन्तश्च खयंपचास्तापसा
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||७..||
-
-
दीप अनुक्रम [४८४..]
का॥२६॥
Samekcanni
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
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दीप
अनुक्रम [४८४..]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४ ...] / गाथा ||७...|| निर्युक्ति: [ ३३८ ], भाष्यं [६२...]
दयः, उद्दिष्टभोजिनश्च सर्व एव शाक्यादयः, तत्प्रसिद्ध्या तपखिनोऽपि, पिण्डविशुद्धयपरिज्ञानादिति गा थार्थः ॥ त्रिकत्रिकपरिग्रहे निरता इत्येतद्व्याचिख्यासुराह
करणतिर जोतिए साबले आयउपर भए । अट्ठाणदुपवत्ते ते विज्जा दव्वभिक्खुत्ति ॥ ३३९ ॥
करणत्रिक इति 'सुपां सुपो भवन्ती'ति 'करणत्रिकेण' मनोवाक्कायलक्षणेन 'योगत्रितय' इति कृतकारितानुमतिरूपे 'सावधे' सपापे आत्महेतोः-आत्मनिमित्तं देहाद्युपचयाय एवं परनिमित्तं मित्राद्युप भोगसाधनाय एवमुभयनिमित्तम् उभयसाधनार्थम्, एवमर्थायात्माद्यर्थम् अनर्थाय वा विना प्रयोजनेन आर्त्तध्यानचिन्तनखरादिभाषणलक्षवेधनादिभिः प्राणातिपातादी प्रवृत्तान्तत्परान तानेवंभूतान् 'विद्यादु-विजानीयात् द्रव्यभिक्षूनिति, प्रवृत्ताश्चैवं शाक्यादयः, तद्रव्यभिक्षव इति गाथार्थः ॥ एवं रूपादिसंयोगाद्विशुद्धतपोऽनुष्ठानाभावाच्चाब्रह्मचारिण एत इत्याह
इत्थी परिमाहाओ आणादाणाइभावसंगाओ। सुद्धतवाभावाओ कुतित्थिभाऽयं भचारिति ॥ ३४० ॥
'स्त्री परिग्रहादिति दास्यादिपरिग्रहात् 'आज्ञादानादिभावसङ्गाच परिणामाशुद्धेरित्यर्थः न च शाक्या भिक्षवः, 'शुद्धतपोऽभावादिति शुद्धस्य तपसोऽभावात् तापसादयः कुतीर्थिका अब्रह्मचारिण इति, ब्रह्मशब्देन शुद्धं तपोऽभिधीयते, तदचारिण इति गाथार्थः । उक्तो द्रव्यभिक्षुः भावभिक्षुमाहआगमतो उवडतो सग्गुणसंवेअओ अ (उ) भावंनि । तस्स निरुत्तं मे अगमे अणभेतव्यरण विहा ॥ ३४९ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति : [३४१], भाष्यं [६२...]
(४२)
TOES
१० सभि
श्वध्या
प्रत
सूत्रांक
||७..||
दशवेका
भावभिक्षुर्द्विविधः-आगमतो नोआगमतश्च, तत्रागमत 'उपयुक्त' इति भिक्षुपदार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः, हारि-वृत्तिा 'तद्गुणसंवेदकस्तु' भिक्षुगुणसंवेदकः पुनर्नोआगमतो भवति भावभिक्षुरित्युक्तो भिक्षुनिक्षेपः । साम्प्रतं ॥२६॥ निरुक्तमभिधातुकाम आह-तस्य निरुक्त मिति तस्य' भिक्षोनिश्चितमुक्तमन्वर्थरूपं भेदकभेदनभेत्तव्यैरे-| सभिर्भदैर्वक्ष्यमाणैत्रिधा भवतीति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयति
भेत्ताऽऽगमोवउत्तो दुविह तवो भेअणं च भेत्तव्यं । अट्ठविहं कम्मखुह तेण निरुत्तं स भिक्खुत्ति ।। ३४२ ॥ है 'भेत्ता'भेदकोऽत्रागमोपयुक्तः साधुः, तथा 'द्विविधं' बाह्याभ्यन्तरभेदेन तपो भेदनं वर्तते, तथा 'भेत्तव्यं
विदारणीयं चाष्टविध कर्म च-अष्टप्रकारं ज्ञानावरणीयादि कमें, तब क्षुदादिदुःखहेतुखात् क्षुच्छब्दवाच्यं, हायतश्चैवं तेन निरुतं-यः शाखनीत्या तपसा कर्म भिनत्ति स भिक्षुरिति गाथार्थः ।। किं च
भिदंतो अजह खुह भिक्खू जयमाणओ जई होइ । संजमचरओ घरओ भवं खिवंतो भवंतो उ ।। ३४३ ॥ 'भिन्दंश्च विदारयंश्च यथा 'क्षुधं कर्म भिक्षुर्भवति, भावतो यतमानस्तथा तथा गुणेषु स एव यतिर्भवति। नान्यथा, एवं 'संयमचरक' सप्तदशप्रकारसंयमानुष्ठायी चरकः, एवं 'भवं' संसारं 'क्षपयन्' परीतं कुर्वन् स एव भवान्तो भवति नान्यथेति गाथार्थः ।। प्रकारान्तरेण निरुक्तमेवाह
जंभिक्खमत्सवित्ती तेण व भिक्खू खवेइ जं व अणं । तवसंजमे तवस्सित्ति बावि अन्नोऽवि पजाओ ।। ३४४ ।। 'यदं' यस्माद् 'भिक्षामात्रवृत्तिः' भिक्षामात्रेण सर्वोपधाशुद्धेन वृत्तिरस्येति समासः, तेन वा भिक्षु.
दीप अनुक्रम [४८४..]
Pleps
॥२६१॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३४४], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||७..||
दिभिक्षणशीलो भिक्षुरितिकृत्वा, अनेनैव प्रसङ्गेन अन्येषामपि तत्पर्यायाणां निरुक्तमाह-क्षपयति 'यद्
यस्माद्वा 'ऋणं' कर्म तस्मात्क्षपणः, क्षपयतीति क्षपण इतिकृत्वा, तथा संयमतपसीति संयमप्रधानं तपः संयमतपः तस्मिन् विद्यमाने तपस्वीति वापि भवति, तपोऽस्यास्तीतिकृत्वा, अन्योऽपि पर्याय इति-अन्योऽपि भेदोऽर्धतो भिक्षशब्दनिरुक्तस्येति गाथार्थः । उक्तं निरुक्तद्वारम् , अधुनकार्थिकद्वारमाह
तिने ताई दविए वई अ खंते अ दंत विरए अ 1 मुणितावसपन्नवगुजुभिक्खू बुद्धे जइ विऊ अ ।। ३४५ ॥ तीर्णयत्तीर्ण: विशुद्धसम्यग्दर्शनादिलाभाद्भवार्णवमिति गम्यते, तायोऽस्यास्तीति तायी, तायः सुदृष्टमार्गोंक्तिः, सुपरिज्ञातदेशनया विनेयपालयितेत्यर्थः, द्रव्यं रागद्वेषरहितः, व्रती च हिंसादिविरतश्च, क्षान्तश्च क्षाम्यति क्षमा करोतीति क्षान्तः, बहुलवचनात् कर्तरि निष्ठा, एवं दाम्यतीन्द्रियादिदमं करोतीति दान्तः, विरतश्च विषयसुखनिवृत्तश्च, मुनिर्मन्यते जगतस्त्रिकालावस्थामिति मुनिः, तपःप्रधानस्तापसः, प्रज्ञा|पकोऽपवर्गमार्गस्य प्ररूपका, ऋजुः-मायारहितः संयमवान् वा, भिक्षुः पूर्ववत्, बुद्धोऽवगततत्त्वा, यतिरुत्तमा& श्रमी प्रयत्नवान वा, विद्वांश्च-पण्डितश्चेति गाथार्थः ॥ तथा
पवइए अणगारे पासंडी चरग बंभणे चेव । परिवायगे अ समणे निग्गंथे संजए मुत्ते ॥ ३४६ ।। प्रवजितः-पापानिष्क्रान्तः, अनगारो-द्रव्यभावागारशून्यः, पाषण्डी-पाशाड्डीनः, चरकः पूर्ववत्, 'ब्राम
ARCASSACREASEX
दीप अनुक्रम [४८४..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
| 'भिक्षु' शब्दस्य एकार्थिक शब्दा:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३४६], भाष्यं [६२...]
१० सभि
श्वध्य.
दशवैका हारिवृत्तिः ॥२६॥
प्रत
RESS
सूत्रांक
||७..||
णश्चैव' विशुद्धब्रह्मचारी चैव, परिव्राजकश्च-पापवर्जकश्च, श्रमणः पूर्ववत्, निग्रंथः संयतो मुक्त इस्येतदपि पूर्ववदेवेति गाथार्थः ॥ तथा
साहू लहे अतहा तीरडी होइ चेव नायब्यो । नामाणि एवमाईणि होति तवसंजमरयाणं ।। ३४७ ।। साधू रूक्षश्च तथेति निर्वाणसाधकयोगसाधनात्साधुः खजनादिषु स्नेहविरहादूक्षः 'तीरार्थी चैव भवति ज्ञातव्य' इति तीरार्थी भवार्णवस्य, 'नामानि एकार्थिकानि पर्यायाभिधानान्येवमादीनि यथोक्तलक्षणानि ४ भवन्ति । केषामित्याह-तपःसंयमरतानां भावसाधूनामिति गाथार्थः ॥ प्रतिपादितमेकार्थिकद्वारम् , इदानीं| लिङ्गद्वारं व्याचिख्यासुराह
संवेगो निवेओ विसयविवेगो सुसीलसंसग्गो । आराणा तवो नाणदसणचरित्तविणो अ॥ ३४८ ॥ 'संवेगों मोक्षसुखाभिलाषा, 'निर्वेदः' संसारविषयः, 'विषयविवेको' विषयपरित्यागः, 'मुशीलसंसर्गः शीलवद्भिः संसर्गः, तथा 'आराधना' चरमकाले निर्यापणरूपा, 'तपो' यथाशक्त्यनशनाद्यासेवन, 'ज्ञान' यथावस्थितपदार्थविषयमित्यादि 'दर्शन' नैसर्गिकादि 'चारित्र' सामायिकादि 'विनयश्च ज्ञानादिविनय इति गाथार्थः । तथा___ खंती अमहवऽजब विमुत्तया तह अदीणव तितिक्खा । आवस्सगपरिसुद्धी अ होति भिक्खुस्स लिंगाई ॥ ३४९ ।। 'क्षान्तिश्च' आक्रोशादिश्रवणेऽपि क्रोधत्यागश्च 'मार्दवार्जवविमुक्ततेति जात्यादिभावेऽपि मानत्यागा
दीप अनुक्रम [४८४..]
SAMSHAN
॥२६॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति: | भिक्षो: लिङ्गद्वारम् प्रतिपाद्यते
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति : [३४९], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||७..||
मार्दवं, परस्मिन्निकृतिपरेऽपि मायापरित्याग आर्जवं, धर्मोपकरणेष्वप्यमूछी विमुक्तता, तथाऽशनाचलाभेऽप्यदीनता, शुदादिपरीषहोपनिपातेऽपि तितिक्षा, तथा 'आवश्यकपरिशुद्धिर्थ' अवश्यंकरणीययो-11 गनिरतिचारता च, भवन्ति 'भिक्षोः' भावसाधोः 'लिङ्गानि' अनन्तरोदितानि संवेगादीनीति गाथार्थः ॥ व्याख्यातं लिङ्गद्वारम् , अवयवद्वारमाह
अज्झयणगुणी भिक्खू न सेस इइ णो पइन्न-को हेऊ । अगुणत्ता इइ हेऊ-को विलुतो ? सुवण्णमिव ।। ३५० ॥ 'अध्ययनगुणी' प्रक्रान्ताध्ययनोक्तगुणवान् 'भिक्षुः' भावसाधुर्भवतीति, तत्वरूपमेतत्, 'न शेष तद्गुणरहित इति 'नः प्रतिज्ञा' अस्माकं पक्षः, 'को हेतुः? कोऽत्र पक्षधर्म इत्याशङ्कयाह-'अगुणत्वादिति
हेतुः अविद्यमानगुणोऽगुणस्तद्भावस्तत्त्वं तस्मादित्ययं हेतुः, अध्ययनगुणशून्यस्य भिक्षुखप्रतिषेधः साध्य साहति, 'को दृष्टान्तः? किं पुनरब निदर्शनमित्याशङ्कयाह-सुवर्णमिव' यथा सुवर्ण स्वगुणरहितं सुवर्ण न भवति तद्वदिति गाथार्थः ।। सुवर्णगुणानाह
विसधाइ रसायण मंगलत्थ विणिए पयाहिणायत्ते । गुरुए अडज्झऽकुरथे अह सुवण्णे गुणा भणिआ ॥ ३५१ ॥ विषघाति विषघातनसमर्थ 'रसायन' वयस्तम्भनकर्तृ 'मङ्गला' मङ्गलप्रयोजनं 'विनीत यथेष्टकटकाविप्रकारसंपादनेन 'प्रदक्षिणावर्त तप्यमानं पादक्षिण्येनावर्त्तते 'गुरु' सारोपेतम् 'अदा' नाग्निना दद्यते
दीप अनुक्रम [४८४..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३५१], भाष्यं [६२...]
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वध्य०
प्रत
सूत्रांक
||७..||
दशवैका० अकुथनीय' न कदाचिदपि कुथतीत्येतेऽष्टावनन्तरोदिताः 'सुवर्णे' सुवर्णविषया गुणा भणितास्तत्स्वरूपज्ञैरिति ४|१० सभिहारि-वृत्तिगाथार्थः ॥ उक्ताः सुवर्णगुणाः, साम्प्रतमुपनयमाह
चउकारणपरिसुद्ध कसछेअणतावतालणाए अ । जं तं विसघाइरसायणाइगुणसंजु होइ ।। ३५२ ।। ॥२६३॥
'चतुष्कारणपरिशुद्ध' चतुःपरीक्षायुक्तमित्यर्थः, कथमित्याह-कषच्छेदतापताडनया चेति कषेण छेदेन तापेन ताडनया च, यदेवंविधं तद्विषघाति रसायनादिगुणसंयुक्तं भवति, भावसुवर्ण स्वकार्यसाधकमिति गाथार्थः । यच्चैवंभूतम्
संकसिणगुणोवे होइ सुवणं न सेसयं जुत्ती । नहि नामरूवमेतेण एवमगुणो हवाइ मिक्खू ।। ३५३ ॥ 'तद्' अनन्तरादितं 'कृत्स्नगुणोपेतं' संपूर्णगुणसमन्वितं भवति सुवर्ण यथोक्तं, न 'शेष' कषायशुद्ध, 'युक्ति रिति वर्णादिगुणसाम्येऽपि युक्तिसुवर्णमित्यर्थः, प्रकृते योजयति-पथैतत्सुवर्ण न भवति, एवं न पाहि नामरूपमात्रेण-रजोहरणादिसंधारणादिना 'अगुणः' अविद्यमानप्रस्तुताध्ययनोक्तगुणो भवति भिक्षुः, भिक्षामटन्नपि न भवतीति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पष्टयन्नाह
जुत्तीसुवणर्ग पुण सुवण्णवण्णं तु जइवि कीरिज्जा । न हु होइ सुवणं सेसेहि गुणेहि संतेहिं ।। ३५४ ॥ युक्तिसुवर्ण कृत्रिमसुवर्णमिह लोके 'सुवर्णवर्ण तु जात्यसुवर्णवर्णमपि यद्यपि क्रियेत पुरुषनैपुण्येन तथापि नैव ॥२६३ ॥ भवति तत् सुवर्ण परमार्थेन 'शेषैर्गुणैः कषादिभिः 'असद्भिः' अविद्यमानैरितिगाथार्थः । एवमेव किमित्याह
दीप
अनुक्रम [४८४..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| नियुक्ति: [३५५], भाष्यं [६२...]
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प्रत
सूत्रांक
||७..||
जे अज्झयणे भणिआ भिक्खुगुणा तेहि होइ सो मिक्खू । वण्णेण जवसुवष्णगं व संते गुणनिहिमि ।। ३५५ ।। येऽध्ययने भणिता भिक्षुगुणा अस्मिन्नेव प्रक्रान्ते जिनवचने चित्तसमाध्यादयः तः करणभूतैः सद्भिर्भ-IN बत्यसौ भिक्षुर्नामस्थापनाद्रव्यभिक्षुव्यपोहेन भावभिक्षुः, परिशुद्धभिक्षावृत्तित्वात् । किमिवेत्याह-वर्णेन | पीतलक्षणेन 'जायसुवर्णमिव परमार्थसुवर्णमिव 'सति गुणनिधौं विद्यमानेऽन्यस्मिन् कषादी गुणसंघाते, एतदुक्तं भवति-यथाऽन्यगुणयुक्तं शोभनवर्ण सुवर्ण भवति तथा चित्तसमाध्यादिगुणयुक्तो भिक्षणशीलो |भिक्षुर्भवतीति गाथार्थः ।। व्यतिरेकता स्पष्टयति
जो भिक्खू गुणरहिओ भिक्खं गिण्हइ न होइ सो मिक्लू । वष्रोण जुत्तिमुवष्णगं व असई गुणनिहिम्मि ।। ३५६ ।। यो भिक्षुः 'गुणरहितः' चित्तसमाध्यादिशून्यः सन् भिक्षामटति न भवत्यसौ भिक्षुर्भिक्षाटनमात्रेणैव, अपरिशुद्धभिक्षावृत्सिवात, किमिवेत्याह-वर्णन युक्तिसुवर्णमिव, पथा तद्वर्णमात्रेण सुवर्ण न भवत्यसति | 'गुणनिधी' कषादिक इति गाथार्थः ॥ किंच
उद्दिद्वकयं भुंजइ छकायपमहओ घरं कुणइ । पक्षक्खं च जलगए जो पियइ कह न सो भिक्खू ? ॥ ३५७ ॥ उद्दिश्य कृतं भुङ्ग इत्यौद्देशिकमित्यर्थः, षटकायप्रमर्दकः-पत्र कचन पृथिव्याापमईकः, गृहं करोति संभवत्येवैषणीयालये मूच्र्छया वसतिं भाटकगृहं वा, तथा 'प्रत्यक्षं च उपलभ्यमान एव 'जलगतान्'
दीप अनुक्रम [४८४..]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||७...|| निर्युक्ति: [३५७], भाष्यं [६२...]
दशवैका ० अष्कायादीन् यः पिबति, तत्त्वतो विनाऽऽलम्बनेन, कथं त्वसौ भिक्षुः नैव भावभिक्षुरिति गाथार्थः ॥ उक्त हारि-वृत्तिः + उपनयः, साम्प्रतं निगमनमाह
तम्हा जे अक्षयणे भिक्खुगुणा तेहिं होइ सो भिक्खू । तेहि अ सउत्तरगुणेहि होइ सो भाविअतरो उ ॥ ३५८ ॥
॥ २६४ ॥
यस्मादेतदेवं यदनन्तरमुक्तं तस्माद् येऽध्ययने प्रस्तुत एव 'भिक्षुगुणा' मूलगुणरूपा उक्तास्तैः करणभूतैः सद्भिर्भवत्यसौ भिक्षु, तै 'सोत्तरगुणैः' पिण्डविशुद्धयागुत्तरगुणसमन्वितैर्भवत्यसौ 'भाविततरः' चारित्रधर्मे तु प्रसन्नतर इति गाथार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादिचर्चः पूर्ववत्तावद्यावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं तचेदम्
निक्खम्ममाणा अबुद्धवयणे, निच्चं चित्तसमाहिओ हविज्जा । इत्थीण वसं न आवि गच्छे, वंतं नो पडिआयइ जे स भिक्खू ॥ १ ॥ पुढविं न खणे न खणावए, सीओदगं न पिए न पिआवए । अगणिसत्थं जहा सुनिसिअं, तं न जले न जलावए जे स भिक्खू ॥ २ ॥ अनिलेण न वीए न वीयावए, हरियाणि न छिंदे न छिंदावए । बीआणि सया विवज्जयंतो, सच्चित्तं नाहारए जे स भिक्खू ॥ ३ ॥ वहणं त
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॥ २६४ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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सूत्रांक
||१-५||
दीप
अनुक्रम
[४८५
-४८९]
श० ४५
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + :+भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-] मूलं [४...] / गाथा ||१-५|| निर्युक्ति: [ ३५८...], भाष्यं [६२...]
सथावराण होइ, पुढवीतणकट्ठनिस्सिआणं । तम्हा उद्देसिअं न भुंजे, नोऽवि पए न पयावर जे स भिक्खू ॥ ४ ॥ रोइअ नायपुत्तवयणे, अत्तसमे मन्निज्ज छप्पि काए । पंच य फासे महब्वयाई, पंचासवसंवरे जे स भिक्खू ॥ ५ ॥
''frosts' द्रव्यभावगृहात् प्रव्रज्यां गृहीत्वेत्यर्थः ' आज्ञया' तीर्थकरगणधरोपदेशेन योग्यतायां सत्यां, निष्क्रम्य किमित्याह - 'बुद्धवचने' अवगततत्त्वतीर्थकर गणधरवचने 'नित्यं' सर्वकालं 'चित्तसमाहितः चित्तेनातिप्रसन्नो भवेत्, प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः, व्यतिरेकतः समाधानोपायमाह - 'स्त्रीणां' सर्वा सत्कार्यनिबन्धनभूतानां '' तदायत्ततारूपं न चापि गच्छेत्, तद्वशगो हि नियमतो वान्तं प्रत्यापियति, 'अतों' बुद्धवचनचित्तसमाधानतः सर्वथा स्त्रीवशत्यागाद्, अनेनैवोपायेनान्योपायासंभवात्, 'वान्तं' परित्यक्तं सद्विषयजम्यालं 'न प्रत्यापिवति' 'मागण्या भोगतोऽना भोगतश्च तत्सेवते यः स भिक्षुः -भावभिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १ ॥ तथा-'पृथिवीं' सचेतनादिरूपां न खनति स्वयं न खानयति परैः, 'एकग्र |हणे तज्जातीयग्रहण मिति खनन्तमप्यन्यं न समनुजानाति, एवं सर्वत्र वेदितव्यं । 'शीतोदक' सचित्तं पानीयं न पिवति स्वयं न पाययति परानिति, अग्निः पड्जीवघातकः, किंवदित्याह - 'शस्त्रं खङ्गादि यथा 'सुनिशितम्' उज्ज्वालितं तद्वत्, तं न ज्वालयति स्वयं न ज्वालयति परैः य इत्थंभूतः स भिक्षुः । आह
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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सूत्रांक
॥ १- ५||
दीप
अनुक्रम
[४८५
-४८९]
दशवैका हारि-वृत्तिः
॥ २६५ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + :+भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||१- ५ || निर्युक्ति: [ ३५८...], भाष्यं [६२...]
पजीवनिकायादिषु सर्वाध्ययनेष्वयमर्थोऽभिहितः किमर्थं पुनरुक्त इति उच्यते, तदुक्तार्थानुष्ठानपर एव भिक्षुरिति ज्ञापनार्थ, ततश्च न दोष इति सूत्रार्थः ||२|| तथा 'अनिलेन' अनिलहेतुना खेलकर्णादिना न बीजयत्यात्मादि स्वयं न वीजयति परैः । 'हरितानि शष्पादीनि न छिनत्ति स्वयं न छेदयति परैः, 'बीजानि' | हरितफलरूपाणि व्रीह्यादीनि 'सदा' सर्वकालं विवर्जयन् संघटनादिक्रियया, सचितं नाहारयति यः कदाचिदप्यपुष्टालम्बनः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ औदेशिकादिपरिहारेण त्रसस्थावर परिहारमाह-'बधनं' हननं 'सस्थावराणां' दीन्द्रियादिपृथिव्यादीनां भवति कृतौद्देशिके, किंविशिष्टानाम् ? - 'पृथिवीतृणकाष्ठ| निश्रितानां' तथासमारम्भात्, यस्मादेवं तस्मादौदेशिकं कृताद्यन्यच सावयं न भुङ्क्ते, न केवलमेतत्, किंतु ? नापि पचति स्वयं न पाचयति अन्यैर्न पचन्तमनुजानाति यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ४ ॥ किंच- 'रोच यित्वा' विधिग्रहणभावनाभ्यां प्रियं कृत्वा, किं तदिलाह - 'ज्ञातपुत्रवचनं' भगवन्महावीरवर्धमानवचनम् 'आत्मसमान' आत्मतुल्यान् मन्यते 'षडपि कायान्' पृथिव्यादीन्, 'पञ्च चेति चशन्दोऽप्यर्थः पञ्चापि स्पृशति' सेवते महाव्रतानि 'पञ्चाश्रवसंवृतश्च' द्रव्यतोऽपि पञ्चेन्द्रियसंवृतश्च यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ५ ॥
चारि वमे सया कसा, धुवजोगी हविज्ज बुद्धवयणे । अहणे निजायरूवरयए, गिहिजोगं परिवज्जए जे स भिक्खू ॥ ६ ॥ सम्मदिट्ठी सया अमूढे, अस्थि हु नाणे
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||६-१०|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
||६-१०||
तवे संजमे अ । तवसा धुणइ पुराणपावगं, मणवयकायसुसंवुडे जे स भिक्खू ॥७॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । होही अट्रो सुए परे वा, तं न निहे न निहावए जे स भिक्खू ॥ ८॥ तहेव असणं पाणगं वा, विविहं खाइमसाइमं लभित्ता । छदिअ साहम्मिआण भुंजे, भुच्चा सज्झायरए जे स भिक्खू ॥९॥ न य बुग्गहिअं कहं कहिज्जा, न य कुप्पे निहुइंदिए पसंते । संजमे धुवं जो
गेण जुत्ते, उवसंते अविहेडए जे स भिक्खू ॥१०॥ किं च-चतुर क्रोधादीन वमति तत्प्रतिपक्षाभ्यासेन 'सदा' सर्वकालं कषायान , ध्रुवयोगी च-उचितनित्ययोगवांश्च भवति, बुद्धवचन इत्ति तृतीयाथै सप्तमी, तीर्थकरवचनेन करणभूतेन, ध्रुवयोगी भवति यधागम| मेवेति भावः, 'अधन चतुष्पदादिरहितः 'निर्जातरूपरजतो' निर्गतसुवर्णरूच्य इति भावः, 'गृहियोग मूर्छया गृहस्थसंबन्धं परिवर्जयति' सर्वैः प्रकारैः परित्यजति यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ ६॥ तथा 'सम्यगदृष्टिः' भावसम्यगदर्शनी सदा 'अमूढः अविप्लतः सन्नेवं मन्यते-अस्त्येव ज्ञानं हेयोपादेयविषयमतीन्द्रियेध्वपि तपश्च बाह्याभ्यन्तरकर्ममलापनयनजलकल्पं संयमच नवकर्मानुपादानरूपः, इत्थं च दृढभावस्तपसा
FACECACARRESS
दीप अनुक्रम [४९०-४९४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||६-१०|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
||६-१०||
दशवैका०1:धुनोति पुराणपापं भावसारया प्रवृत्त्या 'मनोवाकायसंवृतः' तिसृभिर्गुप्तिभिर्गुसो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः१० सभिहारि-वृत्तिः ॥७॥'तथैवेति पूर्वर्षिविधानेन 'अशनं पानं च प्रागुक्तखरूपं तथा 'विविधम् अनेकप्रकारं 'खाद्य खाद्य
च' प्रागुक्तखरूपमेव 'लब्ध्वा' प्राप्य, किमित्याह-भविष्यति 'अर्थः' प्रयोजनमनेन श्वः परश्वो वेति तद्' अ॥२६६॥
शनादि 'न निधत्ते न स्थापयति खयं तथा 'न निधापपति' न स्थापयत्यन्यैः स्थापयन्तमन्यं नानुजानाति, यः सर्वथा संनिधिपरित्यागवान् स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥८॥ किं च-तथैवाशनं पानं च विविध खाद्यं खायं च । लन्ध्वेति पूर्ववत्, लब्ध्वा किमित्याह-छन्दित्वा' निमय 'समानधार्मिकान्' साधून भुले, खात्मतुल्य-1 तया तद्वात्सल्यसिद्धः, तथा भुक्त्वा खाध्यायरतश्च यः चशब्दाच्छेपानुष्ठानपरब यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥९॥भिक्षुलक्षणाधिकार एवाहन च 'वैग्रहिकी कलहप्रतिवद्धां कां कथयति, सद्बादकथादिष्वपि न च कुप्यति परस्य, अपितु 'निभृतेन्द्रियः' अनुद्धतेन्द्रियः 'प्रशान्तो' रागादिरहित एवास्ते, तथा 'संयमें पूर्वोक्त
व सर्वकाल 'योगेन' कायवाचनःकर्मलक्षणेन युक्तो योगयुक्ता, प्रतिभेदमौचित्येन प्रवृत्ते तथा 'उप-1X शान्त' अनाकुलः कायचापलादिरहित: 'अविहेठक: न कचिदुचितेऽमादरवान्, क्रोधादीनां विश्लेषक इत्यन्ये, य इत्थंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१०॥ जो सहइ हु गामकंटए, अक्कोसपहारतज्जणाओ अ। भयभेरवसदसप्पहासे, समसु
॥२६६॥
दीप अनुक्रम [४९०-४९४]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [४...] / गाथा ||११-१५|| नियुक्ति : [३५८...], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक ||११
-१५||
हदुक्खसहे अ जे स भिक्खू ॥ ११॥ पडिमं पडिवजिआ मसाणे, नो भीयए भयभेरवाई दिस्स । विविहगुणतवोरए अनिच्चं, न सरीरं चाभिकंखए जे स भिक्खू ॥ १२ ॥ असई वोसट्टचत्तदेहे, अकुटे व हए लूसिए वा । पुढविसमे मुणी हविज्जा, अनिआणे अकोउहल्ले जे स भिक्खू ॥ १३ ॥ अभिभूअ कारण परीसहाई, समुद्धरे जाइपहाउ अप्पयं । विइत्तु जाईमरणं महन्भयं, तवे रए सामणिए जे स भिक्खू ॥ १४ ॥ हत्थसंजए पायसंजए, वायसंजए संजइंदिए । अज्झप्परए सुसमाहिअप्पा,
सुत्तत्थं च विआणइ जे स भिक्खू ॥ १५॥ किंच-यः खलु महात्मा सहते 'सम्यग्ग्रामकण्टकान्' ग्रामा-इन्द्रियाणि तहुःखहेतवः कण्टकास्तान , स्वरूपत एवाह-आक्रोशान महारान् तर्जनाश्चेति, तत्राकोशो यकारादिभिः प्रहाराः कशादिभिः तर्जना असूछयादिभिः, तथा 'भैरवभया' अत्यन्तरौद्रभयजनकाः शब्दाः सप्रहासा यस्मिन् स्थान इति गम्यते तत्तथा
तस्मिन् , वैतालादिकृतार्तनादाट्टहास इत्यर्थः, अनोपसर्गेषु सत्सु समसुखदुःखसहश्च-यः अचलितसामा
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दीप अनुक्रम [४९५-४९९]
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [F], मूलं [४...] / गाथा ||११-१५|| नियुक्ति: [३५८...], भाष्यं [६२...]
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सूत्रांक
-१५||
पिकभावः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥११॥ एतदेव स्पष्टयति-प्रतिमा' मासादिरूपां 'प्रतिपय विधिनाs- १० सामन हारि-वृत्तिङ्गीकृत्य 'श्मशाने' पितृवने 'न बिभेति' न भयं याति 'भैरवभयानि दृष्टा' रौद्रभयहेतुनुपलभ्य वैतालादि-15 ॥२६७॥
रूपशब्दादीनि 'विविधगुणतपोरतश्च नित्यं मूलगुणायनशनादिसक्तश्च सर्वकालं, न शरीरमभिकाश्ते निःस्पृहतया वार्समानिकं भावि च, य इत्थंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १२॥ न सकृदसकृत्सर्वदेत्यर्थः, किमित्याह-व्युत्सृष्टत्यक्तदेह व्युत्सृष्टो भावप्रतिबन्धाभावेन त्यक्तो विभूषाकरणेन देहः-शरीरं येन स तथाविधा, आक्रुष्टो वा यकारादिना हतो वा दण्डादिना लूषितो वा खगादिना भक्षितो वा श्वशृगालादिना 'पृथिवीसमः' सर्वसहो मुनिर्भवति, न च रागादिना पीयते, तथा 'अनिदानों' भाविफलाशंसार|हिता, अकुतूहलच नटादिषु, य एवंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१३॥ भिक्षुस्वरूपाभिधानाधिकार एवाह|
-'अभिभूय' पराजित्य 'कायेन शरीरेणापि, न भिक्षुसिद्धान्तनीत्या मनोवाग्भ्यामेव, कानानभिभवेटू तत्वतस्तदनभिभवात, 'परीषहान' क्षुदादीन, 'समुद्धरति उत्तारयति 'जातिपथात्' संसारमार्गादात्मानं, कथमित्याह-विदित्वा' विज्ञाय जातिमरणं संसारमूलं 'महाभयं महाभयकारण, 'तपसि रतः' तपसि सक्ता, किंभूत इत्याह- श्रामण्ये' श्रमणानां संबन्धिनि, शुद्ध इति भावः, य एवंभूतः स भिक्षुरिति सूत्रायः ॥१४॥
तथा हस्तसंयतः पावसंयत इति-कारणं विना कूर्मवल्लीन आस्ते कारणे च सम्यग्गच्छति, तथा वासंयतः ॥२६७॥ १ अकुशलबाग्निरोधकुशलबागुदीरणेन, 'संयतेन्द्रियो' निवृत्तविषयप्रसरः, 'अध्यात्मरतः' प्रशस्तध्यानासक्ता,
दीप अनुक्रम [४९५-४९९]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक [-], मूलं [४...] / गाथा ||१६-२१|| नियुक्ति : [३५८...], भाष्यं [६२...]
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RCMCSAX
सूत्रांक ||१६
-२१||
द सुसमाहितात्मा ध्यानापादकगुणेषु, तथा सूत्रार्थं च यथावस्थितं विधिग्रहणशुद्धं विजानाति यः सम्यग्यथाविषयं स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥१५॥
उबहिमि अमुच्छिए अगिद्धे, अन्नायउंछं पुलनिप्पुलाए । कयविक्कयसंनिहिओ विरए, सव्वसंगावगए अ जे स भिक्खू ॥ १६ ॥ अलोल भिक्खू न रसेसु गिज्झे, उंछं चरे जीविअ नाभिकंखे । इडिं च सकारणपूअणं च, चए ठिअप्पा अणिहे जे स भिक्खू ॥ १७ ॥ न परं वइजासि अयं कुसीले, जेणं च कुप्पिज न तं वइज्जा । जाणिअ पत्तेअं पुण्णपावं, अत्ताणं न समुक्कसे जे स भिक्खू ॥ १८॥ न जाइमत्ते न य रूवमत्ते, न लाभमत्ते न सुएण मत्ते । मयाणि सव्वाणि विवजइत्ता, धम्मज्झाणरए जे स भिक्खू ॥ १९॥ पवेअए अजपयं महामुणी, धम्मे ठिओ ठावयई परं पि । निक्खम्म वजिज कुसीललिंगं, न आवि हासंकुहए जे स भिक्खू ॥ २० ॥ तं देहवासं असुई असासयं, सया चए निच्चहिअद्विअप्पा । छिदितु जाईमरणस्स
दीप अनुक्रम [५००-५०५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
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सूत्रांक
||१६
-२१||
दीप
अनुक्रम [५००
-५०५]
दशबैक ० हारि-वृत्तिः
॥ २६८ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+|भाष्य|+वृत्तिः) अध्ययनं [१०], उद्देशक [ - ], मूलं [४... ] / गाथा ||१६-२१ || निर्युक्तिः [ ३५८...], भाष्यं [ ६२...]
बंधणं, उवेइ भिक्खू अपुणागमं गई ॥ २१ ॥ ति बेमि ॥ सभिक्खुअज्झयणं दसमं समन्तं ॥ १० ॥
तथा - 'उपधी' वस्त्रादिलक्षणे 'अमूच्छितः' तद्विषयमोहत्यागेन 'अगृद्ध:' प्रतिबन्धाभावेन, अज्ञातोञ्छं चरति भावपरिशुद्धं, स्तोकं स्तोकमित्यर्थः, 'पुलाक निष्पुलाक' इति संयमासारतापादकदोषरहितः, 'क्रयविक्रयसंनिधिभ्यो विरतः' द्रव्यभावभेदभिन्नक्रयविक्रयपर्युषितस्थापनेभ्यो निवृत्तः, 'सर्वसङ्गापगतश्च यः अपगतद्रव्यभावसङ्गश्च यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ किंच- अलोलो नाम नाप्राप्तप्रार्थनपरो 'भिक्षुः' साधुः न रसेषु गृद्धः, प्राप्तेष्वप्यप्रतिबद्ध इति भावः, उञ्छं चरति भावोज्छमेवेति पूर्ववत्, नवरं तत्रोपधिमाश्रित्योक्तमिह त्वाहारमित्यपौनरुक्तयं, तथा जीवितं नाभिकाङ्क्षते, असंयमजीवितं, तथा 'ऋद्धिं च' आमर्षोषध्यादिरूपां सत्कारं वस्त्रादिभिः पूजनं च स्तवादिना त्यजति नैतदर्थमेव यतते स्थितात्मा ज्ञानादिषु, 'अनिभ' इत्यमायो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ १७ ॥ तथा न 'परं' स्वपक्षविनेयव्यतिरिक्तं वदतिअयं कुशीलः, तदप्रीत्यादिदोषप्रसङ्गात् स्वपक्षविनेयं तु शिक्षाग्रहणबुद्ध्या बदल्यपि, सर्वथा येनान्यः कश्चित् कुप्यति न तद् ब्रवीति दोषसद्भावेऽपि किमित्यत आह-ज्ञात्वा प्रत्येकं पुण्यपापं नान्यसंबन्ध्यन्यस्य भवति अग्निदाहवेदनावत्, एवं सत्खपि गुणेषु नात्मानं समुत्कर्षति न स्वगुणैर्गर्वमायाति यः स भिक्षुरिति सू
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॥ २६८ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) अध्ययनं [१०], उद्देशक -1, मूलं [४...] / गाथा ||१६-२१|| नियुक्ति : [३५८...], भाष्यं [६२...]
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प्रत
सूत्रांक ||१६
-२१||
त्रार्थः॥१८॥ मदप्रतिषेधार्थमाह-न जातिमत्तो यथाऽहं ब्राह्मणः क्षत्रियो चा, न च रूपमत्तो यथाऽहं रूपवानादेयः, न लाभमत्तो यथाऽहं लाभवान्, न श्रुतमत्तो यथाऽहं पण्डितः, अनेन कुलमदादिपरिग्रहः, | अत एवाह-मदान् सर्वान् कुलादिविषयानपि परिवयं परित्यज्य 'धर्मध्यानरतों' यो यथागमं तत्र सक्तः
स भिक्षुरिति सूत्राधः॥१९॥ किंच-प्रवेदयति' कथयति 'आर्यपद शुद्धधर्मपदं परोपकाराय 'महामुनि Xोशीलवान ज्ञाता एवंभूत एव वस्तुतो नान्यः, किमित्येतदेवमित्यत आह-धर्मे स्थितः स्थापयति परमपि-1 लश्रोतारं, तत्रादेयभावप्रवृत्तः, तथा निष्क्रम्य वर्जयति 'कुशीललिङ्गम् आरम्भादि कुशीलचेष्ठितं, तथा 'नट
चापि हास्यकुहकों' न हास्यकारिकुहकयुक्तो यः स भिक्षुरिति सूत्रार्थः ॥ २० ॥ भिक्षुभावफलमाह-तं देहवास मित्येवं प्रत्यक्षोपलभ्यमानं चारकरूपं शरीरावासम् अशुचिं शुक्रशोणितोद्भववादिना अशाश्वतं प्रतिक्षणपरिणत्या सदा त्यजति ममत्वानुवन्धत्यागेन, क इत्याह-नित्यहिते' मोक्षसाधने सम्यगदर्शनादी
स्थितात्मा अत्यन्तसस्थितः, स चैवंभूतश्छित्वा जातिमरणस्य' संसारस्य 'बन्धन' कारणम् 'उपैति' सामीमप्येन गच्छति 'भिक्षुः' यतिः 'अपुनरागमा पुनर्जन्मादिरहितामित्यर्थः, गतिमिति-सिद्धिगति, ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ २१ ॥ उक्तोऽनुगमो, नयाः पूर्ववत्, इति व्याख्यातं सभिवध्ययनम् ॥१०॥
इति श्रीहरिभद्रसूरिविरचितायां श्रीदशवैकालिकबृहत्तौ दशममध्ययनम् ॥१०॥
दीप अनुक्रम [५००-५०५]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
अत्र अध्ययनं -१० परिसमाप्त
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प्रत सूत्रांक
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दीप अनुक्रम [--]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २६९ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + चूलिका [१], मूलं [-] / गाथा ||- ||, निर्युक्तिः [ ३५९ ], भाष्यं [६२...]
अथ चूलिके ।
अधुनौघतवडे आरभ्येते, अनयोश्चायमभिसंबन्धः - इहानन्तराध्ययने भिक्षुगुणयुक्त एव भिक्षुरुक्तः, स चैवंभूतोऽपि कदाचित् कर्मपरतत्वात् कर्मणञ्च बलवत्त्वात् सीदेद्, अतस्तस्थिरीकरणं कर्त्तव्यमिति तदर्था|धिकारवचूडाद्वयमभिधीयते, तत्र चूडाशब्दार्थमेवाभिधातुकाम आह
:+भाष्य|+वृत्तिः)
दवे खेत्ते काले भावम्मि अ चूलिआय निक्खेवो । तं पुण उत्तरतंतं सुअगहिअत्थं तु संग्रहणी ॥ ३५९ ॥
नामस्थापने क्षुणत्वादनाइत्याह-'द्रव्ये क्षेत्रे काले भावे च द्रव्यादिविषयः चूडाया 'निक्षेपों' न्यास इति तत्पुनडाद्वयम् 'उत्तरतंत्र' दशवैकालिकस्य आचारपञ्चचूडावत्, एतचोत्तरतनं 'श्रुतगृहीतार्थमेव' द शवेकालिकाख्यश्रुतेन गृहीतोऽर्थोऽस्येति विग्रहः, यद्येवमपार्थकमिदं, नेत्याह – 'संग्रहणी' तदुक्तानुक्तार्थसंक्षेप इति गाथार्थः ॥ द्रव्यचूडादिव्याचिख्यासयाऽऽह
दब्बे सच्चित्ताई कुकुडचूडामणी मऊराई । खेत्तंमि लोगनिकुड मंदरचूडा अ कूडाई ॥ ३६० ।।
'द्रव्य' इति व्यचूडा आगमनोआगमज्ञशरीरेतरादि, व्यतिरिक्ता त्रिविधा 'सचित्ताया' सचित्ता अ चित्ता मिश्रा च यथासंख्यं दृष्टान्तमाह- कुकुटचूटा सचिता मणिचूडा अचित्ता मयूरशिखा मिश्रा । 'क्षेत्र'
...' चूडा' शब्दस्य नामादि षड् निक्षेपाः
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१ रतिवा
क्यचूला
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
चूलिका -१ "रतिवाक्य" आरभ्यते
।। २६९ ॥
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आगम
(४२)
प्रत सूत्रांक
||--||
दीप
अनुक्रम
[
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः + चूलिका [१], मूलं [-], / गाथा ||- ||, निर्युक्तिः [३६०], भाष्यं [६२...]
:+|भाष्य|+वृत्तिः)
इति क्षेत्रचूडा लोकनिष्कुटा उपरिवर्त्तिनः मन्दरचूडा च पाण्डुकम्बला कूटादयश्च तदन्यपर्वतानां, क्षेत्रप्राधान्यात्, आदिशब्दादधोलोकस्य सीमन्तकः तिर्यग्लोकस्य मन्दर ऊर्ध्वलोकस्येषत्प्राग्भारेति गाथार्थः ॥ अइरित्त अहिंगमासा अहिगा संवच्छरा अ कालंमि । भावे खओवसमिए इमा उ चूडा मुणेअव्वा ॥ ३६१ ॥ 'अतिरिक्ता' उचितकालात् समधिका 'अधिकमासकाः प्रतीताः, अधिकाः संवत्सराच षष्ट्यब्दायपेक्षया 'काल' इति कालचूडा, 'भाव' इति भावचूडा क्षायोपशमिके भावे इयमेव द्विप्रकारा चूडा ' मन्तव्या' वि| ज्ञेया क्षायोपशमिकत्वाच्छ्रुतस्येति गाथार्थः ॥ तत्रापि प्रथमा रतिवाक्यचूडा, अस्याश्चानुयोगद्वारोपन्यासः पूर्ववत्तावद्यावन्नाम निष्पन्ने निक्षेपे रतिवाक्येति द्विपदं नाम, तत्र रतिनिक्षेप उच्यते तत्रापि नामस्थापने अनादृत्य द्रव्यभावरत्यभिधित्सयाऽऽह
दुब्वे दुहा उ कम्मे नोकम्मरई अ सददव्बाई भावरई तस्सेव उ उदए एमेव अरईवि ॥ ३६२ ॥
|
द्रव्यरतिरागमनो आगमज्ञशरीरेतरातिरिक्ता द्विधा- कर्मद्रव्यरति नौकर्मद्रव्यरतिश्च तत्र कर्मद्रव्यरती रतिवेदनीयं कर्म, एतच बद्धमनुदयावस्थं गृह्यते नोकर्मद्रव्यरतिस्तु शब्दादिद्रव्याणि आदिशब्दात् स्पर्शरसादिपरिग्रहः रतिजनकानि-रतिकारणानि । भावरतिः 'तस्यैव तु' रतिवेदनीयस्य कर्मण उदये भवति, एव| मेवारतिरपि द्रव्यभावभेदभिन्ना यथोक्तरतिप्रतिपक्षतो विज्ञेयेति गाथार्थः । उक्ता रतिः, इदानीं वाक्यमतिदिशन्नाह
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः द्रव्य भावौ रति अरत्योः विवेचनं क्रियते
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) ____ चूलिका [१], मूलं [-], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६२], भाष्यं [६२...]
(४२)
१ रतिवाक्यचूला
प्रत
सत्राक ||--||
दशवैका०
वकं तु पुषभणि धम्मे रहकारगाणि बकाणि । जेणमिमीए तेणं रहवकेसा हवइ चूडा ।। ३६३ ।। हारि-वृत्तिः वाक्यं तु पूर्वभणित-वाक्यशुद्ध्यध्ययनेऽनेकप्रकारमुक्तं 'धर्म चारित्ररूपे 'रतिकारकाणि' रतिजनकानि,
शतानि च वाक्यानि येन कारणेन 'अस्यां चूडायां तेन निमित्तेन रतिवाक्यैषा चूडा, रतिकतणि वाक्यानि | ॥२७॥ यस्यां सा रतिवाक्येति गाथार्थः॥ इह च रत्यभिधानं सम्यकसहनेन गुणकारिणीत्वोपदर्शनार्थम् । आह च
जह नाम आउरस्सिह सीवणळेजेसु कीरमाणेसु । जंतणमपत्थकुच्छाऽऽमदोसविरई हिअकरी च ।। ३६४ ॥ यथा नामेति प्रसिद्धमेतत् 'आतुरस्य' शरीरसमुत्थेन आगन्तुकेन वा व्रणेन ग्लानस्य 'इहलोके 'सीव-15 नच्छेदेषु' सीवनच्छेदनकर्मसु क्रियमाणेषु सत्सु, किमित्याह-यन्त्रणं गलयत्रादिना 'अपथ्यकुत्सा' अपथ्यप्रतिषेधः 'आमदोषविरतिः' अजीर्णदोषनिवृत्तिः हितकारिण्येव विपाकसुन्दरत्वादिति गाथार्थः ॥ दाष्टीन्तिकयोजनामाह
अट्ठविहकम्मरोगावरस्स जीअस्स तह तिगिच्छाए । धम्मे रई अधम्मे अरई गुणकारिणी होइ ।। ३६५॥ 'अष्टविधकर्मरोगातरस्य' ज्ञानावरणीयादिरोगेण भावग्लानस्य 'जीवस्य' आत्मनः 'तथा' तेनैव प्रकारेण 'चिकित्सायां संयमरूपायां प्रक्रान्तायामलानलोचादिना पीडाभावेऽपि 'धर्म' श्रुतादिरूपे रतिः' आसक्तिः 'अधर्म तद्विपरीते 'अरतिः' अनासक्तिर्गुणकारिणी भवति, निर्वाणसाधकत्वेनेति गाथार्थः ॥ एतदेव स्पटयति
+
दीप अनुक्रम
लय
॥
७०11
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
~551~
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) ___ चूलिका [१], मूलं [-], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६५], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सत्राक ||--||
सज्झायसंजमतवे वेवचे अज्ञाणजोगे अ । जो रमइ नो रमइ अस्संजमम्मि सो वचई सिद्धिं ।। ३६६ ॥ खाध्याये-वाचनादौ संयमे-पृथिवीकायसंयमादौ तपसि-अनशनादौ वैयावृत्त्ये च-आचार्यादिविषये ध्यानयोगे च-धर्मध्यानादौ यो 'रमते खाध्यायादिषु सक्त आस्ते, तथा 'न रमते' न सक्त आस्ते 'असंयम प्राणातिपातादौ स 'ब्रजति सिद्धिं' गच्छति मोक्षम् । इह च संयमतपोग्रहणे सति खाध्यायादिग्रहणं प्रा-1 धान्यख्यापनार्थमिति गाधार्थः । उपसंहरन्नाह
तम्हा धम्मे रइकारगाणि अरइकारगाणि (य) अहम्मे । ठाणाणि ताणि जाणे जाई भणिआई अज्झयणे ॥ ३६७ ॥ IA तस्माद् 'धर्मे चारित्ररूपे 'रतिकारकाणि' रतिजनकानि 'अरतिकारकाणि च' अरतिजनकानि च 'अधमें असंयमे स्थानानि 'तानि वक्ष्यमाणानि जानीयात् यानि "भणितानि' प्रतिपादितानि इह अध्ययने प्रक्रान्त इति गाधार्थः ॥ उक्तो नामनिष्पन्नो निक्षेपः, साम्प्रतं सूत्रालापकनिष्पन्नस्यावसर इत्यादि पूर्ववत्तावयावत्सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम्
इह खल्लु भो! पव्वइएणं उप्पन्नदुक्खेणं संजमे अरइसमावन्नचित्तेणं ओहाणुप्पेहिणा अणोहाइएणं चेव हयरस्सिगयंकुसपोयपडागाभूआई इमाई अङ्गारस ठाणाई सम्म संपडिलेहिअव्वाई भवंति-तंजहा-हंभो! दुस्समाए दुप्पजीवी १, लहुसगा इत्त
SROSCOM
दीप अनुक्रम
दश०४६
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
दशवैका हारि-वृत्तिः ॥ २७१॥
१रतिवाक्पचूला
प्रत
सत्राका
रिआ गिहीणं कामभोगा २, भुजो अ साइबहुला मणुस्सा ३, इमे अ मे दुक्खे न चिरकालोवढाई भविस्सई ४, ओमजणपुरकारे ५, वंतस्स य पडिआयणं ६, अहरगइवासोवसंपया ७, दुल्लहे खलु भो! गिहीणं धम्मे गिहवासमज्झे वसंताणं ८, आयके से वहाय होइ ९, संकप्पे से वहाय होइ १०, सोवक्केसे गिहवासे निरुवक्केसे परिआए ११, बंधे गिहवासे मुक्खे परिआए १२, सावजे गिहवासे अणवजे परिआए १३, बहुसाहारणा गिहीणं कामभोगा १४, पत्तेअं पुण्णपावं १५, अणिञ्चे खलु भो! मणुआण जीविए कुसग्गजलबिंदुचंचले १६, बहुं च खलु भो! पावं कर्म पगडं १७, पावाणं च खलु भो! कडाणं कम्माणं पुटिव दुच्चिन्नाणं दुप्पडिकंताणं वेइत्ता मुक्खो, नत्थि अवेइत्ता, तवसा वा झोसइत्ता १८ । अट्ठारसमं पयं भवइ ।
भवइ अ इत्थ सिलोगो'इह खलु भोः प्रबजितेन' इहेति जिनप्रवचने खलुशब्दोऽवधारणे स च भिन्नक्रम इति दर्शयिष्यामः, भो|
दीप
22%
%
अनुक्रम [५०६]
२७१॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सत्राका
इत्यामश्रणे, प्रबजितेन-साधुना, किंविशिष्टेनेस्याह-उत्पन्नदुःखेन' संजातशीतादिशारीरखीनिषद्यादिमानसदुःखेन 'संयमें व्यावर्णितखरूपे 'अरतिसमापन्नचित्तेन उद्वेगगताभिप्रायेण संयमनिर्विण्णभावेनेत्यर्थः, स एवं विशेष्यते-'अवधानोत्प्रेक्षिणा' अवधानम्-अपसरणं संयमादुत्-प्राबल्येन प्रेक्षितुं शीलं यस्य स तथाविधस्तेन, उत्पत्रजितुकामेनेति भावः, 'अनवधावितेनैव' अनुत्मबजितेनैव 'अमूनि वक्ष्यमाणलक्षणान्यष्टादश स्थानानि 'सम्यम्' भावसारं 'मुष्ठ प्रेक्षितव्यानि' सुष्टालोचनीयानि भवन्तीति योगः, अवधावितस्य तु प्रत्युपेक्षणं प्रायोऽनर्थकमिति । तान्येव विशेष्यन्ते-हयरश्मिगजाङ्कशपोतपताकाभूतानि' अश्वखलिनगजाकुशवोहित्यसितपटतुल्यानि, एतदुक्तं भवति-यथा हयादीनामुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां रइम्यादयो नियमनहेतवस्तथैतान्यपि संयमादुन्मार्गप्रवृत्तिकामानां भव्यसत्त्वानामिति, यतश्चैवमतः सम्यक संप्रत्युपेलक्षितव्यानि भवन्ति, खलुशब्दोऽवधारणे, योगात्सम्यक-सम्यगेव संप्रत्युपेक्षितव्यान्येवेत्यर्थः 'तय-13
त्यादि, तद्यथेत्युपन्यासार्थः, 'हंभो दुष्षमायां दुष्पजीविन' इति हंभो-शिष्यामनणे दुष्षमायाम्-अधमकालाख्यायां कालदोषादेव दुःखेन-कृच्छ्रेण प्रकर्षणोदारभोगापेक्षया जीवितुं शीला दुष्पजीविना, प्राणिन इति गम्यते, नरेन्द्रादीनामप्यनेकदुःखप्रयोगदर्शनात्, उदारभोगरहितेन च विडम्बनाप्रायेण कुगतिहेतुना किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति प्रथम स्थानम् १ तथा 'लघव इत्वरा गृहिणां कामभोगा, दुष्षमायामिति वर्तते, सन्तोऽपि 'लघव' तुच्छाः प्रकृत्यैव तुषमुष्टिवदसाराः 'इत्वरा' अल्पकाला: 'गृहिणां' गृह
दीप
44*
अनुक्रम [५०६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सत्राका
दशवैका० स्थानां 'कामभोगा' मदनकामप्रधानाः शब्दादयो विषया विपाककटवश्च, न देवानामिव विपरीताः, अतः १ रतिवाहारि-वृत्तिः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति द्वितीयं स्थानम् २ । तथा 'भूयश्च स्वातिबहुला मनुष्याः दुष्षमाया-क्यचूला.
मिति वर्तत एव, पुनश्च 'स्वातिबहुला' मायाप्रचुरा 'मनुध्या' इति प्राणिनो, न कदाचिद्विम्भहेतवोऽमी, ॥ २७ ॥
तद्रहितानां च कीहक्सुखं ?, तथा मायावन्धहेतुत्वेन दारुणतरो बन्ध इति किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति तृतीय स्थान ३ तथा 'इदं च मे दुःखं न चिरकालोपस्थायि भविष्यति' 'इदं च अनुभूयमानं मम श्रामण्यमनुपालयतो 'दुःखं' शारीरमानसं कर्मफलं परीपहजनितं न चिरकालमुपस्थातुं शीलं भविष्यति श्रामण्यपालनेन परीषहनिराकृतेः कर्मनिर्जरणात्संयमराज्यप्राप्तेः, इतरथा महानरकादौ विपर्ययः, अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति चतुर्थ स्थानं ४। तथा 'ओमजणपुरस्कार मिति न्यूनजनपूजा, प्रबजितो हि धर्मप्रभावाद्राजामात्यादिभिरभ्युत्थानासनाञ्जलिप्रग्रहादिभिः पूज्यते, उत्प्रवृजितेन तु न्यूनजनस्थापि स्वव्यसनगुप्तयेऽभ्युत्थानादि कार्यम् , अधार्मिकराजविषये वा वेष्टिप्रयोक्तुः खरकर्मणो नियमत एव इहैवेदमधर्मफलम् अतः किं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति पञ्चमं स्थानम् ५। एवं सर्वत्र क्रिया योजनीया, तथा 'वान्तस्य प्रत्यापान' भुक्तोज्झितपरिभोग इत्यर्थः, अयं च श्वशृगालादिक्षुद्रसत्वाचरितः सतां निन्द्यो: व्याधिदुःखजनका, वान्ताच भोगाः प्रवज्याङ्गीकरणेन, एतत्प्रत्यापानमप्येवं चिन्तनीयमिति षष्ठं स्थानम् ६ ॥२७२।। तथा 'अधरगतिवासोपसंपत्' अधो(धर)गतिः-नरकतिर्यग्गतिस्तस्यां वसनमधोगतिवासः, एतनिमित्तभूतं कमें
दीप
अनुक्रम [५०६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सत्राका
गृह्यते, तस्योपसंपत्-सामीप्येनाङ्गीकरणं यदेतदुत्पनजनम् , एवं चिन्तनीयमिति सप्तमं स्थानं ७ । तथा 'दुलेभः खलु भो! गृहिणां धर्म' इति प्रमादबहुलवाहुर्लभ एव 'भो' इत्यामन्त्रणे गृहस्थानां परमनिवृतिजनको धर्मः, किंविशिष्टानामित्याह-'गृहपाशमध्ये वसता'मित्यत्र गृहशब्देन पाशकल्पाः पुत्रकलत्रादयो गृह्यन्ते, तन्मध्ये बसताम् , अनादिभवाभ्यासादकारणं नेहवन्धनम्, एतचिन्तनीयमित्यष्टमं स्थानं ८ तथा 'आतकस्तस्य वधाय भवति' 'आतङ्क' सद्योघाती विचिकादिरोगः 'तस्य' गृहिणो धर्मबन्धुरहितस्य 'वधाय' विनाशाय भवति, तथा बधश्चानेकवधहेतः, एवं चिन्तनीयमिति नवमं स्थानं ९ तथा 'संकल्पस्तस्य वधाय भ-13 वति 'संकल्प' इष्टानिष्टवियोगमासिजो मानस आतङ्का, 'तस्य गृहिणस्तथा चेष्टायोगान्मिध्याचिकल्पाभ्यासेन |ग्रहादिप्रावधाय भवति, एतचिन्तनीयमिति दशमं स्थानं १० तथा 'सोपक्लेशो गृहिवास' इति सहोपक्लेशैः कासोपफ्लेशो गृहिवासो-गृहाश्रमः, उपक्लेशा-ऋषिपाशुपाल्यवाणिज्यायनुष्ठानानुगताः पण्डितजनगर्हिताः
शीतोष्णश्रमादयो घृतलवणचिन्तादयश्चेति, एवं चिन्तनीयमित्येकादशं स्थानं ११ । तथा 'निरुपक्लेशा पर्याय इति, एभिरेवोपक्लेशै रहितः प्रवज्यापर्यायः, अनारम्भी कुचिन्तापरिवर्जितः श्लाघनीयो विदुषामिस्येवं चिन्तनीयमिति द्वादशं स्थानं १२ तथा 'बन्धो गृहवासा सदा तद्देखनुष्ठानात्, कोशकारकीटवदिति, एतथि-| न्तनीयमिति त्रयोदशं स्थानं १३ तथा 'मोक्षः पर्याय अनवरतं कर्मनिगडषिगमान्मुक्तवदित्येवं चिन्तनी-I& यमिति चतुर्वेशं स्थानम् १४ । अत एव 'सावधो गृहवास' इति सावधा-सपापः प्राणातिपातमृषावादादि
54564565555
दीप
अनुक्रम [५०६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत
सत्राक
दशवैका०प्रवृत्तरेतचिन्तनीयमिति पञ्चदशं स्थानम् १५॥ एवम् 'अनवद्यः पर्याय' इति अपाप इत्यर्थः, अहिंसादिपाल-दरतिवाहारि-वृत्तिः नात्मकत्वाद, एतचिन्तनीयमिति षोडशं स्थानं १६ । तथा 'बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा' इति बहसा-II
क्यचूडा० ॥२७॥
धारणा:-चीरराजकुलादिसामान्या 'गृहिणां' गृहस्थानां कामभोगा: पूर्ववदिति, एतचिन्तनीयमिति सप्त-18 दशं स्थानं १७। तथा 'प्रत्येक पुण्यपाप मिति मातापितृकलत्रादिनिमित्तमप्यनुष्ठितं पुण्यपापं 'प्रत्येकं प्रत्येक' ४ा पृथक पृथक येनानुष्ठितं तस्य कर्तुरेवैतदिति भावार्थः, एवमष्टादशं स्थानम् १८ । एतदन्तर्गतो वृद्धाभिमा-1 येण शेषग्रन्थः समस्तोऽत्रैव, अन्ये तु व्याचक्षते-सोपक्लेशो गृहिवास इत्यादिषु षट्सु स्थानेषु सप्रतिपक्षेषु स्थानत्रयं गृह्यते, एवं च बहुसाधारणा गृहिणां कामभोगा इति चतुर्दशं स्थानम् १४, प्रत्येकं पुण्यपापमिति पञ्चदशं स्थानम् १५, शेषाण्यभिधीयन्ते, तथा 'अनित्यं खलु' अनित्यमेव नियमतः भो इत्यामन्त्रणे 'मनुष्याणां' पुंसां 'जीवितम् आयुः, एतदेव विशेष्यते-कुशाग्रजलबिन्दुचञ्चलं सोपक्रमस्वादनेकोपद्रवविषयवादत्यन्तासारं, तदलं गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति षोडशं स्थानं १६, तथा 'बहुं च खलु भोः! पापं कर्म प्रकृतम्' बहु च चशब्दात् क्लिष्टं च खलुशब्दोऽवधारणे बढेव पापं कर्म-चारित्रमोहनीयादि 'प्रकृतं निवर्तितं, मयेति गम्यते, श्रामण्यप्राप्तावप्येवं क्षुद्रबुद्धिप्रवृत्तः, नहि प्रभूतक्लिष्टकर्मरहितानामेवमकुशला बुद्धिर्भवति, अतो न किञ्चित् गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति सप्तदर्श स्थानं १७, तथा 'पापानां चेत्यादि, 'पापानां च' अपुण्यरूपाणां चशब्दात्पुण्यरूपाणां च 'खलु भोः कृतानां कर्मणां खलुशब्दः कारितानुमत
दीप
अनुक्रम [५०६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
~557~
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||-II, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
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प्रत
सत्राका
ACANCCESCOCEX
विशेषणार्थः, भो इति शिष्यामन्त्रणे, 'कृतानां मनोवाकाययोगैरोघतो निर्वतितानां 'कर्मणां' ज्ञानावरणी-1 यावसातवेदनीयादीनां 'पाक' पूर्वमन्यजन्मसु 'दुश्चरितानां प्रमादकषायजदुश्चरितजनितानि दुश्चरितानि, कारणे कार्योपचारात्, दुश्चरितहेतूनि वा दुश्चरितानि, कार्य कारणोपचारात्, एवं 'दुष्पराकान्तानां मिथ्यादर्शनाविरतिजदुष्पराक्रान्तजनितानि दुष्पराक्रान्तानि, हेतौ फलोपचारात्, दुष्पराक्रान्तहेतूनि वा दुष्परा-13 क्रान्तानि, फले हेतूपचारात् , इह च दुचरितानि मद्यपानाश्लीलानृतभाषणादीनि, दुष्पराक्रान्तानि वधवधनादीनि, तदमीषामेवभूतानां कर्मणां 'वेदायित्वा' अनुभूय, फलमिति वाक्यशेषः, किम् ?–'मोक्षो भवति । प्रधानपुरुषार्थों भवति 'नास्त्यवेदायित्वा' न भवत्यननुभूय, अनेन सकर्मकमोक्षव्यवच्छेदमाह, इष्यते च खल्प-13 कोपेतानां कैश्चित्सहकारिनिरोधतस्तत्फलादानवादिभिस्तत्, तदपि नास्त्ययेदयित्वा मोक्षा, तथारूपत्त्वात् कर्मणः, स्वफलादाने कर्मत्वायोगात्, 'तपसा वा क्षपयित्वा' अनशनप्रायश्चित्तादिना वा विशिष्टक्षायोपशमिकशुभभावरूपेण तपसा प्रलयं नीखा, इह च वेदनमुदयप्राप्तस्य व्याघेरिवानारब्धोपक्रमस्य क्रमशः, अन्या-18 निबन्धनपरिक्लेशेन, तपाक्षपणं तु सम्यगुपक्रमेणानुदीर्णोदीरणदोषक्षपणवदन्यनिमित्तप्रक्रमेणापरिक्लेशमिति, अतस्तपोऽनुष्ठानमेव श्रेय इति न किंचिद्गृहाश्रमेणेति संप्रत्युपेक्षितव्यमिति 'अष्टादशं पदं भवति' अष्टादशं स्थानं भवति १८ । 'भवति चात्र श्लोका' अत्रेत्यष्टादशस्थानार्थव्यतिकरे, उक्तानुक्तार्थसंग्रहपर इत्यर्थः, श्लोक इति च जातिपरो निर्देशः, ततः श्लोकजातिरनेकभेदा भवतीति प्रभूतश्लोकोपन्यासेऽपि न विरोधः ।।
दीप
अनुक्रम [५०६]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१...], / गाथा ||१-८||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
दशवैका. हारि-वृत्तिः
प्रत सूत्रांक ||१८||
*5453454643
॥२७४॥
जया य चयई धम्म, अणज्जो भोगकारणा । से तत्थ मुच्छिए बाले, आयई नावबु
१रतिवाज्झइ ॥१॥ जया ओहाविओ होइ, इंदो वा पडिओ छमं । सव्वधम्मपरिब्भट्ठो,
क्यचूला. स पच्छा परितप्पइ ॥२॥ जया अ वंदिमो होइ, पच्छा होइ अवंदिमो । देवया व चुआ ठाणा, स पच्छा परितप्पइ ॥३॥ जया अपूइमो होइ, पच्छा होइ अपूइमो। राया व रजपब्भट्ठो, स पच्छा परितप्पइ ॥४॥ जया अ माणिमो होइ, पच्छा होइ अमाणिमो । सिद्धि व्व कब्बडे छुढो, स पच्छा परितप्पइ ॥ ५॥ जया अ थेरओ होइ, समइकंतजुव्वणो । मच्छु व्व गलं गिलित्ता, स पच्छा परितप्पड़ ॥६॥ जया अ कुकुडुंबस्स, कुतत्तीहिं विहम्मइ । हत्थी व बंधणे बद्धो, स पच्छा परितप्पइ ॥७॥ पुत्तदारपरीकिण्णो, मोहसंताणसंतओ। पंकोसन्नो जहा नागो,
स पच्छा परितप्पड़ ॥ ८॥ यदा चैवमप्यष्टादशसु ग्यावर्त्तनकारणेषु सत्खपि 'जहाति' त्यजति 'धर्म' चारित्रलक्षणम् 'अनार्य' इत्य-18
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दीप अनुक्रम [५०७-५१४]
WI॥२४॥
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१...], / गाथा ||१-८||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||१८||
भनार्य इवानार्यो-म्लेच्छचेष्टितः, किमर्थमित्याह-भोगकारणात् शब्दादिभोगनिमित्तं 'स' धर्मत्यागी तत्र
तेषु भोगेषु 'मूच्छितो' गृद्धो 'बाला' मन्दः 'आयतिम् आगामिकालं 'नाववुद्ध्यते' न सम्यगवगच्छतीति मू
वार्थः ॥१॥ एतदेव दर्शयति-यदा 'अवधाचितः' अपमृतो भवति संयमसुखविभूतेः, उत्पबजित इत्यर्थः, माइन्द्रो वेति देवराज इव 'पतितः क्षमा मां गतः, खविभवभ्रंशेन भूमी पतित इति भावः, मा-भूमिः ।। 'सर्वधर्मपरिभ्रष्टा' सर्वधर्मेभ्य:-क्षान्त्यादिभ्य आसेवितेभ्योऽपि यावत्प्रतिज्ञमननुपालनात् लौकिकेभ्योऽपि वा गौरवादिभ्यः परिभ्रष्ट:-सर्वतश्युतः, स पतितो भूत्वा 'पश्चात्' मनाग मोहावसाने 'परितप्यते' किमिदमकार्य मयाऽनुष्ठितमित्यनुतापं करोतीति सूत्रार्थः॥२॥ यदा च वन्द्यो भवति श्रमणपर्यायस्थो नरेन्द्रा-12 कादीनां पश्चाद्भवत्युनिष्क्रान्तः सन्नवन्धः तदा देवतेव काचिदिन्द्रवर्जा स्थानच्युता सती स पश्चास्परितप्यत:
इत्येतत्पूर्वेचदेवेति सूत्रार्थः ॥ ३॥ तथा यदा च पूज्यो भवति-वनभक्तादिभिः श्रामण्यसामथ्योल्लोकानां पश्चाद्भवत्युत्प्रवजितः सन्मपूज्यो लोकानामेव तदा राजेच राज्यप्रनष्टः महतो भोगाद्विपमुक्तः स पश्चास्परितप्यत इति पूर्ववदेवेति सूत्रार्थः ॥ ४॥ यदा च मान्यो भवत्यभ्युत्थानाज्ञाकरणादिना माननीयः शीलप्रभावेण पश्चाद्भवत्यमान्यस्तत्परित्यागेन तदा श्रेष्ठीव 'कटे' महाक्षुद्रसंनिवेशे क्षिप्तः सन्, पश्चात्परितप्यत इत्येतत्समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः ॥५॥ यदा च स्थविरो भवति स त्यक्तसंयमो वयापरिणामेन, एत|द्विशेषप्रतिपादनायाह-समतिक्रान्तयौवना, एकान्तस्थविर इति भावः, तदा विपाककटुकवादोगानां मत्स्य
दीप अनुक्रम [५०७-५१४]
8454643
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
।।१-८||
दीप
अनुक्रम [५०७
-५१४]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २७५ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः
चूलिका [१], मूलं [१...], / गाथा ||१-८ ||,
:+|भाष्य|+वृत्तिः)
निर्युक्ति: [ ३६७...], भाष्यं [६२...]
इव 'गलं' पडिशं 'गिलित्वा' अभिगृण तथाविधकर्म लोहकण्टकविद्धः सन् स पश्चात्परितप्यत इत्येतदपि समानं पूर्वेणेति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ एतदेव स्पष्टयति-यदा च 'कुक्कुटुम्बस्य' कुत्सितकुटुम्बस्य कुतप्तिभिः-कुत्सितचिन्ताभिरात्मनः संतापकारिणीभिर्विहन्यते विषयभोगान् प्रति विघातं नीयते तदा स मुक्तसंयमः सन् परितप्यते पश्चात् क इव ? - यथा हस्ती कुकुडुम्बबन्धनबद्धः परितप्यते ॥ ७ ॥ एतदेव स्पष्टयति- 'पुत्रदारपरिकीण' विषयसेवनात्पुत्रकलत्रादिभिः सर्वतो विक्षिप्तः 'मोहसंतान संततो' दर्शनादिमोहनीयकर्मप्रवाहेण व्यासः, क इव - 'पङ्कावसन्नो नागो यथा कर्दमावमग्नो वनगज इव स पश्चात्परितप्यते- हा हा किं मयेदमसमञ्जसमनुष्ठितमिति सूत्रार्थः ॥ ८ ॥
अज्ज आहं गणी हुंतो, भाविअप्पा बहुस्सुओ । जइऽहं रमंतो परिआए, सामण्णे जिणदेसिए ॥ ९ ॥ देवलोगसमाणो अ, परिआओ महेसिणं । रयाणं अरयाणं च, महानरयसारिसो ॥ १० ॥ अमरोवमं जाणिअ सुक्खमुत्तमं रयाण परिआइ तहारयाणं । निरओवमं जाणिअ दुक्खमुत्तमं रमिज तम्हा परिआइ पंडिए ॥ ११ ॥ - माउ भट्ट सिरिओ अवेयं, जन्नग्गिविज्झाअभिवऽप्पतेअं । हीलंति णं दुव्विहिअं
~ 561~
१ रतिवा
क्यचूला०
॥ २७५ ॥
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१..], / गाथा ||९-१४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||९-१४||
कुसीला, दाढहि घोरबिसं व नागं ॥ १२ ॥ इहेवऽधम्मो अयसो अकित्ती, दुन्नामधिजं च पिहुजणंमि । चुअस्स धम्माउ अहम्मसेविणो, संभिन्नवित्तस्स य हिट्रओ गई ॥ १३ ॥ भुंजिनु भोगाई पसज्झचेअसा, तहाविहं कडु असंजमं बहुं । गई च
गच्छे अणभिज्झिअं दुहं, बोही अ से नो सुलहा पुणो पुणो ॥१४॥ कश्चित् सचेतनतर एवं च परितप्यत इत्याह-'अव तावदहम्' अद्य-अस्मिन् दिवसे अहमित्यात्मनिर्देशे गणी स्याम्-आचार्यों भवेयम् “भावितात्मा' प्रशस्तयोगभावनाभिः 'बहुश्रुत उभयलोकहितवहागमयुक्ता,
यदि किं स्थादित्यत आह-ययहम् 'अरमिष्यं रतिमकरिष्यं 'पर्यायें प्रव्रज्यारूपे, सोऽनेकभेद इत्याहIMI श्रामण्ये श्रमणानां संबन्धिनि, सोऽपि शाक्यादिभेदभिन्न इत्याह-'जिनदेशिते' निर्ग्रन्थसंबन्धिनीति
सूत्रार्थः ॥९॥ अवधानोत्प्रेक्षिणः स्थिरीकरणार्थमाह-देवलोकसमानस्तु देवलोकसदृश एवं 'पर्याय प्रत्रज्यारूप: 'महर्षीणां सुसाधूनां 'रताना सक्तानां, पर्याय एवेति गम्यते, एतदुक्तं भवति-पथा देवलोके देवाः प्रेक्षणकादिव्यापृता अदीनमनसस्तिष्ठन्त्येवं सुसाधवोऽपि ततोऽधिकं भावतः प्रत्युपेक्षणादिक्रियायां व्यापूताः, उपादेयविशेषत्वात् प्रत्युपेक्षणादेरिति देवलोकसमान एव पर्यायो महर्षीणां रतानामिति । 'अरतानां च भावतः सामाचार्यामसक्तानां च, चशब्दाद्विषयाभिलाषिणां च भगवल्लिङ्गविडम्बकानां क्षुद्रस
दीप अनुक्रम [५१५-५२०]
ESSAGAR
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
॥९-१४||
दीप
अनुक्रम [५१५
-५२०]
दशवैका ० हारि-वृत्तिः
॥ २७६ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+भाष्य|+वृत्ति:) चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||९-१४ ||, निर्युक्ति: [ ३६७...], भाष्यं [६२...]
स्वानां 'महानरकसदृशो' रौरवादितुल्यस्तत्कारणत्वान्मानसदुःखातिरेकात् तथा विडम्बनाचेति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ एतदुपसंहारेणैव निगमयन्नाह - 'अमरोपमम्' उक्तन्यायाद्देवसदृशं 'ज्ञात्वा' विज्ञाय 'सौख्यमुत्तमं | प्रशमसौख्यं, केषामित्याह - 'रतानां पर्याये' सक्तानां सम्यक्प्रत्युपेक्षणादिक्रियाव्यये श्रामण्ये, तथा अरतानां पर्याय एव, किमित्याह - 'नरकोपमं' नरकतुल्यं ज्ञात्वा दुःखम् 'उत्तमं प्रधानमुक्तन्यायात्, यस्मादेवं रतारतविपाकस्तस्माद् 'रमेत' सतिं कुर्यात्, केत्याह- 'पर्याये' उक्तखरूपे 'पण्डितः' शास्त्रार्थज्ञ इति सूत्रार्थः | ॥ २१ ॥ पर्यायच्युतस्यैहिकं दोषमाह - 'धर्मात्' श्रमणधर्माद् 'भ्रष्ट' च्युतं श्रियोऽपेतं' तपोलक्ष्म्या अपगतं 'यज्ञाग्निम्' अग्निष्टोमायनलं विध्यातभित्र यागावसानेऽल्पतेजसम् अल्पशब्दोऽभावे, तेजः शून्यं भस्मकल्पमित्यर्थः 'हीलयन्ति' कदर्थयन्ति, पतितस्त्वमिति पङ्कयपसारणादिना 'एनम्' उन्निष्क्रान्तं 'दुर्विहितम्' उन्निष्क्रमणादेव दुष्टानुष्ठायिनं 'कुशीलाः' तत्सङ्कोचिता लोकाः, स एवं विशेष्यते- 'दादुहिअं'ति प्राकृत शैल्या उद्धृतदंष्ट्रम् उत्खातदंष्ट्रं 'घोरविषमिव' रौद्रविषमिव 'नाग' सर्प, यज्ञाग्रिसपपमानं, लोकनीत्या प्रधानभावादप्रधानभावख्यापनार्थमिति सूत्रार्थः ॥ १२ ॥ एवमस्य भ्रष्टशीलस्यौघत ऐहिकं दोषमभिधायैहिकामुष्मिकमाह- 'इहैव' इहलोक एव 'अधर्म' इत्ययमधर्मः, फलेन दर्शयति-यदुत 'अयशः' अपराक्रमकृतं न्यूनत्वं तथा 'अकीर्त्तिः' अदानपुण्यफलप्रवादरूपा तथा 'दुर्नामधेयं च' पुराणः पतित इति कुत्सितनामधेयं च भवति, केत्याह - 'पृथग्जने' सामान्यलोकेऽप्यास्तां विशिष्टलोके, कस्येत्याह- 'च्युतस्य धर्माद् उ
१ रतिवाक्यचूला०
~ 563~
॥ २७६ ॥
For P&Personally
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:) ___ चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||९-१४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||९-१४||
मात्प्रवजितस्येत्यर्थः, तथा 'अधर्मसेविनः' कलत्रादिनिमित्तं षट्कायोपमईकारिणः, तथा 'संभिन्नवृत्तस्य च
अखण्डनीयखण्डितचारित्रस्य च क्लिष्टकर्मवन्धाद् 'अधस्ताद्गतिः' नरकेधूपपात इति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ अस्यैव विशेषप्रत्यपायमाह-स' उत्प्रवजितो भुक्त्वा "भोगान्' शब्दादीन् 'प्रसह्यचेतसा धर्मनिरपेक्षतया प्रकटेन चित्तेन तथाविधम् अज्ञोचितमधर्मफलं 'कृत्वा' अभिनिवर्त्य 'असंयम कृष्याद्यारम्भरूपं 'बहुम्' असंतोपात्प्रभूतं स इत्थंभूतो मृतः सन् गतिं च गच्छति 'अनभिध्याताम्' अभिध्याता-इष्टा न तामनिष्टामित्यर्थः, काचित्सुखाऽप्येवंभूता भवत्यत आह–'दुःखां प्रकृत्यैवासुन्दरां दुःखजननी, 'बोधिश्वास्य' जिनधर्मप्राप्तिश्चायोनिष्क्रान्तस्य न सुलभा 'पुनः पुनः' प्रभूतेष्वपि जन्मसु दुर्लभैव, प्रवचनविराधकत्वादिति सूत्रार्थः ॥१४॥
इमस्स ता नेरइअस्स जंतुणो, दुहोवणीअस्स किलेसवत्तिणो । पलिओवमं झिज्झइ सागरोवमं, किमंग पुण मज्झ इमं मणोदुहं ? ॥ १५॥ न मे चिरं दुक्खमिणं भविस्सइ, असासया भोगपिवास जंतुणो। न चे सरीरेण इमेणऽविस्सइ, अविस्सई जीविअपज्जवेण मे ॥ १६ ॥ जस्सेवमप्पा उ हविज निच्छिओ, चइज देहं न हु धम्मसासणं । तं तारिसं नो पइलंति इंदिआ, उविंतवाया व सुदंसणं गिरिं ॥ १७ ॥
दीप अनुक्रम [५१५-५२०]
दश०४७
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||१५-१८||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६२...]
(४२)
|१ रतिवाक्यचूला
प्रत
दशवैका हारि-वृत्तिः ॥२७७॥
सूत्रांक
-१८||
इच्चेव संपस्सिअ बुद्धिमं नरो, आयं उवायं विविहं विआणिआ । कारण वाया अदु माणसेणं, तिगुत्तिगुत्तो जिणवयणमहिट्ठिजासि ॥ १८॥ त्ति बेमि ॥ रइवक्का पढमा
चूला समत्ता ॥१॥ यस्मादेवं तस्मादुत्पन्नदुःखोऽप्येतदनुचिन्त्य नोत्पबजेदित्याह-'अस्य ताव'दित्यात्मन एव निर्देशः, 'नारकस्य जन्तोः' नरकमनुप्राप्तस्येत्यर्थः 'दुःखोपनीतस्य सामीप्येन प्राप्तदुःखस्य 'क्लेशवृत्तेः' एकान्तक्लेशचेष्टितस्य |सतो नरक एच पल्योपमं क्षीयते सागरोपमं च यथाकर्मप्रत्ययं, किमङ्ग पुनर्ममेदं संयमारतिनिष्पन्नं मनोदुःखं तथाविधक्लेशदोषरहितम्?, एतत्क्षीयत एव, एतचिन्तनेन नोत्प्रवजितव्यमिति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ विशेषेणैतदेवाह-न मम 'चिरं' प्रभूतकालं 'दुःखमिदं संयमारतिलक्षणं भविष्यति, किमित्यत आह–'अशाश्वती' मायो यौवनकालावस्थायिनी 'भोगपिपासा' विषयतृष्णा 'जन्तोः पाणिनः, अशाश्वतीत्व एव कारणान्तरमाह-'न चेच्छरीरेणानेनापयास्यति' न यदि शरीरेणानेन करणभूतेन वृद्धस्यापि सतोऽपयास्यति, तथापि किमाकुलत्वम् ?, यतोऽपयास्यति 'जीवितपर्ययेण' जीवितस्थापगमेन-मरणेनेत्येवं निश्चितः स्यादिति सूत्रा) ॥१६॥ अस्यैव फलमाह-'तस्येति साधोः 'एवम् उक्तेन, "आत्मा तुतुशब्दस्यैवकारार्थत्वात् आत्मैव भवेत् 'निश्चितो' दृढः यः स त्यजेद्देहं कचिद्विघ्न उपस्थिते, 'न तु धर्मशासनं न पुनर्धर्माज्ञामिति, तं 'तादृशं
दीप
अनुक्रम [५२१-५२४]
॥२७७ ।।
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्तिः )
चूलिका [१], मूलं [१], / गाथा ||१५-१८||, नियुक्ति: [३६७...', भाष्यं [६२...]
(४२)
प्रत सूत्रांक
||१५
धर्मे निश्चितं 'न प्रचालयन्ति' संयमस्थानान्न कम्पयन्ति 'इन्द्रियाणि' चक्षुरादीनि । निदर्शनमाह-उत्पत
द्वाता इव' संपतत्पवना इव 'सुदर्शनं गिरि मेरुम् , एतदुक्तं भवति-यथा मेरुं न वाताश्चालयन्ति तथा तम-11 नापीन्द्रियाणीति सूत्रार्थः ॥ १७॥ उपसंहरन्नाह 'इत्येवम् अध्ययनोक्तं दुष्पजीवित्वादि 'संप्रेक्ष्य' आदित
आरभ्य यथावद्दष्टा 'बुद्धिमान सम्यग बुद्ध्यपेतः 'आयमुपायं विविध विज्ञाय आयः सम्यग्ज्ञानादेः उपायः-तत्साधनप्रकार: कालविनयादिर्विविधः-अनेकप्रकारस्तं ज्ञात्वा, किमित्याह-कायेन वाचाऽथ मनसा-त्रिभिरपि करणैर्यथाप्रवृत्तैत्रिगुसिगुप्तः सन् 'जिनवचनम् अहंदुपदेशम् 'अधितिष्ठेत्' यथाशक्त्या तदुक्तैकक्रियापालनपरो भूयात, भावापसिद्धी तत्वतो मुक्तिसिद्धेः । ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १८॥ उक्तोऽनुगमः साम्प्रतं नयाः, ते च पूर्ववदेव । समाप्तं रतिवाक्याध्ययनमिति ॥१॥
॥ इति श्रीदशवकालिके श्रीहरिभद्रसूरिविरचितबृहद्वृत्त्यां प्रथमा चूलिका ॥१॥
-१८||
MARRESEARCASSA
दीप
--000OORN
अथ द्वितीया चूलिका।
अनुक्रम [५२१-५२४]
व्याख्यातं प्रथमचूडाध्ययनम् , अधुना द्वितीयमारभ्यते, अस्य चौघतः संवन्धः प्रतिपादित एव, विशेषतस्त्वनन्तराध्ययने सीदतः स्थिरीकरणमुक्तम् , इह तु विविक्तचर्योच्यत इत्ययमभिसंबन्धः, एतदेवाह भाष्यकार:
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
चूलिका -२- "विविक्तचर्या" आरभ्यते
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्तिः ) ___ चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१-४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६३]
(४२)
दशवैका० हारि-वृत्तिः
दल
॥२७८॥
प्रत सूत्रांक ||१-४||
अहिगारो पुरुबुत्तो चाउन्विहो बिइअलिअज्झयणे । सेसाणं दाराणं अहम फासणा होइ ॥ ६३ ॥ (भाष्यम् ) २ विविक्त'अधिकार'-ओघतः प्रपश्चप्रस्तावरूपः 'पूर्वोक्तो' रतिवाक्यचूडायां प्रतिपादितः 'चतुर्विधों' नामचूडा स्थाप- चर्याचला नाचूडेत्यादिरूपो यथा द्वितीयचूलाध्ययने आदानपदेन चूलिकाख्येन, सानुयोगबारोपन्यासस्तथैव वक्तव्य & इति वाक्यशेषः 'शेषाणां द्वाराणा' सूत्रालापकगतनिक्षेपादीनां 'यथाक्रमं यथाप्रस्तावं स्पर्शना-ईषद् ब्याख्यादिरूपा भवतीति गाथार्थः ॥ अनच व्यतिकरे सूत्रानुगमेऽस्खलितादिगुणोपेतं सूत्रमुचारणीयं, तच्चेदम्
चूलिअं तु पवक्खामि, सुअं केवलिभासि। जं सुणित्तु सुपुण्णाणं, धम्मे उप्पज्जए मई॥१॥ अणुसोअपट्टिअबहुजणंमि, पडिसोअलद्धलक्खेणं । पडिसोअमेव अप्पा, दायव्वो होउकामेणं ॥२॥ अणुसोअसुहो लोओ, पडिसोओ आसवो सुविहिआणं। अणुसोओ संसारो, पडिसोओ तस्स उत्तारो॥३॥ तम्हा आयारपरकमेणं संवर
समाहिबहलेणं । चरिआ गुणा अ नियमा अ इंति साहूण दट्टव्वा ॥४॥ 'चुडां तु प्रवक्ष्यामि चूडां प्राग्व्यावर्णितशब्दार्थी तुशब्दविशेषितां भावचूडां प्रवक्ष्यामीति-प्रकर्षणाव-18 सरप्राप्ताभिधानलक्षणेन कथयामि, 'श्रुतं केवलिभाषित मिति इयं हि चूडा'श्रुतं' श्रुतज्ञानं वत्तेते, कारणे|BI॥२७॥ कार्योपचारात्, एतच केवलिभाषितम्-अनन्तरमेव केवलिना प्ररूपितमिति सफलं विशेषणम् । एवं च वृ
दीप अनुक्रम [५२५-५२८]
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Eram.
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१-४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६३...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||१-४||
द्धवाद:-कयाचिदार्ययाऽसहिष्णुः कुरगडुकमायः संयतश्चातुर्मासिकादावुपवासं कारितः, स तदाराधनया मृत एव, ऋषिघातिकाऽहमित्युद्विग्ना सा तीर्थकरं पृच्छामीति गुणावर्जितदेवतया नीता श्रीसीमन्धरस्वामिसमीपं, पृष्टो भगवान् , अदुष्टचित्ताऽघातिकेत्यभिधाय भगवतेमां चूडां ग्राहितेति । इदमेव विशेष्यते-'य
छुत्वे ति यच्छ्रुत्वाऽऽकार्य 'सुपुण्यानां कुशलानुबन्धिपुण्ययुक्तानां प्राणिनां 'धर्म' अचिन्त्यचिन्तामणिककल्पे चारित्रधर्मे 'उत्पद्यते मतिः' संजायते भावतः श्रद्धा । अनेन चारित्रं चारित्रवीजं चोपजायत इत्येतदुक्तं
भवतीति सूत्रार्थः ॥ १॥ एतद्धि प्रतिज्ञासूत्रम्, इह चाध्ययने चर्यागुणा अभिधेयाः, तत्प्रवृत्तौ मूलपादभूहै तमिदमाह-'अनुस्रोतःपस्थिते' नदीपूरप्रवाहपतितकाष्ठव विषयकुमार्गद्रव्यक्रियानुकूल्येन प्रवृत्ते 'बहुजन
तथाविधाभ्यासात् प्रभूतलोके तथाप्रस्थाने नोदधिगामिनि, किमित्याह-'प्रतिस्रोतोलब्धलक्ष्येण' द्रव्यतस्तस्थामेव नद्यां कथञ्चिद्देवतानियोगात्मतीपस्रोत प्राप्तलक्ष्येण, भावतस्तु विषयादिवपरीत्यात्कथंचिदवाप्तसंयम-2 लक्ष्येण 'प्रतिस्रोत एवं' दुरपाकरणीयमप्यपाकृत्य विषयादि संयमलक्ष्याभिमुखमेव 'आत्मा' जीवो 'दातव्यः
प्रवर्त्तयितव्यो 'भवितुकामेन' संसारसमुद्रपरिहारेण मुक्ततया भवितुकामेन साधुना, न क्षुद्रजनाचरितान्यु-17 ४ादाहरणीकृत्यासन्मार्गप्रवणं चेतोऽपि कर्त्तव्यम्, अपित्वागमैकमवणेनैव भवितव्यमिति, उक्तं च-"निमि-16
तमासाद्य पदेव किश्चन, स्वधर्ममार्ग विसृजन्ति बालिशाः । तपाश्रुतज्ञानधनास्तु साधयो, न यान्ति कृच्छ परमेऽपि विक्रियाम् ॥१॥ तथा-कपालमादाय विपन्नवाससा, वरं द्विषद्वेश्मसमृद्धिरीक्षिता । विहाय लज्जा
दीप
अनुक्रम [५२५-५२८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१-४||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६३...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||१-४||
-56-4-2016
दशकान तु धर्मवैशसे, सुरेन्द्रता(सा)र्थेऽपि समाहितं मनः ॥२॥ तथा-पापं समाचरति वीतघृणो जघन्यः, प्राप्यापदं २ विविक्तहारि-वृत्तिः सघृण एव विमध्यबुद्धिः। प्राणात्ययेऽपि न तु साधुजनः खवृत्तं, वेलां समुद्र इव लवयितुं समर्थः ॥ ३॥" चयोचूला
इत्यलं प्रसनेनेति सूत्रार्थः ॥२॥ अधिकृतमेव स्पष्टयन्नाह–अनुस्रोतःसुखो लोकः' उदकनिम्नाभिसर्पणवत् ॥२७९॥
प्रवृत्त्याऽनुकूलविषयादिसुखो लोका, कर्मगुरुत्वात्, 'प्रतिस्रोत एव' तस्माद्विपरीतः 'आश्रवः' इन्द्रियजया-10 |दिरूपः परमार्थपेशला कायवाङ्मनोव्यापार: 'आश्रमो वा' व्रतग्रहणादिरूपः 'सुविहितानां साधूनाम् , उभ-12 दयफलमाह-'अनुस्रोतः संसार' शब्दादिविषयानुकूल्यं संसार एव, कारणे कार्योपचारात्, यथा विष
मृत्युः दधि त्रपुषी प्रत्यक्षो ज्वरः, 'प्रतिस्रोतः' उक्तलक्षणः, तस्येति पञ्चम्यर्थे षष्ठी 'सुपा सुपो भवन्तीति वच-16 नात्, 'तस्मात् संसाराद् 'उत्तारः' उत्तरणमुत्तारः, हेती फलोपचारात् यथाऽऽयुर्घतं तन्दुलान्वर्षति पर्जन्य इति सूत्रार्थः ॥ ३ ॥ यस्मादेतदेवमनन्तरोदितं तस्मात् 'आचारपराक्रमेणे'त्याचारे-ज्ञानादौ पराक्रमः-प्रवृतिबलं यस्य स तथाविध इति, गमकत्वाहहुव्रीहिः, तेनैवंभूतेन साधुना 'संवरसमाधियाहुलेनेति संवरे-इ४/न्द्रियादिविषये समाधिः-अनाकुलवं बहुलं-प्रभूतं यस्य स इति, समासः पूर्ववत्, तेनैवंविधेन सता अप्रतिपाताय विशुद्धये च, किमित्याह-चर्या' भिक्षुभावसाधनी बाह्याऽनियतवासादिरूपा गुणाच-मूलगुणो-81 त्तरगुणरूपाः नियमाश्च-उत्तरगुणानामेव पिण्डविशुख्यादीनां खकालासेवननियोगाः भवन्ति साधूनां द्रष्टव्या' इत्येते चर्यादयः साधूनां द्रष्टव्या भवन्ति, सम्यग्ज्ञानासेवनप्ररूपणारूपेणेति सूत्रार्थः ॥ ४॥
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दीप अनुक्रम [५२५-५२८]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||५-९||, नियुक्ति: [३६७...], भाष्यं [६३...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५-९||
अनिएअवासो समुआणचारिआ, अन्नायउंछ पइरिक्कया अ । अप्पोवही कलहविवजणा अ, विहारचरिआ इसिणं पसत्था ॥ ५॥ आइन्नओमाणविवजणा अ, ओसनदिट्ठाहडभत्तपाणे । संसटकप्पेण चरिज भिक्स्वू, तजायसंसट्ट जई जइजा ॥ ६॥ अमजमसासि अमच्छरीआ, अभिक्खणं निविगई गया अ । अभिक्खणं काउस्सग्गकारी, सज्झायजोगे पयओ हविजा ॥ ७॥ण पडिन्नविजा सयणासणाई, सिर्ज निसिजं तह भत्तपाणं । गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तभावं न कहिँपि कुज्जा ॥८॥ गिहिणो वेआवडिअं न कुजा, अभिवायणवंदणपूअणं वा । असंकिलिटेहिं
समं वसिज्जा, मुणी चरित्तस्स जओ न हाणी ॥९॥ चर्यामाह-अनियतवासो मासकल्पादिना 'अनिकेतवासो वा' अगृहे-उद्यानादी वासः, तथा 'समुदान|चर्या' अनेकत्र याचितभिक्षाचरणम् 'अज्ञातोञ्छ' विशुद्धोपकरणग्रहणविषय, 'पइरिक्कया य' विजनैकान्तसेविता च 'अल्पोपधित्वम् अनुल्बणयुक्तस्तोकोपधिसेवित्वं 'कलहविवर्जना च' तथा तद्बासिना भण्डनविव
दीप अनुक्रम [५२९-५३३]]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) __ चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||५-९||, नियुक्ति: [३६८], भाष्यं [६३...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५-९||
दशवैकार्जना, विवर्जनं विवर्जना श्रवणकथनादिना परिवर्जनमित्यर्थः। 'विहारचर्या' विहरणस्थितिर्विहरणमर्यादा हयम् विविक्तहारि-वृत्तिःएवंभूता 'ऋषीणां साधूनां प्रशस्ता-व्याक्षेपाभावात् आज्ञापालनेन भावचरणसाधनात्पवित्रेति सूत्रार्थःचोचूला ॥५॥ इयं साधूनां विहारचर्येति सूत्रस्पर्शनमाह
दव्ये सरीरभविओ भावेण व संजओ इहं तस्स । खगहिआ पग्गहिआ विहारचरिमा मुअव्वा ।। ३६८ ॥ साधूनां विहारचर्याऽधिकृतेति साधुरुच्यते, स च द्रव्यतो भावतश्च, तत्र 'द्रव्य इति द्वारपरामर्शः, 'शरीरभव्य' इति मध्यमभेदत्वादागमनोआगमज्ञशरीरभव्यशरीरतद्वयतिरिक्तद्रव्यसाधूपलक्षणमे
तत्, "भावेन चेति द्वारपरामर्शः, स एव 'संयत' इति संयतगुणसंवेदको भावसाधुः । इह' अध्ययने 'तस्य' इभावसाधोः 'अवगृहीता' उद्यानारामादिनिवासायनियता 'प्रगृहीता' तत्रापि विशिष्टाभिग्रहरूपा उत्कटुकासनादिविहारचयों 'मन्तव्या' बोद्धव्येति गाथार्थः ॥ सा चेयमिति सूत्रस्पर्शनाह
अणिए पइरिक अण्णायं सामुआणिों उंछं । अप्पोवही अकलहो विहारचरिआ इसिपसत्था ।। ३६९ ।। XI व्याख्या सूत्रवदवसेया । अवयवाक्रमस्तु गाथाभङ्गभयाद्, अर्थतस्तु सूत्रोपन्यासवद्रष्टव्य इति ॥ 'विहा-3 रचर्या ऋषीणां प्रशस्ते'त्युक्तं तद्विशेषोपदर्शनायाह-'आकीर्णावमानविवर्जना चं' विहारचर्या ऋषीणां प्रशस्तेति, तत्राकीर्ण-राजकुलसंखड्यादि अवमानं-खपक्षपरपक्षमाभूख्य लोकाचहुमानादि, अस्य विवर्जना,
१ कथादिना नि० 1 परिव प्र.
दीप
अनुक्रम [५२९-५३३]]
4-362
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:) ___ चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||५-९||, नियुक्ति: [३६९], भाष्यं [६३...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५-९||
-54-5
आकीर्णे हस्तपादादिलूषणदोषात् अवमाने अलाभाधाकर्मादिदोषादिति । तथा 'उत्सन्नदृष्टाहत' प्राय उप-1 दलब्धमुपनीतम् , उत्सन्नशब्दः प्रायो वृत्ती वर्तते, यथा-"देवा ओसन्नं सायं वेयणं वेएंति" किमेतदित्याह-18
भक्तपानम्' ओदनारनालादि, इदं चोत्सन्नदृष्टाहृतं यत्रोपयोगः शुद्ध्यति, त्रिगृहान्तरादारत इत्यर्थः, 'मिमक्खग्गाही एगत्य कुणइ बीओ अ दोसुमुवओग'मिति वचनात्, इत्येवंभूतमुत्सन्नं दृष्टाहतं भक्तपानमृषीणां
प्रशस्तमिति योगः, तथा 'संसृष्टकल्पेन' हस्तमात्रकादिसंसृष्टविधिना चरेझिक्षुरित्युपदेशः, अन्यथा पुरःकमादिदोषात्, संसृष्टमेव विशिनष्टि-तनातसंसृष्ट' इत्यामगोरसादिसमानजातीयसंसृष्टे हस्तमात्रकादौ यतिः 'यतेत' यनं कुर्यात् , अतजातसंसृष्टे संसर्जनादिदोषादित्यनेनाष्ठभसूचनं, तयथा-संसट्टे हत्थे सं-12 सट्टे मत्ते सायसेसे दव्वे' इत्यादि, अत्र प्रथमभङ्गः श्रेयान, शेषास्तु चिन्त्या इति सूत्रार्थः ॥ ६ ॥ उपदेशाधिकार एवेदमाह-अमद्यमांसाशी भवेदिति योगः, अमद्यपोऽमांसाशी च स्यात्, एते च मद्यमांसे लोकागमप्रतीते एव, ततश्च यत्केचनाभिदधति-आरनालारिष्ठांद्यपि संधानाद ओदनाद्यपि प्राण्यङ्गत्वात्त्याज्यमिति, तदसत्, अमीषां मद्यमांसवायोगात्, लोकशास्त्रयोरप्रसिद्धत्वात्, संधानप्राण्यङ्गखतुल्यत्वचोदना त्वसाध्वी, अतिप्रसङ्गदोषात्, द्रवत्वस्त्रीत्वतुल्यतया मूत्रपानमातृगमनादिप्रसङ्गादित्यलं प्रसङ्गेन, अक्षरगमनि
१ देवा उत्सनं सातवेदनां पेदयन्ति. २ भिक्षापाही एकत्र करोति द्वितीयश्च दूयोरुपयोगम्, ३ संसृष्टो इस्तः संसान मात्र गावशेष द्रव्यम्. ४ तके & भेऽशुभे इत्युक्तकम् आदिना दध्यादि.
दीप अनुक्रम [५२९-५३३]]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्राशमूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||५-९||, नियुक्ति: [३६९], भाष्यं [६३...]
(४२)
प्रत सूत्रांक ||५-९||
दशवैका०कामात्रप्रक्रमात् । तथा 'अमत्सरी च'न परसंपद्वेषी च स्यात्, तथा 'अभीक्ष्णं पुनः पुनः पुष्टकारणाभावे
२ विविक्तहारि-वृत्तिः निर्विकृतिकश्च' निर्गतविकृतिपरिभोगश्च भवेत्, अनेन परिभोगोचितविकतीनामप्यकारणे प्रतिषेधमाहाचयोचूला
तथा 'अभीक्ष्णं' गमनागमनादिषु, विकृतिपरिभोगेऽपि चान्ये, किमित्याह-कायोत्सर्गकारी भवेत्' ईर्याप- ॥२८१॥
थप्रतिक्रमणमकृत्वा न किञ्चिदन्यत् कुर्याद्, तदशुद्धतापत्तेरिति भावः। तथा 'खाध्याययोगे' वाचनाशुपचा-15 रव्यापार आचामाम्लादी 'प्रयतः' अतिशययनपरो भवेत्, तथैव तस्य फलवत्वादू विपर्यय उन्मादादिदोषिप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥७॥ किंच-'न प्रतिज्ञापयेत्' मासादिकल्पपरिसमाप्ती गच्छन् भूयोऽप्यागतस्य ममैवैतानि दातव्यानीति न प्रतिज्ञा कारयेद्गृहस्थं, किमाश्रित्येत्याह-शयनासने शय्यां निषद्यां तथा भ-1 तपान मिति तत्र शयनं-संस्तारकादि आसनं-पीठकादि शय्या-वसतिः निषद्या-स्वाध्यायादिभूमिः 'तथा तेन प्रकारेण तत्कालावस्थौचित्येन 'भक्तपानं खण्डखाद्यकद्राक्षापानकादिन प्रतिज्ञापयेत्, ममत्वदोषात् ।
सर्वत्रैतनिषेधमाह-'ग्राम' शालिग्रामादी 'कुले वा' श्रावककलादी 'नगरे' साकेतादी 'देशे वा' मध्यदे-16 दशादौ 'ममत्वभाव' ममेदमिति लेहमोहं न 'कचित् उपकरणादिष्वपि कुर्यात् , तन्मूलत्वादुःखादीनामिति | Pln८॥ उपदेशाधिकार एवाह-'गृहिणों' गृहस्थस्य 'वैयावृत्त्यं गृहिभावोपकाराय तत्कर्मस्वात्मनो व्यावृत्त
भावं न कुर्यात्, खपरोभयात्रेयासमायोजनदोषात, तथा अभिवादनं-वाङ्गमस्काररूपं वन्दनं-कायप्रणा-8/॥२८॥ मलक्षणं पूजनं वा-वनादिभिः समभ्यर्चनं वा गृहिणो न कुर्याद, उक्तदोषप्रसङ्गादेव, तथैतदोषपरिहारायव
दीप
अनुक्रम [५२९-५३३]]
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||५-९||
दीप
अनुक्रम [ ५२९
-५३३]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||५-९ ||, निर्युक्ति: [ ३६९ ], भाष्यं [६३...]
'असंक्लिष्टैः' गृहिवैयावृत्त्यकरणसंक्लेशरहितैः साधुभिः समं वसेन्मुनिः 'चारित्रस्य' मूलगुणादिलक्षणस्य 'यतो' येभ्यः साधुभ्यः सकाशान्न हानिः संवासतस्तदकृत्यानुमोदनादिनेति, अनागतविषयं चेदं सूत्रं, प्रणयनकाले संक्लिष्टसाध्वभावादिति सूत्रार्थः ॥ ९ ॥
ण या लभेजा निउणं सहायं, गुणाहिअं वा गुणओ समं वा । इक्कोऽवि पावाई विवजयंतो, विहरिज कामेसु असज्जमाणो ॥ १० ॥ संवच्छरं वाऽवि परं पमाणं, बीअं च वासं न तहिं वसिज्जा | सुत्तस्स मग्गेण चरिज भिक्खू, सुत्तस्स अत्थो जह आणवेइ ॥ ११ ॥ जो पुव्वरत्तावररत्तकाले, संपेहए अप्पगमप्पगेणं । किं मे कडं किं च मे किच्चसेस, किं सकणिज्जं न समायरामि ? ॥ १२ ॥ किं मे परो पासइ किंच अप्पा, किं वाऽहं खलिअं न विवज्जयामि । इच्चेव सम्मं अणुपासमाणो, अणागयं नो पडिबंध कुजा ॥ १३ ॥ जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं, कारण वाया अदु माणसेणं । तत्थेव धीरो पडिसाहरिजा, आइन्नओ खिष्पमिव क्खलीणं ॥ १४ ॥ जस्सेरिसा जोग
For P&Personal Chily
पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [४२] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्तिः )
चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१०-१६||, नियुक्ति: [३६९...], भाष्यं [६३...]
(४२)
दशबैका हारि-वृत्तिः
चर्याचूला
॥२८२॥
प्रत सूत्रांक ||१०
-१६||
जिइंदिअस्स, धिईमओ सप्पुरिसस्स निच्चं । तमाह लोए पडिबुद्धजीवी, सो जी- र विविक्तअई संजमजीविएणं ॥ १५॥ अप्पा खलु सययं रक्खिअव्वो, सविदिएहिं सुसमाहिएहिं । अरक्खिओ जाइपहं उबेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ ॥ १६ ॥ त्ति बेमि ॥ विवित्तचरिआ चूला समत्ता ॥२॥
॥इइ दसवेआलिअं सुत्तं समत्तं ॥ असंक्लिष्टैः समं वसेदित्युक्तमत्र विशेषमाह-कालदोषाद् 'न यदि लभेत' न यदि कथञ्चित् प्राप्नुयात् 'निपुणं' संयमानुष्ठानकुशल 'सहायं' परलोकसाधनद्वितीय, किंविशिष्टमित्याह-गुणाधिकं वा ज्ञानादि-IN गुणोत्कटं वा, 'गुणतः समं चा' तृतीयाथै पञ्चमी गुणैस्तुल्यं वा, वाशब्दाद्धीनमपि जात्यकाश्चनकल्पं विनीतं, वा, ततः किमित्याह-एकोऽपि संहननादियुक्तः 'पापानि' पापकारणान्यसदनुष्ठानानि 'विवर्जयन' विविधमनेकै प्रकारैः सूत्रोरीः परिहरन् विहरेदुचितविहारेण 'कामेषु' इच्छाकामादिषु 'असज्यमान' सङ्गमगच्छन्नेकोऽपि विहरेत् , नतु पार्श्वस्थादिपापमित्रसङ्गं कुर्यात, तस्य दुष्टत्वात्, तथा चान्यैरप्युक्तम्-“वरं विहा सह पन्नगर्भवेच्छठात्मभिर्या रिपुभिः सहोषितुम् । अधर्मयुक्तैश्चपलैरपण्डितैनं पापमित्रैः सह वर्तितुं क्षमम् दू ॥१॥ इहैव हन्युर्भुजगा हि रोषिताः, धृतासयश्छिद्रमवेक्ष्य चारयः । असत्प्रवृत्तेन जनेन संगतः, परत्र ।
दीप अनुक्रम [५३४-५४०]
ACCORRECRECCA
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
(४२)
प्रत
सूत्रांक
||१०
-१६||
दीप
अनुक्रम
[५३४
-५४०]
दश० ४८
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [...], / गाथा ||१०-१६ ||, निर्युक्ति: [ ३६९...], भाष्यं [ ६३... ]
| चैवेह च हन्यते जनः ॥ २ ॥ तथा-परलोकविरुद्धानि कुर्वाणं दूरतस्त्यजेत् । आत्मानं योऽभिसंघत्ते, सोऽ| न्यस्मै स्वात्कथं हितः ? ॥ ३ ॥ तथा ब्रह्महत्या सुरापानं, स्तेयं गुर्वङ्गनागमः । महान्ति पातकान्याहुरेभिश्च सह संगमम् ॥ ४ ॥" इत्यलं प्रसङ्गेनेति सूत्रार्थः ॥ १० ॥ विहारकालमानमाह - 'संवत्सरं वापि' अत्र संवत्सर| शब्देन वर्षासु चातुर्मासिको ज्येष्ठावग्रह उच्यते तमपि, अपिशब्दान्मासमपि परं प्रमाणं वर्षाऋतुबद्धयोरुत्कृष्टमेकत्र निवासकालमानमेतत् 'द्वितीयं च वर्षम् चशब्दस्य व्यवहित उपन्यासः, द्वितीयं वर्ष वर्षासु | चशब्दान्मासं च ऋतुबद्धे न तत्र क्षेत्रे वसेत् यन्त्रको वर्षाकल्पो मासकल्पश्च कृतः, अपितु सङ्गदोषाद् द्वितीयं तृतीयं च परिहृत्य वर्षादिकालं ततस्तत्र वसेदित्यर्थः, सर्वथा, किं बहुना ?, सर्वत्रैव 'सूत्रस्य मार्गेण | चरेद्भिक्षुः' आगमादेशेन वर्त्ततेति भावः तत्रापि नौघत एव यथाश्रुतग्राही स्यात् अपि तु सूत्रस्य 'अर्थ:' पूर्वापराविरोधितत्रयुक्तिघटितः पारमार्थिकोत्सर्गापवादगर्भो यथा 'आज्ञापयति' नियुङ्क्ते तथा वर्त्तेत, नान्यथा, यथेापवादतो नित्यवासेऽपि वसतावेव प्रतिमासादि साधूनां संस्तारगोचरादिपरिवर्तन, नान्यथा, शुद्धापवादायोगादित्येवं वन्दनकप्रतिक्रमणादिष्वपि तदर्थं प्रत्युपेक्षणेनानुष्ठानेन वर्त्तेत न तु तथाविधलोकर्या तं परित्यजेत् तदाशातनाप्रसङ्गादिति सूत्रार्थः ॥ ११ ॥ एवं विविक्तचर्यावतोऽसीदनगुणो| पायमाह-यः साधुः पूर्वरात्रापररात्रकाले, रात्रौ प्रथमचरमयोः प्रहरयोरित्यर्थः संप्रेक्षते सूत्रोपयोगनीत्या आत्मानं कर्मभूतमात्मनैव करणभूतेन, कथमित्याह - 'किं मे कृतमिति छान्दसत्वात्तृतीयार्थे षष्टी, किं
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र [ ४२ ] मूलसूत्र [३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्तिः )
चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा ||१०-१६||, नियुक्ति: [३६९...], भाष्यं [६३...]
प्रत सूत्रांक ||१०
-१६||
दशवैका मया कृतं शक्त्यनुरूपं तपश्चरणादियोगस्य 'किं च मम कृत्यशेष' कर्तव्यशेषमुचितं?, किं शक्यं वयोऽय-18||२ विविक्तहारि-वृत्तिः स्थानुरूपं वैयावृत्त्यादि 'न समाचरामि' न करोमि, तदकरणे हि तत्कालनाश इति सूत्रार्थः ॥ १२॥ तथा- चाचूला ॥२८३॥
किं मम स्खलितं 'पर' स्वपक्षपरपक्षलक्षणः पश्यति? किं वाऽऽत्मा कचिन्मनाक संवेगापन्नः ?, किं वाऽहमो-IN घत एव स्खलितं न विवर्जयामि, इत्येवं सम्यगनुपश्यन अनेनैव प्रकारेण स्खलितं ज्ञात्वा 'सम्यम्' आगमोक्तेन विधिना भूयः पश्येत् 'अनागतं न प्रतिबन्धं कुर्यात्' आगामिकालविषयं नासंयमप्रतिबन्ध करो-3 तीति सूत्रार्थः ॥ १३ ॥ कथमित्याह-'यत्रैव पश्येत् यत्रैव पश्यत्युक्तवत्परात्मदर्शनद्वारेण 'कचित्' संयमस्थानावसरे धर्मीपधिप्रत्युपेक्षणादौ 'दुष्पयुक्तं' दुर्व्यवस्थितमात्मानमिति गम्यते, केनेत्याह-कायेन वाचा अथ मानसेनेति, मन एव मानसं, करणत्रयेणेत्यर्थः तत्रैव' तस्मिन्नेव संयमस्थानावसरे 'धीरों' बुद्धिमान प्रतिसंहरेत् प्रतिसंहरति य आत्मानं, सम्यग विधि प्रतिपद्यत इत्यर्थः, निदर्शनमाह-आकीर्णो जवादिभिगुणः, जात्योऽश्व इति गम्यते असाधारणविशेषणात्, तच्चेदम्-'
क्षिमिव खलिन' शीघ्रं कविकमिव, यथा जात्योऽश्वो नियमितगमननिमित्तं शीघ्रं खलिनं प्रतिपद्यते, एवं यो दुष्प्रयोगत्यागेन खलिनकल्पं सम्यगविधिम्, एतावताउंशेन दृष्टान्त इति सूत्रार्थः ॥ १४ ॥ यः पूर्वरात्रेत्यायधिकारोपसंहारायाह-यस्य साधोः PI'ईदृशाः' स्वहितालोचनप्रवृत्तिरूपा 'योगा' मनोवाकायव्यापारा 'जितेन्द्रियस्य' वशीकृतस्पर्शनादीन्द्रियक
लापस्य 'धृतिमतः' संयमे सधृतिकस्य 'सत्पुरुषस्य' प्रमादजयान्महापुरुषस्य नित्यं सर्वकालं सामायिकपति-15
दीप अनुक्रम [५३४-५४०]
२८
पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम
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प्रत सूत्रांक
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-१६||
दीप
अनुक्रम
[५३४
-५४०]
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) चूलिका [२], मूलं [१...], / गाथा || १०-१६ ||, निर्युक्ति: [ ३६९...], भाष्यं [६३...]
पत्तेरारभ्यामरणान्तम् 'तमाहुलके प्रतिबुद्धजीविनं' तमेवंभूतं साधुमाहुः - अभिदधति विद्वांसः लोकेप्राणिसंघाते प्रतिबुद्धजीविनं-प्रमादनिद्रारहित जीवनशीलं, 'स' एवंगुणयुक्तः सन् जीवति 'संयमजीवितेन' कुशलाभिसंधिभावात् सर्वथा संघमप्रधानेन जीवितेनेति सूत्रार्थः ॥ १५ ॥ शास्त्रमुपसंहरन्नुपदेशसर्वस्वमाह - 'आत्मा खल्वि' ति खलुशब्दो विशेषणार्थः, शक्तौ सत्यां परोऽपि 'सततं' सर्वकालं 'रक्षितव्यः' पालनीयः पारलौकिकापायेभ्यः, कथमित्युपायमाह- 'सर्वेन्द्रियैः' स्पर्शनादिभिः 'सुसमाहितेन' निवृत्तविषयव्यापारेणेत्यर्थः, अरक्षणरक्षणयोः फलमाह-अरक्षितः सन् 'जातिपन्धानं' जन्ममार्ग संसारमुपैति - सामीप्येन गच्छति । सुरक्षितः पुनर्यथागममप्रमादेन 'सर्वदुःखेभ्यः' शारीरमानसेभ्यो 'विमुच्यते' विविधम्-अनेकैः प्रकारै| रपुनर्ग्रहणपरमस्वास्थ्यापादनलक्षणैर्मुच्यते । इति ब्रवीमीति पूर्ववदिति सूत्रार्थः ॥ १६ ॥ श्री हरिभद्रसूरिविरचितटीकोपसंहारः ।
यं प्रतीत्य कृतं तदूवक्तव्यताशेषमाह
मासेहिं अही अझवणमिणं तु अक्षमणगेणं । छम्मासा परिआओ अह कालगओ समाहीए ॥ ३७० ॥ भिर्मासै: 'अधीत' पठितम् 'अध्ययनमिदं तु अधीयत इत्यध्ययनम् इदमेव दुशवैकालिकाख्यं शास्त्रं, वेनाधीतमित्याह-आर्यमणकेन - भावाराधनयोगात् आरायातः सर्वहेयधर्मेभ्य इत्यर्थः आर्यश्वास मणक श्रेति विग्रहस्तेन, 'षण्मासाः पर्याय' इति तस्यार्यमणकस्य षण्मासा एव प्रव्रज्याकालः, अल्पजीवितत्वात्,
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पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र[४२] मूलसूत्र[३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्तिः अथ वृत्तिकारः उपसंहारः क्रियते
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दीप अनुक्रम
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दशवैकाo हारि-वृत्तिः
॥ २८४ ॥
[भाग-३४] “दशवैकालिक” - मूलसूत्र - ३ ( मूलं + निर्युक्तिः+ भाष्य |+वृत्ति:) अध्ययनं / चूलिका [-], मूलं [-] / गाथा ||-|| निर्युक्ति: [ ३७० ], भाष्यं [ ६३...]
अत एवाह--अथ 'कालगतः समाधिनेति 'अर्थ' उक्तशास्त्राध्ययनपर्यायानन्तरं कालगत-आगमोक्तेन विघिना मृतः, समाधिना-शुभलेश्याध्यानयोगेनेति गाथार्थः ॥ ३९ ॥ अत्र चैवं वृद्धवाद: यथा तेनैतावता श्रुतेनाराधितम् एवमन्येऽप्येतदध्ययनानुष्ठानत आराधका भवन्त्विति ।।
आनंदसुपायं कासी सिजंभवा तर्हि थेरा जसभद्दस्स य पुच्छा कहणा अ विभाणा संघे ।। ३७१ । 'आनन्दाश्रुपातम्' अहो आराधितमनेनेति हर्षाश्रमोक्षणम् 'अकार्षुः' कृतवन्तः 'शय्यम्भवाः' प्राग्व्याव|र्णितवरूपाः 'त' तस्मिन् कालगते 'स्थविरा:' श्रुतपर्यायवृद्धाः प्रवचनगुरवः, पूजार्थं बहुवचनमिति, यशोभद्रस्य च शय्यम्भवप्रधानशिष्यस्य गुर्वश्रुपातदर्शनेन किमेतदाश्चर्यमिति विस्मितस्य सतः पृच्छा-भगवन्! किमेतदकृतपूर्वमित्येवंभूता, कथना च भगवतः - संसारलेह ईदृशः, सुतो ममायमित्येवंरूपा, चशब्दादनुता| पञ्च यशोभद्रादीनाम् अहो गुराविव गुरुपुत्र के वर्तितव्यमिति न कृतमिदमस्माभिरिति एवंभूतप्रतिबन्धदोषपरिहारार्थ न मया कथितं नात्र भवतां दोष इति गुरुपरिसंस्थापनं च । 'विचारणा संघ' इति शय्यम्भवेनाल्पायुषमेनमवेत्य मयेदं शास्त्रं निर्यूढं किमत्र युक्तमिति निवेदिते विचारणा संधे कालहासदोषात् | प्रभूतसत्त्वानामिदमेवोपकारकमतस्तिष्ठत्येतदित्येवंभूता स्थापना चेति गाधार्थः ॥ ४० ॥ उक्तोऽनुगमः, सास्प्रतं नयाः, ते च नैगमसंग्रह व्यवहार ऋजुसूत्र शब्दसमभिरुदेवम्भूतभेदभिन्नाः खल्वोधतः सप्त भवन्ति । स्वरूपं चैतेषामध आवश्यके सामायिकाध्ययने न्यक्षेण प्रदर्शितमेवेति नेह प्रतन्यते । इह पुनः स्थानाशून्या
२ विविक्तचर्याचू ला
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॥ २८४ ॥
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं / चूलिका [-], मूलं -] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [३७१], भाष्यं [६३...]
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प्रत सत्राक ||--||
.
मेते ज्ञानक्रियानयान्तर्भावद्वारेण समासतः प्रोच्यन्ते-ज्ञाननयः क्रियानयश्च, तत्र ज्ञाननयदर्शनमिदम्-ज्ञा
नमेव प्रधानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्तिकारणं, युक्तियुक्तत्त्वात्, तथा चाह-णायंमि गिहिअब्वे अगिणिहअ|| ब्वंमि चेव अस्थम्मि । जइअब्बमेव इह जो उवएसो सो नओ नाम ॥१॥ 'णायंमिति ज्ञाते सम्यक्प
रिच्छिन्ने 'गिणिहअब्बत्ति ग्रहीतव्य उपादेये 'अगिहिअन्वेत्ति अग्रहीतव्येऽनुपादेये हेय इत्यर्थः, चशब्दः
खलूभयोर्ग्रहीतव्याग्रहीतव्ययोतित्वानुकर्षणार्थ उपेक्षणीयसमुच्चयार्थों था, एवकारस्ववधारणार्थः, तस्य ट्राचैवं व्यवहितः प्रयोगो द्रष्टव्यः-ज्ञात एव ग्रहीतव्ये तथाऽग्रहीतव्ये तधोपेक्षणीये च ज्ञात एव नाज्ञाते, 'अस्थिम्मि'त्ति अर्थे ऐहिकामुष्मिके, तत्रैहिको ग्रहीतव्यः स्रक्चन्दनाङ्गनादिः अग्रहीतव्यो विषशस्त्रकण्ट- 8 कादिः उपेक्षणीयस्तृणादिः, आमुष्मिको ग्रहीतव्यः सद्दर्शनादिरग्रहीतव्यो मिथ्यात्वादिरुपेक्षणीयो विवक्षया अभ्युदयादिरिति तस्मिन्नर्थे, 'यतितव्यमेवेति अनुवारलोपाद्यतितव्यम् 'एवम् अनेन प्रकारेणैहिकामुष्मिकफलप्रात्यर्थिना सत्त्वेन प्रवृत्त्यादिलक्षणः प्रयत्नः कार्य इत्यर्थः । इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, सम्यगज्ञाते प्रवर्त्तमा-3 नस्य फलाविसंवाददर्शनात्, तथा चान्यैरप्युक्तम्-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता । मिध्याज्ञानात्प्रवृत्तस्थ, फलप्राप्तेरसंभवात् ॥ १॥” तथाऽऽमुष्मिकफलप्रात्यर्थिनाऽपि ज्ञान एव यतितव्यं, तथा है चागमोऽप्येवमेव व्यवस्थितः, यत उक्तम्-"पढमं नाणं तओ दया, एवं चिट्ठइ सव्वसंजए । अण्णाणी किं काही, किंवा णाहीह छे अपावगं? ॥१॥” इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं, यस्मात्तीर्थकरगणधरैरगीतार्थानां केव
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं | चूलिका -1, मूलं [1] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [३७१], भाष्यं [६३...]
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प्रत
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दशकादालानां विहारक्रियाऽपि निषिद्धा, तथा चागमः-"गीअत्थो अ विहारो बिइओ गीअस्थमीसिओ भ-18नयाधिहारि-वृत्तिः । णिओ। एत्तो तहअविहारो णाणुण्णाओ जिणवरेहिं ॥१॥" न यस्मादन्धेनान्धः समाकृष्यमाणः सम्यक- कार: ॥२८५॥
पन्धान प्रतिपद्यत इत्यभिप्रायः । एवं तावत्क्षायोपशमिकं ज्ञानमधिकृत्योक्तं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य विशिष्टफ-1 Fालसापकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि भवाम्भोधितटस्थस्य दीक्षाप्रतिपन्नस्योत्कृष्टतपश्चरणवतोऽपि न ||81
तावदपवर्गप्राप्तिर्जायते यावज्जीवाजीवाद्यखिलवस्तुपरिच्छेदरूपं केवलज्ञानं नोत्पन्नमिति, तस्माज्ज्ञानमेव प्र
धानमैहिकामुष्मिकफलप्राप्सिकारणमिति स्थितम् , 'इति जो उवएसो सो णो णाम'ति 'इति' एवमुक्तेन न्यादायेन य 'उपदेशो' ज्ञानप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, ज्ञाननय इत्यर्थः, अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मि-18
नध्ययने ज्ञानरूपमेवेदमिच्छति, ज्ञानात्मकत्वादस्य, वचनक्रिये तु तत्कार्यत्वात्तदायत्तत्वान्नेच्छति गुणभूते हैं ठाचेच्छतीति गाथार्थः ।। उक्तो ज्ञाननया, अधुना क्रियानयावसरः, तदर्शनं चेदम्-क्रियैव प्रधानमैहिकामुष्मि
कफलप्रासिकारणं, युक्तियुक्तत्वात्, तथा चायमप्युक्तलक्षणामेव खपक्षसिद्धये गाथामाह-'णायंमि गिहि
अव्वे इत्यादि, अस्याः क्रियानयदर्शनानुसारेण व्याख्या-ज्ञाते ग्रहीतव्ये अग्रहीतव्ये चैव अर्थे ऐहिकामुSIमिकफलप्रात्यर्थिना यतितव्यमेवेति, न यस्मात्प्रवृत्त्यादिलक्षणप्रयतव्यतिरेकेण ज्ञानवतोऽप्यभिलषितार्था-1
॥२८५॥ वासिदृश्यते, तथा चान्यैरप्युक्तम्-"क्रियैव फलदा पुंसां, न ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥" तथाऽऽमुष्मिकफलप्रात्यर्थिनाऽपि क्रियैव कर्तव्या, तथा च मौनीन्द्रवचनमप्ये
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+|भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं | चूलिका [-], मूलं [-] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [३७९], भाष्यं [६३...]
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SEASE
प्रत सत्राक ||--||
वमेव व्यवस्थित, यत उक्तम्-"चेइअकुलगणसंघे आयरिआणं च पवयणसुए अ । सब्बेसुवि तेण कयं| तवसंजममुजमतेणं ॥१॥" इतश्चैतदेवमङ्गीकर्तव्यं, यस्मात्तीर्थकरगणधरैः क्रियाविकलानां ज्ञानमपि विफलमेवोक्तं, तथा चागमः-"सुबहुंपि सुअमहीअं किं काही चरणविष्पमुफस्स? । अंधस्स जह पलित्ता
दीवसयसहस्सकोडीवि ॥१॥" दृशिक्रियायिकलस्वात्तस्येत्यभिप्रायः, एवं तावत्क्षायोपशमिकं चारित्रमड़ी६ कृत्योक्तं, चारित्रं क्रियेत्यनर्थान्तरं, क्षायिकमप्यङ्गीकृत्य प्रकृष्टफलसाधकत्वं तस्यैव विज्ञेयं, यस्मादहतोऽपि
भगवतः समुत्पन्नकेवल ज्ञानस्यापि न तावन्मुत्त्यवाप्तिः संजायते यावदखिलकर्मेन्धनानलभूता हखपश्चाक्षरोगिरणमात्रकालावस्थायिनी सर्वसंबररूपा चारित्रक्रिया नावाप्तेति, तस्मारिक्रयैव प्रधानमैहिकामुष्मिकफ-2 लप्राप्तिकारणमिति स्थितम् 'इति जो उवएसो सो णओ णामति इत्येवमुक्तेन न्यायेन य उपदेशः क्रियाप्राधान्यख्यापनपरः स नयो नाम, क्रियानय इत्यर्थः, अयं च ज्ञानवचनक्रियारूपेऽस्मिन्नध्ययने क्रियारूपमेवेदमिच्छति, तदात्मकत्वादस्य, ज्ञानवचने तु तदर्थमुपादीयमानत्वादप्रधानत्वान्नेच्छति गुणभूते चेच्छतीति गाथार्थः । उक्तः क्रियानया, इत्थं ज्ञानक्रियानयखरूपं श्रुत्वाऽविदिततदभिप्रायो विनेयः संशयापन्नः सन्नाह I-किमन्न तत्त्वम् ?, पक्षद्येऽपि युक्तिसंभवात् , आचार्यः पुनराह-"सवेसिपि नयाणं बहुविहवत्तव्वयं निसाकामेत्ता । तं सव्वनयविसुद्धं जं चरणगुणहिओ साहू ॥१॥" अथवा ज्ञानक्रियानयमतं प्रत्येकमभिधायाधुना स्थितपक्षमुपदर्शयन्नाह-'सब्वेर्सि गाहा' 'सर्वेषामपि मूलनयानाम्, अपिशब्दात्तद्देदानां च 'नयानां
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पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
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आगम (४२)
[भाग-३४] “दशवैकालिक”- मूलसूत्र-३ (मूलं+नियुक्ति:+भाष्य+वृत्ति:)
अध्ययनं | चूलिका -, मूलं [1] / गाथा ||-|| नियुक्ति: [३७१], भाष्यं [६३...]
नयाधिकारः
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सत्राक ||--||
दशकाद्रव्यास्तिकादीनां 'बहुविधवक्तव्यता सामान्यमेव विशेषा एव उभयमेव वाऽनपेक्षमित्यादिरूपाम् अथवा हारि-वृत्तिः नामादीनां नयानां का कं साधुमिच्छतीयादिरूपां निशम्य' श्रुत्वा तत् 'सर्वनयविशुद्धं' सर्वनयसंमतं वचनं
यचरणगुणस्थितः साधुः, यस्मात्सर्वनया एव भावविषयं निक्षेपमिच्छन्तीति गाथार्थः ॥ नमो बर्द्धमानाय ॥२८६॥
भगवते, व्याख्यातं चूडाध्ययनं, तद्व्याख्यानाच समाप्ता दशवैकालिकटीका । समाप्तं दशवैकालिकं चूलिकासहितं नियुक्तिटीकासहितं च ॥
॥ इत्याचार्यश्रीहरिभद्रमरिविरचिता दशकालिकटीका समासा ॥ महत्तराया याकिन्या, धर्मपुत्रेण चिन्तिता । आचार्यहरिभद्रेण, दीकेयं शिष्यबोधिनी ॥१॥ दशवकालिके टीका विधार्य यत्पुण्यमर्जितं तेन । मात्सर्यदुःखविरहाद्गुणानुरागी भवतु लोकः ॥ २॥
दीप अनुक्रम
RSSCSCRX
इति श्रीमद्धरिभद्राचार्यविरचिता सचूलिकदशवैकालिक
व्याख्या समाप्ता॥
इति श्रेष्ठि देवचन्द्र लालभाई जैनपुस्तकोद्धारे ग्रन्थाङ्कः ४७.
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Far-POOLonly पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र[४] मूलसूत्रा३] दशवैकालिक मूलं एवं हरिभद्रसूरिविरचिता वृत्ति:
भाग 33
"पिण्डनियुक्ति'-मूलसूत्र [२/२] मूलं एवं मलयगिरिसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता:
मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब किंचित् वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी (M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि ।
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भाग
कलपृष्ठ
३१४
५८६
४९८
३९२
५९४
४९४
३३८
५९२
५५२
सवृत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा?
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम 01 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ 02 | आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध-२ 03 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन- १ से १३ 04 | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ 05 | आगम ०३ स्थान मुलं एवं वत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ 06 | आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण 07 | आगम ०४ समवाय मूलं एवं वृत्ति. 08 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ 09 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ 10 | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० 11 | | आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण 12 | आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. 13 | आगम-७,८,९,१०उपासकदशा, अंतकृतदशा, अनुत्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. 14 | आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. 15 | आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. 16 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र-१ से १३८ 17 | आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण 18 | | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद-१ से ५ 19 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मलं एवं वत्ति. पद-६ से २२ 20 | आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मुलं एवं वत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण 21 | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति.
५१४ ३८४
५२२
५३८
३८४
३१४ ४८०
४८८ ૪૨૬ ५१४ ३३६ ६१०
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कुलपृष्ठ ६१४
३७६
४२६
३४४
३१२
27
३३०
४६६
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सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? भाग
इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. | आगमा८ जंबूदविपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ५ से ७. आगम १९-३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पृष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान,
___ भक्तपरिज्ञा, तंदलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मलं एवं छाया आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव 28 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से ५२१ 29 आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१
आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण] आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-५ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन-४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण) | आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूल एवं वृत्ति.
आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. | आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. 35 आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ 36 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूल एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन- ६ से २१ 37 | आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६
| आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. 39 | | आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. 40 | कल्प[बारसा]सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति.
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नमो नमो निम्मलदंसणस्स
पूज्य आनंद- क्षमा-ललित - सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः
[ भाग-३४ ] आगम 42
पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधितः संपादितश्च “दशवैकालिकं मूलसूत्रं” [मूलं + निर्युक्तिः + भाष्यं + हरिभद्रसूरि-रचिता वृत्तिः ]
( किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह )
मुनि दीपरत्नसागरेण पुनः संकलितः " दशवैकालिक” मूलं एवं वृत्तिः नामेण परिसमाप्तं
“सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि” श्रेणि, भाग-34
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ਹਾਸ਼ਾ ਨੂੰ ਬਾਹਰ ਕਸ ਕਸ ਕਸ ਕਸ ਕਰ
ਸ
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ਗੁਗਲ ਕਿਸ ਨੂੰ
ਕਾਲਾ ਧਨ ਭਰ ਭਾਰਤ ਸੰਧੂ ਸੰਗ ਕਾਲ ਕਰਨ ਦੀ ਜਨਰਲ ਨੇ
ਸਰਕਾਰ ਹਾਲ ਨੂੰ 3
3 वाचना शताब्दी वर्ष
ਲਾਲ
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ਸ ਨਲਕ ਨੂੰ
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आजम आवास आजम
उनम
COTER
BITOTT
नमो नमो निम्मलदंसणस्स
सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि
मूल संशोधक
28H
पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य
श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज
आज
आजम
STOTI
अलबाम
अभिनव संकलनकर्ता
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आजभ
आगम
SIDE
Sten
आजम
आगम दिवाकर मुनिश्री दीपत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आम
प्रत- प्राप्ति और पेज- सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275
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ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता
श्री आगम मंदिर
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पालिताणा
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E RIENTRANSERIAGE
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________________ आज आगम आगमआणम् आ आजम मूल संशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आम आजम आम आगम आजम आगम आगम आगम 42 “दशवैकालिक” मूलं एवं वृत्ति: आगम आण अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आगम आजम आजम आगम आगम ~590~