Book Title: Mahavira Meri Drushti me
Author(s): Osho Rajnish
Publisher: Jivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में भगवान् श्री रजनीश alen सम्पादन : डॉ. दयानन्द भार्गव स्वामी योग चिन्मय - 11 Snie •IETY REASIAN HOJUN 1975 ....TA-16 जीवन जागृति आन्दोलन प्रकाशन, कम्बई Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : साधु ईश्वर समपं मंत्री, जीवन जागृति केन्द्र - ३१; इजरायल मीहल्ला, भगवान् भुवन, पहला माला मस्जिद बन्दर रोड बम्बई - ४००-००६. प्रथम संस्करण : अगस्त, १९१७ मुद्रक : उषा प्रिंटिंग वर्क्स उस्मानपुरा, वाराणसी । 8876 Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय . (प्रथमासंस्करण ) प्रस्तुत प्रवचनमाला की आयोजना के मूल प्रेरणा-स्रोत श्री सुन्दरलाल जैन, प्रोप्राइटर मैसर्स मोतीलाल बनारसोदास हैं। वे धर्म में बहुत रुचि रखते हैं। सत्य की खोज की लगन उनमें बहुत पुरानी है। महावीर और उनके सन्देश को जानने की उनमें उत्कट जिज्ञासा रही है। संसार के सम्मुख महावीर के सन्देश को प्रस्तुत करने का उनका आन्तरिक सङ्कल्प रहा है। इस आशय से उन्होंने अनेक प्रयत्न किये किन्तु सफलता न मिली। किन्तु उनका सङ्कल्प सत्य था क्योंकि वह अन्ततः फलवान् बना। महावीर का मार्ग, जिसे कालं ने धूमिल कर दिया था पुनः आलोकित हुआ रजनीश की उस रश्मि से जो इस ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित हो रही है । सितम्बर का मास था। श्री सुन्दरलाल जी का आग्रह स्वीकार करके भगवान् श्री रजनीश श्रीनगर में डल झील के किनारे चश्मे-शाही पर उपस्थित थे। गिने चुने लोग उनके श्रोता थे । महावीर पर प्रवचन होते थे और प्रश्नोत्तर चलते थे। वहीं यहाँ प्रस्तुत है। जो भगवान् श्री के सम्पर्क में आये हैं उन्हें ज्ञात है कि उनके अस्तित्व में ही एक सुगन्ध है। उनका जीवन सहजता की मूति है, उनके विचार निविचारता में ले जाने का द्वार है। उनकी वाणी निरन्तर उस पोर इङ्गित करती है जो वाणी से परे है। उनका स्पर्श मानों अपना ही स्पर्श है। भगवान् श्री की दृष्टि में महावीर को जानने का एक ही उपाय है-सीधा और सरल, जिसमें न शास्त्र की जरूरत है, न सिद्धान्त की, न गुरु की। इसमें न कोई साथी है, न कोई संगी है। अकेलं की उड़ान !है अकेले की तरफ, बीच में कोई भी नहीं। जरा भी बीच में ले लेते हैं किसी को तो भटकन शुरू हो जाती है। यह प्रेम का मार्ग है । प्रेम में कोई शर्त नहीं होती, कोई पूर्वाग्रह नहीं होता, अतः हम प्रेम के मार्ग से महावीर को जान सकते हैं । जानना मुश्किल नहीं है क्योंकि उनके अनुभव को सूक्ष्म तरंगें, सूक्ष्म प्रकाश में, अस्तित्व की गहराइयों पर प्राज भी सूरक्षित हैं और अगर हम प्रेम भरे चित्त से महावीर Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पूर्ण ध्यान लेकर इन गहराइयों पर उतरें तो हमारे लिए वे द्वार खुल जाते है वहाँ ये सूक्ष्म तरंगे हमें उपलब्ध हो जाएं । उधर मशरीरी बारमाएं भी प्रेमपश, करुणास हमारी बालासोले को आतुर है, उत्सुक है। मन्दिरों में महापुरुषों की जो अचेत प्रतिमाएं प्रतिष्ठित है, वे भी उनकी प्रारीरी मारनामों से हमारा संपर्क कराने के ही साधन है। . मगवान् श्री व्यक्ति को किसी से नहीं लापना चाहते । जीवन में जो मूल्यवान् है वह स्वयं उपलब्ध करना होता है, यही उसकी मूल्यवत्ता है यदि वह दूसरे से प्राप्त किया जा सके तो वह मूल्यवान् नहीं रह पायेगा। सत्य स्वयं में निहित है जिसे चाहना बहन किसी से लिया जा सकता है, न किसी को दिया जा सकता है। जो सत्य पाने की माशा में किसी बाधित हो गये है, उनकी मुक्ति कले सम्भव है। यह तिगतो तिहास अन्य हैन शोष पन्थ । इतिहास अतीत की परमानों का संकलन है, शोष दिये गये तथ्यों का विश्लेषण है। इसमें ये दोनों नहीं है। इस ग्रंप में भगवान् श्रीबी ने योग के बल पर अतीत की कुछ घटनाओं अपना तावात्म्य स्थापित कर उन घटनाओं के तथ्यों में निहित कुछ ऐसे सस्यों का उद्घाटन किया है जो कालिक है। वे अतीत को मृत घटनाओं के सम्बन्ध में उत्सुक नहीं है; उनकी उत्सुकता उन घटनाओं में छिपे उन रहस्यों को उद्घाटन करने में है जिन रहस्यों के कारण वे घटनाएं मानवमात्र के लिए. मूल्यवान है । महावीर के जीवन से सम्म ऐसी अनेक घटनामों का रहस्य सप में प्रथम बार उघाटित हुमा है जिनके कारण उन घटनाओं को नया र्ष प्राप्त हो गया है। इन रहस्यों के बिना वे घटनाएं आज के युग में अविवसनीय मिष मात्र बन कर रह गई थीं। भगवान् श्री की व्याख्या से महावीर पीपन की वे घटनाएं मानों हमारे अपने ही जीवन की सम्भावित घटनाएं इस पंथ की वर्षवत्ता न तो इसमें है कि हम जो भगवान् श्री ने कहा है उस पर विश्वास कर लें और न तर्क-वितर्क द्वारा इस ग्रंप का सणन करने से ही किसी का कोई प्रयोजन सिद्ध होगा। यह ग्रंप शास्त्र नहीं है। इस पर एकेडेविकर्ण मितान्त पर्व है। इस एक मात्र प्रयोजन यह है कि पाठक स्वसामरवाये। रबी मिलीग में तीन बारे महत्वपूर्ण प्रथम उनका नितिनैतिक है। यह मूवाला है। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनमें पाप और पुण्य होनाकोको बोर सोने की प्रेसला माना गया है। दूसरे भगवान् श्री ने वर्शन को ही महत्वपूर्ण माना है; परिण को दर्शन का सहन प्रतिपाल माना है। यह पुष्टि भी न शास्त्रों की मूल दृष्टि है। न शास्त्रों में सम्यक दृष्टि के जमाव में मछे से अच्छे कर्म को भी निरर्षक माना गया है। मन्या दृष्टि के बिना, जावरण पर से बोड़ा जा सकता है किन्तु वह पाखंड है। वास्तविक पाचरण सम्बावन में स्वतः प्रस्फुटित होता है । वस्तुतः सम्बार पहिलो करती है वही सम्बारित है। यह कहना सत्य नहीं होगा कि सम्प-सिम्यक् पारिश का पालन करता है। सूर्य पूर्व में उक्ति नहीं होता कीय विश्र सूर्य उक्ति होता है उस दिशा को हम पूर्व दिशा कहते है। भगवान् बोके इन प्रयकों की सरी महतापूर्ण विशेषता यह है कि महावीर के जीवन के सम्बन्ध में वो साम्प्रदायिक मतमेव का निराकरण हो गया है। बिन्होंने सभ्य को देखा, उन्होंने यह पाया कि महावीर विवाहित और पुत्रीमान् है। किन्तु जिनकी दृष्टि सत्य पर गई, उन्होंने पाया कि वे अविवाहित है । विवाह उनका हवा, यह एक घटना है किन्तु सारिभाव के कारण वे विवाह करते हए मो अविवाहित रहे, यह एक दार्शनिक सत्व है। भगवान श्री ने तर्कसंवत होने का भाग्रह नहीं किया है। तर्क विरोध को स्वीकार नहीं करता, किन्तु वीरम विरोधी तत्वों माह-सलिए जीवन तकी पकडलेलबाला है। अतः बीवन का सत्य तर्क में नहीं, तकसे परे है। भगवान् श्री की यह दृष्टि मो जैन शास्त्रों से मेल खाती है जिनका कहना है कि सत्य यहाँ है जहाँ से शब्द कोट आते है, यहाँ तक नहीं पा सकता बोर नवहाँ बुटिकी पहुंच है-सम्वे सरा जियहनि का बलम पिण्यतिमलि तस्य न गाहिता (माचाराग)। भगवान् श्री की दृष्टि में महावीर न परिग्रही है, में पलायनवादी है उन्होंने पर छोगा, जो घर नहीं पा । एक सपना पा, जो टूट गया। भोग और त्याग दोनों सपने है बो प्रष्टा हो जाने पर विदा हो जाते हैं। महावीर जबाट हुएतवन भोग रहा, न त्याग रहा । राम-पिराग, सुख-दुःसन रहे वह निम हो गए । लेकिन अनुयायियों ने सोश कि वह महात्यागी क्योंकि उन्होंने जीवन के सापी त्यागे, पर त्वाना, सम्पत्ति त्यागी । मगर सही भी में उन्होंने कुछ मोगा ही नहीं। सिर्फ मोगी ही त्यान कर सकता है। भोग मार त्याग, राम और विराग एक ही तराब से उतर गए, वीतराम हो गए। फिर उनके क .. सवाल ही नहीं उठता। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (vi ) महावीर, निश्चित ही नग्न रहे, इसमें कोई विकल्प नहीं है। उनकी काया को देखकर लगता है कि ऐसी सुन्दर काया वाला कोई व्यक्ति नहीं हुआ। ऐसी सुन्दर काया न बुद्ध के पास थो, न जीसस के पास थी और लगता है कि इतना सुन्दर होने की वजह से वे नग्न खड़े हो सके। असल में नग्नता को छिपाना कुरूपता को छिपाना है। हम सिर्फ उन्हीं अक्षों को छिपाते है जो कुरूप है। महावीर इतने सुन्दर थे कि छिपाने को कुछ भी नहीं था। उनकी नग्नता उनके ज्ञान का अंग थी, उनके चरित्र का अंग नहीं थी। अगर किसी व्यक्ति को विस्तीर्ण ब्रम्हाण्ड से, मक जगत् से सम्बन्धित होना है तो वस्त्र एक बाधा है। जितने ज्यादा वस्त्र पैदा होते जा रहे हैं, उतनी ज्यादा बाधाएं बढ़ती जा रही हैं । नवीनतम वस्त्र चारों तरफ के वातावरण से शरीर को तोड़ देते हैं । जिस व्यक्ति को प्रम्हाण्ड से संयुक्त होना है, जड़ के साथ भी तादात्म्य स्थापित करना है, पशु जगत् को भी सन्देश पहुंचाना है, उसके लिए किसी तरह के वस्त्र बाधा बन जाएंगे। • साधारणतः यह धारणा है कि अणुप्रत से महाव्रत फलित होता है । मगर गहराइयों पर उतरने से लगता है कि महावत हमारे भीतरी विस्फोट का परिणाम है । जब चेतना पूरी की पूरी विस्फोट होती है, तब महावत उपलब्ध होता है। वह मणुव्रतों से नहीं निकलता । साधारणत: कायक्लेश सम्बन्धी धारणाएं भी भ्रामक है। शरीर को सताना ही कायक्लेश तप माना जाता है। बिना नहाए-बोए, बिना खाए-पिए शरीर की दुश्मनी में तप माना जाता है। यही मोक्ष का उपाय समझा जाता है। एक भावमी सुबह घंटे भर व्यायाम करता है, पसीना बहाता है, अपने स्वास्थ्य के लिए। वह भी कायक्लेश कर रहा है लेकिन शरीर के हित में, शरीर के विरोध में नहीं। महावीर की सुन्दर काया को देखकर लगता है कि उन्होंने शरीर के हित में ही कायक्लेश किया। शरीर को संवारने में, शरीर के हित के लिए जो हम क्लेश उठाते हैं, सही अर्थों में वही कायक्लेश है। . इसी प्रसंग में 'उपवास' का अर्थ भी देखें। उपवास का अर्थ है आत्मा • के निकट होना, अर्थात् व्यक्ति आत्मा में इतना लीन हो गया है कि शरीर का पता नहीं चलता । लेकिन सामान्यतः इसे 'अनशन' का पर्याय समझ लिया गया है। इस भ्रान्त धारणाओं के कारण कायक्लेश मोर उपवास के सही प्रयों को नहीं समझा जा सका । उपवास बनशन से बिल्कुल उलटा है। उपवास.का मतलब है कि चेतना एकदम भीतर आत्मा के निकट पली जाए कि उसको बाहर Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( vii ) का माल ही न रहे । अनशन में, उपवास के बिल्कुल विपरीत, भावमी चौबीस घंटे शरीर के पास रहता है जितना कि खाने वाला भी नहीं रहता। उसके मन में दिन भर खाना चलता रहता है। उपवास और अनशन बिस्कुल विरोषो . प्रक्रियायें हैं। बात्मदर्शन की प्रक्रिया में ध्यान का गहरा स्थान है। वह मात्मानुभूति का एकमात्र उपाय है। ध्यान के दो औरण है: प्रतिक्रमण और सामायिक । प्रतिक्रमण का अर्थ है कि जहां-जहां चेतना गई, वहां-वहां से उसे वापिस पुकार लेना; मित्र के पास से, शत्रु के पास से, परनी के पास से, बेटे के पास से, मकान से, धन से, सब ओर से उसे वापिस बुला लेना। सामायिक का अर्थ है समय में यानी आत्मा में होना । प्रतिक्रमण प्रक्रिया है चेतना को भीतर लौटाने की। सामायिक प्रक्रिया है बाहर से लौटी हई चेतना को आत्मा में बैठाने, की। प्रतिक्रमण और सामायिक मार्ग है, दर्शन उपलब्धि है। सामायिक में स्थिर हो जाना आत्मा में प्रवेश करना है। मोप यात्रा का अन्त है। प्रत्येक मुत्यु में स्थूल देह मरती है, भीतर का सूक्ष्म शरीर नहीं मरता। सूक्ष्म शरीर एक जोड़ है जो आत्मा और शरीर को • पृथक नहीं दिखने देवा । लेकिन जब व्यक्ति न कर्ता रहा है, न भोक्ता रहा है, न प्रतिक्रिया करता है, केवल साती रह जाता है तब सूक्ष्म शरीर पिघलने लगता है, बिखरने लगता है। फिर आत्मा और शरीर पृषक् दिखते हैं और व्यक्ति समझ लेता है कि यह पाखिरी यात्रा है। , . मगर मोक्ष के द्वार से भी वह करणावश लोट सकता है सत्य की अभि. व्यक्ति के लिए। महावीर उन व्यक्तियों में है जो मोष के द्वार से लौट आए हैं। उनकी बारह वर्ष की जो साधना है वह सत्य की उपलब्धि के लिए नहीं क्योंकि उपलब्धि तो उन्हें पिछले जन्म में ही हो गई है। साधना इसलिए है कि वह जीवन के सब तलों तक, सब रूपों तक, पत्थर से लेकर देवता तक, सत्य का अभिव्यक्त कर सकें। उनकी यह सतत चेष्टा रही है भूत. जड़, मूक जगत् में अनुभूति तरंगें पहुंचाने की । और इस चेष्टा में इतना गहरा तावात्म्य हो गया है मूक, जड़ जगत् से कि कान में कोलें भी ठुकें तो पता न चले क्योंकि वह बट्टान हो गए है। महीनों बीत जाएँ, भोजन को चिन्ता नहीं क्योंकि तादात्म्य हो जाने पर मूक जगत् से सन्हें सूक्म भोजन भी मिल सकता है। महावीर के सम्बन्ध में यह धारणा भगवान् श्री को बिल्कुल अपनी मौलिक है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( viii ) महावीर की यह देन बिल्कुल अनोखी है। इस ओर न जोसस ने, न बुद्ध ने, न जरथुस ने, न मुहम्मद ने, न किसी दूसरे महामानव ने कोई मार्ग बताया है। अनुभूति की पूर्णता को कोई व्यक्ति प्राप्त हुए हैं मगर अभिव्यक्ति की पूर्णता महावीर को ही उपलब्ध हुई है। महावीर की शाखा सूम गई है। शाखा सूख जाती है तो भी वृक्ष खड़ा रहता है। वह फिर से फूट सकता है, यदि महावीर को ठीक से समझा जा सके । फिर नये अंकुर आ सकते हैं इसमें और नये अंकुर जाने चाहिए। भगवान् श्री का यह ग्राथ इस दिशा में ही एक चरण है । - दयानन्द भार्गव रामजस कालेज, दिल्ली । १२-७-१९१७ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तर्वस्तु अनुक्रम सम्पादकीय (वितीय संस्करण) स्वामी योग चिन्मय - . , सम्पादकीय ( प्रथम संस्करण) में दयानन्द पाव HI-VIII १. प्रवचन : रचना का स्रोत और उसकी प्रामाणिकता । २. प्रश्नोतर-प्रक्वन: २९-७३ अन्तर्जीवन का विश्लेषण, इतिहास मोर पुराण में जन्तर, सत्य की सोज में शास्त्रीय माध्यम पर पळ, महावीर, पद, मासे, कायक्लेश उपवास । . . १-२७ जन्म, विवाह, वीतरागवा, नग्नता । ४. प्रश्नोत्तर-प्रवचन: २७-१४२ मशरीरी नात्मानों से सम्पर्क, सग, पिरापोर पीवराम का अर्थ, जातिस्मरण, घृणा और प्रेम, तम्व के प्रति जागरूकला, पुर मौर बलाई लामा, मैथुन और अनुभूति, वीतरागता और समाज, व्यवहारदृष्टि और निश्चयदृष्टि। १. प्रवचन : परिग्रह मोर बपरिसह ( मोष बोर त्यान), सल की अभिव्यक्ति के उपकरण खोजने की सामना । प्रश्नोत्तर-प्रवचन : १९९-२०४ साहस, विवेक, जागरण, करुणा का रूप, जगत् की सत्यता और असत्यता का विचार, अनुभूति बार अभिव्यक्ति की दिशाबों में भेद । ७. प्रवचन : २०५-२२८ , अभिव्यक्ति के उपायों की खोज। ८. प्रलोतरप्रवचन : २२६-२०॥ बनेकान्दवार (सापेक्षतावाव), प्रायिकता का विशेष Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( x) 'महावत और अर्युवत, दर्शन, मान, चरित्र, विविष योनियां - और मोच, महावीर से सम्मकं स्थापित करने की सम्भावना । १. प्रवचन : २७५-२६८ महावीर से सम्पर्क स्थापित करने का मार्ग, धावक शब्द का ..: अर्थ, श्रावक बनने की कला, प्रतिक्रमा,सामायिक । १०. प्रवचन : ... २६९-३२३ सामायिक की व्याख्या। ११. प्रश्नोत्तर-प्रवचन : ३२५-३५६ नैतिकता और नैतिक साहस, पाखण्डी ब्रह्मचर्य और सही ब्रह्मचर्य, कामोपभोग का सम्यक् प्रकार, दैनिक प्रक्रिया में सतत लागरण, व्रतमीमांसा, भूत-प्रेतों के सम्बन्ध में । १२. प्रश्नोत्तर-प्रवरन : ३६१-४०३ सामायिक और वीतरागता में अन्तर, कार्यकारण सिद्धान्त का सविस्तार विश्लेषण, कर्मों की सूखी रेखा का सिद्धान्त, कर्मवाद की न्याय-सङ्गति, कर्मवाद और समाजवाद, कर्मों की सूखी रेखा की व्याख्या। १३. प्रवचन: ४०५-४३४ संकल्प और उसका उपयोग, विकास सिद्धान्त, विकास प्रक्रिया में डारविन के मत की आलोचना, कर्मवाद और पुनर्जन्म, 'तीर्थकरों की माताओं के स्वप्न, जागृत दशा में मृत्यु, तिम्बत में 'बारदो' का प्रयोग, सूक्ष्म शरीर । १४. प्रश्नोत्तर-प्रवचन : ४३५-४५५ महावीर को गुरु की खोज अनावश्यक, भिक्षा की शर्ते, गृहत्याग पलायन नहीं है। १५. प्रश्नोत्तर-प्रवचन: ४५७-४६० महावीर अहंवादी नहीं है, प्रेम में शर्त नहीं है, महावीर का जन्म जगत् की जरूरत थी, अध्यात्म विज्ञान की खोज में . तिब्बत का योग, महावीर पोर बहिंसा, सीमित क्षेत्र में ही . Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( * ) तीर्थकरों का जन्म लेना, तीर्थङ्करों की श्रृंखला में चौबीस व्यक्तियों का होना, उसके कारण, श्रृङ्खला बन्द करने में अनुयायियों का हाथ, पश्चिम में फकीरों की श्रृङ्खला, मुहम्मद के बाद मुसलमान फकीर, रहस्यवादी सूफियों के सम्बन्ध में, साधना पद्धतियों के विभिन्न प्रयोगों में लक्ष्य की एकता, पशुहिंसा के विषय में समझौता अमान्य, वनस्पति जीवन और पशु जीवन में अन्तर शाकाहारी ओर अशाकाहारी व्यक्तियों को करुणा में अन्तर । १६. प्रश्नोतर - प्रवचन : जगत् अनादि और अनन्त, जड़ और चेतन एक हो वस्तु के दो रूप, सृष्टि के आदि को जानना असम्भव, जीवन की प्रतिकूल परिस्थितियों में महावीर की मानसिक स्थिति का विश्लेषण, महावीर की अहिंसा में स्थिरता । १७. प्रश्नोतर - प्रवचन : ४६-५२३ मुक्त आत्मा का पुनरागमन, आवागमन से छूटने के उपाय । १६. प्रश्नोतर - प्रवचन : अकेले की खोज अकेले के प्रति, कहानियाँ ऐतिहासिक नहीं, सत्य की खोज में विधि की असमर्थता, अनेकान्तवाद | २०. प्रश्नोत्तर - प्रवचन : एकांतवाद उपयोगी नहीं, सुरक्षा असुरक्षा की मीमांसा, साजों में अहंकार | ५२५-५६० महावीर की अहिंसा को समझने में कठिनाई, महाबीर के सिद्धान्तों का प्रयोगात्मक रूप, महावीर की साधुता और दूसरों को साधु बनने का उपदेश, महावीर के संघ में साध्वी संघ, महावीर के जीवन का विश्लेषण और समाज, समाज को स्थिति और नए समाज का निर्माण, राग-विराग, द्वेष-घृणा आदि द्वन्द्वों से मुक्त, ध्यान की भूमिका, निगोद की व्याख्या, निगोद से मोल तक । १८. प्रश्नोत्तर- प्रवचन : ५६१-४६३ ५८५-६०० ६०१-६१३ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. प्रश्नोचा पवन : जीवन्त सम्पर्क के किए सोकमाषा प्राकृत का प्रयोग, मान के अधिकारी अधिकारी का प्रश्न, पण्डितों की नाराजगी, गोशालक और महावीर, कुक्कुटासन और गोवोहासन, महावीर का बात्मदर्शन, महावीर का गृहत्याग।। २२. प्रश्नोत्तरं प्रवट ६६३-६०६ त्याग और भोग, सैक्स परवट्स और धार्मिक परवट्स, मासान ध्यान, शंकर और चार्वाक । २३. प्रश्नोत्तर-प्रवचन : ६८०-७०२ चेतना और मूळ, महावीर और पारसनाप की परम्पराएं, प्रेम अनादि है, प्रेम की अनुभूति नवीन है, धर्म और सम्प्रदाय, एक धर्म की स्थापना असम्भव, धर्म की नहीं, पार्मिकता की 'स्थापना सम्भव है। २४. प्रश्नोत्तर-प्रपन: ७०३-७२४ सुख की खोज, स्वतन्त्रता, उपलग्ष वात्मानों को उतरने की स्वतन्त्रता। २५. प्रश्नोत्तलमल: ७२.५-७४२ एल, दुःख और बानन्द की व्याख्या। १६. समापन-प्रवचन: ७४३-७६१ महावीर को समझने का एकमात्र उपाय-प्रेम, उपसंहार । परिशिष्ट-१: ७६३-७८९ (१) अहिंसा। परिशिष्ट-२: ७६१-१९ (२).यान। *रहस्यदर्शी कषि रजनोश : एक झलक । ७६७-७१८ *भगवान् श्री रजनीश साहित्य सूची Page #16 --------------------------------------------------------------------------  Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन. Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं महावीर का, अनुयायी नहीं हूं, प्रेमी हूं, वैसे ही जैसे क्राइस्ट का, कृष्ण का, बुद्ध का, लाओत्से का ; और मेरी दृष्टि में अनुयायी कभी भी नहीं समझ पाता। और दुनिया में दो हो तरह के लोग हैं । साधारणतया यां तो काई अनुयायो होता है या कोई विरोध में होता है। न अनुयायी समझ पाता है न विरोधी समझ पाता है। एक और रास्ता भी है 'प्रेम'; जिसके अतिरिक्त हम और किसी रास्ते से कभी किसी को समझ ही नहीं पाते । अनुयायो को एक कठिनाई है कि वह एक से बंध जाता है और विरोधी को भी कठिनाई है कि वह विरोध में बंध जाता है। सिर्फ प्रेमी को एक मुक्ति है। प्रेमी को बंधने का कोई कारण नहीं है। और जो प्रेम बांधता है, वह प्रेम ही नहीं। ___ तो महावीर से प्रेम करने में महावीर से बंधना नहीं होता। महावीर से प्रेम करते हुए भी बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को प्रेम किया जा सकता है क्योंकि जिस चीज को हम महावीर में प्रेम करते हैं वह हजार-हजार लोगों में उसी तरह प्रकट हुई है । महावीर को थोड़े ही प्रेम करते हैं । वह जो शरीर है वर्धमान का, वह जो जन्मतिथियों में बंधी हुई है एक इतिहास रेखा है, एक दिन पैदा होना, और एक दिन मर जाना ..-उसे तो प्रेम नहीं करते । प्रेम करते हैं उस ज्योति को जो उस मिट्टी के दिये में प्रकट हुई। वह दिया कोन था, यह बहुत अर्थ की बात नहीं। बहुत दियों में वह ज्योति प्रकट हुई है; जो ज्योति को प्रेम करेगा वह दिये से नहीं बंधेगा। और जो दिये से बंधेगा, उसे ज्योति का कभी पता नहीं लगेगा। क्योंकि दिये से जो बंध रहा है, निश्चित है कि उसे ज्योति का पता Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरो दृष्टि में नहीं चला। जिसे ज्योति का पता चल जाए उसे दिये की याद भी रहेगी ? उसे दिया फिर दिखाई भी पड़ेगा ? जिसे ज्योति दिख जाए, वह दिये को भूल जाएगा। इसलिए जो दिये को याद रखे हैं उन्हें ज्योति नहीं दिखी है और जो ज्योति को प्रेम करेगा, वह इस ज्योति को या उस ज्योति को थोड़े ही प्रेम. करेगा, वह जो ज्योतिर्मय है उसे ही इंम करेगा । जब एक ज्योति में बंध जाएगा उसे तो कहीं भी ज्योति है, वहीं दिख जाएगी - सूरज में भी घर में जलने वाले छोटे से दिये में भी, चांद-तारे में भी आग में-जहां कहीं भी ज्योति है, वहीं दिख जाएगी। लेकिन अनुयायी व्यक्तियों से बंधे हैं । विरोधी भी व्यक्तियों से बंधे हैं । प्रेमी भर को व्यक्ति से बंधने की कोई जरूरत नहीं । • " • तो मैं प्रेमी हूं। और इसलिए मेरा कोई बंधन नहीं है महावीर से । श्रौर बंधन न हो तो ही समझ हो सकती है-अण्डरस्टैंडिंग हो सकती है । यह भी ध्यान में रखना जरूरी है कि महावीर को चर्चा के लिए क्यों चुनें? बहाना है सिर्फ । जैसे खूंटी होती है। कपड़ा टांगना, प्रयोजन होता है। खूंटी कोई भी काम दे सकती है। महावीर भी काम दे सकते हैं ज्योति के स्मरण में, बुद्ध भी, कृष्ण भी, क्राइस्ट भी । किसी भी खूंटी से काम लिया जा सकता है । स्मरण उस ज्योति का जो हमारे दिये में भी जल सकती है ! स्मरण प्रेम मांगता है, अनुकरण नहीं । और वह स्मरण भी महावीर का जब हम करते हैं, तो भी महावीर का स्मरण नहीं है वह । और उस तत्व का स्मररण है उस तत्व स्मरण आ जाए तो और वही सार्थक है जो आत्म-स्मरण की पूजा से यह नहीं होता । पूजा से आत्म । । का जो महावीर में प्रकट हुआ तत्काल आत्म-स्मरण बन जाता है तरफ ले जाए। लेकिन महावीर की स्मरण नहीं आता ! बड़ी मजे की बात 1 पूजा आत्म-विस्मरण का उपाय है। जो अपने को भूलना चाहते हैं वे पूजा में लग जाते हैं । उनके लिए भी महावीर खूंटी का काम देते हैं, बुद्ध, कृष्णसब खूंटी का काम देते हैं । जिसे अपने को भूलना है वे अपने भूलने का वस्त्र खूंटी पर टांग देते हैं । अनुयायी, भक्त, अन्धे अनुकरण करने वाले भी महावीर, बुद्ध, कृष्ण की खूंटियों का उपयोग कर रहे हैं, आत्म-विस्मरण के लिए । पूजा, प्रार्थना, अर्चना सब विस्मरण है । स्मरण बहुत और बात है । स्मरण का अर्थ है कि हम महावीर में उस सार को खोज पाए - किसी में भी, कहीं से भी । वह सार हमें दिख जाए; उसकी एक Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवचन-१ झलक मिल जाए, उसका एक स्मरणं हो जाए कि ऐसा भी हुआ है, ऐसा भी किसी व्यक्ति में होता है। ऐसा भी सम्भव है। यह सम्भावनाओं का बोध तत्काल हमें अपने प्रति जगा देता है कि जो किसी एक में सम्भव है, जो एक मनुष्य में सम्भव है, वह फिर मेरो सम्भावना क्यों न बने ? और तब हम पूजा में न जायेंगे बल्कि एक अन्तर् पीड़ा, एक इनर सरिंग में उतर जायेंगे। जैसे जले हुए दिये को देख कर एक बुझा हुआ दिया एक आत्मपीड़ा में उतर जाए और उसे लगे कि मैं व्यर्थ हूं, मैं सिर्फ नाम मात्र का दिया हूं क्योंकि वह ज्योति कहां, वह प्रकाश कहां? मैं सिर्फ अवसर हैं जिसमें ज्योति प्रगट हो सकतो है, लेकिन अभी हुई नहीं है। लेकिन बुझे हुए दियों के बीच बुझा हुआ दिया रखा रहे तो उसे ख्याल भी न आए, पता भी न चले। तो करोड़ बुझे हुए दियों के बीच में भी जो स्मरण नहीं पा सकता वह एक जले हुए दिये के निकट आ सकता है। __ महावीर, या बुद्ध, या कृष्ण का मेरे लिए इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं कि वे जले हुए दिये हैं, और उनका ख्याल उनके जले हुए दिये की लपट एक बार भो हमारी आंखों में पहुँच जाए तो हम फिर वही आदमी नहीं हो सकते जो हम कल तक थे, क्योंकि हमारी एक नई सम्भावना का द्वार खुल गया; जो हमें पता ही नहीं था कि हम हो सकते हैं उसकी प्यास जग गई। यह प्यास जग जाए तो कोई भी बहाना बनता हो, इससे कोई प्रयोजन नहीं । तो मैं महावीर को भी, क्राइस्ट को भी बहाना बनाऊंगा, कृष्ण को भी, बुद्ध को भी, लाओत्से को भी। फिर हममें बहुत तरह के लोग हैं। और. कई बार ऐसा होता है कि जिसे लाओत्से में ज्योति दिख सकती है, हो सकता है उसे बद्ध में ज्योति न दिखे। और यह भी हो सकता है कि जिसे महावीर में ज्योति दिख सकती है उसे लाओत्से में ज्योति न दिखे। एक बार अपनी ही ज्योति दिख जाए तब तो लाओत्से, बुद्ध का मामला हो नहीं, तव तो सड़क पर चलते साधारण आदमी में भी ज्योति दिखने लगती है। तब फिर ऐसा आदमो ही नहीं दिखता जिसमें ज्योति न हो। तब तो आदमी बहुत दूर की बात है पशुपक्षी में वही ज्योति दिखने लगती है। पशु-पक्षी भी बहुत दूर की बात है, पत्थर में भी वह ज्योति दिखने लगती है। एक बार अपने में दिख जाए तो सब में दिखने लगती है। लेकिन, जब तक स्वयं में नहीं दिखी तब तक जरूरी नहीं कि सभी लोगों को महावीर में ज्योति दिखे। उसके कारण है । व्यक्ति. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में व्यक्ति के देखने के ढंग में भेद है और व्यक्ति-व्यक्ति की ग्राहकता में भेद है और व्यक्ति-व्यक्ति के रुझान और रुचि में मेद है । एक सुन्दर युवति हैं, जरूरी नहीं सभी को सुन्दर मालूम पड़े । • सम्राट् ने । और मजनू को देर तक वृक्षों के नीचे रोना गांव भर में उसकी चर्चा । ने दया करके उसे बुला लिया, बोला तू पागल हो गया है । लैला दूंगा । मजनू को पकड़ लिया था उसके गांव के पोड़ा की खबरें उस तक पहुंची थीं। उसका रात और चिल्लाना; उसकी आंखों से बहते हुए आंसू; तो सम्राट् को मैंने भी देखा है । ऐसा क्या है ? बहुत साधारण है । उससे सुन्दर लड़कियाँ तेरे लिए मैं इन्तजाम कर देख । लड़कियां बुला ली थीं उसने । कतार लगा दो दीवार के सामने कहा कि देख ! नगर की सुन्दरतम लड़कियाँ वहां पर उपस्थित थीं, राजा का निमन्त्रण था। लेकिन, मजनू ने देखा तक नहीं । और मजनू खूब हंसने लगा। उसने कहा, आप समझे नहीं । लैला को देखने के लिए मजनू की आंख चाहिए। वह आंख आपके पास नहीं । तो हो सकता है लैला आपको साधारण दिखे । लैला को मैं ही देख सकता हूं असाधारण । मैं मजनू हूँ । मजनू की आंख लैला को पैदा करती है, आविष्कार करती है, उद्घाटन करती है— यानी लैला होने के लिए मजन चाहिए । और 1 एक-एक व्यक्ति में बुनियादी भेद है । इसलिए दुनिया में इतने तीर्थंकर, इतने अवतार, इतने गुरु हैं । और इसलिए ऐसा हो सकता है कि बुद्ध और महावीर जैसे व्यक्ति एक ही जगह में एक ही दिन ठहरे और गुजरे हों, एक ही इलाके में वर्ष- वर्ष घूमे, हों; फिर भी, गांव में किन्हीं को बुद्ध दिखाई पड़े हों, किन्हीं को महावीर दिखाई पड़े हों, और किन्हीं को दोनों न दिखाई पड़े हों । जब मैं कुछ देखता हूं तो जो है, दिखाई पड़ रहा है, वही महत्त्वपूर्ण नहीं है । मेरे पास देखने की एक विशिष्ट दृष्टि है । और, दृष्टि प्रत्येक व्यक्त की अलग है। किसी को महावीर में वह ज्योति दिखाई पड़ सकती है । और, तब उस बेचारे को मजबूरी है । हो सकता है कि वह कहे कि बुद्ध में कुछ भी नहीं है और वह कहे जीसस में क्या है ? मुहम्मद में क्या है ? लेकिन, उसकी नासमझी है। वह जरा जल्दी कर रहा है। वह सहानुभूतिपूर्ण नहीं मालूम हो रहा है । वह समझ नहीं रहा है । और जब कोई उससे कहेगा कि महावीर में कुछ भी नहीं है तो वह क्रोध से भर जाएगा । अब भी वह नहीं समझ पा रहा है । जब मैं कहता हूं कि जीसस में कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है तो सकता है कि किसी को महावीर में कुछ भी न दिखाई पड़े । ९ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FOR महावीर में जो है उसे देखने के लिए विशिष्ट आंख चाहिए। हां, जमीन पर भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं । बहुत भिन्न-भिन्न तरह के लोग । कोई इनकी जातियां बनाना भी मुश्किल है, इतने भिन्न तरह के लोग हैं । . लेकिन, एक बार दिख जाए साम्य तो सब भिन्नताएं खो जाती हैं । • • सब भिनताएं दिये की भिन्नताएं हैं- ज्योति की भिन्नता नहीं है । दिये भिन्न-भिन्न हैं । बहुत-बहुत आकार के हैं। बहुत - बहुत रूप के हैं ।" बहुत - बहुत रंगों के हैं । बहुत - बहुत कारीगरों ने उन्हें बनाया है । बहुत-बहुत उनके स्रष्टा हैं, उनके निर्माता हैं । तो हो सकता है कि जिसने एक ही तरह का दिया देखा हो, दूसरे तरह के दिये को देखकर कहने लगे कि यह कैसा दिया है । ऐसा दिया होता भी नहीं । लेकिन, जिसने एक बार ज्योति को देख लिया चाहे कोई भी रूप हो, चाहे कोई भी आकार हो- जिसने एक बार ज्योति देख ली - दूसरी किसी आकार की ज्योति को देखकर वह यह न कह सकेगा कि यह कैसी ज्योति है ? क्योंकि ज्योतिर्मय का जो अनुभव है, वह आकार का अनुभव नहीं । और दिये का जो अनुभव है, वह आकार का अनुभव है । दिया एक जड़ है, पदार्थ है, ठहरा हुआ, रुका हुआ । ज्योति एक चेतन है, एक सत्य है जीवन्त, भागी हुई । दिया रखा हुआ है। ज्योति जा रही है । और यह कभी ख्याल किया कि ज्योति सदा ऊपर की ओर जा रही है । कोई भी उपाय करो, दिये को कैसा भी रखो इस आकार का 'आड़ा कि कि उस आकार ऊपर को । कैसी भी ज्योति है, अनुभव है तिरछा, ऊँचा कि नीचा, छोटा कि बड़ा, का, ज्योति है कि बस भागी जा रही है भागी जा रही है ऊपर को । निराकार का ज्योति में और ऊर्ध्वगमन की पहचान कि सिर्फ ऊपर ही ऊपर जाना। और, कितनी जल्दी ज्योति का आकार खो जाता है । देर नहीं लगती है, देख भी नहीं पाते कि आकार खो जाता है । पहचान भी नहीं पाते कि आकार खो जाता है । ज्योति कितनी जलती है । छोटा सा आकार लेती है, फिर निराकारमय हो जाती है, फिर खोजने चले जाओ, मिलेगी नहीं । थी कभी - अब थी, और अब नहीं, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता है कि जो था, वह अब न हो जाए । .... ज्योति एक मिलन है श्राकार-निराकार का । प्रतिपल आकार निराकार में जा रहा है। हम आकार तक देख पाएं तो भी हम अभी ज्योति को नहीं देख पाए, क्योंकि जो आकार के पार संक्रमण हो रहा है निराकार में, वही ज्योति है । बोर इसलिए ऐसा हो जाता है कि दियों को पहचानने वाले ज्योतियों के • Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में सम्बन्ध में झगड़ा करते रहते हैं। और दियों को पकड़ने वाले ज्योतियों के नाम पर पंथ .और सम्प्रदाय बना लेते हैं। और ज्योति से दिये का क्या सम्बन्ध ! ज्योति से दिये का सम्बन्ध ही क्या है ? दिया सिर्फ एक अवसर था। जहां ज्योति घटी। और जो ज्योति का आकार दिखा था वह भी सिर्फ एक. अवसर था, जहां से ज्योति निराकार में गई। ___ वर्धमान तो दिया है, महावीर ज्योति; सिद्धार्थ तो दिया है, बुद्ध ज्योति है जीसस तो दिया है-क्राइस्ट ज्योति है। लेकिन हम दिये को पकड़ लेते है। और महावीर के सम्बन्ध में सोचते-सोचते हम वर्धमान के सम्बन्ध में सोचने लगते हैं। भूल हो गई। वर्षमान को जो पकड़ लेगा, महावीर को कभी नहीं जान सकेगा। सिद्धार्थ को जो पकड़ लेगा उसे बुद्ध की कभी पहचान ही नहीं होगी। और जीसस को, मरियम के बेटे को, जिसने पहचाना, वह क्राइस्ट को, परमारुमा के बेटे को कभी नहीं पहचान पाएगा। इनमें क्या सम्बन्ध है ? दोनों बात ही अलग है। लेकिन, हमने दोनों को इकट्ठा कर रखा है-जीसस, क्राइस्ट, वर्षमान, महावीर, गौतम बुद्ध को, दिये और ज्योति को, और ज्योति का हमें कोई पता नहीं है । दिये को हम पकड़े हैं। मेरा दिये से कोई सम्बन्ध नहीं। कोई अर्थ ही नहीं देखता हूँ इनमें । तो फिर दिये तो हम हैं ही। इसकी चिन्ता हमें नहीं करनी चाहिए । दिये हम सब हैं ही । ज्योति हम हो सकते हैं, जो हम अभी नहीं हैं। ज्योति को चिन्ता करनी चाहिए । इधर महावीर को निमित्त बनाकर ज्योति पर विचार करना. होगा। जिन्हें महावीर की तरफ से ज्योति पहचान में आ सकती है अच्छा है वहीं से पहचान आ जाए । जिनको नहीं आ सकती उनके लिये किसी और को निमित्त बनाया जा सकता है । सब निमित्त काम में आ सकते हैं । बहुत विशिष्ट हैं महावीर-इसलिए सोचना तो बहुत जरूरी है उन पर । लेकिन विशिष्ट किसी दूसरे की तुलना में नहीं । आम तौर से हम ऐसा हो सोचते हैं कि कोई व्यक्ति विशिष्ट है तो हम पूछते हैं-किस से ? जब मैं कहता हूँ बहुत विशिष्ट हैं महावीर तो मैं यह नहीं कहता हूँ कि बुद्ध से, कि मुहम्मद से। तुलना मैं नहीं कर रहा हूँ बल्कि विशिष्ट है-इस अर्थ में-जो घटना घटी उससे । वह जो घटना घटी, वह जो ज्योतिर्मय होने की घटना और निराकार में विलीन हो जाने की घटना, उससे विशिष्ट हैं। उस घटना से जीसस विशिष्ट है। मुहम्मद विशिष्ट है, कनफ्यूसियस विशिष्ट हैं। उस बर्ष Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन -१ में वही विशिष्ट है जो आकार को खोकर निराकार में चला गया है । यही है विशिष्टता । • हम अविशिष्ट हैं । हम साधारण हैं । साधारण इस अर्थ में कि वह घटना अभी नहीं घटी। दुनिया में दो! ही तरह के लोग हैं - साधारण और अस्तधारण । साधारण से मेरा मतलब है जो अभी सिर्फ दिया है, ज्योति बन सकते हैं । साधारण असाधारण का अवसर है, मौका है, बीज है । और असाधारण वह है जो ज्योति बन गया और गया वहां, उस घर की तरफ जहां पहुँच कर शान्ति है, जहां आनन्द है, जहां खोज का अन्त है और उपलब्धि । इसलिए जब मैं विशिष्ट कह रहा हूं तो मेरा मतलब यह नहीं कि किसी से विशिष्ट । विशिष्ट जब मैं कह रहा हूँ तो मेरा मतलब है -- साधारण नहीं असाधारण । हम सब साधारण हैं । हम सब असाधारण हो सकते थे । और जब तक हम साधारण हैं, तब तक हम साधारण और असाधारण के बीच जो भेद खड़े करते हैं, वह एकदम नासमझी के हैं । साधारण बस साधारण ही है । वह चपरासी है कि राष्ट्रपति, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । यह साधारण के हो दो रूप हैं । चपरासी पहली सीढ़ी पर और राष्ट्रपति आखिरी सीढ़ी पर । चपरासी भी चढ़ता जाए तो राष्ट्रपति हो • जाए और राष्ट्रपति उतरता जाए तो चपरासी हो जाए। चपरासी चढ़ जाते हैं, राष्ट्रपति उतर आते हैं । दोनों काम चलते हैं । यह एक ही सीढ़ी पर सारा खेल है - साधारण की सीढ़ी पर । साधारण की सीढ़ी पर सभी साधारण हैंचाहे वह किसी भी पायदान पर खड़े हों - नम्बर एक की कि नम्बर हजार की कि नम्बर शून्य की । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। एक सीढ़ी साधारण कीं है और इस साधारण की सीढ़ी से जो छलांग लगा जाते हैं, वे असाधारण में पहुंच जाते हैं । असाधारण की कोई सीढ़ी नहीं है । इसलिए असाधारण दो व्यक्तियों में नीचे-ऊपर कोई नहीं होता । फिर कई लोग पूछते हैं कि बुद्ध ऊंचे कि महावीर, कृष्ण ऊंचे कि क्राइस्ट । तो वे अपनी साधारण को सीढ़ी के गणित से असाधारण लोगों को सोचने चल पड़े। और ऐसे पागल हुए हैं कि किताबें भी लिखते हैं कि कौन किससे ऊंचा । और उन्हें पता नहीं कि ऊंचे और नीचे का जो ख्याल है, साधारण दुनिया का स्याल है । असाधारण ऊंचा श्रीर नीचा नहीं होता । असल में जो ऊंचे-नीचे की दुनिया से बाहर चला जाता है, -वही असाधारण है । तो भला कैसे तोलें कि कबीर कहां कि नानक कहां, और Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में ऐसी किताबें हैं, ऐसे नक्शे बनाए हैं, लोगों ने कि कौन किसके ऊपर खड़ा है। वहां भी कौन आगे हैं, कौन पीछे है, कौन किस खण्ड में पहुंच गया है। वे साधारण लोगों की दुनिया और साधारण लोगों के ख्याल है। वे वहां भी वही सोक रहे हैं। वहां कोई ऊँचा नहीं है, कोई नीचा नहीं है। ___असलू में ऊंचा और नीचा जहां तक है, वहां तक 'दिया है। बड़ा और छोटा जहां तक है, वहां तक 'दिया' है । ज्योति बड़ी और छोटी होती नहीं। ज्योति या तो ज्योति होती है या नहीं होती। 'ज्योति बड़ी और छोटी का क्या मतलब है ? और निराकार में खो जाने की क्षमता छोटी ज्योति की उतनी ही है, जितनी बड़ी से बड़ी ज्योति की और निराकार में खो जाना ही असाधारण हो जाना है। तो छोटी ज्योति कौन ? और बड़ी ज्योति कोन ? छोटी ज्योति धीरे-धीरे खोती है, बड़ी ज्योति जल्दी खो जाती है यह वैसे ही भूल है, इसे थोड़ा समझ लेना उचित होगा। • हजारों साल तक ऐसा समझा जाता था कि अगर हम एक मकान की छत पर खड़े हो जाएं और एक बड़ा पत्थर गिराएं और एक छोटा पत्यरएक साथ, तो बड़ा पत्थर जमीन पर पहले पहुंचेगा और छोटा पत्थर पीछे । हजारों साल तक यह ख्याल था किसी ने गिराकर देखा नहीं था, क्योंकि. बात इतनी साफ सीधी मालूम पड़ती थी और उचित तर्कयुक्त कि कोई यह कहता भी कि चलो जरा छत पर गिराकर देखो तो लोग कहते पागल हो । इसमें भी कोई सोचने की बात है। बड़ा पत्थर पहले गिरेवा, बड़ा है, ज्यादा वजन है। छोटा, पीछे गिरेगा। बड़ा पत्थर ? बड़ा पत्थर जल्दी आएगा। छोटा पत्थर धीरे आएंगा। लेकिन, उन्हें पता नहीं था कि बड़ा पत्थर छोटे पत्थर का सवाल नहीं है गिरने में सवाल है ग्रेवीटेशन का, सवाल है जमीन की कशिश का। और वह कशिश दोनों पर बराबर काम कर रही है। छोटे और बड़े का उस कशिश के लिए भेद नहीं। तो जब पहली दफा एक आदमी ने चढ़कर "पिसा' के टावर पर गिराकर देखा, वह अद्भुत आदमी रहा होगा। गिराकर देखे दो पत्थर छोटे और बड़े। और जब दोनों पत्थर साथ गिरे तो वह खुद ही चौंका । उसको भी विश्वास न आया होगा। बार-बार गिराकर देखा कि पक्का हो जाए, नहीं तो लोग कहेंगे पागल हो गया है-ऐसा नहीं हो सकता है। और जब दौड़कर उसने विश्वविद्यालय में खबर दी, जिसमें कि वह अध्यापक था, तो अध्यापकों ने कहा कि ऐसा कभी नहीं हो सकता। छोटा और बड़ा पत्थर साथ-साथ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-१ कैसे गिर सकते हैं ? छोटा पत्थर छोटा है, बड़ा पत्थर बड़ा। बड़ा पहले गिरेगा, छोटा पत्थर पीछे गिरेगा। और उन्होंने जाने से इन्कार किया। पण्डित सबसे ज्यादा जड़ होते हैं। अध्यापक थे, विश्वविद्यालय के पण्डित थे। • उन्होंने कहा यह हो ही नहीं सकता। जाने की जरूरत नहीं। फिर भी, बामुश्किल प्रयास करके वह ले गया और पण्डितों ने देखा कि बराबर दोनों साथ गिरे, तो उन्होंने कहा कि इसमें जरूर कोई जालसाजी है। क्योंकि ऐसा हो कैसे सकता है ? या शैतान का कोई हाथ है। ___ इस उदाहरण को मैं इसलिए कह रहा हूँ कि जमीन के अतिरिक्त और एक ग्रेवीटेशन (गुरुत्वाकर्षण ) है । एक कशिश, एक गुरुत्वाकर्षण नीचे खींचने का। और परमात्मा में भी, निराकार में भी एक वीटेशन है, एक कशिश है, ऊपर खींचने का। यह जो निराकार फैला हुआ है ऊपर, वह चीजों को ऊपर खींचता है। हम जमीन की कशिश को तो पहचान गए धीरे-धीरे, परन्तु ऊपर की कशिश को हम नहीं पहचान पा रहे हैं क्योंकि जमीन पर हम सब हैं, उस ऊपर की कशिश को कभी कोई जाता है और जो जाता है वह लौटता नहीं तो कुछ खबर मिलती नहीं। वह जो ऊपर की, कशिश है, उसी का नाम ग्रेस है। इसको प्रेविटी, उसका प्रेस । इसका गुरुत्वाकर्षण, उसका प्रभुप्रसाद । कोई और नाम भी दो तो उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वहां छोटी और बड़ी ज्योति का सवाल नहीं। वह ज्योति भर बन जाए बस । छोटो ज्योति उतनो हो गति से चली जाती है जितनी बड़ी, वह ग्रेस खींच लेती है निराकार की। इसलिए वहां कोई छोटा-बड़ा नहीं, क्योंकि वहां छोटेबड़े का कोई अर्थ नहीं। ___तो बुद्ध और महावीर में कौन बड़ा, कोन छोटा-यह साधारण लोगों की गणित की दुनिया है जिससे हम हिसाब लगाते हैं। और साधारण गणित की दुनिया से प्रसाधारण लोगों को नहीं तोला जा सकता। इसलिए वहां कोई बड़ा-छोटा नहीं। साधारण से बाहर जो हुआ, वह बड़े और छोटे की गणना से बाहर हो जाता है। इसलिए इससे बड़ी भ्रान्ति कोई नहीं हो सकती कि कोई कृष्ण में, काइस्ट में, कोई बुद्ध में, कोई महावीर में तौल करने बैठे। कोई कोर में, नानक में, रमण में, कृष्णमूति में, कोई तोल करने बैठे कि कौन बड़ा, कौन छोटा; कोई छोटा-बड़ा नहीं है। लेकिन, हमारे मन को बड़ी तकलीफ होती है, अनुयायी के मन को बड़ी . तकलीफ होती है, कि हमने जिसे पकड़ा है वह बड़ा होना चाहिए। और इसी Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरो दृष्टि में लिए मैंने कहा कि अनुयायी कभी नहीं समझ पाता, समझ ही नहीं सकता। अनुयायी कुछ थोपता है अपनी तरफ से। समझने के लिए बड़ा सरल चित्त चाहिए; अनुयायी के पास सरल चित्त नहीं। विरोधी भी नहीं समझ पाता क्योंकि वह छोटा करने के आव्ह में होता है, अनुयायों से उल्टी कोशिश में . लगा होता है। प्रेम ही समझ पाता है । इसलिए जिसे समझना है, उसे प्रेम करना है और प्रेम सदा बेशर्त है। अगर कृष्ण को इसलिए प्रेम किया है कि तुम मुझे स्वर्ग ले चलना तो यह प्रेम शर्तपूर्ण होगा, उसमें कन्डीशन शुरू हो गई । अगर इसलिए महावीर से प्रेम किया है कि तुम ही सहारे हो, तुम्ही पार ले चलोगे भवसागर से, शर्त शुरू हो गई, प्रेम खत्म हो गया। प्रेम है बेशर्त । कोई शर्त ही नहीं। प्रेम यह नहीं कहता कि तुम मुझे कुछ देना । प्रेम का मांग से कोई सम्बन्ध ही नहीं। जहां तक मांग है, वहां तक सौदा है, जहां तक सौदा है वहां तक प्रेम नहीं है। सब अनुयायी सौदा करते हैं। इसलिए कोई अनुयायी प्रेम नहीं कर पाता 'और विरोधी किसी और से सौदा कर रहा है, इसलिए विरोधी हो गया है ! और विरोध भी इसीलिए हो गया है क्योंकि उसे सौदे का आश्वासन नहीं दिखाई पड़ रहा है कि ये कृष्ण केसे ले जाएंगे ? तो कृष्ण को उसने छोड़ दिया है, इन्कार कर दिया है। प्रेम का मतलब है बेशर्त, प्रेम का मतलब हैं वह आंख जो परिपूर्ण सहानुभूति से भरी है और समझना चाहती है। मांग कुछ भी नहीं है। महावीर को समझने के लिए पहली बात तो मैं यह कहना चाहूँगा कि . कोई मांग नहीं, कोई सीमा नहीं, कोई अनुकरण नहीं, कोई अनुयायी का भाव नहीं। एक सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि से कि व्यक्ति हुआ जिसमें कुछ घटा-हम देखें कि क्या घटा, पहचाने क्या घटा ? खोजें कि क्या घटा? इसलिए जैन कभी महावीर को नहीं समझ पाएगा। उसकी शर्त बंधी है। जैन महावीर को कभी नहीं समझ सकता। बौद्ध बुद्ध को कभी नहीं समझ सकता। इसलिए प्रत्येक ज्योति के आसपास अनुयायियों का जो समूह इकट्ठा होता है, वह ज्योति को बुझाने में सहयोगी होता है; उस ज्योति को और जलाने में नहीं । अनुयायियों से बड़ा दुश्मन खोजना बहुत मुश्किल है। इन्हें पता ही नहीं कि ये दुश्मनी कर बैठते हैं। अब महावीर.का जैन होने से क्या सम्बन्ध ? कोई भी नहीं। महावीर को पता ही न होगा कि वे जैन हैं। और पता होगा तो बड़े साधारण Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-१ आदमी थे, फिर उस असाधारण दुनिया के आदमी नहीं थे जिसकी हम बात करते है ! महावीर को पता भी नहीं हो सकता सपने में भी कि मैं जैन हूँ। न क्राइस्ट को पता हो सकता है कि मैं ईसाई हूँ। और जिनको यह पता है वे समझ नहीं पाएंगे क्योंकि जैसे) हम समझने से पहले कुछ हो जाते हैं तो जो हम हो जाते हैं वह हमारी समझ में बाधा डालता है। क्योंकि हम हो पहले जाते है और फिर हम समझने जाते हैं। समझने जाना हो तो खाली मन जाइए। इसलिए जो जैन नहीं है, बौद्ध नहीं है, हिन्दू नहीं, मुसलमान नहीं, वह समझ सकता है, वह सहानुभूति से देख सकता है। उसकी प्रेमपूर्ण दृष्टि हो सकती है क्योंकि उसका कोई आग्रह नहीं। उसका अपना होने का कोई आग्रह नहीं। और बड़े मजे की बात है कि हम जन्म से जैन हो जाते हैं, जन्म से ही बौद्ध हो जाते हैं। मतलब जन्म से हमारे धार्मिक होने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। अगर कभी भी मनुष्य को धार्मिक बनाना हो तो जन्म से धर्म का सम्बन्ध बिल्कुल ही तोड़ देना जरूरी है। जन्म से कोई कैसे धार्मिक हो सकता है, और जो जन्म से ही पकड़ लिया किसी धर्म को तो वह . समझेगा क्या? समझने का मौका क्या रहा ? अब तो उसका आग्रह निर्मित हो गया--प्रेजूडिस, पक्षपात निर्मित हो गया। अब वह महावीर को समझ हो नहीं सकता क्योंकि महावीर को समझने के पहले महावीर तीर्थकर हो गए, परम गुरु हो गए, सर्वज्ञ हो गए, परमात्मा हो गए। अब परमात्मा को पूजा जा सकता है, समझा तो नहीं जा सकता, तीर्थंकर का गुणगान किया जा सकता है, समझा तो नहीं जा सकता। समझने के लिए तो अत्यन्त सरल दृष्टि चाहिए जिसका कोई पक्षपात नहीं। ___ यह मैं कह सकता हूँ कि महावीर को समझ सका हूँ क्योंकि मेरा कोई पक्षपात नहीं, कोई आग्रह नहीं । लेकिन हो सकता है कि जो मेरी समझ हो, वह शास्त्र में न मिले। मिलेगी भी नहीं, न मिलने का कारण पक्का है। क्योंकि शास्त्र उन्होंने लिखे हैं जो बंधे हैं, शास्त्र उनके लिखे है जो अनुयायी हैं, शास्त्र उन्होंने लिखे है जो जैनी हैं, शास्त्र उनके लिए लिखे हैं जिनके लिए महावीर तीर्थकर है, सर्वज्ञ हैं, शास्त्र उनके लिखे हैं जिन्होंने महावीर को समझने के पहले कुछ मान लिया है। मेरी समझ शास्त्र से मेल न खाए"""और यह में आपसे कहना चाहता हूँ कि समझ कभी भी शास्त्र से मेल नहीं खाएगी । समझ और शास्त्र में बुनियादी विरोष रहा है। शास्त्र नासमझ ही रखते हैं। नासमस इन अनों में कि वे पक्षपातपूर्ण है। नासमझ इन अर्थों में किये Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ महावीर : मेरी दृष्टि में कुछ सिद्ध करने को आतुर हैं। नासमझ इन अर्थों में कि उनमें समझने की उतनी उत्सुकता नहीं, जितनी कुछ सिद्ध करने की। ___ एक व्यक्ति हैं, वे आत्मा के पुनर्जन्म पर शोध करते हैं । मुझे किसी ने उनसे मिलाया तो उन्होंने मुझसे कहा; हिन्दुस्तान के बाहर न मालूम कितने . विश्वविद्यालयों में वह बोले हैं। यहां के एक विश्वविद्यालय से सम्बन्धित हैं। एक उस विश्वविद्यालय में विभाग भी बना रहे हैं जो पुनर्जन्म के सम्बन्ध में खोज करता है। कुछ मित्र उन्हें लाए थे मेरे पास मिलाने । बीस-पचीस मित्र इकट्ठे हो गए थे। आते ही उनसे बात हुई तो मैंने उनसे पूछा आप क्या कर रहे हैं ? तो उन्होंने कहा कि मैं वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता हूँ कि आत्मा का पुनर्जन्म है। मैंने कहा कि एक बात मैं निवेदन करूं कि अगर वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहते हैं, तो ऐसा कहते ही आप अवैज्ञानिक हो गए। वैजानिक होने की पहली शर्त है कि हम कुछ सिद्ध नहीं करना चाहते, जो है उसे जानना चाहते हैं। वैज्ञानिक होना है तो आपको कहना 'चाहिए हम जानना चाहते हैं कि आत्मा का पुनर्जन्म होता है या नहीं होता है। आप कहते हैं कि यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध करना चाहता है कि मात्मा का पुनर्जन्म होता है तो आपने पहले ही मान लिया है कि पुनर्जन्म होता है। अब सिर्फ सिद्ध करने की बात रह गई सो आप वैज्ञानिक रूप से सिख कर सकते हैं । तो अवैज्ञानिक आप हो ही गए । तो मैंने कहा इसमें विज्ञान का नाम पीछे मत डालें, व्यर्थ है । वैज्ञानिक बुद्धि कुछ भी सिद्ध नहीं करना चाहती; जो है, उसे जानना चाहती है। और शास्त्रीय बुद्धि इसलिए अवैज्ञानिक हो गई कि वह कुछ सिद्ध करना बाहती है, जो है उसे जानना नहीं चाहती। . . जो है, हो सकता है हमारे मन में समझने-सोचने से बिल्कुल भिन्न हो, विपरीत हो। इसलिए शास्त्रीय बुद्धि का आदमी परम्परा से बंधा है, सम्प्रदाय से बंधा है, भयभीत है, सत्य पता नहीं कैसा है ? और सत्य कोई हमारे अनुकूल ही होगा; यह जरूरी नहीं। और अनुकूल ही होता तो हम कभी का सत्य में मिल गए होते । सम्भावना तो यही है कि वह प्रतिकूल होगा। हम असत्य है, वह प्रतिकूल होगा। लेकिन, हम सत्य को अपने अनुकूल ढालना चाहते हैं, तब सत्य भी असत्य हो जाता है। सब शास्त्रीय बुद्धियां असत्य की तरफ ले जाती है । तो मेरी बात न मालूम कितने तलों पर मेल नहीं खाएगी ? मेल खा जाए कभी तो यही आश्चर्य है। खा जाए तो वह संयोग की बात है। न खाना बिल्कुल स्वाभाविक होगा। फिर शास्त्र से मेरी पकड़ नहीं है। .. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ महावीर को खोजने का एक ढ़ंग तो यह है कि महावीर के सम्बन्ध में जो परम्परा है, जो शास्त्र है, जो शब्द संग्रहीत है, हम उसमें जाएं। और उस सारी परम्परा के गहरे पहाड़ को तोड़ें, खोजें और महावीर को पकड़ें कि कहाँ हैं महावीर । महावीर को हुए ढाई हजार साल हुए । ढाई हजार सालों में " जो भी लिखा गया महावीर के सम्बन्ध में, हम उस सबसे गुजरें और महावीर तक जाएँ । यह शास्त्र के द्वारा जाने का रास्ता है जैसा कि आम तौर से जाया जाता है । लेकिन, मैं मानता हूं कि इस मार्ग से कभी जाया ही नहीं जा सकता । कभी भी नहीं जाया जा सकता। आप जहां पहुंचेंगे उसका महावीर से कोई सम्बन्ध ही नहीं होगा । उसके कारण हैं। थोड़े हमें समझ लेने चाहिएं । 'प्रवचन- १ महावीर ने जो अनुभव किया है, किसी ने भी जो अनुभव किया, उसे शब्द में कहना कठिन है । पहली बात है । जिसे भी कोई गहरा अनुभव हुआ है, वह शब्द को असमर्थता को एकदम तत्काल जान पाता है कि बहुत मुश्किल होगी । परमात्मा का, सत्य का, मोक्ष का अनुभव तो बहुत गहरा अनुभव है । साधारण सा प्रेम का अगर किसी व्यक्ति को हुआ हो तो वह पाता है कि क्या कहूँ ? नहीं, शब्द में नहीं कहा जा C अनुभव भी कैसे कहूँ ? सकता । प्रेम के सम्बन्ध में अक्सर वे लोग बातें करते रहेंगे जिन्हें प्रेम का 1 । अनुभव नहीं हुआ है जो प्रेम के सम्बन्ध में बहुत आश्वासन से बातें करता हो, समझ ही लो कि उसे प्रेम का अनुभव नहीं हुआ है क्योंकि प्रेम के अनुभव के बाद हैजीटेशन आएगा, आश्वासन • नहीं रह जाएगा । बहुत डरेगा वह, चिन्तित होगा कि कैसे कहूँ ? क्या कहूँ ? कहता हूँ तो गड़बड़ हो जाती है सब | कहना चाहता हूँ वह पीछे छूट जाती हैं। जो कभी सोचा भी नहीं था वह शब्द से निकल जाता है । जितनी गहरी अनुभूति, उतने ही थोथे और व्यर्थ हैं शब्द । क्योंकि शब्द है सतह पर निर्मित । और शब्द हैं उनके द्वारा निर्मित जो सतह पर जिए हैं। अब तक सन्तों की कोई भाषा विकसित नहीं हो सकी है। जो भाषा है वह साधारण जनों की है उस भाषा में असाधारण अनुभव को डालना ऐसा ही कठिन है जैसा कि हम संगीत सुनें, जैसा कि हम संगीत सुनें और कोई बहरा आदमी कहे कि संगीत को मैं सुन पेन्ट कर दो, चित्र बना दो ! तो मैं शायद थोड़ा जाए संगीत को पेन्ट करने के लिए? कैसे पेन्ट करें, नहीं सकता तो तुम संगीत को समझ जाऊं। क्या किया की है कोशिश लोगों Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में ने; राग और रागिनियों को भी चित्रित किया है। लेकिन, वे भी उनकी ही समझ में आ सकती हैं, जिन्होंने संगीत सुना है। बहरे आदमी के वे भी कुछ समझ नहीं पड़ती। मेघ घिर गए हैं, वर्षा की बूंदें आ गई हैं, और मोर नाचने लगे हैं और एक लड़की है। उसकी साड़ी उड़ी जाती है और वह घर की तरफ भागी चली जाती है। उसके पैर के धुंधरू बज रहे हैं। अब किसी राग' को किसी ने चित्रित किया है। लेकिन बहरे आदमी ने कभी आकाश के बादलों का गर्जन नहीं सुना। इसलिए चित्र में भी बादल बिल्कुल शान्त मालूम पड़ते हैं। उनके गर्जने का सवाल ही नहीं उठता। बहरे आदमी ने कभी पैरों में बंधे धुंघरू की आवाज नहीं सुनी। तो घुघरू दिख सकते है और उसे जो दिखता है चूंधरू-चूंघरू ही नहीं। जो दिखता है, वह दिया है, धुंघरू तो कुछ और ही है जो घटता है वह जो दिखता है वह और है। चूंघरू सुना जाता है । और जो जो दिखता है उसमें, और जो सुना जाता है उसमें, बड़ा फर्क है । एक चीज दिखाई पड़ रही है, चूंघरू पैर में बंधे । लेकिन, जिसने कभी घंघरू नहीं सूने उसे क्या दिखाई पड़ता है ? उसे एक चीज दिखाई पड़ रही है जिसका घंघरू से कोई सम्बन्ध नहीं। वह चित्र बिल्कुल मृत है क्योंकि उस चित्र से ध्वनि का कोई अनुभव उस आदमी को नहीं हो सकता जिसने ध्वनि ही नहीं सुनी। मगर यह भी आसान है क्योंकि. कान और आँख एक ही तन को इन्द्रियां हैं। यह इतना कठिन नहीं। है तो बिल्कुल कठिन फिर भी उतना कठिन नहीं है। ... जब कोई व्यक्ति अतीन्द्रिय सत्य को जानता है तो सभी इन्द्रियां एकदम व्यर्थ हो जाती हैं और जवाब देने में असमर्थ हो जाती हैं । बोलना पड़ता है इन्द्रिय से और यह जाना गया है वह वहां जाना गया है, जहां कोई इन्द्रिय माध्यम नहीं है । एक इन्द्रिय माध्यम है जानने में तो दूसरी इन्द्रिय अभिव्यक्ति में माध्यम नहीं बन पाती। और अगर इन्द्रिय माध्यम ही न हो अनुभव की तो फिर इन्द्रिय कैसी रही ? इसलिए जो जानता है, एकदम मुश्किल में पड़ जाता है। बहुत बार तो वह मौन हो जाता है । 'मौन' भी बड़ी पीड़ा देता है क्योंकि लगता है उसे कि कहूँ, लगता है कि कह दूं। चारों तरफ वह ऐसे लोगों को देखता है जिनको भी यह हो सकता है। और बांसुओं से भरी हुई आंखें देखता है, क्लान्त चेहरा देखता है, चिन्ता भरे हुए हत्य देखता है। चारों तरफ रुग्ण, विक्षुब्ध मनुष्यों को देखता है। गौर भीतर देखता है, जहां परम आनन्द घटित हो गया है और लगता है कि उसे भी देख सकता Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- १ है जो निकट खड़ा है । कोई कारण नहीं हैं, कोई बाधा नहीं है, कोई रुकावट नहीं है, तो उसे कह दूं। और कहने में शब्द एकदम असमर्थ हो जाता है । तो महावीर जैसा व्यक्ति जब बोलता है पहला झूठ वह हो जाता है जब वह बोलता है । वह जो उसने बोला वह एक प्रतिशत भी वह नहीं है जो उसने जाना। फिर भी वह हिम्मत करता है, साहस जुटाता है और सोचता है क्या है । नहीं हजार किरणें पहुंचेगी तो एक किरण पहुंचेगी। खबर तो पहुंच जाएगी। वह बोलता है । अगर महावीर की वारणी पकड़ कर ही कोई महावीर की खोज करने जाए तो भी महावीर नहीं मिलेंगे । ठेठ महावीर को सुनकर ही कोई अगर उनकी वाणी पकड़कर खोजने जाए तो एङ्गल बिल्कुल बदल जायेगा । जो महावीर की वाणी को ही पकड़कर महावीर को खोजने जायेगा तो कहीं पहुंचेगा जहां महावीर नहीं होंगे। बिल्कुल चूककर निकल जायेगा वहां से, बिल्कुल ही चूक जायेगा। क्योंकि शब्द ने नहीं जाना है । वह जाना है जो महावीर ने जाना है । वह जाना है निःशब्द ने । और हमने पकड़ा है शब्द । अब शब्द से हम जहां जाएंगे वह वहां नहीं ले जाने वाला है जहां निःशब्द में जाने वाला गया होगा । और फिर अढ़ाई हजार साल बाद महावीर का शब्द जिन्होंने सुना उनमें से जिन्होंने समझा होगा थोड़ा-बहुत, वे मौन में चले गये होंगे। जिनको थोड़ी भी समझ आई होगी, पकड़ आई होगी और निःशब्द की झलक का जरा सा इशारा मिला होगा, वे निःशब्द में भाग गए होंगे। जिनको समझ में नहीं आई होगी वे शब्दसंग्रह करने में लग गये होंगे । • तो महावीर के पास जो समझा होगा वह मोन में गया होगा । जो नहीं समझा होगा वह गणधर बन गया होगा । अब यह बड़ा उल्टा मामला है । आम तोर से हम सोचते हैं कि महावीर के पास जो गणधर हैं, वे उनके सबसे अधिक समझने वाले लोग हैं । इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता । महावीर के पास जो सबसे ज्यादा समझने वाला होगा वह मौन में चला गया होगा । बह तो गया होगा खोज में वहाँ । और जो सबसे कम महावीर क्या बोल रहे हैं, उसको दूसरे तक पहुंचाने को व्यवस्था करने में लग गया होगा । तो गणधर वे नहीं हैं जो महावीर को सर्वाधिक समझ सकें । गणधर वे हैं जो महावीर की वाणी का यथार्थ ममं तो समझ न पाए, किन्तु उनके शब्दों को पकड़ बैठे और उनका संग्रह करने में लग गए समझने वाला है, वह ASIATIC 8876 SOCIETY 10 JUN 1975 174--16 THE Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में चीज़ सब संग्रह करता है। चाहे धन संग्रह संग्रह करे, इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता । अन्दर कि इकट्ठा कर लो। लेकिन कुछ कुछ थोड़ा-बहुत भर्थ भी हो सकता हैइकट्ठा करने में थोड़ा अर्थ हो सकता है और परिग्रही वृत्ति का ही यानी परिग्रही व्यक्ति का सार्थक भी है क्योंकि परिग्रही जो व्यक्ति होगा, वह करे, चाहे शब्द संग्रह करे, चाहे यश एक परिग्रह की वृत्ति है मनुष्य के चीजें ऐसी हैं जिनके इकट्ठा करने में जैसे कि कोई धन इकट्ठा करें। धन क्योकि धन पुरिग्रह की वृत्ति से ही पैदा हुआ है वाहन है, परिग्रही वृत्ति की हो विनिमय मुद्रा है । ही धन आविष्कार है । धन का कोई व्यक्ति संग्रह करे तो धन परिग्रह का ही माध्यम है और परिग्रह के लिए ही है लेकिन जिस अनुभव से महावीर गुजरे हैं वह अपरिग्रह में घटा है । और उनके शब्दों को जो इकट्ठा कर रहा है, वह परिग्रही वृत्ति का व्यक्ति है । महावीर को उत्सुकता नहीं है शब्द संग्रह की, न बुद्ध को है, न क्राइस्ट को है । वैसे तो महावीर भी किताब लिख सकते थे लेकिन महावीर ने किताब नहीं लिखी, कृष्ण ने भी किताब नहीं लिखी, बुद्ध ने भी किताब नहीं लिखी और जीसस ने भी किताब नहीं लिखी । सिर्फ लाओत्से ने, इन असाधारण लोगों में से, किंताब लिखी और वह भी जबरदस्ती में लिखी । लोग कहते कि जाएगा । जो नहीं पड़ता । पैदा हो गया कि लाओत्से ने अस्सी साल की उम्र तक किताब नहीं लिखी । कुछ लिखो । और वह कहता कि जो लिखूंगां वह झूठ हो लिखना है वह लिखा नहीं जाता, इसलिए इस उपद्रव में मैं अस्सी साल तक बचा रहा लेकिन सारे मुल्क में यह भाव अब बूढ़ा हुआ जाता हैं, अब मर जाएगा, जो जानता है वह खो जाएगा । अन्तिम उम्र में लाओत्से पर्वतों की तरफ चला गया, सब छोड़-छाड़कर, पता नहीं कि वह कब मरा। उसने कहा कि इससे पहले कि मृत्यु छीने, मुझे खुद ही चला जाना चाहिए । आखिर मृत्यु की प्रतीक्षा क्यों करें, इतना परवश भी क्यों हों ? जब वह चीन की रेखा सीमा छोड़ने लगा तो चीन के सम्राट् ने चुंगी चौकी पर और कहा कि कहा कैसा टैक्स ? न हम 1 उसे रुकवा दिया अपनी टैक्स चुकाए बिना नहीं जाने देंगे | लाओत्से ने कोई सामान ले जाते है बाहर, न कुछ लाते हैं, अकेले जाते हैं । खाली; सच तो यह है कि जिन्दगी भर से खाली हैं । कुछ सामान कभी गया नहीं जिस पर टैक्स देना पड़े। टैक्स कैसा ? सम्राट् ने बहुत मजाक किया और उससे कहा कि टैक्स तो बहुत-बहुत लिए जाते हैं । इतनी सम्पत्ति कभी कोई आदमी ले हो नहीं गया, सब कुछ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रवचन-१ न कुछ दे ही जाते हैं । तुम बोलते नहीं हो कि क्या तुम्हारे भीतर है। वह सब चुका दो, कम से कम टैक्स दे दो, सम्पत्ति मत दो; नहीं तो हम क्या कहेंगे, एक आदमी के पास था, वह बिल्कुल ले गया, बिल्कुल ले गया चुपचाप ? ऐसा नहीं हो सकता, इस चुंगो-चौकी के बाहर नहीं जाने देंगे । जबरदस्ती लाओत्से को रोक लिया। वह भी हंसा । उसने कहा : बात तो शायद ठीक ही है। लिए तो जाता हूँ। लेकिन देने का कोई उपाय नहीं है, इसलिए जाता हूँ और कुछ नहीं। देना में भी चाहता हूँ। तब उसने एक छोटी-सी किताब लिखी। उस तरह के असाधारण लोगों में लिखने वाला वह अकेला प्रादमी है। पर पहला ही वाक्य यह लिखा है "बड़ी भूल हुई जाती है, जो कहना है वह कहा नहीं जाता। और जो नहीं कहना है वही कहा जाएगा। सत्य बोला नहीं जा सकता। जो बोला जा सकता है वह सत्य हो नहीं सकता। बड़ी भूल हुई जाती है। और मैं इसको जानकर लिखने बैठा हूँ, इसलिए जो भी आगे पढ़ोगे, इसको जानकर पढ़ना कि सत्य तोला नहीं जा सकता, कहा नहीं जा सकता। और जो कहा जा सकता है, वह सत्य हो नहीं सकता। That which can be said is not the Toa.' इसे पहले समझ लेना फिर किताव पढ़ना।" तो किसी ने किताब लिखी नहीं जिसने लिखो उसने प्रश्नचिह्न पहले लगा दिया। यानो सच तो यह है कि जो समझ जाएगा उसके आगे किताब पढ़ेगा ही नहीं। मामला यह है कि लाओत्से होशियार आदमी मालूम होता है । राजा समझा.कि हम चुंगो ले रहे हैं। वह गल्तो में पड़ गया। जो समझेगा वह उसके आगे किताब पढ़ेगा नहीं। बात खत्म हो गई है । जो नहीं समझेगा वह पढ़ डालेगा। उससे कोई मतलब नहीं। तो नासमझ किताबें पढ़ते हैं, समझदार रुक जाते हैं। बुद्ध महावीर जैसे लोगों ने किताब नहीं लिखी। कारण हैं बहुत । पक्का नहीं है कि जो कहना है वह कहा जा सकता है। फिर भी कहा। कहने का माध्यम उन्होंने चुना, लिखने का नहीं चुना । इसका भी कारण है। क्योंकि कहने का माध्यम प्रत्यक्ष है आमने-सामने और मैं गया, आप गए कि खो गया। लिखने का माध्यम स्थायी है, आमने-सामने नहीं है । परोक्ष है । न मैं रहूँगा, न आप रहेंगे, वह रहेगा, वह हम से स्वतन्त्र होकर जाएगा। कहने में भूल होती है लेकिन फिर भी सामने है आदमी। अगर मैं कुछ कह रहा है, तो आप मुझे देख रहे हैं; मेरी आँख को देख रहे हैं, मेरो तड़प, मेरी पीड़ा को भी Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में देख रहे हैं : मेरो मुसीबत भी देख रहे हैं कि कुछ है जो नहीं कहा जा सकता। हो सकता है कि आप थोड़ा समझ जाएं। लेकिन, एक किताब हैं, न आंख है, न तड़प है, न पीड़ा है। सब साफ-सुथरा सीधा है । फिर, किताब बचती है | इसमें से किसी ने भी यह फिक्र नहीं की कि किताब बचे । इन सबकी फिक्र यह थी कि कह दें तो बात खत्म हो जाए। इससे ज्यादा उसको बचाना नहीं है । लेकिन, बचा ली गई। बचाने वाले लोग खड़े हो गए । उन्होंने कहा इसको बचाना होगा; बड़ी कीमतो चीज है; इसको बचा लो। उन्होंने बचाने की कोशिश की । फिर उनकी बचाई हुई किताब पर किताबें चलती आईं, टीकाएं होती रहीं । और वह बचाना भी महावीर के ठीक सामने नहीं हो सका । उसका कारण है कि शायद महावीर ने इन्कार किया होगा । बुद्ध ने इन्कार किया होगा कि यह सामने न हो । तुम लिखना मत । तो वह तीन-तीन सो, चार-चार पौ, पांच-चांच सौ वर्ष बाद हुआ, यानी जो भी लिखा गया है सुनकर नहीं लिखा गया है । किसी ने सुना है. फिर किसी ने किसी से कहा है । ऐसे दो चार पीढ़ी बीत गई हैं और कहते-कहते वह लिखा गया है। महावीर असमर्थ हैं कहने में । फिर उनको सुननेवाले ने किसी से कहा है, फिर उसने किसी से कहा है, फिर, दो, चार पांच पीढ़ियों के बाद वह लिखा गया है । फिर उस पर टीकाएं चलती रही हैं, विवाद चलते रहे हैं । वे हमारे पास शास्त्र हैं । अगर किसी को महावीर से चूकना हो तो उन शास्त्रों से सुगम उपाय नहीं । इन शास्त्रों में चला जाए तो वह महावीर तक कभी नहीं पहुंच सकेगा । तो मैं कोई शास्त्रों से महावीर तक पहुंचने की न तो सलाह देता हूँ और न मैं उस · रास्ते से उन तक गया हूँ और न मानता हूँ कि कोई कभी जा सकता है । मैं बिल्कुल ही अशास्त्रीय व्यक्ति हूँ । अशास्त्रीय से कहना चाहिए एकदम शास्त्रविरोधी । • शास्त्रीय रास्ता दिखाई फिर, महावीर तक पहुंचने का क्या रास्ता है ? पड़ता है तो इसलिए साधु-संन्यासी शास्त्र खोले हुए हैं, खोज रहे हैं महावीर को और क्या रास्ता है और क्या मार्ग है ? अगर सारे शास्त्र खो जाएं तो साधु, संयासियों और पंडितों के हिसाब से महावीर खो जाएंगे । है इस में ? अगर सारे शास्त्र खो जाएं तो महावीर का क्या महावीर खो जायेंगे । लेकिन क्या सत्य का अनुभव खो सकता है सम्भव है कि महावीर जैसी अनुभूति घटे और अस्तित्व के किसी कोने में क्या यह . क्या बचाव बचाव है ? Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- १ २१ सुरक्षित न रह जाए ? क्या यह संभव है कि कृष्ण जैसा आदमी पैदा हो ओर सिर्फ आदमी की लिखी किताबों में उसकी सुरक्षा हो और अगर किताबें खो जाएं तो कृष्ण खो जाएगा। अगर ऐसा है तो न कृष्ण का कोई मूल्य हैं, न महावीर का कोई मूल्य है । आदमी के रिकार्ड, क्लर्कों के रिकार्ड, गणधरों के रिकार्ड ही अगर सब कुछ हैं, तो ठीक है किताबें खो जाएंगी और ये आदमी खो जाएंगे । मगर इतना सस्ता नहीं है यह मामला कि इतनी बड़ी घटनाएं घटें जिन्दगी में और वह खरबों वषों में और वहां, खरबों लोगों के बीच कभी कोई आदमी परम सत्य को उपलब्ध होता हो, उसके परम सत्य के उपलब्ध होने की घटना सिर्फ कमजोर आदमियों को कमजोर भाषा में सुरक्षित रहे और अस्तित्व में इसकी सुरक्षा का कोई उपाय न हो, ऐसा नहीं है । ऐसा हो भी नहीं सकता । इसलिए एक और उपाय है । मेरा कहना है कि जगत् में जो भी महत्वपूर्ण घटता है, महत्त्वपूर्ण तो बहुत दूर की बात है, साधारण, और अमहत्त्वपूर्ण घटता है, वह भी किसी तरह पर सुरक्षित होता है, महत्त्वपूर्ण तो सुरक्षित होता ही है, वह तो कभी नष्ट नहीं होता । इसलिए जो भी महत्त्वपूर्ण घटा है जगत् में कभी भी वह मनुष्य पर नहीं छोड़ दिया गया है कि आप उसे सुरक्षित करें। वह तो ऐसे ही होगा कि अन्धों के एक समाज में एक आदमी को आंख मिल जाए और उसे प्रकाश दिखाई पड़े, और अन्यों के ऊपर निर्भर हो कि तुम उसके अनुभव को सुरक्षित रखो, अन्धों को छूट हो इस बात की कि तुम्हारे बीच जो आंख वाला एक आदमी पैदा हुआ और उसे जो अनुभव हुआ, तुम उसे सुरक्षित रखना; तुम वेद • बनाना, तुम आगम रचना, तुम गीता रचना, तुम बाइबिल बनाना, इन्हें सुरक्षित रखना । और फिर अनुभव के अनुभव की टीकाएं होती चली जाएं। और हजार दो हजार साल बाद आंख वाले आदमी की देखी गई बात अन्धों द्वारा सुरक्षित की गई हो, अन्धों द्वारा व्यास्थायें की गई हों हम आंख वाले आदमी को बात को खोजने निकलें तो दूसरा नहीं होगा । और फिर उनके द्वारा हमसे ज्यादा मूढ़ कोई तो मैं यह कहना चाहता हूँ कि अस्तित्व में कुछ भी खोता नहीं । मच तो यह है कि अभी भी मैं जो बोल रहा हूँ वह कभी खोएगा नहीं । आप भी जो बोल रहे हैं, वह भी नहीं खोएगा । जो शब्द एक बार पैदा हो गया है, वह नहीं खोएंगा कभी । आज हम जानते हैं, लंदन में कोई बोल रहा है, रेडियों से हम यहां श्रीनगर में उसे सुनते हैं। आज से दो सौ वर्ष पहले नहीं • Page #37 --------------------------------------------------------------------------  Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 基因 Page #39 --------------------------------------------------------------------------  Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : मापने कहा कि आप महावीर के सम्बन्ध में अन्तर्दृष्टि से कुछ बतलाएंगे और यदि यह जानना हो कि जो आपने कहा है वह ठीक है या गलत है, दूसरा कोई प्रादमी भी उसी प्रकार का प्रयोग करके बस ले। मुझे लगता है कि दूसरा भी साधन है जिससे आपके कथन को प्रामाणिकता मांची जा सकती है । वह साधन यह है कि हममें से किसी के जीवन को कोई घटना जो अब तक साक्षात् नानना सम्भव नहीं है, आप यदि पतला दें तो यह प्रमाणित हो सकता है कि जिस प्रकार आप हमारे जीवन की कोई ऐसी घटना जान गए जो आपने कभी देखी-सुनी नहीं उसी प्रकार आप महावीर के पिछले जीवन को अन्तर्दष्टि से जान सके होंगे। क्या आप इस प्रकार करमा पसंद करेंगे? उत्तर : दो तीन बातें समझनी चाहिए। पहली बात यह है कि महावीर के बाह्य जीवन की घटना जानना एक बात है और महावीर के अन्तर्जीवन में क्या घटा, यह जानना दूसरी बात है। महावीर के बाह्य जीवन से मुझे प्रयोजन ही नहीं है; न जानने की उत्सुकता है। लेकिन अन्तर्जीवन में क्या घटा उससे प्रयोजन है, उत्सुकता भी है, उस तरह दृष्टि भी है। तुम्हारे अन्दर भी देखा जा सकता है। तुम्हारे बहिर्जीवन से मुझे कोई प्रयोजन नहीं है । सच बात तो यह है कि जिसे हम बाहर का जीवन कहते हैं वह एक स्वप्न से ज्यादा मूल्य नहीं रखता । हमें वह बहुत महत्त्वपूर्ण मालूम पड़ता है क्योंकि हम उस स्वप्न में ही जीते हैं जैसे रात कोई स्वप्न देखे, तो स्वप्न में उसे पता ही नहीं चलता कि यह सपना है। लगता है वह बिल्कुल सत्य है। जब तक जाग न जाए तब तक.सपना सत्य ही मालूम पड़ता है। जागते ही सपना एकदम व्यर्थ हो. जाता है। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में तो मेरे लिये बाहर के जीवन का कोई अर्थ ही नहीं कि महावीर कब पैदा हुए, कब मरे; शादी को या नहीं की; बेटी पैदा हुई कि नहीं हुई। इन सबसे मुझे प्रयोजन ही नहीं, कोई अर्थ ही नहीं। हो तो ठीक, न हुआ हो तो ठोक । मैं तो यहां तक कहना चाहता हूं कि महावीर भी हुए हों तो ठीक, न हुए हों तो ठीक । यह महत्त्वपूर्ण ही नहीं है। जो महत्त्वपूर्ण है वह तो अन्तर में जो गति हुई, चेतना में जो विकास हुआ, जो रूपान्तरण हुआ वह महत्त्वपूर्ण है। वैसे तो किसी के अन्तर्जीवन में उतरा जा सकता है लेकिन तब भी तुम जांच नहीं कर पाओगे क्योंकि तुम खुद ही अपने अन्तर्जीवन से परिचित न हो। अगर फिर भी मेरी बात की जांच करनी हो तो तुम्हें अपने अन्तर्जीवन में उतरना पड़ेगा। दूसरी बात यह है कि तुम्हारे बहिर्जीवन के बारे में यदि कोई कुछ घटनाएं बताये तो इससे यह पक्का नहीं होता कि वह महावीर के बारे में जो बताएगा वह ठीक होगा। क्योंकि तुम मौजूद हो और तुम्हारे बहिर्जीवन की घटनाओं में • उतरना बड़ी साधारण-सी कला की बात है जो एक साधारण-सा टेलिपैथिस्ट भी बता सकेगा, एक साधारण सा ज्योतिषी भी बता सकेगा। वह चार आने लेकर भी बता सकेगा । तो बहिर्जीवन का कोई मूल्य नहीं, अगर कोई बता भी दे तुम्हारे बहिर्जीवन को तो उससे कुछ प्रामाणिकता नहीं होती कि वह महावीर के अन्तर्जीवन के बारे में जो कहेगा वह कोई अर्थ रखता है । असल में बहिर्जीवन का कोई ऐसा सम्बन्ध ही नहीं है अन्तर्जीवन से, और इसीलिए यह समझने . जैसा है कि प्राइस्ट का बाहरी जोवन एक है, महावीर का बाहरी जीवन दूसरा है, बुद्ध का तीसरा है। फिर भी अन्तर्जीवन एक है और बहिर्जीवन को देखने वाले लोग इसलिए मुश्किल में पड़ जाये हैं। जिसने महावीर के बहिर्जीवन को पकड़ लिया है; बुद्ध का जोवन समझने में वह असमर्थ हो जाएगा। क्योंकि जो महावीर के बहिर्जीवन में है, वह सोचता है कि अन्तर्जीवन से अनिवार्य रूप से बंधा हुआ है। जैसे वह देखता है कि महावीर नग्न खड़े हैं तो वह सोचता है कि जो परम ज्ञान को उपलब्ध होगा वह नग्न खड़ा होगा । और यदि बुद्ध वस्त्र पहने हुए हैं तो वह कैसे परम ज्ञान को उपलब्ध होंगे । बहिर्जीवन को पकड़ के कारण ही अन्तर्जीवन के सम्बन्ध में इतनी खाइयां खड़ी हो गई हैं। मुझे तो उससे प्रयोजन ही नहीं है। तीसरी बात यह कि मैं ठीक कह रहा हूं महावीर के सम्बन्ध में या नहीं, इस बात की जांच का भी कोई अर्थ नहीं है। अर्थ केवल एक है कि वैसे अन्त Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २ १३ जीवन में उतरा जा सकता है या नहीं। मेरी इस जांच-पड़ताल का भी कोई अर्थ नहीं है क्योंकि मैं इसलिए कह ही नहीं रहा हूं कि मैं सही हूं या गलत हूं, या कुछ सिद्ध किया जाए। कह इसलिए रहा हूं कि तुम जहां हो वहां से सरक सको, और किसी दूसरी दिशा में गति कर सको। इसलिए यदि सारी बातचीत तुम्हें अन्तर्दशा में गति देने वाली बन जाती है तो मैं मान लूंगा कि काफी प्रमाण हो गया है। और अगर नहीं बनती है और सब तरह से प्रमाणित हो जाता है कि जो मैंने कहा वह ठीक था तो मैं मानूंगा कि बात अप्रामाणिक हो गई । यानी, मेरे लिए अर्थवत्ता इसमें है कि महावीर के जीवन के सम्बन्ध में मैं जो कहूं वह किसी रूप में तुम्हारे जीवन को रूपान्तरित करने वाला बनता हो । न बनता हो तो वह कितना भी सही हो गलत हो गया और बनता हो तो सारी दुनिया सिद्ध कर दे कि वह गलत है, तो मेरे लिए वह गलत न रहा । इसका मतलब यह है; और इसका समझना बहुत उपयोगी होगा, और यही वजह है कि जो लोग जानते रहे हैं उन्होंने इतिहास लिखने पर जोर नहीं दिया । इतिहास की जगह उन्होंने पुराण ( मिथ ) पर जोर दिया। एक दुनिया है, लोग हैं, जो इतिहास पर जोर दे रहे हैं, एक दूसरी दुनिया है, दूसरा जगत् हैं, कुछ थोड़े से लोगों का, जो इतिहास पर जोर नहीं देते, जो पुराण पर जोर देते हैं । और दोनों का अन्तर समझना उपयोगी होगा । इतिहास का आग्रह है कि बाहर घटी घटनाएं तथ्य ( फैक्ट्स ) की तरह संगृहीत की जाएं । पुराण इस बात पर जोर देता है कि बाहर की घटनायें तथ्य की तरह इकट्ठी हों या न हों, निष्प्रयोजन हैं । वे इस भांति इकट्ठी हों कि जब कोई उनसे गुजरे तो उनके भीतर कुछ घटित हो जाएं। इन दोनों बातों में दृष्टि अलग हैं । तथ्य और इतिहास को सोचने वाला महावीर पर जोर देगा, क्राइस्ट पर जोर देगा - कैसा जीवन ! पुराणकथा ( मिथ ) की दृष्टि वाला व्यक्ति 'तुम' पर जोर देगा कि महावीर का कैसा जीवन कि 'तुम' बदल जाओ। इसमें बुनियादी फर्क पड़े हैं । Y यह हो सकता है कि पुराण ( मिथ ) किसी दृष्टि से अप्रामाणिक मालूम पड़े। जैसे जीसस का सूली पर चढ़ना और फिर तीन दिन बाद जीवित हो जाना । ऐतिहासिक तथ्य की तरह शायद इसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि ऐसा हुआ हो-जैसे जीसस का कुंमारी मां से पैदा होना । ऐतिहासिक तथ्य Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૫૪ महावीर : मेरी दृष्टि में की तरह प्रमाणित नहीं किया जा सकता कि कुंआरी लड़की से कोई पैदा हो सकता है, जिससे पुरुष का सम्पर्क न हुआ हो । बाहर की दुनिया की यह घटना ही नहीं है । बाहर की दुनिया में किसी कुंआरी लड़की से कोई लड़का कैसे पैदा होंगा। लेकिन जिन्होंने इस पर जोर दिया है, उनकी दृष्टि बड़ी गहरी है | वे भीतर की घटना को ही कह रहे हैं कि जीसस जैसा बेटा अत्यन्त कुंआरी आत्मा से ही जन्म ले सकता है, अत्यन्त 'इनोसेण्ट', भोली । कुंआरा शरीर नहीं, कुंजारी आत्मा - कुंआरे चित्त से । और यह भी हो सकता है कि शरीर कुंभारा हो मोर चित बिल्कुल कुंआरा न हो। इससे उल्टा भी हो सकता है कि शरीर कुंभारा न हो मोर चित्त बिल्कुल कुंआरा हो । जीसस जैसे व्यक्ति का जन्म वर्जिन गर्ल से ही हो सकता है, कुंआरी लड़की से ही हो सकता है । यह इतिहास में नहीं है । लेकिन इतिहास भगर सिद्ध भी कर दे तो नुकसान ही पहुंचाएगा। यानी मैं मानूंगा कि यह बात अप्रमाणित हो रहनी चाहिए कि जीसस जैसे व्यक्ति का जन्म एक कुंआरे मन से होता है । और यदि किसी मां को जीसस जैसे बेटे को जन्म देना हो तो उसके चित्त का अत्यन्त कुंआरा होना जरूरी है और कुंजापन का कोई सम्बन्ध शरीर से है ही नहीं । शरीर तो यन्त्र है । कुंआरापन तो आन्तरिक मनोदशा है । अब जैसे, महावीर के पैर को सर्प काट लेता है और दूध बहता है । ईसे किसी भी ऐतिहासिक की तरह से, वैज्ञानिक की तरह से सिद्ध नहीं किया जा सकता । करने वाले करते हों, पर गलत करते हैं । वे महावीर को व्यर्थ करवा देंगे । और जो बात है, जो भिथ है, जो गाथा है, वह खो जाएगी। बात बहुत I " ओर है। इस बात में किसी चित्त भाव पर ही ख्याल है । सर्प भी काटे, जहर भी महावीर को कोई दे, मारने को भी कोई आ जाए तो भी महावीर का मन मां से भिन्न नहीं हो पाता है। दूध निकलने का कुल मतलब इतना है कि महावीर का मन मातृत्व से भरपूर है, मां से अन्यथा वह नहीं हो सकते । उनका होना ही मातृत्वमय है । उनके भीतर से कुछ और नहीं निकल सकता है सिवाय दूध के । लेकिन, न तो शारीरिक अर्थों में, न तथ्य और इतिहात के अथों में, इस बात का कोई मूल्य है । अब, जैसे हम, जो भी हिसाब करने जायेंगे - और हम दोनों तरफ एक जैसे लोग होते हैं - कोई कहेगा यह बिल्कुल सच है; कोई कहेगा यह बिल्कुल गलत है। महावीर के पैर से दूध कैसे निकल सकता है ? बात ही झूठी है । और दूसरे व्यक्ति यह सिद्ध करने की कोशिश करेंगे किसी तरकीब से कि पैर से दूध निकल सकता है । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ __एक मुनि को मैं सुनने गया। वह मुझसे पहले बोले कि मैंने यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर दिया है कि महावीर के पैर से दूध निकला। कैसे सिद्ध कर दिया है ? तो उन्होंने कहा : ऐसे सिद्ध कर दिया है कि जब मां के स्तन से दूध निकल सकता है, यानी शरीर के किसी अंग से दूध निकल सकता है तो पैर से क्यों नहीं निकल सकता है ? तो मैंने उनसे पूछा कि इसके दो अर्थ हुए । एक अर्थ यह हुआ कि महावीर को पुरुष न माना जाए कोंकि पुरुष के स्तन से भी दूध निकलना मुश्किल है, पैर का तो मामला बहुत दूर है। और अब तक किसी स्त्री के पैर से भी दूध नहीं निकला । दूसरी बात यह मानी जाए कि स्तन का जो यन्त्र है वह महावीर के पैरों में लगा हुआ है जो स्त्री के स्तन में होता है। महावीर के पैर में वैसी यांत्रिक व्यवस्था है जिससे खून दूध में रूपान्तरित होता है। लेकिन मैंने उनसे कहा कि ये बातें अगर प्रमाणित भी हो जाएं कि ऐसा था कि महावीर के पैर स्तन का काम कर रहे थे तो भी जो मतलब था वह खो गया, महावीर का जो मूल्य था वह गया। अगर किसी के भी पैर स्तन का काम कर रहे हों तो उनसे दूध निकल आयेगा। इसमें फिर महावीर का कुछ होना न रहा। और यदि मां के स्तन से दूध निकलता है तो यह कोई बड़ी खूबी को बात नहीं है। यह आन्तरिक बात है। अगर सिद्ध भी कर दोगे तो महावीर को पोंछ लोगे । उनकी जो बात थी वह खो जाएगी। वह बात कुल इतनी है कि महावीर का प्रत्युसर मां का उत्तर होने वाला है। चाहे तुम कुछ भी करो, चाहे तुम जहर डालो, शत्रुता करो, चोट पहुँचाओ वहां से प्रेम और करुणा ही बह सकती है। . ___ अब दूध का मतलब क्या होता है। दूध का मतलब है जो तुम्हें पोषण दे सके और कुछ मतलब नहीं होता । महावीर को चाहे तुम गाली दो, महावीर जो भी करेंगे वह तुम्हारा पोषक ही सिद्ध होगा, वह तुम्हें पोपण ही देगा। हमें कोई गाली दे, हम जो करेंगे वह घातक सिद्ध होगा उसके लिए। और हम जो करेंगे दो हो बातें कर सकते हैं या तो वह घातक सिद्ध हो या पोपक सिद्ध हो । महावीर से जो प्रत्युत्तर निकलेगा, जो रिऐक्शन होगा महावीर का, वह पोषक सिद्ध होने वाला है । इतनो भर बात है उसमें । लेकिन तथ्य में जाने पर यह भी जरूरी नहीं कि किसी दिन सर्प ने काटा ही हो। यह भी जरूरी नहीं कि पैर से दूध निकला हो। जरूरी केवल इतना है कि महावीर के पूरे जीवन को जिसने भी अनुभव किया है उसे ऐसा लगा है कि इसे अगर हम कविता में कहें तो ऐसे कह सकते हैं कि सर्प भी काटे महावीर को, तो दूध ही Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में निकल सकता है। लेकिन इसलिए मुझे कोई प्रयोजन नहीं है। यह मैं सिद्ध करने जाऊंगा ही नहीं । सिद्ध कर भी सकता हूं तो भी सिद्ध करने नहीं जाऊंगा; क्योंकि मेरी दृष्टि ही यह है कि महावीर को प्रसंग बना कर 'तुम' कैसे गति कर सकते हो। और यह तक हो सकता है कि बहुत कुछ जो कहा जाता है वह छोड़ देना पड़े; बहुत कुछ जो नहीं कहा जाता है, उसे खोज लेना पड़े । और, हम भब एक दृष्टि लेकर प्रवेश करते हैं और अन्तस् की खोज में चलते हैं ? कि कठिनाई क्या है ? समझो कि मैं एक बहत बहादुर आदमी के सम्बन्ध में कहे कि यह बहुत परपोक है तो शायद वह भी मुझसे पहली बार राजी न हो कि आप यह मेरे सम्बन्ध में क्या कह रहे हैं ? मेरे पास प्रमाण पत्र है बहादुरी के, सर्टिफिकेट हैं । मैं सिद्ध कर सकता हूँ कि मुझसे बड़ा कोई बहादुर नहीं है। महावीर-चक्र है मेरे पास । युद्ध के मैदान पर कभी पीछे नहीं लौटा हूँ। लेकिन ये प्रमाण-पत्र कुछ गलत नहीं करते हैं। फिर भी यह हो सकता है कि वह भीतर से एक भयभीत आदमी हो । और ऐसा हुआ है कि जो व्यक्ति अन्तस् चेतन में भयभीत होता है, वह बाहर के कृत्यों में निर्भय सिद्ध करने की कोशिश में लगा रहता है, यानी वह बाहर के कृत्यों में अपने को निर्भय सिद्ध करने के जो उपाय कर रहा है, वह उपाय कर हो इसलिए रहा है कि भीतर जो उसका भय है उसे भूल जाए और मिट जाए। अब एक व्यक्ति मेरे पास आया जिसको कोई भी नहीं कह सकता कि वह • भयभीत होगा। शरीर से बलिष्ठ है; हर तरह के संघर्षों से गुजरा है, जेलें काटी हैं, दबंग है और उसके सामने खड़ा हो जाए तो आदमी हिल जाए। उस आदमी ने मुझसे कहा कि मैं इतना डरता हूँ कि जब मैं बोलने खड़ा. होता हूँ तो मेरे पैर कांपने लगते हैं और मुझे लगता है कि आज मेरे मुख से शब्द निकलेगा, या नहीं। निकल जाता है, यह दूसरी बात है परन्तु सदा भय. बना रहता है। अब इस आदमी को खुद ही ख्याल आ जाए तो ठीक है। नहीं तो इससे कहा जाए कि ऐसा है तो बहुत मुश्किल हो जाए। अब अन्तर्जीवन के तथ्य हमें ही ज्ञात नहीं। और यदि मैं कहूँ आपके सम्बन्ध में यह अन्तर्जीवन की बात है तो हो सकता है कि आप सबसे पहले इन्कार करने वाले व्यक्ति हों। और यह बात ध्यान रहे कि आप जितने जोर से इन्कार करेंगे उतने ही जोर से मेरे लिए सही होगा कि यह तथ्य आप के अन्दर है क्योंकि जोर से इन्कार इसीलिए माता है । अगर वह तथ्य न हो तो शायद आप Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ कहें : 'मैं सोचूंगा, मैं खोजूंगा',लेकिन यदि वह तथ्य है, जैसे भयभीत आदमी बाहर से बहादुर बनने की कोशिश में लगा है तो उससे यह कहने पर भी कि तुम्हारे अन्दर भीरुता है, वह इतने जोर से इन्कार करेगा कि उसका कोई हिसाब नहीं। परन्तु मुझे बाहर के तथ्यों से कोई प्रयोजन ही नहीं। इसलिए उस तरह की प्रामाणिकता में जाने की मैं कोई तैयारी नहीं दिखाऊंगा। मैं तो एक ही प्रामाणिकता मानता हूं कि जो मैं कह रहा हूं वह जिन प्रयोगों से मुझे दिखाई पड़ता है कि ऐसा है उन प्रयोगों में से कोई भी गुजरने को तैयार हो । अब जैसे समझ लें एक आदमी है जिसने पहली दफा दूरबीन बनाई जिससे दूर के तारे देखे जा सकते हैं । दूरबीन बनी। पहले आदमी ने जिसने दूरबीन बनाई मित्रों को आमंत्रित किया कि तुम आओ कि मैं तुम्हें ऐसे तारे दिखला देता हूं जो तुमने कभी नहीं देखे। उन्होंने दूरबीन से देखने से इन्कार कर दिया कि हो सकता है कि तुम्हारी दूरवीन में कुछ बात हो जिससे कुछ तारे दिखाई पड़ते हैं, जो नहीं है । तुम खुली आंख से कुछ ऐसी बातें बताओ जो दूर की हैं फिर हम माने कि तुम्हारी दूरबीन की कोई बात हो सकती है। पहले खुली आंख से कुछ • बताओ जो कि दूर का है, जो कि हमको नहीं दिखाई पड़ता परन्तु तुमको दिखाई पड़ रहा हो फिर हम दूरबीन से झांकें। उन्होंने दूरबीन से झांका तो उन्होंने कहा कि इसमें कुछ पक्का नहीं होता है। हो सकता है यह दूरबीन की ही करतूत हो । मेरी बात आप समझे न ? लेकिन वह आदमी क्या कर सकता है, इसके सिवा और क्या उपाय है । वह तो यही कह सकता है कि तुम भी दूरबीन बना लो जिसमें कि तुम्हें यह पक्का हो जाए।। तुम अपनी दूरवीन बना लो और तुम अपनी दूरवीन से झांको। और मामला इतना जटिल है कि जरूरी नहीं कि मैं अन्तस् प्रयोगों के लिए कहूं तो तुम्हें ठीक वही दिखाई पड़े जो मुझे दिखाई पड़ता है। लेकिन एक बात पक्की है कि तुम्हें जो भी दिखाई पड़े तुम इतना अनुभव कर सकोगे कि जो कुछ मैं कह रहा हूं वह दिखाई पड़ रहा होगा। दूसरे तुम यह भी अनुभव कर सकोगे कि जो कुछ मैं कह रहा हूं उसके पीछे जो दृष्टि है, वह तुम्हें कुछ भी दिखाई पड़े तो फौरन तुम्हारी समझ में आ जाएगा कि वह दृष्टि क्या है और यह भी तुम्हें दिखाई पड़ेगा कि महावीर मेरे लिए गौण है । न क्राइस्ट का कोई मूल्य है, न बुद्ध का कोई मूल्य है । मूल्य है हमारा जो भटक रहे हैं, और इनको किसी तरफ से, किसी कोण से एक चीज दिई पड़ जाए जो इनकी भटकन को मिटा दे, और एक दिन ये वहां पहुंच जाएं जहां . कि कोई भी महावीर कभी पहुंचता रहा है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में ___इसलिए मेरा प्रयोजन ही भिन्न है । और एक ही उपाय है उस प्रयोजन का- क्योंकि मेरा प्रयोजन तभी सिद्ध होता है, नहीं तो सिद्ध ही नहीं होता-- अगर मैं यह बता भी हूँ कि तुम कब पैदा हुए, तुम्हारी कब शादी हुई, कब लड़का पैदा हुआ तो भी मैं प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, असिद्ध होता है क्योंकि फिर मैं तुम्हारे बहिर्जीवन पर ही जोर देता हूं और तुम्हारी दृष्टि को मैं फिर भी अन्तर्मुखी नहीं कर पाता। और तुम बहिर्मुखी जीवन दृष्टि को ही पुनः पुनः सिद्ध कर लोगे और फिर भीतर उतरने से रह जाओगे । मेरा कहना यह है कि अगर मेरी बातचीत से तुममें बेचैनी पैदा हो जाए और ऐसा लगने लगे कि पता नहीं यह बात सच है या झूठ, तो तुम मुझसे प्रमाण मत पूछो। फिर तुम प्रमाण की तलाश में निकल जाओ खुद । अगर बात झूठ भी हुई तो भी तुम वहां पहुंच जाओगे जहां पहुंचना चाहिए । और बात सही भी हुई तो भी तुम वहां पहुंच जाओगे । और जिस दिन तुम वहां पहुंच जाओगे तो जरूरी नहीं कि तुम लौटकर मुझसे कहने आओगे । जैसे समझ लो कि इस कमरे में आग नहीं लगी है और मैं तुमसे चिल्लाकर कहता हूं कि इस कमरे में आग लगी हुई है और मर जाएंगे अगर हम भीतर रहते हैं, चलो बाहर ! चलो ! और तुम कहो कि कहीं कोई ताप नहीं लगता, कोई लपट नहीं दिखाई पड़ती । और मैं तुमसे कहता हूं कि तुम बस वाहर चले चलो तो तुमको पता चल जाएगा कि मकान में आग लगी थी। जब तक तुम भीतर हो कुछ दिखाई नहीं पड़ेगा, और तुम बाहर पहुँच जाओं और सच में ही कहो कि मकान में आग नहीं लगी थी। लेकिन बाहर जाकर तुम देखोगे कि सूरज निकला है, जो तुमने कभी नहीं देखा, और ऐसे फूल खिले हैं जो तुमने कभी नहीं देखे और ऐसा आनन्द है जो तुमने कभी नहीं अनुभव किया तो तुम मुझे धन्यवाद दोगे, तुम मुझे कहोगे कि कृपा की, कह दिया कि मकान में आग लगी है। क्योंकि हम मकान की भाषा ही समझ सकते थे; सूरज और फूल की भाषा हम समझ ही नहीं सकते थे क्योंकि सूरज और फूल हमने देखा हो नहीं था। अगर तुमने कहा भी होता कि बाहर सूरज है और फूल हैं, आनन्द की वर्षा हो रही है तो हम कहते कि हम कुछ समझे ही नहीं। कैसा बाहर ! कैसा सूरज ! कैसा फूल ! हम तो एक ही भाषा समझ सा । थे मकान की। और हम यही समझ सकते थे कि अगर मकान में आग लगी हो तो ही बाहर जाया जा सकता है। नहीं तो जाने की कोई जरूरत नहीं । अगर मकान सुरक्षित है तो बाहर जाने की क्या जरूरत है ? हो सकता है कि बाहर जाकर तुम देखोगे कि मकान में आग नहीं लगी है लेकिन फिर भी तुम मुझे धन्यवाद दोगे कि ठीक कहा कि मकान में आग लगी है, नहीं तो हम Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धश्नोत्तर - प्रवचन- २ ३९ • चूका बाहर कभी न आ पाते । और अब उस मकान के भीतर कभी न जाएंगे । यद्यपि उस मकान में आग नहीं लगी है लेकिन मकान में होना ही आग में होना है । मेरा मतलब समझे न तुम ? यानी यह जरूरी नहीं है तुम बांहर से मुझसे यही कहो कि मकान में आग नहीं लगी है लेकिन प्रकान में होना ही भाग में होना है, क्योंकि हम चूके जा रहे थे, वह सब जला जा रहा था जीवन, जा रहा था सब कुछ जो मिल सकता था । इसलिए बहुत सी बातें हैं और जिसको आम तौर पर हम प्रमाण करते हैं उस पर मेरी कोई श्रद्धा नहीं, किसी तरह के प्रमाण पर । प्रमाण एक ही है कि तुम पहुंच जाओ। जाओगे तो इन्कार नहीं कर सकते; इतना मैं वादा करता हूं। जाओ तो मैं जो कहता हूं उससे करता हूं । इन्कार नहीं कर सकते, और तुम पहुंच यानी तुम पहुंच इतना मैं वादा प्रश्न : 3|पने रात को शास्त्रों के बारे में कुछ बात कही थी। मुझे ऐसा लगता है कि आप जो भी कुछ कहते हैं वह शास्त्रों में भी उपलब्ध हो सकता है । और आप जो कुछ कह रहे हैं वह भी स्वयं में एक शास्त्र ही बनते चले जा रहे हैं । और जो बात आप शास्त्रों के सम्बन्ध में कह रहे हैं वह आपकी कही हुई बातों पर भी ज्यों की त्यों लागू हो जाएगी। जो देखने वाला है उसे इसमें भी दीखेगा, जो नहीं देखने वाला है उसे इसमें भी नहीं दीखेगा । जो देखने वाला है उसे प्राचीन शास्त्रों में भी दीख हो जाता है और न देखने वाले को उनमें भी नहीं दीखता । फिर उनकी निन्दा का क्या प्रयोजन ? • उत्तर : उनकी निंदा मैं करता हो नहीं हूं । शास्त्र की निंदा मैं नहीं करता हूं क्योंकि शास्त्रों को मैं निन्दा योग्य भी नहीं मानता । प्रशंसा के योग्य मानना तो दूर, निन्दा योग्य भी नहीं मानता। क्योंकि निन्दा भी हम उसकी करते हैं जिससे कुछ मिल सकता होता और नही मिला । शास्त्र से मिल ही नहीं सकता । उसकी निन्दा का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि शास्त्र से न मिलना शास्त्र का स्वभाव है यानी यह शास्त्र का स्वभाव है कि उससे सत्य नहीं मिल सकता । मिल जाए तो आश्चर्य हो जाएगा; असम्भव घटना हो जाएगी । मैं शास्त्र की निन्दा नहीं करता हूं कि शास्त्र से नहीं मिलता है । जैसे समझिए कि एक आदमी एक रास्ते से जा रहा है और किसी जगह पहुंचना चाहता है और हम उससे कहते हैं कि यह रास्ता वहां नहीं जाता है । इसका मतलब यह नहीं कि हम उस रास्ते की निन्दा करते हैं । इसका कुल मतलब इतना है कि हम यह कहते हैं कि वह जहां जाना चाहता है वहां वह रास्ता नहीं जाता। हम यह भी नहीं • Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में कहते कि यह रास्ता नहीं नहीं जाता है। यह रास्ता भी कहीं जाता है । लेकिन जहां वह जाना चाहता है वहां नहीं जाता बल्कि उससे उल्टा जाता है । प्रज्ञा की खोज में निकले हुए व्यक्ति को शास्त्र व्यर्थ है क्योंकि शास्त्र का रास्ता प्रमा को नहीं जाता, पांडित्य को जाता है। और पांडित्य प्रज्ञा से बिल्कुल उल्टी चीज है। पांडित्य है उवार और प्रजा है स्वयं की। और ऐसा असम्भव है कि उपारं सम्पदा को कोई कितना ही इकट्ठा कर ले तो वह स्वयं की सम्पदा बन जाए। जब मैं यह कहता हूं कि शास्त्र से नहीं जाया जा सकता तो भूल कर भी मत सोचना कि मैं शास्त्र की निन्दा करता हूं। ___ मैं तो केवल शास्त्र का स्वभाव बता रहा हूं और यदि शास्त्र का स्वभाव ऐसा है तो मेरे शब्दों को मानकर जो शास्त्र निर्मित हो जाएंगे उनका स्वभाव भी ऐसा ही होगा, यानी उनसे कभी कोई प्रज्ञा को नहीं जान सकेगा। अगर मैं ऐसा कह कि दूसरों के शास्त्र से कोई प्रज्ञा को नहीं जानता और मेरे शब्दों पर जो शास्त्र बन गया है उससे कोई प्रज्ञा को जानेगा तब तो गलत बात हो गई। तब तो मैं किसी भी शास्त्र की निन्दा कर रहा हूं और किसी के शास्त्र की प्रशंसा कर रहा हूं। नहीं, मैं तो शास्त्र मात्र का स्वभाव बता रहा हूं। वह चाहे महावीर का हो, चाहे बुद्ध का हो, चाहे कृष्ण का हो, चाहे मेरा हो, चाहे तुम्हारा हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। किसी का भी शास्त्र सत्य ले जाने वाला नहीं है। हां, लेकिन दूसरी बात सच है कि अगर दिखाई पड़ जाए किसी को तो शास्त्र में दिखाई पड़ सकता है। लेकिन दिखाई पहले पड़ जाए । उसका मतलब यह हुआ कि शास्त्र किसी को दिखला नहीं सकता है लेकिन जिसको दिखाई पड़ता है उसे शास्त्र में भी दीख सकता है। लेकिन दिखाई पहले पड़ जाए तो फिर शास्त्र की क्या बात है, उसे पत्थर, कंकड़, दीवार, पहाड़ सबमें दिखाई पड़ता है । यानी यह सवाल फिर शास्त्र का नहीं रह जाता। जिसे दिखाई पड़ गया उसे सबमें दिखाई पड़ता है। तो उसे शास्त्र में क्यों दिखाई पड़ेगा ? अब शास्त्र में उसे नहीं दिखाई पड़ेगा जो उसे दिखाई पड़ रहा है । और कल तक चूंकि उसे नहीं दिखाई पड़ रहा था, इसलिए शास्त्र अन्धे ये क्योंकि उसके अन्धकार को भी तो अन्धकार ही दिखाई पड़ रहा था। मेरा मतलब यह है कि शास्त्र में भी हमें वही दिखाई पड़ सकता है, जो हमें दिखाई पड़ रहा है। शास्त्र उससे ज्यादा नहीं दिखला सकता। इसलिए शास्त्र में हम यह नहीं पढ़ते जो कहने वाले या लिखनेवाले का इरादा रहा होगा। शास्त्र में हम वह पढ़ते है जो हम पढ़ सकते है । शास्त्र किसी भी अर्थ में हमारे Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन- २ ४१ ज्ञान की वृद्धि नहीं करता । शास्त्र उतना ही बता देता है जैसे समझ लें आइना है । आइना में भी हमें वही दिखाई पड़ जाता है, जो हम हैं । भाइना इसमें कोई वृद्धि नहीं देता । और कोई यह सोचता हो कि कुरूप आदमी आइने के सामने खड़ा होकर सुन्दर हो जाएगा तो वह गलती में है, वह एकदम ग़लती में है। कोई यदि यह सोचता है कि कोई अज्ञानी आदमी शास्त्र के सामने खड़ा होकर ज्ञानी हो जाएगा तो वह गलती में है। हां, ज्ञानी को शास्त्र में ज्ञान मिल जाएगा, अज्ञानी को अज्ञान ही दिलता रहेगा । और मजा यह है कि ज्ञानी शास्त्र में देखने नहीं जाता क्योंकि जब खुद ही दिख गया है तो उसे और किसी दूसरे से क्या देखना है । ओर अज्ञानी शास्त्र में देखने जाता है। अक्सर ऐसा होता है कि सुन्दर आदमी दर्पण से मुक्त हो जाता है और कुरूप आदमी दर्पण से आस-पास घूमता रहता है । वह जो कुरूपता का बोध है वह किसी भांति दर्पण से पक्का कर लेना चाहता है कि मिट जाए, नहीं है अब । सुन्दर दर्पण से मुक्त हो जाता है। असल में हम जितनी बार दर्पण को देखते हैं उतनी ही बार हमें कुरूपता का बोध होता है और किसी भांति पक्का करना चाहते हैं कि, ' दर्पण यह कह दे कि अब हम कुरूप नहीं हैं । विश्वास में आ जाए कि हम अब कुरूप नहीं हैं । लेकिन घड़ी भर बाद फिर दर्पण देखना पड़ता है । क्योंकि कुरूपता का बोध है वही दर्पण में दिखाई पड़ता है बार-बार । शास्त्र में वही दिखाई पड़ता है, जो हम हैं । लेकिन यह बात ठीक है कि आज नहीं, कल मेरे शब्द इकट्ठे हो जाएंगे, और शास्त्र बन जाएंगे और जिस दिन मेरे शब्द शास्त्र बन जाएं उसी दिन उनकी हत्या हो गई। फिर भी, ध्यान रहे कि मैं किताब का विरोधी नहीं हूं, शास्त्र का विरोधी हूं । इन दोनों में फर्क करता हूं । किताब का दावा नहीं सत्य देने का । किताब का दावा है सिर्फ संग्राहक होने का। किसी ने कुछ कहा था उसे संग्रह किया गया। शास्त्र का दावा सिर्फ संग्राहक होने का नहीं; शास्त्र - का दावा सत्य देने का है। शास्त्र का दावा यह है कि मैं सत्य हूं। जो किताब यह दावा करती है कि मैं सत्य हूं, वह शास्त्र बन जाती है। किताब सिर्फ केवल विनम्र संग्रह है, दावा नहीं करती। जैसा कि मैंने कल कहा था कि लाओत्से ने किताब लिखने से पहले लिखा कि जो कहा जाएगा वह सत्य नहीं होगा, इसे -समझकर किताब को पढ़ना । शास्त्र नहीं बन रही है यह किताब; यह विनम्र • किताब है, यह सिर्फ संग्रह है और इस किताब को यदि कोई शास्त्र बनाता है ' तो खुद ही जिम्मेदार है। यह किताब उस पर बोझ बनने की तैयारी में नहीं Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ . . महावीर : मेरी दृष्टि में थो; यह किताव उसको मुक्त करने की तैयारी में थी। पूरा इसका भाव यही था। तो मेरी सारी बातें ऐसी हैं कि अगर उनको काट पीट न किया जाए तो शास्त्र बनाना मुश्किल है। ज्यादा से ज्यादा किताब बन सकती है। लेकिन शास्त्र बनाए जा सकते हैं । शास्त्र बनाना कठिन नहीं है। क्योंकि शास्त्र कोई. बोलता है कुछ, इससे नहीं बनते। कोई पकड़ता है, इससे बनते हैं। यानी शास्त्र महावीर के बोलने से नहीं बनता गया। गणघरों के पकड़ने से बना है। और पकड़ने वाले हैं तो पकड़ने वाला पकड़ ही न पाए, इसका सारा उपाय हमारी वाणी में होना चाहिए। यानी वह वारणी ऐसी कांटों वाली हो, ऐसी अंगारों से भरी हो कि पकड़ना मुश्किल हो जाए। लेकिन अंगारे भी बुझ जाते हैं, एक न एक दिन राख हो जाते हैं और पकड़ने वाले भी उन्हें मुट्ठी में पकड़ लेते हैं। इसका मतलब सिर्फ यह हुआ कि बार-बार ज्ञानी को पुराने ज्ञानियों की दुश्मनी में खड़ा होना पड़ता है। यह बड़ा उल्टा काम है । निरन्तर ज्ञानियों को पुराने ज्ञानियों की दुश्मनी में खड़ा होना पड़ता है । और यह दुश्मनी नहीं है; इससे बड़ी कोई मित्रता नहीं हो सकती क्योंकि इस भांति जो राख पकड़ ली गई है,उसको छुड़ाने का कोई रास्ता नहीं होता । तो अगर जो महावीर को प्रेम करता है उसे जैनियों के खिलाफ खड़ा होना ही पड़ेगा। अगर महावीर भी लौट आएं तो उन्हें भी खड़ा होना पड़ेगा क्योंकि जो उन्होंने दिया था वह जीवित अंगारा था; वह पकड़ा नहीं जा सकता, सिर्फ किया जा सकता, समझा जा सकता था। फिर अब राख रह गई है। उसको लोगों ने पकड़ लिया है । और उसको पकड़ कर वे बैठ गए हैं। - दुनिया में यह जो एक करिश्में को बात दिखाई पड़ती है, आश्चर्यजनक मालूम पड़ती है कि क्यों कभी ऐसा होता है कि कृष्ण के खिलाफ महावीर खड़े हैं कि महावीर के खिलाफ बुद्ध खड़े हैं कि बुद्ध के खिलाफ कोई और खड़ा है। यह कैसा अजीब है । होना तो यह चाहिए कि महावीर बुद्ध का समर्थन करते हों, क्राइस्ट बुद्ध का समर्थन करते हों, मोहम्मद महावीर का समर्थन करते हों, महावीर कृष्ण-राम का समर्थन करते हों। होना तो यह चाहिए लेकिन हुआ इसका उल्टा । होने का कारण है। इससे पहले कि किसी के जीवन में नए ज्ञान की किरण आए, जैसे ही यह किरण आती है उसे दिखाई पड़ता है कि लोगों के हाथ में राख है। कभी वह भी किरण थी लेकिन अब वह राख है। तो छटकारा होने वाला नहीं। फिर भी, न बद्ध महावीर के खिलाफ हैं, न महावीर कृष्ण के खिलाफ हैं। खिलाफ हैं शास्त्र बन जाने के । और जो भी Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ . ., ४३ शास्त्र बन जाता है वहां सत्य मर जाता है. यदि यह स्मरण रखें तो शास्त्र बनने की उम्मीव मिटती है, आशा मिटती है, लेकिन फिर भी बन सकता है । इसलिए लड़ाई जारी रहेगी। इसलिए किसी पानी पर लड़ाई खत्म नहीं हो जायेगी । सानी होंगे और माने वाले शानियों को उनका सपन करना होगा। यह बड़ा कठोर कृत्य है लेकिन प्रेम इतना कठोर भी होता है । यह बड़ा कठोर कृत्य है। एक जोन फकीर हुए हैं। अब जेन फकीर बुद्ध के अनुयायी हैं । नेकिन जेन फकीर अपने अनुयायियों से कहते हैं कि अगर बुद्ध बोच में आएं तो एक चांटा मारकर अलग कर दें; और आयेगा बुद्ध बीच में तुम्हारे । परम ज्ञान के उपलब्ध होने के पूर्व बुद्ध तुम्हारे बीच में मार्ग रोकेगा तो एक चांटा मार कर अलग कर देना। एक जोन फकोर का तो यहां तक कहना है कि यदि बुद्ध का मुंह में नाम आए तो पहले कुल्ला करके मुख साफ कर लेना फिर दूसरा काम करना। तो उसमे पूछो कि तुम यह क्या कहते हो ? और बुद्ध की मूति रखते ही मन्दिर में । वह कहता है-यह दोनों ही सही हैं । बुद्ध से हमारा प्रेम है लेकिन यदि बुद्ध किसी के आड़े आ जाए तो उससे हमारी लड़ाई है। और इसके लिए बुद्ध का आशीर्वाद हमको मिला हुआ है। यानी बुद्ध से हमने यह पूछ लिया है कि हम लोगों से यह कह दें तो कुछ बुरा तो नहीं कि तुम्हारा नाम मुख में आ जाए तो कुल्ला करके साफ कर लेना। अब यह आदमी समझने में मुश्किल हो जाएगा। लेकिन यह आदमी है और यह ठीक कह रहा है। एक तरफ यह मूर्ति रखे हुए है, रोज सुबह उसके सामने फूल भी रख आता है और दूसरी तरफ लोगों को समझाता है कि बुद्ध से बचना । इससे खतरनाक आदमी ही नहीं हुआ है और इसका नाम भी मुख में आए तो कुल्ला करके साफ कर लेना, इतना अपवित्र है यह नाम । और कहता है कि बुद्ध से पूछ लिया है, आशीर्वाद ले लिया है कि हां यह करो। अब इसका मतलब क्या है ? इसका मतलब यह है कि हर चीज बाधा बन जाती है। असल में जो भी सीढ़ी है वह मार्ग का पत्थर भी बन सकती है और जो भी पत्थर है वह मार्ग की सीढ़ी भी बन सकता है । सब कुछ बनाने वाले पर निर्भर है। और जब पुरानी सीढ़ी पत्थर बन जाती है तो उसे हटाने की बात करनी पड़ती है, मिटाने की बात करनी पड़ती है। यह लड़ाई निरन्तर जारी रहेगी। इस लड़ाई को रोकना मुश्किल है। यानी मैं जो कहकर जाऊंगा कल किसी को हिम्मत जुटा कर उसे गलत कहना ही पड़ेगा। मैं जो कहकर जाऊंगा, मुझे प्रेम करने वाले किसी व्यक्ति को मेरे खिलाफ लड़ना ही पड़ेगा। इसके सिवाय कोई उपाय ही नहीं क्योंकि वे सुनने वाले Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ महावीर : मेरी दृष्टि में उसको पकड़ेंगे, और शास्त्र बनाएंगे और उससे छुटकारा दिलाना होगा। यानी जो व्यक्ति भी हमारे लिए मुक्तिदायी सिद्ध हो सकते हैं उन्हें हम बंधन बना लेते है और जब उन्हें बंधन ना लेते हैं तो उनसे भी मुक्ति दिलानी पड़ती है । और जो हमें फिर मुक्ति दिलाते है, हम उसे फिर बंधन बना लेते हैं । · । लम्बी कथा है यह कि मुक्तिदायी विचार भी कैसे बंधन बन जाते हैं, कि मुक्तिदायी व्यक्ति भी कैसे बंधन बन जाते हैं; फिर कैसे उनसे छुड़ाना पड़ता है और इसलिए कोई भी विचार सदा रहने वाला नहीं हो सकता और इसलिए किसी भी विचार की एक सीमा है प्रभाव की । जीवन्त उस प्रभाव क्षेत्र में जितने लोग आ जाते हैं और जीवन्त प्रयोग में लग जाते हैं, में तो निकल जाते हैं। पीछे फिर केवल राख रह जाती है । इसलिए सब तीर्थंकरों, सब अवतारों, उन सब निष्ठावान लोगों के आस-पास राख का संग्रह हो जाता है । और वह जो राख का संग्रह है वह सम्प्रदाय बन जाता है। और फिर वे राख के संग्रह । एक दूसरे से लड़ते हैं, कि कोई फिर खड़ा हो झगड़ते हैं, उपद्रव करते हैं और सारी राख को मिटा दे । और तब जरूरत होती है लेकिन इसका यह मतलब नहीं होता कि वह राख नहीं बन जाएगा । वह बनेगा । जो भी अंगारा जलेगा, वह बुझेगा । जो विचार एक दिन जीवन्त होगा एक दिन मृत हो जाएगा । जब महावीर ही मिट जाते हैं, बुद्ध ही मिट जाते हैं तो जो कहा हुआ है, वह भी मिट जाएगा । इस जगत् में जिसमें हम जी रहे हैं कुछ भी शाश्वत नहीं है । न कोई वाणी, न कोई विचार, न कोई व्यक्ति, कुछ भी शाश्वत नहीं है । यहां सभी मिट जाएगा । मिट जाने के बाद भी पकड़ने वाला आग्रह उसको पकड़े रखेगा और तब किसी को चेतना पड़ेगा कि लहर चली गई है, हाथ तुम्हारा खाली है । तुम कुछ भी नहीं पकड़े हो । अब दूसरी लहर आ गई है, तुम पुरानी के चक्कर में पड़े हो । इसे पकड़े रहे तो नई लहर से भी चूक जाओगे । पुरानी लहर जा चुकी । यह जो हमें ख्याल में आ जाए, तो मैं शास्त्र की निन्दा नहीं कर रहा हूं । वह जो वस्तुस्थिति है, वह कह रहा हूं । और वह जो तुम कहते हो ठीक है । मेरी बहुत सी बातें शास्त्र में मिल जायेंगी । इसलिए नहीं कि वह शास्त्र में हैं, इसलिए कि तुम मेरी बातों को समझ लोगे । अगर मेरी बातें तुम्हें समझ में पड़ गईं तो तुम्हें शास्त्र में मिल जाएंगी क्योंकि शास्त्र में तुम्हें वही मिल जाएगा जो तुम्हारी समझ है क्योंकि हम शास्त्र में अपनी समझ डालते है। आम तौर पर हम यह समझते हैं कि शास्त्र से समझ निकलती है । निकलता नहीं। हम शास्त्र में अपनी समझ डालते हैं । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २ ४५ कृष्ण के अगर हजार · इसीलिए तो गीता की हजार टोकाएं हो सकती हैं। अगर गीता से समझ निकलती हो तो उसकी हजार टीकाएं कैसे हो सकती हैं ? मतलब रहे होंगे तो कृष्ण का दिमाग खराब रहा होग। कृष्ण का तो एक ही मृतलब रहा होगा । हजार टीकाएं हो सकती हैं, लाख टीकाएं हो सकती हैं, क्योंकि हर व्यक्ति अपनी खोज, अपनी समझ उसमें खोज लेगा । और शब्द इतना बेजान है कि तुम उसे मार ठीक कर जहां लाना चाहो, आ जाता है। वह कुछ कर ही नहीं सकता । तुमने उसकी गर्दन में डाली फांस और खींचा तो तुम जहां लाना चाहते हो ले आते हो। उसी गोता से शंकर निकाल लेंगे "कि जगत् सब माया है, कर्ममुक्त हो जाना ही संदेश है ।" उसी गीता से तिलक निकाल लेंगे कि "कर्म ही जीवन है और जीवन सत्य है ।" उसी गीता से दोनों निकाल रहे हैं । उसी गीता से अर्जुन निकालता है कि युद्ध में जीत जाओ । अर्जुन सुनने वाला है । श्रोता है पहला वह । पहली टीका उसी की है समझ । पहला कमेन्टेटर वही है । सुना है उसने । सुन ही तो नहीं लिया, जो सुना है उसको समझा है, गुना है, अपना मतलब निकाला है । अर्जुन मतलब निकाल लेता है युद्ध में जीत जाओ और महाभारत का युद्ध हो जाता है । और उसी गीता को गांधी अपनी माता समझते हैं और अहिंसा का संदेश निकालते हैं । अब यह बहुत मजेदार मामला है - अर्जुन हिंसा में उतर जाता है और गांधी भर हाथ में रखकर अहिंसा में चले जाते हैं । तो गीता बेचारी कुछ है या कि गीता में हम कुछ डालते हैं । शास्त्र अपनी बुद्धि को बाहर निकाल कर पढ़ने का उपाय है । भीतर पढ़ना जरा मुश्किल है। इसलिए प्रोजेक्ट कर लेते हैं पर्दे पर । शास्त्र पर्दा बन जाता है, उसमें अपने भीतर को बाहर लिख लेते हैं । फिर हमें दोहरी तृप्ति मिल जाती है । एक तो हमें अपने पर विश्वास नहीं है । जब हम गीता में पढ़ लेते हैं अपने को तो हम मजबूत हो जाते हैं कि ठीक है; क्योंकि कृष्ण भी यही कहते हैं । यानी हमें कोई भटक जाने का डर नहीं । महावीर भी यही कहते हैं, बुद्ध भी यही कहते हैं। इस भूल में पड़ना भी मत कि अनुयायी ने कभी भी बुद्ध का या महावीर का साथ दिया है । अनुयायी ने बुद्ध और महावीर का साथ लिया है। दिखता है न कि महावीर के पीछे चल रहा है, महावीर का अनुयायी है। सचाई उल्टी है महावीर का अनुयायी महावीर को अपने पीछे चला रहा है और चलाकर आश्वस्त है कि हम कोई गलती में वो हो नहीं सकते क्योंकि महावीर साथ हैं । तो वह हर चीज को निकाल लेता है, हर चीज के उपाय निकाल लेता है । उसको जिन्दगी Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • महावीर : मेरी दृष्टि में मूर्ति पारस की हो सकती है, पारस की नेमि की हो सकती है। सिर्फ नीचे का एक चिन्ह भर है । उसको तुम अलग कर दो तो किसी भी मूर्ति में कोई फर्क नहीं है । क्या ये चौबीस आदमी एक जैसे रहे होंगे ? क्या यह ऐतिहासिक हो सकता है मामला कि इन चौबीस आदमियों की एक जैसी आँख, एक जैसी नाक, एक जैसे चेहरे, एक जैसे बाल रहे हों ? यह तो असम्भव है । दो आदमियों का एक जैसा खोजना मुश्किल है। और ये चौबीस बिल्कुल एक जैसे रहे हों, इनमें भेद ही नहीं कोई ? नहीं, यह ऐतिहासिक तथ्य नहीं है । यह तथ्य ज्यादा आन्तरिक है । क्योंकि जैसे हो व्यक्ति ज्ञान को उपलब्ध होता है, सब भेद विलीन हो जाते हैं, और अभेद शुरू हो जाता है। वहीं सब एक सा चेहरा है, एक सी नाक है और एक सी आँख । मतलब केवल इतना है कि हमारे भीतर एक ऐसी जगह है जहाँ नाक- चेहरे आदि मिल जाते हैं, बिल्कुल एक सा ही रह जाता है। जो लोग एक जैसे हो गए हैं उनको हम कैसे बताएं ? तो हमने मूर्तियाँ एक जैसी बना दी हैं- बिल्कुल एक जैसी । उनमें कोई फर्क ही नहीं दिया है। मूर्तियाँ कभी एक जैसी नहीं रहीं, हो नहीं सकतीं। इसलिए मूर्तियों की चिन्ता ही नहीं करनी पड़ी। महावीर का चेहरा कैसा रहा हो, यह सवाल ही नहीं रहा है । उस चेहरे की हमने बात ही छोड़ दी। अगर फोटोग्राफ लिया होता तो महावीर की मूर्ति से यह कभी मेल ही नहीं खा सकती थी । क्योंकि फोटोग्राफ सिर्फ बाहर को पकड़ता है। मूर्ति में हमने भीतर को पकड़ने को कोशिश की है । भीतर आदमी एक से हो गए हैं । इसलिए अब इनकी बाहर की मूर्तियों को अलग-अलग रखना गलत सूचना हो जाएगी । अब यह बड़े मजे की बात है कि भीतर को हमने बाहर पर जिता दिया है। फोटोग्राफ में बाहर भीतर पर जीत जाता है। फोटोग्राफ अलग-अलग होता है । परन्तु ये चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ अलग नहीं । ये बिल्कुल एक हैं । उनका लेवल एक हो गया । जैसी ही चेतना एक तल पर पहुँच गई है, सब एक हो गया है। यानी उसके चेहरे एक हो गए, चेहरों में फर्क नहीं रहा । आँखें अलग-अलग रही होंगी लेकिन जो उनसे झांकने लगा, देखने वाला था, वह एक हो गया । होंठ अलग-अलग रहे होंगे लेकिन जो वाणी निकलने लगी, वह एक हो गई । भीतर सब एक हो गए । तो एक गोल परिक्रमा है जिसका हम चक्कर अनन्त जीवन तक लगाते रहें तो भी इस गर्भगृह में प्रवेश नहीं कर पाएँगे । परिक्रमा से उतरना पड़ेगा । तो हम वहाँ जाएँगे, जहाँ भगवान् को प्रतिष्ठित किया है । भगवान् को अगर Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ हम गौर से देखेंगे तो सब स्थिर है, सब शान्त है। स मूर्ति में सब शान्त है, सब स्थिर है जैसे वहां कोई गति ही नहीं, कोई कम्पन नहीं। इसलिए, पत्थर की मूर्तियां चुनी गई क्योंकि पत्थर हमारे पास सबसे ज्यादा ठहरा हुआ तत्व है जिससे हम खबर दे सकें सबसे ज्यादा ठहरा हुआ और उस ठहराव में भी जो हमने रूपरेखा चुनी है, वह बिल्कुल ठहरी हुई है । मूवमेन्ट की बात ही नहीं। इसलिए हाथ जुड़े हुए हैं, पर जुड़े हुए हैं। पैर क्रॉस्ड हैं पद्मासन में, आंखें आधी बन्द हैं। ध्यान रहे आंखें अगर पूरी बन्द हों तो खोलनी पड़ेंगी। आंखें अगर पूरी खुली हों तो बन्द करनी पड़ेंगी क्योंकि अति से लौटना पड़ता है। अति पर कोई ठहर नहीं सकता। अगर आप श्रम करें तो आपको विश्राम करना पड़ेगा। अगर विश्राम करें बहुत, तो फिर आपको श्रम करना पड़ेगा। 'अति' पर कोई कभी ठहर नहीं सकता। इसलिए आँख को आधा खुला, आधा बन्द रख दिया है, मध्य में जहाँ से न यहाँ जाना है न वहां जाना है, ठहरने का प्रतीक है सिर्फ, सब ठहर गया है। अब कहीं कुछ जाना-आना नहीं। अब कहीं कोई गति नहीं। न पीछे लौटना है, न आगे जाना है। अब कहीं कुछ जाना नहीं । यह सब ठहरा हुआ वह बिल्कुल केन्द्र में है। • तो मन्दिर प्रत्येक व्यक्ति का प्रतीक है कि तुम अपने साथ क्या कर सकते हो । या तो तुम बाहर के कोनों से जा सकते हो, यात्रा पर। यह इन्द्रियों की यात्रा होगी। या तो भीतर मस्तिष्क के विचार में चक्कर लगा सकते हो; वह परिभ्रमण होगा। और या तुम सबके बीच में जाकर स्थिर हो सकते हो; वह उपलब्धि होगी । हजार तरह की कोशिश की है । नृत्य में, संगीत में, चित्र' में, मूति में, शब्द में, हजार तरह की कोशिश की है। पिरामिड हैं, इजिप्त के । उनमें जो बड़े अद्भुत रहस्य है, वे सब खोद डाले हैं उन्होंने कि कभी भी कोई जानने वाले लोग आएंगे तो पत्थर न मिटेंगे। बड़ी मेहनत की है। सब खोद डाला है कि अन्तरात्मा तक पहुँचने का क्या रास्ता है ? पिरामिड के पूरे पत्थरों में सब इशारे खुदे हुए हैं, पूरे इशारे खुदे हुए हैं । जिन लोगों ने जाना है, उन्होंने बहुत तरह की कोशिश की है कि जो जाना है वह किसी तरह रह जाए और बाद में जब भी कोई जानने वाला आये तो वह फौरन खोल ले कि वहां क्या है। वे हैं कुंजियाँ जिनसे ताले खुलते हैं । लेकिन न मापको ताले का पता है, न आपको कुंजी का पता है। आप कुंजी भी लिए बैठे हैं; ताला भी लटका है, कुछ नहीं खुलता। और पहली बात यह है कि अगर Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ महावीर : मेरी दृष्टि में जोर से अंधे की तरह कुछ पकड़ लिया तो तुम कभी भी कुछ नहीं खोल पाओगे ! इसलिए पकड़ना मत । जो मैं निरन्तर कह रहा हूँ उसका कुल मतलब, इतना है कि शास्त्र को पकड़ना मत । पढ़ना, पकड़ना मत; सुनना किसी को लेकिन बहरे मत हो जाना; पढ़ो, अंधे मत हो जाना ! सुनना और पूरी तरह जानते हुए सुनना कि सुनने से क्या हो सकता है । ओर, मैं कहता हूँ कि अगर इस तरह सुना तो सुनने से भी हो सकता है। पढ़ने से क्या हो सकता है ? अगर ऐसा जानते हुए पढ़ा तो पढ़ने से भी हो सकता है। हो सकने का मतलब यह कि वह भी निमित्त बन सकता है तुम्हारी भीतर की यात्रा का । कोई भी चीज निमित्त बन सकती है । लेकिन अंधे होकर पकड़ लेने से सब बाधा हो जाती है। पढ़ो; सुनो ! लेकिन प्रत्येक क्षण यह जानते रहो कि खोज मेरी है और मुझे करनी होगी। इसमें बासा और उधार सत्य नहीं ले सकता है । यह अगर स्मरण रहे तो मैं जो कह रहा हूँ वह तुम्हारे लिए बाधा नहीं बनेगा । नहीं तो वह भी बाधा C बन जाएगा । अब तुमने देखा खजुराहो का मन्दिर । जिनकी समझ में बात आई उन्होंने कितनी मेहनत से खोदने की कोशिश की है । मन्दिर के बाहर की दीवार पर सारी सेक्स, सारी काम और योनि सब खोद डाला है । बड़ी अद्भुत बात खोदी है पत्थर पर । लेकिन भीतर मन्दिर में नहीं है सेक्स का कोई चित्र । सब बाहर की परिधि पर खोदा गया है । बोर मतलब यह है सिर्फ कि जीवन की बाहर मन्दिर के भीतर की परिधि 'सेक्स' से बनी है, काम से बनी हैं । और अगर ९ जाना है तो इस परिधि को छोड़ना पड़ेगा । मन्दिर के बाहर ही रहना हो तो ठीक है, यही चलेगा । 'काम' जीवन की बाहर की दीवार है और 'राम' भीतर मन्दिर में प्रतिष्ठित है । जब तक काम में उलझे हो तब तक भीतर नहीं जा सकोगे । लेकिन अगर सारे मैथुन चित्रों को कोई घूमता हुआ देखता रहे तो कितनी देर देखता है । फिर थक जाता है, फिर ऊब जाता है, फिर कहता है कि अब मन्दिर में अन्दर चलो। और अन्दर जाकर बड़ा विश्राम पाता है क्योंकि वहाँ पर एक दूसरी दुनिया शुरू होती है । जब जीवन की अनन्त यात्राओं में थक जाएँगे हम, सैक्स के जीवन से बाहर घूम-घूमकर, तब एक दिन मन कहेगा कि अब बहुत हुआ; अब बहुत देखा; अब बहुत समझा; अब भीतर चलो । इस तथ्य को पत्थर में खोद कर छोड़ दिया किन्हीं ने, जिन्होंने जाना उन्होंने छोड़ दिया। अनुभव से यह बात उनको दिखाई पड़ी कि दो ही तरह का Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २ ५३ जीवन है - या 'काम' का या 'राम' का । और 'काम' 'राम' के मन्दिर की दीवार है । ऐसा नहीं कि काम राम का दुश्मन है, सिर्फ बाहर की दीवार है । 'राम' को वही सुरक्षित किए हुए है चारों तरफ से । राम के रहने का घर उसी से बना है। राम को निवास न मिलेगा अगर 'काम' न रह जाए । तो 'काम' दुश्मन भी नहीं है । फिर भी 'काम' रोकने वाला है। अगर बाहर ही घूमते रहे, तो मूल ही जाओगे कि मन्दिर में एक जगह है जहाँ 'काम' नहीं है, जहाँ कुछ और शुरू होता है, एक दूसरी ही यात्रा शुरू होती है । लेकिन जब ऊब जाओ तभी तो भीतर जाओगे । अभी मैं भी देखता हूँ कि जब खुजराहो जाकर बैठ जाता हूँ तो जो देखने वाले आते हैं, वे पहले तो बाहर ही घूमते हैं । मन्दिर को कोई सीधा नहीं जाता । कभी कोई गया हो नहीं भीतर मन्दिर में । कोई भी जा कैसे सकता है ? उधर बैठ कर देखता हूँ तो जो भी यात्री आता है वह पहले बाहर घूमता है और इतने अद्भुत चित्र हैं कि कहाँ भीतर जाना ? कैसा भीतर ! वे इतने उलझाने वाले हैं और इतने अद्भुत हैं कि इतनी मैथुन प्रतिमाएँ इस अद्भुत ढंग से दुनिया में कहीं भी नहीं खोदीं । असल में दुनिया में इस गहरे अनुभव को बहुत कम लोग उपलब्ध हुए । अतः इसे खोदने का कोई उपाय न था । खोद ही नहीं पाए । अब पश्चिम करीब पहुँच रहा है, जहाँ हमने हजार दो हजार साल पहले खोदे वहाँ अब पहुँच रहा है। अब वहाँ 'सेक्स' को परिधि पूरी तरह प्रकट हो रही है । हो सकता है कि सौ दो सौ वर्षों में वह भीतर के मन्दिर को भी निर्मित करे । जोर से परिभ्रमण हो रहा है सेक्स का, अब भीतर का . मन्दिर निर्मित होगा । मैं देखता हूँ कि वहाँ तो बाहर यात्री घूम रहा है । धूप तेज होती जाती है और यात्री एक-एक मैथुन चित्र को देखता जाता है । थक गया है, पसीना-पसीना हो गया है । सब देख डाला बाहर; फिर कहता है--नलो अब भीतर भी देखें । बाहर से थक जाएगा तो कोई भीतर जाएगा । अब इसको पत्थर में भी खोदा है; कितनी मेहनत की है। इसे किताबों में भी लिखा है । लेकिन किताब में इतना ही लिखना पड़ेगा कि जब बाहर में थक जाओगे, 'काम' से जब थक जायोगे तब 'राम' की उपलब्धि होगी । लेकिन हो सकता है कि इतना सा वाक्य किसी के ख्याल में ही न आए; हो सकता है कि इसको पढ़कर तुम कुछ भी न समझो। तो इसका एक मंन्दिर भी बनाया है । और इसको हजार रूप में खोजा है - संगीत से भी, नृत्य से भी, सब तरफ से सब माध्यम से । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · महावीर : मेरी दृष्टि में फिर भी जरूरी नहीं । अगर तुमने कहा कि यही सत्य है कि गुजराहो के जिसको भी ज्ञात हो गया है वह कोशिश करेगा तुम्हें खबर देने की । लेकिन खबर को भी पकड़ लिया, जैसे किसी ने मन्दिर में बाहर 'काम' है, अन्दर 'राम' * है, तो हम इसी मन्दिर में ठहर जाते हैं, झंझट छोड़ें, जब यही सत्य है और सब हम इसी मन्दिर के पुजारी हो जाते हैं । तो हो तुम बात । अगर तुम समझ जाते तो इस मन्दिर बात खत्म हो गई थी । अगर इशारा समझ में सत्य इसमें खोदा हुआ है तो जाओ तुम पुजारी ! चूक गए से कुछ लेना देना ही नहीं था । आ गया होता तो इस मन्दिर में न भीतर था, न बाहर था कुछ । बात खत्म हो गई थी और तुम कहते कि ठीक है । और तुम लोगों से कहते कि देखना मन्दिर में मत उलझ जाना; मन्दिर से कुछ न मिलेगा और अगर ध्यान रहा कि मन्दिर से कुछ न मिला तो शायद खोज हो और मन्दिर से भी कुछ मिल जाए । मेरी कोई शत्रुता नहीं मन्दिर से, शत्रुता होने का कोई सवाल ही नहीं, न कोई निन्दा है । क्योंकि निन्दा करने का क्या अर्थ हो सकता है ? जो मैं कह रहा हूँ,. वह फिर लिखा जाएगा, तो लिखे हुए का क्या अर्थ हो सकता है लेकिन इतनी चेतावनी जरूरी है कि न निन्दा करना, न प्रशंसा करना । समझना; समझा तो वह मुक्ति की तरफ ले जाता है । प्रश्न : तो सिर्फ तीर्थंकरों को ही क्यों, बुद्ध और महावीर में भी वही रूप की समानता है । क्राइस्ट, राम और कृष्ण - सबमें वही समानता है । लेकिन वे अलग-अलग समय में हुए इसलिए इनकी बात छोड़ें हम । केवल बुद्ध और महावीर की बात करें । 'दोनों समकालीन हैं। दोनों में से महावीर ने क्यों नहीं कहा कि जो मैं हूं, वही बुद्ध हैं; जो मेरा रूप है वही बुद्ध का रूप है । और बुद्ध ने क्यों नहीं कहा कि जो मैं हूं वही महावीर का रूप है ? उत्तर : विचारणीय बात है । चौबीस तीर्थंकरों की मूर्तियाँ एक जैसी हैं । तो क्यों क्राइस्ट की, क्यों बुद्ध की भी ऐसी नहीं है ? और ठीक कहते हैं आप, कम से कम बुद्ध तो महावीर के साथ ही थे, एक ही समय में थे । इन दोनों की मूर्तियां एक जैसी हो सकती थीं। लेकिन नहीं ! और नहीं हो सकती थीं । कारण कि ये जो चौबीस तीर्थंकरों की एक धारा है इस धारा ने एक सोचने का ढंग निर्मित किया है, अभिव्यक्ति की एक 'कोड' लेंग्वेज निर्मित की है इस धारा ने । और यह धारा कोई तीर्थंकर नहीं बनाती । यह धारा तीर्थंकरों के आस-पास निर्मित होती है । यह सहज निर्मित होती है । एक भाषा, एक ढंग, एक प्रतीक की व्यवस्था निर्मित हुई है, शब्दों की परिभाषा और ढंग निर्मित Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्मोत्तर-प्रवचन- २ ५५ 1 1 हुआ है, और यह ढंग कोई तीर्थंकर निर्मित नहीं करता उनके होने से निर्मित होता है । उनकी मौजूदगी से निर्मित होता है । जैसे सूरज निकला है। सूरज अब कोई आपकी बगिया का फूल निर्मित नहीं करता !! लेकिन सूरज की मौजूदगी से फूल खिलते हैं, फूल' निर्मित होते हैं। सूरज न निकले तो आपकी बगिया में फूल नहीं खिलेंगे । फिर भी सूरज सीधा जिम्मेदार नहीं है आपकी बगिया के फूल खिलाने को । फिर आपने अपनी बगिया में एक तरह के फूल लगा रखे हैं ओर मैंने अपनी बगिया में दूसरी तरह के । मेरी बगिया में दूसरी तरह के फूल खिलते हैं और आपकी बगिया में दूसरी तरह के । दोनों सूरज से खिलते हैं । फिर भी, दोनों में भेद होगा और आपने अपनी बगिया में इस तरह के फूल लगा रखे हैं तो उनमें भी भेद होगा । प्रत्येक धारा जैसे कि चौबीस तीर्थंकरों की एक धारा है, एक प्रतीक व्यवस्था में खड़ी हुई है। उसका अपना प्रतीक है, अपने शब्द हैं, अपनी 'कोड' लैंग्वेज है । और वह उसके अपास जो वर्तुल खड़ा हो गया है उन शब्दों, उन प्रतीकों के आस-पास, वह न दूसरे प्रतीक समझ सकता है, न पहचान सकता है । बुद्ध की एक बिल्कुल नई परम्परा शुरू हो रही है जिससे सब प्रतीक नए हैं और मैं मानता हूँ कि उसका भी एक कारण है । असल में पुराने प्रतीक एक सीमा पर जाकर जड़ हो जाते हैं और हमेशा नए प्रतीकों की जरूरत पड़ती है । अगर बुद्ध यह कह दें वही महावीर कहते हैं तो जो फायदा बुद्ध पहुँचा सकते हैं, सकेंगे । महावीर पर एक धारा खत्म हो रही है । महावीर अन्तिम है एक भाषा के और वह भाषा जड़ हो उखड़ गई होगी और अब उसकी गति चली गई होगी, गई होगी । ( कि जो मैं कह रहा हूँ वह कभी नहीं पहुँचा रही है और जड़प्राय होकर नष्ट हो टूटने के बुद्ध एक बिल्कुल नई धारा के सिर्फ प्रारम्भ हैं। चेष्टा करनी पड़ेगी कि वह कहे कि यह महावीस्वाली मजा तो यह है कि यह पूरी तरह जानते हुए कि जो बुद्ध को पूरे समय जोर देना पड़ेगा, और ज्यादा जोर देना चूक से भी वह उस धारा से न जुड़ जाएँ क्योंकि वह जो गई है, जिसका वक्त पूरा हो गया है विद्वा हो रही है, गई तो यह जन्म ही नहीं ले पाएगी। आप मतलब मतलब यह है कि बुद्ध को बहुत सचेत होना पड़ेगा । आ जाए कि महावीर ने बुद्ध के खिलाफ एक शब्द भी गई होगी, करीब हो इसे नई धारा को पूरी धारा तो है ही नहीं । महावीर हैं वही बुद्ध हैं, पड़ेगा कि कहीं भूलमरती हुए धारा हो अगर उससे यह भी जुड़ समझ रहे हैं न ? मेरा इसलिए स्याल में आपको नहीं कहा, बुद्ध का कोई Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में . . . खण्डन नहीं किया। लेकिन बुद्ध ने. बहुत बार महावीर का खण्डन किया और बहुत कठोर शब्द कहे। इसलिए मैं कहता हूँ कि महावीर वृद्ध थे, बुद्ध जवान थे महावीर विदा हो रहे थे और बुद्ध आ रहे थे। बुद्ध को एकदम जरूरी था यह डिस्टिक्शन बनाना, यह भेद बनाना, बिल्कुल साफ । उस व्यवस्था से हमें कुछ लेना देना नहीं। वह बिल्कुल गलत है, क्योंकि लोक मानस में वह विदा होती हुई व्यवस्था हुई जा रही है और अगर उससे कोई भी सम्बन्ध जोड़ा तो नई व्यवस्था के जन्मने में बाधा बनने वाली है, और कुछ नहीं होने वाला है। फिर बोर भी बात है। चाहे कोई व्यवस्था विचार की, चिन्तन की, दर्शन की कितनी ही गहरी क्यों न हो वह केवल एक विशेष तरह के व्यक्तियों को ही प्रभावित करती है। कोई ऐसी व्यवस्था नहीं है जो सब तरह के व्यक्तियों के काम आ सके। अब तक नहीं है और न हो सकती है। अब तो यह पक्का माना जा सकता है कि वह नहीं हो सकती। महावीर के व्यक्तित्व को जो प्रभावित करती है बात, वह पारस वाली, नेमि वाली, आदिनाथ वाली बात उन्हें प्रभावित करती है । वह उस टाइप के व्यक्ति है, और इस टाइप के बनने में भी अनन्त जन्म लगते हैं। एक खास टाइप के बनने में उनको वह खास तरह की धारा ही प्रभावित कर सकती है। बुद्ध बिल्कुल भिन्न तरह के व्यक्ति हैं । उनके व्यक्तित्व को अपनी यात्रा है। उन्हें उसमें कुछ रस नहीं मालूम होता। लेकिन मैं मानता हूँ कि बुद्ध की चिंतना ने बहुत से लोगों को, जो महावीर से कभी कोई लाभ नहीं ले सकते थे, लाभ दिया । और वे बुद्ध से लाभ ले सके। लेकिन बुद्ध और महावीर की एक धारा है, मीरा की अपनी चिन्तना, अपनी धारा है। महावोर और मीरा का व्यक्तित्व बिल्कुल उल्टा है। अगर महावीर की अकेली चिन्तना दुनिया में हो तो बहुत थोड़े से लोग ही सत्य के अन्तिम मार्ग तक पहुँच पायेंगे क्योंकि मीरा के टाइप के लोग वंचित रह जायेंगे, उनसे उसका मेल ही नहीं हो पाता। अनन्त धाराएं चलती हैं इसलिए कि अनन्त प्रकार के व्यक्ति हैं और चेष्टा यही है कि ऐसा एक व्यक्ति भी न रह जाए जिसके योग्य और जिसके अनुकूल पड़ने वाली धारा न मिल सके । इसलिए अनन्त धाराएं हैं बोर रहेंगी। दुनिया जितनी विकसित होती जाएगी उतनी बाराएं ज्यादा होती जाएंगी । धाराएं ज्यादा होनी चाहिए । . महावीर की जो जीवनधारा है वह एकदम पुरुष की है, उसमें स्त्री का उपाय ही नहीं है । पुरुष और स्त्री के मानस में बुनियादी भेद है। जैसे स्त्री के पास जो मन है. वह निष्क्रिय (पैसिव ) मन है। पुरुष के पास जो मन है वह Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २ आक्रामक ( एग्रेसिव ) मन है । इसलिए स्त्री अगर किसी को प्रेम भी करे तो आक्रमण नहीं करेगी । प्रेम भी करे, उसका मन किसी के पास जाने को हो, तब भी बैठकर उसकी प्रतीक्षा करेगी कि वह आए । यानी वह किसी को प्रेम भी करती है तो जा नहीं सकती उठकर उसके पास । वह प्रतीक्षा करेगी कि वह आए । उसका पूरा का पूरा मन निष्क्रिय ( पैसिव ) है । आप आएँगे तो खुश होगी, आप नहीं आएँगे तो दुखी होगी । लेकिन इनेशियेटिव नहीं ले सकती, पहल नहीं कर सकती कि वह खुद आप पर जाएँ। अगर एक स्त्री किसी को प्रेम करती है तो वह कभी प्रस्ताव नहीं करेगी कि मुझसे विवाह करना है । वह प्रतीक्षा करेगी कि कब तुम प्रस्ताव करो । किसी स्त्रो ने कभी प्रस्ताव नहीं किया। विवाह का । हीं वह प्रस्ताव के लिए सारी योजना करेगी । प्रस्ताव लेकिन तुम्हीं करो । प्रस्ताव कभी वह नहीं करने वाली । और प्रस्ताव किए जाने पर भी कभी कोई स्त्री सीधा 'हाँ' नहीं भर सकती क्योंकि 'हाँ' आज्ञाक है । और एकदम से 'हाँ' भरने से पता चलता है कि उसकी तैयारी थी । तो कभी एकदम 'हाँ' नहीं करेगी। वह 'ना' करेगी । 'ना' को धीरे-धीरे धीमा करेगी । 'ना' को धीरे-धीरे 'हाँ' के करीब ला पाएगी । ' निगेटिव' है उसका माइन्ड | शारीरिक रचना भी उसकी निगेटिव है, पाजेटिव नहीं । इसलिए स्त्री कभी किसी पुरुष पर बलात्कार नहीं कर सकतो क्योंकि पुरुष यदि राजी नहीं है तो स्त्री किसी तरह का काम सम्बन्ध उससे स्थापित नहीं कर सकती । लेकिन स्त्री अगर राजी भी नहीं होती तो भी पुरुष उसके साथ सम्भोग कर सकता है, व्यभिचार कर सकता है । क्योंकि वह है निगेटिव; पुरुष है पाजिटिव । ५७ · महावीर की जो जीवन चिन्तना है वह पुरुष की जीवन चिन्तना है । इसलिए महावीर के मार्ग में स्त्री को मोक्ष पाने का उपाय भी नहीं है । अकारण नहीं है वह बात | इसका मतलब यह नहीं कि स्त्री को मोक्ष नहीं हो सकता । इसका मतलब केबल इतना है कि महावीर के मार्ग से नहीं हो सकता । महावीर के मार्ग में स्वी को एक बार और पुरुष योनि लेनी पड़े तब वह मोक्ष की तरफ जा सकती है । क्योंकि महावीर की जो व्यवस्था है, वह संकल्प की है; इच्छा की, आक्रमण की, बहुत गहरे आक्रमण की व्यवस्था है । उस व्यवस्था में कहीं हारना, टूटना, पराजित होना उसका उपाय नहीं । महावीर कहते हैं कि जीतना है तो जीतो, समग्र शक्ति लगाकर जीतो । एक इंच शक्ति पीछे न रह जाए । और लाओत्से कहता है अपने एक शिष्य को जो उससे पूछता है कि आप कभी हारे । लाओत्से कहता है 'मैं कभी नहीं हारा' । शिष्य कहता है 'कभी तो Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८ महाबीर : मेरो दृष्टि में हारे होंगे, जिन्दगी में, किसी मौके पर ।' लाओत्से कहता है, 'बिल्कुल नहीं ! कभी मैं हारा हो नहीं ! तो उसका रहस्य क्या था; राज क्या था ? लाओत्से कहता है, 'राज यह था कि मैं सदा हारा हुआ ही था। मैं पहले से ही हारा हुआ था । कोई मेरी छाती पर चढ़ने आता तो मैं जल्दी से लेट जाता और उसको बिठा लेता। वह समझता कि मैं जीत गया; मैं समझता कि खेल हुआ क्योंकि मैं पहले से हारा हुआ था । जीते क्या तुम ? तो मुझे कोई हरा ही नहीं सकता क्योंकि मैं सदा हारा हुआ हूँ ।" में 1 अब यह जो लाओत्से है, यह स्त्री के मार्ग का अग्रणी व्यक्ति है । यह हराई नहीं जाएगी । यह पूरी तरह हार जाएगी और आपको मुश्किल में डाल देगी । स्त्री किसी को हराने नहीं जाएगी और हारने के लिए जाकर मुश्किल में पड़ जाएगी । वह पूरी तरह हार जाएगी; पूर्ण आत्म-समर्पण कर देगी । वह कहेगी : तुम्हारी दासी हूँ, तुम्हारे चरणों की धूल हूँ। और तुम हैरान हो जाओगे कि अब वह तुम्हारे सिर पर बैठ गई, तुम्हें पता नहीं चलेगा । उसके जोतने का रास्ता हार जाना है, पूरी तरह हार जाना, सम्पूर्ण समर्पण । और जो स्त्री सम्पूर्ण समर्पण नहीं कर पाती, वह कभी नहीं जीत पाती, वह जीत ही नहीं सकती । इसलिए इस युग में स्त्रियाँ दुखी होती चली जाती हैं क्योंकि उनका समर्पण खत्म हुआ जा रहा है और वे भूल कर रही हैं । वे सोच रही हैं कि पुरुष जैसा हम भी करें। वे उसमें हार जाने वाली हैं। पुरुष का करना और ढंग का है । पुरुष के जीतने का मतलब है जीतना । स्त्री के जीतने का मतलब है हारना । उसका पूरा का पूरा मानस ही भिन्न है । इसलिए जो स्त्रो जीतने की कोशिश करेगी वह कभी नहीं जीत पायेगी । उसका जीवन नष्ट हो जायेगा क्योंकि वह पुरुष की कोशिश में लगी है जो कि उसके व्यक्तित्व की सम्भावना ही नहीं । और इसीलिए, पश्चिम में स्त्रियाँ बुरी तरह हार रही हैं क्योंकि वे पुरुष को जीतने की कोशिश में लगी हैं। वह बात ही उन्होंने छोड़ दी है कि 'हम समर्पण करेंगे, हम जीतेंगे । पुरुष को जीतने का एक ही उपाय था कि हार जाओ । इस तरह मिट जाओ कि पता ही न लगे कि तुम हो; और तुम जीत गए । पुरुष बच ही नहीं सकता; तुमसे जीत ही नहीं सकता । लाओत्से कहता है कि हम पहले से ही हारे हुए थे, इससे हमें कभी कोई हरा नहीं सकता | लाओत्से और महावीर का मार्ग बिल्कुल उल्टा है । एक दम । लाओत्से का मार्ग उन लोगों के महावीर का मार्ग उनके लिए हो उल्टा है, इसमें कोई समानता हो नहीं है लिए उपयोगी है जो हारने में समर्थ हैं, Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ . ५६ उपयोगी है जो जीतने में समर्थ है, जो सिर्फ जीत ही सकते हैं । इसलिए 'महावीर' शब्द उनको मिल गया। महावीर शब्द मिलने का और कोई कारण नहीं है। लड़ने को, आक्रमण की जो चरम समता है उससे वह महावीर कहलाए। और कोई कारण नहीं है। यानी वहां गुंजाइश नहीं छोड़ी कोई उन्होंने किसी तरह के भय की, किसी तरह के समर्पण की। इसीलिए महावीर परमात्मा को इन्कार करते हैं। उसकी वजह है कि अगर भगवान् है तो समर्पण करना पड़ेगा । हम से ऊपर कोई है यह महावीर मान ही नहीं सकते। पुरुष यह मान ही नहीं सकता कि वह जो पुरुष का चित्त है, उसके ऊपर है कोई। यह असम्भव है। महावीर भगवान् से इन्कार करते हैं । यह दार्शनिक ( फिलासफिकल ) नहीं है मामला । यह कोई दर्शन का मामला नहीं है कि कोई परमात्मा नहीं है। तुम ही परमात्मा हो । मैं ही परमात्मा हूँ। आत्मा शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है । यानी आत्मा ही जब पूर्ण रूप से जीत ली जाती है तो परमात्मा हो जाती है। ऐसा कोई परमात्मा नहीं है जिसके पैरों में तुम सिर झुकायो, जिसकी तुम प्रार्थना करो। परमात्मा से इन्कार कर देते हैं बिल्कुल क्योंकि परमात्मा है तो समर्पण करना पड़ेगा, भक्ति करनी पड़ेगी। इसलिए परमात्मा से बिल्कुल इन्कार है। * लाओत्से अपने को इन्कार करता है । लाओत्से कहता है : 'मैं हूँ ही नहीं। वही है; क्योंकि मैं अगर थोड़ा सा भी बचा तो हमला जारी रहेगा, लड़ाई जारी रहेगी। अगर जरा इंच भर 'मैं हूँ तो वह 'मैं' लड़ेगा।' इसलिए लाओत्से कहता है कि 'मैं हूँ ही नहीं। मैं एक सूखा पत्ता हूँ। जब हवाएं मुझे पूरब ले जाती हैं, मैं परब चला जाता हूँ; पश्चिम ले जाती हैं, पश्चिम चला जाता हूँ। मैं एक सूखा पत्ता हूँ। जब हवाएं नीचे गिरा देती हैं, नीचे गिर जाता हूँ ऊपर उठा लेती हैं, ऊपर उठ जाता हूँ। क्योंकि 'मैं हूँ ही नहीं।' हवाओं की जो मर्जी है वह मेरी मर्जी है। सूखे पत्ते की तरह 'मैं नहीं हूँ।' तो उसके लिए परमात्मा ही रह जाता है। __ ये दोनों रास्ते एक ही जगह पहुंचा देते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । या तो मैं पूरी तरह मिट जाऊं। तो एक ही बच गया परमात्मा । या परमात्मा को पूरी तरह मिटा दूं तो एक ही बच गया 'मैं' | बस एक ही बच जाना चाहिए आखिर में। दो रहेगा तो उपद्रव है, आसक्ति है। एक ही बचाने के दो उपाय हैं। पुरुष एक को बचा लेता है, एकदम स्त्री को मिटाकर अपने में विलीन कर लेता है। स्त्री भी एक को बचा लेती है, वह अपने को मिटा देती Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में है और पूरी तरह मिद जाती है। इसमें जो सवाल है किसी के ऊपर-नीचे होने का नहीं है। सवाल टाइप ऑफ माइन्ड का है। वह जो हमारे मस्तिष्क का टाइप है उसका। सो महावीर का एक है मार्ग, एक है ढंग; बुद्ध का ढंग दूसरा है । बुद्ध की एक नई भाषा खड़ी हो रही है अब, नए प्रतीक खड़े हो रहे हैं । बुद्ध को समझना होगा तो उन्हीं प्रतीकों से समझना होगा । बुद्ध की एक नई मूर्ति निर्मित हो रही है। क्राइस्ट का बिल्कुल और है मार्ग-तीसरा है। क्राइस्ट जैसा तो कोई आदमी नहीं है इनमें से। क्राइस्ट तो बिना सूली पर चढ़े हुए सार्थक ही नहीं। और महावीर अगर सूली पर चढ़े तो हमारे लिए व्यर्थ हो जाएंगे। जो महावीर को एक धारा में सोचते हैं उनके लिए बिल्कुल व्यर्थ हो जाएंगे। लेकिन क्राइस्ट का बिना सूली पर चढ़े अर्थ ही नहीं है। क्राइस्ट का और तरह व्यक्तित्व है। कृष्ण का और ही तरह का, उसका कोई हिसाब ही नहीं। हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि कृष्ण और महावीर में कैसे मेल बिठाएं, कोई मेल ही नहीं। और यह सब सार्थक है, सब सार्थक इन अर्थों में कि पता नहीं कौन सा व्यक्तित्व ज्योति की अनुभूति कराए; किस व्यक्तित्व में आपको ज्योति दिखे। आपको उसमें ही ज्योति दिखेगी, जिस व्यक्तित्व का आपका ‘टाइप होगा। नहीं तो आपको नहीं दिखेगी। मैं मानता हूँ कि यह बड़ा विचित्र है कि यह सब भिन्न-भिन्न टाइप है, यह भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं, इन-इन भिन्न-भिन्न ज्योतियों से भिन्न-भिन्न तरह के लोगों को दर्शन हो सकते हैं। और हो सकता है, अभी भी बहुत सम्भावना शेष है। और हो सकता है उन्हीं सम्भावनाओं के शेष होने की वजह से बहुत बड़ी मानव जाति अब तक धार्मिक नहीं हो पाई । उसका कारण है कि उस टाइप का आदमी अब तक ज्योति को उपलब्ध नहीं हुआ। मेरा मतलब आपने समझा न ? यानी जिसको वह समझ सकता था उस आदमी की पहुँच ही नहीं उस जगह जहां से उसको ज्योति दिखाई पड़ जाए। मेरी अपनी दृष्टि है, मेरा अपना प्रयोग रहा और मैं नहीं समझता कि किसी ने वैसा प्रयोग अब तक किया है। मेरा प्रयोग यह रहा कि मैं अपने व्यक्तित्व का टाइप मिटा दूं। मेरा प्रयोग यह रहा कि मैं सिर्फ व्यक्ति रह जाऊँ अत्यन्त व्यक्तित्वहीन, जिसका कोई टाइप नहीं। जैसे मकान में दो खिड़कियां हैं। एक तरफ से हम देखेंगे तो एक दृश्य दिखाई पड़ेगा। दूसरी Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २ तरफ से देखेंगे तो दूसरा दृश्य दिखाई पड़ेगा । और दोनों दृश्य एक ही बड़े दृश्य के हिस्से हैं । जिसको मैं इस खिड़की की बात कहूँ, वह दूसरी खिड़की पर खड़ा हो तो कहेगा सब झूठ है, सरासर झूठ है । कैसी ? कहाँ की झील ? कुछ नहीं है; सब झूठ बात है । मैं भी खिड़की पर खड़ा | मैं भी बाहर देख रहा हूँ; झील नहीं है, पहाड़ है । और, मैं कहूँ कि कैसा पहाड़ ? झील के अतिरिक्त तो यहाँ कुछ भी नहीं दिखाई पड़ रहा है । और हम लड़ते हैं क्योंकि दूसरे की खिड़कों पर जाना बहुत मुश्किल हैं। क्योंकि दूसरे की खिड़की पर जाने का मतलब दूसरा हो जाना है । और कोई उपाय नहीं । सारा का सारा व्यक्तित्व दूसरे जैसा हो जाए तो उसकी खिड़की पर आप खड़े हो जाएँ। वह हो नहीं सकता; वह बहुत मुश्किल मामला है । हजार खिड़कियाँ हैं जीवन के भवन में । जिसको जो खिड़की करीब पड़ गई वह उस खिड़की पर जाकर दर्शन कर सकता है । लेकिन एक रास्ता श्रीर भी है कि हम मकान के बाहर ही क्यों न आ जाएँ ? दूसरे की खिड़की पर जाना तो बहुत मुश्किल है। लेकिन मकान के बाहर आ जाना मुश्किल नहीं है । और मेरा मानना है कि मकान के बाहर आ जाना सब तरह की खिड़की पर खड़े लोगों के लिए एक जैसा ही आसान है । अगर एक खिड़की को हम पकड़ते हैं तो दूसरे की खिड़की के दुश्मन हो जाते हैं, हो हो जाएँगे । और अगर हम मकान के बाहर आ जाते हैं तो हमें पता लगता है कि उस मकान के भीतर जितनी खिड़कियाँ हैं, वे सब एक ही दृश्य को दिखला रही हैं । ६१ । दृश्य बहुत बड़ा है, खिड़कियां बहुत छोटी हैं । खिड़कियों से जो दिखाई पड़ता है वह पूरा नहीं अब अगर कभी भी कोई व्यक्ति बाहर आ जाए, सारी दृष्टियों को, सारे 'मैं' को छोड़कर, तो उसे दिखाई पड़ता है कि 'कृष्ण' एक खिड़की है, 'राम' एक खिड़की है, 'बुद्ध' एक खिड़की है, 'महावीर' एक खिड़की लेकिन खिड़की रह है । महावीर उस खिड़की से छलांग लगा चुके हैं बाहर । गई और उनके पीछे आने वाले खिड़की पर खड़े रह गए। महावीर पहुँच गए बाहर, लेकिन खिड़की से गए बाहर । महावीर तो निकल गए । खिड़की के पीछे जो उनके साथ आये थे, वे खिड़की पर खड़े रह गए। और वे कहते हैं कि जिस खिड़की से महावीर गए वही सत्य है । एक बुद्ध वाली खिड़की है, वहाँ भी लोग सत्य हैं । और, अब दुनिया में सम्भावना इस बात की पैदा हो गई है कि हम मनुष्य को द्वार से बाहर ले जा सकते हैं खिड़की के बाहर ले जा सकते हैं । और वहाँ जो दिखाई पड़ेगा उसमें हमें सब एक से मालूम पडेंगे क्योंकि हम P Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में लिड़की के बाहर खड़ा होकर देखेंगे। तो मुझे बुद्ध और महावीर में कोई फर्क नहीं दिखाई पड़ता, लेकिन मकान के बाहर खड़े हों तो ही, नहीं तो फर्क है क्योंकि फर्क खिड़की से निर्मित होता है जिससे वह कूदे। वह खिड़की हमारी नजर में रह गई, वह बिल्कुल अलग है। महावीर का ढंग है-अत्यन्त संकल्प का । यानो महावीर कहते हैं कि अगर किसी भी चीज में पूर्ण संकल्प हो गया है तो उपलब्धि हो जाएगी। बुद्ध को बिल्कुल और ही बात है। बुद्ध कहते हैं : संकल्प तो संघर्ष है। संघर्ष से कैसे सत्य मिलेगा ? संकल्प छोड़ो, शान्त हो जाओ। संकल्प ही मत करो तो उस शान्ति में ही सत्य मिलेगा। यह भी ठीक है। यह भी एक खिड़की है । ऐसे भी मिल सकता है। और महावीर भी कहते हैं, वह भी ठीक है । वैसे भी मिल सकता है। . हम इस तरह विचार करें कि अलग-अलग मूर्तियां जो बनीं, अलग-अलग मन्दिर बने, मस्जिदें खड़ी हुई, उनके अलग-अलग प्रतीक हुए, अलग भाषा बनी, अलग कोर बना तो वह बिल्कुल स्वाभाविक था। और फिर भी कोई अलग नहीं है। यानी कभी न कभी एक मन्दिर दुनिया में बन सकता है जिसमें हम क्राइस्ट की, बुद्ध की, महावीर की एक सी मूर्तियाँ ढालें। इसमें कोई कठिनाई नहीं। लेकिन बड़ी कठिनाई यहीं मैं कह रहा हूँ मापसे कि यदि आप महावीर से प्रेम करते हैं तो आप क्राइस्ट की मूर्ति महावीर जैसी ढालेंगे और अगर आप क्राइस्ट से प्रेम करते हैं तो आप महावीर की मूर्ति क्राइस्ट जैसी ढालेंगे। तब फिर बात गड़बड़ हो गई। अगर क्राइस्ट को प्रेम करने वाला आदमी महावीर की मूर्ति ढालेगा तो सूली पर लटका देगा। क्योंकि अभी वह 'कोड' और लैंग्वेज (भाषा) पैदा नहीं हो सकी जो सारी मूर्तियों में काम आ सके । लेकिन वह भी हो सकता है। बहुत दिनों तक, बुद्ध के मरने के बाद बुद्ध की मूर्ति नहीं बनी क्योंकि बुद्ध ने इन्कार किया है कि मूर्ति बनाना मत। और मूर्ति की जगह केवल प्रतीक चला-बोधिवृक्ष । सात-आठ सौ वर्ष बाद धीरे-धीरे अकेला वृक्ष-प्रतीक रखना मुश्किल हो गया। और बुद्ध की मूर्ति वापस आ गई। अगर हम झांकना चाहें सबके भीतर, समान के लिए, तो हमें मूर्ति मिटा देनी पड़ेगी। फिर हमें एक नया कोड विकसित करना होगा। . जैसे मुहम्मद की कोई मूर्ति नहीं है। और उस कोड के विकास करने में एक प्रयोग है ब्रह, और वह हिम्मत का है। बुद्ध की मूर्ति नहीं थी परन्तु पांच-छः सौ साल में हिम्मत टूट गई और मूर्ति आ गई। मुसलमानों ने बड़ी Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ हिम्मत जाहिर की है। चौदह सौ साल हो गए। मूर्ति को प्रवेश नहीं करने 'दिया है । खाली जगह छोड़ी। बहुत मुश्किल है, बहुत आसान नहीं है। मन मूर्ति के लिए लालायित हो उठता है। मन कहता है कि कोई रूप ? कैसे ये? मन की इच्छा होती है कोई रूप बने । बहुत रूप बनाकर लोगों ने देख लिए। कुछ लोग हैं, जिनके लिए सब रूपों में मूल विलाई पड़ी है। उन्होंने रूप हटाकर भी देख लिया; रूप नहीं रखा। मुहम्मद को विदा ही कर दिया । मस्जिद खाली रह गई। कुछ लोगों के व्यक्तित्व की दशा बड़ी हो सकती है । बहुत मन्दिर, बहत मस्जिद बन गए। कुछ लोगों ने मन्दिर और मस्जिद को भी विदा करके देख लिया, तीर्थों को भी विदा करके देख लिया। सब तरह के लोग हैं इस पृथ्वी पर, अनन्त तरह के लोग; अनन्त तरह की उनकी इच्छाएँ; अनन्त तरह की उनकी व्यवस्थाएं। और सबके लिए समुचित मार्ग मिल सके; इसलिए उचित ही है कि यह भेद रहे। लेकिन वक्त आएगा जैसे जैसे मनुष्यता विकसित होगी वैसे-वैसे हम खिड़की का प्राग्रह छोड़ देंगे, व्यक्ति का आग्रह छोड़ देंगे। यह पहले भी मुश्किल पड़ा होगा, इतना आसान नहीं है यह । इसलिए, हमने प्रतीक थोड़े से बचा लिए । ___ चौबीस तीर्थकर है जनों के। अच्छा तो यह होता कि उनके अलग-अलग प्रतीक भी न रहते लेकिन मन ने थोड़ा सा इन्तजाम किया होगा कि एकदम कैसे कर दें, कि थोड़ा सा चिन्ह रखो कि ये कौन है, थोड़ा सा चिन्ह बना लो। उतने में भी भेद हो गया। तो पारस का मन्दिर अलग बनता है, महावीर का मन्दिर अलग बनता है। उनके चिन्ह में भी भेद ला दिया। वह चिन्ह भी विदा कर देने की जरूरत है। लेकिन मनुष्य का मन बदले तभी, उसके पहले नहीं हो सकता है। ___ आप ठीक पूछते हैं, जो अनुभव हुआ है वह तो एक ही है। लेकिन उस अनुभव को कहा गया अलग-अलग शब्दों में। महावीर कहते हैं ; आत्मा को पाना परम ज्ञान है। इससे ऊंचा कोई ज्ञान नहीं। और बुद्ध वहीं, उसी समय में, उसी क्षेत्र में मौजूद रहते हैं और कहते हैं कि आत्मा को मानने से बड़ा अज्ञान नहीं है और दोनों ठीक कहते हैं । और मैं जानता हूँ कि न महावीर इसके लिए राजी हो सकते हैं बुद्ध से; और न बुद्ध इसके लिए महावीर से राजी हो सकते हैं। और दोनों जानते हैं भली भांति कि कोई भेद नहीं है । और दोनों राजी नहीं हो सकते हम पर करुणा के कारण। राजी हुए तो हमारे लिए व्यर्थ हैं। महावीर इसीलिए बहुत बड़े व्यापक वर्ग को प्रभावित नहीं कर सके Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ महावीर : मेरी दृष्टि में जितना बुद्ध ने इतने बड़े व्यापक वर्ग को प्रभावित किया। उसका कारण है कि महावीर के पास जो प्रतीक थे, वे अतीत के थे और बुद्ध के पास जो प्रतीकः थे वे भविष्य के थे । महावीर के पास जो प्रतीक थे उनके पीछे तेईस तीर्थंकरों की धारा थी । प्रतीक पिट चुके थे, प्रतीक प्रचलित हो चुके थे, प्रतीक परिचित हो गए थे । इसीलिए महावीर का बहुत क्रान्तिकारी व्यक्तित्व भी क्रान्तिकारी नहीं मालूम पड़ता था क्योंकि प्रतीक, जो उन्होंने प्रयोग किए, पीछे से आये थे । ओर बुद्ध का उतना क्रान्तिकारी व्यक्तित्व नहीं था जितना महावीर का । किन्तु वह ज्यादा क्रान्तिकारी मालूम हो सका । बुद्ध के प्रतीक भविष्य के हैं। यानी बहुत फर्क पड़ता है । भाषा जो बुद्ध ने चुनी वह भविष्य की थी । सच तो यह है कि अभी बुद्ध का प्रभाव और बढ़ेगा । आने वाले सौ वर्षों में बुद्ध के प्रभाव के निरन्तर बढ़ जाने की भविष्यवाणी की जा सकता है क्योंकि बुद्ध ने जो प्रतीक चुने वे आने वाले सौ वर्षों में मनुष्य के और निकट आ जाने वाले हैं, एक दम निकट आ जाने वाले हैं। यानी मनुष्य अभी भी इन प्रतीकों से पूरी तरह चुक नहीं गये हैं, बल्कि करीब आ रहे हैं । इसलिए, पश्चिम में इस समय बुद्ध का प्रभाव एकदम बढ़ता जा रहा है । बुद्ध ने सारे प्रतीक नए चुने हैं, सारी भाषा नई चुनी है । जैसे कि महावीर ने आत्मा की बात की है; बुद्ध ने आत्मा को इन्कार कर दिया है । बुद्ध ने कहा कि आत्मा वगैरह कोई भी नहीं है । महावोर ने इन्कार किया परमात्मा को, परमात्मा नहीं है, मैं ही हूँ । बुद्ध ने परमात्मा की बात ही करने योग्य भी नहीं माना। बात ही फिजूल है, चर्चा के 'मैं हूँ' इसको भी इन्कार कर दिया और कहा कि जो अपने 'मैं' के पूर्ण इन्कार को उपलब्ध हो जाता है, उसका निर्माण हो जाता है । नहीं की, इन्कार योग्य नहीं । और यह जो आने वाली सदी है, धीरे-धीरे उस जगह पहुँच रही है जहाँ व्यक्ति अनुभव कर रहा है कि व्यक्ति होना भी एक बोझ है । इसको भी इसलिए बिदा हो जाना चाहिए, इसकी भी कोई आवश्यकता नहीं । अहंकार 'इगो' भी एक बोझ है इसे भी विदा हो जाना चाहिए । फिर भी महावीर ने जो व्यवस्था की उसमें मोक्ष पाने का ख्याल है, मोक्ष मिल जाए। उसमें एक उद्देश्य, एक लक्ष्य है, ऐसा मालूम पड़ता है । जो प्रतीक उन्होंने चुने हैं उनकी वजह से ऐसा मालूम पड़ता है कि मोक्ष एक लक्ष्य है। उसके लिए साधन करो, तपस्या करो तो मोक्ष मिलेगा । बुद्ध ने कहा कि कोई लक्ष्य नहीं क्योंकि जब तक लक्ष्य की भाषा है तब तक इच्छा है, वासना है, तृष्णा है । लक्ष्य की बातें Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ मत करो। उसका मतलब हुआ कि अभी जिओ, इसी क्षण में जिओ, कल की बात मत करो । तो दुनिया, पुरानो दुनिया गरीब दुनिया थी और गरीब दुनिया कभी भी इसो क्षण में नहीं जी सकती। गरीब दुनिया को हमेशा भविष्य में जीना पड़ता है। अगर किसी गरीब आदमी से कहो कि आज ही जियो तो क्या आप कहते हैं, कल का क्या होगा। लेकिन दुनिया बदल गई है, समृद्ध दुनिया पैदा हो गई है। ___ अमेरिका में पहली दफा धन इस बुरी तरह बरस पड़ा है कि अब कल का कोई सवाल नहीं । बुद्ध की यह बात कि 'आज इसी क्षण जियो' पहली बार सार्थक हो जाएगी। पहली दफा, कल की चिन्ता करने की जरूरत नहीं। कल का कोई मतलब ही नहीं। आयेगा, आयेगा; नहीं आएगा, नहीं आएगा । गरीब दुनिया जो है वह स्वर्ग बनाती है आगे। वहाँ तृप्तियाँ हैं । यहाँ तो सुख मिलता. नहीं, तो आदमी सोचता है मरने के बाद । समृद्ध दुनिया जो है, वह आगे क्यों बनाए। वह आज ही बना लेती है, इसी वक्त बना लेती है। हिन्दुस्तान का स्वर्ग भविष्य में होता है; अमेरिका का स्वर्ग अभी और यहीं। इसी से हमें इर्ष्या होती है। भौतिकवादी से ईर्ष्या का अधिकार है हमको। इसलिए हम गाली देते हैं, निन्दा करते हैं, उसका भी कारण है । उसका स्वर्ग अभी बना जा रहा है, हमारा मरने के बाद, पक्का भरोसा नहीं कि होगा कि नहीं होगा। बुद्ध ने जो संदेश दिया वह तात्कालिक जीने का है, उस क्षण जीने का है। महावीर का जो संदेश है, मन के संकल्प का है। संकल्प तनाव ( टेन्शन ) से चलता है । संकल्प को जो प्रक्रिया है, वह तनाव की प्रक्रिया है, परम तनाव की । और मजे की बात यह है कि सब चीजें अगर उनकी पूर्णता तक ले जाई जाएं तो अपने से विपरीत में बदल जाती है। यह नियम है। अगर आप तनाव को उसके अति (एक्स्ट्रीम) पर ले जाएँ तो विधाम शुरू हो जाता है। जैसे कि हम इस मुट्ठी को बांधे और पूरी ताकत लगा दें बांधने में। फिर मेरे पास ताकत ही न बचे तो मुठ्ठी खुल जाएगी। क्योंकि जब मेरे पास ताकत नहीं बचेगी और सारी ताकत बाँधने में लम जाएगी और आगे ताकत नहीं मिलेगी बांधने को तो क्या होगा ? मुट्ठी खुल जाएगी । और मैं मुठ्ठी को खुलते देखूगा, बांध भी नहीं सकूँगा, सारी ताकत तो मैं लगा चुका हूँ, हां धीरे से मुठ्ठो को बांध तो खुल नहीं सकती अपने आप, क्योंकि ताकत मेरे पास सदा शेष है जिससे मैं उसको बांधे रहूँगा। इसलिए महावीर कहते हैं कि संकल पूर्ण कर दो। इतना तनाव पैदा होगा कि तनाव की आखिरी गति आ जाएगी और फिर तनाव समाप्त हो Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ महावीर : मेरी दृष्टि में जाएगा, शिथिल हो जाएगा। ले जाते हैं वे भी विश्राम की ओर लेकिन उनका मार्ग है पूर्ण तनाव से भरा । और बुद्ध कहते हैं कि तनाव कष्टपूर्ण होगा। जितना तनाव है वह भी छोड़ दो। भब ऐसा हुआ कि बीच में हम खड़े हैं आधे तनाव में। महावीर कहते हैं 'पूर्ण तनाव' ताकि तनाव से बाहर निकल आओ। बुद्ध कहते हैं जितना तनाव है उससे भी पीछे लौट आओ। तनाव ही छोड़ दो। तभी विज्ञान आता है। महावीर की भाषा को अब इस सदी में समझना मुश्किल पड़ जाएगा। क्योंकि कोई तनाव पसंद नहीं करता। तनाव वैसे ही बहुत ज्यादा है। आदमी इतना तना हुआ है इसीलिए मैं कहता हूँ कि भविष्य की जो भाषा है वह बुद्ध के पास है । पश्रिम में महावीर की बात कोई नहीं मानेगा कि और संकल्प करो और तपश्चर्या करो। हम मरे जा रहे है वैसे ही। अब हम पर कृपा करो। हमको कुछ विश्राम भी चाहिए । बुद्ध कहते हैं विश्राम का यह रहा रास्ता कि जितना तनाव है वह भी छोड़ दो, पूर्ण विश्रान्त हो जाओ। यह जंचेगा। तनावों से भरा हमा नादमी जचेगा नहीं। महावीर के पहले के तेईस तीर्थंकरों के लम्बे काल में प्रकृति के परम विधाम में आदमी जी रहा था। कोई तनाव न था। विश्राम ही था जीवन में । उस विश्राम में महावीर की भाषा सार्थक बन गई क्योंकि विश्राम की बात सार्थक होतो ही नहीं उस दुनिया में । उस दुनिया में आदमी से विश्राम की बात करना बिल्कुल फिजूल था। जैसे बम्बई के आदमी से कहो : चलो डल झील पर वहां बड़ी शान्ति है, तो उसको समझ में आता है। डल झील के पास एक गरीब नादमी अपनी बकरियां चरा रहा है। उसको कहो तुम कितनी परम शान्ति में हो । वह कहता है कभी बम्बई के दर्शन करने को मन होता है । उसके मन में बम्बई बसी है। कभी बम्बई वह जाए स्वाभाविक है। जो जहाँ है वहाँ से भिन्न नाना चाहता है। जब सारा जगत् प्रकृति की गोद में बसा हुआ था, न कोई तनाव पा, न कोई चिन्ता थी उस स्थिति में संकल्प को बढ़ाकर तनाव को पूर्ण करने की बात ही अपील कर सकती थी। वह भाषा ही काम कर सकती थी। तो वह चली। फिर एक संक्रमण भाया। उस संक्रमण में महावीर बहुत प्रभावी नहीं हो सके और जो लोग उनके पीछे भी गए वे भी उनको मान नहीं सके। वह नाम मात्र की यात्रा रहो । और नए लोगों को वह उस दिशा में नहीं ला सके क्योंकि नया आदमी उसके लिए राजी नहीं हुमा। रोज-रोज संगठन क्षीण होता गया। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २ ६७ जैसे दिगम्बर जैन मुनि हैं। श्वेताम्बर जैन मुनि महावीर से बहुत दूर हैं क्योंकि उसने बहुत समझौते कर लिए हैं। इसलिए उसकी संख्या ज्यादा है । वह अभी भी हैं समझौते करके । दिगम्बर जैन मुनि ने समझौता नहीं किया, महावीर की प्रयोग किया। तो मुश्किल से बोस - बाईस गुनि है अगर एक मरता है तो फिर पूरा नहीं होता । जैसी बात थी ठीक वैसा ही पूरे मुल्क में । और हर साल अगर इक्कीस रह जाते हैं तो बाईस करना मुश्किल होता है । तीस पैंतोस वर्षों पचास साल बाद दिगम्बर जैन मुनि कोई राजी नहीं है। एक मरता है । नहीं ला पाते और में वे बोस - बाईस जैन मुनि मर जाएंगे। का होना असम्भव है । भाषा चली गई तो वे उसका पूरा नहीं कर पाते, दूसरे को रखे भी हैं उनमें से कोई शिक्षित नहीं है । लोग हैं, इसलिए राजी भी हैं। एक शिक्षित आदमी को, ठीक आधुनिक शिक्षा 'पाए हुए आदमी को, दिगम्बर जैन मुनि नहीं बनाया जा सका अब तक ह जिनको वे आज पुरानो सदी के यानी एक अर्थ में वे "बन " तो अशिक्षित, बिल्कुल कम - नहीं सकता । उसकी भाषा सब बदल गई है। · समझ के लोग, गांव के लोग, दक्षिण के लोग हैं, उत्तर का एक जैन मुनि नहीं है दिगम्बरों के पास । और वह भी आज क्यों नहीं बनता ? यानी वे भी सब पचपन वर्ष से ऊपर उम्र के लोग हैं जो बीस-पच्चीस वर्षों में विदा हो जाएंगे । एक मरता है तो दूसरा उसकी जगह नहीं ला पाते। वह भाषा मर गई । 'श्वेताम्बर मुनि की संख्या बची है, बढ़ती है, क्योंकि वह वक्त के साथ भाषा · को बदलता रहा है, समझौते करता रहा है। समझौते की तरकीबें निकालता रहा है। समझौते करके ही वह बचा हुआ है । जा रहा है। माइक से बोलना है तो वह माइक से बोलने लगेगा | यह करना है, वह करना है, वह सब समझौते कर रहा है । कल वह गाड़ी में बैठने लगेगा, परसों वह हवाई जहाज में उड़ेगा। वह सब समझौते कर लेगा। वह समझौते करके ही बच रहा है। लेकिन समझौते करने में उसका महावीर से कोई - सम्बन्ध नहीं रह गया । . और वह रोज समझौते करता साधना है वह मैं यह कह रहा हूँ कि भविष्य के लिए, महावीर की जो सार्थक हो सकती है और एक ही उपाय है कि उसे भविष्य की भाषा में सिर्फ पूरा का पूरा रख दिया जाए। मैं कहता हूँ कि समझौता जीवन में मत करो । जीवन में समझौता बेईमानी है। समझौतां ही बेईमानो है असल में । प्रत्येक युग में जब नई भाषा बनती है तो भाषा बदलती | नए शब्द चुनेंगे नई दृष्टि चुनेंगे, नया दर्शन चुनेंगे। और मूल साधना का सूत्र ख्याल में न रह Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ महावीर : मेरी दृष्टि में. आज जाएगा । जैसे मैं कहता हूँ कि आज अगर महावीर की नहीं हैं कोई अपील सारे जगत् में तो उसका कारण है कि उनकी भाषा बिल्कुल ही पिटी-पिटाई हो गई। लेकिन अब भी हो सकती है अपील। भाषा इस युग के अनुकूल हो तो आज अपील हो जाए। अपील आप क्या कहते हैं इसकी नहीं है, अपील इस बात की है कि आप उसको कैसे कहते हैं; वह युग के मन के अनुकूल है या 'नहीं । नहीं तो वह खो गई अपील । एक तो वह इसलिए पिछड़ गए क्योंकि उन्होंने अतीत की भाषा का उपयोग किया । महावीर एक अर्थ में अतीत के प्रति अनुगत हैं । बुद्ध अतीत के प्रति बिल्कुल नहीं, भविष्य के प्रति अनुगत हैं । अतीत इन्कार ही कर दिया है । इसलिए अपने से पहले किसी परम्परा को उन्होंने नहीं जोड़ा । नई परम्परा को सूत्रबद्ध किया । और भी बहुत से कारण हैं जिनकी वजह से परिणाम नहीं हो सका जितना हो सकता था । 1 परम्परा पुनरुज्जीवित की जा सकती है। भाषा में कोई कठिनाई नहीं है । लेकिन अनुयाया कभी उसकी हिम्मत नहीं जुटा पाता क्योंकि उसे लगता है कि सब खो जाएगा । भाषा ही उसकी सम्पत्ति है । अगर उसको बदला तो सब खो गया । जबकि भाषा सम्पत्ति नहीं है, भाषा सिर्फ कन्टेनर है, डिब्बा है, विषयवस्तु ( कन्टेन्ट ) की बात है असल में । इसमें पता नहीं कितना फर्क पड़ता है । अभी मैंने पढ़ा कि एक अमेरिकी लेखक ने एक लाख किताबें छपवाईं लेकिन नहीं बिक सकीं । तीन वर्ष परेशान रहा । तो उसने जानकर विज्ञापन-सलाहकारों से सलाह की । उन्होंने कहा तुमने जो किताबों का नाम रखा है वह पिटा पिटाया है । किताबों का जा कहर ( मुखपृष्ठ ) है वह गलत है । वह आधुनिक मन के अनुकूल नहीं । इसलिए वह किताबों में रखा रहेगा, कभी उस पर नजर ही नहीं पड़ने वाली किसो खरीदने वाले की । किताब पीछे देखी जाती है, किताब का कहर पहले देखा जाता है । तो उसने कह्वर बदल दिये । नए रंग, नई डिजाइन । आधुनिक कला से सम्बन्धित कर दिया, नाम बदल दिये । वे किताबें दस महीनों में ही बिक गईं। और भारी प्रशंसा हुई उन किताबों की । हमेशा ऐसा होता है। महावीर के ऊपर बहुत पुराना कह्वर है । अब नया कार होना चाहिए, और यह जरूरी है। क्योंकि महावीर की धारा का इतना अद्भुत अर्थ है कि वह खो जाए तो नुकसान होगा, सारी मानव जाति का नुकसान होगा । जैनियों को तो नुकसान हुआ कह्नर बदलने से । मानव जाति का नुकसान होगा महावीर की धारा का अर्थ खो जाने से । इसलिए हमें जैनियों नुकसान की चिन्ता नहीं करनी चाहिए । के Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ मनुष्यजाति की समृद्धि में महावीर मागे भी सार्थक रहें, यह मेरा चाहना है। उस पर जैसे हम उनकी साधना प्रकृति को पूरा समझेंगे तो ख्याल में आ जाएगा लेकिन उसमें क्या है ? जैसे मैं यह कह रहा हूँ उदाहरण के लिए,महावीर को साधना पूर्ण संकल्प की साधना है। और जैन परम्परा कहती है दमन की साधना । दमन शब्द सार्थक नहीं, खतरनाक है। फ्रायड के बाद दमन की जो भी साधना बात करेगी उसके लिए जगत् में कोई स्थान नहीं, हो ही नहीं सकता। अब फायड के बाद दमन का जिस साधना पद्धति में प्रयोग किया, वह पद्धति उस शब्द के साथ ही दफना दी जाएगी। वह नहीं रह सकती है अब। और ऐसा नहीं है कि महावीर की साधना दमन की साधना है। असल में दमन का अर्थ ही और था तब । फायड ने पहली बार दमन को नया अर्थ दिया है जो कभी था ही नहीं। ___ तब कायाक्लेश शब्द का हम उपयोग करते थे। अब नहीं करते हैं। अब किसी ने कहा 'कायाक्लेश' वह गया। उसी शब्द के साथ डूब जाएगा पूरा का पूरा उसका विचार । क्योंकि काया-क्लेश आने वाले भविष्य के लिए सार्थक नहीं, निरर्थक है। और काया-क्लेश का जो मतलब है वह अब भी सार्थक है। महावीर की पद्धति में जिसको काया-दमन कहा है, वह अब भी सार्थक है। लेकिन यह शब्द बाधा पड़ गया है, एकदम खतरनाक हो गया है। फ्रायड के बाद जो काया-क्लेश दे रहा है वह आदमो खुद को सताने में मजा ले रहा है। वह आदमी रुग्ण है, मानसिक बीमार है जो अपने को सताने में मजा ले रहा है। दो तरह के लोग हैं : जो दूसरों को सतान में मजा लेते हैं सैडिस्ट और जो अपने को सताने में मजा लेते हैं वे हैं मैसोचिस्ट । इसलिए जैनियों की नासमझी में वह महावीर फंस जाने वाले हैं और उनके बचाव का कोई उपाय नहीं है। और अगर महावीर के शरीर को देखो तो तुम्हें पता चल जाएगा कि तुम्हारी काया-क्लेश की वात नितान्त नासमझी की है। हां, तुम्हारे मुनि को देखो तो पता चलता है कि काया-क्लेश सच है। महावीर की काया को देखकर लगता है कि ऐसी काया को संवारने वाला आदमी ही नहीं हुआ। महावीर को देखकर तो ऐसा ही लगता है। ऐसी सुन्दर काया न.बुद्ध के पास थी, न क्राइस्ट के पास थी जैसी महावीर के पास । जितना सुन्दर शरीर महावीर के पास था ऐसा किसी के पास नहीं था। और मेरा अपना मन मानता है कि इतना सुन्दर होने की वजह से वह नग्न खड़े हो सके। असल में नग्नता को छिपाना कुरूपता Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ महावीर : मेरी दृष्टि में भीतर चली जाए कि बाहर का उसको ख्याल ही न रहे। इसका शरीर तो स्वांस छोड़ देगा फौरन । लेकिन शब्दों में ध्यान ही नहीं है । मैंने उस संन्यासी को कहा कि तुम भी जिस दिन ध्यान करो, ध्यान में इतना डूब जानो कि उठने का मन न करे तो उठना ही मत तुम । जब उठने का मन हो उठना, न हो तो मत उठना। तो उन्होंने तीन महीने ध्यान किया था। उनके साथ एक युवक रहता था। उसने एक दिन सुबह आकर खबर दी कि आज चार बजे से वह ध्यान में गए हैं तो नौ बज गया है। अभी तक उठे नहीं हैं और उन्होंने कह दिया है कि यदि न उठे तो उठाना मत लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है । वह पड़े हैं। मैंने कहा उन्हें पड़े रहने दो। दो बजे वह फिर दोपहर में आया फिर जरा घबराहट होने लगी क्योंकि वह पड़े ही है, न करवट लेते हैं, न हाथ चलाते हैं, कहीं कुछ नुकसान न हो जाए। मैंने कहा तुम मत डरो। आज उपवास हो गया तो हो जाने दो। रात नौ बजे वह फिर आया और कहा अब तो मेरी हिम्मत से बाहर हो गया है और आप चलिए । मैंने कहा कोई जाने की जरूरत नहीं है। ग्यारह बजे रात वह आदमी उठा और भागा हझा मेरे पास आया। उसने कहा कि आज समझा कि उपवास और अनशन का क्या अर्थ है, कितना भेद है। कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा भी उपवास का अर्थ हो सकता है । जब आप भीतर चले जाते हैं तो बाहर का स्मरण ही छूट जाता है । उस स्मरण के छूटने में पानी भी छूट जाता है। और शरीर इतना अद्भुत यन्त्र है कि जब आप भीतर रहते हैं तो शरीर सावधान हो जाता है, अपनी व्यवस्था पूरी कर लेता है। आपको कोई चिन्ता की जरूरत नहीं। और शरीर को साधना का मतलब है कि शरीर ऐसा हो कि जब आप भीतर चले जाएं तो उसे आपकी कोई जरूरत न हो, वह अपनी व्यवस्था कर ले। वह स्वचालित यन्त्र की तरह अपना काम करता है, आपकी प्रतीक्षा करता रहे कि जब माप बाहर आयेंगे तो वह आपको खबर देगा कि मुझे भूख लगी है, कि मुझे प्यास लगी है, नहीं तो वह चुपचाप झेलेगा, आपको खबर भी नहीं देगा । काया-क्लेश का मतलब है काया की ऐसी साधना कि बाषा न रह जाए, साधन हो जाए, सीढ़ी बन जाए । लेकिन शब्द बड़े खतरनाक है इसलिए इसको काया-क्लेश मत कहो, इसको काया-साधना कहो। इसको क्लेश कहा तो क्लेश शन्द ऐसा बेहूदा है कि उससे ऐसा लगता है कि सता रहे हो । उपवास को 'न खाना' मत कहो, अनशन मत कहो, उपवास को कहो मात्मा के निकट होना। आत्मा के निकट Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ होकर शरीर भूल जाता है। वह दूसरी बात है, वह गौण बात है। अनशन हो जाएगा लेकिन वह दूसरी बात है। अनशन करने से उपवास नहीं होता, उपवास करने से अनशन हो जाता है। यह सब ख्याल में आ जाए तो महावीर की धारा के खो जाने का कोई कारण नहीं। और अगर जैन मुनि और साधु-संन्यासियों के हाथ में रही तो वह खो जाने वाली है। इसका कोई उपाय ही नहीं, और यह भी ध्यान रहे कि महावीर जैसा आदमी दुबारा पैदा होना मुश्किल है, एकदम मुश्किल है क्योंकि वैसे आदमी को पैदा होने के लिए जो पूरी हवा और वातावरण चाहिए, वह दुबारा असम्भव है। जैसा काल, जैसा चित्त चाहिए, वह दुबारा सम्भव नहीं है। मेरा मतलब है कि कोई आदमी कभी भी नहीं खोना चाहिए। जिसने कोई भी मूल्यवान् बचाया है, वह बचा रहना चाहिए ताकि उसके अनुकूल लोगों के लिए वह ज्योति बन सके । नरपुस्त्र नहीं खोना चाहिए, कनफ्युशियस नहीं खोना चाहिए, मिलरेपा नहीं खोना चाहिए। इन लोगों ने अलग-अलग कोणों से पहुंच कर ऐसी चीज पाई है जो बचनी ही चाहिए । मनुष्य जाति की असली सम्पत्ति वह है। लेकिन वे जो उसको खो रहे हैं, वही उसको बचाने वाले मालूम पड़ते हैं। वे जो उसके रक्षक है, वही उसको खोए दे रहे है। Page #77 --------------------------------------------------------------------------  Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन Page #79 --------------------------------------------------------------------------  Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के जन्म से लेकर उनकी साधना के काल के शुरू होने तक कोई स्पष्ट घटनाओं का उल्लेख उपलब्ध नहीं है। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है। जीसस के जीवन में भी पहले तीस वर्षों के जीवन का कोई उल्लेख नहीं है । इसके पीछे बड़ा महत्त्वपूर्ण कारण है। महावीर जैसी आत्माएं अपनी यात्रा पूरी कर चुकी होती हैं पिछले जन्म में ही, घटनाओं का जो जगत् है, वह समाप्त हो चुका होता है। इस जन्म में उनके आने की जो प्रेरणा है उनकी स्वयं की कोई वासना उसमें कारण नहीं है। सिर्फ करुणा कारण है। जो उन्होंने जाना है, जो उन्होंने पाया है उसे बांटने के अतिरिक्त इस जन्म में उनका अब कोई काम नहीं। ठीक से समझें तो तीर्थकर होने का अर्थ है ऐसी आत्मा जो अब सिर्फ मार्ग दिखाने को पैदा हुई हो। और जो अभी स्वयं ही मार्ग खोज रहा हो वह मार्ग नहीं दिखा सकता। जो खुद ही अभी मार्ग खोज रहा है उसके अभी मार्ग बनाने का कोई अर्थ नहीं। क्योंकि मार्ग क्या है, यह मार्ग पर चलने से नहीं, मंजिल पर पहुंच जाने से पता चलता है। चलते समय तो सभी मार्ग ठीक मालूम होते हैं जिन पर हम चलते हैं, वही मार्ग ठीक मालूम पड़ते हैं । और चलते समय कसोटी भी कहा है कि जिस मार्ग पर हम चल रहे हैं, वह ठीक होगा। क्योंकि मार्ग का ठीक होना निर्भर करेगा मंजिल जाने पर । मार्ग के ठीक होने का एक ही अर्थ है कि जो मंजिल मिला दे। लेकिन यह पता कैसा चलेगा मंजिल मिलाने के पहले कि इस मार्ग से मंजिल मिलेगी । यह तो उसे ही पता चल सकता है जो मंजिल पर पहुंच गया है । लेकिन जो मंजिल पर पहुंच गया है, उसका मार्ग समाप्त हो गया है। और मंजिल पर पहुंच जाना इतना कठिन नहीं है जितना मंजिल पर पहुंच कर मार्ग पर लौटना । साधारणतः कोई भी कारण नहीं मालूम देता कि जो मंजिल पर Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ . . महावीर । मेरी दृष्टि में पहुंच गया हो वह मंजिल पर विधाम न करे। दुनिया में मुक्त आत्माएं तो बहुत होती है क्योंकि मुक्ति के मंजिल पर पहुंचते ही वह खो जाती हैं निराकार में । लेकिन थोड़ी सी आत्माएं फिर अंधेरे पयों पर वापस लौट आती है । ऐसी आत्माएं जो मंजिल पर पहुंच कर वापस लौटती हैं तीर्थकर कहलाती हैं । कोई परम्परा उन्हें तीर्थकर कहती है, कोई परम्परा अवतार कहती है, कोई परम्परा उन्हें ईश्वरपुत्र कहती हैं, कोई परम्परा पैगम्बर कहती हैं। लेकिन पैगम्बर, तीर्थकर, अवतार का जो अर्थ है, वह इतना है सिर्फ, ऐसी चेतना जिसका काम पूरा हो चुका और लोटने का कोई कारण नहीं रह गया है। ___मंजिल खोजना कठिन है; मंजिल पर पहुंच कर जब परम विश्राम का क्षण आ गया तब लौटना उन रास्तों में बहुत मुश्किल है, अत्यन्त कठिन है । इसलिए उन थोड़ी सी आत्माओं को परम सम्मान उपलब्ध हुआ है जो मंजिल पाकर वापस रास्ते पर लौट माती है। और यही बात्माएं मार्गदर्शक हो सकती हैं । तीर्थकर का मतलब है जिस घाट से पार हुआ जा सके। तीर्थ कहते हैं उस घाट को जहाँ से पार हुआ जा सके । और तीर्थकर कहते हैं उस घाट के मल्लाह को जो पार करने का रास्ता बता दे। __महावीर का इस जन्म में और कोई प्रयोजन नहीं है अब । इसलिए बचपन का सारा जीवन घटनाओं से शून्य है। घटनाएं घटने का कोई अर्थ नहीं हैं। वह बिल्कुल शून्य है घटनाओं से। इसलिए कोई घटनाएं उल्लिखित नहीं हैं, उल्लिखित होने का कोई कारण नहीं है। जीसस का प्रारम्भिक जीवन बिल्कुल शन्य है घटनामों से । अब यह पड़ी हैरानी की बात है कि आम तौर से जिन्हें हम विशिष्ट पुरुष कहते हैं, उनके बचपन में विशिष्ट घटनाएं नहीं घटती हैं । जिन्हें हम विशिष्ट पुरुष कहते हैं उनका प्राथमिक जीवन बिल्कुल घटनाशून्य होता है । इस अर्थ में घटनाशून्य होता है कि वह लगा है किसी और काम में; अपना बब कोई काम नहीं रहा । बस वह चुपचाप बढ़ता चला जाता है। चारों तरफ चुप्पी होती है, वह चुपचाप बड़ा हो जाता है उस अण की प्रतीक्षा में जब वह जो देने आया है कुछ देना शुरू कर दे। मेरी दृष्टि में तो महावीर को वर्षमान का नाम इसीलिए मिला। इसलिए नहीं कि जैसा कहानियों की 'किताबों में लिखा हुआ है कि उनके घर में पैदा होने से घर में सब चीजों की बढ़ती होने लगी, धन बढ़ने लगा, यश बढ़ने लगा। मेरी दृष्टि में तो नाम ही यह अर्व रखता है कि जो चुपचाप बढ़ने लगा, जिसके आसपास कोई घटना न घटो यानो जिसका बढ़ना इतना चुपचाप था जैसे पौधे चुपचाप बड़े होते हैं, Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रवचन-३ • ७६ कलियां फूल बनती है और कभी पता नहीं चलता, कहीं कोई शोर गुल नहीं होता, कहीं कोई आवाज नहीं होती। ऐसे चुपचाप बड़ा होने लगा। मैं तो उसमें यही बर्य देख पाता हूँ कि चुपचाप बढ़ने लगा। और यह चुपचाप बढ़ना दिखाई पड़ने लगा होगा क्योंकि घननाएं म घटना बहुत बड़ी घटना है। छोटे से छोटे भी बादमी के जीवन में घटनाएं घटती है, चाहे वे छोटी हों। बड़े मादमी के जीवन में बड़ी घटनाएं घटती हैं, चाहे कैसी भी हों। लेकिन ऐसा कोई व्यक्ति है जिसके जीवन में कोई घटना न घटी हो, जो इतना चुपचाप बढ़ने लगा हो कि चारों तरफ कोई वतुल पैदा न होता हो समय में, क्षेत्र में। तो वह अनूठा दिखाई पड़ा होगा कि वह कुछ विशिष्ट ही है। इसलिए शिक्षक उसे पढ़ाने गाए होंगे, उसने इन्कार कर दिया होगा क्योंकि वह पढ़ेगा नहीं। वह पढ़ा हुमा ही है। शिक्षक पढ़ाने बाए हैं तो वर्षमान ने मना कर दिया है। क्योंकि शिक्षकों ने पढ़ा है जो उसे पढ़ा सकते हैं, वह पहले से ही जानता है। इसलिए कोई शिक्षा नहीं हुई। शिक्षा का कोई कारण भी न था, कोई बर्ष भी न था। कोई घटना न घटी। वह चुपचाप बड़े हो गये। और हो सकता है कि यह बात भी अनुभव में आई होगी लोगों को। इतने चुपचाप कोई भी बड़ा नहीं हो सकता । ऐसा ही जीसस का भी जोवन. है । वे चुपचाप बड़े हो गए हैं। । दूसरी बात ध्यान में रख लेनी जरूरी है महावीर के जन्म के सम्बन्ध में, जो अर्थपूर्ण है । जो गाथा ( मिथ ) है, जो कहानी है वह यह है कि वह ब्राह्मणी के गर्भ में आए और देवताओं ने गर्भ बदल दिया। और क्षत्रियों के गर्भ में पहुंचा दिया। यह बात तथ्य नहीं है। यह कोई तथ्य नहीं है कि किसी एक स्त्री का गर्भ निकाला और दूसरी स्त्री में रख दिया। लेकिन यह बड़ी गहरी बात है और गहरी बात कई चीजों की सूचना है वह हमें समझनी चाहिए। पहली सूचना तो यह है कि महावीर का जो पथ है वह पुरुष का, भाक्रमण का, क्षत्रिय का है। महावीर का जो व्यक्तित्व है और उनकी खोज का पथ है वह क्षत्रिय का है । क्षत्रिय का इन बयों में कि वह जीतने वाले का है । और इसीलिए महावीर जिन कहलाए। जिन का मतलब है जीतने वाला, जिसका और कोई 'पप नहीं सिवाय जीतने के। जीतेगा तो हो उसका मार्ग है। और इसलिए पूरी परम्परा जैन हो गई। तो यह बड़ी मीठी कहानी चुनी है। ब्राह्मणी के गर्भ में था किन्तु देवताबों को उसे उठाकर क्षत्रिया के गर्भ में कर देना पड़ा। क्योंकि वह बच्चा.ब्राह्मण होने को न था। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ F. महावीर : मेरी दृष्टि में अब ब्राह्मण भी समझने जैसी बात है। ब्राह्मण का अपना मार्ग है । जैसे मैंने कहा पुरुष का एक मार्ग है बाक्रमण का, स्त्री का एक मार्ग है समर्पण का। ब्राह्मण का एक मार्ग है भिक्षा मांग लेने का। यानी ब्राह्मण यह कह रहा है कि परमात्मा से लड़ोगे ? अशोभन है। समर्पण करोगे किसके प्रति ? उसका अभी कोई पता नहीं है। लेकिन अज्ञात घेरे हुए है चारों तरफ और हम अत्यन्त क्षुद्र और दीन-हीन है। हम जीत नहीं सकते और हम समर्पण भी क्या करेंगे? हमारे पास समर्पण को भी क्या है ? दीनता, हीनता इतनी है, असहाय हम इतने हैं तो देंगे क्या हम ? देने को क्या है ? और छीनेंगे कैसे ? एक ही मार्ग है कि हाथ फैला दें विनम्रता से । और भिक्षा में हम ले लें। तो ब्राह्मण का जो मार्ग है, ब्राह्मण की जो वृत्ति है वह भिक्षुक की है। . कहानी कहती है कि महावीर जैसा व्यक्ति अगर ब्राह्मण के गर्भ में आ जाएगा तो देवताओं को उसे हटा कर क्षत्रिया के गर्भ में रख देना पड़ेगा। वह व्यक्तित्व ब्राह्मणी का नहीं है । और व्यक्तित्व गर्भ से आते हैं। वह व्यक्तित्व हो जन्मना क्षत्रिय का है। जो जीतेगा, मांग नहीं सकता है। महावीर ऐसे हाथ नहीं फैला सकते, परमात्मा के सामने भी नहीं, किसी के भी सामने नहीं; वह जीतेंगे। जीत कर ही अर्थ है उनकी जिन्दगी का। और इस देश में जो परम्परा थी, उन क्षणों में जो परम्परा थी, सर्वाधिक प्रभावी, वह ब्राह्मणों की थी । वह असहाय, मांगने वाले को थी। अद्भुत है यह बात । इतनी आसान नहीं जितना कोई सोचता हो। क्योंकि असहाय होना बड़ी अद्भुत कान्ति है, बिल्कुल असहाय हो जाना। वह भी एक मार्ग है। लेकिन वह मार्ग बुरी तरह पिट गया था, असहाय ब्राह्मण मरा दम ही हो गया था। जो अद्भुत घटना घट गई थी वह यह थी। क्योंकि मार्ग तो था असहाय होने का लेकिन परम्परा इतनी गाढ़ी हो गई थी, इतनी मजबूत हो गई थी कि असहाय ब्राह्मण सबसे ज्यादा अकड़ कर सड़क पर खड़ा था। ब्राह्मण की जो मौलिक धारणा थी वह खंडित हो चुकी थी। ब्राह्मण गुरु हो गया था, ब्राह्मण ज्ञानी हो गया था, ब्राह्मण सबसे उ.पर बैठ गया था। वह जो असहाय होने को धारणा थी वह खो गई थी। उस बात को तोड़ देना जरूरी था। इसको बड़े प्रतीक रूप में कथा कहती है कि ब्राह्मणी के गर्भ में भी आकर देवताओं को हटा देना पड़ा। यानी ब्राह्मणी का गर्भ अब महावीर जैसे व्यक्ति को पैदा करने में असमर्थ हो गया था। उसका यह मतलब है कि ब्राह्मण की दिशा से महावीर जैसे व्यक्ति के होने की सम्भावना न थी। सूख गई थी धारा, अकड़ गई थी, ऐंठ गई थो, गलत हो Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-३ . . गई थी। अब क्षत्रिय की धारा है। इसलिए जो संघर्ष या उस दिन वह बहुत गहरे में ब्राह्मण और तत्रिय के मार्ग का संघर्ष था। और यह थोड़ी सोचने की बात है कि जैनों के चौबीसों तीर्थकर हो क्षत्रिय हैं । असल में वह मार्ग हो क्षत्रिय का है । कोई पूछता है कभी कि क्या क्षत्रिय के अलावा और कोई तीर्थकर नहीं हो सकता ? नहीं हो सकता। चाहे वह बेटा ब्राह्मणी के ही गर्भ से क्यों न . पैदा हो वह होगा क्षत्रिय ही, तो ही उस मार्ग पर जा सकता है। वह मार्ग आक्रमण का है,वह मार्ग विजय का है। वहाँ भाषा विजय को और जीत की है। ___ दूसरी बात लोग निरन्तर पूछते हैं कि क्या गरीब का बेटा तीर्थकर नहीं हो सकता? वह सब राजपुत्र थे-क्षत्रिय और राजकुल के। यह भी बहुत अर्थपूर्ण है कि जो अभी इस संसार को ही नहीं जीत पाया है, वह उस संसार को कैसे जीतेगा ? आक्रमण का मार्ग है न ? तो अभी जब इस संसार में ही नहीं जीत पाए तो वहाँ कैसे जीत लोगे? यह इतनी छोटी सी जीत नहीं तय कर पाए तो उस बड़ी जीत पर कैसे जाओगे? इसलिए चौबीसों बेटे राजपुत्र हुए हैं। राजपुत्र इस अर्थ के सूचक हैं कि जीतने वाला जो है वह कुछ भी जीतेगा। और जब वह इसको जीत लेगा तब उसकी तरफ उसकी नजर उठेगी । जब वह इस लोक को जीत लेगा तब उस लोक को जीतेगा। जीत के मार्ग पर पहले यही लोक पड़ने वाला है। ब्राह्मण इस लोक में भी भिक्षा मांगेगा, उस लोक में भी। वह मानता ही यह है कि प्रसाद से ही मिलेगा जो मिलना है । आक्रमण की बात ही नहीं है कोई। ग्रेस से, प्रभु की कृपा से मिलेगा। जो इतिहास के क्षेत्र में शोध करने वालों ने ब्राह्मणजाति के विरुद्ध क्षत्रिय जाति के संघर्ष की चर्चा की है वह निराधार है। ब्राह्मण और क्षत्रिय ऐसी दो जातियों का कोई संघर्ष नहीं, संघर्ष है ऐसी दो परम्पराओं का, ऐसे दो मार्गों का जो सत्य की खोज में निकले हों। और तब एक मार्ग कुन्ठित हो जाता है, और सब मार्ग कुन्ठित हो जाते हैं सोमा पर जाकर क्योंकि सब मार्ग अहंमन्य हो जाते हैं । ब्राह्मण का मार्ग प्राचीनतम मार्ग है। वह कुन्ठित हो गया है। उसके विरोध में बगावत जरूरी बी। वह बगावत क्षत्रिय से आनी स्वाभाविक थी क्योंकि हमेशा बगावत ठीक विपरीत से बाती है, विद्रोह जो है ठीक विपरीत से आता है। ब्राह्मण है मांगने वाला; मात्रिय है जीतने वाला। एक दान और दयों में लेगा) दुसरा दुरमन को समाप्त करके लेगा। ठीक बगावत विपरीत वर्ग से आने वाली थी, इसलिए वह पत्रिय ये। इसलिए वह जन्म की कथा बड़ी मोठी है। यानी वह यह बताती है कि Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ महावीर : मेरी दृष्टि में ब्राह्मण की जो कोख थी, वह बांझ हो गई है। अब उसमें महावीर जैसा व्यक्ति पैदा नहीं हो सकता । वह परम्परा क्षीण हो गई थी,, सूख गई थी । ब्राह्मण उस युग में महावीर या बुद्ध की हैसियत का एक भी आदमी पैदा नहीं कर पाया । वह मार्ग सूख गया था। उसने पैदा किया आगे लेकिन वक्त लग गया डेढ़ हजार वर्ष का। फिर मामा संघर्ष । डेढ़ हजार वर्ष में महावीर और बुद्ध ने जो परम्परा छोड़ी जी बह सूख गई और जड़ हो गई फिर काम कर गया । ये जो प्रतीक इस तरह चुने हैं बड़े अर्थपूर्ण हैं । प्रतीकों को जो जड़ता से तथ्यों की भांति पकड़ लेता है वह बिल्कुल । तब ठीक विपरीत विद्रोह और इन भटक ही अर्थ हो सकता है । महावीर के जाता है। उसे पता ही नहीं चलता कि क्या जीवन में मैं कहता हूँ कोई घटना नहीं घटी । बेकिन कुछ बातें सोचने जैसी हैं। जैसे दिगम्बर कहते हैं कि महावीर अविवाहित रहे । मजेदार घटना है । और श्वेताम्बर कहते हैं कि वे न केवल विवाहित हैं बल्कि उनकी बेटी भी हुई। कितनी ही चीजें विकृत हो जाएं, लेकिन यह असम्भव है कि एक अविवाहित व्यक्ति के साथ एक पत्नी और लड़की भी जुड़ जाएँ । यह करीब-करीब असम्भव है । लेकिन यह भी असम्भव है कि एक विवाहित व्यक्ति और उसकी एक लड़की और दामाद के होते हुए एक परम्परा उसे अविवाहित घोषित करे। यह दोनों बातें असम्भव हैं । ये बातें कैसे सम्भव हो सकती हैं ? नगर विवाह हुआ हो, लड़की हुई हो, दामाद हो और ये सब बातें तथ्य हों तो कोई कैसे इन्कार करेगा इस बात को कि यह हुआ ही नहीं । यहाँ सिर्फ यह बात समझ लेनी है कि तथ्य जरूरी नहीं सदा सत्य हो । बहुत बार तथ्यों में बुनियादी, हेर-फेर हो जाती है बे सिर्फ मृत तथ्यों को संगृहीत कर लेते विवाह जरूर हुआ होगा लेकिन वे बिल्कुल जिन्होंने यह तथ्य देखा उन्होंने कहा कि विवाह जरूर हुआ । और जिन्होंने सत्य देखा उन्होंने कहा कि वह आदमी अविवाहित था । अविवाहित होना एक सत्य है और विवाहित होना एक तथ्य है । । और जो सत्य को नहीं देख पाते । मेरा मानना है कि महावीर का अविवाहित की भाँति रहे होंगे । 1 कोई व्यक्ति बिना विवाहित हुए विवाहित हो सकता है, मन से, चित्त से, बासना से | और विवाहित होने की वासना क्या है, इसे हम समझ लें विवाहित होने की वासना है कि मैं अकेला काफी नहीं, पर्याप्त नहीं। दूसरा भी चाहिए जो आए और मुझे पूरा करे । विवाहित होने का मतलब क्या है ? 'विवाहित होने का गहरा मतलब है कि मैं अपने में पर्याप्त नहीं हूँ । जब तक कि Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • . ३ कोई मुझे मिले, जोड़े और पूरा न करे, पुरुष अपर्याप्त है अपने में, आधा है, स्त्री जोड़े यह विवाहित होने की कामना है । यह विवाहित होने का चित्त है। स्त्री अधूरी है अपने में । 'पुरुष के बिना खाली है । पुरुष आए और उसे भरे और पूरा करे । यह विवाहित होने की कामना है । तो दिगम्बरों को मैं कहता हूँ उन्होंने ठीक ही कहा कि महावीर अविवाहित थे। क्योंकि उस व्यक्ति में किसी से पूरे होने की काई कामना न बची थी। वह पूरा था। कहीं कोई अधूरापन न था जो किसी और से उसे पूरा करना है। इसलिए यह मैं मानता हूँ कि श्वेताम्बरों से दिगम्बरों की आंख गहरी पड़ो, बहुत गहरो पड़ी। बहुत गहरा देखा उन्होंने कि यह आदमी अविवाहित है। इस साधारण तथ्य के लिए कि स्त्री से उसका विवाह हुमा है, उसको विवाहित कहना एकदम अन्याय हो जाएगा। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं ? एकदम अन्याय हो जाएगा इस आदमी को विवाहित कहना क्योंकि यह आदमी बिल्कुल अविवाहित है। और इसलिए सम्भव हो सका कि जिन्होंने गहरे देखा उन्हें वह अविवाहित दिखाई पड़े और जिन्होंने तथ्य देखा उनके लिए वह विवाहित होने का तथ्य ठीक था। विवाह तो हुआ था। और यह आदमी अपने में इतना पूरा था कि दूसरा इसके पास हो सकता है, दूसरा इसके निकट हो सकता है, दूसरा चाहे तो इससे अपने को भर सकता है लेकिन इस आदमी को दूसरे को अपेक्षा नहीं। इसलिए यह हो सकता है कि पत्नी ने पति पाया हो लेकिन महावीर ने पत्नी नहीं पाई। इसलिए उन दिगम्बरों की आँख गहरी गई। वे कहते हैं कि पत्नी नहीं थी इस आदमी के पास। यह हो सकता है कि पत्नी ने पति पाया हो। यह भी हो सकता है कि पत्नी ने इससे सन्तान पाई हो। लेकिन महावीर पिता नहीं थे और न पति थे । यह घटना घटी भी हो तो अत्यन्त वाह्य तल पर घटी । लेकिन भीतर यह आदमी पूरा था। इस पर जोर देने के लिए दिगम्बरों ने कहा कि इस आदमी ने कभी शादी नहीं को। मगर उनसे भी जैसे-जैसे बात आगे बढ़ी, भूल होती चली गई । वह तथ्य से इन्कार करने लगे । उनको भी ख्याल न रहा इस बात का कि तथ्य यह था कि शादी की थी। और मैं मानता हूँ कि यह बात भी अर्थपूर्ण है कि महावीर ने इन्कार नहीं किया शादी के लिए। असल में जो शादी के लिए आतुर हो वह, और जो शादी के लिए इन्कार करता है वह, दोनों स्त्रियों को अर्थ देते हैं। इन्कार करने वाला भी अर्थ देता है, इन्कार करने वाला भो भय प्रकट करता है, इन्कार करने वाला भी पलायन करता है। इन्कार करने वाला भी मानता है कि स्त्री कुछ है जो पास होगी, तो मैं कुछ और हो जाऊंगा। महावीर ने ना भी न की होगी इसलिए शादी हो गई होगी। ना कर Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में देते तो शादी रुक सकती थी । लेकिन ना तक भी न की होगी । आदमी इतना पूरा था कि ना करने तक का उपाय न था । ठीक है। स्त्री आती है तो आए, न आती है तो न आए। ये दोनों बातें अर्थहीन हैं । अन्य घटनाओं से भी लगता है कि यह बात सच रही होगी । की, कि मैं संन्यास ऐसे बेटे हैं उनके, महावीर ने आज्ञा चाही है पिता से कि मैं संन्यासी हो जाऊँ । पिता ने कहा- मेरे रहते नहीं । मैं जब तक जीवित हूँ तब तक तुम बात ही मत करना दुवारा । और महावीर चुप हो गए। अद्भुत आदमी रहा होगा । जिसको संन्यास लेना हो वह ऐसा काम करे कि आज्ञा माँगे ! पहली बात यह कि जिसको संन्यास लेना हो वह आज्ञा क्यों माँगे ? संन्यास का मतलब हो यह है कि मोह-बंधन तोड़ रहा है । संन्यास की भी आज्ञा मांगनी पड़ती है ? जैसे कोई आत्महत्या करने की आज्ञा मांगे कि मैं आत्महत्या करना चाहता हूँ, आप आज्ञा देते हों ? तो कौन आज्ञा देगा ? संन्यास को कभी आज्ञाएँ दी गई हैं, संन्यास लिया जाता है । और महावीर ने आज्ञा मांगी संन्यास ले लूँ । कौन पिता राजी होगा और महावीर जैसे बेटे का ? और पिता संन्यास के लिए राजी हो जाए ? महावीर जैसे बेटे का कोई पिता राजी होगा संन्यास के लिए ? इन्कार किया होगा और कहा होगा कि मैं मर जाऊँ तब यह बात करना, यह बात ही मत करना मुझसे । और मजा यह है, घटना यह है कि यह लड़का तो बहुत अद्भुत है, यह चुप हो गया और फिर इसने बात हो न को । निश्चित ही संन्यास लेने या न लेने से कोई बुनियादी फर्क न पड़ता होगा इसको । इसलिए जोर भी नहीं है कोई कि ठाक है, नहीं भी हुआ तो भी चलेगा। पिता मर गए तो मरघट से लौटते वक्त अपने बड़े भाई से कहा कि मुझे आज्ञा दे दें। अब तो पिता चल बसे, मैं संन्यासी हो जाऊँ । बड़े भाई ने कहा तुम पागल हो गए हो । एक तो पिता के तुम अभी मुझे छोड़कर चले जाओगे । और घर भी नहीं पहुँचे, वह भी अभी रास्ते पर । मुझसे यह बात कभी मत करना । तो बड़ी मजेदार घटना है कि महावीर ने फिर यह बात ही नहीं की। फिर वह घर में ही रहने लगे । लेकिन थोड़े ही दिनों में घर के लोगों को पता चला कि महावीर जैसे नहीं हैं । हैं घर में, और नहीं है। उनका होना न होने के बराबर है । न वे किसी मार्ग में आड़े आते हैं, न वे किसी की तरफ देखते हैं; न, कोई उन्हें देखे, इसकी आतुरता रहती है । वे ऐसे हैं जैसे उस बड़े भवन में अकेले हैं, जैसे कोई है ही नहीं । कोई उनसे पूछे, 'हाँ और ना' में जवाब माँगे तो भी नहीं देते। किसी पक्ष: का दुख ओर मरने Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- ३ और विपक्ष में नहीं पड़ते। किसी वाद-विवाद में रस नहीं लेते। हो रहा है, नहीं हो रहा है, उन्हें कुछ प्रयोजन नहीं। अतिथि हो घर के लोगों को लगने लगा कि वह तो गए हो । सिर्फ शरीर रह गया है। तब घर के लोगों ने कहा कि शरीर को रोकना उचित नहीं । जो जा ही चुका हैहम इसे भी रोकने के भागीदार क्यों बनें ? तब घर के लोगों ने प्रार्थना की कि अब आपकी मर्जी हो तो आप संन्यास ले लें क्योंकि हमारी तरफ से तो लगता है संन्यास पूरा हो ही गया। आप घर में है या नहीं, बराबर हो गया । हम क्यों इस पाप के भागीदार हों कि आपको रोक लें ? और महावीर चल पड़े । ऐसा जो व्यक्ति है उसने शादी के वक्त यह भी नहीं कहा होगा कि नहीं करनी है । क्योंकि नहीं करने में भी तो स्त्री को हम मूल्य देते हैं, दूसरे को मूल्य देते हैं, डरते हैं कि नहीं करनी है। शादी के बाद भी ऐसे रहा होगा जैसे कि शादी के पहले रहता था । कुछ फर्क ही न पड़ा होगा । इसलिए जिन्होंने गहरे देखा उन्होंने माना कि वह अविवाहित हैं । जैसा कि मैंने कहा कि जीसस की माँ कुंवारी है और बेटे को जन्म दिया क्योंकि उसके कुँवारेपन में ही पैदा हो सकता है जीसस जैसा बेटा । गहावीर जैसा व्यक्ति पति हो, कैसे हो सकता है ? यानी पति होने की जो धारणा है, उसे हम थोड़ा सोचें और समझें कि महावीर जैसा व्यक्ति पति कैसे हो सकता है ? ८५ घर में क्या गए हैं। तो पति में पहले तो स्वामित्व है और जो व्यक्ति जड़ वस्तु पर भी स्वामित्व नहीं रखना चाहता वह किसी जीवित व्यक्ति पर स्वामित्व रखेगा, यह असम्भव है । यह कल्पना ही असम्भव है । यानी जो धन को भी नहीं कह सकता कि मैं इसका मालिक हूँ, वस्तु के साथ भी ऐसा दुर्व्यवहार नहीं कर सकता मालिक होने का, वह किसी जीवित स्त्री के साथ मालिक होने का दुर्व्यवहार कैसे करेगा ? पति होना एक तरह का दुर्व्यवहार है, एक प्रभुत्व है, एक स्वामित्व है । महावीर पति नहीं हो सकते और महावीर पिता भी कैसे हो सकते हैं ? हां, लड़की जन्मी हो, यह हो सकता है । पिता की कामना क्या है, यह भी हम ठीक से समझ लें 1 पिता की कामना है, स्वयं को, स्वयं की देह को, स्वयं के अस्तित्व को दूसरे पिता की कामना का अर्थ क्या है ? आखिर कामना यह है कि मैं तो नहीं रहूँगा, कोई के माध्यम से आगे जारी रखना। कोई पिता होना क्यों चाहता है ? फिक्र नहीं । लेकिन मेरा अंश रहेगा, रहेगा और रहेगा । इसलिए बाँझ पिता दुखी है, बाँझ म दुखी है। दुख क्या है ? दुख है खत्म हो गई एक रेखा - जहाँ कुछ भी नहीं बचेगा जीवित । जैसे एक हम समाप्त हो रहे हैं, जहाँ से हम में से Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • महावीर : मेरी दृष्टि में शाखा जिसमें आगे पत्ते आना बन्द हो गए। पिता की आकांक्षा क्या है ? पिता की आकांक्षा है कि चाहे यह शरीर मर जाए लेकिन इस शरीर का एक अंश फिर शरीर निर्मित कर लेगा और रहेगा। मैं जीऊंगा दूसरों में । इसलिए बाप बेटे को बनाने के लिए इतना आतुर है। बेटे में बाप की महत्वाकांक्षा और अहंकार जीना चाहते हैं । बेटे के रूप में वे बने रहना चाहते हैं । ___ महावीर जैसे व्यक्ति को बने रहने की आकांक्षा का सवाल ही नहीं। न अहंकार है, न होने की तृष्णा । न होने का अनुभव करके लौटा हुमा आदमी है । जहाँ सब खो जाता है, वहाँ से लौटा हुआ आदमी है। तो इसको ख्याल हो सकता है कि पिताा बनो ? हाँ यह हो सकता है लड़की पैदा हुई हो। इस बात को ठीक से समझे बिना गड़बड़ हो जाती है, कठिनाई हो जाती है। जब लड़की पैदा हुई तो महावीर पिता हैं। ऐसा तथ्य पकड़ने वाले को दिखेगा। मगर जो सत्य को पकड़ने जाता है उसके लिए लड़की का होना न होना अप्रासंगिक है। हो सकता है महावीर की पत्नी, जो अपने को पत्नी मानती रही हो माँ भी बनना चाही हो, और माँ बन गई हो। लेकिन महावीर पिता नहीं बन पाएं। और इसलिए एक धारा में जिन्होंने देखा, उन्होंने बिल्कुल इन्कार कर दिया और कहा कि आदमी ऐसा था ही नहीं, यह बात ही झूठ है । लेकिन उन्होंने तथ्य को इन्कार किया और दूसरों ने तथ्य को पकड़ लिया। और सत्य को देखना बहुत मुश्किल होता है । तथ्य आवरण बन जाता है। . एक छोटी कहानी मुझे याद आती है। एक गांव के बाहर एक नग्न मुनि ठहरा हुआ है। सम्राट, की पलियाँ उसे भोजन कराने गांव के बाहर जा रही हैं। नदी दूर पर है, कोई पुल नहीं, कोई नाव नहीं। वे अपने पति से, सम्राट् से पूछती हैं कि हम क्या करें ? कैसे पार जाएं ? तो वे कहते हैं कि तुम नदी से जाकर कहना कि यदि मुनि जीवन भर के उपासे हों तो मार्ग मिल जाय । नदी मार्ग दे देगी अगर उस पार ठहरा हुआ वह मुनि जीवन भर का उपवास किया हुआ है। तो उन्होंने जाकर कहा है। और कहानी है कि नदी ने मार्ग दे दिया। वे बहुत बहुमूल्य भोजन बनाकर, स्वादिष्ट मिष्ठान्न बनाकर ले गई-मुनि के सामने रखती हैं। मुनि उनकी सारी थालियां साफ कर गए हैं, कुछ भी नहीं बचा है। अब वे लौटने को हुई तब बड़ी चिन्तित हुई कि अभी तो नदी को कहकर हम लौट आई थीं कि मुनि अगर जीवन भर के उपासे हों तो अब क्या करेंगी ? मुनि से पूछती हैं कि अब हम क्या करें? अभी तो हम कह कर था गई थीं कि आप जीवन भर के उपासे है। लेकिन Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब तो यह नहीं कह कती हैं। सामने हो भोजन कर लिया है। तो मुनि ने कहा कि इससे क्या फर्क पड़ता है। तुम जाओ और नदी से यही कहो कि अगर मुनि जीवन भर के उपासे हैं तो नदी राह दे दे। उन स्त्रिों को बड़ी मुश्किल हो गई क्योंकि भोजन थोड़ा भी नहीं, बहुत ज्यादा, पूरा हो मुनि कर गए हैं, कुछ छोड़ा भी नहीं है पीछे और फिर भी कहते हैं उपासे हैं । बड़ी शंका में, बड़े सन्देह में उन्होंने नदी से जाकर कहा। खुद पर हंसी आती है कि यह कैसे सम्भव है। लेकिन नदी ने फिर मार्ग दे दिया। तो वे लोटकर अपने पति से पूछतो हैं । जाते वक्त जो घटा वह बहुत छोटा चमत्कार था। लौटते वक्त जो घटा है, उस चमत्कार का मुकाबला ही नहीं। जाते वक्त भी चमत्कार हुआ था कि नदी ने मार्ग दिया। लेकिन वह बहुत छोटा हो गया. अब । वह मुनि जो कि सब खा गए और फिर उपवासे हैं ! उनके पति ने कहा जो उपवास स्थायी ही है उसी के करने वाले को हम मुनि कहते हैं। भोजन से उपवास का कोई सम्बन्ध नहीं है। असल में भोजन करने की तृष्णा एक बात है और भोजन करने की जरूरत बिल्कुल दूसरी बात है। भोजन की तृष्णा भोजन न करो तो भी हो सकती है। भोजन करना और उसकी जरूरत बिल्कुल दूसरी बात है । भोजन करो तो भी हो सकता है तृष्णा न हो । जब तृगा छूट जाती है और सिर्फ जरूरत रह जाती है शरीर की तो आदमी उपवासी है। जैसा मैंने सुबह कहा वह भीतर वास किए चला जाता है । शरीर को जरूरत है--सुन लेता है, कर देता है। इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं है। खुद कभी भी उसने भोजन नहीं किया है। तो अबर यह हो सकता है तो फिर महावीर पिता नहीं होंगे, लड़की हो तो भी; पति नहीं होंगे अबर पत्नी हो तो भी । तथ्य अक्सर सत्य को रोक लेते हैं और हम सब तथ्यों को ही देख पाते हैं और हमारा ख्याल होता है कि तथ्य बड़े कोमतो हैं। नोर तथ्य के बहुत पहलू हो सकते हैं। मैंने सुना है एक अदालत में एक मुकदमा चला। एक आदमी ने एक हत्या कर दी है। आँखों देखे गवाह ने कहा कि खुले आकास के नीचे यह हत्या की गई है। जब हत्या की गई, मैं मौजूद था। और आकाश में तारे थे। दूसरे आदमी ने कहा कि यह हत्या मकान के भीतर की गई है, मैं मौजूद था। चारों तरफ दीवार से बन्द परकोटा था। द्वार पर मैं खड़ा था। चारों तरफ दोवार थी, मकान था जिसके भीतर हत्या की गई है। उस न्यायाधीश ने कहा कि मुझे बहुत मुश्किल में डाल दिया है तुमने क्योंकि एक कहता है Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में ऊपर आकाश में ठीक कहते हैं ! - खुले आकाश के नीचे और दूसरा कहता है मकान के भीतर । एक तीसरे आँख वाले गवाह ने जिसने खुद देखा था कहा कि दोनों ही ठीक कहते हैं । मकान अधूरा बना था। अभी सिर्फ दीवार ही उठी थी तारे थे— छप्पर नहीं था मकान पर। और ये दोनों ही आकाश में तारे थे और खुले आकाश के नीचे ही हत्या हुई । चारों तरफ दीवार थी और मकान था, वह भी सच है । जीवन बहुत जटिल है और एक ही तथ्य को हम बहुत तरह से देख सकते हैं और फिर दूसरी गहराई यह कि तथ्य जरूरी नहीं कि सत्य हो । सत्य कुछ और भी हो सकता है, तथ्य से विपरीत भी हो सकता है । लेकिन चूंकि हम तथ्यों को ही जाते हैं और सत्यों से हमारा कोई सम्बन्ध नहीं, इसलिए अक्सर हम तथ्यों को पकड़ लेते हैं और तब मुश्किल में पड़ जाते हैं और बहुत कठिनाई पैदा हो जाती है । दद . जैनियों के एक तीर्थंकर हैं । श्वेताम्बर मानते हैं कि वह स्त्री है, दिगम्बर मानते हैं कि वह पुरुष है । ऐसा झगड़ा हो सकता है एक व्यक्ति के सम्बन्ध में । यह झगड़ा भी हो सकता है दो परम्पराओं में कि वह स्त्री है या पुरुष । अब यह तो बड़ी सीघी तथ्य को बाते हैं । इनमें भी झगड़ा हो सकता है । लेकिन तथ्य बड़ा झूठा बोल सकते हैं, और जब कभी सत्य के विपरीत होता है तो कठिनाई पैदा हो जाती है। हो सकता है कि जिस तीर्थंकर के बारे में यह ख्याल है, वह स्त्री हा शरीर से । लेकिन तीर्थंकर हो ही नहीं सकता कोई व्यक्ति जब तक आक्रामक न हो, जब तक कि पुरुष-वृत्ति न हो, जब तक कि संघर्ष और संकल्प न हो। यह भी हो सकता है कि संघर्ष, संकल्प और आक्रमण ने पूरे व्यक्तित्व को बदल दिया हो । यह भी हो सकता है जब वह संन्यास लिया हो, स्त्री रहा हो, तो पुरुष हो गया हो । यानी मेरा मतलब समझ लेना कि यह पूरा परिवर्तन भी सम्भव है । ऐसा बभी रामकृष्ण के वक्त हुआ है । रामकृष्ण ने सारी साधनाएँ कीं, सब मार्गों से जाना चाहा कि वह मार्ग ले जा सकता है कि नहीं। तो उन्होंने ईसाइयों की सूफियों की, वैष्णवों की, भक्ति-मार्गियों की, योगियों की, हठयोगियों की, सब तरह की साधनाएं कीं, उससे उन्होंने एक सखी सम्प्रदाय की भी साधना की जिसमें व्यक्ति अपने को कृष्ण की स्त्री मान लेता है, परिपूर्ण भाव से सखी हो जाता है, गोपी बन जाता है, पुरुष भी हो तो भी । वह रात को कृष्ण की मूर्तिसाथ लेकर सोता है पति की तरह, पत्नी होकर । रामकृष्ण ने समग्रभाव से स्वीकार कर लिया और कुछ महीनों तक उन्होंने स्त्रीभाव की कामना की । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- ३ स्त्री बड़ी अद्भुत घटना घटी उनके साधना काल में; उनकी आवाज बदल गई, की सी आवाज हो गई । चाल बदल गई । वह स्त्रियों जैसे चलने लगे । उनके स्तन उमर आए और तब घबराहट हुई कि कहीं उनका पूरा शरीर तो रूपान्तरित नहीं हो जाएगा । कहीं उनका पूरा का पूरा लैंगिक रूपान्तरण न हो जाए । और उन्हें रोका उनके मित्रों ने, भक्तों ने । लेकिन वह उधर जा चुके थे । वह कहते थे कैसा पुरुष ? कौन पुरुष ? कौन रामकृष्ण ? वह तो अब नहीं रहा । साधना पूरी हो जाने पर भी छः महीने तक उन पर स्त्री के चिह्न रहे । छः महीने तक उनको देखकर लोग हैरान हो जाते थे कि इनको क्या हो गया ? अगर यह सम्भव है तो फिर अगर किसी ने उन्हें उन दिनों में देखा होगा तो वह लिख सकता है कि वह स्त्री थे । ६६ अब मेरे अपने ज्ञान में ऐसा है कि वह व्यक्ति स्त्री हो रही होगी जब वह साधना के जगत् में प्रविष्ट हुई लेकिन जो सावना चुनी वह पुरुष की साधना है । और उस साधना ने पूरा का पूरा रूपान्तरण किया होगा, न केवल व्यक्तित्व का बल्कि देह का भी । अब तो हम जानते हैं वैज्ञानिक ढंग से कि तीव्र मनोभावों से पूरी देह बदल सकती है । जिन्होंने तथ्य पकड़ा होगा उन्होंने देखा होगा कि वह स्त्री थी, तो स्त्री रही उनकी किताब में और जिन्होंने रूपान्तरण देखा होगा उनके लिए पुरुष हो गए । तथ्य को एकदम अन्धे की तरह पकड़ लेना खतरनाक है । सत्य पर नजर होनी चाहिए। तथ्य रोज बदल जाते हैं । यह तथ्य है कि आप पुरुष या स्त्री हैं किन्तु यह सत्य नहीं है । विल्कुल सत्य नहीं है । सत्य वह है जो नहीं बदलता । पुरुष-स्त्री हो सकते हैं और स्त्री पुरुष हो सकती हैं । बहुत गहरे में कोई आदमी अलग-अलग नहीं होता । स्त्री भी होती है, भीतर पुरुष भी होता है, मात्रा में फर्क होता है । जिसको हम पुरुष कहते हैं, उसमें ६० प्रतिशत पुरुष और ४० प्रतिशत स्त्री होती है । इसको हम स्त्री कहते हैं वह ६० प्रतिशत स्त्री और ४० प्रतिशत पुरुष होता है । यह मात्रा बहुत कम भी हो सकती है । यह बहुत सीमान्त पर भी हो सकती है। यह ५१ प्रतिशत जैसी स्थिति में भी हो सकती है । और अब जरा फर्क भिन्न का, और रूपान्तरण हो जाएगा। दो प्रतिशत की बदलाहट और पूरा व्यक्ति बदल जाएगा। लेकिन मनुष्य जाति को हमेशा बाधा पड़ी है इस बात से कि उसने तथ्यों को एकदम बिल्कुल अंधों की तरह जकड़ कर पकड़ लिया है। और तथ्य बड़ा झूठ बोल सकते हैं । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में - महावीर के सम्बन्ध में भी बातें कहीं जाती है। अब जैसे एक वर्ग मानता है कि वह वस्त्र पहने हुए थे, चाहे वह देवताओं का दिया हुआ वस्त्र हो, चाहे वह आँखों से न दिखाई पड़ने वाला वस्त्र हो । लेकिन वह वस्त्र पहने हुए हैं, नग्न नहीं हैं। और एक वर्ग मानता है कि वह बिल्कुल नग्न हैं, वस्त्र उन्होंने छोड़ दिए हैं। किसी प्रकार का वस्त्र उनके शरीर पर नहीं है। और ये दोनों बातें एक साथ सच है । वह बिल्कुल सच है कि महावीर ने वस्त्र छोड़ दिये थे। वह बिल्कुल नग्न हो गए लेकिन उनकी नग्नता भी ऐसी थी कि उसे ढांकने के लिए बस्त्रों की जरूरत नहीं थी। अब हमें थोड़ा समझना जरूरी होगा। एक आदमी इस भांति वस्त्र पहन सकता है कि वह नंगा हो। एक आदमी इस भाँति वस्त्र पहन सकता है कि वह नग्नता को प्रकट करे। सच तो यह कि नंगा नहीं होता जितना वस्त्र उसे नंगा कर सकते हैं । जानवरों को देखकर हमें शायद ही ख्याल माता हो कि वे नंगे हैं। लेकिन आदमी और स्त्रियां इस तरह के वस्त्र पहन सकते हैं कि उनके वस्त्र पहनने से तत्काल ख्याल आए उनके नंगेपन का। और बादमी ने ऐसे वस्त्र विकसित कर लिए हैं कि वह उसके शरीर को उघाड़ते हैं, टोकते नहीं। जो वस्त्र ढांकता है उसे कौन पसन्द करता है ? जो व्यक्ति वस्त्र उघाड़ता है, इतना उवाड़ता है कि और उघाड़ने की इच्छा जगे, इतना नहीं उघाड़ता कि उघाड़ने की इच्छा मिट जाए, उघाड़ता है और उघाड़ने की इच्छा जायती है ऐसा व्यक्ति वस्त्र पहने हुए भी नंगा है। ठीक इससे उल्टा भी हो सकता है कि व्यक्ति नंगा खड़ा हो गया है और इतना उघाड़ा हुआ है कि उघाड़ने को कुछ नहीं बचा है; उघाड़ने की कोई इच्छा भी नहीं है उसको, उघाड़ने की कोई कामना भी नहीं है, कोई उघाड़ कर देखे यह आमन्त्रण भी नहीं है तो उसकी नग्नता भी वस्त्र बन जाती है। जब कोई वस्त्रों में नंना हो सकता है तो कोई नग्नता में वस्त्रों में क्यों नहीं हो सकता ? महावीर बिल्कुल नग्न थे लेकिन उनकी नग्नता किसी को भी नग्नता जैसी नहीं लगी। इसलिए यह स्वाभाविक था कहानी का बन जाना कि जकर वे कोई ऐसे वस्त्र भी पहने हुए हैं जो दिखाई नहीं पड़ते, जो देवताओं के दिए हैं, देवदूत के दिए हैं । देवताबों ने ऐसे वस्त्र दे दिए हैं उनको जो दिखाई भी नहीं पड़ते और फिर भी उनको नग्नता दिखाई नहीं पड़ती। तो कहीं कोई अदृश्य वस्त्र उनको छिपाए हुए है। यह धारपा पैदा हो जाना बिल्कुल स्वाभाविक है। पर महावीर निपट नग्न हैं। असल में निपट नग्न आदमी ही नग्नता से मुक्त हो सकता है । वस्त्रों में ढके हुए आदमो की नग्नता से मुक्त होना बड़ा मुश्किल है क्योंकि वस्त्रों में जिसे वह Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ महावीर । मेरो दृष्टि में सकते हैं लेकिन अगर वहीं रुक गए तो सदा के लिए वहीं अटक सकते हैं । और हमारी आंखें तथ्यों को ही देखती हैं। असल में में पदार्थवादी उसको कहता हूँ जो तथ्यों को ही देखता है । 6 मेरी दृष्टि में भौतिकवाद का कोई मतलब नहीं है— जो तथ्यों को ही देखता है, जो कहता है इतना रहा तथ्य, बाकी सब झूठ है । यह तथ्य को गिना लेता है और कहता है कि इसके आगे कुछ भी नहीं है । लेकिन मजे की बात यह हैं कि तथ्य सत्य की सबसे बाहरी परिधि है, सबसे बाहरी परकोटा है । जो भी है उसके भीतर और जितने हम गहरे भीतर जाएंगे उतना तथ्य छूटता चला जाएगा और सत्य निकट आता जाएगा । इसीलिए सत्य को कहने की भाषा तथ्य की नहीं हो पाएगी । सत्य को कहने के लिए नई भाषा खोजनी पड़ेगी जो प्रतीकात्मक है | सत्य को तभ्य की भाषा में नहीं कहा जा सकता, कहें तो इतिहास बन जाता है । अब जैसे कि यह बात है कि महावीर कभी बूढ़े नहीं हुए, न कोई दूसरा तीर्थंकर कभी बूढ़ा हुआ । न बुद्ध कभी बूढ़े हुए । न राम, न कृष्ण । इनकी कोई बुढ़ापे की मूर्ति आपने कभी देखी कि ये बूढे हो गए हैं ? तो क्या मामला है ? क्या ये लोग जबान ही रह गए ? जवानी के आगे नहीं गए ? गए तो जरूर होंगे। यह तो असम्भव है कि न गए हों । तथ्य यही होगा कि महावीर को बूढ़ा होना पड़ेगा, बूढ़े हुए होंगे। जब मरना पड़ता है तो बूढ़ा होना पड़ेगा। लेकिन सत्य यह कहता है कि वह आदमी कभी बूढ़ा नहीं हुआ होगा । जो उसने पा लिया है, वह इतना युवा है, वह इतना सदा योवन है कि वहाँ कैसा बुढ़ापा ? जिन लोगों ने तथ्य पर जोर दिया होगा वे महावीर की बूढ़ी मूर्ति अंकन भी करते । लेकिन सत्य पर जिन्होंने आँख रखी तो फिर गाथा ( मिथ) बनानी पड़ी कि महावीर कभी बूढ़े नहीं होते । अब कभी आपने ध्यान दिया कि ये कोई भी तीर्थंकर कभी बूढ़े नहीं हुए । यह युवा होने की सम्भावना कहाँ है ? तथ्य में तो नहीं है, इतिहास में तो नहीं है लेकिन गाथा ( मिथ ) में है । इसीलिए मैं कहता हूँ कि इतिहास से ज्यादा गहरी घुस जाती है माइथोलॉजी ( गाथाशास्त्र ) । उसकी पकड़ ज्यादा गहरी है । लेकिन उसको कहने के लिए तथ्य छोड़ देने पड़ते हैं और कहानी गढ़नी पड़ती है कि नहीं, नहीं, कृष्ण कभी बूढ़े नहीं होते । बच्चे होते, जवान होते हैं, बस फिर ठहर जाते हैं, फिर बूढ़े नहीं होते । असल में जो चित्त जो चित्त सत्य को जान गया है, वह कैसे वृद्ध होगा ? वह कैसे क्षीण होता ही नहीं । वह सदा के लिए उस हरियाली को पा गया है जो अब सदा नया है और क्षीण होगा ? वह Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५ कहीं नहीं मिलती । इसलिए युवा होने तक तो यात्रा है उसकी । जब तक कि वह सत्य पाकर युवा नहीं हो गया तब तक वह बच्चा होता है, बड़ा होता है । जैसे वह पहुँच गया उस बिन्दु पर जहाँ सत्य पा लिया जाता है, जो सदा जवान हैं, जो कभी बूढ़ा नहीं होता वैसे ही फिर उसकी यात्रा रुक जाती है । शरीर की तो नहीं रुक सकती, शरीर तो बूढ़ा होगा और मरेगा। लेकिन हम उस तथ्य को इन्कार कर देते हैं और कह देते हैं कि वह तथ्य झूठ है, उसका कोई मतलब नहीं । वह आदमी भीतर जवान है, वह जवान ही रह गया है। वह अब कभी बूढ़ा नहीं होगा । : प्रवचन- ३ इसलिए बहुत से इन अद्भुत लोगों की मृत्यु का कोई उल्लेख नहीं है कि वे मरे कब । वह उल्लेख इसलिए नहीं है कि जन्म तक तो बात ठीक है; मरना उसका होता नहीं । तथ्य में तो वे मरे । इसलिए जैसे-जैसे दुनिया ज्यादा त होती गई वैसे-वैसे हमारे पास रिकार्ड उपलब्ध होने लगा । जैसे महाबीर का रिकार्ड है हमारे पास कि वह कब मरे । लेकिन ऋषभ का नहीं है रिकार्ड उपलब्ध | दुनिया और भी मिथ के ज्यादा करीब थी । अभी लोष तथ्य पर जोर ही नहीं दे रहे थे। राम का कोई रिकार्ड नहीं है कि वह कब मरे । इसका कारण यह नहीं कि वह नहीं मरे होंगे। जिन्होंने सारी जिन्दगी की कहानी लिखी, वे एक बात पर चूक गए जो कि बड़ी भारी घटना रही होगी भरने की । यानी जन्म का सब ब्योरा लिखते हैं, बचपन का ब्योरा लिखते हैं, विवाह है, लड़ाई है, झगड़ा है, सब आता है, सब जाता है । सिर्फ एक बात चूक जाती है कि आदमी गए कब ? नहीं, मिथ उसको इन्कार कर देते हैं। वह कहते हैं ऐसा आदमी मरता नहीं। ऐसा आदमी परम जीवन को उपलब्ध हो जाता है । इसलिए मृत्यु की बात ही मत लिखो। इसलिए इस मुल्क में हम जन्मदिन मनाते हैं । पश्चिम में मृत्युदिन । पश्चिम में जो मरने का दिन है वह बड़ी कीमत रखता है । और उसका कारण है क्योंकि हम जन्म को स्वीकार करते हैं । हम मृत्यु को इन्कार ही कर देते हैं। पश्चिम में जन्म जितना स्वीकृत है, मृत्यु उससे ज्यादा स्वीकृत है क्योंकि जन्म तो पहले हो चुका है, मृत्यु तो बाद में हुई है । जो बाद में हुआ है ज्यादा ताजा है, ज्यादा कीमती है। जन्मदिन की ही बात किए चले जाते हैं और उसका कारण है कि हम जन्म को तो मानते हैं मृत्यु को नहीं । जीवन है; मृत्यु नहीं । ये सारे तथ्य अगर तथ्य की तरह पकड़े जाएं तो कठिनाई हो जाती है । उतर जाएं और इनके मिश्र को जो गुप्त लेकिन अगर हम इनकी गहराई में Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में भाषा है उसे खोल दें तो बड़े रहस्य के पर्दे उठने लगते हैं। जैसे अब गांधी की हमने मरणतिथि मनानी शुरू की है। वह पश्चिम की नकल है। अगर महावीर जैसे व्यक्ति का हम मृत्युदिन मनाते भी हैं तो उसे मृत्यु दिवस हम नहीं कहते हैं । उसे निर्वाण दिवस कहते हैं। मरता नहीं, वह सिर्फ निर्वाण को उपलब्ध हो जाता है । उसको भी मृत्युदिवस नहीं कहते हैं । उसको भी कहेंगे निर्वाणदिवस । तथ्यों ने ऐसी व्यर्थ की बातों में उलझा दिया है कि जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है और उनके समक्ष वे लोग जो निरंतर सत्य पर जोर देते रहे हैं आज इस तरह हारे हुए खड़े हैं और वे हारे इसलिए खड़े हैं कि वे खुद ही तथ्य से हार गए हैं और उनको भी लग रहा है कि कोई बड़ी भूल-चूक हो गई है। मेरी दृष्टि में तथ्यों का भी मूल्य है अगर वे सत्यों को बता पाएं, अन्यथा उनका कोई मूल्य नहीं है। शाश्वत की तरफ इनसे इशारा हो जाए तो ठीक है अन्यथा कोई भी मूल्य नहीं है। मील के पत्थर हैं जो हमें कहते हैं आगे चलो लेकिन कुछ नासमझ लोग मील के पत्थरों को पकड़कर रुक जाते हैं। मील के पत्थरों का क्या मूल्य है सिवाय कि वे कहें कि और आगे और आगे। तथ्य भी मील के पत्थर हैं सत्य की यात्रा में और इसलिए अगर महावीर के जीवन की प्रारंभिक सारी घटनाओं को उनकी गहराई में उनकी खाल को छोड़कर उनके सार को पकड़ लिया जाए तो ही महावीर का उद्घाटन होगा और तो ही बाद में महावीर क्या हो पाते हैं यह समझ पायेंगे, और उसको समझने को दृष्टि मिल सकती है। Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #98 --------------------------------------------------------------------------  Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : यदि तीर्थंकर पहले जन्म में ही कृतकृत्य हो चुके हैं और केवल करणावश संसार में आते हैं तो फिर वे केवल एक ही बार क्यों आते हैं ? बारम्बार क्यों नहीं आते ? इस प्रकार तो उन्हें अब भी संसार में ही होना चाहिए था । और जो वे करणावश आते हैं सो क्या अपनी इच्छा से आते हैं या उनका यह आना स्वाभाविक होता है ? उत्तर : यह बात बहुत महत्त्वपूर्ण है मेरी दृष्टि में। जिसके जीवन का कार्य पूरा हो चुका है वह ज्यादा से ज्यादा एक ही बार वापिस लौट सकता है। वापिस लौटने का कारण है जैसे कोई आदमी साइकिल चलाता हो, पैडल चलाना बन्द करदे तो पिछले वेग से साइकिल थोड़ो देर बिना पैडल चलाए आगे जा सकती है। लेकिन बहुत देर तक नहीं। इसी तरह जब एक व्यक्ति का जीवनकार्य पूरा हो चुका है तो उसके अनेक जीवन की वासनाओं ने जो वेग दिया है, गति दी है वह ज्यादा से ज्यादा उसे एक बार और लौटने का अवसर दे सकती है। इससे ज्यादा नहीं। जैसे पैडल बन्द कर दिए हैं तो भी साइकिल थोड़ी दूर तक चलती जा सकती है लेकिन बहुत दूर तक नहीं। और यह भिन्न-भिन्न समय की अवधि होगी क्योंकि पिछले जीवन की कितनी गति और कितनी शक्ति चलाने की शेष रह गई है, प्रत्येक का अलग-अलग होगा। इसलिए बहुत बार ऐसा हो सकता है कि कोई करुणा से लौटना चाहे और न लौट सके। दूसरा प्रश्न भी विचारणीय है। क्या , तीर्थकर अपनी मर्जी से लौटते हैं ? हां, लौटते तो वे अपनी मर्जी से हैं लेकिन ऐसा जरूरी नहीं है कि सिर्फ मर्जी से ही लोटें। अगर थोड़ी शक्ति शेष रह गई है तो मर्जी सार्थक हो जाएगी। अगर शक्ति शेष नहीं रह गई है तो मर्जी निरर्थक हो जाएगी। उस स्थिति में करुणा Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० महावीर : मेरी दृष्टि में दूसरा रूप ले सकती है लेकिन लोट नहीं सकती है। और यह भी समझ लेना उचित है जैसा कि मैंने कहा कि साइकिल चलाते वक्त पैडल बन्द हो जाए; जिस दिन वासना क्षीण हो गई उस दिन पैडल चलना बन्द हो गए। लेकिन, चाक थोड़ी दूर और चल जाएंगे, अपनी हो मर्जी से। अगर वह व्यक्ति साइकिल से नीचे उतर जाना चाहे तो उसे कोई रोकने वाला नहीं है। वह अपनी ही मर्जी से अब भी बैठा हुआ है। पैडल चलाना बंद कर दिया है; वासना क्षीण हो गई है। लेकिन अब भी देह के वाहन का वह उपयोग करता है थोड़ी दूर तक । लकिन ऐसा भी हो सकता है कि अब देह के वाहन को चलाने की कोई शक्ति शेष ही न बची हो । अक्सर इसलिए ऐसा हो जाता है कि इस तरह की आत्माओं का दूसरे जन्मों का जीवन अति क्षीण होता है। शंकराचार्य जैसे व्यक्ति जो तीग-पैंतीस साल ही जी पाते हैं, इसका कोई और कारण नहीं है । वेग बहुत कम है । अक्सर इस तरह की आत्माओं का जीवन अत्यल्प होता है। जैसे जीसस क्राइस्ट है-अत्यल्प जीवन मालूम होता है। यह जो अत्यल्प जीवन है वह इसी कारण है। और कोई कारण नहीं। वेग ही इतना है। अपनी ही मर्जी से लोट सकते हैं, न लौटना चाहे तो कोई लौटाने वाला नहीं है। लेकिन लौटना चाहें तो अगर शक्ति शेष है तो ही लौट सकते हैं। फिर मैंने कहा कि करुणा से कोई नहीं रोक सकता है। शरीर नहीं उपलब्ध होगा। तब दोहरी बातें हो सकती हैं। या तो वैसा व्यक्ति किसी दूसरे के शरीर का उपयोग करे जैसा कि मखली गोसाल ने किया। यह बात भी महावीर के सन्दर्भ में है, इसलिए समझ लेना उचित है। कहानियां कहती हैं-मखली मोसाल बहुत वर्षों तक महावीर के साथ रहा। फिर उसने साथ छोड़ दिया। फिर वह महावीर के विरोध में स्वतन्त्र विचारक की हैसियत से खड़ा हुआ । लेकिन जब महावीर ने शिष्यों को कहा कि मखली गोसाल तो मेरा शिष्य रह चुका है, मेरे साथ रहा है तो उसने स्पष्ट इन्कार किया। उसने कहा वह मखली गोसाल जो आपके साथ था मर चुका है । यह तो में एक बिल्कुल हो दूसरी मात्मा हूँ, उसके शरीर का उपयोग कर रहा हूँ। मैं बह व्यक्ति नहीं हूँ । साधारणतया महावीर के अनुयायी समझते रहे हैं कि यह मूठा है । पर यह झूठा नहीं है । यह बात बिल्कुल ही सच है। मखली गोसाल नाम का जो व्यक्ति महावीर के साथ रहा था, वह अतिसाधारण व्यक्ति था। किन्हीं कारणों से असमय में उसकी मृत्यु हुई और उसको देह का उपयोग दूसरी स्वतन्त्र चेतना ने किया जो तीवंकर को ही हैसीयत की थी। लेकिन अपना Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ शरीर उपलब्ध करने में असमर्थ थी तो. उसने मखली गोसाल के शरीर का उपयोग किया। और इसीलिए इस व्यक्ति का, जो अभी नया व्यक्ति बना, पुराने शरीर में मखली गोसाल के, महावीर से कोई मेल नहीं हो सका । यहु एक बिल्कुल स्वतन्त्र चेतना थी जिसका अलग अपना काम था और अपना काम किया उसने । इसलिए मखली गोसाल भी तीर्थकर होने का एक दावेदार था। उस युग में अकेले महावीर या बुद्ध हो नहीं थे, मसली गोसाल था, अजितकेरा कम्बल था, संजय वेलट्ठिपुत्त था, प्रवर कात्यायन था, पूर्ण काश्यप थाये सबके सब तीर्थकर की हैसियत के लोग थे। लेकिन सब अलग-अलग परम्पराओं के तीर्थकर थे। उनमें से सिर्फ दो को परम्पराएं पीछे शेष रह गई, एक महावोर को, एक बुद्ध की। बाको सब परम्पराएं खो गई। एक रास्ता तो यह है कि वैसा व्यक्ति प्रतीक्षा करे असमय में किसी के शरीर छूट जाने की और उसमें प्रवेश कर जाए। एक यह उपाय है जिसका कई बार प्रयोग किया गया है । दूसरा उपाय यह है कि वह व्यक्ति अशरीर ही रहकर थोड़े से सम्बन्ध स्थापित करे और अपनी करुणा का उपयोग करे । उसका भी उपयोग किया गया है । कुछ चेतनाओं ने अशरीर हालत से संदेश भेजे हैं, सम्बन्ध स्थापित किए हैं। ___ और जो कल बात छूट गई थी वह यह कि मूर्तियों का सबसे पहला प्रयोग पूजा के लिए नहीं किया गया है। उसका तो पूरा विज्ञान है। मूर्ति का सबसे पहला प्रयोग अशरीरी आत्माओं से सम्पर्क स्थापित करने के लिए किया गया है। जैसे महावीर को मूर्ति है । इस मूर्ति पर अगर कोई बहुत देर तक चित्त एकाग्र करे और फिर आंख बंद कर ले तो मूर्ति का निगेटिव आँख में रह जाएगा। जैसे कि हम दरवाजे पर बहुत देर तक देखते रहें और आंख बंद कर लें तो दरवाजे का एक निगेटिव, जैसा कि कैमरे को फिल्म पर जाता है, आँख पर रह जाएगा। उस निगेटिव पर भी अगर ध्यान केन्द्रित किया जाय तो उसके बहुत गहरे परिणाम हैं। महावीर की मूर्ति, बुद्ध की मूर्ति का जो पहला प्रयोग है, वह उन लोगों ने किया है जो अशरीर आत्माओं से सम्बन्ध स्थापित करना चाहते है। महावीर की मूर्ति पर अगर ध्यान एकाग्र किया और फिर आँख बंद कर ली और निरन्तर अभ्यास से निगेटिव स्पष्ट बनने लगा तो वह जो निगेटिव है, महावीर की अशरीरी आत्मा से सम्बन्धित होने का मार्ग बन जाता है और उस द्वार से अशरीरी आत्माएं भी सम्बन्ध स्थापित कर सकती हैं। यह अनन्त काल तक हो सकता है, इसमें कोई बाधा नहीं है । तो मूर्ति, पूजा के लिए नहीं है, एक डिवाइस है, बड़ी गहरो रिवाइस जिसके माध्यम से, जिनके शरीर खो गए हैं Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में और जो शरीर ग्रहण नहीं कर सकते हैं, उनमें एक खिड़की खोली जा सकती है, उनसे एक सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। फिर रास्ता यह है कि अशरीरी आत्माओं से कोई सम्बन्ध खोजा जा सके । अशरीरी आत्माएं भी सम्बन्ध खोजने की कोशिश करती हैं । करुणा फिर यह मार्ग ले सकती है और आज भी जगत् में ऐसी चेतनाएँ हैं जो इन मार्गों का उपयोग कर रही हैं। पियोसॉफी का सारा का सारा जो विकास हुआ है वह अशरीरी मात्माओं के द्वारा भेजे गए संदेशों पर निर्भर है। थियोसॉफी का पूरा केन्द्र इस जगत् में पहली बार बहुत व्यवस्थित रूप से ब्लावेट्स्की अल्काट, ऐनीबीसेन्ट, लीडबीटर इन चार लोगों की पहली दफा अशरीरी आत्माओं से संदेश उपलब्ध करने की अद्भुत चेष्टा पर आधारित है। और जो संदेश उपलब्ध हुए हैं, वे बहुत हैरानी के हैं। संदेश कभी भी उपलब्ध हो सकते हैं। क्योकि अशरीरी चेतना कभी भी नहीं खोती । लेकिन शरीरी आत्मा तब तक आसानी से उस अशरीरी चेतना से सम्बन्ध स्थापित कर लेगी जब तक करुणावश वह भी सम्बन्ध स्थापित करने को उत्सुक है। धीरे-धीरे करुणा भी क्षीण हो जाती है। करणा अन्तिम वासना है। जब सब वासनाएं शोण हो जाती हैं, करुणा ही सिर्फ रह जाती है। लेकिन अन्त में करुणा भी क्षीण हो जाती है । इसलिए पुराने शिक्षक धीरे-धीरे खो जाते हैं। करुणा भी जब क्षीण हो जाती है तब उनसे सम्बन्ध स्थापित करना अति कठिन हो जाता है। उनकी करुणा शेष रहे तब तक सम्बन्ध स्थापित करना सरल है। क्योंकि वे भी आतुर थे । जब उनकी करुणा क्षीण हो गई, अन्तिम वासना गिर गई तब फिर सम्बन्ध स्थापित करना निरन्तर कठिन होता चला जाता है । जैसे कुछ शिक्षकों से अब सम्बन्ध स्थापित करना करीब-करीब कठिन हो गया हैं। महावीर से सम्बन्ध स्थापित करना अब भी सम्भव है । लेकिन उसके पहले के तेईस तीथंकरों में से किसी से भी सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता और इसलिए महावीर कीमती हो गए और तेईस एकदम से गैर कीमती हो गए। इसका बुनियादी कारण यह है कि अब उन तेईस तीथंकरों से कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता है, किसी तरह का भी। प्रश्न : इसका अर्थ यह हुमा कि ये जो मोम के बारे में कहा जाता है, मात्मा चली गई है और सारे जगत् में लीन हो गई है, फिर उस आत्मा से कैसे सम्बन्ध स्थापित हो ? ' ... उत्तर : इसको थोड़ा समझना पड़ेगा-इसे थोड़ा समझना पड़ेगा। मैं पूरी बात कह लू फिर आप समझ जाएंगे। तेईस तीर्थकर एकदम गैर ऐतिहासिक हो Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ . गए मालूम पड़ते हैं। उनके गैर ऐतिहासिक हो जाने का और कोई कारण नहीं है। वे बिल्कुल ऐतिहासिक व्यक्ति थे; लेकिन आध्यात्मिक लोक में उनके अन्तिम सम्बन्ध का सूत्र भी ची हो जाने के कारण अब उनसे कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया जा सकता। महावीर से अभी भी सम्बन्ध स्थापित हो सकता है और इसीलिए महावीर अन्तिम होते हुए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हो गए उस धारा में । पुर से अभी भी सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। जीसस से अभी भी सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है । कृष्ण से अभी भी सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। हमें अढ़ाई हजार वर्ष बहुत लम्बे मालम पड़ते हैं क्योंकि हमारा कालमान बहुत छोटा है। शरीर से छूट जाने पर अढ़ाई हजार वर्ष ऐसे हैं जैसे क्षण गुजरा हो । मुहम्मद से अभी भी सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। इसलिए जिन परम्पराओं के शिक्षकों से अभी सम्बन्ध स्थापित हो सकता. है, वे फैलती-फूलती हैं। जिन परम्पराओं के शिक्षकों से अब कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता वह एकदम सूखकर नष्ट हो जाती हैं । किन्तु उनका मूल स्रोत से सम्बन्ध नहीं टूट जाता। और इसलिए नए शिक्षक जीतते हुए मालूम पड़ते हैं, पुराने शिक्षक हारते हुए मालूम पड़ते हैं। अब यह बड़ी हैरानी की बात है कि महावीर से पहले तेईसवें तीर्थंकर को ज्यादा वक्त नहीं हुआ, अढ़ाई सौ वर्ष का ही फासला है लेकिन उस तीर्थकर से भी सम्बन्ध स्थापित करना मुश्किल हो गया है। इसलिए उस तीर्थकर के निकट जाने वालों को महावीर के पास आ जाना पड़ा। लेकिन एक बुनियादी विरोध भीतर छूट गया जिसने पोछे परम्पराओं को दो खंडों में तोड़ने में हाथ बटाया। क्योंकि मूलतः जो शिक्षक पार्श्व से सम्बन्धित थे उनका प्रेम, उनका समर्पण और उनका द्वार पावं के प्रति खुला था। लेकिन, चूंकि पार्श्व खो गए बहुत जल्दी और उनसे कोई सम्बन्ध स्थापित करना सम्भव न हुआ इसलिए महावीर के पास वे आए। लेकिन उनका मन, उनका धन, उनका व्यक्तित्व पार्श्व के अनुकूल था। इसलिए दो धाराएं फौरन टूटनी शुरू हो गई। वह आ गए पास लेकिन भेद रहे। किसी ने पूछा है कि एक ही समय में दो तीर्थकर क्यों नहीं होते। एक परम्परा में, एक ही समय में दो तीर्थकर नहीं होते। इसका कारण यह है कि अगर एक तीर्थकर काम कर रहा है उस परम्परा का तो दूसरा तत्काल विलीन हो जाता है। उसकी कोई जरूरत नहीं होती। जैसे एक ही कक्षा में, एक ही । समय में दो शिक्षकों की कोई जरूरत नहीं होती। उससे सिर्फ बाषा ही पैदा होगी और कुछ भी न होगा । एक उपद्रव ही होगा कि एक ही कक्षा में दो चार शिक्षक एक ही पीरिया में उपस्थित हो जाएं। उसकी वजह से सिर्फ संघर्ष Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ महाबीर : मेरी दृष्टि में फैलेगा । एक शिक्षक पर्याप्त होता है। एक शिक्षक यदि काम कर रहा है तो दूसरा शिक्षक अगर होने की स्थिति में भी है तो भी नहीं होता । उसकी कोई जरूरत नहीं होती । करुणा पीछे भी काम कर सकती | ओर पीछे भी सम्बन्ध स्थापित किए जा सकते हैं । चीन के हाथ में तिब्बत के चले जाने से जो बड़े से बड़ा नुकसान हुआ वह भौतिक अर्थों में नहीं नापा जा सकता। सबसे बड़ा नुकसान यह हुआ है कि बुद्ध से तिब्बत के लामाओं का प्रति वर्ष एक दिन निकट सम्पर्क स्थापित होता रहा था । उस परम्परा को घात पहुँच गया । प्रतिवर्ष बुद्ध पूर्णिमा के दिन पाँच सो विशिष्ट भिक्षु और लामा एक विशेष पर्वत पर मानसरोवर के निकट उपस्थित होते थे । यह अत्यन्त गुप्त व्यवस्था थी। ठीक पूर्णिमा की रात, ठीक समय पर बुद्ध का साक्षात्कार पाँच सौ व्यक्तियों को निरन्तर हजारों वर्षों से होता रहा । और इसलिए तिब्बत का बौद्ध भिक्षु जितना जीवन्त, जितना गहरा था उतना दुनिया का कोई बौद्ध भिक्षु नहीं था क्योंकि और किसी के जीवित सम्पर्क नहीं थे बुद्ध से । एक वर्ष की शर्त पूरी होती रही थी निरन्तर बुद्ध पूर्णिमा के दिन और इन दिनों को मनाने का कारण भी यह है कि इन दिनों का सम्पर्क आसानी से स्थापित हो सकता है। वे दिन उस चेतना की स्मृति में भी महत्त्वपूर्ण दिन 1 हैं । और उन महत्त्वपूर्ण दिनों में ज्यादा कररणा विगलित हो सकती हैं और वह भी 'आतुर हो सकती है कि किसी धारा से सम्बन्धित हो जाए। ऐसा नहीं कि ठीक पांच सौ भिक्षुओं के समक्ष बुद्ध अपने पूरे रूप में ही प्रकट होते रहे । किन्तु यह भी सम्भव है । क्योंकि हमारा यह शरीर गिर जाता है इससे ही ऐसा मत मान लेना कि हमारे सब शरीर होने की सम्भावना मिट जाती है । सूक्ष्म शरीर कभी भी रूपाकार ले सकता है । और अगर बहुत से लोग आकांक्षा करें तो सूक्ष्म शरीर के रूपाकार लेने में कोई कठिनाई नहीं । ऐसा होगा सूक्ष्म शरीर कि अगर तलवार उसमें से निकालो तो तलवार निकल जाएगी कुछ कटेगा नहीं । अत्यन्त सूक्ष्म अणुओं का बना हुआ शरीर होगा । मनो-अणुओं का ही कहना चाहिए। अब तक विज्ञान पहुँच सका है जिन अणुओं तक वे भौतिक अणु हैं । लेकिन जिन्होंने सूक्ष्म आन्तरिक जीवन में खोज की है उन्होंने उन अणुओं की भी खबर दी है जिन्हें मनो-अणु कहना चाहिए - 'मनो अणुओं' की भी एक देह है। यह मनोकाया जैसी चीज भी है। अगर बहुत लोग आकांक्षा से और एकाग्रचित होकर प्रार्थना करें और करुणा शेष रह गई हो किसी चेतना में जो शरीर नहीं पकड़ सकती है तो वह 'मनोदेह' में प्रकट हो सकती है । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ४ १०५ सब मूर्तियां बहुत गहरे में उस 'मनोदेह' को प्रकट करने की एक उपाय मात्र हैं । सब प्रार्थनाएं, सब आकांक्षाएं उस चेतना को विगलित करने के उपाय मात्र हैं कि उससे किसी तरह का सम्बन्ध स्थापित हो सके । और यह बहुत रहस्यवादी प्रयोग की बात है। इसलिए मन्दिर, मस्जिद में जो अब हो रहा है वह तो सब कचरा लेकिन जो व्यवस्था है पीछे वह बड़ी अर्थपूर्ण है । उस अर्थपूर्ण व्यवस्था का उपयोग जो जानते हैं वे करते ही रहे हैं और आज भी करते हैं । क्षीण होती जाती है निरन्तर वह सम्भावना, यानी ख्याल ही मिटते जाते हैं कि हम क्या करें ? ऐसा ही है जैसे कि समझें कि तीसरा महायुद्ध हो जाए, दुनिया खत्म हो जाए, कुछ लोग बच जाएं और हमारा यह बिजली का पंखा उनको मिल जाए । तो वे अतीत संस्मरण की तरह उसे रखे रहेंगे कि . हो भी सकता पता नहीं यह किस काम का था। लेकिन यह कुछ भी समझ में न आ सके कि यह हवा करता रहा होगा। क्योंकि न उसके पास बिजली का ज्ञान रह जाए, न उसके पास प्लग का ज्ञान रह जाए, न इस पंखे की आन्तरिक व्यवस्था को समझने की उनकी अक्ल रह जाए; तो हो सकता है, वह अपने म्यूजियम में इस पंखें को रख लें, तार को रख लें, रेल के इंजन को संभाल कर रख लें; हो सकता है कि पूजा भी करने लगें, अतीत के स्मृतिशेष चिन्हों के स्मरण की तरह । लेकिन यह कोई पता न होगा कि रेल का इंजन हजारों लोगों को खींच कर भी ले जाता रहा होगा क्योंकि न पटरियाँ बचें, न इंजिनियरिंग शास्त्र बचें, न कोई खबर देने वाला बचे कि कैसे चलता होगा ? कैसे क्या होता होगा ? क्योंकि कोई भी व्यवस्था हजारों विशेषज्ञों पर निर्भर करती है। है कि एक आदमी ऐसा बच जाए जो कहे कि मैं रेल में बैठा था रेल के डिब्बे खींचने का काम करता था। लेकिन, लोग उससे चलाकर बता दो तो वह कहे मैं सिर्फ बैठा था, मैं चलाकर नहीं बाकी मुझे इतना पक्का स्मरण है कि मैं इस गाड़ी में बैठा था, इसमें हजारों लोग बैठते थे और यह गाड़ी एक गाँव से दूसरे गांव जाती थी। मगर में चलाकर नहीं बता सकता; लेकिन मैं बैठा था इतना पक्का है । और यह बैठने वाला चिल्लाता रहे और किताबें भी लिखे कि यह रेल का इंजन है, इसमें लोग बैठते थे, चलाते थे लेकिन कोई उसकी सुनेगा नहीं क्योंकि यह चलाकर नहीं बता सकेगा । तो हर दिशा में, बाह्य या आन्तरिक हजारों उपाय खोजे जाते हैं । लेकिन कभी-कभी आमूल सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं, खो जाती हैं अन्धकार में अगर उनके विशेषज्ञ खो जाएं। हजार कारण होते हैं खो जाने के । आज और यह इंजन कहें कि तुम बता सकता । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में मन्दिर और मस्जिद बने हुए हैं। तन्त्र, मन्त्र, यन्त्र सब बचे हुए हैं बहुत, बहुत रूपों में लेकिन कुछ उनका मतलब नहीं है। क्योंकि उनसे क्या हो सकता था इसका कुछ पता नहीं। वह कैसे हो सकता था इसका भी कुछ पता नहीं । और तब-जैसे रेल के इंजन की पूजा कर कोई भागे भविष्य में जाकर, ऐसा हम मूर्तियों की पूजा कर रहे हैं। हां, कुछ लोगों की स्मृति रह गई थी कि कुछ होता था, उनके पीछेवालों को भी वह कह गए हैं कि कुछ होता था, वह आज भी मन्दिर के घेरे में उनकी सुरक्षा के लिए खड़े हुए हैं। क्योंकि उनके पास कुछ भी बताने को नहीं है कि क्या होता था, क्या हो सकता था- वह करके कुछ भी नहीं बता सकते । चेतनाएं जैसे ही मुक्त होती हैं, मुक्ति के पहले सारी वासनाएं समाप्त हो जाती है । इसको थोड़ा ठीक से समझ लेना चाहिए । मुक्ति होती ही उस चेतना की है जिसकी सारी वासनाएँ समाप्त हो गई हैं। लेकिन अगर सारी वासनाएं समाप्त हो जाएं तो अमुक्त स्थिति और मुक्त स्थिति के बीच सेतु क्या होगा? दोनों को जोड़ता कौन होगा ? वह आत्मा तो अपने को पहचान ही नहीं सकेगी क्योंकि उसने अपने को वासना में ही जाना था। और अगर सारी वासनाएँ एक क्षण में समाप्त हो जाएं और दूसरे क्षण कोई वासना न रह जाए तब वह आत्मा अपने को पहचान ही नहीं सकेगी कि मैं वही हूँ। इसलिए जब सारी वासनाएँ समाप्त हो जाती है तब सिर्फ सेतु की तरह एक वासना शेष रह जाती है जिसको मैं करुणा कह रहा हूँ, वही शेष रह जाती है। यही उसका पुराने जगत् से एक मात्र सेतु होता है। अमुक्त आत्मा और मुक्त मात्मा के बीच जो एक सेतु है, वह फरणा का है । लेकिन अन्ततः सेतु के पार हो जाता है सब और करुणा भी चली जाती है। तो तीर्थकर का होना करुणा की वासना से होता है। और एक जन्म से ज्यादा असम्भव है इस मोमन्टम में जाना, इस गति में जाना। इसलिए एक जन्म से ज्यादा नहीं हो सकता, और जैसा कि मैंने कहा है कि सभी ज्ञानियों को ऐसा हो जाता है ऐसा भी नहीं है। इसलिए महावीर की स्थिति में अनेकों पहुंचते हैं लेकिन सभी तीर्थकर नहीं हो जाते क्योंकि मुक्ति का आकर्षण इतना तीव्र है, मुक्ति का आनन्द इतना तीव्र है कि बहुत बलशाली लोग ही वापस लौट सकते हैं, एक जन्म के लिए ही। और यह बलशाली लोग एक जन्म में लौटकर इतना इन्तजाम कर जाते हैं, पूर्ण इन्तजाम कर जाते हैं, यानी उनके लौटने का प्रयोजन ही यह होता है असल में कि यह पूरा इंतजाम कर जाते हैं कि जब वह शरीर नहीं पहरण कर सकेंगे तब उनसे कैसे सम्बन्ध स्थापित किया जा सकेगा। अब इसकी बहुत गहरी व्यवस्था है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ १०७ समझ लें कि एक पिता है, उसके छोटे छोटे बच्चे हैं और वह लम्बी यात्रा पर जा रहा है, जहां से वह कभी नहीं लौटेगा। वह अपने बच्चों के लिए इन्तजाम कर जाता है सब तरह का। उन्हें कह जाता है कि इस पते पर चिट्ठी लिखना तो मुझे मिल जाएगी। वह घर में अपना चित्र भी छोड़ जाता है कि जब तुम बड़े हो जाओ तो तुम पहचानना कि मैं ऐसा था। वह उन बच्चों के लिए स्मृति भी छोड़ जाता है कि तुम जब बड़े हो जाओ तो मैं तुमसे कहना चाहता था, वह इसमें लिखा है, वह तुम समझ लेना। और जब भी मुझसे सम्बन्ध स्थापित करना चाहो तो यह मेरा फोन नम्बर होगा। इस विशेष फोन नम्बर पर तुम मुझसे सम्पर्क स्थापित कर सकोगे। मैं नहीं लौट सकूँगा अब । अब लौटना असम्भव है। तो प्रत्येक करुणापूर्ण शिक्षक एक बार लौटकर सारा इन्तजाम कर जाता है कि पीछे उससे कैसे सम्बन्ध स्थापित किए जा सकेंगे। जब शरीर खो जाएगा तो उसका कोड नम्बर क्या होगा, जिस विशेष मनःस्थिति में, जिस विशेष कोड नम्बर पर उससे सम्पर्क स्थापित हो जाएगा। सारे धर्मों के विशेष मंत्र कोड नम्बर हैं। जिन मन्त्रों में निरन्तर उच्चारण से ध्यानपूर्वक चित्त एक विशिष्ट ट्यूनिंग को उपलब्ध होता है और उस यूनिग में विशिष्ट शिक्षकों से सम्बन्ध स्थापित हो सकते हैं। वह बिल्कुल टेलिफोनिक नम्बर है कि चित्त अगर उसी ध्वनि में अपने को गतिमान करे तो एक विशिष्ट ट्यूनिय को उपलब्ध हो जाता है। और वह कोड नम्बर किसी एक शिक्षक का ही है, वह दूसरे के लिए काम में नहीं आ सकता। दूसरे के लिए वह उपयोगी नहीं है । इसलिए इन कोड नम्बरों को प्रत्यन्त गुप्त रखने की व्यवस्था की गई है। इसलिए चुपचाप अत्यन्त गुप्तता में ही वे किए जाते हैं । सम्बन्ध स्थापित हो सके इसलिए बहुत उपाय छोड़ जाते हैं; चिन्ह छोड़ जाते हैं; मूतियां छोड़ जाते हैं; शब्द छोड़ जाते हैं। मंत्र छोड़ जाते हैं; विशेष आकृतियाँ जिनको तंत्र कहें वह छोड़ जाते हैं, यंत्र छोड़ जाते हैं । जिम आकृतियों पर चित्त एकाग्र करने से विशिष्ट दशा उपलब्ध होगी उस दशा में उनसे संबंध स्थापित हो सकेगा। लेकिन वह सब खो जाता है । और, धीरे-धीरे उनसे सम्पर्क स्थापित होना बन्द होता चला जाता है। जब उनसे पूरा सम्पर्क टूट जाता है तब उनके पास कोई उपाय नहीं रह जाता। तब वैसे शिक्षक धीरे-धीरे खो जाते है, विलीन हो जाते हैं। ऐसे अनन्त शिक्षक मनुष्य जाति में पैदा हुए हैं। सभी शिक्षकों का अपना काम था वह उन्होंने पूरा किया और पूरी मेहनत भी की है। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में कुछ जीवन्त परम्पराएं हैं जिनमें कि वह चलता है । जैसे कि तिब्बत का लामा है, दलाई लामा है। बड़ी अद्भुत बात है लेकिन बड़ी कीमत की है । जब एक दलाई लामा मरता है, तो वह सब चिन्ह छोड़ जाता है कि मेरा अगला १०८ जन्म जो होगा उसमें तुम मुझे कैसे पहचान सकोगे ? है । मेरा अगला जन्म होगा तो ये मेरे चिन्ह होंगे । वह सारे चिन्ह छोड़ जाता और ये सवाल तुम मुझसे पूछना तो ये जबाब मैं तुम्हें दूंगा । तब तुम पक्का मान लेना कि मैं वही आदमी हूँ । नहीं तो तुम पहचानोगे कैसे, मानोगे कैसे कि मैं वही है जो पिछला दलाई लामा मरा था। जो अभी दलाई लामा है इसका पहला गुरु जब मरा यह वही आत्मा है । वह चिन्ह छोड़कर गया था कि पूरे तिब्बत में खोज बीन करना इतने वर्षो बाद | और जो लड़का इन चीजों का यह जवाब दे दे, समझना कि वह मैं हूँ । बातें अत्यन्त गुप्त थीं। वे सील बन्द मोहर उत्तर हैं उनके । वह कोई खबर किसी को नहीं मिल सकती । सारे तिब्बत में खोज शुरू हुई । और सारे तिब्बत में सैकड़ों, हजारों बच्चों से पूछे गए वही सवाल | लेकिन कोई बच्चा कैसे जवाब देता ? इस बच्चे ने सारे जवाब दे दिए तो स्वीकृत कर लिया गया कि पुरानी आत्मा उसमें उतर आई है । तब उसको फिर गद्दी पर बिठा दिया गया । सिर्फ शरीर नया हो गया, आत्मा वही है । शिक्षक यह भी करते रहे ताकि वे अनन्त जन्मों तक निरंतर उपयोगी हो सकें । जब खो जाएं वे जन्मों से तब भी वे उपयोगी हो सकें । एक जन्म से ज्यादा तो नहीं हो सकता यह । लेकिन जन्म बन्द हो जाने के बाद बहुत समय तक सम्बन्ध स्थापित रह सकते हैं । सम्बन्ध स्थापित रहने के दो सूत्र रहेंगे। उस शिक्षक की करुणा को वासना शेष रह गई हो जितनी दूर तक, और जितने दूर तक उससे सम्बन्ध होने के सूत्र साफ और स्मरण में रह गए हों । इसीलिए जैसा मैंने कल कहा कि कई वर्षों तक तो जरूरत नहीं पड़ती है लिखने की कि क्या कहा था क्योंकि बारंबार सम्बन्ध स्थापित करके जांच की जा सकती है कि यही कहा था। लेकिन जब वे सूत्र क्षीण होने लगते हैं और सम्बन्ध स्थापित करना मुश्किल होने लगता है तब लिखने की बारी आती है । इसलिए पुराना कोई भी महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ सैकड़ों वर्षों तक नहीं लिखा गया क्योंकि तब तक वे सूत्र थे जिससे कि सम्बन्ध जोड़ कर हम पूछ सकते थे, जान सकते थे कि यही कहा है। लिखने की कोई जरूरत न थी । लेकिन जब सम्बन्ध क्षीण होने लगे और अन्तिम शिक्षक मरने लगे जिनका सम्बन्ध हो सकता था तो फिर उनसे कहा कि अब लिख दिया जाए। अब पूरी बात लिख Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ४ १०६. दी जाए। जैसा कि सिक्खों के मामले में हुआ । दसवें गुरु के बाद कोई व्यक्ति नजर नहीं आया जो कि ग्यारहवां गुरु हो सकेगा । जरूरी हुआ कि ग्रन्थ लिख दिया जाए क्योंकि अब सम्भावना नहीं है कि सम्पर्क हो सकेगा । बाकी दुसगुरुओं की जो परम्परा है उसमें निरन्तर सम्पर्क स्थापित है। वह नामक से टूटती नहीं है । उसमें कोई कठिनाई नहीं पड़ती है। नानक निरन्तर उपलब्ध हैं: सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है । यद्दों पर बिठाने की जो बात थी वह धीरे-धीरे पीछे तो बड़ी स्वार्थ की बात हो गई । मगर वही अर्थ की थी। बहुत अर्थ की थी । लेकिन हम सभी अर्थ की बातों को व्यर्थ कर सकते हैं । 1 अब जैसे कि शंकराचार्य की गद्दो पर जो शंकराचार्य बैठे हैं उन्हें कुछ भी पता नहीं; कुछ भी मतलब नहीं । अब उनका गद्दो पर बैठना बिल्कुल राजनीतिक चुनाव जैसा मामला है । लेकिन प्राथमिक रूप से शंकराचार्य अपनी जगह उस आदमी को बिठाल गया है, जिससे वह सम्बन्ध स्थापित रख सकेगा । और कोई मतलब नहीं है उसका । अपनी जगह उस आदमी को बिठाल दिया जा रहा है जिससे कि अब वह सम्बन्ध स्थापित रख सके । मर कर भी वह मरेगा नहीं इस जगत् में । उसका एक सम्बन्ध सूत्र कायम रहेगा । एक व्यक्ति मौजूद रहेगा जिससे वह काम जारी रखेगा । और उस व्यक्ति को वह कह कर जाएगा, समझ कर जाएगा कि वह कैसे व्यक्ति को चुन कर बिठा जाएगा ताकि इस व्यक्ति के खो जाने पर भी सम्बन्ध सूत्र जारी रहे । और, वह सम्बन्ध सूत्र खत्म हो गए । अब शंकराचार्य से किसी शंकराचार्य को कोई सम्बन्ध सूत्र नहीं है । सम्पर्क टूट गया है । इसलिए अब सब फिजूल बात हो गई । अब उसमें कोई मूल्य नहीं रह गया । अब वह मामला सिर्फ धन-सम्पत्ति, पद-प्रतिष्ठा का है कि कौन आदमी बैठे । तो झगड़े हैं, अदालत में मुकंदमें भी चलते हैं, और सब निर्णय अदालत करती है कि कौन आदमी हकदार है । यह निर्णय करने की बात ही नहीं है । यह प्रश्न ही नहीं है निर्णय करने का क्योंकि निर्णय कौन करेगा ? यह निर्णय पुराना शिक्षक कर सकता था, पिछला शिक्षक कर सकता था और तब कई बार ऐसा हुआ है कि बिल्कुल ऐसे लोगों के हाथ में गद्दी सौंप दी गई है जिनके बाबत किसी को कोई ख्याल हो नहीं था । एक शिक्षक मर रहा था चीन में। पांच सौ उसके भिक्षु थे। उसने खबर भेजी की जो भिक्षु चार पंक्तियों में मेरे दरवाजे पर आकर लिख जाए धर्म का सार उसको मैं अपनी गद्दो पर बिठा जाऊंगा क्योंकि मेरा वक्त विदा का आ गया है; अब मैं जाता हूँ। तो पाँच सौ थे भिक्षु । बड़े ज्ञानी पण्डित थे उनमें । , Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में और सबको पता था कि कौन जीतेगा क्योंकि जो सबसे बड़ा पण्डित था, वही जीतेगा। उस पण्डित ने जाकर द्वार पर लिख दिया शिक्षक के धर्म को चार सूत्रों में । लिख दिया कि मनुष्य की आत्मा एक वर्पण की भांति है; उस पर विकार की, विचार की धूल मच जाती है। उस पूल को पोंछ डालने का जो साधन है, वह धर्म है। सारे लोग पढ़ गए और कहा कि अद्भुत है; बात तो परी हो गई। और तो कुछ होता ही नहीं आत्मा में। सिर्फ धूल जम जाती है, उसको झाड़ देने का जो साधन है वह धर्म है। लेकिन गुरु सुबह उठा है, बूढ़ा गुरु अस्सी वर्ष का । उसने देखा । उसने कहा कि यह किस नासमझ ने दीवार खराब की है । उसको पकड़ कर लाया जाए इसी वक्त । तो वह पंडित एकदम भाग गया क्योंकि उसने कहा कि वह गुरु पकड़ लेगा फोरन क्योंकि यह सब किताबों से पढ़ कर उसने लिखा है । सारे आश्रम में चर्चा हुई। वह दस्तखत भी नहीं कर गया था उसके नीचे। इसी डर से अगर गुरु पसन्द करेगा तो जा कर कह दूँगा मैंने लिखा है और अगर नापसन्द कर देगा तो झंझट के बाहर हो जाएंगे। सारे आश्रम में चर्चा चल पड़ी कि क्या हो गया। एक माक्ष्मी आज से कोई बारह साल पहले आया था और बारह साल पहले इस बुड्ढे के पैर को पकड़ कर कहा था कि संन्यासी होना है मुझे। इस बुड्ढे आदमी ने पूछा था : तुझे संन्यासी दीखना है या कि होना है। उसने कहा था कि दीख कर क्या करेंगे? और दोखना होता तो आपसे पूछने की क्या जरूरत थी। हम दीख जाते । तो उसने कहा होना बहुत मुश्किल है। होना है तो फिर एक काम कर । आश्रम में पांच सौ भिक्षु हैं। उनका जो चौका है, जहाँ चावल बनता है, खाना बनता है वहां तू चावल कूटने का काम कर और दुबारा मेरे पास मत आना, माना ही मत। जरूरत होगी तो मैं तेरे पास आऊँगा। न किसी से बात करना, न कपड़े बदलना, चुपचाप जैसा तू है, उस आश्रम के चौके के पीछे चावल कूटने का काम कर और दुबारा आना मत, भूल कर भी मेरे पास । जरूरत होगी तो मैं आ जाऊंगा। नहीं होगी तो बात खत्म हो गई। वह युवक बारह साल पहले से आश्रम के पोछे जाकर चावल कूटता रहा। लोग धीरे-धीरे उसको भूल भी गए क्योंकि वह और कोई काम हो नहीं करता था। वह आश्रम के पीछे चावल कूटता रहता था। न किसी से बोलता था । सुबह उठता था; चावल कूटता था। शाम को थक जाता था, सो जाता था। बारह साल हो गए । न कभी गुरु' उसके पास गया। न कभी वह दुबारा पूछने पाया। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरवचन-४ १११ माज, सारे आश्रम में एक ही चर्चा थी, भोजनालय में भी भिक्षु चर्चा कर रहे थे। वह चावल कूट रहा था। उसके पास से दो तीन भिक्षु चर्चा करते निकले कि बड़ी हद कर दी गुरु ने। इतने सुन्दर वचनों को, इतने श्रेष्ठ वरनों को कह दिया कचड़ा है। वह चावल कूटने वाला जो बारह साल से चुपचाप चावल कूटता रहा था, लोग उसको भूल ही गए थे। उसके पास से निकलते थे, तो कोन ध्यान देता था, फिर वे सब बड़े भिक्षु थे, ज्ञानी थे। वह साधारण चावल कूटने वाला चावल कूटते-कूटते हँसने लगा। उन भिक्षुओं ने रुक कर उसको देखा कि तुम भी हँसते हो, किस बात से हंसते हो ? उसने कहा कि ठोक ही गुरु ने कहा है कि क्या कचरा लिखा है। उन्होंने कहा : अरे ! तू एक चावल कूटने वाला। बारह साल से सिवाय चावल के तूने कुछ और कूटा नहीं और तू भी वक्तव्य दे रहा है इस पर । तुझको पता है कि धर्म क्या है। उसने कहा मुझको पता तो है पर लिखना भूल गया। पता तो मुझे हो गया लेकिन लिखना भूल गया, लिखें कैसे ! और धर्म क्या लिखा जा सकता है ? इसलिए मैं अपना चावल ही कूटता रहता हूँ। खबर तो मुझे भी मिल गई थी कि वह दरवाजे पर लिखने के लिए कहा था। लेकिन एक तो यह कि कौन गही की झंझट में पड़े। दूसरा यह कि लिखें कैसे। उन भिक्षओं ने सिर्फ मजाक में कहा-अच्छा, चलो हम लिख देंगे, तू बोल दे। तो उसने कहा-'यह हो सकता है।' धर्म के साथ अक्सर यह हुआ है। बोला किसी ने, लिखा किसी ने। यह हो सकता है क्योंकि हम जिम्मेदार न रहे। इससे कोई न कह सकेगा कि तुमने लिखा । हम सिर्फ बोलें । चल कर उसने कहा, मैं बोल देता हूँ.। उसने बोल दिया और उन भिक्षुओं ने दीवाल पर लिख दिया। वे जो चार लिखी पंक्तियां काट दी थीं गुरु ने, उनकी बगल में उसने दूसरी चार पंक्तियां लिखीं। उसने कहा : 'कोन कहता है कि आत्मा दर्पण की भांति है। जो दर्पण की भांति है उस पर तो धूल जम ही जाएगी। आत्मा का कोई दर्पण ही नहीं है, धूल जमेगी कहाँ ?' जो इस सत्य को जान लेता है, वह धर्म को उपलब्ध हो जाता है। . · गुरु भागा हुआ आया और उसको पकड़ लिया और कहा कि 'तू भाग मत जाना क्योंकि ऐसे लोग निकल कर भाग जाते हैं। तूने ठीक बात लिख दी है।' उसने कहा कि लेकिन मुझसे गलती हो गई है। मैं अपना चावल ही कूटना चाहता हूँ। मैं किसी का गुरु वगैरह नहीं होना चाहता। लेकिन उससे गुरु ने कहा कि तेरे बिना कोई चारा नहीं। तुझसे मेरा सम्बन्ध हो सकेगा पीछे भी। उसको अपनी गद्दी पर बिठाया और उसने कहा : मैं जानता था अगर कोई लिख Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ महावीर : मेरी दृष्टि में सकेगा तो वह चावल कूटने वाला, जो बारह साल से लोटा नहीं, चावल ही कूट रहा है । और, जिसने शिकायत भी नहीं की एक बार की गुरु अब तक नहीं आया; अब मर जाएंगे तब आएगा । मैं जानता था कि उसको मिल ही गया है, इसलिए नहीं लौटा। उसने कहा कि सब मिल गया था इसलिए आपके आने की जरूरत भी न थी क्योंकि चावल कूटता रहा, कूटता रहा । कुछ दिन तक विचार चले पुराने क्योंकि नए विचारों का कोई उपाय हो न था । न किसी से बात करता, न कुछ पढ़ना । चावल ही कूटता । और चावल कूटने से विचार कहीं पैदा होते हैं ? धीरे-धीरे सव विचार मर गए। चावल कूटना ही रह गया । जब सब विचार मर गए और सिर्फ चावल कूटना रह गया तो मैं इतनी तेजी से जागा जिसका कोई हिसाब नहीं । सारी चेतना मुक्त हो गई । यह जो खो गया शिक्षक है, वह करुणावश कुछ रास्ते ऐसे छोड़ जाता है पीछे । लेकिन सभी चीजें क्षीण हो जाती हैं। सभी सम्पर्क सूत्र शिथिल पड़ जाते हैं और खो जाते हैं । 1 प्रश्न : आपने जो बातें कहीं, उनमें से कुछ विचित्र भी लगीं । आपने उपवास की जो तुलना की- भोजन कर लिया पर भोजन न करने के समान; विवाह कर लिया पर विवाह न करने के समान -इतने तक समझ में आया । पर सन्तान उत्पन्न कर दी और सन्तान उत्पत्ति न करने के समान; मैथुन किया पर न करने के समान - यह प्रक्रिया तो ऐसी नजर छाती है कि बिना वासना और तृष्णा के हो ही न पाए । उत्तर : बगर भोजन की बात समझ में आती है तो मैथुन की क्यों नहीं ? यदि भोजन द्रष्टा ज्ञाता के रूप में किया जा सकता है तो मैथुन क्यों नहीं ? अगर किसी भी क्रिया को करते समय पीछे साक्षो खड़ा है ओर देख रहा है तो कोई भी क्रिया बंधनकारी नहीं होती । भोजन करते समय अगर साखी पोछे देख रहा है कि भोजन किया जा रहा है ओर में अलग खड़ा हूँ तो भोजन सिर्फ शरीर में जा रहा है । पीछे अछूता कोई बड़ा है जिसको कुछ भी नहीं छू सकता, जो सिर्फ देख रहा है, जो सिर्फ द्रष्टा है भोजन किए जाने का । अब ध्यान रखिए भोजन शरीर में जा रहा है और मैथुन में शरीर से कुछ बाहर जा रहा है । उसका भी साक्षी हुआ जा सकता है । साक्षी तो किसी भी क्रिया का हुआ जा सकता है, चाहे वह अन्तर्गामी हो चाहे बहिर्गामी । असल में जो भोजन शरीर में जा रहा है, वही मैथुन में शरीर से बाहर जा रहा है। भोजन में क्या जा रहा है भीतर ? उसी का सारभूत फिर मैथुन से बाहर जा रहा है। लेकिन यह Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन४ ११३ जा रहा है शरीर में, वह आ रहा है शरीर से । अगर चेतना साक्षी हो सके तो बात समाप्त हो गई है। तब नदी से गुजर सकते हो ऐसे कि पाँव न भीगें । नदी से गुजरोगे तो पांव भीग हो जाएंगे। लेकिन बिल्कुल ऐसे जैसे पाँव न भीगें : अगर पीछे कोई साक्षी रह गया है तो बात खत्म हो गई है। गहरे में प्रश्न सातिभाव का है । सिर्फ और कुछ नहीं । फिर कौन सी क्रिया है, इससे कोई सम्बन्ध नहीं । जैसे ही क्रिया के साक्षी हुए कर्ता मिट गया । कर्ता मिटा कि कर्म मिट गया । क्रिया रह गई सिर्फ । अब यह क्रिया हजारों कारणों से उद्भूत हो सकती है । वह जो तुम कहते हो सन्तति है उसके पैदा करने में कोई वासना न हो । सच तो यह है कि जब ऐसी सन्तति पैदा हो जिसमें कोई वासना न हो तब केवल शरीर एक उपकरण बना है एक क्रिया का । इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हुआ है | चेतना उपकरण नहीं बन सकती । लेकिन साधारणतः आदमी मैथुन में बिल्कुल खो जाता है । होश रह ही नहीं पाता । बेहोश हो जाता है । तब केवल शरीर हो उपकरण नहीं बनता, भीतर आत्मा सो गई होती है, मूच्छित हो गई होती है । और मैथुन का जो विरोध है वह केवल इसीलिए है कि आत्मा की मूर्च्छा सर्वाधिक मैथुन में होती है । अगर वहाँ आत्मा अमूच्छित रह जाए तो बात खत्म हो गई । कोई बात न रही। और प्रश्न भोजन का नहीं। वह भी एक क्रिया है । किसी भी क्रिया में, जैसे अभी तुम मुझे सुन रहे हो, सुनना भी एक क्रिया है, अगर तुम साक्षी हो जाओ तो तुम पाओगे कि सुना भी जा रहा है और तुम दूर खड़े होकर सुनने को देख भी रहे हो ! नहीं चल रहा जैसे मैं बोल रहा हूँ और मैं साक्षी है। मैं बोल भी रहा हूँ और पूरे वक्त मैं जानता हूँ कि मेरे भीतर प्रबोसा भी कोई खड़ा हुआ है। और असल में जो अबोला खड़ा है वही मैं हूँ। जो बोला जा रहा है, वह उपकरण है वह साधन है । वह मैं नहीं है । चल रहे हो रास्ते पर और अगर जाग जाओ तो तुम पाओगे कि चल भी रहे हो, कुछ भीतर प्रचल भी खड़ा है जो है, जो कभी चला ही नहीं, जो चल ही नहीं सकता है । और क्रिया में तुम पूरे जाग गए हो तो तुम पाते हो कि चलने की और भीतर कोई अचल भी खड़ा है। और इस अचल का तुम किसी दिन कह सकते हो कि मैं कभी चला ही नहीं । तुम्हें चलते देखा होगा और रिकार्ड होंगे तुम्हारे चलने के तुम्हारे चलने के कि तुम चले थे, यह रहा फोटोग्राफ, और अदालत निर्णय देगी और हजारों लोगों ने और फोटोग्राफ होंगे अगर चलने की क्रिया हो रही है बोध हो जाए तो Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ महावीर : मेरी दृष्टि में कि हाँ तुम चले थे। लेकिन, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । तुम कहोगे कि वह सिर्फ दिखाई पड़ा था तुम्हें कि हम चले थे । लेकिन भीतर में अचल था । कोई नहीं चला था । 1 • कोन सी क्रिया है यह सबाल नहीं है महत्त्वपूर्ण । यदि क्रिया के भीतर तुम जागे हुए हो तो तुम क्रिया से भिन्न हो गए। और तब क्रिया जगत् के इस जाल का एक हिस्सा हो गई । जैसे स्वांस चल रही है और अगर तुम देख रहे हो वो स्वांस का चलना या न चलना जगत् की विराट् व्यवस्था का हिस्सा हो गया और तुम बिल्कुल बाहर होकर देखने लगे कि स्वांस चल रही है । जैसे तुमने सूरज को उपते डूबते देखा । सूरज दूर है। फर्क इतना ही है स्वाँस जरा पास वह देह तुमसे थोड़ी दूर है। लेकिन चलती है । एक पक्षी मैथुन कर रहा है । उसको मैथुन करते देखकर यह तो नहीं कहते कि मैं कहते हो : मैं देख रहा हूँ । पक्षी मैथुन करता हैं। तल पर जिस दिन चेतना सम्पूर्ण रूप से साक्षी हो बड़े पक्षी से ज्यादा अर्थ का नहीं रह जाता और तुम कह सकते हो - शरीर से हो रहा है। इमें। कठिन इसलिए कि हम मैथुन में निरन्तर मूच्छित हुए हैं, सब चीजों में मूच्छित हुए हैं । । . मैथुन कर रहा हूँ । तुम तुम बाहर हो गए । एक जाती है, यह शरीर दूर उतना ही फासला हो जाता है । समझना कठिन मालूम पड़ता है मूच्छित हुए हैं, भोजन में ८ ; गुरजीएफ एक फकीर था । उसका काम था कि लोग उसके पास आएं 1 बहुत अद्भुत था वह व्यक्ति । इसी सदी में थोड़े से जानने वाले दो चार लोग जो हैं, उनमें से एक आदमी था वह। लोगों को ऐसी चीजें सिखाता कि तुम सोच ही नहीं सकते । लोगों से कहता तुम क्रोध करो। वह ऐसा अवसर पैदा कर देता कि उसको क्रीध आ जाए। जैसे कि आप आए हो तो वह ऐसे उपद्रव खड़े करवा देगा आपके चारों तरफ कि आप क्रोधित हो जाओ और आप चिल्लाने लगो, आग-बबूला हो जाओ, सारा इन्तजाम होगा कि आप को आग-बबूला किया जाए। और फिर वह एकदम से कहेगा-देखो, क्या हो रहा है और तुम चौंक गए हो । आँखें लाल हैं, हाथ कांप रहे हैं । और तुम हँसने लगे हो । तुम्हारा हाथ जब भी कांप रहा है और आंखें लाल हैं । तुम्हारे होंठ फड़क रहे हैं, तुम्हारा मन किसी को गर्दन दबा देने को है । और उसने कहा कि देखो । और तुम्हें याद ना गया कि उसने क्रोध का इन्तजाम करवाया था पूरा का पूरा । अब तुमने देखा और तुम एक क्षण में अलग हो गए, क्रोध अलग हो गया और तुम एक क्षरण में अलग खड़े हो गए। तब सब शान्त हो गया है भीतर । मगर Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन४ शरीर अब भी कांप रहा है। जैसे कभी तुमने रात सपना देखा हो, डर गए हो, नींद खुल गई, और सपना टूट गया और अब तुम जानते हो, अब तुम हँसते हो कि वह सपना था । फिर भी हाथ कांप रहे हैं, फिर भी स्वांस धड़क रही है और अभी डर मौजूद है । और तुम जानते हो कि अब तुम जग गए हो और वह सपना था सिर्फ । लेकिन सपने का प्रभाव इतनी जल्दी थोड़े ही चला जाएगा । शरीर को वक्त लगेगा शांत होने में । वह सब तरह के उपाय करता और लोगों को उन उपायों के बीच में कहता कि जागो ! और अगर उस वक्त सुनाई पड़ जाए बात तो अभी आदमी जाग जाए । ११५ तन्त्र ने इसके उपाय किए बहुत । नग्न स्त्री को सामने बिठाया हुआ है । साधक उसको देख रहा है और खोता चला जा रहा है। आँखों में उसके सम्मोहन आता चला जा रहा है, वह भूला चला जाता है, कभी कोई चिल्लाता है कि जागो और वह एक क्षण में जाग कर देखता है और अब शिथिल हो गया । नग्न स्त्री सामने रहती है चित्रवत् । उसका कांपता हुआ मन और शरीर रह गया है । दूर और भीतर कोई जाग गया है और देख रहा है। वह हँसता है कि क्या पागलपन था ? वह सारी व्यवस्था किसी भी क्षण जागने में उपयोगी हो सकती है । ऐसी कोई क्रिया नहीं है जिसमें न जागा जा सके । हाँ मैथुन सर्वाधिक कठिन है । उसका कारण है कि मैथुन ऐसी क्रिया है जो मनुष्य के ऊपर प्रकृति ने नहीं छोड़ी। अगर छोड़ दी जाए तो शायद कोई पुरुष कोई स्त्री कभी मैथुन करने को राजी न हो । अगर मनुष्य पर छोड़ दी जाए तो कोई कभी भी राजी न हो क्योंकि ऐसी एब्सर्ड, ऐसी व्यर्थ, ऐसी वेमानी क्रिया है । तो प्रकृति ने उसके लिए बहुत गहरी हिप्नोसिस डाली है भीतर । इतना गहरा सम्मोहन और इतनी गहरी मूर्च्छा डाली है कि उसी प्रभाव में ही कोई कर सकता है; नहीं तो कर नहीं सकता। मुश्किल पड़ जाय । वह मूर्च्छा बहुत गहरी है। मैं इस पर बहुत प्रयोग करता रहा और बड़े हैरानी के अनुभव हुए। एक युवक मेरे पास था जिससे मैंने वर्षो सम्मोहन के प्रयोग किए । उसको मैंने संमोहित करके बेहोश किया है। पास में एक तकिया पड़ा है। -बेहोशी में कहता हूँ कि उठने के पन्द्रह मिनट बाद तू इस तकिए को चूमना चाहेगा । कोई उपाय नहीं कि तू इसको चूमने से रुक जाए । तुझे इसे चूमना • हो पड़ेगा। अब उसे होश वापस लौटा दिया है । वह होश में आ गया है। अब और उससे मैं . Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ महावीर : मेरी दृष्टि में वह बैठा है। और सब लोगों को पता है । पन्द्रह लोग वहां बैठे हैं, सबको पता है। अब वह लड़का बार-बार चोरी से उस तकिए को देखता है जैसे कोई किसी स्त्री को देखता है। अब वे पन्द्रह लोग जाकर उसको देख रहे हैं कि क्या मामला है ? वह कभी मौका मिल जाए तो चुपचाप उसे छू लेता है। उसके मन में इतनी गहरी हिप्नोसिस, सम्मोहन है कि तकिए ने एक कामुकता का अर्थ ले लिया है । वह खुद भी संकोच कर रहा है कि यह क्या पागलपन है कि वह तकिए को देखे । लेकिन अब उसका भीतर पूरा मन तकिए की तरफ डोला चला जा रहा है। अब तकिया यहाँ रखा है और वह वहाँ बैठा है। वह किसी भी बहाने यहां पास आकर बैठ गया है। बहाना बिल्कुल दूसरा है। क्योंकि तकिए के पास आकर बैठने के लिए वह कैसे कह सकता है ? वह कहता है कि मुझे वहाँ से सुनाई नहीं पड़ता है तो मैं ठीक से आप के पास आकर बैठ जाता हूँ। मैंने तकिया उठा कर इस तरफ रख लिया है वह इधर तकिए के पास आकर बैक गया है। अब वह बड़ा बेचैन है। वह कहता है कि अब वहां जरा दीवार से. टिक कर बैठना मुझे ठीक होगा। वह आकर दीवार से टिक कर बैठ गया है । वह तकिए की तलाश में है। मैंने तकिया उठा कर आलमारी में बंद कर दिया है। पन्द्रह मिनट अब पूरे हुए जाते हैं और वह बेचैन है, बिल्कुल तड़फ रहा है। और कहता है चावी दीजिए उस आलमारी में मेरा फाउन्टेनपेन रखा हुआ है। तकिए के लिए अब वह कैसे कहे ? वह खुद भी नहीं सोच पा रहा है कि तकिए के लिए मैं कैसे कहूँ। हम सब बैठे हैं । उसको चाबी दे दी गई है । उसने जाकर ताला खोला है । वह सब तरफ देख रहा है । फाउन्टेनपेन उठाता है और झुक कर तकिए को चूम लेता है। और एकदम मुक्त हो जाता है। अब उससे पूछते हैं तुम यह क्या करते हो। वह एकदम रोने लगता है और कहता है कि मेरी समझ के बाहर है कि मैं क्या कर रहा हूँ लेकिन वह परेशान है। उस तकिए से मेरा क्या हो गया है। लेकिन मैं उसको चूम कर बड़ा हल्का हो गया हूँ। तकिए के प्रति एक यह हालत पैदा की जा सकती है। किसी भी चीज के प्रति हिप्नोसिस की जा सकती है। प्रकृति ने मैथुन के साथ एक हिप्नोसिस डाली हुई है, एक सम्मोहन मला हुआ है उसी सम्मोहन के प्रभाव में सारा खेल चलता है। इसलिए बादमी बिल्कुल अपने को विवश पाता है। जब एक सुन्दर चेहरा उसे खींचता है तो वह अपनी सामर्थ्य में, होश में नहीं है, बिल्कुल बेहोश है। इस सम्मोहन (हिप्नोसिस) को तोल जाए और इसको तोड़ने की विधियाँ हैं । और सबसे बड़ी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ ११७ विधि साक्षी होना है तो सम्मोहन एकदम टूट जाता है, कट जाता है। अगर सम्मोहन कट जाता है तो महावीर जैसे व्यक्ति को स्त्री में कोई आकर्षण नहीं है, कोई अर्थ नहीं है लेकिन स्त्री को हो सकता है अर्थ और आकर्षण । महावीरको पिता बनने में कोई अर्थ और आकर्षण नहीं लेकिन स्त्री को हो सकता है अर्थ और आकर्षण । और महावीर बिल्कुल-निरपेक्ष द्रष्टा ( पैसिव आनलुकर ) की तरह हैं । मैथुन से भी गुजर सकते हैं। इसमें कोई कठिनाई नहीं। एक दफा सम्मोहन (हिप्नोसिस ) टूट जाए बस तब किसी भी क्रिया से आदमी देखता हुमा गुजर सकता है। और जिस दिन मैथुन से कोई देखता हुआ गुजर जाता है, उसी दिन मैथुन से मुक्त हो जाता है। फिर मैथुन में कोई मतलब न रहा क्योंकि हिप्नोसिस पूरी तरह टूट गई है। लेकिन ऐसा व्यक्ति इन्कार करने का भी कोई कारण नहीं मानता। क्योंकि ऐसे व्यक्ति को इन्कार करने में भी कोई . अर्थ नहीं है। जैसे कि उस युवक से कहो कि तुम तकिए को चूमना चाहते हो तो वह कहेगा-नहीं ! "मैं नहीं चूमना चाहता।" क्योंकि अब शर्म मालूम पड़ती है कि तकिए को चूमूं। वह इन्कार करेगा। हो सकता है वह कसम खा ले भगवान् की कि मैं तकिए को कभी नहीं चूमूंगा। लेकिन, तकिए के प्रति उसका पागलपन जारी है। इस कसम में भी वह छिपा है। इसलिए ब्रह्मचर्य काम से छूट आना नहीं है, काम से जाग जाना है। तब हम कृष्ण जैसे व्यक्ति को भी ब्रह्मचारी कहते हैं-'ब्रह्मचर्य को उपलब्ध है वह और अद्भुत है वह ।' प्रकृति ने, सन्तति जारी रहे इसलिए, बहुत गहरी मूर्छा डाली है । लगता हमें कठिन है लेकिन कुछ भी कठिन नहीं है; साक्षी के लिए कुछ भी कठिन नहीं है। इसलिए मैंने ऐसा कहा कि महावीर की पत्नी है लेकिन वे अविवाहित है। महावीर को पुत्री हुई है लेकिन वे निःसन्तान हैं । हमें ये दोनों बातें बड़ी सरलता से समझ में आ जाती है। स्त्री से भागता हुआ आदमी भी समझ में आ जाता है; स्त्री की तरफ भागता हुआ आदमी भी समझ में आ जाता है । स्त्री की तरफ मुंह किये समझ में आ जाता है ? स्त्री की तरफ पीठ किये समझ में आ जाता है। कृष्ण और गोपियों को देखें। कृष्ण की उपलब्धि बहुत अद्भुत है। कितनी हजार स्त्रियां उसे घेरे हुए हैं। उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह एक लीला है, एक खेल है और कृष्ण पूरे वक्त जागा हुआ है। उससे कोई मतलब नहीं है । जीवन में जीना है तो दो रास्ते हैं । सोकर जियो; तो भोजन भी सोकर करोगे तुम नींद में। कपड़े भी सोए हुए पहनोगे, प्रेम भी सोए हुए करोगे, सेक्स में भी सोए हुए गुजरोगे। दूसरा एक रास्ता है-जागे हए । प्रत्येक क्रिया जागे हुए Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ महावीर : मेरी दृष्टि में करो । सेक्स सर्वाधिक गहरी है क्योंकि बाइलोजी ( जीवविज्ञान ) और पूरी प्रकृति उसमें उत्सुक है । लेकिन ऐसा व्यक्ति जिसके लिए स्त्री ही मिट गई है, चुपचाप खड़ा आदमी, हमें समझ में बहुत मुश्किल से आता है । न, भागता है, न उत्सुक हैं, न स्त्री के प्रति उन्मुख है, न स्त्री से विमुख है । न राग में है, न विराग में है इसलिए महावीर के लिए जो शब्द इस्तेमाल हुआ है वीतराग, बड़ा अद्भुत है । वीतराग का मतलब है- राग से मुक्त । न विराग है न राग । राग और विराग एक ही सिक्के के दो पहलू हैं कि एक व्यक्ति राग की दुश्मनी में विरागी हो जाए; विराग की दुश्मनी में रागी हो जाए। लेकिन वीतरागी का मतलब है जिसका राग-विराग गया, जो सहज खड़ा रह गया; न भागता है, न आता है, न बुलाता है, न भयभीत है । वीतराग का मतलब ही यह है कि जहाँ न राग है, न विराग है; और महावीर के पीछे चलने वाला जो साधक है वह राग से विराग को पकड़ता है । राग को बदलता है विराग में । विरागी सिर्फ उल्टा रागी है - शीर्षासन करता हुआ रागी । सिर्फ सिर के बल पर खड़ा हो गया है । रागी कहता है - स्पर्श करूँगा, प्रेम करूंगा, जिऊँगा । विरागी कहती है- स्पर्श नहीं करूँगा, प्रेम नहीं करूंगा, है, खतरा है बंध जाने का । एक बंधने को आतुर है, है । लेकिन, बंधन दोनों के केन्द्र में हैं। दोनों की नजरों में बंधन हैं । इसलिए जिऊँगा भी नहीं । भय एक बंधने से भयभीत राग विरागी की पूजा करने निकल जाएँगे । क्योंकि, वीतरागी, जो हमारी पड़ जाता है एकदम । तराजू के तराजू के उस पल्ले पर रखो तब तोल कहाँ ? राग एक पलड़ा सकती है । लेकिन वीतराग महावीर को सताए जाने का वीतरागी को पहचानना बहुत मुश्किल हैं। कंटेगरीज हैं-नाप जोख हैं— उनके बाहर इस पल्लू पर रखो तब भी तोल हो जाती है, भी तोल हो जाती है । तराजू से उतर जाओ तो है, विराग दूसरा पलड़ा है । दोनों पर तोल हो की तोल क्या होगी ? वीतराग को कैसे तोलोमे ? जो लम्बा उपक्रम है उसमें वीतरागता कारण है ? विरागी को इस मुल्क ने कभी नहीं सताया, यह ध्यान में रहे। महावीर के जमाने में कोई विरागियों की कमी नहीं रही । विरागी का सदा आदर रहा है । विरागी को कभी नहीं सताया किसी ने क्योंकि रागी विरागी को कभी सत्ता ही नहीं सकते - रागी सदा विरागी को पूजते हैं क्योंकि रागी को लगता है कि मैं कैसी गंदगी में उलझा हूँ लेकिन विरागी कैसा मुक्त हो गया है सारी गंदगी से । लेकिन वीतरागी को दोनों सताते हैं-रागी भी ओर विरागी भी; क्योंकि रागी को लगता है कि यह आदमी Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ४ ११६ कैसा है ? विरागी को लगता है कि यह सब तोड़े जा रहा है, सब नष्ट किए जा रहा है । महावीर को दो तरह के दुश्मन सता रहे हैं । एक जो रागी हैं, सता रहे हैं, पत्थर मार रहे हैं । वे कह रहे हैं यह आदमी विरागी ही नहीं है । एक विरागी भी सता रहा है। वह कह रहा है यह आदमी कैसा विरागी है । वीतरागी को पहचानना ही मुश्किल है । द्वन्द्व को हम पहचान सकते हैं, निर्द्वन्द्र को नहीं । द्वैत को हम पहचान सकते हैं, अद्वैत को नहीं । और महावीर की पूरी वृत्ति वीतराग की है, पूरा भाव वीतराग का है । और प्रत्येक स्थिति में, क्योंकि वीतरागी के लिए स्थिति का सवाल नहीं है । स्थिति को रागी कहता है - ऐसी स्थिति चाहिए और विरागी कहता है-ऐसी स्थिति चाहिए । रागी कहता है - स्त्री हो, धन हो, पैसा हो, यह सब होना चाहिए । इसके बिना मैं जी नहीं सकता । विरागी कहता है-स्त्री न हो, धन न हो, पैसा न हो, इसके साथ मैं जी नहीं सकता। यानी जीने की दोनों को कन्डीशन है, शर्त हैं। एक की शर्त ऐसी है, एक की शर्त वैसी है । लेकिन दोनों का जीना कन्डीशन है, बाशर्त है । वीतरागी कहता है- जो हो सो हो ! उसे कुछ लेनादेना नहीं है । वह अछूता खड़ा है । - • जो आदमी अछूता होगा वह बेशर्त होगा और बेशर्त आदमी को पहचानना बहुत मुश्किल हो जाएगा। इसलिए महावीर का जमाना महावीर को बिल्कुल नहीं पहचान पाया । बहुत मुश्किल था पहचानना । निरन्तर यातना दी जा रही है; निरन्तर सताया जा रहा है । उस आदमी को हम सतायेंगे ही जो हमारे सब मापदण्डों से अलग खड़ा हो जाए; जिससे हम तोल न कर सकें, लेबिल न लगा सकें कि यह है कौन ! लेबिल लगा देने से हमें सुविधा हो जाती है । एक लेबिल लगा दिया है कि यह आदमी फलाँ है । फिर हम लेबिल के साथ व्यवहार करते हैं, आदमी के साथ नहीं । पक्का पता लगा लिया कि यह आदमी संन्यासी है, लिख दिया संन्यासी है । फिर संन्यासी के साथ जो करना है, वह हम इसके हाथ करते हैं । लिख दिया रागी है तो जो रागो के साथ करना है, वह हम इसके साथ करते हैं । लेकिन एक आदमी ऐसा है जिस पर लेविल लगाना मुश्किल है कि यह कौन है । • • महावीर वर्षों तक इस हालत में घूमें हैं कि लोग पूछ रहे हैं कि यह है कोन, यह आदमी कैसा है और महावीर कोई उत्तर नहीं दे रहे हैं । महावीर Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० । । महावीर : मेरी दृष्टि में मौन है । क्योंकि है कोन, इसका क्या उत्तर देना? कोई लेबिल होता तो उत्तर दे देते। महावीर निरन्तर मौन है। लोग जो कहते हैं वह चुपचाप खड़े हैं, सब सह लेते हैं। गांव के पास खड़े हैं । गाय चराने वाला अपनी गाय और बैल को उनके पास छोड़ जाता है और कहता है-जरा देखना, मैं अभी लोटकर आता है। मेरी कोई गाय खो गई है। वह यह भी नहीं कहते कि मैं नहीं देचूंगा । इतना कह दें तो मामला खत्म हो जाए । वह यह भी नहीं कहते कि मैं देखूगा। इतना कह दें तो बात खत्म हो जाए । वह आदमी एक लेबिल लगा ले झंझट के बाहर हो जाए। महावीर खड़े रहते हैं जैसे कि सुना अनसुना किया, जैसे प्रश्न पूछा नहीं गया। ऐसे खड़े रहते हैं। वह आदमी चला गया है खोजने । वह शाम होते-होते खोजकर लौट आता है। गाय और बैल जो पीछे महावीर के पास छोड़ गया था, उठकर जंगल में चले गए है । उस आदमी ने पूछा कि गाय-बैल कहां हैं ? तब भी वह वैसे ही खड़े हैं क्योंकि आने-जाने का हिसाब ही नहीं रखते वह कुछ । वह वैसे ही खड़े हैं। वह कहता है कि तुमने उसी वक्त क्यों नहीं कह दिया था तब भी वह वैसे ही खड़े हैं । तब वह आदमी समझता है कि इसने चुरा लिये हैं, इसने कहीं छुपा दिए हैं। यह आदमी बेईमान है: वह मारपीट करता है। वह मारपीट को भी सह रहे हैं फिर भी वैसे खड़े है। लेकिन थोड़ी देर में वह गाय बैल लौट आए हैं जंगल के बाहर। -सांस होने लगी है; धूप दब गई तो वापस लोट पड़े। वह आदमी बहुत दुखी होता है । वह क्षमा मांगता है। तब भी वह वैसे ही खड़े है । यह आदमी कोई शर्त में नहीं, कोई लेबिल में नहीं; जो हो रहा है, उसमें वैसा ही बड़ा है, अजेय है। बद्भुत घटना है। जो भी हो रहा है, कुछ भी हो रहा है जैसे इसे मतलब ही नहीं कि क्या हो रहा है । यह हर हालत में वैसा ही खड़ा है और सब चीजों को देख रहा है । इस व्यक्ति को समझने में बड़ी कठिनाई है। पीछे, जिन्होंने शास्त्र लिखे, उन्होंने कहा : महावीर बड़े क्षमावान् हैं; उन्होंने क्षमा कर दिया है। कोई मारता है तो उसे क्षमा कर देते हैं। मगर समझ ही नहीं पाए लोग । क्षमा वही करता है जो क्रोधित होता है। क्षमा, क्रोष के बाद का हिस्सा है । जो महावीर को क्षमावान् कहता है, वह महावीर को समझता ही नहीं। महावीर को क्रोष ही नहीं उठता, चमा कौन करेगा, किसको करेगा ? महावीर देख रहे हैं। वे ऐसा ही देख रहे हैं कि इस आदमी ने ऐसा-ऐसा किया है। पहले मारा; फिर पमा मांगो । देख रहे हैं, ऐसा-ऐसा हुबा । और बड़े है चुपचाप और सब देख रहे हैं। उसमें कोई चुनाव भी नहीं Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१ नहीं होना था। ऐसे निरन्तर कि वह चुनाव के बाहर हो गए हैं, अच्छे-बुरे इसके बाहर हो गए हैं। यह वीतसम्भव है। जीवन की यात्रा में जो कर रहे हैं कि ऐसा होना था और ऐसा राग और विरान के बाहर हो गए हैं, के बाहर हो गए हैं, कौन क्या कहता है, रागता परम उपलब्धि है जो जीवन में परम बिन्दु है वह वीतरागता है। वह जीवन का अन्तिम बिन्दु है क्योंकि उसके बाद फिर मुक्ति की यात्रा शुरू हो जाती है । वीतराग हुए बिना कोई मुक्त नहीं होता । रागी मुक्त नहीं हो सकता । विरागी मुक्त नहीं हो सकता । दोनों बंधे हैं । लेकिन हम जो समझते नहीं है, वीतराग का मतलब विरागी कहते हैं जो कि राग से छूट गया है । नहीं, विराग राग ही है, सिर्फ उल्टा राग है जो राग से छूट गया है। रंग । विराग का राग शब्द बड़ा अच्छा है । राग का मतलब होता है मतलब होता है उससे उल्टा । हमारी आँखें हमेशा रंगी हैं, कुछ रंग है आँख पर । उस रंग से ही हम देखते हैं। चीजें हमें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जो हमारा रंग होता है आंख का । चीजें वैसी नहीं दिखाई पड़ती जैसी वे हैं । रंगी आंख कभी सत्य को नहीं देख सकती हैं। अब एक रागी है। उसे राह जाती दिखाई पड़ती है तो लगता स्वर्ग है । स्त्री सिर्फ स्त्री है। लगता है स्वर्ग है । विरागी बैठा है वहीं पर । उसको लगता है नरक जा रहा है; आँख बन्द करो । स्त्री सिर्फ स्त्री है । विरागी को दिखता है नरक जा रहा है । आँख बन्द करो। इसलिए लिखता है अपनी किताबों में ने एक स्त्री है रागी को स्त्री नरक का द्वार है, और रागी लिखता है कि स्त्री स्वर्ग है; वही मुक्ति है, वही आनन्द है । स्त्रियाँ सोचेंगी कि यह ऐसे ही लिख रहे हैं । रागी स्त्री को स्वर्ग बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर । विरागी स्त्री को नरक बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर । वीतरागी खड़ा रह जाता है । स्त्री - स्त्री है। वह अपने रास्ते जाती है, मैं अपनी जगह खड़ा हूँ । न वह स्वर्ग है, न वह नरक है । वह उसके बाबत कोई निष्कर्ष नहीं लेता क्योंकि उसकी आंखों में कोई रंग नहीं है, रंगमुक्त है वह । इसलिए जो-जो जैसा जैसा है, वैसा-वैसा उसे दिखाई पड़ता है। बात खत्म हो जाती है । वह कुछ भी अपनी तरफ से नहीं डालता । न वह कहता है सुन्दर किसी को; न वह कहता है असुन्दर । क्योंकि सुन्दर और असुन्दर हमारे रंग हैं, जो हम थोपते हैं। चीजें सिर्फ चीजें हैं। न तो कुछ सुन्दर है, न कुछ असुन्दर है । हमारा भाव है जो हम उसमें डाल देते हैं । • Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि मैं अब जैसे देखिए कि आज सुशिक्षित और सुरुचिपूर्ण घर में कैक्टस लगा हुआ है। हां, कांटे वाले पौधे हैं, मरुस्थल में उगने वाले । गाँव के बाहर लगते थे धतूरा, नागफनी । वे आज के घर के बैठक खाने में लगे हुए हैं। आज से सो साल पहले अगर उन्हें कोई बैठकखाने में ले आता तो उस आदमी को हम पागलखाने ले गए होते कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। क्या नागफनी घर में लगाने की चीज है ? लेकिन गुलाब एकदम बहिष्कृत हो गया है । नागफनी आ गई है उसकी जगह । सुशिक्षित आदमी के घर में नागफनी लगी हुई है, क्या हो गया ? नागफनी एकदम सुन्दर हो गई। जो कभी सुन्दर न थी, जो कुरूपता का साकार रूप थी सदा; वह आजकल एकदम सौन्दर्य की अनुभूति बन गई | क्या हो गया ? रंग बदल गए; एकदम रंग बदल गए । और हर बार हम रंग से ऊब जाते हैं, तो बदल देते हैं क्योंकि एक ही रंग को देखते-देखते ऊब हो जाती है। गुलाब को हजार साल तक सुन्दर-सुन्दर कहते हुए ऊब हो गई । तो छोड़ो। इसको बाहर करो। इसको घर से बाहर करो । ब्राह्मण को आदर देते बहुत ऊब हो गई तो अब शूद्र को बिठाओ । नागफनी शूद्र थी बहुत दिनों तक, अब एकदम ब्राह्मण हो गई । नागफनी गाँव के बाहर रहती थी जैसे शूद्र रहता था अब वह एकदम से अभिजात्य हो गई, घर के भीतर आ गई । १२२ ऊब सदा अति पर ले जाती है। जब हम एक चीज से ऊबते हैं तो ठीक उससे उल्टी चीज पर चले जाते हैं । जो आदमी नाच-गाने से ऊब जाएगा, खाने से ऊब जाएगा, उपवास करने लगेगा । कपड़ों से ऊब जाएगा, त्याग करने लगेगा | धन से ऊब जाएगा, धर्म की तरफ चला जाएगा । मधुशाला से ऊबेगा; मन्दिर जाएगा । मन्दिर से ऊबा आदमी मधुशाला की खोज में निकलता हैं । जहाँ से हम ऊबते हैं, उल्टे हो जाते हैं । राग से ऊनते हैं तो विराग पकड़ लेता है । विराग से ऊब जाते हैं तो राग पकड़ने लगता है । और अगर हम रागियों और विरागियों के मस्तिष्क को खोलकर देखें तो हमें बड़ी हैरानी होगी कि उसके भीतर हमें उल्टे आदमी मिलेंगे । रागी के भीतर निरन्तर विरागी होने का भाव मिलेगा, बुरी से बुरी स्थिति में भी । इसलिए रागी विरागी की पूजा करते हैं वह उनका गहरा भाव है । वह भी होना चाहते हैं यही । और विरागी के भीतर अगर हम झांकें तो रागी के प्रति ईर्ष्या मिलेगी । जैसे रागो के मन में विरागी के प्रति आदर मिलेगा । इसलिए विरागी निरन्तर रागियों को गाली दे रहा है । वह गाली ईर्ष्याजन्य है । उसके भी मन में यही कामना है । जो-जो उसकी कामना है, उस उसके लिए वह रागी को गाली दे रहा है कि तुम यह यह पाप . Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ . . १२३ कर रहे हो । नरक में सड़ोगे। वह कर रहा है, धमका रहा है। लेकिन भीतर उसके कामना वही है। मुझे बड़े-से-बड़े साध मिलते हैं जो सामने आत्मा-परमात्मा की बात करते हैं। एकान्त में सिवाय सेक्स के दूसरी बात ही उनके चित्त में नहीं होती। और बड़े घबड़ाते हैं कैसे इससे छुटकारा हो और कहते हैं कि बस यही घेरे हुए है । चौबीस घंटे परमात्मा की और मोक्ष की चर्चा चल रही है। लेकिन भीतर वासना का दौर चल रहा है पूरे वक्त। और यह हो सकता है कि मधुशाला, वेश्या के घर में बैठा हुआ एक आदमी कई बार संन्यासी हो जाता है मन में कि छोड़ो सब बेकार है। उल्टा खींचता रहता है। रागी विरागी हो जाता है और विरागी रागी हो जाता है। जो इस जन्म में रागी है, अगले जन्म में विरागी हो जाए; जो इस जन्म में विरागी है वह अगले जन्म में रागी हो जाए। यह जानकर मैं बहुत हैरान हुआ हूँ। इधर कुछ बहुत से गहरे प्रयोगों ने कुछ अजीब से नतीजे दिए हैं जो चौंकाने वाले हैं। जैसे कि एक आदमी है जो. बिल्कुल ही राग-रंग में पड़ा हुआ है, उसके पिछले जन्म में उतरने की कोशिश करो तो तुम दंग रह जाओगे कि वह संन्यासी रह चुका है। और संन्यासी रहते वक्त उसने इतना विरोध पाल लिया है संन्यासी होने से कि यह जन्म उसका रागी का हो गया है । एक स्त्री मेरे पास आती थी और उसे बड़ा आतुरता थी कि किसी तरह पिछले जन्म में वह उतर जाए। मैंने उससे बहुत कहा कि यह आतुरता छोड़ दो क्योंकि इसमें कठिनाइयां पड़ सकती हैं। उसको बड़ा समी-साध्वी होने का ख्याल था। और उसे उसका इतना भाव पकड़ा कि मुझे शा ही था कि पिछले जन्म में वन वेश्या रह चुकी होनी चाहिए । नहीं तो इतने जोर से सती-साध्वी होने का भाव नहीं पकड़ता है । वह जिससे ऊब गई है, वह ना जन्म को शुरूआत बन जाती है। फिर भी वह नहीं मानो । मैंने कहा कि ठीक है, तू प्रयोग कर। वह छः महीने तक पिछले जीवन में उतरने का, जातिस्मरण का प्रयोग करती रही । एक दिन आकर एकदम चिल्लाने-रोने लगी कि मुझे किसी तरह भुलाओ क्योंकि मैं दक्खिन के किसी मन्दिर में देवदासी थी, वेश्या थी। और मैं इसको भूलना चाहती हूँ। मैं इसे याद ही नही करना चाहती कि ऐसा कभी हुआ। मैंने कहा जो याद आ गया उसको भूलना मुश्किल है। इसलिए प्रकृति ने सारी व्यवस्था की है कि पिछला जन्म आपको याद न आए क्योंकि पिछले जन्म में आप निरन्तर रूप से उल्टे रहे होंगे। आम तौर से लोग सोचते हैं इस जन्म Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ महावीर : मेरी वृष्टि में में जो संन्यासी है, उसने पिछले जन्म में संन्यासी होने का अर्जन किया होगा । ऐसा मामला नहीं है । इस जन्म में जो विरागी है, वह पिछले जन्म में राग के चक्कर में घूमता रहा है। यह फिक्र न करें कि हमें क्या होना है, रागी कि विगी । फिक्र इसकी करें कि हम जो भी हों, उसमें हम जागें । हम कुछ होने की चिन्ता छोड़ दें। वह जो जागना है, वीतरागता में ले जाएगा । और वह वीतरागता बिल्कुल ही भिन्न बात है । इसी सन्दर्भ में यह भी, जैसा कि मैंने जातिस्मररण की बात की, पिछले जन्म के स्मरण की - महावीर की बड़ी बेनों में एक देन है। ये उस तरह की ध्यान-पद्धतियां हैं जिनसे व्यक्ति अपने पिछले जन्मों में उतर जाए। और अगर एक व्यक्ति अपने पिछले जन्मों में उतर जाए और दो चार जन्म भी जान ले तो बहुत हैरान हो जाए। फिर वही वह आदमी नहीं हो सकता जो अभी था क्योंकि वह पाएगा कि यह सब तो मैं बहुत बार कर चुका; इससे उल्टा भी कर चुका मगर कुछ भी नहीं पाया। हर बार जैसे चाक के स्पोक घूम कर फिर अपनी जगह पर आ जाते हैं, ऐसे हो मैं घूमा और अपनी जगह पर आ गया । कई बार लगा चाक को कि ऊपर पहुँच गया हूँ लेकिन जब उसे लग रहा था कि ऊपर पहुँच रहा हूँ तभी नीचे आना शुरू हो गया था। कई बार चाक को air बिल्कुल गिर गया हूँ नरक में तभी ऊपर चढ़ना शुरू हो गया । बहुत बार स्वर्ग छुआ, बहुत बार नरक छुआ; बहुत बार सुख छुआ, बहुत बार दुख छुआ; बहुत बार राग छुआ, बहुत बार विराग छुआ । सब द्वन्द्वों में चक्र घूम चुका है । अगर दस-पांच जीवन स्मरण आ जाएं तो यह सब इतनी बार हो चुका है। कि अब इसमें चुनाव का कोई मतलब नहीं है । : जातिस्मरण का मतलब यही है कि यह द्वन्द्व हम बहुत बार भोग चुके हैं, इन दोनों से हम जाग सके हैं। इन दोनों में चुनाव का कोई उपाय नहीं है । लेकिन, मन का नियम यह है कि जो वह करता है उससे उल्टे को चुनता है । इसलिए संन्यासियों के पास रागियों की भीड़ होती है। जो वह चुनता है, अभी कर रहा है, उसके अनकॉन्शस में, अचेतन में उल्टे का इकट्ठा होना शुरू हो जाता है। जब वह सेक्स में होता है, तब उसको ब्रह्मचर्य की बातें स्थाल में आती है । और जब वह ब्रह्मचर्य साधता है तो सेक्स की बातें ध्यान में आती हैं; जब वह भोजन कर रहा होता है तब वह सोचता है भोजन त्याग कैसे करूं और जब वह भोजन त्याग करता है, तब भोजन का इतनी अद्भुत है हमारे द्वन्द्व में घूमने की व्यवस्था । स्मरण आने लगता है । और हम एक बार एक ही Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रबचन -४ - १२५ जगह होते हैं इसलिए दूसरा हमें आकर्षित करता रहता है उल्टा । अगर दो चार जन्मों का यह स्मरण आ जाए कि हम दोनों तरफ घूम चुके हैं तो फिर तीसरा उपाय है । और वह जो तीसरा उपाय है वही महावीर का उपाय हैवीतरागता का । इन दोनों में कोई अर्थ नहीं तो अब क्या करूं ? अगर भोग नहीं, अगर योग नहीं, तो तीसरा क्या रास्ता है ? तीसरा रास्ता सिर्फ यह है कि दोनों के प्रति जाग जाऊं । तो त्रिकोण बन जाता है । उस त्रिकोण की, त्रिभुज की नीचे की एक रेखा है जिस पर दो द्वन्द्व हैं। इधर राग है, उधर विराग है ? जो इषर होता है वह उधर आ जाता है, जो उधर होता है, वह इधर आना चाहता है । और इन्हीं दोनों के बीच हम घूमते रहते हैं । जो इन दोनों से जागता है, वह जो त्रिभुज का ऊपर का छोर है वहाँ पहुँच जाता है। वह वीतराग है । वह दोनों से पार हो गया है। वह न राग में है, न विराग में है । लेकिन जो राग में खड़ा है, जो विराग खड़ा है, उन दोनों के लिए बेबूझ हो जाता है कि यह आदमी कहाँ है ? क्योंकि हमारे होने की परिभाषा में दो ही बिन्दु हैं राग और विराग । यह आदमी कहां है ? तो इस आदमी को समझना मुश्किल हो जाता है। लेकिन समझने का प्रश्न नहीं है । यह आदमी हम दोनों को समझ पाता है और हम दोनों इस आदमी को बिल्कुल नहीं समझ पाते । में जाति-स्मरण का प्रयोग महावीर की बड़ी से बड़ी देन है । और मैं समझता हूँ उस पर कोई काम नहीं हो सका । असली बात वही है । उस साधना से गुजर करके किसी व्यक्ति को वीतरागता में लाया जा सकता है, किसी भी व्यक्ति को । और जब तक उस साधन से नहीं गुजरता तब तक वह यही होगा कि रागी है तो विरागी हो जाएगा और विरागी है तो रायी हो जाएगा । और यह दोनों एक-से मूढतापूर्ण हैं । इन दोनों को कोई चुनाव का सवाल नहीं है । और हमें रोज दिखाई पड़ता है कि हम विरोधी को अनजाने चुनने लगते हैं । महलों में जो आदमी बैठा हुआ है वह निरन्तर यही कहता है कि झोपड़ी का मजा यहाँ कहाँ है । और ईर्ष्या करता है झोपड़ी के आदमी से, और उसकी नींद और उसकी मौज से । झोपड़ी में जो बैठा है वह पूरे वक्त महल के लिए ईर्ष्यालु है कि जो महल में हो रहा है, वह यहाँ कहाँ; झोपड़ी में मरे जा रहे हैं। झोपड़ी वाला महल की तरफ जा रहा है, महल वाला झोपड़ी की तरफ आ रहा है । बड़े शहर वाला छोटे गाँव की तरफ भाग रहा है, छोटे गांव वाला बड़े शहर की तरफ भाग रहा है। पूरे समय जहां हम हैं, उससे विपरीत की तरफ हम Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ महावीर : मेरी दृष्टि में जा रहे है क्योंकि जहां हम हैं वहीं हम ऊब जाते हैं, वहां हम बोरडम से भर जाते हैं । और जिससे हम ऊब गए हैं उससे उल्टे की तरफ हम जाते हैं । जैसे पूरब भौतिक की तरफ जाएगा क्योंकि वह अध्यात्म से ऊब गया है और पश्चिम अध्यात्म की तरफ आएगा क्योंकि वह भौतिकवाद से ऊब गया है । पश्चिम में इस समय जो चिन्तना है कि क्या है अध्यात्म में, कैसे हम आध्यात्मिक हो जाएं और पूरब की जो कामना है पूरी की पूरी कि कैसे हम वैज्ञानिक हो जाएँ, कैसे धन आए, कैसे समृद्धि आए, कैसे अच्छे मकान, कैसे अच्छी मशीन । पूरब का व्यक्तित्व भौतिकवाद की तरफ जा रहा है। पश्चिम का व्यक्तित्व अध्यात्म की तरफ आ रहा है । व्यक्ति में भी वही होता है, समाज में भी वही होता है, राष्ट्र में भी वही होता है । 'अति' - दूसरी 'अति' हमें पकड़ लेती है । । महावीर कहते हैं कि दोनों 'अतियों' में हम बहुत घूम चुके हैं; दोनों विरोधों में हम बहुत बार घूम चुके हैं । बया कभी हम जागेंगे और उस जगह खड़े हो जाएँगे, जहाँ कोई 'अति' नहीं है, कोई विरोध नहीं है, कोई द्वन्द्व नहीं है । इस स्थिति का नाम वीतरागता है । और यह सभी में है । ध्यान रखिए यह सभी में है । जैसे एक आदमी क्रोध कर रहा है । क्रोध करके आपने कभी ख्याल किया है कि क्रोध करने के बाद आप क्या करते हैं ? आप पछतावा करते हैं । ऐसा आदमी खोजना कठिन हैं, जो क्रोध के बाद पछतावा न करता हो । और अगर मिल जाए तो अद्भुत है क्रोध करके आदमी पछताता है । पछतावा दूसरी "अति' है । क्रोध किया कि पछतावा आया । पछतावे के वक्त आदमी सोचता है कि हम बड़े भले आदमी हैं देखो ! हमने क्रोध कर लिया और हम पछतावा भी कर रहे हैं । क्रोध किया कि क्षमा पीछे आई । विपरीत आता रहेगा सारे जीवन के सब तलों पर । यह कभी आपने ख्याल किया कि जिसको आप प्रेम करेंगे उसके प्रति उसकी घृणा इकट्ठी होने लगती है । फ्रायड ने पहली दफा इस तथ्य की तरफ सूचना दी कि जिसको आप प्रेम करते हैं, उसके प्रति आपकी घृणा इकट्ठी होने लगती है । क्योंकि प्रेम तो आप कर लेते हैं । जब प्रेम से ऊबने लगते हैं तब करेंगे क्या ? और जिस व्यक्ति से आप घृणा करते हैं पूरी, बहुत सम्भावना है कि उसके प्रति आपका प्रेम इकट्ठा होने लगे । एक यहूदी फकीर था । उसने एक किताब लिखी और किताब बड़ी क्रांतिकारी थी । यहूदियों का जो सबसे बड़ा धर्मगुरु था, जो रब्बी था उसके पास उसने वह किताब अपने एक मित्र के हाथ भेंट भेजी कि जाकर रब्बी को मेरी किताब भेंट कर आयो । और उस बहूदी फकीर ने वह बगावती फकीर था Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ १२७ कहा कि सिर्फ इतना ही ख्याल रखना कि जब तुम रब्बी को किताब दो तो रब्बी क्या कहते हैं, क्या करते हैं, उसे जरा ध्यान से देख लेना। तुम्हें कुछ करने की जरूरत नहीं। तुम सिर्फ नोट कर लाना कि उन्होंने क्या कहा, क्या किया, गुस्से में आए, नाराज हुए, किताब फेंको, कैसा चेहरा था, सब खबर ने माना। वह आदमी गया, उसने किताब दी। उसने कहा कि यह फला-फला फकीर ने किताब दी है। रब्बी ने किताब को तो देखा भी नहीं। हाथ में उठाकर दरवाजे के बाहर फेंक दिया और कहा कि भागो यहाँ से । इस तरह की किताबों को छना भी अधर्म और पाप है। रब्बी की औरत पास में बैठी थी। उसने कहा ऐसा क्यों करते हैं। फेंकना ही हो तो वह आदमी चला जाए तो पीछे फेंक सकते हैं। और फिर इतनी हजारों किताबें घर में हैं, एक कोने में. उसको भी रख दें। न पढ़ना हो, न पढ़ें। लेकिन ऐसा क्यों करते हैं ? पर रबी आग-बबूला हो गया, लाल हो गया। उस आदमी ने नमस्कार किया, वापर आया। उस फकीर ने पूछा-क्या हुआ ? कहा कि ऐसा-ऐसा हुआ। रब्बी बड़ा खतरनाक है। उसकी पत्नी बहुत भली है। रब्बी ने किताब बाहर फेंक दी और कहा कि हटो यहाँ से, भाग जाओ यहाँ से वह आग हो गया एकदम । उस फकीर ने पूछा उसकी पत्नी ने जिसको तुम बहुत भली कहते हो क्या किया ? उसने कहा कि किताब को उठा लाओ। उसने नौकर से किताब मंगवा ली और कहा घर में इतनी किताबें हैं, यह भी रखी रहेगी, ऐसा भी क्या ? और फेंकना हो तो पीछे फेंक देना। लेकिन सामने ऐसा क्यों करते हो? तो उस फकीर ने कहा कि रम्बी से अपना कभी मैल हो सकता है । लेकिन उसकी पत्नी से कभी नहीं। 'रब्बी' से अपना मेल हो ही जाएगा। रबी को किताब पढ़नी ही पड़ेगी। वह किताब पढ़ेगा ही। मगर उसकी पत्नी कभी नहीं पढ़ेगी। तब उस आदमी ने पूछा-आप तो उल्टी बात कर रहे हैं। रब्बी बड़ा नाराज था, एकदम आगबबूला हो गया था। फकीर ने कहा वह नाराज हुआ था तो थोड़ी देर में नाराजगी शिथिल होगी; नाराज कोई कितनी देर रहेगा और जब कोई आग में चढ़ जाता है ऊपर तो वापस उसे शांति में लोटना पड़ता है। जब कोई श्रम करता है तब उसे विश्राम करना पड़ता है। जब कोई जागता है उसे सोना पड़ता है। उल्टा जाना ही पड़ता है। रब्बी कितनी देर क्रोध में रहेगा ? माखिर डिग्री नीचे आएगी। शांत होगा; किताब उठाकर लाकर पढ़ेगा। लेकिन उसकी पत्नी ? उससे कोई नाशा नहीं। क्योंकि उसकी कोई डिग्री नहीं । क्रोष में नहीं गई तो क्षमा में भी नहीं लौटेगी। उसने चीजों को जिस तटस्थता Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ महावीर : मेरी दृष्टि मैं कर रहे हैं तभी क्रोध लिया है उससे अपना कोई सम्बन्ध नहीं बन सकता। जब हम क्रोध कर रहे हैं। तभी क्षमा इकट्ठी होनी शुरू हो जाती है; जब हम क्षमा इकट्ठा होना शुरू हो जाता है; जब हम प्रेम कर रहे हैं लगती है; जब हम घृणा कर रहे हैं, तभी प्रेम इकट्ठा होने तभी घृणा इकट्ठी होने लगता है । L यही द्वन्द्व है आदमी का कि जिसको प्रेम करता है, उसको घृणा करता है; जिसको घृणा करता है उसको प्रेम करता है । मित्र सिर्फ मित्र ही नहीं होते, शत्रु भी होते हैं । शत्रु सिर्फ शत्रु ही नहीं होते, मित्र भी होते हैं । इसलिए निरन्तर यह होता रहता है । जब मैं निरन्तर अनुभव करता हूँ कि अगर मुझे कोई आदमी बहुत जोर से प्रेम करने लगे तो मैं जानता हूँ कि यह आदमी जल्दी जाएगा क्योंकि उसकी घृणा इकट्ठी होने लगी है । और मैं इसलिए चिन्तित हो जाता हूँ कि यह आदमी जाएगा और अब इसके बिना जाए लौटने का कोई उपाय नहीं होगा । और अगर कोई आदमी जोर से मुझे घृणा करने लगे, क्रोध करने लगे तो मैं जानता है कि वह आएगा । क्योंकि इतनी घृणा में वह कैसे जियेगा, उसे लौटना पड़ेगा । · महावीर कहते हैं कि सब द्वन्द्व बांधता है दूसरे से, उल्टे से बांध देता 1 इसलिए द्वन्द्व के प्रति जागने से वीतरागता उपलब्ध होती है। न काम; न ब्रह्मचर्य - तब सच में ब्रह्मचर्य उपलब्ध होता है । न क्रोध, न क्षमा-तब सच में ही क्षमा उपलब्ध होती है क्योंकि उससे विपरीत फिर होता ही नहीं । न हिंसा न अहिंसा - तब सच्ची अहिंसा उपलब्ध होती है क्योंकि तब उसके विपरीत कुछ होता ही नहीं । इसलिए बहुत भूल हो जाती है । महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल हो जाता है क्योंकि महावीर की अहिंसा वह अहिंसा नहीं है जो हिंसा के विपरीत है। हिंसा के विपरीत जो अहिंसा है, वह बाज नहीं तो कल हिंसक हो ही जाएगी। महावीर की अहिंसा को समझना मुश्किल है क्योंकि वह हिंसा के विपरीत नहीं है । जहाँ न हिँसा रह गई, न अहिंसा रह गई, वहाँ जो रह गया उसको महावीर अहिंसा कह रहे हैं । / ऐसा लगता है कि हम राग और विराग के बीच अनेक जन्मों में घूम चुके हैं। ऐसा नहीं है कि राग हो राग में ही घूमते रहे हैं। बहुत बार राग हुआ है, बहुत बार बिराग हुआ है । वीतराग कभी नहीं हो सका और वह होगा भी नहीं क्योंकि एक 'अति' पर जाकर ठीक पेन्डुलम दूसरे अति पर जाना शुरू हो जाता है। इसलिए मैं कहता हूँ इसकी चिन्ता मत करें कि हमें क्या होना -राग या विराग । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ४ १२६ प्रश्न : जीवन के रहस्य को जानने के लिए, जीवन और मृत्यु से अभय प्राप्त करने के लिए बुद्ध ने इतनी साधना की थी। लेकिन वही बुद्ध, दलाई लामा के रूप में केवल अपने जीवन को बचाने के लिए ही चीनियों के चंगुल से भागकर यहाँ आता है। वही बुद्ध जिसने 'अभयो भव', 'उभयवीतो भव' कहा, वही बुद्ध दलाई लामा के रूप में, एक कायर के रूप में हमारे सामने आ जाता है। यह ऐसी चीजें हैं जिससे लगता है कि या वह बुद्ध झूठ मे या यह दलाई लामा जो चिन्ह रूप में आए हैं झूठ हैं । उत्तर : असल में, चीजें जैसी हमें दिखाई पड़ती हैं वैसी ही नहीं होतीं । दलाई लामा को समझना वहुत मुश्किल है क्योंकि जिस भाषा में हम सोचने के आटी हैं उस भाषा में निश्चय ही वह भागा अपने को बचाने के लिए। कायर मालूम पड़ता है । लड़ना था, जूझना था। भागना क्या था ? ऐसा ही हमें दिखाई पड़ता है, बिल्कुल सीधा और साफ । लेकिन मैं आपसे कहता है कि दलाई लामा के भागने में बहुत और अर्थ है । ऊपर से यही बिखाई पड़ता है कि दलाई भागा; बचाया अपने को-बड़ा कायर है। सचाई इतनी नहीं है । सचाई ऊपर से ही इतनी दिखाई पड़ रही है । दलाई लामा का भागना अत्यन्त करुणापूर्ण, महत्वपूर्ण है । दलाई अगर वहाँ लड़ता तो हमारी नजरों में वह बहुत बहादुर हो जाता। लेकिन दलाई लामा को कुछ और बचाकर लाना था जो हमें दिखाई ही नहीं पड़ रहा है, जो कि लड़ने में नष्ट हो सकता था । समझ एक मन्दिर है और एक पुजारी है। और यह पुजारी किन्हीं गहरी सम्पत्तियों का अधिकारी भी है जो उसके मरते ही एकदम खो जा सकती है इन अर्थों में कि उनसे सम्बन्ध का फिर कोई सूत्र नहीं रह जाएगा मोर जरूरी है कि इसके पहले कि वह मरे, वह बारे सूत्र और वह सारी सम्पत्तियों की खबर किन्हीं को दे दे । दलाई लामा के पास बहुत रहस्यमय सूत्र हैं जिन्हें इस समय जमीन पर मुश्किल से चार-पांच लोग समझ सके हैं। दलाई लामा का भाग आना अत्यन्त जरूरी था । तिब्बत का उतना मूल्य नहीं जितना मूल्य दलाई लामा को जान का है मोर जो वह किसी को दे सकता है उसका है । और, तिब्बत की हार निश्चित थी । तिब्बत का चीन में डूबना निश्चित था। यह भी दलाई लामा को दिखाई पड़ सकता है जो दूसरे को दिखाई नहीं पड़ सकता । और अगर ऐसा साफ दिखाई पड़ता हो तो लड़ना उचित नहीं है; चुपचाप हट जाना उचित है । उस सबको लेकर बचाना ज्यादा कीमती है । तिब्बत तो बचेगा नहीं और वह सब बच सकता 1 Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० महावीर : मेरी दृष्टि में है भागने से । और आज वलाई बैठकर वह सारे प्रयोग कर रहा है दसपच्चीस लोगों को साथ लेकर, जिनके साथ वह भागकर आया है। कीमती लोगों को बह सारी सम्पदा दे रहा है । उसके मरने का कोई सवाल ही नहीं । वह तिब्बत में भी मर सकता था और यहाँ भी मरेगा। प्रश्न ही नहीं है । मरने से बचने का जो उनके पास सवाल था उसका अंकुरित हो सकते 1 बहुत बार ऐसा हुआ है। यह पहली बार नहीं हुआ हिन्दुस्तान में । बोद्ध भिक्षुओं को भागना पड़ा हिन्दुस्तान से । एक वक्त आया जब हिन्दुस्तान से बौद्ध भिक्षुओं को भागना पड़ा। भागना इसलिए जरूरी हो गया कि यहाँ भूमि बिल्कुल बंजर हो गई उनके लिए । उनको ग्रहण करने के लिए, था, कोई नहीं बच्चा । अपनी जान का सवाल न था; लेकिन जो वे जानते थे, जो बीज उनके पास थे, जो किसी भूमि में थे । उनको भावकर सारी एशिया में खोज करनी पड़ी कि कहीं और हो सकता है कुछ | उन्होंने बड़ी कृपा की कि चीन चले गए, तिब्बय चले गए, बर्मा चले गए, बाई चले गए और जाकर उन्होंने बीज आरोपित कर दिए। फिर उनके बीजों से आज फिर बोज लौटने की संभावना बन सकती है । लेकिन यह हो सकता था कि उस समय वे भी भिक्षु, जो भागे इस मुल्क से, कायर मालूम पड़े होंगे । लड़ना था यहाँ, जाना कहाँ था ? लेकिन जिनके पास कुछ है, वह लड़ने से ज्यादा उसको बचाने की फिक्र करेंगे । बुद्ध जिस वृक्ष के नीचे बैठे और 'बोषि' को प्राप्त हुए, वह मूल वृक्ष नष्ट हो गया। अशोक ने लंका भेज दी थी। वह लंका में सुरक्षित है। शाखा वापस आ गई है। मूल वृक्ष नष्ट हो गया । नष्ट किया ही गया होगा क्योंकि जब बौद्धों के पैर उखड़ गए तो सब नष्ट कर दिया गया । आप हैरान होंगे जान कर कि बुद्ध का जो मन्दिर है उसका पुजारी ब्राह्मण है। वह बौद्ध नहीं है । वह सम्पत्ति भी एक ब्राह्मण पुजारी की है— मन्दिर और उसकी व्यवस्था भी । वह सब नष्ट हो गया। लेकिन अशोक के द्वारा भेजी गई उस वृक्ष की एक शाखा लंका में पल्लवित हो गई । और उस शाखा की एक शाखा लाकर फिर हम जगा सके। उस वृक्ष का एक बच्चा मौजूद है । यह वृक्ष की चर्चा मैंने इसलिए की कि प्रतीक की तरह ख्याल में आ जाए। लेकिन उसकी एक शाखा अब उस वृक्ष की एक ● तिब्बत में फिर वह हालत आ गई-तिब्बत चीन के हाथ में जाएगा और कम्युनिज्म जितनी जोर से दुनिया से रहस्य विज्ञान को खत्म कर सकता है उतना कोई चीज खत्म नहीं कर सकती। जो भी आन्तरिक सत्य है और उनके मो Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ १३१ भी सूत्र हैं, कम्युनिज्म उनको जड़-मूल से काटने में उत्सुक है। और जहाँ भी जाएगा वहाँ सबसे पहले जो उस मुल्क की आनरिक सम्पदा है उसको वह बिल्कुल तोड़ डालेगा। तिब्बत के कम्युनिस्टों के हाथ में जाने के बाद वहां जो सबसे पहली चोट होने वाली थी, वह चोट थी उसको आन्तरिक सम्पदा पर । तिब्बत बहुत अद्भुत था इन अर्थों में कि दुनिया में तिब्बत के पास सर्वाधिक बहुमूल्य सम्पत्ति थी आन्तरिक सत्यों की। क्योंकि वह दुनिया से कटा हुआ जिआ, दुनिया को उसे कोई खबर न थो, दुनिया का कोई सम्बन्ध न था उससे । दुनिया का कोई ताल-मेल न था उससे । वह दूर अकेले में, एकान्त में चुपचाप पड़ा था। अतीत की जो भी सम्पदा थी जानने की वह सब उसने संरक्षित कर ली थी। दलाई का भागना बहुत जरूरी था। लेकिन मुश्किल है कि कोई आदमी इसकी तारीफ कर सके। लेकिन मैं कहता हूँ कि दलाई वहां लड़ता तो दो कौड़ी की बात थी वहाँ लड़ना । कायर नहीं है वह आदमी। मगर जो बचा कर ले आया है उसे आरोपित कर देना जरूरी है। लेकिन इस मुल्क में लोगों को ख्याल भी नहीं है कि दलाई के साथ एक बहुत बड़ी मूल शाखा वापस लौटी है जिससे यह मुल्क फायदा उठा सकता है। लेकिन मुल्क को कोई मतलब ही नहीं है, कोई सम्बन्ध ही नहीं लगा इससे । वह आपके मुल्क में है, यह घटना बहुत महत्त्वपूर्ण है। यह आसान न था; उसको ले आना आसान न था । यह बिल्कुल अवसर है, वक्त है, समय है कि उसको यहाँ आ जाना पड़ा है। और उसका हम फायदा ले सकते हैं। बहुत से एसोटेरिक, बहुत से गुह्य सत्य है जो उससे पता चल सकते हैं। लेकिन हमें कोई मतलब नहीं है, हमें कोई प्रयोजन नहीं है। और हम को दिखता ऊपर से यही है, लेकिन मैं ऐसा नहीं मानता। ___अगर सोच लीजिए कि यहां मैं हूँ और मुझे लगे कि इस देश में उस बात से कोई मतलब नहीं हल होने वाला, नहीं है वे लोग जो उस बात को समझ सकें। अब मैं आप को कहूँगा कि जिन लोगों से मेरे इस जीवन में सम्बन्ध बन रहे हैं, उनमें से मैं बहुतों को पहचानता हूँ जिनसे मेरे पिछले जीवन में सम्बन्ध थे। चालोस-पचास करोड़ के मुल्क से मुझे कोई मतलब नहीं है। मतलब दो चार सौ लोगों से है चालीस-पचास करोड़ लोगों में से । मैं मेहनत कर रहा हूं इन दो चार सौ लोगों को अपने पास ले आऊँ इसके लिए । और कम मुझे ऐसा लगे कि मुल्क कम्युनिस्टों के हाथ में जाता है या ऐसे लोगों के हाथ में जाता है जो जड़ काट देंगे, तो मैंनो चार सौ लोगो को लेकर कहीं Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में को पकड़ा देना। और यह एक अनन्त वृत्त है। इसकी उपलब्धि कुछ है नहीं। तुम स्वयं को तो कभी उपलब्ध कर ही नहीं सकते दोनों हालतों में । तुम व्यक्ति ही नहीं बन पाते अगर राग और विराग में पड़े हुए हो तुम। और वह जो कहते हैं कि राग और द्वेष से छूट जाना वीतरागता है, वह बड़ी गलत व्याख्या कर रहे हैं। वे विराग को बचा जाते हैं। राग और द्वेष से मुक्त हो जाना अगर वीतरागता का अर्थ उन्होंने किया तो वे विराग को बचा जाते हैं, और वह तरकीब है बहुत शरारतपूर्ण। राग का ठीक विरोधी विराग है, द्वेष नहीं। द्वेष तो राग का ही हिस्सा है, विरोध नहीं । विरोधी तो विराग है। द्वन्द्व विराग का है राग से, द्वेष से नहीं । तो वे तरकीब से बनाए गए हैं। उन्होंने विरागी को बचा लिया है, विरागी और वीतरागी को सीढ़ी बना दिया है। वे कहते हैं कि वैराग्य से वीतराग की सीढ़ी जाती है। मैं कह रहा हूँ चाहे राग से जाओ, चाहे विराग से, वीतराग होने का फासला दोनों से बराबर है। इसे हम समझें। दूसरी बात यह कि यह कठिन नहीं है, क्योंकि जो स्वभाव है वह अन्ततः कठिन नहीं हो सकता, विभाग ही कठिन हो सकता है। और, जो स्वभाव इतना आनन्दपूर्ण है कि उसकी एक झलक मिलनी शुरू हो जाए तो हम कितने ही पहाड़ उसके लिए चढ़ जाते हैं। बस झलक जब तक नहीं मिलती तब तक कठिनाई है। और मलक राग और विराग मिलने नहीं देते। यह जरा सा भी हटे तो उसकी झलक मिलनी शुरू हो जाती है। जैसे नाकाश में बादल घिरे हुए हैं और सूरज की किरण भी दिखाई नहीं पड़ती। जरा सा बावल सरके और किरण झांकने, पड़ने लगती हैं। राग और विराग के द्वन्द्व की जरा सी टूट जाए खिड़की तो वीतरागता का आनन्द बहने लगता है। और वह बहने लगे तो कितनी ही यात्रा पर जाना सम्भव है, कठिन नहीं। लेकिन हम क्या करते हैं : हम राग से विराग में जाते हैं, विराग से राग में जाते हैं। ये दोनों हो एक से घेरने वाले बादल हैं। इसलिए कभी सन्धि भी नहीं मिगती उसको जाने की। राग और विराग में डोलते हुए मनुष्यों का जो समाज है, वह नियम बनायेगा ही। क्योंकि राग विराग में डोलता हुआ आदमी बहुत खतरनाक है। इसलिए नियम बनाने पड़ेंगे। और नियम कौन बनायेगा ? वही राब विरान में डोलते हुए आदमी नियम बनायेंगे। राग विराग में डोलते हुए लोग सतरनाक हैं।.राग विराग में गेलने हुए नियम बनाने वाले लोग और भी खतरनाक है। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ यानी मामला ऐसा है जैसे पागलखाना है एक। पागलों के लिए कुछ नियम बनाने पड़ेंगे । और नियम बनाने वाले भी पागल हैं । तो नियम और भी बतरनाक हैं क्योंकि पागल नियम बनायेंगे, और पागलों के लिए। एक तो पागल हो खतरनाक है, फिर पागल नियम बनायें तो और बहुत खतरा शुरू हो जाता है। तो समाज ऐसे ही खतरे में जी रहा है और जब हम कहते हैं कि वीतरागता को तरफ जाना है तो हम यह नहीं कहते कि नियम तोड़ देना है । हम यह नहीं कह रहे । मैं तो यह कह रहा हूँ कि जो व्यक्ति थोड़ी सी भी वीतरामता में गया उसके लिए नियम आवश्यक है। यानी वह जीता ऐसे है कि उससे किसी को दुख, पीड़ा यह सब सवाल ही नहीं है। हाँ कोई उससे दुख लेना चाहे तो बात ही अलग है, उसकी मुक्ति है उससे । महावीर ऐसे जीते हैं कि उनके लिए दुख सुख का सवाल ही नहीं मगर कोई दुख सुख लेना चाहता है तो लेता है। लेकिन पूरा जिम्मा लेने वाले पर ही है। महावीर का देने का कोई हाथ नहीं उसमें, जरा भी कोई दुख लेगा, कोई सुख देगा। वह उस लेने वाले पर निर्भर है। महावीर तो जैसे जीते हैं, जोते हैं । जितना वोतराग चित्त होगा उतना विवेक पूरा होगा। पूर्ण बीत रागता, पूर्ण विवेक । और वीतरामता के लिए किसी संयम की जरूरत नहीं, किसी नियम की जरूरत नहीं क्योंकि विवेक स्वयं ही संयम है। अविवेक के लिए संयम की जरूरत होती है। इसलिए सब संयमी अविवेकी होते हैं । जितनी बुद्धिहीनता होती है, उतना संयम बांधना पड़ता है । यानी बुद्धि की कमी को वे संयम से पूरा करने की कोशिश करते हैं लेकिन बुद्धि की कमी संयम से पूरी नहीं होती। अव तक जो हमने समाज बनाया है वह बुद्धि की कमी को संयम से पूरा करने की कोशिश कर रहा है। इसलिए हजारों साल हो गए कोई फर्क नहीं पड़ा । तुम पूछ सकते हो कि अगर हम नियम तोड़ दें तो समाज ही टूट जाएगा मगर यह मैं नहीं कह रहा हूँ। यह वैसी ही बात है जैसे पागलखाने के लोग कहें कि अगर हम ठीक हो जाएंगे तो पागल खाने का क्या होगा ? फिर पागल खाना टूट जाएगा। अगर लोग विवेकपूर्वक हो जाएं तो समाज नहीं होगा जैसा हम समाज समझते रहे हैं। बिल्कुल बुनियादी फर्क हो जाएंगे। लेकिन पहली दफा ठोक अर्थों में समाज होगा। अभी क्या है-समाज है, व्यक्ति नहीं । और समाज सब व्यक्तियों को अपने घेरे में कसे हुए है। और समाज केवल व्यवस्था Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ..१४० ' . महावीर : मेरी दृष्टि में का नाम है । व्यवस्था वजनी और व्यक्ति कमजोर है । व्यवस्था छाती पर बैठी है और व्यक्ति नीचे दबा है। जिस व्यक्ति की में बात कर रहा हूँ और वह बन जाए अगर विवेकपूर्ण व्यक्ति, वोतराग चित्त से भरा हुआ, जीवन के आनन्द से भरा हुआ, तो भी व्यवस्था होगी। लेकिन व्यक्ति की छाती पर नहीं, व्यक्ति के लिए ही व्यवस्था होगी। अभी व्यवस्था के लिए व्यक्ति हो गया है। और तब भी समाज होगा। लेकिन तब समाज दो व्यक्तियों, दस व्यक्तियों, हजार व्यक्तियों के बीच के अन्तःसम्बन्ध का नाम होगा । व्यक्ति केन्द्र होगा, समाज गौण होगा और समाज केवल हमारे अन्तर्व्यवहार की व्यवस्था होगी। और विवेकशील व्यक्ति का अन्तव्यवहार किसी बाहरी समय और नियम से नहीं चलेगा, एक आन्तरिक अनुशासन से चलेगा। जब तक ऐसा नहीं हो जाता तब तक समाज जैसे चलता है चलेगा। यह ऐसा ही है जैसे हम कहें कि सब लोग स्वस्थ हो जाएं तो इन डाक्टरों का, अस्पतालों का क्या होगा? वह स्वस्थ रह जाते हैं तो उनकी कोई जरूरत नहीं रह जाती क्योंकि वह अच्छा काम नहीं है जो डाक्टर और अस्पताल को करना - पडता है । अच्छा लग रहा है क्योंकि हम बीमार होने का काम किए चले जाते है । यह अच्छा नहीं है क्योंकि हम जो गलत करते हैं उसको पोंछने का काम करना पड़ता है सिर्फ। और तो कुछ करना नहीं पड़ता। तो जैसे-जैसे विवेक विकसित हो, वीतरागता विकसित हो, समाज होगा, अन्तःसम्बन्ध होंगे। लेकिन वह बड़े गौण हो जाएंगे, व्यक्ति प्रमुख हो जाएगा और उसका अन्तर अनुशासन असली बात होगी। इसलिए मेरा कहना यह है कि समाज की व्यवस्था में व्यक्ति को संयम देने की चेष्टा कम होनी चाहिए; विवेक देने की व्यवस्था ज्यादा होनी चाहिए । विवेक से संयम आएगा और संयम से विवेक कभी नहीं आता है। प्रश्न : पर जब तक विवेक नहीं संयम की आवश्यकता मान लीजिए ? उत्तर : बनी ही रहेगी। प्रश्न : महावीर भी ऐसा ही समझते थे ? उत्तर । समझेंगे ही। इसके सिवाय कोई उपाय हो नहीं। यानी जब तक विवेक नहीं है तब तक किसी न किसी तरह के नियमन की व्यवस्था बनी ही रहेगी। लेकिन यह ध्यान रहे कि किसी भी नियम की व्यवस्था से विवेक आने वाला नहीं, इसलिए विवेक को जगाने को सतत कोशिश जारी रखनी पड़ेगी। संयम और नियम की व्यवस्था को सिर्फ आवश्यक बुराई समझना होगा। वह गौरव की बात नहीं। चौरास्ते पर एक पुलिस वाला खड़ा है, इसलिए लोग Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-४ बाएं-दाएं चल रहे हैं, यह कोई सौभाग्यपूर्ण बात नहीं। लोगों को बाएं-दाएं चलना चाहिए और पुलिस वाले को विदा होना चाहिए । व्यर्थ ही एक आदमी को हम परेशान कर रहे हैं कि वह लोगों को बाएं-दाएं चलता रहे । और लोग कैसे बुद्धिहीन हैं कि अगर चौरास्ते पर एक पुलिसवाला नहीं है तो वे बाएं-दाएं भी नहीं चलेंगे। इसका मतलब है कि समाज ने बुद्धि पैदा करने की कोशिश ही नहीं की है अब तक, और पुलिस वालों से काम ले रही है विवेक का। करोड़ों निकल रहे हैं एक सड़क से और एक पुलिस वाला स्थानापन्न हो गया है, करोड़ों लोगों के विवेक का । वह पुलिस वाला भी विवेकहीन आदमी है। वह किसी तरह चला लेता है बाएं दाएं । लेकिन फर्क क्या पड़ता है ? बस बाएं दाएं चलना हो जाता है और एक्सीडेंट कुछ कम होते हैं सड़क पर । लेकिन अगर हमने समझा है कि विवेक की कमी इसने पूरी कर दी तो हम गलती में हैं । यह सिर्फ सूचक है कि विवेक नहीं है और हमें कोशिश करनी चाहिए कि विवेक आ जाए ताकि हम इसको विदा कर दें। नीति, संयम, नियम धीरे-धीरे विदा हो सके ऐसा विवेक हमें जगाना चाहिए। जिस समय में कोई नियम नहीं होगा, कोई संयम नहीं होगा, लोग विवेक से जोते होंगे, वह पहली बार सही समाज होगा । नहीं तो समाज का सिर्फ धोखा चल रहा है। प्रश्न : मेरी इसमें सहमति है जो आप कह रहे हैं। जहां मतमेव मुझे लगा यानी विचारकों में मतभेद, वह यह कि जिसको आप कह रहे हैं नियम, यद्यपि वह अन्ततोगत्वा छोड़ने के लिए है और व्यर्थ है, उसे वह व्यवहार दृष्टि नाम देते हैं। तो उस व्यवहार दृष्टि की कोई आंशिक उपयोगिता है या नहीं है, इस पर मतमेव चलता है। यह विचारणीय है। उत्तर : वह चलेगा उनमें क्योंकि विचार द्रष्टा नहीं हैं। और वह जो चल रहा है जैसा कि उन्होंने मान रखा है कि एक व्यवहार दृष्टि और एक निश्चय दृष्टि, ऐसी कोई चीज नहीं होती। दृष्टि तो एक ही है-निश्चय दृष्टि । व्यवहार की दृष्टि कहना ऐसा ही है जैसे कि यह कहना कि कुछ लोगों की आंख की दृष्टि होती है, कुछ लोगों की मन्धी दृष्टि होती है। हम कहें कि अन्धे की भी आंख तो होती है, सिर्फ देखती नहीं। और आँख वाले की भी आँख होती है, सिर्फ देखती है, इतना फर्क होता है, इतना ही फर्क होता है, बाकी आँख तो • दोनों में ही होती है । तो एक अंधी आँख होती है, एक देखने वाली बांस होती है । व्यवहार-वृष्टि अन्वे की मांख है । वह वृष्टि है ही नहीं । दृष्टि तो एक ही है जहाँ से दर्शन होता है। वह निश्चय दृष्टि है। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में कि यह व्यवहार की जो सारी बातचीत है, और ऐसा दो हिस्से करना, भी एक दृष्टि है और इसकी भी जरूरत है- यह सिर्फ अन्धे अपने को तृप्ति देने की कोशिश कर रहे हैं । यानी अंधा यह मानने को भी राजी नहीं कि मैं अन्धा हूँ। वह कहता है कि मेरा अन्धा होना भी बहुत जरूरी है। आँख की तरफ जाने के लिए मेरा अन्धा होने की बड़ी आवश्यकता है । वह यह कह रहा है । कोई दृष्टि नहीं हैं दो । दृष्टि तो एक ही है । व्यवहार-दृष्टि सिर्फ समझौता है और अन्धों के विचार हैं अपने । अन्धों के भी विचार होते हैं। आंख मिल गई वहां से दर्शन शुरू होता है, विचार खत्म होता है । वहाँ कोई सोचता नहीं, वहां देखता है । और ये जो दो टुकड़े हुए इन दो टुकड़ों ने बड़ा नुकसान किया है । क्योंकि वह व्यवहार दृष्टि वाला कहता है कि यह भी जरूरी है । पहले तो इसको पूरा करना पड़ेगा । फिर, इसके बाद दूसरी बात उठेगी - साधते - साधते निश्चय दृष्टि उपलब्ध होगी, इससे ज्यादा गलत बात नहीं हो सकती । वास्तव में बात यह है कि व्यवहार दृष्टि छोड़ते-छोड़ते निश्चय दृष्टि उपलब्ध होगी । साधने का सवाल ही नहीं छोड़ने का सवाल है। यानी अन्धे को साधते साधते आँख मिलेगी, ऐसा नहीं है । अंधेपन को छोड़ते-छोड़ते आँख मिलेगी । व्यवहार दृष्टि छोड़नी है क्योंकि यह दृष्टि नहीं, दृष्टि का धोखा है । उपलब्ध तो निश्चय दृष्टि करनी है । इसलिए मैं ये दो शब्द भी लगाना पसन्द नहीं करता क्योंकि वह ' निश्चय' लगाना बेईमानी है वह तो व्यवहार के खिलाफ लगाना पड़ता है। इसलिए मैं कहता हूँ अंधापन छोड़ना है, दृष्टि उपलब्ध करनी है; निश्चय का क्या सवाल है ? ऐसी भी कोई दृष्टि होती है, जो अनिश्चित हो । फिर उसको दृष्टि कहना फिजूल है । और व्यवहार की कोई दृष्टि नहीं होती । जैसे कि एक अन्धा आदमी है । टेक-टेक कर रास्ता बना लेता है, वह अपनी लकड़ी और कहता है कि दरवाजा खोज लेता है १४२ । मुझे लकड़ी की बड़ी जरूरत है लेकिन उसे ध्यान रखना चाहिए । लकड़ी की जरूरत है तब हम उससे कहेंगे कि तुम तुम्हें पता ही नहीं कि आँख मिलने से क्या होता है । व्यवहार दृष्टि हमारी स्थिति है अन्धेपन को । निश्चय दृष्टि हमारी सम्भावना हैं आंख की । हमें व्यवहार दृष्टि को तोड़ना है ताकि निश्चयं दृष्टि मानी सम्यक् दृष्टि हमें उपलब्ध हो सके । ठीक ही कहता है क्योंकि अगर वह कहे कि आँख मिल वह अन्धा है । जाए तो भी फिर पागल हो । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ प्रवचन Page #138 --------------------------------------------------------------------------  Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के बचपन के सम्बन्ध में थोड़ी सी बातें कल सोची। जैसा मैंने कहा, तीर्थकर की चेतना का व्यक्ति पूर्णता को कर लौटा होता है। इसका अर्थ यह हुआ कि महावीर के लिए इस जीवन में करने को कुछ भी बाकी नहीं रहा, सिर्फ देने को बाकी रहा है। पाने को कुछ भी बाकी नहीं रहा। यह बात अगर समझ में आए तो इस बात को गहरी निष्पत्तियां होंगी। पहली निष्पत्ति यह होगी कि साधारणतः महावीर के सम्बन्ध में जो यह समझा जाता है कि उन्होंने त्याग किया, वह बिल्कुल · व्यर्थ हो जाएगा। आज इस बात को समझ लेना जरूरी है, महावीर ने कभी भी भूलकर कोई त्याग नहीं किया। त्याग दिखाई पड़ा है महावीर ने कभी भी नहीं किया है। और जो दिखाई पड़ता है, वह सत्य नहीं है। क्योंकि जो दिखाई पड़ता है वह देखने वालों पर ज्यादा निर्भर होता है, बजाय इसके कि जो उन्होंने देखा। भोग से भरे हुए लोगों की किसी भी चीज का छूटना त्याग मालूम पड़ता है। और इसलिए महावीर के जीवन पर जिन्होंने लिखा उन्होंने रत्ती-रत्ती भर एक-एक चीज का हिसाब बताया है कि उन्होंने क्या-क्या छोड़ा। कितने बड़े महल बे, कितना बड़ा राज्य था, कितने हाथो और कितने घोड़े थे, कितने मणि-माणिक्य । इन सबका एकएक हिसाव किया है। वे हिसाब देने वाले भोगी चित्त के लोग थे, इतना तो निश्चित है क्योंकि इन्हें मणि-माणिक्य, घोड़े-हाथी और महल ही बात मूल्यवान मालूम होते थे। इनको महावीर ने छोड़ा, यह घटना इनको बड़ी चमत्कारपूर्व मालूम पड़ो होगी क्योंकि भोगी चित कुछ भी छोड़ने में समर्थ नहीं है। वह सिर्फ पकड़ सकता है, छोड़ नहीं सकता। हाँ उसे छुड़ाया जा सकता है, लेकिन वह छोड़ नहीं सकता। और जब वह देखता है कि कोई व्यक्ति सहज ही छोड़ कर पा रहा है तो इससे ज्यादा महत्त्वपूर्ण और चमत्कारपूर्ण घटना उसे मालूम नहीं Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में हो सकती । लेकिन महावीर जैसी चेतना कुछ भी छोड़ती नहीं है क्योंकि उस तल पर कुछ भी पकड़ने का भाव नहीं रह जाता है। जो पकड़ते हैं, वे छोड़ भी. सकते हैं । जो पकड़ते ही नहीं, जिनकी कोई पकड़ नहीं है, उनके छोड़ने का कोई सवाल ही नहीं। महावीर वे कुछ भी नहीं त्यागा है, जो व्यर्थ है उसके बीच से वह आगे बढ़ गए हैं। लेकिन हम सबको दिखाई पड़ेगा कि बहुत बड़ा त्याग हुआ है। और, ऐसा दिखाई पड़ने में हम पकड़ने वाले चित्त के परिग्रही लोग हैं, यही सिद्ध होगा; और कुछ सिद्ध न होगा। महावीर त्यागी थे, ऐसा तो नहीं है । लेकिन महावीर को जिन लोगों ने देखा वह भोगी थे-इतना सुनिश्चित है। भोगी के मन में त्याग का बड़ा मूल्य है । उल्टी चीजों का ही मूल्य होता है। बीमार मादमी के मन में स्वास्थ्य का बड़ा मूल्य है। स्वस्थ आदमी को पता भी नहीं चलता । बुद्धिहीन के मन में बुद्धिमत्ता मूल्यवान् है; लेकिन बुद्धिमान् को कभी पता भी नहीं चलता। जो हमारे पास नहीं है उसका ही हमें बोष होता है । और जो हम पकड़ना चाहते हैं, उसे कोई दूसरा छोड़ता हो तो भी हम आश्चर्य से चकित रह जाते हैं। लेकिन यहां मैं महावीर के भीतर से चीजों को कहना चाहता है। महावीर कुछ भी नहीं छोड़ गए हैं। और, जो व्यक्ति कुछ छोड़ता है, छोड़ने के बाद उसके पीछे छोड़ने की पकड़ शेष रह जाती है। जैसे एक आदमी लाख रुपये छोड़ दे। लाख रुपये छोड़ देगा; लेकिन लाख रुपये मैंने. छोड़े, यह पकड़ पीछे शेष रह जाएगी। यानी भोगी चित्त त्याग को भी भोग का ही उपकरण बनाता है। भोगी चित्त धन को ही नहीं पकड़ता, त्याग को भी पकड़ लेता है । असल सवाल तो पकड़ने वाले चित्त का है। वह अगर सब कुछ त्याग कर दे तो वह इस सबका हिसाब-किताब रख लेगा अपने मन में कि क्याक्या मैंने त्यागा है; कितना मैंने त्यागा है। ऐसे त्याग का कोई मूल्य नहीं। यह भोग का ही दूसरा रूप है, परिग्रह का हो दूसरा रूप है। लेकिन एक और तरह का त्याग है जहाँ चीजें छूट जाती हैं क्योंकि चीजों को पकड़ने से हमारे भीतर की कोई तृप्ति नहीं होती; बल्कि चीजों को पकड़ने से हमारे भीतर का विकास अवरुद्ध होता है। __हम चीजें पकड़ते क्यों हैं ? चीजों को पकड़ने का कारण क्या है ? हम चीजों को पकड़ते हैं क्योंकि चीजों के बिना एक असुरक्षा मालूम पड़ती है। अगर मेरा कोई भी मकान नहीं है तो मैं असुरक्षित है; किसी दिन सड़क पर Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-५ १७ पड़ा हो सकता हूँ। हो सकता है मर रहा होऊँ और मुझे कोई छप्पर न मिले । तो मैं असुरक्षित है। इसलिए मकान को जोर से पकड़ ता है; धन को जोर से पकड़ता हूँ क्योंकि कल का क्या भरोसा है । कल के लिए कुछ इन्तजाम चाहिए। जिस व्यक्ति के मन में जितनी असुरक्षा का भाव है, वह उतना चीजों को जोर से पकड़ेगा। लेकिन जिस चेतना को यह पता हो गया कि उसके तल पर कोई असुरक्षा नहीं, वहाँ न कोई भय है; न कोई पीड़ा है, न कोई दुःख है; न कोई मृत्यु है-ऐसा जिसे पता चल गया है वह कुछ भी नहीं पकड़ता। पकड़ता था असुरक्षा के कारण असुरक्षा न रही तो पकड़ भी न रही। और जो अपने भीतर प्रविष्ट हुआ है वह तो प्रतिक्षण, प्रतिपल अपने आनन्द से भर गया है कि कल का सवाल कहाँ है कि कल क्या होगा, आज काफी है । जीसस निकलते थे एक बगीचे के पास से और बगीचे में फूल खिले हैं। और जीसस ने अपने शिष्यों से कहा है : देखते हो इन फूलों को ? खुद सोलोमन भी अपनी पूरी समृद्धि में इतना शानदार न था। सम्राट् सोलोमन, जिसने सारी पृथ्वी के धन को इकट्ठा कर लिया था, अपनी पूरो समृद्धि में और साम्राज्य में, इन साधारण से फूलों के मुकाबले में न था। देखते हो इनकी शानदार चमक, इनकी मुस्कराहट, इनका नाच । और साधारण से गरीब लिली के फूल ! तो किसी ने पूछा है : कारण क्या है ? रहस्य क्या है इसका कि सोलोमन साधारण लिली के फूल से भी शानदार न था। तो जोसस ने कहा : फूल अभी जीते हैं। सोलोमन कल के लिए जोता था। फूल अभी है। उन्हें कल की कोई चिन्ता नहीं, आज काफी है। और तुम भी फूलों की तरह ही रहो कि आज काफी हो जाए । तो जिसके लिए आज का, अभी का यह क्षण. काफी है, आनन्द से भरा है, वह कल के क्षण की चिन्ता नहीं करता। इसलिए कल के क्षण के लिए इकट्ठा करने का पागलपन भी उसके भीतर नहीं है । वह जीता है आज के लिए। तो ऐसा व्यक्ति कुछ पकड़ता नहीं; छोड़ने का सवाल ही नहीं। छोड़ना आता है पोछे; त्याग आता है पीछे। जब पकड़ आ जाए तो सवाल उठता है, छाड़ो ! ऐसा व्यक्ति पकड़ता हो नहीं। और ध्यान रहे कि जिसको पकड़ आ गई है अगर वह छोड़ेगा तो पकड़ बाको रहेगी, छोड़ने को पकड़ लेगा। वह पकड़ उसकी आदत का हिस्सा हो गई है। उसने धन पकड़ा था, अब वह त्याप पकड़ेगा। उसने मित्र पकड़े थे, अब वह परमात्मा को पकड़ेगा; परिवार पकड़ा था, अब वह पुण्य, पाप, धर्म पकड़ लेगा। कल खाते-बही पकड़े थे, अब वह शास्त्र पकड़ लेगा। शास्त्र भी Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ YE महावीर : मेरी दृष्टि मैं और पुण्य भी इसलिए ध्यान वह अगर त्याग बाते-बही हैं और धर्म भी सिक्का है जो कहीं और चलता है । मोहरें हैं जो कहीं काम पड़ती हैं । और वह उनको पकड़ेगा । देवे की यह बात है कि जो व्यक्ति पकड़ने के चित्त से भरा है, करेगा तो वह भी नहीं होने वाला है । इसलिए सवाल त्याग करने का नहीं, सवाल पकड़ने वाले चित्त की वस्तुस्थिति को समझ लेने का है। अगर हमारी समझ में आ गया कि यह है चित्त पकड़ने वाला और पकड़ना व्यर्थ हो गया तो पकड़ विलीन हो जाएगी, त्याग नहीं होगा। पकड़ विलीन हो जाएगी और चीजें ऐसी दूर हो जाएंगी, जैसे वह दूर हैं ही। कौन सा मकान किसका है ? एक पागलपन तो यह है कि पहले मैं यह मानूं कि यह मकान मेरा है। और फिर दूसरा पागलपन यह है कि मैं इसका त्याग करूँ । लेकिन यह ध्यान रहे कि अगर यह मकान मेरा नहीं है तो मैं त्याग करने वाला कौन है ? त्याग में भी मेरा स्वामित्व शेष है । मैं कहता हूँ यह मकान में त्याग करता हूँ। मैं ही त्याग करता हूँ न ? और क्या त्याग में कर सकता हूँ उसका जो मेरा ही नहीं ? तो त्याग करने वाला यह मानकर ही चलता है कि मकान मेरा है । और वस्तुतः जो त्याग की घटना घटती है वह इस सत्य से घटती है कि किसी को पता चलता है कि यह मकान मेरा है ही नहीं। तो त्याग कैसा ? मेरा नहीं यह बोध पर्याप्त है, कुछ छोड़ना नहीं पड़ता १ जो मेरा नहीं है, वह छूट गया और चीजें थोड़े ही हमें बाँधे हुई हैं। चीजें और हमारे बीच में 'मेरे' का एक भाव है, जो बांधे हुए है। है, । एक मकान है जिसमें आग लग गई है । तब घर का मालिक रो रहा है; चिल्ला रहा है : ओर इसी भीड़ में से एक कहता है आप क्यों परेशान हो रहे हैं ? आपको पता है कि आपके बेटे ने मकान बेच दिया है और पैसे मिल गए हैं । बेटे ने खबर नहीं दो आपको। और वह आदमी एकदम हंसने लगा और उसने कहा : ऐसा है क्या ? अब भी वह मकान जल रहा है, अब भी आदमी वही है, सब भीड़ भी वही है । लेकिन अब वह उसका मकान नहीं रह गया है । मकान बेचा जा चुका है। अब वह मेरा नहीं । वह हंस रहा है बातें कर रहा है जैसी कि और सारे लोग कर रहे हैं कि बहुत बुरा हो गया कि मकान जल गया है । लेकिन तभी उसका बेटा भागा हुआ आता है। वह कहता है, वह आदमी बदल गया' है । रुपए अभी मिले नहीं हैं। सिर्फ बेचा था । असल में वह आदमी बदल गया है और वह आदमी फिर चिल्लाने लगा है कि मैं मर गया, मैं लुंट गया । अब क्या होगा ? एक क्षण में 'मेरा' फिर जुड़ गया और वह सब ऐसी हल्की Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-५ १४६ है। मकान मेरा ही है और जल रहा है तो मकान के जलने की पीड़ा है या 'मेरे' के जलने की। और अगर 'मेरे' के जलने की पीड़ा है, तो जो आदमी कहता है 'मेरा मकान', उसको भी पकड़ है; जो आदमी कहता है 'मेरा मकान' मैं त्याग करता हूँ, उसकी भी पकड़ है। लेकिन जो आदमी कहता है 'कौन सा मकान ? मेरा है कोई मकान ? मुझे पता नहीं चलता मेरा कौन सा मकान है ? मेरा कोई मकान ही नहीं है, मैं बिल्कुल बिना मकान के हूँ अगृही है वह । अगृही का मतलब यही है । अगृहो का मतलब यह नहीं कि जिसने घर छोड़ दिया है । अगृही का मतलब यह है जिसने पाया कि कोई घर है ही नहीं। इसे ठीक से समझ लेना। संन्यासी को हम कहते हैं अगृहो, गृहस्थ नहीं। लेकिन कोन है अगृही ? जिसने घर छोड़ दिया। मगर उसका घर बाकी है; वह चाहे पहाड़ों में, चाहे हिमालय में चला जाए, जिस घर को छोड़ा, वह अभी उसका घर है। अगृही का मतलब है जिसने पाया कि घर तो कहों है ही नहीं, कोई घर ऐसा नहीं है। संन्यासी का मतलब यह नहीं जिसने पत्नी का त्याग किया । संन्यासी का मतलब है कि जिसने पाया कि पत्नी कहाँ है ? संन्यासी का मतलब यह नहीं कि जिसने साथी छोड़ दिये हैं। संन्यासी का मतलब है जिसने पाया कि साथी कहां हैं ? खोजा और पाया कि साथी तो कहीं भी नहीं है कोई, बिल्कुल अकेला हूँ। इन दोनों बातों में बुनियादी भेद है। पहले में हम कुछ पकड़ कर छोड़ने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरे में हम पाते हैं कि पकड़ का उपाय ही नहीं है, किसको पकरें, कहाँ पकड़ने नाएं। तो महावीर कुछ त्याग नहीं रहे हैं। जो उनका नहीं है, वह दिखाई पड़ गया है। इसलिए कोई पकड़ नहीं है। इसलिए यह कहना बिल्कुल व्यर्थ की बात है कि वह सब छोड़ कर जा रहे हैं। वह जानकर जा रहे हैं कि कुछ भी उनका नहीं है। और अगर हम इस बात को समझ लेंगे तो महावीर के बाबत समस्त त्याग के बाबत हमारो दृष्टि ही दूसरो हो जाएगी। तब हम लोगों को यह न समझाएंगे कि तुम छोड़ो, तुम त्याग करो। हम लोगों को समझाएंगे कि तुम देखो, तुम्हारा क्या है ? तुम्हारा है कुछ ? ' एक सम्राट् था इब्राहीम । उसके द्वार पर एक संन्यासी मुबह से ही शोर गुल मचा रहा है। और पहरे दार से कहता है : मुझे भीतर जाने दो, मैं इस Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में सराय में ठहरना चाहता हूँ। और पहरेदार कहता है : तुम पागल हो गए हो, संन्यासी हो कि पागल हो। यह सराय नहीं, सम्राट का महल है, उनका निवास स्थान है। तो वह कहता है कि फिर मुझे उसी सम्राट से बात करनी है। क्योंकि हम तो सराय समझ कर यहाँ पाए हैं और ठहरना चाहते हैं । वह धक्का देकर भी चला जाता है। सम्राट भी भावाज सुन रहा हैं, सब बातें सुन रहा है और उससे कहता है : तुम कैसे आदमी हो, यह मेरा निजी महल है। मेरा निवास स्थान है। यह सराय नहीं, सराय दूसरी जगह है। वह संन्यासी कहता है : मैं समझा कि पहरेदार ही नासमझ है; आप भो नासमझ हैं। पहरेदार क्षमा के योग्य है। आखिर वह पहरेदार ही है। आपको भी यही ख्याल है कि यह आपका निवास स्थान है, यह आपका घर है। सम्राट ने कहा : ख्याल ? यह मेरा है। ख्याल नहीं है यह मेरा। यह मेरा है ही। संन्यासी ने कहा : बड़ी मुश्किल में पड़ गया मैं। कुछ दो बार दस साल पहले मैं आया था। तब भी झंझट हो गई थी। और मैंने कहा था कि इस सराय में ठहर जाऊं। तब तुम्हारी जगह एक दूसरा आदमी बैठा हुआ था और वह कहता था : यह मेरा ही महल है। यह मकान मेरा है। तो उस इब्राहिम ने कहा : वह मेरे पिता थे। उनका अब देहावसान हो गया । उस फकीर ने कहा मैं उनके पहले भी आया था, तब एक और बूढे को पाया था। वह भी इसी जिद्द में था कि यह मेरा महल है। जब यहाँ कई बार मकान के मालिक बदल जाते हैं तो इसको सराय कहना चाहिए या निवास ? और मैं फिर आऊँगा कभी। पक्का है कि तुम मिलोगे? वायदा करते हो? तुम न मिले तो फिर बड़ी दिक्कत हो जाएगी। फिर कोई मिलेगा कहेगा मेरा है। तो फिर मझे ठहर ही जाने दो। यह सराय ही है, किसी का नहीं है। जैसे तुम ठहरे हो वैसे मैं भी ठहर सकता हूँ। इब्राहीम उठा सिंहासन से, उस फकीर के पैर छुए और कहा, तुम ठहरो लेकिन अव 'मैं जाता हूँ। उसने कहा कहाँ जाते हो ? सम्राट ने कहा कि मैं तो इस भ्रम में ठहरा हुआ था कि यह मेरा मकान है। अगर सराय हो गया तो बात खत्म हो गई। जो मैं ठहरा था इस वजह से कि यह मेरा है महल । अगर तुम कहते हो कि यह सरय है तो ठीक है, तुम ठहरो। मैं जाता हूँ। और वह सम्राट् छोड़कर चला गका। उस सम्राट ने त्याग किया क्या ? नहीं। मकान (सहीं था, सराय थी, यह दिखाई पड़ गया। बात खत्म हो गई। सराय का कोई त्याग करता है ? नहीं, सराय में ठहरता है और विदा हो जाता है। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५१ ऐसा बोष महावीर जन्म के साथ लेकर पैदा हुए थे। ऐसा बोध हम चाहें तो हमें भी हो सकता है। और ऐसे बोष के लिए जो जरूरी है, वह सम्पत्ति का त्याग नहीं, सम्पत्ति के सत्य का अनुभव है। सम्पत्ति का त्याग, हो सकता है, उतना ही अज्ञानपूर्ण हो जितना सम्पत्ति का संग्रह था। इसलिए प्रश्न संग्रह और त्याग का नहीं, प्रश्न सत्य के अनुभव का है। सम्पत्ति क्या है ? है कुछ मेरा, यह वोध त्याग बनता है, ऐसा त्याग किया नहीं जाता। इसलिए ऐसे त्याग के पीछे कर्ता का भाव इकट्ठा नहीं होता और जिस कर्म के पीछे कर्ता का भाव इकट्ठा नहीं होता उस कर्म से कोई बन्धन पैदा नहीं होता। और जिस कर्म से कर्ता का भाव पैदा होता है वह कर्म बन्धन का कारण हो जाता है। यानी कर्म कभी नहीं बांधता। कर्म के साथ कर्ता का भाव जुड़ा हो तो वह बांधता है। और कर्ता का जो भाव है वही हमारा कारागृह, अहंकार है । महावीर से अगर कोई कहे कि यह तुमने त्याग किया तो वह हंसेंगे, कहेंगे किसका त्याग ? जो मेरा नहीं था, वह नहीं था। यह मैंने जान लिया। त्याग कैसे करूं ? त्याग दोहरी भूल है-भोग की दोहरी भूल । भोग पीछा नहीं छोड़ रहा है। • • तो पहली बात यह समझ लें कि महावीर जैसे व्यक्ति को त्यागी समझने को भूल कभी नहीं करनी चाहिए। सिर्फ अज्ञानी त्यागी हो सकते हैं; शानी कभी त्यागी नहीं होते। ज्ञानी इसलिए त्यागी नहीं होते कि ज्ञान ही त्याग है। उसे त्यागी होना ही नहीं पड़ता। उसके लिए कोई प्रयास, कोई श्रम नहीं उठाना पड़ता। अज्ञानी को त्याग करना पड़ता है, श्रम लेना पड़ता है, संकल्प बांधना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है । अज्ञानी के लिए त्याग एक कर्म है । और इसलिए अज्ञानी का जब त्याग होता है तो अज्ञानी 'त्याग किया' ऐसे कर्ता का निर्माण कर लेता है। यह कर्ता उसका पीछा करता है। और यही कर्ता गहरे में हमारा परिग्रह है। सम्पत्ति हमारा परिग्रह नहीं है । जो कहता है 'मैंने किया' वही हमारा परिग्रह है।। ___ कभी आपने सोचा ? रात आप सपना देखते हैं कि नींद में आप एक नादमी की हत्या करते हैं। सुबह आप उठे और आपको याद माया कि आपने सपने में एक आदमी की हत्या कर दी है। फिर क्या आप ऐसा कहते हैं कि यह हत्या मैने की ? चूंकि, ऐसा नहीं कहते, इसलिए कोई पचात्ताप भी नहीं। आप सुबह बिल्कुल हल्के फुल्के हैं । एक आदमी की हत्या की है रात और सुबह आप मस्त है। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ महावीर : मेरी दृष्टि में क्योंकि स्वप्न में बाप दृष्टा रहे हैं, कर्ता नहीं हो पाए। सुबह आप जानते हैं सपना देखा था। इसलिए रात हत्या कर दी है, तब से सुबह से हाथ पैर नहीं घो रहे हैं, पता नहीं रहे हैं और घबरा भी नहीं रहे हैं कि पाप हो गया। आप जानते हैं कि देखा था सपना ही। हो सकता है सपने में आप संन्यासी हो गए हों, सब त्याग कर दिया हो लेकिन सुबह आप हंसते हैं क्योंकि आप द्रष्टा हो गए हैं। हो सकता है सपने में जब सो रहे हों तो हत्या करके भागे हो, छाती घड़क गई हो, पसीना छूट गया हो, छिप गए हों कि अब फैसे, अब फसे । और हो सकता है कि सपने में जब त्याग किया हो तो अकड़ कर चले हों, फूल-मालाएं पहनी हों रास्ते पर जुलूस निकले हों, स्वागत-सत्कार हुआ हो और अकड़ कर समझा हो कि हां, मैंने सब कुछ त्याग कर दिया लेकिन सुबह जाग कर आप कहते हैं कि सपना था, मतलब कि मैं द्रष्टा था। ___ अब इस बात को ठीक से समझ लेना कि जिस चीज के हम द्रष्टा हो जाते है, वह सपना हो जाती है। और जिस चीज के हम कर्ता हो जाते हैं वह सत्य हो जाती है चाहे वह सपना ही हो। जब हम कर्ता हो जाते हैं सपने में तो वह सत्य हो जाता है सपना । और चाहे जीवन सत्य ही क्यों न हो जब हम द्रष्टा हो जाते हैं तो वह सपना हो जाता है। यानी सपने को अगर सत्य बनाना हो तो प्रक्रिया यह है कि आप द्रष्टा भर मत हों, आप कर्ता हों तब सपना बिल्कुल सत्य हो जाएगा। और ठीक इससे उल्टी प्रक्रिया यह है कि आप जिसको सत्य कहते हैं, उसके द्रष्टा होना, कर्ता भर मत बनना, तब सत्य एकदम सपना हो जाएगा। तो महावोर छोड़ कर इसलिए नहीं जा रहे हैं कि सपना था और छोड़ना है और छोड़ रहे हैं। नहीं, एक सपना टूट गया है, और द्रष्टा हो गए हैं और बाहर हो गए हैं। अब कोई लौट कर उनसे कहे कि कितनी सम्पदा थी जो छोड़ी थी तो वह कहेंगे कि सपने की भी कोई सम्पदा होती है, सपने में कोई त्याग होता है । भोग भी सपना है, त्याग भी सपना है क्योंकि दोनों हालत में कर्ता मौजूद है। इसलिए जानी न त्यागी है, न भोगी है, सिर्फ द्रष्टा रह गया है। और इसलिए जो भी द्रष्टा रह जाए उसके जीवन से भोग और त्याग दोनों एक साथ विदा हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि त्याग बच रहा है और भोग बिदा हो जाता है। भोग और त्याग एक ही सिक्के के दो पहलू थे, वह दीख जाता है। दूसरी दृष्टि से देखें तो इसी का अर्थ ही वीतरागता हुआ। अगर मैं कर्ता 'नहीं है तो वीतरागता फलित हो जाएगी। और अगर मैं कर्ता हूँ तो राग फलित Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रवचन-५ होगा या विराग फलित होगा; भोग होगा या त्याग होगा; दुःख होगा, या सुख होगा। द्वंद्व में सब कुछ होगा लेकिन निर्द्वन्द्व कुछ भी नहीं हो पाएगा। महावीर त्याग करते हैं, ऐसी धारणा है। जो उनको मानते हैं, उनके अनुयायी हैं, उनके पीछे चलते हैं उन सबकी ऐसी धारणा है कि वह त्याग करते हैं, महात्यागी है, और मुझे लगता है इसमें वे केवल अपनी भोगवृत्ति को खबर दे रहे हैं। महावीर का उन्हें कुछ भी पता नहीं। और यह सवाल महावीर का नहीं । दुनिया में जब भी किसी व्यक्ति से त्याग हुआ है तो वैसे ही हुआ है। ____ मैंने सुना है एक फकीर थे। रात एक सपना देखा उन्होंने और सुबह जब उठे तब उनका एक शिष्य उनके पास से गुजरा। तब उन्होंने कहा-सुनो जरा ! मैंने एक सपना देखा है। क्या तुम उसकी व्याख्या कर सकोगे ? उसने कहा : ठहरिए मैं अभी व्याख्या किए देता हूँ। वह शिष्य गया और पानी का. भरा हुआ घड़ा उठा लाया और कहा : जरा अपना मुंह धो डालिए। तो गुरु खूब हंसने लगे। तब एक दूसरा शिष्य गुजरा। उसने कहा : सुनो एक मैंने बहुत अद्भुत सपना देखा है। और इस नासमझ को कहा कि तुम व्याख्या करो तो यह पानी का घड़ा ले आया है और कहता है कि मुंह धो डालिए। तुम व्याख्या करोगे ? उसने कहा : एक दो पण रुकिए । मैं अभी आया । वह एक कप में चाय ले आया और कहा : अगर मुंह धो लिया हो तो थोड़ी चाय पी लीजिए । तो गुरु खूब हंसे और वह कहता है कि अगर आज यह घड़ा न लाया होता तो मैंने इसको कान पकड़ कर बाहर कर दिया होता। और अगर यह चाय लेकर न आ गया होता तो इस आश्रम में ठहरने का उपाय न था। सपने को कहीं व्याख्या करनी होती है ? सपना-सपना दिख गया, बात खत्म हो गई। सपने की कहों व्याख्या करनी होती है? तो ठीक ही किया। पानी ले आया। उससे हाथ, मुंह धो लिया। बात खत्म हो गई । अब क्या मामला है ? अब हाथ मुंह धो डालना हो काफी है। अब और कोई व्याख्या की जरूरत नहीं है । सपने की कोई व्याख्या नहीं करनी होती। व्याख्या सदा सत्य की होती है, सपने की नहीं । सपने की क्या व्याख्या ? सपने का बोध त्याग है। सपने का बोध-जो जीवन हम जी रहे हैं वह एक सपने की भांति है- इस बात का बोध । फिर कहां, कुछ पकड़ना है ? ____ मैंने सुना है एक सम्राट का बेटा मर रहा है। वह उसको खाट के पास बैठा है। चार दिन, पांच दिन, दस दिन बीत गए हैं। और बेटा रोज डूबता जा रहा है। और एक ही लड़का है और बचने की कोई उम्मीद नहीं। वही Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में भाशा थी बुढ़ापे की, वही भविष्य था। वह सम्राट् न सो पाता है, न जग पाता है, बेचैन है, परेशान है। और चिकित्सकों ने कह दिया है कि आज रात बेटे के बचने की कोई उम्मीद नहीं । सम्राट् उसी के पास कुर्सी रखे बैठा है । कब स्वांस छूट जाए कुछ पता नहीं। जितनी देर स्वांस रह जाए उतना ही अच्छा है। कई दिन का जगा है । उस रात दो बजे सम्राट् को नींद लग गई है । और उसने सपना देखा है कि उसके बारह बेटे हैं। इतने सुन्दर, इतने स्वस्थ जैसे कभी देखे नहीं थे, जैसे कभी किसी के हुए नहीं। बड़ा चक्रवर्ती सम्राट् है; सारी पृथ्वी का राजा है । अद्भुत स्फटिक के महल है, स्वर्ण पथ हैं, सुन्दर नारियाँ हैं, सुन्दर पलियाँ हैं। सब सुख है । कोई कमी नहीं। और तभी वह बेटा जो बीमार पड़ा है, मर गया है। राजा की पत्नी चिल्ला कर रोई है, राजा चुपचाप बैग रह गया है। थोड़ी देर चुप रहा है। फिर हंसने लगा है, फिर रोने लगा है, फिर हंसने लगा है। उसकी पत्नी ने कहा : आपको क्या हो गया है। आप पागल तो नहीं हो गए। उसने कहा पागल ? कह नहीं सकता । पहले पागल था कि अब पागल हो गया हूँ। मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूँ। रानी ने कहामुश्किल की क्या बात है। वेटा मर गया है, यह बड़ी मुश्किल है। राजा ने कहा-अब यह सवाल नहीं रहा। अब मैं बड़ी दिक्कत में हैं कि मेरे बारह बेटे मर गए, उनके लिए रोऊँ कि मेरा एक बेटा मर गया, उसके लिए रोऊँ ? मैं रोऊँ किसके लिए ? या तेरह के लिए इकठ्ठा रोऊँ ? तेरह के लिए इकट्ठा रोना बड़ा मुश्किल है क्योंकि तेरह होते नहीं। वे बारह एक सपने के वे और जब मैं उस सपने में था तब वह था ही नहीं लड़का। कहाँ गया था मुझे पता नहीं। खो गया था। और जब जग गया है तो यह एक ही बचा है और वे बारह खो गए हैं। और जैसे उन बारह के साथ यह एक भूल गया था, वैसे इस एक के साथ वे बारह भूल गए हैं। क्या यह सच है, क्या झूठ है, मैं इस मुश्किल में पड़ गया हूँ। रोऊँ तो किसके लिए ? उन बारह के लिए रोऊ, या इस एक के लिए या तेरह के लिए ? और तेरह का जोड़ नहीं बनता। या फिर किसी के लिए न रोऊँ क्योंकि एक सपना बनता है, एक छूट जाता है; दूसरा बनता है। दूसरा छूट जाता है, तीसरा बनता है, तीसरा छुट जाता है। रोऊँ किसके लिए? अब पागल नहीं हूँ। तो इस राजा को हम यह न कहेंगे कि उसने बेटे का मोह त्याग दिया। नहीं, यह बात ही व्यर्थ हो गई अब । अब हम यह न कहेंगे कि वह अनासक्त हो गया, निर्मोही हो गया। नहीं, हम यह कुछ भी न कहेंगे । अब हम सिर्फ इतना Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में ऐसी है कि आदमी कहीं और जाना चाहता है, घोड़ा कहीं और पाना चाहता है । इसलिए बड़ा तनाव है। पर घोड़ा वहाँ कैसे जाना चाहे जहाँ आदमो माना चाहे । घोड़ा, घोड़ा है, आदमी आदमी है। और आदमी को घोड़ा कैसे समझे और घोड़े को आदमी कैसे समझे ? घोड़ा किसी और रास्ते पर जाना चाहता है और मादमी किसी और रास्ते पर जाना चाहता है। तो बड़ी तनाव में दोनों उस चित्र में है। दूसरे चित्र में घोड़ा आनमी को पटक कर भाग गया है। असल में आदमी ने घोड़े पर चढ़ने की कोशिश की तो घोड़ा आदमी को पटकेगा। यानी जिस पर हम चढ़ेंगे वह हमको पटकेगा। आदमी को पटककर घोड़ा भाग गया है । आदमी पड़ा है परेशान और घोड़ा भाग गया है। तीसरे चित्र में आदमी घोड़े को खोजने निकला है । घोड़े का कहीं पता नहीं चल रहा । जंगल ही जंगल है। चौथे चित्र में घोड़े की पूंछ एक वृक्ष के पास दिखाई पड़ती है, सिर्फ पूंछ । पांचवें चित्र में आदमी पास पहुंच गया है, पूरा का पूरा घोड़ा दिखाई पड़ता है। घोड़े की पूंछ पकड़ ली है। और सातवें चित्र में आदमी फिर घोड़े पर सवार हो गया है और आठवें चित्र में वह घोड़े पर सवार होकर घर की ओर वापस लौट रहा है । नौवें चित्र में घोड़े को बांध दिया है । आदमी उसके पास बैठा है। घोड़ा बिल्कुल शान्त है, आदमा बिल्कुल शान्त है। दसवें चित्र में दोनों खो गए हैं, सिर्फ जंगल रह गया है, न घोड़ा है न आदमी। ये दस पूरी साधना के चित्र है। लेकिन आखिरी चित्र में दोनों खो गए हैं। लड़ाई भी वो गई है, द्वन्द्व खो गया है। नौ चित्रों में बहुत तरह से लड़ाई चलती रही है। जब तक दोनों है लड़ाई चलती रही है, कुछ न कुछ उपद्रव होता रहा है। लेकिन, आखिरी चित्र में दोनों ही खो गए हैं। अब न घोड़ा है, न घोड़े का मालिक, कोई भी नहीं है । खाली चित्र रह गया है। इसी प्रकार जिन्दगी में द्वन्द्व की लड़ाई है। क्रोष से हम लड़ रहे है, घृणा से हम लड़ रहे हैं, हिन्सा से हम लड़ रहे हैं, भोग से हम लड़ रहे हैं । जिससे हम लड़ रहे हैं, उस पर सवार होने की कोशिश कर रहे है। और बिस पर हम सवार होने की कोशिश कर रहे हैं, वह हमें पटके दे रहा है, बार-बार पटक रहा है। भोगी त्यागी होने की कोशिश करता है, रोज-रोज पटके खा जाता है, फिर गिर जाता है, फिर परेशान होता है। ___ एक घर में मैं मेहमान या कलकत्ता में। उस घर के बूढ़े बादमी ने कहा कि मैंने ब्रह्मचर्य को जीवन में तीन पार प्रतिज्ञा की। बहुत म्यंग्यपूर्ण बात थी क्योंकि ब्रह्मचर्य की तीन बार प्रतिज्ञा लेनो पड़े तो ब्रह्मचर्य है कैसा Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-५ क्योंकि एक बार लेनी चाहिए प्रतिज्ञा ब्रह्मचर्य की। मैं खूब हंसने लगा लेकिन मेरे बगल का आदमी नहीं समझ सका जो वहां पास बैठा था। उसने कहा : आपने बड़ी साधना की। वह बूढ़ा भी हंसने लगा । उस आदमी ने पूछा : फिर तीन बार ही लो, चौथी बार नहीं ली। उस बूढ़े आदमी ने कहा कि तुम यह मत सोचना. कि मैं तीसरी बार सफल हो गया। नहीं, तीन बार असफल होकर फिर मैंने हिम्मत ही छोड़ दी । जब मैंने बिल्कुल ही छोड़ दिया ख्याल कि लड़ना ही नहीं है क्योंकि तीन. दफा हार चुका, बहुत हो चुका तो मैं एकदम हैरान हुआ कि मुझ पर सेक्स को इतनी कम पकड़ कभी भी नहीं थी जिस दिन मैंने यह तय किया कि अब लड़ना नहीं; जो है सो ठोक है । और मेरी पकड़ एकदम ढोलो हो गई। और, मेरो पकड़ बड़ी जोर से थी क्योंकि मैं संकल्प कर रहा था, व्रत कर रहा था। ___ असल में व्रत, संयम, त्याग, संघर्ष-किससे कर रहे हैं हम ? जिससे हम कर रहे हैं, उसको हमने मान लिया। जिससे हम लड़ने लगे, उसको हमने स्वीकृति दे दी। और, हम उस पर कभी बेमोके चढ़ भी जायेंगे तो कितनी देर चढ़े रहेंगे ? अगर आप एक दुश्मन की छाती पर बैठ भो जाएं, जिन्दगी भर तो नहां बैठे रहेंगे। कभी तो उसको छाती छोड़ेंगे.? और दुश्मन, अगर कोई दूसरा होता तो अपने घर चला जाता। यह दुश्मन ऐसा नहीं कि दूसरा है, अपना हो हिस्सा है। जिस दिन आप छोड़ेगे, वह वापस लौट कर बड़ा हो जाएगा । और एक अजीब बात है। किसको आप दबाते हैं ? आपके हो दो हिस्से-आप हो दबाने वाले, आप ही दबने वाले। जिसे आप दवाते हैं वह तो विश्राम कर लेता है हिस्सा । और जो दबाता है वह पक जाता है। थोड़ी देर में उल्टा सिलसिला शुरू हो जाता है। इसलिए जिस चीज को माप दबायेंगे घोड़े दिन में आप पायेंगे कि आप उससे दबे हुए हैं। क्योंकि जो हिस्सा दब गया है वह विश्राम कर रहा है। और जो दबा रहा है उसको श्रम.करना पड़ रहा है। श्रम करने वाला थकेगा, विश्राम करने वाला सबल हो जाएगा। इसलिए रोज उल्टा परिवर्तन होता है। लड़ेंगे तो हारेंगे; दवाएंगे तो गिरेंगे। लेकिन खोज बिल्कुल दूसरी बात है। पहले चित्र में वह बादमी जबरदस्ती घोड़े पर सवार हो रहा है । दूसरे चित्र में वह खोज पर निकला है। लोग लड़ाई नहीं है। एक आदमी कोष से लड़ रहा है एक बात, और एक आदमो क्रोध की खोज में निकला है कि क्रोष Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ महाबीर : मेरी दृष्टि में क्या है यह बिल्कुल दूसरी बात है। और जब वह खोज पर निकला है तब उसे पूंछ दिखाई पड़ गई है। थोड़ा सा दिखा है। फिर पूंछ के करीब और चला गया है। पूरा घोड़ा दिखाई पड़ गया है। फिर उसने घोड़े को पकड़ लिया है क्योंकि जिसे हम समझ लेते हैं फिर उससे लड़ना नहीं पड़ता है। उसे हम ऐसे ही सहज पकड़ लेते हैं क्योंकि वह आपका ही हिस्सा है। उससे लड़ना क्या है ? वह अपना ही हाथ है। बाएं को दाएं हाथ से लड़ाएं तो क्या फायदा होगा? यह घोड़े को लेकर घर की तरफ चल पड़ा है। उसने घोड़े को लाकर घोड़े को बगह बांध दिया है। उसके पास चुपचाप बैठ गया है। वह लड़ नहीं रहा है, न सवार हो रहा है। अब कोई संघर्ष हो नहीं है। घोड़ा अपनी जगह है। चुपचाप दोनों अपनी जगह पर हैं। दसवें चित्र में दोनों विलीन हो गए हैं। क्रोष भी विलीन हो गया है, क्रोध से लड़ने वाला भी विलीन हो गया है । तब क्या रह गया है ? एक खाली चित्र रह गया है । दसवाँ चित्र बहुत अद्भुत है। वह कोरा चित्र जब किसी को भेंट किए किसी ने तो उसने कहा : नौ तो ठीक हैं। दसवें चित्र को क्या जरूरत है ? क्योंकि वह बिल्कुल खाली कैनवास का टुकड़ा है। तब उससे कहा गया कि दसवां ही सार्थक है। बाकी नौ तो सिर्फ तैयारी है। उसमें कुछ नहीं है। जो है इस दसवें में है। तब आदमी पूछता है लेकिन इसमें तो कुछ भी नहीं है । उस चेतना में कुछ भी नहीं है, सब खो गया। रिक्तता रह गई है; खाली आकाश रह गया है, शून्य रह गया है। कोई द्वन्द्व नहीं है, सब अखण्ड हो गया है। ऐसा अखण्ड व्यक्ति ही देने में समर्थ है। खण्डित व्यक्ति देने में समर्थ नहीं है। ऐसा अखंड व्यक्ति ही तीर्थकर जैसी स्थिति में हो सकता है। मेरा कहना है कि यह महावीर लेकर ही पैदा हुए थे और जो हमें दिखाई पड़ रहा है वह हमारी भ्रान्तियों का गट्ठर है। हम कभी चीजों के बहुत पास जाकर नहीं देखते, सदा दूर से देखते हैं, बहुत फासले से देखते हैं। हम चीजों को पास से देख भी नहीं सकते क्योंकि पास से देखना हो तो खुद ही गुजरना पड़े उनसे । इसके पहले देख भी नहीं सकते। यानी महावीर घर से कैसे गए, इसे हम कैसे देख सकते हैं ? क्योंकि हम कभी अपने घर से गए ही नहीं। यह हमारे लिए देखना मुश्किल है। मुश्किल इसलिए है सिर्फ क्योंकि हम कभी पास से गजरे ही नहीं किसी चीज के कि हम भी देख लेते। बहुत फासला है । कोई गुजरता है और हम देखते हैं, भूल हो जाती है। क्योंकि जब कोई गुजरता है तो केवल उसकी बाह्य व्यवस्था भर दिखाई पड़ती है। उसका भीतरी अनुभव Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-५ दिखाई नहीं पड़ता। और सब कथाएं, जो भो लिखा गया है, वे एकदम बाहर से खोचे गए चित्र हैं । और बाहर से यहो दिखाई पड़ता है कि महल था, महल छोड़ दिया; धन था, धन छोड़ दिया; पत्नो छोड़ दो; प्रियजन थे, निकट के रिश्तेदार थे, सब छाड़ दिये। यहो दोखता है । यहो दिख सकता है। तब त्याग को एक व्यवस्था हम खड़ी करेंगे और उस त्याग की व्यवस्था में बहुत से लोग छोड़ने को कोशिश करेंगे, मर जाएंगे और दिक्कत में पड़ जाएंगे। बहुत लोग यही कोशिश करेंगे कि छाड़ दें मकान को लेकिन मकान पोछा करेगा। एक जैन मुनि थे। वे बीस वर्ष पहले अपनी पत्नी को छोड़कर गए थे। उनको जीवन-कथा किसी ने लिखी तो वह उसे मेरे पास लाया। मैंने उल्टा पुल्टा कर उसे देखा तो उसमें मुझे एक बात पढ़ने को मिलो-'बीस साल हो गए हैं, पत्नी को छोडे, काशी में रहते हैं। पत्लो मरी है, तार आया है। उन्होंने तार पढ़कर कहा-'चलो झंझट छूटो।' उस जीवनकथा लिखने वाले ने लिखा है-'कैसा परमत्यागी व्यक्ति : कि पत्नी मरो तो केवल एक वाक्य मुख से निकला कि 'चलो झंझट छूटो' और कुछ भी न निकला।' वह लेखक खुद किताव लेकर आए थे, मैंने उनसे कहा, "किताब बन्द करो; किसी को पता न दो।' उन्होंने कहा, 'क्यों ?' मैंने कहा : तुमको पता नहीं-क्या लिखा है इसमें ? अगर ऐसा ही हुआ है तो बोस साल पहले जिस पत्नी को छोड़कर तुम्हारा मुनि चला गया था उसको झंझट बाकी थो। अव उसके मरने से कहता है कि 'झंझट छूटी'-तो झंझट बाकी थी। किसी न किसी चित्त के तल पर झंझट रही होगी। यह पत्नी के मरने की प्रतिक्रिया नहीं है। यह प्रतिक्रिया चित्त के भीतर झंझट चलने की है। झंझट खत्म हुई पत्नी के मरने से। पत्नी को छोड़ने से भी पूरी न हई वह झंझट; क्योंकि वह पत्नी है यह भो न मिटा; क्योंकि उस पत्नी को छोड़ा है यह भी न मिटा; क्योंकि उस पत्नी को क्या-क्या होता होगा यह भी न मिटा । यह कुछ भी न मिटा। और अब वह मर गई तो झंझट छूट गयो।" और मैंने कहा कि यह भी हो सकता है कि तुम्हारे इस मुनि ने कई दफा चाहा हो कि पत्नी मर जाए क्योंकि इसका यह कहना इसको भीतरी आकांक्षा का सबूत भी हो सकता है। इसने कई बार चाहा हो कि वह मर जाए। शायद छोड़ने के पहले चाहा हो कि यह मर जाए। वह नहीं मरी। उसने शायद बाद में भो कभी सोचा हो कि यह मर जाए। क्योंकि यह शब्द. बड़ा अद्भुत है और उसके पूरे अचेतन को खबर लाता है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में एक दूसरी घटना सुनाता हूँ। एक फकीर गुजर गया है। उसका एक शिष्य है जिसकी बड़ी ख्याति है; इतनी ख्याति है कि गुरु से भी ज्यादा। और लोग कहते हैं कि वह परम ज्ञान को उपलब्ध हो गया है । लाखों लोग इकट्ठे हुए हैं-गुरु मर गया है । शिष्य मन्दिर के द्वार पर बैठा छाती पीट-पोट कर रो रहा है । लोग बड़े चोंके हैं क्योंकि ज्ञानी और रोए ! दो चार जो निकट है, उन्होंने कहा : यह आप क्या कर रहे हैं ? सब जिन्दगी की इज्जत पर पानी फिर जाएगा। आप-और रोते हैं ? ज्ञानी और रोए। तो उस आदमी ने आँखें ऊपर उठाई और कहा-मैं ऐसे ज्ञानी से छुटकारा चाहता है जो रो भी न सके । नमस्कार! इतनी भी आजादी न बचे तो ऐसा ज्ञानी मुझे नहीं होना । क्योंकि ज्ञान की खोज हम आजादी के लिए किए हैं। ज्ञान एक नया बन्धन बन जाए और मुझे सोचना पड़े कि क्या कर सकता हूँ, क्या नहीं कर सकता हूँ तो मैं क्षमा चाहता है। तुमसे कहा किसने कि मैं ज्ञानी है? फिर भी उन लोगों ने पूछा : भई ठीक तो है लेकिन आप ही तो समझाते थे कि आत्मा अमर है अब काहे के लिए रो रहे हैं ? उसने कहा : आत्मा के लिए कौन पागल रो रहा है ? वह शरीर भो बहुत प्यारा था। और वैसा शरीर अब दुबारा नहीं हो सकेगा। अद्वितीय था वह । आत्मा के लिए रो कौन रहा है ? शरीर कुछ कम था क्या ! तुम मेरी चिन्ता मत करो क्योंकि मैंने अपनी चिन्ता छोड़ दी है । अब जो होना है, सो होता है। हंसी आती है तो हंसता हूँ; रोना माता है तो रोता है। अब मैं रोकता ही नहीं कुछ। क्योंकि अब रोकने वाला ही कोई नहीं है। कौन रोके ? किसको रोके ? क्या रोकना है ? क्या बुरा है ? .. क्या भला है ? क्या पकड़ना है ? क्या छोड़ना है-सब जा चुका है। जो होता है, होता है । जैसे हवा चलती है, वृष हिलते हैं, वर्षा आती है, बादल आते हैं, सूरज निकलता है, फूल खिलते हैं। बस ऐसा ही है। न तुम फूल से जाकर कहते हो कि क्यों खिले हो तुम । न तुम बदलियों से जाकर कहते हो कि क्यों आई हो तुम । न तुम सूरज से पूछते हो कि क्यों निकले हो तुम । मुझसे क्यों पूछ रहे हो कि क्यों रो रहे हो। कोई मैं रो रहा हूँ ? रोना आ रहा है । कोई रोने वाला नहीं है। यह तो बहुत मुश्किल में पड़ गए हैं। और किसी एक ने कहा कि "भाप कहते हो सब माना है, सब सपना है।" वह कहता है अभी मैं कब कह रहा हूँ कि सब माया नहीं है, सब सपना नहीं है। मेरा कहना है कि अगर उतनी ठोस देह भी सत्य सावित न हुई, मेरे ये तरल आँसू कितने सत्य हो सकते हैं ? इसे समझना हमें मुश्किल हो जाएगा। उस मुनि को समझना Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-५ बहुत आसान है जिसने कहा, "झंझट छूटो।" क्योंकि हमारा चित्त भी वैसा है। वह द्वन्द्व में ही जीता है। इतना निर्द्वन्द्व होना बहुत मुश्किल है कि जहां रहना भी क्रिया न रह जाए, जहाँ उसके भी हम कर्ता न रह जाएं, जहां उसके भी हम द्रष्टा हो जाएं, जहाँ उस पर कभी भी हम रुकें न, कुछ बन्धन न डालें, कुछ व्यवस्था न डालें, जो होता हो, होता रहे । जैसे वृक्षों में पत्ते आते हैं। जैसे आकाश में तारे निकलते है, ऐसा ही सब हो जाए। ऐसा अखण्ड व्यक्ति हो सत्य को उपलब्ध होता है और ऐसे अखंड व्यक्ति से ही सत्य की अभिव्यक्ति हो सकती है। लेकिन इतना अखंड हो जाना ही सत्य की अभिव्यक्ति के लिए काफी नहीं है। अखंड व्यक्ति भी, हो सकता है, बिना सत्य को अभिव्यक्त किए ही मर जाए और बहुत से अखंड व्यक्ति बिना सत्य को प्रकट किए ही समाप्त हो जाते हैं। यह ऐसा ही है जैसे कि सौन्दर्य को जान लेना सौन्दर्य को निर्मित करना नहीं है। एक आदमी सुबह के उगते सूरज को देखता है और अभिभूत हो जाता है सौन्दर्य से । लेकिन यह अभिभूत हो जाना पर्याप्त नहीं है कि वह एक चित्र बना दे सुबह के उगते सूरज का, अभिव्यक्त कर दे उसको, जरूरी नहीं है। तुम सुबह बैठे हो वृक्ष के नोचे और पक्षी ने गीत गाया और तुम डूब गए संगीत में। तुमने अनुभव किया है संगीत लेकिन जरूरी नहीं कि वीणा उठाकर तुम गीत को पुनर्जन्म दे दो। यानी सत्य को अनुभूति एक बात है और उसको अभिव्यक्ति बिल्कुल दूसरी बात । बहुत से अनुभूतिसम्पन्न लोग बिना अभिव्यक्ति दिए समाप्त हो जाते हैं । दुनिया में कितने कम लोग हैं जो सौन्दर्य को अनुभव नहीं करते, लेकिन कितने कम लोग है जो सौन्दर्य को चित्रित कर पाते हैं। कितने कम लोग हैं जिनके प्राणों को आन्दोलित नहीं कर देता संगीत लेकिन कितने कम लोग है जो संगीत को अभिव्यक्त कर पाते हैं। कितने कम लोग हैं जिन्होंने प्रेम नहीं किया है, लेकिन प्रेम को दो कड़ी लिख पाना बिल्कुल दूसरी बात है। ___ यहाँ दो-तीन बातें कहूँ ताकि आगे का सिलसिला ख्याल में रह सके। पहली बात-अखंड को अनुभूति हो जाना पर्याप्त नहीं है। अभिव्यक्ति के लिए कुछ और करना पड़ता है अनुभूति के अतिरिक्त । अगर वह और न किया जाए तो अनुभूति होगी मगर व्यक्ति खो जाएगा। तीर्थकर वैसा अनुभवो है। वह जो कुछ करता है-अभिव्यक्ति के लिए। इसलिए महावीर को जो बारह वर्ष को साधना है वह मेरो दृष्टि में सत्य-उपलब्धि के लिए नहीं है। सत्य को उपलब्ध है। सिर्फ उसकी अभिव्यक्ति के सारे माध्यम सोजे जा रहे हैं उन बारह वर्षों Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ महावीर : मेरी दृष्टि में में। और, ध्यान रहे सत्य को जानना तो कठिन है ही, सत्य को प्रकट करना और भी कठिन है। महावीर की अपनी शक्ति है। अगर महावीर को सब मिल गया है तो यह तपश्चर्या, यह साधना, यह उपवास, यह बारह वर्षों का लम्बा काल-यह क्यों हो रहा है ? यह क्या कर रहे है ? अगर मैं कहता हूँ कि वह पाकर लौटे हैं तो यह क्या कर रहे हैं ? तो जितना गहरा देखने की मैंने कोशिश की उतना मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूँ कि यह अभिव्यक्ति के सब उपकरण खोजे जा रहे हैं और बहुत तरहों पर अभिव्यक्त करने की कोशिश की जा रही है जिसकी कम शिक्षकों ने फिक्र की है, कभी भी। यानी जीवन के जितने तल हैं और जितने रूप हैं, उन सब रूपों तक सत्य की खबर पहुँचाने की अद्भुत तपश्चर्या की है उन्होंने । यानी सिर्फ मनुष्य से ही यह नहीं बोल देना है क्योंकि मनुष्य तो सिर्फ जीवन की एक छोटी सी घटना है; मनुष्य जीवन-यात्रा को केवल एक सीढ़ो है-एक ही सोढ़ी पर सत्य नहीं पहुंचा देना है, मनुष्य से पीछे की सीढ़ियों पर भी उसे पहुंचा देना है, मनुष्य से भिन्न सीढ़ियों पर भी उसे पहुंचा देना है। यानी पत्थर से लेकर देवता तक सुन सकें, इसकी सारी व्यवस्था उन्होंने की है। जो चेष्टा है वह यह कि जीवन के सब रूपों से संवाद हो सके और सब रूपों पर सत्य को अभिव्यक्त किया जा सके। वह तपश्चर्या सत्य की उपलब्धि के लिए नहीं है, सत्य की अभिव्यक्ति खोजने के लिए है। और तुम हैरान होगे कि सुबह सूरज को देखकर सौन्दर्य को अनुभव कर लेना बहुत सरल है; लेकिन उगते हुए सूरज को चित्रित करने में हो सकता है कि जीवन लग जाए, तब माप समर्थ हो पाएं। विन्सेन्ट वानगोंग ने जो अन्तिम चित्र चित्रित किया है, वह है सूर्यास्त का। यह इधर मनुष्य जाति में हुए दो चार बड़े चित्रकारों में एक है वानगोंग । और अन्तिम चित्र उसने सूर्यास्त का चित्रित किया जिसे पूरा करते ही उसने आत्महत्या कर ली। और लिखा गया कि जिसे चित्रित करने के लिए जीवन भर से कोशिश कर रहा था वह काम पूरा हो गया। और अब सूर्यास्त ही चित्रित हो गया। अब और रहने का अर्थ क्या है और इतनी आनन्दपूर्ण घड़ी से मरने के लिए और अच्छी घड़ी न मिल सकेगी। सूर्यास्त चित्रित हो गया है, और वह मर गया है। आप हैरान हो जाएंगे कि इस चित्र को चित्रित करने के लिए उसने कैसी मुश्किलें उठाई, उसने सूर्यको कितने रूपों में देखा। सुबह से भूखा खेतों में पड़ रहा; जंगलों में पड़ा रहा; पहाड़ों पर पड़ा रहा। सूरज की पूरी यात्राएं, उसके भिन्न-भिन्न चेहरे, उसकी भिन्न-भिन्न स्थितियां, उसके भिन्न-भिन्न Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ रंग, उसका भिन्न-भिन्न रूप, वह जो प्रतिपल भिन्न होता चला जा रहा है, उगने से लेकर डूबने तक, उसकी सारी यात्रा और लीज' में जहां सूरज सबसे ज्यादा तपता है एक वर्ष तक, थोड़ा नहीं देखता रहा । पागल हो गया क्योंकि इतनी गर्मी सहना सम्भव नहीं था। एक वर्ष तक निरन्तर आँखें सूरज पर टिकी रहीं, आंखों ने जवाब दे दिया और सिर घूम गया। एक साल पागलखाने में रहा। जब पागलखाने से वापस हुमा तब कहा : अब चित्रित कर सकूँगा क्योंकि जब जिया ही न था, उसे देखा ही न था, उसके साथ ही न रहा था उसे कैसे चित्रित करता? एक सूर्यास्त को चित्रित करने के लिए एक आदमी एक वर्ष तक सूरज को देखे, पागल हो जाए, तब चित्रित कर पाए तो सत्य को, जिसका कोई प्रकट रूप दिखाई नहीं पड़ता, उसे कोई जाने, फिर शब्द में, और माध्यमों से उसे पहुँचाने की कोशिश करे तो उसके लिए लम्बी साधना की जरूरत पड़ेगी। महावीर की जो साधना है वह अभिव्यक्ति के उपकरण सोचने की साधना है। कठिन है: बहत ही कठिन है। उसे समझने की हम कोशिश करेंगे कि वह साधना में कैसे अभिव्यक्ति के लिए एक-एक सीढ़ी खोज रहे हैं, एक-एक मार्ग खोज रहे है। कैसे वह सम्बन्ध बना रहे हैं अलग-अलग जीवन की स्थितियों से, योनियों से । वह हमारे स्याल में आ जाएगा तो पूरी दृष्टि और हो जाएगी, सोचने की बात ही और हो जाएगी। Page #157 --------------------------------------------------------------------------  Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #159 --------------------------------------------------------------------------  Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : यदि जो कुछ महावीर ने पिछले जन्म में प्राप्त किया था, उससे विश्व के सभी तलों को लाभ हो, इसलिए अभिव्यक्ति के माध्यमों की सोज उन्होंने इस जन्म में की तो फिर उनके पिछले जन्मों की साधना क्या थी जिससे उनके बन्धन कट कर उन्हें सत्य की उपलब्धि हो सकी ? उत्तर : इस सम्बन्ध में सबसे पहली बात यह समझ लेनी जरूरी है कि तप या संयम से बन्धनों को समाप्ति नहीं होती; बन्धन नहीं कटते । तप और संयम कुरूप बन्धनों की जगह सुन्दर बन्धनों का निर्माण भर कर सकते हैं। लोहे की जंजीर की जगह सोने की जंजीर आ सकती है। जंजीर मात्र नहीं कट सकती है क्योंकि तप और संयम करने वाला व्यक्ति वही है जो अतप असंयम कर रहा था । उस व्यक्ति में कोई फर्क नहीं पड़ा है । एक आदमी व्यभिचार कर रहा है । इसके पास जो चेतना है, इसी चेतना को लेकर अगर कल वह ब्रह्मचर्य की साधना करने लगे तो व्यभिचार बदल कर ब्रह्मचर्य हो जाएगा। इस व्यक्ति के भीतर को चेतना जो व्यभिचार करती है ब्रह्मचर्य साधेगी । व्यभिचार जैसे एक बन्धन था, ब्रह्मचर्य भी एक बन्धन ही सिद्ध होने वाला है। इसलिए सवाल तप और संयम का नहीं है । सवाल है चेतना के रूपान्तरण का, चेतना के बदल जाने का । और चेतना को बदलने के लिए बाहर के कर्मों का कोई भी अर्थ नहीं है; चेतना को बदलने के लिए भीतर की मूर्छा के टूटने का प्रश्न है । चेतना के दो हो रूप हैं; मूच्छित और अमूच्छित; जैसे कर्म के और असंयम । अगर कर्म में की जगह, मगर चेतना इससे दो रूप हैं- संयम बदलाहट की गई तो संयम आ सकता है असंयम अमूच्छित दशा में नहीं पहुँच जाएगी। मूच्छित के भीतर व्यक्ति सोया हुआ हैं, प्रमाद में है। वह अप्रमाद में कैसे पहुँचेगा ? Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ महावीर : मेरी दृष्टि में महावीर की पिछले जन्मों की साधना अप्रमाद की साधना है। हमारे भीतर जो जीवन चेतना है वह कैसे परिपूर्ण रूप से जागृत हो ? इस विषय में महावीर कहते हैं : 'हम विवेक से उठे, विवेक से बैठे विवेक से चलें, विवेक से भोजन करें, विवेक से सोएँ भी।' अर्थ यह है कि उठते-बैठते, सोते, खाते-पीते प्रत्येक स्थिति में चेतना जागृत हो, मूच्छित नहीं । थोड़े गहरे में समझना उपयोगी होगा। हम रास्ते पर चलते हों तो शायद ही हमने कभी ख्याल किया हो कि चलने की जो क्रिया हो रही है, उसके प्रति हम जागृत हैं । हम भोजन कर रहे हैं तो शायद ही हमें यह स्मरण रहा हो कि भोजन करते वक्त जो भी हो रहा है उसके प्रति हम सचेत हैं। चीजें यन्त्रवत् हो रही हैं। रास्ते के किनारे खड़े हो जाएं और लोगों को रास्ते से देखें तो ऐसे लगेगा कि मशीनों की तरह वे चले जा रहे हैं। ऐसे भी लोग दिखाई पड़ेंगे जो हाथ हिलाकर किसी से बातें कर रहे हैं और साथ में कोई भी नहीं है। ऐसे लोग भी मिलेंगे जिनके होठ हिल रहे हैं और बात चल रही है लेकिन साथ में कोई भी नहीं है। किसी स्वप्न में खोए हुए, निद्रा में डूबे हुए ये लोग मालूम पड़ेंगे। दूसरे के लिए ही नहीं है ऐसा। हम अपने में भी देखें, अपना भी ख्याल करें तो यही प्रतीत होगा। जीवन में हम ऐसे जीते हैं जैसे किसी गहरी मूर्छा में पड़े हों। हमने जिन्हें प्रेम किया है, वह मूर्छा में, हमें पता नहीं क्यों ? हम नहीं बता सकते कोई कारण । हमने जिनसे घृणा को है, वह मूर्छा में; हम जब क्रोष किए है तब मूर्छा में; हम जैसे भी जिए हैं उस जीने को एक सजग व्यक्ति का जीना तो नहीं कहा जा. सकता। वह एक सोए हुए व्यक्ति का जीना है। कुछ लोग हैं जो रात में भी नींद में उठ पाते हैं। एक बीमारी है निद्रा में चलने की नींद में उठते हैं, खाना खा लेते हैं, घूम लेते हैं, किताब पढ़ लेते हैं, फिर सो जाते हैं। सुबह उनसे पूछिए वे कहेंगे-कौन उठा? कोई भी नहीं उठा। अमेरिका में एक आदमी पा जो रात निद्रा में उठकर अपनी छत से पड़ोसी की छत पर पहुँच जाता था। पाठ-नौ मंजिल के मकानों की छत पर से कूदना और बीच में फासला दस-बारह फुट का। यह रोज चल रहा था। धीरे-धीरे पड़ोसियों को पता चला कि वह रोज रात यह करता है। एक दिन सो-पचास लोग नीचे इकट्ठे हुए देखने के लिए। वह तो नींद में करता था। होश में तो वह छलांग भी नहीं लगा सकता था। जैसे ही छलांग लगाने को हुवा नीचे लोगों ने जोर से आवाज दी और उसकी नोंद टूट गई। वह बीच खड्ड में गिर गया और प्राणान्त हो गया। यह वह वर्षों से कर रहा था लेकिन वह मानता नहीं था कि मैं यह करता हूँ। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ६ १७३ निद्रा में हम बहुत से काम करते हैं । लेकिन जागे हुए भी किसी सूक्ष्म निद्रा में हम जीते हैं, इसे महावीर ने प्रमाद कहा है । जागे हुए भी, होश से भरे हुए भी हमारे भीतर एक धीमी सी तन्त्रा का जाल फैला हुआ है । जैसे एक आदमी ने आपको धक्का दिया है और आप क्रोध से भर गए हैं । कभी आपने सोचा कि यह क्रोध आपने जानकर किया है या कि हो गया है । जैसे बिजली का बटन दबाएँ तो पंखा चल पड़ता है । हम पंखा को नहीं कह सकते कि पंखा चल रहा है। पंखा सिर्फ चलाया गया है । और एक आदमी ने आपको धक्का दिया फिर आपके भीतर क्रोध चल पड़ा। हम यह नहीं कह सकते हैं कि आपने क्रोध किया है । हम इतना ही कह सकते हैं कि बटन किसी ने दबाया और क्रोध चल पड़ा। आप भी नहीं कह सकते कि मैं क्रोध कर रहा हूँ क्योंकि जो आदमी यह कह सकता है कि मैं. क्रोध कर रहा हूँ उस आदमी को कभी क्रोध करना सम्भव नहीं है । क्योंकि अगर वह मालिक है तो करेगा ही नहीं । अगर मालिक नहीं है तो ही कर सकता है । हमारी सारी जीवन क्रिया सोई-सोई है । हम सब नींद में चल रहे हैं । इसे महावीर ने कहा है प्रमाद । यह है मूर्च्छा । और साधना एक ही है कि कैसे हम क्रिया मात्र में जागे हुए हो जाएं ? क्योंकि जैसे ही हम जागेंगे वैसे ही चेतना का रूपान्तरण शुरू हो जाएगा। आपने कभी ख्याल किया कि रात जब आप सोते हैं तब आपकी चेतना बिल्कुल दूसरी हो जाती है। वही नहीं रहती जो जागने में थी । सुबह जब आप जागते हैं तो चेतना वही नहीं रहती जो जागने में थी । सुबह जब आप जागते हैं तो चेतना वही नहीं रहती जो सोने में थी । चेतना मूल रूप से दूसरे तलों पर पहुँच जाती है। जो आपने कभी सोचा नहीं था वह आप कर सकते हैं रात में। जो आप कल्पना नहीं कर सकते थे कि पिता को मार डालूं, वह आप रात में हत्या कर सकते हैं । और जरा भी दहशत नहीं होगी मन को । दिन में जो भो आप थे, जो आपके सम्बन्ध थे, वे सब खो गए निद्रा में । एक धनो वैसा ही साधारण हो गया है निद्रा में जैसा एक दरिद्र भिखमंगा सड़क पर सोया हो । ● एक फकीर था । उसके गांव का सम्राट् एक दिन उसके पास से निकल रहा था । सम्राट् ने उससे पूछा कि हममें तुममें क्या फर्क है ? फर्क तो निश्चित है । तुम भिखारी हो एक गाँव के सड़क पर मोख मांगने वाले आदमी ने कहा, फर्क जरूर है लेकिन जहाँ तक जागने का सोने के बाद हममें तुममें कोई फर्क नहीं। क्योंकि सोने के । मैं सम्राट् हूँ । उस सम्बध है वहीं तक । बाद न तुम्हें ख्याल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में रह जाता है कि तुम सम्राट् हो, और न मुझे कि मैं भिखारी हूँ। खेल जगने का है । सोने में आपको यह भी पता नहीं रह जाता कि आप कौन हैं । जो आप जागने में थे उसका भी पता नहीं रह जाता। आपकी उम्र क्या है यह भी पता नहीं रह जाता। आपका चेहरा कैसा है यह भी पता नहीं रह जाता। आप बीमार हैं कि स्वस्थ यह भी पता नहीं रह जाता। निश्चित ही चेतना किसी और तल पर सक्रिय हो जाती है। इस तल से एकदम हट जाती है। नोंद और जागने की साधारण स्थितियों से हम जान सकते हैं कि अगर हम जागने को भी समझें कि वह भो एक तन्द्रा है तो वह तन्द्रा जिसकी टूट जाती होगी, वह बिल्कुल ही नए लोक में प्रवेश कर जाता होगा। साधना का एक ही अर्थ है कि हम कैसे जागे हुए जीने में प्रवेश कर जाएं और महावीर को पूरी साधना ही इतनी है कि सोना नहीं है, जागना है। जागने को प्रक्रिया क्या होगो ? जागने की प्रक्रिया जागने का ही प्रयास होगी। जैसे किसी आदमी को हमें तैरना सिखाना है तो वह हमसे कहे कि तैरना सीखने का कोई रास्ता बतायें क्योंकि मैं तो तभी पानी में उतरूंगा जब तैरना सीख जाऊं; बात तो वह बिल्कुल ठोक दलील को कह रहा है कि बिना तैरना जाने पानी में उतरना खतरनाक है । लेकिन सिखाने वाला कहेगा कि अगर तुम बिना तैरे पानी में उतरने को राजी नहीं हो तो तैरना कैसे सिखाया जा सकता है ? क्योंकि तैरना सीखने की एक ही तरकीब है कि तैरो! तैरना सीखने को और कोई तरकीब ही नहीं है । तैरना शुरू करना पड़ेगा । पहले हाथपैर तड़फडाओगे; उल्टा सीधा गिरोगे, डूबोगे, उतरोगे। लेकिन तैरना शुरू करना पड़ेगा। उसी शुरूआत से तैरना घोरे-धीरे व्यवस्थित हो जाएगा और तैर सकोगे। लोग भी पूछते हैं : जागने की तरकीब क्या है ? जागने की कोई तरकीब नहीं है। जागना ही पड़ेगा। पहले हाथ-पैर तड़फड़ाने पड़ेंगे; गलत-सही होगा; डूबना उतरना होगा। क्षण भर को जागेंगे फिर सो जाएँगे ऐसा होगा। लेकिन जागना ही पड़ेगा। निरन्तर जागने को धारणा से धीरे-धीरे जागना फलित हो जाता है। ___ जागने की तरकीब-का मतलब इतना ही है कि हम जो भो करें यह हमारा प्रयास हो, यह हमारा संकल्प हो कि हम उसे जागे हुए करेंगे। और आप इसको कोशिश करेंगे तो आप पाएंगे कि भींद बहुत गहरी है। एक क्षण भी नहीं जाग पाते है कि नोंद पकड़ लेती है। एक छोटा सा काम है-रास्ते पर चलने का Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६ और आप तय करके ही चलें कि आज मैं जागा हुआ ही चलूंगा तब आपको पता चलेगा कि निद्रा कितनी गहरी है और निद्रा का क्या मतलब है। आप एक सेकेंड एक दो कदम उठा पाएंगे कि फिसल जाएगा दिमाग, चलने की क्रिया से हट जाएगा, और कहीं चला जाएगा। फिर आपको ख्याल माएगा कि मैं फिर सो गया; जागना तो भूल गया था; चलना तो भूल गया था। क्षण भर को भी पूरी तरह जाग कर चलना मुश्किल है क्योंकि नींद बहुत गहरी है लेकिन हमें नींद का पता नहीं चलता क्योंकि हमें जागने का कोई पता ही नहीं है । तो तुलना नहीं है हमारे पास कि हम किसको जागना और सोना कहते हैं। एक आदमी ऐसा पैदा हो जो रात न सो सके, उसे कभी पता नहीं चलेगा कि वह जिस हालत में है, वह जागी हुई हालत है। इस सोए और जागने में उसे फर्क तभी हो सकता है जब वह दूसरी स्थिति को भी समझ ले। जब महावीर जैसे लोग कह रहे हैं कि हम सोए हुए जी रहे हैं तो हमारी समझ में नहीं पड़ती बात । क्योंकि जागकर जीने का क्षण भर का अनुभव भी हमें नहीं है। तुलना कहां से हो, कैसे हो? कहां तोलें ? इसका थोड़ा सा प्रयास करें। एक क्षण को भी अगर जागकर चल लेंगे दो कदम तो आप पाएंगे कि बिल्कुल हो अलग चित्त की दशा है। लेकिन क्षण भर में खो जाते हैं और नींद फिर पकर लेतो है जेसे बादल जरा सो देर को हटते हैं और सूरज दिख भी नहीं पड़ता कि फिर घिर जाते हैं । और नींद का हमारा लम्बा अभ्यास है, और अकारण नहीं है नींद का अभ्यास । कारण है उसमें कारण है उसमें । पहला कारण तो यह है कि सोए हुए जीना बड़ा सुविधापूर्ण है। इसलिए सुविधापूर्ण जीने में-क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है, क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे है-इसकी कोई विभेदक रेखा नहीं खिचती। जगे हए व्यक्ति को फोरन विभेदक रेखा खड़ी हो जाती है कि यह करने जैसा है, यह न करने जैसा है। और फिर जो न करने जैसा है उसे करने में वह एकदम असमर्थ हो जाता है। और जिसे हम जिन्दगी कह रहे हैं, उसमें निन्यानवे प्रतिशत ऐसा है जो न करने जैसा है ! जिसे हम सोए रहें तो ही कर सकते हैं, जागें तो नहीं कर सकते। और जो जागता जाता है, वह नहीं कर पाता है। भीतर कहीं भय भी है कि जैसे हम हैं उसमें कहीं से आमूल उपद्रव न हो जाए । इसलिए सोए हुए चलना हो ठीक मालूम पड़ता है। दूसरी बात है कि सोए हुए लोगों के साथ सोए हुए होने में ही सरसता पड़ती है। चारों तरफ लोग सोए हुए हों और एक आदमो जाग जाए तो आप नहीं समझ सकते कि इसकी कठिनाई कैसी होगी? Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में मेरे एक मित्र थे, वह पागल हो गए । पागल हो गए १९३६ के करीब । वे घर से भाग गए और एक अदालत में पकड़े गए । कुछ उन पर मुकदमें चले । मजिस्ट्रेट ने कहा - " वह पागल है, उन्हें छः माह की सजा दी जाय लेकिन सजा उनकी पायलखाने में कटे ।" और लाहौर के पागलखाने में भेज दिए गए । वह मुझे कहते हैं कि दो महीने मेरे बड़े कटे क्योंकि मैं पागल वा और सब वहाँ पागल थे । कोई तीन सो जमाव था। आनन्द से पागलों का बड़ा आनन्द १७६ ही आनन्द था । बाहर मैं कष्ट में ही था। चूंकि मेरा ताल-मेल ही नहीं बैठता था किसी से; चूंकि सब ठीक थे मैं पागल था, मैं जो करता उनको न जँचता वह जो करते, मुझको न जँचता था । पागलखाने में पहुंच कर तो मैं जैसे स्वर्ग में पहुँच गया । जाकर जो मैंने पहला काम किया वह परमात्मा को, उस मजिस्ट्रेट को धन्यवाद दिया जिसने मुझे पागलखाने में भेजा था । सब अपनेजैसे लोग थे । बहुत ही बढ़िया था सब । लेकिन दो महीने बाद बड़ी मुश्किल हो गई । छः महीने की सजा हुई थी और दो महीने बाद, पागलखाने में कहीं एक डिब्बा मिल गया रखा हुआ फिनायल का; और वह उसको उठा कर पी गए । पागल आदमी थे । वह फिनायल पी गए । इस फिनायल पीने से उनको पन्द्रह दिन तक इतने के दस्त हुए कि सारी सफाई हो गई और सब गर्मी निकल गई; वह बिल्कुल ठीक हो गए । यानी उस पागलखाने में वह गैर पागल हो गए। और वह डाक्टरों को कहने लगे कि अब मैं बिल्कुल ठीक हो गया हूँ । और अब मेरी बड़ी मुसीबत हो गई है । लेकिन वहाँ कौन मानता था क्योंकि डाक्टरों ने कहा यहाँ सभी पागल यही कहते हैं कि हम ठीक हैं । यह कोई बात है । कोई पागल कभी मानता है कि मैं पागल हूँ। उन्होंने जितनी समझाने की कोशिश की, कोई समझने को राजी न था । छः महीने की सजा पूरी करनी पड़ी । वह मुझसे कहते थे कि चार महीने मेरे इतने कष्ट में कटे कि ऐसा नरक में कोई किसी को न डाले । क्योंकि सब थे पागल और मैं हो गया था ठीक । कोई मेरी टांग खींच रहा है; कोई मेरा कान घुमा रहा है; कोई धक्का ही मार देता है; कोई पानी ही डाल देता है ऊपर आकर; सो रहा हूँ तो कोई घसीट होऊंगा दो महीने ( कर दो कदम आगे कर जाता है। यह मैं भी करता रहा पहले । लेकिन तब हम सब साथी थे। तब कभी स्थाल न गलत कर रहा हूँ । अब बड़ी मुश्किल हो गई । और अब मैं कि मैं भी यही करूँ । अब मैं न किसी की टांग खींच सकता, और न किसी पर आया था कि यह असमर्थ हो गया . पानी डाल सकता । मैं बिल्कुल ठीक था और वे सब पागल थे । उनको जो Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६ १७७ मर्जी आती वे करते। कोई चलते चपत मार जाता, कोई बाल खींच जाता, कोई आकर कंधे पर बैठ जाता, कोई गोदी में बैठ जाता। चार महीने निरन्तर यही भगवान से प्रार्थना रही कि या तो जल्दी बाहर कर या फिर पागल कर दे। क्योंकि यह तो फिर बड़ा असुविधापूर्ण हो गया। पागलखाने में किसी आदमी के ठीक हो जाने की जो तकलीफ है, वही सोए हुए जगत् के बीच जागने की तकलीफ है। क्योंकि वह आदमी फिर सोए हुए आदमी के ढंग से व्यवहार नहीं कर सकता और सोया हुआ आदमी तो अपना ढंग जारी रखता है। तो महावीर जैसे लोग जिस कष्ट में पड़ जाते हैं, उस कष्ट का हम हिसाब नहीं लगा सकते क्योंकि हमें पता ही नहीं है कि वह कष्ट कैसा है? क्योंकि हम सोए हुए लोगों के बीच में एक आदमी जाग गया, उसकी भाषा बदल गई, उसकी चेतना बदल गई, वह एकदम अजनबो हो गया। __ अगर एक तिब्बती भारत में आ जाए या आप तिब्बत में चले जाएं तो जो अजनबोपन है वह सिर्फ भाषा के शब्दों का है, बहुत ऊपर का अजनबीपन है, भीतर आदमी एक जैसे हैं । क्रोध उसको आता है, क्रोध आपको आता है । घृणा उसको आती है, घृणा आपनो आती है। ईर्ष्या में वह जीता है, ईर्ष्या में आप जोते हैं। फर्क है तो इतना कि ईर्ष्या का शब्द आपका अलग है, उसका अलग। थोड़े दिनों में पहचान हो जाएगी और 'ईया' के शब्द मेल खा जाएंगे तब अजनबीपन मिट जाएगा। यानी साधारणतः पृथ्वी के अलग-अलग कोनों पर रहने वाले को हम अजनबोपन कहते हैं। लेकिन वह अजनबीपन वड़ा छोटा है. सिर्फ भाषा का है । आदमी-आदमी एक जैसे हैं। लेकिन जब कोई आदमी सोई हुई पृथ्वी पर जागा हुआ हो जाता है तो जो अजनबीपन शुरू होता है, उसका हिसाब लगाना मुश्किल है, क्योंकि अब भाषा का भेद नहीं, अब तो सारी चेतना का भेद पड़ गया है । सब आमूल बदल गया है। अगर हमें कोई गाली देता है तो हमारे भीतर क्रोध उठता है। उसे कोई गाली देता है तो उसके मोटर करुणा उठती है। इतनी चेतना का फर्क हो गया है क्योंकि उसे दिखाई पड़ता है कि एक मादमी बेचारा गाली देने की स्थिति में माया है, कितनी तकलीफ में होगा। और उसके भीतर से करुणा बहनी शुरू हो जाती है और हमारे लिए समझना आसान है-अगर आप मुझे गाली दें, और मैं भी आपको गाली दूं। तो, आपका मैं मित्र हूँ क्योंकि आपको दुनिया का ही निवासी हूँ। आप मुझे गाली दें और मैं आपको प्रेम करतो आप जितना क्रोध से भरेंगे मेरे प्रति उतना गाली देने वाले के प्रति शायद न भरें। १२ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ महावीर : मेरी दृष्टि में सपना देख रहा था । क्योंकि न तलवार थी हाथ में, न वजीर ये सामने लेकिन तुम जब निकले वहाँ से अगर वह उस समय मर गिर जाता। अब अगर पूछते हो इस लेकिन गया है। लेकिन सम्राट् ने कहा : सपने में गर्दन काट रहा था। आता तब वह सातवें नरक में वक्त तो वह श्रेष्ठतम स्वर्ग पाने का हकदार मभी घड़ी भर भी नहीं हुआ हमें वहाँ से गुजरे । महावीर ने कहा कि जब उसने तलवार रख दी नीचे तो जैसी उसकी सदा आदत थी युद्धों के बाद अपने मुकुट को संभालने की, वह सिर पर हाथ ले गया । लेकिन सिर पर तो घुटी हुई खोपड़ी थी । वहाँ कोई मुकुट न था । तब एक सेकेन्ड में वह जाग गयासारी निद्रा से वापस आ गया । सब स्वप्न खंड-खंड हो गए। और उसने कहा कि 'मैं यह क्या कर रहा हूँ ? और मैं वह प्रसन्नचन्द्र नहीं हूँ अब जो तलवार उठा सके। उसके उठाने का तो मैं ख्याल छोड़ कर आया हूँ ।' और क्षण में वह लौट आया है । इस समय वह बिल्कुल वहीं खड़ा है । अभी वह स्वर्ग का हकदार है । हो € हम सोए हैं तो हम नरक में हो जाते हैं, हम जागे हैं तो स्वर्ग में हो जाते हैं । यह जागने की चेष्टा हमें सतत करनी पड़ेगी । जन्म-जन्म भी लग सकते हैं । एक क्षण में भी हो सकता है। कितनी तीव्र हमारी प्यास है, कितना तीव्र संकल्प है - इस पर निर्भर करेगा । तो महावीर ने अपने पिछले जन्मों में अगर कुछ भी साधा है तो साधा है विवेक, साधा है जागरण । और इस जागरण की जितनी गहराई बढ़ती चली जाती है उतने ही हम मुक्त होते चले जाते हैं क्योंकि बंधने का कोई कारण नहीं रह जाता । उतने ही हम पुण्य में जीने लगते हैं क्योंकि पाप का कोई कारण नहीं रह जाता। उतने ही हम अपने में जीने लगते हैं क्योंकि दूसरे में जीना भ्रामक हो जाता है। उतना ही व्यक्ति शान्त है, उतना ही अनन्दित है, जितना जागा हुआ है । जिस दिन पूर्ण जागरण की घटना घट जाती है; चेतना के कण-कण जागृत हो उठते हैं; कोने-कोने से निद्रा विलीन हो जाती है । उस दिन के बाद फिर लौटना नहीं । उस दिन के बाद फिर . परिपूर्ण जागना । ऐसी परिपूर्ण जागी हुई चेतना ही मुक्त चेतना है । सोई हुई चेतना, बंधी हुई चेतना है । इसलिए ध्यान से समझ लें कि पाप नहीं बांधता है कि हम पुष्य से उसको मिटा सकें । मूर्च्छा बांधती है। मूच्छित पाप भी 1 बांधता है, मूच्छित पुण्य भी बांधता है। मूच्छित असंयम भी बांधता है, मूच्छित संयम भी बांधता है । और इसलिए यह बहुत समझ लेने जैसा है कि अगर कोई असंगम से संयम बनाने में लग गया है तो कुछ भी न होगा; पाप को पुण्य बनाने Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परलोत्तर-प्रवचन-६ १५३ में लग गया है तो कुछ न होगा; क्रूरता को दया बनाने में लग गया है तो भी कुछ न होगा क्योंकि वह व्यक्ति केवल क्रिया को बदल रहा है और उसके भीतर की चेतना वैसी की वैसी अमूच्छित बनी है और कई बार उल्टा भी हो जाता है । उल्टे का मतलब यह कि कई बार लोहे को जंजीर हो ठोक है क्योंकि उसे तोड़ने का मन भी करता है। और सोने की जंजीर गलत है क्योंकि उसे संभालने का मन करता है। क्योंकि सोने की जंजीर को जंजीर समझना मुश्किल है। सोने को जंजोर को आभूषण समझना आसान है। इसलिए पापी भी कई बार जागने के लिए आतुर हो जाता है। और जिसे हम साधु कहते हैं, वह जागने के लिए आतुर नहीं होता। फर्क ऐसा हो है जैसे कोई आदमी दुखद स्वप्न देख रहा है और एक आदमी सुखद स्वप्न देख रहा है लेकिन मुखद स्वप्न देखने वाला जागना नहीं चाहता। वह चाहता है कि थोड़ी देर और सोलूं। सपना बहुत सुखद है, कोई तोड़ न दे। और थोड़ी देर सोलूं। लेकिन दुखद स्वप्नवाला, ( दुःस्वप्न ) वाला, एकदम जाग जाता है हड़बड़ा कर । पापी दुखद म्वप्न देख रहा है। पुण्यात्मा सुखद स्वप्न देख रहा है। इसलिए बहुत बार डर है कि पापी जाग जाए, पुण्यात्मा रह जाए। मैं यह कहता है कि इसकी फिक्र ही मत करना कि पाप को कैसा पुण्य बनाएँ, असंयम को कैसे संयम बनाएँ, हिंसा को कैसे अहिंसा बनाएँ, कठोरता को कैसे दया बनाएँ। इस चक्कर में ही मत पड़ना । सवाल यह है ही नहीं कि हम क्रिया को कैसे बदले। सवाल यह है कि कर्ता कैसे बदले ? अगर कर्ता बदल जाता है तो क्रिया भी बदल जाती है। क्योंकि तब व्यक्ति किसी क्रिया के करने में असमर्थ और किसी क्रिया के करने में समर्थ हो जाता है। भीतर से कर्ता बदला, चेतना बदली। तो मैं कहता हूँ कि पाप वह है जो सजग व्यक्ति नहीं कर सकता है और पुण्य वह है जो जागे हुए व्यक्ति को करना ही पड़ता है। इसलिए ऐसे भी पुण्य हैं जो किए हुए पाप हैं क्योंकि आदमी ही सोया हुआ है । दिखता पुण्य है, वह होगा पाप ही क्योंकि आदमी ही सोया हुआ है। सोया हुआ आदमी केसे पुण्य कर सकता है ? इसलिए पुण्य दिखाई पड़ेगा, भीतर पाप छिपा होगा। और ऐसा भी सम्भव है कि जागा हुमा व्यक्ति कुछ ऐसे काम करे जो आपको पाप लगें मगर वे पार न हों। क्योंकि जागा हुमा व्यक्ति पाप कर ही नहीं सकता। इसलिए दोनों तरह की भूलें सम्भव है। कबीर को एक रात ऐसा हुआ। कलीर थोड़े से जागे हुए लोगों में से एक हैं । रोज लोग आते हैं कबीर के घर सुबह, भजन-कीर्तन चलता है, कबीर के Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ महावीर : मेरी दृष्टि में पास बैठते हैं, फिर जाने लगते हैं। कबीर कहता है खाना तो खा जाओ। कभी दो सौ, कभी चार सौ गरीब आदमी। कबीर का बेटा और पत्नी परेशान हो गए। और उन्होंने कहा-हमारी बरदाश्त के बाहर है । हम कैसे सम्भाल पाएं, कैसे इन्तजाम करें ? आपने इतना कह दिया कि 'भोजन कर जाओ।' यह भोजन हम कहां से लाएं ? कबोर ने कहा कि भोजन लाने की व्यवस्था इतनी कठिन नहीं है जितनी घर आए आदमी को खाने के लिए न कहें, यह कठिन है। यह हो नहीं सकता कि कोई घर में आए और मैं उसको कहूँ कि खाना मत खाओ। तो आप कुछ इन्तजाम करो। आखिर कब तक इन्तजाम चलता। उधारी भी ले ली गई। उधारी भी चढ़ गई। फिर एक दिन साँझ लड़के ने कहा कि अब बरदश्त के बाहर हो गया है। कोई हम चोरी करने लगें ? कबीर ने कहा : अरे यह तुम्हें ख्याल क्यों नहीं आया अब तक ? लड़के ने क्रोध में कहा था लेकिन यह सुनकर लड़का हैरान हुआ कि कबीर कहते हैं कि तुम्हें चोरी करने का ख्याल क्यों नहीं आया ? तब लड़के ने बात को जांचने के लिए कहा : तो क्या मैं चोरी करने जाऊँ ? कबीर ने कहा : हाँ ! अगर मेरी जरूरत हो तो मैं भी चल। लड़के ने और जाँचने के लिए कहा : अच्छा ठीक है, मैं चलता हूँ। उठो आप। पर उसको समझ के बाहर हो गई यह बात कि कबीर और चोरी करें। समझ रहे हैं कबीर कि नहीं समझ रहे हैं कि मैं क्या कह रहा हूँ। फिर जाकर उस लड़के ने एक दीवाल खोद डाली, सेंध लगा दी। कबीर से कहता है : जाऊँ भीतर ! कबीर कहते हैं : बिल्कुल चला जा। वह भीतर गया। वह वहाँ से एक बोरा गेहूँ खिसका कर लाया बाहर । बाहर बोरा निकल आया। कबीर उसे उठाने लगे और फिर उस लड़के से पछा : घर के लोगों को कह आया है कि नहीं कि हम एक बोरा ले जाते हैं। तब लड़के ने कहा कि चोरी है यह । कोई दान में तो नहीं ले जा रहे, किसी ने भेंट तो नहीं की। तब कबीर ने कहा : यह नहीं हो सकता। तुम जा कर कह आ घर में कि हम चोरी करके एक बोरा ले जा रहे हैं। घर के मालिक को खबर तो कर देनी चाहिए। बड़ी अद्भुत बात है। दूसरे दिन लोगों ने कबीर से पूछा तो कबीर ने कहा : बड़ी गलती हो गई। गलती इसलिए कि यह भाव ही चला गया कि क्या मेरा है, क्या उसका है। तब बाद में ख्याल आया कि चोरी तो उसी भाव का हिस्सा था कि वह उसकी. चीज है, यह मेरी। जब मेरी कोई चीज न रही तो किसी की कोई चीज न रही। पर इतनी बात जरूर थी कि घर Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६ १८५ से लाये थे; सुबह ढूंढेगा, परेशान होगा, इतनी खबर कर देनी चाहिए कि एक बोरा ले जाते हैं। __ अब इस आदमी को समझना हमें बड़ा मुश्किल हो जाएगा। इसके चोरो करने में भी इतना अद्भुत पुण्य है क्योंकि उसे यह भाव ही खो गया है कि क्या दूसरे का है, क्या अपना ? कबीर जैसा व्यक्ति अगर चोरी करने भी चला जाए तो भी पुण्य है। और हम जैसा व्यक्ति अगर दान भी करता हो तो भी चोरी है। क्योंकि दान में भी हमारी जो वृत्ति और मूर्छा होगी, वह चोरी की है । दान में भी हमें लगता है कि यह मेरा है और इसे मैं दे रहा हूँ । और कबीर को चोरी में भी नहीं लगता कि वह दूसरे का है और मैं ले रहा हूँ। यह जो फर्क हमें ख्याल में आ जाए तो वह दान हमारा पाप है क्योंकि उसमें 'मेरा' मौजूद है । और कबीर की चोरी को कोई परमात्मा कहीं बैठा हो तो पाप नहीं कह सकता क्योंकि वहाँ 'मेरा' नहीं है। हाँ इतनी बात थी कि घर के लोगों को खबर कर देनी थी, नहीं तो सुबह बेचारे ढूंढेंगे। वह जो खबर करवाने भेजी है, वह इसलिए नहीं कि चोरी बुरी चाज है, बल्कि इसलिए कि सुबह घर के लोग व्यर्थ में ही धूप में परेशान होंगे, खोजेंगे कि कहां चला गया बोरा । इतना जगाकर तू खबर कर आ, मैं घर चलता हूँ । ' यह जो ऐसा बहुत बार हुआ है हमें समझना मुश्किल हो जाता है। अब जैसे कृष्ण ही हैं । अर्जुन समझ नहीं पाया कृष्ण को। अर्जुन समझ लेता तो बात ही और होती । अर्जुन भाग रहा है कि "ये मेरे प्रिय जन हैं, मर जाएंगे।" कृष्ण उसे कहते हैं : “पागल, कभी न कोई मरता है न कोई मारता है।" अब कृष्ण किस तल पर खड़े होकर कह रहे हैं, अर्जुन को कुछ खबर नहीं। अर्जुन जिस तल पर खड़ा है, वही समझेगा न ? अर्जुन समझ रहा था-'मेरे है।' कृष्ण कहते हैं-'कौन किसका है', यह दो बिल्कुल अलग तलों पर बात हो रही है । और मैं समझता हूँ कि गोता को पढ़ने वाले निरन्तर इस भूल में पड़े हैं। क्योंकि बिल्कुल, भिन्न तलों पर यह बात हो रही है । अर्जुन कहता है-"ये मेरे प्रिय जन हैं, मेरे गुरु हैं। मेरे रिश्तेदार हैं।" कृष्ण कहते हैं : "कौन किसका है ? कोई किसी का नहीं है । अपने हो तुम नहीं हो ।' अर्जुन समझ लेता तो फिर ठोक था। मगर उसने गलत समझा। उसने समझा कि जब कोई अपना नहीं है तो मारा जा सकता है। पीड़ा तो अपने की होती है। अर्जुन कहता है कि मर जाएंगे तो पाप, लगेगा। कृष्ण कहते हैं कि न कभी कोई मरा और न कभी किसी ने मारा । शरीर के मारने से कहीं वह मरता है, Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ महावीर : मेरी दृष्टि मैं जो भीतर है । यह बिल्कुल और तल से कही जा रही है बात । अर्जुन सोचता है कि जब कोई मरता ही नहीं तो मारने में हर्ज ही क्या है ? मारो । और यह भूल निरन्तर चलती रही है। यानी मैं मानता हूँ कि अगर अर्जुन कृष्ण को ठीक समझ जाता तो महाभारत का युद्ध कभी नहीं हो सकता था । लेकिन अर्जुन समझा ही नहीं । और समझने की कठिनाई जो थी वह भी मैं मानता हूँ । कठिनाई यही है कि कृष्ण जिस चेतना में खड़े होकर कह रहे हैं, वह अर्जुन की चेतना नहीं है । सवाल अर्जुन को चेतना को बदलने का है । जो अर्जुन ने समझा, वह उसने किया। अब अगर कबीर का बेटा —कल कबीर मर जाए, और कल उसके घर में खाना न हो तो चोरी कर लाएगा क्योंकि वह क्योंकि खुद कबीर ने साथ दिया था गया था, वह बात और थी । ओर बात और है । यह दो तल ऐसी ही भूल कृष्ण और नहीं मिट सकी। ओर कहेगा कि चोरी में पाप ही क्या है ? चोरी में । लेकिन कबीर जिस चोरी को कमाल उसका बेटा जिस चोरी को चला जाए वह की बातें थीं जिनमें भूल हो जानी सम्भव है । और अर्जुन के बीच हो गई है और वह भूल अब तक हजार-हजार टोकाएँ लिखी गई है गीता पर । लेकिन किसी को नहीं । भूल बुनियादी हो गई है । दो अलग चेतनाओं के बीच में हुई बात में निरन्तर भूल हो गई है क्योंकि जो कहा गया वह समझा नहीं गया । जो इसलिए मेरा जोर निरन्तर यह है कि हम हम चेतना को बदलने के विचार में पड़ें चेतना बदल जाती है तो कर्म बदल. भूल ख्याल में समझा गया वह कहा नहीं गया । कर्म को बदलने के विचार में न पड़ें, क्योंकि चेतना से कर्म आता है। जाते हैं । महावीर की पूरी साधना विवेक की साधना है, संयम की साधना नहीं । क्योंकि विवेक से संयम छाया की तरह आता है । लेकिन निरन्तर यह समझा गया है कि महावीर संयम की साधना कर रहे हैं । और वह बुनियादी भूल है । प्रश्न : मुक्त आत्माओं में करुणा शेष रह जाती है और करुणा भी वासना का ही एक सूक्ष्म रूप है - ऐसा आपने कहा । वासना में सदा द्वन्द्व रहता है । सदा दो रहते हैं - परस्पर विरोधी दो । ऐसी स्थिति में करुणा का विरोधी कौन सा तत्व है, जो मुक्त आत्माओं में शेष रह जाता है ? उत्तर : पहली बात यह है कि करुणा वासना का सूक्ष्म रूप है - ऐसा नहीं । करुणा वासना का अन्तिम रूप है । दोनों में भेद है । अन्तिम रूप से मेरा Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ६ १८७ मतलब है कि वासना और निर्वासना के बीच जो सेतु है - चाहे हम करणा को वासना का अन्तिम रूप कहें, चाहे करुणा को निर्वासन का प्रथम रूप कहें, यह बीच की कड़ी है, जहाँ वासना समाप्त होती है और निर्वासना शुरू होती है । करुणा सूक्ष्म रूप नहीं है वासना का । अगर सूक्ष्म रूप हो तो करुणा में भी द्वन्द्व रहता ही है । इसलिए वासना में दुःख है क्योंकि जहाँ द्वन्द्व है, वहाँ दुःख है । वासना चाहे कितनी ही सुखद हो, उसके पीछे उसका दुखद रूप खड़ा ही रहेगा । सब वासनाएं एक सीमा पर अपने से विपरीत में बदल जाती हैं । प्रत्येक वासना का विरोधी तत्क्षण मोजूद ही रहता है । वह कभी अलग होता ही नहीं । जब हम प्रेम की बात करते हैं, तभी घृणा खड़ी हो जाती है । जब हम क्षमा की बात करते हैं, तभी क्रोध खड़ा हो जाता है । जब हम दया की बात करते हैं, तभी कठोरता आ जाती है। यानी अगर ठीक से समझें तो दया कठोरता का ही अत्यन्त कम कठोर रूप है । यानी जो फर्क वह वह इस तरह का जैसे ठंडे और गरम में गरम ठंडे में फर्क क्या है ? गरम-ठंडी दो चीजें नहीं है । ये एक ही तापमान के दो तल हैं। हम ऐसा समझें तो ठीक समझ मैं आ जाएगा । एक बर्तन में गरम पानो रखा है । दूसरे बर्तन में बिल्कुल ठंडा पानी रखा है । आप दोनों में अपने दोनों हाथ डाल दें । एक आइसकोल्ड ठंडे पानी में, एक उबलते हुए गरम पानी में। फिर दोनों हाथों को निकालकर एक ही बाल्टी में डाल दें, जिसमें साधारण पानी रखा है । और तब आप हैरान रह जाएँगे । आपका एक हाथ कहेगा कि पानी बहुत ठंडा है । और आपका दूसरा हाथ कहेगा कि पानी बहुत गरम है। और पानी बिल्कुल एक आपके हाथ की ठंडक और गर्मी पर निर्भर करेगा कि आप इस कहते हैं । और आप बड़ी मुश्किल में पड़ जाएंगे कि इस पानी को क्या कहें ? क्योंकि एक हाथ खबर दे रहा है कि पानी ठंडा है, दूसरा हाथ खबर दे रहा है कि पानी गरम है | बाल्टी में है । पानी को क्या कठोरता और दया इसी तरह की चीजें हैं । इनमें जो भेद है, वह भेद अनुपात का । तब यह भी हो सकता है कि एक बहुत कठोर आदमी को जो चीज बहुत दयापूर्ण मालूम पड़े, एक बहुत दयापूर्ण आदमी को वह चीज बहुत कठोर मालूम पड़े । वह तो सापेक्ष होगा । तैमूरलंग जैसे आदमी को जो बात बहुत दयापूर्ण मालूम पड़े वह गाँधी जैसे आदमी को अत्यन्न कठोर मालूम पड़ सकती है । दोनों हाथ हैं लेकिन एक ठंडा, एक गरम । तो पानी की खबर वे वैसी देंगे । नैतिक पुरुष इसी द्वन्द्व में जीता है, इसके बाहर नहीं जाता । वह Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ महावीर : मेरी दृष्टि में कहता है-कठोरता छोड़ो, दया पकड़ो; शोषण छोड़ो, दान पकड़ो; हिंसा छोड़ो, अहिंसा पकड़ो। नैतिक व्यक्ति कहता है कि जो बुरा है, उसे छोड़ो; जो अच्छा है उसे पकड़ो। लेकिन, वह यह भूल जाता है कि जिसे वह अच्छा कह रहा है, वह उसी बुरे को अत्यन्त छोटी, कम विकसित अवस्था है। वह उससे भिन्न और विरोधी नहीं है। लेकिन जैसे ही व्यक्ति वासना से निर्वासना के जगत् में प्रवेश करता है तो बीच की एक बफर स्टेज, जिसको कहना चाहिए दो अवस्थाओं के बीच का रिक्त स्थान, उसमें भी करुणा सेतु है। करुणा कठोरता का उल्टा नहीं है । करुणा और दया समानार्थक नहीं हैं । दया कठोरता को प्रहरी है इस फर्क को ठीक से समझ लेना उपयोगी होगा। जब मैं किसी व्यक्ति पर दया करता हूँ तब ध्यान में दूसरा व्यक्ति होता है जिस पर मैं दया कर रहा हूँ । भूखा है, दयायोग्य है । दया दूसरे को दोनता पर, दुख पर, दरिद्रता पर निर्भर करती है । दूसरा केन्द्र में होता है। और जब मैं कठोर होता हूँ तब भी दूसरा केन्द्र में होता है। यह दूसरा दुश्मन है, बुरा है; उसे मिटाना जरूरी है। दया और अदया-दोनों में दृष्टि बिन्दु दूसरे पर होती है । करुणा का दूसरे से कोई सम्बन्ध नहीं । दूसरा कैसा है, करुणा का इससे प्रयोजन नहीं। मैं कैसा हूँ, यह प्रयोजन है । मैं करुणापूर्ण हूँ। __ जैसे एक दिया जल रहा है और उससे रोशनी बरस रही है। पास से कोई निकलता है, इससे दिया रोशनी कम और ज्यादा नहीं करता। कोन पास से निकलता है-अच्छा या बुरा आदमी, दीन, दरिद्र, या धनवान्, हारा हुआ कि. जीता हुआ, दिया जलता रहता है। कोई नहीं निकलता तब भी जलता रहता है। क्योंकि दिए का जलना दूसरे पर निर्भर नहीं करता। दिए का जलना उसको अन्तर अवस्था है। एक भिखारी सड़क पर निकला तो आप दयापूर्ण हो गये। लेकिन अगर एक सम्राट् निकला तो फिर आप कैसे दयापूर्ण होंगे ? भिखारी निकला तो आप दयापूर्ण होंगे और सम्राद निकला तो आप दया की आकांक्षा करेंगे। क्योंकि दया दूसरे से बंधी थी, आप पर निर्भर नहीं थी। लेकिन महावीर जैसे व्यक्ति के पास से कोई निकले-दोन, भिखारी या सम्राटइससे कोई फर्क नहीं पड़ता। करुणा बरसती रहेगी, सम्राट् पर भी उतनी ही, भिखारी पर भी उतनी ही क्योंकि करुणा दूसरे पर निर्भर नहीं करती है। महावीर का दिया है जो जल रहा है, जिससे रोशनी बरस रही है। इसलिए करुणा को कोश शब्द में जो दया का पर्यायवाची बताया जाता है वह बुनियादी भूल है । एकदम भूल है। दया बात हो और है । दया कोई अच्छी चीज नहीं। हाँ, बुरी चीजों में अच्छी है। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६ १८९ करुणा बात ही और है। करुणा से विपरीत कुछ भी नहीं है। कारणा में चन्द्र नहीं है। दया में वन्द है क्योंकि दया सकारणा है। वह आदमी दोन है, इसलिए दया करो; वह आदमी भूखा है, इसलिए रोटी दो, वह आदमी प्यासा है, इसलिए पानी दो। उसमें दूसरे आदमी की शर्त है । करुणा है बिना शर्त । दूसरा कैसा है इससे इसका कोई सम्बन्ध नहीं।. मैं करुणा दे सकता हूँ। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह कैसा है, कौन है, क्या है ? अगर कोई भी नहीं तो भी करुणापूर्ण व्यक्ति अकेले में खड़ा है। अगर महावीर एक वृक्ष के नीचे अकेले खड़े हैं, कई दिन बीत जाते हैं और कोई नहीं निकलता वहाँ से तो भी करुणा झरती रहती है। जैसे एक फूल खिला है निर्जन में और उसकी सुगन्ध फैल रही है। रास्ते से कोई निकलता है तो उसे मिल जाती है, अगर कोई नहीं निकला तो भी झरती रहती है। सुगंध देना फूल का स्वभाव है। राहगीर को देखकर नहीं कि कौन निकल रहा है। इसको जरूरत है कि नहीं यह सवाल ही नहीं। यह फूल का आनन्द है। करुणा एक अन्तर अवस्था है, दया अन्तः सम्बन्ध है, अन्तर अवस्था नहीं। मैं किससे जुड़ा है, दया इस पर निर्भर करती है । मैं इधर से भी ले सकता हूँ, उधर से भी ले सकता हूँ। मैं किससे जुड़ा हूँ इस पर निर्भर करेगी यह बात । मगर करुणा अन्तर अवस्था है और वासना का अन्तिम छोर है अन्तिम छोर इन अर्थों में कि उसके बाद फिर निर्वासना का जगत शुरू हो जाता है या निर्वासना का प्रथम छोर है क्योंकि उसके बाद निर्वासना शुरू हो जाती है। वासना का जगत् द्वन्द्व का जगत् है। यह थोड़ा समझने जैसा होगा। वासना द्वैत का जगत् है-जहाँ दो के बिना काम नहीं चलता। सब चोजें विरोषी होंगी। अंधेरा प्रकाश, जन्म मृत्यु-ऐसा जहाँ विरोष होगा । वासना और निर्वासना के बीच में अद्वैत का सेतु है। वासना है द्वैत-जहां हम स्पष्ट कहेंगे : दो हैं । और बीच का सेतु है अद्वैत-जहाँ हम कहेंगे : दो नहीं हैं। अभी हम दो का उपयोग करेंगे। पहले कहते थे, दो हैं, अब हम कहेंगे-'दो नहीं है।' निर्वासना का जो जगत् है वहाँ तो हम यह भी नहीं कह सकते कि अद्वैत है। क्योंकि वहाँ 'दो' का शब्द भी उठाना गलत है। वासना में संख्या का सवाल है: निर्वासना में संख्या का सवाल ही नहीं। यानी यह भी कहना गलत है वहीं कि 'दो नहीं है।' बीच का जो सेतु है, वहां हम कह सकते हैं कि 'दो नहीं हैं' क्योंकि वासना छूट गई है और निर्वासना अभी आ रही है । बीच के अन्तराल में करुणा है। करणा air है। महंत के भी ऊपर एक लोक है, Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० महावीर : मेरी दृष्टि में जहाँ से यह भी कहना गलत है कि 'अद्वैत' अर्थात् जहाँ हम कहें 'दो नहीं । पहले 'दो हैं ऐसी एक सार्थकता थी; फिर दो नहीं ऐसी एक सार्थकता थी; अब कुछ भी कहना मुश्किल है। मौन हो जाना हो ठीक है। अब 'एक', 'दो' या 'तीन' का कोई सवाल ही नहीं उठता। वह है निर्वासना। लेकिन, इसके पहले कि हम संख्या से असंख्या में पहुंचे, सीमा से असोमा में पहुंचे, बीच में निषेध का एक क्षण, निषेष की एक यात्रा है। वह है करुणा जिसका कोई विरोधी हो नहीं है। दया का विरोधी है, करुणा का विरोधी नहीं है। बुद्ध ने करणा कहा है महावीर उसे अहिंसा कहते हैं। जीसस उसे प्रेम कहते हैं । ये शब्दों की पसंदगियां हैं। ये सभी शब्द सेतु पर इंगित करते हैं करुणा से गुजरना पड़ेगा, बुद्ध कहते हैं । अहिंसा से गुजरना पड़ेगा, महावीर कहते हैं । प्रेम से गुजरना पड़ेगा, जीसस कहते हैं। यह सिर्फ शब्द भेद है; सेतु एक ही है जहाँ से हम द्वन्द्व से छूटते हैं और द्वन्द्व-मुक्त में जाते हैं। बीच में एक जगह है जिसे मैंने कहा है करुणा, अहिंसा, प्रेम । इसका विरोधी कोई भी नहीं। कुछ चीजों के विरोधी होते हैं, कुछ चीजों के विरोधी नहीं होते । जिनके विरोधी नहीं होते, वे सेतु बनते हैं । और फिर आगे तो न पक्ष है, न विपक्ष है; विरोधी का सवाल ही नहीं है क्योंकि वह ही नहीं है जिसका विरोधी हुआ जा सके। प्रश्न : द्रष्टा-भाव में संसार स्वप्न है, ऐसा आपका कहना है। किन्तु यह व्यक्तिपरक दृष्टिकोण की बात हुई। वस्तुपरक दृष्टि से संसार क्या स्वप्न ही है ? इस सम्बन्ध में महावीर की दृष्टि शंकराचार्य के मायावाद से 'कहाँ भिन्न है? उत्तर : मैंने कल रात कहा था कि अगर स्वप्न में कर्ता भाव आ जाए तो स्वप्न सत्य हो जाता है। इससे ठीक उल्टे, अगर सत्य में, यथार्थ में कर्ता भाव आ जाए तो वह सत्य भी स्वप्न हो जाता है। इसमें अहंकार ही सूत्र है। चाहे तो स्वप्न को सत्य बना लो, और चाहो तो सत्य को स्वप्न कर दो। यह मैंने कल कहा था। उसी सम्बन्ध में यह प्रश्न है। इसका यह मतलब हुआ कि अगर हम समझ लें कि जगत् स्वप्न है तो क्या सचमुच ही जगत् नहीं है या कि यह स्वप्न होने का भाव सिर्फ मेरा आत्मपरक हो है। मुझे ऐसा लग रहा है कि यह मकान नहीं है, सपना है तो क्या इसका यह मतलब मान लिया जाए कि सच में ही मकान नहीं है, खाली जगह है यह। जैसा कि रात सपने का मकान खो जाता है ऐसे ही यह मकान भी क्या इतना हो असत्य है ? तो फिर Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६ १६१ शंकर के मायावाद में कि सब जगत् माया है, और महावीर के द्वैतवाद मेंक्योंकि महावीर जगत् को माया नहीं कहते हैं-क्या फर्क है ? इसमें बहुत बातें समझनी होंगो। पहली बात यह कि स्वप्न भी असत्य नहीं है । स्वप्न का भी अस्तित्व है। जब आप सपना देखते हैं तो आप सुबह जाग कर कहते हैं कि 'सब सपना था, कुछ भी न था।' लेकिन जो न हो तो सपने तक भी नहीं हो सकता है। स्वप्न के बाबत बड़ी भ्रान्ति है। स्वप्न असत्य नहीं है । स्वप्न की अपनी तरह की सत्ता है, अपने तरह का सत्य है उसमें । वह सूक्ष्म मानस परमाणुओं का लोक है; तरल परमाणुओं का लोक है । असत्य नहीं है । असत्य का मतलब होता है जो है ही नहीं। तो तीन चीजें हैं । असत्य, जो है ही नहीं। सत्य, जो है। और इन दोनों के बीच में एक स्वप्न है जो न तो इन अर्थों में नहीं है जिन अर्थों में खरगोश के सींग या बांझ मां का बेटा। और न इन अर्थों में है जैसे पहाड़। जो दोनों के बीच है, जो हो भी किसी सूक्ष्म अर्थ में, और जो न भी हो किसी सूक्ष्म अर्थ में। शंकर का भी 'माया' से यही मतलब है। शंकर कहते हैं तीन यथार्थ है-सत्, असत् और माया। माया को मिथ्या कहिए तो भी कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन मिथ्या से लोगों को ख्याल होता है कि जो नहीं है। एक तो ऐसी चीज है जो है ही नहीं और एक ऐसी चीज है, जो बिल्कुल है। और, एक ऐसी चीज है, जो दोनों के बीच में है, जिसमें दोनों के गुण मिलते हैं। स्वप्न असत्य नहीं है। हाँ, जागरण-जैसा वह सत्य नहीं है। स्वप्न का अपना सत्य है । और अगर स्वप्न के सत्य की खोज में कोई जाए तो जितना सत्य उसे बाहर की दुनिया में मिल सकता है, उतना ही सत्य वहाँ भी मिल सकता है। लेकिन हम तो बाहर की दुनिया में ही नहीं जा पाते, स्वप्न की दुनिया में जाना तो बहुत मुश्किल है। क्योंकि बिल्कुल छायाओं का लोक है वह जहाँ अत्यन्त तरल चीजें हैं जिनको मुट्ठी में बांधना मुश्किल है। स्वप्न में भी खोज की जा सकती है, और होती रही है। जो लोग स्वप्न-लोक की गहराइयों में गए हैं वे बहुत हैरान हो गए हैं कि जिसको हम स्वप्न कहते हैं वह बहुत गहरे अर्थों में हमारे सत्य लोक से जुड़ा है। बहुत से स्वप्न हमारे पिछले जन्मों की स्मृतियां हैं। बहुत से स्वप्न हमारे भविष्य की झलक हैं बहुत से स्वप्न हमारी अन्तर्यात्राएं हैं मनोजगत् में, जिनका हमें पता नहीं चलता क्योंकि इस देह से वे यात्राएं नहीं होतीं, सूक्ष्म देहों से होती है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में तो मैं स्वप्न को असत्य नहीं कहता हूँ। फर्क इतना ही कर रहा हूँ कि स्वप्न में जो सत्य दिखाई पड़ता है, वह स्वप्न के सत्य होने से नहीं आता । वह हमारे कर्ता होने से आता है। और हमारा कर्त्तापन मिट जाए तो हमारे लिए स्वप्न मिट जाएगा, स्वप्न का सत्य तो बना ही रहेगा। अगर हमारा कर्तापन का भाव मिट जाए, अगर मैं नींद में जाग जाऊँ और मुझे ख्याल आ जाए कि यह स्वप्न है और मैं तो सिर्फ स्वप्न देख रहा हूँ तो एकदम विलीन हो जाएगा। इसका यह मतलब नहीं कि स्वप्न के सत्य नष्ट हो गए। स्वप्न के सत्य अपने बल पर बने रहेंगे। कर्ताभाव से स्वप्न में सत्य प्रकट हुआ था। अब वह अप्रकट हो गया। ठोक ऐसे ही जागने में जो चीजें हमें दिखाई पड़ रही हैं वे हैं। उनकी अपनी सत्ता है । महावीर को भी निकलना हो, शंकर को भी निकलना हो तो दरवाजे से निकलेंगे, दीवाल से नहीं निकलेंगे। माया या स्वप्नवत् कहने का मतलब बहुत दूसरा है। वह यह है कि दीवाल यानी वस्तु का अपना एक सत्य है। लेकिन वह सत्य एक बात है और हम कर्ता होकर, मोहग्रस्त, अहंग्रस्त होकर उस पर और सत्य प्रोजेक्ट कर रहे हैं जो कहीं भी नहीं है। जैसे एक मकान है, उसका अपना सत्य है । लेकिन यह मकान मेरा है यह बिल्कुल हो सत्य नहीं है । 'यह मेरा', बिल्कुल मेरे प्रक्षेप (प्रोजैक्शन ) को बात है । मकान को पता भी नहीं होगा कि मैं किसका था और कई बार इसको भ्रान्तियां गहरी है । जैसे कि हम कहते हैं कि यह देह मेरी है। आपको ख्याल होना चाहिए कि इस देह में करोड़ों कीटाणु जी रहे हैं और वे समझ रहे हैं कि यह देह उनकी है। और उनमें से किसी को पता नहीं कि आप भी इसमें हैं एक । आपका बिल्कुल पता नहीं । जब आपको कैंसर हो गया, घाव हो गया, नासुर हो गया और दस कोड़े उसमें पल रहे हैं तो आप सोच रहे हैं कि यह मेरी देह को खाए जा रहे है । कोड़ों को ख्याल भी नहीं हो सकता। कीड़ों को अपनी देह है, वह उसमें जी रहे हैं। जब आप उन्हें हटाते हैं, तो उनको स्वत्व से वंचित कर रहे हैं । आप समझ रहे हैं कि आपकी देह में कितने लोग देह बनाए हुए हैं। और वह अरबों, खरबों कीटाणु देह बनाए हुए हैं और सब यह मान रहे हैं कि उनको देह है । जब हम यह कह रहे हैं कि वस्तु को अपनी सत्ता है, इस देह को अपनी सत्ता है तो 'मेरा है', यह धारणा बिल्कुल स्वप्नवत् हो जाती है। जिस दिन भाप जागेंगे, देह रह जाएगी और अगर 'मेरा' न रह जाए तो 'देह' बहुत और अर्थों में प्रकट होगी, जिन अर्षों में वह कभी प्रकट नहीं हुई थी। 'मेरे' की Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६ वजह से ही उसने दूसरा रूप ले लिया था। जब मैं कह रहा हूँ कि अगर हम जाग जाएँ, और कर्ता मिट जाए, साक्षी रह जाए तो भी वस्तुओं का सत्य रहेगा। लेकिन तब वह वस्तु सत्य रह जाएगी। और मैं उसमें कुछ प्रक्षेप (प्रोजेक्ट ) नहीं करूंगा। और तब एक बहुत बड़ो दुनिया मिट जाएगी एकदम जिसको आप अपना बेटा कह रहे हैं, उसको आप अपना बेटा नहीं कहेंगे । अगर आप बिल्कुल 'साक्षी' हो गए तो आप सिर्फ पैसिव ( निष्क्रिय ) रह जाएंगे, एक द्वार रह जाएंगे जिससे वह व्यक्ति आया। लेकिन आप पिता नहीं रह जाएंगे। और बहुत गहरे में देखेंगे तो पता चलेगा कि आपने अपने शरीर का मैल छोड़ दिया है । इस मैल के आप पिता नहीं कहलाते और आप अपने वीर्य अणुओं के पिता कैसे हो सकते हैं। यह मैल भी शरीर में उसी तरह पैदा होता है जिस तरह वोर्य अणु पैदा होते हैं। यह नाखून आप काटकर फेंक देते हैं और यह बाल आप काटकर फेंक देते हैं, कभी नहीं कहते कि मैं इनका पिता है। कभी लौट कर भी नहीं देखते इन्हें । जिस शरीर ने ये सव पैदा किए हैं उसी शरीर ने वीर्य अणु भी पैदा किए हैं । आप कौन हैं ? आप कहां हैं ? यानी मैं यह कह रहा हूँ कि अगर आप ठीक से साक्षी हो जाएं तो कौन पिता है ? कौन बेटा है? क्या मेरा है ? यह सब एकदम बिदा हो जाएगा। और ये अगर सारे अन्तः सम्बन्ध एकदम बिदा हो जाएं तो जगत् बिल्कुल दूसरे अर्थों में प्रकट होगा । तब जगत् होगा, आप होंगे लेकिन बीच में कोई सम्बन्ध नहीं होगा। जो हम बांधते हैं, वह सब बिदा हो जाएगा। जब मैं यह कहता हूँ कि आप अगर जाग जाएंगे तो जगत् स्वप्नवत् हो जाएगा मेरा मतलब यह नहीं कि जगत् झूठा हो जाएगा। जगत् और अर्थों में रहेगा। जिन अर्थों में आज है, उन अर्थों में नहीं रह जाएगा। स्वप्न भी बचता है, वह कहीं खो नहीं जाता। उसको भी सार्थकता है। और आप हैरान होंगे कि थोड़ी भी चेष्टा करें तो एक ही स्वप्न में हजार बार प्रवेश कर सकते हैं। हमको क्यों स्वप्न मिथ्या मालूम पड़ता है ? उसका कारण है कि आप स्वप्न में दुबारा प्रवेश नहीं कर पाते । और एक ही मकान में दुबारा जग जाते हैं तो मकान सच्चा मालूम होने लगता है क्योंकि बार-बार इसी मकान में आप जगते हैं रोज सुबह । यहो मकान, यहो दूकान, यही मित्र, यही पत्नी, यही बेटातो यह वार-बार घूमता है। अगर हर बार सुबह आप जागें और मकान दूसरा हो जाए तो आपको मकान का सत्य भी उतना ही झूठा लगेगा जितना स्वप्न का । क्या भरोसा कि कल सुवह क्या हो जाए ? सपने में आप एक ही बार जा पाते १३ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ महावीर । मेरी दृष्टि में हैं, दुबारा उस सपने को आप चालू नहीं कर पाते। क्योंकि आप जागने में ही अपने मालिक नहीं है, सोने की मालकियत तो बहुत दूर की बात है । आप सपने में कैसे जा सकते हैं ? लेकिन इस तरह की पद्धतियां और व्यवस्थाएं हैं कि एक ही स्वप्न में बार-बार जाया जा सकता है । तब आप हैरान रह जाएंगे कि स्वप्न इतना ही सत्य मालूम होगा जितना यह मकान । एक स्त्री आपकी पत्नी थी तो कल वह नहीं रह जाएगी । कल आप खोजें कितना भी तो भी पता नहीं चलेगा कि वह कहीं गई क्योंकि आज स्वप्न में । लेकिन अगर ऐसा हो और एक निश्चित स्त्री वर्ष तक चले तो आप कहेंगे जैसा दिन सच्चा सके, और ऐसा हो सकता है कि रोज रात आप सोएं रोज रात सपने में आपकी पत्नी होने लगे, ऐसा दस ग्यारहवें वर्ष पर यह कह सकेंगे कि रात झूठ है ? आप है, वैसी रात भी सच्ची है । स्वप्न को स्थिर करने के भी उपाय हैं । उसी स्वप्न में रोज-रोज प्रवेश किया जा सकता है। तब वह सच्चा मालूम होने लगेगा। और अगर हम गौर से देखें तो रोज-रोज हम उसी मकान में सुबह जागते भी नहीं जिसमें हम कल सोए थे। क्योंकि मकान बुनियादी रूप से बदल जाता है । अगर हमारी दृष्टि उतनी भी गहरी हो जाए कि हम बदलाहट को देख सकें तो जिस पत्नी को आपने कल रात सोते वक्त छोड़ा था, सुबह आपको वही पत्नी उपलब्ध नहीं होती । उसका शरीर बदल गया, उसका मन बदल गया, उसकी चेतना बदल गई । उसका सब बदल गया । लेकिन उतनी 'सूक्ष्म दृष्टि भी नहीं है हमारी कि हम उतनी गहरी दृष्टि से जांच कर सकें कि सब बदल गया है, यह तो दूसरा व्यक्ति है । इसलिए आप कल की अपेक्षा करके झंझट में पड़ जाते हैं । कल वह बड़ी शान्त थी। बड़ी प्रसन्न थी । आज सुबह से वह नाराज हो गई । आप कहते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है । क्योंकि आप अपेक्षा कल की लिए बैठे हैं । कल उसने बहुत प्रेम किया था और आज बिल्कुल पीठ किए हुए है । आपको लगता है कि यह कुछ गड़बड़ हो रहा है । लेकिन आपको ख्याल नहीं है कि सब चीजें बदल गई हैं । जिस दिन हम बहुत गहरे में इधर घुस जाएँ यानी अगर गहरे स्वप्न में चले जाएं तो स्वप्न भी मालूम होगा वही है । और अगर गहरे सत्य में चले जाएँ तो पता चलेगा कि वही कहाँ है ? रोज बदलता चला जा रहा है । 1 1 मेरा कहने का प्रयोजन यह है कि इन सारी स्थितियों में, चाहे स्वप्न, चाहे 'जागरण, अगर 'साक्षी' जग जाए तो बिल्कुल ही एक नई चेतना का जागरण होता है। लेकिन उससे कोई मिथ्या जगत् हो जाता है ऐसा नहीं । उससे सिर्फ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-६ . १९५ इतना हो जाता है कि जो कल तक जगत् हमने बनाया था वह विदा हो जाता है और एक बिल्कुल नया वस्तुपरक सत्य सामने आता है । जो हमने बनाया था, वह विदा हो जाता है। महावीर उसके लिए 'माया' का प्रयोग नहीं करते क्योंकि 'माया' के प्रयोग से लगता है जैसे कि सब झूठ है। वे कहते हैं कि वह भी सत्य है। यह भी सत्य है । लेकिन दोनों सत्यों के बीच हमने बहुत से झूठ गढ़ रखे हैं, वे बिदा हो जाने चाहिएं। तब पदार्थ भी अपने में सत्य है और परमात्मा भी अपने में सत्य है। और बहुत गहरे में दोनों एक ही सत्य के दो छोर हैं। शंकर उसके लिए 'माया' का प्रयोग करते हैं, उसमें भी कोई हर्ज नहीं है क्योंकि जिसमें हम जी रहे हैं वह बिल्कुल माया जैसी बात है। एक आदमी रुपए गिन रहा है, ढेर लगाता जा रहा है, तिजोरी में बन्द करता जा रहा है। रोज गिनता है और रोज बन्द करता है। अगर हम उसके मनोजगत् में उतरें तो वह रुपयों की गिनती में जी रहा है । और बड़े मजे को बात है कि रुपयों में क्या है जिसकी गिनती में कोई जिए । कल सरकार बदल जाए और कहे कि पुराने सिक्के खत्म तो उस आदमी का पूरा का पूरा मनोलोक एकदम तिरोहित हो जाएगा। वह एकदम नंगा खड़ा हो गया। अब कोई गिनती नहीं है उसके पास । तो हम स्वप्न के जगत् में जी रहे हैं और ऐसे ही सिक्के हमने सब तरफ बना रखे हैंपरिवार के, प्रेम के, मित्रता के, जो कल सुबह एकदम बदल | जाएंगे नियम बदल जाने से। ___ मुझे एक मित्र ने एक पत्र लिखा। बहुत बढ़िया पत्र था। कुछ लोग मेरे साथ थे, साथ नहीं रह गए । उन्होंने मुझे पत्र लिखा । और हम सबको यह भ्रान्ति होती है कि जो साथ है, वह सदा साथ है, यह बिल्कुल पागलपन है। जितनी देर साथ है, बहुत है। जिस दिन अलग हो गए, अलग हो गए। जैसे साथ होना एक सत्य था, वैसे अलग होना एक सत्य है। साथ ही बना रहे तो फिर हम एक माया के जगत् में जोना शुरू कर देते हैं । आप मेरे मित्र हैं, तो बात काफी है इतनी। आप कल भी मेरे मित्र हों, तो फिर मैंने एक कल्पना जगत् में जीना शुरू कर दिया। फिर मैं दुःख भी पाऊंगा, पीड़ा भी पाऊंगा। अपेक्षा मैंने बना ली। कल कौन कह सकता है क्या हो जाए ? रास्ते कभी हमारे पास आ जाते हैं, कभी चले जाते हैं। कभी एक दूसरे का रास्ता कटता भी है। कभी बड़े फासले हो जाते हैं तो कुछ मित्र मुझे छोड़कर चले गए हैं। एक मित्र ने मुझे एक कहानी लिखो। उसने लिखा कि यूनान में एक बार ऐसा हुआ कि एक Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ महावीर : मेरी दृष्टि में साधु था एथेन्स नगर में। उस साधु पर मुकदमा चला। उसकी बातों को एथेन्स नगर के न्यायाधीशों ने कहा कि लोगों को बिगाड़ देने वाली हैं। इसलिए • हम तुम्हें नगर निकाला देते हैं, नगर से बाहर किए देते हैं । साधु नगर से निकाल दिया गया । वह एथेन्स छोड़कर दूसरे नगर में चला गया। दूसरे नगर के लोगों ने उसका बड़ा स्वागत किया क्योंकि उस साधु की जो मान्यताएं थीं उस नगर के लोगों से मेल खा गई। उस नगर का एक नियम था कि जो भी नया आदमी उस नगर में मेहमान बने, सारा नगर मिलकर उसका मकान बना दे। तो राज ने इंटे जोड़ दी, ईंटें बनाने वाले ने ईंटें ला दीं। पत्थर वाला पत्थर लाया, बढ़ई लकड़ी लाया। खपरा लाने वाला खपरा लाया। सारे ग्राम के लोगों ने श्रम किया। जल्दो ही उसका एक मकान बन गया। प्रवेश होने क तैयारी हो रही है। साधु द्वार पर आया। तभी गांव एकदम मकान पर टूट पड़ा। छप्पर वाला छप्पर ले गया, ईंट वाला ईंट ले गया, दरवाजे वाला दरवाजा निकालने लगा। सब चीजें एकदम अस्त-व्यस्त होने लगों। सारा मकान एकदम टूटने लगा। तब साधु ने खड़े होकर पूछा कि यह क्या बात है ? मुझसे कोई गलती हो गई क्या ? तो जो लोग सामान ले जा रहे थे उन्होंने कहाँ नहीं, तुम्हारी गल्ती का सवाल नहों। हमारा संविधान बदल गया। कल तक हमारे विधान में यह बात थी कि जो भी नया आदमी गांव में आए और रहे उसका हम मकान बनाएं। रात की धारासभा में वह हमने खत्म कर दिया। हमारा विधान बदल गया । इसलिए हम अपना-अपना सामान लिए जा रहे हैं। बात खत्म हो गई । अब तुम्हारा प्रवेश हो जाता तो मुश्किल हो जाता । इसलिए हमें जल्दी करनी पड़ रही है। तुम्हारे प्रवेश के बाद पुराना संविधान लागू हो जाता। अभी तुम्हारा प्रवेश नहीं हुआ, इसलिए हम इसे लिए जा रहे हैं । मित्र ने मुझे यह कहानी लिखी और यह पूछा : क्या साधु की कोई भूल थी । मैंने उत्तर दिया कि साधु की एक ही भूल थी। उसने आदमियों के बनाए हुए नियम को ज्यादा मूल्य दिया था। जो आदमी नियम बनाते हैं वे कभी भी तोड़ सकते हैं। साधु की भूल इतनी ही थी कि उसने यह भी क्यों पूछा कि क्या मुझसे कोई भूल हो गई है ? यह भी नहीं पूछना था। उसे जानना चाहिए था कि जो मकान बनाते हैं, वे गिरा सकते हैं। नियम बदल गया था। साधु ने नियम को अपना सम्मान समझ लिया था यह भूल हो गई थी उससे । यह उसका सम्मान नहीं था, यह सिर्फ नियम का सम्मान था। नियम बदल गया, सारी बात खत्म हो गई। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-वचन-६ १९७ हम एक जिन्दगी में जीते हैं, जो हमारे बनाए हुए नियमों, बनाई हुई मान्यताओं, बनाई हुई व्यवस्थाओं की है। उन्हें जैसे ही हम जानेंगे, एकदम , झूठी मालूम पड़ेंगी । पत्नी एकदम झूठी मालूम पड़ेगी। स्त्री सत्य रह जाएगी। वह हमारी बनाई हुई व्यवस्था है। युवक रह जाएगा लेकिन उसका बेटा होना खो जाएगा। मकान रह जाएगा लेकिन 'मेरा होना' चला जाएगा। धन का ढ़ेर रह जाएगा लेकिग गिनती का रस खो जाएगा। जगत् होगा वस्तुपरक लेकिन उसकी आत्मपरकता कि वह यहां है, वहाँ है, तिरोहित हो जाएगी जैसे कोई जादू की दुनिया है एकदम जग गया हो और सब खो जाए। जैसे वृक्ष हो, वृक्ष में लगें फल और सब बिदा हो जाएं और चीजें जैसी हैं वैसी रह जाएं। वस्तु रह जाएगी लेकिन हमारी कल्पित वस्तु एकदम बिदा हो जाएगी। इस अर्थ में मैंने कहा कि स्वप्न भी सत्य बन जाता है, अगर हम उसमें लीन हो जाते हैं और जिसे हम सत्य कहते हैं, वह भी स्वप्नवत् हो जाएगा अगर हम अपनी लोनता को तोड़ लेते हैं ।। प्रश्न : महावीर पूर्व जन्म में ही पूर्ण हो गए यह मापका कहना है। किन्तु वर्तमान जगत् में अभिव्यक्ति के साधन खोजने के लिए उन्हें तपश्चर्या करनी पड़ी। पूर्ण में यह अपूर्णता कैसी ? क्या पूर्णता में अभिव्यक्ति के साधनों की उपलब्धि शामिल नहीं ? उत्तर : ठोक है। नहीं; पूर्णता को उपलब्धि में अभिव्यक्ति के साधन सम्मिलित नहीं हैं। अभिव्यक्ति की पूर्णता उपलब्धि की पूर्णता से बिल्कुल अलग है। असल में पूर्णता भी एक नहीं है, अनन्त पूर्णताएँ हैं । इससे हमें बड़ी कठिनाई होती है । एक दिशा में एक आदमी पूर्ण हो जाता है, इसका मतलब यह नहीं कि वह सब दिशाओं में पूर्ण हो जाता है। एक आदमी चित्र बनाता है। वह चित्र बनाने में पूर्ण हो गया है। इसका यह मतलब नहीं कि वह संगीत में भी पूर्ण हो जाएगा यानी कि वह वीणा बजा सकेगा। वीणा को अपनी पूर्णता है, अपनी दिशा है। अगर कोई आदमो वोणा बजाने में पूर्ण हो गया तो उसका यह मतलब नहीं है कि वह नाचने में भी पूर्ण हो जाए। नाचने की अपनी पूर्णता है । बहुत मायाम है पूर्णता के । क्या सर्वतोमुखी पूर्णता किसी को मिली है ? नहीं, कोई व्यक्ति समस्त पूर्णताओं में पूर्ण नहीं हुआ। कई पूर्णताएं ऐसी हैं कि एक में होंगे तो फिर दूसरे में हो हो नहीं सकते। वे विरोधी पूर्णताएँ है । एक व्यक्ति पुण्य में पूर्ण हो जाए तो फिर वह पाप को पूर्णता में पूर्ण नहीं हो सकता। पाप को भी अपनी पूर्णता है। और अगर वह पाप में पूर्ण हो Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ महावीर : मेरी दृष्टि में को परिपूर्ण ज्ञान की क्षमता उपलब्ध होगी वह तत्काल सब दिशाएं छोड़ देगा और परमात्मा में लीन हो जाएगा। जो इस पूर्ण स्थिति में पहुंचता है, जहां सिर्फ जानना ही शेष रह जाता है, वह एकदम डूब जाता है, सर्वव्यापक हो जाता है, हो हो गया, जैसे कि एक बूंद सागर में गिरी और सर्वव्यापी हो गई। क्योंकि वह सागर से एक ही हो गई। और जब तक वह दिशा पकड़े रहता है, तब तक वह सर्वव्यापी नहीं होता। जीसस ने कहा कि जो अपने को बचाएंगे, वे नष्ट हो जाएंगे। जो अपने को खो देंगे, वे सब पा लेंगे। बचाओ मत, अपने को खो दो। लेकिन खो वही सकता है जिसका कोई विकास नहीं। किनारा खोने की हिम्मत होनी चाहिए। अगर किनारा पकड़े रहें तो सागर में कैसे जाएंगे। दिशाओं के किनारे होते हैं, आयाम होता है मगर परमात्मा अनन्त और आयामशून्य है । वहाँ कोई किनारा नहीं है। उसमें खोने की क्षमता का ही अर्थ केवल-ज्ञान है जहाँ आदमी डूब जाता है फिर जानने की कोशिश में नहीं पड़ता। यहां दो सम्भावनाएं हैं : या तो वह डूब जाए परमात्मा में जो सामान्यतया होता है; या एक जीवन के लिए वह लौट आए और जहां पहुंचा है उस क्षमता की खबर दे। उसी को मैं करुणा कहता हूँ : और वह करुणा है तो उसे अभिव्यक्ति की पूर्णता पानी होगी। उपाय करना होगा दूसरे से कहने का। गूंगा भी जान सकता है सत्य को लेकिन वह कह नहीं सकता। गूंगा भी प्रेम कर सकता है लेकिन वह कह नहीं सकता। अगर गूंगे को कहना हो अपनी प्रेयसी से कि मैं तुझे प्रेम करता है तो उसे वाणी सोखनी पड़ेगी। प्रेम करने के लिए वाणी सीखने की जरूरत नहीं है। प्रेम करना एक और बात है । वह गूंगा भी कर सकता है। गूंगा हजारों से कुछ बातें कर सकता है। लेकिन अगर उसे कहना हो, क्या जाना उसने प्रेम में, तो फिर उसे और दूसरी तरह की, यानी अभिव्यक्ति की, पूर्णता प्राप्त करनी होगी। महावीर इस जन्म में उस दूसरी तरह की पूर्णता की साधना में लगे हैं। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन Page #185 --------------------------------------------------------------------------  Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य की अनुभूति को अभिव्यक्ति कैसे मिले, यही बड़े से बड़ा सवाल महावीर के सामने . इस जन्म में था। महावीर ही पहले शिक्षक नहीं थे जिनके सामने अभिव्यक्ति की बात उठी हो । जिन्होंने सत्य जाना है उन सभी के सामने यह सवाल है लेकिन महावीर के सामने सवाल कुछ बहुत गहरे रूप में उपस्थित हुमा था। महावीर के व्यक्तित्व की विशेषताओं में एक विशेषता यह थी कि उन्हें सत्य की जो अनुभूति हुई, उसको अभिव्यक्ति को उन्होंने जीवन के समस्त तलों पर प्रकट करने की कोशिश की। मनुष्य तक कुछ बात कहनी है, कदिन तो है फिर भी बहुत कठिन नहीं। लेकिन महावीर की चेष्टा भनूठी है। उन्होंने चेष्टा की कि पौधे पशु-पक्षी, देवी-देवता सब तक, जीवन के जितने तल है-उन सब तक उन्हें जो मिला है, उसकी खबर पहुंचे। महावीर के बाद ऐसी कोशिश करने वाला दूसरा आदमी नहीं हुआ। यूरोप में फ्रांसिस ने पोड़ी सी कोशिश की है पक्षियों और पशुओं से बात करने की। अभी-अभी श्री अरविन्द ने कोशिश की है पदार्थ तत्व पर चेतना के स्पन्दन पहुंचाने की। लेकिन महावीर जैसा प्रयास न पहले कभी हुआ, न बाद में हुआ। वे जो बारह वर्ष आम तौर पर सत्य की साधना के लिए समझे जाते हैं, वे सत्य की जो उपलब्धि हुई है, उसकी अभिव्यक्ति के लिए साधन खोजने के हैं । और इसीलिए ठीक बारह वर्षों बाद महावीर सारी साधना का त्याग कर देते हैं। नहीं तो साधना का कभी त्याग नहीं किया जा सकता। सत्य की उपलब्धि को जो साधना है, उसका कभी त्याग किया ही नहीं जा सकता क्योंकि वह ऐसी नहीं है कि सत्य उपलब्ध हो जाने पर व्यर्थ हो जाए। जैसा कि मैंने सुबह कहा सत्य को उपलब्धि का मार्ग है-अमूच्छित चेतना, अप्रमाद, विवेक, जागरण । तो ऐसा नहीं है कि जिसको सत्य उपलब्ध हो जाए वह जागरण, विवेक, अप्रमाद Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ महावीर : मेरी दृष्टि में का त्याग कर दे। यह असम्भव है, क्योंकि जो सत्य उपलब्ध होगा, उसमें जागरण अनिवार्य होगा। यानो वह सत्य भी जागो हुई चेतना का एक रूप ही होगा। इसलिए फिर ऐसा नहीं है कि जागरण छोड़ दिया जाए। सिर्फ वही साधना छोड़ी जा सकती है जो परम उपलब्धि की तरफ न हो बल्कि साधना की तरह उपयोग को हुई हो। जैसे कि आप यहाँ एक बैलगाड़ी में बैठकर आए है । आप उतर कर बैलगाड़ी को छोड़ देंगे। क्योंकि बैलगाड़ी पहुंचाने का साधन थी। इसके बाद व्यर्थ हो जाती है। जो साधन कहीं जाकर व्यर्थ हो जाते हैं, वे साधन के हिस्से नहीं होते इसलिए व्यर्थ हो जाते हैं। लेकिन जो साधन अनिवार्यतः साधन में विकसित होते हैं, वे कभी व्यर्थ नहीं होते। विवेक कभी व्यर्थ नहीं होता। लेकिन महाबोर, बारह वर्ष की साधना के बाद सब छोड़ देते हैं। और उनके पीछे चलने वाले चिन्तक कभी यह विचार नहीं कर पाए कि यह कैसी बात है । इसका कोई उत्तर भी नहीं दे पाए। न दे पाने का कारण है कि वे समझ हो न सके कि यह केवल अनुभूति को अभिव्यक्त करने के साधन खोजने का इन्तजाम था, आयोजन था। वे माध्यम मिल गए हैं और आयोजन व्यर्थ हो गया। यानी आयोजन शाश्वत नहीं था, सामयिक था, जरूरत का था। इससे ज्यादा उसका मूल्य नहीं है। क्या किया जाए जीवन के समस्त तलों तक अपनी अनुभूति प्रतिध्वनि की तरंग पैदा करने के लिए ? तीन बातें समझ लेनो जरूरी हैं। एक तो अस्तित्व का मूक अंग है। जैसे पत्थर है, पौधा है, पक्षी है, पशु है। ये अस्तित्व के मूक अंग है । फर्क है पत्थर और पशु में बहुत । लेकिन यह विभाग मूक है । अगर इस मूक अंग से सम्बन्धित होना हो किसी व्यक्ति को और अपने अनुभव को इस तक पहुँचाना हो तो उसे परम जड़ अवस्था, परम मूक अवस्था में उतरना पड़ेगा । तभी उसका ताल-मेल, सामंजस्य हो सकेगा। उदाहरण के लिए अगर कोई व्यक्ति वृत्त के पास बैठकर पूर्णतया मूक हो जाए ऐसा जैसे कि जड़ हो गया, जैसे कि उसका शरीर कोई जीवित वस्तु नहीं है, और उसको चेतना परिपूर्ण शान्त होती चली जाए और उस जगह पहुँच जाए, जहाँ एक शब्द नहीं है तो इस परिपूर्ण मूक अवस्था में वृक्ष से संवाद होना सम्भव है। राम कृष्ण निरन्तर ऐसी अवस्था में उतरते रहे, जिसे मैं रामकृष्ण की जड़-समाधि कहता हूँ। महावीर ने इस दशा में मनुष्य जाति के इतिहास में सबसे गहरे प्रयोग किए हैं। आप जानकर हैरान होंगे कि महावीर को जो अहिंसा को बात है, Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-७ २०६ वह किसी तत्त्व विचार से नहीं निकली है। वह अहिंसा की बात नीचे के जगत् के तादात्म्य से निकली है। उस तादात्म्य में उन्होंने जो पीड़ा अनुभव को नीचे के जगत् की, उस पीड़ा की वजह से, अहिंसा उनके जीवन का परम तत्व बन गया है । इसमें दो बातें समझने जैसी है। आम तौर से यह समझा जाता है कि जो अहिंसक है, वह मोक्ष की साधना कर रहा है। अहिंसा से जिएगा तो मोक्ष में चला जाएगा । लेकिन ऐसे लोग भी मोक्ष में चले गए हैं, जो अहिंसा से नहीं जिए हैं । न तो क्राइस्ट अहिंसक है, न रामकृष्ण, न मुहम्मद । ऐसे लोग मोम में चले गए हैं जो अहिंसा से नहीं जिए हैं। __ इसलिए जिनको यह ख्याल है कि अहिंसा से जीने से मोक्ष में जाएंगे वे महावीर को नहीं समझ पाए। बात बिल्कुल ही दूसरी है। महावीर ने मनुष्य से नीचे का जो मूक जगत् है, उससे जो तादात्म्य स्थापित किया है और उसकी जो पोड़ा अनुभव की है, वह इतनी सघन है कि अब उसे और पोड़ा देने की कल्पना भी असम्भव है । इतनो असम्भव किसी के लिए भी नहीं रही कभी भी, जितनी महावीर के लिए असम्भव हो गई। और यह जिस अनुभव से आया है, वह उस जगत को अपने प्राणों में विस्तीर्ण करने का प्रयोग था। इस प्रयोग करने में अहिंसा निर्मित होने में दो बातें हुईं। एक यह कि जो पीड़ा अनुभव की, उन्होंने नीचे के जगत् की, वह इतनी ज्यादा है कि उसमें जरा भी कोई बढ़ती करे किसी भी कारण से तो वह असहा है। दूसरी बात उन्होंने यह अनुभव को कि अगर व्यक्ति पूर्ण अहिंसक न हो जाए तो नीचे के जगत् से तादात्म्य स्थापित करना बहुत मुश्किल है। यानी हम तादात्म्य उसी से स्थापित कर सकते है जिसके प्रति हमारा समस्त हिंसक भाव, बाक्रामक भाव विलीन हो गया हो और प्रेममात्र उदय हो गया हो । तादात्म्य सिर्फ उसी से सम्भव है । अगर मूक जगत् से तादात्म्य स्थापित करना है तो महिसा शर्त भी है । नहीं तो वह तादात्म्य स्थापित नहीं हो सकता। जैसे मैंने संत फ्रांसिस का नाम लिया। इस बादमो ने पशुनों के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में बेजोड़ काम किया है। इस बात की बाखों देखी गवाहियां हैं कि जब संत फ्रांसिस नदी के किनारे खड़ा हो जाता तो सारी मछलियां तट पर इकट्ठी हो जाती, सारी नदी खाली हो जाती। न केवल वे इकट्ठी हो जाती बल्कि छलांग लगाती फ्रांसिस को देखने के लिए। जिस वृक्ष के मीचे वह बैठ जाता उस जगत् के सारे पक्षी उस वृक्ष पर बा नाते। न केवल Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० महावीर : मेरी दृष्टि में वृक्ष पर आ जाते बल्कि उसको गोद में उतरने लगते, उसके सिर पर बैठ जाते, उसके कंधों को घेर लेते। संत फ्रांसिस से जब भी किसी ने पूछा कि यह कैसे सम्भव हुआ है तो वह कहते : और कोई कारण नहीं है। वे भली भांति जानते है कि मेरे द्वारा उसके लिए कोई भी नुकसान कभी भी नहीं पहुंच सकता । पक्षियों के पास अन्तःप्रज्ञा है जो हमने बहुत पहले खो दी है । जापान में एक ऐसी साधारण चिड़िया है जो गांवों में आम तौर पर होती है और दिन भर गांव में दिखाई पड़ती है, भूकम्प आने पर चौबीस घंटे पहले वह गाँव छोड़ देती है । अभी हमने भूकम्प की जांच पड़ताल के कितने भी उपाय किए हैं, वे भी दो, ढाई घंटे से पहले खबर नहीं दे सकते और वह खबर भी विश्वसनीय नहीं होती। लेकिन वह चिड़िया चौबीस घंटे पहले एकदम गांव छोड़ देती है। उस चिड़िया का गांव में न दिखाई पड़ना पक्का है कि चौबीस घंटे के भीतर भूकम्प आ जाएगा। बड़ी कठिनाई की बात रही कि वह चिड़िया कैसे जान पाती है क्योंकि चिड़िया के पास जानने के कोई यन्त्र नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है, कोई विधि नहीं है। ऊपर उत्तरी ध्रुव पर रहने वाले सैकड़ों पक्षी है, जो प्रति वर्ष सर्दी के दिनों में, जब बर्फ पड़ती है तो यूरोप के समुद्री तटों पर चले जाते हैं। बर्फ पड़नी शुरू हो जाए अगर तब वे यात्रा शुरू करें तो उनका आना बहत मुश्किल है। इसलिए बर्फ गिरने के महीने भर पहले वे उड़ान शुरू कर देते हैं। और यह बड़े आश्चर्य की बात है कि वे जिस दिन उड़ान शुरू करते हैं उसके ठीक एक महीने बाद बर्फ गिरनी शुरू हो जाती है। फिर वे हजारों मील का फासला तय करके यूरोप के समुद्र तटों पर आ जाते हैं और बर्फ गिरना बन्द होने के महीने भर पहले वे वापस यात्रा शुरू कर देते हैं। वे कभी भटकते नहीं। हजारों मील के रास्ते पर कभी नहीं भटकते। ये जहां से आते हैं ठीक वहां अपनी जगह वापस लौट जाते हैं। पक्षियों और पशुओं के जगत में जिन लोगों ने प्रवेश किया है वे हैरान हुए हैं कि उनके पास एक प्रज्ञा है जो बिना बुद्धि के उन्हें धोनों को साफ कर देती है। यह जो हमारे हृदय में भाव की धारा उठती है-प्रेम की या घृणा की, उसके स्पन्दन काफी हैं। वे उन्हें स्पर्श कर लेते हैं और वे हमसे सचेत हो जाते हैं। ____महावीर ने. अहिंसा के तत्त्व पर जो इतना बल दिया है, उस बल का और कोई कारण नहीं है। एक कारण यह है कि नोचे के मूक जगत् से पूर्ण अहिंसक वृत्ति के बिना सम्बन्धित होना असम्भव है। और दूसरा कारण यह है कि जब सम्बन्धित हो जाएं तो उस मूक जगत् की इतनी पीड़ानों का बोष होता है Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- ७ २११ उतनी अन्तहीन अनन्त पीड़ाएं हैं उसकी, कि उसमें हम किसी भी भांति थोड़ा भार हल्का कर सकें कि भार न बढ़े इसको भावना पैदा हो जाना भो स्वाभाविक है । बुद्ध भी इस बात को नहीं समझे हैं । गौतम बुद्ध का भो सत्य के अनुभव को संवाहित करने का जो प्रयोग है, वह मनुष्यों से ज्यादा गहराई पर नहीं गया है । सच बात यह है कि न जासस ने, न बुद्ध ने, न जरथुस्त्र ने, न मुहम्मद ने, न किसी दूसरे ने मनुष्य तल से नोचे जो एक मूक जगत् का फैलाव है जहाँ से हम आ रहे हैं, जहाँ हम कभा थे, जिससे हम पार हो गए हैं वहाँ पहुँचने का कोई मार्ग बताया है । उस जगत् के प्रति भो हमारा एक अनिवार्य कर्तव्य है कि हम उसे पार होने का रास्ता बता दें ओर खबर कर दें कि वह कैसे पार हो सकता है । CORPO मेरी समझ यह है कि महावीर ने जिसने पशुओं और जितने पौधों की आत्माओं को विकसित किया है, उतना इस जगत् में किसी दूसरे आदमी ने नहीं किया। यानी आज पृथ्वी पर जो मनुष्य हैं, उनमें से बहुत से मनुष्य सिर्फ इसलिए मनुष्य हैं कि उनको पशुयोनि या उनको पौधे को योनि में या उनके पत्थर होने में महावीर ने संदेश भेजे थे और उन्हें बुलावा भेजा था । इस बात की भी खोज बीन की जा सकती है कि कितने लोगों को उस तरह की प्रेरणा उपलब्ध हुई और वे आगे आए। यह इतना अद्भुत कार्य है कि अकेले इस कार्य की वजह से महावीर मनुष्य मानस के बड़े से बड़े ज्ञाता बन जाते हैं। यानी अगर उन्होंने अकेले सिर्फ एक हो यह काम किया होता तो भी वे मनुष्य जाति के मुक्तिदाताओं में हो नहीं, बल्कि जीवन शक्ति के मुक्तिदाताओं में चिरस्मरणाय ! हो जाते। यह काम बहुत कठिन है क्योंकि नीचे के तल पर तादात्म्य स्थापित करना अत्यन्त दुरूह बात है । उसके कारण हैं । हमसे जो ऊपर है, उससे तादात्म्य स्थापित करना हमेशा सरल है क्योंकि हमारे अहंकार को तृप्ति मिलती है, उसके तादात्म्य से | यह कहना बहुत सरल है कि 'मैं परमात्मा हूँ' लेकिन यह कहना बहुत कठिन है कि 'मैं पशु है ।' चूंकि नोचे अहंकार को चोट लगती है, ऊपर अहंकार को तृप्ति मिलती है, इसलिए हम सब ऊपर जाना चाहते हैं; हमारी गहरी आकांक्षा ऊपर जाने की है, हमारा चित्त ऊपर की तरफ उन्मुक्त होता है। जैसे नदी है, समुद्र की तरफ भाग रही है। समुद्र को तरफ भागना बहुत आसान है क्योंकि ढाल उस तरफ है, उन्मुक्तता उस तरफ है। लेकिन कोई गंगोत्री की तरफ जाने का विचार 1: Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ महावीर : मेरी दृष्टि में करे तो बड़ी मुश्किल में पड़ जाए क्योंकि वहाँ चढ़ाव है, और वहां सागर भी नहीं है। महावीर को यह चेष्टा है कि पीछे के लोगों को पीछे की स्थितियों को तरफ लोटाकर वहां जो जाग गया है उसको आगे बढ़ाया जाये । यह बहुत कठिन है। एक तो पीछे जाने का कभी ख्याल ही नहीं आता। हमें आगे जाने का ख्याल आता है। जो हम रह चुके होते हैं वह हम भूल चुके होते हैं। उससे कोई सम्बन्ध ही नहीं रह जाता। और भूलने का भी कारण है। क्योंकि जो अपमानजनक है, उसे हम स्मरण नहीं रखना चाहते । असल में अतोत जन्मों को भूल जाने का जो कारण है, गहरे से गहरा, वह यह है कि हम उन्हें याद रखना नहीं चाहते । जो कि हम नीचे से नीचे से आ रहे हैं उसको हम भूल जाना चाहते हैं। एक गरीब आदमी है, वह अमीर हो जाए तो सबसे पहला काम वह स्मृति के चिह्न मिटा देना चाहता है, जो उसकी गरीबी को कभी भी बता सके कि वह कभी गरीब था। यहां तक कि गरीबी के दिनों में जिनसे उसकी दोस्ती रही उनसे मिलने से वह कतराने लगता है क्योंकि उनकी दोस्ती, उनकी पहचान, सबको खबर देती है कि आदमी कभी गरीब था। वह अब नया सम्बन्ध बनाता है, नई दोस्तियाँ कायम करता है। वह नोचे को भूल जाता है। तो जब अमीर आदमी गरीब मित्रों तक को छोड़ सकता है तो पीछे को पशु योनियां, पक्षियों की योनियां, पौधों की योनियां, पत्थरों की योनियां जो रही हों उन्हें आकर भूल जाना चाहे, तो आश्चर्य नहीं। फिर उनसे तादात्म्य स्थापित करने की कौन फिक्र करे ? महावीर ने पहली बार चेष्टा को है और इस चेष्टा को करने की जो विधि है उसको भी थोड़ा समझ लेना जरूरी है। अगर किसी भी व्यक्ति को पीछे की अविकसित स्थितियों से तादात्म्य बनाना है तो उसे अपनी चेतना को, अपने व्यक्तित्व को उन्हीं तलों पर लाना पड़ता है जिन तलों पर वे चेतनाएं हैं। यह जानकर आप हैरान हागे कि महावीर का चिन्ह है सिंह और उसका कारण शायद आपको कभी भी स्याल में न आया होगा और न आ सकता है। उसका कारण यह है कि पिछली चेतनाओं से तादात्म्य स्थापित करने में महावीर को सबसे ज्यादा सरलता सिंह से तादात्म्य स्थापित करने में मिली । कोई और कारण नहीं है । उनका व्यक्तित्व भी 'सिंह' जैसा है। वह पिछले जन्मों में 'सिंह' रह चुके हैं और लौटकर उससे तादात्म्य बनाना उनके लिए एकदम सरल हो गया है। सच तो ऐसा है कि जब Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१३ उनका सिंह से तादात्म्य हुआ तो उन्होंने पूरी तरह जाना होगा कि 'मैं सिंह हूँ' और यह उनका प्रतीक बन गया, चिह्न बन गया । और उनके व्यक्तित्व में यह बातें भी हैं जो सिंह में हों। जैसे 'सिंह' झुण्ड में नहीं चलेगा, भीड़ में नहीं चलेगा । एकदम अकेला खड़ा रहेगा महावीर में वैसा गुण है। सिंह में जो आक्रमण है, जीत को विजय का जो अदम्य भाव है, वह महावीर में है; सिंह में जैसा समय है वह महावीर की साधना का प्रथम सूत्र है । यह चिह्न आकस्मिक नहीं है । कोई चिह्न कभी आकस्मिक नहीं होता, उस चिह्न के पीछे - बहुत वैज्ञानिक मामला है । । जुंग ने बहुत काम किया है। इस सम्बन्ध में कई परीक्षण किए उसने । और इस बात की खोज की कि प्रत्येक व्यक्ति के मानस में कुछ चिह्न हैं जो उसके व्यक्तित्व के चिन्ह हैं। अगर उन चिह्नों को समझा जा सके तो हम. उसके व्यक्ति को उघाड़ने में सफल हो सकते हैं । यह जो महावीर के नीचे 'सिंह' बना हुआ है, यह उसके व्यक्तित्व की पहचान की कुंजी है। पीछे उतर कर तादात्म्य स्थापित करना इसके लिए चेतना को निरन्तर शिथिल करना होगा और चेतना को उस स्थिति में ले आना होगा जहाँ चेतना में कोई गति नहीं रहती, जहाँ चेतना बिल्कुल, शिथिल, शान्त और विराम को उपलब्ध हो जाती है और शरीर बिल्कुल जड़ अवस्था को उपलब्ध हो जाता है शरीर जब जड़ हो और चेतना शिथिल और शून्य हो तब किसी भी वृक्ष, पशु, पौधे से तादात्म्य स्थापित किया जा सकता है। और एक मजे की बात है कि अगर वृक्षों से तादात्म्य स्थापित करना हो तो किसी खास वृक्ष से तादात्म्य स्थापित करने की जरूरत नहीं । वृक्षों की पूरी जाति के साथ एकदम तादात्म्य स्थापित हो सकता है क्योंकि वृक्षों के पास व्यक्तित्व अभी पैदा नहीं हुआ। अभी वे एक जाति की तरह जीते हैं । जैसे कि गुलाब के पौधे से तादात्म्य स्थापित करने का मतलब है समस्त गुलाबों से तादात्म्य स्थापित हो जाना क्योंकि किसी पौधे के पास अभी व्यक्ति का भाव नहीं है, अभी अहंकार और अस्मिता नहीं हैं । लेकिन मनुष्यों से अगर तादात्म्य स्थापित करना हो तो बहुत कठिन बात है | हाँ, आदिवासी जातियों से इकट्ठा तादात्म्य अभी भी स्थापित हो सकता है क्योंकि बे कबीले की तरह जीते हैं। उनका कोई व्यक्तित्व नहीं है लेकिन जितना समाज सभ्य होगा, जितना सुसंस्कृत होगा उतना मुश्किल हो जाएगा। जैसे अगर बटैंड रसल से तादात्म्य स्थापित करना हो तो सोधा व्यक्ति से तादात्म्य स्थापित करना होगा । अंग्रेज जाति से तादात्म्य स्थापित करने में और किसी Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर । मेरी दृष्टि में से भी तादात्म्य स्थापित हो जाए, बटेड रसल छूट जाएगा बाहर । उसके पास अपना व्यक्तित्व है। जितने नीचे हम उतरते हैं, उतना वहाँ व्यक्तित्व नहीं है। • इसलिए इस वर्ग में तादात्म्य पूरी जाति से होता है। इस तादात्म्य की स्थिति में जो भी भाव-संकल्प किया जाए वह प्रतिध्वनित होकर उन सारे जीवों तक व्याप्त हो जाता है । जैसे गुलाब के पौधे की जाति से तादात्म्य स्थापित किया गया हो तो उस क्षण में जो भी भाव-तरंग पैदा की जाए वह समस्त गुलाबों तक संक्रमित हो जाती है। ऐसी अवस्था में महावीर ने बहुत समय गुजारा। और ऐसी अवस्था को उपलब्ध करने में उनको बहुत सी बातें करनी पड़ी जो पीछे समझाने वाले को मुश्किल होती चली गई। जैसे महावीर खड़े है, कोई उनके कानों में कीलें ठोक दे, महावीर को पता नहीं चलता। कारण कि पत्थर में कील ठोक दो तो पत्थर को क्या पता चलता है क्योंकि सब करीब-करीब अचेतन है। महावीर के कान में कीलें ठोके जा रहे हैं तो उनको पता नहीं चलता। कारण कि उस समय वे ऐसी चीजों से तादात्म्य कर रहे हैं जिनको पता नहीं चलता कीलें ठोंके जाने से। आप मेरा मतलब समझ रहे हैं न ? जिस प्राणी जगत् से वह सम्बन्ध स्थापित किए खड़े हैं, उस प्राणी को कान में कीला ठोके जाने से पता नहीं चलेगा। इसलिए महावीर को भी कभी पता नहीं चल सकता है। अगर महावीर का कोई हाथ भी काट लेगा तो भी उन्हें पता नहीं चलेगा, जैसे कोई वृक्ष की एक शाखा काट ले। यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनका तादात्म्य क्या है। हम सब जातते हैं कि लोग अंगारों पर कूद सकते हैं । तादात्म्य किससे है, इस पर सब बात निर्भर करती है। अगर उस व्यक्ति ने किसी देवता से तादात्म्य किया है तो वह अंगारों पर कूद जाएगा, जलेगा नहीं क्योंकि वह देवता नहीं जल सकता है। जो रहस्य है वह कुल इतना है। आदमी तो फौरन जल जाएगा लेकिन अगर उसने अपना तादात्म्य किसी देवता से किया हुआ है, उसके साथ अपने को एक मान लिया है, उसकी धुन में नाचता हुआ चला जा रहा है तो उसके नीचे अंगारों के ढेर लगा देने पर भी उसके पावों पर फफोला नहीं आएगा क्योंकि जिससे उसका तादात्म्य है, चेतना उस वक्त वैसा ही व्यवहार करना शुरू कर देती है। हमारे तादात्म्य पर निर्भर करता है कि हम कैसा व्यवहार करेंगे। यह जो हम मनुष्य है अभी यह भी गहरे में हमारा तादात्म्य ही है। इसलिए मनुष्य को कैसे व्यवहार करना चाहिए, वैसा हम Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ व्यवहार करते हैं । गहरे में यह भी हमारी मनोभूमी को पकड़ है कि "हम मनुष्य है", तो फिर हम मनुष्य जैसा व्यवहार कर रहे हैं। - इस सम्बन्ध में बहुत सी घटनाएं मुझे ख्याल में बातो है। महावीर के जीवन में बहुत जगह है जहाँ समझना मुश्किल हो जाता है। न समझने की वजह से हम कहते हैं कि आदमी क्षमावान् है, अक्रोषी है। यानी कोष नहीं करता है। यह सब ठीक है। क्रोष न करे, क्षमा करे लेकिन कान में कोले छुके और पता न चले। यह अकेले अक्रोधी और क्षमावान् को नहीं होने वाला है। कितना ही अक्रोधी हो, अक्रोध और बात है लेकिन कान में कीले ठुके और पता न चले, यह बिल्कुल अलग बात है। यह तभी हो सकता है जब महावीर बिल्कुल चट्टान की तरह हों उस हालत में । सुकरात एक रात खो गया । घर के लोग रात भर परेशान रहे। सुबह मित्र खोजने निकले तो एक वृक्ष के नीचे जहां बर्फ पड़ी है, सब बर्फ से ढ़का हुआ है, वह घुटने-घुटने तक बर्फ में डूबा हुआ है । वह वृक्ष से टिका हुआ खड़ा है । उसकी आंख बंद है और वह बिल्कुल ठंडा है। सिर्फ धीमी सी स्वांस चल रही है। उसे हिलाया है, बमुश्किल वह होश में आया है, उसके हाथ पैर पर मालिश को है, उसे गर्म किया है, कपड़े पहनाए हैं। फिर जब वह थोड़ा होश में आया है, उससे पूछा है कि तुम क्या कर रहे थे। तो कहा कि बड़ी मुश्किल हो गई। रात जब मैं खड़ा हुमा तो सामने कुछ तारे थे; मैं उनको देख रहा था। और कब मेरा तारों से तादात्म्य हो गया मुझे याद नहीं। और कब मैंने ऐसा जाना कि मैं तारा हूँ, मुझे पता नहीं, और तारे तो ठंडे होते हैं, इसलिए मैं ठंडा होता चला गया। और चूंकि मैं तारा समझ रहा था अपने को इसलिए कोई बात ही नहीं उठी, घर लौटने का ख्याल ही नहीं था । वह तो तुमने जब मुझे हिलाया तब मैं जैसे एक दूसरे लोक से वापस लौटा हूँ। हम जहाँ तादात्म्य कर लेते हैं, वही हो जाते हैं। तादात्म्य की कला बहुत अद्भुत बात है। और जरा सी चूक हो जाए तादात्म्य में तो सब गड़बड़ हो जाएगा। महावीर जो अभिव्यक्ति का उपाय खोज रहे हैं, वह है भूत, जड़, मूक जगत् उस सब में तरंगें पहुंचाने का । और ये तरंगें अब तो वैज्ञानिक ढंग से भी अनुभव की जा सकती है। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६. महावीर : मेरी दृष्टि मे तीर्थ और मन्दिर जिस दिन पहली बार खड़े हुए, उनके खड़े होते का कारण बहुत ही अद्भुत था। वह यही था । अगर महावीर जैसा व्यक्ति इस कमरे में रह जाए कुछ दिन तो इस कमरे से उसका तादात्म्य हो जाता है और इस कमरे के रग-रम पर, करण-कण पर उसकी तरंगें अंकित हो जाती हैं। फिर इस कमरे में बैठना किसी दूसरे के लिए बड़ा सार्थक हो सकता है, बड़ा सहयोगी हो सकता है । इस कमरे में अगर एक आदमी ने किसी की हत्या कर दी हो, या आत्महत्या कर ली हो तो आत्महत्या के क्षण में इतनी तीव्र तरंगों का विस्फोट होता है- क्योंकि आदमी मरता है, टूटता है-कि सैकड़ों वर्षों तक इस कमरे की दीवारों पर उसको प्रतिध्वनियां अंकित हो जाती है और यह हो सकता है कि एक रात आप इस कमरे में आकर सोएं और रात आप एक सपना देखें आत्महत्या करने का । वह आपका सपना नहीं है । वह सपना केवल इस कमरे की प्रतिध्वनियों का आप के चित्त पर प्रभाव है । और यह भी हो सकता है, इस कमरे में रहते हुए आप किसी दिन आत्महत्या कर गुजरें - यह भी बहुत कठिन नहीं है । इससे उल्टा भी हो सकता है । लेकिन महावीर और मीरा जैसा कोई व्यक्ति इस कररे में बैठकर एक तरंगों में जिया हो तो यह कमरा उसकी तरंगों से भर जाएगा। इसके कण-कण में— क्योंकि उधर जो हमें कण दिखाई पड़ रहा है मिट्टी का, और यह जो हम में कण हैं उनमें कोई बुनियादी भेद नहीं है। विद्युत् के कण हैं और सब विद्युत् के कण तरंगों को पकड़ सकते हैं, तरंगों को देख सकते हैं । कमजोर आदमी को तरंगें दे देते हैं और शक्तिशाली आदमियों से उनको तरंगें लेनी पड़ती हैं । वह सब एक से ही बहुत - मैंने परसों बोधिवृक्ष की बात की थी। इस वृक्ष को इतता आदर देने का ओर तो कोई कारण नहीं है । वह वृक्ष ही है । बुद्ध उसके नीचे बैठकर अगर निर्वाण को भी उपलब्ध हुए तो क्या मतलब है ? लेकिन मतलब निश्चित है । इस वृक्ष के नीचे निर्वाण की घटना घटी तो उस क्षण में इतनी तरंगें बुद्ध के चारों तरफ विस्फोट की तरह फैली कि यह वृक्ष उसका सबसे बड़ा गवाह है और इस वृक्ष के कण-कण से उसकी तरंगों का अंकन है । और आज भी जो रहस्य को जानता है वह उस वृक्ष के नीचे बैठकर उन तरंगों को वापस अपने में बुला सकता है । आकस्मिक नहीं था कि हजार-हजार, दो-दो हजार, तीन-तीन हजार मील तक बौद्ध भिक्षु चक्कर लगाएं, दो क्षण उस वृक्ष के पैरो में पड़े रहने के लिए आते रहें । आकस्मिक नहीं है । इसके पीछे सारी की सारी विज्ञान की बात है । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मेद शिखर है, गिरनार है, कावा है, काशी है, जेरुसलम है-इन सब के साथ कुछ संकेत और कुछ गहरी लिपियों में कुछ जुड़ा है। उनकी तरंगें घोरे-धीरे नष्ट हो गई हैं। करीब-करीब इस समय पृथ्वी पर कोई भी जीवित , तीर्थ नहीं है, सब तीर्थ मर गए हैं। उनकी तरंगें नष्ट हो गई है । इतनी तरंगों का उनके उपर और आघात हो गया है इतने लोगों के आने जाने का कि वे करीब-करीब कट गई है और समाप्त हो गई है। लेकिन इस बात में तो अर्थ था हो, इस बात में तो अर्थ है ही। जड़ से जड़ वस्तु पर भी तरंगें क्रान्तिकारी परिवर्तन ला सकती हैं। अभी एक नवीनतम प्रयोग बहुत हैरानी का है। वह प्रयोग यह है कि जैसे-जैसे हम अणु को तोड़ कर और परमाणुओं को तोड़कर इलेक्ट्रोन की दुनिया में पहुंचे हैं, वहाँ जाकर एक नया अनुभव आया है जो बहुत घबड़ाने वाला है और जिसने विज्ञान को सारी व्यवस्था उलट दी है। वह अनुभव यह है कि . अगर इलैक्ट्रोन को बहुत खुर्दबीनों से निरीक्षण किया जाए तो जैसा वह अनिरीक्षित व्यवहार करता है, निरीक्षण करने पर उनका व्यवहार बदल जाता है। कोई उसे नहीं देख रहा है तो वह एक ढंग से गति करता है और खुर्दबीन से देखने पर वह डगमगा जाता है और गति बदल देता है। यह बड़ी हैरानी की बात है कि पदार्थ का अन्तिम अणु भी मनुष्य को आंख और निरीक्षण से प्रभावित होता है। ऐसे जैसे आप अकेले सड़क पर चले जा रहे हैं, कोई नहीं है सड़क पर, फिर अचानक किसी खिडकी में से कोई झांकना है और आप बदल गए। आप दूसरी तरह चलने लगे। अभी जिस शान से आप चल रहे थे वैसा नहीं चल रहे। अभी गुनगुना रहे थे, अब गुनगुनाना बंद हो गया। अपने बाथरूम में आप स्नान कर रहे हैं, गुनगुना रहे हैं, नाच रहे हैं, या आइने के सामने मुंह बना रहे हैं और अचानक आपको पता लगे कि बगल के छेद से कोई आदमो झांकता है, आप दूसरे आदमी हो गए । निरीक्षण आदमी में फर्क लाये, यह समझ में आता है। लेकिन अणु भी, परमाणु भी, निरीक्षण से डगमगा जाए तो बड़ी हैरानी की बात है। और यह सब इस बात की खबर देते हैं कि हम कुछ गलती में हैं। वहां भी प्राण, वहाँ भी आत्मा, वहाँ भी देखने से भयभीत होने वाला, देखने से सचेत होने वाला, देखने से बदलने वाला मौजूद है। इन परमाणुओं तक भो महावीर ने खबर पहुंचाने की कोशिश की है। इस खबर पहुंचाने के लिए. ही, जैसा मैंने कहा, पहले तो यह अनेक बार ऐसी Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ महावीर । मेरी दृष्टि में अवस्था में पाए गए, जहां वह जीवित है या मृत हैं कहना मुश्किल है। और यह अवस्थाएं लाने के लिए उन्हें कुछ और प्रयोग करने पड़े वे भी हमें समझ लेने चाहिए। महावीर का चार-चार महीने तक, पांच-पांच महीने तक भूखा रह जाना बड़ा असाधारण है। कुछ न खाना और शरीर को कोई क्षीणता न हो, शरीर को कोई नुकसान न पहुँचे, शरीर वैसा का वैसा ही बना रहे शायद ही आपने कभी सोचा हो । या जो जैन मुनि और साधु संन्यासी निरन्तर उपवास की बात करते हैं, उनमें से, अढाई हजार वर्ष होते हुए महावीर के हुए, एक भी यह नहीं बता सकता है कि तुम चार-पांच महीने का उपवास करो तो तुम्हारी क्या गति होगी। महावीर को क्यों नहीं हो रहा है ऐसा। यह आदमी चारचार पांच-पांच महीनों तक नहीं खा रहा है। बारह वर्ष में मुश्किल से जोड़तोड़ कर एक आध वर्ष भोजन किया है यानी बारह दिन के बाद एक दिन तो निश्चित हो, कभी दो दिन, कभी दो महीने बाद, कभी-कभी तीन महीने बाद, इस तरह चलता है लेकिन इसके शरीर को कोई क्षीणता उपलब्ध नहीं हुई है। इसका शरीर पूर्ण स्वस्थ है, असाधारण रूप से स्वस्थ है, असाधारण रूप से सुन्दर है-क्या कारण है ? अब मेरी अपनी जो दृष्टि है, जैसा मैं देख पाता है, वह यह है कि जो व्यक्ति नीचे के तल पर, पदार्थ के परमाणुओं, पौधों के परमाणुओं, पक्षियों के परमाणुओं को इतना बड़ा दान दे रहा है अमर ये परमाणु उसे प्रत्युत्तर देते हों तो आश्चर्य नहीं। यह परमाणु जगत् का प्रत्युत्तर है । जो बादमी पास में पड़े हुए पत्थर की आत्मा को भी जगाने का उपाय कर रहा है, जो पास में लगे हुए वृक्ष की चेतना को जगाने के लिए भी कम्पन भेज रहा है मगर ऐसे व्यक्ति को सारे पदार्थ-जगत् में प्रत्युत्तर में बहुत सी शक्तियां मिलती हों तो आश्चर्य नहीं। और उसे वे शक्तियां मिल रही हैं। आखिर वृक्ष को हम भोजन बनाकर लेते हैं, काटते हैं, पीटते हैं, आग पर पकाते हैं, फिर वह जो वृक्ष है, वृक्ष का पत्ता है, या फल है, इस योग्य होता है कि हम उसे पचा सकें और वह हमारा खून और हड्डी बन जाए। बनता तो वृक्ष ही है। और वृक्ष क्या है, मिट्टी ही है; मिट्टी क्या है, सूरज की किरणें ही हैं। वह सब चीजें मिल कर एक फल में आती हैं । फल हम लेते हैं। हमारे शरीर में पचता है और पहुंच जाता है। आज नहीं कल, विज्ञान इस बात को खोज लेगा कि जो किरणों को पोसकर वृक्ष का फल 'D' विटामिन लेता है, क्या जरूरत है कि इतनी लम्बी यात्रा की जाए कि हम फल को लें और फिर 'डो' विटामिन हमें Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन- ७ २१९ मिले। सूरज की किरण से सीधा क्यों न मिले ? यह सूरज की किरण को हम एक छोटे केपस्यूल में क्यों न बंद करें और वह आदमी को दें ताकि वह पचास, फल खाने में जितना 'डी' विटामिन इकट्ठा कर पाए, एक कैपस्यूल उसको पहुँचा दे । आज नहीं कल, विज्ञान उस दिशा में गति करेगा ही । लेकिन विज्ञान की गति और तरह की है । वह छोन -झपट की गति है । महावीर की भी एक तरह की गति है और वह गति भी किसी दिन स्पष्ट हो सकेगी कि क्या यह सम्भव नहीं है । आखिर पानी ही तो हमें बचाता है, हवा बचाती है, सूरज बचाता है यही सब तो हमारा भोजन बनते हैं। क्या यह संभव नहीं है कि बहुत गहरे प्रतिदान में जो आदमी इन सबके लिए एकात्म्य साध रहा हो उसको इनसे भी प्रत्युत्तर में कुछ मिलता हो जो हमें कभी नहीं मिलता, या मिलता है तो बहुत श्रम से मिलता है । 1 . । और तीस साल से उसने इस तरह की दो घटनाएँ और घटी हैं। अभी यूरोप में एक औरत जिन्दा है जिसने तीस साल से भोजन नहीं किया और पूर्ण स्वस्थ है और वैसी ही सुन्दर है, वैसी ही स्वस्थ है जैसे महावीर रहे होंगे कुछ भी नहीं लिया है। उसके शरीर में कुछ भी नहीं गया है। उसके सब एक्स-रे हो चुके हैं, जाँच-पड़ताल हो चुकी है। उसका पेट सदा से खाली है । तीस साल से उसने कुछ भी नहीं खाया है । लेकिन उसका एक छटांक वजन भी नहीं गिरता है नीचे । वह पूर्ण स्वस्थ है। न केवल वजन नहीं गिरता है बल्कि एक और दुर्घटना है जो उसके साथ चलती है । ईसाइयों में, ईसाई फकीरों में एक तादात्म्य का प्रयोग है जो स्टिगमेटा कहलाता है । जैसे जीसस को जिस शुक्रवार को शूली लगी, उनके दोनों हाथों पर कीले ठोके गए तो जो ईसाई फकीर, ईसाई साधक जीसस से तादात्म्य कर लेते हैं, शुक्रवार को ऐसा हाथ फैला कर बैठ जाते हैं और हजारों लोगों के सामने उनके हाथों में अचानक छेद हो जाते हैं और खून बहने लगता है वह जीसस से तादात्म्य के आधार पर - यानी उस क्षण वह भूल गए हैं कि मैं हूँ, वह जीसस है। शुक्रवार का दिन आ गया और बह शूली पर लटका दिए गए हैं। उनके हाथ फैल जाते हैं । हजारों लोग देख रहे हैं। उनकी हथेली फटती है जाता है । इस औरत ने तोस साल से प्रति शुक्रवार सेरों खून इसके हाथ से जाते हैं और सब घाव मिट जाते हैं और पश्चिम में घटना घटे, वहाँ तो वैज्ञानिक चिन्तन चलता है किसी भी और खून बहना शुरू हो खाना तो लिया नहीं और तीस साल से बह रहा है। दूसरे दिन हाथ ठीक हो उसके वजन में कमी नहीं आती । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० महावीर : मेरी दृष्टि में बात पर । लेकिन उनकी पकड़ में अब तक नहीं आ सका कि बात क्या हो सकती है । बंगाल में एक औरत थी । उसे मरे अभी कुछ वर्ष हुए। पैंतालिस वर्ष तक उसने कोई भोजन नहीं किया। वह बहुत स्वस्थ नहीं थी किन्तु साधारण स्वस्थ थी । इतने वर्षं भोजन न करने से कोई असुविधा नहीं आई थी, चलती फिरती थी । बूढ़ी ओरत थी । सब ठीक था । उसका पति जिस दिन मरा उस दिन से भोजन नहीं लिया । घर के लोगों ने समझाया बुझाया कि भोजन ले लो । उसने कहा मैं पति के मरने के बाद भोजन कैसे ले सकती हूँ । घर के लोगों ने, मित्रों ने कहा कि ठीक है, रहने दो, ठीक ही कहती है, वह कैसे ले सकती है । दो दिन बीत गए तब फिर लोगों ने कहा तो उसने कहा कि अब तो पति के मरने के बाद ही सब दिन हैं। अब इससे क्या फर्क पड़ता है कि एक दिन, दा दिन, तीन दिन । अब तो बाद में ही सब कुछ है । और जब उस दिन तुम राजी हो गए तो अब तुम राजी हो रहो । अब मैं बाद में कैसे भोजन ले सकती हूँ | अब बात खत्म हो गई । वह पैंतालीस साल जिन्दा रही। उसने भोजन नहीं लिया । लेकिन वैज्ञानिक उसकी भी चिन्तना करते रहे, विचार करते रहे । उनको साफ नहीं हो सका कि बात क्या है । मेरी अपनी समझ यह है, और महावीर से हो वह समझ मेरे ख्याल में आती है कि हो सकता है किसी न किसी तरह से परमाणुओं का सूक्ष्म जगत् सीधा भोजन देता हो। इसके अतिरिक्त और कोई बात नहीं है । वह कैसे देता हो, किस ढंग से देता हो यह हमारी बातें हैं । लेकिन, सूक्ष्म जगत् से सीधा भोजन मिलता हो, और बीच में माध्यम न बनाता पड़ता हो । महावीर को ऐसा भोजन मिला है। इसलिए महावीर के पीछे जो भूखों मर रहे हैं, वे बिल्कुल पागल है । वे निपट शरीर को गला रहे हैं और नासमझो कर रहे हैं । इसलिए महावीर के उपवास को मैं कहता हूँ 'उपवास' है और बाकी पीछे लोग अनशन कर रहे हैं वे सिर्फ मांसाहारी हैं-अपना ही मांस पचा जाते हैं । एक दिन के उपवास में एक पौड मास पच जाता है। तो चाहे हम दूसरे का मांस खाएं या अपना खाएँ, इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता है । वह मांसाहारी ही है क्योंकि शरीर को जरूरत है उतने को । जितनी गर्मी चाहिए, जितनी शक्ति चाहिए वह शरीर लेगा । अगर आप बाहर से नहीं देते हैं तो वह शरीर से पचा लेगा। तो इतनी चर्बी पचा जाएगा और उस पचाने में आप उपवास समझेंगे । वह उपवास नहीं है । शरीर में कोई फर्क न आए, शरीर जैसा Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-७ २२१ या वैसा रहे तब तो जानना चाहिए कि भोजन के सूक्ष्म मार्ग उपलब्ध हो गए हैं, सिर्फ भोजन बंद नहीं किया गया है । महावीर जो तीन-चार महीने के बाद एक आध दिन भोजन कर लेते हैं, वह इसलिए नहीं लेते कि एक दिन के भोजन लेने से कोई फर्क पड़ जाएगा क्योंकि जब चार महीने भोजन के विना एक आदमी रह सकता है तो आठ महीने क्यों नहीं ? वह सिर्फ इस रहस्य को प्रकट न करने के लिए है कि अगर साल दो साल भूखा रह जाए आदमी तो लोग पूछेगे कि यह हुआ कैसे ? और यह हर किसी को बताना खतरनाक भी हो सकता है। सभी बातें सभी को बताने के लिए नहीं भी हैं। जो वे एक दिन खाना ले लेते हैं वह सिर्फ इसलिए कि लोगों को सात्वना हो जाए कि वे खाना ले लेते हैं। एक दिन खाना ले लेते हैं तो दो चार-महोने बात खत्म हो जाती है। इसलिए, जो बातें अभी मैं कह रहा हूँ उसमें कुछ सूत्र छोड़े जा रहा हूँ। इसलिए अभी इनका प्रयोग नहीं किया जा सकता । आप इनका प्रयोग नहीं कर सकते । महावीर पाखाना नहीं जाते, पेशाब नहीं जाते। बड़ी चिन्तना की बात है कि यह कैसे हो सकता है ? महावीर को पसीना नहीं बहता, यह कैसे हो सकता है ? अगर भोजन ले लें तो यह सब होगा क्योंकि यह भोजन से जड़ा हुआ हिस्सा है। अगर आप भीतर डालेंगे तो बाहर निकालना पड़ेगा। लेकिन अगर सूक्ष्म तल से भोजन मिलने लगे तो इसका कोई मतलब हो नहीं रह जाता है । निकालने को कुछ है ही नहीं । इतना सूक्ष्म है भोजन कि निकालने लायक कुछ भी उसमें से बचता नहीं । वह सीषा शरीर में लोन हो जाता है। महावीर को अहिंसा को भी इस तरह से समझने की कोशिश करना जरूरी है। और तरफ से भी हम समझने की कोशिश करेंगे । महावीर के लम्बे उपवास समझ लेने जरूरी है कि सूक्ष्म भोजन प्राप्त करने की प्रक्रिया उन्हें उपलब्ध है। काशी में एक संन्यासी था वियुतानन्द और उसने एक अति प्राचीन विज्ञान को जो एकदम खो गया था फिर से उज्जीवित किया। वह है सूर्य किरण विज्ञान । उस आदमी ने इस तरह लेंस बनाए थे कि एक मरी हुई चिड़िया को ले जाकर आप रख दें तो वह लेंस से सूरज की किरणों को पकड़ेगा और उस चिड़िया पर गलेगा। थोड़ी देर कुछ करता रहेगा बैठा हुआ । और बापके सामने चिड़िया जिन्दा हो जाएगी। और यह प्रयोग पश्चिम के डाक्टरों के सामने भी किए गए और यूरोप से आने वाले न जाने कितने लोगों ने ये Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ महावीर : मेरी दृष्टि सब समझ लेता हूँ।' यह बड़ी भारी बाधा है। और मनुष्य शब्द सुनता है और शब्द को पकड़ने का, संग्रह करने का उपाय ईजाद कर लिया है उसने-भाषा को वह सब संग्रहीत कर लेता है। वह कहता है यह सब लिखा हुवा है।' वह शन्द पकड़ लेता है फिर शब्दों की व्याख्या करता है और भटक जाता है । इसलिए मनुष्य के साथ बड़ी कठिनाई है। क्योंकि मनुष्य पशु है लेकिन वह पशु नहीं रह गया है। मनुष्य देवता हो सकता है लेकिन अभी हो नहीं गया है। वह बीच की कड़ी है। अगर ठीक से हम समझें तो वह प्राणी नहीं है, सिर्फ कड़ी है। पशु से चला आया है वह बागे। लेकिन पशु बिल्कुल खो नहीं गया है। इसलिए जो जरूरी चीजें है, वह अब भी भाषा के बिना करता है। जैसे क्रोष आ जाए तो वह चांटा मारता है, प्रेम आ जाए तो वह गले लगाता है। जो जरूरी चीजें हैं, वह अभी भी भाषा के साथ नहीं करता है। भाषा अलग कर देता है फौरन । उसका पशु होना एकदम प्रकट हो जाता है । पशु के पास कोई भाषा नहीं है। प्रेम है तो वह गले लगा लेता है, क्रोध है तो चांटा मार देता है। वह नीचे उतर रहा है। वह भाषा छोड़ रहा है। वह जानता है कि भाषा समर्थ नहीं है। इसलिए जो बहुत जरूरी चीज है उसमें वह गैर भाषा के काम करता है। या फिर जो बहुत जरूरी चीजें हैं जिनमें भाषा बिल्कुल बेकार हो जाती है तो वह मौन से काम करता है। मनुष्य पशु नहीं रह गया है और देवता भी नहीं हो गया है। वह बीच मे खड़ा है । एक तरफ का कास रोष है, एक तरह का चौरास्ता है जो सब तरफ से बीच में पड़ता है। कहीं भी जाना है तो मनुष्य से हुए बिना जाने का उपाय नहीं है। इस मनुष्य को समझाने की चेष्टा ही सबसे ज्यादा कठिन चेष्टा है। देवता समझ लेते हैं जो कहा जाता है वैसा ही क्योंकि बीच में कोई शब्द नहीं होता। व्याख्या करने का कोई सवाल नहीं है वहाँ । पशु समझ लेते है क्योंकि उनसे कहा ही नहीं जाता। व्याख्या की कोई बात ही नहीं होती। सिर्फ तरंगें प्रेषित की जाती हैं। तरंगें पकड़ ली जाती है। जैसा कि अब यह टेप रिकार्डर मुझे सुन रहा है । आप भी मुझे सुन रहे हैं। इस कमरे में कोई देवता भी उपस्थित हो सकता है। यह टेप रिकार्डर कोई व्यास्या नहीं करता है। यह सिर्फ रिसीव कर लेता है, सिर्फ तरंगों को पकड़ लेता है। इसलिए कल इसको बजाएंगे तो जो इसने पकड़ा है, वह दुहरा देगा पदार्थ के तल पर, और पशु के तल पर जो ग्रहण शक्ति है वह इसी तरह की सीधी है। सिर्फ तरंगें सम्प्रेषित हो जाती हैं। देवता वल पर बर्य सीधे प्रकट हो जाते हैं । मनुष्य के तल पर तरंगें पहुंचती Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-७ २२७ हैं, अर्थ वह खुद खोजता है। तब बड़ी मुश्किल हो जाती है। तब उसको सब व्याख्याएं खड़ी हो जाती हैं । व्याख्याओं पर व्याख्याएं खड़ी हो जाती है। " जैसा मैंने कहा कि महावीर शायद अकेले व्यक्ति है जिन्होंने न मालूम कितने पशुओं, न मालूम कितने पक्षियों, न मालूम कितने पोषों को आमन्त्रित किया है मनुष्य की तरफ। दूसरी बात भी समझ लेनी जरूरी है। वही शायद ऐसे अकेले व्यक्ति हैं और लोगों ने भी शायद चेष्टा को है, बहुत लोगों ने सफलता पाई है जिन्होंने देवताओं को भो ममुष्य की तरफ आकर्षित किया है। इस पर हम पीछे बात करेंगे। मनुष्यों से कैसे सम्प्रेषण हुमा है, देवताओं में कैसे सम्प्रेषण हो सकता है, वह हम फिर बात करेंगे। बारह वर्ष की पूरी साधना अभिव्यक्ति, संप्रेषण की साधना है। कैसे पहुंचाया जा सके जो पहुँचाना है ? और जैसे ही उसकी साधना पूरी हो गई है, उन्होंने छोड़ दी है और वह पहुंचाने के काम में लग गए हैं। दो छोटे सूत्र ख्याल में रख लेने चाहिए। पशु के पास संप्रेषण करना है वो मूक होना पड़ेगा। मूक का मतलब यह कि वाणी खो देनी पड़ेगी; वह रह हो नहीं जाएगी भीतर । करीब-करीब मूच्छित और जड़ जैसा मालूम पड़ने लगेगा व्यक्ति । लेकिन शरीर जड़ होगा, मन जड़ होगा, मगर भोतर चेतना पूरी जागी होगी। अगर मनुष्य से संबन्ध जोड़ना है तो दो उपाय हैं : जो मनुष्य साधना से गुजरे उसके साथ बिना शब्द के संबंध जोड़ा जा सकता है क्योंकि साधना से गुजर कर उसे उस हालत में लाया जा सकता है नहीं देवता होते हैं। तब वह मौन में समझ सकता है। जैसे मैंने कल कहाँ कि महाकाश्यप को बुद्ध ने कहा कि वह मैंने तुझे दे दिया है जो मैं शब्दों से दूसरे को नहीं दे सका हूँ। या फिर वाणी है जो सीधी उनसे कही जाय। वह उसे सुने, समझे। लेकिन, वह नहीं समझ पाता है। इसलिए महावीर की कथा यह है कि महावीर कहते हैं, गणधर सुनते हैं, गणधर लोगों को समझाते हैं। यह बड़ा खतरनाक मामला है महावीर किसी को कहते हैं, वह सुनता है । फिर वह जैसा समझता है, व्याख्या करके लोगों को समझाता है। बीच में एक मध्यस्थ खड़ा होता है और महावीर है सीधा संबंध नहीं हो पाता क्योंकि हम शब्दों को समझ सकते है। अनुभूतियों को नहीं और या फिर हम अनुभूतियों में प्रवेश करें, ध्यान में जाएं, समाधि में उतरें और उस जगह सड़े हो जाएं जहाँ शब्द के बिना तरंगें पकड़ी जा सकती हों। एक रास्ता वह है, नहीं तो फिर मध्यस्थ होंगे, व्याख्याएं होंगी, शब्द होंगे-सब बदल जाएगा, सब सो जाएगा। Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ महावीर । मेरी दृष्टि में जो भी शास्त्र निर्मित है, वे बादमियों के बोले गए शब्दों द्वारा निर्मित है। 'वे शब्द भी सीधे महावीर के नहीं हैं। वे शब्द भी टीकाकारों के हैं। और फिर हमने अपनी समस बोर वृद्धि के अनुसार उसको संगृहीत किया है, अपनी व्याख्या की है। और इसलिए सब लड़ाई झगड़ा है, सब उपद्रव है। महावीर ने मौन में क्या कहा है उसे पकड़ने की जरूरत है। या उन्होंने जिनसे मौन से बोला जा सकता था, उन देवताबों से क्या कहा है, उसे पकड़ने की जरूरत है या जिनके साथ शब्द का उपयोग असम्भव था, उन पक्षियों, पोषों, पत्थरों को क्या कहा, उसे पकड़ना जरी है। और जो मैंने पहले दिन कहा वह सब किसी गहनतम अस्तित्व की बहराइयों से सुरक्षित है। वह सब वापिस पकड़ा जा सकता है। सिर्फ मन की एक अवस्था में हमें उतरना पड़ेगा जहां हम फिर उसे पकड़ सकते हैं। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रश्नोत्तर - प्रवचन Page #205 --------------------------------------------------------------------------  Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : महावीर सब कुछ अपना मौलिक कहते हैं । वे किसी के अनुयायी नहीं थे । उनका अपना कुटुम्ब रहा होगा। उन्होंने अपना पंच स्वता निर्माण किया। फिर वह पार्श्वनाथ के पंच से कैसे मेल खा गया? और जैन नाम का जो सम्प्रदाय महावीर के साथ जुड़ा वे कौन लोग थे और वे क्या कहलाते थे ? उत्तर : इसमें दो तीन बातें समझने की है। पहली बात यह कि महावीर के साथ ही पहली बार विचार की एक धारा सम्प्रदाय बनी । महावीर के पहले जो विचारधारा यो उसका आर्यपरम्परा से पृथक् अस्तित्व नहीं था। वह आर्यपरंपरा के भीतर पैदा हुई एक धारा थी। उसका नाम 'श्रमण' था। वह जैन, नहीं कहला रही थी तब तक । और 'श्रमण' कहलाने का कारण यह था कि ब्राह्मणधारा इस बात पर श्रद्धा नहीं रखती है कि श्रम, साधना और तप के माध्यम से परमात्मा को पाया जा सकता है। ब्राह्मण धारा का विश्वास है कि परमात्मा को पाया जा सकता है विनम्र भाव में, प्रार्थना में, शास्त्रविधि में, दीनभाव में, जहाँ हम बिल्कुल असहाय है, जहाँ हम कुछ भी नहीं कर सकते, जहाँ करने वाला वही है। इस पूर्ण दीनता को जीसस ने 'पावर्टी ऑफ स्पिरिट' कहा है, जहाँ मनुष्य कहता है कि मैं दीन और दरिद्र हूँ, मैं कर ही क्या सकता हूँ, मैं सिर्फ मांग सकता हूँ, मैं अपने को हाथ जोड़कर समर्पण कर सकता हूँ।' ऐसी एक धारा यो जो परमात्मा को या सत्य को दोन और विनम्र भाव से मांगती थी । उससे ठीक भिन्न और विपरीत एक धारा चलनी शुरू हुई जिसका बाधार श्रम था, प्रार्थना नहीं; जिस का आधार यह. नहीं था कि हम प्रार्थना करेंगे, पूजा करेंगे और मिल जाएगा किन्तु जिसका आधार यह था कि हम श्रम करेंगे, संकल्प करेंगे, श्रम और संकल्प से जीता जाएगा। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ महावीर मेरी दृष्टि यह मार्य जीवन-दर्शन बड़ी बात है। इसमें श्रमण सम्मिलित है, ब्राह्मण सम्मिलित है। महावीर पर माकर इस धारा ने अपना पृषक् अस्तित्व घोषित किया। महावीर के पहले तक वह धारा पृषक नहीं है। इसलिए नादिनाव का नाम तो वेद में मिल जाएगा लेकिन महावीर का नाम किसी हिन्दू अंथ में नहीं मिलेगा। पहले तीर्थकर का नाम तो वेद में उपलब्ध होगा पूरे समादर के साथ । लेकिन महावीर का नाम उपलब्ध नहीं होगा। महावीर पर आकर विचार की धारा सम्प्रदाय बन गई और उसने आर्य जीवन पथ में अलग पगडंडी तोड़ ली। तब तक वह उसी पथ पर थी। अलग चलती थी, अलग धारा थी चिन्तना की लेकिन थी उसी पथ पर । उस पथ से भेद नहीं खड़ा हो गया था और एकदम से भेद बड़ा होता भी नहीं है। वक्त लग जाता है। जैसे जीसस पैदा हुए तो जीसस के बक में ही इसकी वारा अलग नहीं हो गई। जीसस के मर जाने पर भी दो तीन यो वर्ष तक यहूदी के अन्तर्गत हो जीसस के विचारक चलते रहे। लेकिन जैसे-जैसे भेद साफ होते गए और दृष्टि में विरोध पड़ता गयाजीसस के तीन सी, चार सौ, पांच सौ साल बाद क्रिश्चियन धारा मलम खड़ी हो गई। जीसस तो यहूदी ही पैदा हुए और यहूदी ही मरे । जीसस ईसाई कमी नहीं थे। जैनों के पहले तेईस तीकर आर्य ही थे, मायं ही पैदा हुए और आर्य हो मरे। वे जैन नहीं थे। लेकिन महावीर पर जाकर धारा बिल्कुल पृथक् हो गई, बलशाली हो गई, उसकी अपनी दृष्टि हो गई और इसलिए फिर वह 'श्रमण' न कहलाकर जैन कहलाने लगी। 'जन' कहलाने का और भी एक कारण वा क्योंकि श्रमणों की एक बड़ी धारा थी। सभी श्रमण 'जैन' नहीं हो गये । धम नौर संकल्प पर आस्था रखने वाले आजीवक भी थे, बौद्ध भी ये और दूसरे विचारक भी थे। जब महावीर ने अलग पूरा दर्शन दे दिया तब फिर इस श्रमणधारा को भी एक बारा रह गई। बौद्ध धारा भी श्रमण धारा है। पर वह बलप हो गई। इसलिए फिर इसको एक नया नाम देना जरूरी हो गया। और यह महावीर के साथ जुड़ गया। क्योंकि जैसे बुद्ध को हम कहते है : गौतम बुद्ध, नाग्रत पुरुष वैसे महावीर को हम कहते हैं महावीर जिन : महावीर विजेता, जिसने जीता और पाया। असल में जिन बहुत पुराना शब्द है। वह बुद्ध के लिए भी उपयुक्त हुआ है। जिन का मतलब जीतना ही है। लेकिन फिर भेदक रेखा खींचने के लिए जरूरी हो गया कि जब गौतम बुद्ध के अनुयायी बोर कहलाने लगे तो महावीर के अनुयायो जैन कहलाने लगे। 'जिन' Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३३ -ओर 'जैन' शब्द महावीर के साथ प्रकट हुए और दो स्थितियां हुई - एक तो आर्यमूलधारा से श्रमणधारा टूट गई और श्रमणवारा में भी नए पंथ हो गए जिनमें जैन एक पंथ बना। इसलिए महावीर के पहले तीर्थंकर हिन्दू संघ के भीतर हैं । महावीर पहले तीर्थंकर हैं जो हिन्दू संघ के बाहर खड़े होते हैं । समय लगता है किसी विचार को पूर्ण स्वतन्त्रता उपलब्ध करने में । वह समय लगा । सर-प्रवचन-द दूसरी बात यह कि महावीर निश्चित ही किसी के अनुयायी नहीं है। उनका कोई गुरु नहीं है । पर उन्होंने जो कहा, उनसे जो प्रकट हुआ, उन्होंने जो संवादित किया वह जो तेईस तीर्थंकरों के अनुयायी चले आते थे, उनसे बहुत दूर तक मेल खा गया । महावीर को चिन्ता भी नहीं है कि वह मेल खाए । वह मेल खा गया यह संयोग की बात है। नहीं मेल खाता तो कोई चिन्ता की बात न थी । वह मेल खा बया । और वे अनुयायी धीरे-धीरे महावीर के पास आ गए। और दूसरे लोग, जो पार्श्व की परंपरा के जीवित थे, महावीर के करीब आ गए। बहुत बार ऐसा होता है। ऐसा भी नहीं है कि महावीर सब वही कह रहें हैं जो पिछले तेईस तीर्थंकरों ने कहा हो । बहुत कुछ नया भी कह रहे हैं । जैसे किसी पिछले तीर्थंकर ने ब्रह्मचर्य को कोई बात नहीं की है । और पार्श्वनाथ का जो धर्म है वह चतुर्याम है; उसमें ब्रह्मचर्य की कोई बात नहीं है । महावीर पहली बार ब्रह्मचर्य की बात कर रहे हैं । और बहुत सी बातें हैं जो महावीर पहली बार कर रहे हैं । लेकिन वे बातें पिछले तेईस तीथंकरों के विरोध में नहीं हैं, चाहे वे उनको आगे बढ़ाती हों, कुछ जोड़ती हों, उनसे भिन्न हों, उनसे ज्यादा हों लेकिन उनके विरोध में नहीं हैं । इसलिए स्वभावतः उस धारा से संबद्ध लोग महावीर के निकट इकट्ठे हो गए हैं व्यक्ति किसी धारा को यह है कि महावीर के पहले तेईस तीर्थंकर बड़े साधक थे, सिद्ध थे लेकिन जो एक दर्शन निर्मित करता है ऐसा उनमें कोई भी न था । वह है जो उसको उपलब्ध हुआ । इसलिए चौबीसव होते हुए प्रथम हो गए। सबसे अन्तिम होते हुए भी उनकी स्थिति प्रथम हो गई । अगर आज उस विचारधारा का कुछ भी जीवन्त अंश शेष है तो सारा श्रेय महावीर को उपलब्ध होता है । व्यवस्था और दर्शन बनाने वाला एक बिल्कुल अलग बात है । बहुत तरह के विचारक होते हैं। कुछ विचारक ऐसे होते हैं जो खण्ड-खण्ड में सोचते हैं, जो कभी सारे टुकड़ों को इकट्ठा जोड़कर समग्र दर्शन स्थापित नहीं । मिल जाए तो वह धारा और महावीर जैसा बलशाली अनुगृहोत ही होगी । सच तो महावीर ही व्यक्ति करीब-करीब भी वह Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ महावीर | मेरी दृष्टि में कर पाते। इस तेईस तीर्थकरों की हजारों वर्षों की यात्रा में, जो सारे खण्ड थे, एक सम्बद्ध रूप दिया । इसलिए जैन दर्शन उन सारे खण्डों को महावीर ने पैदा हो सका । निश्चित ही, जैसा आप पूछते हैं, महावीर के परिवार के लोग किसी पंथ को, किसी विचार को मानते रहे होंगे। लेकिन कोई भी पंथ और कोई भी विचार आर्य जीवन-पथ के ही हिस्से थे । उनमें कोई भिन्नता नहीं थी । इसलिए सम्भव है कि कृष्ण का चचेरा भाई तोर्थंकर हो सके और कृष्ण हिन्दुओं के परम औतार हो सकें । इसमें कोई बाधा न थी । विचार पद्धतियाँ थीं किन्तु वे अभी सम्प्रदाय न बन पायी थीं। जैसे कि आज कोई कम्यूनिस्ट है, सोशलिस्ट है, फासिस्ट है । एक ही घर में एक आदमी सोशलिस्ट हो सकता है, एक आदमी फासिस्ट हो सकता है, एक आदमी कम्युनिस्ट हो सकता है। लेकिन कभी ऐसा हो सकता है कि जब ये सम्प्रदाय बन जाए तो कम्युनिस्ट का बेटा कम्युनिस्ट हो, सोशलिस्ट का बेटा सोशलिस्ट हो । तब विचार पद्धतियां न रहीं । तब जन्म से बंधे हुए संप्रदाय हो गए। महावीर के पहले भारत में विचारपद्धतियाँ थीं और आर्य जीवन-दृष्टि सबको घेरती थी । उनमें वेद के क्रियाकाण्डी लोग थे और ठीक उनके विरोध में उपनिषद् के विचारक थे। लेकिन इससे वह कोई अलग बात नहीं हो जाती थी । U मतलब है कि जहाँ वेद का अन्त हो अब मजा है कि वेदान्त शब्द का जाता है, सत्य का प्रारम्भ होता है। यानी वेद तक तो सत्य ही नहीं । जहाँ वेद समाप्त हुआ, वहाँ से सत्य शुरू होता है । अब ये वेदान्त की दृष्टि वाले लोग भी आर्य जीवन-दृष्टि के हिस्से थे । उपनिषद् इतना ही विरोधी है वेद का जितना कि बौद्ध विचारक या जैन विचारक, महावीर या बुद्ध । उपनिषद् के ऋषि वेद के विरोध में हैं और इतनी सख्त बातें कही हैं कि हैरानी होती है । ऐसी सब्त बातें कही हैं वैदिक क्रियाकाण्डी ब्राह्मणों के लिए उपनिषद् तक ने होता है । लेकिन तब तक कोई सम्प्रदाय नहीं है तब तक सभी के, सभी तरह के विचारक हैं । वह सभी एक ही वह लड़ते भी हैं, झगड़ते भी हैं, विरोध भी करते हैं ऐसा भेद नहीं पड़ गया है कि आदमी जन्म से किसी सम्प्रदाय का हिस्सा हो गया हो । महावीर के साथ पहली दफा आर्य जीवन-पद्धति में एक अलग रास्ता टूट गया । फिर श्रमण जीवन पद्धति में भी बुद्ध के साथ अलग रास्ता टूट गया । ऐसे ही जैसे एक वृक्ष होता है, नीचे पीड़ होती है, वह तो एक ही होती है। । कि आश्चर्य एक परिवार शाखाएं हैं । परिवार की लेकिन अभी कोई जन्मतः . Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-८ २३५ फिर पीड़ एक जगह से दो शाखाओं में टूट जाती है। अब हम जो शाखाओं पर बैठे हों, पूछ सकते हैं कि पीड़ के समय में हमारी शाखा कहाँ थी। शाखा थी ज्ञान की पर पीड़ में इकट्ठी एक ही जगह थी। भारत में जो विचार का विकास हुवा है, वह वृक्ष की भांति है। उसमें पीड़ तो आयं जीवन-पद्धति है। उसमें दो शाखाएं टूटी है-एक हिन्दू, एक श्रमण । श्रमण में भी दो शाखाएं टूटी है-बोट और जैन । हिन्दुओं में भी कई शाखाएं टूटी है-सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा, वेदान्त । प्रश्न : पहले सम्प्रदाय जो मापने कहा वह तो महावीर के बाद का मालूम होता है। उत्तर : हाँ, हाँ वही तो मैं कह रहा हूँ। प्रश्न : महावीर के समय में नहीं ? उत्तर : नहीं, नहीं, वह महावीर के साथ ही टूट गया। अनुभव बहुत बाद में होता है हमें। महावीर पहला सुसबम्बद्ध चिन्तक है जैन तीर्थकरों की धारा में । महावीर के समय में भी भारी विवाद था कि चौबीसवाँ तीर्थकर कौन है ? इसके लिए गोशालक भी दावेदार था कि चौबीसवा तीर्थकर मैं हूँ। क्योंकि तेईस तीर्थकर हो गए थे और चौबीसवें की तलाश थी कि चौबीसवां कौन ? और जो भी व्यक्ति चौबीसा सिद्ध हो सकता था वह निर्णायक होने वाला था क्योंकि वह अन्तिम होने वाला था। दूसरा, उसके वचन सदा के लिए आप्त हो जाने वाले थे क्योंकि पच्चीसवें तीर्थकर के होने की बात नहीं थी। भारी विवाद था महावीर के समय में । अजित केश कम्बल और मंखली गोशाल दावेदार थे चौबीसवें तीर्थकर होने के। परम्परा अपना अन्तिम सुसंगति देने वाला व्यक्ति खोज रही थी । बुद्ध और महावीर के समय में कोई आठ व्यक्ति तीर्थकर होने के दावेदार थे। इनमें महावीर विजेता हो गए क्योंकि परम्परा ने उनमें वह सब पा लिया जो उसे पाने जैसा लगता था और वह सील-मोहर बन गई। सम्प्रदाय तो फिर धोरे-धीरे बना है। महावीर के मन में सम्प्रदाय का सवाल ही नहीं था लेकिन महावीर ने जितनी सुसम्बद्ध रूप रेखा दे दी श्रमण जीवन-दृष्टि को उतनी ही वह धारा बंध गई, सम्प्रदाय बन गया । सम्प्रदाय शब्द बहत पीछे जाकर बदनाम हो गया है । गन्दगी की कोई बात न थी इसके साथ। सम्प्रदाय का मतलब इतना था कि जहां से जीवन-दृष्टि मिलती हो, जहाँ से Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबीर : मेरी दृष्टि में मार्ग मिलता हो, जहाँ से प्रकाश मिलता हो, वहाँ प्रत्येक को हक है उस प्रकाश की धारा में बहने का और चलने का। जो सत्य दिखाई पड़ता है, उसे मानने 'का हक है प्रत्येक को। फिर महावीर की बात तो बहुत अद्भुत है। महावीर से ज्यादा गैर-साम्प्रदायिक चित्त खोजना कठिन है। लेकिन संप्रदाय के जन्मदाता वही है। तो भी वे गैर-सांप्रदायिक है क्योंकि शायद सारी पृथ्वी पर ऐसा दूसरा आदमी ही नहीं हुआ जिसके पास इतना गैर-सांप्रदायिक वित्त हो। क्योंकि जो किसी की बात को सापेक्ष दृष्टि से सोचता हो उसकी दृष्टि में सांप्रदायिकता नहीं हो सकती। बहुत बाद में आइंस्टीन ने सापेक्षवाद की बात कही है। विज्ञान के जगत् में सापेक्ष की बात आइंस्टीन ने अब कही, धर्म के जगत् में महावीर ने बढ़ाई हजार साल पहले कही। बहुत कठिन था उस वक्त यह कहना क्योंकि उस वक्त आर्यधारा बहुत टुकड़ों में टूट रही थी और प्रत्येक टुकड़ा पूर्ण सत्य का दावा कर रहा था। असल में साम्प्रदायिक चित्त का मतलब यह है कि जो यह कहता हो कि मूल्य यहीं है और कहीं नहीं। साम्प्रदायिक चित्त का मतलब है कि सत्य का ठेका मेरे पास है और किसी के पास नहीं। और सब असत्य है, सत्य मैं हूँ। ऐसा जहाँ आग्रह हो, वहाँ साम्प्रदायिक चित्त है । लेकिन जहाँ इतना विनम्र निवेदन हो कि मैं जो कह रहा हूँ वह भी सत्य हो सकता है, उससे भी सत्य तक पहुंचा जा सकता है तो सम्प्रदाय निर्मित होगा पर साम्प्रदायिक चित्त नहीं होगा वहाँ । सम्प्रदाय निर्मित होगा इन अर्थों में कि कुछ लोग जाएंगे उस दिशा में, खोज करेंगे, पाएंगे, चलेंगे, अनुगृहीत होंगे उस पंथ की तरफ, उस विचार की तरफ । महावीर एकदम ही गैर-साम्प्रदायिक चित्त हैं। बहुत ही अद्भुत है उनकी दृष्टि । वह जहां बिल्कुल ही कुछ न दिखाई पड़ता हो वहाँ भी कहते हैं कि कुछ न कुछ होगा। चाहे दिखाई न पड़ता हो तो भी कुछ न कुछ सत्य होगा क्योंकि पूर्ण सत्य भी नहीं होता, पूर्ण असत्य भी नहीं होता। असत्य में भी सत्य का अंश होता है, सत्य में भी असत्य का अंश होता है। वह कहते हैं कि इस पृथ्वी पर पूर्ण जैसी कोई चीज नहीं होती, सब चीजें अपूर्ण होती है । अगर कोई उनसे पूछे कि ऐसा है तो कहेंगे 'हाँ' है।' और साथ यह भी कहेंगे कि 'नहीं भी हो सकता है महावीर की सापेक्षता भी एक कारण बनी महावीर के अनुयायियों की संख्या न बढ़ने में। क्योंकि संख्या बढ़ने में अन्धदृढता का होना जरूरी है. संख्या तब बढ़ती है जब दावा पक्का और मजबूत हो कि जो हम कह रहे हैं, वह सही है, और जो दूसरे लोग कह रहे हैं, सब ठीक नहीं। तब पागल इकट्ठे Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन २३७ --- होते हैं क्योंकि इस दावे में उनको रस मालूम होता है। लेकिन एक आदमी कहे, ' यह भी सही, वह भी सही, तुम जो कहते हो वह भी ठीक, हम जो कहते . हैं वह भी ठीक । तीसरा जो कहता है वह भी ठीक तो ऐसे आदमी के पास पागल इकट्ठे नहीं हो सकते। क्योंकि वे कहेंगे कि इस आदमी की बातों में क्या मतलब है यानी यह तो सभी को ठीक कहता है । यह कहता है नास्तिक भी ठीक है, आस्तिक भी ठोक है क्योंकि दोनों में ठोक का कोई अंश है। तो इसके पास पागल समूह इकट्ठा नहीं हो सकता । अन्धविश्वासी इकट्ठे करने हों तो दावा इतना पक्का मजबूत होना चाहिए कि उसमें संशय की जरा भी रेखा न हो । क्योंकि महावीर की बातों में संशय की रेखा मालूम पड़ती है, वह संशय नहीं है, सम्भावना है लेकिन साधारण आदमी को समझना मुश्किल होता है कि सम्भावना और संशय में क्या फर्क है ? महावीर से कोई कहे : 'ईश्वर है ।' तो महावीर कहेंगे : 'हो भो सकता है, नहीं भी हो सकता । किसी अर्थ में हो सकता है, किसी अर्थ में नहीं हो सकता है ।' यह महावीर सिर्फ सब सत्यों को सम्भावना की बात कर रहे हैं । वह यह नहीं कह रहे कि मुझे संशय है कि ईश्वर है, या नहीं । वह यह नहीं कह रहे कि मैं संशय करता हूँ कि ईश्वर हैं, या नहीं। वह यह कह रहे हैं कि सम्भावना है ईश्वर के होने की भी न होने की भी । अगर कोई ऐसा मानता हो कि आत्मा परम शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है तो ठीक हो कहता है। अगर कोई ऐसा मानता है कि परमात्मा कहीं पर बैठा हुआ हम सबको खिलौनों की तरह नचा रहा है तो ऐसा नहीं है। जब वह कहते हैं कि ईश्वर है और ईश्वर नहीं हैदोनों एक साथ तो वह ईश्वर के अर्थों में भेद करते हैं। लेकिन महावीर की इतनी सूक्ष्म दृष्टि अन्धविश्वास नहीं बनाई जा सकतो क्योंकि दूसरे को गलत एकदम से नहीं कहा जा सकता । और जहाँ दूसरे को एकदम गलत न कहा जा सकता हो वहाँ अनुयायी इकट्ठे करना बहुत मुश्किल हैं, एकदम असम्भव है । क्योंकि अनुयायी पक्का मानकर आना चाहता है । अनुयायो पूरी सुरक्षा चाहता है । मगर जब वह देखता है कि यह आदमी खुद ही संदिग्ध दिखता है, सुबह कुछ कहता है, दोपहर कुछ कहता है, साँझ कुछ कहता है, कभी इसका खुद का ही ठिकाना नहीं हो पाया है तो हम इसके पीछे कैसे जाएं ? जब एक आदमी - . जोर से टेबिल पर घूंसा मार कर कहता है कि जो मैं कहता हूँ, परम सत्य है और सबके सब गलत हैं तो जितने कमजोर बुद्धि के लोग हैं वे सब उससे एकदम प्रभावित हो जाते हैं । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ महावीर : मेरी दृष्टि में कमजोर बुद्धि के लिए दावा चाहिए मजबूत । वह बुद्धिमान् आदमी से चौंक जाता है। उधर अगर कोई दावे से कहे कि यही ठीक है तो बुद्धिमान् आदमी जरा चौंक जाएगा कि यह आवमो कुछ गलत होना चाहिए क्योंकि ठीक का इतना दावा बुद्धिमान् आदमी नहीं करता। बुद्धिमान् आदमी झिझक जाता हैं क्योंकि जिन्दगी बड़ी जटिल है । वह इतनी सरल नहीं कि हमने कह दिया कि 'सब ऐसा है।' जिन्दगी इतनी जटिल है कि उसमें विरोधो के सच होने की भी सम्भावना बनी रहती है। इसलिए जो आदमी जितना बुद्धिमान् होता चला जाता है, उतना हो उसके वक्तव्य 'स्यात्' होते चले जाते हैं। वह कहता है 'स्यात् ऐसा हो', फिर वह एकदम से नहीं कह देता : 'ऐसा है ही।' लेकिन • बुद्धिमान् की जो यह बात है उसे समझने के लिए भी बुद्धिमान ही चाहिए । जितने ज्यादा बुद्धिमान् दावे होंगे उतनी बुद्धिहीनों की संख्या ज्यादा होगी। एकदम दावा होना चाहिए आम आदमी के लिए जैसे कि एक ही अल्लाह है, और उसके सिवाय दूसरा कोई अल्लाह नहीं। तो फिर आदमी की समझ में माता है कि यह पक्का जानने वाला आदमी है जो साफ दावा कर रहा है और जिसके हाथ में तलवार भी है कि अगर तुमने गलत कहा तो हम सिद्ध कर देंगे तलवार से कि तुम गलत हो। कमजोर बुद्धि के लोगों को तलवार भो सिद्ध करती है। बुद्धिमान् आदमी जिसके हाथ में तलवार देखेगा, उसको गलत ही मानेगा । तलवार से कहों सिद्ध होता है कि क्या सही है, क्या गलत ? दुनिया में जितने दावेदार पैदा हुए हैं उतनी ज्यादा उन्होंने संख्या इकट्ठी कर ली है। महावोर संस्था इकट्ठी नहीं कर सके है। संख्या इकट्ठी करना बहुत मुश्किल था, एकदक असम्भव था। क्योंकि महावीर किसको प्रभावित करेंगे ? आदमो आता है गुरु के पास इसलिए कि उसे पक्का आश्वासन मिल जाए। जो गुरु उसे कहता है कि लिख कर चिट्ठी देते हैं कि स्वर्ग में तुम्हारी जगह निश्चित रहेगी, वह गुरु समझ में आता है। जो गुरु कहता है कि पक्का रहा मैं तुझे बचाने वाला रहूँगा, जब सब नरक में जा रहे होंगे तब तुझे जो मानता है वह बचा लिया जाएगा। तब वह मानता है कि यह आदमी ठीक है, इसके साथ चलने में कोई अर्थ है। महावीर का कोई भी दावा नहीं है। इतना गैर-वावेदार भावमी ही नहीं हुआ इस जगत् में। उसने सत्य को इतने कोनों से देखा है जितना किसी ने कभी नहीं देखा। . दुनिया में तीन सम्भावनाओं की स्वीकृति महावीर के पहले से चली आती यो। जैसे कोई कहे यह घड़ा है। तो इसका मतलब यह था कि (१) 'बड़ा Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ८ २३६ है, ( २ ) घड़ा नहीं है, क्योंकि मिट्टी ही तो है, और ( ३ ) घड़ा है भी, नहीं भी है । घड़े का अर्थ में घड़ा है; मिट्टी के अर्थ में नहीं भी है' । एक आदमी कह सकता है : 'यह तो मिट्टी ही है, घड़ा कहाँ ?" तो इसको गलत कैसे कहोगे ? मिट्टी ही तो है। लेकिन एक आदमी कहे कि 'नहीं, मिट्टी है ही नहीं, यह तो घड़ा है । क्योंकि मिट्टी तो पड़ी है बाहर, उसमें और इसमें भेद है' तो उसे भी सही मानना पड़ेगा । सत्य के तीन कोण हो सकते हैं( १ ) है, ( २ ) नहीं है, (३) दोनों, नहीं भी और है भी । 'यह त्रिभंगी महावीर के पहले भी थी। लेकिन महावीर ने इसे सप्तभंगी किया है । और कहा कि तीन से काम नहीं चलेना । सत्य और भी जटिल है । इसमें चार 'स्यात्' और भी जोड़ने पड़ेंगे। तो बहुत ही अद्भुत बात कही लेकिन बात कठित होती चली गई, उलझ गई और साधारण आदमी की पकड़ के बाहर हो गई। ये तीन बातें ही पकड़ के बाहर हैं लेकिन फिर भी समझ में आती हैं। घड़ा सामने रखा है । कोई कहता है - घड़ा है। हम कहते हैं : हाँ, घड़ा । लेकिन, हम एकदम ऐसा नहीं कहते कि 'हाँ, घड़ा है।' हम कहते हैं, 'स्यात् घड़ा है ।' क्योंकि दूसरी संभावना बाकी है कि कोई कहे कि मिट्टी ही है, घड़ा कहीं, तो हम सिद्ध न कर पाएँगे कि घड़ा कहां है । तो हम कहते हैं : 'स्यात् घड़ा है ।' 'स्यात् घड़ा नहीं है', 'स्यात् घड़ा है भी और नहीं भी है ।' महावीर ने इसमें चौथी भंगी 'जोड़ो' और कहा : 'स्यात् अनिर्वचनीय हैं, शायद कुछ ऐसा भी है जो नहीं कहा जा सकता यानी इतने से काम नहीं चलता है। मिट्टी है, घड़ा है, यह भी ठीक है। लेकिन है जो नहीं कही जा सकती। इसे कहना मुश्किल है। क्योंकि घड़ा अणु भी है, परमाणु भी है, इलेक्ट्रोन भी है, प्रोट्रोन भी है, विद्युत भी है - सब है और कुछ बात ऐसी भी छोटी सी चीज भी इतनी ओर एक बात तो पक्की है इस सबको इकट्ठा करना मुश्किल है । घड़ा जैसी ज्यादा है कि इसको अनिर्वचनीय कहना पड़ेगा। कि घड़े में जो है-पन है, एग्रिटंग्स है, जो होना है, वह तो अनिर्वचनीय है ही क्योंकि 'है' की क्या परिभाषा ? क्या अर्थ ? अस्तित्व का क्या अर्थ ? घड़े का भी अस्तित्व है और अस्तित्व अनिर्वचनीय है । अस्तित्व तो ब्रह्म है। महावीर ने चौथा जोड़ा । 'शायद घड़ा अनिर्वचनीय है।' पाँचवा जोड़ा कि 'स्यात् है और अनिर्वचनीय है ।' छठवां जोड़ा कि 'स्थात् नहीं है और अनिर्वचनीय है' और सातवां जोड़ा कि 'स्यात् है भी, और नहीं भी है और अनिर्वचनीय है । अब यह जटिल होती चली गई इसलिए अनुयायी खोजना मुश्किल है।' • Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० महावीर : मेरो दृष्टि में इस प्रकार सत्य को सात कोणों से देखा जा सकता है, यह महावीर का कहना है और बड़ी अद्भुत बात है। आठवें कोण से नहीं देखा जा सकता। सात सन्तिम कोण है इसलिए सप्त भंग की सात दृष्टियों से सत्य को देखा जा सकता है। ओर जो एक ही दृष्टि का दावा करता है, वह छ: अर्थों में असत्य का दावा करता है क्योंकि छः दृष्टियां वह नहीं कह रहा है। और जो एक ही दृष्टि को कहता है कि यही पूर्ण सत्य है वह जरा अतिशय कर रहा है, सीमा के बाहर जा रहा है । वह इतना ही कहे कि यह एक दृष्टि से सत्य है तो महावीर को किसी से झगड़ा ही नहीं। अगर वह विचार इतना रहे कि 'इस दृष्टि से मैं यह कहता हूँ तो महावीर कहेंगे कि 'इस दृष्टि से यह सत्य है।' लेकिन इससे उल्टा आदमी आ जाए और वह कहे कि 'इस दृष्टि से मैं यह कहता हूँ कि वह असत्य है' तो महावीर उससे कहेंगे तुम भी ठीक कहते हो-इस दृष्टि से यह असत्य है । लेकिन तीन की दृष्टि बहुत पुरानी थी। साफ था कि तीन तरह से सोचा जा सकता है। है, नहीं है, दोनो है-है, नहीं भी है। महावीर ने उसमें चार और दृष्टियां जोड़ी। चौथी दृष्टि ही कीमती है। फिर बाकी तो उसी के ही रूपान्तरण हैं। वह है अनिर्वचनीय को दृष्टि कि कुछ है जो नहीं कहा जा सकता; कुछ है जिसे समझाया नहीं जा सकता, कुछ है जो अव्याख्या है। कुछ है जिसकी कोई व्याख्या नहीं हो सकती है, छोटे से छोटे में और बड़े से बड़े में भी है, वह है कुछ भव्य अस्तित्व जो कि बिल्कुल ही व्याख्या के बाहर है । उसकी हम क्या व्याख्या करें। अब यह मजे की बात है। उपनिषद् कहते हैं : ब्रह्म की व्याख्या नहीं हो सकती। बाइबिल कहती है : ईश्वर की व्याख्या नहीं हो सकती। लेकिन महावीर कहते हैं ईश्वर ब्रह्म तो बड़ी बातें हैं, घड़े की ही व्याख्या नहीं हो सकती। ईश्वर और ब्रह्म को तो छोड़ दो, घड़े में भी एक तत्त्व है ऐसा 'अस्तित्व जो उतना ही अव्याख्येय है, जितना ब्रह्म। छोटी सी छोटी चीज में वह मौजद है और अनिर्वचनीय है। इसलिए वह चोषो भंग जोड़ते है कि 'स्यात् अनिर्वचनीय है। लेकिन उसमें भी वह 'स्यात्' लगाते हैं। जो खूबी है महावीर की वह बहुत अद्भुत है । वह ऐसा भी नहीं कहते कि 'अनिर्वचनीय है क्योंकि वह कहते है कि यह भी दावा ज्यादा हो जायगा। इसलिए ऐसा कहो 'स्थात्' । वह जो भी कहते हैं, 'स्यात्' पहले लगा देते हैं। लेकिन 'स्यात्' का मतलब 'शायद' नहीं है । शायद में सन्देह है । महावीर जब कहते कि 'स्यात्' तो उसका मतलब है : 'ऐसा भी हो सकता है, इससे अन्यथा भी हो सकता है । 'स्यात्' शब्द में Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन दो बातें जुड़ी हैं ऐसा है, इससे अन्यथा भी है, इसलिए कोई दावा नहीं है । तब है वह अनिर्वचनीय पर फिर वे तीन 'भंगियों' को वापस दोहरा देते हैं। वह कहते हैं : है, और अनिर्वचनीय है । कोई चीज है और अनिर्वचनीय है। लेकिन ऐसा भी हो सकता है : कोई चीज नहीं है और अनिर्वचनीय है । जैसे शून्य शून्य है तो नहीं । शून्य का मतलब ही है, जो नहीं है। लेकिन, 'शून्य' अनिर्वचनीय है । 'न होते हुए भी' वह अव्याख्येय है । और सातवीं वह जोड़ते हैं : "है भी, नहीं भी है, और अनिर्वचनीय भी है ।' यानी इन सात कोणों से सत्य को देखा जाने पर इन सातों ही कोणों से जो व्यक्ति बिना किसी दृष्टि से बंधे, देखने में समर्थ है, वह पूरे सत्य को जानने में समर्थ हो जाएगा लेकिन बोलने में समर्थ नहीं होगा । भंगियों में बोलना पड़ेगा । ।' कि वह सात उत्तर देते हैं । क्या लेना देना है । हम तो हम चाहते हैं कि या कि 'ईश्वर है' । " पूरा सत्य जब भी बोला जाएगा तभी इन्हीं इसलिए महावीर से आप पूछते जाएं कि 'ईश्वर है तब आप चुपचाप घर चले आते हैं साफ उत्तर चाहते हैं, हम पूछने गए हैं कहे हैं, या कहे नहीं हैं, बात खत्म करे आप महावीर से पूछने जाते हैं । वह कहते हैं : " (१) स्यात् - है भी; (२) स्यात् - नहीं भी है; (३) स्यात् है भी, नहीं भी; (४) स्यात् अनिर्वचनीय है; (५) स्यात् है और अनिर्वचनीय है; (६) स्यात् नहीं है और अनिर्वचनीय है; (७) स्यात् है भी नहीं भी है और अनिर्वचनीय भी है ।" आप घर लौट आते हैं कि इस आदमी से कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि इस आदमी से हम उतने ही उलझे लौटे जितने हम गए थे। क्योंकि इस आदमी से हम उत्तर लेने गए थे और इस आदमी ने उत्तर दिया है लेकिन इतना पूरा उत्तर देने की कोशिश की है कि कम बुद्धि को वह उत्तर पकड़ में नहीं आ सकता । इसलिए महावीर का अनुगमन नहीं बढ़ सका । महावीर के अनुयायी बढ़े ही नहीं । महावीर के जीवन काल में जो लोग महावीर के जीवन से प्रभावित हुए थे फिर उनकी सन्तति भले ही महावीर के पीछे चलती रही अन्धे की तरह, किन्तु नए लोग नहीं आ सके, क्योंकि महावीर जैसा व्यक्ति ही पैदा नहीं कर सकी वह परम्परा फिर, क्योंकि उसके लिए बड़ा मद्भुत व्यक्ति चाहिए जो इतने भिन्न कोणों से लोगों को आकर्षित कर सके। सीधी-सीधी बात से आकर्षित करना बहुत सरल है । इतनी जटिल बात से आकर्षित करना बहुत कठिन है । इसलिए महावीर के सीधे सम्पर्क में जो लोग आए थे, फिर उनके बच्चे हो पीछे लड़े होते चले गए। मगर जन्म से कोई धर्म का सम्बन्ध नहीं है इस१६ इस आदमी से २४१ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ महावीर : मेरी दृष्टि में 1 लिए 'जैन' जैसे कोई चीज नहीं है दुनिया में । वह महावीर के साथ ही खत्म हो गई । जन्म से कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए इस समय पृथ्वी पर 'जैन' जैसी कोई जाति नहीं है । वे जो सब जन्म से जैन लोग हैं इनको कुछ पता ही नहीं है और बड़े मजे की बात यह है कि यह जो जन्म से जैन लोग हैं, करते हैं जो महावीर सुन लें तो बहुत हंसे। इनके दावे सब महावीर के उल्टे हैं क्योंकि यह कहेंगे कि महावीर तीर्थंकर हैं। कहेगा : 'स्यात् हो भी सकता है, स्यात् नहीं भी हो सकता है ।' ये ऐसे दावे ऐसे हैं कि जो खुद महावीर प्रश्न : स्यात् क्या हर वर्ष में होगा ? सकता है क्योंकि स्वयं होना ही उत्तर : हाँ, हर धर्म में है। जैनों में बहुत ज्यादा । लेकिन बात इतनी जटिल है कि उसे सिर्फ जन्म से ही नहीं पकड़ा जा सकता किसी भी हालत में । जैसे मैं यह मानता हूँ कि एक आदमी जन्म से मुसलमान हो बात बहुत सरल है, बहुत गहरी नहीं है । जन्म से कोई सूफी क्योंकि बात बहुत बहरी है। सूफी मुसलमान फकीरों का ही जन्म से कोई सूफी नहीं हो सकता । सूफी होने के लिए तो पड़ेगा । कोई यह कहे कि 'मेरे बाप सूफी थे, इसलिए मैं सूफी हूँ' तो कोई नहीं मानेगा । मुसलमान हो सकता है। कोई दम नहीं है उसमें । जन्म से जैन होना बिल्कुल ही असम्भव है। कारण कि वह मामला हो सूफियों जैसा है । वह बिल्कुल साधन से उपलब्ध हो सकता है तो ही जैन बन सकते हो। यानी वह जीत न ले जब तक बनने का उपाय नहीं है कुछ और बात इतनी जटिल है जिसका कोई हिसाब नहीं है क्योंकि जीवन हो जटिल है । महावीर कहते हैं कि जीवन हो इतना जटिल है कि हम उसको सरल करें तो झूठ हो जाता है । जैसे कि अरस्तू का तर्क है । । जिन बन जाओ, 1 नहीं हो सकता हिस्सा है लेकिन दुनिया में दो ही तर्क हैं । एक अरस्तु का तर्क है, एक महावीर का । दुनिया में तीसरा तर्क नहीं है। दुनिया अरस्तु के तर्क को मानती है । महावीर के तर्क को कोई मानता नहीं क्योंकि अरस्तू का तर्क सीधा है, यद्यपि झूठ है । और अरस्तू का तर्क यह है कि अ अ है और 'अ' कभी 'ब' नहीं हो सकता । 'ब' 'ब' है । 'ब' कभी 'ग' नहीं हो सकता । यह अरस्तू कहता है । दुनिया अरस्तू के तर्क को मानती है। पुरुष पुरुष है, स्त्री स्त्री है। -सकता, स्त्री पुरुष नहीं हो सकती । 'काला' 'काला' है, 'सफेद' 'सफेद' है । 'सफेद' काला नहीं, 'काला' 'सफेद' नहीं । अंधेरा अंधेरा है, 'उजाला' उजाला है । ऐसा साफ है तर्क अरस्तू का । वह चीजों को तोड़कर अलग-अलग कर पुरुष स्त्री नहीं हो Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन २४३ देता है । तर्क का मतलब है कि सचाई पैदा हो। महावीर कहते हैं : 'अ' 'अ' भी हो सकता है, 'म' 'ब' भी हो सकता है। यह भी हो सकता है कि 'अ' भी न हो, 'ब' भी न हो। और 'अ' अनिर्वचनोय है। महावीर कहते हैं 'स्त्री' स्त्री भी है, 'पुरुष' भी है। 'पुरुष' 'पुरुष' भो है, 'स्त्रो' भी है। पुरुष 'स्त्री भी हो सकती है। स्त्री पुरुष भो हो सकता है और अनिर्वचनीय भी है। हो भी सकते हैं, नही भी हो सकते हैं। इस तर्क को समझना बहुत मुश्किल मामला है। लेकिन सच महावीर ही है। __जिन्दगी इतनी सरल नहीं जैसा अरस्तू समझता है। जिन्दगी में न कोई चोज काली है, न सफेद । काले और सफेद का भेद काफो नहीं है। कोई स्थान ऐसा नहीं है जो बिल्कुल अंधेरा है। और कोई स्थान ऐसा नहीं है जो बिल्कुल प्रकाशित है। असल में गहरे प्रकाश में भी अंधकार को मौजूदगी है और अंधकार से अंधकार जगह में भी प्रकाश की मौजूदगो है। ठोक तोड़ा नहीं जा सकता। जिन्दगो बिल्कुल घुलो-मिलो है। कोन-सो चीज ऐसी है जो बिल्कुल ठंडी है और गरम नहीं है । और कौन सी चोज ऐसो है जो बिल्कुल गरम है और ठंडी नहीं है । बिल्कुल सापेक्ष बातें हैं । ऐसा कुछ भी नहीं है साफ टूटा हुआ। तो महावीर कहते हैं कि जिन्दगो बिल्कुल जुड़ी हुई है-कदम जुड़ी हुई है। एक पैर जिन्दगी है और दूसरा पैर मौत है और दोनों साथ-साय चल रहे हैं। ऐसा नहीं है कि एक आदमो जिन्दा है और एक आदमी मरा है। मरना और जोना बिल्कुल साथ-साथ चलता है। अंधेरा और प्रकाश बिल्कुल एक ही चीज के हिस्से हैं । अरस्तू के तर्क से गणित निकलता है क्योंकि गणित सफाई चाहता है कि दा-दो चार होने चाहिए। महाबोर के गणित से दो-दो चार नहीं होते, कभी पांच भी हो सकते हैं, कभी तीन भो हो सकते हैं । ऐसा पक्का नहीं कि दो-दो चार ही होंगे। जिन्दगो इतनो तरल है, इतनो ठोस नहीं है। ऐसो मुर्दा भी नहीं है तो वहीं दो-दो कभी पांच भी हो जाते हैं, कभी दो और दो तोन भी रह जाते हैं। तो महावीर के तर्क से निकलता है रहस्य । और अरस्तू के तकं से निकलती है गणित। क्योंकि रहस्य का मतलब यह है कि जहाँ हम साफ-साफ न बांट सकें कि ऐसा है। महावीर को इस गहरी दृष्टि में उतरने के लिए केवल उसो के घर में जन्म लेना बिल्कुल ही व्यर्थ है। उससे कोई मतलब हो नहीं जुड़ता है। इसनो गहरी दृष्टि के लिए तो इतनी गहरो दृष्टि में सरने को हो जरूरत है। कोई उतरे ता हो स्थाल में आ सके। महाबोर के पोछे वा वर्ग खड़ा हुआ है, महाबोर के सोधे सम्पर्क में जो लोग आए थे, वे लोग महावीर से प्रभावित हुए होंगे। बब उनके बच्चों Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ महावीर : मेरी दृष्टि चलना मुश्किल है। और इसलिए अनुयायी खड़े हो जाते है। और अनुयायी कभी भी किसी बर्थ के नहीं होते। प्रश्न : जोधमापने माज तक कहा वह सब एक ही प्रश्न को विशेष रूप से जन्म देता है। वह प्रश्न है: क्या आप जो कुछ कह रहे हैं, वह जैन परिभाषा में सम्यक् दर्शन के नाम से कहा गया है और आप आन्तरिक विवेक और जागरूकता पर पूरा बल दे रहे हैं? पर एक सम्यक् चरित्र भी उसका अंग है और वह चरित्र बाह्य रूप में भी प्रकट होता है, चाहे वह आता दर्शन में से ही है, पर उसका स्वयं का स्वरूप कुछ बाह्य में भी होता है। जैसे माप अगर अपरिग्रह को लें तो एक असम्पत्ति का भाव उसका मूल है, मूळ का अभाव उसका मूल है। पर बाह्य में वह, बाह्य पदार्थों की सीमा बंधती चली जाए, इस रूप में प्रकट होना ही चाहिए । ऐसी जैन दर्शन की मुझे भावना लगती है। इसी आधार पर तो अणुव्रत और महाव्रत का मेव हमा। माज मेरी मूळ टूट गई पर सब पदार्थ मुझसे आज ही छूट नहीं नाते अचानक, क्योंकि मेरी मावश्यकताएँ धीरे-धीरे हो छूटने वाली हैं। वही मान माचरण के रूप में अणुव्रत से प्रारम्भ होगा, कल महावत में समाप्त होगा। प्राण मगर यह भेद ही न मानें, केवल मूर्धा टूटना हो अगर पहरण कर लें तो अणुवत महाव्रत का कोई भेव, कोई कम नहीं रहेगा। और चारित्र नहीं केवल दर्शन ही रह जाएगा? उत्तर : इसमें भी दो तीन बातें समझनी चाहिए। एक तो अणुव्रत से कोई कभी महावत तक नहीं जाता। महावत की उपलब्धि से अनेक अणवत पैदा होते हैं। प्रश्न : (दोनों शब्दों का अर्थ ) ? उत्तर : हाँ, मैं बताता हूँ। महाव्रत का अर्थ है जैसे पूर्ण अहिंसा। पूरे अहिंसक ढंग से जीने का अर्थ है महाव्रत-पूर्ण अपरिग्रह, पूर्ण अनासक्ति । अणुव्रत का मतलब है जितनी सामर्थ्य हो । एक आदमो कहता है कि मैं पांच रुपये का परिग्रह रतूंगा। वह अणुव्रत है। एक आदमी कहता है : मैं नग्न रहूंगा। यह महावत है । साधारणतः ऐसा समझा जाता है कि अणुव्रत से महावत की यात्रा होती है कि पहले पांच रुपए का रखो, फिर चार का, फिर सीन का, फिर वो का, फिर एक का । फिर बिल्कुल मत रखो । साधारणतः ऐसा समझा जाता है। हम छोटे से छोटे का अभ्यास करते-करते बड़े की तरफ जाएंगे Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तसावन २४९ किन्तु यह बात ही गलत है। हो सकता है कि एक आदमी दस रुपए की जगह पांच रुपए का रखने का अभ्यास करे । यह अभ्यास होगा। मूर्छा नहीं टूटेगी। क्योंकि अगर मूर्छा टूट गई होती तो महावत उपलब्ध होता। मूर्छा के टूटते ही महाव्रत उपलब्ध होता है। महाव्रत का जीवन व्यवहार में अणुव्रत दिखाई पड़ सकता है। लेकिन मूर्धा टूटते ही अणुव्रत उपलब्ध नहीं होता, महावत उपलब्ध होता है। और अगर एक आदमी के पास दस रुपए थे. और उसने अभ्यास कर पांच का अणुव्रत साप लिया, कल अभ्यास करके चार का साथ लिया, परसों तीन का, फिर दो का, फिर एक का और आखिर में उसने अपरिग्रह भी साथ लिया तो भी मूर्छा नहीं टूट सकती क्योंकि हमें साधना उसे पड़ता है जिसकी हमारी मूर्छा नहीं टूटती है। जिसकी मूर्छा टूट जाती है वह साधना नहीं पड़ता है । वह सहज आता है । मूर्छा टूटी या नहीं, इसका एक ही सबूत है कि जो आपसे हो रहा है साधना पड़ा है, या कि आया है। अगर आया है तो मूर्छा टूटी और अगर साधना पड़ा तो मूर्छा नहीं टूटी क्योंकि साधना उसके खिलाफ करनी पड़ती है, अपने ही मन के खिलाफ । मेरा मन कहता है कि मैं दस रुपए रखू । मेरा व्रत कहता है कि मैं पांच रुपए रखू। तो मैं लड़ता किससे है ? अपने मन से लड़ता हूँ जो कहता है दस रखो। मन तो दस का है, और व्रत पाँच का है। तो मैं लड़ता अपने से हूँ। मूर्छा टूट जाए तो मन ही टूट जाता है। दस का नहीं, पांच का नहों, दो का नहीं, एक का नहीं। मन परिग्रह का ही टूट जाता है। उस हालत में भी वह पांच रुपए रख सकता है। लेकिन तब वह सिर्फ जरूरत होगी उसकी मूर्छा नहीं क्योंकि जीवन-व्यवहार में, जीवन में जहां हम जी रहे हैं, मूर्छा टूट जाने पर भी एक आदमी मकान में सो सकता है। लेकिन मकान उसका परिग्रह नहीं है। मूर्छा टूटने का मतलब यह नहीं कि चीजें हट जाएंगी। मूर्छा टूटने का मतलब यह है कि चीजों से जो हमारा लगाव है वह छूट जाएगा। एक आदमी मकान में सो रहा है। यह मकान 'मेरा' है। मूा इस 'मेरे में है। मूळ मकान में सोने में नहीं है । तुम्हारे खोसे में पांच रुपए है, इसमें मूर्छा नहीं है। मैंने सुना है एक नदी के किनारे दो फकीर है। उनमें विवाद हो रहा है। एक फकीर कहता है कुछ भी रखना ठीक नहीं है। वह एक पैसा भी पास नहीं रखता है। दूसरा फकीर कहता है : 'कुछ न कुछ पास होना जरूरी है।' नहीं तो बड़ी मुश्किल पड़ जाएगी। फिर वे दोनों नदी के तट पर माए । सांस हो । गई है। सूरज ढल रहा है। नाव वाला है। नाव वाला उनसे कहता है; एक Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० महावीर : मेरी दृष्टि में दिन भर काम उस तरफ लोग कहीं पड़े रहेंगे । छोड़ना जरूरी है वह । रुपया लेंगे हम पार कर देंगे । नहीं, अब में जाता नहीं । मेरा गाँव इसी तरफ. है । मैं नाव बांधकर अब घर जा रहा हूँ । अब रात हो गई। से थक गया हूँ । उन फकीरों को उस तरफ जाना जरूरी है। प्रतीक्षा करते होंगे, हेरान होंगे। इस तरफ घना जंगल है, वह फकीर एक रुपया निकालता है जो कहता है : कुछ रखना जरूरी है। एक देता है । नाव में दोनों सवार होकर उस तरफ पहुँच जाते हैं । वह फकीर कूदता है कि देखो मैंने कहा था कुछ जरूरी है। नहीं तो हम उसी पार रह गए होते । वह जो फकीर कहता था : कुछ भी रखना जरूरी नहीं कहता है कि तुम रखने की वजह से इस पार नहीं पहुँचे सके, इसलिए पार पहुँचे सिर्फ रखने से हो जाता है । बड़ी मुश्किल हो गई। था, विवाद जीत गए । उस पार नदी के फिर विवाद चलने बात का कोई अन्त नहीं हो सकता क्योंकि दूसरा फकीर यह इस पार आए ही इसलिए कि तुम एक रुपया छोड़ सके । पार आए । वह फकीर कहता है हम आते ही नहीं अगर एक न होता । और मेरा मानना यह है कि कोई तीसरे फकीर की जो कहे कि हां, हो तभी छोड़ा जा सकता है, न हो तो छोड़ा भी नहीं जा सकता । इसलिए मैं कहता है कि चीजें हों और तुममें सतत छोड़ने की सामर्थ्य हों। बस इतनी ही बात है । चोजें न हों, यह सवाल नहीं हैं। सवाल यह हैं कि तुम में सतत छोड़ने की सामर्थ्य हो । इस पार नहीं पहुँचे। जिसने एक रुपया दिया वहाँ जरूरत है तुम एक रुपया छोड़ फिर विवाद शुरू था उसने सोचा लगा है और इस कहता है कि हम छोड़ने से हम इस रुपया हमारे पास एक सम्राट् एक संन्यासी से बहुत प्रभावित था। संन्यासी नग्न पड़ा रहता था एक नीम वृक्ष के नीचे । उस सम्राट् पर असर बढ़ता गया और एक दिन उसने कहा : यहीं नहीं, मेरे पास इतने बड़े महल हैं, आप वहीं चलें । सोचा था उसने कि संन्यासी इन्कार करेगा कि महल में नहीं जा सकता, मैं अपरिग्रही हूँ । संन्यासी ने कहा : जैसी आपको मर्जी । वह डंडा उठाकर खड़ा हो गया । सम्राट् के मन में बड़ी मुश्किल हुई । सोचा था कि अपरिग्रही है, इन्कार करेगा । सम्राट् को बड़ी शंका आने लगी मन में, सन्देह आने लगा कि कुछ भूल हो गई मुझसे । आदमी, दिखता है कि महल की प्रतीक्षा ही कर रहा है। सिर्फ नीम के नीचे शायद इसीलिए पड़ा हो कि कोई महल में ले जाने वाला मिल जाए । इसलिए एक दफा इन्कार भी नहीं किया । यह कैसा अपरिग्रही है ? अपरिग्रही को सी कहना चाहिए : कभी नहीं जा सकता महल में । महल ? पाप है । वहाँ . Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरवचन २५१ मैं कैसे जा सकता हूँ ? फिर भी, सम्राट ने कहा, देखें, कोशिश करें, जांचपड़ताल करें। तो जो उसका अपना कमरा बा, जहाँ बहुमूल्य सामान पा, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ गद्दियां थों, मखमलें थी, कीमती कालीन थी, उसने कहा कि आप तो यहाँ ठहर सकेंगे न ? उसने कहा बिल्कुल मजे से। वह जैसा नीम के नीचे सोया था, वैसे ही मखमली गद्दे पर सो गया । सम्राट् ने अपना सिर ठोका और कहा : कुछ गलती एकदम हो गई है। हम एकदम गलत आदमी को ले माए हैं क्योंकि परिग्रही को अपरिग्रहीं तब समझ में आता है जब वह परिग्रह की दुश्मनी में हो । परिग्रही को, जिसको चीजों से पकड़ है, सिर्फ वही समझ में जाता है जो चीजों को पकड़ने से ऐसा र कर हाथ फैला दे कि 'नहीं' मैं छू नहीं सकता। ये चीजें पाप हैं । जिसको रुपए से मोह है, वह रुपए लात मारने वाले को ही आदर देता है । परिग्रही सिर्फ उसको ही समझ सकता है जो ठीक उससे उल्टा करे। . सम्राट् बहुत मुश्किल में पड़ गया। वह फकीर ऐसे रहने लगा जैसे सम्राट रहता है। छः महीने बीत गए तो एक सुबह अपने बगीचे में टहलते हुए सम्राट ने उससे पूछा कि अब तो मुझ में और आप में कोई भेद नहीं मालूम पड़ता। बल्कि शायद आप ही ज्यादा सम्राट् है। मुझे चिन्ता, फिक्र और सब इन्तजाम भी करना पड़ता है। तब तो एक फर्क था जब आप नीम के नीचे पड़े थे, मैं सम्राट् था। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि कोई फर्क बाको है। संन्यासी ने कहा : 'फर्क पूछते तो। चलो, थोड़ा आगे चले चलें, थोड़ा आगे बताएंगे।' बगीचा पार हो गया। गांव निकल गया। सम्राट ने कहा : बता दें। उसने कहा : थोड़ा और आगे चलें । गांव की नदी आ गई । वे नदी के पार हो गए । सम्राट ने कहा, 'कब बताएंगे। धूप चढ़ी जाती है।' उसने कहा : 'चले चलो अभी, अपने आप पता चल जाएगा।' सम्राट ने कहा : 'क्या मतलब ।' फकीर ने कहा : अब मैं लौटूंगा नहीं । अब तुम चले ही चलो मेरे साथ । सम्राट् ने कहा : मैं कैसे चल सकता है। मेरा मकान, मेरा राज्य !' उस फकीर ने कहा तो तुम लौट जाओ। लेकिन अब हम जाते हैं। अगर फर्क दिख जाए तो दिख जाए । मगर यह मत समझना कि हम कोई तुम्हारे महल से भर गए। तुम अगर कहो कि 'लौट चलो' तो हम लोट जाएं। लेकिन तुम्हारी शंका फिर पैदा हो जाएगी। इसलिए अब हम जाते हैं। अब तुम अपना महल संभालो। इसमें फर्क तुम्हें दिखता है कि हम जा सकते हैं किसी भी क्षण । अपरिग्रह का मतलब यह नहीं है कि चीजें न हों। क्योंकि चीजें न होने । पर जो जोर है, वह चीजें होने पर जो जोर था उसका ही प्रतिरूप है। बीजे. Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ महावीर | मेरी दृष्टि में हों या न हों यह सवाल नहीं है अपरिग्रह का । अपरिग्रह क सवाल है कि व्यक्ति चीजों के सदा बाहर है । उसके भीतर कोई चीज नहीं है । उस फकीर ने कहा कि हम तुम्हारे महल में थे लेकिन तुम्हारा महल हम में नहीं है । बस इतना ही फर्क है। तुम महल में कम हो, महल तुममें ज्यादा है। हम छोड़ कर कहीं भी जा सकते हैं । हमारे भीतर नहीं है कोई मामला । हम उसके भीतर से निकल सकते हैं । कोई महल हमको पकड़ नहीं सकता और जैसे हम नीम के नीचे सोते थे वैसे तुम्हारे महल में भी सोए। वही आदमी है, वैसे ही सोया है । 1 तो महाव्रत के अणुव्रत फलित हो सकते हैं लेकिन अणुव्रतों के जोर से कभी मह व्रत नहीं निकलता है क्योंकि अणुव्रत की कोशिश मूच्छित चित्त की कोशिश है । और महाव्रत की तुम कोशिश ही नहीं कर सकते । वह तो अमूर्च्छा लाभो तभी उपलब्ध होगा । महाव्रत अभ्यास से नहीं आ सकता । तुम्हारी मूर्च्छा टूट जाए तभी फलित होता है, तुम्हारा चित्त महाव्रती हो जाता है। लेकिन जीवन में हजार तरह से अणुओं में प्रकट होगा वह महाव्रत - हजारहजार अणुओं में । लेकिन जिसको हम साधक कहते हैं आम तौर पर वह अणुव्रत से चलता है महाव्रत तक पहुँचने की कोशिश में । मगर वह कभी नहीं पहुँच पाता । वह अणुओं के जोड़ पर पहुंच जाएगा, महाव्रत पर नहीं । महाव्रत अणुओं का जोड़ नहीं है। महाव्रत विस्फोट है और जब चेतना पूरी की पूरी विस्फोट होती है तब उपलब्ध होता है । महावीर महाव्रती हैं। जीवन तो अणुव्रती होगा क्योंकि कहीं जाकर भिक्षा मांग लेंगे। विश्राम के लिए किसी छाया के तले रुकेंगे, फिर चलेंगे, फिरेंगे, बात करेंगे। इस सब में अणु होंगे लेकिन भीतर जो विस्फोट हो गया, वहाँ महान् होगा । फिर जो दूसरी बात पूछी गई वह इसी से सम्बन्धित है । तीन शब्द हैं महावीर के : सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र । लेकिन अनुयायियों ने बिल्कुल उल्टा किया हुआ है। वे कहते हैं सम्यक् चारित्र, सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन । वे कहते हैं पहले चरित्र साधो, फिर ज्ञान स्थिर होगा । जब ज्ञान स्थिर होगा तब दर्शन होगा। पहले चारित्र को बनाओ, जब चरित्र शुद्ध होगा तो मन स्थिर होगा, • स्थिर मन से ज्ञान होगा। जानोगे तुम, जानने से दर्शन उपलब्ध होगा तो मुक्त हो जाओगे । स्थिति बिल्कुल उल्टी है । सम्यक् दर्शन पहले है । जिसका हमें दर्शन होता है, उसका हमें ज्ञान होता है। दर्शन है शुद्ध वृष्टि । जैसा तुम एक फूल के पास से निकले, और तुम खड़े हो गए और Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-८ २५३ तुम्हें दर्शन हुआ फूल का, बमी भान नहीं हुआ। जब दर्शन को तुम समझने की कोशिश करोगे तुम कहोगे गुलाब का फूल है ! बड़ा सुन्दर है। यह भान हुआ। जब दर्शन को तुम बांधते हो तब वह मान बन जाता है। और फिर तुमने फूल तोड़ा और उसकी सुगन्ध नी । यह चरित्र हुवा। वरांन जब पता है तबमाल बन जाता है। जान जब प्रकट होता है तब पारित हो जाता है। चरित्र अन्तिम है-प्रथम नहीं। दर्शन प्रथम है। जीवन का सत्य क्या है इसका दर्शन चाहिए। वह ध्यान से होगा, समाधि से होगा। इसलिए साधना ध्यान और समाधि की है । दर्शन उसका फल है। जब दर्शन हो जाएगा और तुम सचेत हो जाओगे दर्शन के प्रति तब ज्ञान निर्मित होगा। जब तुम उससे अन्यथा आचरण नहीं कर सकते हो तब तुम्हारा आचरण सम्यक् हो जाएगा। प्रश्न : वह माचरण किस रूप में होगा? उत्तर : वह कई रूपों में हो सकता है क्योंकि माचरण बहुत सी चीजों पर निर्भर है। वह सिर्फ तुम पर निर्भर नहीं है। जीसस में एक तरह का होगा, कृष्ण में एक तरह का होगा, महावीर में एक तरह का होगा। वर्शन बिल्कुल एक होगा। ज्ञान में मेव पर जाएगा क्योंकि उस दर्शन को शान बनाने वाला प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग है। जगत् के जितने अनुभूति-उपलब्ध व्यक्ति है सबका दर्शन एक है। लेकिन शान सबका अलग होगा। मतलब यह कि उनकी भाषा, उनके सोचने का ढंग, उनकी शब्दावली, वह सबकी सब शान बनेगी। फिर ज्ञान आचरण बनेगा। आचरण भी भिन्न होगा। जैसे समझ लें कि अगर आज महावीर न्यूयार्क में पैदा हों तो वह नंगे नहीं खड़े होंगे क्योंकि न्यूयार्क में नंगे बड़ा होने का एक ही परिणाम होगा कि पागलं खाने में बन्द करके उनका इलाज किया जाए। इस स्थिति में उनका आचरण नग्न होने का नहीं होगा। जिस स्थिति में वे भारत में थे, उस दिन नग्नता पागलपन का पर्याय नहीं थी, संन्यास का पर्याय पो। प्रश्न : उत्तरी ध्रुव में यह मांस भी ला सकते हैं, अगर ऐसा हो ? उत्तर : सम्भव है। लेकिन मैंने कल रात को बात कही अगर आपने सुनी है तो उत्तरी ध्रुव में मांस नहीं खाएंगे-अगर उन्हें. मूक जगत् से सम्बन स्थापित करना है तो वह मांस नहीं जा सकते। और अगर सम्बन्ध स्थापित न करना हो तो वे मांस खा सकते है और मोष हो सकता है। मांस खाने से मोष का कोई विरोध नहीं है। लेकिन तब वह मनुष्य से ही सम्बन्ध स्थापित Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ महाबीर : मेरी दृष्टि में कर सकेंगे ज्यादा से ज्यादा। और वह सम्बन्ध भी बहुत शुद्ध सम्बन्ध नहीं होगा । उसमें थोड़ी बाधाएं होंगी। अगर पूर्ण शुद्ध सम्बन्ध स्थापित करना है तो इस जगत् के प्रति किसी तरह की चोट जाने-अनजाने नहीं होनी चाहिए। तब सम्बन्ध पूर्ण स्थापित होगा। मुझे अगर तुमसे सम्बन्ध स्थापित करने हैं तो मुझे तुम्हारे प्रति पूर्ण अवर साधना होगा। जितना मेरा वैर होगा, जितना मैं तुम्हें चोट पहुंचा सकता हूँ, जितना तुम्हारा शोषण कर सकता हूँ, जितनी तुम्हारी हिंसा कर सकता हूँ, उसी मात्रा में मैं तुम्हें जो पहुँचाना चाहूँगा, नहीं पहुंचा सकूँगा। प्रेम को पहुचाने के लिए सत्य के अतिरिक्त कोई और द्वार नहीं है । इसलिए महावीर अगर उत्तरी ध्रुव में पैदा हों और उनको अपने नीचे के मूक पशु जगत् और पदार्थ जगत् से सम्बन्ध स्थापित करना हो तो वह मांसाहार नहीं करेंगे लेकिन अगर करना हो तो यहां भी कर सकते हैं कोई कठिनाई नहीं है। इसलिए अहिंसा की जो मेरी दृष्टि है वह बात हो और है। अहिंसा को मैं अनिवार्य तत्व नहीं मानता हूँ मोक्ष प्राप्ति का । अहिंसा को मैं अनिवार्य तत्त्व मान रहा हूँ मनुष्य के नीचे की योनियों से सम्बन्ध स्थापित करने का। तो ज्ञान-भेद होंगे, दर्शन एक होगा, ज्ञान-भेद हो जाएगा तो फिर चरित्रभेद भी हो जाएगा। क्यों ? क्योंकि दर्शन है शुद्ध स्थिति । न वहाँ मैं हूँ, न वहाँ कोई और है । दर्शन में कोई विकार नहीं है। फिर ज्ञान में भाषा आ गई, शब्द आ गए। जो भाषा मैं जानता है, वही आएगी। जो तुम जानते हो, वही भाएगी। अब जीसस को पालि, प्राकृत नहीं आ सकती। जब उन्हें ज्ञान बनेगा बह पालि, प्राकृत या संस्कृत में नहीं बन सकता। वह आरमेक में बनेगा । जब कनफ्यूसियस को दर्शन होगा क्योंकि वह पुरुष मुक्त है इसलिए वह दर्शन वही होगा जो बुद्ध को होगा, महावीर को होगा। लेकिन जब ज्ञान बनेगा तो चीनी में बनेगा जिस शब्दावली में वह जिया है और पला है। महावीर को जब मुक्ति अनुभव होगी तो वह उसे मोक्ष कहेंगे, उसे निर्वाण नहीं कहेंगे क्योंकि वह निर्वाण शब्द में पले ही नहीं है। शंकर को जब अनुभूति होगी तो वह कहेंगे 'ब्रह्म उपलन्धि ।' वह 'ब्रह्म उपलब्धि' शब्द है मगर बात वही है। जो महावीर को मोक्ष में होती है, बुद्ध को निर्वाण में होती है, शंकर को ब्रह्म-उपलब्धि में होती है। शब्द अलग-अलग है.। शान में शब्द आ जाएगा। विशुद्धि गई, अशुद्धि भानी शुरू हुई। जो परम अनुभव था वह अब शाखाओं में बंटना शुरू हमा। फिर भी शान तो सिर्फ शवों की वजह से बमुख है। चरित्र तो और भी गोचे स्तरता है। चरित्र तो समाज, लोक व्यवहार, स्थिति, युन, नीति, व्यवस्था, Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ८ राज्य - इन सब पर निर्भर होगा क्योंकि जब मैं शुद्ध दर्शन में है तब न 'मैं' है, न कोई और है - सिर्फ दर्शन है । २५५ 1 काँच की खिड़की जो से जब मैं ज्ञान में आया तो 'दर्शन' और 'मैं' भी आया वापिस । और जब मैं चरित्र में आया तो समाज भी आया । चरित्र जो है वह समाज के साथ है । समाज को एक नीति है तो चरित्र में प्रकट होनी शुरू होगी। अगर दूसरी नीति है तो दूसरी तरह से प्रकट होनी शुरू होगी । उनमें कोई भी मिथ्या नहीं है क्योंकि लोक परिस्थिति सारी जगह अलग-अलग है । चरित्र मुझसे दूसरे का सम्बन्ध है । चरित्र में मैं अकेला नहीं हूँ, आप भी हैं । इसलिए चरित्र प्राथमिक नहीं है । वह सबसे आखिरी प्रतिध्वनि है दर्शन की । लेकिन, हो चरित्र में कुछ बातें प्रकट होंगी । उसको दर्शन होगा । वह कुछ बातें हमारे ख्याल में ले सकते हैं । लेकिन उनको बहुत बाँधकर मत लेना; बांध लेने से मुश्किल हो जाती है । क्योंकि वह किसी न किसी परिस्थिति में ही प्रकट होंगी। जैसे समझ लें कि सूरज की किरणें आ रही हैं और यह जो खिड़की लगी है, नीले कांच की है । और यह जो खिड़की लगी है, पीले काँच की है । तो पीले किरणें भीतर भेजेगी, वे पीली दिखाई पड़ेंगी, नीले कांच की किरणें नीली दिखाई पड़ेगी । अगर तुमने यह मान लिया कि सूरज नीले या पीले रंग का होता है तो तुम गलती में पड़ जाओगे। तुम इतना ही आवश्यक है कि जब सूरज निकला है वह अनेक रूपों में प्रकट होता है लेकिन प्रकाश होता है। तुम पीले और नीले में भी ताल-मेल बिठा पाओगे । महावीर में वह एक तरह से निकलता है क्योंकि महावीर का व्यक्तित्व एक तरह का है। बुद्ध में दूसरी तरह से निकलता है, क्राइस्ट में तीसरी तरह से निकलता है, कृष्ण में चौथे तरह से निकलता है । हजार तरह से वह निकलता है । यह सब कांच है - व्यक्तित्व । प्रकाश तो एक है । फिर इनसे निकलता है । फिर तुम देखने वालों के बीच जिस समाज में वह आदमी जी रहा है, वे देखने वाले भो सम्बन्धित हो जाते हैं । और सम्बन्ध तो तुमसे करना है उसे । प्रत्येक युग में नीति बदल जाती है, व्यवस्था बदल जाती है, राज्य बदल जाता है । मानना जो ज्यादा प्रश्न : क्या बेसिक मोरेलिटी जैसी कोई चीज है ? उत्तर : बिल्कुल नहीं है, बिल्कुल नहीं है । प्रथम : सत्य भी बेसिक मोरेलिटी नहीं है ? उत्तर : सत्य मोरेलिटी का हिस्सा ही नहीं है। सत्य तो अनुभूति का, दर्शन का हिस्सा है, चरित्र का नहीं । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ महावीर । मेरी दृष्टि में प्रश्न : ब्रह्मचर्य? उत्तर : नहीं, वह भी बेसिक नहीं है। अरब को लें। वहां औरतें चार पांच गुना ज्यादा है पुरुषों से । पुरुष एक है तो स्त्रियाँ छः है या पांच हैं। फिर भी वह लड़ाकू कबीला है, दिन-रात लड़ता है। पुरुष कट जाते हैं, स्त्रियां बच जाती है। समाज अनैतिक हुआ जा रहा है। क्योंकि जहाँ स्त्रियां पांच हो, पुरुष एक हो, वहाँ अगर मुहम्मद ब्रह्मचर्य का उपदेश दें तो वह मुल्क सड़ जाएगा बिल्कुल । मर हो जाएगा मुल्क क्योंकि ऐसी कठिनाई खड़ी हो गई कि चार स्त्रियों को पति ही नहीं मिल रहे हैं। और वे मजबूरी से व्यभिचार में उतर रही है। इन चार स्त्रियों के व्यभिचार में उतरने से पुरुष भी व्यभिचारी हो रहे हैं। इन चार स्त्रियों के लिए कोई व्यवस्था करनी जरूरी हैं; नहीं तो समाज बिल्कुल अनैतिक हो जाएगा । अगर महावीर भी वहाँ हों मुहम्मद की जगह, तो मैं मानता हूँ कि वह विवाह करेंगे। क्योंकि उस स्थिति में उसके सिवाय कोई नैतिक तथ्य नहीं हो सकता। मुहम्मद कहते हैं कि चार विवाह प्रत्येक के लिए धर्म है, नीति है। चार तो प्रत्येक करे ही ताकि कोई स्त्री बिना पति के न रह जाए और कोई स्त्रो बिना पति के पीड़ा न उठाए ? और बिना पति की स्त्री व्यभिचार को मजबूर न हो जाए; वह समाज को कुत्सित रोगों में न फेर दे। मुहम्मद इसके लिए उदाहरण बनते हैं। वह नी विवाह कर लेते हैं। प्रश्न : परित्र समाज से आएगा या सम्यक् दर्शन से ? उत्तर : परित्र आएगा सम्यक् दर्शन से लेकिन प्रकट होगा समाज में। सम्यक् दर्शन जिसको प्राप्त हुमा है, उसे दृष्टि प्राप्त हुई है करुणा की, प्रेम की, दया की। उस दृष्टि को प्रकट होने के लिए जैसा समाज है वैसे उपकरण खोजे गए। जैसे मुहम्मद के लिए यही करुणा है कि वह चार विवाह का इन्तजाम कर दे। और चार विवाह का इन्तजाम करता है, अगर वह नो विवाह खुद करके न बता सके तो चार का इन्तजाम करेगा कैसे ? मुहम्मद के लिए जो करुणा पूर्ण है, वह यही है। महावीर के लिए यह सवाल नहीं है। जिस युग में वह है, जहां वह है, वहां की यह परिस्थिति नहीं है। यह कल्पना में भी आना मुश्किल है महावीर को। मुहम्मद के लिए ब्रह्मचर्य की कल्पना बहुत मुश्किल है क्योंकि मुहम्मद अगर ब्रह्मचर्य की बात करें तो आप यह समझ लीजिए कि बरव मुल्क सदा के लिए नष्ट हो जाए, बुरी तरह नष्ट हो पाए । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-- सम्यक् वर्णन से करना मा पाएगी ही। वह क्या-क्या पगी यह बिल्कुल अलग बात है। अब यह हो सकता है कि करुणा यह रूप ले कि एक बादमी की टांग सड़ रही है तो उसको काट दे। और दूसरा नादमी कहे कि तुमने टान काट दी इस आदमी की, तुम्हारी कैसी करुणा? ___ गांधी जी के आश्रम में एक बछड़ा बीमार है और वह तड़फ रहा है, परेशान है। डाक्टर कहते हैं कि बचेगा नहीं, दो-तीन दिन में वह मर जायेगा, उसको केंसर हो गया है। गांधी जी कहते हैं, उसे जहर का इन्जेक्शन दे दें। इन्जेक्शन दे दिया गया है। सारे आश्रम के लोग संदिग्ध हो गए हैं। उन्होंने कहा कि यह आप क्या करते हैं ? बड़े-बड़े पंडित गांधी जी के पास इकट्ठे हुए। उन्होंने कहा कि यह तो हद हो गई। यह तो गो-हत्या हो गई। गांधी जी ने कहा कि उस गो-हत्या का पाप मैं झेल लूंगा। लेकिन इस बछड़े को कष्ट में नहीं देख सकता। अब गो-हत्या नहीं होनी चाहिए, ऐसा मानने वाला जो जड़बद्धि आदमी है वह कभी नहीं बर्दाश्त कर सकता क्योंकि उसके पास अपनी कोई दृष्टि नहीं, सिर्फ बना हुआ नियम है। लेकिन जिसके पास अपनी बनी हुई दृष्टि है, वह उसका उपयोग करेगा, चाहे वह नियम के प्रतिकूल जाती हो । लेकिन यह विशेष परिस्थिति पर ही निर्भर करता है। गांधी जी किसी अच्छे बछड़े को जहर नहीं पीला सकते। मेरा कहना है कि दृष्टि मागको होगी, परिस्थिति बाहर होगी। बछड़ा बीमार पड़ा है, कैंसर से पीडित है, आपको हर पिलाना पड़ रहा है। करुणा आपसे आ रही है। करुणा क्या रूप मेगी यह कहना कठिन है। करुणा कभी तलवार उठा सकती है, कभी तकवार का निषेष कर सकती है। मुहम्मद की तलवार पर मुहम्मद ने लिखा हुआ है कि में शांति के लिए लड़ रहा है। इस्लाम का मतलब है शांति । लेकिन मुहम्मद की परिस्थितियों में और जिन लोगों से वे घिरे हैं, तलवार के सिवाय कोई दूसरी भाषा ही नहीं है। प्रश्न : काइस्ट ने कोड़े मारे, वह करणा है ? उत्तर : बिल्कुल ही करुणा है । क्राइस्ट जब पहली दफा बदियों के बड़े त्योहार पर गए तो वह जो बड़ा मन्दिर था यहूदियों का, वहाँ सारा देश इकट्ठा होता था, देश के बड़ें ब्याजखोर इकट्ठे होते थे, व्याज पर पैसा देते थे बोर लेते थे। वह बड़ा खर्चीला त्योहार था। गरीव आरजी भी उधार लेकर रुपए खर्च करता था और वह कई जन्मों तक भी न चुका पाता उन ब्याजों को। प्याज की दूकानें मन्दिर के सामने लगी रहती। तस्तों पर लोग बैठे १७ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० महावीर : मेरी दृष्टि में रहते उधार देने वाले यात्रियों को। मन्दिर के सामने दिया गया उधार कोई साधारण उधार नहीं था। वह चुकाना ही पड़ेगा, नहीं तो नरक में जाओगे। जीसम वहाँ गए और उन्होंने यह सब देखा कि करोड़ों लोगों का शोषण चल रहा है। मन्दिर के पुजारी के एजेंट उन तस्तों पर बैठे हुए हैं जो व्याज पर पैसा दे रहे हैं और वह पैसा सब मन्दिर में चढ़ाया जा रहा है और वह पैसा फिर ग्याज से दिया जा रहा है। यह जो चक्कर देखा तो उन्होंने उठाया कोड़ा, तस्ते उलट दिए और मारे कोड़े लोगों को। और कहा : भाग जायो। इस मन्दिर को खाली करो। शत्रु को लगेगा कि यह आदमी कैसा है ? जो कहता है कि एक माल पर कोई चांटा मारो तो दूसरा गाल सामने कर दो। यह कोड़ा उठा सकता है ? हां उठा सकता है, उठाने का हकदार है क्योंकि इसको निजी क्रोष का कोई कारण नहीं है। लेकिन महावीर को कोई ऐसा मौका नहीं, इसलिए कोड़ा नहीं उठाते। मैं जो कह रहा हूँ वह यह कि दर्शन तो एक ही होगा, ज्ञान भिन्न होगा क्योंकि शब्द मा जाएगा, और चरित्र भिन्न होगा क्योंकि समाज आ जाएगा, परिस्थिति आ जाएगी। उसकी अभिव्यक्ति बदलती चली जाएगी, एकदम बदलती चली जाएगी। मगर उसमें भी काम तो दर्शन ही करेगा। असल में जिनके पास दर्शन नहीं है उनका चरित्र जड़ होता है, नियमबद्ध होता है। परिस्थिति भी बदल जाती तो भी वह नियमबद्ध चलता रहता है क्योंकि उसे कोई मतलब ही नहीं। उसकी कोई अपनी दृष्टि ही नहीं। वह तो नियमबद्ध है। लेकिन चरित्र तीसरे वर्तुल पर आता है। इसलिए मैं चरित्र को केन्द्र नहीं मानता, परिषि मानता हूं। दर्शन को केन्द्र मानता हूँ। तो दर्शन ज्ञान हो चरित्र है। मगर आपका साधु क्या कर रहा है ? वह चरित्र साप रहा है और सोच रहा है कि जब चरित्र पूरा हो जाएगा तब फिर ज्ञान होगा; जब मान पूरा हुमा तो दर्शन होगा। वह उल्टा चल पड़ा है। उससे कुछ नहीं होगा। वह सिर्फ उसकी आत्मवंचना है।। प्रश्न : महावीर के अनुयायी कहते है कि महावीर का दर्शन माज भी उपयोगी है। दर्शन बदलता नहीं है वेश-काल के साथ, सम्यक् दर्शन बदलता नहीं। पर महावीर का चरित्र प्राज जिस रूप में प्रकट हो सकता है, क्या मभिव्यक्ति ले सकता है मान की परिस्थिति में ? उत्तर : असल में ऐसा सोचना नहीं चाहिए कि आज अगर महावीर होते तो उनका बाचरण क्या होता? यह इसलिए नहीं सोचना चाहिए कि महावीर Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धानोत्तर-प्रवचन-- २५६ से कोई किसी का बन्धन थोड़े ही है कि उनका जैसा आचरण होता है वैसा हमारा हो, जैसा महावीर का आचरण होता, वैसा हमारा हो हो सकता। जैसा हमारा हो सकता है, महावीर लास उपाय करें तो वैसा उनका नहीं हो सकता। इसके कई कारण है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति अनूठा है। यही अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति के आत्मवान् होने का। किसी के आचरण का हिसाब ही मत रखो। वह सम्यक् दृष्टि नहीं है । आवरण से प्रयोजन मत रखो, दर्शन कैसे उपलब्ध हो इसकी फिक्र करो। आचरण तो पोछे से आएगा। जैसे तुम यहाँ आए तो तुम फिक्र नहीं करते कि तुम्हारे पोछे तुम्हारी लम्बी छाया आ रही है । दुपहर में आते तो कैसी छाया आती, सांझ में आते तो कैसी छाया आती, सुबह आते तो कैसी छाया आती, तुम यह फिक्र नहीं करते। तुम आते हो, छाया तुम्हारे पीछे आती है। वह लम्बी हो जाती है, छोटी हो जाती है, चौड़ी हो. जाती है, जैसी होती रहे, तुम्हें फिक्र नहीं उसकी । सवाल तो गहरे दर्शन का है, चरित्र तो उसको छाया है, जैसी धूप होगी वैसी होती रहेगी। उससे कोई सम्बन्ध नहीं है, कोई प्रयोजन नहीं है यानी उसको सोचना ही नहीं है। मेरा कहना यह है कि चरित्र बिल्कुल ही अविचारणीय है। क्योंकि दर्शन का हमें ख्याल नहीं रह गया इसलिए हम चरित्र की फिक्र करते हैं। विचारणीय है दर्शन । और दर्शन, काल एवं परिस्थिति से आबद्ध नहीं है । दर्शन कालातीत, क्षेत्रातीत है। जब भी तुम्हें दर्शन होगा तो वही होगा जो किसी दूसरे को हुआ हो । महावीर से कुछ लेना-देना नहीं। किसी को भी हुआ हो, वह वही होगा। क्योंकि दर्शन तभी होगा, जब न तुम होगे, न कुछ और होगा, सब मिट गया होगा, और जब वह दर्शन होगा तो अपने आप अपने को रूपान्तरित करेगा ज्ञान में। ज्ञान अपने पाप रूपान्तरित होगा चरित्र में। उसको चिन्ता ही नहीं करनी है। नहीं तो फिर दूसरा बन्धन शुरू हो जाता है। जैसा कि अगर मैं तुम्हें कहूँ कि महावीर ऐसा करते तो तुम शायद सोचो कि ऐसा हमें करना चाहिए। नहीं, तुम्हें करने का सवाल ही नहीं है क्योंकि तुम्हें वह दर्शन नहीं है। वही तो जैन साधु और जैन मुनि कह रहा है बेचारा। वह कहता है कि वे ऐसा करते थे, हम भी ऐसा करते हैं। ____ मैं एक गांव में गया। वह गांव था ज्यावर । वहाँ का कलेक्टर आया और मुझसे कहा कि मैं एकान्त में बात करना चाहता हूँ। उसने दरवाजा बन्द कर दिया बिल्कुल, सांकल लगा दी। अन्दर बैठकर मुझसे पूछा कि मुझे दो चार बातें पूछनी है। पहली तो यह कि आप जैसा चादर लपेटते है, ऐसा लपेटने Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में मे मुझे कुछ लाभ होगा? वह बिल्कुल ठीक पूछ रहा था । हम उस पर हंसते है । लेकिन हमारा साधु क्या कर रहा है। महावीर कैसे खड़े हैं, कैसे बैठे हैं, कैसी पिच्छी लिए, केसा कमण्डल लिए, मुंह पर पट्टी बांधे, वह पक्का कर लेता है, फिर वैसा करना शुरू कर देता है। चूक गया वह बुनियादी बात । मैंने उससे कहा कि चादर से क्या सम्बन्ध है ? मेरी मौज आए तो में कोट-टराई पहन लूं, उसमें क्या दिक्कत है। उससे 'मैं' में ही रहूंगा, उससे क्या फर्क पड़ने वाला है। हां, तुम्हें फर्क पड़ सकता है मुझे देखकर । फिर तुम समझोगे कि इस आदमी के पास क्या होगा, यह तो कोट-टाई बांधे हुए है । लेकिन मुझे क्या फर्क पड़ने वाला है। मैं जैसे हूँ वैसा रहूंगा और तुम जैसे हो वैसे रहोगे। चाहे चादर लपेटो, चाहे नग्न हो जायो। इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। वह बुनियादी मूल है जो हम सोचते हैं कि बाहर से भीतर की तरफ नाता है जीवन । वास्तव में जीवन सदा भीतर से बाहर की तरफ माता है। और अगर बाहर से किसी ने भीतर को बदलने की कोशिश की तो भीतर वही रह जाएगा, बाहर बदल जाएगा। और उस आदमी के भीतर द्वन्द्व पैदा होगा। जो आदमो आचरण से शुरू करेगा वह पाखण्डी हो जाएगा। प्रश्न : क्या माज का ज्ञान भी पुराने ज्ञान से अलग होगा? उत्तर : दर्शन भर अलग नहीं होगा। वह अशुद्धतम है । ज्ञान अलग होगा क्योंकि आज की भाषा बदल गई है, सोचने के ढंग बदल गए हैं। इसलिए मुश्किल हो जाती है पहचानने में। पुराने को पकड़ लेने वाले के लिए नए को पहचानना मुश्किल हो जाता है। अगर मुझे दर्शन है तो भी मेरी भाषा वह नहीं हो सकती जो महावीर को होगी। महावीर को मानने वाला कहेगा कि इस आदमी से अपना कोई तालमेल नहीं। क्योंकि यह आदमी न मालूम क्या कह रहा है। हमारे महावीर कहते नहीं। वह कह नहीं सकते क्योंकि अढाई हजार साल का फासला हो गया है। . अढाई हजार साल में सब चीजों ने स्थिति बदल ली है। वह कहीं और पहुंच गई है। सारो बात बदल गई है, सोचने के ढंग बदल गए हैं, भाषा बदल गई है। सबके बदल जाने पर ज्ञान भिन्न होगा। पर दर्शन कभी भिन्न नहीं होगा क्योंकि दर्शन होता ही तब है जब हम सब छोड़कर अन्दर जाते हैं । भाषा, समाज, धर्म, शास्त्र, शब्द, विचार सब छोड़ देते हैं । जहाँ सब छूट जाता है, वहाँ दर्शन होता है । इसलिए दर्शन तो हमेगा वही रहेगा क्योंकि कुछ भी छोड़े कोई, सब छोड़ना पड़ेगा। मुझे कुछ और छोड़ना पड़ेगा, महावीर को कुछ और छोड़ना पड़ेगा। महा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रबचन २६१ वीर ने डारविन को नहीं पढ़ा था तो डारविन को नहीं छोड़ना पड़ा होगा । महावीर ने वेद छोड़े होंगे, उपनिषद् छोड़े होंगे। मैंने डारविन को पढ़ा तो मुझे डारविन को, मैंने मार्क्स को पढ़ा तो मुझे मार्क्स को छोड़ना पड़ेगा। यह फर्क पड़ेगा। लेकिन जो भी मेरे पास हो वह छोड़ना पड़ेगा । छोड़कर दर्शन उपलब्ध होता है कभी भी । इसलिए दर्शन हर काल में छोड़कर ही होगा क्योंकि उसका जोर उस पर है कि तुम जो भी जानते हो, तुमने जो भी सोखा है, जो भी पकड़ा है, उस सब को लीन. कर दो। लेकिन, जब दर्शन हो जाएगा और जब आप ज्ञान बनाएंगे उससे, तब आपको सब विद्वत्ता आजाएगी। अरविंद जब बोलेंगे तो उसमें डारविन मौजूद रहेगा। इससे अरविंद की सारी भाषा बदल जाएगी । महावीर की वह भाषा नहीं हो सकती क्योंकि महावीर को डारविन का कोई पता नहीं है । महावीर डारविन को भाषा नहीं बोल सकते । अरविन्द बोलेगा तो डारविन की भाषा में बोलेगा । जैसे महावीर मार्क्स की भाषा में नहीं बोल सकते लेकिन अगर मैं बोलूंगा तो मार्क्स को भाषा बोच में आएगी । मैं कहूंगा शोषण पाप है, महावीर नहीं कह सकते यह । क्योंकि महावीर के युग में शोषण के पाप होने की धारणा ही नहीं थी । उस वक्त जिसके पास धन था वह पुण्य था । धन शोषण है और चोरी है यह धारणा तोन सौ वर्षों में पैदा हुई हैं । यह धारणा जब इतनी स्पष्ट हो गई तो आज अगर कोई कहेगा कि घन पुण्य है तो इस जगत् में उसका कोई अर्थ नहीं यानी वह अज्ञानो सिद्ध होने वाला है । इसलिए अक्सर यह दिक्कत हो जाती है । न तो हमें पीछे को तरफ लोटकर सोचना चाहिए और ना हो नई शब्दावलियों को पुराने पर थोपना चाहिए। महावीर को हम इसलिए कमजोर नहीं कह सकते कि उन्हें विकास की भाषा का पता नहीं था । वह भाषा यो हो नहीं । वह भाषा नई विकसित हुई है। आज मे हजार साल बाद जो लोग दर्शन को उपलब्ध होंगे, जो भाषा बोलेंगे उसको हम कल्पना भी नहीं कर सकते क्योंकि एक हजार साल में वह सब कुछ बदल जाएगा। इसी बदलो हुई भाषा में फिर ज्ञान प्रकट होगा । तब अभिव्यक्ति के माध्यम बदल जाएंगे। समझ लं कि आज से दो हजार, तीन हजार साल पहले भाषा नहीं थी, उसे सित्राय स्मृति में रखने के कोई अन्य उपाय नहीं था । सारा ज्ञान स्मृति में ही संचित होता था । ज्ञान को इस ढंग से बताना पड़ता था कि वह स्मृति में हो जाए। ग्रन्थ है, वे सब काव्य में हैं क्योंकि काव्य को स्मरण रखा जा को स्मरण रखना मुश्किल है। कविता स्मरण इसलिए जो पुराने सकता है, गद्य सुविधा से, रखी जा सकती है, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ महावीर : मेरी दृष्टि में गद्य को नहीं रखा जा सकता । इसलिए जब कि स्मृति के सिवाय दूसरा उपकरण न था संरक्षित करने का तो सारे ज्ञान को पद्य में ही बोलना पड़ता था । उसको गद्य में बोलना बेकार था । क्योंकि गद्य में बोला तो उसको याद रखना ही बहुत मुश्किल था । उसको पद्य में बोलने से स्मरण रखने में सुविधा हो जाती थी । आप एक कविता स्मरण रख सकते हैं सरलता से बजाय एक निबन्ध के क्योंकि उसमें एक तुकबन्दी है जो कि आपको गाने की सुविधा देती है । वह स्मृति में जल्दी बैठ जाती है । इसलिए पुराने ग्रन्थ पद्य में हैं । गद्य बिल्कुल नई खोज है। जब लिखा जाने लगा तब पद्य की जरूरत न रही । तुकबन्दी जोड़ने में जो नहीं कहना वह भी मिलाना पड़ता था। सीधा गद्य में लिखा जा सकता है तो फिर नए शब्द आए । इसलिए नई भाषाएँ काव्यात्मक नहीं हैं । पुरानी भाषाएं ही काव्यात्मक हैं जैसे संस्कृत । आजकल की भाषा वैज्ञानिक है । आप कविता भी बोलो तो गणित का सवाल मालूम पड़े । सारा फर्क पड़ता चला जाता है । जो उपकरण उपलब्ध होंगे उनमें ज्ञान प्रकट हो जाएगा । नई कविता बिल्कुल गद्य है क्योंकि उसे पद्य होने की जरूरत नहीं । पुराना गद्य भी पद्य है । नया पद्य भी गद्य है । और यह सब बदलते चले जाते हैं रोज-रोज । जो ज्ञान बनेगा, वह दर्शन से उतरेगा नीचे । दूसरी सीढ़ी पर खड़ा होगा और जो उस युग की ज्ञान-व्यवस्था है, उसका अंग होगा तभी वह सार्थक होगा । फिर वह नीचे उतरेगा तभी चरित्र बनेगा । तो हमारे समाज का जो भीतरी सम्बन्ध है, वह उस पर निर्भर करेगा । आएगा दर्शन चरित्र सब से ज्यादा अशुद्ध रूप होगा क्योंकि उसमें दूसरे उतरेगा चरित्र तक । सब आ गए । ज्ञान और कम अशुद्ध होगा । दर्शन पूर्ण शुद्ध होगा । और दर्शन की उपलब्धि के रास्ते अलग होंगे । चरित्र उसकी उपलब्धि का रास्ता नहीं हैं । प्रश्न : महावीर की नग्नता चरित्र का अंग था, या दर्शन का ? उत्तर : बहुत सी बातें हैं। असल में महावीर को, जैसा मैंने कल रात को कहा, बहुत सी बातें करनी पड़ रही हैं जो हमारे ख्याल में नहीं हैं । वह स्याल में आ जाएं तो हमें पता चल जाएगा कि वह किस बात का अंग था । महावीर की नग्नता उनके ज्ञान का अंग है, चरित्र का नहीं । ज्ञान का अंग इसलिए है कि से , अगर किसी को विस्तीर्ण ब्रह्मान्ड से, मूक जगत् से सम्बन्धित होना है तो बस्त्र एक बाधा है। जितने वस्त्र पैदा होते जा रहे हैं, हैं। नवीनतम वस्त्र चारों तरफ के वातावरण से आपके 'उनमें से बहुत कम भीतर जाता है, बहुत कम बाहर आता है। अलग-अलग उतनी ज्यादा बाधाएँ शरीर को तोड़ देते हैं । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परपोतलवचन २६३ वस्त्र अलग-अलग तरह से काम करता है। सूती वस्त्र अलग तरह से तोड़ता है, रेशमी वस्त्र अलग तरह से तोड़ता है, ऊनी वस्त्र अलग तरह से तोड़ता है। जिनमें प्लास्टिक मिला हुआ है या कांच मिला हुआ है, वे वस्त्र और तरह से तोड़ते हैं । जिस व्यक्ति को ब्रह्माण्ड से संयुक्त होना है, उसके लिए किसी तरह के भी वस्त्र बाधा बन जाएंगे। महावीर को नग्नता उनके ज्ञान का हिस्सा है, चरित्र का हिस्सा नहीं है । उनको यह साफ समझ में पड़ रहा है कि उन्हें जो कुछ अभिव्यक्त करना है वह ब्रह्माण्ड से एक होकर ही किया जा सकता है। __ जैसे हम जानते हैं कि कितनी छोटी-छोटी चीजों से फर्क पड़ता है। भार एक रेडियो लगाए हुए हैं। सब दरवाजे बन्द कर दें, हवा बिल्कुल न आए, एयर कण्डोशन कमरा हो तो आपका रेडियो बहुत मुश्किल से पकड़ने लगेगा क्योंकि जो लहरें आ रही हैं उन पर बाधा पड़ रही है। एयर कण्डीशन कमरे में उसको काम करना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि हवा बाहर से नहीं आ रही है, सब बन्द है । सम्पर्क बाहर की तरंगों से टूट गया है। जितने खुले में आप रख रहे हैं उतना उसका सम्पर्क बन रहा है। या तो उसे खुले में रखें या एक एरियल बाहर खुले में लगाएं ताकि एरियल पकड़े और भीतर तक खबर पहुंचा दे.। समझ लो कि हमें कोई ज्ञान न हो रेडियो शास्त्र का तो हम कहेंगे कि यह क्या बात है ? रेडियो को बाहर रखने की क्या जरूरत है, एरियल को बाहर लटकाने की क्या जरूरत है ? अपने घर में रखो, अपने घर में अन्दर एरियल लगा लो, सब तरफ द्वार दरवाजे बन्द कर लो। मनुष्य के शरीर से प्रतिक्षण कम्पन बाहर जा रहे हैं और प्रतिक्षण कम्पन भीतर मा रहे हैं। महावीर नग्न होकर एक तरह का तादात्म्य साध रहे है उस सारे जगत् से जहां वस्त्र भी बाषा बन सकता है। वस्त्र बाधा बनता है और प्रत्येक वस्त्र अलग तरह की बाषा और सुविधा देता है। जैसे रेशमी वस्त्र है। अब आपको यह जानकर हैरानी होगी कि यह जो रेशमी वस्त्र है, वह बल्दी आपके शरीर में कामवासना को पहुंचाता है बजाय सूती वस्त्र के। रेशमी वस्त्र पहने हुए स्त्री ज्यादा काम को उत्तेजित करेगी। उसी स्त्री को सूती या सादो पहना दो तो वह काम को कम उत्तेजित करेगी। रेशमी वस्त्र उसके शरीर से और शरीर के चारों तरफ से जो कामवासना की लहरें पल रही हैं, उनको खल्दी से जल्दी पकड़ रहा है। यह स्त्रियों को बहुत पहने समझ में ना गया है कि रेशमी वस्त्र किस तरह उपयोगी है। Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मेरी दृष्टि में कमी वस्त्र बहुत अद्भुत हैं । माप देखते हैं कि सूफी फकीर ऊन का वस्त्र ही पहनते हैं । सुफ का मतलब ऊम होता है । जो ऊन के कपड़े पहनते है उन्हें सूफी कहते हैं। गरमी में भी, सर्दी में भी लपेटे हैं कम्बल को क्योंकि ऊनी वस्त्र सब तरह की लहरों से संरक्षित करता है । वह ठंड में उपयोगी होता है । वह गरम नहीं है । वह सिर्फ आपके शरीर की गर्मी को बाहर नहीं जाने देता । ऊमी वस्त्र में गर्मी जैसी कोई चीज नहीं है । सिर्फ आपका शरीर जो गर्मी को प्रवाहित करता है प्रतिपल, वह उसको बाहर नहीं निकलने देता । २६४ गर्मी उसके बाहर नहीं हो पाती, वह भीतर ही रुक जाती है । बस वह भीतर रुकी हुई गर्मी ऊनी वस्त्र को गर्म बना देती है । ऊनी वस्त्र में गर्म होने जैसा कुछ भी नहीं है । सिर्फ आपके ही शरीर की गर्मी को बाहर नहीं होने देता और रोक देता है। सूफी सैकड़ों वर्षों से ऊनी वस्त्र का उपयोग यह है कि न केवल गर्मी को बल्कि और तरह के सूक्ष्म वस्त्र रोकने में सहयोगी होता है। जिन लोगों को किसी विज्ञान में काम करना हो उनके लिए ऊनी वस्त्र बहुत उपयोगी है । वह कुछ चीजों को बिल्कुल भीतर रोक सकता है, जिनको वह प्रकट न करना चाहे । कर रहे हैं । अनुभव अनुभवों को भी ऊनी गुह्य (एसोटेरिक) 1 महावीर की नग्नता उनके ज्ञान का हिस्सा है, चरित्र का नहीं । लेकिन जो लोग चरित्र का हिस्सा समझकर नग्न खड़े हो जाते हैं, वे बिल्कुल पागल हैं। वे तो कुछ लहरें हैं जिसे पहुंचाना चाहते हैं सारे लोक में । वह नग्न स्थिति में ही पहुंचाई जा सकती है। अगर शरीर में उनकी तरंगें पैदा होती है तो नग्न स्थिति में पूरी की पूरी हवाएं उन लहरों को लेकर यात्रा कर जाती हैं । कपड़ों में वे लहरें भीतर रह जाती हैं । ऊनी वस्त्रों में बिल्कुल भीतर रह जाती हैं। सूफी यह सब जानकर कह रहे हैं; महावीर भी जानकर नग्न खड़े हुए हैं। लेकिन उस युग की चरित्र व्यवस्था नग्न खड़े होने की सुविधा देती थी हर युग में महावीर नग्न लड़े नहीं हो सकते क्योंकि जिस काम के लिए खड़े हो रहे हैं अमर उस काम में बाधा पड़ जाए नग्न खड़े होने से तो नग्न होना व्यर्थ हो जाएगा । जैसे आज अगर न्यूयार्क में पैदा हों तो वे नग्न खड़े नहीं हो सकते । बम्बई में भी नग्न खड़े होना मुश्किल है। नग्न आदमी को सड़क पर निकलने के लिए गवर्नर की अनुमति चाहिए। या फिर उसके भक्त उसको घेर कर चलें । वह बीच में रहे । चारों तरफ भक्त घेरे रहें ताकि जिनको नग्न नहीं देखना, वे न देख पाएं। न्यूयार्क में नग्न व्यक्ति बिल्कुल पकड़ लिया जाएगा, बंद कर दिया जाएगा। काम की बात अलग रही, काम में बाधा पड़ जाएगी । 1 Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रश्नोत्तर-प्रवचन २६५ तो कुछ और रास्ते खोजने पड़ेंगे। नई परिस्थिति में नए रास्ते खोजने पड़ेंगे । पुराने रास्ते काम नहीं देंगे । कहाँ थे ? एक लंगोटी उस वक्त हिन्दुस्तान में नग्नता बड़ी सरल बात थी। एक तो ऐसे ही आम आदमी अर्द्धनग्न था, एक लंगोटी लगाए हुए था । नग्नता में कुछ बहुत ज्यादा नहीं छोड़ना पड़ता था जैसा हम सोचते हैं अवसर । वह तो राजपुत्र थे इसलिए सब कपड़े थे । बाकी आदमी के पास कपड़े बहुत थी । आम आदमी भी लंगोटी उतार कर स्नान कर लेता था । नग्नता बड़ी सरल, एकदम सहज बात थी । उसमें कुछ असहज जैसा नहीं था कि कोई बात नई हो रही है । हिस्सा तो ज्ञान का था, परिस्थिति मौका देती थी । और ज्ञानवान् आदमी वह है, जो ठीक परिस्थिति के मौके का पूरा से पूरा, ज्यादा से ज्यादा उपयोग कर सके । वही ज्ञानवान् है, नहीं तो नासमझ है । यानी सिर्फ नंगे की जिद्द कर ले और सब काम में रुकावट पड़ जाए, कोई मतलब नहीं है उसका । काम के लिए कोई और रास्ते खोजने पड़ेंगे । प्रश्न : कल आपने कहा था कि महावीर पिछले जन्म में सिंह थे और उन्हें पिछले जन्म में अनुभूति हुई। तो क्या प्राणिमात्र को उस अवस्था की अनुभूति हो सकती है ? या उनको अनुभूति उनके मनुष्य जन्म में हुई ? उत्तर : हां, मैंने 'पिछले जन्म' जो कहा, सीधे उसका यह मतलब नहीं कि उसके पहले जन्म में । अनुभूति होना बहुत मुश्किल है दूसरे प्राणिजगत् में । हो सकता है किन्तु बहुत कठिन है । कठिन तो मनुष्य योनि में भी है; सम्भव तो दूसरी योनि में भी है । लेकिन अत्यधिक कठिन है, असम्भव के करीब है । मनुष्य योनि में असम्भव के करीब है । कभी ही किसी को हो पाती है। पिछले जन्मों से मेरा मतलब अतीत जन्मों से है । महावीर को सत्य का जो अनुभव हुआ है वह तो मनुष्य जन्म में ही हुआ होगा । लेकिन सम्भावना का निषेध नहीं है । आज तक ऐसा ज्ञात भी नहीं है कि कोई पशु योनि में मुक्त हुआ हो । लेकिन निषेध फिर भी नहीं है। यानी यह कभी हो सकता है । और यह जब हो सकेमा जब मनुष्य योनि बहुत विकसित हो जाए - इतनी ज्यादा कि मनुष्य योनि में मुक्ति बिल्कुल सरल हो जाए। तब सम्भव है कि जो अभी स्थिति मनुष्य योनि की है, वह पिछली निम्न योनियों की हो जाए। मेरा मतलब है कि अभी मनुष्ययोनि में ही असम्भव की स्थिति है । कभी करोड़ दो करोड़, अरब दो अरव, आदमियों में एक आदमी उस स्थिति को उपलब्ध होता है । कभी ऐसा बक्त जा सकता है, और आना चाहिए विकास के दौर में जबकि मनुष्य Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० महावीर : मेरी दृष्टि में है।आप तो सीमित है। अगर माप सागर के तट पर भी जाएंगे तो भी चुल्ल भर पानी भर सकते हैं। लेकिन जो नदी सागर में खो गई है उसका पता लगाना मुश्किल है कि वह कहां खो गई है। गंगा गिर गई है सागर में । लेकिन गंगा का कण-कण मौजूद है सागर में। वह खो गई है सागर में, मिट नहीं गई। जो था वह तो अब भी है। सीमा को जगह असीम हो गया है। ऐसी कुछ विधि है कि सागर के तट पर जब आप बड़े होकर गंगा को पुकारे तो वे अरण जो अनन्त सागर में खो गए हैं उस तट पर इकट्ठे हो जाएंगे। आप चुल्लू भर गंगा ले सकते हैं सागर से । मैं उदाहरण के लिए कह रहा हूँ। यह पुकार है आपकी अणुओं को क्योंकि अणु कहीं खो नहीं गया है। वह सब सागर में मौजूद है। क्या कठिवाई है कि पुकार पर वे अणु आपके पास चले नाएं और गंगा का चुल्ल भर पानी आपको सागर से मिल जाए। कठिनाई नहीं है। इसी तरह चेतना के महासागर में महावीर जैसा व्यक्ति खो गया है। लेकिन खोने के पहले ऐसा प्रत्येक व्यक्ति कुछ ऐसे संकेत छोड़ जाता है जो कभी भी उस अनन्त के किनारे खड़े होकर पुकारे जाएँ तो उसके अणु आपको उत्तर देने के लिए समर्थ हो जाएंगे। इस सबको पूरी-पूरी अपनी टेकनीक है। जैसे आपने कभी रास्ते पर देखा होगा कि एक आदमी खेल दिखा रहा है। एक लड़के की छाती पर ताबीज रख दिया है, लड़का बेहोश हो गया है और वह पूछता है कि अब आपकी घड़ी में कितना बजा है ? लड़का बताता है । वह आपके नोट का नम्बर बताता है, वह आपका नाम बताता है, और फिर वह मदारी ताबीज बेचना शुरू कर देता है कि यह छ:-छ: आने के ताबीज है। और ताबीज की यह शक्ति है जो आप देख रहे हैं अपनी आंखों के सामने । भापको भी लगता है कि ताबीज की बड़ी भारी शक्ति है। छः आने देकर आप ताबीन खरीद लेते हैं। घर आते हैं। आप कुछ भी करिए, ताबीज से कुछ भी नहीं होगा। क्योंकि ताबीज की शक्ति ही न थी। मामला बिल्कुल दूसरा था। उस लड़के को बेहोश करके बहुत गहरी बेहोशी में कहा गया है कि जब भी यह ताबीज तेरी छाती पर रखेंगे तू बेहोश हो जाएगा। इसको कहते हैं पोस्ट हिपनाटिक सजेशन । अभी बेहोश है वह। अभी उसको कह रहे है : यह ताबीज पहचान ले ठीक से । आँख खोल ! वह बेहोश है। इतनी चौड़ाई का यह लाल रंग का ताबीज जब भी तेरी छाती पर हम रखेंगे तू तत्काल बेहोश हो जाएगा। ऐसा महीनों उसको बेहोश किया जाता है और वह ताबीज बता कर उसके मन में यह सुझाव बैठाया जाता है। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-वचन-- २७१ वह वाबीज संकेत हो गया। जैसे ही उसकी छाती पर रखा कि वह बेहोश हो गया। अब उसको सबके सामने बेहोश नहीं करना पड़ता, नहीं तो बेहोस करने में वक्त लगता है। बेहोश करने की शिक्षा पहले दे दो है। भोर ताबीज से एसोसिएशन जोड़ दिया है उसका। अब तावीज जब भी छाती पर रखने, वह बेहोश हो जाएगा। बेहोश होने से ही वह फैल गया सब में । अब वह वहीं से पढ़ सकता है आपके खीसे के नोट के नम्बर। क्योंकि चेतना बहुत फैली हुई है नीचे। इधर छोटे से चेहरे से दिखाई पड़ रही है, उधर पीछे फैलती चली गई है। अगर यहां से बेहोश कर दी जाय तो वह वहां पूरे से सम्बन्ध जोड़ लेगी। जैसा इस बेहोश के साथ ताबीज का सम्बन्ध जोड़ा गया है, ऐसा प्रत्येक शिक्षक जो पीछे भी उपयोगी होना चाहता है और जो उसके पीछे भी उसका सहयोग, मार्ग-दर्शन चाहेंगे वह उनके लिए व्यवस्थित सूत्र बोर माता है कि इन सूत्रों का प्रयोग करने से मैं पुनः उपस्थित हो जाऊंगा। दक्षिण में एक योगी था-ब्रह्मयोगी। अभी कुछ वर्ष पहले बंटन उससे माकर मिला। तो उसने अपना एक फोटो दिया बंटन को। उसने कहा : मैं आपको गुरु बना लेता हूँ लेकिन मैं तो लंदन चला जाऊंगा। उसने कहा इससे क्या फर्क पड़ता है। लंदन कोई बहुत दूर तो नहीं। तुम यह फोटो ले जायो । तुम इस भांति इस आसन में बैठकर, इस तरह इस फोटो को रखकर एक-दो मिनट एकाग्र होकर फोटो को देखना। और तुम्हें जो प्रश्न पूछना हो, पूछना । उत्तर तुम्हें आ जाएगा। बंटन बहुत हैरान हुआ कि यह कैसे होगा लेकिन वह सारी व्यवस्था की जा सकती है। उसने कुछ प्रश्न पूछे । उत्तर एकदम आ गया उसी ध्वनि में, उसी शब्दावली में जिसमें ब्रह्मयोगी बोलता है। उसने वह सब लिख रखा जब भी उसने जो जो पछा। पीछे आकर उसने ब्रह्मयोगी को पूछा कि मैंने एक दफा यह पूछा था, आपने क्या कहा था। तो जो उसने लिखा था उसने बताया कि मैंने यह कह दिया था। अब यह ऐसा उपाय है जिससे काल और क्षेत्र मिट जाते हैं, और सम्बन्ध हो जाता है। __जो लोग बिल्कुल खो गए है अनन्त में, वे ही पीछे उपाय छोड़ जाते हैं । सभी नहीं छोड़ जाते। वह उनकी मर्जी पर निर्भर है कि वे छोड़ें या न छोड़ें। कोई शिक्षक कुछ भी नहीं छोड़ जाते, कोई शिक्षक, कुछ छोड़ जाते हैं । महावीर निश्चित छोड़ गए है कि इस उपाय से सम्बन्ध स्थापित हो सकेगा। महावीर का कोई व्यक्तिस्व नहीं बनता लेकिन उस अनन्त से उत्तर मा जाता है । इसलिए मैंने कहा कि महावीर से अभी भी सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। कुछ शिक्षकों Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ महावीर : मेरी दृष्टि में से सम्बन्ध स्थापित होना असम्भव है जैसे जरथुस्त्र । उससे कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता क्योंकि उसने कोई उपाय नहीं छोड़ा है। उसकी अपनी समझ है । वह कहता है कि पुराने शिक्षक को क्यों फिक्र करनी। नए शिक्षक आते रहेंगे, तुम उनसे सम्बन्ध बनाना । जरथुस्त्र से क्या लेना-देना। उसकी अपनी समझ है। महावीर की अपनी समझ है, वह यह कि क्या फिक्र तुम्हें, मैं ही काम पड़ सकता हूँ, मेरा उपयोग किया जा सकता है। यह अपनी समझ की बात है । सम्बन्ध बिल्कुल स्थापित किए जा सकते हैं लेकिन जो शिक्षक उपाय छोड़ गया हो उसी से । प्रश्न : महावीर के बाद किसी को इस सांकेतिक भाषा (कोर वर्ग) का पता है? उत्तर : हां, पता है लेकिन यह पता नहीं कि यह काहे के लिए है और इसकी क्या विधि है। यानी जैसे मैं आपको लिखकर दे जाऊं, कुछ दिन तक उसका उपयोग होता रहे, शास्त्र न लिखे जाएं। मगर जब उपयोग छूट जाएगा या कुछ लोग खो जाएंगे जो जानते थे तब झगड़े चलेंगे। झगड़े तो पीछे चलते ही हैं क्योंकि फिर पूछना मुश्किल हो जाता है । प्रश्न : आज महावीर से सम्पर्क बनाने वाला कोई नहीं है ? उत्तर : नहीं, कोई नहीं है, मगर सम्पर्क आज भी हो सकता है। उनको परम्परा में कोई नहीं है लेकिन और लोगों ने सम्पर्क स्थापित किए हैं महावीर से । कुछ लोग निरन्तर श्रम कर रहे हैं। ब्लावटस्की ने करीब-करीब सभी शिक्षकों से सम्बन्ध स्थापित करने की कोशिश की है। उनमें महावीर भी एक शिक्षक हैं। ब्लावटस्की एक रूसी महिला है। थियोसॉफिकल सोसाइटी को जन्मदात्री है । और उसके साथ अल्काट ने भी सम्बन्ध स्थापित किए हैं, एनी बीसेंट ने भी। ये सब मर चुके हैं। थियोसॉफी में आज कोई ऐसा नहीं रहा है । वह स्रोत सूख गया है । लेकिन थियोसॉफिस्टों ने हजारों साल बड़ी मेहनत की और जो बड़े से बड़ा काम किया वह यह कि सारे पुराने शिक्षकों से सम्बन्ध स्थापित किया, ऐसे शिक्षकों से भी जिनकी कोई किताब भी नहीं बची थी। प्रत्येक शिक्षकों से सम्बन्ध स्थापित करने की अलग-अलग विधियां हैं। कुछ से सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता है। या तो विधि ठीक नहीं है या करने Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन २७३ वाला ठीक नहीं कर पा रहा है । मैं चाहता हूँ कि इधर कुछ लोग उत्सुक हों तो बराबर इस विधि पर काम करवाया जाए । इसमें कोई कठिनाई नहीं है। प्रश्न : महावीर के सम्बन्ध में आप जो कुछ कह रहे हैं वह बहुत मुश्किल और रहस्यवादी बनता चला जा रहा है। ऐसा जो सामान्य व्यक्तिको समझ में आ जाए और करने लायक भी हो महावीर का वह सन्देश कहें। क्योंकि यह जो माप कह रहे हैं बहुत ही थोरे लोगों के पल्ले पड़ने वाली बात है। उत्तर : बात हो ऐसी है। असल में जिन्हें भी करना है, उन्हें असाधारण होने की तैयारी दिलानी पड़ती है। कोई सत्य साधारण होने को कमो तैयार नहीं है । व्यक्तियों को ही असाधारण होकर उसे झेलना पड़ता है और सत्य को साधारण किया तो असत्य से भी बदतर हो जाता है। यानी सत्य उतर कर तुम्हारे मकान के पास नहीं आएगा। तुम्हें ही जाकर सत्य की चोटी तक पहुंचना होगा और सत्य अगर आ गया तुम्हारे मकान तक तो बाजार में बिकने वाला हो जाएगा । उसका कोई मूल्य नहीं रहेगा । Page #241 --------------------------------------------------------------------------  Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन Page #243 --------------------------------------------------------------------------  Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर ने जो जाना उसे जीवन के भिन्न-भिन्न तलों तक पहुंचाने की अथक चेष्टा की है। कल हम सोचते थे कि मनुष्य के नीचे जो मूक जगत् है उस तक महावीर ने कैसे संवाद किया ? कैसे वह प्रतिध्वनित किया जो उन्हें अनुभव हुमा ? दो बातें छूट गई थी वह विचार कर लेनी चाहिए। एक तो मनुष्य से ऊपर के लोक की है। उन लोगों तक महावीर ने कैसे बात पहुंचाई और मनुष्य तक पहुंचाने के उन्होंने क्या-क्या उपाय खोजे । देवलोक तक बात पहुंचानी सर्वाधिक सरल है। मगर देव जैसी कोई चीज की स्वीकृति हमें बहुत कठिन मालूम पड़ती है। जो हमें दिखाई पड़ता है हमारे लिए वही सत्य है। जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह असत्य हो जाता है। और देव उस अस्तित्व का नाम है जो हमें साधारणतः दिखाई नहीं पड़ता लेकिन थोड़ा-सा भी श्रम किया जाए तो उस लोक के अस्तित्व को भी देखा जा सकता है। उससे सम्बद्ध भी हुआ जा सकता है । साधारणतः यह ख्याल है कि देव कहीं और, प्रेत कहीं और, हम कहीं और जगह पर रहते हैं। यह बात एकदम हो गलत है। जहाँ हम रह रहे है, ठीक वहीं देव भी है और प्रेत भी हैं। प्रेत वे बात्माएं हैं जो इतनी निकृष्ट है कि मनुष्य होने की सामर्थ्य उन्होंने खो दी है और नीचे उतरने का कोई उपाय नहीं रहा है। वे एक कठिनाई में हैं । ऐसी आत्माएं प्रतीक्षा करेंगी जब तक उन्हें योग्य देह उपलब्ध न हो जाए या उनके जीवन में परिवर्तन हो जाए, रूपान्तरण हो जाए और वे जन्म ग्रहण कर सके। देव वे आत्माएं हैं जो मनुष्य से ऊपर उठ गई हैं लेकिन उनमें मोच को उपलब्ध करने की सामर्थ्य नहीं है। यह प्रतीक्षामय जीवन है। यह कहीं दूर दूसरी जगह नहीं, किसी चांद पर नहीं, ठीक हमारे साथ है। और हमें Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ महावीर । मेरी दृष्टि में कठिनाई होती है कि अगर हमारे साथ है वो हमें स्पर्श करना चाहिए, हमें दिखाई पड़ना चाहिए। कभी कभी हमें स्पर्श भी करती है और कभी-कभी किन्हीं छाहों में दिखाई भी पड़ती हैं। साधारणतः नहीं। क्योंकि हमारे होने के ढंग और उनके होने के ढंग में बुनियादी भेद है। इसलिए दोनों एक ही जगह मौजूद होकर भी, एक दूसरे को काटने, एक-दूसरे की जगह घेरने का काम नहीं करतीं । जैसे इस कमरे में दिए जल रहे हैं। और दियों के प्रकाश से कमरा भरा हुआ है; मैं आऊँ और एक सुगन्धित इत्र यहां छिड़क हूँ तो कोई मुझसे कहे कि कमरा प्रकाश से बिल्कुल भरा हुआ है, इत्र के लिए जगह नहीं है। इत्र पूरे कमरे में फैल कर सुगन्ध भर दे अपनी। प्रकाश भी भरा था कमरे में, सुगन्ध भी भर गई कमरे में । न सुगन्ध प्रकाश को छूती है, न प्रकाश सुगन्ध को छूता है। न एक-दूसरे को बाधा पड़ती है इससे कि कमरा पहले से भरा है। उन दोनों का अलग अस्तित्व है। प्रकाश का अपना अस्तित्व है, सुगन्ध का अपना अस्तित्व है। दोनों एक दूसरे को न काटते, न छूते। दोनों समानान्तर चलते हैं। फिर कोई तीसरा व्यक्ति आए और वीणा बजाकर गीत गाने लगे और हम उससे कहें कि कमरा बिल्कुल भरा हुआ है, वीणा बज नहीं सकेगी। प्रकाश पूरा घेरे हुए है, सुगन्ध पूरा घेरे हुए है। अब तुम्हारी ध्वनि के लिए जगह कहाँ है ? लेकिन वह वीणा बजाने लगे और ध्वनि भी इस कमरे को भर ले । ध्वनि को जरा भी बाधा नहीं पड़ेगी इससे कि प्रकाश है कमरे में, कि गन्ध है कमरे में। क्योंकि ध्वनि का अपना अस्तित्व है, ध्वनि अपनी स्पेस पैदा करती है अलग, ध्वनि का अपना आकाश है, गन्ध का अपना आकाश है, प्रकाश का अपना आकाश है । प्रत्येक वस्तु और प्रत्येक अस्तित्व का अपना माकाश है और वे दूसरे को काटते नहीं। इसलिए जब हमें यह सवाल उठते हैं कि कहां रहते हैं देवता, कहाँ जीते है प्रेत तो हम सदा ऐसा सोचते हैं कि 'हमसे कहीं दूर।' ऐसी बात ही गलत है। बे ठीक समानान्तर हमारे जी रहे हैं, हमारे साथ । और यह बड़ा उचित ही है कि साधारणतः वे हमें दिखाई नहीं पड़ते और साधारणतः हम उनके स्पर्श में नहीं आते हैं, नहीं तो जीवन बड़ा कठिन हो जाए। लेकिन किन्हीं घड़ियों में, किन्हीं क्षणों में वे दिखाई.भी पड़ सकते हैं। उनका स्पर्श भी हो सकता है। उनसे सम्बन्ध भी हो सकता है। और महावीर या उस तरह के व्यक्तियों के जीवन में निरन्तर उनका सम्बन्ध और सम्पर्क रहा है। जिसे परम्पराएं समझने में एकदम असमर्थ है। वे बातचीत ऐसे ही हो रही है जैसे दो व्यक्तियों के Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ बीच हो रही है - महावीर की, इन्द्र की या और देवताओं की । उसमें कहीं भी ऐसा नहीं है कि कोई कल्पनालोक में बात हो रही हो । यह अत्यन्त बामनेसामने बात हो रही है । और यह किसी एक के साथ ऐसा नहीं हो रहा है । बुद्ध के साथ भी वैसा हो रहा है, जीसस के साथ भी, मुहम्मद के साथ भी । 1-2 1 ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे भीतर कुछ उनसे सम्बन्धित होने का मार्ग है लेकिन प्रसुप्त है । मनुष्य के मस्तिष्क का शायद एक तिहाई भाग काम कर रहा है। दो तिहाई भाग बिल्कुल काम नहीं करता। इससे वैज्ञानिक भी चिन्तित हैं । अगर हम एक आदमी की खोपड़ी को काटें तो एक तिहाई हिस्सा केवल सक्रिय हैं। बाकी दो-तिहाई हिस्सा बिल्कुल निष्क्रिय है । शरीर में और सब चीजें सक्रिय हैं । वैज्ञानिकों को यह ख्याल आना शुरू हुआ है कि यह दो तिहाई हिस्सा जीवन के किन्हीं तलों को स्पर्श करता होगा, अगर सक्रिय हो जाए । छजब जैसे आपकी आँख देखती है क्योंकि आंख से जुड़ा हुआ मस्तिष्क का हिस्सा संक्रिय है । अगर वह हिस्सा निष्क्रिय हो जाए, आपकी आंख देखना बन्द कर देगी । यह भी हो सकता है कि आँख बिल्कुल ठीक हो लेकिन मस्तिष्क का वह हिस्सा, जिससे आँख सक्रिय होती है निष्क्रिय पड़ा हो तो बिल्कुल ठीक आँख नहीं देख सकेगी । एक लड़की मेरे पास आती थी । उस लड़की का किसी से प्रेम था और घर के लोगों ने उस विवाह को इन्कार कर दिया और लड़की को उस युवक को देखने की भी मनाही कर दी। सख्त पाबन्दी लगा दी । उसे घर के भीतर बिल्कुल कैद कर दिया। वह लड़की दूसरे दिन अंधी हो गई । सब चिकित्सकों को दिखाया गया । उन्होंने जांच-पड़ताल की और कहा, आंख तो बिल्कुल ठीक है । लेकिन यह भी पक्का है कि उसे दिखाई नहीं पड़ता । वह मित्र मुझे कहे कि बड़ी मुश्किल में हम पड़ गए। पहले तो हमने समझा कि वह सिर्फ धोखा दे रही है क्योंकि हमने उस पर रुकावट लगाई थी। लेकिन अब तो डाक्टर भी कहते हैं कि आंस ठीक है लेकिन उसे दिखाई नहीं पड़ रहा । मानसिक अंधापन है उसे । इसका मतलब यह है कि मस्तिष्क का वह हिस्सा जो आंख से जुड़कर आँख को दिखाने का काम करता है बंद हो गया है। जैसे ही उस लड़की को कहा कि जिसे वह प्रेम करती है वह उसे अब नहीं देख सकेगी, हो सकता है उसके मस्तिष्क को यह ख्याल आया हो कि अब देखने का कोई अर्थ ही नहीं । जिसे हम प्रेम करते हैं उसे ही न देख सकें तो अब देखने की भी क्या जरूरत है । बोर मस्तिष्क का वह हिस्सा बंद हो गया और आंस ने देखना बन्द कर दिया । " Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० महावीर : मेरी बहुत से प्राणी है, बहुत सी योनियां हैं, जिनके पास मस्तिष्क का वह हिस्सा है जो देख सकता है लेकिन निष्क्रिय है। वो उन प्राणियों में बाँखें पैदा नहीं हो पाई है। ऐसे भी प्राणी है जिनके पास कान नहीं है। हिस्सा है जो सुन सकता है लेकिन निष्क्रिय है। इसलिए कान पैदा नहीं हो पाए । मनुष्य की पांच इन्द्रियाँ हैं अभी क्योंकि मस्तिष्क के पांच हिस्से सक्रिय है। शेष बहुत बड़ा हिस्सा निष्क्रिय पड़ा हुआ है। अब वैज्ञानिकों को भी ख्याल में आया है कि वह जो शेष हिस्सा निष्क्रिय पड़ा है उसमें से अगर कुछ भी सक्रिय हो जाए तो नई इन्द्रियां शुरू होंगी। अब जिस आदमी ने कभी प्रकाश देखा ही नहीं है वह कल्पना ही नहीं कर सकता कि प्रकाश कैसा है और जिसने ध्वनि नहीं सुनी वह कल्पना भी नहीं कर सकता की ध्वनि कैसी है ? हम समझ लें कि एक गांव हो जिसमें सब बहरे हों तो उस गांव में ध्वनि की चर्चा भी नहीं होगी। और अगर उन बहरों को कोई किताव मिल जाए जिसमें लिखा हो कि ध्वनि होती थी, या कहीं ध्वनि होती है तो वे सब हंसेंगे कि यह कैसी बात है। ध्वनि, यानी क्या ? ध्वनि कहाँ है-किस जगह है ? हम कहां ध्वनि को पकड़ें, कहाँ ध्वनि हमें मिलेगी ? उनके सब प्रश्न संगत होते हुए भी व्यर्थ होंगे। हमारे मस्तिष्क के बहुत से हिस्से हैं जो निष्क्रिय हैं। और अगर वे सक्रिय हो जाएं तो जीवन और अस्तित्व की अनन्त सम्भावनाओं से हमारे सम्बन्ध जुड़ने शुरू हो जाएंगे। जैसे कि तीसरी बांस की बात निरन्तर हम सुनते हैं। वह . अगर सक्रिय हो जाए, वह हिस्सा जो हमारी दोनों आंखों के बीच का निजिय पड़ा है सक्रिय हो जाए तो हम कुछ ऐसी बातें देखना शुरू कर देंगे जिनकी हमें कल्पना ही नहीं है। हवाई जहाज में अगर भाप बैठकर इंजन के पास गए हों तो मापने रागर देखा होगा जो सौ मील या डेढ़ सौ मील आगे तक के चित्र देता रहता है। इसलिए चालक को हवाई जहाज के भीतर बैठकर बाहर देखने की कोई जरूरत नहीं क्योंकि हवाई जहाज इतनी गति से जा रहा है कि अगर चालक देख . भी ले कि .सामने हवाई जहाज है तो भी उसे बचाया नहीं जा सकता टकराने से। क्योंकि जब तक वह बचाएगा तब तक वह टकरा ही जाएगा। गति इतनी तीव्र है। अब तो उसे डेढ़ सौ-दो सौ मील दूर को ही चीजें दिखाई पड़नी चाहिएं। दो सौ मील पर उसे दिखाई पड़े कि बादल हैं तो तभी वह बचा सकता है। और बचाते-बचाते वह दो सौ मील पार कर जाएगा, तभी वह बचा पाएगा, और बादल के बागे, नीचे या ऊपर हो जाएगा। तो रागर है जो दो सौ मील दूर से देख रहा है कि उसके दो सौ मील माने Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ वर्षा हो रही है कि बादल जा रहे हैं कि हवाई जहाज है, कि दुश्मन है, कि क्या है? वह सब चित्र आ रहा है। मनुष्य की जो तीसरी आँख है, वह रागर से भी अद्भुत है। उसमें कोई स्थान और काल का सवाल ही नहीं। वहां दो सौ मील का सवाल नहीं है। वह एक बार सक्रिय हो जाए तो कहीं भी क्या हो रहा है उसके प्रति ध्यानस्थ होकर उस होने को तत्काल पकड़ सकती है। आगे क्या होगा, उसकी बहुत सी सम्भावनाएं भी पकड़ी जा सकती हैं । पीछे क्या हुआ है, ये सम्भावनाएं भी पकड़ी जा सकती है। मस्तिष्क का एक और हिस्सा है जो अगर सक्रिय हो जाए तो हम दूसरे के मन में क्या विचार चल रहे हैं, उनकी सलक पा सकते हैं। और हमारे मन में जो विचार चल रहे हैं अगर हम उन्हें बिना वाणी के दूसरे में डालना चाहें तो वह भी हो सकता है । सवाल है कि मस्तिष्क के हमारे और हिस्से कैसे सक्रिय हो जाएँ? मस्तिष्क का एक हिस्सा है जो सक्रिय होने से देवलोक से जोड़ देता है। उस जुड़ जाने के बाद हम खुद भी मुश्किल में पड़ जाएंगे क्योंकि हम दूसरे को बता नहीं सकते कि यह हो रहा है। .स्विटनबोर्ग एक अद्भुत व्यक्ति हुआ। बाठ सौ मील दूर एक मकान में आग लग गई है बारह बजे और वह किसी मित्र के घर ठहरा हुआ है। वह एकदम चिल्लाया है : पानी लाओ, माग लगी है. भागा और बाल्टी पर पानी लेकर आ गया। मित्रों ने कहा, 'कहाँ आग लगो है।' उसने कहा, 'अरे' बड़ी भूल हो गई।' बाल्टी नीचे रख दी। आग तो बहुत दूर लगी है। लेकिन जब मुझे दिखी तो मुझे ऐसा लगा कि यहीं लगी है। वह तो आठ सौ मील दूर लगी है। वह तो वियना में लगी है। फला-फलां घर बिल्कुल जला जा रहा है। मित्रों ने कहा कि आठ सौ मील दूर का फासला है यहां से कैसे तुम्हें दिख सकता है ? उसने कहा : मुझे दिखता है बिल्कुल जैसे कि यहां आग लगी हो । मुझे दिख रहा है। तीन दिन लग गए खबर लाने में। लेकिन ठीक जिस जगह उसने बताया था वहीं तक आग लगी थी, आगे नहीं लगी थी। उसने देवताओं के सम्बन्ध में बहुत अद्भुत बातें कही है । यूरोप में वेवलोक के बारे में जानकारी रखने वाला यह पहला मादमी है। उसने एक किताब लिखी : स्वर्ग और नरक। और यह बड़ी अद्भुत किताब है। इसमें उसने मांखों देखे वर्णन दिए है। लेकिन उन पर तो भरोसा करने की बात नहीं उठती क्योंकि हमारे लिए वह सब निरर्थक है। Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ महावीर । मेरी दृष्टि स्विडनबोर्ग की जिन्दगी में और ऐसी घटनाएं थीं जिनकी वजह से लोगों को मजबूर होना पड़ा कि जो वह कहता है ठीक होगा। यूरोप के एक सम्राट ने उसे अपने पर बुलाया और कहा : मेरी पत्नी मर गई है। तुम उससे संबंध स्थापित करके मुझे कहो कि वह क्या कहती है ? उसने दूसरे दिन आकर बबर दी कि तुम्हारी पत्नी कहती है कि फला-फलां अलमारी में ताला पड़ा है। चाबी उसकी खो गई है। वह तुम्हारी पत्नी के वक्त में ही खो गई थी, उसका ताला तोड़ना पड़ेगा। उसमें उसने तुम्हारे नाम एक पत्र लिखकर रखा है और उस पत्र में उसने ये-ये लिखा है। पत्नी को मरे पन्द्रह साल हो गए हैं। वह अल्मारी कभी खोली नहीं गई । बड़ा सम्राट है, बड़ा महल है । चाबी खोजी गई, चाबी नहीं मिल सकी। वह पत्नी के पास ही हुआ करती थी। फिर ताला तोड़ा गया है। निश्चित उसमें एक बंद लिफाफे में रखा हुमा पत्र मिला जो पन्द्रह साल पहले उसकी पत्नी ने लिखा था। उसे खोला गया और वही इबारत जो स्वीडनबोर्ग ने बताई थी उसमें मिली। ये जो सम्भावनाएँ हैं मस्तिष्क के और तलों के मुक्त हो जाने की, महावीर ने इन पर अथक श्रम किया है अभिव्यक्ति के लिए। अगर देवलोक के साथ अभिव्यक्ति करनी है तो हमारे मस्तिष्क का एक विशेष हिस्सा टूट जाना चाहिए, एक द्वार खुल जाना चाहिए । वह द्वार न खुल जाए तो उस लोक तक हम कोई खबर नहीं पहुँचा सकते। जैसे मनुष्य तक खबर पहुँचानी हो तो शब्द का द्वार होना चाहिए, नहीं तो पहुँचाना मुश्किल हो जाएगा। वैसे उस लोक से मो मस्तिष्क के कुछ द्वार खुलने चाहिए। और हमें कठिनाई यह होती है कि जो हमारी सीमा है इन्द्रियों की उससे अन्यथा को स्वीकार करना मुश्किल हो जाता है। __एक मादमी पिछले दूसरे महायुद्ध में ट्रेन से गिर पड़ा बोर ट्रेन से गिरने के बाद एक अद्भुत घटना घटी जो पहले कभी नहीं घटी थी जमीन पर । ऐसे बहुत लोगों ने कहा था लेकिन उसका वैज्ञानिक विश्लेषण नहीं हो सका था। गिर जाने से उसके मस्तिष्क का एक हिस्सा; जो निष्क्रिय भाग है, सक्रिय हो गया । और उसे दिन में आकाश में तारे दिखाई पड़ने लगे। तारे लुप्त होते नहीं, वे तो रहते हैं, लेकिन सूरज के प्रकाश में ढंक जाते हैं। हमारी आंख समर्थ नहीं है उनको देखने में। लेकिन उस आदमी को दिन में तारे दिखाई पड़ने लगे। पहले लोगों ने समझा कि वह पागल हो गया है। लेकिन जो जो उसने सूचनाएं दी वे बिल्कुल सही थीं। बोर जब प्रयोगशालानों ने सिख कर Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ दिया कि जहां जो बताता है, वहाँ वह है उस वक्त तब फिर बड़ा मुश्किल हो गया । लेकिन वह आदमी घबड़ा गया था और उस आदमी को बड़ी मुविकल हो गई थी । उस आदमी के सिर का आपरेशन करना पड़ा ताकि उसे दिन में तारे दिखाई पड़ना बंद हो जाएं । प्रवचन - और उसे ऐसा लगा कि देखा कि अस्पताल में रहा है । चोट लगने से था, दस मील आस-पास के किसी भी बंद करने का कोई उपाय नहीं था । गई । और जब और डाक्टरों ने 1 एक आदमी दूसरे महायुद्ध में चोट खाया, अस्पताल में भर्ती किया गया आस-पास कोई रेडियो चला रहा है। उसने सब तरफ कोई रेडियो नहीं चल रहा है लेकिन उसे साफ सुनाई पड़ उसका कान इस भांति हो गया कि वह जिस नगर में स्टेशन को उसका कान पकड़ने लगा और उस आदमी के पागल होने की नौबत आ पकड़ने लगा वह ध्वनियां, पहले तो शक हुआ किन्तु जब नर्सोंकहा कि तुम पागल तो नहीं हो गए हो, यहां तो कोई रेडियो नहीं, यह शान्त भूमि है, यहाँ कोई रेडियो बज ही नहीं सकता, यहाँ कोई यदि आवाज हो तो हमको भी आनी चाहिए । तब उसने कहा कि की कड़ी आ रही है । वे लोग आगे गए, जाकर सामने के होटल में रेडियो खोला । कड़ियाँ जा रही थीं। फिर उन्होंने ताल-मेल बिठाया । जिस नगर में. हुई थी यह घटना वह उस नगर के स्टेशन को पकड़ लेता था । उसके मस्तिष्क का एक हिस्सा सक्रिय हो गया था, जो हमारा सक्रिय नहीं है । तब उसका आपरेशन करना पड़ा। अगर उसका वह हिस्सा सक्रिय रहता तो उसकी जिन्दगी मुश्किल हो जाती । क्योंकि रेडियो को तो हम बंद कर सकते हैं, लेकिन विचार को बंद नहीं कर सकते । वह चलता चला जाएगा । फलां-फलाँ गीत 1 हमारे मस्तिष्क की सम्भावनाएँ अनन्त हैं । लेकिन स्वभावतः जितनी सम्भावनाएँ प्रकट हुई हैं उन सबके आगे अंधकार मालूम पड़ता है । वह मालूम पड़ेगा ही । यह जो अभी रूस में एक वैज्ञानिक है फयादेव उसने एक हजार मील दूर तक टेलीपैथिक संदेश भेजकर नए चमत्कार उपस्थित किए हैं । और, उस में यह बात बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि रूस इस तरह की बातों पर अनायास विश्वास करने के लिए कतई तैयार नहीं है । फयादेव ने मास्को में बैठकर एक हजार मील के फासले पर तिफिलस नगर के एक व्यक्ति से अपना संबंध स्थापित किया है। उसके मित्र एक बगीचे की झाड़ी में छिपे हुए हैं और वायरलेस से सम्बन्ध है उनका । वह मित्र फयादेव से कहते हैं कि दस नम्बर की बैंच पर एक आदमी आकर बैठा है । तुम उसे मास्को से सुझाव देकर सुला दो । फयादेव Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ महावीर । मेरी दृष्टि में कहता है कि मैं पांच मिनट में उसे सुला दूंगा। वह पांच मिनट तक मास्को में बैठकर चित्त को एकाग्र करके एक हजार मील दूर तिफलिस के फलो बगीचे में दस नम्बर की बैंच पर जो बादमी बैठा हुआ है, उसकी तरफ तीव्र प्रवाह से विचार भेजता है। और वह आदमी पांच मिनट बाद सो जाता है, उसी बैंच पर । लेकिन उसके मित्र कहते हैं कि हो सकता है कि वह थका-मांदा हो और अनायास सो गया हो। तुम उसे तीन मिनट के भीतर उठा दो अब वापिस । वह उसे फिर सुझाव भेजता है उठने के। वह आदमी तीन मिनट के भीतर उठ जाता है । मित्र उस आदमी के पास जाते हैं और उससे पूछते हैं कि तुम्हें कुछ लगा तो नहीं। उसने कहा सच में बड़ी हैरानी की बात है। कुछ लगा जरूर । पहले मैंने ख्याल नहीं किया। जैसे मैं बैंच पर आकर बैठा, कोई मेरे भीतर जोर से कहने लगा :सो जाओ। और मैं बिल्कुल थका-मांदा नहीं था। मैं किसी की प्रतीक्षा करने इस बगीचे में आकर बैठा हूँ। कोई आने वाला है, उसकी प्रतीक्षा कर रहा है। लेकिन इतने जोर से आया सो जाने का ख्याल मुझे कि मैं सो गया। और अभी-अभी किसी ने मुझे जोर से कहा : उठो ! उठो! तीन मिनट के भीतर उठ जाना !' मेरी समझ में कुछ नहीं आया कि क्या बात हो गई है। फिर फयादेव ने बहुत प्रयोग करके बताए और सिद्ध किया कि विचार की तरंगे सम्प्रेषित होती हैं बिना वाणी के । सोहन यहां बैठी हुई है। उसके घर में में पहली या दूसरी दफा मेहमान. था। वह रात आकर मेरे बिस्तर के नीचे बिस्तर लगाकर सो गई। और उसने कहा कि मैं तो आपसे कभी कुछ पूछती नहीं। सिर्फ एक सवाल मुझे पूछना है : आपकी मां का नाम क्या है ? उससे मैंने कहा कि यह भी कोई पूछने को बात है। तू आंख बंद कर ले। तुझे जो पहला नाम आ जाए, बोल दे। अगर वह कहती कि इससे कैसे होगा, कैसे पता चलेगा तो फिर मैं उसे बता देता। क्योंकि वैसा कहने वाला व्यक्ति फिर संवेदनशील नहीं हो सकता। मगर उसने बात मान लो । उसने कुछ नहीं पूछा; आंख बंद कर ली और कहा 'सरस्वती ।' मैंने कहा कि वही मेरे मां का नाम है। पर उसे विश्वास न पड़ा। उसने कहा कि मैं यह कैसे मानूं ? पता नहीं आप किसी भी नाम में 'हाँ' भर दें। मैंने कहा कि यह तो कोई कठिन बात नहीं है। तू मेरी मां से भी मिल लेना और पता लग जाएगा। यह मूठ कितनी देर.चल सकता है ? अब यह कैसे हुमा ? वह जब दो मिनट शान्त होकर लेट गई थी तब मैं मन में 'सरस्वती, सरस्वती' दोहराता रहा। कि कह उत्सुक थी जानने को, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८५ इसलिए उसके विचार शान्त हो गए थे और शन्द उसके मन में प्रतिध्वनित हो गए । उसने कहा 'सरस्वती।' मगर उसको पता नहीं कि यह कैसे आया। थोड़े से इसको प्रयोग करके देखिए । ___ आप रास्ते पर जा रहे हैं और सामने एक आदमी जा रहा है । आप दोनों आँखों की पलकें बन्द करके उसकी गर्दन पर देखते रहना थोड़ी देर, पीछे चलते रहना चुपचाप और देखते रहना। और फिर मन में जोर से कहना कि पीछे लौटकर देखो। सौ में निन्यानवे आदमी लौटकर पीछे देखेगा कि क्या बात है? और उसे पता भी नहीं चलेगा कि उसने पीछे लोटकर क्यों देखा ? ठीक उसकी गर्दन पर अगर आपकी आंखें केन्द्रित हों तब कोई भी विचार एकदम से सम्प्रेषित हो जाता है उसके प्रति । लेकिन होना चाहिए आपके पास तीव्रता से सम्प्रेषण करने की क्षमता यानी अगर आप साथ में ऐसा कहें कि 'पता नहीं कि लोटकर देखेगा कि नहीं देखेमा' तो सब गड़बड़ हो जाएगा। क्योंकि साथ-साथ आपका सन्देह भी सम्प्रेषित हो जाएगा और वह भी आदमी को पहुंच जाएगा और फिर वे दोनों कट जाएंगे। वह आदमी सीधा चला जाएगा, लौटकर पीछे नहीं देखेगा। • हमारे मस्तिष्क की सम्भावनाओं का हमें ठीक-ठीक बोध नहीं है । देवलोक से सम्बन्धित होने के लिए मस्तिष्क का एक विशेष हिस्सा है जो सक्रिय होना जरूरी है । सक्रिय होने से हम दूसरी दुनिया में प्रवेश कर गए । जैसे रात हम सपने में प्रवेश कर जाते हैं, सुबह जागकर फिर एक नई दुनिया शुरू हो जाती है, ठीक वैसे ही हम एक नई दुनिया में प्रवेश कर जाते हैं। यह प्रवेश उतना तथ्य ही है जैसे कि आपने रेडियो खोला जो ध्वनियां चल रही थीं वे पकड़ाई जानी शुरू हो गई। कोई ऐसा नहीं है कि रेडियो खोलने के वक्त ध्वनियां मानी शुरू हो जाती है। ध्वनियाँ इस कमरे में पहले से ही दौड़ रही हैं, सिर्फ खोलने पर पकड़ी जाती हैं । देवता प्रतिक्षण उपस्थित है हो, केवल आपके मस्तिष्क की एक व्यवस्था खुल जाने पर वे पकड़े जाते हैं, देखे जाते हैं। यह निर्भर करता है कि मस्तिष्क का वह हिस्सा कैसे टूट जाए ? उसके लिए दो-तीन बातें ख्याल में रखनी चाहिएं। एक बात कि अगर कोई व्यक्ति समग्र चेतना से, सारे शरीर को छोड़कर सिर्फ दोनों बांखों के बीच में बाज्ञाचक्र पर ध्यान को स्थिर करता रहे तो जहाँ हमारा ध्यान स्थिर होता है, वहीं सोए हुए केन्द्र तत्काल सक्रिय हो जाते हैं। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ महावीर : मेरी दृष्टि में ध्यान सक्रियता का सूत्र है। शरीर में किन्हीं भी केन्द्रों पर ध्यान जाने से वे केन्द्र सक्रिय हो जाते हैं। जैसे एक ही ख्याल हमें है सैक्स के सेन्टर का, जिसका लोगों को अनुभव है। कभी आपने स्याल किया कि जैसे ही आपका ध्यान सैक्स की तरफ जाएगा, सैक्स केन्द्र तत्काल सक्रिय हो जाएगा। जागते में ही नहीं, सोते में भी, स्वप्न में भी अगर सैक्स को तरफ ख्याल गया तो सैक्स केन्द्र फौरन सक्रिय हो जाएगा। सिर्फ ध्यान जाने से ही, सिर्फ जरा सी कल्पना उठने से ही सैक्स, वासना का केन्द्र सक्रिय हो जाएगा। एक केन्द्र का हमें सामान्य ख्याल है, इसलिए मैं उदाहरण के लिए कहता हूँ। दूसरे केन्द्र का हमें सामान्यतः बोष नहीं है। फिर भी एक-दो केन्द्रों का थोड़ा-थोड़ा हमें बोष है । ऐसा कोई आदमी नहीं मिलेगा जो प्रेम को बात करते वक्त सिर पर हाथ रखे, मगर हृदय पर हाथ रखने वाला आदमी मिलेगा। स्त्रियाँ जब प्रेम की बात करेंगी तब उनका हाथ हृदय पर चला जाएगा। वह एक केन्द्र है जो प्रेम का ध्यान आते ही सक्रिय हो जाता है। लेकिन जैसे कोई चिन्तित है और विचार में सक्रिय है तब उसका हाथ सिर पर जा सकता है, माथे पर जा सकता है। क्योंकि चिन्तित व्यक्ति को जहाँ विचार सक्रिय होता है उसी केन्द्र के आस-पास बोष हो जाएगा। आज्ञाचक्र वह जगह है जिसे दूसरे लोग 'तीसरी आँख' (पर्ड आई ) कहते हैं। अगर सारा ध्यान वहां केन्द्रित हो जाए तब करीब-करीब भीतर एक आंख के बराबर का एक टुकड़ा बिल्कुल खुल जाता है। कोई ऊपर से खोजने जाएगा तो उसे पता नहीं चलेगा लेकिन भीतर अगर ध्यान केन्द्रित हो तो ध्यान में व्यक्ति को निरन्तर पता चलेगा कि कोई चीज वहां टूट रही है, कोई छेद वहाँ हो रहा है। और जिस दिन उसे लगता है कि छेद हो गया उसी दिन उसे वे चीजें, जिन्हें हम देव कहें, प्रेत कहें, उनसे उसके सीधे सम्बन्ध स्थापित हो जाते हैं, जो हमारे सम्बन्ध नहीं हैं। तो महावीर का बहुत समय जिसको हम साधनाकाल कह रहे हैं अभिव्यक्ति के माध्यम खोजने का, इस तरह के केन्द्रों को सक्रिय करने और तोड़ने के लिए व्यतीत हुआ। इस तरह के केन्द्रों को तोड़ने में जितना ज्यादा ध्यान बिना बाधा के दिया जा सके उतना उपयोगी है। क्योंकि मामला वहाँ ऐसा है कि अगर आप पांच चोटें करके छोड़कर चले गए तो दुबारा जब आप आएंगे तब तक पांच चोटें विलीन हो चुकी होंगी। यानी. मापको फिर 'अ'ब'. 'स' से शुरू करना होगा। यह वजह है कि महावीर को बहुत दिन तक के लिए Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-१ २८७ खाना, पीना, निद्रा आदि सारे काम त्याग करने पड़े। चोट सतत और सीधी होनी चाहिए। कोई भी बाधा बीच में नहीं होनी चाहिए । क्योंकि जब कोई दूसरी बात बीच में आएगो ध्यान वहाँ जाएगा। और ध्यान दूसरी जगह गया कि वहाँ से जो काम हुआ था वह अधूरा छूट जाएगा। वह अधूरा न छूट जाए इसलिए जीवन के सारे कामों से-जो बीच में बाधाएं डाल सकते है-ध्यान हटाना पड़ेगा। तभी एक केन्द्र को पूरी तरह से सक्रिय किया जा सकता है । तो महावीर निरन्तर एकान्त में खड़े हैं, और यह ध्यान रहे कि महावोर का भी साधना का अधिकतम हिस्सा खड़े-खड़े व्यतीत हुआ है। दूसरे सापकों ने बैठकर साधना को है। महावीर की अधिकतम तापना बड़े-बड़े हुई है। महावीर के ध्यान का प्रयोग भी खड़े-खड़े करने के लिए है। कुछ कारण है उसमें । बैठा हुआ आदमी, लेटा हुआ आदमी सो सकता है। और अगर एक पण को भी वहाँ से ध्यान हट जाए तो पहला काम एकदम विलीन हो जाएगा। उस चक्र पर तो सतत काम करना चाहिए। वह काम खड़े होकर ही किया जा सकता है क्योंकि खड़े हुए आदमी की सोने की सम्भावना एकदम न्यून हो जाती है, क्षीण हो जाती है। निद्रा से बचने के कई उपाय किए उन्होंने । और कोई कारण नहीं। सिर्फ कारण है कि निद्रा में उतनी देर के लिए प्यान अलन हो जाएगा और तब हो सकता है कि उतना काम व्यर्थ हो जाए। निद्रा से बचने के लिए भोजन को छोड़ देना चाहिए क्योंकि नोंद का पचहत्तर प्रतिशत भोजन से सम्बन्धित है। जैसे ही भोजन पेट में गया, मस्तिष्क की सारी शक्ति पेट की तरफ आनी शुरू हो जाती है, भोजन को पचाने के लिए । इसलिए भोजन करने के बाद नींद का हमला शुरू हो जाता है कारण कि मस्तिष्क में जो शक्ति काम कर रही है उसे पहले जरूरी है भोजन पचाना। क्योंकि ज्यादा देर वह बिना पचा रह जाए तो वह जहर हो जाएगा, ठंडा हो जाएगा । इसलिए पेट सारे शरीर से एकदम सारी शक्ति को वापस बुला लेता है और मस्तिष्क को शक्ति उतर जाती है नीचे। आंखें सपकने लगती हैं, नींद माने लगती है। अगर नींव को बिल्कुल ही तोड़ना हो तो पेट में कुछ नहीं होना चाहिए। इसलिए उपवास के दिन आपको नींद आना मुश्किल है। क्योंकि उस शक्ति को नीचे आने का कोई उपाय ही नहीं रह जाता। . ___ और जो लोग माझाचक्र पर काम कर रहे हैं, वहां ध्यान लगा है उनकी शक्ति नीचे नहीं आनी चाहिए । वह ऊपर ही लंगी रहनी चाहिए तो ही वह चक्र खुल सकता है। सत्य की अनुमति से बह चक्र नहीं खुल पाता । हाँ, उस Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ महावीर : मेरी दृष्टि में अनुभूति को उस चक्र के माध्यम से प्रकट करना हो तो उसे खोलने की जरूरत पड़ती है। तिम्बत ने इस दिशा में सर्वाधिक मेहनत की है, तीसरी बाँस के सम्बन्ध में। तोड़ने के लिए अथक श्रम किया है । और तिब्बत में निरन्तर ऐसे लोग पैदा होते रहे जिन्होंने उसका पूरा उपयोग किया । मामाचक के माध्यम से ही देवताओं से जुड़ा जा सकता है। वहाँ वाणी को कोई जरूरत नहीं रहती। भाव जो भीतर पैदा हो वह आज्ञाचक्र से प्रतिध्वनित हो जाता है और देव-चेतना तक प्रवेश कर जाता है। . __ यह मैंने वो बातें कहीं। जड़ सम्बन्धित होना हो तो चेतना इतनी शिथिल हो जानी चाहिए कि जड़ के साथ तादात्म्य स्थापित हो जाए और मनुष्य से ऊपर की योनियों से सम्बन्धित होना हो तो चेतना इतनी एकाग्र होनी चाहिए कि आज्ञाचक्र टूट जाए। सर्वाधिक कठिनाई मनुष्य के साथ है। मनुष्य से सम्बन्धित होने के लिए महावीर ने तीन प्रयोग किए हैं। पहला प्रयोग यह है कि किसी भी मनुष्य को सम्मोहन की हालत में कोई भी सन्देश दिया जा सकता है । और उस वक्त सन्देश उसके प्राणों के आखिरी कोर तक सुना जाता है। और इस वक्त चूंकि तर्क बिल्कुल काम नहीं करता, विचार काम नहीं करता, चेतना काम नहीं करती इसलिए न वह विरोष करता है, न विचार करता है। जो कहा जाता है उसे चुपचाप स्वीकार कर लेता है यहां तक कि अगर एक व्यक्ति को बेहोश करके कहा जाए कि तुम घोड़े हो गए हो तो वह बराबर . चारों हाथ-पैर से खड़ा हो जाएगा, घोड़े की तरह आवाज करने लगेगा; वह यह मान लेगा। उसके बिल्कुल बचेतन तक अगर यह बात प्रविष्ट हो जाए तो हम जो उसे कहेंगे, वह बही हो जाएगा। उसे कहा जाए कि तुम्हें ककवा लग गया है तो उसके शरीर को एकदम लकवा लग जाएगा। फिर वह हाथ पैर हिला नहीं सकेगा । सौ में से तीस पुरुष, पचास स्त्रियों और पचहत्तर बच्चे सम्मोहित हो सकते हैं। जितना सरल चित्त हो उतनी शीघ्रता से सम्मोहन प्रवेश कर जाता है। महावीर वर्षों तक काम कर रहे हैं कि सम्मोहन के द्वारा कैसे संदेश पहुंचाया जाए। लेकिन अन्ततः उन्होंने उस प्रक्रिया का प्रयोग नहीं किया है क्योंकि सम्मोहन के द्वारा सन्देश तो पहुँच जाता है लेकिन कुषसूक्ष्म नुकसान एतरे को पहुँच जाते हैं। वैसे उसको तर्क शक्ति क्षीण हो जाती है, जैस वह परवस हो जाता है और वह धीरे-धीरे दूसरे के हाप में जीने लगता है। मैंने भी इधर सम्मोहन पर बहुत प्रयोग किये है इसी दृष्टि से । क्योंकि घंटों मेहनत करें तब Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८९ एकपात मुश्किल से समझाई जा सकती है। इधर दो मिनट बेहोश किया पाए तो यह बात उसमें प्रवेश कराई जा सकती है। लेकिन मैं भी इस नतीजे पर पहुँचा कि उस व्यक्ति में कुछ बुनियादी नुकसान पहुंच जाते है । सन्देश पहुँच जाएगा लेकिन वह व्यक्ति ऐसे जीने लगेगा जैसे उसकी कोई स्वतन्त्रता नहीं रही; वह परवश है, कोई और उसे चला रहा है, ऐसा चलने लगेगा। रामकृष्ण ने विवेकानन्द को जो पहला संदेश दिया वह सम्मोहन की विधि से दिया गया था जिसमें उनके स्पर्शमात्र से विवेकानन्द को समाधि हो गई। वह सम्मोहन के द्वारा दिया गया संदेश है और इसीलिए विवेकानन्द सदा के लिए रामकृष्ण का अनुगत हो गया । और भी मजे की बात है कि रामकृष्ण ने जिस दिन स्पर्श द्वारा विवेकानन्द को संदेश दिया उसी दिन से विवेकानन्द के भीतर एक शक्ति प्रकट हुई जो उसको अपनी नहीं थी, किसी दूसरे के दबाव में उसके भीतर आ गई थी। कमरे में बैठे हुए हैं विवेकानन्द । और उस कमरे में एक भक्त भी रहता था। गोपाल बाबू उसका नाम था। वह सब तरह की भगवान् की मूर्तियां रखे हुए था अपने कमरे में और दिन भर पूजा चलती थी क्योंकि इतने भगवान् थे कि उनकी उसे रोज दो तीन घंटे पूजा करनी पड़ती थी। वह कभी सांझ को भोजन कर पाता, कभी रात में । इतने भगवान् और एक भक्त ! बड़ी मुश्किल हो गई थी। विवेकानन्द ने कई बार उससे कहा तू क्या पत्थर इकट्ठे कर रहा है। जिस दिन विवेकानन्द को पहली बार रामकृष्ण से सम्मोहन का सन्देश मिला उस दिन वह कमरे में जाकर बैठे और उन्हें एकदम से ख्याल आया कि इस वक्त अगर मैं गोपाल बाबू को कहूँ कि 'जा' ! सारी मूतियों को बांध कर गंगा में फेंक आ तो बराबर हो जाएगा।" इस वक्त उनके पास बड़ी तीव्र शक्ति है जिसको वह विस्तीर्ण कर सकते हैं। उन्होंने यह कहा सिर्फ मजाक में कि 'गोपाल बाबू ! सब भगवानों को बांधो और गंगा में फेंक आओ।' गोपाल बाबू ने सब भगवान् चद्दर में बांधे और गंगा में फेंकने चले । रामकृष्ण घाट पर मिले और कहा, 'खूब' ! गोपाल बाबू को कहा : 'वापस चलो' ! जाकर विवेकानन्द का दरवाजा खोला और कहा कि 'तेरो चाबी मैं अपने हाथ में रखे लेता हूं क्योंकि तू तो कुछ भी उपद्रव कर सकता है। और जो तुझे आज अनुभव हुआ है अब वह तेरे मरने के तीन दिन पहले ही तुझे हो सकेगा, उसके पहले नहीं ।' और विवेकानन्द को जो समाधि का अनुभव हुवा रामकृष्ण के स्पर्श से फिर जिन्दगी भर तडंप रही, वह कभी नहीं हो सका। लेकिन मरने के तीन दिन पहले वह फिर अनुभव हवा। वह भी १६ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९. महावीर : मेरी दृष्टि में विवेकानन्द का अपना नहीं है। वह भी सम्मोहन अवस्था में कहा गया है कि फलो दिन तुझे फिर होगा । लेकिन चाबी मेरे पास है तो फलां दिन वह फिर हो जाएगा। में एक बच्चे पर सम्मोहन के बहुत से प्रयोग करता था। उससे मैंने कहा कि यह किताब सामने रखी है। इसके बारहवें पन्ने पर तुम पेंसिल उठा कर अपने दस्तखत कर देना । लेकिन आज नहीं, पन्द्रह दिन बाद ठीक ग्यारह बजे दोपहर ! और कर ही देना; भूल मत जाना। बात खत्म हो गई। वह तो होश में आ गया। स्कूल जाना था, स्कूल चला गया। पन्द्रह दिन बीत गए। किताब वहीं टेबिल पर पड़ी रही। लेकिन उसने कभी उस पर दस्तखत नहीं किए। पन्द्रहवें दिन उसका दस बजे स्कूल लगता था। उसने कहा : माज मेरा सिर कुछ भारी है। मैं स्कूल नहीं जाना चाहता हूँ। मैंने कहा : सुबह तो तबियत ठीक थी। उसने कहा : बिल्कुल ठोक थी पर अभी मेरा सिर भारी है। मैंने कहा : तुम्हारी मर्जी। मैं उसी कमरे में बैठा हूँ और टेबिल पर किताब रखी है, वह लड़का भी वहीं लेटा हुआ है। ठीक ग्यारह बजे उठा है, पेन्सिल उठाई है जाकर । जो पन्ना मैंने कहा था उसने खोला है और अपने दस्तखत करने लगा है। मैंने उसको दस्तखत करते वक्त पकड़ा है कि तू यह क्या कर रहा है। उसने कहा 'समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या कर रहा है। न तो मेरा सिर दुख रहा है और न कुछ और। लेकिन मुबह से ऐसा लग रहा है कि आज स्कूल मत जाना; कोई जरूरी काम करना है। बस भीतर से यही चल रहा है। और जब मैंने दस्तखत कर दिए हैं तो मेरे भीतर से बोझ उत्तर मया है जैसे मेरा पहाड़ उतर गया हो। मेरा सिर बिल्कुल ठीक हो गया है। दस्तखत करके मैं बिल्कुल हल्का हो गया है। पता नहीं यह क्यों हुआ है कि दस्तखत मुझे करने हैं। यह पन्द्रह दिन पहले दिया गया संमोहन प्रयोग है। ___ रामकृष्ण ने जिस विधि का उपयोग किया है उस विधि को महावीर ने बहुत दूर तक विकसित किया है लेकिन छोड़ दिया, उसका प्रयोग नहीं किया और मैं यह जानता हूँ कि विवेकानन्द को नुकसान पहुंचा। विवेकानन्द कुछ भी अपना काम नहीं कर सका। अपनी कमाई अभी बाकी रह गई है। यह हमा है दूसरे के द्वारा । इसमें विवेकानन्द की अपनी कोई उपलब्धि नहीं हैं। इसलिए विवेकानन्द बहुत चिन्तित, दुखित और परेशान रहे क्योंकि वे रामकृष्ण से बंधे थे। आखिरी समय में जो पत्र लिखे हैं उन्होंने, वे बड़े दुःख के हैं, बड़ी Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९१ पीड़ा के है, बहुत सन्ताप है उनमें । बैसे जिन्दगो एकदम व्यर्थ हो गई हो, कुछ भी नहीं पा सके। रामकृष्ण ने ऐसा क्यों किया! अगर महावीर ने इसका प्रयोग नहीं किया तो रामकृष्ण ने क्यों किया ! कुछ कारण है। महावीर चाणी में समर्थ थे। रामकृष्ण वाणी में असमर्थ थे। और वाणी के लिए विवेकानन्द को साधन की तरह उपयोग करना जरूरी हो गया, नहीं तो रामकृष्ण ने जो जाना था वह खो जाता। रामकृष्ण ने जो जाना था। उसे जगत् तक पहुँचाने के लिए रामकृष्ण के पास वाणी नहीं थी। उस वाणी के लिए विवेकानन्द का उपयोग करना जरूरी था। विवेकानन्द सिर्फ रामकृष्ण के ध्वनि-विस्तारक यन्त्र हैं, इससे ज्यादा नहीं। और वह विल्कुल सम्मोहित अवस्था में सारे जगत् में घूम रहे हैं, बिल्कुल सोयो अवस्था में। रामकृष्ण जो बुलवाना चाह रहे हैं, वे बोल रहे हैं। विवेकानन्द का उपयोग किया गया है एक साधन को भांति । यह जरूरी था रामकृष्ण के लिए। नहीं तो रामकृष्ण किसी को कुछ भी न दे पाते । यही विवेकानन्द से कहा है रामकृष्ण ने "तुझे मैं समाधि में नहीं जाने दूंगा क्योंकि तुझे अभो एक बहुत बड़ा पाम करना है।" और जब भी विवेकानन्द ने उनसे पूछा “परमहंस देव, उस दिन जो खुशी मिली थी, प्रकाश मिला था, आनन्द मिला था, वह फिर कब मिलेगा।" तो उन्होंने बहुत जोर से उसे डांटा है, डाटा है, और कहा है कि तू बहुत लोभी है, स्वार्यो है, तू आने ही आनन्द के पोछे पड़ा है। तुझे मैं एक बड़ा वृक्ष बनाना चाहता हूँ जिसके नीचे बहुत लोग छाया में विश्राम करें। तुझे तो एक बड़ा काम करना है। वह कौन करेगा? तू समाधि में चला जाएगा तो वह कार्य कौन करेगा? महावोर को यह कठिनाई नहीं है। महावीर के पास रामकृष्ण के अनुभव भी हैं। विवेकानन्द को सामग्यं भी है। इसलिए दो व्यक्तियों की जरूरत नहीं पड़ती। एक ही व्यक्ति काकी है। अक्सर ऐसा हुआ है, जैसे गुरजिएफ को मैं बात करता है निरपर। गुरजिएफ ने आस्पैस्को का इसी तरह उपयोग किया है जैसा कि विवेकानन्द का रामकृष्ण ने। गुरजिएफ के पास वाणो नहीं है; आस्स्को के पास वाणो है, बुद्धि है, तक है । आस्पेस्की का पूरा उपयोग किया है गुजरिएफ ने । गुरजिएफ की आप किताब पढ़े तो समझ हो नहीं सकते है कुछ भी, क्योंकि उसके पास वह अभिव्यक्ति है ही नहीं लेकिन आस्स्को से उसने सब लिखवा लिया है जो उसे लिखवाना था। मास्स्को को किताबें इतनी अद्भुत हैं जिनका कोई 'हिसाब नहीं। गुरजिएफ को जो कहना या वह मास्स्को से कहलवा लिया है। और यह बिना सम्मोहन प्रयोग के नहीं हो सकता है। महावीर के पास भी वह Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ महाबीर | मेरी दृष्टि में साधना है लेकिन उन्होंने देखा कि वह साधन व्यक्ति को नुकसान पहुँचाता है और सोचा कि किसी को अपने साधन की तरह उपयोग करने का सवाल नहीं है; वह तो उसके भीतर संदेश भर पहुँचाने का सवाल है । इसलिए उसका प्रयोग तो उन्होंने बहुत किया, लेकिन किसी को अपने साधन की तरह उपयोग कभी नहीं किया। दूसरा रास्ता है कि दूसरा व्यक्ति ध्यान को उपलब्ध हो जाए तो फिर मौन में ही बात हो सकती है; फिर कोई जरूरत नहीं है उससे शब्दों का उपयोग करने की, क्योंकि शब्द सबसे असमर्थ चीज हैं। मौन में जो कहा जाए वह पहुँच जाता है; जो कहा ही नहीं गया जो समझा जा सकता है वह भी पहुँच जाता है । इसलिए महावीर का जो भक्त है उसको कहते हैं श्रावक यानी ठीक से सुनने वाला । सुनते हम सभी हैं । हम सभी धावक हैं । लेकिन हम सभी श्रावक नहीं है। श्रावक वह है जो ध्यान की स्थिति में बैठकर सुन सके उस स्थिति में जहाँ उसके मन में कोई विचार नहीं है, शब्द नहीं है, कुछ भी नहीं है, मौन में बैठ कर जो सुन सके वह श्रावक है । यह शब्द का उपयोग आकस्मिक नहीं है । भक्त को श्रोता कहने से काम नहीं चलता क्योंकि श्रोता का मतलब है सिर्फ सुनना । श्रावक का मतलब है सम्यक् श्रवण । हम सब सुनते हैं लेकिन हम श्रावक नहीं हैं | श्रावक हम तब होते हैं जब हम सिर्फ सुनते हैं और हमारे भीतर कुछ भी नहीं होता । ले जाए । तो गुरजिएफ की मैं अभी बात कर रहा था। पहले कि वह संदेश दे मास्पेंस्की को उसे श्रावक बनाना जरूरी है। वह सुन ले और संदेश को गुरजिएफ आस्पेंस्की को जंगल में ले जाकर तीन महीने रहा। उस मकान में तीस व्यक्तियों को वह लाया जिनको वह श्रावक बना रहा था। तीन महीने उन तीस लोगों को रखा एक ही बंगले में जो सब तरफ बंद कर दिया गया, जिसमें बाहर जाने का कोई उपाय नहीं है और जिसमें गुरजिएफ कभी बाहर से खोल कर भीतर आता है और जिसे बंद कर बाहर जाता है। मकान सब तरफ से बंद है। भोजन का इन्तजाम है । सारी व्यवस्था है । शर्त यह है कि तीन महीने न तो कोई कुछ पढ़ेगा, न कोई कुछ लिखेगा, न कोई किसी से बात करेगा । तोस आदमी एक मकान के भीतर हैं । गुरजिएफ ने कहा कि तुम ऐसे समझना कि एक-एक ही वहाँ हो, तीस नहीं । उन्तीस यहाँ हैं हो नहीं तुम्हारे अलावा। आंख के इशारे से भी मत बताना कि दूसरा है। सुबह तुम बैठोगे तो कोई जा रहा है तो जाने देना । तुम मत सोचना कि कोई जा रहा है । - Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६५ अगर कोई नमस्कार भी करे तो नमस्कार मत करना क्योंकि कोई है ही नहीं जिसको तुम नमस्कार करो। मांस से भी मत पहचानना कि तुम हो । मुस्कराना भी मत, भाव भी मत प्रकट करना। और जो आदमी इस तरह के भाव प्रकट करे उसे मैं बाहर निकाल दूंगा। पन्द्रह दिन में 'छंटाई करूँगा। पन्द्रह दिन में सत्ताईस आदमी उसने बाहर कर दिए। तीन आदमी रह गए। उनमें एक रूप का गणितज्ञ आस्स्को भी था। आस्स्को ने लिखा है कि पन्द्रह दिन बहुत कठिनाई के थे, दूसरे को न मानना बड़ा कठिन था। कभी सोचा भी नहीं था कि कठिनाई हो सकती है। लेकिन संघर्ष से, संकल्प से पन्द्रह दिन में वह सीमा पार हो गई। दूसरे का ख्याल बंद हो गया। आस्स्की ने लिखा है कि जिस दिन दूसरे का ख्याल बंद हो गया उस दिन से पहली बार अपना ख्याल शुरू हुआ। अब हम सब अपना ख्याल करना चाहते हैं। मगर दूसरे का ख्याल मिटता नहीं है । अपना ख्याल कमी हो नहीं सकता। क्योंकि जगह खाली नहीं। कहते हैं-आत्मस्मरण । मगर आत्म-स्मरण कैसे हो ? आत्मस्मरण चौबीस घंटे चल रहा है और उसी के बीच दूसरे का स्मरण भी हो रहा है और फिर हम आत्मस्मरण करना चाहते हैं। आस्पेंस्की ने लिखा है कि तब तक मैं समझा ही नहीं था कि आत्म-स्मरण का मतलब क्या होता है। और बहुत बार कोशिश की थी अपने को याद करने को । कुछ नहीं होता था। तब सपाल में आया पन्द्रह दिन के बाद कि वह जो दूसरा भीतर बैठा था बिदा हो गया है । जब भीतर खाली रह गया तो सिवाय अपने स्मरण के कोई मौका ही नहीं रहा । तब पहली बार में अपने प्रति जागा। सोलहवें दिन सुबह उठा जैसा कि मैं जिन्दगी में कभी नहीं उठा था। पहली बार मुझे बोध हुआ कि अब तक मैं दूसरे के बोष में ही उठता था। सुबह उठने से दूसरे का बोष शुरू हो जाता था। अब अपना बोष चौबीस घंटे घेरे रहने लगा क्योंकि अब कोई उपाय न रहा। दूसरे को भरने की जगह न रही। एक महीना पूरा होते-होते, उसने लिखा है कि मैं हैरानी में पड़ गया। दिन बीत जाते हैं, मुझे पता ही नहीं चलता कि जगत् भी है, कोई व्यावहारिक संसार भी है, बाजार भो है, लोग भी हैं। दिन बीत जाते हैं, और पता नहीं चलता । सपने विलीन हो गए । जिस दिन दूसरा मूला उसी दिन सपने विलीन हो गए। क्योंकि सब सपने बहुत गहरे में दूसरे से सम्बन्धित है । जिस दिन सपने विलीन हुए उस दिन मुझे रात में भी अपना स्मरण रहने लगा। ऐसा नहीं है कि मैं रात में सोया हुआ है। रात में भी सब सोये है और मैं जागा हुमाई, ऐसा होने लगा। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ महावीर । मेरी दृष्टि में तीन महीने पूरे होने के तीन दिन पहले गुरजिएफ ने दरवाजा खोला। भास्स्की ने लिखा है : उस दिन मैंने पहली बार देखा कि यह आदमी कैसा अद्भुत है । इतना खाली था कि अब मैं नहीं देख सकता था। भरी हुई आँख क्या देखेगी? गुरजिएफ को मैंने पहली बार देखा : ओफ ! यह मामी भोर इसके साथ होने का सौभाग्य ! पहले समझा था कि जैसे और लोग थे वैसा गुरजिएफ था। खाली में पहली बार गुरजिएफ को देखा। बास्स्की ने लिखा है, उस दिन मैंने जाना कि वह कौन है । गुरजिएफ सामने बैठ गया और बोला : भास्स्की ! पहचाना मुझे ! मैंने चारों ओर चौक कर देखा : गुरजिएफ चुप बैठा है । आवाज गुरजिएफ की है। फिर भी मैं चुप रहा । फिर आवाज आई : मास्स्की ! पहचाना नहीं, सुना नहीं। तब मैंने चौंक कर गुरजिएफ की ओर देखा । मैं बिल्कुल चुप बैठा था। मेरे मुंह से कोई शब्द निकल रहा था। तब गुरजिएफ खूब मुस्कराने लगा और फिर कहा : अब शब्द की कोई जरूरत नहीं है । विना शब्द के भी बात हो सकती है। अब तू इतना चुप हो गया कि मैं भीतर सोचूं और तू सुन लेगा क्योंकि जितनी शांति है उतनी सूक्ष्म तरंगे पकड़ी जा सकती हैं। तुम रास्ते से भागे चले जा रहे हो। तुम्हें किसी ने कहा है। तुम्हारे मकान में आग लग गई है। और मैं रास्ते में तुम्हें मिलता हूँ और कहता हूँ नमस्कार ! तुमने सुना ? तुमने नहीं सुना। तुमने देखा ? तुमने नहीं देखा। तुम भागे चले जा रहे हो। तुम्हारे घर में आग लग गई है। दूसरे दिन तुम मुझे मिलते हो। मैं कहता हूँ रास्ते में मिला था, नमस्कार की थी, तुमने कोई जवाब: नहीं दिया। तुम कहते हो : मैंने देखा ही नहीं। मेरे घर में आग लग गई थी, मैं भागा जा रहा था। मुझे तुम नहीं दिखाई पड़े। न मैंने देखा कि तुमने हाथ जोड़े। न मैं इस हालत में था कि हाथ जोड़ सकता था। अगर मकान में भाग लग गई तो तुम्हारा चित्त इतने जोर से चलता है कि जोड़े गए हाथ दिखेंगे नहीं, किया हुआ नमस्कार सुनाई नहीं पड़ेगा। अगर चित्त का चक्र धीमा हो गया है, ठहर गया है तो जरूरी नहीं कि मैं बोलूं ! इतना ही काफी है कि मैं कुछ चाहूँ कि तुम पर चला जाए, वह एकदम चला जाएगा। विद्यासागर ने लिखा है कि बंगाल का गवर्नर उन्हें एक पुरस्कार देना चाहता था। विद्यासागर एक गरीब आदमी थे, पुराने ढंग से रहने के आदी थे। वही पुराना बंगाली कुर्ता, पुरानी षोती है। डंडा हाथ में है। मित्रों ने कहा : इस वैष में गवर्नर के दरबार में जाना ठीक नहीं है। हम तुम्हें नए Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ कपड़े बनवा देते हैं । विद्यासागर ने कहा कि मैं जैसा हूँ, ठीक हूँ । मित्र नहीं माने । उन्होंने खूब कीमती कपड़े बनवाए । कल सुबह जाना है विद्यासागर को गवर्नर के सामने और पुरस्कार लेना है । दरबार भरेगा। सांझ को वह घूमने निकले । समुद्र के तट पर से घूमकर लोट रहे हैं। सामने ही एक मुसलमान niraat छड़ी लिए चुपचाप शान से चला जा रहा है। एक आदमी भागा हुआ आया है और मौलवी से कहा : मीर साहब ! तेजी से चलिए, आपके मकान में आग लग गई है। मीर ने कहा ठीक है और फिर वह उसी चाल से चला । विद्यासागर हैरान हो गए क्योंकि सुना है उन्होंने, आदमी ने अभी आकर कहा है कि मकान में आग लग गई | मगर वह उसी चाल से चल रहा है । फिर उस आदमी ने घबड़ाकर कहा है : शायद आप समझे नहीं हैं । आपके मकान में आग लग गई है । तो कहा : मैंने समझ लिया है । फिर वह उसी चाल से चलने लगा है। तब विद्यासागर कदम बढ़ा कर आगे गए और कहा : " सुनिए ! हद हो गई है। आपके मकान में आग लग गई है और आप उसी चाल से चल रहे हैं ।" उस आदमी ने कहा कि मेरी चाल से मकान का क्या सम्बन्ध है ? और मकान के पीछे चाल बदल दें जिन्दगी भर को ? लग गई है ठीक है, लग गई है । अब मैं क्या करूंगा ? विद्यासागर ने घर आकर कहा कि मुझे वे कपड़े नहीं पहनने हैं । जिन्दगी भर की चाल छोड़ दूँ गवर्नर के लिए । एक आदमी जिसके मकान में आग लग गई है उसी चाल से जा रहा है, एक कदम नहीं बढ़ा रहा है। लेकिन ऐसा आदमी मिलना मुश्किल है और अगर मिल जाए तो वह श्रावक हो सकता है । महावीर की सतत चेष्टा इसमें लगी कि कैसे मनुष्य श्रावक बने, कैसे सुनने बाला बने, कैसे सुन सके। और वह तभी सुन सकता है जब उसके चित्त की सारी विचार परिक्रमा ठहर जाए। फिर बोलने की जरूरत नहीं । वह सुन लेगा । ऐसी जो न बोली लेकिन सुनी गई वाणी है, उसका नाम दिव्य ध्वनि है । बोली नहीं गई है लेकिन सुनी गई है। दी नहीं गई है लेकिन पहुँच गई है। सिर्फ भीतर उठी है और सम्प्रेषित हो गई है । तो श्रावक बनाने की कला सोजने के लिए बड़ा श्रम करना पड़ा। अब तो हम किसी को भी श्रावक कहते हैं । जो महावीर को मानता है वह श्रावक है। मगर महावीर के मरने के बाद श्रावक होना ही मुश्किल हो गया। असल में जो महावीर के सामने बैठा था वही श्रावक था । उसमें भी सभी श्रावक नहीं थे। बहुत से श्रोता थे । भोता काम से सुमता है, भावक प्राण से सुनता है। श्रोता को Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ महावीर : मेरी दृष्टि शब्द बोले जाएं तो वह सुन ले, जरूरी नहीं है। वह शब्द बोले, जरूरी नहीं है। महावीर ने श्रावक की कला को विकसित किया। यह बड़ी से बड़ी कला है जगत् में। क्योंकि जीसस लोगों को नहीं समझा पाए। उन्होंने सिर्फ इसकी फिक्र की कि मैं ठीक ठीक कहूँ। इसकी फिक्र ही नहीं की कि वह ठीकठीक सुन सकता है, या नहीं सुन सकता। मुहम्मद इसकी फिक्र नहीं कर रहे है कि वह सुन सकेगा या नहीं। वह इसकी फिक्र कर रहे हैं कि जो मैं कह रहा हूँ यह ठीक होना चाहिए। वह बिल्कुल ठीक है। लेकिन कहना ही ठीक होने से कुछ नहीं होता; सुनने वाला भी मेक होना चाहिए । नहीं तो कहना व्यर्थ हो जाएगा। तुम कहोगे कुछ, सुना कुछ जाएगा, समझा कुछ जाएगा। इसलिए मैं महावोर को दूसरी बड़ी देनों में से धावक बनने की कला को मानता है। यह बड़े से बड़े योगदान में से एक है कि बादमी श्रावक कैसे बने। और तभी उन्होंने शब्द उठा दिया 'प्रतिक्रमण' । 'प्रतिक्रमण' शब्द भाषक बनाने की कला का एक हिस्सा है। हमें ख्याल भी नहीं कि 'प्रतिक्रमण' का अर्थ क्या होता है ? 'माक्रमण' का अर्थ हम समझते हैं क्या होता है। बाक्रमण से उल्टा मतलब होता है प्रतिक्रमण का । 'आक्रमण' का अर्थ होता है दूसरे पर हमला करना और प्रतिक्रमण का अर्थ होता है सब हमला लोटा लेना, वापस लौट जाना। हमारी चेतना आक्रामक है साधारणतः । प्रतिक्रमण का अर्थ है वापस लौट आना, सारी चेतना को समेट लेना वापस, जैसे सूर्य शाम को अपनी किरणों को जाल समेट लेता है ऐसे ही अपनी फैली. हुई चेतना को मित्र के पास से, शत्रु के पास से, पत्नी के पास से, बेटे के पास से, मकान से और धन से वापस बुला लेना है। जहां-जहां हमारी चेतना ने सूटियां गाड़ दी है और फैल गई है, उस सारे फैलाव को वापस बुला बेना है। प्रतिक्रमण का मतलब है वापस लौट आना। जाना है आक्रमण, लोट बाना है प्रतिक्रमण । जहाँ जहाँ चेतना गई है, वहां वहां से उसे वापस पुकार लेना है कि 'भा जाओ। बुख ने एक कहानी कही है। सांस को नदी के तट पर कुछ बच्चे रेत के घर बना रहे है। बहुत से बच्चे हैं। कोई घर बनाता है, कोई गड्ढा खोदता है, किसी बच्चे का किसी के घर में पैर लग जाता है। और जहाँ इतने बच्चे हो वहाँ पैर लग जाना भी सम्भव है। किसी का पर गिर जाता है, मारपीट होती है, गाली गलोज होती है, बच्चे चिल्लाते है : मेरा पर मिटा दिया। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६७ क्यों यहाँ पैर रख रहे हो। ये सब झगड़ते हैं, मारते हैं, पीटते हैं, फिर शान्त हो जाते हैं। और नदी के तट से कुछ दूर घर-घर से बच्चों की मां पुकारती है "लोट बायो, लौट आओ। अब बहुत खेल हो गया" और बच्चे जो लड़ते थे इस पर कि मेरे घर पर लात मत मारना वे अब अपने ही घर को लात मार कर घर की ओर भागते हुए वापस लौट गए हैं। घर पड़े रह गए है टूटे-फूटे । नदी तट निर्जन हो गया है। बच्चे घर चले गए हैं अपने ही घर को लात मार कर जिस पर लड़े थे कि मेरा तोड़ मत देना। बुद्ध कहते हैं : ऐसा एक मरण माता है जीवन में जब तुम रेत के घरों को लात मारकर खुद ही वापस लौट आते हो इसका अर्थ है प्रतिक्रमण । और अगर इसका अभ्यास जारी रहे कि तुम रोज घड़ी भर को प्रतिक्रमण कर जाओ, सब तरफ से चेतनाओं को वापस बुला लो, सब रेत के घरों से आ जाओ वापस अपने भीतर, कहीं से सम्बन्ध न रखो, असंग हो जाओ तो प्रतिक्रमण हुआ । प्रतिक्रमण ध्यान का पहला चरण है। क्योंकि जब तुम लोटोगे ही नहीं, चेतनामों को वापस नहीं लाओगे तो ध्यान कौन लगाएगा? अभी तो चेतना ही नहीं है मौजूद, वह तो घर के बाहर गई हुई है; वह तो किसी दूसरे ओर भटक रही है, वह तो कहीं और जगह है। तुम चेतना को नहीं लौटामओगे तो ध्यान कैसे.करोगे? प्रतिक्रमण है पहला चरण ध्यान का, सामायिक है दूसरा चरण । सामायिक अर्थात् ध्यान । सामायिक ध्यान से भी अद्भुत शब्द है। महावीर ने जो इस शब्द का उपयोग किया है, वह ध्यान से बेहतर है। ध्यान शब्द में कहीं दूसरा छिपा हुआ है। जैसे हम कहते हैं 'ध्यान में आओ' तो आदमी कहता है "किसके ध्यान में, किस पर ध्यान करें, कहां ध्यान लगाएँ।' ध्यान शब्द किसी न किसी रूप में पर केन्द्रित है। उससे सवाल हुआ है किसका ध्यान !' सामायिक को महावीर ने बिल्कुल मुक्त कर दिया है। समय का मतलब होता है आत्मा और सामायिक का मतलब है मात्मा में होना। प्रतिक्रमण है पहला हिस्सा कि दूसरे से लौट आओ, सामायिक है दूसरा हिस्सा अपने में हो आओ। और जब तक दूसरे से न लौटोगे तब तक अपने में होओगे कैसे ? इसलिए पहली सीढ़ी प्रतिक्रमण और दूसरी सीढ़ी सामायिक है। लेकिन वह जो बकवास प्रतिक्रमण के नाम से चलता है, वह प्रतिक्रमण नहीं है। उससे कोई मतलब हो नहीं है कि कितने देवी-देवता है और कहाँ कोन बैग है, कितने योजन, क्या दूर है-इससे कोई मतलब ही नहीं है। यह तो दूसरे के लिए भटकना है। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ महावीर : मेरी दृष्टि में प्रतिक्रमण बहुत अद्भुत बात है। वह चेतना को सब तरफ से असम्बन्धित कर देना है : पत्नी, अब पत्नी नहीं है; बेटा, अब बेटा नहीं है। मकान, अब मकान नहीं है। शरीर, अब शरीर नहीं है। प्रतिक्रमण है सब तरफ से लोटा लेना; सव तरफ से काटते चले आना। चेतना लौट आए अपने में तो फिर दूसरी बात शुरू होती है कि अब अपने में कैसे रम जाए क्योंकि न रम पाई तो फिर दूसरे में चली जाएगी। अगर बच्चे शाम घर भी लोट आए और अगर मां न रमा पाई तो बच्चे फिर लौट जाएंगे नदी के तट पर। वे फिर रेत के घर बनाएंगे। वे फिर खेलेंगे और फिर लड़ेंगे। लौट आना सिर्फ सूत्र है लेकिन लोट आते हैं तो रमें कैसे, ठहर कैसे जाएं उसकी चिन्ता करनी है। अगर चिन्ता नहीं की तो नोट भी नहीं पाएंगे। तो प्रतिक्रमण सिर्फ प्रक्रिया है, स्वभाव नहीं। इसलिए कोई प्रतिक्रमण में ही रुकना चाहे तो वह नासमझी में है। चेतना इतनी शोघ्रता से आती है और इतनी शीघ्रता से लौट जाती है कि पता ही नहीं चलता । एक दफा सोचती है कि कहां मकान ? क्या मेरा? लौटती है एक क्षण को। लेकिन यहां ठहरने को जगह नहीं पाती। पुनः वहीं लोट जाती है । दूसरा सूत्र है सामायिक । वह हम कल बात करेंगे कि चेतना कैसे स्वयं में ठहर जाए। वह ख्याल में आ गया तो सब ख्याल में आ गया। महावीर का जो केन्द्र है वह सामायिक है। सामायिक बड़ा अद्भुत शन्द. है । दुनिया में बहुत शब्द लोगों ने उपयोग किए है लेकिन इससे अद्भुत शब्द का उपयोग नहीं हो सका कहीं भी । समय का अर्थ है आत्मागामाविक गति मात्मा में होना। इसमें कोई यह नहीं पूछ सकता कि गामायिक किसकी । पूछोगे तो वह गलत हो जाएगा। यह सवाल ही नहीं है। ज्यान हो सकता है किसी का । सामायिक किसकी होगी ? किसी की भी नहीं होगी। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन Page #267 --------------------------------------------------------------------------  Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर को साधना-पद्धति में केन्द्रिय शब्द है-सामायिक । यह शद बन्ना है समय से । पहले इस शब्द को थोड़ा-सा समझ लेना उपयोगी होगा। पदार्थ का अस्तित्व है तीन आयामों में : लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई। किसी भी पदार्थ में तीन दिशाएं हैं अर्थात् पदार्थ का अस्तित्व तीन दिशाओं में फैला हुआ है। अगर आदमी में हम इस पदार्थ को नापने जाएं तो लम्बाई मिलेगी, चौड़ाई मिलेगी, ऊंचाई मिलेगी। अगर प्रयोगशाला में आदमी की काट-पीट करें तो जो भी मिलेगा, लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई में घटित हो जाएगा। लेकिन आदमी की आत्मा चुक जाएगी हाथ से। आदमी की आत्मा लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई को पकड़ में नहीं आती है। तीन आयाम है पदार्थ के । आत्मा का चौथा आयाम है। लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई-ये तीन दिशाएं हैं जिनमें सभी वस्तुएँ आ जाती हैं। लेकिन आत्मा की एक और दिशा है जो वस्तुओं में नहीं है, चेतना की दिशा है। वह है समय जो अस्तित्व का चौथा आयाम है। वस्तु हो सकती है तीन आयामों में लेकिन चेतना कभी भी तीन आयामों में नहीं हो सकती। वह चौथे आयाम में हो सकती है। जैसे अगर हम चेतना को अलग कर लें तो दुनिया में सब कुछ होगा, सिर्फ समय नहीं होगा। समझ लेंकि इस पहाड़ पर कोई चेतना नहीं है तो पत्थर होंगे, पहाड़ होगा, चांद निकलेगा, सूरज निकलेगा, दिन डूबेगा, ऊगेगा लेकिन समय जैसी कोई चीज नहीं होगी। क्योंकि समय का बोध ही चेतना का हिस्सा है । चेतना के बिना समय जैसी कोई चीज नहीं है। और अगर समय न हो तो चेतना भी नहीं हो सकती। इसलिए वस्तु का अस्तित्व है लम्बाई, चौड़ाई, ऊंचाई में, और चेतना का अस्तित्व है काल में, समय की धारा में। आइंस्टीन ने फिर Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ महाबीर : मेरी दृष्टि में बहुत अद्भुत काम किया है इस तरफ । और उसने यह चारों आयाम जोड़कर अस्तित्व की परिभाषा की है । काल और क्षेत्र दो अलग चीजें समझी जाती रही हैं सदा से । समय अलग है, क्षेत्र अलग है। आइंस्टीन ने कहा ये अलग चीजें नहीं हैं । ये दोनों इकट्ठी हैं और एक ही चीज के हिस्से है । उसने काल और क्षेत्र को जोड़ दिया। ये अलग चीजें नहीं हैं। किसी भी चीज के अस्तित्व में तीन चीजें हमें ऊपर से दिखाई पड़ती हैं -- लम्बाई, चौड़ाई और ऊंचाई लेकिन अस्तित्व होगा ही नहीं । हम बता सकते हैं कि कौन सी चीज कहाँ हैं, किस जगह है । लेकिन अगर हम यह न बता सकें कि कब है तो उस वस्तु का हमें कोई पता नहीं चलेगा । तो आइंस्टीन ने अस्तित्व की अनिवार्यता मान लिया समय को । इस बात का पहला बोध महावीर को हुआ है कि समय चेतना की दिशा है । चेतना का कोई अस्तित्व अनुभव में भी नहीं आ सकता समय के बिना । समम का जो बोध है, जो भाव है, वह चेतना का अनिवार्य अंग है | अतः महावीर ने आत्मा को समय ही कह दिया । इस बात में और भी बातें अन्तर्निहित हैं । इस जगत् में सब चीजें परिवर्तनशील हैं । सब चीजें क्षणभंगुर हैं । आज हैं, कल न होंगी। सब चीजें समय की धारा में बदलती हैं, मिटती हैं, बनती हैं। आज बनती हैं, कल बिखरती हैं, परसों बिदा हो जाती हैं। सिर्फ इस जगत् की लम्बी धारा में समय भर एक ऐसी चीज है जो कभी नहीं बदलता, जो सदा जिसके भीतर सब बदलाहट होती है । जो न हो तो बदलाहट न हो सकेगी। अगर समय न हो तो बच्चा बबचा रह जाएगा, जवान नहीं हो सकेगा; कली कली रह जाएगी, फूल नहीं हो सकती । क्योंकि परिवर्तन की सारी सम्भावना समय में है । जगत् में सब चीजें समय के भीतर हैं और परिवर्तनशील हैं लेकिन समय अकेला 'समय' के बाहर है और परिवर्तनशील नहीं है । समय अकेला शाश्वत सत्य है जो सदा था, सदा होगा । और ऐसा कभी भी नहीं हो सकता कि जो न हो । क्योंकि किसी चीज के न होने के लिए भी समय जरूरी है। समय के बिना कोई चीज नहीं हो भी सकती । जैसे जन्म के लिए समय जरूरी है वैसे मृत्यु के लिए भी समय जरूरी है, बनने के लिए भी समय जरूरी है, मिटने के लिए भी समय जरूरी है । उदाहरण के लिए हम ऐसा समझे : यह कमरा है । इसमें से हम सब चीजें बाहर निकाल सकते हैं, या भीतर भर सकते हैं । लेकिन इस कमरे के भीतर जो जगह है उसे हम बाहर नहीं निकाल सकते। कोई उपाय नहीं है। चाहे मकान रहे, चाहे जाए, क्षेत्र तो रहेगा। मकान क्षेत्र में ही बनता Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भवचन-१० है और क्षेत्र में ही विलीन हो जाता है। लेकिन क्षेत्र रहेगा। ठीक ऐसे ही समझने की जरूरत है कि समय की जो धारा है, उस धारा में सब चीजें बनेंगी, मिटेंगी। जो तत्व है, सदा से है और सदा है वह समय है। महाबीर आत्मा को समय का नाम इसलिए भी देना चाहते हैं क्योंकि वही तत्त्व शाश्वत, सनातन, अनादि, अनन्त सदा से और सदा रहने वाला है। सब माएगा, जाएगा। वही भर सदा रहने वाला है। इस कारण भी वह आत्मा को समय का नाम देते हैं। और इस कारण से भी कि आम तौर से हमें ख्याल में नहीं है यह बात कि महावीर की दृष्टि इस सम्बन्ध में भी बहुत गहरी गई है। आम तौर से हम समय के तीन विभाग करते हैं : अतीत, वर्तमान और 'भविष्य। लेकिन यह विभाजन बिल्कुल गलत है। अतीत सिर्फ स्मृति में है और कहीं भी नहीं। और भविष्य केवल कल्पना में है और कहीं भी नहीं। है तो सिर्फ वर्तमान । इसलिए समय का एक ही अर्थ हो सकता है : वर्तमान । जो है वही समय है । लेकिन अगर कोई पूछे कितना है वर्तमान हमारे हाथ में तो क्षण का कोई लाखों हिस्सा भी हमारे हाथ में नहीं है। जो क्षण का अन्तिम हिस्सा हमारे हाथ में है, उसको महावीर समय कहते हैं । जैसे कि पदार्थ को वैज्ञानिकों ने तोड़कर अन्तिम परमाणु पर ला दिया है और अब परमाणु को भी तोड़ कर इलैक्ट्रोन पर ला दिया है । इलैक्ट्रोन वह हिस्सा है जो अन्तिम खण्ड है, जिसके आगे और खन्ड सम्भव नहीं है। क्योंकि वैज्ञानिक पदार्थ का विश्लेषण कर रहा है, इसलिए उसने पदार्थ के अन्तिम खण्ड को पकड़ने की कोशिश की है। और महावीर चेतना का विश्लेषण कर रहे हैं, इसलिए उन्होंने चेतना के अन्तिम खण्ड अणु को पकड़ने की कोशिश की है। उस अन्तिम अणु का माम 'समय' है। 'समय' एक विभाजन है वर्तमान क्षण का जो हमारे हाथ में होता है। लेकिन वह छोटा हिस्सा है। जैसे अणु दिखाई नहीं पड़ता है, परमाणु 'दिखाई नहीं पड़ता है, ऐसे ही क्षण का वह हिस्सा भी हमारे बोध में नहीं आ पाता। जब वह हमारे बोध में आता है तब तक वह जा चुका होता है। तो इतना बारीक हिस्सा है, इतना छोटा टुकड़ा है कि जब हम जागते हैं तब तक यह जा चुका होता है। यानी हमारे होश से भरने में भी इतना समय लग जाता है कि समय जा चुका है । जैसे इस क्षण हमारे हाथ में क्या है। अतीत नहीं, वह जा चुका। भविष्य अभी भाषा नहीं। दोनों के चोच में एक बारीक वाल के हजारवें हिस्से का छोट सा टुकड़ा हमारे हाथ में होगा। लेकिन वह इतना छोटा टुकड़ा है कि जब हम बोष से भरेंगे उसके Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि प्रति कि यह रहा वर्तमान तब तक वह जा चुका है, तब तक वह बतीत हो चुका है। ____ तो महावीर आत्मा को 'समय' इस अर्थ में भी कह रहे है कि जिस दिन आप इतने शांत हो जाएं कि वर्तमान आपकी पकर में ना पाए, उस दिन आप सामायिक में प्रवेश कर गए। इसका मतलब यह हुमा कि इतना शांत चित्त चाहिए, इतना शांत, इतना निर्मल कि वर्तमान का जो कण है बत्यल्प, छोटा सा कण, वह भी झलक जाए। अगर वह भी झलक जाए तो समझना चाहिए कि हम सामायिक को उपलब्ध हुए। यानी समय के अनुभव को उपलब्ध हुए, समय को हमने जाना, देखा और अनुभव किया। अब तक हमने समय को अनुभव नहीं किया है। हम कहते हैं कि हमारे पास घड़ी है। हम समय नापते भी है। हम बताते भी हैं कि इस समय इतना बजा है। लेकिन जब हम कहते हैं-"इतना बजा है, वह बज चुका है।" जब हम कहते हैं कि इस वक्त आठ बजा है जितनी देर में हमने यह कहा कि आठ बजा उतनी देर में आठ बज चका। बड़ी आगे जा चुकी। जरा कण भी सरक गई, आगे हो गई। यानी हम जब भी कुछ कह पाते हैं, अतीत का ही कह पाते हैं। जब भी पकड़ पाते हैं, अतीत को ही पकड़ पाते हैं । ठीक वर्तमान हमारे हाथ से चूक जाता है। और अतीत कल्पना स्मृति है सिर्फ । वह है नहीं यहाँ। है वर्तमान । जो है, अस्तित्व जो है, वह अभी एक समय का है। और उस एक समय का हमें कोई बोध नहीं क्योंकि हम इतने व्यस्त हैं, इतने उलझे और मशांत है कि उस छोटे से क्षण की हमारे मन पर कोई छाप नहीं बन पाती । न हमें वह दिखाई पड़ता है। उससे हम चुकते ही चले जाते हैं। समय से निरन्तर चूकते चले जाते हैं । तो हम अस्तित्व से परिचित कैसे होंगे, क्योंकि जो अस्तित्व है समय भी वही है, बाकी सब या तो हो चुका या अभी हुमा नहीं। जो है, उससे ही प्रवेश करना होगा। और उसका हमें बोष ही नहीं हो पाता, उसे हम पकड़ ही नहीं पाते। तो महावीर इसलिए भी आत्मा को समय कहते हैं कि तुम आत्मा को उपलब्ध तब हुए जब तुम समय का दर्शन कर लो। उसके पहले तुम आत्मा को उपलब्ध नहीं हो। क्योंकि जब तुम अस्तित्व का ही अनुभव नहीं कर पाते तो तुम्हारे अस्तित्व का मतलब क्या है ? आत्मा तो सबके भीतर है सम्भावना की तरह, सत्य की तरह नहीं। जैसे एक बीज में छुपा हुआ है वृत-एक सम्भावना की तरह, सत्य की तरह नहीं। बीज वृक्ष हो सकता है। हम भी आत्मा हो सकते हैं । जब हम कहते हैं कि सबके भीवर Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ मात्मा है तो उसका मतलब सिर्फ इतना है कि हम भी आत्मा हो सकते है, अभो है नहीं। और हम उसी क्षण मात्मा हो जाएंगे जिस दिन अस्तित्व आमने-सामने हमारे हो जाएगा, उसी क्षण जब हम अस्तित्व को देखने, जानने, पहचानने में समर्थ हो जाएंगे। उसके पहले हम अस्तित्ववान् नहीं है। इसे दूसरी तरह भी समझा जा सकता है : अतीत और भविष्य मन के हिस्से हैं, वर्तमान आत्मा का हिस्सा है। मन हमेशा अतीत और भविष्य में रहता है, पीछे या आगे। यहां, इसी वक्त, अभी, अब ऐसी कोई चीज मन में नहीं होती। मन संग्रह है अतीत का और भविष्य की योजनाओं का । मन जीता है अतीत और भविष्य में । अतीत और भविष्य के बीच में एक अत्यन्त सूक्ष्म रेखा है जो दोनों को तोड़ती है। वह वर्तमान है। और वह इतनी बारीक है कि उस बारीक रेखा के अनुभव के लिए हमें अत्यन्त शांत होना जरूरी है। . जरा सा कम्पन हुआ कि हम चूक जाएंगे। जरा सा भी कम्पन हुमा भीतर कि निकल जाएगी रेखा। हमारा कम्मन उसे पकड़ नहीं पाएगा। इसलिए प्रकम्प चेतना जिस दिन हो जाए, तब समय के भरण का छोटा सा दर्शन भी हमें होगा। वह दर्शन हमें अस्तित्व में उतार देता है यानो ऐसा समझें कि वर्तमान का क्षणही द्वार है अस्तित्व में प्रवेश का ब्रह्म में प्रवेश कहे, सत्य में प्रवेश करें, मोक्ष में प्रवेश कहें, कुछ भी कहें, वर्तमान के क्षण से हम प्रविष्ट होते हैं। वही है द्वार। और वह चूक-चूक जाता है। एक कहानी मैंने सुनी। एक अंधा आदमी एक बड़े भारी राजभवन में भटक गया है। बड़ा हे भवन ! हजारों द्वार है उस भवन में । लेकिन एक ही बार खुला है। सब द्वार बन्द है। वह अंधा आदमी द्वारों को टटोलता. टटोलता भटक रहा है कि शायद कोई द्वार खुला मिल जाए। बस पहुंचाना रहा है खुले द्वार के करीब। ऐसे हजारों द्वार टटोलता-टटोलता वह पक गया है। और जब वह ठीक उस द्वार पर पहुंचा है जो खुला है तो उसे सुजान उठ गई है। उसने माथे पर खुजाया है और वह द्वार फिर चूक गया है। अब फिर हजारों द्वार है और वह फिर टटोल रहा है। मीलों के चक्कर के बाद वह फिर उस हार पर बाया है लेकिन इसना थक गया है टटोलते टटोलते कि उसने टटोलना बन्द कर दिया है। वह कर गया है। वह टटोलना छोड़ देता है। नासिर है भी वह द्वार कि नहीं। लेकिन इतने में वह बार फिर निकल गया है। लेकिन क्या करेगा अंबा आदमो ? निकलना है तो कने या न गये। फिर २० Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि टटोलना शुरू करता है। ऐसे वर्षों बीत जाते हैं और वह अन्धा आदमी बारगार उस खुले द्वार के पास से माकर चूक जाता है। यह एक कहानी है। हजारों जन्मों तक हम समय के द्वार को टटोलते हुए धूम रहे है कि कहाँ से द्वार मिल जाए मोक्ष का, कहाँ से द्वार मिल जाए जीवन का, कहां से द्वार मिल जाए आनन्द का। टटोलते माते हैं मगर या तो हम बन्द द्वार टटोलते हैं जो अतीत के है जो बन्द हो चुके हैं या हम भविष्य के द्वार टटोलते हैं जो है ही नहीं। जो है नहीं उनको हम टटोल नहीं सकते; जो नहीं हो गए हैं उनको भी हम टटोल नहीं सकते। लेकिन एक द्वार जो खुला है वर्तमान का, वह बार-बार चूक जाता है। उस वक्त या तो हम माथा खुजाने लगते हैं या कुछ और करने लगते हैं और वह चक जाता है। मतलब यह कि जब भी उस द्वार पर हम बाते हैं, हम किसी और चीज में व्यस्त होते हैं । वर्तमान के क्षण में हम सदा व्यस्त हैं, इसलिए चूक जाते हैं । इसलिए सामायिक का अर्थ है अव्यस्त होना। कुछ भी नहीं कर रहे हैं, कुछ भी नहीं सोच रहे है तो ही उस समय को हम पकड़ पाएंगे क्योंकि हम कुछ कर रहे हैं तो चूक जाएंगे। उतनी देर में तो वह निकल गया। वह निकलता हो चला जा रहा है। महावीर ने यह नाम बड़े गहरे प्रयोजन से दिया है। वह तो यही कहने लगे कि समय ही आत्मा है और समय को जान लो, समय में खड़े हो जाआ. समय को पहचान लो और देख लो तो तुम अपने को देख लोगे, अपने को . पहचान लोगे । लेकिन समय को जानना ही बहुत मुश्किल बात है । सबसे ज्यादा कठिन है वर्तमान में खड़े होना क्योंकि हमारी पूरी आदत या तो पोछे होने की होती है या मागे होने की होती है। एक आदमी को पूछो कि तुम क्या कर रहे हो। या तो तुम उसे अतीत में पामोगे, या भविष्य में पाओगे । या तो वह उन दृश्यों को देख रहा है जो आ चुके हैं या उन दृश्यों की सोच रहा है जो आएंगे। लेकिन शायद ही कभी किसी व्यक्ति को पाओगे कि वह कहे कि मैं कुछ भी नहीं कर रहा हूँ। ऐसा आदमी नहीं मिलेगा। ऐसा आदमी मिल जाए तो समझना कि वह सामायिक में था उस वक्त । उस क्षण में वह कहीं भी व्यस्त नहीं था। बस पा। जब हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं, बस है, कुछ भी नहीं कर रहे हैं, मंत्र भी नहीं जप रहे हैं, खास भी नहीं देख रहे हैं, सामायिक में है। जिसे मैं खास देखने के लिए कहता हूँ वह सामायिक नहीं है। वह सिर्फ इसलिए कह रहा कि जिससे आपकी व्यर्थ को दूसरी व्यस्तताएं छूट जाएँ। एक हो व्यस्तता रह जाए कम से कम तब मैं कहूंगा कि इससे भी छलांग लगा जाएं। इतनी Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन ३०७ बहुत सी व्यस्तताएं टूट गई। एक ही व्यस्तता रह गई कि स्वांस ही देखना है । अब यह ऐसी व्यस्तता है कि न इससे कोई धन कमाई का उपाय है, न इससे कोई लाभ है । यह एक ऐसी व्यस्तता है जिससे छलांग लगाने में कठिनाई नहीं पड़ेगी । यह एक ऐसी व्यर्थ व्यस्तता है कि अगर आप सबसे छूट गए तो इससे छूटने में देर नहीं लगेगो । जैसे मैं कहूँगा 'छोड़ें !' हो ये कि अब इसको छोड़ें। यह अभो सामायिक नहीं है । यह सामायिक के पहले की सोढ़ी हैं- सिर्फ छलांग लगाने को । जैसे नदी का किनारा है । वहाँ ता लगा हुआ है जिस पर खड़े होकर छलांग लगाई जाती है । अगर आप यहाँ पहुँच गए हैं तो अब एक ही छलांग में आप सागर में पहुँच सकते हैं । आप तो तैयार जब तक हम कुछ भी कर रहे हैं तब तक हम चूकते जाएंगे वर्तमान से । जब हम कुछ भी नहीं करते तब हम उतर जाएंगे। लेकिन यह हमारी समझ से एकदम बाहर हो जाता है कि कोई ऐसा मौका भी हमें मिले जब हम कुछ भी नहीं कर रहे, बस हैं । और अगर यह समझ में आ जाए तो कोई कठिनाई नहीं है । इसमें क्या कठिनाई है कि कुछ क्षगों के लिए आप 'बस' हो जाएँ और कुछ न करें ? कमरे में पड़े हैं, कोने में टिके हैं, सिर्फ हैं । कुछ भी नहीं कर रहे हैं। बस हैं । आखिर होना इतना कठिन क्या है ? वृक्ष हैं, पत्थर हैं, पहाड़ हैं, चांद-तारे हैं, सब हैं और शायद वे इसलिए सुन्दर हैं कि समय में कहीं गहरे डूबे हुए हैं । हम शायद इसीलिए इतने कुरूप हैं, इतने परेशान, चिन्तित, दुखी और हैरान है क्योंकि समय से भागे हुए हैं, समय के बाहर छिटक गए हैं । जैसे जीवन के मूल स्रोत से कहीं सटका लग गया है, कहीं और हैं । जड़ें उखड़ गई हैं, हम क्रियाएं हैं जो हमारी शरीर की क्रियाओं दो तरह की क्रियाएँ हैं । एक तो हमारे शरीर की निद्रा में शिथिल हो जाती हैं, बेहोशी में बन्द हो जाती हैं। को रोकना बहुत कठिन नहीं है । शरीर की क्रियाओं से कोई गहरी बाधा नहीं है। उसके भीतर हमारे मन की क्रियाएं हैं । वही हैं असली बाषाएँ क्योंकि वही हमें समय से चुकाती हैं। शरीर नहीं चुकवाता हमें समय से । शरीर का अस्तित्व तो निरन्तर वर्तमान में है। यह ध्यान रहे कि लोग आम तौर पर -साधक होने को स्थिति में शरीर के दुश्मन हो जाते हैं जबकि शरीर बेचारे को कोई दुश्मनो ही नहीं है । शरोर तो निरन्तर समय में है। शरीर तो एक चण भो न अतीत में जाता, न भविष्य में जाता है। शरीर नहीं है नहीं है। शरीर ने कभी भी किसी आदमी को नहीं भटकाया है बाड़ तक । भटकता Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४. महावीर : मेरी दृष्टि में चरित्र है । वहाँ नीति की पकड़ गहरी है। वहाँ अभिनय भारी है। लेकिन कृष्ण के मामले को हम कहते हैं-'लीला।' क्योंकि वहाँ चीजें तरल है। पकड़ नहीं है। सब खेल है। और भीतर एक आदमी बाहर खड़ा है जो खेल के बिल्कुल बाहर है। क्या ऐसा कर सकते हैं आप कि क्षण भर खेल के बाहर उतर आएं, वे वस्त्र उतार दें जो नाटक के मंच पर पहने थे, वे चेहरे भी निकाल दें, वह मेकअप भी हटा दें जो काम करता था मंच पर, और खाली घर लोट पाएँ जैसे आप हैं ? ऐसा अगर कर सकें तो इसके पहले हिस्से का नाम प्रतिक्रमण है-इस लौटने का नाम । दूसरे का नाम है सामायिक जब आप अपने में ठहर गए हैं, जैसे झींगुर बोल रहा है, वृक्षों में पत्ते लग रहे हैं, आकाश में चांद की किरणें गिर रही हैं, ऐसा ही किसी क्षण में आप कुछ कर नहीं रहे हैं, जो हो रहा है हो रहा है। स्वांस चल रही है चल रही है, आप चला नहीं रहे हैं। आंख झपक रही है सपक रही है, आप झपका नहीं रहे हैं। पर थक गया है, हिल गया है, आपने हिलाया नहीं है । और आप बिल्कुल ऐसे हो गए हैं जैसे हैं ही नहीं। उस क्षण में आपको पता चल सकेगा कि मैं कौन हूं, मेरी आत्मा क्या है, मेरा अस्तित्व क्या है और एक बार इसका पता चल जाए तो फिर जीवन दूसरा होगा; फिर जीवन वही कभी नहीं होगा जो था। इसे हम दो चार उदाहरणों से समझाने की कोशिश करें। तिब्बत में एक फकीर हुआ है माप। वह अपने गुरु के पास गया। गुरु. लेटा हुया है। वह गुरु से कहता है : आप इस समय क्या कर रहे हैं ? गुरु कहता है : किसी समय मैंने कुछ नहीं किया। मार्पा कहता है : कुछ तो कर हो रहे होगें ? बिना किए कैसे हो सकते हैं ? गुरु कहता है : करने वाला कभी हुआ है ? किया कि गए । नहीं किया कि पाया। मार्पा कहता है कि कुछ समझ में नहीं आया। गुरु कहता है : तुम समझने की कोशिश कर रहे हो इसलिए समझ में कैसे आए ? समझने की कोशिश न करो। देखो, जानो और पहचानो। . एक जर्मन विचारक है हैरीगेल । वह जापान गया। वहां उसने बहुत सी तरकीबें खोजी जिनके माध्यम से वह 'सामायिक' में ले जाना सिखाते हैं । उनमें फूल जमाने की कला भी एक है जिससे आप ध्यान को उपलब्ध हो जाते हैं। जिस दिन फूल जमाने की कला में कोई निष्णात हो जाता है, गुरु पूछता है। जब वह कहता है कि बहुत अच्छे जमाए फूल तो उसका गुरु कहता है उससे : ऐसा मत कह, तू कह कि फूल जम गए, मैंने कुछ किया नहीं है, फूल से जमना Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाहते थे। मैंने फूल जमाए नहीं। मेरा उन्होंने उपयोग ले लिया और फूल जम गए । तो फूल जमाने से भी सिखाते हैं, तलवार चलाने से भी सिखाते हैं, तीर चलाने से भी सिखाते हैं। हैरीगेल जिस गुरु के पास गया वह धनुविधा से ध्यान सिखाता था। तीन साल तक हैरीगेल ने धनुर्विद्या सीखी। उसके निशाने अचूक हो गए। लेकिन गुरु रोज कहता है : नहीं, अभी कुछ भी नहीं हुआ है। तो हैरीगेल कहता है कि मैं परेशान हो गया तीन साल मेहनत करते-करते । मेरा एक निशाना भी नहीं चूकता है और आप कहते हैं : कुछ नहीं हुआ है। गुरु कहता है : निशाने से लेना-देना क्या है ? अभी तीर तू चलाता है, वह चलता नहीं है। निशाने से क्या मतलब ? निशाना लगे न लगे यह गौण बात है। और निशाना क्यों न लगेगा? निशाना लगेगा। निशाने से कुछ लेना-देना नहीं है। लेकिन तू तीर चलाता है, तोर अभी चलता नहीं। तीन साल परेशान हो गया हैरीगेल । जो भी देखने आता, वह कहता हैरोगेल अद्भुत हो तुम ! उसका कोई निशाना नहीं चूकता लेकिन उसका गुरु रोज कह देता 'नहीं, अभी कुछ नहीं हुआ है।' आखिर थक गया है हैरीगेल । और उसने कहा : अब जमा करें। अब मैं लौट जाऊं। लेकिन गुरु ने कहा : सर्टिफिकेट नहीं दे सकूँगा। इतना लिख सकता हूँ कि तीन साल मेरे पास रहा लेकिन असफल लौटता है। वह कहता है कि सब निशाने ठीक लगते हैं। गुरु ने कहा निशाने से हमें कोई मतलब ही नहीं। हम तुझे देख रहे हैं । दूही ठीक नहीं है क्योंकि तू बभी तक ऐसा नहीं हो पाया है कि तीर चले । अभी दू तीर चलाता है। हैरीगेल पश्चिमी आदमी है। उसकी समझ से बाहर है बिल्कुल ही यह बात । वह लिखता है अपनी किताब में : मेरो समच के ही बाहर है कि तीर चलेगा ही कैसे जब तक मैं न चलाऊंगा। यह निपट बकवास मालूम पड़ती है कि तीर अपने आप बजे। और वह कहता है ऐसा चलाओ जैसा कि तुमने न चलाया हो। बस तीर चल जाए । तुम बीच में मत आमओ, तुम क्रिया मत बनो, तुम कर्ता मत बनो। थक गया वह । आखिर तीन साल बाद उसने कहा कि मैं कल टिकट बुक करवा आया हूँ । मैं वापस जा रहा हूँ। गुरु ने कहा : जैसी तुम्हारी मर्जी। दूसरे दिन सांझ को हवाई जहाज चलना है। सुबह वह अन्तिम बिदा लेने गुरु के पास जाता है। गुरु दूसरे शिष्यों को तीर चलाना सिखाता रहा है। हैरीगेल एक बेंच पर बैठ गया है। उसके गुरु ने तोर उठाया है। तीर चलाया है। हरीमेल एकदम से खड़ा हो गया है। गया है गुरु के पास विना बोने । धनुष हाथ में लिया है। तोर पलाया है। गुरु ने कहा मैक: वीर चल गया। हरीगेल ने Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ महावीर : मेरी दृष्टि में : कहा : लेकिन इतने दिन से क्यों नहीं हो सका । उसने कहा तू इतने दिन से कोशिश में लगा रहा। आज तू कोशिश में नहीं था। आज तू ऐसे आकर बैठा था कि विदा लेनी है । हैरीगेल ने कहा : 'हीं, में आज तक देख ही नहीं सका आपको । आज मैंने पहली दफा देखा कि तीर चल रहा है और आदमी मौजूद नहीं है। फिर में उठा । मैं यह भी नहीं कह सकता कि क्यों उठा ? उठ गया । तीर हाथ में आ गया । तीर चल गया।' गुरु ने कहा : अब मैं तुझे लिखकर दे सकता हूँ। वैसे एक ही दिन काफी है। बात खत्म हो गई । तुझे समझ में आ गया फर्क । न हम कर्ता हैं, न हम अकर्ता हैं । एक क्षण भी अकर्ता हो जाएं तो बात खत्म हो गई। एक क्षण श्रकर्ता का ही 'सामायिक' का क्षरण है । एक और घटना मुझे याद आती है । चीन में एक हुईहाई फकीर हुआ। वह अपने गुरु के पास जाकर कहता है कि मुझे मोक्ष पाना है, सत्य पाना है । गुरु कहता है : जब तक पाना है तब तक कहीं और जा । जब पाना न हो तब मेरे पास आना । उसने कहा जब मुझे पाना नहीं होगा तो मैं आपके पास क्यों आऊंगा ? गुरु कहता है : 'मत आना ।' लेकिन जब तक पाना है तब तक मुझसे क्या 'लेना-देना' क्योंकि पाने की भाषा तनाव की भाषा है। जब तक तू कहता है : 'पाना है तो पाना होगा भविष्य में । तू होगा आज में। और तेरा मन खिचेगा भविष्य तक । तनाव हो जाएगा' । वह गुरु से पूछता है : आप कुछ पाने के लिए नहीं करते ? गुरु कहता है 'नहीं, जब तक हम पाने के लिए करते थे नहीं पाया । जिस दिन पाना छोड़ दिया, उस दिन पा लिया। मेरे बूढ़े गुरु ने मुझसे कहा था कि 'खोजो और खो दोगे । मत खोजो, और पा लो ।' तब में भी नहीं समझता था कि मामला क्या है 'मत खोजो और पा लो ।' 'खोजोगे और खो दोगे ?' गुरु ने जब मुझसे कहा था तो मैंने कहा कि यह तो बिल्कुल पागलपन की बात है । खोजेंगे नहीं तो पाएंगे कैसे गुरु ने मुझसे कहा था कि तुम खोजते हो इसीलिए खो रहे हो क्योंकि जिसे तुम खोजते हो उसे तुम पाए ही हुए हो । एक क्षरण तुम सोज को रोको, दोड़ को रोको, ताकि तुम देख सको कि : ? तुम्हें क्या मिला हुआ है। तो गुरु ने कहा: 'मैं भी तुझसे कहता हूँ कि जब तक पाना हो तू कहीं और खोज ले। और जब न पाना हो तब आ जाना । वह युवक कई आश्रमों में भटकता फिरा । कई जगह खोज की। थक गया, परेशान हो गया, कहीं कुछ मिला नहीं, कहीं कुछ पाया नहीं । थका-मांदा वापस लौटा। तब गुरु ने पूछा : 'क्या इरादे हैं । और खोजो ?' वह कहता है : Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ नहीं मैं बहुत थक गया । कुछ खोजना नहीं है । विश्राम के लिए आया हूँ । तब गुरु ने कहा : आओ, स्वागत है । कभी-कभी जो श्रम से नहीं मिलता है, विश्राम में मिल जाता है । प्रवचन - १० न भूत में जाना, न भविष्य में जाना, न कुछ पाना, न कहीं कुछ खोजना, बस जहाँ है वहीं रह जाना, नहीं तो सम्पूर्ण उमर बीत जाती है । बुद्ध को जिस दिन उपलब्धि हुई, उस दिन सुबह उनसे लोगों ने पूछा : 'आपको क्या मिला ?" बुद्ध ने कहा : मिला कुछ भी नहीं । जो मिला ही हुआ था, वही मिल गया । कैसे मिला ? बुद्ध ने कहा 'कैसे, की बात मत पूछो। जब तक कैसे की भाषा में मैं सोचता था, तब तक नहीं मिला। क्योंकि जो मिला ही हुआ था, उसको मैं खोजता था । फिर मैंने सब खोज छोड़ दी । और जिस क्षण मैंने खोज छोड़ी, पाया कि जिसे मैं खोजता था वह है हो । असल में स्वभाव का, स्वरूप का मतलब है जो है ही । खोज का मतलब है वह जो नहीं है, उसे हम खोज रहे हैं । इसलिए जब कोई आदमी आत्मा को खोजने लगता है तब वह पागलपन में लग गया है। क्योंकि आत्मा को कौन खोजेगा ? कैसे खोजेगा ? वह तो हैं ही हमारे पास । जब हम खोज रहे हैं तब भी, जब नहीं खोज रहे हैं तब भी । फर्क इतना ही पड़ता है कि अब खोजने में हम उलझ जाते हैं, चूक जाते हैं । नहीं खोजते हैं-दिख जाता है, मिल जाता है, उपलब्ध हो जाता है । यह बात ठीक से रूपाल में आ जानी चाहिए कि सामायिक है प्रप्रयास अ-खोज, कोई लक्ष्य नहीं है जो भविष्य में है, यह भी अभी, और यहीं, अगर हम लक्ष्य को खोजते हुए भटकते रहे तो हम चूकते चले जाएँगे, अनन्त जन्मों तक, अगर आप इसी क्षण में हो सकते है, और कुछ भी नहीं करते तो आप वहीं पहुँच जाएँगे जहाँ महावीर सदा से खड़े हैं। लेकिन हमारा मन वही प्रश्न बार-बार उठाए जाता है : कैसे करें ? क्या करें, कहाँ जाएँ ? कहाँ खोजें ? जो नहीं जानते हैं वे कहेंगे उसे जो खोजने की इच्छा कर रहा है 'खोजो ।' जो जानते हैं कहेंगे : और कहीं मत खोजो, जहाँ से प्रश्न उठा है, वहीं उतर जाओ । वे कहेंगे कि जहाँ यह जो भीतर पूछ रहा है कि आत्मा को कैसे पाएँ, मोक्ष को कैसे पाएं, इसी में उतर जाओ। और इसी में उतरने से मोक्ष मिल जाएगा, आत्मा मिल जाएगी । यही है आत्मा; यही है मोक्ष। लेकिन कहीं कुछ मनुष्य के चित्त की पूरी यांत्रिकता में कुछ बुनियादी भूल है कि जाता है। एक बारीक सी बात उसके ख्याल में नहीं आ पाना है, वह मुझे किसी न किसी अर्थ में मिला ही हुआ है । अगर यह स्पष्ट रूप वह चूकता ही चला पाती कि जो मुझे Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में से स्याल में आ जाए तो दूसरी बात ख्याल में आ जाएगी कि हमें मम से नहीं पाना है इसे, विधाम में पाना है। तब यह भी समझ में आ जाएगा कि पाने की भाषा ही गलत है। जो पाया ही हुआ है उसका माविष्कार कर लेना है। इसलिए आत्मा उपलब्ध नहीं होता सिर्फ आत्म-आविष्कार होता है। कुछ ढंका हुआ था, उसे उघाड़ लिया है। और ढंका है हमारी खोज करने की प्रवृत्ति से; उका है हमारे और कहीं होने को स्थिति से। हम कहीं और न हों तो उघड़ जाएगा, अपने से उघड़ जाएगा, अभी उघड़ जाएगा। सामायिक न तो कोई क्रिया है, न कोई अभ्यास है, न कोई प्रयत्न है, न कोई साधना है, न कोई साधन है। में एक छोटी सी घटना से समझा दूं। मुछाला महावीर में पहला शिविर हुमा। राजस्थान की एक वृद्ध महिला भूरबाई भी उस शिविर में आई। उसके साथ उसके कुछ भक्त भी आए। फिर जब भी मैं राजस्थान गया हूँ, निरन्तर प्रतिवर्ष हर जगह भूरबाई माती रही साथ कुछ लोगों को लेकर । सैकड़ों लोग पूजा करते हैं उसकी। सैकड़ों लोग पैर छूते हैं, सैकड़ों लोग उसे मानते हैं। और वह एक निपट साधारण, ग्रामीण स्त्री है। न कुछ बोलती, न कुछ बताती। लेकिन लोग पास बैठते हैं, उठते हैं, सेवा करते हैं और चले जाते हैं। ज्यादा से ज्यादा वह प्रेम करती है लोगों को। उनको खिला देती है, उनकी सेवा कर देती है और उनको बिदा कर देती. है लेकिन फिर भी, सैकड़ों लोग उसको प्रेम करते हैं, उसके पास आते है। तो वह आई। पहले दिन ही सुबह की बैठक में मैंने समझाया कि ध्यान क्या है जैसे अभी आप से कहा कि 'सामायिक' क्या है और कहा कि ध्यान करना नहीं है, 'न करने में दूब जाना है। उस भूरबाई के पास एक व्यक्ति पच्चीस वर्षों से उसकी सेवा करते हैं। वह कभी हाईकोर्ट के वकील थे। फिर सब छोड़ कर वे भूरबाई के दरवाजे पर बैठ गए। उसके कपड़े धोते, उसके पैर दबाते और आनन्दित हैं। वह भी आये थे। जब सांश को सब ध्यान करने भाए तो उन सज्जन ने मुझे आकर कहा कि बड़ी अजीब बात है । भूरबाई को हमने बहुत कहा कि ध्यान करने चलो। वह खूब हंसती है। जब हम उससे बार-बार कहते हैं तो वह कहती है कि तुम जाओ। और जब हम नहीं माने तो उसने कहा कि तुम जाओ यहाँ से, तुम ध्यान करो। तो उसने मुझे आकर कहा कि मुझे बड़ी हैरानी हुई कि हम आए किसलिए। वह तो आती नहीं कमरे को छोड़ कर । मैं घर माया कि Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-१० ३१९ उसने दरवाजा बंद कर लिया। मैंने कहा कि कल जब वह सुबह आए तो उसके सामने ही मुझसे पूछना। सुबह वह बुढ़िया आई और मेरे पैर पकड़कर हंसने लगी और कहने लगी: रात बड़ा मजा हुआ। आपने सुबह कितना समझाया कि ध्यान करना नहीं है और हमारा यह वकील कहता है : ध्यान करने चलो। तो मैंने उससे कहा कि तू जल्दी से जा यहाँ से क्योंकि करने वाला रहेगा तो कुछ न कुछ गड़बड़ करेगा। तू जल्दी से जा यहाँ से । तू ध्यान कर। और जैसे ही यह बाहर आया, मैंने दरवाजा बंद कर लिया और मैं ध्यान में चली गई। और आपने ठीक कहा। 'करने से नहीं हुआ। वर्षों तक नहीं हुमा करने से और कल रात हुआ क्योंकि मैंने कुछ नहीं किया। बस में पड़ गई, जैसे मर गई हूँ। पड़ी रही, और हो गया। और यह कहता था ध्यान करने चलो। यह इधर ध्यान करने आया और मैं उधर ध्यान में गई और यह चूक गया। आप इसको समझामो कि वह करने की बात भूल जाए। करने की बात हमें नहीं भूलती, किसी को भी नहीं भूलती। इसलिए मुझे भी समझने में आप निरन्तर चूक जाते है कि मैं क्या कह रहा हूँ। महावीर को समझने में भी लोग निरन्तर चूके हैं कि वे क्या कह रहे है। • एक छोटी सी घटना है। लाओत्से एक जंगल से गुजर रहा है। उसके साथ उसके कुछ शिष्य हैं। किसी राजा का महल बन रहा है और जंगल में -हर वृक्ष की शाखाएं काटी जा रही है, तने काटे जा रहे हैं, लकड़ियां काटी जा रही हैं । पूरा जंगल कट रहा है। सिर्फ एक वृक्ष है बहुत बड़ा जिसके नीचे हजार बैलगाड़ी ठहर सकती हैं। उस वृक्ष की किसी ने एक शाखा भी. नहीं काटी है। लामोत्से ने अपने शिष्यों से कहा कि जरा जामो, उस वृक्ष से पूछो कि इसका रहस्य क्या है । जब सारा जंगल कट रहा है तो यह वृक्ष कैसे बच गया है। इस वृक्ष के पास जरूर कोई रहस्य है। जाओ, जरा वृक्ष से पूछ कर आओ। शिष्य दरख्त का चक्कर लगा कर आते है और लोट कर कहते हैं कि हम चक्कर लगा आए मगर वृक्ष से क्या पूछे ? यह बात जरूर है कि वृक्ष बड़ा भारी है, किसी ने नहीं काटा. उसे । बड़ी छाया है उसकी, बड़े पत्ते हैं उसके। बड़ी दूर से मा आकर पक्षी विश्राम करते है। हजारों बैलगाड़ियां नीचे ठहर सकती है। लामोत्से ने कहा तो भामो, उन लोगों से पूछो जो दूसरे वृक्षों को काट रहे है कि इसको क्यों नहीं काटते । रहस्य जरूर है उस वृक्ष के पास। तो गए हैं और एक बढ़ई से उन्होंने पूण-है कि तुम इस वृक्ष को क्यों नहीं काटते। उस बढ़ई ने कहा है Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० महावीर : मेरी दृष्टि मैं वृक्ष की भांति हो । कि इस वृक्ष को काटना मुश्किल है। यह वृक्ष बिल्कुल लाओत्से की भांति है तो उसके शिष्यों ने कहा कि हम लाओत्से के शिष्य हैं तब बढ़ई ने कहा यह वृक्ष लाओत्से की भाँति है, बिल्कुल बेकार है, किसी काम का नहीं, लकड़ी कोई सीधी नहीं, सब तिरछी हैं, किसी काम में नहीं आतीं, जलाओ तो धुंआ देती हैं । इसे काटे भी कौन ? इसलिए बचा हुआ है । वे लौटे । उन्होंने लौटकर कहा बड़ी अजीब बात हुई । बढ़ई ने कहा है कि लाओत्से की भाँति है यह वृक्ष | लाओत्से ने कहा : बिल्कुल ठीक इसी जाओ । न कुछ करो, न कुछ पाने की कोशिश करो। क्योंकि जिन वृक्षों ने सीधा होने की कोशिश की, सुन्दर होने की कोशिश की, कुछ भी बनने की कोशिश की उनकी हालतें देख रहे हो । एक भर वह वृक्ष है जिसने कुछ भी बनने की कोशिश नहीं की, जो हो गया हो गया, तिरछा तो तिरछा, माड़ा तो आड़ा, धुंआ निकलता है तो धुंआ निकलता है। देखो वह कैसा बच गया है - बिल्कुल लाओत्से जैसा । और ऐसे ही हो जाओ अगर बचना हो और बड़ी छाया पानी हो और तुम्हारी शाखाओं में बड़े पक्षी विश्राम करें और तुम्हें कभी कोई काटने न आए। फिर शिष्यों ने कहा कि हम ठीक से नहीं समझे कि बात क्या है। यह तो एक पहेली हो गई । वृक्ष से तो नहीं पूछ सके लेकिन जब आप कहते हैं कि मेरे ही भांति यह वृक्ष है तो हम आपसे ही पूछते हैं कि रहस्य क्या है ? तब लाओत्से ने कहा कि रहस्य यह है कि मुझे कभी कोई हरा नहीं सका क्योंकि में पहले से ही हारा हुआ था । मुझे कभी कोई उठा नहीं सका क्योंकि मैं सदा उस जगह बैठा जहां से कोई उठाने आता ही नहीं । मैं जूतों के पास ही बैठा सदा । मेरा कभी कोई अपमान नहीं कर सका क्योंकि मैंने कभी मान की कामना नहीं की। मैंने कुछ होना नहीं चाहा, न घनी होना चाहा, न यशस्वी होना चाहा, न विद्वान् होना चाहा, इसलिए मैं वही हो गया जो मैं है यानी कुछ और होना चाहता तो मैं चूक जाता । यह वृक्ष — ठीक कहते हैं वे लोग, मेरे जैसा इसने कुछ नहीं होना चाहा । इसलिए जो था, वही हो गया । और परम आनन्द है, वही ही जाना जो हम हैं, जो हम हैं उसी में हम जाना मुक्ति है, जो हम हैं उसी को उपलब्ध कर लेना सत्य है । सामायिक को अगर ऐसा जो सामायिक की जा रही है, नहीं आएगा । वे सब करने : देखेंगे तो समझ में आ जाएगा और मन्दिरों में अगर वहाँ समझने गए तो फिर कभी समझ में वाले लोग हैं। वे वहाँ भी सामायिक कर रहे हैं.... Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ भी व्यवस्था दे रहे हैं। मंत्र है, जप है, इन्तजाम है-सब कर रहे हैं। वह सब क्रिया है और क्रिया के पीछे लोग हैं। पयोंकि ऐसी कोई क्रिया ही नहीं जिसके पीछे लोग न हों, पाने की कामना न हो। स्वर्ग है, मोक्ष है, मात्मा है, कुछ न कुछ उन्हें पाना है। उसके लिए वे क्रिया कर रहे है। और जिसके भी पाने की आकांक्षा है, सब पा लें सिर्फ स्वयं को नहीं पा सकते । क्योंकि स्वयं को पाने की आकांक्षा से नहीं पाया जा सकता। पाने की सब बाबा स्वयं के बाहर ले जाती है। जब पाने की कोई आकांक्षा नहीं रखी तो नादमी स्वयं में वापस लौट आता है। यह जो वापिस लौट माना है और घर में ही ठहर जाना है, इसका नाम 'सामायिक' है। महावीर ने अद्भुत व्यवस्था की है उस 'अक्रिया' में उतर जाने की-होने मात्र में उतर जाने की। जिसको समझ में आ जाए उसे करने मात्र का सवाल नहीं है फिर। और जिसकी समझ में न. पाए वह कुछ भी करता रहे, उसे कोई फर्क पड़ने वाला नहीं। प्रश्न : मठतालीस मिनट का इसमें क्या हिसाब है? उत्तर : कुछ मतलब नहीं है। यहां मिनट का सवाल ही नहीं है। एक समब मर ठहर जाना काफी है। एक मष का वो हजारो हिला है, छाखवां हिस्सा है उसमें भी अगर तुम ठहर गए तो बात हो गई। परन : यह क्यों बनाए हैं सामायिक के? न्तर : सूत्र अनुयायी बनाते हैं और बांधते हैं। महावीर को कोई सम्बन्ध नहीं है इन सूत्रों से । असल में सदा ही यह कठिनाई रही है कि मनुवायी क्या करता है। यह बड़ा मुश्किल मामला है। वह जो कर सकता है करता है। और वह सब इन्तजाम कर देता है पूरा का पूरा। और उसमें जो महत्वपूर्ण था वह इन्तजाम में ही खो जाता है। और अनुयायी प्रेम से इन्तजाम करता है । वह कहता है कि सब व्यवस्थित कर दो। लोग पूछते है कि क्या करना चाहिए, कितनी देर करना चाहिए, कैसे करना चाहिए। कुछ इन्तजाम करें, नहीं तो लोग कैसे समझेंगे, सामान्य आदमी कैसे समझेगा। सामान्य पावनी के लिए अनुयायी इन्तजाम कर देता है। फिर वह इन्तजाम चलता है। बल का उससे कोई सम्बन्ध नहीं रह पाता। महावीर जैसे लोगों को समझना हो मुश्किल है। क्योंकि वह जो बार कह है, इतनी गहराई की है, और हम यहां खड़े है वह इतने वेपन में है बल्कि उपलेपन में भी तट पर खड़े हुए हैं और यहां के बोहमारी समय में . माता है, वह इबाम हम करते है। अनुगानी गरी व्यवस्या देखा है, और Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ महावीर : मेरी दृष्टि कुछ व्यवस्थापरक मस्तिष्क होते हैं जो सदा व्यवस्था देते रहते हैं। वह किसी भी चीज को व्यवस्थित कर देते हैं। कुछ चीजें ऐसी हैं जो व्यवस्था में ही मर जाती है। असल में जीवनबोध की कोई भी चीज व्यवस्था में ही मर जाती है। मेरा कहना है कि व्यवस्था मत देना। क्योंकि व्यवस्था दी तो जिनके समझ में भी कभी आ सकता था उनकी समझ में भी कभी नहीं आएगा फिर । इसलिए उसको अव्यवस्थित ही छोड़ देना। जैसा है वैसा ही छोड़ देना। प्रश्न-अगर करना हो 'सामायिक' तो क्या कहेंगे? सामायिक करेंगे या नहीं? . उत्तर-नहीं, बिल्कुल नहीं करेंगे। . उसका मतलब इतना है कि कुछ देर के लिए कुछ भी नहीं करना है। जो हो रहा है, होने देना है। विचार आते हैं, विचार आने दो। भाव आते है, माने दो। हाथ हिलते हैं, हिलने दो। करवट बदलना है, बदलने दो। सब होने दो। थोड़ी देर के लिए कर्ता मत रहो बस साक्षी रह जाओ। जो हो रहा है, होने दो; कुछ मत करो। जो व्यवस्था उत्पन्न होगी, वह सामायिक है। यानी सामायिक के लिए कुछ भी नहीं करना है। अगर आप कुछ भी न कर रहे हों थोड़ी देर तो हो ही जाएगा। सामायिक तब होगी जब आप बिल्कुल ही अप्रयास में पड़ेंगे। जैसे कभी आपने ख्याल किया हो किसी का नाम आपको भूल गया है और आप कोशिश कर रहे हैं याद करने की और वह याद नहीं आ रहा है, . फिर माप ऊब गए और थक गए और आपने कोशिश छोड़ दी और आप दूसरे काम में लग गए और अचानक वह नाम याद आ गया है। तो अब अगर कोई कहे कि हमें किसी का नाम भूल जाए और उसे याद करना हो तो हम क्या करें उससे हम यह कहेंगे कि कम से कम नाम याद करने की कोशिश मत करना। तो वह कहेगा कि हमको नाम हो तो याद करना है और माप यह क्या कहते है ? तो उससे हम कहेंगे कि नाम याद करने की कोशिश मत करना तो नाम याद मा जाएगा । और तुमने कोशिश की तो मुश्किल में पड़ जाओगे क्योंकि तुम्हारी कोशिय अशान्त कर देती है मस्तिष्क को। तो उसमें से जो जाना चाहिए वह भी नहीं आ पाता । मस्तिष्क सस्त हो जाता है। जुजुत्सू एक कला होती है युख की, लड़ाई की, कुरती की। बाम तौर से जब दो बारमियों को लड़ने के लिए हम सिखाते है, तो हम कहते हैं कि तुम दूसरे पर हमला करना । लेकिन जुजुत्सू में वह सिखाते है कि तुम हमला मत करना । जब दूसरा तुम्हारी यंती में धूसा मारे तो उसके भूसे के लिए मह Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२३ बना देना । बिल्कुल राजी होकर घूंसे को पी जाना तब उसके हाथ की हड्डी टूट जाएगी और तुम बच जाओगे । बहुत कठिन है यह क्योंकि जब कोई आपकी छाती में घूंसा मारे तो आपकी छाती सख्त हो जाएगी फौरन । और सस्ती में आपकी हड्डी टूट जाने वाली है । जैसे दो आदमी चल रहे हैं एक बैलगाड़ी में -बैठे हुए। एक शराब पिए हुए है। एक बिल्कुल शराब पिए हुए नहीं है । बैलगाड़ी उलट गई। तो जो शराब पिए हुए है उसको चोट लगने की सम्भावना कम है । जो शराब नहीं पिए है उसको चोट लगेगी । कारण कि वह शराब जो पिए है वह हर हालत में राजी है । वह उलट गई तो वह उसी में उलट गया । उसने बचाव का कोई उपाय नहीं किया। लेकिन वह जो होश में है, बैलगाड़ी उलटी तो वह सजग हो गया। उसने कहा, 'मरे। बचाओ ।' तो वह सब सख्त हो गया । जो हड्डियां सख्त हो गई, 'टूटी ।' इसलिए शराब पीने वाला गिरता है उस बेचारे की ? आप जरा गिर कर देखो । बोरा गिर रहा है । उसमें कुछ है ही नहीं गिर गया तो गिर गया, उसी के लिए राजी हो गया । उसको चोट नहीं लगती । तो जुजुत्सू कहता है कि अगर चोट. न खानी हो तो ऐसे गिरना कि जैसे गिरे ही हुए हो । यानी तुम नहीं गिरना है इसका ऐसा ख्याल हो मत करना । उन पर जरा सी चोट लगी कि सड़कों पर । कभी हड्डी टूटते देखी कारण कि वह ऐसा गिरता है जैसे । মवचन प्रश्न : गिरना भी नहीं है ? उत्तर : हाँ, गिरना भी नहीं है, तो चोट नहीं खाओगे। दूसरा जब हमला करे तो तुम पी जाना उसके हमले को । तुम राजी हो जाना। ठीक सामायिक का मतलब भी यही है कि चारों तरफ से चित्त परं बहुत तरह के हमले हो रहे हैं। विचार हमला कर रहा है, क्रोध हमला कर रहा है, वासना हमला कर रही है । सबके लिए राजी हो जाना; कुछ करना ही मत। जो हो रहा है, होने देना । और चुपचाप पड़े रहना । एक क्षण को भी अगर यह हो जाए तो सब हो गया । मगर हम करने को इतने आतुर हैं कि विचार आया नहीं कि हम उस पर सवार हुए। या उसके साथ गए, या उसके विरोध में गए। हम बिल्कुल तैयार ही है लड़ने को । मैं जब समझना चाहूँ तो यही कह सकता कि कुछ मत करना । जो हो रहा हो उसको एक घड़ी भर देखना । तेईस घंटे हम कुछ करते ही हैं। एक घंटा कर लेना कि कुछ नहीं करेंगे; बैठे रहेंगे; जो होगा होने देंगे। देखेंगे कि यह हो रहा है। इसे सिर्फ देखना है । साच्ची रह जाना है। साक्षी भाव ही सामायिक में प्रवेश दिला देता है । Page #285 --------------------------------------------------------------------------  Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #287 --------------------------------------------------------------------------  Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें मुझे ऐसा किन्तु एक तिहाई प्रश्न : प्राप जो कुछ जैन दृष्टि के बारे में कह रहे हैं लगा कि दो तिहाई बातों से सभी लोग सहमत हो जाएंगे । अंश ऐसा है जिससे सहमति कठिन है। पहली बात आप कहते हैं सम्यक् दर्शन की । जिसने थोड़ा भी शास्त्र पढ़ा है वह यह जानता है कि सम्यक दर्शन के बिना चरित्र का कोई अर्थ नहीं । सम्यक् दर्शन के बिना जो कुछ होता है, वह चरित्र कहलाता ही नहीं। यह दृष्टि बहुत स्पष्ट है। यह भी स्पष्ट है कि चरित्र का और कोई अर्थ नहीं है अतिरिक्त 'आत्मस्थिति' के । आत्मा में स्थित हो जाना, यही चरित्र का अर्थ है । इन दोनों अर्थों में आपसी सहमति लगती है । पर, सम्यक् दर्शन होने के बाद और 'आत्मस्थिति' में पूर्ण स्थिति होने के पहले जो बीच का अन्तराल है, उसमें आपको दृष्टि परम्परागत दृष्टि से कुछ भिन्न नजर आती है । परम्परा में ऐसा मानते हैं लोग कि एक चरित्र का क्रमिक विकास है । उस चरित्र का बाह्य स्वरूप भी है जिसे त्रिगुप्ति मौर पंचसमिति नाम से अष्टप्रवचनमातृका कहते हैं। उसे कि मन, बचन, कार्य का संयम और आहार व्यवहार में विवेक । यही चरित्र का स्वरूप मानते हैं । पर यह जो अष्टप्रवचनमातृका है, यह पंच व्रतों की रक्षा करने के लिए हैं । इस पंचव्रत और अष्टप्रबचनमातृका का भी एक सुनिश्चित स्थान जैन आचार मीमांसा में है। अब प्राप उस सम्बन्ध में क्या कहेंगे? यदि यहां आपकी सम्मति कुछ बने और परम्परा से मिल सके तो शतप्रतिशत सहमति हो जाए । पर यदि न मिल सके तो मुझे लगता है कि दो तिहाई तो सहमति हो पाएगी, एक तिहाई अंश में नहीं । उत्तर : यदि हो पाएगी तो पूरी हो पाएगी। नहीं हो पाएगी तो बिल्कुल न. हो पाएगी। क्योंकि चरित्र की जैसी धारणा रही है उस धारणा से मैं Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में बिल्कुल असहमत हूँ। और वैसी धारणा महावीर को भी नहीं थी, ऐसा भी मैं कहता हूँ। एक दृष्टि है बाह्य आवरण को व्यवस्थित करने की। असल में बाह्य आचरण को व्यवस्थित नहीं कर सकता है वह जिसके पास अन्तविवेक नहीं है । अन्तविवेक हो तो बाह्य आचरण स्वयं व्यवस्थित हो जाता है, करना नहीं पड़ता। जिसे करना पड़ता है वह इस बात की खबर देता है कि उसके पास अन्तविवेक नहीं है। अन्तविवेक की अनुपस्थिति में बाल बाचरण अंधा है चाहे हम उसे अच्छा कहें या बुरा कहें, नैतिक कहें या अनैतिक कहें। निश्चित ही समाज को फर्क पड़ेगा। एक को समाज अच्छा आचरण कहता है, एक को बुरा कहता है। समाज मच्छा आचरण उसे कहता है जिससे समाज के जीवन में सुविधा बनती है। पुरा बाचरण उसे कहता है जिससे असुविधा बनती है। समाज को व्यक्ति की मात्मा से कोई मतलब नहीं है, सिर्फ व्यक्ति के व्यवहार है मतलब है क्योंकि समाज व्यवहार से बनता है, आत्मानों से नहीं बनता । समाज की चिन्ता यह है कि भाप सब बोलें। यह चिन्ता नहीं है वि थाप सत्य हों। बाप खूठ हो कोई चिन्ता नहीं, पर बोलें सच । भाप मन में भूठ को गढ़े, कोई चिन्ता नहीं लेकिन प्रकट करें सच को। आपका जो चेहरा प्रकट होता है समाज को मतलब है उससे । नापकी मात्मा जो अप्रकट रह जाती है, उससे कोई पतषष नहीं। समाव की चिन्ता ही नहीं करता कि भीतर आप कैसे हैं। समाज कहता है वाहर बाप से है ? बस हमारी बात पूरी हो जाती है। बाहर बाप ऐसा व्यवहार करें जो समाज के लिए अनुकूल है, समाज के जीवन के लिए सुविषापूर्ण है, जो सबके साथ रहने में व्यवस्था लाता है। समाज की चिन्ता आपके वापरण' है, धर्म की चिन्ता बापको पात्मा से है। इसलिए समान इतना फिक्र पर कर लेता है कि मादमी बाल रूप से ठीक हो पाए । बस इसके बाद वह फिक्र ोड़ देता है। बाल रूप को ठीक करने के लिए वह जो सपाय जाला है ये उपाय भव के हैं। या तो पुलिस है, बवालत है, कानून है, पाप-पुण्य कार है, स्वर्ग है, नरक है। ये सारे भय के रूप उपयोग में जाता है। अब यह बड़े मजे की बात है कि समाज के द्वारा आचरण की वो व्यवस्था है वह भव पर भाषारित है और बाहर तक समास हो जाती है। परिणाम में समाज पति को केवल पाखण्डी बना पाता है या अनैतिकनैतिक कमी नहीं। पाखण्डी इन अषों में कि भीतर व्यकि कुछ होता है, बाहर कुछ होता है। मोर जो व्यक्ति पासणी हो गया उसके पार्मिक Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ११ ३२६ होने की सम्भावना अनैतिक व्यक्ति से भी कम हो जाती है। इसे समझ लेना जरूरी होगा। समाज की दृष्टि में वह आदृत होगा, साधु होगा, संन्यासी होगा लेकिन पाखण्डी हो जाने के बाद वह अनैतिक व्यक्ति से भी बुरी दशा में पड़ जाता है । क्योंकि अनैतिक व्यक्ति कम से कम सोधा है, सरल है, साफ है । उसके भीतर पाली उठती है तो गाली देता है और क्रोध उठता है तो क्रोष करता है । वह व्यादमी स्पष्ट है जैसा है वैसा है। उसके बाहर और भीतर में कोई फर्क नहीं है । परम ज्ञानी के भी बाहर और भीतर में फर्क नहीं होता । परम ज्ञानी जैसा भीतर होता है वैसा ही बाहर होता है । अज्ञानी भी जैसा बाहर होता है वैसा ही भीतर होता है । बीच में एक पाखण्डी व्यक्ति का मतलब है कि बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है और भीतर अज्ञानी जैसा होता है । उसके भीतर गाली उठती है, क्रोध उठता है, हिंसा उठती है । मगर बाहर वह ज्ञानी जैसा होता है, अहिंसक होता है, "अहिंसा परमो धर्मः" की तख्ती लबाकर बैठता है, चरित्रवान् दिखाई पड़ता है, नियम पालन करता है, अनुशासनबद्ध होता है। बाहर का व्यक्तित्व वह ज्ञानी से उधार लेता है और भीतर का व्यक्तित्व वह अज्ञानी से उधार लेता है । यह पाखण्डी व्यक्ति, जिसको समाज नैतिक कहती है, कभी भी उस दिशा से उपलब्ध नहीं होगा जहाँ धर्म है । वर्षतिक व्यक्ति उपलब्ध हो भी सकता है। अक्सर ऐसा होता है कि पापी पहुँच जाते हैं और पुण्यात्मा भटक जाते हैं। क्योंकि पापी के दोहरे कारण है पहुँच जाने के । एक तो पाप दुखदायी है । उसकी पीड़ा है जो रूपान्तरण लाती है । दूसरी बात यह है कि पाप करने के लिए, समाज के विपरीत जाने के लिए भी साहस चाहिए । जो पाखण्डी लोग हैं वे मध्यम ( मीडियाकर) है। उनमें साहस नहीं है । साहस न होने की वजह से वे चेहरा वैसा बना लेते हैं लंसा समाज कहती है, समाज के डर के कारण । और भीतर पैसे रहे जाते है, जैसे वे हैं। अनैतिक व्यक्ति के पास एक साहस है जो कि वाध्यात्मिक गुण है और पाप की पीड़ा है। यह दो बातें हैं उसके पास । 'पाप उसे पोड़ा और दुख में ले जाएगा । दुख और पीड़ा में कोई व्यक्ति नहीं रहना चाहता। बीर साहस है उसके पास कि जिस दिन भी वह साहस कर से वह उस दिन बाहर हो जाए । मैं एक छोटी सी कहानी से समझाऊं । एक ईसाई पादरी एक स्कूल में बच्चों को समझा रहा है कि नैतिक साहस क्या होता है। एक बच्चा पूछता है कि उदाहरण से समझाइए । वह कहता है कि समझ लो कि तुम तीस बच्चे Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० महावीर । मेरी दृष्टि में हो, तुम पिकनिक के लिए पहाड़ पर गए। दिन भर के थक गए हो, नींद मा रही है। सर्द रात है। उन्तीस बच्चे जल्दी से बिस्तर में कम्बल ओढ़कर सो जाते हैं । लेकिन एक बच्चा कोने में घुटने टेक कर परमात्मा की प्रार्थना करता है। पादरी कहता है कि उस लड़के में नैतिक साहस है । जब उन्तीस बिस्तर में सो गए हैं, सर्द रात है, दिन भर की थकान है जब कि प्रलोभन पूरा है कि 'मैं भी सो जाऊँ तब भी वह हिम्मत जुटाता है और कोने में भगवान की प्रार्थना करता है सर्द रात में । तब सोता है जब प्रार्थना पूरी कर लेता है। महीने भर बाद, वह पादरी वापिस आया है। उसने फिर नैतिक साहस पर कुछ. बातें की है और उसने कहा है कि अब मैं तुमसे समझना चाहूंगा कि नैतिक साहस क्या है । तो एक लड़के ने कहा है कि मैं-जैसा उदाहरण आपने दिया था वैसा ही उदाहरण देकर समझाता हूँ। तीस पादरी है। एक पहाड़ पर पिकनिक को गए हुए हैं। दिन भर के थके मांदे लौटते हैं, सर्द रात है। उन्तीस पादरी प्रार्थना करने बैठ जाते हैं। एक पादरी कम्बल ओढ़ कर सो जाता है तो जो आदमी कम्बल के भीतर सो जाता है, वह नैतिक साहस का उदाहरण है। और आपने जो उदाहरण दिया था उससे यह ज्यादा अच्छा है कि जब उन्तीस पादरी प्रार्थना कर रहे हों और कह रहे हों कि नरक जाओगे अगर तुम बिस्तर में सोवोगो तब एक आदमी चुपचाप बिस्तर में सो जाता है। नैतिक साहस होता हो नहीं उनमें जिन्हें हम नैतिक व्यक्ति कहते हैं । उनकी नैतिकता साहस की कमी के कारण होती है, साहस के कारण नहीं। एक आदमी चोरी नहीं करता । आम तौर से हम उसकी प्रशंसा करते है । मपर चोरी न करना ही अचोर होने का लक्षण नहीं है। चोरी न करने का कुल कारण इतना हो सकता है कि आदमी तो चोर है लेकिन चोरी करने का साहस नहीं जुटा पाता। सौ में निन्यानबे मौकों पर ऐसा होता है कि चोरी सब करना चाहते हैं ! लेकिन साहस नहीं जुटा पाते। चोरी करना साधारण साहस की बात नहीं है । अंधेरी रात में, दूसरे के घर में अपने घर जैसा व्यवहार करना बहुत मुश्किल बात है । तो जिनको हम नैतिक कहते हैं अक्सर वे पाहसहोन लोग होते हैं । और धर्म एक साहस की यात्रा है । साहसहीन लोग इसलिए नैतिक होते हैं कि उनमें साहस नहीं है। बुरे लोगों में एक गुण स्पष्ट है कि वे पूरे समाज के विरोध में साहसी है। जब उन्तीस कोग प्रार्थना कर रहे है तब वे सोने चले गए हैं । अब सवाल यह है कि उनका साहस पाप की बोर के हटकर पुण्य की और कैसे जाए? आपको ले जाने की बरत नहीं है। पाप, Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-११ की पीड़ा ही अपने आप में इतनी सघन है कि वह आदमी को इससे उठने के लिए मजबूर कर देती है । आज नहीं, कल वह आदमी उठता है । तो मेरी दृष्टि यह है कि पापी को सम्भावनाएं धर्म के निकट पहुँचने की ज्यादा है अपेक्षाकृत उसके जिसको हम नैतिक व्यक्ति कहते हैं। और जिस दिन पापी धर्म की दुनिया में पहुंचते है वह उतनी ही तीव्रता में पहुँचता है जितनी तीव्रता से वह पाप में गया था। नीसे ने लिखा है : जब मैंने वृक्षों को आकाश छते देखा तो मैंने खोजबीन की। मुझे पता चला कि जिस वृक्ष को आकाश छना हो उस वृक्ष की जड़ों को पाताल छना पड़ता है। उसने लिखा है कि तब मुझे ख्याल आया कि जिस व्यक्ति को पुण्य की ऊंचाइयां छुनी हों उस व्यक्ति के भीतर पाप की गहराइयों को छूने को क्षमता चाहिए। अगर कोई पाप का पाताल छूने में असमर्थ है तो वह पुण्य का आकाश भी नहीं छू सकता क्योंकि ऊपर शिखर उतना ही जाता है जितना नीचे जड़ें जा सकती हैं। यह हमेशा अनुपात में जाता है। जिस घास की जड़ें भीतर बहुत गहरी नहीं जातीं वह घांस उतना ही ऊपर आता है जितनी जड़ें जाती हैं। तो पापी की गति बुरे की तरफ है लेकिन वह अच्छे की तरफ भी जा सकता है। तो मेरी दृष्टि में झूठी नैतिकता बाहर से थोपी गई है। परिणाम यह हुआ कि दुनिया में धर्म कम होता चला गया। अच्छा तो यही है कि आदमी सीधा हो चाहे वह पापी हो । बजाय झूठे, व्यर्थ के आडम्बर थोपने के वैसा ही हो जैसा है। इसमें बदलाहट की बड़ी सम्भावना है कि जैसा वह है, बगर वह दुखद है तो बदलेगा। करेगा क्या ? लेकिन पाखण्डी आदमी ने तो व्यवस्था कर ली है। जैसा है वह छिपा लिया है। जैसा नहीं है वह व्यवस्था कर ली है उसने । समाज से आदर भी पाता है, सुख भी पाता है, सम्मान भी पाता है और जैसा है वैसा वह है । इसलिए जो गलत होने की पीड़ा है, वह भी नहीं भोग पाता। वही पीड़ा मुक्तिदायी है। - तो मेरी दृष्टि में पाखण्डी समाज से सीधा ऐन्द्रिक समाज ज्यादा अच्छा है। और इसलिए मैं कहता हूँ कि पश्चिम में धर्म के उदय की सम्भावना है, पूरब में, नहीं है। इसको मैं भविष्यवाणी कह सकता हूँ कि आने वाले सौ वर्षों में पश्रिम में धर्म का उदय होगा और पूरब में धर्म.प्रतिदिन क्षीण होता चला जाएगा क्योंकि पूरब पाखण्डी है और पश्चिम साफ है। पश्चिम बुरा है मगर साफ है। यह साफ बुरा होना पीड़ा देने वाला है। और उस पीड़ा से उसको बाहर भी निकलना पड़ेगा । पाखण्डी का चूरा बच्न होना पीड़ा भी नहीं बनता। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में उस घंटे में भी विस्मृत नहीं हो पाते। वे चौबीस घंटे उसी रस में डूबे हुए हैं। मैं उन्हें ब्रह्मचर्य की ओर ले जाने की बात कर रहा है। मैं कह रहा है कि सत्य को समझो, इससे भागो मत, डरो मत, भयभीत मत हो, इसे पहचानो, जागो। जागोगे, पहचानोगे, समकोये तो यह क्षीण होगा, और एक घड़ी ऐसी आती है कि पूर्ण समझ की स्थिति में सेक्स रूपान्तरित हो जाता है। उसकी सारी शक्ति नए मार्गों से उठनी शुरू हो जाती है। पौर षब वह नए मार्गों से उठती है तो वह शक्ति व्यक्ति का परम अनुभव हो जाता है। __ सेक्स शक्ति के विसर्जन का सबसे नीचे का केन्द्र है। उसके ऊपर और केन्द्र है जिसे हम ब्रह्मरंध्र कहते हैं। वह सेक्स की ही ऊर्जा के विसर्जित होने का अन्तिम श्रेष्ठतम केन्द्र है। नीचे से सेक्स विसर्जित होता है तो प्रकृति में ले जाता है। और जब ब्रह्मरंध्र से सेक्स की शक्ति विसजित होती है तो वह परमात्मा में ले जाती है। और इन दोनों के बीच की जो यात्रा है, वह वात्रा वही शक्ति कर सकती है जो समापूर्वक सेक्स को ऊर्जा को ऊपर उठाने के प्रयोग में लग जाए। मेरा कहना है कि ब्रह्मचर्य की साधना में सेक्स पहला कदम है, विरोष नहीं। जिस ऊर्जा को हमें ऊपर उठाना हो, उसे लड़कर हम ऊपर नहीं उठा सकते। उसे समझकर हम प्रेमपूर्ण भामंत्रण से ही ऊपर उठा सकते हैं क्योंकि लड़कर तो हम दो हिस्सों में टूट जाते हैं। और दो हिस्सों में टूटे कि हम गए । पाखण्डी व्यक्ति खंड-खंड हो जाता है। कई बंर उसमें हो जाते हैं । और मैं चाहता हूँ कि व्यक्ति हो अखण क्योंकि अखण्ड व्यकि ही कुछ रूपान्तरण ला सकता है। ब्रह्मचर्य सरल है अगर पोपा न जाए। बहवर्य कठिन है अगर थोप लिया जाए। तो मैं कहता है कि समाज को सिखायो वासना, ठीक से । समाज को सम्यक् वासना सिखामो, सम्यक् काम सिखामो। प्रश्न : महावीर भी यही कहना चाहते थे? . उत्तर : बिल्कुल कहेंगे ही। इसके सिवाय उपाय ही नहीं है, क्योंकि महाबीर भी जिस ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हुए हैं, वह जन्म-जन्मान्तरों की वासना की समझ का ही परिणाम है। प्रश्न : वह भोगकर माएगी या बिना भोग के भी मा सकती है? उत्तर : बिना भोग के नहीं आ सकती। जिस चीज को मैंने जाना ही नहीं, जिया ही नहीं, उसको मैं समझूगा कैसे ? समझने के लिए मुझे गुजरना पड़ेगा उस मार्ग से । वहां कभी भी कोई गुजरा हो, यह सवाल नहीं है। लेकिनः । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतर - प्रवचन- ११ ३३७ बिना गुजरे कभी भी समझ में नहीं आ सकती यह बात । और बिना गुजरने की जो आकांक्षा है हमारे मन में वह भय है । वह समझ नहीं आने देगा | वह डर है । वह कहता है जाओ मत उधर । लेकिन जब जाएंगे नहीं तो जानेंगे कैसे ? जीवन में जो भी हम जानते हैं वह हम जाकर ही जानते हैं। बिना जाए हम कभी नहीं जानते और अगर बिना जाए कोई रुक गया तो किसी दिन वह जाने की इच्छा ही मुसीबत बन जाएगी । प्रश्न : भोगने से समझ को प्राप्त हो सकता है ? उत्तर : बिल्कुल प्राप्त हो सकता है । कोई सवाल ही नहीं है। हम जब भोग रहे हैं तभी हम समझपूर्वक भोग सकते हैं । गैर समझपूर्वक भी भोग सकते हैं। अगर हम समझपूर्वक भोगते हैं तो हम ब्रह्मचर्य की ओर जाते हैं । अगर गैर समझपूर्वक भोगते हैं तो हम उसी में घूमते हैं । सवाल भोगने का नहीं है, सवाल जागे हुए भोगने का है। अब सेक्स के साथ बड़ा मजा है कि लोग उसे जन्म-जन्मान्तरों में भोगते हैं लेकिन सोए हुए भोगते हैं । इसलिए कभी भी अनुभव हाथ में नहीं आ पाता कुछ भी । सेक्स के क्षण में आदमी मूच्छित हो जाता है, होश ही खो देता है। बाहर आता है, जब होश में आता है तो वह क्षण निकल चुका होता है । फिर उस क्षण की मांग शुरू हो जाती है । तो ब्रह्मचर्य की साधना की प्रक्रिया का सूत्र यह है कि सेक्स के क्षण में जागे हुए कैसे रहें । और अगर आप दूसरे क्षणों में जागे हुए होने का अभ्यास कर रहे हैं तभी आप सेक्स के क्षण में भी जागे हुए हो सकते हैं । ठीक ऐसा ही मृत्यु का मामला है । हम बहुत बार मरे लेकिन हमें कोई पता नहीं कि हम पहले कभी मरे। उसका कारण है कि हर बार मरने के पहले हम मूच्छित हो गए हैं । मृत्यु का भय इतना ज्यादा है कि मृत्यु को हम जागे हुए नहीं भोग पाते । और एक दफा कोई मृत्यु में जागे हुए गुजर जाए, मृत्यु खत्म हो गई, क्योंकि वह जानता है कि यह तो अमृत हो गया, मरा तो कुछ भी नहीं, सिर्फ शरीर छूटा है और सब खत्म हो गया । लेकिन हम मरते हैं कई बार, हम बेहोश हो जाते हैं । और जब हम होश में आते हैं तब तक नया जन्म हो चुका है। वह जो बीच की अवधि है मृत्यु के गुजरने की, उसकी हमारे मन में कोई स्मृति नहीं बनती। स्मृति तो तब बनेगी जब हम जागे हुए हों। जैसे एक आदमी को बेहोशी में हम श्रीनगर घुमा ले जाएं। वह मूच्छित पड़ा है । उसको हमने क्लोरोफार्म सुंघाया हुआ है। श्रीनगर पूरा घुमायें, हवाई जहाज से दिल्ली बापस पहुँचा द और वह दिल्ली में फिर जगे और हम उससे कहें तुम श्रीनगर २२ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ महावीर : मेरी दृष्टि में होकर आए हो। वह कहे : क्या पागलपन की बाते हैं ! मैं यहीं सोया था, यहीं जगा हूँ। सिर्फ श्रीनगर से गुजर जाना काफी नहीं है, होश से गुजर जाना जरूरी है। नहीं तो वह आदमी क्लोरोफार्म की हालत में श्रीनगर घूम भो गया और फिर दिल्ली पहुँच कर कहेगा कि मैंने श्रीनगर देखा ही नहीं। मेरे मन में लालसा रह गई श्रीनगर को देखने की। वह मैं देख नहीं पाया । वह कैसा है श्रीनगर ? इसी तरह हम मृत्यु से मूच्छित गुजरते हैं, इसलिए मृत्यु से अपरिचित रह जाते हैं। जो मृत्यु से परिचित हो जाए वह आत्मा के अमर स्वरूप को जान लेता है। हम सेक्स से मूच्छित गुजरते हैं, इसलिए हम सेक्स से अपरिचित रह जाते हैं । जो सेक्स से परिचित हो जाए, वह ब्रह्मचर्य को जान लेता है। तो मेरा कहना है कि किसी भी स्थिति से अगर हम जागे हए गुजरे है तो सब बदल जाएगा क्योंकि जो हम जानेंगे, वह बदलाहट लाएगा। अगर आपने एक बार किसी का हाथ पकड़ कर चूमा है और बहुत आनन्दित हुए हैं तो दुबारा फिर उस हाथ को होश से चूमें, जागे हुए चूमें और देखें कि आनन्द कहाँ आ रहा है, कैसा आ रहा है, मा रहा है कि नहीं आ रहा है। एक दिन बुद्ध एक सड़क से गुजर रहे हैं। एक मक्खी उनके कन्धे पर बैठ गई है। आनन्द से बातें कर रहे हैं। मक्खी को उड़ा दिया है। फिर रुक गए हैं। मक्खी तो उड़ गई। आनन्द चौंक कर खड़ा हो गया कि वह क्यों रुक गए ? फिर, बहुत धीरे से हाथ को ले गए कंधे पर। आनन्द ने पूछा कि आप यह क्या कर रहे हैं, मक्खी तो उड़ चुकी है। बुद्ध ने कहा कि वह जरा गलत उंग से उड़ा दी मैंने। मैं तुम्हारी बातों में लगा रहा और बेहोशी में मक्खी उड़ा दो मैंने। अब मैं जागे हुए ऐसे उड़ा रहा हूँ जैसे उड़ाना चाहिए था । यह मक्खी के साथ दुर्व्यवहार हो गया। मैं मूच्छित था, इसलिए दुर्व्यवहार हो गया। अब मैं जागकर उड़ा रहा हूँ। तो किसी का हाथ चूमा, और बहत आनन्द आया। फिर दुबारा हाथ पकड़ लें और पूर्ण होशपूर्वक चूमें और देखें कि कौनसा आनन्द कहाँ आ रहा है तब बहुत हैरान हो जाएंगे। तब देखेंगे कि हाप है, होठ है, चुम्बन है मगर आनन्द कहाँ ? और यह जो अनुभव जागा हुआ होगा, यह जो हाथ का पागल आकर्षण होगा वह विलीन हो सकता है, बिल्कुल विलीन हो सकता है। . एक बार किसी भी अनुभव से होशपूर्वक गुजर जाएं तो उस अनुभव को पकड़ आप पर वो नहीं हो सकती जो आपकी बेहोशी में थी। तरकीब यह है प्रकृति की कि उसने सब कोमती अनुभव आपको बेहोशो में गुजरवाने का Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-११ ३३९ इन्तजाम किया है। क्योंकि नहीं तो आप फिर नहीं गुजरेंगे उससे । और सेक्स प्रकृति की गहरी जरूरत है। वह सन्तति उत्पादन की व्यवस्था है। वह नहीं चाहती कि आप उसको छुएं, उसमें कुछ गड़बड़ करें। वहीं मे जाकर वह आपको एकदम बेहोशी की हालत में कर देती है। जिसको आप आमतौर से प्रेम आदि कहते हैं, वह सब बेहोश होने की तरकीबें हैं, और कुछ भी नहीं। आपको वेश्या के साथ सम्भोग करने में वह सुख नहीं मिलता जो अपनी प्रेयसी से सम्भोग करने में मिलता है। कारण कि वेश्या के पास आपकी मूर्छा कभी गहरी नहीं हो पाती क्योंकि यह धन्धा सौदे का काम है। दस रुपया फेंक कर सम्बन्ध बनाया। कोई सम्मोहित होने का सवाल नहीं है बड़ा। इसलिए वेश्या वह तृप्ति नहीं दे पाती जो प्रेयसी देती है। वह पत्नी भी नहीं दे पाती क्योंकि पत्नी के पास रोज-रोज गुजरने से मूच्छित होने का कारण नहीं रह जाता। वह सम्बन्ध बिल्कुल यांत्रिक हो गया है। लेकिन प्रेयसी के पास आपको पहले मूच्छित होना पड़ता है, उसे मूच्छित करना पड़ता है। प्रेमक्रीडा से गुजरने के पहले सारा गोरख-धन्धा एक दूसरे को मूच्छित करने का उपाय है, चूमना है, चाटना है, गले मिलना है, कविताएं सुनाना है, गीत गाना है, अच्छी-अच्छी बातें करना है, एक दूसरे को तारीफ करना है, एक दूसरे को सम्मोहित करना है । जब वे दोनों सम्मोहन में आ गए तब फिर ठीक है । तब वे बेहोश गुजर सकते हैं। यह जो मेरा कहना हैं वह कुल इतना है कि ऐसी किसी भी क्रिया से जिससे हम मुक्त होना चाहते हों कभी भी हम मूच्छित हालत में मुक्त नहीं हो सकते । और पाखण्ड मूच्छित हालत को थोड़े ही तोड़ता है, उल्टा भ्रम पैदा करवा देता है। और गलत चीजें हमें पकड़ा देता है। लेकिन हम पकड़ते ऐसे ढंग से हैं कि हमें ख्याल में नहीं आता। जैसे महावीर हैं । अगर महावीर स्त्रियों को छोड़कर जंगल चले गए हैं तो हमें लगता है कि हम भी स्त्रियों को छोड़ें और जंगल चले जाएँ। हम महावीर की बुनियादी बात समझना भूल गए हैं। महावीर इसलिए जंगल नहीं चले गए हैं कि स्त्रियों को छोड़े जा रहे हैं। वे इसलिए जंगल चले गए हैं कि स्त्रियों में कोई रस नहीं रहा है। वे पब जंगल जा रहे हैं तो पीछे स्त्रियों की स्मृति नहीं है. उनके मन में। और बाप भी जंगल जा रहे हैं स्त्रियों को छोड़कर लेकिन जितनी स्मृति कभी घर पर नहीं थी, उतनी जंगल में आपको घेरे हुए है। और आप समझ रहे हैं कि आप वही काम कर रहे हैं जो महावीर कर रहे हैं । आप भी जंगल में जाकर बैठ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० महावीर । मेरी दृष्टि में जाएंगे। मगर महावीर बैठेमे तो स्वयं में खो जाएंगे। आप बैठेंगे तो स्त्रियों में खो जाएंगे। आप कहेंगे कि यह तो महावीर ने भी किया जो हम कर रहे हैं। हमारी कठिनाई यह है कि ऊपर का रूप हमें दिखाई पड़ता है। महावीर जंगल जाते दिखाई पड़ते हैं। उनके भीतर क्या घटी है, यह हमें दिखाई ही नहीं पड़ता। और अगर वह हमें दिखाई पड़ जाय तो बिल्कुल बात और हो हो जाएगी। बिना अनुभव के कोई मुक्ति नहीं है । पाप के अनुभव के बिना पाप से भी मुक्ति नहीं है। इसलिए भयभीत होकर जो पाप से रुका हुआ है, वह पाप से मुक्त नहीं होगा। वह सिर्फ पाप करने की शक्ति अर्जित कर रहा है। और आज नहीं, कल वह पाप करेगा ही। और पाप करके पछताएगा। स्वयं पछता कर वह फिर दमन करने लगेगा । दमन करके वह फिर पाप करेगा और फिर पछताएगा और यह एक बुरा चक्र है पाप पश्चात्ताप, पाप पश्चात्ताप। मैं कहता हूँ पश्चात्ताप भूल कर भी मत करना। पश्चात्ताप की जरूरत ही नहीं है। पश्चात्ताप का मतलब है कि पाप पहले हो गया है, पीछे फिर आप पश्चात्ताप कर रहे हैं। मैं कहता हूं जानकर पाप करना, पूरे जागे हुए पाप करना। जो भी करना पूरे जागे हुए करना। किसी को गालो भी देना तो पूरे जागे हुए देना। शायद दुबारा गाली देने का मौका न आए और पश्चात्ताप की भी जरूरत न पड़े। एक फकीर ने लिखा है कि उसका बाप मर रहा था। बूढ़े बाप के पास वह बैठा था। उसकी उम्र कोई पन्द्रह-सोलह साल की थी । मरते हुए बाप ने उसके कान में कहा कि तू एक ही ध्यान रखना : किसी भी बात का जवाब चौबीस घंटे से पहले मत देना। गौर जिन्दगी भर का अनुभव मैं तुझे एक ही सूत्र में कहे देता हूँ : किसी भी बात का जबाब चौबीस घंटे के पहले देना हो मत । वह फकीर बड़ी शांति को उपलब्ध हुआ और जब लोगों ने उससे पूछा कि तुम्हारी शान्ति का रहस्य क्या है तो उसने कहा कि रहस्य बड़ा अद्भुत है। मेरा बाप मर रहा था और उसने कहा था कि चौबीस घंटे से पहले तुम किसी का जवाब ही मत देना। अगर किसी स्त्री ने मुझसे कहा मैं तुझे बहुत प्रेम करती हूँ तो मैं चौबीस घंटे चुप ही रहा। चौबीस घंटे के बाद सब खत्म ही हो चुका था क्योंकि यह स्त्री विदा ही हो चुकी थी दिमाग से उसके। उसने कहा : यह क्या बात है। हम जब कहें तव तो तुम कुछ उत्तर ही नहीं देते। अब आए हो जब नशा ही जा चुका है। किसी ने गाली दी तो वह चौबीस Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-११ ३४१ घंटे बाद जवाब देने गया कि जो तुमने गाली दो थो उसका हम जवाब देने आए हैं। उस आदमी ने कहा : लेकिन अब तो सब बात ही खत्म हो गई। अब क्या फायदा ? अब तुम क्या जबाब दे रहे हो। उस आदमी ने लिखा है कि मैं जब भी चौबीस घंटे बाद गया मैंने पाया कि मैं हमेशा लेट पहुँचता हूँ, ट्रेन छूट चुकी होती है। वह तो उसी वक्त हो सकता था और उसी वक्त अगर होता तो मूच्छित होता। और चौबीस घंटे सोच-विचार के बाद हुआ तो वह बड़ा जागृत था। कई दफे तो मैं यह कहने गया कि तुमने गाली बिल्कुल ठीक दी थी। चौबीस घंटे सोचा तो पाया कि तुमने जो कहा था, बिल्कुल ही ठीक कहा था कि मैं बेईमान हूँ। दबाने की बात नहीं है। अगर दबाया चौबीस घंटे तब तो गाली और मजबूत होकर पाएंगी। चौबीस घंटे समझने की कोशिश की कि क्या उत्तर देना है उस आदमी को तो बात बदल जाएगी। उसके बाप ने कहा है कि कोई अगर तुम्हें गाली दे तो मैं मना नहीं करता कि तू गाली मत देना और अगर बाप यह कहता कि तू गाली मत देना चौबीस घंटे, बाद चमा मांगना तो बात उल्टी हो जाती । तब वह गालो को दबाता । उसके बाप ने कहा कि पाली जरूर देना, मगर चौबीस घंटे बाद देना। लेकिन चौबीस घंटे समझ लेना कि कौन-सी गाली देनी है, कितने वजन को देनी है, देनी है कि नहीं देनी है, उसकी गाली का मतलब क्या है ? अगर बाप यह कहता है कि चौबीस घंटे बाद क्षमा मांगने जाना तो शायद वह दमन करता । उसने कहा था कि तू गाली देना मजे से लेकिन चौबीस घंटे बाद । इतना अन्तराल छोड़ देना और यह बड़े मजे कि बात है कि कोई भी पूरा काम अन्तराल पर नहीं किया जा सकता, तत्काल ही किया जा सकता है क्योंकि अन्तराल में समझ आ जाती है, स्याल आ जाता है। डेल कार्नेगी ने एक अनुभव लिखा है कि लिकन पर उसने भाषण दिया रेडियो से और जन्मतिथि गलत बोल गया। उसके पास कई पत्र पहुँचे गुस्से के कि तुमको जन्मतिथि तक मालूम नहीं है, तुमने भाषण किसके लिए दिया और एक स्त्री ने उसको बहुत ही सस्त पत्र लिखा और उसमें वह जितनी गालियां दे सकती थीं दीं। बड़ा क्रोध आया कार्नेगी को। उसने उसी वक्त रात को उठकर जवाब लिखा। जैसी गालियां उसने दी, उसने दुगुने वजन को गालियाँ दी। लेकिन रात को देर हो गई थी और नौकर चला गया था। उसने चिट्ठी दवाकर रख दी। सुबह उठा, सोचा कि एकबार चिट्ठी को पढ़ लूं। लेकिन अब बारह घंटे का फर्क पड़ गया था। चिट्ठी पढ़ो तो लगा कि ज्यादती हो गई है Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ महावीर : मेरी दृष्टि में चिट्ठी में । उस स्त्री की चिट्ठी को दुबारा पढ़ा तो वह उतनी सख्त नहीं मालूम पड़ी जितनी बारह घंटे पहले मालूम पड़ी थी क्योंकि अब दुबारा पढ़ी थी। और अपनी चिट्ठी पढ़ी तो लगा कि जरा सख्त उत्तर हो गया है। दूसरा उत्तर लिखा। वह पहले से ज्यादा विनम्र था। लिखते वक उसे ख्याल आया कि बाहर घंटे और रुककर देखू कि कोई फर्क पड़ता है क्या ? यह जो बारह घंटे में इतना फर्क पड़ गया तो उसने पहली चिट्ठी फाड़ कर फेंक दी, दूसरी चिठ्ठी दबा कर रख दी। सांझ को जब दफ्तर से लौटा, उस पत्र को पढ़ा। उसने कहा अभी भी उसमें कुछ बाकी रह गई है चोट । फिर पत्र तीसरा लिखा। पर उसने कहा : इतनी जल्दी भी क्या ? औरत ने मांग तो की नहीं। कल सुबह तक और प्रतीक्षा कर लें। बह सात दिन तक निरन्तर यह करता रहा । सातवें दिन उससे जो पत्र लिखा वह पहले पत्र से बिल्कुल ही उल्टा था। पहला पत्र सख्त दुश्मनी का था। सातवें दिन पत्र मैत्री का था। वह पत्र उसने भेजा। लोटती डाक से उत्तर आया। उस स्त्री ने क्षमा मांगी क्योंकि उसको भी समय गुजर गया था। अगर वह गालियां देता तो उसको क्षमा मांगने का मौका ही न मिलता। वह फिर गाली देती। डेल कार्नेगी ने लिखा है कि तब से मैंने नियम बना लिया कि किसी पत्र का उत्तर सात दिन से पहले देना ही नहीं है। उसमें होता क्या है ? समय के बीत जाने पर आपके दिमाग का पागलपन क्षीण हो जाता है। बनार्ड शा कहता था कि मैं पन्द्रह दिन के पहले किसी पत्र का उत्तर देता नहीं हूँ। यह सवाल नहीं है कि आप सात ही दिन प्रतीक्षा करेंगे। एक अन्तराल चाहिए बीच में। एक विचार का मौका चाहिए। नहीं तो हम बिना विचार के उत्तर दे रहे हैं । प्रश्न : किसी के साथ ऐसा चौबीस घंटे में भी हो सकता है ? उत्तर : हो सकता है । बिल्कुल हो सकता है। उसमें सिर्फ तय यह करना है कि तत्काल उत्तर नहीं देना है। तत्काल उत्तर मूर्छा से आ सकता है ऐसा कोई जरूरी नहीं है। अगर आदमी जागृत हो तो तत्काल उत्तर मूर्छा से नहीं माता है । लेकिन चूंकि हम जागृत नहीं है, इसलिए अन्तराल का सवाल है । ___ मैं बनार्ड शा के सम्बन्ध में कह रहा था वह निरन्तर पन्द्रह दिन तक उत्तर ही नहीं देता था। पन्द्रह दिन तक उत्तर न देने पर कुछ पत्र अपना जवाब खुद ही दे देते हैं। इस तरह कुछ से छुटकारा हो जाता है। फिर बहुत कम बचते है, जिनका उत्तर देने की जरूरत पड़ती है। मेरा मतलब केवल इतना है कि हमारा कोई भी अनुभव,जितना जागरुक हो सके उतना अच्छा है। दमन का Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरवचन-११ ३४३ सवाल नहीं है । मेरी निरन्तर यह धारणा रही है कि अनैतिक व्यक्ति को जितना बुरा कहा गया है, वह कहना गलत है । नैतिक व्यक्ति को जितना भला कहा गया है, वह कहना भी गलत है। मेरी समझ में जीवन की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि व्यक्ति को सरल और सहज होने का उपाय और मौका हो, न उसकी निन्दा हो, न उसका दमन हो, न उसको जबरदस्ती ढालने-बदलने की चेष्टा हो । लेकिन समाज उसे समझने का विज्ञान और व्यवस्था देता हो; शिक्षा उसे समझने का मौका देती हो। एक बच्चा स्कूल में गया। हम उससे कहते हैं : क्रोध मत करो, क्रोध बुरा है। हम दमन सिखा रहे हैं । सच्चा और अच्छा स्कूल उसे सिखाएगा : क्रोध करो लेकिन जागे हुए। कैसे करो, हम इसकी विधि बताते हैं । क्रोध जरूर करो, लेकिन जागे हुए, जानते हुए, पहचानते हुए करो। हम क्रोध का दुश्मन तुम्हें नहीं बनाते। केवल तुम्हें हम समझदार क्रोध करना सिखाते हैं। अगर ऐसी व्यवस्था हो तो व्यक्ति धीरे-धीरे क्रोध के बाहर हो जाएगा क्योंकि समझपूर्वक कोई कभी क्रोष नहीं कर सकता है। __ मेरी बात कई दफा उल्टी दिखती है। कई दफा ऐसा लगता है कि इससे स्वच्छंदता फैल जाएगी, अराजकता फैल जाएगी। लेकिन अराजकता फैली हुई है, स्वच्छंदता फैली हुई है। मैं जो कह रहा हूँ उससे स्वच्छंदता मिटेगी, अराजकता मिटेगो । मेरी बातों से कई दफा ऐसा हो सकता है कि साधारण मादमी भ्रान्त हो जाए, गलत रास्ते पर चला जाए । इस सब में एक बात तुम मान कर चले हो कि साधारण आदमी ठीक रास्ते पर है। अगर यह मानकर चलोगे तो हो सकता है कि साधारण आदमी इसलिए साधारण बना है कि वह गलत रास्ते पर है। नहीं तो कोई आदमी ऐसा नहीं जो असाधारण न हो जाए। लेकिन जिन रास्तों पर वह चल रहा है, वे रास्ते ही उसे साधारण बना रहे हैं। मैं जानता हूँ कि रास्ते साधारण या असाधारण बनाते है। जिन रास्तों पर हम चल रहे हैं, वे रास्ते हमें साधारण बना देते हैं। ऐसे रास्ते भी हैं जो हमें असाधारण बना सकते हैं पर उन पर हम चलेंगे तभी। समाज चाहता नहीं कि व्यक्ति असाधारण बने। समाज साधारण व्यक्ति चाहता है क्योंकि साधारण व्यक्ति खतरनाक नहीं होते, विद्रोही नहीं होते, अद्वितीय नहीं होते, व्यक्ति ही नहीं होते, सिर्फ भीड़ होते हैं। समाज चाहता है भीड़, नेता चाहते हैं भीड़, गुरु चाहते हैं भीड़ शोषक चाहते हैं भीड़ जिसमें कोई व्यक्तित्व न हो। उस भीड़ का शोषण किया जा सकता है। और मैं कहता हूँ कि चाहिए व्यक्ति क्योंकि भीडाकी कभी आत्मा नहीं होती। और एक ऐसी दुनिया, एक Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ महावीर : मेरी दृष्टि में ऐसा समाज बनाने की जरूरत है जहां व्यक्ति हो । व्यक्ति अलग-अलग होंगे अलग-अलग रास्तों पर चलेंगे। लेकिन यही व्यवस्था होनी चाहिए कि अलगअलग रास्तों पर चलने वाले लोग, अलग-अलग व्यक्तित्व वाले लोग एक-दूसरे के प्रति प्रेमपूर्वक रह सकें। पोलपरे के खिलाफ एक आदमी था और उसने पोलपरे को इतनी गालियां दी, और उसके खिलाफ किताबें लिखीं कि पोलपरे को नाराज हो जाना चाहिए था। वह एक दिन रास्ते में पोलपरे को मिला और कहा कि महाशय, आप चाहते होंगे कि मेरी गर्दन कटवा दें क्योंकि मैं आपके खिलाफ ऐसी बातें कर रहा हूँ। पोलपरे ने कहा नहीं, अगर तुम मुझसे पूछोगे तो तुम जो कह रहे हो उसे कहने का तुम्हें हक है। और इस हक को बचाने के लिए अगर जरूरत पड़े तो मैं अपनी जान गंवा दूंगा हालांकि तुम जो कह रहे हो, वह गलत है। हमारा भिन्न-भिन्न होने का सवाल नहीं है। सवाल हमारी भिन्नता की स्वीकृति का है। अभी जो समाज हमने पैदा किया है, वह भिन्नता को स्वीकार नहीं करता। वह या तो भिन्नता का अपमान करता है या उसका सम्मान करता है। और यदि वह भिन्नता को नहीं मानेगा और भिन्न रहता हो चला जाएगा तो वह कहेगा : भगवान् है, मगर कभी स्वीकार नहीं करेगा कि हमारे बीच में हैं। अच्छी दुनिया वह होगी जहां भिन्नता स्वीकृत होगी एक-एक व्यक्ति का अख्तिीय होना स्वीकृत होगा। और हम दूसरे की भिन्नता को आदर देना सीखेंगे। अभी हम यह कहते है कि जो हमसे राजी है वह ठीक है, जो हमसे राजी नहीं, वह गलत है। यह बड़ी अजीब बात है! यह बहुत हिंसक भाव है कि जो मुझसे राजी है वह ठीक है। जो मुझसे राजी है इसका मतलब यह हुआ कि जिसका कोई व्यक्तित्व नहीं है, मैं जिसको पी गया पूरी तरह वह ठीक है। और जो मुझसे राजी नहीं, वह गलत है। यह बहुत ही शोषक वृत्ति है । इसको मैं हिंसा मानता हूँ। और जो गुरु अनुयायियों को इकट्ठे करते फिरते हैं, वे हिंसक वृत्ति के लोग हैं । वे कहते हैं कि हमारे साथ एक हजार लोग राजी है; एक हजार लोग हमें मानते हैं। यानी एक हजार लोगों को उन्होंने मिटा दिया है। दस हजार लोग हों तो उनको और मजा आए, करोड़ हैं तो और, क्योंकि इतने लोगों को उन्होंने बिल्कुल पोंछकर मिटा दिया है। ये खतरनाक लोग है । अच्छा आदमी यह नहीं चाहता कि आप उससे राजी हों। अच्छा आवमी पाहता है कि आप सोचना शुरू करें। हो सकता है कि सोचना आपको Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-११ ३४५ मुझसे बिल्कुल भिन्न ले जाए। मैं यह नहीं कहता कि जो मैं कहता हूँ वह आप मान लें। मेरा जोर यह है कि आप भी इस भांति सोचना शुरू करें। हो सकता है सोचकर आप उस जगह पहुंचे जहां मैं कभी आपसे राजी न हूँ या आप मुझसे राजी न हों। लेकिन आप सोचना शुरू करें। जीवन में सोचना शुरू हो, जागना शुरू हो, दमन बन्द हो, अनुगमन बंद हो तब प्रत्येक व्यक्ति को आत्मा मिलनी शुरू होगी और आत्मा प्रत्येक को असाधारण बना देती है। मुझे इससे चिन्ता नहीं कि साधारण आदमी भटक जाएगा क्योंकि मैं मानता हूँ कि साधारण आदमी भटका ही हुआ है। अब उसके और भटकने का कोई उपाय नहीं है। वह क्या भटकेगा और ? उसे हम अगर और भटका दें तो शायद वह ठीक रास्ते पर पहुंच जाए । प्रश्न : अब जो आपने कहा, क्या उसका यह अर्थ होगा कि जो लोग आपका विचार पढ़ें या सुनें और उसमें जो जैन श्रावक के व्रतों का, या जैन साधु के व्रतों का पालन कर रहे हों, उन्हें सत्य की प्राप्ति के लिए पहले अपने व्रत छोड़ देने होंगे, तभी कुछ हो पाएगा? यानी सारा जैन समाज, जो श्रावक वर्ग और साधु वर्ग का है, पहले अपने व्रतों को छोड़ दे तभी वह सत्य.को पाएगा। इसी के साथ जुड़ा हुमा यह भी प्रश्न है कि क्या इन अढाई हजार वर्षों में जिन्होंने इन व्रतों का पालन किया, श्रावक या साधु वे सबके सब पाखण्डी थे, उनमें कोई सत्य की सम्भावना नहीं थी। उत्तर : नहीं, कभी भी सम्भावना नहीं थी। असल में व्रत पालने वाला कभी भी पाखण्डी होने से नहीं बच सकता है । व्रती पाखण्डी होगा ही । सवाल यह है कि व्रत पकड़ता वही है जो भीतर सोया हुआ है। जो भीतर जग गया है, वह व्रत को नहीं पकड़ता है। व्रत आते हैं उसके जीवन में। प्रश्न : कोई व्रती पाखंडी न रहा हो, यह सम्भव नहीं क्या ? उत्तर : नहीं, असम्भव है यह। यह तो ऐसा है जैसे कोई व्यक्ति आँख फोड़ ले और फिर सोचे कि उसे दिखाई पड़ सकता है कि नहीं। मेरी बात समझ लें। मैं यह कहूंगा कि चाहे अढाई हजार साल तक कोई फोड़े आंख, चाहे हजार साल तक फोड़े, आँख फोड़कर दिखाई नहीं पड़ेगा। और आँख फोड़ता ही वही है जिसे दिखाई पड़ने से डर पैदा हो गया है, देखना नहीं चाहता। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में व्रत का मतलब क्या है ? व्रत का मतलब है चित्त की वह दशा जिसके विपरीत आप व्रत ले रहे हैं । व्रत है दमन का नियम । मैं कामवासना से भरा हूँ, ब्रह्मचर्य का व्रत लेता हूँ । हिंसा से भरा हूँ, अहिंसा का व्रत लेता हूँ । परिग्रह से भरा हूँ, अपरिग्रह का व्रत लेता है । परिग्रह का व्रत नहीं लेना पड़ता किसी को, न हिंसा का लेना पड़ता है, न कामवासना का लेना पड़ता है। क्योंकि जो हम हैं उसका व्रत नहीं लेना पड़ता । जो हम नहीं हैं उसका व्रत लेना पड़ता है। तो व्रत का मतलब हुआ कि जो मैं हूँ, वह उलटा हूँ और उससे ठीक भिन्न उलटा व्रत ले रहा हूँ । उस व्रत को बांधकर मैं अपने को बदलने की कोशिश करूंगा । निश्चित ही व्रत दमन लाएगा, मेरा भाव है लोभ का कि मैं करोड़ों रुपए कमा लूँ और व्रत लेता हूँ कि मैं एक लाख रुपए की ही सीमा बांधता हूँ । मेरा मन है करोड़ वाला तो मैं करोड़ वाले मन को लाख वाले मन की सीमा में बांधने की चेष्टा करूंगा । चेष्टा का एक ही परिणाम हो सकता है कि मेरा लाभ दूसरी जगह से प्रकट होना शुरू हो । मेरा मन कहे कि लाख पर अगर तुम रुक गए तो स्वर्ग में तुम्हें जगह मिलेगी । यह लोभ का नया रूप हुआ । लोभ करोड़ का था । लाख पर बांधने की कोशिश की तो उसकी धाराएं टूट गई । अब वह स्वर्ग में लोभ करने लगा कि वहाँ अप्सराएं कैसे मिलेंगी, कल्पवृक्ष कैसे मिलेगा, मकान कैसा होगा, भगवान् के पास होगा कि दूर होगा ? ३४६ प्रश्न : व्रती को निःशल्य तो होना ही है क्योंकि यह तो उसकी शर्त है । उत्तर : न, नहीं । असल में व्रती निःशल्य हो ही नहीं सकता क्योंकि व्रत ही एक शल्य है । अव्रती निःशल्य हो सकता है । व्रती निःशल्य नहीं हो सकता । शल्य तो लगी है पीछे । कांटा चुभा है छाती में । एक स्त्री निकल रही है, वह अपनी पत्नी नहीं है, तो उसको देखना नहीं है, वह चाहे कैसी भी हो। और जो चुपचाप देख लेता है, वह शायद कम शल्य से भरा हुआ है । कांटा कम है उसके चित्त में । लेकिन जो आँख बंद करके एक तरफ बैठ जाता है कि हमने व्रत लिया है कि हमें पत्नी के सिवाय किसी का चेहरा नहीं देखना है तो उसको एक कांटा चुभा ही हुआ है चौबीस घंटे । व्रती तो निःशल्य हो हो नहीं सकता । अव्रती निःशल्य हो सकता है लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि अव्रती होने से ही कोई निःशल्य हो जाएगा । अव्रती होना हमारे जीवन की स्थिति है । अव्रती दशा में जागना हमरी साधना है । अव्रती स्थिति में दो विकल्प हैं या तो अव्रती स्थिति को व्रत लेकर तोड़ो। लेकिन तब भीतर Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतर-प्रवचन-११ १४७ जागने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। दूसरा रास्ता यह है कि अव्रती स्थिति के प्रति जागो ताकि अवती स्थिति बिदा हो जाए। तब व्रत से तुम जो मांग करते थे, वह आएगा । वह तुम्हें लाना नहीं पड़ेगा। ___ जैसे मैंने उदाहरण के लिए अभी कहा कि सेक्स हमारी स्थिति है, ब्रह्मचर्य हमारा व्रत है। सेक्स के प्रति जागना साधना है। जो व्यक्ति सेक्स की स्थिति को अस्वीकार करेगा, ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर, उसका सेक्स कभी मिटाने वाला नहीं। व्रत बाहर खड़ा रहेगा, सेक्स भीतर खड़ा हो जाएगा। जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं लेता, सिर्फ सेक्स की वस्तुस्थिति को समझने की साधना का प्रयोग करता है, उसका धीरे-धीरे सेक्स बिदा होता है और ब्रह्मचर्य आता है। यानी ब्रह्मचर्य तुम्हारे व्रत की तरह कभी नहीं आता; वह तुम्हारी समझ को छाया की तरह आता है। और जब आता है तो तुम्हें कसम नहीं खानी पड़ती किसी मन्दिर में जाकर कि मैं ब्रह्मचर्य धारण रखूगा। क्योंकि कोई सवाल ही नहीं है। आ गया है। इसके लिए कोई कसम की जरूरत नहीं है और जिसकी तुम कसम खाते हो उससे तुम सदा उलटे होते हो। और जो तुम होते हो उसको तुम्हें कभी कसम नहीं खानी पड़ती। प्रश्न : पर इतने लम्बे काल में जो साधक हुए, उनमें कोई ऐसा साधक नहीं जिसका सहज फलित ब्रह्मचर्य हो ? उत्तर : वह बिल्कुल अलग बात है। मगर उसको मैं व्रती नहीं कह रहा। तुम जो कह रहे हो कि अढ़ाई हजार साल में व्रती....व्रती तो कभी नहीं पहुँचता। अढ़ाई हजार साल या पच्चीस हजार साल हों उसका कोई सवाल नहीं उठता। व्रती तो कभी नहीं पहुंचता। जो पहुँचता है वह सदा अवती, प्रज्ञावान् व्यक्ति होता है। पर इनमें कुछ लोग ऐसे हैं जैसे कुन्दकुन्द । कुन्दकुन्द वैसा ही व्यक्ति है जैसा महावीर । कुन्दकुन्द कोई व्रत नहीं पाल रहा है। वह समझ को जगा रहा है। जो समझ रहा है, वह छूटता जा रहा है। जो व्यर्थ है, वह फिकता चला जा रहा है। लेकिन है वह अवती व्यक्ति । और वह जो व्रतो व्यक्ति है, वह सदा झूठ है, निपट पाखण्ड है। व्रत पालना बिल्कुल सरल है। इसमें क्या कठिनाई है ? क्योंकि यह सिर्फ वासनाओं को दबाना है । लेकिन व्रत पालने से कोई कभी कहीं नहीं पहुंचा। महावीर को भी मैं अवती कहता हूं। कुन्दकुन्द भी अव्रती है। ऐसा है उमास्वाति । ऐसे कुछ और लोग भी हैं। लेकिन जब तुम कहते हो 'जैन श्रावक', 'जैन साधु' तो न तो कुन्दकुन्द जैन हैं, न उमास्वाति जैन हैं। मतलब यह है कि Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ महावीर : मेरी दृष्टि में जिनको जैन होने का कोई पागलपन नहीं है। जिनको जैन होने का पागलपन है, वे कभी नहीं पहुँचते। क्योंकि जैन होने का भ्रम व्रत आदि से होता है कि मैं रात को खाना नहीं खाता इसलिए मैं जैन हूँ, कि मैं पानी छानकर पीता हूँ इसलिए मैं जैन हूँ, कि मैंने अणुव्रत लिए हुए हैं इसलिए मैं जैन हूँ, कि मैं सामायिक करता हूँ, इसलिए मैं जैन हूँ। यानी उसका जैन होना व्रतों पर ही निर्भर है। वह श्रावक है, तो श्रावक के व्रत हैं। साधु है तो साधु के व्रत हैं। अवती बात ही अलग है। सब अव्रती है । लेकिन अव्रती स्थिति में जो प्रज्ञा को जगाता है तो वह अव्रती सम्यक् हो जाता है। प्रश्न : मैं समझता हूं कि जैसा शास्त्र कह ही रहे हैं कि जो व्यक्ति बत, अन्त दोनों से ऊपर हो जाता है वही बात आप कह रहे हैं। उत्तर : वह तो पीछे होगा। लेकिन व्रत पालनेवाला, व्रत बांधनेवाला कभी नहीं हो पाएगा। समझ आएगो तो चीजें मिट जाती हैं । उदाहरण के लिए, अगर समझ आएगी तो हिंसा मिट जाती है। शेष रह जाती है अहिंसा । लेकिन व्रती की हिंसा भीतर होती है और वह अहिंसा थोपता है। व्रती की अहिंसा हिंसा के विरोध में तैयार करनी पड़ती है। प्रज्ञावान् की हिंसा विदा हो जाती है, शेष रह जाती है अहिंसा । प्रज्ञावान् की अहिंसा हिंसा का विरोध नहीं है, वह हिंसा का अभाव है। व्रती की अहिंसा हिंसा का विरोध है, अभाव नहीं। और जिसका विरोष है, वह सदा मौजूद रहता है। वह कभी नहीं मिटता। प्रश्न : व्रत निरर्थक है । यह व्रत पालने से मालूम पड़ेगा? उत्तर : हां, बिल्कुल पड़ेगा। और जितने व्रती हैं, उनको जितने जोर से मालूम पड़ता है, उतना आपको नहीं मालूम पड़ता। अगर वे भी सेक्स को तरह इसमें मूच्छित ही लगे हों कि रोज सुबह मन्दिर चले जाते हैं मूच्छित और कभी जागकर नहीं देखा कि क्या मिला, यह प्रश्न ही अगर न पूछा तो जन्म जन्मान्तर तक व्रत मानते रहेंगे। यह प्रश्न पूछ लिया हो तो अभी टूट जाएगा इसी वक्त । अगर व्रती समझ ले मेरी बात को तो उसको जल्दी समझ में आ जाएगी बजाए आपके। क्योंकि उसको व्रत की व्यर्थता का अनुभव भी है। लेकिन वह अनुभव को देखना नहीं चाहता, मूर्छा की तरह चला जाता है। वह कहता है अभी. नहीं हुआ तो कल होगा, कल नहीं हुआ तो परसों होगा और कुछ तो हो ही रहा है। मेरे पास लोग आते हैं और कहते हैं कि मैं Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-११ ३४६ इतने दिन से णमोकार का पाठ कर रहा हूँ तो मैं पूछता हूँ उससे क्या हुआ ? वह कहता है, बड़ा अच्छा लग रहा है, शांति लग रही है। फिर थोड़ी देर में मुझसे पूछता है : शांति का कोई उपाय बताइए? मैं कहता हूँ : अब मैं कैसे बताऊँ तुम्हें जब मिल ही रही है शांति । वह कहता है : नहीं, अभी कुछ खास नहीं मिल रही। मैं कहता हूँ : तुम मुझे बिल्कुल साफ-साफ कहो। अगर थोड़ा-थोड़ा लगता है तो करते चले जाओ, धीरे-धोरे ज्यादा लगने लगेगा फिर मुझसे मत पूछो। तुम बिल्कुल ईमानदारी से कहो कि सच में कुछ हुआ है। वह कहता है : कुछ हुआ तो नहीं है। यानी वह जो कह रहा था उसकी भी उसे होश नहीं थी कि वह क्या कर रहा है। एक आदमी कहता है कि मैं मन्दिर जाता हैं रोज । वह फिर भी पूछता है : "शान्ति चाहिए"। उसको पूछो तो वह कहता है कि मन्दिर जाने से शान्ति मिलती है। मिलती है तो फिर अब और क्या शांति चाहिए ? ठीक है, जाओ। वह कभी जागा हुआ ही नहीं है कि वह क्या कह रहा है, क्या कर रहा है, वह भी सुनी-सुनाई बातें दोहरा रहा है। यानी मन्दिर जाने से शांति मिलती है, यह उसने सुना है और वह मन्दिर जाता है। अब वह भी कह रहा है कि बड़ो शांति मिलती है। ___ अगर जगे कोई व्रती तो व्रत से एकदम मुक्त हो जाए। अवती भी समझ ले तो उसके भो समझ में आ सकता है, क्योंकि ऐसे हम अवती भले हों, चाहे हमने कभी कसम खाकर व्रत न लिए हों लेकिन वैसे किसी न किसी रूप में हम सब व्रती हैं । जैसे कि आपने शादी की तो पत्नीव्रत या पतिव्रत लिया। आपको ख्याल में नहीं है। मन्दिर में जाकर नहीं लिया जाता, वह तो हम चौबीस घंटे जो भी कर रहे हैं, उसमें व्रत पकड़ रहे हैं। और अगर हम जाग जाएं तो हमको पता चले कि कुछ हुआ नहीं है उस व्रत से। चीजें कहीं बदली नहीं हैं। और चित्त वैसा ही रह गया है जैसा था। चित्त की वही दौड़ हैं, वही भाग है। वह तो सभी चीजें अनुभव से आती हैं लेकिन जिन्दगी में व्रत चल हो रहे हैं चौबीस घंटे । जैसे एक व्यक्ति है जो कहता है : "मेरे पिता है, इसलिए मैं उनकी सेवा कर रहा हूँ।" यह व्रत ले रहा है सेवा का । इसको पिता की सेवा करने में कोई आनन्द नहीं है। यह कह रहा है : "कर्तव्य है"। यह व्रती आदमी है । पिता की सेवा भी कर रहा है और. पूरे वक्त क्रोध से भी भरा हुआ है कि कब छुटकारा हो जाए, यह पैर दबाने से कब छुटकारा मिले ? लेकिन यह व्रतपूर्वक, नियमपूर्वक कर रहा है। पिता है इसलिए कर रहा है। अब सच बात तो यह है कि इसको कभी आनन्द नहीं मिलेगा। यानी पिता है', Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० महावीर । मेरी दृष्टि में इसलिए पैर दबाऊं, अगर यह कर्त्तव्य भाव है तो आनन्द कभी नहीं मिलेगा। और अगर इसे आनन्द आ रहा है पैर दबाने में तो फिर व्रत नहीं रह गया। फिर इसकी एक समझ है, एक प्रेम है, एक दूसरी बात है। एक नर्स है । वह एक बच्चे को व्रतपूर्वक पाल रही है। एक मां है। वह अपने बच्चे को आनन्द. पूर्वक पाल रही है। और अगर कोई उस माँ से पूछेगा कि 'तूने अपने बेटे के लिए बहुत किया तो वह कहेगी कि कुछ भी नहीं कर पाई। जो कपड़े देने थे नहीं दे पाई, जो खाना देना था नहीं दे पाई। लेकिन कोई नर्स से पूछे : 'तुमने फलां लड़के के लिए बहुत किया।' वह कहेगी : 'बहुत किया। पांच बजे सुबह से काम पर जाती थी, पांच बजे शाम को लौटती थी । बहुत किया।' ___ कर्त्तव्य, व्रत की भाषा है, व्रत की बात है। प्रेम अव्रत की भाषा है, अव्रत की बात है। लेकिन अव्रत अकेले काफी नहीं है। अव्रत और जागरण । वह कोई भी करे, जैन करे, मुसलमान करे, ईसाई करे, पुरुष करे, स्त्री करे, इससे कोई सम्बन्ध नहीं है। घटना उस करने से घटती है। लेकिन होता क्या है : परम्पराएं धीरे-धीरे जड़ नियम बन जाती हैं और जड़ नियम थोपने की प्रवृत्ति शुरू हो जाती है और जब जड़-नियम थोप दिए जाते हैं और लोग उन्हें स्वीकार कर लेते हैं तो वे जड़ नियम भी लोगों को जड़ करते हैं। इसलिए व्रती.व्यक्ति जड़ होता चला जाता है धीरे-धीरे । प्रश्न : महावीर का पौष या व्रती का जागरण जल्दी फलित होगा या अवती का जागरण जल्दी फलित होगा ? - उत्तर : जागरण, चाहे वह अव्रती का हो या व्रती का हो, फलीभूत होता है। आप जिस स्थिति में हों, वहीं जाग जाएं। हम किसी न किसी स्थिति में हैं हो, किन्हीं-न-किन्हीं सीमाओं में बंधे हैं, कुछ न कुछ कर रहे हैं । कोई दूकान चला रहा है, कोई मन्दिर में पूजा कर रहा है, कोई मकान बना रहा है, कोई मन्दिर बनवा रहा है, कोई उपवास कर रहा है, कोई खाना खा रहा है। हम कुछ न कुछ कर रहे हैं। हम जो भी कर रहे हैं उसके प्रति जागरण फलीभूत होता है। हम जो भी कर रहे हैं इससे कोई सम्बन्ध नहीं । एक आदमी चोरी कर रहा है और एक आदमी पूजा कर रहा है। करने के प्रति जागने से फल आना शुरू हो जाता है। चोरी करने वाला चोरी करने के प्रति जाग जाए तो वही फल लाएगा। जागरण के पीछे बल होगा अवश्य । पवन : व्रती का ज्यादा होगा या अवती का? Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-११ ३५१ उत्तर : असल बात यह है कि यह होगा । यह बड़ी बात है। बड़ी इसलिए है कि कौन सा व्रत ? एक आदमी व्रत लिए है पांच बार माला फेर लेना । एक आदमी चोरी करने जा रहा है। यह प्रत्येक घटना पर निर्भर करेगा कि क्या व्रत या क्या अव्रत ? लेकिन कुल कीमत की बात इतनी है कि आदमी जो भी कर रहा है, उसके प्रति उसे जागकर करना है। वह मन्दिर जा रहा हो तो भी जागना है, वेश्यालय जा रहा हो तो भी नागना है । जो भी करे उसे होशपूर्वक करना है। होशपूर्वक करने से जो शेष रह जाएगा वह धर्म है। जो मिट जाएगा, वह अधर्म है। प्रश्न : महावीर क्या इसी जागरूकता को पौष और क्षात्रधर्म मान रहे है या कोई और पौरुष है ? उत्तर । इसको ही, इससे बड़ा और कोई पौरुष नहीं है। नींद तोड़ने से बड़ा कोई पौरख नहीं है। प्रश्न : पर मापने यह मेद किया कि एक मार्ग आत्मसमर्पण का है, दूसरा पौष का है। उत्तर : हाँ, हां, नींद तोड़ना दोनों में बराबर है। मगर बिल्कुल ही अलगअलग रास्ते से नींद टूटेगी। समर्पण करने वाले की नींद अगर थोड़ा भी पौरुष हुआ तो नहीं टूटेगी। क्योंकि समर्पण करने में एकदम स्त्रीभाव चाहिए । यानी समर्पण करने में यही पौष होगा कि पौरुष बिल्कुल न हो। और पौरुष करने वाले में यही पौरुष होगा कि उसमें समर्पण का भाव न हो जरा भी। महावीर के हाथ तुम किसी के प्रति नहीं जुड़वा सकते हो। तुम कल्पना ही नहीं कर सकते हो कि यह आदमी हाथ जोड़े हुए खड़ा हो कहीं। प्रश्न : वह अपने आन्तरिक शत्रुओं से लड़ा, यह पोरष नहीं है ? उत्तर : नहीं, नहीं, कोई आन्तरिक शत्रु नहीं है सिवाय निद्रा के, मूर्छा के, प्रमाद के । इसलिए महावीर से कोई पूछे : धर्म क्या है ? वह कहेंगे : अप्रमाद । और अधर्म क्या है ? वह कहेंगे : प्रमाद। कोई पूछे कि साधुता क्या है ? वह कहेंगे : अमूर्छा। असाधुता क्या है : वह कहेंगे : मूर्छा। और सारी साधना का सूत्र है विवेक । कैसे कोई जागे, कैसे कोई होश से भरा हुआ हो तो महावीर का पौरुष काम, क्रोध, लोभ से लड़ने में नहीं है । क्योंकि ये तो लक्षण हैं सिर्फ । इनसे पागल लड़ेगा। इनसे महावीर नहीं लड़ सकता। मूर्छा है मूल वस्तु । काम, क्रोध, लोभ, सब उससे पैदा होते हैं। जैसे कि तुम्हें बुखार चढ़ा। अगर Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ महावीर : मेरी दृष्टि में तक खबर पहुंचाने वाले जो स्नायु तन्तु हैं, वे हिलते हैं। अंगूग सिर में तो है नहीं। अंगूठा तो छः फुट दूर है। दर्द अंगूठे में होता है, सिर में पता चलता है । पता लाने के लिए जो तन्तु हैं, वे हिलते हैं बीच में। उन तन्तुओं के खास ढंग से हिलने से दर्द पता चलता है। अंगूठा तो कट गया, वे तन्तु उसी खास ढंग से हिले जा रहे हैं। वे तन्तु जो आगे के हैं उसी तरह से काप रहे हैं जिस तरह दर्द में कांपना चाहिए। दर्द का पता चल रहा है और अंगूठे में पता चल रहा है जो है ही नहीं। क्योंकि वह अंगूठे के दर्द की खबर लाने वाला तन्तु है। इसके बाद तो फिर बड़ी काम की चीजें हाथ लगीं। फिर तो यह पता चला कि आपके कान के पीछे जो तन्तु हैं उनमें खास तरह की चोट करके आपके भीतर खास तरह की ध्वनियां पैदा की जा सकती हैं। जैसे मैंने कहा : राम! तो आपके कान के भीतर का तन्तु एक खास ढंग से हिला । कोई राम बाहर न कहे मगर सिर्फ उस तन्तु को आपके कान के पीछे इस तरह से हिला दे जैसे राम बोलते वक्त हिलता है तो आपके भीतर राम सुनाई पड़ेगा । जैसे आपकी आँख है, उससे रोशनी भीतर जाती है । तन्तु एक तरह से हिलते हैं। आपकी आंख बंद कर दी जाए और सिर के भीतर इलेक्ट्रोड डालकर आँख के तन्तु इस प्रकार हिला दिए जाएँ जैसा कि वे प्रकाश के बक हिलते है, आपको भीतर प्रकाश दिखाई पड़ेगा और आप अंधेरे में यह मैं इसलिए कह रहा हूँ कि भूत, प्रेत, देवताओं के लिए दो उपाय है जिससे वे वाणी पैदा कर सकें। एक उपाय यह है कि वे किसी मनुष्य के शरीर का उपयोग करें जैसा कि आमतौर पर वे करते हैं। तब वे बोल सकते हैं। क्योंकि वे आपके कंठ का, आपके बोलने के यंत्र का उपयोग कर लेते हैं । दूसरा उपाय यह है कि आपके रिसीविंग सेन्टर पर, आपके रेडियो स्टेशन पर तरंगें पैदा की जा सकें तो आपका रिसीविंग सेंटर कहेगा कि आवाज हो रही है । इसलिए उस दस मिनट में जो आवाजें पकड़ी गई उनमें कोई शब्द नहीं पकड़े गए । सिर्फ रोने, हंसने, शोरगुल की आवाजें थीं वे । कोई शब्द नहीं है स्पष्ट । शब्द स्पष्ट पैदा करना बहुत कठिन है। लेकिन इस तरह की तरंगें पैदा की जा सकती है कि वे रोने, चिल्लाने, शोर-गुल की आवाजें पैदा कर दें। वे तरंगे ही पैदा की गई हैं। वे तरंगे पैदा करने के लिए वाणी की जरूरत नहीं है। तरंगें पैदा करने के दो ही उपाय है। या सीधी तरंगें पैदा कर दी जाएं या किसी मनुष्य के यंत्र का उपयोग किया जाए। भामतीर Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरसावधान-११ ३५९ से मनुष्य के यंत्र का उपयोग किया जाता है लेकिन तरंगें भी पैदा की जा सकती हैं । वहाँ बोलने वाले की जरूरत नहीं है। बोलने से जो तरंगें मंडल में पैदा होती हैं वे पैदा कर दी जाएं तो वे जो भी मनोकामना करें, पैदा हो जाती है। वह अगर शोरगुल की मनोकामना करें तो शोरगुल पैदा हो जाए। और जैसा मैंने कहा कि देव या प्रेत योनि में जो सबसे बड़ी अद्भुत खूबी की बात है, वह यह है कि वहां कंठ की जरूरत नहीं, वाणी की जरूरत नहीं, सिर्फ मनोकामना पर्याप्त है। Page #311 --------------------------------------------------------------------------  Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #313 --------------------------------------------------------------------------  Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : आपने कहा कि सामायिक आत्म-स्थिति है। लेकिन जिसे आप सामायिक या आत्म-स्थिति कह रहे हैं क्या वह वीतरागता ही नहीं ? और जब व्यक्ति मात्म-स्थिति में यानी चेतना-स्थिति में हो गया है तो फिर वह जीवन-व्यवहार में माकर क्या आत्म-स्थिति को नहीं खो देगा? उत्तर : नहीं, नहीं खो देगा। जैसे कि आप स्वांस ले रहे हैं, तो चाहे जगें, चाहे सोएं, चाहे काम करें, चाहे न करें, स्वांस चलती रहेगी क्योंकि वह जीवन की स्थिति है । ऐसी ही चेतना को स्थिति है । और एक बार वह हमारे ख्याल में आ जाए तो फिर वह मिटती नहीं। यानी जीवन-व्यवहार में उसका ध्यान नहीं रखना पड़ता कि वह बनी रहे, वह बनी ही रहती है। जैसे एक आदमी धनपति है और उसे पता है कि मेरे पास धन है तो उसे चौबीस घंटे याद नहीं रखना पड़ता कि वह धनपति है। लेकिन वह धनपति होने की स्थिति उसकी बनी रहती है चौबीस घंटे। चाहे वह कुछ भी कर रहा हो, वह सड़क पर चल रहा है, काम कर रहा है, उठ रहा है, बैठ रहा है इससे कोई मतलब नहीं। एक भिखारी है, वह कुछ भी कर रहा है। उसकी वह . स्थिति भिखारी होने की बनी ही रहती है। हमारी स्थितियां हमारे साथ ही चलती हैं । होनी चाहिए बस यह है बड़ा सवाल। तो एक पल के हजारवें हिस्से में भी अगर हमें अनुभव में आया है तो वह बना रहेगा क्योंकि हमारे पास पल के हजारवें हिस्से से बड़ा कोई समय होता ही नहीं। उतना ही समय होता है हमेशा । जब भी होगा, उतना ही होगा। वह हमें दिखाई पड़ गया तो बना रहेगा। गीता में जिसे स्थितप्रज्ञ कह रहे हैं, वह वही बात है। उसमें कुछ फर्क नहीं। सामायिक और वीतराग में जो समानता दिखाई Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ महावीर । मेरी दृष्टि में पड़ती है उसका मतलब कुल इतना है कि 'सामायिक' है मार्ग, 'वीतरागता' है उपलब्धि । इससे जाना है, वहां पहुंच जाना है । तो दोनों में मेल होगा ही। यहां थोड़ा सा समझ लेना उपयोगी है। सामायिक के लिए मैंने जो कहा, वीतरागता के लिए जो कहा, वह बिल्कुल समान प्रतीक होगा क्योंकि 'सामायिक' मार्ग है, वीतरागता मंजिल है। सामायिक द्वार है, वीतरागता उपलब्धि है। साधना और साध्य अन्ततः अलग-अलग नहीं हैं। क्योंकि साधन हो विकसित होते-होते साध्य हो जाता है। तो वीतरागता में परम उपलब्धि होगी उसकी जिसे सामायिक में धीरे-धीरे उपलब्ध किया जाता है। सामायिक में पूरी तरह स्थिर हो जाना वीतरागता में प्रवेश करना है। कृष्ण ने जिसे "स्थिर' या 'स्थितप्रज्ञ' कहा है, वह वही है जो वीतराग है। निश्चित ही वह वही है । दोनों शब्द बहुमूल्य है । वीतराग वह है जो सब द्वन्द्वों के पार चला गया है, सब दो के पार चला गया है, जो एक में ही पहुंच गया है। अब ध्यान रहे कि स्थिर या स्थितप्रज्ञ का अर्थ है जिसकी प्रज्ञा ठहर गई, जिसको प्रज्ञा कांपती नहीं। प्रज्ञा उसकी कांपती है जो द्वन्द्व में जीता है, दो के बीच में जीता है । वह कांपता रहता है, कभी इधर कभी उधर । जहाँ द्वन्द्व है, वहाँ कम्पन है। जैसे कि एक दिया जल रहा है । तो दिए की लो कांपती है क्योंकि हवा कभी पूरब झुका देती है, कभी पश्चिम झुका देती है। दिया कांपता रहता है। दिए का कंपन तभी मिटेगा जब हवा के झोके न हों, यानी जब इस तरफ, उस तरफ जाने का उपाय न रह जाए, दिया वहीं रह जाए जहां है । तो कृष्ण उदाहरण देते हैं कि जैसे किसी बन्द भवन में जहां हवा का कोई झोंका न जाता हो दिया स्थिर हो जाता है ऐसे ही जब प्रज्ञा, विवेक, बुद्धि स्थिर हो जाती है और कांपती नहीं; डोलती नहीं तब वैसा व्यक्ति 'स्थितधी' है, 'स्थितप्रज्ञ' है । वीतराग का भी यही मतलब है कि जहां राग और विराग खो गया, जदा द्वन्द्व खो गया वहीं कांपने का उपाय सो गया और जब चित्त कांपता नहीं है तो वह स्थिर हो जाता है, ठहर जाता है। महावीर ने द्वन्द्व के निषेष पर जोर दिया है इसलिए वीतराग शब्द का उपयोग किया है। द्वन्द्व के निषेष पर जोर है, द्वन्द्व न रह जाए। कृष्ण ने द्वन्द्व की बात ही नहीं की, स्थिरता पर जोर दिया है। एक ही चीज को दो तरफ से पकड़ने की कोशिश की है दोनों ने । कृष्ण पकड़ रहे हैं दिए की स्थिरता से; महावीर पकड़ रहे है द्वन्द्र के निषेध से। लेकिन इनका निषेष हो तो प्रक्षा स्थिर हो जाती है, प्रज्ञा स्थिर हो जाए तो इन्द्र का निषेष हो जाता है। ये दोनों एक ही अर्थ रखते हैं। इनमें जरा भी फर्क नहीं है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ और आपने पूछा है कि एक क्षण में, एक क्षण के हजारवें हिस्से में जिसे समय कहते हैं अगर ज्ञान उपलब्ध हो गया, दर्शन हुआ तो क्या जीवन व्यवहार में वह स्थिर रहेगा? असल में जीवन व्यवहार आता कहाँ से है ? जीवन व्यवहार आता है हमसे ! तो जो हम हैं, गहरे में, जीवन व्यवहार वहीं से आता है । अगर झरना जहर से भरा है, अगर मूल स्रोत जहर से भरा है तो जो लहरे छलकतीं हैं, जो बिन्दु फिरते हैं, और बूंद उचटती है उनमें जहर होगा। अगर मूल स्रोत अमृत से भर गया तो फिर उन्हीं बूंदों में, उन्हों लहरों में अमृत हो जाता है । जीवन व्यवहार हमसे निकलता है। हम जैसे हैं वैसा ही हो जाता है। हम मूच्छित है तो जीवन व्यवहार मच्छित होता है। जो हम करते हैं, उसमें मूर्छा होती है। हम अज्ञान में हैं तो जीवन-व्यवहार अज्ञान से भरा होता है। और अगर हम ज्ञान में पहुंच गए तो जीवन व्यवहार ज्ञान से भर जाता है। जैसे यह कमरा अंधेरे से भरा हो तो हम घिर उठते हैं और निकलने की कोशिश करते हैं। कभी द्वार से टकरा जाते हैं, कभी दीवार से टकरा जाते हैं, कभी फर्नीचर से टकरा जाते हैं। बिना टकराए निकलना मुश्किल होता है। और कई बार ऐसा हुआ है कि टकराते ही रहते हैं और नहीं निकल पाते । निकल भी जाते हैं तो टकराए बिना नहीं निकल पाते हैं। फिर कोई व्यक्ति हमसे कहे कि एक दिया जला लो तो हम उससे कहेंगे कि दिया जला लेंगे। लेकिन क्या दिए के जल जाने पर हम बिना टकराए निकल सकेंगे ? क्या फिर टकराना नहीं रड़ेगा? क्या फिर सदा ही हमारा टकराने का जो व्यवहार था बन्द हो जाएगा? तो वह कहेगा कि तुम दिया जलामो और देखो । क्योंकि दिया जलाने पर तुम टकराओगे कैसे ? टकराते थे अंधेरे के कारण । टकराना भी चाहो तो न टकराओगे क्योंकि चाह कर कभी कोई टकराया है और द्वार जब दिखलाई पड़ेगा तो तुम दीवार से क्यों निकलोगे ? दीवार से भी निकलने की. कोशिश चलती थी क्योंकि द्वार दिखाई नहीं पड़ता था। ज्योति जल जाए भीतर तो वह ऐसी नहीं है कि क्षण भर जले और फिर बुझ जाए, दिया हम जलाएं, वह फिर बुझ सकता है, हम फिर टकरा सकते हैं । दिए का तेल चुक सकता है, दिए को बातो बुझ सकती है, हवा का झोंका आ सकता है, हजारों घटनाएं घट सकती है। जला हुआ दिया भी जरूरी नहीं कि जलता ही रहे। बुझ भो सकता है। लेकिन जिस अन्तर्योति की हम बात कर रहे हैं, वह ऐसी ज्योति नहीं है जो कभी बुझती है। अभी भी वह जल रही है। अभी भी जब हम Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ महावीर । मेरी दृष्टि में तो हम न चल उसके प्रति जागे नहीं हैं, वह जल रही है। सिर्फ हम पीठ किए हैं। वह कभी बुझी नहीं क्योंकि वह हमारी चेतना का अन्तिम हिस्सा है, वह हमारा स्वभाव हैं । पीठ फेरेंगे; लौट कर देखेंगे तो उसे जली हुई पाएंगे । जलेगी नहीं वह, जली हुई थी ही, सिर्फ हमारी पीठ बदलेगी । हम पाएँगे कि वह जली है और ऐसी ज्योति जो कभी बुझी नहीं, जो कभी बुझती नहीं, न तेल है, न बाती है, जहाँ जो हमारे अन्तर्जीवन की अनिवार्य क्षमता है, उसको हमने एक बार देख लिया तो बात खत्म हो गई। एक बार हमें पता चल गया कि ज्योति पीछे है फिर हम चाहें भी कि हम पीठ करके चलें ज्योति को तरफ पाएँगे क्योंकि ज्योति की तरफ पीठ करके कोन चल पाया है ? कौन चलेगा ? एक बार जान लें । न जानें तो बात अलग है । इसलिए एक क्षण को भी उसकी उपलब्धि हो जाती है तो वह उपलब्धि सदा के लिए स्थायी हो गई और उसके अनुपात में हमारा जीवन व्यवहार बदलना शुरू हो जाएगा । एकदम ही बदल जाएगा क्योंकि कल जो हम करते थे, वे आज हम कैसे कर सकेंगे ? वह करते थे अंधेरे के कारण । अब है प्रकाश इसलिए वह करना असम्भव है । प्रश्न : एक प्रश्न जो मन में उठता है वह है पुनर्जन्म वाली बात | क्या अन्य प्राणी मनुष्य योनि के अन्दर आ सकते हैं ? और आ सकते हैं तो स्वतः आते हैं या वह उनकी उपलब्धि है ? एक अनिवार्य उत्तर : कर्म के सम्बन्ध में बहुत कुछ समझना जरूरी है क्योंकि जितनी इस बात के सम्बन्ध में नासमझी है, उतनी शायद किसी बात के सम्बन्ध में नहीं । इतनी आमूल भ्रान्तियाँ परम्पराओं ने पकड़ ली हैं कि देख कर आश्चर्य होता है कि किसी सत्य-चिन्तन के आस-पास असत्य की कितनी दीवारें खड़ी हो सकती हैं । साधारणतः कर्मवाद ऐसा कहता हुआ प्रतीत होता है कि जो हमने किया है, वह हमें भोगना पड़ेगा । हमारे कर्म और हमारे भोग में कार्य-कारण सम्बन्ध है । यह बिल्कुल सत्य है कि जो हम करेंगे, हम उससे अन्यथा नहीं भोगते हैं । भोग भी नहीं सकते । कर्म भोग की तैयारी है । असल में, कर्म भोग का प्रारम्भिक बीज है । फिर वही बीज भोग में है । जो हम करते हैं, वही हम भोगते । यह बात तो ठीक है लेकिन कर्मवाद का जो सिद्धान्त प्रचलित मालूम पड़ता है, उसमें ठीक बात को भी इस ढंग से रखा गया है कि वह बिल्कुल गैर ठीक हो गई है । उस सिद्धान्त में ऐसी बात न मालूम किन कारणों से प्रविष्ट हो गई है और वह यह है कि कर्म तो हम अभी करेंगे और भोगेंगे अगले जन्म में । अब कार्य-कारण के बीच कभी प्रन्तराल वृक्ष बन जाता Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ ३६७ नहीं होता । अन्तराल हो ही नहीं सकता। अगर अन्तराल बीच में आ जाएगा तो कार्य-कारण विच्छिन्न हो जाएंगे। उनका सम्बन्ध टूट जाएगा। मैं अभी आग में हाथ डालूंगा तो अगले जन्म में जलूंगा। अगर मुझसे कोई कहे तो यह समझ के बाहर बात हो जाएगी क्योंकि हाथ मैंने अभी डाला और जलँगा अगले जन्म में। कारण तो अभी है और कार्य होगा अगले जन्म में । यह अन्तराल किसी भांति समझाया नहीं जा सकता। और कार्य-कारण में अन्तराल होता ही नहीं । कार्य और कारण एक ही प्रक्रिया के दो रूप हैं, जुड़े हुए और संयुक्त । इस छोर पर जो कारण है उसी छोर पर वह कार्य है। और यह पूरी श्रृंखला जुड़ी हुई है। इसमें कहीं क्षण भर के लिए भी अगर अन्तराल हो गया तो श्रृंखला टूट जाएगी। लेकिन इस तरह के सिद्धान्त की, इस तरह की भ्रान्ति की कुछ वजह थी और वह यह कि जीवन में हम देखते हैं कि एक आदमी भला है और दुःख उठाता हुआ मालूम पड़ता है। एक आदमी बुरा है और सुख उठाता हुना मालूम पड़ता है। इस घटना ने कर्मवाद के पूरे सिद्धान्त की गलत व्याख्या को जन्म दिया है। इस घटना को कैसे समझाया जाए ? अमर प्रतिपल हमारे कार्य और कारण जुड़े हुए हैं तो फिर इसे कैसे बताया जाए ? एक आदमी भला है, सच्चरित्र है, ईमानदार है और दुःख भोग रहा है, कष्ट पा रहा है, और एक मादमी पुरा है, बेईमान है, बदमाश है और सुख पा रहा है, पद पा रहा है, यश पा रहा है, धन पा रहा है। इस घटना को कैसे समझाया जाए ? अगर अच्छे कार्य तत्काल फल लाते हैं तो अच्छे बादमी को सुख भोगना चाहिए। और अवर पुरे कार्य तत्काल बुरा लाते हैं, तो बुरे आदमी को दुःख भोगमा चाहिए। लेकिन यह तो दिखता नहीं। भला आदमी परेशान दिखता है, बुरा आदमी परेशान नहीं दिखता। तो इसको कैसे समझाएं ? इसको समझाने के पागलपन में गड़बड़ हो गई। तब रास्ता एक ही मिला कि नो गच्छा भादमी दुःख भोग रहा है, वह अपने पिछले बुरे कार्यों के कारण और जो बुरा आदमी, सुख भोग रहा है वह अपने पिछले अच्छे कर्मों के कारण । हमें एक-एक जीवन का अन्तराल खड़ा करना पड़ा इस स्थिति को सुलझाने के लिए। लेकिन इस स्थिति को सुलझाने के दूसरे उपाय हो सकते थे और असल में दूसरे उपाय ही सच है । यह स्थिति इस तरह सुलझाई नहीं गई बल्कि कर्मवाद का पूरा सिद्धान्त विकृत हो गया है भोर कर्मवाद को उपादेयता भी नष्ट हो गई है। कर्मवाद की उपादेयता थी कि हम प्रत्येक व्यक्ति को कह सके कि तुम जो कर रहे हो, वही तुम भोग रहे हो। इसलिए तुम ऐसा करो कि तुम सुख भोग Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ महावीर : मेरी दृष्टि में सको, आनन्द भोग सको। उपादेयता यह थी। उसका जो गहरे से गहरा परिणाम होना चाहिए था व्यक्ति के चित्त पर वह यह था कि तुम जो कर रहे हो वही तुम भोग रहे हो। अगर तुम क्रोष करोगे तो दुःख भोगोगे, भोग हो रहे हो। इसके पीछे ही वह आ रहा है छाया की तरह । बगर तुम प्रेम कर रहे हो, शान्ति से जी रहे हो, दूसरे को शान्ति दे रहे हो तो तुम शान्ति अजित कर रहे हो जो आ रही है पीछे उसके, जो तुम्हें मिल जाएगी, मिल ही गई है। यह तो अर्थ था उसका । लेकिन इस सिद्धान्त का इस तरह से उपयोग करना जीवन की इस घटना को समझने के लिए उस अर्थ को नष्ट कर देगा। क्योंकि कोई भी व्यक्ति इतना दूरगामी चित्त का नहीं होता कि वह अभी कर्म करे और अगले जन्म में मिलने वाले फल से चिन्तित हो। होता ही नहीं इतना दूरगामी चित्त। अगला जन्म अंधेरे में खो जाता है। क्या पक्का भरोसा है अगले जन्म में। पहले तो यही पक्का नहीं कि अगला जन्म होगा। दूसरा यह पक्का नहीं कि जो कर्म अभी फल नहीं दे पा रहा, वह अगले जन्म में देगा। अगर एक जन्म तक रोका जा सकता है फल को तो अनेक जन्मों तक क्यों नहीं रोका जा सकता ? फिर दूसरी बात यह कि मनुष्य का चित्त तत्कालजीवी है। चित्त को यह क्षमता ही नहीं है कि वह इतनी देर तक की व्यवस्था को पकड़ सके। वह जीता तत्काल है। वह कहता है, ठीक है, अगले जन्म में जो होगा, होगा। अभी जो हो रहा है, वह हो रहा है। अभी मैं सुख से जी रहा हूँ। अभी मैं क्यों चिन्ता करूं अगले जन्म की। जो उपादेयता थी वह भी नष्ट हो गई, जो सत्य था वह भी नष्ट हो गया। सत्य है कार्यकारण सिद्धान्त जिस पर सारा विज्ञान खड़ा हुआ है। और अगर कार्य-कारण सिद्धान्त को हटा दो तो सारा विज्ञान का भवन गिर जाएगा। ह्य म ने इंग्लण्ड में इस बात की कोशिश की कि कार्य-कारण का सिद्धान्त गलत सिद्ध हो जाए। वह बहुत कुशल और अद्भुत विचारक था। उसने कहा कि तुमने कार्य-कारण देखा कर है। तुमने देखा है कि एक आदमी ने आग में हाथ डाला और उसका हाथ जल गया। लेकिन तुम यह कैसे कहते हो कि आग में डालने से हाथ जल गया। दो घटनाएं तुमने देखीं। आग में हाथ डाला यह देखा। हाथ जला हुआ निकला यह देखा। लेकिन आग में डालने से जला, इस बोच के सूत्र तुम कैसे पहचान गए ? तुम्हें यह कहां से पता चला ? हो सकता है कि ये दोनों घटनाएं कार्य-कारण न हों, सिर्फ सहगामी घटनाएं हों। जैसे ह्यम ने कहा कि दो घड़ियां हमने बना ली। दो घड़ियां लटका Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १२ ३६९. लीं दीवार पर जिनमें भीतर कोई सम्बन्ध नहीं । लेकिन, ऐसी व्यवस्था की कि एक घड़ी में जब बारह बजेंगे तो दूसरी घड़ी बारह के घंटे बजाएगी । यह व्यवस्था हो सकती है । इसमें क्या तकलीफ है ? एक घड़ी में जब बारह पर कांटा जाएगा तो दूसरी घड़ी बारह के घंटे बजा देगी । कार्य-कारण सिद्धान्त मानने वाला कहेगा कि जब इसमें बारह बजते हैं तब इसमें बारह के घंटे बजते हैं । इनके बीच कार्य-कारण का सम्बन्ध है जब कि वे सिर्फ समानान्तर चल रही है । कोई सम्बन्ध वगैरह है ही नहीं । ह्यूम ने कहा कि हो सकता है कि प्रकृति में कुछ घटनाएँ समानान्तर चल रही हों। यानी इधर तुम आग में हाथ डालते हो उधर हाथ जल जाता है और दोनों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं रहता । क्योंकि सम्बन्ध कभी देखा नहीं गया । घटनाएँ देखी गईं । तुम दोनों का सम्बन्ध कैसे जोड़ते हो ? तो ह्यूम ने बड़ी चेष्टा की कार्य-कारण सिद्धान्त को गलत सिद्ध करने की। अगर ह्य ूम जीत जाता तो पश्चिम में साइंस खड़ी न हो सकती । क्योंकि साइंस खड़ी हो रही है इस आधार पर कि चीजों के सम्बन्ध जोड़े जा सकते हैं । एक आदमी क्षयग्रस्त है, तो हिसाब से इलाज कर पाते हैं कि उसको जो कीटाणु हैं, वे दवा देने से मर जाएँगे । यह दवा उनकी मृत्यु का कारण बनेगी और मृत्यु कार्य हो जाएगी । तो हम इलाज कर लेते हैं । फलां बम पटकने से आग पैदा होगी, लोग मर जाएँगे तो बम बन जाता है । हम कारण कार्य के धर्म भी विज्ञान है और वह भी कार्य-कारण सिद्धान्त पर बड़ा है । अगर चार्वाक जीत जाए तो धर्म गिर जाए पूरा का पूरा । जो ह्य ूम विज्ञान के खिलाफ कह रहा है, वही चार्वाकों ने धर्म के खिलाफ कहा है : "लाओ, पिओ, मोज करो क्योंकि कोई भरोसा नहीं है कि जो बुरा करता है, उसको बुरा ही मिलता है, देखो एक आदमी बुरा कर रहा है और भला भोग रहा है । कहाँ कोई कारण का सम्बन्ध है इसमें ? एक आदमी भला कर रहा हैं और पीड़ा झेल रहा है । कोई कार्य-कारण का सम्बन्ध नहीं है ।" इसलिए चार्वाकों ने कहा : "ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।" अगर ऋण लेकर भी घी पीने को मिले तो पिओ क्योंकि ऋण चुकाने की जरूरत क्या है ? सबाल जसलो में घी मिलने का है । वह कैसे मिलता है, यह सवाल ही नहीं है । और तुमने ऋण में लिया और नहीं चुकाया, तो इसका बुरा फल मिलेगा, वह सब पागलपन की बातें हैं । कहाँ फल मिल रहे हैं ? ऋण लेने वाले मजा कर रहे हैं; न लेने वाले दुःख उठा रहे हैं । कोई कार्य-कारण का सिद्धान्त नहीं है। ह्यूम • २४ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० महावीर : मेरी दृष्टि में ने इंग्लैंड में विज्ञान के खिलाफ जो बात कही, अगर हम जीत जाता तो विज्ञान का जन्म नहीं होता। अगर चार्वाक जीत जाता तो धर्म का जन्म नहीं होता क्योंकि चार्वाक ने भी यही कहा कि इसमें कोई क्रम नहीं है। असम्बद्ध क्रम है घटनामों का। चोर मजा कर सकता है, अचोर दुःख उठा सकता है। क्रोधी मानन्द कर सकता है, अक्रोधी पीड़ा उठा सकता है। जीवन के सभी कर्म असम्बद्ध हैं। इनमें कोई सम्बन्ध ही नहीं है। और यदि कहीं कोई सम्बन्ध दिखाई पड़ता है तो वह समानान्तरता की भूल है। वह सिर्फ इसलिए दिखाई पड़ जाता है कि चीजें समानान्तर कभी-कभी घट जाती हैं। बस बोर कोई मतलब नहीं है । लेकिन बुद्धिमान् आदमी इस चक्कर में नहीं पड़ता है, चार्वाक ने कहा । बुद्धिमान् आदमी जानता है कि किसी कर्म का किसी फल से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए जो सुखद है, वह करता है चाहे लोग उसे बुरा कहें चाहें भला कहें क्योंकि दुबारा लौटना नहीं है, दुबारा कोई जन्म नहीं है । ___ चार्वाक के विरोध में ही महावीर का कर्म सिद्धान्त है। इस विरोध में ही कि न तो वस्तु-जगत् में और न चेतना-जगत् में कार्य-कारण के बिना कुछ हो रहा है। विज्ञान में तो स्थापित हो गई बात ह्य म हार गया और विज्ञान का भवन खड़ा हो गया। लेकिन धर्म के जगत् में अब भी स्थापित नहीं हो सकी यह बात । और न होने का बड़े से बड़ा जो कारण बना वह यह कि विज्ञान कहता है : अभी कारण, अभी कार्य; तथाकथित धार्मिक कहते हैं : अभी कारण, कार्य अगले जन्म में । इससे सब गड़बड़ हो गया। यानी धर्म का भवन खड़ा नहीं हो सका। इस अन्तराल में सब बेईमानी हो गई। क्योंकि यह अन्तराल एकदम झूठ है। कार्य और कारण में अगर कोई सम्बन्ध है तो उसके बीच में अन्तराल नहीं हो सकता क्योंकि अन्तराल हो गया तो सम्बन्ध क्या रहा ? चीजें असम्बद्ध हो गई, अलग-अलग हो गई। फिर, कोई सम्बन्ध न रहा। और यह व्याख्या नैतिक लोगों ने खोज ली क्योंकि वे समझा नहीं सके जीवन को। तो जीवन की पहली बात मैं आपको समझा दूं जिसकी वजह से यह अन्तराल टूटे । मेरी अपनी समझ यह है कि प्रत्येक कर्म तत्काल फलदायी है। जैसे मैंने क्रोध किया तो मैं क्रोध करने के क्षण से ही क्रोध को भोगना शुरू करता है। ऐसा नहीं कि अगले जन्म में क्रोध का फल भोगू । क्रोष करता हूँ और क्रोध का दुःख भोगता हूँ। क्रोष का करना और दुख का भोगना साथ-साथ चल रहा है । कोष विदा हो जाता है. लेकिन दुःख का सिलसिला देर तक चलता है। तो पहला हिस्सा कारण हो गया, दूसरा हिस्सा कार्य हो गया। यह असम्भव है कि कोई Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ ३७१ आदमी क्रोष करे और दुःख न झेले । यह भी असम्भव है कि कोई आदमी प्रेम करे और आनन्द का अनुभव न करे । क्योंकि प्रेम की क्रिया में ही मानन्द का झरना शुरू हो जाता है। एक आदमी रास्ते पर गिरे हुए किसी आदमी को उठाए, उठाए अभी और अगले जन्म तक आनन्द की प्रतीक्षा करे, ऐसा नहीं। उठाने के क्षण में ही भरपूर आनन्द उसके हृदय को भर जाता है। ऐसा नहीं है कि उठाने का कृत्य कहीं अलग है और फिर आनन्द कहीं दूसरी जगह प्रतीक्षा करेगा। तो कहीं कोई हिसाब-किताब रखने की जरूरत नहीं। इसलिए महावीर, भगवान् को बिदा कर सके। अगर हिसाब-किताब रखना है जन्म-जन्मान्तर का तो फिर नियन्ता की व्यवस्था जरूरी है। नियन्ता को जरूरत वहाँ होती है जहाँ नियम का लेखा-जोखा रखना पड़ता है। क्रोध में अभी करूं और फल मुझे किसी दूसरे जन्म में मिले तो इसका हिसाब कहां रहेगा? यह कहाँ लिखा रहेगा कि मैंने क्रोष किया था और मुझे यह-यह फल मिलना चाहिए और कितना क्रोध किया था, कितना फल मिलना चाहिए ? अगर सारे व्यक्तियों के कर्मों को कोई इस तरह की व्यवस्था हो कि अभी हम कम करेंगे फिर कभी अनन्त काल में भोगेंगे तो बड़े हिसाबकिताब की जरूरत पड़ेगी, बड़े खाते-बहियों को। नहीं तो कैसे होगा यह ? फिर इस सब इन्तजाम के लिए एक महालिपिक की भी जरूरत पड़ेगी जो हिसाब-किताब रखता हो। और परमात्मा को बहुत से लोगों ने महालिपिक की तरह ही सोचा हुआ है । तो इनके विचार में वह नियन्ता है, सारे नियम की देखरेख रखता है कि नियम पूरे हो रहे हैं या नहीं। महावीर ने बड़ी वैज्ञानिक बात कही है। उन्होंने कहा : नियम पर्याय हैं, नियन्ता कि जरूरत नहीं है क्योंकि नियम स्वयं वह काम करता है । जैसे आग में हाथ डालते हैं, हाथ जल जाता है। यह आग का स्वभाव है कि वह जलाती है। यह हाथ का स्वभाव है कि वह जलता है। अब डालने की बात है । डालने से संयोग हो जाता है। डालना कर्म बन जाता है और पीछे जो भोगना है वह फल बन जाता है। इसमें किसी को भी व्यवस्थित होकर खड़े होने की जरूरत नहीं। आग को कहने की जरूरत नहीं कि तू अब जला, यह आदमी हाथ डालता है। हाथ डालना और जलना• यह बिल्कुल हो स्वयंभू नियम के अन्तर्गत है। नियम है, नियन्ता नहीं। क्योंकि महावीर कहते हैं कि अगर नियन्ता हो तो नियम में गड़बड़ होने की सम्भावना रहती है। क्योंकि प्रार्थना करें, खुशामद करें, हाथ जोड़ें नियन्ता को। नियन्ता किसी पर खुश Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ महावीर : मेरी दृष्टि में हो जाए, किसी पर नाराज हो जाए तो कभी आग में हाथ जले, कभी न जले। कभी प्रह्लाद जैसे भक्त आग में न जलें क्योंकि भगवान् उन पर प्रसन्न है। तो महावीर कहते हैं कि अगर ऐसा कोई नियन्ता है तो नियम सदा गड़बड़ होगा क्योंकि वह जो नियन्ता है वह एक व्यर्थ की परेशानी खड़ी करता है। अब प्रह्लाद उसका भक्त है तो वह उसको जलाता नहीं। पहाड़ से गिराओ तो उसके पैर नहीं टूटते । और दूसरे किसी को गिराओ तो उसके पैर टूट जाते हैं। तो फिर पक्षपात शुरू होगा। प्रह्लाद की कथा पक्षपात की कथा है। उसमें अपने आदमी की फिक्र को जा रही है। उसमें अपने व्यक्ति के लिए विशेष सुविधाएँ और अपवाद दिए जा रहे हैं। महावीर कहते हैं कि अगर ऐसे अपवाद हैं तो फिर धर्म नहीं हो सकता। धर्म का बहुत गहरे से गहरा मतलब होता है नियम । और कोई मतलब नहीं होता। और नियम के ऊपर अपर कोई नियन्ता भी है तो फिर सब गड़बड़ हो जाएगी। कभी ऐसा हो सकता है कि क्षय के कीटाणु किसी दवा से मरें। और कभी ऐसा हो सकता है कि क्षय के कीटाणु भी प्रह्लाद की तरह भगवान् के भक्त हों और दवा कोई काम न करे । इसमें क्या कठिनाई है। फिर नियम नहीं हो सकता। अगर नियम है तो नियन्ता में बाधा पड़ेगी। इसलिए महावीर नियम के पक्ष में नियन्ताको विवा करते हैं। यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है नियम के पक्ष में नियन्ता को विदा करने की। वे कहते हैं नियम काफी है और नियम अखण्ड है। नियम से, प्रार्थना, पूजा, पाठ से बचने का कोई उपाय नहीं है। नियम से बचने का एक ही उपाय है कि नियम को समझ लो कि आग में हाथ डालने से हाथ जलता है, इसलिए हाथ मत डालो। इसको समझ लेना जरूरी है। अगर नियन्ता है तो फिर यह भी हो सकता है कि नियन्ता को राजी कर लो फिर हाथ डालो। क्योंकि नियन्ता उपाय कर देगा कि तुम न जलो ! 'अच्छा ठहरो', आग को कह देगा : 'रुको अभी ! इस आदमी को जलाना मत ।' महावीर कहते हैं कि चार्वाक को अगर मान लिया जाए तो भी जीवन अव्यवस्थित हो जाता है क्योंकि वह कहता है कि दो वर्गों के बीच कोई अनिवार्य सम्बन्ध नहीं है। महावीर कहते हैं कि अगर नियन्ता के मानने वालों को मान लिया जाए तो वे भी यह कहते हैं कि अनिवार्य सम्बन्ध के बीच में एक व्यक्ति है जो अनिवार्य सम्बन्धों को शिषिल भी कर सकता है। इसलिए वह कहते हैं कि चार्वाक भी अव्यवस्था में ले जाता है, नियन्ता को मानने वाला भी अव्यवस्था में ले जाता है । यह दोनों एक ही तरह के लोग हैं। चार्वाक नियम को तोड़कर Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १२ ३७३ • अव्यवस्था पैदा कर देता है और नियन्ता को मानने वाला भी नियम के ऊपर किसी नियन्ता को स्थापित करके । महावीर पूछते हैं कि वह भगवान् नियम के अन्तर्गत चलता है या नहीं । अगर नियम के अन्तर्गत चलता है तो उसकी जरूरत क्या है ? यानी अगर भगवान् आग में हाथ डालेगा तो उसका हाथ जलेगा कि नहीं ? अगर जलता है तो वह भी वैसा ही है जैसे हम हैं और अगर नहीं जलता है तो ऐसा भगवान् खतरनाक है । क्योंकि हम भगवान् से दोस्तो बनाएंगे तो हम आग में हाथ भी डालेंगे और शीतल होने का उपाय भी कर लेंगे । इसलिए महावीर कहते हैं कि हम नियम को इन्कार नहीं करते क्योंकि नियम का इन्कार करना अबैज्ञानिक है । नियम तो है मगर हम नियन्ता को स्वीकार नहीं करते क्योंकि नियन्ता की स्वीकृति नियम में बाधा डाल देती हैं। तो जो विज्ञान ने अभी पश्चिम में तीन सो वर्षो में उपलब्ध किया है वह यह है कि विज्ञान सीधे नियम पर निर्धारित है, सीधे नियम की खोज पर । विज्ञान कहता है कि किसी भगवान् से हमें कुछ लेना-देना नहीं। हम तो प्रकृति का नियम खोजते हैं। ठीक यही बात अढाई हजार साल पहले महावोर ने चेतना के जगत् में कही है कि नियन्ता को हम बिदा करते हैं, चार्वाक को हम मान नहीं सकते। वह सिर्फ अव्यवस्था है, अराजकता है । दोनों के बीच में एक उपाय है वह यह कि हम मान लें कि नियम शाश्वत है, अखण्ड है और अपरिवर्तनीय है । उस अपरिवर्तनीय नियम पर ही धर्म का विज्ञान खड़ा हो सकता है। लेकिन उस अपरिवर्तनीय नियम में पीछे के व्याख्याकारों ने जो जन्मों का फासला किया, उसने फिर गड़बड़ पैदा कर दी । यह तीसरी गड़बड़ थी । . पहली गड़बड़ थी चार्वाक की, दूसरी गड़बड़ थी भगवान् के भक्त की, तीसरी गड़बड़ थी दो जन्मों के बीच में अन्तराल पैदा करने वाले लोगों की । महावीर को फिर झुठला दिया गया । यह असम्भव ही है कि एक कर्म अभी हो और फल फिर कभी हो । फल इसी कर्म की श्रृंखला का हिस्सा होगा जो इसी • कर्म के साथ मिलना शुरू हो जाएगा। हम जो भी करते हैं उसे भोग लेते हैं । और अगर यह हमें पूरी सघनता में स्मरण हो जाए कि हमारे जीवन में और हमारे कर्म में अनिवार्य अन्तर नहीं पड़ने वाला है, मैं जो भी कह रहा हूँ वही भोग रहा हूँ, या मैं जो भोग रहा है, वही मैं जरूर कर रहा हूँ तो बात स्पष्ट हो जाती है । एक आदमी दुःखो है, एक आदमी अशान्त है और वह आपके पास आता है और पूछता है : शान्ति का रास्ता चाहिए । अशान्त है तो वह सोचता · Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ . महावीर : मेरी दृष्टि में है कि किसी पिछले जन्म का कर्मफल भोग रहा है। तो उसके पास बनकिया करने का कोई उपाय नहीं है । मगर सही बात यह है कि जो मैं अभी कर रहा हूँ उसे अनकिया करने की अभी मेरी सामर्थ्य है। अगर मैं आग में हाथ डाल रहा हूँ और मेरा हाथ जल रहा है, और अगर मेरी मान्यता यह है कि पिछले जन्म के किसी पाप का फल भोग रहा हूँ तो मैं हाथ डाले चला जाऊंगा क्योंकि पिछले जन्म के कर्म को मैं बदल कैसे सकता हूँ ? घर आग में हाथ डालूंगा और जलूंगा और गुरुओं से पूडूंगा : शान्ति का उपाय बताइए, क्योंकि हाथ बहुत जल रहा है। और वे गुरु जो यह मानते हैं कि पिछले जन्म के फल के कारण जल रहा है वे यह नहीं कहेंगे कि हाथ बाहर खींचो क्योंकि हाथ जल रहा है । इसका मतलब यह हुआ कि हाथ अभी डाला जा रहा है और अभी डाला गया हाथ बाहर भी खींचा जा सकता है लेकिन पिछले जन्म में डाला गया हाथ आज कैसे बाहर खींचा जा सकता है ? तो हमारी व्याख्या ने कि अनन्त जन्मों में फल का भोग चलता है मनुष्य को एकदम परतन्त्र कर दिया है । परतन्त्रता पूरी हो गई क्योंकि पीछा उसका बंधा हुआ हो गया। अब उसमें कुछ किया नहीं जा सकता। किन्तु मेरा मानना है कि सब कुछ किया जा सकता है इसी वक्त, क्योंकि जो हम कर रहे हैं, वही हम भोग रहे हैं । ___ एक मित्र मेरे पास आए कोई दो या तीन वर्ष हुए। उसने कहा कि मैं बहुत अशान्त हूँ। मैं अरविन्द आश्रम गया, वहां भी शान्ति नहीं मिली। मैं रमण आश्रम गया, वहां भी शान्ति नहीं मिली। मैं शिवानन्द के यहाँ गया, वहां भी शान्ति नहीं मिली। सब धोखा-घड़ी है, सब बातचीत है, कही शान्ति नहीं मिलती। पाण्डीचेरी में किसी ने आपका नाम लिया तो वहां से सीधा यहीं चला आ रहा हूँ। तो मैंने कहा : अब तुम सीधे एकदम मकान से बाहर हो जामो इसके पहले कि तुम जाकर कहीं कहो कि वहां भी शान्ति नहीं मिली। फिर मैंने उससे पूछा कि तुम अपनी अशान्ति खोजने किससे पूछ कर गए थे? तुमने किस से सलाह ली थी। कौन है गुरु तुम्हारा? उसने कहा : कोई गुरु नहीं । अशान्ति खोजने के लिए मैंने किसी से नहीं पूछा । मैंने कहा, इस अशांति के लिए तुम खुद ही गुरु हो, पर्याप्त हो और शान्ति का हमने ठेका लिया हुआ है तुम्हारे लिए ? शान्ति तुम हमसे पूछोगे? न मिले तो हम धोखा सिद्ध हुए। मजा यह है कि अशान्ति तुम पैदा करो, शान्ति मैं तुम्हें हूँ और न दे पाऊँ तो षोखा मैं हूँ। मैंने उससे कहा कि पा करके इतना ही खोजो कि तुम्हें अशान्ति कैसे मिल रही है, बस। जिस ढंग से तुम अशान्ति पा रहे हो, उस ढंग को Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरप्रवचन-१२ ३७५ बदलो। वह ढंग अशान्ति देने वाला है वह कारण है तुम्हारी अशान्ति का। उसको तो तुम देखना नहीं चाहते। वह आदमी कहता है कि वह मशान्ति का डंग तो जन्म-जन्मान्तरों का है। मैंने कहा कि तब जन्म-जन्मान्तर में कोशिश करनी पड़ेगी शान्ति के लिए। फिर यह इतना जल्दी होने वाला भी नहीं । पर मैं तुमसे कहता हूँ कि हो सकता है क्योंकि यह जन्म-जन्मान्तर की बात नहीं, तुम अभी कर रहे हो अशान्ति के लिए सब उपाय । ___ मैंने कहा कि तुम दो-तीन दिन रुक जाओ कृपा करके । तुम अपनी मशांति की चर्चा करो मुझसे । क्या अशान्ति है ? कैसे पैदा हो रही है ? क्या पैदा हो रहा है ? तीन दिन वह आदमी रुका था। चूंकि मैं शान्ति को कोई तरकीब बता हो नहीं रहा था, उसको अपनी अशान्ति की ही बात करनी पड़ी। धीरे-धीरे उसकी बात खुली। वह लखपति आदमी है, बड़ा ठेकेदार है । एक ही लड़का है उसका और उस लड़के ने, जिस लड़की से बाप नहीं चाहता था कि उसकी शादी हो, शादी कर ली। तो दरवाजे पर बन्दूक लेकर खड़ा हो गया जब वे दोनों आए। और कहा कि सिर्फ लाश अन्दर जा सकती है तुम्हारी, वापिस लौट जाओ। अब मुझसे तुम्हारा कोई सम्बन्ध नहीं है। मैंने उससे पूछा : उस लड़की में कोई खराबी है। उसने कहा कि नहीं, लड़की में कोई खराबी नहीं है। लड़की तो एकदम ठीक है। मैंने कहा कि उस लड़की और लड़के के संबंध में कोई पाप है, उसने कहा : वह भी नहीं है। मैंने कहा : मामला क्या है ? बापकी नाराजगी क्या है ? सिर्फ इतनी ही कि आपके अहंकार को तृप्ति न मिली, लड़के ने आपकी आज्ञा नहीं मानी। और अहंकार अशान्ति लाता है । अब उस लड़के को बाहर निकाल दिया है। बड़े आदमी का लड़का था। पढ़ा-लिखा भी नहीं था ठीक से । वह दिल्ली में नब्बे रुपए महीने की नौकरी कर रहा है । अब बाप तड़प रहा है। यह कभी अरविन्द आश्रम जा रहा है, कभी इधर जा रहा है, कभी उधर जा रहा है। मैंने कहा कि तुम्हें कहीं जाने की जरूरत नहीं। लड़के से जाकर क्षमा मांगो। तुम्हारा अहंकार तुम्हें दुःख दे रहा है । और अहंकार दुख देता है। और तुम्हारा अहंकार से किया गया कृत्य अशान्ति ला रहा है। मैंने कहा कि तुम अपने दिल की बात कहो कि तुम्हारा मन लड़के को वापस लाने का है या नहीं। उसने कहा : बिल्कुल है। वही मेरा एक लड़का है । अब मैं कितना पछता रहा हूँ। हम बुड्ढे-बुड्ढी हैं दोनों, मरने के करीब हैं । यह सब उसका है और जब हमें पता चलता है कि वह नम्बे रुपए महीने की नौकरी कर रहा है दिल्ली में तो हमारी नींद उचट जाती है। अब यह भी Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ महावीर : मेरी दृष्टि में लगता है कि उस लड़की का भी क्या कसूर है ? मैंने कहा कि इसमें तो कोई बात नही। तुम जब बन्दूक लेकर खड़े हो सकते थे तो जाकर क्षमा भी मांग सकते हो। तुम प्रेम का निमंत्रण करोगे। तुम्हारा लड़का है। तुमने बीच में बाधा डाली है इसलिए तुम दुःख भोग रहे हो। मैंने कहा कि तुम अब सीधे चले जाओ दिल्ली और उस लड़के से क्षमा मांग लो। बात उसकी समझ में आ गई । वह आदमी दिल्ली गया। उसने क्षमा मांगी। पन्द्रह दिन बाद उसका पत्र माया कि मैं हैरान है। आपने ठीक कहा था। वह लड़का और बह घर आ गए हैं और मैं इतना आनन्दित हूँ जितना मैं कभी भी नहीं था। इतना शान्त हूँ जितना मैं कभी नहीं था। अब हमारी कठिनाई यह है कि हम जो कर रहे हैं, वह अशांति ला रहा है। कुछ बदलाहट लाई जा सकती है इसी वक्त । अगर कभी कुछ किया था वह अशांति ला रहा है तब तो बदलाहट का काई उपाय नहीं। और यह जो पैदा करना पड़ा सिद्धान्त जिन्दगी की विषमता को समझाने के लिए उसका कारण दूसरा है। जैसे मेरी अपनी समझ में एक बुरा आदमी सफल होता है, सुखी होता है तो बुरा आदमी एक बहुत बड़ी जटिल घटना है। हो सकता है वह झूठ बोलता है, बेईमानी करता है लेकिन उसमें कुछ और गुरण हैं जो हमें दिखाई नहीं पड़ते। वह साहसी हो सकता है, पहल करने वाला हो सकता है, बुद्धिमान् हो सकता है, एक-एक कदम को समझ कर उठाने वाला हो सकता है। बेईमान हो सकता है, चोर हो सकता है। बुरा आदमी बढ़ी घटना है। उसके एक पहलू को हो कि वह बेईमान है, देख कर आपने निर्णय करना चाहा, तो आप गलती में पड़ जाएंगे। और एक अच्छा आदमी भी एक बड़ी घटना है। हो सकता है कि अच्छा आदमी चोरी भी न करता हो बेईमानी भी न करता हो लेकिन वह बहुत भयभीत आदमी हो । शायद इसलिए चोरी और बेईमानी न करता हो कि उसमें बिल्कुल साहस की कमी हो, जोखिम उठा न पाता हो, बुद्धिमान् न हो, बुद्धिहिन हो क्योंकि अच्छा होने के लिए कोई बुद्धिमान् होना जरूरी नहीं। बल्कि अक्सर ऐसा होता है कि बुद्धिमान् आदमी का अच्छा होना मुश्किल हो जाता है। बुद्धिहीन आदमी अच्छा होने के लिए मजबूर होता है। कोई बचने का उपाय नहीं होता क्योंकि बुद्धिहीनता बुरे होने में फौरन फंसा देती है। लेकिन हम इन सब बातों को नहीं तोलेंगे। हम तो कहेंगे : आदमी अच्छा है, मन्दिर जाता है, उसको सफलता मिलनी चाहिए। मेरी मान्यता है कि सफलता मिलती है साहस से । अगर बुरा मादमी Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० महावीर : मेरी दृष्टि में को छिपा देता है, मिटा देता है । और अपने अच्छे कर्मों की लम्बी कतार बढ़ा कर खड़ी कर लेता है । और तब एक मुश्किल खड़ी हो जाती है; दूसरे के अशुभ कर्म दिखाई पड़ते हैं क्योंकि दूसरे को शुभ मानना भी हमारे अहंकार को दुःख देना है कि हमसे भी कोई अच्छा हो सकता है । साधारण आदमी को छोड़ दें। बड़े से बड़े साधु से कहें कि आप से भी बड़ा साधु एक गाँव में आ गया है । वह और भी पवित्र आदमी है। आग लग जाएगी क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि मुझसे ज्यादा पवित्र कोई आदमी हो ? तो दूसरे को अपवित्रता को हम खोजते रहते हैं निरन्तर, इसीलिए निन्दा में इतना रस है । शायद उससे गहरा कोई रस ही नहीं है । न संगीत में आदमी को उतना आनन्द आता है, न सोन्दर्य में, जितना निन्दा में आता है। सौन्दर्य छोड़ छोड़ सकता है, सब छोड़ सकता है । अगर जरूरी निन्दा का तो उस रस को वह नहीं चूकेगा । अगर हम दूसरों की बातचीत पता लगाने जाएँ तो सौ में से नब्बे प्रतिशत बातचीत किसी भी निन्दा से सम्बन्धित होगी । सकता है, संगीत मोका मिल जाए निन्दा में रस है क्योंकि दूसरे को छोटा दिखाने में अपने बड़ा होने का ere है। इसलिए हर आदमी दूसरे को छोटा दिखाने की कोशिश में लगा है । अगर कोई हमसे आकर कहे कि फल आदमी बहुत अच्छा है तो हम एकदम से नहीं मान लेते हैं । हम कहेंगे : यह आपकी बात सुनी, जांच-पड़ताल करेंगे, खोजबीन करेंगे क्योंकि ऐसा नहीं हो सकता कि आदमी इतना अच्छा हो । कहाँ इतने अच्छे आदमी होते हैं ? ये सब बातें हैं । सब दिखते हैं ऊपर से अच्छे | भीतर कोई अच्छा होता नहीं। लेकिन एक आदमी हमसे आकर कहता है कि फल आदमी बिल्कुल चोर है। हम कभी नहीं कहते कि हम खोज-बीन करेंगे । हम कहते हैं कि बिल्कुल होगा ही । यह तो होता ही है । सब चोर हैं ही । जब कोई किसी की बुराई करता है तो हम बिना खोज-बीन के मान लेते हैं, तर्क भी नहीं करते, विवाद भी नहीं करते, लेकिन जब कोई किसी की अच्छाई की बात करता है तो हम बड़े सचेत हो जाते हैं । हजार तर्क करते हैं; फिर भी भीतर सन्देह बना हुआ है । और जांच रखते हैं मिल जाए और हम बता दें : 'देखो ! वह तुम गलत कहते थे कि यह आदमी जारी कि कहीं कोई मौका हम दूसरे को छोटा अच्छा था । इस आदमी में ये ये चीजें दिखाई पड़ गईं। दिखाना चाहते हैं । दूसरे को बड़ा मानना बड़ी मजबूरी में कष्टपूर्ण है किसी को बड़ा मानना । किसी को हम बड़ा भी मान होता है । अत्यन्त लें अगर मजबूरी Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ ३८१ में तो भी हम अपने मन में जांच-पड़ताल जारी रखते हैं कि कोई मौका मिल जाए तो इसको छोटा सिद्ध कर दें। तो आदमी दूसरे का देखता है अशुभ और सुख; वह अपना देखता है शुभ और दुःख । उपद्रव हो गया तो वह कर्मवाद के सिद्धान्त में ही घुस गया । मेरी मान्यता यह है कि अगर वह सुख भोग रहा है तो वह कुछ ऐसा जरूर कर रहा है जो सुख का कारण है क्योंकि बिना कारण के कुछ भी नहीं हो सकता । अगर एक डाकू सुखी है तो उसमें कोई कारण है उसके सुखी होने का। और अगर एक साधु सुखी नहीं है तो उसमें कोई कारण है दुःखी होने का। अब अगर दस डाकू साथ होंगे तो उनमें इतना भाईचारा होगा जितना दस साधुओं में कभी सुना ही नहीं गया। लेकिन दस डाकुओं में मित्रता है तो वे मित्रता के सुख भोगेंगे। साधु कैसे भोगेगा उस सुख को ? डाकू कभी एक दूसरे से झूठ नहीं बोलेंगे लेकिन साधु एक दूसरे से बिल्कुल झूठ बोलते रहेंगे । सच बोलने का जो सुख है वह साधु नहीं भोग सकता। प्रश्न : अकस्मात् जो घटनाएं हो जाती हैं, उसको क्या वजह है ? उत्तर : कोई घटना अकस्मात नहीं होती। असल में उस घटना को हम अकस्मात् कहते हैं जिसका हम कारण नहीं खोज पाते । ऐसी घटनाएं होती है जिसका कारण हमारी समझ में नहीं आता। लेकिन कोई घटना अकस्मात् नहीं होती। पश्नः लाटरी कैसे निकलती है ? । उत्तर : अकस्मात् नहीं हैं वह भी। सिर्फ हमें दिखता है कि वह अकस्मात् है। मैं एक घटना बताऊँ। मेरे एक मित्र पुगलिया जी ने चार-पांच वर्ष पहले एक गाड़ी ली और वे मुझे लेने नासिक आए। लेकिन उनकी लड़की ने कहा कि मुझे ऐसा लगता है कि वे आपकी गाड़ी में आएंगे नहीं। पर इस बात का कोई मतलब न था। शायद उसने सोचा होगा कि मैं किसी दूसरी गाड़ी में आ जाऊं या कुछ हो जाए। बात खत्म हो गई। वे मुझे लेने नासिक आए। सुबह बारह बजे के करीब हम निकले वहाँ से । नया ड्राइवर था। वह इतनी तेजी से भगा रहा था कि मुझे मन में लगा कि यह कहीं भी गाड़ी उलटेगी। लेकिन ऐसी कोई बात नहीं थी। रास्ते में हम एक बंगाली डाक्टर की गाड़ी को पार किए। उस गाड़ी में जो महिला बैठी थी उसको भी लगा कि यह गाड़ी कहीं गिरेगी। एक दो मिनट बाद ही जाकर दुर्घटना हो गयी । वह गाड़ी उतर Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ महावीर । मेरी दृष्टि में गई नीचे और रेत में उल्टी हो गई। चारों पहिए ऊपर हो गए। मेरे एक दूसरे मित्र मणिक बाबू ने पूना में रात को सपना देखा कि मेरे हाथ में बहुत चोट आ गई है । तो फिर वे मुझे लेने आए। पुंगलिया की लड़की को जो ख्याल हुमा था कि मैं उनकी गाड़ी में नहीं आऊँगा सही हो गया । हमारी गाड़ी उलट गई और मणिक बाबू की गाड़ी में हमें आना पड़ा। लेकिन यह घटना एकदम अकस्मात नहीं है। मोर अगर इस बात का थोड़ा विज्ञान समझ में आ जाए तो कारण भी समझ में आ सकेंगे। जैसे कि सोवियत रूस के कुछ हिस्सों में बाकू के इलाके में हजारों साल से बड़ा मेला लगता था। यहाँ एक देवी का मन्दिर है और वर्ष के एक खास दिन में उसमें अपने-आप ज्वाला प्रज्वलित होती है। कोई आग लगानी नहीं पड़ती. ईषन डालना नहीं पड़ता। पर जब ज्वाला प्रज्ज्वलित होती है तो आठ दिन तक जलती है और आठ दस दिन वहाँ मेला भरता है। करोड़ों लोग इकट्ठे होते हैं । यह एक बड़ी चमत्कारपूर्ण घटना थी और कोई कारण समझ में नहीं आता था, क्योंकि न कोई इंधन है, न कोई दूसरी वजह है। फिर कम्यूनिस्ट वहाँ आए। उन्होंने मन्दिर उखाड़ दिया, मेला बन्द कर दिया और खुदाई करवाई । वहाँ तेल के गहरे झरने निकले, मिट्टी के तेल के। लेकिन सवाल यह था कि खास दिन पर वर्ष में क्यों आग लगती है। तेल के झरने से गैस बनती है। गैस जल भी सकती है घर्षण से । लेकिन वह कभी भी जल सकती है। तब खोज-बीन से पता चला कि पृथ्वी जब एक खास कोण पर होती है तभी वह गैस घर्षण कर पाती है। इसलिए खास दिन आग जल जाती है। जब बात साफ हो गई. तो मेला बन्द हो गया। अग्नि देवता बिदा हो गए। अब वहां कोई नहीं जाता। अब भी वहां जलती है आग | अब भी खास दिन पर जब पृथ्वी एक खास कोण पर होती है तो वह गैस जो इकट्ठी हो जाती है वर्ष भर में, फूट पड़ती है । तब तक वह अकस्मात् था। अब वह अकस्मात् नहीं है। अब हमें कारण का पता चल गया है। प्रश्न : यह जो गाडी उलट गई पाप सब बच गए उसमें, तो सबका कहना है कि आप उसमें थे इसलिए बच गए। उत्तर : नहीं। असल में होता यह है कि हम सब बचना चाहते हैं और बचने के लिए बच जाएं तो भी कोई कारण खोज लेंगे। न बच जाएं तो भी कोई कारण खोज लेंगे। कारण हम स्थापित कर लें यह एक बात है और कारण की खोज बिल्कुल दूसरी बात है। यानी एक तो यह होता है कि हम Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १२ ३८३ जो होना चाहते हैं उसके लिए भी हम कोई कारण खोज लेते । और इसके पीछे भी एक बुनियादी बात है और वह यह है कि बिना कारण के कोई मी चीज कैसे होगी ? यह बुनियादी सिद्धान्त हमारे भीतर काम कर रहा हैं | अगर चारों आदमी बच गए और जरा भी चोट नहीं पहुँची तो इसका कोई कारण होना चाहिए । अगर ठीक से समझें इतनी दूर तक तो वैज्ञानिक है यह मामला । क्योंकि अकारण यह भी नहीं हो सकता लेकिन कारण क्या होगा ? हम कुछ भी कल्पित कर लेते हैं कि गाड़ी में एक अच्छा आदमी था इसलिए बच गए। और अगर मान लो न बचते तो भी हम कोई कारण खोज लेते कि एक बुरा आदमी वहाँ था इसलिए मर गए । इसमें एक ही बात पता चलती है वह यह कि आदमी अकारण किसी बात को मानने के लिए राजी नहीं है । और यह बात ठीक है । लेकिन हमसे वह जो कारण बताता है वह कारण ठीक हो यह जरूरी नहीं । कारणों की वैज्ञानिक परिक्षा होनी चाहिए। जैसे कि मुझे बैठाल कर दो चार बार गाड़ी गिरानी चाहिए। और अगर मेरे साथ दो चार दफे गिरने से जो भी गिरे, वे सब बच जाएँ तो फिर जरा पक्का होगा । और अगर न बचे तो बात खत्म हो गई। मेरा मतलब यह है कि वैज्ञानिक परीक्षण के बिना कोई उपाय नहीं है । और एक बात ठीक है कि अकारण कोई आदमी किसी बात को मानने के लिए राजी नहीं है और होना भी नहीं चाहिए । लेकिन दूसरी बात ठीक नहीं है । तब हमें कोई कल्पित कारण नहीं मान लेना चाहिए । उतना फिर हमें ध्यान में रखना चाहिए कि कारण को भी हम फिर स्थापित करने के लिए प्रयोग करें। क्योंकि अगर कारण सही है तो वह निरपवाद सही हो जाएगा। दो चार दस बार मुझे गिरा कर देखेंगे तो उससे पता चलेगा कि सबको चोट लगती है या नहीं लगती । और मजे की बात यह है कि चोट अंगर लगी तो थोड़ी सी सिर्फ मुझको ही लगी थी उसमें, बाकी किसी को बिल्कुल नहीं लगी थी। थोड़ा सा जो भी लगा था, वह मेरे पैर में ही लगा था। बाकी तो किसी को भी नहीं लगा था । अगर बुरा आदमी कोई था भी उसमें तो मैं ही था । बाकी जो हम कल्पित आरोपण करते हैं उनका कोई मूल्य नहीं है । लेकिन अकस्मात् कुछ भी नहीं होता है। क्योंकि अकस्मात् अगर हम मान लें तो कार्य कारण का सिद्धान्त गया, एकदम गया। एक बात भी अगर इस जगत् में अकस्मात् होती है तो सारा सिद्धान्त गया । फिर कोई सवाल नहीं है उसके बचने का । अकस्मात् कुछ होता ही नहीं क्योंकि होने के पीछे कारण के बीना उपाय नहीं है । कारण होगा ही । अब जैसे एक आदमी है। उसको लाटरी मिल Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ महावीर : मेरी दृष्टि - जाती है तो यह बिल्कुल अकस्मात् बात है क्योंकि इसमें तो हम कोई कारण खोज नहीं सकते हैं । लेकिन एक लाख आदमियों ने अगर लाटरियों के टिकट भरे है और एक आदमी को मिल गई है तो किसी दिन अगर वैज्ञानिक क्षमता हमारी बढ़े और एक लाख लोगों के चित्तों का विश्लेषण हो सके तो मैं आपको कहता हूँ कि कारण मिल जाएगा आदमी को लाटरी मिलने का । और हो सकता है कि एक लाख लोगों में सबसे ज्यादा संकल्प का आदमी यही है, सबसे ज्यादा सुनिश्चित इसी ने मान लिया है कि लाटरी मुझे मिलने वाली है । एक उदाहरण दे रहा हूँ। और हजार कारण हो सकते हैं । इन लाख लोगों में सबसे संकल्पवान् आदमी जो है, इच्छा-शक्ति का आदमी जो है, उसको मिलने की सम्भावना ज्यादा है, क्योंकि उसके पास एक कारण है जो दूसरों के पास नहीं है । अभी इस पर बहुत प्रयोग चलते हैं। अगर हम एक मशीन से ताश के पत्ते फेंके या मशीन से हम पांसे फेंके तो मशीन में कोई इच्छाशक्ति नहीं होती है। मशीन पांसें फेंक देती है । अगर सौ बार पांसे फेंकती है तो समझ लीजिए दो बार बारह का अंक आता है। तो यह अनुपात हुथा मशीन के द्वारा फेंकने का | मशीन की कोई इच्छाशक्ति नहीं है। मशीन सिर्फ फेंक देती है पांसे हिला देती है और फेंक देती है। सौ बार फेंकने में दो बार बारह का अंक आता है। अब एक दूसरा आदमी है जो हाथ से पांसे फेंकता है और हर बार भावना करके फेंकता है कि बारह का अंक आए। वह सौ में बीस बार बारह का अंक ले आता है। आँख बंद है उसकी । वह देख नहीं सकता कि पांसा कैसा है, क्या है ? और बीस बार ले आता है । एक तीसरा आदमी है जो कितने ही उपाय करता है कि बारह का आकड़ा आ जाए लेकिन सौ में दो बार भी नहीं ला पाता । यानी दो बार जो कि मशीन भी ले आती, जो कि बिल्कुल ही गणना का सवाल है । यह जो बोस बार लाता है, इस आदमी से • हम दुबारा प्रयोग करवाते हैं कि तू इस बार पक्का कर कि बारह का आंकड़ा नहीं आने देना । वह पांसा फेंकता है, बीस बार नहीं आता । समझे, पाँच बार आता है, तीन बार आता है, दो बार आता है । अब सवाल होगा यह कि भीतर की इच्छाशक्ति काम करती है । इस पर हजारों प्रयोग किए गए हैं और यह निर्णीत हो गया है कि भीतर का संकल्प पांसे तक को प्रभावित करता है, ताश के पतों तक को प्रभावित करता है, घटनाओं को बांधता है, प्रभावित करता है, और हजारों आदमीयों के अनुभवों और कारणों का परिणाम होता है ।. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ ३८५ वह भी आकस्मिक नहीं है कि किसी आदमी को भीतरी संकल्प मिल गया है। भीतरी संकल्प भी उसके हजारों उन अनुभवों और कारणों का पल होता है जिनसे वह गुजरा है । समझ लीजिए कि एक आदमी है और उसने तय किया है कि मैं बारह घंटे तक आँख नहीं खोलूंगा और वह आदमी बैठ गया है और बारह घंटे में उसने तीन ही घंटे बाद आंख खोल दी है तो इस आदमी का भावी संकल्प क्षीण हो जाएगा। इस आदमी के संकल्प की शक्ति क्षीण हो जाएगी। अगर वह बारह घंटे तक आँख बंद किए बैठा ही रहा, कोई उपाय नहीं किए गए कि वह आंख खोले बारह घंटे में तो यह आदमी एक कर्म कर रहा है जिसका फल होगा, उसका भीतर संकल्प मजबूत हो जाएगा। जीवन बहुत जटिल है। उसमें कोई बात कैसे घटित हो रही है यह कहना एकदम मुश्किल है लेकिन इतना कहना निश्चित है कि जो घटना हो रही है उसके पीछे कारण होगा, चाहे वह ज्ञात हो, चाहे अज्ञात हो । दक्षिण में एक बूढ़े संगीतज्ञ का जन्म दिन मनाया जा रहा है। उसके हजारों शिष्य हैं। वे सब भेंट चढ़ाते हैं क्योंकि हो सकता है कि अगले वर्ष वह जिए भी नहीं। उसके हजारों भक्त है, प्रेमी हैं, वे सब भेटें चढ़ाने आए हैं। रात दो बजे तक भेंट चढ़ती रहीं। लाखों रुपयों की भेंट चढ़ गई है। राजा है, रानियां हैं। जिन्होंने उससे सीखा है, वे सब भेंटें देने आए हैं । आखिर में दो बजे एक भिखारी जैसा आदमी तम्बूरा लिए हुए द्वार पर आया है। सिपाही ने कहा है कि तुम कहाँ जाते हो ? उसने कहा है कि मैं भी कुछ भेंट कर जाऊँ। उसने कहा कि तुम्हारे पास तो कुछ दिखाई नहीं पड़ता। तो उस भिखारी ने कहा कि जरूरी नहीं कि जो दिखाई पड़े, वही भेंट किया जाए । जो नहीं दिखाई पड़ता है, वह भी भेंट किया जा सकता है। तम्बूरा भी उसने सिपाही के पास रख दिया और भीतर गया। भीतर जाकर उसने गुरु के पर पर सिर रखा। उस भिखारी की उम्र मुश्किल से तीस-बत्तीस वर्ष है। बूढ़ा गुरु उसे पहचान भी नहीं सका। उसने कहा : तुसने कब मुझसे सीखा मुझे याद नहीं पड़ता। भिखारी ने कहा कि मैंने कभी आपसे नहीं सीखा। मैं एक भिखारी का लड़का है। लेकिन महल के भीतर आप गाते-बजाते थे; मैं बाहर बैठकर सुनना पानौर वहीं मैं भी कुछ सीखता रहा। लेकिन अब आज धन्यवाद देने तो भाना ही चाहिए। सीसा तो आपसे ही है। द्वार को सीढ़ी के बाहर बैठ कर ही सोखा; कभी भीतर नहीं आ सका क्योंकि भीतर आने का कोई उपाय नहीं था। भाज २५ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ महावीर : मेरी दृष्टि में भी आना बड़ी मुश्किल से हुआ है। एक छोटी सी भेंट लाया हूँ-अंगीकार करेंगे, इन्कार तो न करेंगे । गुरु ने सहज कहा : नहीं, नहीं, इन्कार कैसे करूंगा? पर देखा कि उसके पास कुछ है तो नहीं। हाथ खाली है, कपड़े फटे है । कहाँ की भेंट है, कैसी भेंट है ? कहा : नहीं, नहीं, इन्कार कैसे कर दूंगा ? तुम जो दोगे, जरूर ले लूंगा। भिखारी ने मांख बन्द को और ऊपर जोर से कहा : 'भगवान्, मेरी शेष आयु मेरे गुरु को दे दो क्योंकि मैं जीकर भी क्या करूंगा?' यह कहते ही वह आदमी मर गया। यह ऐतिहासिक घटना है। अगर इतना प्रबल संकल्प किसी आदमी का है तो वह पूरा हो सकता है। यह बहुत कठिन बात नहीं है। और वह गुरु पन्द्रह वर्ष और जिया जिसकी एक ही साल में मर जाने की आशा थी। ऐसा व्यक्ति अगर लाटरी पर नम्बर लगाये और लाटरी निकल आए तो इसे संयोग कहा जाएगा क्योंकि हमें कारण तो दिखाई पड़ते नहीं । वही तो हम कहता है कि सब संयोग है। क्योंकि कारण कहां दिखाई पड़ रहे हैं ? जिसमें हमें दिखाई पड़ जाते हैं उस में तो हम राजी हो जाते हैं । जिसमें दिखाई नहीं पड़ते, संयोग मालूम पड़ता है। लेकिन संयोग बड़ा अद्भुत है । एक मादमी कहे कि मेरी उम्र चली जाए और उसी वक्त उसकी उम्र चली जाए। इतना एकदम आसान नहीं है संयोग। हो सकता है लेकिन यह होना एकदम आसान नहीं मालूम पड़ता। इतने संकल्प का आदमी अगर लाटरी का नम्बर लमा दे तो बहुत कठिन नहीं है कि निकल आए । बहुत से कारण हैं जो हमें विखाई नहीं पड़ते हैं। और हमको लगता है कि यह आकस्मिक हुआ है मगर आकस्मिक कुछ भी नहीं है। प्रश्न : किसी एक को लाटरी मिलनी है, इसलिए उसको मिल गई है। क्या ऐसा नहीं कहा जा सकता ? उत्तर : अब यह जो मामला है इसकी भी भविष्यवाणी की जा सकतो है । ऐसे लोग भी हैं जो बता सकें कि लाटरी किसको मिलेगी, तब क्या कहोगे ? तब समझना बहुत मुश्किल हो जाएगा। हिटलर की मृत्यु को बताने वाले लोग हैं कि किस दिन हो जाएगी। गांधी की मृत्यु को बताने वाले लोग हैं कि किस दिन हो जाएगी। चीन किस दिन हमला करेगा भारत पर, इसको बताने वाले लोग भी हैं। एक अर्थ में हम कह सकते हैं कि यह सब संयोग है। . प्रश्न : लेकिन हिरोशिमा में दो लाल व्यक्ति एक साथ कैसे मर गए ? उत्तर : हाँ, मरे। दो लाख व्यक्ति भी एक साथ मर सकते हैं क्योंकि हमें ऐसा लगता है कि किसी न किसी दिन सारी पृथ्वी एक साथ मरेगी। हमें लगता Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १२ ३८७ है कि यह कितना आकस्मिक है कि दो लाख आदमी एक साथ मर गए क्योंकि इन दो लाख व्यक्तियों के भीतर हमारा कोई प्रवेश नहीं । और ऊपर से ऐसा दिखता है कि बिल्कुल आकस्मिक है कि एटम गिरा। लेकिन कोई पूछे कि हिरोशिमा पर क्यों गिरा ? हिरोशिमा कोई महत्त्वपूर्ण नगर न था । टोकियो पर गिर सकता था । नागासाकी पर क्यों गिरा ? जब तक हम पूरा भीतर प्रवेश न कर पाएं कारणों के, जब तक हम हिरोशिमा के लोगों के भीतर न घुस सकें तब तक हम कुछ नहीं कह सकते । कोई नहीं कह सकता कि हिरोशिमा में जापान में सबसे ज्यादा आत्मघातेच्सुक लोग हों कि इसलिए हिरोशिमा एटम को आकर्षित करता हो । एक मोटर एक्सीडेंट हो जाए, एक एयरोप्लेन एक्सीडेंट हो जाए तो कोई नहीं कह सकता कि उस मोटर में, उस हवाई जहाज में बैठे हुए लोगों के चित्त में क्या चल रहा है और वह किस भांति परिणाम ला सकता है । मेहरबाबा की जिन्दगी में दो-तीन घटनाएँ बड़ी । अद्भुत हैं। एक मकान उनके लिए बनाया गया। उस मकान में वह प्रवेश करने गए। प्रवेश का उत्सव मनाया जा रहा है, फूल-झाड़ लगाए गए है, दिए लगाए गए हैं। दरवाजे पर वह दो मिनट रुके और वापस लौट आए उन्होंने कहा : इस मकान में मैं नहीं जाऊँगा । लोगों ने कहा : क्या मतलब है आपका इस मकान में न जाने से । उन्होंने कहा: और मुझे कुछ नहीं लगता लेकिन दरवाजे पर मैं एकदम ठिठका इसलिए मैं मकान में नहीं जाता। वह मकान उसी को भी साफ नहीं है कि क्या हुआ लेकिन सीढ़ी मालूम हुई और उसने इन्कार कर दिया । रात गिर गया । इस आदमी पर उसको एकदम झिझक यही मेहरबाबा एक बार हिन्दुस्तान से यूरोप जाते हैं हवाई जहाज से । और अदन में जहाज पर चढ़ने से इन्कार कर देते हैं। तक की । अदन पर जहाज रुका है । वह एयरपोर्ट पर बाद वह एकदम इन्कार कर देते हैं कि जहाज गिर जाता है । उनकी टिकट है आगे उतरे हैं और उसके मैं जहाज पर नहीं चढ़ सकता और वह जापान में एक घटना घटी। पिछले महासुद्ध में एक अमेरिकी जनरल जा रहा है एक हवाई जहाज से, किसी सैनिक कार्य से, किसी दूसरे सैनिक कैम्प में । वह घर से निकल गया है सुबह आठ बजे । उसकी टाइपिस्ट भागी हुई उसके घर पहुँची है कोई सवा आठ बजे और उसकी पत्नी से कहा है कि जनरल कहाँ हैं ? उसकी पत्नी ने कहा : क्यों ? उसने कहा : रात मैंने एक सपना देखा है । . Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर । मेरी दृष्टि में मैं उसको कह हूँ। मैं बहुत डर गई है। पहले मैंने सोचा कि कहना है कि नहीं, इसलिए देर हो गई । क्या सपना देखा है, उसकी पत्नी ने पूछा । तो वह अपना सपना बताती है कि जनरल जिस हवाई जहाज से आज जा रहे हैं, वह टकरा जाता है बीच में । उसमें जनरल है, चालक है और एक औरत है। हवाई जहाज टकरा जाता है हालांकि मरता कोई नहीं है। तीनों बच जाते हैं । तो उसकी पत्नी ने कहा कि तुम्हारा सपना यहीं से गलत हो गया क्योंकि जनरल और चालक दो ही जा रहे हैं। उसमें कोई औरत नहीं है । और वह तो निकल चुके हैं । फिर भी, पत्नी और वह, दोनों कार से एयरपोर्ट पर पहुंचते हैं । तब तक जनरल जा चुका है। लेकिन एयरपोर्ट पर पता चला कि एक औरत भी पई हुई है । एक औरत ने वहीं बाकर कहा कि मेरा पति बीमार है । और मुझे इस वक्त कोई जाने का उपाय नहीं है। मुझे आप साथ ले चलें तो कृपा होगी। जनरल ने कहा कि हवाई जहाज खाली है, कोई बात नहीं है, तुम चलो। वह औरत साथ गई है । तब उसकी पत्नी घबड़ा गई है । वह एयरपोर्ट पर ही है कि खबर मिलती है कि वह जहाज टकरा गया है लेकिन मरा कोई नहीं है । और उस लड़की ने जिसको सपना आया है कहा है कि कितनी बड़ी चट्टान है जिससे बह जहाज टकराता है, कैसी जगह है, और वहां कैसे दरख्त हैं। वह सब शब्द-शब्द सही निकला है। लेकिन मगर यह सपना नहीं है तो बात अकस्मात् है। लेकिन अगर यह सपना है तो बात अकस्मात् नहीं है। कुछ कारण काम कर रहे हैं जिनका तालमेल नाषा घंटा या घण्टा भर बाद उस जहाज को गिरा देने वाला है। जिन्दगी जैसी हम देखते हैं उतनी सरल नहीं है। सब चीजें समझ में नहीं आती हैं । लेकिन इतनी बात समझ में आती ही है कि अकारण कुछ भी नहीं है। कर्म के सिद्धान्त का बुनियादी आषार यह है कि अकारण कुछ भी नहीं है। दूसरा बुनियादो आधार यह है कि जो हम कर रहे हैं वही हम भोग रहे हैं। और उसमें जन्मों के फासले नहीं है । और जो हम भोग रहे हैं, हमें जानना चाहिए कि हम उस भोगने के लिए जरूर कुछ उपाय कर रहे हैं, चाहे सुख हो, चाहे दुःख हो, चाहे शान्ति हो, चाहे अशान्ति हो । प्रश्न : जो बच्चे भंगहीन पैदा हो जाते हैं या अन्धे पैदा हो जाते हैं या अस्वस्थ पैदा हो जाते हैं, उसमें उन्होंने कौन सा कर्म किया है जिसकी वजह से वे वैसे हैं। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ उत्तर: हां, बहत से कारण है। अब यह बात समझने जैसी है असल में । एक बच्चा अंधा पैदा होता है तो घटनाएं घट रही है। अगर वैज्ञानिक से पूछेगे तो वह कहेगा कि इसमें मां-बाप के जो अणु मिले उसमें अंधेपन को गुंजाइश थी। वैज्ञानिक यहां समझाएगा। वह भी अकारण नहीं मानता इसको । लेकिन वह विज्ञान के कारण खोजेगा। वह कहेगा कि जो मां-बाप के अणु मिले उन अणुओं से अंधा बच्चा ही पैदा हो सकता था। अंधा बच्चा पैदा हो गया । उन अणुओं में कोई रसायनिक कमी थी जिससे कि आंख नहीं बन पायो । लेकिन धार्मिक कहेगा कि बात इतनी ही नहीं है। इसके पीछे और भी कारण है। विज्ञान के लिए तो आदमी सिर्फ जन्मता है। जन्म के पहले कुछ भी नहीं है। लेकिन वह इस बात को इन्कार कैसे कर सकता है कि पैदा होने के पीछे भी कारण है, सिर्फ अंधा होने के पीछे ही नहीं। यानी वह इतना तो मानता है कि अंधा पैदा हो गया क्योंकि अणुओं में कुछ ऐसा कारण है जिससे अन्धा पैदा होना है। लेकिन पैदा हो क्यों होगा यह आदमो ? बस वह अणुओं के मिलने पर शुरूआत मानता है। धर्म कहता है उसके पीछे भी कोई कारण को शृंखला है, उसको अभी तोड़ा नहीं जा सकता। धर्म कहता है कि जो आदमी मरा, मरते वक्त तक ऐसी स्थितियां हो सकती है कि वह आदमो खुद भी आँख न चाहे। या उसके कर्मों का पूरा योग हो सकता है उस क्षण में कि आँख सम्भव न रहे। और ऐसा आदमी अगर मरे तो ऐसी आत्मा उसी मां-बाप के शरीर में प्रवेश कर सकेगी, जहाँ अन्धे होने का संयोग जुड़ गया है। यानी ये दोहरे कारण है। अब जैसे मैं उदाहरण के लिए कहैं। एक लड़की को मैं जानता हैं जिसकी मांस चली गई सिर्फ इसलिए कि उसके प्रेमी से उसको मिलने के लिए मना कर दिया गया । उसके मन में भाव इतना गहरा हो गया इस बात का कि जब प्रेमो को ही नहीं देखना है तो फिर देखना भी क्या है ? यह भाव इतना संकल्पपूर्ण हो गया कि आँख चली गई । और किसो इलाज से मांस नहीं लौटाई जा सको जब तक कि उसको प्रेमी से मिलने नहीं दिया गया। मिलने से आँख वापस लोट पाई। उनके मन ने ही आँख का साथ छोड़ दिया था। तो मरते क्षण में, मरते वक्त में मात्मा के पूरे के पूरे जीवन की व्यवस्था, उसका चित्त, उसका संकल्प, उसकी भावनाएं सब काम कर रही हैं । इन सारे संकल्लों, इन सारी भावनामों, इस सारे कर्म शरीर को, इस सारे संकल्प शरीर को लेकर वह इस शरीर को छोड़ती है । नया शरीर हर कोई ग्रहण नहीं कर लिया जाएगा। वह उसी शरीर की ओर सहज नियम से आकर्षित होगो जहाँ उसको इच्छाएं, उसको भावनाएँ उपलब्ध हो सकेगी। Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० महावीर । मेरी दृष्टि में दो कारण-परम्पराएं यहां मिल रही हैं ।एक शरीर के अणुओं की, एक मात्मा की। शरीर के अणुओं से बनेगा शरीर । लेकिन उस शरीर को चुनेगा कौन ? यहां हम पचास मकान, पचास ढंग के बनाएं। आप मकान खरीदने माएँ। आप पचास में से हर कोई मकान नहीं चुन लेते। आप खोजते हैं, फिर भाप एक मकान चुन लेते हैं। आपके भीतर उसके चुनाव के कारण होते हैं । हो सकता है कि आपके ख्याल सौन्दर्य रुचि वाले हों कि बड़ा सुन्दर मकान चाहिए हो सकता है कि सुविधा के ख्याल हों कि सुविधापूर्ण मकान चाहिए। बड़ा चाहिए, छोटा चाहिए, कैसा चाहिए ? वह आपके भीतर है। तो दोहरे कारण हैं। एक तो इंजीनियर मकान बना रहा है। उसके भी मकान पचास बन गये हैं। उसके भी कारण हैं पचास मकान बनाने के। वह भी हर कुछ नहीं बना देगा। उसके अपने भीतरी कारण हैं, अपनी दृष्टि है, अपने विचार है, अपनी धारणाएं हैं । फिर आप चुनाव करते हैं। पचास में से आपने एक चुना। तो यहाँ दोहरी कारण-शृंखलाओं का मिलन हुआ। एक इंजीनियर की कारणशृंखला और दूसरी आपकी अपनी कारणशृंखला । हो सकता है कि आप पचास में से कोई भी न चुनें, वापस चले जाएं कि यहाँ मुझे कुछ पसंद नहीं पड़ता। इन दोनों ने क्रास किया और आपने खास मकान चुना। जो शरीर हमने चुना है. वह हमने चुना है। वह हमारा चुनाव है, चाहे वह अचेतन हो, चाहे वह चेतन हो। लेकिन जो शरीर हमने चुना है उसमें भी कर्म का प्रभाव है क्योंकि कार्य-कारण से अन्यथा कुछ हो ही नहीं सकता। प्रश्न : एक गांव है। उसमें जो बच्चे हैं वे तस प्रतिशत दो साल बाद मर जाते हैं। लेकिन क्या ऐसी व्यवस्था है कि सौ के सौ ही जिन्दा रह जाएं ? क्या नस्ल सुधारी जा सकती है ? उत्तर : हाँ बिल्कुल सुधारी जा सकती है। बिल्कुल सुधारी जा सकती • है। फिर वे बच्चे पैदा नहीं होंगे उस गांव में जो दो साल में मरते हैं । एक चौर गाँव है जिसमें दो साल में हर दस में से आठ बच्चे मर जाते हैं। इस गांव में वे ही बच्चे आकर्षित होते है जिनकी दो साल से ज्यादा जीने की सम्भावना नहीं। अगर इस गांव की नस्ल सुधार दी जाए तो इसका मतलब हुमा कि इंजीनियर ने दूसरे मकान बनाए जिनमें वे ही यात्री आकर्षित होंगे जो अभी आकर्षित नहीं हुए थे। इस गाँव में अब वे बच्चे पैदा होंगे जो सो वर्ष जिन्दा रहने के लिए आए हुए हैं । प्रश्न : लेकिन क्या सब गांव में ऐसा किया जा सकता है ? Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ उत्तर : सब गांव में किया जा सकता है, तो नक्षत्र बदल जाएंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यानी एक गांव बदलता है या दूसरा गांव यह सवाल नहीं। अगर पूरी पृथ्वी पर हम सौ साल की उम्र तय कर लें तो इस पृथ्वी पर सौ साल से कम पैदा होने वालों का उपाय बन्द हो जाएगा। उनको दूसरे नक्षत्र चुनने पड़ेंगे। प्रश्न : तब तो फिर दूसरे जन्म तक कर्म गया? उत्तर : मेरा मतलब नहीं समझे। दूसरे जन्म तक तुम जाओगे और तुमने जो किया है, तुमने जो भोगा है उसी से तुम निर्मित हुए हो इसको भी ठीक समझ लेना जरूरी है। समझ लो मैंने पानी बहाया इस कमरे में। एक गिलास पानी लुड़का दिया। पानी बहा, उसने एक रास्ता बनाया, दरवाजे से निकल गया। फिर पानी बिल्कुल चला गया। धूप आई। सब सूख गया। सिर्फ एक सूखी रेखा रह गई। पानी नहीं है बिल्कुल अब । लेकिन पानी जिस मार्ग से गया था वह मार्ग रह गया है। आपने दूसरा पानी उलटाया। अब इस दूसरे पानी की हजार सम्भावनामों में निन्यानवें सम्भावनाएं यह है कि वह उसी मार्ग को पकड़ ले क्योंकि उसमें न्यूनतम प्रतिरोष है, झगड़ा ज्यादा नहीं है। दूसरा मार्ग बनाना हो तो फिर धूल हटानी पड़ेगी, कचरा हटाना पड़ेगा तब पानी मार्ग बना पाएगा। बना हुआ मार्ग है । यह पानी उस मार्ग को पकड़ लेगा और उसी मार्ग से बह जाएगा। पुराना पानी नहीं रह गया था सिर्फ सूखी रेखा रह गई थी। __ मेरा कहना है कि एक जन्म से दूसरे जन्म में कर्म के फल नहीं जाते । लेकिन कर्म और फल जो हमने किए और भोगे, उनकी एक सूखी रेखा हमारे साथ रह जाती है। उसको मैं संस्कार कहता हूँ । कर्म फल दूसरे जन्म में नहीं जाते। मैंने पिछले जन्म गाली दी थी तो फल वहीं भोग लिया था। लेकिन गाली दी थी मैंने और तुमने नहीं दी थी तो मैंने गाली का फल भोगा, तुमने' वह फल भी नहीं भोगा। तो मैं एक और तरह का व्यक्ति हूँ। मेरे पास एक सूखी रेखा है गाली देने और गाली का फल भोगने की। वह सूखी रेखा मेरे साथ है। इस जन्म में मेरे साथ सम्भावना है कि कोई गाली दे तो मैं फिर गाली दूं क्योंकि वह सूखी रेखा जो है, न्यूनतम प्रतिरोध की वजह से मैं फौरन उसे पकड़ लूंगा। कल रात हम सब लोग सो जाएं। आप अलग ढंग से जिए । मैं अलग ढंग से जिया । जो मैं जिया वह गया। आप जो जिए वह भी गया। लेकिन उसकी सूखी रेखाएं साथ रह गई। Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ महावीर । मेरी दृष्टि में प्रश्न : मरने के बाद तो कोई श्रीमन्त के यहाँ जन्मता है, कोई गरीब के यहाँ जन्मता है । इसका क्या कारण है ? ___ उत्तर : हाँ सही है। यहां भी हमारी सूखी रेखाएं ही काम कर रही है। हमारा जो चित्त है, उसके जो आकर्षण हैं, हमने जो किया और भोगा है उसने हमें एक खास परिस्थिति दी है, एक खास संस्कार-बद्धता दी है। वह खास संस्कार-बद्धता हमें खास मार्गों पर प्रवाहित करती है। वे खास मार्ग सब रूपों में कारण से बंधे होंगे। चाहे वह समृद्ध के घर पैदा हो, चाहे गरीब के घर में, चाहे हिन्दुस्तान में पैदा हो, चाहे अमेरिका में, चाहे सुन्दर हो, चाहे कुरूप हो, चाहे जल्दी मरने वाला हो या देर तक जीने वाला हो इन सारी चीजों में उस आदमी ने जो किया है और भोगा है, उसकी संस्कारशीलता काम करेगी ही। अकारण यह कुछ भी नहीं है। प्रश्न : कल जब समाजवाद मा जाएगा, कारण और कार्य दोनों खत्म नहीं होंगे उस वक्त ? उत्तर : कारण और कार्य खत्म हो गए। जैसे आपने आग में हाथ डाले फिर आपने हाथ बाहर निकाल लिए तो डालना खत्म हो गया। भापका हाथ जला वह भी खत्म हो गया। हाथ की जलन भी खत्म हो गई लेकिन आग में डालने से जला हुमा हाथ पास रह गया। प्रश्न : किसी के कर्म का जो अन्तिम फल है वही तो चला अगले जन्म में? उत्तर : फल नहीं चलने वाला है । फल तो खत्म हो गया। प्रश्न : भाग मलने के कारण हाथ पर कुछ निशान रह गए ? उत्तर : हाँ ये जो निशान हैं न तो ये जलन है, न आग है। फल जलन था, वह तुमने भोग लिया। अब तुम्हारा हाथ जल गया है । प्रश्न : यह भी तो एक प्रकार का फल ही है कि हाथ कुरूप हो जाए ? उत्तर : बह सूखी रेखा है। सिर्फ चिह्न रह गया है कि तुम्हारा हाप जला था। प्रश्न : फल तो उसी का है ? उत्तर : नहीं, तुम फल का मतलब ही नहीं समझते । फल का मतलब होता है जलन । कारण था मापका हाथ डालना, फल था हाथ का जलना । यह एक घटना थी। इस घटना के सूखे संस्कार पीछे रह जाएंगे कि इस बादमी ने Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ ३६३ आग में हाथ डाला था। इस बात को मैं संस्कार कहता हूँ, फल नहीं कहता। फल तो जलन थी जो भोग लिया तुमने। प्रत्येक व्यक्ति अपने-अपने भोगने की खबर को लिए हुए है अपने साथ । ये खबरें भी हमें प्रभावित करती हैं । वे हमें न्यूनतम प्रतिरोध का मार्ग सुझाती है। जिस आदमी ने पिछले दस जन्मों में हत्या की है बार-बार उसकी बहुत सम्भावना इस जन्म में भी हत्या करने की है। कारण कि दस जन्मों से हत्या करने को उसकी जो वृत्ति है, जो भाव है, जो संस्कार है, वह निरन्तर गहरा होता चला गया है और जब उससे झगड़ा होता है तो पहली बात उसको यही सूझती है कि मार डालो। दूसरी बात नहीं सूझती उसको। यह निकटतम रास्ता है जिस पर सूखी रेखा बनी है। वृत्ति सिर्फ सूखी है, उसमें कोई प्राण नहीं है। अगर आप बदलना चाहें तो बदल सकते हैं। लेकिन अगर आप कहते हैं फल तो फल सूखा नहीं, फल हरा है । फल भोगना पड़ेगा, आप उसे बदल नहीं सकते। जैसे कोई आग में हाथ डालता है तो उसे उसी वक्त जलना पड़ेगा जब कि वह हाथ डालता है लेकिन मेरा कहना है कि यह आदमी आग में हाथ डालने की वृत्ति वाला है । दूसरे जन्म में भी इससे डर है कि कहीं वह आग में हाथ डाल दे। क्योंकि इसकी बार-बार आग में हाथ डालने की आदत भय पैदा करती है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि यह आग में हाथ डालने को बंधा है। यह चाहे तो न डाले। इसका मतलब यह होता है अन्ततः कि कर्मों की निर्जरा नहीं करनी है आपको । कर्मों की निर्जरा हर कर्म के साथ होती ही चली जाती है। पीछे सूखी रेखा रह जाती है। इसी सूखी रेखा से आपको ज्ञान हो जाना काफी है। इसलिए मोक्ष या निर्वाण तत्काल हो सकता है। पुरानी धारणा में वह तत्काल नहीं हो सकता क्योंकि आपने जितने कर्म किए हैं उनके फल आपको भोगने हो पड़ेंगे । जब आप सारे फल भोग लेंगे तभी आपको मुक्ति हो सकती है। और इन फलों को भोगने में फिर आपने कुछ कर्म कर लिए तो आप फिर बंध जाएंगे। और यह अन्तहीन शृंखला होगी। यानी मैं कह रहा है कि आप प्रतिबार कर्म करके फल भोग लेते हैं। निर्जरा वही हो जाती है, रह जाती है सिर्फ सूखी रेखा, कर्म नहीं, फल नहीं। अगर आप होश से मर जाते हैं तो वह अभी विदा हो जाती है। प्रश्न : सूखी रेखा रहने की जरूरत क्या थी ? उत्तर : उसकी जरूरत है। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ महावीर । मेरी दृष्टि में प्रश्न : सूखी रेखा का सिद्धान्त क्या है ? उत्तर : सिद्धान्त की जरूरत नहीं । तथ्य है यह। जैसे समझ लो कि आज दिन भर मैंने क्रोध किया, दुःख भोगा, गाली खाई, झगड़ा हुना, उपद्रव हुआ, अशान्त हुआ। फिर मैं सो गया आज रात को। आपने दिन भर क्रोध नहीं किया, प्रेम से लोगों से मिले जुले, आनन्दित रहे । आप भी सो गए । सुबह हम दोनों एक ही कमरे में सोकर उठे। मेरी चप्पल मेरे बिस्तर के पास नहीं मिली मुझे । आपको भी नहीं मिली। आपको सम्भावना बहुत कम है कि आप क्रोध में आ जाएँ। मेरो सम्भावना बहुत ज्यादा है कि मैं क्रोध में आ जाऊँ । वह जो कल का दिन था उसकी सूखी रेखा मेरे साथ है। कल दिन भर जो क्रोध किया तो आज सुबह से ही उपद्रव शुरू हो गया। कहाँ है मेरी चप्पल ? कल जो मैंने गाली दी थी, वह भी गई, जो गाली का दुःख था, वह भी गया। लेकिन गाली देने वाला आदमी जिसने दिन भर गालियां दी वह तो शेष है। मुझमें और आप में कोई फर्क तो होना चाहिए क्योंकि आपने गाली नहीं दी और मैंने दिन भर गाली दी। और सुबह फिर ऐसा हो जाए कि कोई भेद न रह जाए तब तो फिर व्यवस्था गई । भेद तो रहेगा ही मुझ में और आप में । क्योंकि हम अलग ढंग से जिए। मैं क्रोध में जिया, आप प्रेम में जिए। तो हम में भेद रहेगा। वह भेद वृत्ति का होगा, फल का नहीं। फल तो गया। अब हमारे साथ रह जाएगा वह जो समग्र संस्कार है हमारा। इस समग्र संस्कार के प्रति हमारी मूर्छा कारण होगी इसको चलाने का। जैसे समझ लें कि कल मैंने क्रोध किया दिन भर और सुबह सोचूँ कि बहुत क्रोध किया, बहुत दुःख पाया और जाग जाऊं तो जरूरी नहीं कि मैं फिर क्रोध करूँ यानी मेरे भीतर क्रोष करने की अनिवार्यता नहीं है। सिर्फ मुर्छा में ही अनिवार्यता है। अगर मैं सोए-सोए कल जैसा व्यवहार करूँ तो क्रोव चलेगा। अगर जाग जाऊँ तो क्रोध 'टूट जाएगा। ___इसलिए अन्ततः मेरी दृष्टि में कर्म की निर्जरा तो हो चुकी है लेकिन कर्म को सूखी रेखा रह गई है। और वह सूखी रेखा हमारी मूर्छा है । अगर हम मूच्छित रहें तो हम वैसे ही काम करेंगे। अगर हम जाग जाएं तो काम इसी वक्त बन्द हो जाए । इसलिए मैं कहता हूँ कि एक क्षण में मुक्ति हो सकती है। करोड़ जन्मों में आपने क्या किया है, इससे मुझे कुछ लेना-देना नहीं है । सिर्फ आप जाग जाएँ। इससे ज्यादा कोई शर्त नहीं। यह मेरी व्यक्तिगत दृष्टि है क्योंकि मैं ऐसी व्याख्या कर रहा हूँ । बुनियादी अन्तर पड़ेगा आपकी व्याख्या से। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०२ महावीर । मेरी दृष्टि में कर्म के संस्कार की पूरी व्यवस्था का हिस्सा होता है। वह न करने का तुम्हारा सवाल भी व्यर्थ है। प्रश्न : कोशिश करने का भी कारण होता है ? उत्तर : हां, कारण है । कारण यही है कि तुम दुःख को नहीं झेल सकते, नहीं देख सकते और उसको बदलने की कोशिश करते हो। तो हम जब यह सोचने लगते हैं कि न करें तब हम गलतो में पड़ जाते हैं। न करने के लिए कारण जुटाना बहुत मुश्किल है। और नहीं तो न करने का जिस दिन कारण जुटा लोगे उस दिन सामायिक हो जाएगी और मोक्ष हो जाएगा। यानी मेरा मतलब समझे आप ? करने का कारण ही हमने जुटाया है सब । जिस दिन हम उस हालत में आ जाएंगे कि हम कह सकें कि न करना भी काफी है, अब कुछ नहीं करते तो नियम के हम बाहर हो जाएँगे। उस स्थिति का नाम ही मोका हैलो करने के बाहर हो गया। लेकिन जो करने के भीतर है, वह कुछ न कुछ करता ही रहेगा। दूसरी बात यह भी समझ लेनी चाहिए। एक आदमी, हो सकता है कि चांटा मारने में दुःख न उठाए, आनन्दित हो। हम को लगेगा कि फिर उसके साथ क्या होगा? लेकिन हमें ख्याल नहीं है कि जो आदमी चांटा मारने में आनन्दित है वह आदमी नहीं रह गया है। वह आदमो से बहुत नीचे उतर गया है । और उसने चांटा मारने में इतना खोया जितना कि चांटा मार कर दुःखी होने वाला नहीं खोता है। इस बात को जरा ख्याल में रखें। जो चांटा मार कर दुःखी होता है, वह बहुत थोड़ा फल भोगता है लेकिन जो चांटा मार कर मानन्दित होता है उसने तो भारी फल भोग लिया। उसका तो विकास तल एकदम नीचे चला गया। वह तो एकदम जंगली हो गया। उसने दस हजार, बीस हजार, पचीस हजार साल में जो विकास किया, सब खो दिया। उसका विकास तो इतना पिछड़ गया कि उसको जन्म-जन्मान्तरों का चक्कर हो गया जिसमें कि वह वापस उस जगह आए जहां कि चांटा मारने से दुःख होता है। मेरा मतलब समझे आप ? फल वह भो भोग रहा है। बहुत भारी फल भोग रहा है । उसका फल बहुत गहरा है, बहुत गहरा है। प्रश्न : मापने जो कहा कि जीवनप्रस्त कर्म को जो सूखी रेखा मंकित होती है, उससे पुनर्जन्म का सिद्धान्त फलित होता है। मापने कहा कि एक भावमी हत्या करता है वस-बारह जन्मों तक तो उसके हत्यारा होने की सम्भावना बनी रहती है। पहले मापने कहा था कि जो पहले जन्म में वेश्या Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-वचन-१२ होती है दूसरे जन्म में उसकी वृशि वमन की होती है। कर्मों की सूखी रेखा से तो उसे वेश्या ही होना चाहिए। उत्तर : ठीक कहते हैं । साधारणतः तुम समझते हो कि दमन कर्म नहीं है। असल में दमन कर्म है, भोग भो कर्म है, वेश्या होना भी एक कर्म है । प्रश्न : और वमन भी कर्म है ? उत्तर : हां दमन भी कर्म है। दमन की भी सूखी रेखा रह जाती है। संन्यासी है एक, साध्वी है एक । हजारों सूखो रेखाएं हैं। हजारों हमारे कर्म है, हजारों रेखाओं का जाल है। उस सब पाल की निष्पत्ति हम हैं। एक वेश्या, प्रतिदिन जब भी वह वेश्या के काम से गुजरती है, दुःखी होती है । सामने उसके एक संन्यासिनी रहती है और वेश्या दिन-रात सोचती है कि कैसा अद्भुत जोवन है उसका । कैसा अच्छा होता कि मैं संन्यासिनी हो जाती। तो दोहरी रेखाएँ पड़ रही है। वह वेश्या होने का कर्म कर रही है, यह उसकी एक रेखा है लेकिन उससे भी प्रबल एक रेखा है कि वह वेश्या होने से पीड़ित है और वह संन्यासिनी होना चाहती है। सामने जो संन्यासिनी रह रही है वह सुबह से सांझ तक ब्रह्मचर्य साध रही है। लेकिन जब भी वेश्या के घर में दिया जलता है,.सुगंधि निकलती है और संगीत बजने लगता है तब उसका मन डांवाडोल हो जाता है। और वह सोचती है कि पता नहीं वेश्या कैसा आनन्द लूट रही होगी । तो साध्वी भी दो रेखाएं बना रही है । एक रेखा बना रही है वह साध्वी होने की और दूसरी रेखा बना रही है वह वेश्या होने के आकर्षण की। भव इन सबके तालमेल पर निर्भर करेगा अन्ततः कि साध्वो वेश्या हो जाए या वेश्या साध्वी हो जाए। मेरा मतलब है कि जिन्दगी में हजार-हजार रेखाएं काम कर रही हैं। साधो रेखा नहीं है कोई, सोषा रास्ता नहीं है कोई । हजार-पगडंडियों कट रही हैं । और वे बहुकारणात्मक है। और तुम खुद कभी थोड़ी देर गिर जाते हो, फिर थोड़ी देर उठ जाते हो। तुम कोई सोधी रेखा में नहीं चले जा रहे हो। कभी तुम अच्छे आदमोहोने को रेखा में दो कदम चलते हो, दस कदम बुरे आदमी के होने में हट आते हो। तुम्हारी जिन्दगी भी कोई ऐसी नहीं है कि तुम एक रास्ते पर सोधे चले जा रहे हो। तुम बार-बार चौराहे पर लोट आते हो। पीछे जाते हो, आगे जाते हो, बाएं-दाएं जाते हो। सब ओर तुम घूम रहे हो। इस सबका समूचा हिसाब होगा। तुम्हारे चित्त पर इस सब के संस्कार होंगे। Page #345 --------------------------------------------------------------------------  Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ प्रवचन Page #347 --------------------------------------------------------------------------  Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थोड़ी सी बातें पिछले प्रश्नों के सम्बन्ध में कर लें। यह जरूर पूछा जा सकता है कि यदि पता हो कि एक दुर्घटना होने वाली है तो क्या रुक जाना चाहिए। मगर क्यों रुक जाना चाहिए ? मैंने जो मेहर बाबा का उदाहरण दिया वह सिर्फ इस बात को समझाने के लिए कि क्या होने वाला है इसे भी जानने की पूर्ण सम्भावना है। लेकिन जो उन्होंने किया मैं उसके पक्ष में नहीं हूँ। उनका हवाई जहाज से उतर जाना या मकान में न ठहरना, इसके मैं पक्ष में नहीं हूँ। मेरी मान्यता यह है कि जीवन में अगर पूर्ण आनन्द, पूर्ण शान्ति उपलब्ध करनी है तो स्वयं को प्रवाह में ऐसे छोड़ देना चाहिए जैसे किसी ने नदी में अपने को छोड़ दिया हो, जो तैरता नहीं, सिर्फ बहता है, जो हो रहा हो, उसमें सहज बहता है। जीसस को जिस दिन सूली लगी उससे एक क्षण पहले उसने जोर से चिल्ला कर कहा, 'हे परमात्मा ! यह क्या करवा रहा है ?' शिकायत आ गई और परमात्मा गलत कर रहा है यह भी आ गया। और जीसस परमात्मा से ज्यादा जानते हैं यह भी आ गया। लेकिन तत्क्षण जीसस की समझ में भा गई बात कि कहने में भूल हो गई है। तो दूसरा वाक्य उन्होंने कहा 'मुझे क्षमा करो ! मैं क्या जानता हूँ ? तेरी मर्जी पूरी हो।' फिर इसके बाद आखिरी वचन जो उन्होंने बोला उसमें कहा कि इन सब लोगों को माफ कर देना क्योंकि ये लोग नहीं जानते कि ये क्या कर रहे है। वह उन लोगों की ओर इशारा कर रहा था जो उसे सूली दे रहे थे। और मेरी अपनी समझ यह है कि जिस क्षण जीसस ने कहा कि 'हे परमात्मा ! यह क्या कर रहा है, यह क्या करवा रहा है, यह क्या दिखला रहा है, तब तक वह जीसस ही थे और जैसे ही उन्होंने समग्र मन से यह कहा कि 'तेरी मी पूरी हो, ममा कर' उसी क्षण बह गइस्ट हो गए। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ You महावीर : मेरी दृष्टि में तो मैंने जो यह कहा कि मेहर बाबा लोट गया मकान से या हवाई जहाज से उतर गया, इसका बहुत गहरा अर्थ यह है कि व्यक्ति का अहंकार अभी सुरक्षित है । अभी विश्व के प्रवाह में वह अलग होने को, पृथक होने को, अपने को बचाने को आतुर और उत्सुक है। मैंने यह नहीं कहा कि जो किया वह ठोक किया । मैंने कुल इतना कहा कि इस बात की सम्भावना है कि बातें पहले से जानी जा सकती हैं । लेकिन परम स्थिति यह है कि जीवन एक बहाव हो, तैरना भी न रह जाए । जिन्दगी जहाँ ले जाए और जो हो उसके साथ चुपचाप राजी हो जाना चाहिए । ऐसी स्थिति को ही मैं आस्तिकता कहता हूँ। मैं कहूंगा मेहर बाबा आस्तिक नहीं है। जरा मुश्किल होगी यह समझने में । आस्तिकता का मतलब यह है कि मृत्यु भी आ जाए तो वह वैसे ही स्वीकृत है जैसा जीवन स्वीकृत था । भेद क्या है मृत्यु और जीवन में ? मकान के फर्क क्या है ? जैसे पौधे अंकुरित होते हैं, फूल बनते हैं इतना हो शान्त और चुपचाप बहाव होना चाहिए जिसमें अहंकार कोई अवरोध ही नहीं डालता, कोई बाधा ही नहीं डालता । तभी मुक्ति पूरे अर्थों में सम्भव है तो इसलिए मैं करने को गलत ही कहता हूँ । दूसरी बात पूछी जा सकती है कि यदि संकल्प से सब हो सकता है तो फिर कुछ भी किया जा सकता है, धन भो, यश भी कुछ भी इकट्ठा किया जा सकता है, चाहे वह परोपकार के लिए हो, चाहे स्वार्थ के लिए हो - हीं निश्चित ही किया जा सकता है । इसमें कोई कनिनाई नहीं है । लेकिन वही कर सकेगा जो अभी घन के लिए जोता है, यश के लिए जोता है । बचने में और गिरने में अभी कल ही बात हो रही थी कि रामकृष्ण को कैंसर हो गया और राम कृष्ण के भक्त उनसे कहने लगे कि आप एक बार क्यों नहीं कह देते हैं मां को कि कैंसर ठीक करो । रामकृष्ण ने कहा कि दो बातें हैं । एक तो जब मैं उनके सामने होता है तो मैं कैंसर भूल जाता है। यानी ये दो बातें एकसाथ नहीं होती हैं । जब मैं उस दशा में होता हूँ तब कैंसर होता ही नहीं । और जब कैंसर होता है तब मैं उस दशा में नहीं होता । इन दोनों का कभी ताल-मेल नहीं होता । और अगर हो भी जाए तो मैं परमात्मा से कहूँ कि कैंसर ठीक कर दे तो इसका मतलब यह हुआ कि में परमात्मा से ज्यादा जानता हूं । इसलिए जो हो रहा है, उसे सहज स्वीकार करने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं है । विवेकानन्द बहुत गरीब थे। उनके पिता जब मरे तो बहुत कर्ज छोड़ गए। कई लोगों ने विवेकानन्द को कहा कि रागकृष्ण के पास जाते हो, उनसे पूछ लो कोई तरकीब, कोई रास्ता जिससे धन उपलब्ध हो जाए, कर्ज चुका दो । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. ऐसी हालतें थी कि दिन-दिन विवेकानन्द भूखे घूमते रहते, खाने को नहीं था। या घर में इतना कम होता कि मां अकेली खा सकती या विवेकानन्द खा सकते । तो वह कहते कि आज मैं मित्र के घर निमंत्रित हूँ तुम खाना खा लो, मैं खाना खाकर लौटूंगा। और वह भूखे हंसते हुए घर आ जाते कि बहुत ही बढ़िया खाना आज मित्र के घर मिला। इतना भी नहीं था घर में उपाय, इन्तजाम । एक मित्र ने कहा कि रामकृष्ण से पूछ लो। रामकृष्ण के पास विवेकानन्द गए और कहा कि क्या करूं, गरीबी है। उन्होंने कहा कि इसमें कहने की क्या बात है ? सुबह प्रार्थना के बाद 'माँ' को कह देना कि ठीक कर दे, सब इन्तजाम कर दे। विवेकानन्द गए, प्रार्थना करके वापस लौटे। राम कृष्ण ने पूछा : कहा ? विवेकानन्द ने कहा : 'मुंह ही न खुला। क्योंकि यह बात ही मशोभन मालूम पड़ी कि प्रार्थना से भरे चित्त में पैसे को लाया जाए।' फिर दूसरे दिन, फिर तीसरे दिन ऐसा ही हुआ। भूखे हैं, रोटी नहीं मिल रही है, कर्जदार पीछे पड़े हैं। रामकृष्ण रोज-रोज पूछते हैं : 'क्यों? आज कहा? तो वह लौटकर कहते हैं : नहीं, परमहंस देव, यह नहीं हो सकेगा । क्योंकि जब मैं प्रार्थना में होता है तो इतना धनी हो जाता है कि निर्धनता क्या ? कैसी? कौन निर्धन ? और जब प्रार्थना के बाहर आता हूँ तो फिर वही निर्धन हो जाता हूँ जो था। तब मन करने लगता है कि कह दूं। लेकिन जब प्रार्थना में होता हूँ तो मुझसे धनी कोई होता ही नहीं। संकल्प जितना-जितना प्रगाढ़ होता चला जाएगा, उतना ही उसका उपयोग कम होता चला जाएगा। यह समझने जैसी बात है । असल में संकल्प के उपयोग की जो हमारी चित्तवृत्ति है वह संकल्प के न होने के कारण ही है । जैसे-जैसे संकल्प होता जाएगा घना वैसे-वैसे संकल्प का उपयोग बन्द होता चला जाएगा । इस जगत् में सिर्फ शक्तिहीन ही शक्ति के उपयोग की बात सोचते हैं । , जिनके पास शक्ति है वे कभी उसका उपयोग करते हो नहीं। क्योंकि शक्ति की उपलब्धि में ही शक्ति के अनुपयोग की सम्भावना छिपी है । आकस्मिक, अनायास कुछ हो जाए तो हो जाए लेकिन सोचते, विचारते, शक्ति का कोई उपयोग नहीं होता । मगर हमें ऐसा लगता है क्योंकि हम धन को मूल्यवान् समझते हैं । एक छोटा बच्चा है । उसके लिए खिलोना मूल्यवान् है । उसका पिता उससे कहता है कि भगवान् से मैं जो भी प्रार्थना करू हो जाता है । तो बच्चा कहता है कि मेरे लिए एक खिलौना क्यों नहीं मांग लेते। बाप कहता है। पागल, खिलोना मांग कर मा क्या करेंगे? क्योंकि बाप के लिए खिलोने बेकार हो गए है और यह Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में कल्पना के बाहर है कि परमात्मा से खिलौने मांगे जाएं। लेकिन बच्चे की समझ से यह बाहर है कि खिलौने जैसी बढ़िया चीज भगवान् से क्यों नहीं मांग लेते । सबूत हो जाएगा कि कैसा भगवान् है ? कैसी शक्ति है ? खिलौने जब तक हमें सार्थक हैं तब तक हमें लगता है कि अगर भगवान् मिल जाए तो हम खिलौने ही मांग लें। अगर संकल्प जग जाए तो घन ही ले लें । मगर यह भी ध्यान रहे कि ऐसे चित्त में संकल्प जगेगा भी नहीं । और फिर भी ऐसा नहीं है कि तुम एकहरा व्यक्तित्व लेकर पैदा होते हो । अनन्त सम्भावनाएँ लेकर तुम पैदा होते हो । ४१० 1 एक बच्चा पैदा हुआ । उसके संन्यासी होने की सम्भावना है क्योंकि उसने संन्यासी होने की भी एक रेखा डाली हुई है । उसके बदमाश होने की भी सम्भावना है क्योंकि उसने वह भी रेखा बांधी हुई है । वह अनन्त सम्भावनाएं लेकर पैदा हुआ है । अनन्त सूखी रेखाएँ उसे आमंत्रित करेंगी । अब जो रेखा प्रबल सिद्ध हो जाएगी उसमें वह जाएगा । तो हमारी सारी कठिनाई यह है कि नियम जो हैं, उन्हें जब समझाता है कोई तो वे सोधी रेखा में होते हैं । और जिन्दगी जो है, वह बहुत सी रेखाओं की काट-पीट है । जब मैं समझाने बैठता हूँ और जब तुम एक नियम समझ लेते हो तब तत्काल तुमको दूसरा ख्याल आ जाता है कि उसका क्या होगा । और उपाय नहीं है कोई भी इकट्ठा समझाने का । अगर मैं क्रोध समझाऊँगा तो क्रोध समझाऊँगा, घृणा समझाऊँगा तो घृणा समझाऊँगा, प्रेम समझाऊँगा तो प्रेम समझाऊँगा, दया समझाऊंगा तो दया समझाऊँगा और तुम एक साथ सब हो - दया भी, प्रेम भी, घृणा भी, क्रोध भी । तुम्हारी सब सम्भावनाएँ हैं । कोई तुम्हें प्रेम से बात करेगा, तुम प्रेमपूर्ण हो जाओगे । कोई छुरी दिखाएगा, तुम क्रोषपूर्ण हो जाओगे । तुम सब हो । क्योंकि व्यक्ति है अनन्त कारणों से भरा हुआ । और जब हम समझाने बैठते हैं तो एक ही कारण को चुनना पड़ता है । भाषा रेखाबद्ध है । जिन्दगी अनन्त रेखाओं का जाल है। इसलिए भाषा में बहुत मूल होती है क्योंकि भाषा सीधी जाती है एक रेखा में। मैं करुणा समझाऊँगा तो करुणा समझाता चला जाऊंगा । अब करुणा के साथ ही साथ एकदम से क्रोध कैसे समझाऊँ, घृणा कैसे समझाऊँ ? वह समझाना मुश्किल है । फिर उनको अलग-अलग समझाऊंगा । ये सब अलगअलग रेखाएँ बन जाएंगी । व्यक्ति में ये सब रेखाएं अलग-अलग नहीं हैं, सब इकट्ठी जुड़ी खड़ी हैं । प्रथम : अगर कोई बलवान् रेला है उसके कर्म करने को, अब उससे जो कमजोर रेला है उसकी छाया उसमें साथ आएगी या नहीं ? Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४११ उत्तर : हाँ बिल्कुल साथ आएगी। पश्न : एक कमरा है, मच्छर हैं, चीटियां है, मक्खियां हैं तो एक मन माता है पिलट लगा दो। एक मन आता है पिलट न लगाओ । इसमें मन की स्थिति बड़ी डांवाडोल हो जाती है । तो उसमें क्या उचित है ? उत्तर : उचित वही है जो आप कर सकोगे और करोगे। उचित मानकर आप चले तो मुश्किल में पड़ जाओगे। अगर मैंने कह दिया कि फ्लिट लगाना उचित नहीं है तो रात भर मुझको गाली दोगे क्योंकि मच्छर काटेंगे। या मैंने कह दिया कि पिलट लगाना उचित है तो आप समझेंगे कि हिंसा मैंने की। फल उसका मैं भोगूंगा। यह उचित, अनुचित का सवाल नहीं है । आप सोचो और जिओ । जो ठीक लगे, करो। संकल्प जग सकता है मगर तभी जब चित्त की धारणाएं चली जाएं। संकल्प जग जाए तो फिर इनके प्रयोग का कोई मतलब नहीं क्योंकि जब धारणाएं छूटे तभी संकल्प जगता है। यानी कठिनाई कुछ ऐसी है जैसा बैंक के सम्बन्ध में कहा जाता है। बैंक उस आदमी को पैसे उधार देता है जिसको पैसे की कोई जरूरत नहीं। और जिस आदमी को जरूरत है उसे बैंक पैसा उधार नहीं देता क्योंकि जिसे जरूरत है उससे लौटने की सम्भावना नहीं। बैंक पक्का पता लगा लेता है कि इस आदमी को पैसे की जरूरत नहीं है। फिर बैंक जितना चाहे उतना उधार देता है। और पक्का पता लग जाए कि इस आदमी को पैसे की जरूरत है तो बैंक हाथ खींच लेता है, पैसे नहीं देता है। यह बड़ा उल्टा है नियम । होना तो ऐसा चाहिए था कि जिसे पैसे की नरूरत हो उसे बैंक पैसा दे लेकिन बैंक उसको पैसा नहीं देता। बैंक सिर्फ उसी को पैसा देता है जिसको कोई जरूरत नहीं है। तो मेरा कहना है कि परमात्मा को विराट् शक्ति उन्हीं को उपलब्ध होती है जिन्हें कोई जरूरत नहीं। और जिन्हें जरूरत है उन्हें उपलब्ध नहीं होती। मीसस का कहना है कि जो अपने को बचाएगा वह नष्ट हो जाएगा और जो अपने को खोने के लिए राजी है उसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता । जो मांगेगा उससे छीन लिया जाएगा और जो छोड़कर भागने लगेगा उसे दे दिया नाएगा। असल में मांगने वाला चित्त संकल्प ही नहीं कर सकता। उसका कारण है क्योंकि मांगने वाला चित्त दोन और दरित होता है कि संकल्प जैसी सम्पदा उसके पास नहीं हो सकती। असल में न मांगने वाला संकल्प कर सकता है। लेकिन हम संकल्प भी इसीलिए करते हैं कि कुछ मांग लेंगे। तब Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ महावीर : मेरी दृष्टि में सारी कठिनाई हो जाती है, सारी असुविधा हो जाती है। तो इसकी बात भी तनिक कर लेनी चाहिए। जैसा मैंने कहा कि महावीर को कोई फर्क नहीं पड़ता शादी हो या न हो। एक सीमा पर सब बराबर हैं और जहां सब बराबर हैं, वहीं मुक्ति है। और जहाँ तक भेद है वहाँ तक मुक्ति नहीं है। जहां तक शर्त है कि ऐसा होगा तो ठीक, और ऐसा न होगा तो गलत हो जाएगा वहाँ तक हम बंधे हुए हैं । यह चुनाव ही बांषता है। मैं कहता हूँ : बस ऐसा, तो शांत रहूँगा, आनन्दित रहूँगा। ऐसा न हुआ तो फिर अशांत हो जाऊंगा। शांति और अशांति, आनन्द और निरानन्द बंधे हुए हैं कहीं। मैं मुक्त नहीं हूँ। ऐसा नहीं है कि मैं हर हालत में आनन्दित रहूँ। जो आदमी हर हालत में आनन्दित है उसको कोई शर्त नहीं है । उसको तो यह भी शर्त नहीं कि बीमार रहे कि स्वस्थ, जिन्दा रहे कि मर जाए, शादी हो कि न हो, मकान हो कि न हो। उसे कोई शर्त नहीं । वह बेशर्त जीता है, जो भी हो जीता है। ___ मैं अपना ही उदाहरण देता हूँ। शादी के लिए मैंने कभी मना किया ही नहीं। क्योंकि मना भी वही करता है जिसके मन में कहीं 'हो' छिपा हो। 'हाँ' छिपा हो तभी 'न' सार्थक होती है। और कई बार तो 'न' का मतलब ही 'हाँ' होता है, यानी 'न' सिर्फ ऊपर की होती है, 'हाँ', पीछे होती है। मैं विश्वविद्यालय से लौटा तो घर के लोग चिन्तित थे। शादी की बड़ी चिन्ता थी। मुझसे पहली रात मेरी मां ने पूछा कि शादी के सम्बन्ध में क्या ख्याल है । मैंने उससे कहा कि दो-तीन बातें समझने जैसी है। पहली तो यह कि मैंने अब तक शादी नहीं की इसलिए मुझे कोई अनुभव नहीं। तो मेरे 'हां' और 'न' दोनों गैर अनुभवी के होंगे। दूसरा यह कि तुमने शादी को है। तुम्हारा जिन्दगी का अनुभव है। तुम पन्द्रह दिन सोच लो और फिर मुझे कहना कि तुमने शादी करने के बाद कोई ऐसा आनन्द पाया जिससे तुम्हारा बेटा वंचित न रह जाए तो मैं शादी कर लंगा। और अगर तुम्हें लगा कि शादी करके तुमने कोई आनन्द नहीं पाया और तुम्हें शादी के बाद कई बार ऐसा ख्याल आया कि नहीं की होती तो अच्छा था तो मुझे सचेत कर देना कि कहीं मैं कर न बैलूं। मेरी ओर से न 'न' है, न 'ही' है। मेरी मोर से कोई शर्त ही नहीं है । मैंने बात सीधी सामने रख दी क्योंकि मेरा कोई अनुभव ही नहीं है। अभी मैंने शादी नहीं की है, कर सकता हूँ। ऐसी कोई कठिनाई नहीं है। लेकिन जो मुझे प्रेम करते हैं उनको इतना तो मेरे लिए सोचना ही चाहिए कि उन्होंने जो अनुभव Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ किया है वह अगर ऐसे किसी आनन्द का है जिससे मैं वंचित रहूँ तो उन्हें दुःख होगा तो मैं शादी कर लूँगा । फिर मुझसे पूछना ही मत और अगर कहीं तुम्हारा ऐसा अनुभव हो कि तुमने दुःख पाया तो तुम्हारा पहला काम होगा मुझे सचेत कर देना ताकि कहीं मैं भूल चूक से भी शादी न कर लूँ । -१३ I पन्द्रह दिन बाद जब माँ ने मुझे कहा कि मुश्किल में डाल दिया है । क्योंकि खोजने गई हूँ तो कैसा आनन्द ? अब मैं नहीं कह सकती है कि तुम शादी करो । वैसे तुम्हारी मर्जी । मैंने कहा अब जब मेरी मर्जी होगी मैं तुमसे कहूँगा । यानी तब तक के लिए बात स्थगित हो गई और वह मर्जी नहीं हुई । न मैंने कभी नहीं कहा है, न कभी हाँ कहा है । यहाँ भी कोई समझाने-बुझाने वाला आ जाए तो मैं राजी हो सकता हूँ । इसमें कोई तकलीफ की बात नहीं है, इसमें कोई अड़चन नहीं है । मेरे पिता के एक मित्र थे। बड़े वकील थे बड़े तार्किक 1 शादी बहुत उपयोगी थे । दूसरे गाँव में रहते थे। पिता ने उनको कहा कि आप आकर समझाएँ । वे आए, रात आकर रुके । आते ही उन्होंने मुझसे कहा कि चाहे कितने भी दिन मुझे रुकना पड़े मैं यह सिद्ध करके जाने वाला हूँ कि है । मैंने कहा कि इसमें देर की जरूरत ही नहीं आज ही आप मुझे समझा दें, आज ही मैं राजी हो जाऊँ । लेकिन ध्यान रहे यह एक तरफ नहीं रहेगा मामला ।' उन्होंने कहा : क्या मतलब ? मैंने कहा बाप समझाएँगे तो मुझे भी कुछ बोलने का हक होगा। और अगर सिद्ध कर दिया कि शादी करना आनन्दपूर्ण है तो मैं कल सुबह हाँ भर दूँगा । और अगर सिद्ध हो गया कि आनन्दपूर्ण नहीं है तो आपका क्या इरादा है ? क्या आप शादी छोड़ने को राजी हैं ? क्योंकि अकेला एकतरफा मामला ठीक नहीं है । यह अन्याय हो जाएगा । यानी मैं दाव लगाऊँ जिन्दगी और आप बिना दाव के लड़ें तो फिर मजा नहीं आएगा । उन्होंने कहा कि तुम ठहर जाओ। मैं सुबह तुमसे बात करूंगा। मेरे उठने के पहले वह जा ही चुके थे । पिता से कह गए थे कि मैं इस झंझट में नहीं पड़ता । इस झंझट से मुझे कोई जरूरत नहीं । संदिग्ध हमारा मन है भीतर तो हम किसी को क्या समझाएँगे ? फिर बहुत वर्ष बाद जब वे मुझे मिले तो उन्होंने कहा : 'तुमने मुझे बहुत चिन्ता में डाल दिया । मैं रात भर सो नहीं सका। फिर मैंने कहा कि यह ज्यादती होगी • क्योंकि मैं खुद ही छोड़ने की हालत में बैठा हूँ। मैंने कहा इस बात में मुझे पड़ना ही नहीं है । ओर में हार जाता क्योंकि मैं भीतर से ही कमजोर था । यानी मैं खुद ही इस पक्ष का हूँ कि बहुत गल्ती हो गई लेकिन अब कोई उपाय Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ महावीर : मेरी दृष्टि में नहीं।' लेकिन मैंने मना नहीं किया। अभी तक कोई समझाने वाला नहीं आया। क्या करें, कोई उपाय नहीं है। इसलिए उसकी चिन्ता नहीं लेनी चाहिए। ___ कर्म के सम्बन्ध में आप पूछते हैं कि यह जो विकास हो रहा है जिसमें ये जो पशु-पक्षी है मनुष्य योनि तक आ गए हैं क्या अपने आप चल रहा है या उनकी सचेत चेष्टा भी इसमें सहयोगी है। मेरा कहना है कि विकास दो तलों पर चल रहा है। डार्विन की खोज बड़ी गहरी है लेकिन एकदक अधूरी है। डाविन ने शरीर के विकास पर सारा सिद्धान्त निर्धारित किया है । ऐसा मालूम पड़ता है कि कभी न कभी कुछ लाख वर्ष पहले, बन्दर के ही शरीर से मनुष्य के शरीर की गति हुई होगी। बन्दर के शरीर की व्यवस्था, उसके मस्तिष्क, उसको हड्डी, मांस-पेशियां सब खबर देती है कि उससे ही मनुष्य का शरीर माया होगा और खोज करते-करते कहा जा सकता है कि किसी न किसी रूप में मछली से जीवन-यात्रा शुरू हुई होगी और मछली भी किसी न किसी प्रकार के पौधे से ही आई होगी। इस सब के लिए लम्बा वैज्ञानिक अन्वेषण हुआ है। और यह बात तय हो गई है कि इस तरह का क्रमिक विकास शरीर में हो रहा है । लेकिन चूंकि विज्ञान आत्मा की फिक्र ही नहीं करता, इसलिए बात अधूरी है और आधे सत्य असत्य से भी ज्यादा खतरनाक होते हैं क्योंकि आधे सत्यों में पूर्ण सत्य होने का भ्रम पैदा होता है। यह विकास का एक आधा हिस्सा है। दूसरा हिस्मा वह है जिसके लिए महावीर जैसे लोगों की खोज कीमती है। वह कहते हैं कि चेतना भी विकसित हो रही है। अगर शरीर ही अकेला है बस तब सब विकास परिस्थितिगत है और प्रकृति के नियम के अनुकूल है। क्योंकि अगर शरीर अकेला हो तो इच्छा का सवाल ही नहीं उठता। लेकिन अगर चेतना भी है तो विकास सहज हालत में नहीं हो सकता क्योंकि चेतना का मतलब ही है कि जो यान्त्रिक नहीं है। एक पंखा चल रहा है। पंखे का चलना बिल्कुल यांत्रिक है। पंखे की कोई इच्छा काम नहीं कर रही । लेकिन अगर पंखे की आत्मा हो तो पंखा कभी भी कह सकता है कि आज बहुत सर्दी है, नहीं चलते। या आज बहुत थक गए हैं, आज चलने का मन नहीं है। कभी तेजी से भी चल सकता है अगर प्रेमी पास आ जाए। दुश्मन आ जाए तो बन्द भी हो सकता है। मगर पंखे के पास कोई चेतना नहीं है। किन्तु जहाँ चेतना है वहाँ विकास स्वचालित नहीं हो सकता। उसमें चेतना सक्रिय रूप से भाग लेंगी। लेकिन जो हमें विकास दिख रहा है वह मालूम पड़ रहा है और सचेष्ट विकास की यात्रा बहुत कम नजर आती है तो Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१५ हम कहते हैं कि विकास शायद निन्याववें प्रतिशत स्वचालित है । एक आघ प्रतिशत विकास स्वेच्छा से होता है । लेकिन जैसे-जैसे हम ऊपर की तरफ आते हैं विकास सचेष्ट मालूम होता है । प्रवचन- १३ मनुष्य के साथ यह मामला है कि उसके साथ जो विकास होगा वह निन्यानवें प्रतिशत स्वेच्छा से होगा, नहीं तो विकास होगा ही नहीं । और इस लिए मनुष्य कोई पचास हजार वर्षों से ठहर गया है। अब उसमें कोई विकास लक्षित नहीं होता । दस लाख वर्ष के भी जो शरीर मिले हैं उनमें भी कोई विकास हुआ नहीं दिखता। उसमें और हमारे अस्थिपंजर में कोई बुनियादी फर्क नहीं पड़ा है, न हमारे मस्तिष्क में कोई बुनियादी फर्क पड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य में निन्यानवें प्रतिशत स्वेच्छा पर निर्भर करेगा । कोई बुद्ध, कोई महावीर - यह स्वेच्छा का विकास है और अगर हम स्वचालित विकास से प्रतीक्षा करते रहे तो एक ही प्रतिशत विकास की सम्भावना है जो बहुत ही धीरे-धीरे घिसटती रहेगी । जितने पीछे हम जाते हैं, उतनो स्वेच्छा कम हैं, यांत्रिकता ज्यादा है | मनुष्य तक आते हैं तो स्वेच्छा ज्यादा हैं, यांत्रिकता कम है । लेकिन निम्नतम योनि में भी एक अंश स्वेच्छा का है जो कि उसे चेतन बनाता है। नहीं तो चेतन होने का कोई अर्थ नहीं। यानी चेतन होने का अर्थ यही है कि विकास में हम भागीदार हैं और पतन में हम जिम्मेदार हैं । चेतना का मतलब यही है कि हमारा दायित्व है, हमारी जिम्मेदारी है। जो भी हो रहा है उसमें, हम जो हो सकते हैं उसमें अन्ततः हम जिम्मेदार हैं । सारा विकास चाहे पशु, पक्षी, मछली, कीड़े-मकोड़े, पौधा - कोई भी विकसित हो रहा हो उसकी इच्छा सक्रिय होकर काम कर रही है। पहचानना मुश्किल है । हम कैसे पहचानें कि पशु पक्षी मानव योनियों में प्रवेश कर रहे हैं । कई रास्ते हो सकते हैं लेकिन सरलतम रास्ता एक ही है : और वह यह कि जो मनुष्य चेतनाएं आज हैं अगर हम उन्हें उनके पिछले जन्मों में उतार सकें तो हम पा जाएँगे पता इस बात का कि वे पिछले जन्मों में पशुओं और पौधों से भी होकर आई हैं । जातीय-स्मरण के गहरे प्रयोग महावीर ने किए हैं । प्रत्येक व्यक्ति जो उनके निकट आता वह उसे जातीय-स्मरण के प्रयोग में ले जाते ताकि वह जान सके कि उसकी पिछली यात्रा क्या है। यहाँ तक भी वह जान सके कि वह पशु कब था, कैसा पशु था, और पशु होने कर्म किया कि वह मनुष्य हो सका । और अगर यह उसे पता में उसने कौन सा चल जाए कि Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१६ महावीर : मेरी दृष्टि में पशु होने में उसने कुछ किया जिससे वह मनुष्य बना तो उसे ख्याल में हो सकता है कि मनुष्य होने में कुछ करे तो वह और ऊपर जा सकता है । ___महावीर एक व्यकि को समझा रहे थे। रात है। महावीर का संघ ठहरा है। हजारों साधु, संन्यासी ठहरे हुए हैं। एक बड़ी धर्मशाला में निवास है। एक राजकुमार भी दीक्षित है। पुराने साधुओं को ज्यादा ठीक जगह मिल गयी। मगर राजकुमार वह जो बीच का रास्ता है धर्मशाला का, उस पर सोया हुआ है। रात भर उसे बड़ी तकलीफ हुई है, बड़ा कष्ट हुआ है। यह ऐसा अपमान ! वह राजकुमार था, कभी जीवन पर चला नहीं था, आज गलियारे में सोया है । वृद्ध साधुओं को कमरे मिल गए हैं। वह गलियारे में पड़ा हुआ है। रात भर कोई गलियारे से निकलता है, तो उसको नींद टूट जाती है । वह बारबार सोचने लगा कि बेहतर है मैं लौट जाऊँ । जो था वही ठीक था। यह क्या पागलपन में मैं पड़ गया है। ऐसा गलियारों में पड़े-पड़े तो मौत हो जाएगी। यह मैंने क्या भूल कर दी। सुबह महावीर ने उसे बुलाया और कहा : तुझे पता है कि पिछले जन्म में तू कौन था? उसने जवाब दिया कि मुझे कुछ पता नहीं । तो महावीर उससे उसके पिछले जन्म की कथा कहते हैं : पिछले जन्म में तू हाथी था । जंगल में आग लगी। सारे पशु, सारे पक्षी भागे । तू भी भागा । जब तू पैर उठा रहा था और सोच रहा था कि किधर को जाऊं तभी तने देखा कि एक छोटा-सा खरगोश तेरे पैर के नीचे आकर बैठ गया है। उसने समझा कि पैर छाया है, बचाव हो जाएगा और तू इतना हिम्मतवर था कि तूने नीचे देखा कि खरगोश है तो तूने फिर पैर नीचे नहीं रखा । तू फिर पैर ऊँचा हो किए खड़ा रहा । आग लग गई, तू मर गया लेकिन तूने खरगोश को बचाने को मरते दम तक चेष्टा की। उस कृत्य की वजह से तू आदमी हमा है। उस कृत्य ने तुझे मनुष्य होने का अधिकार दिया है। और आज तू इतना कमजोर है कि रात भर गलियारे में सो नहीं सका और भागने की सोचने लगा। तो उसे याद आती है अपने पिछले जन्म की और पता चलता है कि ऐसा था। तब सब बदल जाता है। भागने की, पलायन की, छोड़ने की, भयभीत होने की सारी बात खत्म हो जाती है। अब वह दृढ़-संकल्प पर खड़ा हो जाता है। अब एक नई भूमि उसे मिल जाती है।। एक रास्ता यह है कि हम व्यक्तियों को उनके पिछले जन्मों में ले जाएँ। उससे पता चलेगा कि वे किस योनि से कैसे विकसित हुए, कौन-सी घटना थी जिसने उन्हें मूलतः हकदार बनाया कि वे ऊपर को जिन्दगी में चले जाएं। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-१३ यहो सरलतम रास्ता है दूसरा रास्ता कठिन है बहुत । भौर वह यह है कि हम दस बीस पशओं के निकट रहें और उनसे आन्तरिक सम्बन्ध स्थापित करें। हमें पता चलेगा कि उनमें भी अच्छे, बुरे हैं। वे जो दस कुत्ते हमें दिखाई पड़ रहे हैं, वे सब एक जैसे कुत्ते नहीं हैं । उनका अपना-अपना व्यक्तित्व है। ___ स्विटजरलैंड के एक स्टेशन पर एक कुत्ते का स्मारक बना हुआ है। वह दुनिया में अकेला स्मारक है कुत्ते के लिए । सन् १९३० या १९३२ की घटना है। एक आदमी के पास एक कुत्ता है। हर रोज जब वह आदमी दफ्तर जाता है सुबह दस बजे की ट्रेन पकड़कर तो वह कुत्ता उसे स्टेशन छोड़ने जाता है। जब ट्रेन छूटती है तब वह कुत्ता खड़ा हुआ उसे बिदा देता रहता है । ठीक पांच बजे जब वह लौटता है तो कुत्ता स्टेशन पर खड़ा रहता है जहां उसका मालिक उतरता है। ऐसा हर रोज चलता है। ऐसा कभी नहीं हुआ कि वह सुबह छोड़ने न आया हो। ऐसा भी कभी नहीं हुआ कि वह ठीक पांच बजे शाम अपने मालिक को लेने न आया हो। लेकिन एक दिन ऐसा हुआ कि मालिक गया और नहीं लौटा । एक दुर्घटना हुई शहर में और मालिक मर गया। पांच बजे कुत्ता लेने आया। गाड़ी खड़ी हो गई लेकिन मालिक नहीं उतरा। तो फिर उसने एक-एक डिब्बे में जाकर झांका, चिल्लाया, पुकारा। लेकिन मालिक नहीं है। फिर स्टेशन के लोगों ने उसे भगाने की कोशिश की लेकिन किसी भी हालत में वह भागा नहीं और जो भी ट्रेन आती उस पर मालिक को खोजता ऐसे पन्द्रह दिन उसने पानी नहीं पिया, खाना नहीं खाया और वह भी उसी जगह खड़ा हुमा मर गया जहां उसका मालिक उसे रोज पांच बजे की ट्रेन से आकर मिलता था। सब तरह के उपाय किए गए कि वह एक टुकड़ा रोटी का खा ले लेकिन उसने इन्कार कर दिया। स्विटजरलैंड के अखबारों में सब तरफ चर्चा हो गई। उस कुत्ते के बड़े-बड़े फोटो छपे । लेकिन उस कुत्ते ने हटने से इन्कार कर दिया। उसको वहां से भगाओ, वह फिर पांच-दस मिनट बाद वहाँ । हाजिर । उसने स्टेशन का पीछा नहीं छोड़ा और जब तक जिन्दा रहा, हर गाड़ी पर चिल्लाता रहा, रोता रहा। उसकी आंख से आंसू टपकते। वह एकएक डिब्बे में झांकता। कमजोर हो गया। चल नहीं सकता। वह अपनी जगह पर बैठा है और रो रहा है । आखिर वहीं वह मर गया है, जहाँ मालिक को उसे मिलना था। अब ऐसा कुत्ता कोई साधारण कुत्ता नहीं। इसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा है जो कि मनुष्य तक में कम होता है। यह गति कर जाएगा। इसकी गति निश्चित है। यह उस जगह से ऊपर उठने वाला है। इसकी २७ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ महावीर । मेरी दृष्टि चेतना ने कदम उठा लिया है जो इसे आगे ले जाएगी। उसका स्मारक बना है। वह स्मारक के लायक कुत्ता था। कई आदमी भी स्मारक के लायक नहीं होते जिनके स्मारक बने हुए हैं। दूसरा रास्ता यह है कि हम पशु-पक्षियों के निकट जाकर उनको जाने, पहचानें। इसके भी बहुत से प्रयोग किए गए हैं और इनके आधार पर कहा जा सकता है कि विकास स्वेच्छा से हो रहा है। इसलिए सारे प्राणी विकसित नहीं हो पाते। जो श्रम करते हैं विकसित हो जाते हैं। जो श्रम नहीं करते वे पुनरुक्ति करते रहते हैं उसी योनि में । अनन्त पुनरुक्तियां भी हो सकती हैं। लेकिन कभी न कभी वह क्षण आ जाता है कि पुनरुक्ति ऊबा देती है और ऊपर उठने को आकांक्षा पैदा कर देती है। तो विकास किया हुआ है, चेतना श्रम कर रही है विकास में। वह जितनी विकसित होती चली जाती है, उतने विकसित शरीर भी निर्णय कर लेती है। इसलिए शरीर में जो विकास हो रहा है वह भी, जैसा डार्विन समझता है कि स्वचालित है वैसा नहीं है । जितनी चेतना तीव्र विकास कर लेती है उतना शरीर के तल पर भी विकास होना अनिवार्य हो जाता है। लेकिन वह होता है पीछे, पहले नहीं होता। यानी बन्दर का शरीर अगर कभी आदमी का शरीर बनता है तो तभी जब किसी बन्दर की आत्मा इसके पूर्व आदमी की आत्मा का कदम उठा चुकी होती है। उस आत्मा की जरूरत के लिए ही पीछे से शरीर भी विकसित होता है । आत्मा का विकास पहले है, शरीर का विकास पीछे है। शरीर सिर्फ अवसर बनता है। जितनी आत्मा विकसित होती चली जाती है उतना विकसित शरीर को भी बनना पड़ता है। __ मनुष्य आगे भी गति कर सकता है और ऐसो चेतना विकसित हो सकती है जो मनुष्य से श्रेष्ठतर शरीरों को जन्म दे सके । इसमें कोई कठिनाई नहीं है । लेकिन मनुष्य तक आ जाना कोई साधारण घटना नहीं है। लेकिन जो मनुष्य है उसे यह ख्याल नहीं आता। हम जिन्दगी ऐसे गंवाते हैं जैसे कि मुफ्त में मिल गई हो। मनुष्य हो जाना साधारण घटना है। लंबी प्रक्रियाओं, लंबी चेष्टाओं, लंबे श्रम और लंबी यात्रा से मनुष्य को चेतना-स्थिति उपलब्ध होती है । लेकिन अगर हमने ऐसा मान लिया कि यह मुक्त में मिल गई है, और अक्सर ऐसा होता है कि अमीर बाप का बेटा जब घर में पैदा होता है तो वह घर की सम्पत्ति को मुफ्त में हुआ ही मान लेता है। वह एक ही काम करता है कि बाप की अमीरी कैसे विसर्जित हो। बाप कमाता है, बेटा गंवाता है। क्योंकि Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ बेटे को अमोरी जन्म से उपलब्ध हुई है। उसे लगता है कि यह तो है हो । उसे कभी ख्याल भी नहीं होता कि कितने श्रम से वह अमीरो खड़ी की गई है । प्रवचन- १३ 1 फोर्ड एक दफा इंग्लैंड आया। स्टेशन से उतर कर उसने इंक्वायरी आफिस में जाकर पूछा कि लन्दन में सबसे सस्ता होटल कौन-सा है। संयोग से इंक्वायरी वाला आदमी फोर्ड को पहचानता था। उसने कहा : " आप सस्ता होटल पूछते हैं । आप फोर्ड ही हैं !” उसने कहा, "हां, मैं फोर्ड ही हूँ | सस्ता हाल कौन सा हं सबसे ज्यादा ?" उसने कहा : "मुझे हैरानी में डालते हैं आप | आपका बेटा आता है तो वह पूछता है कि सबसे मंहगा होटल कौन सा है ?” फोर्ड ने कहा : "वह फोर्ड का बेटा है । मैं फोर्ड हूँ। मैं गरीब आदमी था, श्रम करके पैसा कमा पाया हूँ। यह अमोर आदमी पैदा हुआ है, श्रम करके गरीब होने की कोशिश करेगा। मैं गरीब आदमी था। मैं सचेत हूँ पूरी तरह कि कैसे कमा पाया हूँ। वह अमीर का बेटा है । हैनरी फोर्ड का बेटा है । उसको ठहरना हो चाहिए मंहगो जगह । लेकिन मैं ठहरा हैनरी फोर्ड ।" यह हैनरी फोर्ड एक पुराना कोट पहने रहता था वर्षों से । वह कभी बदलता ही नहीं था उसको । कोट फट गया तो सिलवा लेता, ठोक करवा लेता । किसी मित्र ने कहा कि आपको यह कोट शोभा नहीं देता । तो हॅनरी फोर्ड ने कहा कि लोग मुझे ठीक-ठीक पहचानते हैं कि मैं हैनरी फोर्ड हूँ। मैं चाहे कोई भी कोट पहन लूँ इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । यह तो मेरे बच्चे के लिए है कि वे शानदार कोट पहनें ताकि लोग पहचान सकें कि हैनरी फोर्ड के लड़के हैं । तो हम एक जन्म में जो कमाते हैं दूसरे जन्म में वह हमारी सहज उपलब्धि होती है । यानी दूसरे जन्म में वह हमें सम्पत्ति की तरह मिलनी है और पिछला जन्म हमें भूल जाता है जैसे कि बेटे को बाप का श्रम भूल जाता है । पिछले जन्म में जो हमने कमाया है उसे हम इस जन्म में भूल जाते हैं और हम उसे अक्सर गंवाना शुरू करते हैं। धन के बाबत ही नहीं, के पुण्य बावत, ज्ञान के बाबत चेतना के बाबत भी यही होता है । अवसर का उपयोग और बढ़े इसके लिए हम आगे और कुछ भी नहीं कर पाते । जो हो गया है वहीं हम भटक जाते हैं । इसलिए लोग एक ही योनि में बार-बार पुनरुक्त हो सकते हैं | लाख बार भी पुनरुक्त हो सकते हैं । नीचे कोई नहीं जाता । नीचे जाने का कोई उपाय नहीं है। पोछे कोई लीट नहीं सकता । लेकिन Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में जहाँ है वहीं पुनरुक्त हो सकता है या आगे जा सकता है। दो ही उपाय हैं : या तो आप आगे जाएं या जहाँ है वहीं भटकते रह जाएं। और जहाँ हैं अगर आप वहीं भटकते रहते हैं तो विकास अवरुद्ध हो जाएगा और अगर आप आगे जाते हैं तो विकास फलित होगा । विकास चेष्टा पर निर्भर है, संकल्प पर निर्भर है, साधना पर निर्भर है। इसीलिए इतने बड़े प्राणी जगत् में मनुष्यों की संख्या बहुत कम है । बढ़ती भी है तो बहुत वीरे-धीरे बढ़ती है। आज हमें लगता है कि बहुत जोर से बढ़ रही है तो वह भी हम सिर्फ मनुष्य को सोचते हैं, इसलिए ऐसा लगता है । अगर हम प्राणीजगत् को देखें तो मनुष्य से ज्यादा छोटी संख्या का कोई प्राणी नहीं है जगत् में। एक घर में इतने मच्छर हो सकते हैं जितनी पूरी मनुष्य जाति । और करोड़ों योनियां है। एक-एक योनि में कितने असंख्य व्यक्ति हैं। इतने थोड़े हैं लोग । जैसे कोई एक मन्दिर बनाए और बड़ी भारी नींव भरे, फिर उठते-उठते, आखिर मीनार पर एक छोटी सी कलगी उठी रह जाए। ऐसा बड़ा भवन है जीवन का, उससे मनुष्य की कलगी बड़ी छोटी-सी ऊपर उठी रह गई है। अगर हम सारे प्राणीजगत् को देखें तो हमारी कोई संख्या हो नहीं है। हम एक बड़े समुद्र में एक छोटी बूंद से ज्यादा नहीं है । लेकिन अगर हम मनुष्य को देखें तो हमें बहुत ज्यादा मालूम पड़ता है कि साढ़े तीन अरब भादमी हैं और हमें चिन्ता हो गई है कि हम कैसे बचाएंगे इतने आदमियों को, कैसे खाना जुटाएंगे, कैसे मकान बनाएंगे, कैसे क्या करेंगे? लेकिन यह कोई बड़ी संख्या नहीं है । और ध्यान रहे, मेरी अपनी यह समझ है कि जब जरूरत . पैदा होती हैं तब नए उपाय तत्काल विकसित हो जाते हैं जैसे आने वाले पचास वर्षों में होने वाला है। बादमी के जन्म को; जीवन को रोकने की सभी चेष्टाओं से कुल इतना ही हो सकता है कि जितनी तीव्रता से गति हो रही है, वह शायद न हो। लेकिन इन आने वाले पचास वर्षों में भोजन के नए रूप विकसित हो जाएंगे। जैसे कि हम समुद्र के पानी से भोजन निकाल सकेंगे; हवा और सूरज की किरणों से सीषा भोजन लिया जा सकेगा। आने वाले पचास वर्षों में भोजन के नए रूप विकसित होंगे जो कभी नहीं थे पृथ्वी पर । दूसरी बात जो मैं समझता हूँ बहुत कीमत की है। जैसे बड़ी चेष्टा चली चांद पर जाने की, मंगल पर जाने की। यह चेष्टा पृथ्वी पर संख्या के अधिक बढ़ जाने, का आन्तरिक परिणाम है। ऊपर से दिखाई पड़ता है कि रूस और अमेरिका में दौड़ लगी हुई है चांद पर जाने की। लेकिन बहुत Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ महावीर : मेरी दृष्टि में कहीं स्मृति भी होती है। उन लोगों में भी इस स्मृति से प्रवेश हो सकता हैविज्ञान शायद प्रवेश नहीं कर पाएगा। क्योंकि चाँद पर विज्ञान पहुँचा, बड़ी कीमती घटना घटी लेकिन अब अगर मंगल पर पहुँचता है तो एक वर्ष जाने में और एक वर्ष आने में लगेगा और सूर्य के जितने उपग्रह हैं उनमें किसी पर जीवन नहीं है पृथ्वी को छोड़कर। सूर्य के उपग्रह छोड़कर अगर किसी दूसरे उपग्रह पर जाना है तो मनुष्य की उम्र का अंत ही नहीं। अगर दो सौ वर्ष आने-जाने में लगें तो कोई उपाय नहीं। जिस तारे से चार वर्ष लगते हैं प्रकाश आने में तो जिस दिन हम प्रकाश की गति को वाहन बना लेंगे, उस दिन चार वर्ष लगेंगे हमको जाने में, चार वर्ष लगेंगे आने में। लेकिन प्रकाश की गति का वाहन कभी हो सकेगा? क्योंकि कठिनाई यह है कि प्रकाश की गति जिस चीज में भी हो जाय वही प्रकाश हो जाएगा। यानी किरण ही हो जाएगी वह चीज । यानी उतनी गति पर अगर किसी चीज को चलाया तो वह ताप की वजह से किरण हो जाएगी। तो प्रकाश की गति असम्भव मालूम पड़ती है। क्योंकि प्रकाश की गति पर हवाई हजाज चला तो जैसे ही वह उतनी गति पकड़ेगा वह पिघलेगा और प्रकाश हो जाएगा, क्योंकि उतनी गति पर उतना ताप पैदा हो जाता है और उतने ताप पर किरण बन जाती है। प्रकाश की गति पर किसी दिन वाहन ले जाया जा सकेगा, यह असम्भव है। तो विज्ञान हमारे सभी जीवनों से सम्बन्ध बना सकेगा, यह करीब-करीब असम्भव बात है। लेकिन इतना हो सकता है कि विज्ञान की इस सारी खोज-बीन के बाद हमें यह ख्याल में आ सके कि धर्म यह सम्बन्ध बना सकता है। यह जानकर आपको हैरानी होगी कि जैसे ही अन्तरिक्ष की यात्रा शुरू हुई है, रूस और अमेरिका दोनों ही योग में उत्सुक हो गए हैं। अमरीका ने कमीशन बिठाई तीन-चार वैज्ञानिकों का। सारी दुनिया का चक्कर लगाओ और इसकी खबर लाओ कि क्या विचार का सम्प्रेषण बिना माध्यम के हो सकता है, खबरें लाई गई हैं। क्योंकि इस बात का डर है कि अन्तरिक्ष में यात्री जाए, उसका यंत्र बिगड़ जाए और वह कोई खबर न दे सके। वह अन्तहीन में खो जाएगा। उसका हमें दुबारा कभी पता भी नहीं लगेगा कि वह कहाँ गया ? एक तो व्यवस्था होनी चाहिए कि अगर यंत्र भी खो जाएं तो वह सोषा विचार के सम्प्रेषण से खबर दे सके। अगर विचार का सम्प्रेषण सीधा हो सके तमी यह सम्भावना है कि हम दूसरे लोगों के जीवन से सम्बन्ध स्थापित कर सकें। क्योंकि तब विचार की गति का सवाल ही नहीं। विचार में समय लगता हो नहीं। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-१३ ४२५ यानी अगर मैं विचार सम्प्रेषित कर सकता हूँ तो मैंने विचार सम्प्रेषित किया और आपने पाया, इसके बीच में पल भी नहीं लगता। जिसको महावीर समय कहते हैं, पल का भी लाखवां हिस्सा, वह भी नहीं लगता। विचार समयातीत सम्प्रेषित होता है। तो उसी दिन विचार के सम्प्रेषण से ही दूसरे जीवनों से सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। महावीर, बुद्ध, जीसस, ऐसे जीवन की तलाश में हैं । सम्बन्ध स्थापित करने की परी कोशिश की गई है और कुछ बातें खोज भी ली गई है कि वह सम्बन्ध स्थापित हो सकता है, हुआ है। उस सम्बन्ध के आधार पर कामना बनती है, आशा बनती है कि पृथ्वी पर भी यह हो सकता है, इसमें कोई कठिनाई नहीं है । __ कल जो मैंने कहा उससे स्पष्ट हुआ होगा कि एक हो जन्म नहीं है । जन्मों की एक लम्बी यात्रा है। हम जो आज हैं, वह हम एकदम आज के हो नहीं है। हम कल भी थे, परसों भी थे। एक अर्थ में हम सदा थे किन्हीं भी रूपों में । कभी पक्षी में, कभी पत्थर में, कभी खनिज में, कभी इस ग्रह पर, कभी उस ग्रह पर। हम सदा थे। होने के साथ हम एक हैं। अस्तित्व में हमारी प्रतिध्वनि सदा थी। लेकिन मूच्छित से मूच्छित थी। अमूच्छित होती चली गई है, जागृत होती चली गई है। हममें से सभी थे। जरूरी नहीं कि महावीर से सम्बन्धित हुए, जरूरी नहीं कि महावीर के पास थे, जरूरी नहीं कि महावीर के प्रदेश में थे। लेकिन सब थे। कहीं होंगे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यह भी हो सकता है कि हममें से कोई महावीर के निकट भी रहा हो, उस गाँव में भी रहा हो जहाँ से महावीर गुजरे हों। जरूरी नहीं कि हम मिलने गए हों। क्योंकि महावीर गाँव से गुजरे तो कितने लोग मिलने जाते हैं इसकी कोई आवश्यकता नहीं। महावीर गांव में ठहरे भी हों और दस-बीस लोग भी मिले हों तो ठीक है । न मिले हों तब भी कोई जरूरी नहीं। हम सदा थे और हम सदा रहेंगे। मूच्छित या अमूच्छित दो बातें हो सकती हैं। अगर . मूच्छित रहे हों तो हमारा होना न होना बराबर था। जब से हम अमूच्छित होते हैं, जागते हैं, चेतन होते हैं, तभी से हमारे होने में कोई अर्थ है। और जितने हम चेतन होते चले जाते है उतना हो हमारा होना गहरा होता जाता है । उतना ही हमारा अस्तित्व प्रगाढ़, समृद्ध होता चला जाता है। शायद उस अर्थ में होना हमारा अभी भी नहीं। अभी भी बस हम है। यह जो होने की लम्बी यात्रा है, इसमें बहुत बार शरीर बदलने जरूरी है। क्योंकि शरीर क्षणभंगुर है, उसकी सीमा है। वह चूक जाता है। असल में कोई भी पदार्थ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि मैं ' से निर्मित वस्तु शाश्वत नहीं हो सकती । पदार्थ से जो भी निर्मित होगा वह बिखरेगा, जो बनेगा वह मिटेगा । शरीर बनता है मिटता है । लेकिन पीछे जो जीवन है, वह न बनता है न मिटता है । वह सदा नए-नए बनाव लेता है। पुराने बनाव नष्ट हो जाते हैं, फिर नए बनाव लेता है। यह नया बनाव उसके संस्कार, उसने क्या दिया, क्या भोगा, क्या किया, क्या जाना- इन सब का इकट्ठा सार है । इसे समझने के लिए दो तीन बातें समझ लेनी चाहिए । ४२६ एक, शरीर हमें दिखाई पड़ता है जो हमारा ऊपर का । एक और शरीर है ठीक इसके ही जैसी आकृति का जो इस शरीर में व्याप्त है । उसे सूक्ष्म शरीर कहें, कर्म शरीर कहें, मनोशरीर कहें, कुछ भी नाम दें-- काम चलेगा । इस शरीर से मिलता हुआ, ठीक बिल्कुल ऐसी ही अत्यन्त सूक्ष्म परमाणुओं से निर्मित सूक्ष्म देह है। जब यह शरीर गिर जाता है तब भी वह शरीर नहीं गिरता है । वह शरीर आत्मा के साथ ही यात्रा करता है । उस नारीर की खूबी है कि आत्मा को जैसी मनोकामना होती है, वैसा ही आकार ले लेता है । पहले वह शरीर आकार लेता है और तब उस आकार के शरीर में आत्मा प्रवेश करती है | अगर एक सिंह मरे तो उसके शरीर के पीछे जो छुपा हुआ सूक्ष्म शरीर है, वह सिंह का होगा । लेकिन वह मनोकाया है । मनोकाया का मतलब यह है कि जैसे हम एक गिलास में पानी डालें, उस गिलास का हो जाए रूप उसका, बर्तन में डालें बर्तन जैसा हो जाए, बोतल में भरें, बोतल जैसा हो जाए। हमारा स्थूल शरीर सख्त है और हमारा सूक्ष्म शरीर तरल है। वह किसी भी प्रकार को ले सकता है तत्काल । अगर एक सिंह मरे और उसकी आत्मा विकसित होकर मनुष्य बनना चाहे तो मनुष्य शरीर ग्रहण करने के पहले उसका सूक्ष्म शरीर मनुष्य की आकृति को ग्रहण कर लेता है । वह उसको मनोआकृति है । सुन्दर, कुरूप, अन्धा, लंगड़ा, स्वस्थ, बीमार - वह उसकी मनोआकृति है जो उसके शरीर को पकड़ जाती है। सूक्ष्म शरीर जैसे ही देह ग्रहण कर लेता है, मनोआकृति बन जाता है । वैसे ही उसकी खोज शुरू हो जाती है गर्भ के लिए | अब यह भी समझना जरूरी है कि व्यक्ति स्त्री या पुरुष जीवन में अनेक सम्भोग करते हैं लेकिन सभी सम्भोग गर्भ नहीं बनते । और यह भी जानकर हैरानी होगी कि एक सम्भोग में एक व्यक्ति के इतने वीर्य अणु नष्ट होते हैं जिससे अन्दाजन एक करोड़ बच्चे पैदा हो सकते हैं। यानी एक पुरुष अगर जिन्दगी में साधारणतः आम तौर से कोई तीन हजार से लेकर चार हजार Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रवचन-१३ ४२७ सम्भोग करता है और एक सम्भोग में अन्दाजन एक करोड़ बच्चे के सम्भावना. बीज हैं तो अगर एक पुरुष के सारे अणु प्रयुक्त हो सकें और वास्तविक बन सकें तो एक पुरुष अन्दाजन चालीस करोड़ बच्चों का पिता बन सकता है। स्त्री की यह सम्भावना नहीं है क्योंकि उसका महीने में एक ही बीज परिपक्व होता है। वह महीने में सिर्फ एक व्यक्ति को जन्म दे सकती है। लेकिन एक को भी नहीं दे पाती क्योंकि नौ महीने सिर्फ एक व्यक्ति उसके व्यक्तित्व को रोक लेता है। सभी सम्भोग सार्थक नहीं होते। और इसका कारण है जो कि अभी तक वैज्ञानिक नहीं सोच पाए। स्त्री का बीज मौजूद है। उस पर पुरुष के एक करोड़ बीज एकदम से हमला करते हैं। और ध्यान रहे कि जो बाद में प्रकट होते हैं गुण वह बीज में ही छिपे होते हैं। पुरुष के सारे बोजाणु हमलावर होते हैं, तेजी से हमला करते है। स्त्री का बीज प्रतीक्षा करता है वह हमला नहीं करता। यह जो एक करोड़ वीर्याणु है बहुत तेजी से गति करते हैं। यह जानकर आप हैरान होंगे कि प्रतियोगिता शुरु हो जाती है। वहाँ जो प्रतियोगिता में आगे निकल जाता है, वह जाकर स्त्रीमणु से एक हो जाता है । जो पीछे छूट जाता है, वह हट जाता है, मर जाता है, समाप्त हो जाता है। लेकिन प्रत्येक बार सम्भोग से गर्भ नहीं बनता। उसका वैज्ञानिक कारण नहीं खोज पाए अब तक । और नहीं खोज पायेंगे। उसका कारण यह है कि गर्भ तभी बन सकता है जब वैसी आत्मा प्रवेश करने के लिए आतुर हो। वह हमें दिखाई नहीं पड़ता। दो अणु मिलते हैं, इतना हमें दिखाई पड़ता है। स्त्री और पुरुष के अणुओं का मिलन सिर्फ जन्म नहीं है, यह है सिर्फ अवसर भर जिसमें एक आत्मा उतर सकती है। प्रश्न : लेकिन अब तो सम्भावना है बगैर सम्भोग के हो ? उत्तर : सम्भोग से कोई सम्बन्ध ही नहीं है सम्भावना का। सम्बन्ध तो. सिर्फ दो अणुओं के मिलन का है। वह मिलन सम्भोग के द्वारा हो रहा है, यह प्रकृति कीव्यवस्था है। कल सिरिंज के द्वारा हो सकता है, वह विज्ञान की व्यवस्था होगी। प्रश्न : इसमें से हर एक अणु ही उसमें इस्तेमाल हो सकते हैं ? उत्तर : हाँ, हो सकते हैं और वह तभी हो सकेंगे जब इतनी आत्माएं जन्म मेने के लिए आतुर हो जाएं कि गर्भ व्यर्थ हो जाएं। और इसलिए मैं कह रहा है कि सब जरूरतें अनुकूल तैयार होती है, यह हमारे ख्याल में नहीं आता। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में f यानी अब तक, इस बात की जरूरत ही नहीं पड़ी थी कि हम वीर्य अणु को प्रयोगशाला में ले जाकर बच्चा पैदा करें। लेकिन अब जरूरत पड़ जाएगी इसलिए क्योंकि स्त्री की सम्भावना समाप्त होने के करीब आ गई है । वह एक बच्चे को नौ महीनों में जन्म दे सकती है । वह कितने ही बच्चों को जन्म दे, बीस-पचीस बच्चों से ज्यादा जन्म नहीं दे सकती । अधिकतम जन्म देने वाली स्त्री ने छब्बीस बच्चों को जन्म दिया है । उसकी सम्भावना इससे ज्यादा नहीं है । लेकिन अमर मनुष्य आत्माओं का तीव्र आगमन होने लगे तो फौरन उपाय करने पड़ेगे । वह हमको दिखता नहीं अभी कि आखिर हम यह उपाय किसलिए कर रहे हैं या यह कभी सम्भव हो सकता है । और तब तो एक व्यक्ति के पूरे के पूरे चालीस करोड़ बीजाणुओं का भी गर्भधारण हो सकता है । लेकिन वह होगा तभी जब आत्मा उतरने को आतुर हो । और मेरा मानना है कि यह जो एक करोड़ की सम्भावना है एक सम्भोग में और चालीस करोड़ की सम्भावना है एक व्यक्ति के जीवन में वह इसलिए है कि आज नहीं कल, हजार वर्ष बाद, दस हजार वर्ष बाद इतनी जीव आत्माएँ मुक्त होंगी कि इन सब अणुओं की जरूरत पड़ने वाली है । नहीं तो इसका कोई मतलब नहीं है । और प्रकृति बेमतलब कोई काम नहीं करती। जो भी शरीर में है, उसकी कोई गहरी सार्थकता है, वह हमें पता हो, या न हो । और अगर आज उसकी सार्थकता नहीं तो कल उसकी सार्थकता हो सकती है। एक माँ और एक बाप के व्यक्तित्व से निर्मित जो बीजाणु हैं, वह सम्भावना बनते हैं एक ऐसे व्यक्ति को जन्म देने की जो इन दोनों की सम्भावनाओं से तालमेल खाता हो। इसलिए जो लोग समझ सकते हैं इस विज्ञान को वे यह भी निश्चित करवा सकते है बहुत गहरे में कि कैसे बच्चे उनको पैदा हों । सम्भोग के क्षण में यह उनकी मनोदशा, उनके मनोभाव, उनकी चित्तस्थिति निर्धारित करेगी । 7 ४२८ प्रश्न : ये जो महावीर और बुद्ध के सम्बन्ध में हमें ढेर कहानियाँ प्रचलित मिलती हैं, वह किस अर्थ में सार्थक हैं ? जैसे महावीर के सम्बन्ध में है कि इतने स्वप्न आते हैं या बुद्ध के सम्बन्ध में है कि इतने स्वप्न आते हैं ? उत्तर : स्वप्न आते हैं, या नहीं आते हैं यह महत्त्वपूर्ण नहीं है । महत्व - पूर्ण सिर्फ इतना है कि ऐसे स्वप्न जिस चित्त में आते हों, उस चित्त की एक विशिष्ट अवस्था होगी तो ये स्वप्न आएँगे । सब स्वप्न सबको नहीं आते । चित्त को अवस्था पर स्वप्न निर्भर करते हैं । एक आदमी क्रोधी है तो वह ऐसे स्वप्न देखता है जिनमें क्रोध होगा । एक आदमी कामी है तो वह Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ऐसे स्वप्न देखता है जिनमें काम होगा। एक आदमी लोभी है तो वह ऐसे स्वप्न देखता है जिनमें लोभ होगा। स्वप्न वे ही हैं जो व्यक्ति के चित्त की अवस्थाएं हैं । महावीर जैसा व्यक्ति पैदा होना है तो वह साधारण मनोदशा में पैदा नहीं हो जाता । उसके माता पिता के भीतर चित्त की, शरीर को एक विशिष्ट अवस्था जरूरी है तभी वैसी आत्मा प्रवेश कर सकती है। और उसके पहले के लक्षण भी जरूरी हैं। वे लक्षण भी होने चाहिएं। प्रतीक हैं वे लक्षण । वे इस बात की खबर देते हैं कि चित्त कैसा है। फ्रायड कहता है कि अगर कोई आदमी स्वप्न में मछली देखता है तो वह सेक्स का प्रतीक है। हजारों स्वप्नों का अध्ययन करने के बाद यह नतीजा निकाला गया कि स्वप्न में मछलो देखना सेक्स से सम्बन्धित है। मछली जननेन्द्रिय का प्रतीक है। गलत भी हो सकता है उसका ख्याल । लेकिन हजार स्वप्न अध्ययन किए हैं जिसने उसे ऐसा लगता है कि यह हो सकता है। अभी तक महावीर के स्वप्नों या बुद्ध के स्वप्नों का कोई मनोवैज्ञानिक अध्ययन नहीं हुआ। उनकी माताओं के स्वप्नों का अध्ययन हो सकता है। लेकिन बड़ी कठिनाई यह है कि ऐसे व्यक्ति बड़ी संख्या में पैदा नहीं हुए । इसलिए तालमेल बिठाने के लिए उपाय नहीं है हमारे पास । तोल नहीं बिठाई जा सकती। कहा जाता है कि महावीर की मां को स्वप्न में सफेद हाथी दिखाई पड़े। साधारणतः सफेद हाथी दिखाई नहीं पड़ते। आप इतने लोग यहाँ बैठे है शायद ही किसी को स्वप्न में हाथी दिखाई पड़ा हो। और सफेद हाथी दिखाई पड़े तो यह सम्भावना और न्यून हो जाती है। महावीर की मां को अगर सफेद हाथी दिखाई पड़ा है तो यह अपवाद ही है। अगर इस तरह के सो-दो सौ स्वप्न अध्ययन न किए जा सकें तो सफेद हाथी किस बात का प्रतीक है, यह तय करना मुश्किल हो जाता है। लेकिन फ्रायड ने ही पहली बार यह काम नहीं किया है। जैनों के चौबीस तीर्थंकरों की माताओं के स्वप्नों में जो ताल-मेल है इस बात को भी फिक की जाती रही है कि जब तीर्थकर पैदा होता है तो उसकी मां को क्या स्वप्न आते हैं। उसके जन्म के पहले उसकी चित्तदशा क्या है ? शांत है, अशांत है, आनन्दपूर्ण है, प्रेमपूर्ण है, घृणापूर्ण है, क्रोषपूर्ण है, पवित्र है, दिव्य है, साधारण है, क्षुद्र है, कैसी है ? यह बिल्कुल ठीक है कि चित्त की विशिष्ट दशा में ही ऐसी आत्मा उतर सकती है। चंगेजला या तमूललंग पैदा हों तो भी फिक्र की जानी चाहिए कि उनकी माताएं कसे स्वप्न देखती है। फिक्र नहीं की गई है। हिटलर पैदा हो, स्टालिन पैदा हो, वो Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में कैसे स्वप्न उनकी माताएं देखती रही है इसको भी फिक्र की जानी चाहिए । तो शायद हमें यह साफ हो सके कि चित्त की एक विशिष्ट दशा में ऐसी आत्मा प्रविष्ट होती है । इतना तो तथ्य है कि हर दशा में हर आत्मा प्रविष्ट नहीं होती। मां-बाप सिर्फ अवसर बनते हैं आत्मा के उतरने के, अवतरण के। आत्मा एक शरीर को छोड़ती है। जैसे ही मरतो है मूछित हो जाती है । और दूसरे जन्म तक मूच्छित हो रहती है। यानी माँ के पेट के नौ महीनों में भी मूच्छित ही रहती है। लेकिन कुछ आत्माएँ सचेत मरती हैं वे मां के पेट में भी सचेत हो सकती है। जो सचेत मरेगा, वह माँ के पेट में भी सचेत होगा। तो यह कहानियाँ आकस्मिक नहीं है कि मां के पेट में भी कुछ सीखा जा सके और बाहर की बातें सुनी जा सकें, या बाहर के अर्थ ग्रहण किए जा सकें। यह असम्भव नहीं है । अगर कोई आत्मा मरते वक्त पूर्ण चेतन थी, होश नहीं खोया था, शरीर होशपूर्वक छोड़ा था तो वह आत्मा होशपूर्वक शरीर लेगी। लाओत्से के सम्बन्ध में कहा जाता है कि वह बूढ़ा ही पैदा हुआ क्योंकि पैदा होते ही उसने ऐसे लक्षण दिखाए जो कि अत्यन्त वृद्ध ज्ञानी में होने चाहिए। और बचपन से उसमें ऐसी बातें दिखाई पड़ने लगों जो कि बड़े अनुभव के बाद ही हो सकती हैं। सचेतन रूप से मरा हुआ व्यक्ति सचेतन रूप से पैदा हो सकता है। तो मां के पेट में महावीर के संकल्प करने की बात अर्थ रखती है। "मैं अपने माता-पिता को दुःख नहीं दूंगा, उनके जीते संन्यास नहीं लूँगा" इस बात का संकल्प गर्भ में किया गया है। लेकिन सामान्यतः हम मरते समय बेहोश हो जाते हैं और दूसरे जन्म तक यह बेहोशी जारी रहती है। असल में प्रकृति की यह व्यवस्था है मूर्छा करने की। जैसा हम आपरेशन करते हैं एक आदमी का तो हम उसे मूच्छित कर देते हैं ताकि मूर्छा में जो भी हो उसे पता न चल राके । क्योंकि पता चलना बहुत घबराने वाला भी हो सकता है। इसलिए प्रकृति की व्यवस्था है मरने के पहले मूच्छित करने की और दूसरे जन्म तक मुर्छा ही रहती है। और इस मूर्छा में जो भी होगा-जैसा कि मैंने कहा कि मात्मा शरीर ग्रहण करेगी तो वह बिल्कुल स्वाभाविक है। स्वाभाविक का मतलब यह है कि आत्मा रुझान जैसी है अचेतन, वह उस तरफ यात्रा कर जाएगी। सचेतन रूप से जन्म बहुत कम लोग लेते हैं । सचेतन रूप से वही लोग जन्म ले सकते हैं जिन्होंने पिछले जीवन में चेतना की बड़ी गहरी उपलब्धि की है। और तब वे जानते हैं पिछले जन्मों को, मृत्यु को, मरने के बाद को। Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रबंधन - १३ ४३१ " तिब्बत में एक प्रयोग होता है-बारदो । दुनिया में जिन लोगों ने खोज की है मृत्यु के बाबत उनमें सबसे ज्यादा लोग तिब्बत के हैं । बारदो एक अद्भुत प्रयोग है । आदमी मरता है तो भिक्षु उसके आस-पास खड़े होकर बारदो का प्रयोग करते हैं। जब वह मर रहा होता है तब वे उसे चिल्लाकर कहते हैं कि होश रख, होश रख, संभल, बेहोश मत हो जाना क्योंकि बड़ा मौका आया है जैसा कि मरने का मौका फिर सौ वर्ष के बाद आया हो । वे उसे हिलाते हैं, जगाते हैं । आप हैरान होंगे । अस्पेन्सी नाम का एक अद्भुत विचारक चलते-चलते मरा, लेटा नहीं । अभी मरा दस-पन्द्रह साल पहले । और उसने अपने सारे शिष्यों को इक्ट्ठा कर लिया मरने से पहले । वह चलता ही रहा । उसने कहा कि मैं होश में ही मरूंगा । मैं लेटना भी नहीं चाहता कि कहीं झपकी न लग जाए । चलता ही रहा । जो लोग मौजूद थे उन्होंने लिखा है कि जो अनुभव हमें उस दिन हुआ वह कभी नहीं हुआ कि कोई आदमी इतने होश से मर सकता है । टहलता ही रहा और कहता रहा कि बस अब यह होता है, अब यह होता है । अब मैं यहां डूब रहा है, अब मैं इस जगह पहुँच रहा हूँ, अब सब इतने सैकेंड में स्वांस चली चली जाएगी। वह एक-एक चीज को नाप कर बोलता रहा । और पूरा सचेत मरा मरा तब सचेत खड़ा था । बारदो में उस जादमी को चिल्ला चिल्लाकर सचेत करते हैं कि जागे रहना, सो मत जाना | देखो - ऐसा, ऐसा होगा, घबराओ मत। बेहोश मत हो जाना । और फिर अगर वह आदमी होश में रह जाता है तो "बारदो" की प्रक्रिया आगे चलती है । फिर उसको बताते हैं अब ऐसा होगा, देख गौर से देख भीतर की अब ऐसा होगा, अब ऐसा होगा। अब शरीर से प्राण इस तरह टूटेगा । अब शरीर छूट गया, तू घबराना मत। तू मर नहीं गया है। शरीर छूट गया है लेकिन देख तेरे पास देह है, गौर से देख, घबड़ा मत । वह पूरे प्रयोग करवाएँगे मरते वक्त | और मरने की प्रक्रिया बहुत कीमती है । अगर उस वक्त किसी की सचेत किया जा सके तो उसके जीवन में एक क्रान्ति हो गई जो बहुत अद्भुत है । लेकिन सचेत उसको रखा जा सकता है जो जीवन में सचेत होने का प्रयोग कर रहा हो । मैं जिस श्वास के अभ्यास के लिए आपसे कह रहा हूँ अगर वह आप जारी रखें तो मृत्यु के वक्त में कोई सम्पत्ति काम नहीं आएगी, कोई मित्र काम नहीं आएगा, श्वांस की जागरूकता ही सिर्फ काम में आती है। क्योंकि जो श्वास के प्रति जागरूक है उसकी श्वांस जब डूबने लगती है, वह अपनी जागरूकता • Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ महावीर | मेरी दृष्टि में 1 जारी रखती है । और श्वास के डूबने के साथ वह देखता है कि मृत्यु उतरने लगी है । और उसने श्वांस की जागरूकता का इतना अभ्यास किया है कि जब श्वांस बिल्कुल नहीं रह जाती तब भी वह जागा रहता है। बस वही कोण है जहाँ से उसकी नई यात्रा शुरू हो गई जागरण की । तब फिर उसका. जन्म एकदम जागरूक जन्म है । तो 'बारदो' में बड़ी चेष्टा करते हैं । मैं चाहता हूँ कि 'बारदो' जैसी स्थिति इस मुल्क में पैदा की जाए, जो कभी नहीं हो सकी । यहाँ मरने के नाम फिजूल मूर्खतापूर्ण बातें प्रचलित हो गई हैं जिनका कोई देना- लेना नहीं है । कोई मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया नहीं जगा पाया कि मरते हुए आदमी के लिए हम सहयोगी हो जाएं। सहयोगी हम हो सकते हैं और उसी माध्यम से वह व्यक्ति जब दुबारा जन्म लेगा तो उसके जन्म को पिछली यात्रा उसके सामने रहेगी सदा । वह आदमी दूसरे ढंग का हो जाएगा । उसके दूसरे जन्म में सावना अनिवार्य हो जाएगी । अब वह दूसरा जन्म खोने को तैयार नहीं हो सकता । वह जो सूक्ष्म शरीर है, जिसकी मैंने बात कही, उसी सूक्ष्म शरीर में वे सूखी रेखाएँ बनती हैं जो कल मैंने कहीं। वे कर्म जो हमने किए, वे फल जो हमने भोगे और वह जो हम जिए उस सबकी सूक्ष्म रेखाएं उस सूक्ष्म शरीर पर बनती हैं । इसलिए वह जो सूक्ष्म शरीर है उसका एक नाम महावीर ने रखा कामरण शरीर । महावीर का ख्याल है कि जो भी हमने जिया और भोगा उस भोग के कारण विशेष प्रकार के परमाणु हमारे शरीर से जुड़ जाते हैं । जैसे. एक क्रोधी आदमी है तो वह एक विशेष प्रकार के परमाणु अपने सूक्ष्म शरीर में जोड़ लेता । अब तो साइंस बहुत तरह की बातें कहती है कि जब आप क्रोध में होते हैं तो आपके खून में एक तरह का जहर छूट जाता है । जब आप प्रेम में होते हैं तो आपके खून में एक तरह का अमृत छूट जाता है । जब एक आदमी किसी स्त्री के प्रति और कोई स्त्री किसी पुरुष के प्रति पागल हो जाती ' है प्रेम में तो उसके खून में अमृत के फव्वारे छूट जाते हैं जिनकी वजह से सम्मोहन पैदा हो जाता है और स्त्री सुन्दर दिखाई पड़ने लगती है जितनी वह है नहीं । अगर आपको किसी स्त्री से प्रेम नहीं है तो एल एस डी का इंजेक्शन लगाकर उस स्त्री को देखें जिससे आपको प्रेम नहीं तो आप एकदम दीवाने हो जाएँगे क्योंकि वह इंजेक्शन आपके शरीर में अमृत छोड़ देता है जिससे कोई भी स्त्री आपको अपूर्व सुन्दर दिखाई पड़े । यह सवाल नहीं है कि फलां स्त्री । एक साधारण सी स्त्री भी अद्वितीय दिखाई पड़ेगी । एक साधारण सा फूल सुन्दर और आलौकिक दिखाई पड़ेगा । Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -** ४१३ । जब हम क्रोध करते हैं तब एक तरह का जहर, जीर प्रेम करले हैं तो एक तरह का अमृत — इस तरह सारे के सारे रस शरीर में छूटते रहते हैं । यह तो स्थूल शरीर के तल पर हो रहा है लेकिन सूक्ष्म शरीर के तल पर भी यह हो रहा है । जब आप कोध कर रहे है तो सूक्ष्म शरीर के साथ विशेष तरह के परमाणु सम्बन्धित हो रहे हैं । जब आप प्रेम कर रहे हैं तो विशेष प्रकार के परमाणु सम्बन्धित हो रहे हैं । इस शरीर के छूट जाने पर वह सूक्ष्म शरीर ही सूखी रेखाजों की तरह आपके भोगे गए जीवन को लेकर नई यात्रा शुरू करता है और वह सूक्ष्म शरीर हो नए शरीर ग्रहण करता है । वह अन्धा हो सकता है; वह लंगड़ा हो सकता है; बुद्धिमान् हो सकता है । प्रत्येक मृत्यु में स्थूल देह मरती है। फिर अन्तिम मृत्यु है महामृत्यु, जिसे हम मोक्ष कहते हैं। उसमें सूक्ष्म शरीर भी मर जाता है । जिस दिन सूक्ष्म शरीर मर जाता है, उस दिन व्यक्ति का मोक्ष हो गया । स्थूल शरीर तो हर बार मरता है । मगर भीतर का शरीर हर बार नहीं मरता वह तभी मरता है जब उस शरीर के रहने का कोई अर्थ नहीं रह जाता। जब व्यक्ति न कुछ करता है, न भोगता है, न कर्ता बनता है, न किसी कर्म को ऊपर लेता है, न कोई प्रतिक्रिया करता है । जब व्यक्ति केवल साक्षी मात्र रह जस्ता है तब सूक्ष्म शरीर पिघलने लगता है, बिखरने लगता है । साच्ची की जो त्रक्रिया है, वह सूक्ष्म शरीर को ऐसे पिघला देती है जैसे सूरज निकले और बर्फ पिघलने लगे । साक्षी के निकलते ही सूक्ष्म शरीर के परमाणु पिघल कर बहने लगते हैं । और यह पिघलना ऐसा अनुभव होता है जैसे जुकाम पकड़ गया हो। और जुकाम उतर रहा है तो आप अनुभव करते हैं, किसी को बता नहीं सकते कि अब जुकाम नीचे उतर रहा है। सूक्ष्म शरीर का पिघलना साक्षी को इसी तरह पता चलता है कि कोई चीज भीतर पिघल कर बहती चली जा रही है। और जिस दिन सूक्ष्म शरीर पिघल जाता है, आत्मा और शरीर पृथक् दिखाई देते हैं। सूक्ष्म शरीर जोड़ है। वह पुचक नहीं दिखाई पड़ने देता । वह दोनों को जोड़कर रखता है । और जिस दिन वे दोनों पृथक् दिखाई पड़ जाते हैं, वह आदमी कह देता है कि यह बाजिरी यात्रा है। अब इसके बाद लौटना नहीं । रात को सर्दी से बुद्ध को जिस दिन ज्ञान हुआ, बुद्ध ने कहा कि वह घर गिर गया जो सदियों से नहीं गिरा था। तो वे घर के बनाने वाले बिदा हो गए जो सदा उस २८ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि घर को बनाते थे। अब मेरे लोटने की कोई उम्मीद नहीं रही क्योंकि कही लौटूंगा? अब वह घर ही न रहा, जिसमें सदा लोटता था। और वह पर जो है, वह सूक्म शरीर का घर, उस पर हमारे सारे कर्म, हमारे सारे कर्मों के फल, हमारा भोग, हमारा जिया हुवा जीवन-वह सब वैसा बन जाता है जैसे स्लेट की पट्टी पर रेखाएं बन जाती है। उस सूक्ष्म शरीर को गलाना ही साधना है। अमर मुझसे कोई पूछे कि तपश्चर्या का क्या मतलब तो मैं कहूंगा कि सूक्ष्म शरीर को गलाना ही तपश्चर्या है। तप का मतलब होता है-तीन गर्मी, सूर्य की गर्मी ऐसी गर्मी भीतर साक्षी से पैदा करनी है कि सूक्ष्म शरीर पिघल जाए और वह जाए। तप का यही मतलब है। तप का मतलब धूप में खड़े होना नहीं है। वह आदमी पागल है जो धूप में खड़ा होकर तप कर रहा है। अब महावीर को कहते हैं महातपस्वी तो उसका मतलब यह नहीं है कि वह धूप में खड़े होकर शरीर को सता रहे हैं। और जब महावीर को कहते हैं 'काया को मिटाने वाला' तो उस काया का इस काया से कोई मतलब नहीं है। उस काया का मतलब है भीतर की काया से जो असली काया है। बाहरी काया वो बार-बार मिलती है। आप इस कमीज को अपनी काया नहीं कह सकते । क्योंकि आप रोज उसे बदल लेते हैं। आप शरीर को काया कहते है क्योंकि जिन्दगी भर उसे नहीं बदलते। महावीर भली भांति जानते हैं कि यह शरीर भी तो कई बार बदला जाता है लेकिन एक और काया है जो कमी नहीं बदली, बस एक ही बार खत्म होती है, बदलती नहीं। तो उस काया के पिघलने में लगा हुआ जो आम है वही तपश्चर्या है। और उस काया को पिघलाने की जो प्रक्रिया है वही साक्षीभाव, सामायिक का ध्यान है। और वह स्मरण में आ जाए और उसके प्रयोग से हम गुजर जाएं तो फिर कोई फुनर्जन्म नहीं है। पुनर्जन्म रहेगा, सदा रहेगा अगर हम कुछ न करें। लेकिन ऐसा हो सकता है कि पुनर्जन्म न हो। हम विराट् जीवन के साथ एक हो जाएं। ऐसा नहीं कि हम मिट जाते है, ऐसा नहीं कि हम खत्म हो जाते है । बस ऐसा ही हो जाते हैं जैसे बूंद सागर हो जाती है। वह मिटती नहीं, लेकिन मिट भी जाती है, बूंद की तरह मिट जाती है, सागर की तरह रह जाती है। इसलिए महावीर कहते हैं कि आत्मा ही परमात्मा हो जाता है। लेकिन नहीं समझे लोग कि इसका क्या मतलब है। मतलब यह है कि आत्मा कि बूंद खो जाती है परमात्मा में और एक हो जाती है। उस एकता में, उस परम अद्वैत में परम आनन्द है, परम शांति है, परम सौन्दर्य है। Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रश्नोत्तर - प्रवचन Page #374 --------------------------------------------------------------------------  Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रल: ऐसा कोई व्यक्तियों नहीं मिल सका जिसके चरणों में महावीर मात्मसमर्पण कर सके ? महावीर क्या सोच रहे हैं जिसकी वजह से किसी गुरु के पास नहीं गए? इस सम्बन्ध में महावीर क्या कहते है ? उत्तर जीवन में बहुत कुछ है जो दूसरे से नहीं मिल सकता और जो भी वो भी सत्य है सुपर, उसे दूसरे से पाने का कोई भी उपाय नहीं है। जो दूसरे से पाया जा सकता है, उसका कोई महत्व नहीं। क्योंकि जिसे हम दूसरे से पा लेते है यह हमारे प्राणों से विकसित हुमा नहीं होगा। यह ऐसा हो है जैसे कागज के फूल कोई पागार से ने माप और घर को सजा से । वृक्षों से बाए हुए फूलों की बात दूसरी है। रेबीवन्त है। मगर वे भी मृत हो जाते है। बोड़ी देर पुण्यस्ते में धोखा दे सकते हैं पीक्ति होने का । लेकिन फिर भी वे जीवित नहीं है। सस्य के फूस कमी उचार नहीं मिलते। इसलिए वो भी सत्य को खोज निकला हो, वह गुरको खोजने नहीं निकलता है। ही, असत्य को खोजने कोई निकला हो तो गुरु की खोज बहुत जरूरी है। सत्य की खोज में गुरु एकदम मनावश्यक है। लेकिन शिष्यत्व यानी सीलने की ममता बहुत बावश्यक है। इसकी सपाल सीखने की क्षमता का है और जिसके पास साबले की समता है वह गुरु नहीं बनाता, सीखता पका जाता है। गुरु बनाना एक तरह का बन्धन निर्मित करना है। वह इस बात को पेष्टाकि सत्य पाएंगे तो इस व्यक्ति से और कहीं से नहीं। मेरा मानना है कि तत्व कोई ऐसी पीष नहीं है वो किसी एक व्यक्ति से प्रवाहित हो। सत्वपूरे बीपल पर छाया हुमा है। बगर हम सीखने को उत्सुक है,तो सत्व सब बहले सीमापाता। गुगल समाए किनिन्दनी Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मेरी दृष्टि 'असार है, कल मौत वा पाएगी, घेत जाबो बोर अगर हम सीख न सकते हों तो बावाज कान में सुनाई पड़ेगी और समाप्त हो जाएगी। बोर बगर कोई सीख सकता है तो एक वृन से गिरते हुए सूखे पत्ते को देखकर भी सीख सकता है कि जिन्दगी असार है और अभी जो हरा था, वह अभी सूख गया; कल जो जन्मा था, आज मर गया है। और एक सूखा पत्ता गिरता हुवा भी एक व्यकि को जीवन की सारी व्यर्थता का बोष करा सकता है। लेकिन सीखने की क्षमता न हो तो यह बोध कोई भी नहीं करा सकता। महावीर में सीखने की अद्भुत क्षमता है, इसलिए उन्होंने कोई गुरु नहीं बनाया। गुरु खोजा भी नहीं। बस सीखने निकल पड़े, खोजने निकल पड़े, बीच में किसी व्यक्ति को लेना नहीं चाहा क्योंकि उधार जान लेने की उनकी कोई माकांक्षा नहीं। उधार भी कभी ज्ञान हो सकता है ? सब चीजें उधार हो सकती है, ज्ञान उधार नहीं हो सकता। जान उसका ही होता है, जो पाता है । वह दूसरे को देते ही व्यर्थ हो जाता है । गुरुओं की कमी न पी, सब तरफ गुरु मौजूद थे। शास्त्रों की कमी न थी, शास्त्र मौजूद थे। सिद्धान्तों की कमी न थी, सिद्धान्त मौजूद थे। लेकिन महावीर ने सबकी ओर पीठ कर दी क्योंकि शास्त्र की ओर मुंह करना या सिद्धान्त की ओर या गुरु को बोर-बासे और उधार के लिए उत्सुक होना है। वह निपट अपनी खोज पर चले गए । स्वयं ही पा लेना है। और जो स्वयं न मिले वह दूसरे से मांग कर मिल भी कैसे सकता है ? मिलने का मार्ग भी क्या है ? रास्ता भी क्या है? दूसरे से ज्यादा से ज्यादा शब्द मिल सकते है, सिद्धांत मिल सकते है, लेकिन सत्य नहीं मिल सकता। इसलिए महावीर ने किसी गुरु के प्रति समर्पण नहीं किया। यह भी समझ लेने जैसी बात है कि समर्पण ही करना हो तो खुद्र के प्रति, सीमित के प्रति क्या ? समस्त के प्रति क्यों नहीं ? सच तो यह है कि एक के प्रति समर्पण बसल में समर्पण नहीं है। एक के प्रति समर्पण में शर्त है। जब मैं कहता हूँ कि फलां व्यक्ति के प्रति में समर्पण करूंगा, और फलों के प्रति नहीं तो मैं शर्त रख रहा है क्योंकि मैं मानता हूँ कि एक ठीक है, दूसरा गलत है । यह पा लिया है, दूसरा नहीं पाया है। इससे मिलेगा, दूसरे से नहीं मिलेगा। यह दे सकता है, दूसरा नहीं दे सकता । तब समर्पण कैसा हुवा ? यह तो सौदा हुआ। जिससे हमें मिलेगा, जिससे हम पा सकते है, उसकी बाकांचा को ध्यान में रखकर अगर समर्पण किया गया तो समर्पण कैसा हुआ? यह सौदा हुवा, लेन-देन हुवा । समर्पन का पर्व यह है कि बिना शर्त, बिना माकांक्षा के स्वयं को छोड़ना। तब कोई किसी व्यक्ति के प्रति Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरापन-१४ कभी समर्पित नहीं हो सकता। समपित हो सकता है सिर्फ परमात्मा के प्रति। और परमात्मा का मतलब है समस्त । अगर परमात्मा भी एक व्यक्ति है तो भी समर्पण नहीं हो सकता। जैसे अगर किसी ने परमात्मा को राम मान लिया है तो राम के प्रति उसका समर्पण है, कृष्ण के प्रति समर्पण नहीं है। एक बड़े रामभक्त सन्त के जीवन में उल्लेख है कि उन्हें कृष्ण के मन्दिर में ले जाया गया। तो बांसुरी बजाते कृष्ण को मूर्ति को उन्होंने नमस्कार करने से इन्कार कर दिया। उन्होंने कहा कि मैं तो धनुर्धारी राम के प्रति हो सकता हूँ। और अगर चाहते हो कि मैं झुकू तो इनके हाथ में धनुषबाण दे दो। यानी झुकने वाला शर्त लगाएगा। वह यह भी शर्त लगाएगा कि तुम कैसे खड़े हो ? धनुषबाण लेकर कि बांसुरी लेकर । तुम्हारी कैसी शक्ल हो, तुम्हारी कैसी आंखें हों, वह सब शर्त लगाएगा। और इस तरह समर्पण में शर्त हो सकती है। यानी कोई यह कहे कि तुम ऐसे हो जाबो तो मैं समर्पण करूंगा तो क्या समर्पण रहा? समर्पण का तो अर्थ ही सदा बेश है । मैं मानता हूँ कि महावीर का समर्पण है लेकिन किसी व्यक्ति के प्रति नहीं, समस्त के प्रति । और समस्त के प्रति जिनका समर्पण है उनका हमें पता नहीं चलता। क्योंकि पता कैसे चलेगा? हम तो व्यक्तियों के ही समर्पण को समझ पाते हैं कि यह मादमी फला आदमी के प्रति समर्पित है। लेकिन एक आदमी समस्त के प्रति समर्पित है, उस पत्थर के प्रति भी जो सड़क पर पड़ा है, बाकाश के तारे के प्रति भी, आदमी के प्रति भी, और बच्चे के प्रति भी और जानवर के प्रति भी। नो समस्त के प्रति समर्पित है, उसका समर्पण हमारी पहचान में नहीं जाएगा क्योंकि हमारा मापदण्ड सीमित सौदे का है। अगर मैं एक व्यक्ति को प्रेम करूं तो समझ में आ सकता है कि मैं प्रेम करता है। लेकिन अगर नेरा समरस के प्रति प्रेम हो तो समझ में थाना मुश्किल हो जाएगा क्योंकि हम प्रेम को पहचान ही तब पाते हैं जब वह व्यक्ति से बंष. गाए । अगर वह फैला हो, असीम हो तो हम नहीं पहचान पाते उसे । इसलिए महावीर को समझने वाले सोचते रहे हैं कि महावीर ने किसी एक के प्रति इसलिए समर्पण नहीं किया कि एक के प्रति समर्पण करने से शेष के प्रति असमर्पण हो जाता है। अगर पूर्ण समर्पण है तो पूर्ण के प्रति, असीमित के प्रति ही हो सकता है। अपूर्ण के प्रति, सीमित के प्रति समर्पण नहीं हो सकता। अब तक किसी ने भी इस तरह नहीं सोचा है महावीर के प्रति कि वह समर्पित व्यक्ति है। मेरा मानना है कि वे बिल्कुल ही पूर्ण समर्पित व्यक्ति है। लेकिन Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी पूर्ण समपित व्यक्ति किसी एक के प्रति समर्पित नहीं होता। वह किसी एक के बागे सिर नहीं झुकाता, इसलिए नहीं कि अहंकार है, बल्कि इसलिए कि उसका सिर भुका ही हुआ है सब मोर। अब वह कैसे अलग-अलग खोजने बाए कि इसके प्रति झुको, उसके प्रति न झुको। उसके किसी एक के प्रति झुकने का सवाल ही नहीं, बोर ध्यान रहे जो व्यक्ति किसी एक के प्रति झुकता है, वह दूसरे के प्रति सदा अकड़ा रहता है। और जो व्यक्ति किसी एक के चरण छूता है, वह किसी से चरण छुपाने को आतुर है। में एक बड़े संन्यासी के बाश्रम में पवा। बड़े मंच पर संन्यासी बैठे हुए है। उनके मंच के नीचे एक छोटा तखत है, उस पर एक दूसरे संन्यासी बैठे हैं। उस तस्तके नोचे बोर संन्यासी बैठे हुए है। उस बड़े संन्यासी ने मुझसे कहा किबाप देखते है मेरे बगल में कौन बैठा है ? मैंने कहा मुझे देखने को बकरत नहीं। कोई बैठा है जरूर। उन्होंने कहा, शायद पापको पता नहीं। वह हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस है, साधारण बावमी नहीं है। मेकिन बड़े विनम्र है, कमी मेरे साथ वक्त पर नहीं बैठते हैं। मैंने कहा कि वह मुझे दिखाई पड़ रहा है। लेकिन उनसे भी नीचे तख्त पर कुछ लोग बैठे हुए है। और वे बापके मरखे की प्रतीक्षा कर रहे है कि जब माप मरो तो वे इस तस्त पर बैठें, मोर आपोषो कहा कि यह बारमी विनम्र है क्योंकि बापके साथ नहीं बैठता तो यह भी सोचना जरूरी है कि आप कैसे मादमो हैं। आप बड़े अहंकारी बादमी मालूम होते है । बाप कैसे बादमी है जो कोई आपके साथ बैठे तो माप अविनय समझते है, नीचे बैठे तो बिनब समझते है। लेकिन वे को घेले नोचे बैठे हैं प्रतीक्षा करते है कि वे कब गुरु हो जाएं। जो है किसी के प्रति समर्पित व्यक्ति, वे दूसरों के समर्पण की मांग करते है क्योंकि जो वे इधर देते है, वह दूसरे से मांग करते हैं । निरन्तर मापने देखा होगा कि जो आदमी किसी की बधामद करेगा वह अपने से पीछे वाले लोगों से खुशामद मांगेगा। जो आदमी 'किसी की खुशामद नहीं करेगा वह खुशामद भी नहीं मांगेगा। दोनों बातें एक साथ चलती है। जो बादमी नम्रता दिखलाएगा वह दूसरों से नम्रता की मांग करेगा। महावीर को समझना इस वर्ष में कठिन हो जाता है । म वह किसी के प्रति समर्पित है, न कोई उनका गुरु है, न किसी के परण छूते है, न वे किसी के चरणों में बैठते हैं, नवे किसी के पीछे चलते हैं। तो उन्हें समझना कठिन हो गाणहै। लेकिन मेरी अपनी दृष्टि में यह है कि वह इतने समर्पित व्यकि है, समस्त के प्रति और इस भांति झुके हुए है कि बब और किसके लिए मुकना Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तालापन-१४ ४४१ है और प्यों झुकमा है। एक बादमी मेरे पास आया और उसने कहा कि मम फला-फला आदमी को महात्मा मानते है कि नहीं। मैंने कहा कि अगर तुम मुझसे कहते कि आदमी को महात्मा मानते है कि नहीं तो मैं जल्दी से राजी हो जाता । तुम कहते हो फला-फलो व्यक्ति। अब इसमें यह बात छिपी है कि मैं एक व्यक्ति को महात्मा मानूं तो दूसरों को हीनात्मा मानूं इसके सिवाय कोई चारा नहीं है। एक को महात्मा मानने में दूसरे को होनात्मा मानना पड़ेगा। नहीं तो उसे महात्मा कहने का कोई अर्थ नहीं रह पाता। मैंने कहा कि मैं किसी को होनात्मा मानने में राजी नहीं है इसलिए महात्मा भी विदा हो जाता है। मेरे लिए कोई महात्मा नहीं क्योंकि कोई हीनात्मा नहीं है। और एक को महात्मा बनायो तो हजार, नाख, करोड़ को हीनात्मा बनाना जरूरी है, नहीं तो काम पलता नहीं। यानी एक महात्मा की रेखा खींचने के लिए करोड़ होनात्मानों का घेरा बड़ा करना पड़ता है, तब एक महात्मा बन सकता है, बनाया जा सकता है। लेकिन एक बादमी को महात्मा मानने में हम करोगों मादमियों को होनात्मा की दृष्टि से देखना शुरू कर देते हैं। महावीर किसी को न महात्मा मानते हैं, न हीनात्मा मानते हैं । महावीर इस विचार में ही नहीं पड़ते। वह एक-एक की गिनती नहीं कर रहे हैं : समस्त बीवन का सीधा समर्पप है। व्यक्ति बीच में माता ही नहीं। इस प्रश्न से सम्बन्धित दूसरी बात भी मैं आपको याद दिला हूँ कि चूंकि महावीर ने किसी को गुरु नहीं बनाया इसलिए जितने लोगों ने महावीर को गुरु बनाया उन सबने महावीर के साथ अन्याय किया है। वे समझ ही नहीं पाए महावीर को। यानी जिस भावमी में किसी को कमी गुरु नहीं बनाया है, वह कभी किसी को शिष्य बनाने की बात भी नहीं सोच सकता। दोनों संयुक्त बातें है। क्योंकि जब वह अपने लिए यह ठीक नहीं मानता है कि किसी को गुरु की तरह स्थापित करें, तो वह कैसे मान सकता है कि कोई उसे गुरु की तरह स्थापित करे । इसलिए जो अपने को महावीर के शिष्य और अनुयायी समझते हैं, वे महावीर के साथ एक बुनियादी अन्याय कर रहे हैं। वे उस आदमी को समक्ष हो नहीं पाए। जिस महावीर ने अपने से पहले चले बाए किसी शास्त्र को नहीं माना उस महावीर का शास्त्र बना लेना उसके साथ अन्याय करना है। महावीर ने अपने पहने हुए किसी भी व्यक्ति को ऐसा नहीं कहा है कि उससे मुझे मिल जाएगा या वह मुझे देने वाला हो सकता है। बात हो नहीं उठाई इसकी । उस महावीर के पीछे लाखों लोप है जो यह कहते हैं : Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪૧ महावीर । मेरी दृष्टि में • महावीर एक-एक दिन भी रहे हैं, अपने लिए नहीं, अगर जरूरत है परमात्मा को तो ही । और उनका पूरा जीवन इस बात का प्रमाण है कि विश्वसत्ता को जिस व्यक्ति की जरूरत है, वह उसके लिए आयोजित करती है। जिसकी स्वांस से, जिसके होने से, जिसके जीने से, जिसकी मांख से, जिसके चलने से कुछ घटित हो रहा है, जोकि कल्प-कल्प बीत जाए तो बुबारा घटित मुश्किल से होता है विश्वसत्ता को जरूरत है उसके अस्तित्व की तो वह उसके लिए आयोजन करती है । तो एक-एक दिन के लिए महावीर जी रहे हैं । ऐसा भी नहीं है कि इकट्ठा एक दिन तय कर लिया तो बारह साल के लिए काफी हो गया। इस आदमी को अपनी ओर से जीने का कोई मोह नहीं रह गया । बहुत कीमती है यह बात कि कोई व्यक्ति चाहे तो बराबर वैसा जी सकता है लेकिन तभी जब उसे अपने जीवन का मोह बिदा हो गया हो । तब पूरा अस्तित्व उसके प्रति मोहपूर्ण हो जाता है। और उसे बनाने के उपाय करने लगता है, और उसके ढंग की, बेढंग की शर्तें भी स्वीकार करने लगता है । फिर वह क्या कहता है क्या नहीं कहता, कैसा उठता है कैसा बैठता है सबको स्वीकृति हो जाती है । सारा जगत् एक गहरे प्रेम से उसे घेर लेता है और उसके लिए जो भी किया जा सके, करने लगता है । जाती है । बुद्ध के गृहत्याग की कथा प्रचलित है । बुद्ध घर से चले आधी रात की । उनके घोड़े के पैरों की टाप ऐसी है कि वह बारह कोस तक सुनी बुद्ध उस घोड़े पर सवार होकर चले हैं । घोड़े की टाप इतनी होगी कि सारा महरू जग जाए । कहानी कहती है कि घोड़े के टाप के नीचे देवता फूल रखते चले जाते हैं। बहुत कल्पों के टाप फूलों पर पड़ती है ताकि गांव में कोई जग न जाए। क्योंकि बाद ही कभी कोई व्यक्ति महाअभिनिष्क्रमण करता है । जब वे नगर के द्वार पर पहुँचते हैं तो बड़ी-बड़ी कीलें हैं वहां जिन्हें पागल हाथी खुल नहीं सकतीं। और जब द्वार खुलते हैं तो उनकी इतनी पूरा नगर सुनता है मगर जब बुद्ध वहाँ पहुँचते है तो देवता देते हैं जैसे वह बन्द हो न था । यह सारी कहानियाँ निर्मित हैं । लेकिन साथ-साथ ही ये इस बात की भी सूचक है कि ऐसे व्यक्ति भी धक्के मारे तो आवाज होती है कि द्वार को ऐसा खोल के लिए सारा जगत्, सारा अस्तित्व सुविधा देने लगता है क्योंकि इस सारे जगत् को, इस सारे अस्तित्व को इस आदमी की जरूरत है । मगर हम सबके लिए अस्तित्व की आवश्यकता रहती है । श्वांस चले इसलिए हवा की जरूरत है, प्यास बुझे इसलिए पानी की जरूरत है, गर्मी मिले इसलिए सूरज की 1 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १४ लेकिन कभी-कमी जरूरत है । सारे अस्तित्व की हमें जरूरत है अपने लिए। ऐसा व्यक्ति भी पैदा हो जाता है जिसके लिए अस्तित्व को उसकी जरूरत है कि वह हो जाए तो थोड़ी देर रह जाए, और उसके लिए कोई असुविधा न हो । और महावीर इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि अगर हमें जिन्दा रखना हो तो आज ऐसा इन्तजाम हो जाए; नहीं तो हम वापस लौट जाएँगे । न कोई शिकायत है पीछे लौटने से, न कोई नाराजगी है। इतनी ही खबर जरूर है कि अस्तित्व कहता है अब तुम्हारी जरूरत नहीं । वह हम स्वीकार कर लेंगे ओर बिदा हो जाएंगे। इस वजह से वे वैसा भाव लेकर चलते हैं । लेकिन उसको नहीं समझा जा सका । ऐसा आदमी चुनौती दे रहा है विश्वसत्ता को कि रखना हो तो रखो अन्यथा हम जाते हैं । ४४७ प्रश्न : महावीर को पारिवारिक या सामाजिक कौन-सा असंतोष पा ? क्या उनका गृहत्याग जबाबदारियों से पलायन नहीं है ? उत्तर : पहली बात यह है कि महावीर को न तो कोई पारिवारिक असंतोष था, और न कोई सामाजिक असंतोष था । इस जन्म में तो कोई व्यक्तिगत असंतोष भी नहीं था । आम तौर से तीन तरह के असंतोष होते हैं । पारिवारिक असंतोष, सामाजिक असंतोष या वैयक्तिक असंतोष । पारिवारिक असंतोष आर्थिक हो सकता है, विवाह दाम्पत्य का हो सकता है, शरीर की सुविधा- असुविधा का हो सकता है। वैसा असंतोष जिसे है वह आदमी कभी धार्मिक नहीं हो सकता। क्योंकि वैसा आदमी उस असंतोष को मिटाने में लगा रहता है । वैसा आदमी अत्यधिक भौतिक होता है । फिर सामाजिक असंतोष है । व्यवस्था है, समाज की नीति है, नियम है, शोषण है, धन है, राज्य है, सम्पत्ति है, वितरण है। यह सब है । ऐसा सामाजिक, क्रान्तिकारी, सुधारक व्यक्ति भी धार्मिक नहीं होता है वह व्यक्ति जिसके असंतोष का न समाज से कोई सम्बन्ध है, न परिवार से . कोई सम्बन्ध है, न सम्पत्ति से कोई सम्बन्ध है, न शरीर से कोई सम्बन्ध है, जिसके असंतोष का एक ही अर्थ है कि मेरा होना मात्र अभी ऐसा नहीं है कि जिससे मैं सन्तुष्ट हो जाऊँ, जिसकी आखिरी चिन्ता इस बात की है कि मैं जैसा हूँ क्या ऐसा ही होना काफी है, पर्याप्त है ? अगर हिंसक हूँ तो हिंसक होना ही काफी है, पर्याप्त है ? अगर क्रोधी हूँ तो क्रोषित होना ही काफी है ? अशान्त हैं तो अशान्त होना ही ठीक है ? दुःखी है, अशानी हूं, सत्य का कोई पता नहीं, प्रेम का कोई अनुभव नहीं, क्या ऐसा होना ही काफी है ? एक ऐसा असन्तोष असंतोष भी होता है । ऐसा । धार्मिक होता Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर :मेरी टि. है जो इस मीतरी जगत् से उठता है वहां व्यक्ति कहता है कि जहां अचान नहीं, बंधकार नहीं, दुःख नहीं, अशांति नहीं, क्रोष नहीं, घृणा नहीं, द्वेष नहीं, मैं ऐसा जीवन चाहता है। इस आन्तरिक असंतोष से पामिक व्यक्ति का जन्म होता है। इस जीवन में महावीर को यह असंतोष भी नहीं है क्योंकि पार्मिक व्यकि का जन्म हो चुका है लेकिन पिछले जन्मों में जो उनका नितान्त असंतोष है वह आध्यात्मिक है; वह सामाजिक या पारिवारिक नहीं है। आध्यात्मिक असन्तोष बहुत कीमती चीज है और वह जिसमें नहीं है वह व्यक्ति कभी उस यात्रा पर जाएगा ही नहीं जहां आध्यात्मिक संतोष उपलब्ध हो जाए । जिस मसन्तोष से हम गुजरते हैं उसी तल का सन्तोष हमें उपलब्ध हो सकता है। अगर धन का असन्तोष है तो ज्यादा से ज्यादा धन मिलने का सन्तोष उपलब्ध हो सकता है। लेकिन बड़े मजे की बात है कि जिस तल पर हमारा असन्तोष होगा उसी तल पर हमारा जीवन होगा। प्रत्येक व्यक्ति को सोज मेना चाहिए कि मैं किस बात से असन्तुष्ट हूँ तो उसे पता चल जाएगा कि वह किस तक पर जी रहा है। अब यह हो सकता है कि एक आदमी महल में जो रहा है, विकास में, भोग में। भोर एक मादमी लंगोटी बांध कर संन्यासी की तरह सड़ा है-पा, धूप में, सर्दी में, वर्षा में। इससे कुछ पता नहीं चलता कि कौन धार्मिक है। पता चलेगा यह बानकर कि इस व्यक्ति के भीतर असंतोष या है। हो सकता है कि महल में जो व्यक्ति है उसके मन में यह असन्तोष हो कि यह महल किस मतलब का है, यह पन किस मतलब का है। और उसे यह पसन्तोष पकड़े हुए है कि मैं उसे कैसे पाऊँ जो मेरा स्वरूप है, जो मेरा अन्तिम मानन्द है। सोता है महल में लेकिन उसका असन्तोष उस तल पर चल रहा है। तो वह व्यक्ति माध्यात्मिक है, पामिक है। पर एक मादमी लंगोटी बांधे सड़क पर खड़ा है, मन्दिर में प्रार्थना कर रहा है, पूजा कर रहा है। लेकिन प्रार्थना में मांग कर रहा है कि आज अच्छा भोजन मिल जाए, ठहरने को अच्छी जगह मिल जाए, इज्जत मिल जाए, अनुयायी मिल जाएं, भक्त मिल पाएं, वामम मिल पाए। अगर वह इसी तरह की प्रार्थना मन्दिर में भी कर रहा है तो वह पार्मिक नहीं है। हमारा बसन्तोष ही हमारी सबर देता है कि हम क्या है? ___ महावीर इस जीवन में किसी बसन्तोष में नहीं लेकिन पिछले सारे जन्नों में उनके सातोष की एक लम्बी यात्रा है। वह निरन्तर यही है कि मेरा अस्तित्व, मेरा सत्य, मेरी यह स्थिति वहाँ में परम भूषत हो जाऊँ, न Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१४ YYE कोई सीमा रहे, न कोई बंधन रहे, वह कहाँ है ? वह कैसे मिले, उसकी खोज जारी है। ऐसी खोज वाला व्यक्ति भी दूसरों के पारिवारिक मसन्तोष को मिटाने के लिए उत्सुक हो सकता है, दूसरों के सामाजिक असन्तोष को मिटाने के लिए भी उत्सुक हो सकता है। ऐसा व्यक्ति निपट सन्त भी रह सकता है, क्रान्तिकारी भी बन सकता है, सुधारक भी बन सकता है। लेकिन ऐसे व्यक्ति की स्वयं की चिन्ता इन तलों पर नहीं है। उसकी चिन्ता एक अलग ही तल पर है। और बहुत कम लोग हैं जिनके जीवन में आध्यात्मिक असन्तोष होता है। अगर हम, लोगों के सिर खोल कर देख सकें तो हम बहुत हैरान हो जाएंगे। उनके असन्तोष बहुत ही नीचे तल के होते हैं और जिस तरह के असंतोष होते हैं उस तल पर व्यक्ति होता है। नीत्से ने कहा है कि अभागा होगा वह दिन जिस दिन आदमी अपने से सन्तुष्ट हो जाएगा। अभागा होगा वह दिन जिस दिन मनुष्य की आकांक्षा का तोर पथ्वी के अतिरिक्त और किन्हीं तारों की ओर न मुड़ेगा। हम सबकी आकांक्षाओं के तीर पृथ्वी से भिन्न कहीं भी नहीं जाते। हम सब चीजों से अतृप्त होते हैं, सिर्फ अपने को छोड़कर । एक आदमी मकान से अतृप्त होगा कि मकान ठीक नहीं, दूसरा बड़ा मकान बनाऊँ। एक आदमी अतृप्त होगा कि पत्नी ठीक नहीं है दूसरी पत्नी चाहिए, बेटा ठीक नहीं है दूसरा बेटा चाहिए, कपड़े ठीक नहीं हैं दूसरे कपड़े चाहिए। लेकिन अगर हम खोजने जाएं तो ऐसा आदमी मुश्किल से मिलता है जो न मकान से अतृप्त है, न कपड़ों से, न पत्नी से, न बेटों से, जो अपने से अतृप्त है। और जो कहता है कि मैं स्वयं ठोक नहीं हूँ, मुझे भोर तरह का आदमी होना चाहिए। जब आदमी अपने प्रति ही असन्तुष्ट हो जाता है तब उसके जीवन में धर्म की यात्रा शुरू होती है। महावीर जरूर असन्तुष्ट रहे। वही यात्रा उन्हें वहाँ तक लाई है जहां तृप्ति और सन्तोष उपलब्ध होता है। क्योंकि जिस दिन व्यक्ति अपने को रूपान्तरित । करके उसे पा लेता है जो वह वस्तुतः है उस दिन परम तृप्ति का क्षण आ जाता है। उसके बाद फिर कोई अतृप्ति नहीं। अगर वह फिर जीता है एक ' क्षण भी तो वह दूसरों के लिए ताकि वह उन्हें तप्ति के मार्ग की दिशा दे सके, पर उसकी अपनी यात्रा समाप्त हो जाती है। . ___ आपने पूछा है कि क्या उनका गृहत्याग दायित्व से पलायन नहीं है। मेरा कहना है कि महावीर ने कभी गृहत्याग किया ही नहीं । गृहत्याग वे लोग करते है जिन्हें गृह के साथ आसक्ति होती है। महावीर ने तो वही छोड़ा है जो २६ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० महावीर : मेरी दृष्टि में घर नहीं था। हमें यह ख्याल में आना जरा मुश्किल होता है क्योंकि हम मिट्टी, पत्थर के घरों को घर समझे हुए हैं। इसलिए गृहत्याग का शब्द ही भ्रान्त है। असल में महावीर घर की खोज में निकले हैं। जो घर नहीं था उसे छोड़ा है और जो घर है उसकी खोज में गए हैं। और हम जो घर नहीं है, उसे पकड़े बैठे हैं और जो घर हो सकता है उसकी ओर आंख बन्द किये हुए हैं। हम पलायनवादी हैं। पलायन का क्या मतलब होता है ? एक आदमी कंकर-पत्थर छोड़ दे और हीरों की खोज पर निकल जाए। पलायनवादी कौन है ? क्या आनन्द की खोज पलायन है ? क्या ज्ञान की खोज पलायन है ? क्या परम जीवन की खोज पलायन है ? तो महावीर ने कोई गृहत्याग नहीं किया। वह गृह की खोज में हो गए हैं। आमतौर से आदमी सोचता है कि जो आदमी जिम्मेदारी से भागता है वह पलायनवादी है। लेकिन क्या पक्का पता है कि यही जिम्मेदारी है ? महावीर जैसा आदमी दूकान पर बैठकर दूकान चलाता है, क्या यही दायित्व होगा उसका जगत् के प्रति, जोयन के प्रति ? महावीर जैसा व्यक्ति घर में बैठ कर वाल-बच्चों को बड़ा करता रहे, क्या यही दायित्व हागा उसका? महावीर जैसे व्यक्ति के लिए इस तरह के क्षुद्रतम धेरे में खड़े होकर सब खो देने से अधिक दायित्वहीनता और क्या हो सकती है। बड़े दायित्व जब पुकारते हैं छोटे दायित्व तब छोड़ देने पड़ते हैं। बड़े दायित्व की पुकार चूंकि हमारे जीवन में नहीं है, इसलिए हमें देखकर बड़ी मुश्किल होती है कि वह आदमो जिम्मेदारियाँ छोड़कर जा रहा है। यह आदमी कितनी बड़ी जिम्मेदारियां ले रहा है, यह हमारे ख्याल में नहीं आता। आदमी एक घर को छोड़ता है तो करोड़ों घर उसके हो जाते हैं । घर के आंगन को छोड़ता है तो सारा आकाश उसका आँगन हो जाता है । पत्नी को, बेटे को, प्रियजन को छोड़ता है तो सारा जगत् उसका प्रियजन, और मित्र हो जाता है। लेकिन हमने हमेशा उसने जो छोड़ा है, उस भाषा में सोचा है । जिस विस्तार पर वह फैला है, वह हमने नहीं सोचा । और जो उस एक घर को छोड़कर गया, उसे भी छोड़कर कहाँ गया ? बुद्ध के जीवन में एक मधुर घटना है । बुद्ध लौटे है घर बारह वर्ष बाद । पत्नी नाराज है। बुद्ध का बेटा एक दिन का था जब वह घर छोड़कर चले गये थे। वह अब बारह वर्ष का हो गया है । पत्नी उसे सामने कर देती है व्यंग्य में, मजाक में और कहती है कि यह तुम्हारे पिता है, पहचान लो । पूछ लो तुम्हारे लिए क्या कमाई इन्होंने छोड़ी है, तुम्हारा दायित्व क्या निभाया है ? यही रहे तुम्हारे Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५ १ प्रश्नोतर प्रवचन- १४ पिता । यह जो भिक्षापात्र लिए खड़े हैं यहो सज्जन तुम्हें जन्म देकर एक ही -रात बाद भाग गये थे । इन्होंने जगाकर माझे नहीं कहा था कि मैं जाता हूँ । - अपने दाय का भाग माँग लो। यह तुम्हारे पिता हैं । भिक्षु यह सुनकर सन्नाटे में आ गये । आनन्द घबड़ाने लगा कि इस पागल को पता नहीं किससे क्या कह रही है ? तब बुद्ध ने आनन्दित होकर राहुल से कहा कि बेटा निश्चित हो मैं तेरा पिता हूँ । हाथ फैला कि जो सम्पत्ति मैंने तेरे लिए इकट्ठों को वह तुझे दे दूँ । बुद्ध का हाथ तो खाली है तो भी राहुल ने हाथ 1. फैला दिया है । बुद्ध ने अपना भिक्षापात्र उसके हाथ में दे दिया और कहा कि तू दोक्षित हुआ। क्योंकि बुद्ध जैसा पिता तुझे ऐसी ही सम्पदा दे सकता है जो तुझे भी बुद्ध बना दे। मैं तो बहुत दिन मटका, अब तुझे क्यों भटकाऊँ ? यशोधरा रोने लगो है । लोग चिल्लाने लगे हैं कि यह क्या पागलपन हो रहा है ? एक बेटा छोड़कर गये थे उसे भो लिए जाते हैं । तो बुद्ध कहते हैं कि और भी जिसको चलता हो, उसको भो मैं ले जाने का तैयार हूँ। क्योंकि जो मैंने वहाँ पाया है, अपने बेटे को कैसे वंचित रखूं उससे ? जिन हारों की खदान है वहां अपने बेटे को कैसे न ले जाऊं ? हमें लगता है कि दायित्व छोड़कर बुद्ध भाग गये । लेकिन मैं कहता हूँ कि जैसा बुद्ध थे, वैसा ही रहकर क्या दायित्व पूरा कर लेने हैं ? कितने बाप हुए हैं, कितने वेटे हुए हैं, किसने क्या दायित्व पूरा किया है ? एक बाप जो कर सकता था ज्यादा से ज्यादा बेटे के लिए वह बुद्ध ने किया है और जो कुछ जाना था, जो कुछ पाया था उसके सामने खान दिया है। दायित्व को समझना हमें मुश्किल हो जाए। अपने दुःख के लादना हो हम दायित्व समझते हैं । अज्ञान की यात्रा को दायित्व समझते हैं । शायद इस भार को दूसरे पर गति देना ही हम पलायन वह करता है जो दुःखो हो । भागता वह है जो दुःखो हो, डरता हो, भयभीत हो, जिसे शक हो कि जीत न सकूँगा । ऐसा आदमी हमें भागना दिखता है । घर में आग लगो हो और एक आदमी घर के बाहर निकले उसे आप भागने वाला तो न कहेंगे । कोई यह तो नहीं कहेगा कि घर में आग लगो थी और यह आदमी बाहर निकल आया । कोई नहीं कहेगा कि यह पलायनचादी है क्योंकि वहीं भागने का सवाल हो नहीं है। विवेक की बात है कि कोई बाहर हो जाए । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में महावीर जैसे व्यक्ति जहाँ से भी हटते हैं, भागते नहीं-जहाँ, जहाँ आग है, हटते हैं । हटना एकदम विवेकपूर्ण है। और इसलिए भी हटते हैं कि जहाँजहाँ दुःख जन्मता है, जहाँ-जहाँ दुःख बढ़ता है और फैलता है, वहां खड़े रहने का क्या प्रयोजन है ? वहाँ से वे हटते हैं सिर्फ इसलिए कि और बेहतर जगह है जहाँ माग नहीं है। जैसे कि आप बीमार पड़े हैं, आप इलाज कराने चले जाएँ और डाक्टर बापसे कहे कि माप बड़े पलायनवादी हैं, बीमारी से भागते हैं। वह आदमी कहेगा कि मैं बीमारी से नहीं भागता। लेकिन बीमारी में खड़े रहने में न तो कोई बुद्धिमत्ता है, न कोई अर्थ है। मैं स्वास्थ्य की खोज में जाता हूँ। हम बीमार आदमी को कभी नहीं कहते कि तुम डाक्टर के यहाँ मत जाओ । एक बंधेरे में खड़ा आदमी सूरज की तरफ आता है तो हम नहीं कहते कि तुम पलायनवादी हो। लेकिन हम महावीर जैसे लोगों को पलायनवादी कहना चाहते हैं। उसका कारण सिर्फ यह है कि अगर महावीर जैसे लोगों को सिद्ध कर देते हैं पलायनवादी तो हम जहां खड़े हैं वहां से हटने की हमें जरूरत नहीं रह जाती। हम निश्चिन्त हो जाते हैं कि यह आदमी गड़बड़ है, हम वहां खड़े हैं, हम बिल्कुल ठीक हैं। हम सब मिलकर तय कर दें कि यह आदमी सिर्फ भगोड़ा है और हम बहादुर लोग हैं। हम जिन्दगी में खड़े हैं. उस जिन्दगी में जहाँ जिन्दगी है ही नहीं। और बहादुरो क्या है ? और उस बहादुरी से हमें क्या उपलब्ध हो रहा है ? जिन लोगों ने महावीर को 'महावीर' नाम दिया, उन लोगों ने महावीर को पलायनवादी नहीं समझा था। शायद कारण यह है कि हम अपनी कमजोरी की वजह से जहां से नहीं हट सकते हैं, वहां से महावीर अपने साहस को वजह से हट जाते हैं। लेकिन हम अपनी कमजोरी को भी छिपाते हैं, हम • उसके लिए कोई न्याययुक्त कारण खोज लेते हैं और कोई नहीं मानना चाहता कि हम कमजोर हैं। और तब हमारे बीच से अगर एक बहादुर आदमी हटता हो-बड़ी मुश्किल है हिम्मत जुटाना तो क्या वह पलायन है ? घर में आग लगी हो और घर में पचास मादमी हों और हर आदमी मानता ही न हो कि घर में आग लगी है तो जिस आदमी को आग लगी दिखाई पड़ती हो वह घर के बाहर निकलता हो तो लोग कहेंगे कि यह पलायनवादी है। हमने दुनिया के श्रेष्ठतम लोगों को सदा पलायनवादी कहा है। स्टीफेन जूड ने अात्महत्या की। लेकिन आत्महत्या करने के पहले उसने एक पत्र में लिखा कि ध्यान रहे, कोई यह न समझे कि मैं पलायनवादी हैं। Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतर-प्रवचन-१४ ४५३ और यह भी ध्यान रहे कि मैं कायर नहीं हूँ। बल्कि मेरा नतीजा तो यह है जिन्दगी भर का कि लोग चूंकि मरने की हिम्मत नहीं जुटा पाते, इसलिए जिन्दा रहे चले जाते हैं । मैं भी बहुत दिन तक हिम्मत नहीं जुटा पाया इसलिए जिन्दा रहा । इतना मुझे साफ दिखाई पड़ गया है कि इस तरह को जिन्दगो अगर रोज जीनी है तो मैं इसे तोड़ दूं। और ध्यान रहे कि मैं तोड़ता है तो सिर्फ इसलिए कि मैं हिम्मतवर हूँ और तुम नहीं तोड़ते हो क्योंकि तुम हिम्मतवर नहीं हो। लेकिन मैं जानता हूँ कि मेरे मरने के बाद लोग कहेंगे कि वह कायर था, पलायनवादी था, मर गया, भाग गया जिन्दगी से । ___यह आदमी बहुत कोमती बात कह रहा है। यह उस जगह खड़ा है जहाँ से आदमी या तो आत्महत्या करता है, या प्रात्मसाधना में जाता है । यह उस जगह खड़ा है जहाँ जिन्दगो व्यर्थ हो गई है, वही रोज सुबह का उठना, वही रोज शाम सो जाना, वहो काम, वहो क्रोध, वही लोभ । वही सब रोज-रोज, एक मशीन की तरह हम घूमते चले जाते हैं। कोई उस जगह पहुँच गया है जहाँ वह कहता है कि अगर यहो जिन्दगी है तो मैं खत्म करता हैं अपने को। ओर ध्यान रहे कि मैं कायर नहीं। मेरा भी मानना है कि वह कायर नहीं । वह गल्ती करता है, वह चूक गया है एक बिन्दु को जिसको महावीर नहीं चूकते । तो महावीर उस जगह तक पहुँचते हैं जहां दुनिया के सभी लोग जिनको जिन्दगी में क्रान्ति घटित होतो है, एक दिन पहुंचते हैं, जहाँ या तो आत्म-हत्या या साधना-दूसरा विकल्प नहीं रह जाता। या तो जैसे हम हैं उसको खत्म करो, शरीर से मिटा दो, या जैसे हम हैं, उसे बदलो आत्मिक अर्थों में ताकि हम दूसरे हो जाएं। जो आत्महत्या कर लेता है वह कायर नहीं है। है तो बहादुर हो, लेकिन वह भूल से भरा है, क्योंकि आत्महत्या से क्या होगा? जीवन की आकांक्षा फिर नये जीवन बना देगी। महावोर जैसे व्यक्ति आत्महत्या नहीं करते। आत्मा को ही रूपान्तरित करने में लग जाते हैं। आत्महत्या करने से क्या होगा? आत्मा को ही बदल डाल, नया जीवन कर लें लेकिन हमें दोनों ही भागे हुए लग सकते हैं। और इसके पीछे कारण भी है क्योंकि सौ में से निन्यानवें लोग निश्चित हो भागते हैं । सो संन्यासियों में से निन्यानवें संन्यासी पलायनवादा ही होते हैं। और उन निन्यानवें के कारण सो को यह मानना मुश्किल हो जाता है। निन्यानवें ता इसलिए भागते हैं कि वोमारो है, झगड़ा है, पत्नी मर गई है, दिवाला निकल गया है । कुछ ऐसे कारण हैं जो उन्हें कहते हैं कि इस झंझट से दूर हो जाओ । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ महावीर : मेरो दृष्टि में लेकिन ऐसे आदमी अगर झंझट से भागते हैं तो नई झंझटें खड़ी कर लेते हैं। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि आदमी वहीं का वहीं रहा। वह नई झंझटें निर्मित कर लेता है। ऐसा मादमी पलायनवादी कहा जा सकता है। लेकिन महावीर ऐसे पलायनवादी नहीं है। क्योंकि वह कोई नई झंझट खड़ी नहीं कर रहे हैं । और किसी भय से नहीं भाग रहे हैं। ___ अगर कोई आदमी किसी ज्ञानपूर्ण चेनता में सीढ़ी बदल देता है, दूसरी सीढ़ी पर चला जाता है तो यह पलायन नहीं है। अगर कोई आदमी भाग रहा हो किसी से डर कर तो एक बात, और एक आदमी भाग रहा हो कुछ पाने के लिए तो वह बिल्कुल दूसरी बात । वह आदमी भी भाग रहा है जिसके पीछे बन्दुक लगी हो और वह आदमी भी दौड़ता है जिसको हीरों की खदान दिखाई पड़ गई है । लेकिन एक के पीछे बन्दूक का भय है, इसलिए भागता है; एक को हीरों की खदान दिख गई है, इसलिए भागता है। दूसरे आदमी को आप भागने वाला नहीं कह सकते, उसे गतिवान् कह सकते हैं, क्योंकि वह किसी चीज से भाग नहीं रहा है। उसकी दृष्टि का जोर है जहाँ वह जा रहा है, जहाँ से वह जा रहा है वहां नहीं । दोनों हालतों में वह जगह छूट जाती है। लेकिन दोनों हालतों में बुनियादी फर्क है। महावीर कहीं से भी भागे हुए नहीं है लेकिन निन्यानवे भागे हुए संन्यासियों में से एक गया हुआ संन्यासी पहचानना मुश्किल हो जाता है । और वह मुश्किल हमारी समझ में ऐसी बाधाएं खड़ी कर देती हैं कि उसके दो ही रास्ते हैं। या तो हम उन संन्यासियों को गया हुआ मान लेते हैं, और या हम उन्हें भागा हुआ मान लेते हैं। जबकि जरूरत इस बात की है कि हम जांच-पड़ताल करें कि कोई प्रादमी पाने गया है. या कोई आदमी सिर्फ छोड़कर भागा है। पाने गया हो तो जरूर कुछ चीजें छूट जाती हैं। आप सीढ़ियां चढ़ रहे हैं । दूसरी सीढ़ी पर पैर रखते हैं, पहली सीढ़ी छूट जाती है, पहली सीढ़ी से आर भागते नहीं, सिर्फ पहली सीढ़ी छूटती है क्योंकि दूसरे सीढ़ो पर पैर रखना जरूरी है। जो लोग ऊंची सीढ़ियों पर पैर रखते हैं, नीची सीढ़ियाँ छूट जाती हैं। नीची सीढ़ियों से जो डरता है वह ऊँची सीढ़ी पर नहीं पहुंच पाता, वह नोचे की सीढ़ियों पर उतर आता है क्योंकि वह डरा हुआ है। उसका भागना सिर्फ उसे और नीचे की सीढ़ियों पर ले आता है। इसलिए अवसर ऐसा होता है कि अगर एक गृहस्थ भाग कर संन्यासी हो जाए तो वह महागृहस्थ हो जाता है। उसकी चाल गृहस्थी की चाल से और भी ज्यादा पाखण्डी हो जाती है । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५५ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १४ वह फिर भी पैसा इकट्ठा करता है । कल वह कमा कर इकट्ठा करता था, आज वह कमाने वालों को फँसा कर इकट्टा करता है । अब उसका जाल जरा गहरा सूक्ष्म, चालाकी का हो जाता है । कल भी वह मकान बनाता था, अव भो बनाता है । कल बनाए हुए मकानों को मकान कहता था, अब उनको आश्रम, मन्दिर ऐसे नाम देता है । कल जो कहता था, वही अब करता है । कल भी अदालत में लड़ता था, अब भी अदालत में लड़ता है। लड़ने का आधार कल व्यक्तिगत सम्पत्ति थी, आज आश्रम की सम्पत्ति है । भागा हुआ व्यक्ति नीचो सोढ़ियों पर उतर जाता है। लेकिन ऊपर की सीढ़ी पर जो जाएगा उसकी भी सीढ़ी टूटती है । यह बारोक है पहचान और यह हमें समझ में तब आएगी जब हम अपनी जिन्दगी में इसकी पहचान करें कि हम कहीं से भागे हैं, या कहीं गए हैं । चलो यहाँ आप सब मित्र आए हैं । कोई आ भी सकता है, कोई भागा हुआ भी आ सकता है । एक आदमी बेचैन हो गया है, परेशान हो गया है, पत्नी सिर खाए जाती है, दफ्तर में मुश्किल है, काम ठीक नहीं चलता, पन्द्रह दिन के लिए सब भूल जाओ। ऐसा भी आदमी आ सकता है। वह भागा हुआ दिखाई पड़ेगा और वह बच नहीं सकता क्योंकि जिससे वह भागा है वह उसका पोछा करेगा । वह सब भय, वे सब चिन्ताएँ इस पहाड़ पर भी उसे घेरे रहेंगी । हाँ, थोड़ी देर के लिए बातचीत में भूल जाएगा लेकिन लोट कर फिर सव पकड़ लेगा । और पन्द्रह दिन पहले जिस उलझन से वह भाग आया था, वह उलझन पन्द्रह दिन में कम नहीं होने वाली है, पन्द्रह दिन में और बढ़ गई होगी । पन्द्रह दिन बाद वह फिर उसी उलझन में खड़ा हो जायगा, दुगुनी परेशानी लेकर वहीं पहुँच जाएगा। लेकिन कोई आदमी आया हुआ भी हो सकता है, कहीं से भागा हुआ नहीं है । वह कहीं कोई ऐसी बात न थी जिससे वह भाग रहा है बल्कि कहीं कुछ पाने जैसा लगा है, इसलिए चला आया है । यह आदमी आ सकेगा सच में और आकर पीछे को सब भूल जाएगा क्योंकि कहीं से आमा है, कहीं से भागा नहीं है । और यहाँ से लौटकर दूसरा आदमी होकर भी जा सकता है । और आदमी बदल जाए तो सारी परिस्थितियां बदल जाती हैं । मैं महावीर को पलायनवादी नहीं कहता हूँ | Page #390 --------------------------------------------------------------------------  Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #392 --------------------------------------------------------------------------  Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : महावीर ने न नियन्ता को स्वीकार किया है, न समर्पण को, न गुरु को,न शास्त्र को, न परम्परा को । तो क्या यह महावीर का घोर अहंकार नहीं था? क्या महावीर अहंवादी नहीं थे ? उत्तर : यह प्रश्न स्वाभाविक है और जो व्यक्ति नियन्ता को स्वीकार करता है, नियन्ता के प्रति समर्पण करता है, गुरु को स्वीकार करता है, गुरु के प्रति समर्पण करता है, शास्त्र परम्परा के प्रति झुकता है, वह साधारणतः हमें विनम्र विनीत, निरहंकारी मालूम पड़ेगा ? इन दोनों बातों को ठीक से समझ लेना जरूरी है। पहली बात यह है कि परमात्मा के प्रति झुकने वाला भी अहंकारी हो सकता है। और यह अहंकार की चरम घोषणा हो सकती है उसकी कि मैं परमात्मा से एक हो गया हूँ । 'अहं ब्रह्मास्मि' की घोषणा अहंकार को चरम घोषणा है। यानी मैं साधारण आदमी होने को राजी नहीं हूँ। मैं परमात्मा होने की घोषणा के बिना राजी ही नहीं हो सकता हूँ। नोत्से ने कहा है कि यदि ईश्वर है तो फिर एक ही उपाय है कि मैं ईश्वर हूँ। और यदि ईश्वर नहीं है तो बात चल सकती है। ईश्वर के प्रति समर्पण भी ईश्वर होने को अहम्मन्यता से पैदा हो सकता है। दूसरी बात यह कि समर्पण में अहंकार सदा मौजूद है, समर्पण करने वाला मौजूद है। समर्पण कृत्य हो अहंकार का है। एक आदमी कहता है कि मैंने परमात्मा के प्रति स्वयं को समर्पित कर दिया है। यहाँ हमें लगता है कि परमात्मा ऊपर हो गया है और यह नीचे। यह हमारी भूल है। समर्पण करने वाला भो नीचा नहीं हो सकता क्योंकि कल चाहे तो समर्पण वापस लौट सकता है । कल कहता है कि अब मैं समर्पण नहीं करता है। असल में कर्ता कैसे नीचे Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० महावीर : मेरी दृष्टि में हो सकता है ? समर्पण में भी कर्ता सदा ऊपर है। वह कहता है मैंने समर्पण किया है परमात्मा के प्रति । और अगर मैं नहीं हूँ तो समर्पण कोई कैसे करेगा, किसके प्रति करेगा। इसे समझ लें तो महावीर की स्थिति समझ में आ सकती है। महावीर नितान्त ही निरहंकार हैं। यानी उतना भी अहंकार नहीं है कि 'मैं' समर्पण करूं। वह 'मैं' तो चाहिए समर्पण के लिए। वह समर्पण कराने का कर्तव्यभाव चाहिए। और जैसा मैंने कहा कि जो व्यक्ति समर्पण करता है, वह समर्पण मांगता है। यह मांग एक ही सिक्के का हिस्सा है दूसरा। लेकिन महावीर ने समर्पण किया भी नहीं, मांगा भी नहीं। मेरी दृष्टि में यह परम निरहंकारिता हो सकती है । यानी समर्पण करने योग्य भी तो निरहंकार चाहिए। आखिर मैं ही समर्पित होऊँगा, नियन्ता को मैं ही स्वीकृत करूँगा। महावीर के अस्वीकार में ऐसा नहीं है कि 'नियन्ता' नहीं है । अस्वीकार का कुल मतलब इतना ही है कि स्वीकार नहीं है। 'अस्वीकार' पर जोर नहीं है । महावीर सिद्ध करते नहीं, घूम रहे हैं कि परमात्मा नहीं है, ईश्चर नहीं है। उनके अस्वीकार का कुल मतलब इतना है कि वह सिद्ध करते नहीं, घूम रहे हैं कि ईश्वर है, नियन्ता है। अस्वीकार फलित है, अस्वीकार घोषणा नहीं । वह सिर्फ स्वीकृति की बात नहीं कर रहे, न समपंण की बात कर रहे हैं। न वे यह कह रहे हैं कि कोई गुरु नहीं है, कोई शास्त्र नहीं है। वह यह भी नहीं कह रहे हैं कि वे गुरु के प्रति समर्पित नहीं हैं, शास्त्र के प्रति समर्पित नहीं है । यह फलित है जो हमें दिखाई पड़ता है कि वे समर्पित नहीं हैं । लेकिन समर्पण के लिए भी अहंकार चाहिए। अगर कोई व्यक्ति नितान्त अहंकार शून्य हो । जाए तो समर्पण कैसा ? कौन करेगा समर्पण ? समर्पण कृत्य है, कृत्य के लिए कर्ता चाहिए और अगर कर्ता नहीं है तो समर्पण जैसा कृत्य भी असम्भव है । फिर जब कोई कहता है कि मैंने समर्पण किया तो समर्पण से भी 'मैं' को ही भरता है। समर्पण भी उसके 'मैं' का ही पोषण है। वह समझता है कि 'मैं' कोई साधारण नहीं हूँ, मैं ईश्वर के प्रति समर्पित हूँ। एक सन्त के पास-तथाकथित सन्त कहना चाहिए-सम्राट अकबर ने खबर भेजी : बड़ा उत्सुक हूँ आपके दर्शन को, मिलने को, सुनने को । तथाकथित सन्त ने खबर भिजवाई पापिस कि हम तो सिर्फ राम के दरबार में झुकते हैं । हम बादमियों के दरबार में नहीं झुका करते। यह व्यक्ति क्या कह रहा है ? यह कह रहा है कि हम तो सिर्फ राम के सामने झुकते हैं, आदमियों के सामने Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ नहीं झुका करते। और हम राम के दरबार के दरबारी हो गए। ऊपर से लगता है यह आदमी कितनी बढ़िया बात कह रहा है। लेकिन बड़े गहरे अहंकार से निकली बात मालूम पड़ती है। अभी इसे आदमी और राम में फर्क है और यह निरन्तर यह भी कहे चला जा रहा है कि सब में राम है। अकबर भर को छोड़ देता है, अकबर में 'राम' नहीं है। सब में 'राम' देखे चला जा रहा है और अकबर में अटक जाता है, और वहां उसका अहंकार घोषणा कर देता है कि 'मैं कोई ऐसा आदमी थोड़े ही हूँ कि आदमियों के दरबारों में बैठू; मैं तो राम के दरबार का दरबारो हूँ। यह घोषणा बहुत गहरे अहंकार की सूचना है। इससे यह मत समझ लेना कि जिन्होंने भगवान् को स्वीकार किया है, वे अहंकार-शून्य होंगे। हो सकता है यह अहंकार की अंतिम चेष्टा हो। अहंकार भगवान् को भी मुठ्ठो में लेना चाहता है। उसको तृप्ति नहीं होती। संसार को मुट्ठी में ले लेने से आखिर में भगवान को भी ले लेना चाहता है। महावीर के पास एक सम्राट् गया। और सम्राट ने कहा : सब है आपकी कृपा से । राज्य है, सम्पदा है, अन्तहीन विस्तार है, सैनिक है, सुख हैं, सुविधा है, शक्ति है, सब है। लेकिन इधर मैंने सुना है कि मोक्ष जैसी भी कोई चीज है। तो मैं उसको भी विजय करना चाहता हूँ। क्या उपाय है ? कितना खर्च पड़ेगा ? हंसे होंगे महावीर । सम्राट् है, सब जीतना चाहता है। उसने बहुत इन्तजाम कर लिया है। अब इधर खबर मिली है कि मोक्ष जैसी भी एक चीज है, बोर ध्यान जैसी भी एक अनुभूति है तो उसके लिए भी खर्च करने को तैयार है। यानी ऐसा न रह जाए कि कोई कहे कि इस आदमी को मोक्ष भी नहीं मिला, ध्यान भी नहीं मिला। महावीर ने उससे कहा कि खरीदने को ही निकले हो तो जो तुम्हारे ही गांव में एक श्रावक है उसके पास चले जाना। उससे पूछ लेना कि एक सामायिक कितने में बेचेगा, एक ध्यान कितने में बेचेगा। खरीद लेना, उसको उपलब्ध हो गया है। तो नासमझ सम्राट् उस आदमी के घर पहुंचा और हैरान हुआ देखकर कि वह बहुत दरिद्र आदमी है। उसने सोचा कि इसको तो पूरा ही खरीद लेंगे। सामायिक का क्या सवाल है। यानी इसमें कोई झंझट ही नहीं है। पूरे आदमी को चुकता खरोदा जा सकता है । यह तो बड़ी सरल बात है। तो उसने कहा कि महावीर ने कहा है कि सामायिक खरोद लो उस आदमी से जाकर । तो वह आदमी हंसने लगा। उसने कहा कि चाहो तो मुझे खरीद लो लेकिन सामायिक खरीदने का कोई उपाय नहीं। Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ महापौर : मेरी दृष्टि में सामायिक पाई जा सकती है, उसे खरीदा नहीं जा सकता। लेकिन अहंकार उसको भी खरीदना चाहता है, भगवान् को भी खरीदना चाहता है। ऐसा कोई न कहे कि बस तुम्हारे पास धन ही धन है और कुछ भी नहीं। अहंकार धर्म को भी खरीदने जाता है । लेकिन हमें यह दिखाई पड़ना बहुत मुश्किल होता है। असल में कठिनाई क्या है ? हमारे मन में दो चीजें हैं : अहंकार या नम्रता । नम्रता अहंकार का ही रूप है, यह हमारे ख्याल में नहीं है। ___ अहंकार एक विधायक घोषणा है : नम्रता अहंकार को निषेधात्मक घोषणा है। महावीर नियन्ता के प्रति, गुरु के प्रति, परम्परा के प्रति न नम्र है, न अनम्र हैं। दोनों बातें असंगत हैं महावीर के लिए। इनसे कुछ लेना-देना नहीं है । मैं एक बड़े वृक्ष के पास निकलूँ और नमस्कार न करूं तो आप मुझे अनम्र न कहेंगे। लेकिन एक महात्मा के पास से निकलू और नमस्कार न करूं तो आप कहेंगे अनम्र है। लेकिन यह भी हो सकता है कि मेरे लिए महात्मा और वृक्ष दोनों बराबर हों। मेरे लिए दोनों असंगत हों, इस बात से ही मुझे कुछ लेना-देना न हो। लेकिन आप की तोल में एक स्थिति में मैं नम्र हो गया और एक स्थिति में अनम्र हो गया जबकि मुझे इसका कुछ पता ही नहीं। एक फकीर एक गाँव से निकल रहा है। एक आदमी एक लकड़ी उठा कर उसको मार रहा है पीछे से। चोट लगने पर लकड़ी उसके हाथ से छूट गई है और एक तरफ गिर गई है । उस फकीर ने पीछे लौट कर देखा, लकड़ी उठा कर उसके हाथ में दे दी और अपने रास्ते चला गया। एक दुकानदार यह सब देख रहा है, उसने फकीर को बुलाया और कहा कि तुम कैसे पागल हो ? तुम्हें उसने लकड़ी भारी, उसकी लकड़ी छूट गई तो तुमने सिर्फ इतना ही किया कि उसकी लकड़ी उसको उठाकर वापस दे दी और तुम अपने रास्ते चले गए । उस फकीर ने कहा कि एक दिन मैं एक झाड़ के नीचे से गुजर रहा था। उसकी एक शाखा गिर पड़ी मेरे ऊपर तो मैंने कुछ नहीं किया। मैंने कहा कि संयोग की बात है कि जब शाखा गिरी तो मैं उसके नीचे आ गया। मैं शाखा को रास्ते के किनारे सरका कर चला गया। संयोग की बात होगी कि उस आदमी को लकड़ी मारनी होगी हम पर तो इसकी लड़की टूट गई, उसको उठाकर दे दी, और हम क्या कर सकते थे ? हम अपने रास्ते चल पड़े। जो मैंने वृक्ष के साथ व्यवहार किया था वही मैंने इस आदमी के साथ भी किया। एक स्थिति ऐसी हो सकती है कि हमारे प्रश्न असंगत हो जाते हैं । क्योंकि हम जब सोचते हैं तो दो ही में सोच सकते हैं। और यह समझना गलत हो Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '४६३ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १५ जाता है । क्योंकि जिस तल पर हम समझ सकते थे उस तल पर उनका कोई भी रूप नहीं बनता है कि वे कैसे आदमी हैं । महावीर अनम्र हैं या विनम्र हैं यह तय करना मुश्किल है क्योंकि ऐसा कोई प्रसंग ही नहीं जिसमें वह कोई भी घोषणा करते हों । तब हमारे ऊपर ही निर्भर रह जाता है कि हम निर्णय कर लें और हमारा निर्णय वही होने वाला है जो हमारी तोल है, जो हमारा मापदण्ड है । महावीर उस तोल के बाहर हैं । इसलिए मैं कहता हूँ कि महावीर से ज्यादा निरहंकारी थोड़े ही लोग हुए हैं । हाँ, महावीर से ज्यादा नम्र कई लोग हुए हैं । महावीर से ज्यादा अहंकारी लोग भी हुए हैं लेकिन महावीर से ज्यादा निरहंकारो लोग मुश्किल से हुए हैं । महावीर से ज्यादा नम्र आदमी मिल जाएगा जो झुक-झुक कर नमस्कार करेगा । महावीर झुकेंगे नहीं, क्योंकि कौन झुके ? किसके लिए झुके ? फिर जब कोई आदमी झुकता है तो हम कहते हैं कि वह नम्र है लेकिन वह किसलिए झुकता है ? किसी अहंकार की पूजा में, किसी अहंकार के पोषण में वह झुकता है । और महावीर कहते हैं कि मेरा अहंकार तो बुरा है ही, किसी का भी अहंकार बुरा है । मैं झुकूं और आप की बोमारी बढ़ाऊँ ? मैं झुकूं आपके चरणों में और आपके दिमाग को फिराऊँ ? मैं झुकूंगा तो आपको बड़ा रस आएगा कि यह आदमी बड़ा नम्र है। लेकिन रस इसीलिए आएगा कि आपके अहंकार को तृप्ति मिलती चली जाएगी। महावीर से कोई पूछे तो वह कहेंगे कि देवताओं का दिमाग भी आदमियों ने ही खराव किया है । अगर कहीं भगवान् भी है तो अब तक पागल हो गया होगा । यह जो झुकना चल रहा है दूसरे के अहंकार का पोषण करता है । निरहंकारी न तो अहंकार में जीता है न अहंकार को पोषण देता है। इसलिए उसके जीवन का तल, उसकी अभिव्यक्ति बिल्कुल बदल जाती है । उसे पकड़ पाना मुश्किल हो जाता है कि हम उसे कहाँ पकड़ें, और कहाँ तोलें । महावीर के साथ भी यही कठिनाई मालूम होती है । प्रश्न : प्रेम में भी कोई शर्त है क्या ? तो फिर महावीर की शर्त क्यों ? उत्तर : मैं कहता हूँ कि प्रेम सदा बेशर्त है, क्योंकि जहाँ शर्त है वहाँ सौदा । जहाँ हम कहते हैं कि मैं तब प्रेम करूंगा जब ऐसा हो; या तुम ऐसे हो जाओ या ऐसे बनो, तब मैं तुम्हें प्रेम करूंगा ऐसा' आदमी प्रेम को शर्त से बाँध रहा है और प्रेम को खो रहा है। महावीर की शर्तों की बात प्रेम के सम्बन्ध में नहीं है । महावीर ऐसा नहीं कहते कि जगत् ऐसा करे तो मैं प्रेम करूंगा, जगत् मुझे भोजन दे तो मैं करूँगा । नहीं, यह तो बात ही नहीं है प्रेम का मामला Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૬૬ महावीर : मेरी दृष्टि में साथ हो कि मैं हवाई जहाज को नहीं जाने दूँगा चाहे मुझे मार डालो । प्रेरणा अपने ही जीवन अस्तित्व की है। खुद तो बच गए हैं, हवाई जहाज तो चला गया । उस मकान में जिसमें वह ठहरने गए थे, खुद तो नहीं ठहरे लेकिन किसी को नहीं कहा कि इसमें मत ठहरो, मकान रात को गिर जाएगा। मेहर बाबा को मैं गलत कहूँगा क्योंकि उन्हें बचने की आकांक्षा है और दलाई को मैं गलत नहीं कहूँगा क्योंकि उन्हें बचने की आकांक्षा ही नहीं है । दलाई के लिए बचने का यही सरल उपाय होता कि वह वहीं रह जाता है और चीनियों के जाता । दलाई मुश्किल में पड़ गया और बचा रहा है कुछ जो सबके काम का है । इसमें फर्क समझ लेना । मेहरबाबा बच रहे हैं खुद, दलाई बचा रहा है कुछ जो सबके काम का है। और उस बचाने में दलाई अपनी जान को दांव पर लगा रहा है । दलाई का भागना दाब पर लगाना है अपने को । और एक अर्थ में शायद वह कभी नहीं लौट सकेगा अब वह रुक भी जाता, सुलह कर लेता और वह राजा भी बना रह सकता था। लेकिन जहाँ तक सबके हित में आने वाली कोई बात हो, और कुछ ऐसी सम्पदा हो जो मेरे होने न होने से सम्बन्धित नहीं है और जो पीछे भी काम पड़ सकती है उसके बचाने के लिए जरूर कुछ श्रम किया जा सकता है । । फर्क सिर्फ इतना है कि तुम अपने या तुम्हारा कोई स्वार्थ नहीं है । इस दृष्टि सही कहूँगा । निर्णायक बात यह है कि दलाई को कोई छुरा मार दे महावीर भी यही श्रम कर रहे हैं । स्वार्थ के लिए उपयोग कर रहे हो से मैं एक को गलत और दूसरे को व्यक्ति का कोई अपना स्वार्थ निहित है या नहीं। तो दिक्कत नहीं है, कठिनाई नहीं है । लेकिन जो उसके पास है और निश्चित हो एक ऐसा गुह्य विज्ञान उसके पास है वह इस समय पृथ्वी के दो-चार लोगों की समझ में आ सकता है। क्योंकि पिछले डेढ़-दो हजार वर्षों से, सारी दुनिया कर रहा है । दूसरा महायुद्ध हुआ। दूसरा महायुद्ध जर्मन जीत सकता था सिर्फ एक आदमी जर्मनी छोड़कर भाग गया और जर्मनी को हारना पड़ा। वह आइंस्टीन था। कारण नहीं था । लेकिन जो रहस्य थे, वह एक आइंस्टीन के हाथ में थे । और वह था यहूदी । के कारण आइंस्टीन ने जर्मनी को छोड़ा था । जो एटम बम 'बना, वह बलिन में बना होता । रहस्य एक आदमी के पास था । वह रहस्य अमेरिका में उपयोगी हुआ । एटम बम बना, हीरोशिमा पर गिरा। हो सकता से अलग, तिब्बत एक प्रयोग । जर्मनी के हारने का दूसरा आदमी के और यहूदियों के हाथ में थे А सताए जाने अमेरिका में Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १५ ४६६ था कि लन्दन पर गिरता, न्यूयार्क पर गिरता, मास्को पर गिरता । एक बात पक्की थी कि आइंस्टीन के बिना वह कहीं भी न गिर सकता था जहाँ आइंस्टीन होता वह वहीं उसके काम में आने वाला था । आज दुनिया में दसबारह वैज्ञानिकों की इतनी कीमत है कि अरबों रुपये देकर एक वैज्ञानिक को चुरा लेना काफी बड़ी बात है । खरबों खर्च हो जाएं, कोई फिक्र नहीं है । वैज्ञानिक से रहस्य लेना काफी बड़ी बात है क्योंकि वह सिर्फ दस-बारह लोगों के हाथ में है । जिस तरह से पदार्थ विज्ञान सम्बन्ध में यह स्थिति हो गई है, ठीक वैसी स्थिति हो आज अध्यात्म-विज्ञान की है। मुश्किल से दुनिया में दो-चार लोग हैं जो उस गहराई पर समझते हैं । लेकिन उनके पास भी हजारों वर्षो के अनुभव का सार नहीं है । के एक आदमी था गुरजिएफ । उसने अपनी जिन्दगी के पहले वर्ष एक अद्भुत खोज में लगाए, जैसा इस सदी के किसी आदमी ने नहीं किया, पिछली सदियों में भी किसी ने नहीं किया । पन्द्रह-बीस मित्रों ने यह निर्णय लिया कि वे दुनिया के कोने-कोने में, जहां भी आध्यात्मिक सत्य छिपे हैं, चले जाएं और उन सत्यों को खोजकर लौट आएं और मिलकर अपने अनुभव बता दें ताकि एक सुनिश्चित विज्ञान बन सके। यह बीस आदमी दुनिया के कोने-कोने में चले गए; कोई तिब्बत में, कोई भारत में, कोई ईरान में, कोई ईजिप्ट में, कोई यूनान में, कोई चीन में, कोई जापान में । ये सारी दुनिया में फैल गए। इन बीसों आदमियों ने बड़ी खोज की, पूरी जिन्दगी लगा दी क्योंकि आदमी की जिन्दगी बहुत छोटी है, जो जानने को है वह बहुत ज्यादा है। अब अगर एक आदम सूफियों के पास सोखने को जाये तो पूरी जिन्दगी लग जाती है क्योंकि व्यवस्था के अनुसार एक फकोर एक सूत्र सिखाएगा, वर्ष लगा देगा, दो वर्ष लगा देगा, फिर कहेगा कि अब तुम फलां आदमी के पास चले जाओ । अब तुम दूसरे फकीर के पास चले जाओ और वर्ष भर सेवा करो उसकी । हाथ-पैर दाबो उसके । वह जो कहे मानों क्योंकि कुछ बातें ऐसी हैं कि वे तुम्हें तभी दी जा सकती हैं जब तुम धैर्य दिखलाओ; नहीं तो तुम उसके योग्य नहीं । अगर तुम धैर्यहान हो गए तो वे चोजें तुम्हें नहीं दी जा सकती । उन बीस लोगां ने सारो दुनिया मे खाज-बोन का ओर वे बीस लोग बूढ़े होते-होते लौटकर मिले। उनमें से कुछ मर गए, कुछ लोटे नहीं । कहीं खो गए, पता नहीं चला। लेकिन उनमें से चार लोटे | उन्होंने जो सूचनाएं दों उनके आधार पर गुरजिएफ ने एक पूरी साइंस खड़ी को उसमें उन सूत्रों की पकड़ उसके हाथों में आई जो सारी दुनिया में फैले हुए हैं । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७० महावीर : मेरी दृष्टि में । आध्यात्मिक विज्ञान के सम्बन्ध में तिब्बत के पास सबसे बड़ी सम्पदा है। और दलाई लामा के लिए उपयोगी रही है कि वह सब की फिक्र छोड़ दे, तिब्बत को फिक्र छोड़ दे। तिब्बत का बनना मिटना उतना कीमती नहीं है। तिम्बत के लोग इस राज्य में रहते हैं या उस राज्य में, यह कोई बड़े मूल्य की बात नहीं है । वे किस तरह की व्यवस्था बनाते हैं समाज की, शासन की, वह भी मूल्यवान् नहीं है। मूल्यवान् यह है कि इन डेढ़ हजार वर्षों में एक प्रयोगशाला की तरह तिब्बत ने जो काम किया है वे सूत्र नष्ट न हो जाएं, उनको भाग कर बचाना जरूरी है । न मेहर बाबा से कोई मतलब है मुझे, न दलाई लामा से कोई मतलब है । मेरा मतलब कुल इतना है कि एक दिशा वह है जहां हम परम कल्याण के लिए कुछ बचा रहे होते हैं और एक दिशा वह है जहाँ हम अपने कल्याण के लिए कुछ बचा रहे होते हैं । दोनों में फर्क करना जरूरी है। प्रश्न : (i) महावीर ने विधायक शब्द 'प्रेम' का उपयोग न करके निषेषात्मक शब्द, 'अहिंसा का उपयोग क्यों किया। प्रश्न : (ii) महावीर ने किसी की शारीरिक सहायता क्यों नहीं की? उत्तर : अहिंसा शब्द से ही निषेध का, नकारात्मक का बोध होता है । अहिंसा शब्द नकारात्मक है । महावीर ने क्यों उस शब्द का चुना? वह 'प्रेम' शब्द भी चुन सकते थे । 'प्रेम' विधायक शब्द है, प्रेम का मतलब होता है किसो को सुख देना । अहिंसा का मतलब होता है किसी को दुःख न देना। यानी अगर मैंने आपको दुःख नहीं दिया तो मैं अहिंसक हो गया। मगर इतने से ही बात हल नहीं होती। मैंने आपको सुख दिया कि नहीं ? अगर सुख दिया तो ही प्रेम पूरा होता है। 'प्रेम' तो विधायक शब्द है और जीसस ने प्रेम शब्द का प्रयोग किया है । अहिंसा निषेधात्मक शब्द है और महावीर ने अहिंसा शब्द का प्रयोग किया है। यह समझना बहुत जरूरी है । महावीर क्यों ऐसा प्रयोग करते हैं ? इसमें बड़ी गहराइयां छिपी हुई हैं । ऊपर से देखने से यही लगेगा कि 'प्रेम' शब्द का प्रयोग ही ठीक होता और जहाँ तक समाज का संबंध है, शायद ज्यादा ही ठीक होता। क्योंकि जिन लोगों ने महावीर का अनुगमन किया उन लोगों ने 'किसी को दुःख नहीं देना' यह सूत्र बना लिया। इसी कारण वे सिकुड़ते चले गए क्योंकि किसी को दुःख नहीं देना' इतना ही उनका विचार रहा, सुख देने की तो बात नहीं। चींटी पर से न दबे इतना काफी हो गया। चींटी भूखी मर जाए, इससे कोई प्रयोजन नहीं है हमारा । हमने चींटी को पैर से दबा कर नहीं मार, हमारा काम पूरा हो गया। महावीर का 'अहिंसा' शब्द समाज के Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ४७१ लिए महंगा पड़ा क्योंकि अहिंसा का अर्थ पकड़ा गया कि किसी को दुःख नहीं देना है बस बात खत्म हो गई। अपने को इससे ज्यादा कोई प्रयोजन नहीं है । और प्रयोजन तब बनता है जब हम किसी को सुख देने जाएं। अच्छा होता कि महावीर प्रेम शब्द का प्रयोग करते। लेकिन महावीर ने प्रेम का प्रयोग नहीं किया । यह बहुत कीमती बात है । और महावीर की दृष्टि बहुत गहरी है। - अहिंसा शब्द के प्रयोग करने में कई कारण हैं। पहला कारण यह है कि किसी को दुःख नहीं देना। यह कोई साधारण बात नहीं है । इसका मतलब इतना ही नहीं होता कि हम किसी को चोट न पहुँचाएं। अगर बहुत गहरे में देखें तो किसी क्षण में किसी को सुख न देना भी उसको दुःख देना है। उतने दूर तक अनुयायी की पकड़ नहीं हो सकी। मैं आपको दुःख न हूँ यह तो ठीक है । बहुत मोटा सूत्र हा कि आप को चोट न पहुंचाऊँ, आपकी हिंसा न करूं, तलवार न मारूं। लेकिन किसी क्षण यह भी हो सकता है कि मैं आपको सुख न पहुँचाऊँ तो निश्चित रूप से आपको दुःख पहुँचे । लेकिन यह पकड़ में आना साधारणतः मुश्किल था। महावीर इसको साफ कह सकते थे। लेकिन उन्होंने साफ नहीं कहा और उनके भी कारण हैं। क्योंकि महावीर की गहरी समझ यह है कि कभी-कभी किसी को सुख पहुंचाने से भी उसको दुःख पहुंच जाता है। यानी कभी-कभी आक्रामक रूप से किसी को सुख पहुंचाने की चेष्टा भी उसको दुःख पहुँचा सकती है। यह जरूरी नहीं कि आप सुख पहुँचाना चाहते हों इससे दूसरे को सुख पहुँच जाए। सुख पहुँचाने में भी दुःख पहुंचाया जा सकता है। सच तो यह है कि अगर कोई कोशिश करे किसी को सुख पहुँचाने की तो उसको दुःख पहुँचाता ही है। अगर बाप अपने बेटे को सुख पहुंचाने की कोशिश में लग जाए, उसके सुधार, उसकी नीति की व्यवस्था करने लगे और सोचे कि इससे उसे सुख पहुंचेगा तो सम्भावना इस बात की है कि बेटे को दुःख पहुँचेगा, और बाप जो भी चाहता है बेटा उसके विपरीत जाएगा इसलिए अच्छे बाप अच्छे बेटों को पैदा नहीं कर पाते । बुरे बाप के घर अच्छा बेटा पैदा भी हो सकता है । अच्छे बाप के घर अच्छा बेटा पैदा होना अपवाद है। अच्छा बाप बेटे को अनिवार्यतः बिगाड़ने का कारण बनता है। क्योंकि वह उसे इतना सुख पहुंचाना चाहता है बोर इतना शुभ बनाना चाहता है कि बेटे पर उसका यह सुख बोझ हो जाता है। __ यह बड़े मजे की बात है कि हम यदि किसी से सुख लेना चाहें तो ही ले सकते हैं । सुख इतनो सूक्ष्म चित्त दशा है कि कोई मुझे पहुँचाना चाहे तो नहीं Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ महावीर : मेरी दृष्टि में पहुँचा सकता। मैं लेना चाहूँ तो ही ले सकता हूँ । इसलिए महावीर ने पहुंचाने पर जोर हो नहीं दिया, बात ही छोड़ दी । हाँ, जो लेना चाहे, उसे दे देना क्योंकि नहीं दोगे तो उसे दुःख मत पहुँचाना। अगर कोई तुमसे सुख लेना चाहे तो दे देना, वह भी सिर्फ इसीलिए कि अगर तुम न दोगे तो उसे दुःख पहुँचेगा। लेकिन तुम सुख पहुँचाने मत चले जाना। क्योंकि अगर तुम सुख पहुँचाने गए तो सिवाय दुःख पहुँचाने के कुछ भी नहीं कर पाओगे। आक्रामक सुख पहुंचाने वाला आदमी दुःख ही पहुंचाता है । अगर जबरदस्ती हम किसी को सुखी करना चाहेंगे तो हम उसे दुःखो कर देंगे । जबरदस्ती में किसी को भी सुखी नहीं किया जा सकता है। जबरदस्ती में हिंसा शुरू हो जाती है। तो महावीर को पकड़ बहुत गहरी है। और भी एक गहराई है जो कि आज तक महावीर को समझने वाले लोगों की समझ में नहीं आई। और वह यह है कि अन्ततः परम स्थिति में जहां अहिंसा पूर्ण रूप से प्रकट होती है, या प्रेम पूर्ण रूप से प्रकट होता है-कोई भी नाम दें-उस परम स्थिति में न विधेथ है, न निषेध है। परम स्थिति में दोनों नहीं हैं। यह प्रश्न भी पूछा है आपने कि उन्होंने कभी किसी के शरीर को सहायता क्यों नहीं पहुंचाई ? गिरे हुए को क्यों नहीं उठाया ? प्यासे को पानी क्यों नहीं पिलाया ? भूखे को रोटी क्यों नहीं खिलाई ? बीमार के पैर क्यों नहीं दाबे? किसी के शरीर की सेवा क्यों नहीं की ? सवाल तो पूछने जैसा है। उसका भी कारण है । परम अहिंसा की स्थिति में व्यक्ति किसी को दुःख तो पहुंचाना ही नहीं चाहता, सुख भी पहुंचाना नहीं चाहता। क्योंकि बहुत गहरे में देखने पर सुख और दुःख एक ही चीज के दो रूप हैं। जिसे हम सुख कहते हैं वह दुःख का ही एक रूप है और जिसे हम दुःख कहते हैं, वह भी सुख का ही एक रूप है। घहत गहरे में जो देखेगा वह पाएगा कि जिसे हम सुख कहते हैं उसकी यात्रा अगर थोड़ी बढ़ा दी जाए तो वह दुःख में बदल जाता है । आप भोजन कर रहे हैं, बड़ा सुखद है । और आप ज्यादा भोजन करते चले जाएं तो सुख दुःख में बदल जाता है । आप मुझे प्रेम से आकर मिलें, मैंने आपको गले लगा लिया। बड़ा सुखद है एक तण, दो घृण । लेकिन मैं छोड़ता ही नहीं अब आप तड़फचे लगेंगे कि बाहों से कैसे छूट जाएं। पांच मिनट और तब सुख दुःख में बदल जाता है। और अगर आधा घंटा हो गया तो आप पुलिस वाले को चिल्लाते है कि 'मुझे बचाइये यह आदमी मुझे छोड़ता नहीं।' किस क्षण पर सुख दुःख में Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ४७३ बदल गया, बताना बहुत मुश्किल है । एक क्षण तक झलक थी सुख की, दूसरे क्षण में दुःख शुरू हो गया। एक प्रेमी है, एक प्रेयसी है। दोनों घड़ी भर मिलते हैं। बड़ा सुखद है । फिर पति-पत्नी हो जाते हैं और बड़ा दुखद हो जाता है। पश्चिम में जहाँ प्रेमविवाह प्रचलित है वहाँ एक अनुभव हुआ कि प्रेमी जितना प्रेयसी को सुखी करता है उतना ही दुःखी कर देता है । यह बड़ी अजीब बात है । सुख कब दुःख में बदल जाता है कहना मुश्किल है। सब सुख दुःख में बदल सकते हैं और ऐसा कोई दुःख नहीं जो सुख में न बदल सके। सब दुःख भी सुख में बदल सकते हैं । कितना ही गहरा दुःख है उसमें भी आप सम्भावनाएं देख सकते हैं सुख की। एक मां है। वह नौ महीने पेट में बच्चे को रखती है। दुःख हो उठाती है। प्रसव है, बच्चे का जन्म है। असह्य दुःख उठाती है लेकिन सब दुःख सुख में बदल जाता है। आगे की सुख की आशा दुःख को झेलने में समर्थ बना देती है । प्रसव-पीड़ा भी एक सुख की तरह आती है । बच्चे का बोझ भी सुख की तरह आता है। और उसे बच्चे को बड़ा करना लम्बे दुःख की प्रक्रिया है। लेकिन मां का मन उसे सुख बना लेता है। दुःख को हम सुख बना सकते हैं। अगर आशा, सम्भावना, आकांक्षा, कामना तीव्र हो तो दुःख सुख बन जाता है। सुख को भी हम दुःख बना सकते हैं। अगर सुख में सब आशा सब सम्भावना क्षीण हो जाए तो सुख दुःख बन जाता है। ___यानी इसका मतलब यह हुआ कि सुख और दुःख में कोई मौलिक भेद नहीं है, हमारी दृष्टि का भेद है। हम कैसे देखते हैं इस पर सब निर्भर करता है। हमारे देखने पर ही सुख दुःख का रूपान्तरण हो जाता है। एक आदमी के पैर में घाव है और डाक्टर आपरेशन करता है। आपरेशन का दुःख भी सुख बन जाता है क्योंकि वहाँ पीड़ा में छुटकारे की आशा काम कर रही है। आदमी जहरीली से जहरीली दवाई, कड़वी से कड़वी दवाई पी जाता है क्योंकि वहाँ. बीमारी से दूर होने की माशा काम करती है। आशा हो तो दुःख को सुख बनाया जा सकता है । और आशा क्षीण हो जाए तो सब सुख फिर दुःख हो जाते हैं । महावीर कहते हैं कि न तो तुम किसी को सुख पहुँचाओ, न तुम किसी को दुःख पहुँचामओ । जिस दिन कोई व्यक्ति उस स्थिति में पहुँच जाता है जहाँ वह न किसी को सुख पहुँचाना चाहता है, न किसी को दुःख पहुँचाना चाहता है वहीं से वह व्यक्ति सबको आनन्द पहुँचाने का कारण बन जाता है । इसे समझ लेना जरूरी है। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर । मेरी दृष्टि में . आनन्द पहुंचाने का कारण ही तभी कोई व्यक्ति बनता है जब वह सुख और दुःख के चक्कर से मुक्त होता है और उस दृष्टि को उपलब्ध होता है जहाँ सुख और दुःख का कोई मूल्य नहीं रह जाता। पर आनन्द को हम जानते नहीं। हमें कोई दुःख पहुंचाए तो हम पहचान जाते हैं कि यह आदमी बुरा है । हमें कोई सुख पहुँचाए तो हम पहचान जाते हैं कि यह आदमी अच्छा है । लेकिन हमें कोई आनन्द पहुंचाए तो हम बिल्कुल नहीं पहचान पाते कि यह आदमी कसा है क्योंकि हम आनन्द को पहचान ही नहीं पाते, पकड़ ही नहीं पाते। आनन्द उस चेतना से सहज ही विकोण होने लगता है जो चेतना सुख और दुःख के द्वन्द्व के पार चली जाती है। ऐसे व्यक्ति के जीवन से सहज ही आनन्द की. किरणें चारों तरफ फैलने लगती हैं। निश्चित हो जिनके पास आँखे होती है, वे उस आनन्द को देख लेते हैं। जिनके पास आँखें नहीं होती हैं, वे नहीं देख पाते। लेकिन सूरज को चाहे कोई देख पाए, चाहे न देख पाए, जो देखता है उसको भी सूरज गर्मो पहुँचाता है, और जो नहीं देखता है उसको भी गर्मी पहुँचाता है । फर्क इतना हो है कि नहीं देखने वाला कहता है : कैसा सूरज ? किस सूरज को धन्यवाद +, कोई सूरज कभी देखा नहीं, किसी ने कभी कोई गर्मी पहुँचाई नहीं। गर्मी अगर पहुँची है तो वह मेरो अपनो है क्योंकि सूरज का कोई पता नहीं । आँख वाला जानता है कि गर्मी सूरज से आई है और इसलिए अनुगृहीत भी है, धन्यवाद भी करता है, कृतज्ञ भी है । लेकिन अन्धे को समझना बहुत मुश्किल है। __ महावीर किसी के पैर दाब रहे हों तो हमें समझ में आ सकता है कि वह किसी की सेवा कर रहे हैं । यह ऐसा ही है कि जैसे घर में छोटे बच्चे होते हैं और अगर एक भिखमंगा आए और मैं उसे सौ का नोट उठाकर दे दूं, और वह बच्चा बाद में मुझसे पूछे कि आपने एक भी पैसा उसे नहीं दिया क्योंकि सौ के नोट का उसे कोई अर्थ ही नहीं होता। वह पहचानता है पैसों को। वह कहता है कि एक पैसा भी उसको नहीं दिया, आप कैसे कठोर हैं ? आया था मांगने, कागज पकड़ा दिया। भूखा था, कागज से क्या होगा ? एक पैसा दे देते कम से कम । और वह लड़का जाकर गांव में कहे कि बड़ी कठोरता है मेरे घर में । एक भिखमंगा आया था तो उसको कागज का टुकड़ा पकड़ा दिया। कागज के टुकड़े से किसी की भूख मिटी है क्या ? एक पैसा ही दे देते कम से कम । लेकिन पैसे का सिक्का बच्चा पहचानता है, रुपये के सिक्के से उसे कोई मतलब नहीं, और सौ के नोट का कोई अर्थ नहीं । महावीर निकल रहे हैं एक रास्ते से । एक Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- ११ आदमी किनारे पर लंगड़ा होकर पड़ा है । अगर महावीर उसके पैर दबाएं, तो हम पैसे के सिक्के पहचानने वाले लोग, एक फोटो निकाल देंगे, अखबार में छाप देंगे कि बड़ा अद्भुत सेवक है महावीर । लेकिन महावीर चुपचाप चले गए हैं । वह जो लंगड़ा पड़ा है किनारे पर, जरूर हो यह कहेगा कि यह कैसा आदमी है । मैं यहां लंगड़ा पड़ा है और यह चुपचाप चला जा रहा है । लेकिन उसके चुपचाप चलने में इतनी किरणें झर सकती है, इतनी तरंगें पैदा हो सकती हैं, इतना दान हो सकता है जितना कि हाथ का प्रयोग करने से नहीं । क्योंकि महावीर की गहरी से गहरी दृष्टि यह है कि जो शरीर नहीं है उसे शरीर से कोई सहायता नहीं पहुंचाई जा सकती। वह जो लंगड़ा पड़ा है वह पैर से लंगड़ा है । लेकिन हमें ख्याल नहीं है इस बात का कि दुःख के लंगड़े होने से नहीं पहुंचता । मैं पैर से लंगड़ा हूँ, इस चित्त के भाव से, इस आत्मभाव से पहुंचता है और जरूरी नहीं है कि उस लंगड़े का आप पैर ठीक कर दें तो कोई लाभ हो जायगा । महावीर को क्या जरूरी है, यह वह जानते हैं। जानने का मतलब यह है कि वे जितनी करुणा उस पर फेंक सकते हैं, फेंक कर चले जाएंगे । पैर 1 मैंने सुना है कि सूफी फकीर को एक रात किसी फरिश्ते ने दर्शन दिए और कहा कि परमात्मा तुम पर बहुत खुश है और कुछ मांग लो तो वह वरदान दे देगा । पर उसने कहा कि जब परमात्मा खुश है तो इससे बड़ा वरदान और क्या हो सकता है । बात खत्म हो गई, मिल गया जो मिलना था । लेकिन उस फरिश्ते ने कहा : "नहीं, ऐसे काम नहीं चलेगा ? कुछ मांगो।" तो उसने कहा कि अब कोई कमी ही न रही, जब परमात्मा खुश है तो कमी क्या रही : और जब परमात्मा हो खुश है तब खुशी ही खुशी है, दुःख आएगा कहाँ से ? तो अब मैं माँगू क्या ? अब मुझे भिखारी मत बनाओ, अब तो मैं सम्राट् हो गया । अगर तुम नहीं मानते हो तो तुम्ही दे जाओ जो तुम्हारी इच्छा है । उस फरिश्ते ने कहा कि मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम जिसको छू दो, मरा हो तो जिन्दा हो जाए, बीमार हो तो स्वस्थ हो जाए, सूखा वृक्ष हो तो हरे पत्ते निकल आएँ,' हरे फूल निकल आएँ । उसने कहा कि यह देते हो मुझे मत दो, कहीं मुझे ऐसा न लगने लगे कि मेरे हाथ कोई बीमार ठीक हुआ क्योंकि बीमार को तो फायदा हो जायगा किन्तु मुझे नुकसान हो जाएगा । तब फरिश्ते ने कहा कि और क्या उपाय हो सकता है । उस फकीर ने कहा कि मेरी छाया को दे दो कि मैं जहाँ से निकलूं, अगर छाया पड़ जाए किसी वृक्ष पर और वह सूखा हो तो हरा हो जाए लेकिन मुझे दिखाई भी न पड़े क्योंकि मैं तब तो ठीक है लेकिन सीधा ४७५ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में तक निकल ही चुका हूँगा। मैंने सूखा हो वृक्ष देखा था । मुझे पता भी नहीं चलेगा कि कब हरा हो गया । अगर किसी मरीज पर छाया पड़ जाए तो वह स्वस्थ हो जाएगा लेकिन मुझे पता भी न चले। मैं 'मैं' को भंझट में ही नहीं पड़ना चाहता । फिर कहते हैं उस फरिश्ते ने उसे वरदान दिया। फिर वह सूखे खेतों के पास से निकलता तो वे हरे हो जाते, और सूखे वृक्षों पर उसकी छाया पड़ जाती तो उनमें पत्ते निकल आते, और बीमार ठीक हो जाते, मुर्दे जिन्दा हो जाते, अन्धे को आंख मिल जाती, बहरे को कान मिल जाते । ये सब उसके आस-पास घटित होने लगा । लेकिन उसे कभी पता नहीं चला। उसे पता चलने का कारण भी न था क्योंकि उसकी छाया से यह घटित होते थे । उसका कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था । असल में जो परम स्थिति को उपलब्ध होते हैं, उनका होना मात्र करुणा है । उनकी मौजूदगी मात्र काफी है। जो भी होता है उनकी छाया से होता है । उन्हें कुछ सीधा नहीं करना पड़ता। जिनके पास ऐसी छाया नहीं हैं उन्हें कुछ सीधा करना पड़ता है। लेकिन वह पैसे के सिक्के हैं। हमें हिसाब मिल जाता है कि इन्होंने कितनो सेवा की, कितने कोढ़ियों की मालिश की, कितने बीमारों का इलाज किया, कितने अस्पताल खोले । ये बिल्कुल कौड़ियों की बातें हैं । इनका कोई भी मूल्य नहीं है बहुत गहरे में । ४७६ श्री अरविन्द आजादी के शुरू दिनों में आतुर थे और शायद उनसे अधिक प्रतिभाशाली कोई व्यक्ति हिन्दुस्तान की आजादी के आन्दोलन में कभी नहीं आया । लेकिन अचानक एक मुकदमें के बाद वह सब छोड़ कर चले गए । मित्र घबराये कि जिनसे प्रेरणा मिलती थी, वह आदमी चला गया । जाकर अरविन्द से कहा कि आप भाग आए । अरविन्द ने कहा, मैं भाग नहीं आया । पैसे कोड़ी का काम तुम्हीं कर लो, वह तुम कर सकोगे । मैं कुछ और बड़े काम में लगा हूँ जो मैं कर सकता हूँ। और इस मुल्क में, भारत की स्वतन्त्रता के लिए जितना काम अरविन्द ने किया उतना किसी ने भी नहीं किया । लेकिन भारत की स्वतन्त्रता के इतिहास में अरविन्द का नाम शायद ही लिखा जाए । क्योंकि अरविन्द ने जो काम किया उसका हिसाव कौड़ियों का हिसाब रखने वाले नहीं रख सकते। वह आदमी चौबीस घंटे जागकर सारे प्राणों से इस मुल्क को जिस भाँति बाम्दोलित करने की चेष्टा करता रहा उसका हम कोई हिसाब नहीं रख सकते । यह हो सकता है कि गांधी में जो बल था, था, सुभाष में जो ताकत थी, वह अरविन्द की थी । वह बल अरविन्द का Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ४७७ हिन्दुस्तान के विद्रोह और स्वतन्त्रता के इतिहास में जो सबसे बड़ा कीमती आदमो है, हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता के इतिहास में कभी उसका उल्लेख नहीं होगा, यह पक्का मानिए । लेकिन वह उस तल पर काम कर रहा है जिस तल पर हमारी कोई पकड़ नहीं है । वह उन तरंगों को पैदा करने की कोशिश कर रहा है जो मुल्क को सोई हुई तन्द्रा को तोड़ दें, जो विद्रोह के भाव को जगाएं, क्रान्ति को हवा लाएं। लेकिन हमें ख्याल भी नहीं। और जिस दिन कभी हजार दो हजार साल बाद विज्ञान समर्थ होगा इन सूक्ष्म तरंगों को पकड़ने में, शायद उस दिन हमें इतिहास बिल्कुल बदल कर लिखना पड़े। जो लोग हमें बहुत बड़े दिखाई पड़ते हैं इतिहास में वह दो कोड़ी के हो सकते हैं। और जिन्हें हम कभी नहीं गिनते थे, वे एकदम परम मूल्य पा सकते हैं। क्योंकि जब तक सौ रुपये का नोट पहचान में न आए तव तक बड़ी कठिनाई है। और वैज्ञानिक कहते हैं कि अगर एक फूल खिल रहा है, माली पानी डाल देता है, खाद डाल देता है और चला जाता है और एक संगीतज्ञ उसी के पास बैठ कर वीणा बजाता है, कल जब बड़े-बड़े फूल खिलेंगे तो संगीतज्ञ को कौन धन्यवाद देगा। संगीतज्ञ से मतलब क्या है फूल का। माली को लोग पकड़ेंगे कि तूने इतना बड़ा फूल खिला दिया, तेरे खाद, पानी और तेरो सेवा ने। लेकिन ध्वनि-शास्त्र कहता है कि मालो जो कुछ भी कर सकता है उसके करने का कोई बड़ा मूल्य नहीं है । लेकिन अगर व्यवस्था से संगीत पैदा किया जाए तो फूल उतना बड़ा हो जाएगा जितना कभी नहीं हुआ था। ऐसा संगीत भी बजाया जा सकता है कि फूल सुकड़ कर छोटा रह जाए और वह सिर्फ ध्वनियों का खेल है। जब ध्वनियां फूलों को बड़ा कर सकती हैं तो कोई वजह नहीं कि विशिष्ट चित्त की तरंगे देश की चेतना को ऊपर न उठाती हों। __ अभी रूस और अमेरिका के वैज्ञानिक इस चेष्टा में संलग्न हैं कि क्या इस तरह की ध्वनि तरंगे पैदा की जा सकती हैं कि पूरे मुल्क में आलस्य छा जाए । ' और इसमें वे काफी हद तक सफल होते चले जा रहे हैं। कोई कठिनाई नहीं है कि आने वाले युद्ध बमों का युद्ध ही न हों, वे सिर्फ ध्वनि तरंगों के युद्ध हों, भालस्य छा जाए। यानी रूस में रेडियो स्टेशन इस तरह को ध्वनिलहरियां पूरे भारत पर फेंक दें कि पूरे भारत का आदमी एकदम आलस्य से भर जाए। यानी उसको कुछ लड़ने का सवाल ही न रहे, कोई भाव हो न रहे, सैनिक एकदम सो जाएं और हमारी समझ में कुछ न आए कि यह क्या हो गया। हमारे भीतर जो सक्रियता है, वह सारी की सारी छीन ली जाए। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७८ महावीर ; मेरी दृष्टि में ओर ध्वनि तरंगे हमें घेरे लेकिन उससे भी गहरी हो पाया । उन तरंगों सेवा नहीं को और इल्जाम रहेगा जब इस पर बड़ा काम चल रहा है क्योंकि आखिर चारों हुए हैं । यह उन पर निर्भर है कि हम क्या करें ? तरंगे हैं जिनका अभी विज्ञान को ठीक-ठीक पता नहीं पर काम करने वाले लोग हैं । महावीर ने कभी किसी की यह एक उनके ऊपर इल्जाम रहेगा । लेकिन तब तक यह तक हम पैसे के सिक्के पहचानते हैं । जिस दिन हम सौ रुपये शुरू कर देंगे उस दिन यह इल्जाम नहीं रह जाएगा बल्कि इसका पता चलेगा कि जो पैर दबा रहे थे, इसलिए दबा रहे थे कि वे और बड़ा कुछ नहीं कर सकते थे । इसलिए पैर दबा कर तृप्ति पा रहे थे। लेकिन पैर दबाने से होता के नोट पहचानना क्या है ? महावीर की अहिंसा उस तल पर है जिस तल पर सुख-दुःख पहुँचाने का भाव बिदा हो गया है, जहाँ सिर्फ महावीर जीते हैं । विज्ञान में इन्हीं तत्त्वों को कैटेलेटिक एजेन्ट कहते हैं जिनकी मौजूदगी से ही कुछ हो जाता है। जो खुद कुछ नहीं करते हैं अब जैसे कि हाइड्रोजन और आक्सीजन । इन दोनों को आप पास ले आएँ तो वे मिलते नहीं, अलग-अलग ही रहते हैं । लेकिन बीच से बिजली चमक जाए तो वे दोनों मिल जाते हैं और पानी बन जाता है। बिजली की चमक कोई योगदान नहीं करती । उन दोनों के मिलाने में उसका कोई योगदान नहीं है । सिर्फ उसकी मौजूदगी में वे मिल जाते हैं। उससे न कुछ जाता है, न कुछ माता है, न कुछ मिलता है, न कुछ छूटता है । बस वह मौजूद हो जाती है और वे मिल जाते हैं। जिस भाँति भौतिक तल पर कैटेलेटिक एजेन्ट हैं, वैसे ही आध्यात्मिक तल पर कुछ लोगों ने उनकी स्थिति को छुआ है, जहाँ उनकी मौजूदगी सिर्फ काम करती है, जहाँ वे कुछ भी नहीं करते । यानी महावीर की मौजूदगी ही काम कर देगी इस जगत् में जब वे मौजूद हैं। महावीर और कुछ भी नहीं करेंगे, वह सिर्फ हो जाएँगे । उनका होना काफी है । चेतना के बल पर उनकी मौजूदगी हजारों, लाखों चेतनाओं को जगा देगी, स्वस्थ कर देगी, लेकिन अभी इसकी खोज-बीन होना बाकी है वैज्ञानिक तल पर | आध्यात्मिक तल पर तो खोज-बीन पुरानी है । लेकिन विज्ञान की भाषा में अध्यात्म को समझाया जा सके यह कभी किसी ने सोचा ही नहीं है । यह कभी आप सोचते ही नहीं हैं कि आप हर हालत में वही नहीं होते । आप हर स्थिति में बदल जाते हैं। अगर आप मेरे सामने हैं तो आप बही आदमी नहीं हैं जो आप घड़ी भर पहले थे। आपके भीतर कुछ ऐसा उठ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरप्रवचन-१५ ४७९ आएगा जो आपके भीतर कभी नहीं उठा था। और उसमें कुछ मैं भी नहीं कर रहा हूँ। वह उठ सकता है मेरी मौजूदगी में । तो बहुत गहरे तल पर काम करने वाले लोग हैं, बहुत गहरे तल पर सेवा है। लेकिन चूंकि हम पैसों के सिक्के पहचानते हैं, इसलिए कठिनाई हो जाती है ! महावीर पर यह इल्जाम रहेगा। इसको मिटाया नहीं जा सकता। जिस दिन यह मिटेगा, उस दिन वे जिनकी वजह से यह इल्जाम था, दो कौड़ी के हो जाने वाले हैं। तब महावीर एक नये अर्थ में प्रकट होंगे जिसका हिसाब लगाना अभी मुश्किल है । अरविन्द ने जरूर एक चेष्टा की है इस युग में, भारी चेष्टा की है, बड़ा श्रम उठाया है इस दिशा में लेकिन उनको भी पहचानना मुश्किल पड़ रहा है और उनको भी सहयोग नहीं मिल पाता। यह हमारी कल्पना के ही बाहर है कि एक गांव में एक आदमो के हट जाने से पूरा गांव बदल जाता है । वह कुछ भी नहीं करता था, बस वह था। तो भी उसके बदल जाने से पूरा गांव बदल जाता है। जबलपुर में एक फकोर थे मग्घा बाबा। वह ऐसे अद्भुत आदमी हैं कि उनकी चोरी भी हो जाती है। उन्हें अगर कोई उठाकर ले जाए तो वह चले जाते हैं। उनकी कई बार चोरी हो चुकी है। वह वर्षों के लिए खो जाते हैं । क्योंकि कोई गांव उनको चुराकर ले जाता है क्योंकि उनकी मौजूदगी के भी परिणाम हैं। अभी वह दो साल से चोरी चले गये हैं। पता नहीं कौन ले गया है उनको उठाकर। ऐसा कई दफा हो चुका है। उनको किसी ने उठा कर गाड़ी में रख लिया तो वह यह भी नहीं कहेंगे कि क्या कर रहा है, कहाँ ले जा रहा है, क्यों ले जा रहा है ? मगर उनकी मौजूदगी के कुछ अच्छे परिणाम हैं जो लोगों को पता चल गये हैं। तो लोग उनको चुराकर ले जाते हैं । और जिस गांव में वह होते हैं, जिस घर में वह होते हैं, वहाँ को सब हवा बदल जाती है। वहाँ कुछ भी नहीं रहता। और वह पड़े रहते, सोये रहते हैं ज्यादातर । वह कुछ नहीं बोलते। लोग आकर उनको सेवा करते रहते हैं। ऐसा अक्सर हो जाता है कि उनको चौबीस घंटे ही नहीं सोने देते। दिन-रात उनकी सेवा करते हैं। एक रात मैं उनके पास से गुजरा, कोई दो बजे थे। उन्होंने मुझसे कहा : मुझ पर कुछ कृपा करो। लोगों को समझाओ। चौबीस घण्टे दबाते रहते हैं। कभी दो-चार आदमी इकट्ठे दबा रहें हैं । तो वह बूढ़ा आदमी बेचारा लेटा है और कोई आदमी पैर दबा रहा है, कोई सिर दबा रहा है। उनकी सेवा का आनन्द है और उनके पास होने में आनन्द है । कोई जरूरत नहीं कि वह कुछ करें। Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० महावीर : मेरी दृष्टि में प्रश्न : बहुत विशाल पृथ्वी है, इस विशाल पृथ्वी पर छोटे से भारत में और वहाँ भी दो-तीन प्रदेशों में ही चौबीस तीर्थकर क्यों हुए ? हर कहीं क्यों नहीं हुए? उत्तर : यह हर कहीं नहीं हो सकते । क्योंकि प्रत्येक की मौजूदगी दूसरे के होने को हवा पैदा करती है। यह एक शृंखला है इसमें वह एक जो मौजूद था उसने उस क्षेत्र की, उस प्रदेश की, चेतना को एकदम ऊँचा उठा दिया। इस ऊँची उठी हुई चेतना में ही दूसरा तीर्थकर पैदा हो सकता है । एक शृंखला है उसमें । और यह भी जानकर आप हैरान होंगे कि जब दुनिया में महापुरुष पैदा होते हैं तो करीब-करीब एक शृंखला की तरह सारी पृथ्वी को घेर लेते हैं। महावीर, बुद्ध, गोशाल, अजित, संजय, पूर्ण काश्यप-ये सब हुए पांच सो वर्ष के बीच में बिहार में। उन्हीं पांच सौ वर्षों में एथेन्स में सुकरात, अरस्तू, प्लेटो हुए हैं। यानी पांच सौ वर्षों में सारी पृथ्वी पर एक श्रृंखला घूम गई जिसे कि अब विज्ञान समझता है शृंखलाबद्ध विस्फोट । अगर हम एक हाइड्रोजन बम के अणु को फोड़ दें तो उसकी गर्मी से पड़ोस का दूसरा हाइड्रोजन बम फूट जाएगा और उसकी गर्मी से तीसरा और उसकी गर्मी से चौथा । और एक हाइड्रोजन बम के फूटने पर पृथ्वी नहीं बनेगी क्योंकि शृंखला में पृथ्वी के सारे हाइड्रोजन एटम टूटने लगेंगे। सूरज इसी तरह गर्मी दे रहा है। सिर्फ पहली बार हाइड्रोजन एटम कभी अरबों, खरबों वर्ष पहले टूटा होगा। और वह भी हुआ होगा किसी बड़े तारे की मौजूदगी से जो करीब से गुजर गया होगा । इतना गर्म रहा होगा वह तारा कि उसके करीब से गुजरने से एक अणु टूट गया होगा । उसके टूटने से उसके पड़ोस का अणु टूटा होगा, उसके टूटने से उसके पड़ोस का और तब से सूरज के आस-पास जो होलियन की गैस इकठ्ठी है उसके अणु टूटते चले जा रहे हैं । उन्हों से हमें गर्मी मिल रही है । इसीलिए वैज्ञानिक कहते हैं कि चार हजार साल बाद सूरज ठंडा हो जाएगा क्योंकि अव जितने अणु बचे हैं वे चार हजार साल में खत्म हो जाएंगे। यह शृंखला चल रही है। जैसे पदार्थ के तल पर शृंखलाबद्ध स्फोट ( एक्सप्लोजन ) होता है वैसे ही अध्यात्म के तल पर शृंखलाबद्ध स्फोट होता है। जैसे एक मकान में आग लग गई तो पड़ोस के मकान में आग लग जाए,पड़ोस के मकान में लग गई तो उसके पड़ोस में लग जाए, और इस प्रकार पूरा गांव जल जाए वैसे ही एक आदमी महावीर की कीमत का पैदा होता है तो सम्भावना पैदा कर देता है उस कीमत Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ જવા प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १५ के सैकड़ों लोगों के पैदा होने की। ऊपर से दिखता है कि महावीर और बुद्ध दुश्मन हैं । लेकिन महावीर के विस्फोट का फल हैं बुद्ध । फल इन अर्थों में कि अगर महावीर न हों तो बुद्ध का होना मुश्किल है । ऊपर से लगता है कि अजित, पूर्ण काश्यप, गोशाल सब विरोधी हैं । लेकिन किसी को ख्याल नहीं है इस बात का कि वे सब एक ही श्रृंखला के हिस्से हैं । एक का 'विस्फोट हुआ है तो हवा बन गई है । उसको उपस्थिति ने सारी चेतनाओं को इकट्ठा कर दिया है और आग पकड़ गई है। अब इस आग पकड़ने में जिनकी सम्भावना ज्यादा होगी वह उतनी तीव्रता से फूट जाएँगे । इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि एक युग में एक तरह के लोग पैदा हो जाते हैं। एक वक्त में, एक प्रदेश में, एकदम से प्रतिभा प्रकट होती है । इस प्रतिभा के भी आन्तरिक नियम और कारण हैं, तो चौबीस तीर्थंकरों का पैदा होना सीमित क्षेत्र में और वहीं-वहीं, एक ही देश में उसका कारण है । उस तरह की प्रतिभा के विस्फोट के लिए हवा चाहिए । प्रश्न : शृङ्खला में चौबीस व्यक्ति ही क्यों होते हैं ? पच्चीस क्यों नहीं होते, तीस क्यों नहीं होते ? उत्तर : हीं उसका भी कारण है । उसका संख्या से कोई सम्बन्ध नहीं है । असल में पच्चीस होते हैं, छब्बीस होते हैं, सत्ताईस होते हैं, कितने ही होते हैं इसका संख्या से कोई सम्बन्ध नहीं है । लेकिन जब एक श्रृंखला में एक बहुत ही प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा हो जाता है जैसे कि चौबीस तीर्थंकरों की शृंखला में महावीर सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं तब हमें परम बात उपलब्ध हो जाती है। जो जानना था, वह जान लिया गया है, जो पहचानना था, वह पहचान लिया गया है । जो कहना था, वह कह दिया गया है । और अनुयायी को हमेशा डर होता है कि अगर प्रतिभा के लिए आगे द्वार खुले तो प्रतिभा हमेशा अस्त-व्यस्त कर देती है क्योंकि वह विद्रोही है और अराजक है । तो अनुयायी भयभीत होता है । वह अपनी सुरक्षा के लिए व्यवस्था कर लेता है । वह कहता है कि अब बस ठोक है । प्रश्न: बीस तक क्या कम हैं ? उत्तर : हां, कम ही हैं। इन चौबीस तीर्थंकरों में महावीर केन्द्र हैं । इनके मुकाबले में कोई आदमी नहीं है। ज्ञान तो बराबर उपलब्ध होता है सबको । लेकिन महावीर के बराबर कोई अभिव्यक्ति नहीं कर पाता है, कोई समझा नहीं पाता है, कोई खबर नहीं पहुंचा पाता है । ३१ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ महावीर : मेरी दृष्टि में 'प्रश्न : आपकी राय में कोई पच्चीसवां तीर्थकर हो सकता है ? उत्तर : होता ही रहता है। जैन मना कर देते हैं तो पच्चीसवा तीर्थकर नम्बर एक बन जाता है किसी दूसरी श्रृंखला का। अगर पच्चीसवां होता तो बुद्ध को अलग शृंखला की जरूरत न पड़ती । बुद्ध पच्चीसवें हो जाते । कठिनाई यह है कि जब भी कोई परम्परा अपने अन्तिम पुरुष को पा लेती है तो फिर वह उसके बाद दूसरों के लिए बार बन्द कर देती है स्वाभाविक रूप से क्योंकि फिर वह उपद्रव नहीं लाना चाहती क्योंकि नई प्रतिभा नया उपद्रव लाती है। इसलिए वह सुनिश्चित हो जाती है कि हमारी बात पूरी हो गई, हमारा शास्त्र पूरा हो गया है, अब हम शृङ्खलाबद्ध हो जाते हैं, अब हम दूसरे को मौका नहीं देंगे। इसीलिए फिर पच्चीसवें को नई शृङ्खला का पहला होना पड़ता है। बुद्ध पच्चीसवें हो गए होते। कोई बाधा न थी। मगर इन्होंने द्वार खोल रखे होते। लेकिन एक और कारण हो गया कि बुद्ध मौजूद थे उसी वक्त । और द्वार बन्द कर देने एकदम जरूरी हो गए। क्योंकि अगर बुद्ध आते हैं तो सब अस्त-व्यस्त हो जाता है। जो महावीर कह रहे हैं उसको अस्त-व्यस्त कर देंगे, नई व्यवस्था देंगे। वह नई व्यवस्था मुश्किल में डाल देगी । इस वजह से एकदम दरवाजा बन्द कर दिया गया कि चौबीस से ज्यादा हो ही नहीं सकते और चौबीसवां हमारा हो चुका है। प्रश्न : यह अनुयायियों ने किया ? उत्तर : यह अनुयायियों की व्यवस्था है सारी। अनुयायो बहुत भयभीत है, एकदम भयभीत हैं। समझ लें कि आप मुझे प्रेम करने लगे और मेरी बात आपको ठीक लगने लगे तो आप एक दिन दरवाजा बन्द कर देंगे क्योंकि आपको लगेगा कि दूसरा आदमी अगर आता है और फिर वह उनको सब बातें गड़बड़ 'कर देता है तो आपको पीड़ा होगी उससे । आप दरवाजा ही बन्द कर देंगे कि बस अब कोई जरूरत नहीं है। इसलिए मुहम्मद के बाद मुसलमानों ने दरवाजा बन्द कर दिया । जीसस के बाद ईसाइयों ने दरवाजा बन्द कर दिया । बुद्ध के बाद बौद्धों ने दरवाजा बन्द कर दिया। एक मैत्रेय को कल्पना चलता है कि कभी बुद्ध एक और अवतार लगे मैत्रेय का । लेकिन वह भी बुद्ध हो लेंगे, कोई दूसरा आदमी नहीं लेगा। यहाँ सबसे ज्यादा प्रभावशाली आदमी इन दो-तीन सौ वर्षों में रमण और कृष्णमूति हैं। लेकिन न तो रमण के पीछे शृङ्खला बन सकी और न Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १५ જન્મ और रमण के कृष्णमूर्ति के पोछे बनेगी । कृष्णमूर्ति बनाने के विरोध में हैं पोछे बन नहीं सको । उस कोमत का आदमा नहीं मिला जो बढ़ा सके आगे बात को । रामकृष्ण को विवेकानन्द मिले। विवेकानन्द बहुत शक्तिशाली व्यक्ति थे, अनुभव नहीं । शक्तिशाला होने को वजह से उन्होंने चक्र तो चला दिया लेकिन चक्र में ज्यादा जान नहीं है। इसलिए वह जाने वाला नहीं है । रामकृष्ण बहुत अनुभवी हैं लेकिन शिक्षक होने की, तोथंकर होने की कोई स्थिति नहीं है उनकी । शिक्षक वह नहीं हो सकते इसलिए ऐसा कई बार होता है कि कंधे पर हाथ विवेकानन्द के कन्धे पर जब कोई व्यक्ति शिक्षक नहीं हो सकता तो वह दूसरे व्यक्ति के रखकर शिक्षण का कार्य करता है । तो राम कृष्ण ने हाथ रखकर शिक्षक का कार्य विवेकानन्द से लिया । लेकिन गड़बड़ हो गई । रामकृष्ण अपने आप शिक्षक नहीं हो सकते और विवेकानन्द अनुभवा नहीं हैं । इसलिए सब गड़बड़ हो गई । अस्त-व्यस्त हो गया सब मामला और फिर राम-कृष्ण को मृत्यु हो गई । फिर विवेकानन्द रह गए । विवेकानन्द ने जो शक्ल दी उस व्यवस्था को वह विवेकानन्द का है। विवेकानन्द एक बहुत बड़े व्यवस्थापक हैं । अगर विवेकानन्द को अनुभव होता तो एक श्रृंखला शुरू हो जाती । लेकिन वह नहीं हो सकी क्योंकि विवेकानन्द को काई अनुभव नहीं था । और जिसको अनुभव है वह व्यवस्थापक नहीं । रनरण के साथ हो सकती थी घटना क्योंकि वह उसी कीमत के आदमी हैं जिस कीमत के बुद्ध या महावीर हैं लेकिन वह नहीं हो सका क्योंकि काई आदमो नहीं उपलब्ध हो सका । कृष्णमूर्ति उसके विरोध में हैं इसलिए काई सवाल उठता नहो । प्रश्न : पश्चिम में भी क्या यह श्रृंखला है ? उत्तर : पश्चिम में भी यह शृङ्खला है । पश्चिम में भी फकीरों की श्रृंखला है । जैसे जीसस की श्रृंखला चलो थोड़े दिनों तक । फिर शृङ्खला का द्वार बन्द . हो गया । उसके बाद दूसरो शृङ्खला चलो । जर्मनी में एकहार्ट नाम का एक बहुत कीमत का आदमी हुआ। लेकिन वह शृङ्खला नहीं पकड़ सका क्योंकि वह कोई शिक्षक नहीं था । जो बातें कहता है वे बेबूझ हो जाती हैं । समझाने की समझ न हो तो समझाया नहीं जा सकता । कुछ बातें एकदम विरोधी मालूम होती हैं । समझ लो तो ही उनके विरोधाभास को मिटाया जा सकता है और समझ के करीब लाया जा सकता है । बोहमे हुआ जर्मनी में । वह भी एक शृङ्खला बन सकता था लेकिन नहीं बन सका । सब शृङ्खलाएं धीरे-धीरे मर Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ महावीर : मेरी दृष्टि में जाती है। जैसे जापान में जेन शृङ्खला चलती है । उसमें अभी भी एक प्रतिभाशाली आदमी या सुजूकी । लेकिन वह मर गया। उसने बड़ी कोशिश की कि वह गति दे दे लेकिन वह गति नहीं हो पाई। और फिर होता क्या है ? जब कोई महापुरुष एक शृङ्खला को जन्म दे जाता है अगर उसके बाद छोटे-छोटे लोग इकट्ठे हो जाएँ और वे उसके दावेदार हो जाएँ वो दोहरा नुकसान पहुंचता है । एक तो वे कुछ चला नहीं सकते और दूसरा जब कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति उस शृङ्खला में पैदा भी हो जाए तो उसे उस शृङ्खला के बाहर कर देते हैं। वह नासमझों की भीड़ उसे एकदम बाहर कर देती है । असल में जीसस यहूदी शृङ्खला का हिस्सा हो सकता था। लेकिन यहूदी भीड़ जीसस को बर्दाश्त न कर सकी। उस भीड़ ने बाहर कर दिया उसको। यहूदियों का बेटा यहूदियों के बाहर हो गया और ईसाइयत शुरू हो गई । अब ईसाइयत के बीच जो भी कीमती आदमी पैदा होता है, ईसाइयत उसको बाहर कर देती है फौरन । होता क्या है कि वह जो नासमझों की भीड़ इकट्ठी हो जाती है, वह फिर किसी प्रतिभा को बर्दाश्त नहीं कर सकती। और जो प्रतिभा श्रृंखला को जिन्दा रख सकती है, उसको वह बाहर कर देती है। तब नई मङ्खलाएं शुरू हो जाती हैं। दुनिया में सिर्फ कोई पचास शृंखलाएँ चली है, थोड़ी-बहुत चलीं, टूट गई और मिट गई। मेरा कहना है कि दुनिया को जितना आध्यात्मिक लाभ पहुंच सकता था इन सबसे वह नहीं पहुंच पाया। और बब हमें चाहिए कि हम सारी व्यवस्था तोड़ दें सम्प्रदाय की ताकि प्रतिभा को बाहर निकालने का उपाय ही न रह जाए कहीं से भी। जैसे थियोसाफी को भङ्खला थी बड़ी कीमती। उसे ब्लेवटस्को ने शुरू किया और वह कृष्णमूर्ति तक आई। लेकिन कृष्णमूर्ति इतने साहसो साबित हुए कि थियोसोफिस्ट बर्दाश्त नहीं कर सके । थियोसोफिस्टों ने कृष्णमूर्ति को बाहर कर दिया। पियोसोफिस्ट शृंखला मर गई। वह मर गई इसलिए कि जो कीमती आदमी उसे गति दे सकता था उसको तो बाहर निकाल दिया। जब तक दुनिया से सम्प्रदाय मिट न जाएं, सीमाएं मिट न जाएँ, तब तक विस्फोट छू नहीं पाता। जैसे इस मकान में आग लगी तो पड़ोस के मकान में इसलिए आग लग सकती है कि वह उससे जुड़ा हुआ है। अगर बीच में एक गली है तो माग नहीं लग सकती। अब अगर रमण पैदा भी हो जाएं तो ईसाइयत से उनका कोई सम्बन्ध नहीं जुड़ता क्योंकि मकान अलग-अलग हैं । तो पहला बहुत दफा पैदा होती है। लेकिन वे जो अलग-अलग टुकड़े बनाकर Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १५ ४८५ रखे हुए हैं वह उन्हीं में भटक कर मर जाती है। बाहर जाने का कोई उपाय नहीं । और अगर दुबारा कोई प्रतिभाशाली व्यक्ति पैदा हो जाय तो वह भीड़ उसे निकाल बाहर कर देतो है कि हमारे घरों में इसे रहने नहीं देना, यह आग लगवा देगा, और उसको फिर नया घर बनाना पड़ता है, और नया घर बनाना मुश्किल है। मतलब यह कि वह मुश्किल से जिन्दगी भर में थोड़े बहुत लोग इकट्ठा कर पाता है । तो अब तक आध्यात्मिक जगत् में जो नुकसान पहुँचता रहा है मनुष्य को वह इसलिए कि जो सम्प्रदाय हैं, सीमाएँ हैं वे बहुत सख्त और मजबूत हो जाती हैं । पच्चीसवाँ तीर्थंकर पैदा हो सकता है निरन्तर । इसमें कोई कठिनाई नहीं है । छब्बीसवाँ होगा, इसमें कोई सवाल ही नहीं है, कोई सीमा नहीं, कोई संख्या नहीं । प्रश्न : महावीर का कुछ काम बाकी रहे तब पच्चीसवां हो सकता है ? उत्तर : काम तो कभी खत्म होता ही नहीं । महावीर का थोड़े ही कोई काम है ? काम तो यहाँ ज्ञान और अज्ञान की लड़ाई का है, मूर्च्छा और अमूर्च्छा का है । महावीर का थोड़े ही कोई काम है । प्रश्न : मुसलमानों में भी फकीर हुए हैं क्या मुहम्मद के बाद ? उत्तर : हाँ, मुहम्मद के बाद बहुत लोग हुए हैं लेकिन उन्हें निकाल दिया मुसलमानों ने बाहर । जैसे वायजिद हुआ । उसे बाहर निकाल दिया फौरन । जैसे मन्सूर हुआ । गर्डन उड़ा दी उसकी। मुहम्मद के बाद जो भी कीमती आदमी हुए वे अलग हिस्सा हो गए सूफियों का । मुसलमान फिक्र नहीं करता उनको मानने की और सूफियों में भी सिलसिले बढ़ते चले गए । प्रश्न : सूफी किसे कहते हैं मोटे तौर पर ? उत्तर : सूफो मुसलमानों के बीच में क्रान्तिकारी रहस्यवादियों का एक वर्ग है जैसा कि बौद्धों में ज़ेन फकोरों का एक वर्ग है, जैसा यहूदियों में 'हसीत' फकीरों का एक वर्ग है । यह सब बगावती लोग हैं जो परम्परा में पैदा होते हैं लेकिन इतने कोमती हैं कि उनको बगावत करनी पड़ती है । अब जैसे कि मुहम्मद के पोछे नियम बना कि एक ही अल्लाह है और उस अल्लाह का एक ही पैगम्बर है : मुहम्मद । सूफियों ने कहा कि एक अल्लाह है, यह तो बिल्कुल सच है लेकिन पैगम्बर हजारों हैं । बस झगड़ा शुरू हो गया । मुसलमान जब मस्जिद में नमाज पढ़ता है तो वह कहता है कि एक ही परम्परा है और एक उसका पैगम्बर है मुहम्मद । सूफी भी मस्जिद में नमाज पढ़ता है लेकिन वह • Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ महावीर : मेरी दृष्टि में कहता है कि एक ही परमात्मा है लेकिन पैगम्बर अर्थात् सन्देश लाने वाले तो हजारों हैं । क्योंकि वह कहता है कि महावीर भी ठीक, बुद्ध भी ठीक, जीसस भी ठीक, यह सभी पैगम्बर है । एक ही खबर लाने वाले ये अनेक लोग है। मगर यह मुसलमान की बरदाश्त के बाहर है। अभी मेरा एक वक्तव्य छपा। उसमें मैंने महावीर के साथ मुहम्मद और ईसा का नाम लिया । तो एक बड़े जैन मुनि हैं, जिनके बड़े भक्त हैं, उनको वह किताब किसी ने न दी तो उन्होंने उसे उठाकर फेंक दिया और कहा कि महावीर का नाम मुहम्मद के साथ ! कहाँ मुहम्मद कहाँ महावीर ! महावीर सर्वज्ञ तीर्थकर और महम्मद साधारण अज्ञानी। कहाँ मेल बैठा दिया। दोनों का नाम साथ दिया, यही पाप हो गया। फिर उन्होंने कहा कि इसको मैं पढ़ ही नहीं सकता। तो वही मुहम्मद को मानने वाला भी कहेगा कि मुहम्मद का नाम महावीर के साथ लिख दिया। कहाँ पैगम्बर मुहम्मद और कहाँ महावीर ? क्या रखा है महावीर में । तो वह जो सूफी वहेगा कि सब पैगम्बर हैं उसी के, वह बरदाश्त के बाहर हो जाएगा। अज्ञानियों की भीड़ में ज्ञान सदा बरदाश्त के बाहर हो जाता है, इसलिए कठिनाई हो जाती है। सबकी चेतना समान है किन्तु अभिव्यक्ति बिल्कुल अलग-अलग हैं। मुहम्मद मुहम्मद हैं, महावीर महावीर हैं । अभिव्यक्ति अलग-अलग होगी । मुहम्मद जो बोलेंगे, वह मुहम्मद का बोलना है। अपनी भाषा होगी, अपनी परम्परा के शब्द होंगे। अभिव्यक्ति अलग-अलग होगी । अनुभूति बिल्कुल एक है। प्रश्न : सबकी एक-एक अभिव्यक्ति है तो उनके सुनने वाले समझ कर साधना में लग जाते हैं। फिर आपने सव अभिव्यक्तियों को अलग-अलग बात की है तो आपके सुनने वालों का क्या होगा? उत्तर : मेरे सुनने वालों को बड़ी कठिनाई है क्योंकि अगर मैं कोई एक ही बात कहता तब बहुत आसान था मेरे पीछे चलना। पहली बात कि मैं पीछे नहीं चलाना चाहता किसी को। जरूरत ही नहीं मेरे पीछे चलने की । दूसरी बात मैं चीजों को इतना आसान भी बनाना नहीं चाहता क्योंकि आसान बनाकर नुकसान हुआ है। सम्प्रदाय इसीलिए बने । मैं तो उन सारी धाराओं की बात करूंगा, उन सारे नियमों की बात करूंगा और उन सारी पद्धतियों को, उन सारे रास्तों की जो मनुष्य ने कभी भी अख्तियार किए है। शायद इस तरह की कोशिश कभी नहीं की गई । रामकृष्ण ने थोड़ी-सी कोशिश की थी। उन्होंने Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ४७ सभी साधना-पद्धतियों का प्रयोग किया और वे इस नतीजे पर पहुंचे कि सब रास्ते अलग हैं किन्तु पहाड़ की चोटी पर सब एक हो जाते हैं । लेकिन उनके पास कोई उपाय नहीं था कि वह कह सकते । फिर उन्होंने वही साधना-पद्धति अपनाई जो बंगाल में उन्हें उपलब्ध थी। सारे जगत् के बाबत उनका विचार विस्तीर्ण नहीं था। ___ मैं एक प्रयोग करना चाहता हूँ कि सारो दुनिया में अब तक जो किया गया है परम जीवन को पाने का, उसकी सार्थकता को एक साथ इकट्ठा ले आऊँ। निश्चित ही मैं कोई सम्प्रदाय नहीं बनाना चाहता। लेकिन मैं चाहता हूँ कि सम्प्रदाय मिट जाएँ । मैं अनुयायी भी नहीं बना सकता क्योंकि मैं चाहता हूँ कि अनुयायो हो ही नहीं। मेरी चाह यह है कि मनुष्य ने जो अब तक खोजा है वह एकदम निकट आ जाए । इसलिए मेरी बातों में बहुत बार विरोधाभास मिलेगा। क्योंकि जब मैं किसी मार्ग की बात कर रहा होता हूँ तो मैं उसी मार्ग की बात कर रहा होता हूँ। जब दूसरे मार्ग को बात कर रहा होता हूँ तो उस मार्ग की बात कर रहा होता है। और इन दोनों मार्गों पर अलग-अलग वृक्ष मिलते हैं, अलग-अलग चौराहे मिलते हैं। इन दोनों मार्गों पर अलग-अलग मन्दिर का आभास है। इन दोनों मार्गों पर अलग-अलग रास्ते को अनुभूतियाँ हैं : मगर परम अनुभूति समान है। वह तो मैं जिन्दगी भर बोलता रहूंगा, धीरे-धीरे जब तुम्हें सब साफ हो जाएगा कि मैं हजार रास्तों की बातें कर रहा हूं तब तुम्हें ख्याल में आएगा और फिर तुम्हें जो ठोक रास्ता लगे चलना। लेकिन एक फर्क पड़ेगा। मेरी बात समझकर जो गति करेगा वह किसी भी रास्ते पर जाए तो वह उसे अनुकूल होगा। वह दूसरे मार्ग की दुश्मनी की बात नहीं करेगा। वह इतना ही कहेगा कि मेरे लिए अनुकूल है यही रास्ता। तब हो सकता है कि पति सूफियों को मानता हो, पत्नी मीरा के रास्ते पर जाती हो, बेटा हिन्दू हो, जैन हो या बौद्ध हो । तब एक परम स्वतन्त्रता होगी रास्तों की। और हर घर में रास्तों के बाबत थोड़ा-सा परिचय होगा ताकि प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए रास्ता चुन सके कि उसके लिए क्या उचित हो सकता है। अभी कठिनाई यह है कि एक आदमी जैन घराने में पैदा हो जाता है । और हो सकता है कि उसके लिए महावीर का रास्ता अनुकूल न हो। मगर वह कभी कृष्ण के रास्ते पर नहीं जाएगा जो कि उसके लिए अनुकूल हो सकता था। एक आदमी कृष्ण को मानने वाले घर में पैदा हो गया तो वह महावीर के बारे में कभी सोचेगा ही Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में किया है । उसके लिए भोजन इतना महत्त्वपूर्ण नहीं जितना भोजन का साधन महत्त्वपूर्ण है। एक बार वह भोजन से चूक सकता है, लेकिन मनुष्यता से नहीं चूक सकता। मैंने एक कहानी पढ़ी है। हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का बटवारा हुमा । एक गांव में उपद्रव हो गया, दंगा हो गया। एक परिवार भागा। पति है, साथ में पत्नी है, बच्चा है। दो बच्चे कहीं खो गए । गाएं थीं, भैंसें थीं वह सब खो गई । सिर्फ एक गाय बचा पाए । लेकिन उस गाय का बछड़ा था, वह भी खो गया । वे सब जंगल में छिपे हैं । दुश्मन आस-पास हैं, मशालें दिखाई पड़ रही हैं । बच्चा रोना शुरू करता है। मां घबड़ा जाती है। वह पहले उसका मुंह बंद करती है, उसे दबाती है, रोकती है। लेकिन वह जितना दबाती है वह उतना रोता है। फिर मां-बाप उसकी गर्दन दबाते हैं क्योंकि जान बचाने के लिए दूसरा कोई उपाय नहीं है । वह चिल्लाता है तो अभी दुश्मन आवाज सुन लेगा और मौत हो जाएगी। लेकिन तभी उस गाय के बछड़े की आवाश कहीं दूसरे दरख्तों के पास से सुनाई पड़ती है और वह गाय जोर-जोर से चिल्लाने लगती है। गाय को चिल्लाते सुनकर दुश्मन पास आ जाता है। बच्चे की गर्दन दबानी आसान थी, गाय की गर्दन भी नहीं दबती । गाय को मारो कैसे ! कोई उपाय भी नहीं है मारने का। तो वह औरत अपने पति से कहती है कि तुमसे कितना कहा कि इस हैवान को साथ मत ले चलो। लेकिन पति कहता है कि मैं यह विचार कर रहा है कि पशु कौन है ? हम या यह गाय ? हमने अपने बच्चे को मार डाला है अपने को बचाने के लिए तो हैवान कौन है ? मैं इप्स चिन्ता में पड़ गया हूँ। दुश्मनों को मशालें करीब आती चली जाती हैं । गाय भागती है क्योंकि उसी तरफ उसके बछड़े की आवाज आ रही है। वह दुश्मनों के बीच घुस जाती है। लोग उसे आग लगा देते हैं । वह जल जाती है लेकिन बछड़े के लिए चिल्लाती रहती है। तो वह पति कहता है कि मैं पूछता हूँ कि पशु कौन है, आज मेरे तरफ से पहली दफ़ा जिन्दगी में ख्याल उठा है कि किसको हम मनुष्य कहें, किसलो हम पशु कहें ? उपयोगी दृष्टि से शायद यह जरूरी है कि मनुष्य पशुओं को मारे, नहीं तो मनुष्य नहीं बच सकेगा। यह बात इस अर्थ में बिल्कुल ठीक है कि मनुष्य अगर शरीर के तल पर ही बचना चाहता तो शायद पशुओं को मारता ही रहता। लेकिन मनुष्य अगर मनुष्यता के आत्मिक तल पर' बचना चाहता हो तो पशुओं को मारकर कभी नहीं बच सकता। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ४६१ एक बार हमें यह ख्याल में आ जाए कि सिर्फ मनुष्य के शरीर को बचाना है या मनुष्यता को बचाना है, तो सवाल बिल्कुल अलग-अलग हो जाएंगे। देहधारी मनुष्य को बचाते हैं तो हम हैवान से ऊपर नहीं हैं। और अगर हम उसके भीतर की मनुष्यता को बचाने के लिए सोचते हैं तो शायद पशुहिंसा किसी भी तरह ठीक नहीं ठहराई जा सकती। लेकिन कहा जाएगा कि फिर आदमी बचेगा कैसे ? मेरा कहना है कि आदमी बचने के उपाय खोज लेता है जैसे कृत्रिम खाद्य बनाए जा सकते हैं। जितना पृथ्वी भोजन देती है उससे करोड़ गुना भोजन समुद्र के पानी से निकाला जा सकता है, हवाओं से सीधा भोजन पाया जा सकता है। एक बार यह तय हो जाए कि मनुष्यता मर रही है तो फिर हम मनुष्य को बचाने के हजार उपाय खोज सकते हैं । यह तय न हो तो हम मनुष्य को बचा लेते हैं-देहधारो दिखाई पड़ने वाले मनुष्य को, लेकिन भोतर कुछ गहरा तत्त्व खो जाता है। वह गहरा तत्त्व तभी खो जाता है जब हम किसी को दुःख देने के लिए उत्सुक हो जाते हैं। किसी को दुःख देने का जो भाव है, वही हमें नीचे गिरा देता है । तो किसी को हम दुःख दें और मनुष्य बने रहें, इन दोनों बातों में कठिनाई है। यह बात सच है कि आज तक ऐसी स्थिति नहीं बन सकी कि एकदम से मांसाहार वन्द कर दिया जाए, एकदम से पशुहिंसा बन्द कर दी जाए तो आदमी वच जाए। लेकिन नहीं बन सकी तो इसलिए नहीं बन सकी कि हमने उस वात को ख्याल में नहीं लिया, अन्यथा बन सकती है। क्योंकि अब हमारे पास वैज्ञानिक साधन उपलब्ध हो गए हैं जिनसे पशुओं को मारने की कोई जरूरत नहीं। अब तो कृत्रिम मांस भी बनाया जा सकता है। आखिर गाय घास खाकर मांस बनाती है। मशीन भी हो सकता है जो घास खाए और मांस बनाए । इसमें कोई कठिनाई नहीं है। दूध कृत्रिम बन सकता है, मांस कृत्रिम बन सकता है, सब कृत्रिम बन सकता है। मैं अतीत की बात छोड़ देता है जबकि' सब नहीं बन सकता था। लेकिन अब, जबकि सब बन सकता है तो मनुष्य के सामने एक नया चुनाव खड़ा हो गया है और वह चुनाव यह है कि अब जब सब बन सकता है तब पशुहिंसा का क्या मतलब ? पीछे कठिनाइयां थीं। आदमी को बचाना मुश्किल था। शायद अतीत में, शरीर ही नहीं बचाया जा सकता था। जब शरीर ही नहीं बचता था तो आत्मा को क्या बचाते आप ? शरीर बिल्कुल सारभूत था जिसे बचाए तो पीछे आत्मा भी बच सकती थी, मनुष्यता भी बच सकती थी। इसलिए बुद्ध ने समझौता किया कि मरे हुए Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ महावीर : मेरी दृष्टि में पश का मांस खाया जा सकता है । यह सिर्फ उस स्थिति का समझौता था। लेकिन इस कारण बुद्ध पशु जगत् से सम्बन्ध स्थापित करने में असमर्थ हो गए। महावीर इस समझौते के लिए राजी नहीं हुए क्योंकि अगर पशु जगत् तक संदेश पहुँचाना था तो समझोता अमान्य था। प्रश्न : गहरे में वनस्पतिजीवन और पशुजीवन में क्या अन्तर है ? उत्तर : बहुत अन्तर है। पशु विकसित है, बहत विकसित है पौधे से । विकास के दो हिस्से उसने पूरे कर लिए हैं। एक तो पौधे में गति नहीं है, थोड़े से पौधों को छोड़कर जो पशुओं और पौधों के बीच में हैं। कुछ पौधे हैं जो जमीन पर चलते हैं, जो जगह बदल लेते हैं, जो आज यहाँ है, तो कल सरक जाएंगे थोड़ा। साल भर बाद आप उनको उस जगह न पाएंगे जहां साल भर पहले आया था। साल भर में वह यात्रा कर लेंगे थोड़ी सी। पर वे पौधे सिर्फ दलदली जमीन में होते हैं। जैसे अफ्रीका के कुछ दलदलों में कुछ पौधे है जो रास्ता बनाते हैं अपना, चलते हैं, अपने भोजन की तलाश में इधर-उधर जाते हैं । नहीं तो पौधा ठहरा हुआ है। ठहरे हुए होने के कारण बहुत गहरे बन्धन उस पर लग गए हैं और वह कोई खोज नहीं कर सकता, किसी चीज की । जो आ जाए बस वही ठीक है। अन्यथा कोई उपाय नहीं है उसके पास । पानी नीचे हो तो ठीक, हवा ऊपर हो तो ठीक, सूरज निकले तो ठीक, नहीं तो गया वह। यह जो उसकी जड़ स्थिति है उसमें प्राण तो प्रकट हुआ हैजैसा पत्थर में उतना प्रकट नहीं हुआ। वैसे पत्थर भी बढ़ता है, बड़ा होता है। दुःख की संवेदना पत्थर को भी किसी तल पर होती है। लेकिन पौधे को दुःख की संवेदना बहुत बढ़ गई है। चोट भी खाता है तो दुःखी होता है । शायद प्रेम भी करता है, शायद करुणा भी करता है। लेकिन बँधा है जमीन से । तो परतंत्रता बहुत गहरी है। और उस परतंत्रता के कारण चेतना विकसित नहीं हो सकती। ___अब हमें ख्याल में नहीं है कि गति से चेतना विकसित होती है . जितनी हम गति कर सकते हैं स्वतंत्रता से उतनी चेतना को नई चुनौतियां मिलती है, नये अवसर नये मौके, नये दुःख, नये सुख, उतनी चेतना जगती है। नये का साक्षात्कार करना पड़ता है। वृक्ष के पास इतनी चेतना नहीं है तो वृक्ष करीब उस हालत में है जिस हालत में आप क्लोरोफार्म मे हो जाते हैं । आप चल-फिर नहीं सकते। आप हाथ नहीं उठा सकते । कोई गरदन काट जाए तो कुछ कर नहीं सकते । कृति उतनी ही चेतना देती है जितना आप उसका उपयोग Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ कर सकते हैं। अगर पौधे को इतनी चेतना दे दो जाए कि उसकी कोई गरदन काटे तो वह उतना ही दुःखी हो जितना आदमी होता है तो पौधा बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा। चकि गरदन कोई रोज काटेगा उसकी, इसलिए उसे इतनी मूर्छा चाहिए क्लोरोफार्म वाली कि कोई गरदन भी काटे तो भी पता न चले। पशु पौधे के आगे का रूप है जहाँ पशु ने गति ले ली है। अब उसकी गरदन काटो तो वह उस हालत में नहीं है जिसमें कि पौधा है । उसको पीड़ा बढ़ गई है, संवेदना बढ़ गई है, सुख बढ़ गया है । और गति ने उसको विकसित किया है । लेकिन वह भी एक तरह की निद्रा में चलता रहा है। क्लोरोफार्म की हालत नहीं है लेकिन एक निद्रा की हालत है। उसे अपना कोई पता ही नहीं है । जैसे एक कुत्ता है । उसको आपने झिड़का तो वह भाग जाता है। आपका झिड़कना ही महत्त्वपूर्ण है, उसका भागना सिर्फ प्रत्युत्तर है। आपने रोटी डाली तो खा लेता है, आपने प्रेम किया तो पूंछ हिलाता है। वह कोई कर्म नहीं करता, वह प्रतिकर्म करता है । जो होता रहता है, उसमें वह भागीदार है । भूख लगती है, प्यास लगती है तो घूमने लगता है। भूख न लगे तो वह कुछ खाता नहीं । अगर वह बीमार है तो उस दिन वह कुछ नहीं खाएगा। वह घास खाकर उल्टो भी कर देगा। कुत्ते को अगर खाने की स्थिति नहीं है तो वह कुछ नहीं खाएगा। आदमी खाने की स्थिति में नहीं है तो भी खा सकता है। कुत्ते को अगर खाने की स्थिति है तो उपवास नहीं कर सकता। करना पड़े तो वह बात दूसरी है। आदमी पूरा भूखा है तो भी उपवास कर सकता है। यानी इसका मतलब यह हुआ कि प्रादमी कर्म कर सकता है, कुत्ता सिर्फ प्रतिक्रिया करता है । लेकिन सभी आदमी कर्म भी नहीं करते। इसलिए बहुत कम आदमी आदमी की हैसियत में हैं; अधिकतर आदमी प्रतिकर्म ही करते हैं । यानी किसी ने आपको प्रेम किया तो आप प्रेम करते हैं तो यह प्रतिकर्म हआ और किसी ने गाली दो तो फिर आप प्रेम करें तो कम हआ।' यह वैसा ही हुआ जैसे कुत्ता पछ हिलाता है उसको रोटो डालो तो। कोई बुनियादी फर्क नहीं है दोनों में। तो मैं कह रहा हूँ कि कुछ पौधे सरकने लगे हैं। वह जानवर की दिशा में प्रवेश कर रहे हैं ! जानवर भी थोड़ा-बहुत आदमी की दिशा में सरक रहे हैं। कुछ आदमी भी चेतना लोंकों की तरफ सरक रहे हैं। फर्क है स्वतन्त्रता का। पत्पर सबसे ज्यादा परतंत्र है, पौधा उससे कम, पशु उससे कम, तथाकथित मनुष्य उससे कम । महावीर, बुद्ध जैसे लोग बिल्कुल कम । अगर हम ठीक से Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ महावीर : मेरी दृष्टि में समझें तो सारे विकास को हम स्वतन्त्रता के हिसाब से नाप सकते हैं और इसलिए मेरा निरन्तर जोर स्वतन्त्रता पर है। कोई व्यक्ति जितनी स्वतन्त्रता अजित करे जीवन में उतना चेतना की तरफ जाता है और स्वतन्त्रता बहुत प्रकार की है : गति की स्वतन्त्रता, विचार की स्वतन्त्रता, कर्म को स्वतन्त्रता, चेतना की स्वतन्त्रता । यह जितनी पूर्ण होती चली जाती है उतना मोक्ष की तरफ बढ़ा जा रहा है । कर्म की भाषा में कहें तो जीवन मुक्त होने की तरफ जा रहा है । जितना हम नीचे जाते हैं उतना हम अमुक्त हैं। पत्थर कितना अमुक्त है। एक ठोकर आपने मार दी तो कुछ भी नहीं कर सकता, प्रतिक्रिया भी नहीं कर सकता । जहाँ पड़ गया वहीं पड़ गया। कोई उपाय नहीं हैं उसके पास । सबसे ज्यादा वद्ध अवस्था में है वह । महावीर प्रबुद्ध आत्मा हैं, मुक्त आत्मा हैं। प्रबुद्ध होने से मुक्त होने तक की यात्रा में कई तल हैं। तो मोटो सीढ़ियां बाँट ली है हमने लेकिन सब सीढ़ियों पर अपवाद हैं। जैसे समझ लें पचास सीढ़ियाँ हैं और आदमी चढ़ रहे हैं। कोई आदमी पहली सीढ़ी पर खड़ा है, कोई दूसरी सीढ़ी पर खड़ा है। पहली सीढ़ी से उठ गया है लेकिन अभी दूसरी सीढ़ी पर पैर रखा नहीं है, अभी बीच में है। कोई आदमी तीसरी सीढ़ी पर खड़ा है । कोई आदमी दूसरी से पैर उठा लिया है, तीसरी पर अभी रखा नहीं है। इस तरह स्थूल रूप में देखें तो हमको ऐसा लगता है कि पत्थर है, पौधा है। कुछ पत्थर पौधे की हालत में पहुंच रहे हैं। कुछ पत्थर बिल्कुल पौधे जैसे हैं। उनकी डिजाइन, उनके पत्ते, उनकी शाखाएं बिल्कुल पौधे जैसी हैं। वे पौधे की तरफ बढ़ रहे हैं। कुछ पौधे बिल्कुल पशुओं जैसे हैं। कुछ पौधे अपना शिकार भी खोजते हैं। पक्षी उड़ रहा है आकाश में तो वे चारों तरफ से पत्ते बन्द कर लेते हैं और फांस लेते हैं उसे । कुछ पौधे प्रलोभन भी डालते हैं। अपनी कलियों पर बहुत मोठा, बहुत सुगंधित रस भर लेते हैं ताकि पक्षी आकर्षित हो जाएं और ज्योंही पक्षी उस पर बैठते हैं कि चारों तरफ के पत्ते बन्द हो जाते हैं। कुछ पौधे अपने पत्तों को पक्षियों के शरीर में प्रवेश कर वहाँ से खून खींच लेते हैं। वे पौधे अब पौधे की हालत में नहीं रहे। वे पशु की तरफ गति कर रहे हैं। कुछ पश मनुष्य की तरफ गति कर रहे हैं। बहुत से कुत्तों में, घोड़ों में, हाथियों में, गायों में, मनुष्य जैसी बातें दिखाई पड़ती हैं। जिन-जिन जानवरों से मनुष्य सम्बन्ध बनाता है, उन-उन जानवरों से सम्बन्ध बनाने का कारण ही यही है। सभी जानवरों से मनुष्य सम्बन्ध नहीं बनाता। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ४६५ जिनको हम पालतू पशु कहते हैं वे कहीं, किसी तल पर हमसे मेल खाते हैं। लेकिन फिर भी उसी जाति के सभी पशु एक तल पर नहीं होते। कुछ आगे बढ़े होते हैं, कुछ पीछे हटे होते हैं। प्रश्न : जो लोग शाकाहारी नहीं होते हैं उनमें करुणा की भावना, मनुष्यता की भावना अधिक होती है सा कि पश्चिमी देशों में। लेकिन हम हिन्दुस्तान में आम तौर से शाकाहारी हैं तो भी हम में करुणा की भावना, मनुष्यता की भावना रह ही नहीं गई । यह कैसे ? उत्तर : हां, उसके कारण है क्योंकि अगर आप करुणा के कारण शाकाहारी हुए हैं तब तो बात अलग है और अगर जन्म के कारण शाकाहारी हैं तो इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं है करुणा का। यानी आप क्या खाते हैं, इससे करुणा का सम्बन्ध नहीं है । आपकी करुणा क्या है, इससे आप का सम्बन्ध हो सकता है । तो मुल्क में जो शाकाहारी है वह जबरदस्ती शाकाहारी हैं । उसके चित्त में शाकाहार नहीं है। उसके चित्त में कोई करुणा नहीं है । फिर जो मांसाहारी है उसके मन की कठोरता बहुत कुछ उसके भोजन, उसकी जीवनव्यवस्था मे निकल जाती है और वह मनुष्य के प्रति ज्यादा सह्य हो सकता है। और आप शाकाहारी हैं तो आपको वह भी मौका नहीं है। यानी मेरा कहना यह है कि एक शाकाहारी आदमी में आधा पाव कठोरता है और एक मांसाहारी आदमी में भी आधा पाव कठोरता है तो वह मांसाहारी आदमी ज्यादा करुणावान सिद्ध होगा बजाय शाकाहारी के क्योंकि वह जो आधा पाव कठोरता है उसकी वह और दिशाओं में बह जाती है। और आपकी आधा पाव कठोरता का कहीं बहने का उपाय नहीं है। वह सिर्फ आदमी की तरफ ही बहती है, वह सिर्फ आदमी को ही चूसती है । इसलिए पूरब के मूल्क मे जहां शाकाहार बहुत है वहाँ बड़ा शोषण है, बड़ी कठोरता है और आदमी के आपसी सम्बन्ध बहुत तनावपूर्ण है । और आदमी आदमी के प्रति इतना दुष्ट मालूम पड़ता है जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और बाकी मामलों मे वह बड़ा हिसाब लगाता है कि कहीं चींटी पर पैर न पड़ जाये, पानी छान कर पीता है । वह जो कठोरता के बहने के इतर उपाय थे बंद हो हाते हैं। फिर एक ही उपाय रह जाता है। आदमी-आदमी का सम्बन्ध बिगड़ जाता है। ___ तो मैं शाकाहार का पक्षपाती हूँ, इसलिए नहीं कि आप शाकाहारी हो बल्कि इसलिए कि आप करुणावान् हों और आप उस चित्त-दशा में पहुंचे हुए हो जहाँ से जीवन के प्रति कठोरता क्षीण हो जाती है। जब कठोरता क्षीण Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी वष्टि में होगी तो वह पशु के प्रति भी क्षीण होगी, मनुष्य के प्रति भी क्षीण होगी। मगर जन्म के साथ शाकाहारी हो जाता है आदमी और कठोरता क्षीण नहीं होती । क्योंकि जीवन एक तरह से बहुत ही शक्तियों का ताल-मेल है, उसमें अगर कुछ शक्तियां भीतर पड़ी रह जाती हैं तो मुश्किल पड़ जाती है । जैसे उदाहरण के लिए इग्लैंड भर में विद्यार्थियों का कोई विद्रोह नहीं और उसका कुल कारण इतना है कि इंग्लैंड के बच्चों को तीन घंटे से कम खेल नहीं खेलना पड़ता । तीन घंटे हाकी, फुटबाल-इस तरह थका डालते हैं कि तीन घंटों में उसकी सारी की सारी उपद्रव की प्रवृत्ति निकास पा जाती है । तो वह घर शांत होकर लौट आता है । इंग्लैंड के लड़के को उपद्रव के लिए कहो तो वह उपद्रव को हालत में नहीं है। जिन मुल्कों में खेल बिल्कुल नहीं है-जैसे हमारा मुल्क है, जैसे फ्रांस है खेल करीब-करीव न के बराबर है-उपद्रव बहुत ज्यादा है । अब वह ख्याल में नहीं आता कि एक नियत व्यवस्था है कि एक लड़के को कितना उपद्रव करना जरूरी है। खेल का मतलब है व्यवस्थित उपद्रव । लट्ठ मार रहा है गेंद में एक आदमी । वह उतना हो है जैसे कोई खोपड़ी में लट्ठ मारे। व्यवस्थित उपद्रव अगर करवाते हैं तो उपद्रव कम हो जाएगा । और व्यवस्थित उपद्रव नहीं करवाते तो फिर अव्यवस्थित उपद्रा बढ़ेगा। इन सबके भीतर हमारी एक निश्चित मात्रा है जो निकलनी चाहिए एक उम्र में । उसका निकलना बहुत जरूरी है। ___ अब जैसे एक आदमी जंगल में लकड़ी काटता है। यह आदमी एक दुकान में बैठे हुए आदमी से ज्यादा करुणावान् हो सकता है। कारण कि काटने पोटने का इतना काम करता है वह कि काटने पीटने को वृत्ति मुक्त हो जाती है । वह ज्यादा दयालु मालूम पड़ेगा। एक दुकान पर बैठा हुआ आदमी दयालु नहीं हो सकता क्योंकि उसके काटने-पीटने की वृत्ति मुक्त नहीं हुई। जंगल का एक चरवाहा है। वह भेड़ों को चरा रहा है । उसके चेहरे पर कैसी शांति प्रकट होगी । कारण कि वह जानवरों के साथ जो व्यवहार कर रहा है-डंडा मार रहा है, गाली दे रहा है, कुछ भी कर रहा है-वह व्यवहार आप भी करना चाहते हैं लेकिन कोई नहीं मिलता, किससे करें । पत्नी से करते हैं, बेटे से करते है, नये-नये बहाने खोजते हैं कि बेटे का सुधार कर रहे हैं, लेकिन भीतरी कारण बहुत दूसरे हैं । इसलिए अक्सर ऐसा होता है कि गांव का किसान ज्यादा शांत मालूम पड़ता है । उसका कारण है कि काट-पीट के इतने काम उसको मिल जाते हैं, दिन भर में वृक्षों को काट रहा है, पौधों को काट रहा Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १५ ૪૭ है, जानवरों को मार रहा है कि वह शान्त हो जाता है । काट-पीट के इतने काम आपको भी मिल जाएँ तो आप भी शान्त हो जाएँगे । मगर आपको नये रास्ते निकालने पड़ते हैं इसके लिए । आप भी किसी को कोड़ा मारना चाहते हैं । मारें कैसे ? तो हमारे मन को वृत्तियाँ फिर नये-नये रास्ते खोजती हैं । और वे नये उपाय खतरनाक सिद्ध होते हैं । इसलिए मेरा कहना है कि वृत्तियां जाननी चाहिएँ, आचरण बदलने का जोर गलत है । मैं किसी को नहीं कहता कि कोई शाकाहारी हो। मैं कहता हूँ : अगर मांसाहार करना है तो मांसाहार करो। इतना जरूर कहूँगा कि यह कोई बहुत ऊँचे चित्त को अवस्था नहीं है । कुछ और ऊँचे चित्त की अवस्थाएँ हैं जिनके खोजने से मांसाहार छूट सकता है। लेकिन मांसाहार छूट जाए और आपकी स्थिति वही रहे तो आप दूसरे तरह के मांसाहार करेंगे जो ज्यादा मंहगे साबित होने वाले हैं । S तो हिन्दुस्तान कठोर हो गया है और हिन्दुस्तान में जो लोग गैर मांसाहारी हैं, वे बहुत कठोर हो गए हैं । एक आदमी कभी दो-चार साल में एक बार कठोर हो जाए तो ठीक है । मगर एक आदमी चौबीस घंटे कठोर रहे तो वह ज्यादा मँहगा पड़ जायेगा । इसलिए बड़े आश्चर्य की बात है कि बर्बर मनुष्य भी हैं जो कच्चे आदमी को खा जाएँ, लेकिन बड़े सरल हैं । आप जाकर कारागृह में देखें कैदियों को । कैदी एकदम सरल मालूम पड़ता है बजाय उन लोगों के जो मजिस्ट्रेट बने बैठे हैं । एक मजिस्ट्रेट की शक्ल देखें और उसके सामने कारागृह में जिसको उसने दस साल की सजा दे दी है, उस आदमी को शक्ल देखें तो अन्तर स्पष्ट हो जायेगा | अब हो सकता है कि दस साल की सजा देने में इस आदमी के भीतर रस हो - कानून तो ठीक ही है, कानून सिर्फ बहाना हो, तरकीब हो, खूंटी हो । मानो वह आदमियों को सताने के यह उपाय खोज रहा है । मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि हर आदमी मजिस्ट्रेट नहीं होता; हर आदमी शिक्षक नहीं होता । मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि शिक्षक वे लोग होना चाहते हैं जो बच्चों को सताना चाहते हैं । उनके भीतर बच्चों को सताने की वृत्ति है। तीस बच्चे मुफ्त मिल जाते हैं, तनख्वाह भी मिलती है । और बच्चों को ढंग से सताते हैं और वे बच्चे कुछ कर भी नहीं सकते । बिल्कुल निहत्थे वे है । सौ में से सत्तर शिक्षक सताने वाले मिलेंगे । यानी जिनको अगर आप शिक्षक न होने देते तो वे और कहीं सताते । दिन भर सता कर शिक्षक बहुत सीधा-सादा हो जायेगा । जब वह लोटता है घर तो वह बहुत अच्छा आदमी, बहुत भला आदमी मालूम पड़ता है । वह कितना भला आदमी है क्योंकि वह अपना बुरा मन तो निकाल लेता है । ३२ Page #426 --------------------------------------------------------------------------  Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रश्नोत्तर - प्रवचन Page #428 --------------------------------------------------------------------------  Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आपने पूछा है कि इस जगत् का, इस जीवन का प्रारम्भ कब हुआ, कैसे हुमा ? महावीर के प्रसंग में भी यह बात बड़ी महत्त्वपूर्ण है। महावीर उन थोड़े से चिन्तकों में से एक हैं जिन्होंने प्रारम्भ की बात को ही स्वीकार नहीं किया। महावीर कहते हैं कि प्रारम्भ सम्भव ही नहीं है। अस्तित्व का कोई प्रारम्भ नहीं हो सकता। अस्तित्व सदा से है। और कभी ऐसा नहीं हो सकता कि अस्तित्व न रह जाए। प्रारम्भ की और अन्त की बात ही वह इन्कार करते हैं । और मैं भी उनसे सहमत हूँ। प्रारम्भ की धारणा ही हमारी नासमझी से पैदा होती है। क्योंकि हमारा प्रारम्भ होता है और अन्त होता है इसलिए हमें लगता है कि सब चीजों का प्रारम्भ होगा और अन्त होगा। लेकिन अगर हम अपने भीतर गहरे में प्रवेश कर जाएँ तो हमें पता चलेगा कि हमारा भो कोई प्रारम्भ नहीं, कोई अन्त नहीं। एक चीज बनती है, मिटती है तो हमें ख्याल हो जाता है कि जो भी बनता है वह मिटता है। लेकिन बनना और मिटना प्रारम्भ और अन्त नहीं है । क्योंकि जो चीज बनती है, वह बनने के पहले किसी दूसरे रूप में मौजूद होती है और जो चीज मिटती है वह मिटने के बाद फिर किसी दूसरे रूप में मौजूद होती है । महावीर कहते हैं कि जीवन में सिर्फ रूपान्तरण होता है । न तो प्रारम्भ है और न कोई अन्त है। प्रारम्भ असम्भव है क्योंकि अगर हम यह माने कि कभी प्रारम्भ हुआ तो यह भी मानना पड़ेगा कि उसके पहले कुछ भी न था। फिर प्रारम्भ कैसे होगा? अगर उसके पहले कुछ भी न हो तो प्रारम्भ होने का उपाय भी नहीं। अगर हम यह मान लें कि कुछ भी नहीं था, समय भी नहीं था, स्थान भी नहीं था तो प्रारम्भ कैसे हुमा ? प्रारम्भ होने के लिए कम से कम Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ महावीर : मेरी दृष्टि में समय तो पहले चाहिए ही ताकि प्रारम्भ हो सके। और अगर समय पहले है, स्थान पहले है तो सब पहले हो गया। क्योंकि इस जगत् में मौलिक रूप से दो ही तत्त्व है गहराई में-समय और स्थान । ___ महावीर कहते हैं कि प्रारम्भ की बात ही हमारी नासमझी से उठी है । अस्तित्व का कभी कोई प्रारम्भ नहीं हुआ और जिसका कभी कोई प्रारम्भ न हुआ हो उन्हीं कारणों से उसका कभी अन्त भी नहीं हो सका । क्योंकि अन्त होने का मतलब होगा कि एक दिन कुछ भी न बचे । यह कैसे होगा ? अस्तित्व अनादि है और अनन्त है। न कभी शुरू हुआ है, न कभी अन्त होगा । सदा है, सनातन है। लेकिन रूपान्तरण रोज होता है। कल जो रेत था वह आज पहाड़ है, आज जो पहाड़ है वह कल रेत हो जाएगा। लेकिन होना नहीं मिट जाएगा। रेत में भी वही था, पहाड़ में भी वही होगा। आज जो बच्चा है, कल जवान होगा, परसों बूढ़ा होगा। बाद बिदा हो जाएगा। लेकिन जो बच्चे में था वही जवान में होगा, वही बुढ़ापे में होगा, वही मृत्यु के क्षण में बिदा भी ले रहा होगा । वह जो था, वह निरन्तर होगा। अस्तित्व का अनस्तित्व होना असम्भव है और अनस्तित्व से भी अस्तित्व नहीं आता है। इसलिए महावीर ने स्रष्टा की धारणा ही इन्कार कर दी है। महावीर ने कहा कि जब सृष्टि शुरूआत ही नहीं होती तो शुरूआत करने वाले की धारणा को क्यों बीच में लाना है ? जब शुरूआत ही नहीं होती तो स्रष्टा की कोई जरूरत नहीं है । यह बड़े साहस की बात थी उन दिनों। महावीर ने कहा सृष्टि है और स्रष्टा नहीं है। क्योंकि अगर स्रष्टा होगा तो प्रारम्भ मानना पड़ेगा और महावीर कहते हैं कि स्रष्टा भी हो तो भी शून्य से प्रारम्भ नहीं हो सकता । और फिर मजे की बात यह है कि अगर स्रष्टा था तो फिर शून्य कहना व्यर्थ है । तब था ही कुछ । और उस होने से कुछ होता रहेगा । जैसे साधारणतः ' हम जिसको आस्तिक कहते हैं वस्तुतः वह आस्तिक नहीं होता। साधारणतः आस्तिक की दलील यह है कि कोई चीजों को बनाने वाला है तो परमात्मा भी होना चाहिए। लेकिन नास्तिकों ने और गहरा सवाल पूछा कि अगर सब चीजों का बनाने वाला है तो फिर परमात्मा को बनाने वाला भी होना चाहिए । और तब बड़ी मुश्किल खड़ी हो जाएगी। अगर परमात्मा का स्रष्टा भी मान लें तो फिर अन्तहीन विवाद खड़ा हो जाएगा। क्योंकि फिर उसका बनाने वाला पाहिए, फिर उसका, फिर उसका, इसका अन्त कहाँ होगा ? किसी भी कडी पर यही सवाल उठेगा : इसका बनाने वाला कौन है ? Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१६ महावीर कहते हैं कि आस्तिक भूल में है और इसलिए नास्तिक को उत्तर नहीं दे पा रहा है क्योंकि मास्तिक बुनियादी भूल कर रहा है। महावीर परम आस्तिक हैं खुद भी । लेकिन वह कहते हैं कि बनाने वाले को बीच में लाने की जरूरत नहीं है । अस्तित्व पर्याप्त है। कोई बनाने वाला नहीं है। इसलिए यह भी सवाल नहीं है कि उसके बनाने वाला कहाँ है ? महावीर के परमात्मा स्रष्टा की धारणा अस्तित्व की गहराइयों से निकलती है अस्तित्व के बाहर से नहीं माती। अस्तित्व अलग और परमात्मा अलग बैठकर उसको बना रहा है जैसे कि कुम्हार घड़ा बना रहा हो, ऐसा नहीं है कोई परमात्मा। इसी अस्तित्व में जो सारभूत विकसित होते-होते अन्तिम क्षणों तक विकास को उपलब्ध हो जाता है, वही परमात्मा है। परमात्मा की धारणा में महावीर के लिए विकास है यानी परमात्मा की धारणा अस्तित्व का सारभूत अंश है जो विकसित हो रहा है। साधारण आस्तिक की धारणा है कि परमात्मा अलग बैठा है और जगत् को बना रहा है। तब प्रारम्भ की बात आ जाती है। उसी आस्तिक की नासमझो को वैज्ञानिक भी पकड़े हुए चला जाता है। हालांकि वह ईश्वर से इन्कार कर देता है। लेकिन फिर वह सोचता है कि प्रारम्भ कब हुआ? हाँ, यह हो सकता है कि इस पृथ्वी का प्रारम्भ कब हुआ इसका पता चल जाएगा। इस पृथ्वी का कब अन्त होगा, यह भी पता चल जाएगा लेकिन पृथ्वी जीवन नहीं है, जीवन का एक रूप है। जैसे मैं कब पैदा हुआ, पता चल जाएगा। मैं कब मर जाऊँगा, पता चल जाएगा। लेकिन मैं जीवन नहीं हूँ, जीवन का सिर्फ एक रूप हूँ। जैसे हम एक सागर में जाएं। एक लहर कब पैदा हुई पता चल जाएगा । एक लहर कब गिरी यह भी पता चल जायगा । लेकिन लहर सिर्फ एक रूप है सागर का। सागर कब शुरू हुआ? सागर का कब अन्त होगा ? और अगर सागर का पता चल जाए तो फिर सागर भी एक लहर है बड़े विस्तार को। ___ अन्ततः जो है गहराई में वह सदा से है। उसके ऊपर की लहरें आई हैं, गई हैं, बदली हैं। आएँगी, जाएंगी, बदलेंगी। पर जो गहराई में है, जो केन्द्र में है, वह सदा से है। और यह हमारे ख्याल में आ जाए तो प्रारम्भ का प्रश्न समाप्त हो जाता है, अन्त का प्रश्न भी समाप्त हो जाता है। सूरज ठंडा होगा क्योंकि सूरज गर्म हुआ है। जो गर्म होगा, वह ठंडा होगा। वक्त कितना लगता है, यह दूसरी बात है। एक दिन सूरज ठंडा था, एक दिन सूरज फिर ठंडा हो जाएगा। एक दिन पृथ्वी ठंडी होगी। इनके भी जीवन है । असल में हमें ख्याल Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में भी नहीं है कि पृथ्वी भी जीवित है । इसे थोड़ा समक्ष लेना उपयोगी होगा । हम कहते हैं कि मैं जीवित हूँ लेकिन हम कभी ख्याल भी नहीं करते कि हमारे शरीर में करोड़ों कीटाणु भी जीवित हैं । उन कीटाणुओं का अपना जीवन है और उन कीटाणुओं से मिले हुए जीवन में एक और भी जीवन है जो हमारा है । पृथ्वी का अपना एक जीवन है । इसलिए महावीर कहते हैं कि पृथ्वी काया है जीवन की । इस पृथ्वी पर पौधों, पक्षियों, मनुष्यों का अपना जीवन है । लेकिन पृथ्वी का अपना जीवन है । पृथ्वी की अपनी जीवनधारा है । उसका जन्म हुआ है । वह मरेगी। सूरज का अपना जीवन है । चाँद का अपना जीवन है । वह भी शुरू हुआ, उसका भी अन्त होगा। लेकिन जीवन का अस्तित्व का कोई अन्त नहीं है । ऐसा ही समझ लें कि अस्तित्व एक सागर है, उस पर लहरें उठती हैं, आती हैं, जाती हैं, लेकिन पूरे अस्तित्व का कभी प्रारम्भ हुआ हो, न ऐसा है, न ऐसा हो सकता है । ५०४ 1 इसे ऐसा समझना चाहिए । हमारे सारे तर्क एक सीमा पर जाकर व्यर्थ हो जाते हैं । हम यहाँ लकड़ी के तख्तों पर बैठे हुए हैं । कोई हमसे पूछ सकता है कि आपको कौन संभाले हुए हैं तो हम कहेंगे - लकड़ी के तख्ते । फिर वह पूछ सकता है कि लकड़ी के तख्तों को कौन संभाले हुए है तो हम कहेंगेजमीन। फिर वह पूछ सकता है कि जमीन को कौन संभाले हुए है तो हम कहेंगे कि ग्रहों-उपग्रहों का गुरुत्वाकर्षण । फिर वह पूछ सकता है कि ग्रहोंउपग्रहों को कौन संभाले हुए हैं ? तो शायद हम और खोजते चले जाएँ । लेकिन अन्ततः कोई पूछे कि इस समय को, इस पूरे को, जिसमें ग्रह, उपग्रह, तारे, पृथ्वी सब आ गए हैं इस सबको कौन संभाले हुए है अब बात जरा ज्यादा हो गई है । इस सबको कौन असंगत है क्योंकि हमने पूछा कि सबको कौन संभाले हुए हैं ? अगर संभालने तो हम उससे कहेंगे कि संभाले हुए है, यह प्रश्न और अगर उसे भीतर सबको कोई भी नहीं 1 वाले को हम बाहर रखते हैं तो सब अभी हुआ नहीं। कर लेते हैं तो बाहर कोई बचता नहीं जो उसे संभाले। संभाले हुए है । सब स्वयं संभला हुआ है। एक-एक चीज को एक-एक दूसरा संभाले हुए है । लेकिन समग्र को कोई भी नहीं संभाले हुए है । वह खुद संभला हुआ है । वह स्वयं है । इसीलिए महावीर कहते हैं कि जीवन स्वयंभू है । न इसका बनाने वाला है, न इसका मिटाने वाला है । वह स्वयं है । जैसा कि वे कहते हैं कि इससे क्या फायदा कि तुम एक आदमी को लाओ बीच में । फिर कल यही सवाल उठे कि उसको कौन बनाने वाला है फिर तुम किसी और को Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१६ ५०५ लाओ, फिर वही सवाल उठे। फिर परमात्मा का प्रारम्भ कब हुआ, यह सकाल उठे। और फिर परमात्मा की मृत्यु कब होगी, यह सवाल उठे। हमें सवालों में जाने का कोई अर्थ नहीं है। __ तो महावीर उस परिकल्पना को एकदम इन्कार कर देते हैं। और मेरी अपनी समझ है कि जो लोग अस्तित्व की गहराइयों में गए हैं, वह स्रष्टा की धारणा को इन्कार ही कर देंगे। उनकी परमात्मा की धारणा, स्रष्टा की धारणा नहीं होगी। उनकी परमात्मा की धारणा जीवन के विकास की चरम बिन्दु की धारणा होगी। यानी सामान्यतः जिसको हम आस्तिक कहते हैं उसका परमात्मा पहले है । महावीर की जो आस्तिकता है उसमें परमात्मा चरम विकास है । और इसलिए रोज होता रहेगा। एक लहर गिर जाएगी और सागर हो जाएगी। लेकिन दूसरी लहर उठती रहेगी तो इसलिए कोई कभी अन्त नहीं होगा । लहरें उठतो रहेंगी, गिरती रहेंगी। सागर सदा होगा। इसलिए आस्तिक वह है जो लहरों पर ध्यान न दे, उस सागर पर ध्यान दे जो सदा है। आस्तिक वह है जो बदलाहट पर ध्यान न दे, उस पर ध्यान दे जो सदा से है। एक आदमी मर रहा है। उससे हम पूछे कि सच में वह तूने किया हो था या कोई सपना देखा था तो मरते आदमी को तय करना बहुत मुश्किल है कि जिन्दगी में जो लाखों कमाए थे, वे कमाए ही थे, या कि कोई सपना था । बटेंड रसल ने एक मजाक की है कि मरते वक्त मैं यह नहीं तय कर पाऊंगा कि जो हुआ वह सच में हुआ या कि मैंने एक सपना देखा । और कैसे तय करूंगा, दोनों में फर्क क्या करूंगा कि वह सच में हुआ था। आप ही पीछे लौटकर देखिए कि जो बचपन गुजर गया वह आपका एक सपना था या कि सचमुच था । आज तो आपके पास सिवाय एक स्मृति के और कुछ नहीं रह गया । मजे की बात यह है कि जिसे हम जीवन कहते हैं उसकी स्मृति भी वैसे ही बनती है जैसे कि ' सपने की बनती है । इसीलिए छोटे बच्चे तय भी नहीं कर पाते कि यह सपना है । छोटा बच्चा अगर रात में सपना देख लेता है कि उसकी गुड्डी किसी ने तोड़ दो है तो वह सुबह रोता हुआ उठता है, पूछता है मेरी गुड्डी तोड़ डाली गई है। उसे अभी साफ नहीं है। उसने जो सपना देखा उसमें और जागकर जो गुड्डी देखी उसमें फर्क है । लेकिन उसे अभी फर्क नहीं मालूम पड़ता। इसलिए हो सकता है कि वह सपने में डरा हो और जागकर रोता रहे । और समझाना मुश्किल हो जाए क्योंकि हमें पता ही नहीं उसके कारण का कि वह डरा किस Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ महावीर ; मेरी दृष्टि में वजह से है । हो सकता है कि सपने में किसी ने उसे मार दिया हो और वह रोता चला जा रहा है जाकर । उसके लिए फासला नहीं है अभी । जो लोग जीवन की गहराइयों पर उतरते हैं वे अन्त में फिर उस जगह पर पहुंच जाते हैं जहाँ फासले खो जाते हैं। चीन में च्वांगत्से नाम का एक अद्भुत विचारक हुआ है । एक रात सपना देखा उसने, सुबह उठा । वह बड़ा परेशान था। मित्रों ने पूछा कि आप इतने परेशान क्यों हैं । हमारी परेशानी होती है, तो हम आप से सलाह लेते हैं । आज आप परेशान हैं ? क्या हो गया आपको? उसने कहा : मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया हूँ। रात मैंने एक सपना देखा कि मैं तितली हो गया हूँ और फूल-फूल पर भटक रहा हूँ। तो मित्रों ने कहा, इसमें क्या परेशान होने की बात है ? सपने सभी देखते हैं । उसने कहा : नहीं, इससे परेशान होने की बात नहीं है । अब मैं इस चिन्ता में पड़ गया हूँ कि अगर रात च्वांग नाम का आदमी सोया और तितली हो गया सपने में तो कहीं ऐसा तो नहीं है कि वह सपने की तितली अब सो गई है और अब सपना देख रही है च्वांग हो जाने का । क्योंकि जब आदमी सपने में तितली हो सकता है तो तितली सपने में आदमी हो सकती है । अब मैं सच में च्वांग हूँ या फिर तितली सपना देख रही है । वह जिन्दगी भर लोगों से पूछता रहा कि कैसे तय हो इस बात का। जैसे ही कोई आदमी गहरे जीवन में उतरेगा तो उसे पता चलेगा कि वहों से सपने आते हैं, वहीं से जीवन आता है, वहीं से सब लहरें आती हैं । इसलिए सब लहरें एक अर्थ में समानार्थक होती हैं। तब सुख और दुःख बेमानी है । तब आरम्भ और अन्त बेमानी है, तब ऐसा होना और वैसा होना बेमानी हैं । तव सब स्थितियों में आदमी राजी है। लेकिन चूंकि हम लहरों का हिसाब रखते हैं इसलिए हम परम सत्य की बाबत भी पूछना चाहते हैं वह कब शुरू हुआ, कब अन्त होगा। सूरज बनेगा, मिटेगा। वह भी एक लहर है जो जरा देर तक चलने वाली है । पृथ्वी दो अरब वर्ष चलेगी । वह भी मिटेगी, बनेगी। वह भी एक लहर है। हजारों पृथ्वियां बनी हैं और मिटी है । हजारों सूरज बने और मिटे हैं। और प्रतिदिन कहीं, किसी कोने पर कोई सूरज ठंडा हो रहा है । और किसी कोने पर सूरज जन्म ले रहा है। इस वक्त भी, अभी जब हम यहां बैठे हैं तो कोई सूरज बूढ़ा हो रहा है । कोई सूरज अभी मरा होगा। कोई सूरज नया जन्म ले रहा होगा। कोई सूरज बच्चा है अभी, कोई जवान हो रहा है। हमारा Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१६ ५०७ सूरज भी बूढ़ा होने के करीब पहुंच रहा है। उसकी उम्र ज्यादा नहीं है । वह चार-पांच हजार वर्ष लेगा ठंडा होने में । हमारी पृथ्वी भी बूढ़ी होती चली जा रही है। एक छोटी सी इल्लो है, वह वर्षा में ही पैदा होती है, वर्षा में ही मर जाती है । वह वृत्त पर चढ़ रही है । वृक्ष उसको सनातन मालूम पड़ता है । उसके बाप भी इसी पर चढ़े थे। यह वृक्ष कभी मिटता हुआ नहीं दिखता। इल्ली की हजारों पीढ़ियां गुजर जाती है और यह वृक्ष है कि ऐसा ही खड़ा रह जाता है। इल्लियां सोचती होंगी कि वृत्त न कभी पैदा होते हैं न कभी मरते हैं। इल्लियां पैदा होती हैं और मर जाती है। वृक्ष की उम्र है दो सौ वर्ष और इल्ली एक मौसम भर जीती है। उसकी दो सौ पीढ़ियां एक वृक्ष पर गुजर जाती हैं। हमारी दो सौ पोढ़ियों में कितना लम्बा फासला है। महावीर से हमारा कितना फासला है ? पच्चीस सौ वर्ष ही न ? अगर हम पचास वर्ष को भी एक पीढ़ी मान लें तो कितना फासला है ? कितनी पीढ़ियां गुजरी हैं ? कोई बहुत ज्यादा नहीं। तो न कोई प्रारम्भ, न कोई अन्त है। और जिसका प्रारम्भ है और अन्त है, वह केवल एक रूप है, एक आकार है । आकार बनेंगे और बिगड़ेंगे, आकृति उठेगी और गिरेगी । सपने पैदा होंगे और खोएंगे। लेकिन जो सत्य है वह सदा है । उसे हम कभी ऐसा भी नहीं कह सकते कि वह था। उसके लिए ऐसा भी नहीं कह सकते कि वह होगा। उसके लिए तो एक ही बात कह सकते हैं कि वह है और अगर बहत गहरे में कोई जाता है तो वह पाता है कि यह कहना भी गलत है कि सत्य है । क्योंकि जो है वही सत्य है । सत्य के साथ 'है' को भी जोड़ना बेमानी है क्योंकि 'है' उसके साथ जोड़ा जा सकता है जो नहीं है, हो सकता हो । कह सकते हैं कि यह मकान है क्योंकि मकान 'नहीं' है यह भी हो सकता है । लेकिन 'सत्य है' इसके कहने में कठिनाई है थोड़ी। क्योंकि सत्य 'नहीं है' कभी नहीं हो सकता। इसलिए सत्य और 'है' पर्यायवाची है । इनका . दोहरा उपयोग करना एक साथ पुनरुक्ति है। 'सत्य है', इसका मतलब है, जो है वह है। इस दृष्टि का थोड़ा सा ख्याल आ जाए तो सब बदल जाता है। तब पूजा और प्रार्थना नहीं उठती। तब मस्जिद और मन्दिर नहीं खड़े होते, लेकिन सब बदल जाता है। आदमी मन्दिर बन जाता है। आदमी का उठना, चलना, बैठना, सब पूजा और प्रार्थना हो जाती है। क्योंकि अब जो विस्तार का बोध आता है तो अपनी क्षुद्रता खो जाने का अर्थ लगने लगता है। फिर उसका कोई Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ महावीर : मेरी दृष्टि में मतलब नहीं रह जाता। 'मैं' 'है'- इसका कोई अर्थ नहीं। 'मैं था'-इसका कोई अर्थ नहीं। 'मैं होऊंगा'-इसका कोई अर्थ नहीं। लेकिन मेरे भीतर जो सदा है, वही सार्थक है। और वह सब के भीतर है और वह एक हो है । तो व्यक्ति खो जाता है, अहंकार खो जाता है। तब जिसका जन्म होता है उसी को हम कहेंगे 'बदला हुआ चित्त', बदली हुई चेतना जो भी नाम देना चाहें, हम दे सकते हैं। प्रश्न : जड़ और चेतना दो पृथक् चीजें हैं या एक ही वस्तु के दो रूप ? उत्तर : ये पृथक् चीजें नहीं है । पृथक् दिखाई पड़ती हैं। जड़ का मतलब है इतना कम चेतन कि हम अभी उसे चेतन नहीं कह पाते। चेतन का मतलब है इतना कम जड़ कि अब हम उसे जड़ नहीं कह पाते। वह एक ही चीज के दो छोर हैं। जड़ता चेतन होती चली जा रही है, जड़ता में भीतर कहीं चेतन छिपा है । फर्क सिर्फ प्रकट और अप्रकट का है। और जिसको हम जड़ कहते हैं, वह अप्रकट चेतन है यानी जिसकी अभी चेतना प्रकट नहीं हुई है । जिसको हम चेतन कहते हैं, वह प्रकट हो गया है । जैसे कि एक बीज रखा है और एक वृक्ष खड़ा है । कौन कहेगा कि बीज और वृक्ष एक ही है ? क्योंकि कहाँ वृक्ष ? और वहां बीज ? लेकिन बीज में वृक्ष अप्रकट है। बस इतना ही फर्क है । दो दिखाई पड़ते हैं; दो है नहीं। और जहाँ-जहाँ हमें दो दिखाई पड़ते हैं, वहां-वहाँ दो नहीं हैं। 'है' तो एक ही लेकिन हमारे देखने की क्षमता इतनी सीमित है कि हम दो में ही देख सकते हैं। यह हुआ है हमारी सीमित क्षमता के कारण क्योंकि जड़ में हमें चेतन दिखाई नहीं पड़ता और चेतन को हम कैसे जड़ कहें। इसलिए जो झगड़ा चलता आ रहा है वह एकदम बेमानी है। जिन लोगों ने कहा कि यह पदार्थ ही है, वे भी ठीक कहते हैं । क्योंकि सब पदार्थ में ही तो आ रहा है तो कहा जा सकता है कि पदार्थ ही है। इसमें झगड़ा कहाँ है ? लेकिन कोई कहता है कि पदार्थ है ही नहीं। बस, चेतन ही है। वह भी ठीक कहता है । वे ऐसे ही लोग है जैसे एक कमरे में आवा भरा गिलास रखा हो और एक आदमी बाहर आए और कहे कि गिलास आधा खाली है। और फिर दूसरा आदमी बाहर आए और कहे : गलत बोलते हो बिल्कुल ! गिलास आधा भरा है । और दोनों विवाद करें। और तब दो सम्प्रदाय बन जाएँगे । और ऐसे लोगों के सम्प्रदाय बनते हैं जो भीतर कभी जाते नहीं दीखते कि गिलास कैसा है ? मकान के बाहर ही निर्णय कर लेते हैं। दो आदमी खबर लाएं और एक कहें कि मकान के भीतर जो गिलास है वह आधा खाली है Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ महावीर : मेरी दृष्टि में .. प्रश्न : जीवन की भिन्न-भिन्न प्रतिकूल परिस्थितियों में महावीर की मानसिक स्थिति का विश्लेषण उपलब्ध नहीं होता। आज जो साहित्य उपलब्ध है, उसके आधार पर उनको अंतरंग स्थिति का स्पष्टीकरण क्या हो सकेगा? उत्तर : यह बहुत बढ़िया सवाल है। बढ़िया इसलिए है कि हम सबके मन में उठ सकता है कि भिन्न-भिन्न अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में महावीर जैसे व्यक्ति को चित्तदशा क्या होगी? कोई उल्लेख नहीं है। तो कोई सोच सकता है क उल्लेख इसलिए नहीं है कि महावीर ने कभी कुछ कहा न हो। मगर यह कारण नहीं है। उल्लेख न होने का कारण दूसरा है जो कि बहुत गहरा, बुनियादी है। महावीर जैसी चेतना की अभिव्यक्ति में परिस्थितियों से कोई भेद नहीं पड़ता। इसलिए भिन्न-भिन्न परिस्थिति कहने का कोई अर्थ नहीं है। भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में प्रतिकूल, अनुकूल में चित्त सदा समान है। जैसे कि किसी ने गाली दी तो हम क्रुद्ध होते हैं और किसी ने स्वागत किया तो हम आनन्दित होते हैं। प्रत्येक स्थिति में हमारा चित्त रूपान्तरित होता है। जैसी स्थिति होती है वैसा चित्त हो जाता है। इसी को महावीर बन्धन की अवस्था कहते है । स्थिति जैसी होती है, वैसा चित्त को होना पड़ता है । फिर हम बंधे हुए हैं । स्थिति दुःख की होती है तो हमें दुःखी होना पड़ता है। स्थिति सुख को होती है तो हमें सुखी होना पड़ता है। इसका मतलब यह हुआ कि चित्त की अपनो कोई दशा नहीं है। सिर्फ बाहर की स्थिति जो मौका दे देती है चित्त वैसा हो जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि चेतना अभी उपलब्ध हो नहीं हुई। अभी हम उस जगह नहीं पहुंचे हैं जहाँ स्थितियां कोई फर्क नहीं लाती है, जहां सुख आए, दुःख आए तो प्रतिकूल और अनुकूल जैसी चीज ही नहीं होती। महावीर के अंतरंग चित्त में क्या हो रहा है ? किसी दिन बहुत शिष्य इकट्ठे हुए होंगे तो महावीर का मन कैसा है ? किसी दिन कोई नहीं आया होगा गांव में सुनने तो महावोर का मन कैसा है ? किसी दिन सम्राट् आए होंगे सुनने और चरणों में लाखों रुपये रखे होंगे और किसी दिन कोई भिखारी आया होगा और उसने कुछ नहीं रखा होगा तो महावीर का मन कैसा हुआ होगा ? किसी गांव में स्वागत-समारम्भ हुए, होंगे, फल-मालाएं चढ़ी होंगी और किसी गाँव में पत्थर फेंके गए होंगे, गालियाँ दी गई होंगी और गांव के बाहर खदेड़ दिया गया होगा Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १६ ५१३ तो महावीर का मन कैसा हुआ होगा ? यानी इन स्थितियों में महावीर के भीतर क्या होता है ? - असल में महावीर होने का मतलब हो यह है कि भीतर अब कुछ भी नहीं होता । जो होता है वह सब बाहर होता है । यही महावीर होने का अर्थ है, यही क्राइस्ट होने का अर्थ है, यही बुद्ध होने का अर्थ है, यही कृष्ण होने का अर्थ है कि अब भीतर कुछ भी नहीं होता । भीतर बिल्कुल अछूता छूट जाता है। जैसे एक दर्पण है और उसके सामने से कोई निकलता है, जैसा व्यक्ति हैसुन्दर या कुरूप - वैसी तस्वीर बन जाती है । व्यक्ति निकल गया, तस्वीर मिट गई, दर्पण रह जाता है। इसमें कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह दर्पण सुन्दर व्यक्ति को कुछ ज्यादा रस से झलकाए, कुरूप को कम रस से झलकाए । सुन्दर है कि कुरूप है, कौन गुजरता है सामने से, इससे कोई मतलब नहीं है । दर्पण का काम है कलका देना । लेकिन एक फोटो-प्लेट है वह भी दर्पण का काम करती है लेकिन बस एक ही बार । क्योंकि जो भी उस पर अंकित हो जाता है उसे पकड़ लेती है, फिर उसे छोड़ नहीं पाती । इसका मतलब यह हुआ कि दर्पण की घटनाएँ सब बाहर ही घटती हैं, भीतर नहीं घटतीं । फोटो-प्लेट में भीतर घटना घट जाती है। बाहर से कोई निकलता है और भीतर घट जाता है। बाहर से तो निकल ही गया लेकिन फोटो-प्लेट फंस गई । वह तो पकड़ गई भीतर से । ' दो तरह के चित्त हैं जगत् में, फोटो-प्लेट की तरह या दर्पण की तरह काम करने वाले । फोटो-प्लेट की तरह जो काम कर रहे हैं उन्हीं को राग-द्वेष ग्रस्त कहते हैं । असल में फोटो-प्लेट बड़ा राग-द्वेष रखती है । राग-द्वेष का मतलब है जकड़ती है जल्दी, पकड़ती है जल्दी, फिर छोड़ती नहीं । राग भी पकड़ता है, द्वेष भी पकड़ता है। दोनों पकड़ते हैं । एक मित्र की तरह पकड़ता है, एक शत्रु की तरह पकड़ता है । दोनों पकड़ लेते हैं और चित्त की, जो दर्पण' की निर्मलता हैं, वह खो जाती है। हम सब फोटो-प्लेट की तरह काम करते हैं, इसलिए बड़ी मुसीबत में पड़े होते हैं । एकदम चित्त भरता जाता है, खाली नहीं होता और फिर स्थिति पकड़ी जाती है । और कोई स्थिति ऐसी नहीं है जो हमारे पास से अस्पर्शित निकल जाए । महावीर जैसे व्यक्ति दर्पण की तरह जीते हैं । समाधिस्थ व्यक्ति दर्पण की तरह जीता है। वह सुनता है; कोई सम्मान करता है तो वह सुनता है । ३३ कोई गाली देता है तो लेकिन जैसे सम्मान Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१४ महावीर : मेरी दृष्टि में बिदा हो जाता है ऐसे गालो भो बिदा हो जाती है भीतर कुछ पकड़ा नहीं जाता। ___ इसलिए महावीर के चित्त की अलग-अलग स्थितियां नहीं है जिनका वर्णन किया जाए। इसलिए वर्णन नहीं किया गया। कोई स्थिति ही नहीं है। अब क्या दर्पण का वर्णन करो बार-बार ? इतना कहना ही काफी है कि दर्पण है। जो भी आता है वह झलकता है, जो चला जाता है। झलक बंद हो जाती है। इसको रोज-रोज क्या लिखो ? इसको रोज-रोज क्या कहो ? इसे कहने का कोई अर्थ नहीं है । न महावीर की, न क्राइस्ट की, न बुद्ध की, न कृष्ण की-- किन्ही की अन्तः परिस्थिति का कोई उल्लेख नहीं किया गया, नहीं किए जाने का कारण है । उल्लेख योग्य कुछ है ही नहीं । एक समता आ गई है चित्त की। वह वैसा ही रहता है। जैसे कि महावीर को कुछ लोग पत्थर मार रहे हैं या कान में कोलें ठोंक रहे हैं, या गांव के बाहर खदेड़ रहे हैं तो महावीर को मानने वाले कहते हैं कि बड़े क्षमावान् है वह । महावीर ने गाली नहीं दी उन्हें, क्षमा कर दिया और आगे बढ़ गए। लेकिन वह भूल जाते हैं कि क्षमा तभी की जा सकती है जब मन में क्रोध आ गया होगा। क्षमा अकेली बेमानी है। वह क्रोध के साथ ही साथ आती है। नहीं तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है। हम क्षमा कैसे करेंगे यदि हम क्रुद्ध न हुए। और वह कहते हैं कि उन्होंने लोटकर गाली न दो, क्षमा कर दी और आगे बढ़ गए। लेकिन लौटकर तभी कुछ दिया जा सकता है जब भीतर कुछ हुआ हो। नहीं तो लोटकर कुछ भी नहीं दिया जा सकता। तो मैं आपसे कहता है कि महावीर क्षमावान नहीं थे क्योंकि महावीर क्रोधी नहीं है । और महावीर ने क्षमा भी नहीं किया, चाहे देखने वालों को लगा हो कि हमने गाली दी, और इस आदमी ने गाली नहीं दो, बड़ा क्षमावान् है । बस इतना ही कहना चाहिए कि इस आदमी ने गाली नहीं दी। बड़ा क्षमावान है, यह कहना भूल हो जायेगी। इस आदमी ने गाली सुनी जैसे एक शून्य भवन में आवाज गूंजे, चाहे गाली की, चाहे भजन की। आवाज गूंजे और निकल जाए और भवन फिर शून्य हो जाए। इस तल पर, इस चेतना में जीने वाले व्यक्ति शून्य भवन की तरह हैं । जिन में जो भी आता है, वह गूंजता जरूर है, हमसे ज्यादा गूंजता है क्योंकि हमारी संवेदनशीलता इतनी तीव नहीं होती। क्योंकि हमने इतनी चीजें पहले Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१६ से भर रखो होती है। जैसे खालो कमरा है । खाली कमरे में आवाज गूंजती है और बहुत फर्नीचर भरा हो तो फिर नहीं गूंजता । हम फर्नीचर भरे लोग हैं जिनमें बहुत भरा हुआ है, फोटो-प्लेट ने बहुत इकट्ठा कर लिया है, आवाज गूंजती हो नहीं, कई दफा तो सुनाई हो नहीं पड़ता कि क्या सुना, क्या देखा, कुछ पता ही नहीं चलता। लेकिन महावीर जैसे व्यक्ति को संवदनशालता बड़ी प्रगाढ़ है। सब गूंजता है। जरा सी आवाज होता है, सूई भो गिरता है तो गूंज जाती है। लेकिन बस गूंजतो है । ओर जितनो देर गूंज सकता है, गूंजता है और बिदा हो जाती है। महावोर उसके प्रति काई प्रतिक्रिया नहीं करते-न क्षमा को, न काध को । महावीर का सारा योग अप्रतिक्रियायोग है। प्रतिक्रिया मत करो, देखो, जानो, सुनो लेकिन प्रतिक्रिया मत करा । प्रश्न : एक मन्दबुद्धि व्यक्ति भी तो प्रतिक्रिया नहीं करता ? उतर । हाँ, वह इसलिए नहीं करता क्योंकि न वह सुनता है, न वह जानता है, न वह देखता है। प्रश्न । मन्दबुद्धि भी एक आदमी है ? उत्तर : हां, वह इसीलिए प्रतिक्रिया नहीं करता क्योंकि वह देख नहीं पाता, सुन नहीं पाता, समझ नहीं पाता । ओर वह मंदबुद्धि, प्रतिक्रिया नहीं करता। परम स्थिति में भी अक्सर जड़ जैसो अवस्था मालूम होने लगती है। प्रश्न : तो मालूम कैसे पड़े ? उत्तर : मालूम करने की जरूरत नहीं है। हां ! तुम अपनी फिक्र करो कि हम कहां हैं । परम स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति हमें जड़ जैसा मालूम पड़ेगा। क्योंकि हमने जड़ को ही जाना है। अगर आप एक जड़ को गाली दे तो हो सकता है कि वह बैठा हुआ सुनता रहे। इसलिए नहीं कि उसने गालो सुनी बल्कि सिर्फ इसलिए कि सुना हो नहीं उसने कि क्या हुमा। महावोर को गाली दो तो हो सकता है वह भो वैसे बैठे सुनते रहें, इसलिए नहीं कि उन्होंने गाली नहीं सुनी। गाली पूरी सुनी, जैसी किसी आदमी ने कभी न मुनी होगी। लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं की क्योंकि गालो की प्रतिक्रिया क्या होती ? प्रतिक्रिया का फल क्या है ? प्रतिक्रिया से लाभ क्या है, प्रयोजन क्या है ? अक्सर ऐसा होता है कि परम स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति ठीक जड़ जैसा मालूम पड़े क्योंकि हम बड़ को हो पहचानते हैं । लेकिन फर्क तो बहुत गहरे Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ महावीर : मेरी दृष्टि में होंगे । वक्त लगेगा पहचानने में और शायद हम ठीक से पहचान भी न सकें जब तक हमारे भीतर फर्क होना शुरू न हो जाए । यह कुछ अद्भुत सी बात है लेकिन दो विरोधी अतियाँ कभी-कभी बिल्कुल समान ही मालूम होती हैं । जैसे एक बच्चा है. वह सरल मालूम होता है, निर्दोष मालूम होता है । लेकिन अज्ञानी है, ज्ञान विल्कुल नहीं । परम ज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति भी बच्चे जैसा मालूम होने लगेगा । इतना ही सरल, इतना ही निर्दोष । शायद बच्चे जैसा व्यवहार भी करने लगेगा ! शायद हमें तय करना मुश्किल हो जाएगा कि इस आदमी ने बुद्धि खो दी, यह कैसा बच्चों जैसा व्यवहार कर रहा है, कैसी बालबुद्धि का हो गया है। लेकिन दोनों में बुनियादी फर्क है । बच्चा अभी निर्दोष दिखता है लेकिन कल निर्दोषता खोएगा; अभी सरल दिखता है लेकिन कल जटिल होगा । यह आदमी जटिल हो चुका है । निर्दोषता खो चुका है । वह पूर्ण उपलब्धि है कि सरलता लौट आई है, फिर निर्दोष हो गया है । अब खोने का सवाल नहीं है यह जानकर, जी कर लौट आया है । यह उन अनुभवों से गुजर गया है जिनसे बच्चे को गुजरना पड़ेगा । बच्चे की सरलता अज्ञात की है। एक सन्त की सरलता ज्ञान की है । लेकिन दोनों सरलताएँ अक्सर एक सी मालूम पड़ेंगी। एक सन्त भी बच्चों जैसा सरल हो सकता है । और अगर सन्त बच्चों जैसा सरल न हो सके तो अभी वृत्त पूरा नहीं हुआ, अभी बात वापस नहीं लोटी, जटिलता शेष रह गई, कठिनाई शेष रह गई है । कहीं कोई चालाकी शेष रह गई है । इसीलिए कभीकभी बहुत भूलें हो जाती हैं । मैं फकीर नसरुद्दीन की निरन्तर बात करता हूँ। वह ऐसा ही आदमी था जो देखने में परम जड़ मालूम पड़े, जिसका व्यवहार परम जड़ का हो, लेकिन जो देख सके उसे वहीं परम ज्ञान दिख जाए। एक बात मैं बताना चाहूँगा । फकीर नसरूद्दीन एक रास्ते से गुजर रहा है। उसने देखा कि एक व्यक्ति तोता बेच रहा है और जोर से चिल्ला कर कह रहा है कि बड़ा कीमती तोता है यह, बड़े सम्राट् के घर का तोता है, इस इस तरह की वाणियाँ जानता है, इस इस भाषा को पहचानता है, इस इस भाषा को बोलता है । और सैकड़ों लोग इकट्ठे हुए हैं । नसरूद्दीन भी उस भीड़ में खड़ा हो गया है । कई सौ रुपए में वह तोता नीलाम हुआ और बिक गया । नसरूद्दीन ने लोगों से कहा कि ठहरो, मैं इससे भी बढ़िया तोता लेकर अभी आता हूँ । भागा हुआ घर आया और अपने तोते के पिंजरे को लेकर बाजार में खड़ा कर दिया और कहा वह क्या तोता Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १६ ५१७ • I था ? अब दाम इसके बोलो। और जहाँ से उसकी बोली खत्म हुई वहाँ से शुरू करो । लोगों ने समझा कि उससे भी बढ़िया तोता आ गया है तो उन्होंने वोली शुरू की लेकिन तब धीरे-धीरे किसी ने कहा कि वह जो तोता था, वार-बार बोलता था, जवाब देता था, कई दफा बोली भी बढ़ाता था लेकिन यह तो कुछ बोलता ही नहीं है । नसरूद्दीन ने कहा कि बोलने वाले तोते का क्या मूल्य ? यह मौन तोता है, यह बिल्कुल परम स्थिति को पहुँच गया है । उन्होंने कहा हटाओ इसको । कोई एक पैसे का भी नहीं खरीदेगा इसे | उसने कहा बड़े पागल लोग हो तुम । लोगों ने कहा : अरे यह मूर्ख है नसरूद्दीन; इसकी बातों में क्यों पड़ते हो | यह पागल है इसमें कुछ अकल नहीं है । तोता सहित इसको निकाल बाहर करो । लोगों ने नसरूद्दीन को तोता सहित बाहर निकाल दिया । रास्ते पर लोगों ने पूछा : कहो नसरूद्दीन तोता बिका कि नहीं। उसने कहा कि क्या बिकता क्योंकि वहाँ खरीदाकर केवल वाणी को समझ सकते थे, मौन को कोई नही समझ सकता था । हम पिट गए क्योंकि वहां कोई मौन को समझने वाला न था । मैंने तो सोचा कि जब वाणी के इतने दाम लग रहे हैं तो मोन का तो मजा आ जाएगा । लेकिन लोगों को वह आदमी पागल लगता है । जो तोता बोलता नहीं उसको कौन खरीदेगा ? यह आदमी नसरूद्दीन निरन्तर अपने गधे पर यात्राएं करता है । गधे पर शक्कर भर कर जा रहा है। नदी पड़ी । गधा नदी में बैठ गया । सारी शक्कर बह गई । नसरूद्दीन ने गधे से कहा है कि तू हमसे भी ज्यादा बुद्धिमानी दिखला रहा है | ठहर बेटे, तुझे भी आगे बतलाएँगे । क्योंकि हम कोई साधारण आदमी नहीं, हम भी तर्क जानते हैं । गधे को वापस लाया । उस पर रूई लादी । उसे नदी के पास ले गया । गधा फिर बैठा । रूई भारी हो गई । गधे का उठना मुश्किल हो गया । उसने आस-पास के लोगों को बुलाकर कहा : देखो ! नसरुद्दीन जीत गया, गधा हार गया। लोगों ने कहा : तुम बिल्कुल जड़ बुद्धि हो तुम गधे से विवाद कर रहे हो । नसरूद्दीन ने कहा : विवाद गधे के सिवाय किससे करना पड़ता है। असल में गधों से झगड़ा है । गधों से बकवास है । दोनों एक से हैं । उनकी बातों का कोई मतलब नहीं । इस आदमी की जिन्दगी में ऐसे बहुत मौके हैं जब कि एकदम समझना मुश्किल हो जाता है कि यह आदमी क्या पागलपन कर रहा है । लेकिन पीछे Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० महावीर : मेरी दृष्टि में कहीं कोई बात छिपी रहती है । नसरूद्दीन जा रहा है एक रास्ते से । जोर की वर्षा हो रही है । एक मकान के पास बैठ गया है। गांव का मोलवी भाग रहा है वर्षा से । नसरूद्दीन चिल्लाता है : अरे मौलवी, भाग रहे हो। मैं सारे गांव को बता दूँगा। मौलवी ने कहा कि मैंने क्या अपराध किया है ? उसने कहा: पाप तुम कर रहे हो । भगवान् पानी गिरा रहा है और तुम भाग रहे हो । यह भगवान का अपमान है। तो मोलवी धीरे-धीरे चला लेकिन सर्दी से बुखार हो गया। तीसरे दिन मौलवी अपने घर के दरवाजे पर परेशान बैठा था जबकि पानी गिरने लगा । नसरूद्दीन भागा जा रहा था। मौलवी ने कहा : ठहर नसरूद्दीन । मुझे तो तूने धीरे चलने को कहा था, अब तू क्यों भाग रहा है। उसने कहा : भगवान् के पानी पर कहीं मेरा पैर न पड़ जाए इसलिए मैं भाग रहा हूँ और वह भाग गया। दूसरे दिन यह मौलवी मिला तो कहा कि तू बड़ा बेईमान है मुझे उपदेश दे रहा था मगर खुद क्या कर रहा है । नसरूद्दीन ने कहा : सब समझदार लोग बेईमान पाए जाते हैं । ईमानदारी करो तो नासमझ हो जाते हैं। फिर व्याख्या हमेशा अपने अनुकल करनी पड़ती है। शास्त्रों का क्या भरोसा ? अपने पर भरोसा रखना पड़ता है । तुम जब पानी में थे तो हमने वह व्याख्या की । जब हम पानी में हैं तो हमने यह व्याख्या की। सभी बुद्धिमान् यही करते हैं। ऊपर से मन्द बुद्धि मालूम होता है यह आदमी जो लोग परम प्रज्ञा को उपलब्ध होते हैं उनमें से एक है यह आदमी। मगर उसे पकड़ना मुश्किल है । और कई बार उसकी बातें बड़ी बेहूदी मालूम होती हैं । घर लौट रहा है । एक मित्र ने कुछ मांस भेट दिया है और साथ में एक किताब दी है जिसमें मांस बनाने की तरकीब लिखी है । किताब बगल में दबाकर, मांस हाथ में लेकर बड़ी खुशी से भागा चला आ रहा है। चील ने झपटा मारा । चील मांस ले गई । नसरूद्दीन ने कहा : अरे मूर्ख जा क्योंकि बनाने की तरकीब तो किताब में लिखी है।" घर पहुंचा। घरं जाकर अपनी पत्नी से कहा : सुनती हो । आज एक चील बड़ी बेवकूफ निकली। क्या हुआ ? मैं मांस लेकर आ रहा था। वह मांस ले गई लेकिन मांस बनाने की तरकीब तो किताब में लिखी है। उसकी औरत ने कहा कि तुम बहुत बुद्ध हो. चील इतनी बुद्ध नहीं है । उसने कहा कि सभी बुद्धिमानों को मैंने किताब पर भरोसा करते पाया है । इसीलिए मैंने भी किताब पर भरोसा किया। यह आदमी एक बार तो दिखेगा कैसा पागल है? जड़ बुद्धि है । लेकिन कहीं कोई गहरे में उसकी भी अपनी समझ है और Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१६ ५१९ वह इतने बड़े व्यंग भी कर रहा है और इतनी सरलता से कि किसी के ख्याल में आए तो उसके प्राणों में घुस जाए, न आए तो वह आदमी बुद्ध है । बहुत बार ऐसा हो सकता है कि हमें पकड़ में ही न आए कि क्या बात है। लेकिन हमें पकड़ में तभी आएगा जब हमारी समझ उतनी गहराई पर खड़ी हो। प्रश्न : क्या महावीर को अहिंसा पूर्ण विकसित है ? क्या महावीर के बाद अहिंसा का उत्तरोत्तर विकास नहीं हुआ है ? क्या गीता और बाइबिल में महावीर से भी अधिक सूक्ष्म रूप हैं ? उत्तर : पहली बात यह है कि कुछ ऐसी चीजें हैं जो कभी विकसित नहीं होती । विकसित हो ही नहीं सकतीं। वे चीजें हैं जहाँ हमारा विचार, हमारा मस्तिष्क, हमारी बुद्धि, सब शांत हो जाते हैं। और वे तब हमारे अनुभव में आती है। जैसे कोई कहे कि बुद्ध को ज्ञान उपलब्ध हुए पचीस सौ साल हो गए । अब जिन लोगों को ज्ञान उपलब्ध हुआ है वह आगे विकसित होता है या नहीं? महावीर के बाद आज तक की अवधि में लोग विकसित हो गए हैं तो ध्यान आगे विकसित होगा या नहीं, ध्यान है स्वयं में उतर जाना। स्वयं में कोई चाहे लाख साल पहले उतरा हो और चाहे अब उतर जाए। स्वयं में उतरने का अनुभव एक है, स्वयं में उतरने की स्थिति एक है । इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। महावीर को जो अहिंसा प्रकट हुई वह उनकी स्वानुभूति का ही बाह्य परिणाम है। भीतर उन्होंने जाना जीवन की एकता को और बाहर उनके व्यवहार में जीवन को एकता अहिंसा के रूप में प्रतिफलित हुई। अहिंसा का मतलब है जीवन की एकता का सिद्धान्त, इस बात का सिद्धान्त कि जो जीवन मेरे भीतर है, वही तुम्हारे भीतर है । तो मैं अपने को ही कैसे चोट पहुंचा सकता हूँ। मैं ही हूँ तुममें भी फैला हुआ। जिसे यह अनुभव हुआ हो कि मैं ही सब में फैला हुआ हूँ, या सब मुझसे ही जुड़े हुए जीवन है उसके व्यवहार में अहिंसा फलित होती है। इसमें क्राइस्ट को हो कि किसी और को हो, जीवन की एकता का यह अनुभव कम ज्यादा कैसे हो सकता है ? यह थोड़ा समझने जैसा है। __ अक्सर हम सोचते हैं कि सब चीजें कम ज्यादा हो सकती है। समझ लें कि आपने एक वृत्त ( सकिल ) खींचा। कभी आपने सोचा कि कोई वृत्त कम और कोई वृत्त ज्यादा हो सकता है ? हो सकता है कि जो वृत्त आपने खींचा है Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में कुछ कम हो, दूसरा वृत्त कुछ ज्यादा हो ? यह नहीं हो सकता क्योकि वृत्त का अर्थ ही यह है कि या तो वह वृत्त होगा, या नहीं होगा । कम ज्यादा नहीं हो सकता । जो वृत्त कम है, वह वृत्त ही नहीं है । जैसे प्रेम है । कोई आदमी कहे कि मुझे कम प्रेम है या ज्यादा प्रेम है तो शायद उस आदमी को प्रेम का पता हो नहीं है । प्रेम या तो होता है या नहीं होता है । उसके कोई टुकड़े नहीं होते । और ऐसा भी नहीं कि प्रेम विकसित होता हो क्योंकि विकसित तभी हो सकता है जब थोड़ा-थोड़ा हो सकता हो । ऐसा नहीं होता । अक्सर हमारी पसंद विकसित होती है इसलिए हम सोचते हैं कि प्रेम विकसित हो रहा है । पसंद और प्रेम में बहुत फर्क है। पसंद कम हो सकती है, ज्यादा हो सकती है लेकिन प्रेम न कम होता है, न ज्यादा होता है। या तो होता है या नहीं होता । ऐसा कोई नहीं कह सकता कि ऐसा वक्त आएगा जब लोग ज्यादा प्रेम करेंगे । ऐसा नहीं हो सकता । ५२० जीवन के जो गहरे अनुभव हैं, वे होते हैं या नहीं होते । महावीर को जो जीवन की एकता का अनुभव हुआ वही जीसस को हो सकता है, बुद्ध को हो सकता है, लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि उसमें किसी को ज्यादा हो और किसी को कम हो । होगा तो होगा, नहीं होगा तो नहीं होगा । दुनिया में कुछ चीजें हैं आन्तरिक जो कभी विकसित नहीं होती । जब वे उपलब्ध होती हैं, पूर्ण ही उपलब्ध होती हैं या उपलब्ध होती ही नहीं हैं । जैसे की पानी भाप बन रहा है । निन्यानबे डिग्री पर गर्मी हो गई, अभी भाप नहीं बना है । अट्ठानवे डिग्री पर था, भाप नहीं बना, नब्बे डिग्री पर था, भाप नहीं बना, एक सौ डिग्री पर आया कि भाप बन गया। गर्मी कम ज्यादा हो सकती है । अस्सी डिग्री, नब्बे डिग्री, पचानवे डिग्री, निन्यानवे डिग्री | दस बर्तन रखे हैं डिग्री का पानी है । उनमें पानी अभी भाप नहीं हो सकती है । कम होगी तो भाप नहीं बनेगी। बनेगी । या तो भाप बनती है, या नहीं बनती है। नहीं होती । भाप बनने की स्थिति आने तक पानी की डिग्रियाँ हो बन रहा है सबमें अलग-अलग । गर्मी कम-ज्यादा जब पूरी होगी इसके बीच में तभी भाप कोई डिग्री सकती हैं । ज्ञान की डिग्रियां होती हैं ज्ञान की कोई डिग्री नहीं होती हालांकि हम सब ज्ञान की डिग्रिय देते हैं । एक आदमी कम अज्ञानी, एक आदमी ज्यादा अज्ञानी, यह सार्थक है । लेकिन एक आदमी कम ज्ञानी, एक आदमी ज्यादा ज्ञानी - यह बिल्कुल ही असंगत, निरर्थक बात है । कम-ज्यादा ज्ञान होता ही महीं। हाँ, अज्ञान कम-ज्यादा हो सकता है। दो अज्ञानियों में भी ज्ञान Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१६ ५२१ का फर्क नहीं होता सिर्फ सूचना का फर्क होता है। एक आदमी यूनिवर्सिटी से लौटता है, सूचनाएं इकट्टा करता है। उसका ही एक भाई गांव में, देहात में रह गया था। सूचनाएं इकट्ठो नहीं कर पाया। ये दोनों मिलते हैं तो एक ज्ञानी मालूम पड़ता है, दूसरा अज्ञानी मालूम पड़ता है। असल में दोनों अज्ञानी हैं। एक के पास सूचनाओं का ढेर है, एक के पास सूचनाओं का ढेर नहीं है । एक ज्यादा अज्ञानी है, यह कम अज्ञानी है, मगर यह भी ज्ञान के हिसाब से नहीं है तोल । जब ज्ञान प्राता है तो बस आता है। जैसे आँख खुल जाए और प्रकाश दिख जाए, जैसे दिया जल जाए और अंधेरा मिट जाए। ज्ञानी कभी छोटे-बड़े नहीं होते। लेकिन हम कि अज्ञानी हैं सब और छोटे-बड़े की भाषा में जीते हैं तो हम ज्ञानियों के भी छोटे-बड़े होने का हिसाब लगाते रहते हैं। कोई कहता है कबीर बड़ा कि नानक, महावीर बड़े कि बुद्ध, राम बड़े कि कृष्ण, कृष्ण बड़े कि मुहम्मद । इस तरह बड़े-छोटे का हिसाब लगाते रहते हैं अपने हिसाब से । कोई बड़ा-छोटा नहीं है वहाँ । आज से तीन सौ चार सौ साल पहले सारी दुनिया में एक ख्याल था कि अगर हम छत पर खड़े होकर एक छोटा और एक बड़ा पत्थर गिरायें साथसाथ तो बड़ा पत्थर पहले पहुँचेगा जमीन पर, छोटा पत्थर पीछे । यह बिल्कुल ठीक गणित था। किसी ने गिरा कर देखा नहीं था। गणित बिल्कुल साफ हो दिखता था। क्योंकि बड़ा पत्थर है, पहले गिरना चाहिए। छोटा पत्थर है बाद में गिरना चाहिए। जिस पहले आदमी ने पिसा के टावर पर पहली दफा खड़े होकर पत्थर गिरा कर देखा कि दोनों पत्थर साथ-साथ गिरे तो उसने दोचार बार गिरा कर देखा कि कहीं कुछ भूल जरूर हो रही है क्योंकि बड़ा पत्थर छोटा पत्थर साथ-साथ कैसे गिरे । फिर जब उसने यूनिवसिटी के प्रोफेसरों को कहा कि दोनों पत्थर साथ-साथ गिरते हैं तो उन्होंने कहा : तुम पागल हो गए हो, ऐसा कभी हुआ है ? हालांकि ऐसा किसी ने कभी देखा नहीं था जाकर। फिर भी उसने कहा कि ऐसा हुआ है। प्रोफेसर बामुश्किल देखने गए क्योंकि पंडितों से ज्यादा जड़ कोई भी नहीं होता। वह जो पकड़े रखते हैं, उसको इतनी जड़ता से पकड़ते हैं कि उसको इंच दो इंच भी हिलने नहीं देते । जब पत्थर गिराकर देखा तो कहा इसमें जरूर कोई शरारत है, इसमें जरूर कोई तरकीब की बात है क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि बड़ा पत्थर और छोटा पत्थर दोनों साथ-साथ गिरें। इसमें कोई तरकीब है या शैतान का हाथ है। और तुम इस झंझट में मत पड़ो। इसमें शैतान कुछ पीछे शरारत कर रहा है, Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२२ महाबीर । मेरी दृष्टि में भगदान के नियमों में गड़बड़ कर रहा है । असल में बड़े छोटे पत्थर बड़े-छोटे होने के कारण नहीं गिरते। गिरते हैं जमीन की कशिश के कारण। और कशिश दोनों के लिए बराबर है। छत पर से गिर भर जाएं फिर बड़ा और छोटा होने का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य कशिश की है और वह सबके लिए बराबर है। एक सीमा है मनुष्य की। उस सीमा से बाहर मनुष्य छलांग भर लगा जाए, फिर परमात्मा की कशिश उसे खींचती है। फिर उसे कुछ नहीं करना पड़ता । उस सीमा के बाद कोई छोटा-बड़ा नहीं रह जाता। फिर सब पर बराबर कशिश काम करती है । एक सीमा भर है। उस सीमा को मैं कहता हूँ विचार । जिस दिन आदमी विचार से निर्विचार में कूद जाता है उसके बाद फिर कोई छोटा बड़ा नहीं रहता, कोई कमजोर नहीं है, कोई ताकतवर नहीं है। कोई फर्क हो नहीं है। बस एक बार विचार से कूद जाए निविचार में फिर जो जीवन की, अस्तित्व की परम शक्ति है, वह खींच लेती है एक साथ । तो हमारे सब फर्क कूदने के पहले के फर्क हैं। जब तक हम नहीं कूदे हैं तब तक के हमारे फर्क हैं । जिस दिन हम कूद गएं उस दिन कोई फर्क नहीं है । महावीर ने जो छलांग लगाई है वही कृष्ण की है, वही क्राइस्ट की है। उसमें कोई फर्क नहीं है। __ इसलिए कोई विकास अहिंसा में कभी नहीं होगा। महावीर ने कोई विकास किया है, इस भूल में भी नहीं पड़ना चाहिए। महावीर ने जो छलांग लगाई है, वह अनुभव वही है। मगर उस अनुभव की अभिव्यक्ति में भेद है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है कि महावीर ने पहली बार अहिंसा का अनुभव किया हो । लाखों लोगों ने पहले किया है। लाखों लोग पीछे करेंगे। यह अनुभव किसी की बपौती नहीं है। जैसे हम आँख खोलेंगे तो प्रकाश का अनुभव होगा। यह. किसी की बपौती नहीं है। मेरे पहले लाखों, करोड़ों, अरबों लोगों ने आँख खोली और प्रकाश देखा। और मैं भी आँख खोलूंगा तो प्रकाश देखूगा । मेरी इसमें कोई बपौती नहीं है कि मेरे पीछे आने वाले लोग आँख खोलेंगे तो मुझसे कम देखेंगे या ज्यादा देखेंगे। आँख खुलती है तो प्रकाश दिखता है। कोई विकास नहीं हुआ है, कोई विकास हो ही नहीं सकता। कुछ चीजें हैं जिनमें विकास होता है । परिवर्तनशील जगत् में विकास होता है। शाश्वत, सनातन अन्तरात्मा के जगत् में कोई विकास नहीं होता। वहीं जो जाता है, परम अन्तिम में पहुंच जाता है। वहाँ कोई विकास नहीं, कोई Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १६ ५२३ आगे नहीं, कोई पीछे नहीं । वहाँ सब पूर्ण के निकट होने से, पूर्ण में होने से कोई विकास नहीं होता । परमात्मा से मतलब समग्र जीवन के अस्तित्व का है । वहीं विकास का कोई अर्थ ही नहीं । जैसे एक बैलगाड़ी जा रही है, चाक चल रहे हैं । बैलगाड़ी में बैठा हुआ मालिक भी चल रहा है, बैल-भी चल रहे हैं । बैलगाड़ी प्रति पल आगे बढ़ रही है। विकास हो रहा है। लेकिन कभी आपने ख्याल किया कि बढ़ते हुए चाकों के बीच में एक कील है रही है, जो वहीं की वहीं खड़ी है । चाक उसके ऊपर घूम रहा है । अगर कील भी चल जाए तो चाक गिर जाएगा । कील नहीं चलतो है इसलिए चाक चल पाता है । कील भी चली कि अभी गाड़ी गई। फिर कोई विकास नहीं होगा । जो हिल भी नहीं 1 मेरा कहना है कि जो कि विकास हो रहा है वह किसी एक चीज के केन्द्र पर हो रहा है पूर्ण के चारों तरफ विकास का चक्र घूम रहा है और पूर्ण अपनी जगह खड़ा हुआ है । हो सकता है आपने कील पर ख्याल ही न किया हो, सिर्फ चाक के घूमने को ही देखा हो । लेकिन जिसने कील पर ख्याल कर लिया उसके लिए चाक का घूमना बेमानी हो जाता है। कबीर ने एक पंक्ति लिखी है कि चलती हुई चक्की को देखकर कबीर रोने लगा । और उसने लौट कर अपने मित्रों से कहा कि बड़ा दुःख मुझे हुआ क्योंकि दो पाटों के बीच जितने दाने मैंने पड़े देखे, सब चूर हो गए। और दो पाटों के बीच में जो पड़ जाता है, वह चूर हो जाता है । उसका लड़का कमाल हँसने लगा । उसने कहा : ऐसा मत कहो । क्योंकि एक कील भी है दो चाकों के बीच में और जो उसका सहारा पकड़ लेता है, वह कभी चूर होता हो नहीं । इस पूरे अस्तित्व के विकासचक्र के बीच में भी एक कील है । उस कील को कोई परमात्मा कहे, धर्म कहे, आत्मा कहे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । जो उस कील के निकट पहुँच जाता है वह उतना ही चाकों के बाहर हो जाता है । उस कील के तल पर कोई गति नहीं है । सब गति उसी के ऊपर ठहरी हुई है । महावीर जैसे व्यक्ति कोल के निकट पहुँच गये हैं- जहाँ कोई लहर भी नहीं उठती, कोई तरंग भी नहीं उठती, जहाँ कभी विकास नहीं होता, जहाँ कोई भी पहुँचे, अनुभव वही होगा । जहाँ गति नहीं, वहाँ कोई विकास नहीं । तो महावीर की अहिंसा में कोई गति नहीं है, कोई प्रगति नहीं है, कोई विकास नहीं है । Page #449 --------------------------------------------------------------------------  Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ प्रश्नोत्तर - प्रवचन Page #451 --------------------------------------------------------------------------  Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : महावीर के भी विरोधी थे। क्या उनके विरोध की चिन्ता महावीर को नहीं थी ? अहिंसक व्यक्ति के भी विरोधी पैदा होना अहिंसा के विषय में संदेह पैदा करता है । उत्तर : ऐसी धारणा रही है कि जो अहिंसक है उसका कोई विरोधी नहीं होना चाहिए | क्योंकि जिसके मन में द्वेष, विरोध, घृणा, हिंसा नहीं है, उसके प्रति घृणा, हिंसा और द्वेष क्यों होना चाहिये ? ऊपर से देखे जाने पर यह बात बहुत सोधी और साफ मालूम पड़ती है । लेकिन जीवन ज्यादा जटिल है और जितने सरल सिद्धान्त होते हैं, जीवन उतना सरल नहीं है । सच तो यह है कि पूर्ण अहिंसक व्यक्ति के विरोधी पैदा होने की सम्भावना अधिक है । उसके कारण हैं । पहला कारण तो यह है कि हम सब हिंसक हैं तो हिंसक से हमारा ताल-मेल बैठ जाता है । अहिंसक व्यक्ति हमारे बीच एकदम अजनबी हैं, L उसे बरदाश्त करना भी मुश्किल है । बरदाश्त न करने के कई कारण हैं । पहली बात यह है कि अहिंसक व्यक्ति की मौजूदगी में हम इतने ज्यादा निन्दित प्रतीत होने लगते हैं, इतने ज्यादा दीन-हीन, इतने ज्यादा क्षुद्र, कि हम निन्दित होने का बदला लिए बिना नहीं रह सकते। हम बदला लेंगे ही। पूर्ण अहिंसक - व्यक्ति हिंसक व्यक्ति के मनों में अनजाने हो तीव्र देता है । यह भावना हिंसा के कारण पैदा होती है । बदले की भावना पैदा कर महावीर जैसे व्यक्ति को अनिवार्य है कि लाखों विरोधी मिल जाएं। लेकिन इससे उनकी अहिंसा पर संदेह नहीं होता। इससे खबर मिलती है कि आदमी इतना अजनवी था कि हम सब उसे स्वीकार नहीं कर सकते थे और जब हम उसे स्वीकार भी करेंगे तब हम उसे आदमी न रहने देंगे; हम उसे भगवान् बना Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में देंगे। वह भी अस्वीकार की एक तरकीब है। पूजा कर सकते हैं उसकी । लेकिन चूंकि वह आदमी ही नहीं है इसलिए आदमियों को उससे अब क्या लेनादेना रह जाता है । पहले हम निन्दा करते हैं, विरोध करते हैं । अगर अहिंसक व्यक्ति भी हिंसा पर उतर आए तो हमारी और उसकी भाषा एक हो जाती है । तब तो उपाय मिल जाता है । और अगर वह अपनी अहिंसा पर खड़ा रहे और हमारी हिंसा उसमें कोई फर्क न कर पाए तो फिर हमें कोई उपाय नहीं मिलता । हारे-थके, पराजित फिर हम उसे भगवान् बना देते हैं । यह दूसरी तरकीब है आखिरी जिससे हम उसे मनुष्यजाति से बाहर निकाल देते हैं । फिर हमें इसकी चिन्ता करने की जरूरत नहीं रह जाती । फिर हम निश्चिन्त हो जाते हैं । यह भी समझना जरूरी है कि मैं कितने ही जोर से बोलूं, और मेरे बोलने में कितना ही प्रेम हो, कितनी हो आवाज हो, कितनी बड़ी ताकत हो लेकिन जो बहरा है उस तक मेरी आवाज नही पहुँचेगी। यानी जब मैं बोलता हूँ तो दो बाते हैं : मेरा बोलना और आपका सुनना । अगर बहरे तक आवाज न पहुँचे तो यह नहीं कहा जा सकता कि मैं गूंगा था । मेरे बोलने पर इसलिए शक नहीं किया जा सकता कि बहरे तक आवाज नहीं पहुँची, इसलिए मैं गूंगा था । महावीर के अहिंसक होने में इसलिए शक नहीं हो सकता कि हिंसक चित्तों तक उनकी आवाज नहीं पहुँच पाती । बहुत गहरे में हम बहरे हैं । न हम सुनते हैं, न हम संवेदन करते हैं, न हम देखते हैं। ५२८ इसी सम्बन्ध में एक प्रश्न और भी किसी ने पूछा है कि महावीर के प्रेम में क्या कुछ कमी थी कि वह गोशालक को समझा न पाए । निश्चित हो, समझने में प्रेम काम आता है और पूर्ण प्रेम समझने की पूरी व्यवस्था करता है । लेकिन इससे यह सिद्ध नहीं होता कि पूर्ण प्रेमी समझा हो पाएगा। क्योंकि, दूसरी तरफ पूर्ण घृणा भी हो सकती है जो समझने को राजी ही न हो, पूर्ण बहरापन भी हो सकता है जो सुनने को राजी न हो । महावीर के प्रेम या अहिंसा पर इसलिए शक नहीं हो सकता कि वह दूसरे को नहीं समझा रहे हैं, या दूसरे को नहीं बदल पा रहे हैं, या दूसरे की हिंसा नहीं मिटा पा रहे हैं । इसके तो कई कारण हो सकते हैं । महावीर की अहिंसा की जांच करनी हो तो दूसरे की तरफ से जाँच करना गलत है। देखना उचित है। सूरज को जानना हो तो किसी अंधे आदमी को माध्यम बनाकर जानना गलत है । हम अंधे आदमी से जाकर पूछें कि सूरज है और वह कहे कि नहीं है तो हम कर सकते हैं कि कैसा सूरज है जो एक अंधे आदमी को सीधे महावीर को ही Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१७ ५२९ भी दिखाई नहीं पड़ रहा है । अगर कोई अंधे से सूरज को जांच करने जाएगा तो सूरज के साथ अन्याय हो जाएगा। सूरज की जांच करनी हो तो सीधी करनी होगी, कोई मध्यस्थ बीच में लेना खतरनाक है क्योंकि तब जांच अधूरी हो जाएगी और मध्यस्थ महत्त्वपूर्ण हो जाएगा। और मध्यस्थ के पास आंखें होंगी तो सूरज हो जाएगा, धोमी आँखें होंगी तो सूरज का प्रकाश धीमा हो जाएगा, अन्धा होगा तो सूरज नहीं होगा । सीधा ही देखना जरूरी है। महावीर को भी सीधा देखना जरूरी है। तभी हम पहचान सकते हैं कि उनकी अहिंसा और उनका प्रेम पूर्ण है या नहीं। लेकिन कई बार ऐसा होता है कि हमारी खुद को आँखें इतनी कमजोर होती है कि सीधा देखना मुश्किल हो जाता है। तो हम परोक्ष देखते हैं, किसी और से पूछते हैं। खुद की आँखों की इतनी ताकत भी नहीं कि सूरज के सामने सीषा देख लें। तो हम दूसरों से खबर जुटाने जाते हैं। और यही कारण है कि महावीर, कृष्ण या क्राइस्ट जैसे लोगों के सम्बन्ध में हम सीधा देखने से बचते हैं । वहाँ भी प्रकाश बहुत गरिमा में प्रकट होता है। वहाँ भी साधारण कमजोर आंखें बन्द हो जाती हैं, देख नहीं पाती हैं। इसलिए हम बीच के गुरुओं को खोजते हैं, आचार्यों को खोजते हैं, टोकाकारों को खोजते हैं, व्याख्याकारों को खोजते हैं। उनके माध्यम से हम देखना चाहते हैं। गीता को हम सीधा नहीं देखना चाहते, टोकाकार से देखना चाहते हैं। हम आँख को सीधा उठाने की कोशिश भी नहीं करते। प्रश्न : महावीर ने जिन सिद्धान्तों की चर्चा की, जैसे अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अनेकान्त-उनका प्रयोगात्मक रूप क्या हो सकता है ? उत्तर । इस सम्बन्ध में भी बड़ी भूल हुई है। पहली बात यह है कि सत्य अहिंसा, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, अचौर्य ये सिद्धान्त नहीं है । और इसलिए इनका . सीधा प्रयोग करने की बात हो गलत है । इनका सीधा प्रयोग हो ही नहीं सकता। जैसे एक आदमी भूसा इकट्ठा करना चाहता हो तो उसे गेहूँ बोना पड़ता है खेत में, भूसा नहीं। और अगर वह पागल आदमी भूसा पैदा करने के लिए भूसा हो वो दे तो जो पास का भूसा है वह भी खेत में सड़ जाएगा, कुछ पैदा नहीं होगा। क्योंकि भूसा उप-उत्पत्ति ( बाई प्रोडेक्ट ) है, गेहूँ के साथ पैदा होता है। गेहूँ पैदा होता है तो उसके पीछे वह भी पैदा होता है । गेहूँ पैदा न हो तो अकेला भूसा पैदा करने का कोई उपाय हो नहीं है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ महावीर : मेरी दृष्टि में बृदले, मुँहपट्टी बांधी और साधु हो गया । कल तक असाधु था, आज साधु हो गया । और कल फिर मुंह-पट्टी फेंक दी, वस्त्र बदल लिए फिर असाधु हो गया । यह मुंह-पट्टी, वस्त्र और यह सब का सब जो बाह्य आडम्बर है, अगर किसी को साधु बनाता है तो बड़ी आसान बात है । कोई साधू बन सकता है, फिर असाधु बन सकता है । लेकिन कभी सुना है ऐसा कि कोई साधु हो गया हो, और फिर असाधु हो जाए | क्योंकि जिसने साधुता का आनन्द जाना है, वह कैसे असाधु होने के दुःख में उतरेगा। असल में वह साधु हुआ ही नहीं था, सिर्फ वस्त्र हो बदले थे, सिर्फ वेष ही बदला था, सिर्फ ढोंग बदला था, सिर्फ अभिनय बदला था । अभिनय फिर बदला जा सकता है। जो हमारे ऊपर की बदलाहट है वह हमारे भीतर की बदलाहट नहीं है । महावीर साधु नहीं बने क्योंकि जो साधु बना है, वह कल असाधु बन सकता है । शायद महावीर को पता ही नहीं चला होगा कि वह साधु हो गए हैं । होने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त धीमी, शान्त और मोन है । बनने की जो प्रक्रिया है वह अत्यन्त घोषणापूर्ण है । बैंड-बाजे के साथ बनना होता है । बनने की प्रक्रिया भीड़-भाड़ के साथ है, जुलूस के साथ है । बनने की प्रक्रिया और है, होने की प्रक्रिया और है। रात में कली खिल जाती है, फूल बन जाती है, शायद पौधे को भी पता न चलता होगा । कब एक छोटा-सा अंकुर बड़ा पत्ता बन जाता है, शायद पत्ते को भी पता न चलता होगा। आप कब बच्चे थे और कब जवान हो गये, कब जवान थे और कब बूढ़े हो गए, कब जन्मे थे, और कब मर जाएँगे, पता चलेगा क्या ? यह सब चुपचाप हो रहा है । जीवन चुपचाप काम कर रहा है । ठीक ऐसे ही अगर कोई अपनी असाधुता को समझता चला जाए, तो वह एक दिन हैरान होगा कि कब वह साधु हो गया, किस क्षण बदल गया । वेष वही होता है, वस्त्र वही होते हैं, सब वही होता है । लेकिन यह घटना चुपचाप घट जाती है । महावीर न कभी साधु बने और न महावीर ने कभी किसी को कहा कि तुम साधु बनो । हाँ, महावीर को देखने वाले लोग साधु बने और उन्होंने दूसरों को यह समझाया कि साधु बनो । बस देखने में भूल हो जाती है । क्योंकि देखने में हमें 'क्रमिक विकास दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ बाहर की घटनाएं दिखाई पड़ती हैं कि बाहर कल आदमी ऐसा था आज ऐसा हो गया । भीतर का, बीच का सेतु छूट: जाता है । वही मूल्यवान् है । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १७ १३५ कुछ वर्ष हुए एक मुसलमान वकील मुझे मिलने आए और उन्होंने मुझे कहा- कई महीनों से आना चाहता था लेकिन नहीं आया । चित्त अशान्त था । पूछना चाहता था आपसे कि कैसे शांत हो जाऊँ । लेकिन यह डर लगता था कि आप कहेंगे कि मांस खाना छोड़ो, चोरी करना छोड़ो, बेईमानी छोड़ो, शराब मत पिओ, जुआ मत खेलो - और ये सब मेरे पीछे लगे हैं । जब भी किसी साधु के पास गया उसने यही कहा कि यह सब छोड़ो तभी शांत हो सकते हो । ये मुझसे छूटते नहीं फिर मैंने साधुओं के पास जाना ही बंद कर दिया । इसलिए मैं आपके पास नहीं आया। फिर मैंने कहा । आज आप कैसे आए ? उसने कहा, आज किसी मित्र के घर खाना खाने गया था ! उन्होंने मुझसे कहा कि आप कहते हैं कि कुछ छोड़ो ही मत । तो मुझे लगा कि इस आदमी के पास जाना चाहिए | आप कुछ भी छोड़ने को नहीं कहते ; शराब पी सकता हूँ, जुआ भी खेल सकता हूँ । मैंने कहा मुझे तुम्हारे शराब और जुए से क्या मतलब | यह तुम्हारा काम है, तुम जानो । तो उसने कहा कि फिर आपसे मेरा मेल पड़ सकता है । फिर मैं क्या करूं ? अशांत हूँ, दुःखी हूँ। मैंने कहा कि आप ध्यान का छोटा-सा प्रयोग करें । आत्म-स्मरण का प्रयोग शुरू करें। आधा घंटा रोज बैठकर अकेले स्वयं ही रह जाएँ, सब भूल जाएं। उतनी देर मन में जुआ न खेलें । बाहर के जुए से मुझे कोई मतलब नहीं। उतनी देर मन में शराब न पिएं, बाहर की शराब में मुझे कोई मतलब नहीं । उतनी देर मांस न खाएँ, बस इतना बहुत है । उन्होंने कहा कि यह हो सकता है। आधा घंटा बचा सकता हूँ । फिर छः महीनों के बाद वह आदमी वापस आया। उसकी चाल बदल गई थी । वह आदमी बदल गया था । उसने मुझे आकर कहा कि आपने मुझे धोखा दिया । मैं क्यों आपको घोखा दूँ ? वह आधा घंटा तो ठीक था लेकिन मेरे साढ़े तेईस घंटे दिक्कत में पड़ जाते हैं । कल मैंने शराब पी और मुझे वमन हो गया उस वक्त । क्योंकि मेरा पूरा मन इन्कार कर रहा था। रिश्वत लेने में एकदम हाथ खिंच गए पीछे जैसे कोई जोर से कह रहा हो कि तुम क्या कर रहे हो ? क्योंकि उस आधा घंटा में जो शान्ति और आनन्द मुझे मिल रहा है, वह अब मैं चाहता हूँ कि चौबीस घंटे में फैल जाए। मैंने कहा वह तुम्हारा काम है । • छः महीने बाद वह आदमी दुबारा आया और उसने कहा कि जो आनन्द मैंने उस आधे घंटे में पाया वह सारे जीवन में नहीं पाया। अब मैं मांस नहीं खा सकता । अब मुझे तकलीफ होती है यह सोचकर कि मैं इतने दिन कितना Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में संवेदनहीन था कि मांस खाता रहा। आज मैं सोच भी नहीं पाता कि मैं इतने वर्षों तक कैसे शराब पीता रहा ? मैंने कहा अब क्या दिक्कत है शराब पीने में ? उसने मुझे कहा कि दिक्कत बहुत साफ हो गई है। पहले मैं अशांत था शराब पीता था, अब मैं शान्त हूँ शराब नहीं पीता हूँ। फिर मैंने कहा कि यह तुम्हारी मर्जी है । अब जो तुम समझो करना । महावीर का ध्यान ऐसा है कि जो उस ध्यान से गुजरेगा वह मांसाहार नहीं कर सकता है । महावीर कहते नहीं किसी को कि मांसाहार मत करो । वह ध्यान ऐसा है कि आप उससे गुजरेंगे तो मांसाहार नहीं कर सकते । इतने संवेदनशील हो जाएंगे आप कि ये बात मूर्खतापूर्ण मालूम पड़ेगी, जड़तापूर्ण मालूम पड़ेगी कि भोजन के लिए किसी का प्राण लिया जाए। महावीर कहते हैं कि जो ध्यान से गुजरेगा वह शराब नहीं पी सकता है क्योंकि वह ध्यान इतने जागरण में, इतने आन्द में ले जाता है कि शराब पीना उस सबको नष्ट करना होगा । लेकिन हमारी हालत उल्टी है । हम पकड़े हुए हैं कि मांस मत खाओ, शराब मत पियो, यह मत करो, वह मत करो, बस फिर जो महावीर को है, आपको हो जाएगा । मगर कभी नहीं होने वाला है यह । क्योंकि आप गलत दिशा की ओर चल पड़े हैं। आप भूसा बो रहे हैं, गेहूँ का आपको पता ही नहीं है । प्रश्न : महावीर समानता के समर्थक थे । फिर भी उनके संघ में साध्वीसंघ उपेक्षित क्यों रहा ? उत्तर : यह बहुत विचारणीय बात है । महावीर के मन में स्त्री-पुरुष के बीच असमानता का कोई भाव नहीं है । समानता की पकड़ इतनी गहरी है कि मनुष्य और पशु में भी, मनुष्य और पौधे में भी वह असमानता का भाव नहीं रखते । लेकिन फिर भी स्त्री और पुरुष के बीच साधुसंघ में उन्होंने कुछ मेव किया है और उसके कुछ कारण हैं । और वह कारण अब तक नहीं समझे जा सके हैं । न समझे जाने का रहस्य आपको ख्याल में आ सकता है । महावीर स्त्री के विरोध में नहीं हैं, स्त्रेणता के विरोधी हैं और इसको नहीं समझा जा सका। महावीर पुरुष के पक्ष में नहीं हैं लेकिन पुरुष होने का एक गुण है, उसके पक्ष में हैं । इन बातों को हम समझेंगे तो ख्याल में आ जाएगा । कई पुरुष हैं जो स्त्रेण हैं, कई स्त्रियाँ हैं जो पुरुष हैं । स्त्रेणता का अर्थ है निष्क्रयता । पुरुषत्व का अर्थ है सक्रियता तो भी आक्रमण नहीं करती। 1 पुरुष आक्रामक है । स्त्री अगर प्रेम भी करे वह जानकर किसी को पकड़ नहीं लेती कि मुझे Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रबचन- १७ तुमसे प्रेम है। प्रेम भी करे तो चुपचाप बैठकर प्रतीक्षा करती है कि तुम आओ और उससे कहो कि 'मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ ।' स्त्री आक्रामक नहीं है । स्त्रेण चित्त आक्रामक नहीं है । इससे स्त्री का ही सम्बन्ध नहीं है । बहुत पुरुष ऐसे हैं जो इसी भाँति प्रतिक्षा करेंगे। महावीर का कहना है-जैसा मैंने पीछे समझाया कि महावीर की पूरी साधना संकल्प की, श्रम की साधना है - कि जिसे सत्य पाना है उसे यात्रा पर निकलना होगा, उसे खोज में जाना होगा, उसे जुझना पड़ेगा, उसे चुनौती, साहस, संघर्ष में उतरना पड़ेगा । ऐसे बैठ कर सत्य नहीं मिल जाएगा । ५३७ तो महावीर कहते हैं कि स्त्री को भी अगर सत्य पाना है तो पुरुष होना पड़ेगा । इस बात को बहुत गलत समझा गया। ऐसा समझा गया कि स्त्री योनि से मोक्ष असम्भव है । स्त्री को भी एक जन्म लेना पड़ेगा पुरुष का, फिर पुरुषयोनि से मोक्ष हो सकेगा । बात बिल्कुल दूसरी है । पुरुषयोनि से ही मोक्ष हो सकता है महावीर के मार्ग पर । लेकिन पुरुष योनि का मतलब पुरुष हो जाना नहीं है शरीर से, पुरुष योनि का मतलब है निष्क्रयता छोड़ देना । एक स्त्री है। उसके मन को सहज यही लगता है कि वह कृष्ण का गीत गाए और कहे तुम्ही ले चलो जहाँ ले चलना हो। तुम्ही हो मार्ग, तुम्ही हो सहारे, मैं तो कुछ भी नहीं हूँ, तुम्हीं हो सब, अब जहाँ चाहो मुझे ले जाओ।' जितना भक्तिमार्ग है वह सब स्त्रेण की उत्पत्ति है - स्त्री की नहीं । जैसे प्रेयसी अपने प्रेमी के कन्धे पर हाथ रख ले, अपने प्रेमी के हाथ में हाथ दे दे और प्रेमी जहाँ ले जाए, वहीं चली जाए। स्त्रेण चित्त कह रहा है कि कोई ले जाए तो मैं जाऊँ, कोई पहुँचाए तो मैं पहुँचूँ, मैं समर्पण कर सकती हूँ । जैसे, एक लता है । वह सीधी खड़ी नहीं हो पाती। किसी वृक्ष का सहारा मिल जाए तो वह खड़ी हो सकती है । लता को वृक्ष का सहारा चाहिए, स्त्री सहारा मांगती है और महावीर सहारे के एक दम खिलाफ हैं। वह कहते हैं कि सहारा मांगा कि तुम परतन्त्र हुए । सहारा माँगो ही मत, बिल्कुल बेसहारा हो जाओ । तुमने सहारा माँगा कि तुम पंगु हुए। सहारा भगवान् का भी मत माँगना । सहारा माँगना हो दीन हो जाना है | तो महावीर कहते हैं कि सहारा मांगना ही मत । यह अत्यन्त पुरुषमार्ग है । इस पुरुषमार्ग पर स्त्रेण चित्त की गति नहीं है। लेकिन शरीर से कोई स्त्री हो, किन्तु उसमें पौरुष हो तो गति हो सकती है। एक तीर्थंकर हैं जैनों के मल्ली- बाई । वह स्त्री है और दिगम्बरों ने उसे मल्लीनाथ ही कहा है । उसे स्त्री कहना Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३८ महावीर : मेरी दृष्टि में बेमानी है। क्योंकि वह ठोक पुरुष जैसी बेसहारा खड़े होने की हिम्मत रख सकी। उसने कोई सहारा नहीं मांगा। इसलिए स्त्री कैसी ? मल्लीबाई कहा ही नहीं दिगम्बरों ने । उन्होंने कहा : मल्लीनाथ । पीछे झगड़ा खड़ा हो गया कि मल्लीबाई स्त्री थी कि पुरुष । दिगम्बर कहते हैं : पुरुष, श्वेताम्बर कहते हैं : 'स्त्रो' दोनों ठीक कहते हैं । मल्लीबाई स्त्री थी। लेकिन उसके चित्त की दशा स्त्रण नहीं है। यहां काश्मीर में एक स्त्री हुई : लल्ला। काश्मीर के लोग कहते हैं कि हम दो हो नाम पहचानते हैं : अल्ला और लल्ला। मगर लल्ला को स्त्री कहना मुश्किल है । इतिहास में वह अकेली ही स्त्री है जो नग्न रही। महावीर नग्न रहे वह ठीक है। पुरुष नग्न रह सकता है क्योंकि वह दूसरे को फिक्र ही नहीं करता। स्त्री चौबीस घंटे दूसरे की फिक्र में है। चाहे वह पति हो, चाहे प्रेमी हो, चाहे समाज हो । महावीर नग्न खड़े हो गए, यह कोई बड़ी बात न थी। लेकिन लल्ला नग्न खड़ी हो गई, यह बड़ी भारी बात है। उसके पास पुरुषचित्त है । वह जीवन भर नग्न रही । गांधी जी ठहरे हुए थे रवीन्द्रनाथ के पास, शांतिनिकेतन में । सांझ दोनों घूमने जाने वाले थे । तो रवीन्द्रनाथ ने कहा रुकें दो मिनट, मैं जरा बाल संवार आऊँ । वह भीतर गए। एक तो गान्धी जी को यह सुनकर बहुत आश्चर्य हुआ कि बुढ़ापे में, बाल संवारने की इतनी चिन्ता क्यों। पर रवीन्द्रनाथ थे। और कोई होता तो शायद गान्धी जी उसको वहीं कुछ कहते भी। एकदम से कुछ कहा भी नहीं जा सका। रवीन्द्रनाथ भोतर चले गए। दो मिनट क्या, दस मिनट बीत गए । गान्धी खिड़की से झांक रहे हैं। रवीन्द्र आइने के सामने खड़े हैं और बाल संवारे चले जा रहे हैं। वह खो ही गए हैं आइने में। पन्द्रह मिनट बीत गये तब बरदाश्त के बाहर हो गया। गान्धी जी भीतर गए और कहा कि क्या कर रहे हैं आप । रवीन्द्र ने चौंक कर देखा और कहा अरे ! मैं भूल गया । चलता हूँ। चलने लगे हैं तो रास्ते में गान्धी जी ने उनसे कहा कि मुझे बड़ी हैरानी होती है कि इस उम्र में आप बाल संवारते हैं । रवीन्द्र ने कहा कि जब जवान था तो बिना संवारे भी चल जाता था। जब से यूँढ़ा हुआ हूँ तब से बहुत संवारना पड़ता है। बड़ी चिन्ता मन में लगती है कि किसी को देखकर कैसा लगूंगा। और मुझे तो ऐसा भी लगता है कि अगर मैं कुरूप है तो यह हिंसा है क्योंकि दूसरे की आँख को दुःख होता है तो मुझे सुन्दर होना चाहिए। मैं जितना हो सके सुन्दर बनने की कोशिश करता हूँ। रवीन्द्रनाथ पुरुष हैं मगर उनके पास एक स्त्रण चित्त है। अगर कोई हिम्मत करे तो जैसा. Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१७ ५३९ मल्लीबाई को मल्लीनाथ कहा है, ऐसा रवीन्द्रनाथ को रवीन्द्र बाई कहने लगे। वह जो चित्त है भीतर गहरे में, वह एकदम स्त्री का है। शायद सभी कवियों के पास स्त्रैण चित्त होता है। असल में शायद काव्य का जन्म ही नहीं हो सकता पुरुष चित से। वह जो काव्य का जगत् है, वह स्त्रोचित्त का जन्म है। इसलिए दुनिया में जितना विज्ञान बढ़ता जा रहा है, काव्य पीछे हटता जा रहा है। विज्ञान पुरुष चित्त की देन है और पुरुष जीतता चला जाएगा तो काव्य पीछे हटता चला जाएगा । स्त्री का पूरा चित्त काव्य का है, स्वप्न का है, कल्पना का है। वह निष्क्रिय है, कुछ कर नहीं सकता, सिर्फ कल्पना कर सकता है। असल में कवि का मतलब है निष्क्रिय चित्त । वह कल्पना कर सकता है, और कुछ भी नहीं कर सकता। वह कई महल बना सकता है लेकिन कल्पना में। जो बैठेबैठे बन सकते हैं, वही महल बना सकता है। खड़े होकर और गिट्टी तोड़ कर और पत्थर जमा कर जो महल बनाने पड़ते हैं, वह उसके वश की बात नहीं है । वह बैठकर शब्दों के महल बना सकता है । रवीन्द्र कहते हैं कि मैंने क्या गाया ? जब मैं नहीं होता हूं तब परमात्मा ही उतर आता है और मुझसे गाता है। अब यह जो निष्क्रिय चित्त है इसमें कुछ उतरता है, इससे बहता है। यह प्रतीक्षारत है, राह देखता है, अवसर खोजता है लेकिन अपनी जगह चुप और मौन है । तो सभी कविचित स्त्रीचित्त होंगे। महावीर का यह जो जोर है, इसके पीछे कारण है। यह स्त्री और पुरुष के बीच नोचे-ऊँचे की बात नहीं है। यह स्त्रण चित्त और पुरुषचित्त क्या कर सकते हैं, इस बात के सम्बन्ध में विचार है । इसलिए महावीर कहते हैं स्त्री का मोक्ष नहीं है । इसका मतलब है स्त्रण चित्त को मोक्ष नहीं है । स्त्री मोक्ष जा सकती है लेकिन चित्त पुरुष का होना चाहिए—महावीर के मार्ग से । अगर मीरा के मार्ग से कोई जाना चाहे तो मीरा कहेगी पुरुष को कोई मोक्ष नहीं है । मीरा के मार्ग से जाना हो तो स्त्रीचित्त हो चाहिए । उस मार्ग से : पुरुष के लिए कोई मुक्ति नहीं है क्योंकि पुरुष इस तरह की बातें नहीं सोच सकता जैसा मोरा सोच सकती है। और अगर कभी पुरुष सोचता तो वह स्त्रण हो जाता। जब कबीर या सूर कृष्ण के प्रेम में पागल हो जाते हैं तो सोचते क्या है ? फौरन स्त्रण चित्त की बातें शुरू हो जाती हैं। कबीर कहते हैं “मैं तो राम की दुलहनियाँ"-मैं राम की दुलहन हूँ। वे कहेंगे कि मैं प्रतीक्षा कर रहा हूँ सेज पर तुम्हारी, तुम कब आओगे? स्त्रो का भाव शुरू हो जाएगा । जगत् में दो Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में ही तहर के चित्त हैं - स्त्रीचित्त और पुरुषचित्त । इसलिए बहुत गहरे में मुक्ति के दो ही मार्ग हैं | स्त्री का और पुरुष का । महावीर का मार्ग पुरुष का मार्ग है, इसलिए महावीर के मार्ग पर स्त्री के लिए कोई गुंजाइश नहीं है । प्रश्न : ज्यादातर लोग तो मिश्रित होते हैं ? उत्तर : हाँ, उनके लिए बीच का कोई मार्ग होता है । मार्ग बहुत हैं लेकिन मौलिक रूप से दो ही मूल मार्ग होंगे क्योंकि मनुष्य जीवन में पुरुष और स्त्री दो अति छोर हैं, जहाँ दो तरह का अस्तित्व होता है। अधिक लोग बीच में होते हैं, वे बीच का रास्ता पकड़ते हैं जिसमें वे ध्यान भी करते हैं और पूजा भी करते हैं । अब यह मजा है कि ध्यान पुरुषमार्ग का हिस्सा है और पूजा स्त्रीमार्ग का हिस्सा है । दोनों के घोल-मेल से मुक्त होना बहुत मुश्किल है, क्योंकि वहीं कभी हम थोड़ा इस रास्ते पर जाते हैं, थोड़ा उस रास्ते पर जाते हैं । इसलिए चित्त का विश्लेषण जरूरी है कि किस व्यक्ति के लिए कौन-सा मार्ग उचित है ? महावीर के मार्ग पर स्त्रियाँ उपेक्षित हैं, ऐसा नहीं है। बल्कि स्त्रीचित उपेक्षित है जैसा कि मीरा के मार्ग पर पुरुषचित्त उपेक्षित है । 1 ५४० एक बार मीरा गई वृन्दावन । वहाँ एक बड़ा साधु है, पुजारी है, सन्त है । वह उसके दर्शन के लिए उसके द्वार पर खड़ी हो गई । उसने खबर भेजी कि मैं तो स्त्रियों को देखता नहीं मिलता नहीं । मीरा ने उत्तर भिजवाया कि मैं तो सोचती थी कि एक ही पुरुष है जगत् में और वह है कृष्ण । मुझे पता न था कि तुम दूसरे पुरुष भी हो। वह भी था कृष्ण का भक्त । वह पुजारी भागा हुआ आया और कहा कि माफ करना, भूल हो गई क्योंकि कृष्ण के साथ सखियों के सिवाय और किसी का निर्वाह नहीं। वहीं राधा जैसा स्त्री चित्त चाहिए - पूर्ण समर्पित, और प्रतीक्षा करता हुआ । वह भी एक मार्ग है । अगर कोई पूर्ण रूप से उस तरफ जाए तो उघर से भी उपलब्धि हो सकती है। लेकिन महावीर का वह मार्ग नहीं है । महावीर के मार्ग पर स्त्रीचित्त उपेक्षित होगा ही । मगर वह स्त्री की उपेक्षा नहीं है । एक साध्वी ने पूछा है कि महावीर के मार्ग पर यह बड़ी बेबूझ बात है कि एक दिन का दीक्षित साधु हो, सत्तर वर्ष की दीक्षित साध्वी हो, तो भी साध्वी साधु को प्रणाम करेगी । यहं पुरुष के लिए इतना सम्मान और स्त्री के लिए इतना अपमान है जबकि महावीर समानता का ख्याल रखते हैं। एक तो जो मैंने पूरी बात कही वह ख्याल में रहे । महावीर के मन में स्त्रीचित्त यानी स्त्रेणता के Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१७ लिए कोई जगह नहीं है । एक दूसरा मनोवैज्ञानिक कारण भी है कि वृद्धा साध्वी एक दिन के दीक्षित जवान साधु को नमस्कार करे। स्वभावतः लगेगा कि पुरुष को बहुत सम्मान दे दिया गया, स्त्री को बहुत अपमानित कर दिया गया। बात उल्टी है। स्त्रियों से संयम की सम्भावना ज्यादा है सदा पुरुषों के बजाय । क्योंकि पुरुष आक्रामक है, उसका चित्त आक्रामक है। स्त्री को जब तक कोई असंयम में न ले जाए, वह अपने से जाने वाली नहीं है, चाहे मोक्ष की तरफ, चाहे नरक की तरफ । हर चीज में-चाहे पाप हो चाहे पुण्य, चाहे मोक्ष हो चाहे नरक, चाहे अंधकार हो चाहे प्रकाश, पुरुष पहले करने वाला है। ऐसा बहुत कम मौका है कि कभी कोई स्त्रो किसी पुरुष को पाप में ले गई हो । कमी ले जाए तो उसका कारण यही होगा कि उसके पास पुरुषचित्त है । महावीर यहां बहुत अद्भुत मनोवैज्ञानिक सूझ का परिचय दे रहे हैं जो कि फ्रायड के पहले किसी आदमी ने कभी दिया ही नहीं था। लेकिन सूझ इतनी गहरी है कि एकदम से दिखाई नहीं पड़ती। चूंकि पुरुष ही पाप में ले जा सकता है, स्त्री कभी नहीं, इसलिए महावीर ने बड़ा सुगम उपाय किया है कि स्त्री पुरुष को आदर दे । और स्त्री जिस पुरुष को आदर देतो है, उसके अहंकार को कठिनाई हो जाती है उस स्त्री को पाप की ओर ले जाने में। एक स्त्री पापको आदर दे, पूज्य माने, सिर रख दे पैरों में, तो आपके अहंकार को कठिनाई हो जाती है अब इसको नीचे ले जाने में । इसलिए महावीर ने कहा कि कितनी ही वृद्धा स्त्री हो, पुरुष को आदर दे, उसका पैर छू ले, ताकि उसके अहंकार को कठिनाई हो जाए कि वह किसी स्त्री को पाप में ले जाने को कल्पना भी न कर सके। . यहां अगर ध्यान से देखा जाए तो मालूम होगा झुकती तो स्त्री है किन्तु वस्तुतः पुरुष का अनादर हो गया है इस घटना में और स्त्री का पूर्ण आदर हो गया है । लेकिन यह देखना जरा मुश्किल मामला है। यह भी ध्यान रखें कि महावीर के तेरह हजार साधु थे और चालीस हजार साध्वियां थीं। यह अनुपात हमेशा : ऐसा ही रहा है । और साध्वियां जितनी साध्वियां होती हैं साधु उतने साधु नहीं होते हैं । चूंकि वे पहल नहीं करतीं किसी भी काम में, इसलिए वे जहां हैं, वहीं रुक जाती हैं। अगर स्त्री को काम-वासना में दीक्षित न किया जाए तो वह जीवन भर ब्रह्मचर्य से रह सकती हैं । स्त्री के शरीर और मन को व्यवस्था बहत और तरह की है। पुरुष के शरीर और मन की व्यवस्था बहुत मोर तरह की है । स्त्री को काम-वासना में भी दीक्षित करना पड़ता है, धर्म Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४२ महावीर : मेरी दृष्टि में साधना में भी दीक्षित करना पड़ता है। वह पहल लेती ही नहीं। इसलिए निर्दोष लड़कियां मिल जाती है, निर्दोष लड़के मिलना बहुत मुश्किल हैं । कुंवारी लड़कियां मिल जाती हैं, कुंवारे लड़के मुश्किल से होते हैं। लड़कियों पर जो हमें इतने नियंत्रण और बन्धन मालूम पड़ते हैं वे असल में लड़कियों पर नहीं हैं । लड़कियों को जो घर में रोका गया है, लड़को से नहीं मिलने दिया है, वह ' इसलिए नहीं कि लड़कियों पर अविश्वास है उसका कारण यह है कि लड़कों पर विश्वास नहीं है। वे पहल दे सकते हैं पाप की । और चूंकि लड़कियां कोई पहल नहीं दे सकती कभी भी, महावीर ने व्यवस्था की कि हर स्थिति में साध्वी साधु को आदर दे । इसमें पुरुष के अहंकार की भी तृप्ति हुई । साधुओं ने समझा होगा हमारा बड़ा सम्मान हुआ । आज भी यही समझ रहे हैं। प्रश्न : नमस्कार करने वाले का अहंकार टूटता है या जिसको नमस्कार किया जाता है, उसका अहंकार टूटता है ? उत्तर : यहाँ अहंकार तोड़ने का मतलब नहीं है। यहाँ महावीर पुरुप का अहंकार पूरी तरह सुरक्षित कर रहे हैं। साध्वी पुरुष को नमस्कार करे इसमें साध्वी का अहंकार टूटेगा, पुरुष का मजबूत होगा। और जब पुरुष को एक बार पता चल जाए कि एक स्त्री ने मुझे आदर दिया तो वह उस स्त्री को पाप में नहीं ले जाएगा। अगर एक स्त्री आपके पैर छू ले तो आप इस स्त्री को काम की दिशा में ले जाने में एकदम असमर्थ हो जाएंगे। इसलिए कि आपके अहंकार को बड़ी बाधा हो जाएगी। अब आप आदर को रक्षा करेंगे। लेकिन स्त्री के मामले में उल्टो बात है। अगर यह कहा जाए कि स्त्री को पुरुष आदर दे, उसके पैर छुए, तो इसमें भी समझने जैसा मामला है । स्त्री का चाहे पैर छुओ, चाहे कोई शरीर का अंग छुओ, स्त्री की कामुकता उसके पूरे शरीर पर व्याप्त है । पुरुष की कामुकता सिर्फ उसके काम-केन्द्र के आस-पास है। इसलिए पुरुष को सिर्फ सम्भोग से आनन्द आता है, स्त्री को सिर्फ सम्भोग से आनन्द नहीं आता जब तक कि वह उसके पूरे शरीर के साथ न खेले, और उसके पूरे शरीर को न जगाए । अगर पुरुष स्त्रो के पैर भी छु ले तो भी स्त्री में काम की सम्भावना जागृत हो सकती है। उसका पूरा शरीर कामुक है। और यह शुरूआत आगे बढ़ सकती है। पुरुष को अगर पहले ही झुका दिया जाए तो उसको और झुकने में डर नहीं रहा । अब वह स्त्री को किसी भी पाप-मार्ग से दीक्षित कर सकता है । इसलिए महावीर की बात तो अद्भुत है, आमतौर से यही समझा जाता है कि स्त्री को Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतर-प्रवचन-१७ ५४३ अपमानित कर रहे हैं, पुरुष को सम्मानित कर रहे हैं । मामला बिल्कुल ही उल्टा है । पुरुष पूरी तरह अपमानित हुआ है इस घटना में और स्त्री पूरी तरह सम्मानित हुई है। प्रश्न : ऐसी व्याख्या किसी और ने भी की है क्या? ' उत्तर : नहीं, अब तक तो मुझे ख्याल में नहीं है कि किसी ने की है। प्रश्न : अभी तक उन्होंने कसी व्याख्या को है इसको ? उत्तर : अभी तक की व्याख्या यही है कि स्त्री नीच योनि है। पुरुष ऊंची योनि है, इसलिए पुरुषयोनि को वह नमस्कार करे । लेकिन मैं इस व्याख्या को बिल्कुल ही गलत मानता हूँ। प्रश्न : महावीर के जमाने में बहुत से लोग साधु और साध्वियों हो गए। ध्यान में तो पीछे गये होंगे। लेकिन पहले घर-बार छोड़कर उनके साथ क्यों हो गए ? आप तो ऐसी सलाह देते नहीं हैं ? उत्तर : महावीर ने मनुष्य के चार वर्गीकरण किए हैं-श्रावक, श्राविका, साधु, साध्वी । महावीर की साधना-पद्धति श्रावक से शुरू होती है या श्राविका से । एकदम से कोई साधु नहीं हो सकता। महावीर की साधना का पूरा व्यवस्थाक्रम है । पहले उसे श्रावक होना होगा। साधना, ध्यान और सामायिक श्रावक की है। जब वह उससे गुजर जाए, जब उसको उतनी उपलब्धि हो जाए फिर वह साधु के जीवन में प्रवेश कर सकता है। महावीर सोधे उत्सुक नहीं हैं किसी को भी साधु की दीक्षा देने को। श्रावक वह भूमिका है जहाँ साधु का जन्म हो जाए तो फिर वह जा सकता है। और तब भी उनका आग्रह नहीं है कि वह जाए ही। वह श्रावक रहकर भी मोक्ष पा सकता है। सिर्फ महावीर ने ही यह कहने की हिम्मत की है। साधु होना अनिवार्य नहीं है बीच में । मान लीजिए कि आप गहरे ध्यान में गए और आप को वस्त्र पहनना ठीक मालूम पड़ता है तो आप जारी रखे। और कहीं आपको ऐसा भीतर लगने लगे कि छोड़ दें, कोई अर्थ नहीं है इनमें तो इसको भी क्यों रोके, छोड़ दें। यानी महावीर की आस्था है कि एक सहज भाव में अगर एक व्यक्ति को लगता है कि वह शान्त हुआ, ध्यानस्थ हुआ, घर में रहकर ही तो ठीक है। अगर उसे लगता है कि यह व्यर्थ हो गया, वह इसे छोड़ दे । रुकावट नहीं है उनकी कोई, कोई बाग्रह नहीं है। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ महावीर : मेरी दृष्टि में । प्रश्न : धावक होने से पहले साधु बनने को उन्होंने नहीं कहा क्या ? उत्तर : नहीं, बनने का उपाय ही नहीं। श्रावक की व्यवस्था से उसे गुजरना पड़ेगा। या तो धावक होने में ही साधु हो जाए और या वह जिसे हम साधु कहते हैं, वैसा हो जाए। प्रश्न : परम्परा से प्रामाणिक एवं निर्णीत महावीर के जीवन का बौद्धिक एवं तथ्यपूर्ण आपका विश्लेषण क्या समाज को स्वीकृत होगा? उत्तर : समाज को स्वीकृत हो, ऐसी आवश्यकता भी नहीं। समाज को स्वीकृत हो इसका ध्यान भी नहीं। समाज को स्वीकृत होने से ही वह ठीक है, ऐसा कोई कारण भी नहीं। समाज को जो स्वीकृत है, वह वही है कि जैसा समाज है उसको वह वैसा हो बनाये रखे। प्राथमिक रूप से जो मैं कह रहा हूँ उसकी अस्वीकृति की हो सम्भावना है समाज से । लेकिन अगर जो मैं कह रहा हूँ वह बुद्धिमत्तापूर्ण है, वैज्ञानिक है, तथ्य है, तथ्यगत है, तात्त्विक है तो स्वीकृति को टूटना पड़ेगा; अस्वीकृति जीत नहीं सकती है। और अगर यह तथ्यपूर्ण नहीं है, अवैज्ञानिक है, तात्त्विक नहीं है तो अस्वीकृति जीत जाएगी। सवाल यह नहीं कि कोन उसे स्वीकार करे, कोन अस्वीकार करे। मुझे जो सत्य मालूम पड़ता है, वह मुझे कह देना है। अगर वह सत्य होगा तो आज नहीं कल स्वीकार करना ही पड़ेगा। लेकिन सत्य प्राथमिक रूप से अस्वीकार किया जाता है, क्योंकि हम जिस असत्य में जीते हैं वह उससे विपरीत पड़ता है। इसलिए वह पहले अस्वीकृत होता है लेकिन अगर वह सत्य तो टिक जाता है और स्वीकृति पाता है और अगर असत्य है तो मर जाता है, गिर जाता है । एक अद्भुत व्यक्ति थे महात्मा भगवान् दीन । वह जब किसी सभा में 'बोलते और लोग ताली बजाते तो वह बहुत उदास हो जाते । मुझसे वह कहते थे कि जब कोई ताली बजाता है तो मुझे शक होता है कि मैंने कोई असत्य तो नहीं बोल दिया क्योंकि इतनी भीड़ सत्य के लिए ताली बजाएगी एकदम से, इसकी सम्भावना नहीं है। वह कहते कि मैं उस दिन की प्रतीक्षा करता हूँ जब भीड़ एकदम से पत्थर मारेगी तो मैं समझंगा कि जरूर कोई सत्य बोला गया है क्योंकि भीड़ असत्य में ही जीती है, समाज असत्य में जीता है । और सत्य पर पहले तो पत्थर ही पड़ते हैं। वह सत्य की पहली स्वीकृति है। और सत्य अगर सत्य है तो अस्वीकृति को आज नहीं कल मर जाना होगा। Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१७ १४५ निरन्तर कथा यही है। अंधकार घना है, अज्ञान गहरा है। ज्ञान की पहली किरण उतरे, प्रकाश उतरे तो पहला काम हमारा यह होता है कि हमारी अखि एकदम बन्द हो जाती है क्योंकि अंधेरे में जाने वाला व्यक्ति प्रकाश को देखने की क्षमता भी नहीं जुटा पाता। लेकिन आँख कितनी देर तक बन्द रहेगी, वह तो खोलनी ही पड़ेगी और प्रकाश अगर सचमुच प्रकाश था तो पहचाना भी जा सकेगा। कभी हजार वर्ष लगेंगे, कभी दो हजार वर्ष । मेरी अपनी समझ यह है कि महावीर, बुद्ध, क्राइस्ट या कृष्ण को जो दिखाई पड़ा वह आज भी स्वीकृत हो सका है ? सत्य अभी भी प्रतीक्षा कर रहा है कि वक्त आएगा। सत्य को अनन्त प्रतीक्षा करनी पड़ती है क्योंकि हमारा असत्य बड़ा गहरा है। एक पुरानी कहानी है कि असत्य के पास अपने कोई पैर नहीं होते। अगर उसे चलना भी है तो सत्य के पैर ही उधार लेने होते हैं। अपने पैर उसके पास नहीं है। यानी असत्य अपने पैर पर खड़ा ही नहीं हो सकता। आप सब की स्वीकृति मिल जाए तो वह खड़ा हो सकता है, सत्य जैसा भासने लगता है । और सत्य को अस्वीकृति मिल जाए तो भी वह असत्य नहीं हो जाता, असत्य जैसा भासने लगता है। लेकिन सत्य सत्य है, असत्य असत्य है। असत्य करोड़ों वर्षों तक चले तो भी असत्य है। सत्य वित्कुल न चल पाए तो भी सत्य है। गैलीलियों ने जब यह कहा कि सूरज पृथ्वी का चक्कर नहीं लगाता है, पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है तो ईसाई जगत् में क्रोध पैदा हुआ क्योंकि बाइबल कहती है कि पृथ्वी स्थिर है, सूरज चक्कर लगाता है। तो क्या जीसस को पता नहीं था? क्या हमारे पैगम्बरों को पता नहीं था? सत्तर साल के बूढ़े गैलीलियो को जंजीरें डाल कर पोप की अदालत में लाया गया और उससे कहा गया कि तुम कहो कि जो तुमने कहा है वह असत्य है । कहो कि पृथ्वी स्थिर है, मूरज चक्कर लगाना है। गैलीलियों ने कहा जैसी आपकी मर्जी । उसने कागज पर लिखा दिया कि आप कहते हैं तो मैं लिखे देता है कि सूरज ही चक्कर लगाता है पृथ्वी का, पृथ्वी चक्कर नहीं लगाती । लेकिन मैं कुछ भी लिखू इससे फर्क नहीं पड़ता, चक्कर तो पृथ्वी हो लगाती है। मैं क्या कर सकता हूँ? यानी में चक्कर लगाना थोड़े ही रोक सकता हूँ। ,गैलीलियो भी इन्कार कर दे तो क्या फर्क पड़ता है ? गैलीलियो थोड़े हो चक्कर लगवा रहा है। लेकिन बाइबल हार गई, गैलीलियो जीत गया। क्योंकि सत्य जीतता है । न गइबल Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • ૪૬ महावीर : मेरी दृष्टि में जीतता है, न गैलीलियो जीतता है, न क्राइस्ट जीतते हैं, न कृष्ण, न महावीर, न मुहम्मद | जीतना सत्य है, असत्य हारता है । लेकिन वक्त लग सकता है । असत्य अपने को बचाने की सारी कोशिश करता है, अपनी सुरक्षा करता है और उसकी सबसे बड़ी सुरक्षा है स्वीकृति, लोगों में स्वीकृति पैदा कर देना । इसलिए असत्य स्वीकृति में जीता है। सत्य स्वीकृति की चिन्ता भी नहीं करता । वह अस्वीकृति में जी लेगा क्योंकि उसके पास अपने पैर है, अपनी स्वास है, अपने प्राण हैं और वह प्रतीक्षा करता है अनन्तकाल तक । कभी तो आँखें खुलती हैं और चीजें दिखाई पड़ती हैं । मुझे चिन्ता नहीं है जरा भी कि जो मैं कह रहा हूँ उसे कौन मानेगा । जिस व्यक्ति को यह चिन्ता होती है, वह कभी सत्य बोल नहीं सकता । क्योंकि तब यह पहले आपकी तरफ देख लेता है कि आप क्या मानोगे ? उसको मान्यता ज्यादा मूल्यवान् है । और मान्यता जिन लोगों से पानी है अगर वे सत्य को हो उपलब्ध होते तो बात करने की कोई जरूरत न थी । अंधेरे में खड़े लोगों से सूरज के लिए मान्यता लेनी है तो वे अंधेरे में खड़े लोग कहते हैं कि सूरज से अंधेरा निकलता है । उनकी स्वीकृति लेनी हो तो कहो कि बहुत घना अंधेरा सूरज से निकलता है । वे ताली पीट देगें । या उनसे कहो कि सूरज से अंधेरा कभी निकला ही नहीं । सूरज तो अंधेरे को तोड़ता है तो इसका मतलब हुभा कि तुम अकेले, आँख वाले पैदा हुए हो, हम सब अंधे हैं । और यह बात बड़ी अपमानजनक है कि कोई आदमी कहे कि मेरे पास आँख है और सब अंधे हैं । इससे बड़ा दुःख होता है । फिर सब मिलकर आँख वाले की आंख फोड़ने की कोशिश करें तो उसमें कुछ हर्जा भी नहीं है । वह ठीक ही प्रतिकार ले रहे है । वह उनको चोट पहुँची, उनके मन का अपमान हुआ, उनके अहंकार को धक्का पहुँचा। लेकिन सत्य प्रतीक्षा करता है और प्रतीक्षा करने का धैर्य रखता है । प्रश्न : आप कहते हैं कि समाज प्रसत्य में जीता है ता क्या असत्य समाज के लिए अनिवार्य है, जीने के लिए ? उत्तर : जैसा समाज है हमारा, उस समाज के जीने के लिए असत्य अनिवार्य है । जैसा हमारा समाज है दुःख से भरा हुआ, पीड़ा से भरा हुआ, शोषण, अहंकार, ईर्ष्या और द्वेष से भरा हुआ, इस समाज को जिलाना हो तो यह असत्य पर ही जी सकता है। अगर बदलना हो, नया बनाना हो — आनन्द से, प्रकाश से, प्रेम से भरा हुआ, जहां ईर्ष्या न हो, महत्त्वाकांक्षा न हो, घृणा न हो, द्वेष न हो, क्रोष न हो तो फिर सत्य लाना पड़ेगा ? - Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १७ ૫૪૦ प्रश्न : यह तो सबकी इच्छा है ही ? उत्तर : यह सबकी इच्छा है कि आनन्द मिले। लेकिन में जैसा हूँ वैसा ही मिल जाए, मैं न बदलूं। लेकिन आनन्द वैसो हालत में नहीं मिलता और मैं बदलने को तैयारी में नहीं हूँ । बदलने की तैयारी दिखाऊँगा तो आनन्द मिल सकता है। यानी मैं कहता हूँ कि प्रकाश तो मिले लेकिन मुझे आँख न खोलनी पड़े। तो फिर मुश्किल है। सबको इच्छा है कि आनन्द मिले। हर आदमी आनन्द को ही कोशिश में लगा हुआ है और सिर्फ दुःख पा रहा है। हर आदमी आनन्द पाना चाहता है, शान्ति पाना चाहता है लेकिन जो कर रहा है शान्ति पाने के लिए, आनन्द पाने के लिए, उस सबसे दु:ख पाता है, अशान्ति पाता है । लेकिन वह करने को नहीं बदलना चाहता है । अब जैसे एक आदमो महत्वाकांक्षी है और कहता है कि मुझे आनन्द चाहिए । लेकिन महत्वाकांक्षा चित्त कभी भी आनन्दित नहीं हो सकता क्योंकि जा भो मिल जाएगा उससे वह सन्तुष्ट नहीं होगा ओर जो नहीं मिलेगा उसके लिए पाड़ित हो जाएगा । कितना हो कुछ मिल जाए उनको, उसका महत्वाकांक्षा चित आगे के लिए पाड़ा से भर जाएगा । वह कहता है कि मैं आनन्दित होना चाहता हूँ और वह यह भा कहता है कि मैं महत्वाकांक्षी सिर्फ इसलिए हूँ कि मुझे आनन्द चाहिए। अब महत्वाकांक्षा और आनन्द में विरोध है, यह देखने का वह राजो नहीं है । सिर्फ गैर महत्वाकांक्षी व्यक्ति आनन्द को उपलब्ध हो सकता है । लेकिन महत्वाकाक्षा चलाए रखना चाहते हैं हम और आनन्दित होना भा चाहते हैं । अत्र एक आदमी है जो कहता कि मैं प्रेम चाहता हूँ और प्रेम कमो देता नहीं । और यह ऐसी हालत है जैसे एक गाव में सभा भिखमंगे हा; सभा एक दूसरे के सामने हाथ जोड़े खड़े हों ओर सभा मांगना चाहते हों, देना कोई भी न चाहता हो। उस गाँव को जो हालत हो जाए वैसा हम सबको हालत होगी ? प्रेम देना कोई भी नहीं चाहता, प्रेम मांगना चाहता है । और यह भी ध्यान रहे जो आदमो प्रेम देने की कला सोख जाता है, वह कभी माँगता नहीं । मिलना शुरू हो जाता है, उसके माँगने का सवाल हो नहीं रह जाता। माँगता सिर्फ वही है जो दे नहीं पाता । अब बुनियाद यह है कि हम सब प्रेम चाहते हैं । ठोक है, इसमें कुछ बुरा भी नहीं है । लेकिन प्रेम सिर्फ उन्हें मिलता है जो चाहते नहीं और देते हैं । वह सूत्र है पाने का । और वह सूत्र हमारी समझ में नहीं आता इसलिए भूल हो जाती है, भटकन हो जाती है । Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ महावीर : मेरी दृष्टि में हम आनन्द चाहते हैं, शान्ति चाहते हैं, प्रेम चाहते हैं। चाहते हम सब कुछ हैं लेकिन जैसे हम है वैसे में चाहते हैं जोकि असम्भव है । हम सब चाहते हैं कि पहुंच जाएँ आकाश में लेकिन पृथ्वी से पाँव न छोड़ना पड़े। गड़े रहना चाहते हैं जमीन में, पहुँचना चाहते हैं आकाश में। अगर काई यह कहे कि आकाश में जाना है तो मैं कहता हूँ कि आकाश की फिक्र छोड़ो, पहले जमीन छोड़ो। पर वह आदमी कहता है कि जमोन हम पीछे छोड़ेंगे, पहले हम आकाश पर पहुंच जाएँ। क्योंकि आप हमसे जमीन भी छीन लो और आकाश भी न मिले, तो हम मुश्किल में पड़ जाएंगे। लेकिन बात यह है कि जमीन छोड़ने से आकाश मिल ही जाता है क्योंकि जाओगे कहां ? यह हमारी कठिनाई है कि हमेशा से हम यही चाहते रहे हैं कि आनन्द हो, शांति हो, प्रेम हो, लेकिन जो हम करते रहे हैं वह एकदम उल्टा है। उससे न शांति हो सकती है, न प्रेम और न आनन्द । प्रत्येक व्यक्ति के साथ यह कठिनाई है, प्रत्येक व्यक्ति द्वेष में जी रहा है, ईर्ष्या में जी रहा है, वह चाहता है कि आनन्द हो जाए। मगर ईर्ष्याल चित्त कैसे आनन्द पायेगा? ईर्ष्यालु चित्त सदा दुखी है। सड़क पर बड़ा मकान दिखता है, बगिया लगी दिखती है, कार दिखती है, किसी को स्त्रो दिखती है, किसी के कपड़े दिखते हैं तो वह दुखी है । हर चीज उसे दुःख देती है । और ऐसा भी नहीं कि बड़ा मकान ही उसे दुःख दे । कभी-कभी यह भी दुःख देता है कि यह आदमो झोपड़ी में रह रहा है और खुश है । कभी एक भिखारी भी आनन्दित दिख जाता है तो वह दुःखी है कि मेरे पास सब है और मैं सुखी नहीं है, यह भिखारी है और आनन्दित है । वह ईया चित्त में दुःख पैदा करने की कोमिया है। ईर्ष्यालु चित्त दुःख पैदा करता है और ईर्ष्यालु चित्त सुख चाहता है । अब बड़ी मुश्किल हो गई । इस विरोध को अगर न देखा जाए तो हम फंस गए। हम फिर जी नहीं सकते, चाहते रहेंगे सुख और पैदा करेंगे दुःख । और जितना दुःख पैदा होगा उतना ज्यादा सुख चाहेंगे। और जितना ज्यादा दु ख पैदा होगा, सुख की मांग बढ़ेगो उतने ही ज्यादा जोर से ईर्ष्यालु होते चले जाएंगे और दुःख होता चला जाएगा। ऐसा एक-एक व्यक्ति भीतरी विरोध में फंसा हुआ है । इस विरोध के प्रति सजग हो जाना ही साधना को शुरूआत है कि इस विरोध के प्रति कि मैं जो चाह रहा हूँ, मैं जो कर रहा हूँ वह सही है । मैं चाह तो रहा है कि मकान के ऊपर चढ़ जाऊँ लेकिन उतर रहा हूँ नीचे की तरफ, वह तो मैं उल्टा काम कर रहा हूँ | तो ईर्ष्या मुझे नीचे की तरफ ले जा रही है। ईर्ष्या Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१७ ge मुझे दुःख दे रही है। मगर मुझे सुखी होना है तो ईर्ष्या से मुझे मुक्त हो जाना चाहिए ताकि मुझे कोई भी दुःख न दे सके, बड़ा मकान भी न दे सके, मानन्दित आदमो भी न दे सके, कार भी न दे सके, स्त्री भी न दे सके, कोई भी चीज दुःख न दे सके क्योंकि मेरे पास वह जो तरकीब थो दुःख पैदा करने की, वह बिदा हो गई । अब मैं ईर्ष्यालु नहीं हूँ। और जब मैं ईर्ष्यालु नहीं हूँ तो मुझे हर चीज सुख दे सकती है क्योंकि अब तो दुःख का कोई कारण नहीं रहा। वह व्यवस्था टूट गई, वह यंत्र ही टूट गया जो दुःख पैदा कर देता था। जोवन के विरोध के प्रति जाग जाना कि हम जो चाहते हैं, उससे उल्टा कर रहे हैं, साधना की शुरूआत है । और जब हमें दिखाई पड़ जाय तो हम उल्टा न कर सकेंगे। हम कैसे उल्टा करेंगे? उदाहरण के लिए एक आदमी सोना चाहता है । नींद उसे आती नहीं । वह नींद लाने की तरकीबें करता है । पैर धोता है, आँख घोता है, पानी पोता है, राम-नाम जपता है, माला फेरता है, करवट बदलता है, टहलता है, भेड़-बकरियां गिनता है, हजार तरकीबें करता है कि किसी तरह उसे नोंद आ जाए। लेकिन उसे पता नहीं कि जितनी तरकीबें वह कर रहा है, वह नोंद न आने देने को है। क्योंकि कोई भी प्रयास हा वह नींद को तोड़ने वाला है। वह कुछ भी न करे तो शायद नोंद आ जाए । उसने कुछ भी किया तो फिर नोंद नहीं आ सकती क्योंकि करना नींद के बिल्कुल उल्टा है। नोंद आती है न करने से। इसलिए एक बार एक मादमी की नीद गड़बड़ हो गई फिर वह बुरे चक्कर में पड़ गया क्योंकि अब वह नींद लाने का उपाय करेगा। उपाय नींद को तोड़ेंगे । जितनी नींद टूटेगी उतने ज्यादा उपाय करेगा; जितने ज्यादा उपाय करेगा उतनी ज्यादा नींद टूटेगी। और वह एक चक्कर में पड़ जाएगा जिसके बाहर निकलना मुश्किल है। उसका यह विरोध दिखाई पड़ जाएगा किसी दिन कि प्रयास से नोद नहीं आ सकती है। नींद तो तब आती है जब कोई कुछ नहीं करता। चाहे वह मंत्र पढ़े, चाहे माला फेरे, चाहे कुछ भी करे। करना मात्र नोंद का उल्टा है। लेकिन हम पूरी जिन्दगी में • विरोधाभास म जोते हैं। जैसे ही कोई इस बोध को उपलब्ध हो जाता है और अपने भीतर विरोध देखने लगता है, वैसे हो क्रान्ति शुरू हो जाती है क्योंकि विरोध दिख जाए तो फिर उसमें जीना मुश्किल है। फिर आप जी नहीं सकते । यह कैसे सम्भव है कि एक आदमी को जाना छत पर है और वह नोचे उतर आए और उसे दिख जाए कि उतर रहा है नोचे का आर, जाना है ऊपर तो क्या वह फिर नोचे उतर सकता है ? बात खत्म हो गई। ऊपर जाएगा हो वह । और Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५६ महावीर : मेरी दृष्टि में अनन्त के साथ एक मजा है कि उसमें से कितना ही निकालो, पीछे उतना ही शेष रहता है जितना था। इसको थोड़ा समझ लेना जरूरी है। क्योंकि वह जो हमारा आम गणित है वह कहता है कि इस कमरे में कितने ही लोग हों लेकिन अगर दो आदमी बाहर निकल गए तो फिर पीछे उतने तो नहीं रहे जितने थे । हमारा गणित कहता है कि ऐसा कैसे हो सकता है कि पीछे उतने ही रह जाएं जितने थे क्योंकि दो निकल गए। और अगर हम यह मान लें कि दो के निकलने से पीछे कुछ कम हो गए तो फिर संख्या हो सकती है क्योंकि कम होते चले जाएँगे । एक वक्त आएगा, शून्य भी हो सकता है। यह गणित की बड़ी पहेलियों में से एक है कि अनन्त में से हम कुछ भी निकालें, अनन्त ही शेष रहता है। इसलिए निगोद उतने का ही उतना है जितना था; उतना ही रहेगा जितना था, और उतना ही सदा है, उतना ही सदा रहेगा। मुक्त आत्माएँ रोज होती चली जाएँगो, मोक्ष में कोई भीड़ नहीं बढ़ जाएगी। इसमें भीड़ बढ़ने का कोई सवाल नहीं है। लेकिन हमारा जो गणित है संख्या का उसे समझना बड़ा मुश्किल होता है। उदाहरण के लिए, हम एक सीधी रेखा खींचते है जमीन पर। दो बिन्दुओं के बीच निकटतम जो दूरी है, वह सीधी रेखा बन जाती है। लेकिन जो नयी ज्योमेट्री इसके खिलाफ में विकसित हुई है, कहती है कि सीधी रेखा होती ही नहीं क्योंकि जमीन गोल है। इसलिए कितनी ही सीधी रेखा खींचों, अगर तुम उसको दोनों तरफ बढ़ाते चले जाओ, तो अन्त में वह वृत्त बन जाएगी। इसलिए सब सीधी रेखाएँ किसी बड़े वृत्त के खंड हैं । और वृत्त के खंड कभी सीधी रेखाएं नहीं हो सकते। इसका मतलब हुआ कि सीधी रेखा होती ही नहीं। वह हमको सीधी लगती है। अगर हम उसे फैलाते चले जा तो अन्ततः वह एक बड़ा सकिल बन जाएगी। और जब वह बड़ा सर्किल बन सकती है तो वह बड़े सकिल का हिस्सा है। और सकिल का हिस्सा, सीधा नहीं हो सकता। इसलिए कोई रेखा जगत् में सीधी नहीं है । यह हमारे ख्याल में आना मुश्किल है कि कोई भी रेखा जगत् में सीधी खींची ही नहीं जा सकती। क्योंकि जितना ही तुम खींचते चले जाओगे, अन्त में वह मिल ही जाएगी। इसलिए कोई सीधी रेखा नहीं है, सब वृत्त हैं । सब वृत्त खंड है । साधारण गणित कहता है कि बिन्दु वह है जिसमें लम्बाई चौड़ाई नहीं है मगर ज्योमेट्री कहती है कि जिसमें लम्बाई-चौड़ाई न हो वह तो हो ही नहीं सकता, इसलिए कोई बिन्दु नहीं है। सब रेखाओं के खंड है-छोटे खंड। रेखा है बड़े वृत्त का खंड, और बिन्दु है रेखा का खंड । सब बिन्दुओं में लम्बाई. Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१७ ५५७ चौड़ाई है। लेकिन यह बात जब तक मानी जाती रही तव तक बिल्कुल ठीक लगती थी। अब एकदम गड़बड़ हो गई। जैसी कि हमारी संख्या की, गणित की व्यवस्था है । हम सब मानते हैं कि एक से नौ तक संख्या होती है। कोई कभी नहीं पूछता कि इससे ज्यादा क्यों नहीं होती, इससे कम में क्यों नहीं होती। यह एक परम्परा है। किसी पहले आदमी को फतूर सवार हो गया। उसने नौ का हिसाब बना डाला। वह चल पड़ा । और चूंकि गणित एक जगह पैदा हुआ फिर सारी दुनिया में फैल गया इसलिए कभी किसी ने नहीं सोचा। लेकिन पीछे कई लोग पैदा हुए जिन्होंने कुछ बदला जैसे लोबनिस हुआ। लोबनिस ने तीन अंकों से काम चलाया । उसने कहा कि तीन से ज्यादा को जरूरत नहीं-एक, दो, तीन । फिर तीन के बाद आता है-१०-११-१२-१३, फिर बीस आ जाता है। बाकी सब बिदा कर दिये उसने । सव गणित हल कर ली उतने में ही। आइंस्टीन ने कहा कि तीन की भी क्या जरूरत है। दो से ही काम चल जाता है । १-२-१०.११-१२, २०, २१, २२ ऐसे चलता-चला जाता है। अगर हम पुराना गणित मानते हैं तो एक, दो, तीन, चार, पांच होते हैं । अगर आइंस्टीन का गणित मान लेते हैं, १,२,१०,११,१२ इस तरह का तो ये पांच है ही नहीं। यह पांच सिर्फ हमारा गणित का हिसाब है। गणित का हिसाब बदल दें तो ये सब बदल जाएंगे। ___ तो हमारा संख्या का हिसाब है जगत् में और हम सब चीजों को संख्या से तोलते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि संख्या बिल्कुल ही झूठी बात है, आदमी की ईजाद है । क्योंकि यहां कोई भी ऐसी चीज नहीं जिसको संख्या हो । प्रत्येक चीज असंख्य है। और अगर असंख्य का हम ख्याल करें तो गणित बेकार हो जाता है। फिर गणित का कोई मतलब ही नहीं रह जाता। जब असंख्य है, गिना ही नहीं जा सकता, गिनने योग्य ही नहीं है और कितना ही निकाल लो बाहर, उतरना ही फिर पीछे रह जाता है तो जोड़ का क्या मतलब, घटाने का क्या मतलब ? भाग का क्या मतलब ? गुणा का क्या मतलब ? अगर हम जगत् की पूरी व्यवस्था को ख्याल में लाएं तो गणित एकदम गिर जाता है, क्योंकि गणित बना है काम चलाऊ हिसाव से कि हम उसमें गिनतो करके काम चला लें। और उसी काम चलाऊ गणित से अगर हम जगत के सत्य को जानने जाएं तो हम मुश्किल में पड़ जाते हैं। तो महावीर की बात एकदम गणित से उल्टी है और जो भी सत्य के खोजी हैं उनकी बातें निरन्तर गणित से उल्टी है। इसलिए उपनिषद् कहते हैं कि वह पूर्ण ऐसा है कि उससे अगर तुम पूर्ण को भी Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ महावीर : मेरी दृष्टि में बाहर निकाल लो तो भी पूर्ण ही शेष रह जाता है। उससे जरा भी कमी नहीं पड़ती। मगर हमारे दिमाग में मुश्किल हो जाती है कि हम जब भी कुछ निकालते है तो पीछे कमी पड़ जाती है। क्योंकि हमने सीमित से ही कुछ निकाला है सदा । अगर हमने असीमित में से कुछ निकाला होता तो हमें पता चलता । असीमित का हमको कोई अनुभव नहीं है। इसलिए निगोद अनन्त है । उसमें कमी कभी नहीं पड़ती, मोक्ष अनन्त है, वहाँ कभी भीड़ नहीं होती। दोनों के बीच का संसार एक अपना अनन्त है क्योंकि दो अनन्तों को जोड़ने वाली चीज अनन्त हो सकती है। वह भी संख्या में नहीं हो सकती क्योंकि दो अनन्तों का जो सेतु बनता है, वह कैसे सीमित हो सकता है । अनन्तों को अनन्त ही जोड़ सकता है। उस तल पर जाकर गिनती का कोई मतलब नहीं है । मोक्ष को धारणा बहुत लोगों को है। काल में निगोद की धारणा महावीर की अपनी है और मैं मानता हूँ कि बिना निगोद की धारणा के मोक्ष की धारणा बेमानी है क्योंकि वहाँ आत्माएं चलती चली जाएंगी। आएँगी कहाँ से ? प्रश्न । निगोद से आत्मा मोक्ष तक नहीं पहुंच सकती क्या ? उत्तर : नहीं, मूछित आत्मा मोक्ष तक कैसे पहुँच सकती है ? उसे अमूर्छा के रास्तों से गुजरना पड़ेगा । आप जब निद्रा से जगते हैं तो एकदम नहीं जग जाते । बीच में तन्द्रा का एक काल है, जिससे आप गुजरते हैं । जैसे सुबह आप उठ गए है। आपको लगता है कि उठ गए लेकिन फिर करवट बदल कर आंखें बंद कर ली हैं। फिर घड़ी की आवाज सुनाई पड़ी है। फिर किसी ने कहा उठिए, तो आप फिर उठ गए हैं। फिर आँख खोली है, फिर करवट बदलकर सो गए हैं । सोने और जागने के बीच में, चाहे कितना ही छोटा हो, तन्द्रा का एक काल है जब न तो आप ठोक जाग गए होते हैं, न ठीक सोए हुए होते हैं। सोने की तरफ भी झुकाव होता है, जागने की तरफ भी मन होता है । इन दोनों के बीच एक तनाव होता है। निगोद से सीधा कोई मोक्ष में नहीं जा सकता। संसार से गुजरना ही पड़ेगा। कितनी देर गुजरना है, यह दूसरी बात है। कोई पन्द्रह बीस मिनट बिस्तर पर करवट बदल कर उठता है, कोई पांच मिनट, कोई एक मिनट, कोई एक सैकेंड और जो बिल्कुल छलांग लगा कर उठ आता है वह भी सिर्फ हमको दिखाई पड़ता है। बिल्कुल, काल का कोई सूक्ष्म अंश उसको भी बिस्तर पर Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१७ ५५९ गुजारना पड़ता है जागने के बाद । संसार छोटा बड़ा हो सकता है। जीवन में कोई मुक्त हो सकता है। लेकिन संसार से गुजरना ही पड़ेगा । वह अनिवार्य मार्ग है, जहाँ से मोक्ष का द्वार है । प्रश्न : जैसे समुद्र है। समुद्र से बादल उठते हैं, उसका पानी बरसता है, बर्फ बनती है, लेकिन फिर वह समुद्र में चली जाती है तो एक चक्कर है। इस तरह मुक्त आत्मा निगोद में किसी तरीके से जाती रहती होगी। ऐसा भी हो सकता है? उत्तर : नहीं, ऐसा चक्र नहीं है क्योंकि पानी, भाप, समुद्र, तीन चीजें नहीं है। यह एक ही चीज का यांत्रिक चक्र है। पानी के बीच से कोई बूंद मुक्त होकर पानी के बाहर नहीं हो पाती। चक्र घूमता रहता है जहां तक मोक्ष का सम्बन्ध है, वहाँ से लौटना मुश्किल है। क्योंकि यांत्रिकता छूट जाए, चित्त पूर्ण चेतन हो जाए, तो ही मोक्ष को जा सकता है। पूर्ण चेतना से लौटना असम्भव है । हाँ संसार में कोई चक्कर लगा सकता है। एक मनुष्य, हजार बार मनुष्य हो कर चक्कर लगा सकता है। वही-वही चक्कर लगा सकता है क्योंकि सोया हुआ है । अगर जग जाय तो चक्कर लगाना बन्द कर दे, बाहर हो जाए चक्कर के । चूंकि मोक्ष समस्त चक्कर के बाहर हो जाने का नाम है, इसलिए वापस चक्कर नहीं लगाया जा सकता। पानी की बूंद मूछित है, उसमें जो आत्माएं हैं, वे निगोद में ही है । पदार्थ का जगत् निगोद में ही है। वहीं तो पूरा चक्कर है । हम कह सकते हैं कि पानो गरम करेंगे तो भाप बनेगा । ऐसा पानी कभी नहीं देखा गया जो इन्कार कर दे कि मैं भाप नहीं बनता हूँ उसके पास कोई चेतना नहीं है । हम पूर्वमूचित कर सकते हैं पानी के बाबत । लेकिन आदमी के बाबत पूर्वसूचित करना मुश्किल है। ऐसा जरूरी नहीं कि प्रेम करेंगे तो वह प्रेम करेगा ही। बिल्कुल जरूरी नहीं, साधारणतः जरूरी है। लेकिन एकदम जरूरी नहीं है। और इसलिए आदमी प्रिडिक्शन के थोड़ा बाहर है क्योंकि उसमें चेतना है । उसका पक्का नहीं बताया जा सकता कि वह क्या करेगा? पदार्थ के बाबत पक्का बताया जा सकता है। इसलिए पदार्थ का विज्ञान बन गया है। और आदमी का विज्ञान अभी तक नहीं बन पा रहा है । न बनने का कारण यह है कि पदार्थ की सारी व्यवस्था यांत्रिक है, नियम पक्का है। इतने पर गर्म करो पानी भाप बन जाएगा, इतने पर ठंडा करो बर्फ बन जाएगा। इसमें कोई संदेह ही नहीं है-चाहे तिब्बत में करो, Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० महावीर ; मेरी दृष्टि में चाहे चीन में करो, चाहे ईरान में करो, कहीं भी करो। वह भाप बनेगा उतने पर, उतने पर ही बर्फ बनेगा। वह नियम पक्का है क्योंकि यांत्रिक है पूरा । लेकिन जैसे-जैसे हम ऊपर आते हैं यांत्रिकता टूटती चली जाती है। आदमी में आकर भी यांत्रिकता बहुत शिथिल हो जाती है। आदमी के बाबत पक्का नहीं कहा जा सकता कि वह क्या करेगा? आप ऐसा करोगे तो वह क्या करेगा ? बिल्कुल ही प्रिडिक्शन के बाहर काम करने वाला आदमी मिल सकता है । तरहतरह के लोग हैं, और उनको तरह-तरह की चेतना है । लेकिन मोक्ष में तो प्रिडिक्शन बिल्कुल ही नहीं हो सकतो । क्योंकि वहाँ तो जितना पूर्ण मुक्त है, पूर्ण जागरण है, उसकी वावत तुम कुछ भी नहीं कह सकते। क्योंकि वहाँ कोई नियम का यंत्रवत् व्यवहार नहीं है। मनुष्य में इसलिए तकलीफ होती है क्योंकि मनुष्य का विज्ञान नहीं बन सका पूरी तरह । मनुष्य का पूर्ण विज्ञान बनाना मुश्किल भी है। किसी को हम गाली देंगे तो साधारणतः वह क्रोध करेगा लेकिन कोई महावीर मिल सकता है जिसे आप गाली दें तो वह चुपचाप खड़ा रहे और क्रोध न करे। ___ आदमी जितना चेतन हो जाएगा उतना ही उसकी बाबत कुछ नहीं कहा जा सकता कि गणित के हिसाब से ऐसा होगा। यह प्रकृति चक्र है बिल्कुल । वर्षा आती है, सर्दी आती है, गर्मी आती है, चक्र घूम रहा है । नदियां हैं, पानी है, पर्वत हैं । बादल बने हैं, लौट रहे हैं, चक्कर चल रहा है। जितने नीचे उतरेंगे, चक्कर उतना सुनिश्चित है । जितना ऊपर उठेंगे, चक्कर उतना शिथिल है । जितना ऊपर उठते चले जाएंगे, चक्कर उतना शिथिल होता चला जाएगा। पूर्ण उठ जाने पर चक्कर नहीं है, सिर्फ आप रह जाते हैं, कोई दवाव नहीं है, कोई दमन नहीं है, कोई जबरदस्ती नहीं है। सिर्फ आपका होना है । यह मुनि, स्वतंत्रता का अर्थ है । अमुक्ति, बंधन, परतन्त्रता का यही अर्थ है कि बंधे हुए चक्कर लगा रहे हैं, कुछ उपाय नहीं है। बटन दबाते हैं, पंखे को चलना पड़ता है, कोई उपाय नहीं है । पंखे की कोई इच्छा नहीं है। कोई स्वतन्त्रता नहीं है। बंधन से मोक्ष की ओर जो यात्रा है, वह अचेतन से चेतन की ओर यात्रा है। Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #477 --------------------------------------------------------------------------  Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : आपने कहा कि महावीर की आत्मा मुक्त होकर भी वापिस आ गयो यी-पया इसे स्पष्ट करें। क्या मुक्त प्रात्मा घूम कर पि.र निगोद अवस्था में नहीं पहुंच जातो ? उत्तर : महायान में एक बहुत मधुर कथा का उल्लेख है। बुद्ध का निर्वाण हुआ। वह मोक्ष के द्वार पर पहुँच गए । द्वारपाल ने द्वार खोल दिया। बुद्ध को कहा : स्वागत है आप भीतर आएं। लेकिन बुद्ध उस द्वार को ओर पीठ करके खड़े हो गए। और उन्होंने द्वारसाल से कहा : जब तक पृथ्वी पर एक व्यक्ति भी अमुक्त है, तब तक मैं भोतर कैसे आ जाऊँ । अशोभन है यह । लोग क्या कहेंगे? अभी पृथ्वी पर बहुत लोग बंधे हैं, दुःखी है, और वुद्ध आनन्द में प्रवेश कर गए ! तो.मैं रुकूगा। मैं इस द्वार से सभी के बाद ही प्रवेश कर सकता है। यह कहानी महायान बौद्धों में प्रचलित है। इसका अर्थ यह है कि एक व्यक्ति मुक्त भी हो सकता है, लेकिन मुक्त हो जाना ही मोक्ष में प्रवेश नहीं है । इस बात को समझ लेना जरूरी है कि मुक्त होना मोत का प्रवेश-द्वार है । मुक्त होकर ही कोई व्यक्ति मोक्ष में प्रवेश पा सकता है, मुक्त हुए बिना प्रवेश नहीं पा सकता है। लेकिन मुक्त हो जाना ही प्रवेश नहीं है। ठेठ द्वार पर भी खड़े होकर कोई वापिस लौट सकता है और जैसा कि मैंने पीछे कहा कि एक बार वापिस लौटने का उपाय है। वह मैंने पीछे समझाया भी कि क्यों ऐसा उपाय है । जो उपलब्ध हुआ है वह अगर अभिव्यक्त नहीं हो पाया, जो पाया है अगर वह बांटा नहीं जा सका, जो मिला है अगर वह दिया नहीं जा सका तो एक Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ महावीर : मेरी दृष्टि में जीवन को वापिस उपलब्धि की सम्भावना है। यह सम्भावना वैसी ही है जैसा मैंने कहा कि कोई आदमी साइकिल चलाता हो, पैडल चलाता हो, फिर पैडल चलाना बन्द कर दे तो साइकिल उसी क्षण नहीं रुक जाती । एक प्रवाह है गति का कि पैडल रुक जाने पर भी साइकिल थोड़ी दूर बिना पैडल चलायो जा सकती है, लेकिन अन्तहीन नहीं जा सकती, बस थोड़ी दूर जा सकती है । यह जो थोड़ी देर का वक्त है, जब कि पैडल चलाना बन्द हो गया तब भी साइकिल चल जाती है, ठीक ऐसे हो वासना से मुक्ति हो जाए तो भी थोड़ी देर जीवन चल जाता है । वह अनन्त जीवन का मोमेंटम है पैडल चलाना बन्द कर देने के बाद, कोई चाहे तो थोड़ी देर, साइकिल पर सवार रह सकता है, कोई चाहे तो ब्रेक लगाकर नीचे उतर सकता है। सवार रहना पड़ेगा, ऐसी भी कोई अनिवार्यता नहीं है। पैडल चलाना बन्द हो गया है तो व्यक्ति उतर सकता है। लेकिन न उतरना चाहे तो थोड़ी देर चल सकता है, बहुत देर नहीं चल सकता। जैसा मैंने कहा कि जीवन को व्यवस्था में एक जीवन समस्त वासना के क्षीण हो जाने पर भी चल सकता है । मगर यह जरूरी नहीं है। कोई व्यक्ति सीधा मोक्ष में प्रवेश करना चाहे तो कर जाए लेकिन मुक्त व्यक्ति चाहे तो एक जीवन के लिए वापस लौट आता है। ऐसे जो व्यक्ति लोटते हैं इन्हीं को मैं तीर्थकर, अवतार, पैगम्बर, ईश्वरपुत्र कह रहा हूँ यानी ऐसा व्यक्ति जो स्वयं मुक्त हो गया है और अब सिर्फ खबर देने, वह जो उसे फलिज हुआ है, घटित हुमा है उसे वांटने, उसे बताने चला आया है। हम भोगने माते है, वह बांटने आता है। इतना ही फर्क है । और जो स्वयं न पा गया हो, वह व तो बांट सकता है, न इशारा कर सकता है। एक जीवन के लिए कोई भी मुक्त व्यक्ति रुक सकता है लेकिन जरूरी नहीं है। सभी मुक्त व्यक्ति रुकते हैं, ऐसा भी नहीं है। लेकिन जो व्यक्ति रुक जाते हैं इस भाँति, वे हमें बिल्कुल ऐसे लगते हैं जैसे कि वे ईश्वर के भेजे गए दूत हों क्योंकि वे पृथ्वी पर हमारे बीच से नहीं आते । वे उस दशा से लौटते हैं, जहाँ से साधारणत: कोई भी नहीं लौटता है। इसलिए अलग-अलग धर्मों में अलगअलग धारणा शुरू हो गई । हिन्दू मानते हैं कि वह अवतरण है परमात्मा का, ईश्वर स्वयं उतर रहा है ! क्योंकि यह जो व्यक्ति है, इसे अब मनुष्य कहना किसी भी अर्थ में सार्थक नहीं मालूम पड़ता। क्योंकि न तो इसकी कोई वासना है, न इसकी कोई तृष्णा है, न इसकी कोई दौड़ है, न कोई महत्वाकांक्षा है । यह अपने लिए जोता भी नहीं मालूम पड़ता। अपने लिए श्वास भी नहीं लेता । तो Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १८ ५६५ सिवाय ईश्वर के यह कौन हो सकता है ? और मुक्त व्यक्ति करीब-करीब ईश्वर हो गया है । I 1 तो हिन्दुओं ने उसे अवतरण कहा है, यानी ऊपर से उतरना जहाँ हम जाना चाहते हैं । स्वभावतः जिन्होंने भी अवतरण की यह धारणा बनाई, उन्हें वह ख्याल नहीं है कि यह व्यक्ति भी यात्रा करके ऊपर गया होगा तो ही यह वापस लोटा है । इस आधे हिस्से पर उनकी दृष्टि नहीं है । इसलिए हिन्दुओं ने अवतरण कहा है । जैनों ने अवतरण की बात ही नहीं कही; उन्होंने तीर्थंकर कहा है । तीर्थंकर का मतलब है शिक्षक, गुरु । तीर्थंकर का अर्थ है जिसके मार्ग पर चलकर कोई पार जा सकता है, जिसके इशारे को समझकर कोई पार उतर सकता है । लेकिन पार उतरने का इशारा वही दे सकता है जो पार तक हो आया हो। अगर मैं इस किनारे पर खड़ा होकर बता सकूँ कि वह रहा दूसरा किनारा तो अगर इसी किनारे से वह किनारा दिखता हो तो आपको भी दिखता होगा । तब मुझे बताने की जरूरत नहीं है । किनारा कुछ ऐसा है कि दिखता नहीं है । और जब भी कोई इशारा कर सकता है कि वह रहा किनारा तो एक अर्थ है उसका कि वह उस किनारे से होकर लौटा हुआ व्यक्ति है, नहीं तो उसकी ओर इशारा कैसे कर सकता है । अगर सबको दिखाई पड़ता होता तो हमको भी दिखाई पड़ जाता। हम सब को दिखाई नहीं पड़ता। सिर्फ उस व्यक्ति का इशारा दिखाई पड़ता है, व्यक्ति की आँखों को शांति दिखाई पड़ती है, उसके प्राणों के चारों ओर भरता हुआ आनन्द दिखाई पड़ता है, उसकी ज्योति दिखाई पड़ती है । किनारा नहीं दिखाई पड़ता लेकिन उसका इशारा दिखाई पड़ता है और वह आदमी आश्वासन देता हुआ दिखाई पड़ता है । उसका सारा व्यक्तित्व आश्वासन देता हुआ मालूम पड़ता है कि वह किसी दूसरे किनारे का अजनबी है, किसी और तल को छूकर लौटा है। कुछ उसने देखा है जो हम दिखाई नहीं पड़ रहा है। लेकिन वह व्यक्ति भी उस किनारे की ओर इशारा कैसे कर सकता है जहाँ यह हो न माया हो ? तीर्थंकर का मतलब हो यह हुआ कि जो उस पार को छूकर लोट आया है इस पार खबर देने को । और मैं मानता हूँ कि उचित ही है कि जीवन में ऐसी व्यवस्था हो कि जो उस पार जा सके, कम से कम एक बार तो लौट कर खबर दे सके | अगर यह व्यवव्या न हो, अगर जीवन के अन्तर्नियम का यह हिस्सा न हो तो शायद हमें कभो भो खबर न मिले । आज कोई व्यक्ति चाँद से होकर लौट आया है तो चांद के सम्बन्ध में हमें बहुत सी खबर मिली है। चाँद यहाँ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में छूकर से दिखाई भी पड़ता है । परमात्मा तो यहां से दिखाई भी नहीं वड़ता । उसकी खबर मिलने का तो कोई सवाल ही नही । लेकिन कभी कोई उसको ਚੀਟ आए तो खबर दे सकता है। तीर्थंकर का अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो छूकर लोट आया है शायद खबर देने ही; जो उसे मिला उसे बांटने, जो उसने पाया उसे बताने | जैनों ने अवतरण की बात नहीं की । क्योंकि ईश्वर की धारणा उन्होंने स्वीकार नहीं की । इसलिए एक ही रास्ता था कि जो व्यक्ति गया हो उस किनारे तक वह वापस लौटकर खबर देने आ गया हो । ५६६ ईसाई हैं । वे न तीर्थंकर की कोई धारणा करते हैं, न अवतार की । वे तो सीधे ईश्वरपुत्र की धारणा करते हैं-- ईश्वर के बेटे की । क्योंकि ईश्वर के सम्बन्ध में जो खबर देता हो वह ईश्वर के इतना निकट होना चाहिए जितना की बाप के निकट वेटा हो । बेटे का और कोई मतलब नहीं है । उसका मतलब इतना है कि जो उसके प्राणों का हिस्सा हो, उसका हो खून बहता हो जिसमें, वही तो खबर देगा । जगत् में इस तरह की अन्य धारणाएँ हैं । लेकिन उन सब में एक बात सुनिश्चित है और वह यह कि जो जानता है, वही जना भी सकता है। जिसने जाना है, पहचाना है, देखा है, जिया है, वही खबर भी दे सकता है | उसकी खबर कुछ अर्थ भी रखती है । मुक्त व्यक्ति एक बार लौट सकता है। महावीर के अब लौटने का कोई सवाल नहीं है । महावीर लौट चुके हैं। लेकिन बुद्ध के लौटने का सवाल अभी बाकी है । बुद्ध के एक अवतरण की बात है । मैत्रेय के नाम से कभी भविष्य में उनका एक अवतरण होगा। क्योंकि बुद्ध को जो सत्य की उपलब्धि हुई है, वह इसी जीवन में हुई है । इसके पहले जीवन में नहीं । बुद्ध ने जो पाया है इसी जीवन में पाया है। एक जीवन का उन्हें उपाय और मोका है और बहुत सदियों से, जब से बुद्ध गए तब से उनको प्रेम करने वाले, उन्हें जानने वाले प्रतीक्षा करते हैं उस अवसर की जब कि बुद्ध अवतरित होंगे । बुद्ध के आने की एक बार उम्मीद है । जीसस की भी एक बार आने की उम्मीद है । जीसस को भी जो उपलब्धि हुई वह इसी जन्म में हुई । दुबारा जन्म हो सकता है । लेकिन एक ही लिया जा सकता है और प्रतीक्षा भी हो सकती है । फिर हमें ऐसा कठिन मालूम पड़ता है कि बुद्ध को मरे पच्चीस सौ वर्ष होते हैं । जीसस को मरे भी दो हजार वर्ष होते हैं । तो दो हजार वर्ष तक वह जन्म नहीं हुआ । हमारी समय की जो धारणा है उसकी वजह से हमको ऐसी कठिनाई है । तो थोड़ी-सी समय की धारणा भी समझ लेनी जरूरी है । आप रात Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१८ ५६७ सोए, रात में एक सपना देखा । सपने में सैकड़ों वर्ष बीत जाते हैं । नींद टूटती है और आप पाते हैं कि झपको लग गई थी और घड़ी में अभी मुश्किल से एक मिनट हुआ है। सपने में वर्षों बीत गए । और अभी आँख खुली है तो देखते हैं कि घड़ी में एक ही मिनट सरका है। झपकी लग गई थी कुर्सी पर और एक लम्बा सपना देख गए । तब सवाल उठता है कि इतना लम्बा सपना वर्षों बीतने वाला, एक मिनट में कैसे देखा जा सका ? देखा जा सका इसलिए कि जागने के समय की धारणा अलग है, समय की गति अलग है । सोने के समय की गति अलग है। मुक्त व्यक्ति के लिए समय की गति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। वहाँ समय की गति है ही नहीं। हमारे तल पर समय की गति है। हम ऐसा सोच सकते हैं कि अगर हम एक वृत्त खींचे और एक वृत्त पर, परिधि पर तीन बिन्दु बनाएँ, वे तीनों काफी दूर पर हैं, फिर हम तीनों बिन्दुओं से वृत्त के केन्द्र की तरफ रेखायें खींचें। जैसे-जैसे केन्द्र के पास रेखाएं पहुँचती जाती है, वैसे-वैसे करीब होती जाती हैं। परिधि पर इतना फासला था। केन्द्र के पास आतेआते फासला कम हो गया । केन्द्र पर आकर दोनों रेखाएं मिल गई। परिधि पर दूरी थी, केन्द्र पर एक ही बिन्दु पर आकर मिल गई हैं। केन्द्र पर परिधि से खींचो गई सभी रेखाएँ मिल जाती हैं। और जैसे-जैसे पास आती जाती है वैसे-वैसे मिलती चली जाती हैं। समय का बड़ा विस्तार है जितना हम जीवन केन्द्र से दूर हैं, समय उतना बड़ा है। और जितना हम जीवन केन्द्र के करीब आते-जाते हैं, उतना समय छोटा होता जाता है। __ कभी शायद आपने ख्याल नहीं किया होगा कि दुःख में समय बहुत लम्बा होता है, सुख में बहुत छोटा होता है। किसी को अपना प्रियजन मिल गया है, रात बीत गई है और सुबह प्रियजन बिदा हो गया है तो वह कहता है कि कितनी . जल्दो रात बीत गई। इस घड़ी को क्या हो गया कि आज जल्दी चली जाती है। घड़ी अपनी चाल से चली जाती है । घड़ी को कुछ मतलब नहीं है कि किस का प्रियजन मिला है किसका नहीं मिला है, घर में कोई बीमार है, उसकी खाट के किनारे बैठकर आप प्रतीक्षा कर रहे हैं । चिकित्सक कहते हैं बचेगा नहीं। रात बड़ी लम्बी हो गई है। ऐसा कि घड़ी के कांटे, चलते हुए भी मालूम नहीं पड़ते । ऐसा लगने लगता है कि घड़ी आज चलती ही नहीं, रात बड़ी लम्बी हो गई है। दुःख समय को बहुत बना देता है, सुख समय को एकदम सिकोड़ देता है । उसका कारण है क्योंकि सुख भीतर के कुछ निकट है, दुम्न परिषि पर है। Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में आनन्द समय को बिल्कुल मिटा देता है। इसलिए आनन्द कालातीत (टाइमलैस) है, वहाँ समय है हो नहीं, साधारण से सुख में समय छोटा हो जाता है, साधारण से दुःख में समय बड़ा हो जाता है। ___ आइंस्टीन से कोई पूछ रहा था कि आप सापेक्षता का सिद्धान्त ( थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी ) हमें समझाएं। आइंस्टोन ने कहा कि बहुत मुश्किल है समझाना क्योंकि जमीन पर थोड़े से लोग हैं, जो सापेक्षता की बात समझ सके हैं क्योंकि उसे समझना बहुत कठिन है। सापेक्ष का मतलब है कि जो प्रत्येक परिस्थिति में छोटा-बड़ा हो सकता है। चौड़ा-संकरा हो सकता है, जिसका कोई स्थिर होना नहीं है। फिर उसने कहा कि उदाहरण के लिए मैं कहता हूँ कि तुम अपनी प्रेयसी के पास बैठे हो, आषा घंटा बीत जाता है, कितना लगता है। तो उस आदमी ने कहा कि क्षण भर । तो आइंस्टीन ने कहा : छोड़ो प्रेयसी को। तुम एक जलते हुए स्टोव पर बैठा दिये गये हो और आधा घंटा रखे गए हो। उसने कहा कि आधा घंटा, क्या आप कह रहे हैं ? तब तक तो मैं मर ही चुकूँगा। आधा घंटा ! जलते हुए स्टोव पर । अनन्त हो जाएगा, समय का एक-एक क्षण गुजारना मुश्किल हो जाएगा, बहुत लम्बा हो जाएगा। आधा घंटा बहुत ज्यादा हो जाएगा। तो आइंस्टीन ने कहा कि सापेक्ष से मेरा यहो प्रयोजन है। . समय वही है लेकिन तुम्हारी चित्त की अवस्था के अनुसार बड़ा-छोटा हो जाता है । स्वप्न में एकदम छोटे समय में कितनी लम्बी यात्रा हो जाती है। जागरण में नहीं हो पाती। जागने में समय की परिधि पर हम खड़े हैं । सोने में हम अपने भीतर आए हैं। तो स्वप्न भीतर की ओर है, जागृति बाहर की ओर है। स्वप्न में हम अपने भीतर बन्द हैं, केन्द्र के ज्यादा निकट हैं । जागने में ज्यादा दूर हैं । जब कोई व्यक्ति केन्द्र पर पहुंच जाता है, उसका नाम समाधि है। तब समय एकदम मिट जाता है, एकदम लीन हो जाता है । समय होता ही नहीं। सब ठहर गया होता है। फिर क्षण हो जाता है । यह समय रहित कालातीत सण है। इस क्षण में ठहरे हुए पच्चीस सौ साल बीत गए कि पच्चीस हजार साल बीत गए, कोई फर्क नहीं होता। सब फर्क परिषि पर है, केन्द्र पर कोई फर्क नहीं है। वहाँ सब परिधि से खीची गई रेखाएं संयुक्त हो गई हैं। तो ऐसा व्यक्ति प्रतीक्षा कर सकता है उस क्षण को जब यह सर्वाधिक उपयोगी हो सके और ऐसा भी हो सकता है कि कुछ शिक्षक प्रतीक्षा करते-करते Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१८ ५६६ हो मोक्ष में बिदा ले लेते हों। शायद उनके योग्य पृथ्वी पर समय न बन पाता हो। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि कुछ शिक्षक प्रतीक्षा करते हुए बिदा हो गए हैं क्योंकि वह बन नहीं पाई बात । और इसलिए इस तरह की चेष्टाएं चलती है कि शिक्षक के जन्म लेने के पहले कुछ और व्यक्ति जन्म लेते हैं, जो हवा और वातावरण तैयार करते हैं। जैसा जीसस के पहले एक व्यक्ति पैदा हुआ-सन्त जोन । उसने सारे यहदी मुल्कों में जेरूसलम में, इजरायल में, सव ओर खबर पहुँचाई कि कोई आ रहा है, तैयार हो जाओ। उसने हजारों लोगों को दीक्षित किया कि कोई आ रहा है, तैयार हो जाओ। लोग पूछते कि कौन आ रहा है तो वह कहता कि प्रतीक्षा करो, क्योंकि तुम उसे देखकर ही समझ सकोगे, मैं कुछ बता नहीं सकता। लेकिन कोई आ रहा है। उसकी उसने तैयारी की। उसने पूरी अपनी जिन्दगी गांव-गांव घूमकर जीसस के लिए हवा तैयार की। और जब जीसस आ गए तो जोन ने जीसस को आशीर्वाद दिया और इसके बाद वह चुपचाप विदा हो गया। फिर उसका कोई पता नहीं चला। फिर जोन कहाँ गए ? वह जो हवा उसने बनाई थी, जीसस ने उसका पूरा उपयोग किया। बहुत बार ऐसा भी हुआ है कि जब कोई शिक्षक वापस लौटे तो वह कुछ प्राथमिक शिक्षकों को भेजे जो हवा पैदा कर दें। थियोसॉफी ने अभी एक बहुत बड़ी मेहनत की थी लेकिन वह असफल हो गई। जैसा कि मैंने कहा था कि बुद्ध के एक जन्म को सम्भावना है । थियोसाफिस्टों ने मैत्रेय को लाने के लिए भारी प्रयास किया। यह प्रयास अपने किस्म का अनूठा था। इस प्रयास में बड़ी साधना चली। इसमें कुछ लोगों ने प्राणों को संकट में डालकर आमंत्रण भेजा और कृष्णमूर्ति को तैयार किया कि मैत्रेय की आत्मा उसमें प्रविष्ट हो जाए। और कोई बीस-पच्चीस वर्ष कृष्णमूर्ति को तैयारी में लगे । कृष्णमूति को जैसी तैयारी हुई, दुनिया में वैसी किसी मादमी की शायद ही हुई हो। अत्यन्त गूढ साधनाओं से कृष्णमूर्ति को गुजारा गया। ठीक वक्त पर तैयारियां पूरी हुई । सारी दुनिया में कोई छः हजार लोग एक स्थान पर एकत्र हुए जहाँ कृष्णमूर्ति में मैत्रेय की आत्मा के प्रविष्ट होने की घटना घटने वाली थी। लेकिन शायद मूल-चूक हो गई। वह घटना नहीं घटी। और कृष्णमूर्ति अत्यन्त ईमानदार आदमी हैं। अगर कोई बेईमान आदमी उसकी जगह होता तो वह शायद अभिनय करने लगता कि घटना घट गई है। कृष्णमूर्ति ने इन्कार कर दिया गुरु होने से। Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में कृष्णमूर्ति का सवाल ही न था। सवाल तो किसी और आत्मा का था। आत्मा के लिए तैयारी थी उनके शरीर की। क्योंकि ऐसा अनुभव किया गया है कि मैत्रेय के उतरने में बड़ी बाधा पड़ रही है। कोई शरीर इस योग्य नहीं मिल रहा है कि मैत्रेय उतर जाएं। और कोई गर्भ ऐसा निर्मित नहीं हो रहा है कि मैत्रेय के लिए अवसर बन जाए। तो हो सकता है कि दो चार हजार वर्ष प्रतिक्षा करनी पड़े। हो सकता है कि प्रतीक्षा समाप्त हो जाए, और बस चेतना बिदा हो जाए । लेकिन आशा कम है । वह प्रतीक्षा जारी रहेगी। कृष्णमूर्ति के लिए किया गया प्रयोग असफल हो गया। और अब ऐसा कोई प्रयोग पृथ्वी पर नहीं किया जा रहा है । अब तक सदा आकस्मिक शिक्षक ही उतरे थे, कभी-कभी तैयारियां भी हुई थीं। तो वह जो मैंने कहा एक बार लौटने का उपाय है मुक्त आत्मा को और यह उसका हक है, उसका अधिकार है क्योंकि जिसने जीवन में इतना पाया उसे अगर बांटने का और खबर देने का अधिकार भी न मिलता हो तो वह जीवन बड़ा असंगत और तर्कहीन है। उपलब्धि के बाद अभिव्यक्ति का मौका अत्यन्त जरूरी है। इसलिए मैंने कहा कि महावीर पिछले जन्म में उपलब्ध किए हैं, इन जन्म में बांटे हैं, उनकी चेतना के लौटने का कोई सवाल नहीं है। दूसरी एक बात आपने पूछो है कि हम प्रकृति में तो चक्रीय गति देखते हैं । सब चीजें दौड़ती हैं, घूमती हैं। सब चीजें लौट कर फिर घूम जाती हैं । तो मन में सम्भावना उठतो है, कल्पना उठती है कि कहीं ऐसा तो नहीं है कि निगोद से आत्माएँ मोक्ष तक जाती हों, फिर वापस निगोद में पहुँच जाती हों। क्योंकि जहाँ सभी कुछ चक्र में घूमता हो, वहां सिर्फ एक आत्मा की गति को चक्रीय न माना जाए यह कुछ नियम का खंडन होता मालूम पड़ता है। सब चीजें लौट आती हैं, बीज वृक्ष बनता है, फिर वृक्ष में बीज आ जाते हैं। फिर बोज वृक्ष बनते हैं, फिर वृक्ष के बीज आ जाते हैं । सब लोटता चला जाता है । किसी वैज्ञानिक को कोई पूछ रहा था कि मुर्गी और अंडे में कौन पहले है। बहुत जमाने से आदमियों ने यह बात पूछी है । उस वैज्ञानिक ने कहा कि पहले का तो सवाल ही नहीं है क्योंकि मुर्गी और अंडा दो चीजें नहीं हैं । तो उस आदमी ने पूछा कि अगर दो चीजें नहीं हैं तो मुर्गी क्या है ? अंडा क्या है ? वैज्ञानिक ने फिर बहुत बढ़िया बात कही कि मुर्गी है अंडे का रास्ता, अंडे पैदा करने के लिए। या इससे उल्टा कह सकते हैं कि अंडा मुर्गी का रास्ता है, मुर्गी पैदा करने के लिए । सब चीजें घूम रही हैं। घड़ी के कांटे की तरह सब Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १८ ५७१ घूम रहा है । फिर काँटे बाहर पर आ जाते हैं। सिर्फ आत्मा के लिए ही इस नियम को तोड़ना उचित नहीं मालूम पड़ता क्योंकि विज्ञान बनता है निरपवाद नियमों से । अगर जीवन के सब पहलुओं पर यह सच है कि बच्चा जवान होता है, जवान बूढ़ा होता है, बूढ़ा मरता है, बच्चे पैदा होते हैं, फिर जवान होते हैं, फिर बूढ़े होते हैं, फिर मरते हैं। अगर जीवन की चक्रीय गति इस तरह चल रही है और आत्मा का पुनर्जन्म मानने वाले भी इस चक्रीय गति को स्वीकार करते हैं कि जो अभी मरा वह फिर बच्चा होगा, वह फिर जवान होगा, फिर बूढ़ा होगा, फिर मरेगा, फिर बच्चा होगा, फिर वह चक्र घूमता रहेगा तो सिर्फ आत्मा को यह चक्र क्यों लागू नहीं होगा । साधारणतः लागू नहीं होता । नियम यही है और ऐसे ही सब घूमता चलता है । मुक्त आत्मा एक अनूठी घटना है, सामान्य घटना नहीं है । सामान्य नियम लागू भी नहीं होते । अमल में चक्र के बाहर जो कूद जाता है, उसी को मुक्त आत्मा कहते हैं । नहीं तो मुक्त कहने का कोई मतलब नहीं है । संसार का मतलब है जो घूम रहा है, तो घूमता ही रहता है। मुक्त का मतलब है जो इस घुमने के बाहर छलांग लगा जाता है। मुक्त को अगर हम फिर चक्रीय गति में रख लेते हैं तो मुक्ति व्यर्थ हो गई । अगर मोक्ष से फिर निगोद में आत्मा को आना है तो पागल हैं वे जो मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि इससे कोई मतलब ही नहीं । अगर कांटे को बारह पर लौट ही आना है - वह कुछ भी करे, चाहे मुक्त हो, चाहे न हो— फिर तो मोक्ष अर्थहीन हो गया । अगर छलांग लगानी है तो हमें सजग होना पड़ेगा इस चक्र के प्रति । जैसे कि कल आपने क्रोध किया, फिर पश्चात्ताप किया। आज फिर आप क्रोध कर रहे हैं, फिर पश्चात्ताप कर रहे हैं । फिर क्रोध है, फिर पश्चात्ताप है । हर क्रोध के पीछे पश्चात्ताप, हर पश्चात्ताप के आगे फिर क्रोध हैं । एक चक्र में आप घूम रहे हैं । और अगर इस चक्र में आप खड़े रहते हैं, तो घूमना जारी' 1 रहेगा । लेकिन यह भी हो सकता है कि आप चक्र के बाहर छलांग लगा जाएँ । छलांग लगाने का मतलब है कि एक आदमी न तो क्रोध करता है न पश्चात्ताप करता है, बाहर हो जाता है। जब उसे कोई गाली देता है तो न वह क्षमा करता है, न वह पश्चात्ताप करता है । वह कुछ करता ही नहीं, वह एकदम बाहर हो जाता है । यह जो बाहर हो जाना है, 'यह जो छिटक जाना है, चक्र के बाहर, यह तो चक्र में नहीं गिना जा सकता। जा सकता है तो महावीर नासमझ हैं, बड़ी भूल में अगर इसे भी चक्र में गिना पड़े हैं । बुद्ध नासमझ हैं Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ महावीर : मेरी दृष्टि में नासमझी में पड़े हैं। क्राइस्ट भी गल्ती कर रहे हैं। असल में तब मोक्ष की बात करने वाले सब पागल है। क्योंकि अगर सबको घूमते ही रहना है तो सब बात व्यर्थ हो गई। अगर हम मोक्ष की धारणा को, जो सतत (कान्स्टेन्ट) है, समझ लें तो उसका मतलब ही कुल इतना है कि चक्र के बाहर कूदा जा सकता है और जो व्यक्ति इस चक्र के प्रति सचेत हो जाएगा, वह बिना कूदे नहीं रह सकता क्योंकि चक्र बिल्कुल कोल्हू के बैल की तरह घूम रहा है । और कोल्हू के बैल में कौन जुता रहना चाहेगा। जीवन की जो साधारण यात्रा है, उसकी जो लोहपटरी है, उससे कोई अगर छलांग लगा जाता है, तो वह मुक्त हो जाता है। उसको वापस चक्र में रखने का कोई उपाय नहीं है। हां, जैसा मैंने कहा, एक बार वह स्वयं, अपनी इच्छा से चाहे तो उस चक्र में लौट सकता है जिसमें अपने प्रियजनों को, अपने मित्रों को, उन सबको जिनके लिए वह आया है आनन्द में लाना चाहता है । एक बार फिर वापस आकर बैठ सकता है उस चक्र पर लेकिन चक्र पर बैठा हुआ भी वह घूमेगा नहीं। घूमेगा वह इसलिए नहीं कि अब घूमने का कोई मतलब न रहा । और इसलिए हम उसे पहचान भी पाएंगे कि कुछ अजब तरह का आदमी है, कुछ भिन्न तरह की बात है, यह कुछ और अनुभव करके लौटा है । अब वह खड़ा भी होगा हमारे बाजार में लेकिन हमारे बाजार का हिस्सा नहीं होगा। अब वह हमारे वीच भी खड़ा होगा लेकिन ठीक हमारे बीच नहीं होगा। कहीं हमसे दूर फासले पर होगा। उस व्यक्ति में दोहरी घटना घट रही होगी । वह होगा हमारे बीच और हमसे बिल्कुल अलग होगा। यह हम प्रतिपल अनुभव भर पाएंगे कि कहीं उससे हमारा मेल होता भी है, कहीं नहीं भी होता और कहीं बात बिल्कुल अलग हो जाती है। वह कुछ और ही तरह का आदमी है। यह जो वैज्ञानिक है, भौतिकवादी है, वह यही कह रहा है कि यहां तो सब 'नियम वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से हम आते हैं। आपका जाने का कोई उपाय नहीं है । सागर का पानी सागर में पहुँच जाता है, पत्तों में आई मिट्टो वापिस मिट्टी में पहुंच जाती है। पत्ते गिर कर फिर मिट्टी हो जाते हैं। वही वैज्ञानिक कहता है, वही भौतिकवादी कहता है लेकिन पार्मिक खोजी यह कह रहा है कि एक ऐसी भी जगह है जहाँ से हम नहीं आए हैं और जहाँ जा सकते हैं और जहाँ हम चले जाएं तो फिर इस चक्कर में गिर जाने का कोई उपाय नहीं है। अगर यह सम्भव नहीं है तो धर्म की सम्भावना खत्म हो गई; साधना का प्रयोजन व्यर्थ हो गया। फिर कुछ बात ही नहीं। फिर तो चक्र में हम घूमते Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१८ ५७३ रहेंगे । आवागमन से छटने की जो कामना है, यह उन लोगों को उठी है जिन्हें इस घूमते हुए चक्र की व्यर्थता दिखाई पड़ गई कि जन्मों-जन्मों से एक-सा घूमना हो रहा है; हम घूमते चले जा रहे हैं और इससे छलांग लगाने का ख्याल नहीं आता। छलांग लग सकती है, छलांग यह घटना है जिसके लिए फिर वे नियम लागू नहीं होते। जैसे आप छत पर खड़े हैं। दस आदमी छत पर खड़े हैं। कोई भी छत से नहीं गिर रहा है। एक आदमी छत पर छलांग लगाता है । यह आदमी छत से बाहर हो गया। छत इसे जमीन की कशिश से बचा रही थी। अब जमीन इसे खींचेगी अपनी तरफ जो कि छत पर खड़े हुए किन्हीं लोगों को नहीं खीच सकती है। अभी जो हमने चांद पर आदमी भेजा इसके लिए सबसे भारी कठिनाई एक ही है। और वह यह कि जमीन की कशिश से कैसे छूटें। दो सौ मील तक जमीन के ऊपर चारों तरफ जमोन की कशिश का प्रभाव है। इसके बाद एक इंच बाहर हो गए कि जमीन का खींचना खत्म हो गया । तो जो सैकड़ों वर्षों से चिन्तना चलती थी कि चांद पर कैसे पहुँचे, उसमें सबसे बड़ी कठिनाई यह थी कि जमीन से कैसे छूटें ? क्योंकि जमोन का गुरुत्वाकर्षण इतनी जोर से खींचता है कि उसके बाहर कैसे हो जाएं ? यह पहले सम्भव नहीं हो सकता था, अब सम्भव हो गया है। क्योंकि हम इतना बड़ा विस्फोट पैदा कर सके रोकेट के पीछे कि उस विस्फोट के धक्के में यह रोकेट गुरुत्वाकर्षण के घेरे के बाहर हो गया। एक बार बाहर हो गया पृथ्वी को जकड़ के कि अब वह कहीं भी जा सकता है । अब कोई सवाल नहीं है कहीं जाने का। दूसरा डर चाँद पर उतारने का था कि पता नहीं कितनी दूरो से चांद खींचेगा या नहीं खींचेगा। तो हर एक कशिश का क्षेत्र है एक, हर नियम का एक क्षेत्र है । और उस नियम के बाहर उठने का उपाय है । अपवाद के रूप में बाहर जा सकते हैं उस क्षेत्र के। जीवन की जो गहरी परिधि है उसके केन्द्र में पृथ्वी को कशिश है, एसे जीवन के चक्र का केन्द्र वासना है। अगर जीवन के बाहर छिटकना है तो किसी न किसी रूप में वासना के बाहर निकलना होगा। प्रत्येक व्यक्ति के भीतर जो तृष्णा है, जिसको बुद्ध तृष्णा कहते हैं, वह जो वामना है, जो हमें स्थिर नहीं होने देती और कहती है, वह लाओ, वह पाओ, वह बन जाओ, हमें चक्कर में दौड़ाती रहती है। वह इशारे करती है चक्र के भीतर और कहती है कि धन कमाओ, यश कमाओ, स्वास्थ्य लाओ। वह कहती है और जियो, ज्यादा जियो, ज्यादा उम्र बनाओ। वह जो भी कहती है, वह सब उस चक्र के भीतर के Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में पहलू हैं । जो व्यक्ति एक क्षण भी वासना के बाहर हो जाए, वह अन्तरिक्ष में यात्रा कर गया — उस अन्तरिक्ष में, जो हमारे भीतर है । वह जीवन के चक्र के बाहर छलांग लगा गया। क्योंकि उसने कहा कि न मुझे यश चाहिए, न धन चाहिए, न कोई काम चाहिए, मुझे कुछ चाहिए ही नहीं ? मैं जो हूँ, हूँ । मैं कुछ होना नहीं चाहता । वासना का मतलब है कि मैं जैसा है वैसा नही, जो मेरे पास है वह काफी नहीं, कुछ और चाहिए। छोटा क्लर्क बड़ा होना चाह रहा है, छोटा मास्टर बड़ा मास्टर होना चाह रहा है। छोटा मिनिस्टर बड़ा मिनिस्टर होना चाह रहा है । ५७४ तो सारे खोजियों की खोज यह है कि एक क्षण के लिए भी वासनाओं के बाहर ठहर जाओ और वह क्षेत्र जो चक्कर लगवाता था, उसके आप बाहर हो जाओगे । और एक क्षण भी आप बाहर हो गए तो आप हैरान हो जाओगे यह जानकर कि जिसे हम अनन्त जन्मों से पाने की आकांक्षा कर रहे हैं वह हमारे पास ही था, वह मिला ही हुआ था । वह हमें उपलब्ध ही था । अपने तरफ देखने भर की जरूरत थी । लेकिन जैसे अन्तरिक्षयात्रा नहीं हो सकती जब तक कि जमीन की कोशिश से छूट न जाएँ, वैसे हो अन्तर्यात्रा नहीं हो सकती जब तक हम वासना की कोशिश से छूट न जाएं। और वासना की कशिश जमीन की कशिश से ज्यादा मजबूत है । क्योंकि जमीन की जो कशिश है वह एक जड़ शक्ति है खींचने की । वासना की जो कशिश है वह एक सजग चेतनशक्ति है खींचने की । आप रास्ते पर चलते हैं, आपको कभी पता नहीं चलता कि जमीन आपको खींच रही है । यह जब पता चले तब हम कशिश से बाहर हो जाएँ । अभी अन्तरिक्ष में जो यात्री गए उनको पता चला कि यह तो बड़ा मुश्किल मामला है । एक सैकेंड भी कुर्सी पर बिना बेल्ट बांधे नहीं बैठा जा सकता । बेल्ट छूटा कि आदमी उठा, छप्पर से लग गया एकदम । और उनको पहली दफा जाकर पता लगा कि वजन जैसी कोई चीज ही नहीं है। जमीन की कशिश है, जमोन का खिचाव है | चूँकी चाँद पर जमीन की कशिश बहुत कम है, इसलिए कोई भी आदमी छलांग लगाकर ऊँची दीवार से निकल सकता है। चांद की कशिश आठ गुनी कम है । जो आदमी जमीन पर आठ फीट छलांग लगा सकता है वह वहाँ आठ गुनी छलांग लगा सकेगा क्योंकि उसका वजन कम हो गया है । लेकिन हमें पता ही नहीं है कि हमें पूरे वक्त, जमोन खींचे हुए है क्योंकि हम उसी में पैदा होते हैं, उसी में पड़े होते हैं और उसी में हम निर्धारित हो जाते हैं । हमको Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१८ ५७५ यह भी पता नहीं है कि वासना हमें चौबीस घंटे खींचे हुए हैं क्योंकि हम उसी में पैदा होते हैं। पैदा हुआ बच्चा कि वासना की दौड़ शुरू हुई। वासना ने उसे पकड़ना शुरू किया। उसे यह चाहिए, उसे वह चाहिए । उसे यह बनाना है, उसे वह बनाना है-दौड़ शुरू हो गयी और चक्र जोर से घूमने लगा। इस चक्र के बाहर, जिसे भी छलांग लगानी हो, उसे वासना के बाहर होना पड़ता है और साक्षी का भाव वासना के बाहर ले जाता है। जैसे कोई व्यक्ति साक्षी हो गया वह वासना के बाहर चला जाता है और हमारी कठिनाई यह है कि जीवन में साक्षी होना बहुत कठिन है । हम नाटक, फिल्म तक में साक्षी नहीं हो सकते । फिल्म के परदे पर, जहाँ कुछ भी नहीं है, जहाँ सिवाय प्रकाश के, कम ज्यादा फेंके गए किरण-जाल के और कुछ भी नहीं है, वहां हम कितने दुःखो, सुखी, क्या-क्या नहीं हो जाते ? तीन आयामों (थी डायमैन्शन) में एक फिल्म बनी है । जब पहली बार उसका प्रदर्शन हुआ तो बड़ी हैरानी हुई क्योंकि उसमें तो बिल्कुल ऐमा दिखाई पड़ा कि आदमो पूरा है । यह जो फिल्में है दो आयामों में बनी हैं, लम्बाई-चौड़ाई गहराई नहीं है इनमें । गहराई फिल्म में आ जाती है तो फिर सच्चे आदमी में और फिल्म के आदमी में कोई फर्क नहीं रहता । पर्दे पर जो दिखाई पड़ रहा है, वह बिल्कुल सच्चा हो गया है । जब पहली बार यह फिल्म बनो, लन्दन में उसका प्रदर्शन हुआ। उसमें एक घोड़ा है, एक घुड़सवार है जो भागा चला आ रहा है । हाल के सारे लोग एकदम झुक गए कि वह घोड़ा एकदम हाल के अन्दर से निकल जाए । एक भाला फेंका उस घुड़सवार ने और सब लोग अपनी खोपड़ी बचाने को फिक्र में पड़ गए कि कहीं वह खोपड़ी में न लग जाए। तब पता चला कि आदमी उस पल में कितना भूल जाता है कि यह परदा है । और हम सब रोज भूलते हैं। हम साक्षी नहीं रह पाती। ___टालस्टाय ने लिखा है "मैं बड़ा हैरान हुआ। मेरी मां रोज थियेटर जाती थी। रूस की सर्दी ! बाहर थियेटर के बग्यो खड़ा रहती, बग्यो पर दरवान खड़ा रहता क्योंकि मेरी मां कब बाहर आ जाए, पता नहीं। मैं देखकर हैरान हुआ कि मेरी माँ थियेटर में इतना रोती कि उसके रूमाल भीग जाते। बाहर हम आते और अक्सर ऐसा होता कि कोचवान बर्फ की वजह से मर जाता, तो उसे बाहर फिकवा दिया जाता और मां आंसू पोंछतो रहती फिल्म के । मैं दंग रह जाता, हैरान रह जाता यह देखकर कि एक जिन्दा आदमी मर जाय हमारी कोच पर बैठा हुआ सिर्फ इसलिए कि हम उसको छुट्टी नहीं कर सकते, न हटा Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर । मेरी दृष्टि में सकते, उसको कोच रखनी पड़ती क्योंकि मां किसी वक्त बाहर आ सकती है। तो कोचवान बर्फ की ठंड में मर गया है मां के सामने उसकी लाश फिकवा दी गई है और दूसरा कोचवान सड़क से पकड़ कर बैठा दिया गया है और कोच घर की तरफ चली गई है। मां पूरे रास्ते रोती रही है उस फिल्म के लिए, या उस नाटक के लिए जहाँ कोई मर गया था, या जहाँ कोई प्रेमो बिछुड़ गया था, या जहाँ कोई और दुर्घटना घट गई थी। कई बार ऐसा हो जाता है कि गहर की जिन्दगी हमें उतनी ज्यादा नहीं पकड़ती जितनी चित्र की कहानी पकड़ लेती है क्योंकि बाहर की जिन्दगी बहुत अस्त-व्यस्त है और चित्र की कहानी बहुत व्यवस्थित है और आपके मन को कितना डूबा सके, उसकी सारी व्यवस्था की गई है। बाहर की जिन्दगी में यह सब व्यवस्था नहीं है। तो नाटक तक में, फिल्म तक में, हम साक्षी नहीं रह पाते । बहुत गहरे में हम खोज करेंगे तो फिल्म और जीवन में फर्क ज्यादा नहीं है। यह शरीर उसी तरह विद्युत कणों से बना है, जिस तरह फिल्म के परदे पर बना हुआ शरीर विद्युत कणों से बना है। फिल्म या नाटक की कहानी जितना अर्थ रखती है, उससे ज्यादा हमारे जीवन को कहानी अर्थ नहीं रखती है। हाँ, फर्क इतना ही है कि वह तीन घंटे की मंच है; यह शायद सत्तर साल की, सौ साल की मंच है। इसमें अभिनेता बदलते चले जाते हैं, आते हैं, चले जाते हैं। यह नाटक चलता ही रहता है। इस नाटक में दर्शक और अभिनेता अलगअलग नहीं हैं। अगर हमें स्मरण आ सके कि यह एक लम्बा नाटक खेला जा रहा है, तो शायद हम भी साक्षी हो सके। और फिर शायद नाटक के इन पात्रों में क्या मैं हो जाऊँ यह ख्याल टूट जाए। जो हम है, शायद हम उसी को चुपचाप निभाकर बिदा हो जाएं। ऐसी चित्त की दशा में जहाँ वासना टूट जाती है, तृष्णा टूट जाती है, जहाँ हम दौड़ से बाहर खड़े हो जाते हैं और दौड़ सिर्फ नाटक रह जाती है व्यक्ति छलांग लगा लेता है। फिर भी क्योंकि हम नाटक में जो खोए हैं, नाटक में जो भटके है, अभिनय ही जीवन रहा, है, तो हमें वास्तविक जीवन की खबर समझ में नहीं आती। जैसे कि नाटक के मंच के पीछे ग्रीन रूम है जहां कोई राम बना था कोई रावण बना था, मंच पर लड़ रहे थे, झगड़ रहे थे, मगर पीछे ग्रीन रूम में जाकर एक दूसरे को चाय पिला रहे हैं और गपशप कर रहे हैं। Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१८ ५७७ जिस दिन कोई देख पाता है वास्तविक जिन्दगी को तब हैरान होता है कि असली जिन्दगी के नाटक में राम और रावण जब पर्दे के पीछे चले जाते हैं तब चाय पीते हैं और गाशप करते हैं। सब झगड़े खत्म हो जाते हैं। लेकिन वह ग्रोन रूम जरा गहरे में छिपा है और पर्दा बहुत लम्बा है । और पर्दे के बाहर ही हम पूरे वक्त रहते हैं कि हमें पता ही नहीं है कि पोछे ग्रीन रूम भी है। तो हम एक बड़े नाटक के हिस्से हैं, कभी आपने सोचा, एक नाटक के पात्र की तरह कभी देखा, कभी सुबह उठकर स्माल किया कि एक नाटक शुरू होता हैगेज सुबह । रात थक जाते हैं, एक नाटक का अन्त हो जाता है, फिर सुबह उठते हैं, नाटक शुरू हो जाता है। और कभी आपने सोचा कि कई बार आपको ध्यान रखना पड़ता है कि नाटक में भूत-चूक न हो जाए। एक फैन नित्रकार अमेरिका जा रहा था। उसके भुलक्कड़ होने की बड़ी कहानियां हैं। उसकी पत्नी और उनकी नौकरानी, दोनों उसको बिदा देने एयरपोर्ट आई। उसने जल्मो में नौकरानी को चूम लिया और पत्नी को कहा कि खुश रहमा का काट रहना, और वे दोनों घबरा गई। उसकी पत्नी ने कहा : यह क्या करते है। बात नहीं करते कि वह नौकरानी है, उसको आप चमते हैं और मुझे नोकरानी बनाते हैं, मैं आपको पता हूँ। उसने कहा : चलो, बदले देता है। फिर पत्नी को ना लिया और नौकरानी को नहा : बच्चों का ख्याल रखना और कहा कि कमी-मानी चा जाता है, ख्याल नहीं रख पाता। तो कुछ लोग ख्याल रखनाते, कुछ लोग चक जाते हैं। यह मेरा पिता है. यह मेरी पत्नी है, यह मेरा बेटा है इसका हमें ख्याल रखना पड़ता है चोवीस घंटे और अगर न ख्याल रखें तो दूमर हम पाल दिला देते हैं कि वह तुम्हारे पिता हैं, या खुद आदमी हपाल दिला देता है कि मैं तुम्हारा पिता हूँ। वह नाटक हमें पुरे वक्त याद रखना पड़ता है कि कहीं भूल न जाएं, कहीं चूक गझो जाए। और जो इस नाटक का जितना अच्छी तरह से निकाह लेता है, नाना कनिष्ठ है। मैं यह नहीं कहता हूँ कि नाटक न निभाएँ। नाट निमान के लिए ही है और बड़ा मजेदार भी है। इनमें कुछ ऐसो तकलीफ भी नहीं है। बम एक माल न भूल जाएँ, और चाहे सब भूल जाएं कि यह सिर्फ नाक है और कही गोलर हमारे एक बिन्तु है जहाँ हम सदा बाहर हैं। ३७ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में ( स्वामी रामतीर्थ हुए हैं । उनकी बड़ी अजीब सी आदत थी । अमरीका में लोगों को बड़ी मुश्किल हुई क्योंकि वह हमेशा अन्य पुरुष ( थर्ड पर्सन ) में हो बोलते थे । यहाँ तो उनके मित्र उन्हें पहचानने लगे थे । वहाँ तो बड़ी कठिनाई हुई। और हम अजीव अजीब तरह के लोगों के थोड़े आदी भी हैं । सारी दुनिया इतनी आदि नहीं है । यहाँ महावीर, बुद्ध जैसे अजीब-अजीब लोग हुए हैं। उन्होंने हमें बहुत सी बातों की आदत डलवा दी है जोकि दुनिया में बहुत लोग: को नहीं है । राम जब वहाँ पहुँचे तो लोग बड़ी मुश्किल में पड़ गए। क्योंकि वह कहते कि राम को इस वक्त बहुत भूख लगी है । अत्र जो आदमी स मने बैठा है वह चारों ओर देखता है कि कौन है राम ? क्योंकि अगर मुझे भूख लगो है तो मैं कहूँगा कि मुझे भूख लगी है और राम कहते हैं कि राम को बड़ी भूव लगी है, देखते क्या हो, कुछ इन्तजाम करो, राम बड़ा परेशान हो रहा है। उन लोगों ने कहा : कौन राम ? तो उन्होंने कहा कि यह राम । तो लोगों ने कहा कि आप ऐसा क्यों नहीं कहते कि 'मैं'। उन्होंने कहा, पैसा मैं कैसे कह सकता हूँ क्योंकि मैं तो खुद ही देख रहा हूँ कि 'राम' को तकलीफ हो रही है, 'रम' को भूख लगी है । 'राम' को मुश्किल हो रही है । 'राम' को मैं देख रहा हूँ । कई दफा ऐसा होता है कि कई लोग 'राम' को देते हैं, हम बहुत हंसते हैं । कहते हैं : देखो ! राम को कैसी पड़ो ? राम कैसी मुश्किल में फँसे ? आ गया न मजा ? अब यह जो ख्याल कि कहीं मैं अलग हूँ, सारे खेल से कहीं दूर हूँ, साक्षी बना देता है । तब वासना को दौड़ टूट जाती है । खेल फिर भी चलता है क्योंकि आप अकेले खिलाड़ो नहीं । खेल फिर भी चलता है क्योंकि खिलाड़ो बहुत हैं । और फिर खेलकर क्या बिगाड़ना है ? ठंड लगी है । खूब गालो बड़े बूढ़े छोटे बच्चों के साथ गुड़िया का खेल भी खेल लेते हैं । ५७८ एक मेरे मित्र जापान में किसी के मेहमान थे । हो घर में बड़ी सज-धज शुरू हो गई और घर के मालूम पड़े। उन्होंने पूछा कि बात क्या है । तो उन्होंने कहा कि आज विवाह है | आप भी सम्मिलित हों । उन्होंने कहा : जरूर सम्मिलित हो जाऊँगा । सांझ आ गई। घर में बड़ी तैयारी चलती रही। बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सब तैयारी में लगे हैं । वह भी बेचारे बहुत तैयार हो गए। जब देखा तो बहुत हैरान हुए। जो विवाह था, वह एक गुड़िया और एक गुड्डे का था । पड़ोस के घर की एक लड़की ने गुड़िया की शादी रचाई थी । और पड़ोस के दूसरे उन दोनों का विवह उनको पता न था । सुबह बड़े-बूढ़े भी बड़े उत्तेजित घर के एक लड़के ने अपने गुड्डे का विवाह रचाया था । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१८ ५७६ हो रहा था। गांव के बड़े-बूढ़े मोजूद थे। लेकिन मेरे मित्र ने कहा कि यह क्या पागलपन है । और इतना साज-संवार चल रहा था, इतने बैड-बाजे बज रहे थे, तो मेरे मित्र ने उस घर के बूढ़े को कहा कि यह क्या पागलपन है कि आप लोग इस गुड़िया के विवाह में सम्मिलित हुए। तो उन्हाने कहा कि. इस उम्र में पता चल जाना चाहिए कि सभी विवाह गुड़ियों के हैं। उस बूढ़े ने कहा कि इसमें भो क्या फर्क है। उसमें और इसमें कोई फर्क नहीं है । अभी बच्चे खेल खेल रहे है, हम उसमें सम्मिलित होते हैं और हम उतनो गम्भारता से हो सम्मिलित होते हैं जितनी गम्भीरता से हम असली विवाह में सम्मिालत होते हैं ताकि बच्चे समझ लें कि असली विवाह भी गुड़ियों के खेल से ज्यादा नहीं हैं। बूढ़े दाना में एक हो गम्भीरता से सम्मिलित हाते हैं । ___ उस बूढ़े का ख्याल देखिए। वह कह रहा है कि बच्चों को अगो से पता चल जाए कि हमारी गम्भीरता में कोई फक नहीं है ! गुड़िया के विवाह में भी हम उसी गम्भीरता से आते हैं जैसे हम अमला विवाह मे आते हैं। दानों में कोई फर्क नहीं है। दोनों में हम कोई भेद भी नहीं करते हैं । ठाक है । वह एक तल की गुड़ियों का विवाह है, वह दूसरे तल को गुड़ियों का विवाह है । लेकिन विवाह हो रहा है। लोग मजा ले रहे है और हम भागीदार हो जाते हम क्यों नाहक लोगों के इस रस में, इस राग-रंग में बाधा बन जाएँ। जहाँ बुद्धिमत्ता आती है वहाँ जगत् माया से अलग नहीं हो जात', यहाँ जगत् नाटक से अलग नहीं हो जाता। बह नाटक और जगत् एक ही हैं। काई निन्दा नहीं आ जाती कि नाटक गलत है। ऐसा कुछ भी नहीं हो पाता। वहीं सब बराबर है, जगत् और नाटक ए हो जात है। सिफ एक घटना ट जाता है किमाक्षी अलग खड़ा हो जाता है। जिस दिन साक्षा अग खड़ा हो जाए जीवन से, उसी दिन दौड़ के बाहर हो जाता है। तो महावार की साधा मौलिक रूप से साक्षी की सायना है। सभी साधनाएँ मौलिक रूप से साक्षा की साधनाएँ हैं कि हम किस भांति देवने वाले न रह जाएं, नाग। वाले न २१ जाएं, करने वाले न रह जाएँ, दर्शक, द्रष्टा, साक्षी हा जाएं, किस भांति सिर्फ साक्षी रह जाएं। एपोटेक्टस एक अद्भुत व्यक्ति हुआ है। बीमारी भी आतो, दुःख भी आता, चिन्ता भी आती तव भी लोग उसे वैसा ही पाते जैसा जब वह स्वस्थ था, निश्चिन्त था, शांत था, सुखी था। लोगों ने हर हालत में उसे देखा लेकिन वैसा ही पाया जैसा वह था। उसमें कोई फर्क नहीं देखा कभी भी। कुछ लोग उसके Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में पास गये और कहा कि एपीटेक्टस, अब तो भो । करीब आती है, तुम बूढ़े हो गए। तो उसने कहा : जरूर आए, देखेंगे। जब सब चीजें देखने की ताकत आ गई तो मौत को देखने की ताकत भी आ गई। जो जिन्दगी को नहीं देख पाते, वे मौत को भी नहीं देख पाते। जो जिन्दगी को देख लेता है वह मौत को भी देख लेता है । लेकिन एपीटेक्ट रा ने कहा, देखेंगे। बड़ा मजा आयेगा, क्योंकि बड़े दिन हो गए, मौत को नहीं देखा। __ मौत आ है। बहत से लोग इकट्ठा हो गये है। एपीटेक्टस मर रहा है लेकिन घर में संगीत हो रहा है क्योंकि उसने अपन मित्रों और शिष्यों को कहा है कि मरते क्षण में मझे रोकर बिदा मा देना क्योंकि रोकर हम उनको विदा देते हैं जो जानता नहीं था। मझे नम हंसकर विदा देना क्योंकि मैं जानता है, नि: मैं मर नहीं रहा है। मैंने देखना सीख लिया है, हर स्थिति को देखना सीख लिया है और जिस स्थिति को मैंने देखना सीखमैं उसके बाहर हो गया उसी वक्त । अगर मैंने द:ख को देखः, रख के बाहर हो गया। अगर मैंने सुख को देखा, मैं सुख के बाहर हो गया। अगर मैंने जीवन को देखा तो मैं जीवन के बाहर हो गया । तो तुममे मैं कहता है कि मैं देखने को कला जानता है। मैं मौल को देख लेगा और मो के बाहर हो जाऊँगा। तुम इसको फिक्र ही मत करो, मैंने जिस चीज को देखा मैं उसके बाहर हो गया। यह मेरे जीवन भर का अनुभव है कि देखो और बाहर हो जाओ। मगर हम देख ही नहीं पाते । इगलिा. इस देखने के तत्त्व-विचार को 'दर्शन' का नाम दिया है। दर्शन का मतलब है देखने की क्षमता । पश्चिम में जो दर्शन है उसे मीमांसा कहना चाहिए, तत्त विचार कहना चाहिए । भारत में जिस हम दर्शन कहते हैं --महावीर, बुद्ध, पतञ्जलि, कपिर. कणाद का दर्शन, वर, पश्चिम का दर्शन नहीं है । भारत का दर्शन है देखने की कला : देख लो और बाहर हो जाओ। सोचने का सवाल नहीं है यहाँ । और जिस चीज को आप देखोगे उसी के बाहर हो जाओगे । यह कभी सोचा आपने कि निग चीन को आप देखने में समर्थ हो जाते हैं, आप तत्काल उसके बाहर हो जाते हैं। हम यहाँ इतने लोग बैठे हैं और अगर ल्याप गौर से देखेंगे, आप फौरन बाहर हो जाएंगे। आप इतने लोगों को गौर से देखेंगे और आप पाएंगे कि भीड़ नहा रहो । आप अकेले रह गए। कभी कितनी हैं। भीड़ में आप खड़े हो और गौर से चारों तरफ देखें और जग जाएं तो आ पाएंगे कि भीड चली गई, आप अकेले ही रह गए; भीड़ है पर आप बिल्कुल अगे रह गए हैं। जिस चीज को आप देखने की क्षमता जुटा Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १८ ५८१ लेंगे उसी के बाहर हो जाएँगे । तो इस चक्र में सब चीजें एक सी घूमती चली जाती हैं अगर द्रष्टा हो जाएँ तो हम तत्काल बाहर हो जाते हैं । । पाम्पई के शहर में बाग लगा क्योंकि पाप का ज्वालामुखी फूट गया था । सारा गाँव भागा। जिसके पास जो या बचाने को बचा सकता था, भागा बचाकर । किसी ने धन, किसी ने कनावें, किसी ने बही खाते, फर्नीवर, करड़े मोती, जवाहर -- जो जिसके पास चा लिया और भागा। फिर जो कोई पूरा नहीं बचा सका क्योंकि जब आग उगता हो तो पूरा बचाना मुश्किल हैं । और जब भागने का सवाल हो, जिन्दगी मुश्किल में पड़ी हो तो बहुत ज्यादा बचाने की चेष्टा में खुद को अटकाव नहीं जा सकता । लोग भागे । जात्रा रात थी । एक विवाह चौरास्ते पर बड़ा है जिसको सुबह छः बजे ड्यूटी बदलेगी । तब द्वारा आदमी आएगा। राव दो बजे नगर जल उठा है सारा नगर भाग रहा है। पुलिस वाला अपनी जगह पर खड़ा है। जो भी उनके करोब से निकलता है उससे कहता है, भागों, यह कोई वक्त है खड़े रहने का ! वह कहता है लेकिन अभी छ: कहाँ बजा है ? और अगर तुम भी खड़ा होना तो जान तो भागने को जरूरत नहीं । अग लगो है, वह बाहर है। और कितनी ही आग लग जाए, अगर में बड़ा हा रहूँ और देखता हा रहूँ जो आग दक्ष हा बाहर रहेगी क्योंकि देने वाला तो मैं पीछे हो, अलग हो, छूट जाऊँगा हर बार । आग करो आ सकती है, शरीर में लगती है लेकिन अगर में देखता ही गया तो मैं छूट पाऊँगा बाहर तुम व्यर्थ भाग रहे हो क्योंकि जहाँ तुम बाग रहे हो बाग यहाँ भी लग सकता है और कहीं भी भागोगे वा एक दिन आग लगेगी ही । हम सब भाग रहे हैं और खड़े नहीं हो पाते हैं। भागने की जो दोड़ है वह चक्रीय है। हम उसमें चक्कर लगाते चले जाते हैं। हर बार लगता है कि कहीं पहुँच रहे हैं, मगर कहीं भी नहीं पहुँच पाते क्योंकि चक्कर और आगे दिखाई पड़ने लगता है । लेकिन कोई खड़ा भी हो जाता है अभी पटरी सनांचे उतर कर और देखने लगता है उस चक्कर को तब बहुत हंसी आती है कि यह लोग व्यर्थ पागल को तरह दौड़े बने जाते हैं । और जिस जगह को छोड़कर वे भाग रहे हैं थोड़ी देर में उस जगह पर आ जाएँगे क्योंकि चक्कर गोल है और उसमें वे गोल घूम रहे हैं । कहीं कोई जा नहीं सकता, और सब भागे ले जा रहे हैं एक दूसरे के पोछे । जो व्यक्ति बाहर खड़ा हो जाता है, वह वैसा हो ही जाता है जैसे एक बड़ा नाटक चलता हो और कोई आदमी बाहर खड़ा होकर देखे | Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ महाबीर । मेरी दृष्टि में जीवन की कला जीवन में खड़े हो जाने की कला ही है । धर्म का विज्ञान द्रष्टा बन जाने का ही विज्ञान है, और सार शास्त्रों का सार है । और उन सारे व्यक्तियों की वाणी का अर्थ एक ही सत्य है और वह यह है कि खड़े हो जाओ, दौड़ो मत, देखो, डूबो मत । पास खड़े हो जाओ, दूर खड़े हो जाओ। अगर कोई अनडबा खड़ा रह जाए एक क्षण भी तो आप जो पूछ रहे हैं कि क्या फिर लोटना नहीं हो जाएगा? मैं कहता हूँ नहीं ! एक बार कोई खड़ा हो गया तो वहां से लौटने का सवाल ही नहीं है। मगर हम चूंकि दौड़ रहे हैं, लौटेंगे। बहुत बार लौट चुके हैं, लौटते रहेंगे और दौड़ते ही रहेंगे । और कई बार ऐसा होता है कि थोड़ा दौड़कर हम उपलब्ध नहीं हो पाते तो हम सोचते हैं कि और तेजी से दौड़ें। छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात पूरी करूं। एक आदमी को अपनी छाया से डर पैदा हो गया। वह अपनी छाया से भयभीत होने लगा। वह अपनी छाया से बचने के लिए भागा। वह जितनी तेजी से भागा, छाया उसके पीछे भागी। उसने देखा कि छाया बड़ी तेज भाग सकती है। इतनी तेजी से काम नहीं चलेगा और तेजी से भागना पड़ेगा। उसने अपनी सारी जान लगा दी। जितनी तेजी से वह भागा, छाया उतनी तेजी से भागी । क्योंकि छाया उसकी ही थी जिससे वह भाग रहा था। वह स्वयं ही से भाग रहा था । पहुँच कहाँ सकता था ? छाया से छूट कैसे सकता था ? अपने से ही छूटने का उपाय क्या था? लेकिन गांव-गांव में खबर फैल गई। और गांव-गांव में लोग उसके दर्शन करने लगे और फूल फेंकने लगे। उसको रुकने की फुरसत कहाँ थी? क्योंकि रुकता है तो छाया और जोर से पकड़ लेती है, रुके और छाया फिर पकड़ ले। तो वह गांव-गांव में भागता रहता। उनकी पूजा होने लगी। उस पर फूल बरसाने लगे। उसके चरणों में लाखों लोग झकने लगे और जितने लोग ज्यादा झुकने लगे, जितने फूल गिरने लगे वह उतनी ही तेजी से भागने लगा। और गांव-गांव में खबर हो गई कि ऐसा तपस्वी कभी नहीं देखा गया जो एक क्षण भी नहीं ठहरता, जो रुकता ही नहीं, जो रात बेहोश होकर गिर पड़ता और जब उसकी आँख खुलती और छाया दिखती तो वह फिर भागना शुरू कर देता। आखिर ऐसे आदमी का क्या हाल हो सकता है ? वह आदमी मरा। वह छाया साथ ही रही और मरा। जब मरा तब उसकी लाश की भी छाया बन गई। फिर लोगों ने उसको दफना दिया, एक कब्र बना दो बड़े दरख्त के नीचे और Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मस्तोत्तर-प्रवचन-१८ ५३ एक फकीर के पास लोग पूछने गए कि हम उसको कब्र पर क्या लिख दें । तो वह फकीर आया, उसने कब देखी दरख्त की छाया में । कत्र की कोई छाया न थी। तो उस फकीर ने कब्र पर लिखा कि जो तू जी कर न पा सका, वह तेरी कन ने पा लिया है और पा लिया है इसलिए कि तू भागता था और कत्र तेरी खड़ी है। उसकी छाया खो गई है । तू भागता था धूप में और तेजी से छाया तेरा पीछा करती थी। अपनी कब से तू सोख ले तो अच्छा है, नहीं तो ऐसी तेरी बहुत बार कब बनेगो और तू कभी न सीखेगा, भागता ही रहेगा। खड़ा हो जाना सूत्र है, छाया में ठहर जाना सूत्र है । हम सब धूप में दौड़ रहे हैं। वासना और तृष्णा की गहरी धूप है और हम सब की दौड़ है तो फिर हम चक्र के बाहर नहीं हो सकते। Page #499 --------------------------------------------------------------------------  Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #501 --------------------------------------------------------------------------  Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : भगवान् महावीर ने द्वन्द्व को स्पष्ट कहा कि मुझे स्वयं कर्मों से युद्ध करना है। तो भी वह एक देवता को उनकी देख-रेख के लिए नियुक्त कर गए। इस घटना में क्या कोई औचित्य है ? उत्तर : इसमें दो बातें समझने योग्य हैं। एक तो कर्मों से युद्ध; दूसरा अज्ञान से युद्ध । महावीर इस बात की तैयारी में नहीं थे कि कोई भी उनके संघर्ष में सहयोगी बने । चाहे स्वयं देवता हो सहयोग के लिए क्यों न कहें, महावीर सहयोग के लिए राजी नहीं। उनकी दृष्टि यह है कि खोज में कोई संगीसाथी नहीं हो सकता। अगर खोज में कोई संगी-साथो के लिए रुकेगा तो वह खोज से वंचित रह जाएगा। नितान्त अकेले को खोज है। और जिसे नितान्त अकेले होने का साहस है, वही इस खोज पर जा सकता है । मन तो हमारा चाहता है कि कोई साथ हो, कोई गुरु, कोई मित्र, कोई जानवर, कोई मार्गदर्शक, कोई सहयोगी साय हो। अकेले होने के लिए हमारा मन नहीं करता है। लेकिन जब तक कोई अकेला नहीं हो सकता तब तक आत्मिक खोज की दशा में इंच भर भी आगे नहीं बढ़ सकता। अकेले होने की शक्ति सबसे कीमती बात है। हम तो दूसरे को साथ लेना चाहेंगे । महावीर को कोई निमंत्रण देता है आकर कि मुझे साथ ले लो, मैं सहयोगी बन जाऊँगा तो वह सधन्यवाद निमंत्रण वापस लौटा देते हैं। देव इन्द्र कहता है आकर कि मैं सहयोगी बनें तो वह कहते हैं : क्षमा करिए ! यह खोज ऐसी नहीं है कि इसमें कोई साथी हो सके । यह खोज नितान्त अकेले की है। क्यों ? यह अकेले का इतना आग्रह क्यों ? अकेले के आग्रह में बड़ो गहरी बातें हैं । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८८ महावीर : मेरी दृष्टि में .. पहली बात यह है कि जब हम दूसरे का साथ मांगते हैं तभी हम कमजोर हो जाते हैं । असल में साथ माँगना हो कमजोरी है। वह हमारा कमजोर चित ही है जो कहता है कि साथ चाहिए। और कमजोर चित्त क्या कर पाएगा जो पहले से ही साय माँगने लगा। तो पहली जरूरत यह है कि हम साथ की कमजोरी छोड़ दें और पूरी तरह जो अकेला हो जाता है, जिसके चित्त से संग की मांग, सहयोग की इच्छा मिट जाती है सारा जगत् उसे संग देने को उत्सुक हो जाता है। कहानी का दूसरा मतलब है यह कि खुद देवता भी उत्सुक हैं उस व्यक्ति को सहारा देने के लिए जो अकेला खड़ा हो गया। दूसरी ओर जो साथ मांगता है उसे साथ मिना नहीं-नाममात्र को लोग माथी हो जाते है। असल में मांग से कोई साथ ना ही नहीं सकता। लेकिन जो मांगता हो नहीं साथ, जो मिले हुए साथ को भी इन्कार कर देता है, उसके लिए सारे जगत् की शुभ शक्तियाँ आतुर हो जाती हैं साथ देने को। कहानी तो काल्पनिक है, पुराण है, गाथा है किन्तु प्रयोष कथा है। वह कहती है कि जब कोई व्यक्ति नितान्त अकेला खड़ा हो जाता है तो जगत् को सारी शुभ शक्ति.याँ उसको साथ देने को आतुर हो जाती है। लेकिन अगर ऐसा व्यक्ति उनका साथ लेने को भी तैयार हो जाए तो वह भटक जाता है थ्योंकि उसकी यह साथ लेने की बात इस तथ्य की खबर है कि मन के किसी अंधेरे कोने में, संग और साथ की इच्छा शेप रह गई है । इसलिए निमंत्रण तो मिला है महावीर को क हम साथ देते हैं लेकिन वह कहते है कि हम साथ लेते नहीं। __ तो जब जगत् को सारी शुभ शक्तियां भी साथ देने को तत्पर हों तब भी वैसा आदमी अकेला होने की हिम्मत कायम रखता है। यह बड़ा उप्रेरणा है कि भीतर कहीं छिपा हो कोई भाव, साथी का, संगी का, समाज का, तो वह 'प्रकट हो जाए । महावीर उसे भी इन्कार कर देते हैं । इस भांति वे अकेले खड़े हो जाते हैं। और यह इतनी बड़ी घटना है मनोजगत् में प्रतिमा पूर्णतया अकेले खड़े हो जाना, जिसके मन के किसी भी परत पर किसी तरह के साथ को कोई आकांक्षा नहीं रह गई। यह व्यक्ति एक अर्थ में अद्त रूप से मुक्त हो गया है क्योंकि जो हमारी साथ की इच्छा हमें बाँधती है, गहरे में वही हमारा बन्धन है। समाज को छोड़कर भागना बहुत आसान है । लेकिन समाज की इच्छा से मुक्त हो जाना बहुत कठिन है। आदमी अकेला नहीं होना चाहता। कोई भी कारण खोज कर वह किसी के साथ होना चाहता है। अकेले में बहुत Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १६ भयभीत होता है कि कोई भी नहीं है, मैं बिल्कुल अकेला हूँ । हालांकि सच्चाई यह है कि जब सब है तब भी हम अकेले हैं । तब भो कौन साथ है किसका ? आस-पास हो सकते हैं, निकट हो सकते हैं, साथ कैसे हो सकते है ! ५८६ दोनों उस भ्रम को लेकिन साथ कौन हमारी यात्राएँ अकेली हैं लेकिन हम एक साथ का भ्रम पैदा कर लेते हैं, पति-पत्नी, मित्र-मित्र, गरु-शिष्य साथ का एक भ्रम पैदा कर लेते है। आदमी इसी भ्रम में है कि कोई मेरे साथ है, मैं अकेला नहीं है । पोस कर बड़े सुप में हैं कि कोई साथ है, कोई डर नहीं । किसके है? तो बस मैं मरूंगा, मैं जिऊँगा तो बस में जिऊंगा और आज भी अपने मन की गहराइयों में वहां मैं अकेला हूँ | वहां की साथ है मेरे ? तो जब तक मैं साथ माँगता रहूँगा तब तक मैं अपने मन की गहराइयों में भी नहीं उतर सरतः। क्योंकि साथ हो सकता है परिधि पर केन्द्र पर साथ नहीं हो सकता | नहीं तो मैं कभी अकेला ही जाऊँगा । उस परिधि पर, जहाँ हमारे शरीर होते हैं, बा वहाँ उन तक हम साथ हो सकते है । और जो व्यक्ति साथ के लिए आतुर है, वह परिवि पर ही जिएगा. यह कभी केन्द्र पर नहीं सरक सकता। क्योंकि जैसे-जैसे भोतर गया, वैसे-वैपायना और गय। अभी हम इतने लोग यहीं के हैं । हम सब आँख बंद कर के शांत हो जाएँ और भातर बाएँ तो यहां एक-एक आदमी ही रह जाता है । सब अकेले रह जाती हैं यहाँ । फिर कोई दूसरा साथ नहीं रह जाता | दो व्यक्ति एक साथ ध्यान में थोड़े ही जा सकते हैं । एक साथ बैठ सकते हैं जाने के लिये जाएँगे तो अकेले अकेले । और जैसे भीतर सरके कि वहाँ कोई भी नहीं है, फिर हम अकेले रह गए । जो व्यक्ति साथ के लिए बहुत आतुर है, वह आदमी परिधि के भीतर नहीं जा सकता। साथ को पूरी तरह कोई इन्कार कर दे, अस्वीकार कर दे तो ही वह अपने भीतर जा सकता है | क्योंकि तत्र परिधि पर होने का कोई रस नहीं रह जाता। यह थोड़ी समझने की बात है | 1 हम अपनी परिधि पर जीते ही हैं इसलिए कि वहीं दूसरों के होने की सुविधा है । हम अपने केन्द्र पर इसीलिए नहीं होते कि वहाँ हमारे अकेले होने का उपाय है, वहाँ कोई दूसरा साथ नहीं हो सकता । समाज को छोड़ने का जो मतलब है, वह यह नहीं है कि एक आदमी जंगल में भाग जाए क्योंकि हो सकता है कि जंगल में वह वृक्षों के साथ दोस्ती कर ले, पक्षियों के साथ दोस्ती कर ले, जानवरों के साथ दोस्ती कर ले, पहाड़ों के साथ दोस्ती कर ले | यह सवाल नहीं Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में कि वह भाग जाए क्योंकि वहाँ भी वह संग खोज लेगा । वहाँ भी वह साथ खोज लेगा । सवाल गहरे में यह है कि कोई व्यक्ति परिधि से भीतर जाने का उपाय करे तो उसे दिखाई पड़ेगा कि परिधि के सम्बन्धों की जो आकांक्षा है, वह छोड़ देनी पड़ेगी । इससे यह सवाल नहीं उठता है कि वह सम्बन्ध तोड़ देगा । सम्बन्ध रह सकते हैं, लेकिन अब उनको कोई आकांक्षा उनके भीतर नहीं रह गई । अब वह परिधि के खेल हैं, और जो लोग परिधि पर जी रहे हैं, वह व्यक्ति उनके लिए परिधि पर खड़ा हुआ भी मालूम पड़ेगा, लेकिन अपने आप में वह अकेला हो गया है, और अपने भीतर जाना शुरू कर दिया है । महावीर को जो अन्तर्यात्रा है, उसमें चूंकि कोई संगी साथी नहीं हो सकता इसलिए वह सब संग को अस्वीकार कर देते हैं । लेकिन जैसे हो कोई सब संग अस्वीकार करता है जीवन की सारी शक्तियाँ, उसका साथी होना चाहती हैं । जो अकेला है, जो असहाय है, जो असुरक्षित है, जीवन उसके लिए सुरक्षा भी बनता है, सहायता भी बनता है । जीवन के आन्तरिक नियम ऐसे हैं कि ऊपर पूर्णतया कोई असहाय है तो सारा जीवन उसका सहायक बन जाता है । यह जीवन के भीतरी नियम हैं। यह नियम वैसे ही हैं जैसे कि चुम्बक लोहे को खींच लेता है और हम कभी नहीं पूछते कि क्यों खींच लेता है । हम कहते हैं कि यह नियम है । चुम्बक में ऐसी शक्ति है कि वह लोहे को खींच लेता है । यह भी नियम है कि जो व्यक्ति भीतर में पूर्णतः असहाय खड़ा हो गया, सारे जगत् की सहायता उसकी तरफ चुम्बक की तरह खिंचने लगती है । क्यों खिचने लगती है यह सवाल नहीं, यह नियम है । नियम का मतलब यह है कि असहाय होते ही, कोई व्यक्ति बेसहारे नहीं रह जाता, सब सहारे उसके हो जाते हैं । और जब तक कोई अपना सहारा खोज रहा है तब तक वह गहरे अर्थों में असहाय होता है । तो हम ऐसा कुछ करें जिसमें सुरक्षा रहे, असुरक्षित न हो जाएँ क्योंकि असुरक्षित चित्त को ही परमात्मा की सुरक्षा उपलब्ध होती है। जो खुद हो अपनी सुरक्षा कर लेता है, उसे परमात्मा को कोई सुरक्षा उपलब्ध नहीं होतो क्योंकि वह परमात्मा के लिए तो मौका ही नहीं दे रहा है । वह तो अपना इन्तजाम खुद कर रहा है ५६० एक कहानी है कि कृष्ण भोजन को बैठे हैं, दो चार कोर लिए हैं और भागे हैं थाली छोड़ कर । रुक्मिणी ने उनसे पूछा : आपको क्या हो गया है ? कहाँ जा रहे हैं ? लेकिन उन्होंने सुना नहीं । वह द्वार जैसे कहीं आग लग गई हो । रुक्मिणी भी उठी है, पर चले गए हैं दौड़ कर उनके दो चार कदम पीछे Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १६ ५६१ गई है । फिर वह दरवाजे से ठिठक गए, वापस लौट आए। थाली पर बैठ कर चुपचाप भोजन करने लगे । रुक्मिणी ने कहा कि मुझे बड़ी पहेली में डाल दिया आपने । एक तो आप ऐसे भागे कि मैंने पूछा : कहाँ जा रहे हैं तो उसका उत्तर देने तक की भी आपको सुविधा न थी । और फिर आप ऐसे दरवाजे से लोट आ कि जैसे कहीं भी न जाना था। हुआ क्या ? तो कृष्ण ने कहा कि मुझे प्रेम करने वाला, मेरा एक प्यारा एक रास्ते से गुजर रहा है। लोग उस पर पत्थर फेंक रहे हैं और वह मंजीरे बजाए चला जा रहा है, मेरा ही गीत गाए चला जा रहा है । लोग पत्थर फेंक रहे हैं। उसने उत्तर भी नहीं दिया है उनका । मन में भो सिर्फ देख रहा है कि वे पत्थर फेंक रहे हैं। खून की धारा बह रही है । तो मेरे जाने की जरूरत पड़ गई थी। इतने बेसहारे के लिए अगर मैं न जाऊँ तो फिर मेरा अर्थ क्या है ? तो रुक्मिणी ने पूछा कि फिर लौट क्यों आए ? उन्होंने कहा कि जब तक मैं दरवाजे पर गया, वह बेसहारा नहीं रह गया था । उसने मंजीरें नीचे फेंक दों और पत्थर हाथ में उठा लिया । उसने अपना इन्तजाम खुद ही कर लिया । अब मेरी कोई जरूरत नहीं है । उसने मेरे लिए मौका नहीं छोड़ा है । जब व्यक्ति अपना इन्तजाम स्वयं कर लेता है तो जीवन की शक्तियों के लिए कोई उपाय नहीं रह जाता। और हम सब अपना इन्तजाम स्वयं कर लेते हैं और इसीलिए वंचित रह जाते हैं । संन्यासी का मतलब ही सिर्फ इतना है कि जो अपने लिए इन्तजाम नहीं करता, छोड़ देता है सब इन्तजाम और असुरक्षा में खड़ा हो जाता है । बड़ी कठिन बात है मन को इस बात के लिए राजी करना कि 'असुरक्षा में खड़े हो जाओ, मत करो इन्तजाम ।' मलूक ने कहा है कि पंछी काम नहीं करते, अजगर चाकरी नहीं करता, सबको देने वाले हैं राम । समझी नहीं गई बात । लोगों ने समझा कि बड़े आलस्य की बात सिखाई जा रही है । इसका मतलब हुआ कि कोई कुछ न करे और जैसे पक्षी और अजगर पड़े हैं, ऐसा पड़ा रह जाए । तब तो सब सन्म हो जाए । लेकिन मलूक कुछ आलस्य की बात नहीं कर रहा है । वह कह रहा है कि करो या न करो, भीतर से जैसा पक्षी असुरक्षित है, कि कल का कोई पता नहीं, सांझ का कोई भरोसा नहीं, जैसे अजगर असुरक्षित पड़ा है, कोई इन्तज़ाम नहीं, कोई सुरक्षा नहीं - ऐसा भी चित्त हो सकता है, और जब ऐसा चित्त हो जाता है तो फिर राम ही हो जाता है सहारा, फिर कोई सहारा नहीं Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ महावीर : मेरी दृष्टि में खोज़ना पड़ता । यह आलस्य की शिक्षा नहीं है, बहुत गहरे में असुरक्षा के स्वीकार की शिक्षा है । ऐसी असुरक्षा में महावीर असंग खड़े हो गए । न कोई संगी है, न कोई साथी है क्योंकि वह भी हमारी सुरक्षा का उपाय है। एक स्त्री अकेली होने में डरती है । जगत् भय देने वाला । एक पति चाहिए जो उसकी सुरक्षा बन जाए । पति भी शायद असुरक्षित है क्योंकि स्त्रियाँ उसको आकर्षित करेंगी, स्त्रियां उसे खीचेंगी और तब बड़ी असुरक्षा पैदा हो सकती है । इसलिए एक स्त्री चाहिए जो उसे दूसरी स्त्रियों के खिंचाव से बचाने के लिए सुरक्षा बन जाए और जो दूसरे खिंचावों से रोक सके, और कोई खतरा, कोई उपद्रव जिन्दगी में न हो । जिन्दगी व्यवस्थित हो जाए । जत्र अहंकार इंतजाम करता है। तब परमात्मा को इंतजाम छोड़ देना पड़ता है । जब अहंकार छोड़ देता है तो परमात्मा के हाथ व्यवस्था चली जाती है । महावीर इसमें किसी तरह के सहयोग, संग, साथ, सुरक्षा लेने को तैयार नहीं हैं | लेकिन फिर बिल्कुल अकेले अकेले ही खोजेंगे, भटकेंगे, उसमें कुछ हर्ज नहीं है क्योंकि भटकन्न भी खोज में अनिवार्य हिस्सा है और भटकने में ही वह प्राण, वह चेतना जागती है जो पहुँचाएगी । तो भटकने का कोई भय नहीं है | इसलिए वे सब तरह के सहारे को इन्कार करते हैं । लेकिन ध्यान रहे कि ऐसे व्यक्ति को सब तरह के सहारे स्वयं आकर उपलब्ध होते हैं । जो भागते हैं चीजों के पीछे उन्हीं को वे उपलब्ध नहीं कर पाते और जो ठहर जाते हैं या विपरीत चल पड़ते हैं, उसके पीछे चीजें चलने लगती हैं । जीवन की गहराइयों में कहीं कोई बहुत शाश्वत नियमों की व्यवस्था भी है । उसमें एक नियम यह भी है कि जिसके पीछे आप भागेंगे, वह आपसे भागता चला जाएगा और जिसका मोह आप छोड़ेंगे और अपनी राह चल पड़ेंगे आप अचानक पाएँगे कि वह आपके पीछे चला आया । धन को जो छोड़ते हैं उनके पारा धन चला आता है। मान को जो छोड़ते हैं उनके पास मान की वर्षा होने लगती है । सुरक्षा जो छोड़ते हैं, उन्हें सुरक्षा उपलब्ध हो जाती है । सब जो छोड़ देते हैं, शायद उन्हें सब उपलब्ध हो जाता है। एक घर वे छोड़ते हैं, शायद सवं घर उनके हो जाते हैं । जो एक प्रेमी की फिक्र छोड़ देते हैं, शायद सबका प्रेम उनका हो जाता है । और महावीर इसे बहुत देख रहे हैं । इसलिए वह कहीं वोच में कोई पड़ाव नहीं डालना चाहते और इन्द्र के निमन्त्रण को अस्वीकार करने में उनकी यही भावना प्रकट हुई है । Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१९ ५६५ प्रश्न : यह कया है या फिर वास्तव में बातचीत हुई है इन्द्र और महावीर में? उत्तर : नहीं, यह बिल्कुल कथा है । प्रश्न : तो फिर इसका उल्लेख क्यों आया है कि महावीर ने इन्द्र से बातचीत की। उत्तर : हम कहानियां हो समझ पाते हैं और वह भी तब जब वे ऐतिहासिक है, ऐसा कहा जाए। अगर कोई कहानी ऐतिहासिक नहीं तो हम कहेंगे कि बस यह कहानी है । फिर हम उसे समझ ही नहीं पाएंगे। मैं एक शिविर में एक पहाड़ पर था। एक दिन की बात है। पर्वत के एक शिखिर पर सूर्यास्त देखने की इच्छा हुई। बड़ी धूप थी। सूर्य ढल रहा था। दो बहनें मेरे साथ थीं। एक बेंच पर उन्होंने बिठा दिया मुझे। फिर उन्हें चिता हुई कि बहुत धूप में वे मुझे लाई हैं। दोनों मेरे सामने आकर खड़ी हो गई और कहा कि हम आपके लिए छाया बनी जाती है । मैंने कहा ठीक, मगर एक दिन यह बात ऐतिहासिक तथ्य बन जाएगी कि मैं धूप में था और दो बहनें मेरे लिए छतरी बन गई। वे मेरे लिए छाया बन गई। उन्होंने धूप झेलो और मैं छाया में बैठा रहा। लेकिन कभी यह उपद्रव की बात हो सकती है कि दो स्त्रियाँ छतरी बन गई थीं। तो हम काव्य को नहीं समझ पाते । बड़ी जड़ता से हम वोजों को पकड़ते है। जो भी अद्भुत व्यक्ति पैदा होता है वह इतना अदा होता है कि उसके मास-पास काव्य बन जाता है, कथाएं बन जाती हैं। कथाएं सच है, ऐसा नहीं है । व्यक्ति ऐसा था कि उसके आस-पास कथाएं पैदा होंगी। उसके व्यक्तित्व से ढेर काव्य पैदा होंगे। लेकिन बहुत जल्दी काव्य नहीं रह जाएगा और जब हम उसे जोर से पकड़ लेंगे तब कविता मर जाएगी और तथ्य निकालने की चेष्टा शुरू हो जाएगी। वहीं जाकर जीवन झूठे हो जाते हैं । महावीर का, बुद्ध का, मुहम्मद का, जीसस का-सारा जीवन झूठा हो गया। झूठा होने का कुल कारण इतना है कि जो काव्य था, जो कविता थी और बड़े प्रेम में कही गई थी वह मर गई । और बहुत बार ऐसा होता है। इतनी अनूठी हैं जीवन की घटनाएं कि उन्हें शायद तथ्यों में कहा हो नहीं जा सकता । उनके साथ हमें काव्य जोड़ना ही पड़ता है। और जब हम काव्य जोड़ते हैं तभी कठिनाई हो जाती है । जैसा मैंने कहा अभी । मुहम्मद के संबंध ३८ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ex महावीर ; मेरी दृष्टि में में कहानी है कि जहाँ भी मुहम्मद जाते, एक बदली सदा उनके ऊपर छाया किए रहती । अब जिन लोगों ने भी मुहम्मद को जाना है, जो उनके पास जिए होंगे, उनको लगा होगा कि ऐसे आदमी पर सूरज भी धूप करे, यह ठीक नहीं । ऐसे आदमी पर बदली भी ख्याल रखे यह बिल्कुल ठीक है। यह बड़ा गहरा भाव है जो कवि ने, देखने वाले ने, प्रेम करने वाले ने बदली पर फैला दिया है जो उनके मन में था । कविता तो ठीक थी लेकिन फिर यह तथ्य की तरह हो गई । 1 तो मैं मानता हूँ कि सभी महापुरुषों के, सभी उन अद्वितीय व्यक्तियों के, आस-पास हजार तरह के काव्य को जन्म मिलता है । उस काव्य को बाद के लोग इतिहास समझ लेते हैं और तब उन व्यक्तियों का जीवन ही झूठा हो जाता है । और अगर हम सिर्फ तथ्य लिखें तो तथ्य रखे मालूम पड़ते हैं । उन पर काव्य चढ़ाना ही पड़ता है, नहीं तो वह बड़े रूखे-सूखे हो जाते हैं । जैसे समझें हम कि एक व्यक्ति किसी स्त्री को प्रेम करता हो तो प्रेम में वह ऐसी बातें कहे जो तथ्य नहीं है लेकिन फिर भी सत्य हैं । और जरूरी नहीं कि कोई चीज तथ्य न हो तो सत्य न हो । नहीं तो काव्य खत्म ही हो जाएगा, फिर काव्य का कोई सत्य ही नहीं रह जाएगा । और कुछ लोग ऐसे हैं, जैसे प्लेटो । वह कहता है कि कवि नितान्त झूठे हैं और दुनिया से जब तक कविता नहीं मिटती तब तक झूठ नहीं मिटेगा । ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि कविता नितान्त झूठी है । लेकिन उनके विपरीत लोग भी हैं और उनकी पकड़ ज्यादा गहरी है । वे कहते हैं अगर कविता ही झूठी है तो फिर जीवन में कोई सच ही नहीं रह जाता, फिर जीवन सब व्यर्थ है । अब एक युवक एक युवती को प्रेम करता हो तो वह कहता है तेरा चेहरा चाँद की तरह है । अब यह बात बिल्कुल अतथ्य है, इससे झूठी कोई बात हो सकती है क्या ? किसी स्त्री का चेहरा चाँद की तरह कैसे हो सकता है ? अगर आइंस्टीन से जाकर कहो कि हम ऐसा मानते हैं कि एक स्त्री का चेहरा चाँद की तरह है तो वह कहेगा कि तुम पागल हो गए हो । चांद का इतना वजन है कि एक स्त्री क्या, पृथ्वी की सारी स्त्रियों इकट्ठी होकर उस वजन को नहीं झेल पाएँगी । तो स्त्री का चेहरा चांद-सा कैसे हो सकता है । चाँद पर बड़े खाई खड्ड हैं। कहीं का बेहूदा ख्याल तुम्हारे दिमाग में आया है कि तुम एक स्त्री को चांद सा बता रहे हो । लेकिन जिसने कहा है, वह फिर भी कहेगा कि नहीं ! चेहरा तो चांद ही है । असल में वह कुछ और ही कह रहा है। वह कह रहा है कि चांद को देखकर जैसे मन में छाया छू जाती है, चांद की धार छूट जाती है, किसी का चेहरा देखकर भी वैसा हो सकता है । Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१६ ५६५ इस कविता को अगर कभी गणित और विज्ञान की कसौटी पर कसने चले गए तो तुम गल्ती में पड़ जाओगे । इसलिए मैं इन सारी बातों को रूपक कथाएँ कहता हूँ जिनके माध्यम से कुछ बात कही गई है जो कि शायद और माध्यम से कही नहीं जा सकतीं। जीसस से किसी ने पूछा कि आप कहानियां क्यों कहते हैं, सीषा क्यों नहीं कह देते । तो जोसस ने कहा कि सीधी बात समझने वाले लोग अभी पैदा कहाँ हुए हैं ? तो कहानी कहनी पड़ती है। फिर जोसस ने कहा कि कहानी कहने में एक और फायदा है। जो नहीं समझ पाते उनका नुकसान नहीं होता क्योंकि सिर्फ एक कहानी उन्होंने सुनी है। लेकिन जो समझ पाते हैं वे कहानी में से निकाल लेते हैं जो निकालना पा । और कभी-कभी सीधे सत्य नुकसान भी पहुंचा सकते हैं ! अगर न समझ में आएं तो कठिनाई में डाल सकते हैं। क्योंकि उनको कहानी कह कर आप टाल नहीं सकते। तो वे आपकी जन्दगी पर भारी भी हो सकते हैं । कहानी है तो आप टाल भी देते हैं। लेकिन जो देख सकता है वह खोज लेता है। कहानियां सत्य को कहने का एक ढंग है कि सत्य रूखा भी न रह जाए, मृत भी न हो जाए, जीवन्त हो जाए । लेकिन अगर नासमझ आदमी के हाथ में कहानियां पड़ जाएं तो वह उनको सत्य बना लेता है । और सत्य बना कर सारे व्यक्तित्व को झूठ कर देता है। तो मैं उनको रूपक कथाएँ, बोष कथाएँ हो कहता हूँ। उनमें बड़ा बोध छिपा है लेकिन वे ऐतिहासिक तथ्य नहीं है। प्रश्न : महावीर ने किसी दूसरे का सहारा लेने से इन्कार कर दिया। सही बात है । लेकिन साथ ही साथ प्रश्न उठता है कि सहारा न लेना जितना महत्वपूर्ण है सहारा न देना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होना चाहिए। लेकिन उनकी अभिव्यक्ति और उसके बाद फिर पावक, और श्रमण यह सब है-यह दूसरे को सहारा देने वाली बातें हैं। तो इस पहलू पर क्यों नहीं विचार किया गया कि मैं जब सहारा नहीं लेता हूं तो मैं सहारा देने वाला भी कौन हूँ? उत्तर : इसे भी समझना चाहिए। यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। और साधा. रणतः ऐसा ही दिखाई पड़ेगा कि अगर कोई व्यक्ति सहारा नहीं ले रहा है तो बिल्कुल ठीक बात यह है कि वह किसी को सहारा भी न दे। यह बिल्कुल तर्कयुक्त मालूम पड़ेगा लेकिन यह तर्क एकदम प्रान्त है भ्रांति कहाँ है यह समझ लेना चाहिए। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में . जब हम कहते हैं कि सहारा नहीं लेना है तो इसका कुल मतलब इतना है कि भीतर जाने में मैं किसी को साथ नहीं ले सकता हूँ। भीतर मुझे अकेला हो जाना होगा। अकेले ही जाने का एकमात्र मार्ग है वहां पहुंचने का । इसलिए मैं सब सहारे इन्कार करता हूँ। लेकिन अगर यह बात मैं किसी को कहने जाऊं कि सहारा लोगे तो भटक जाओगे तो एक अर्थ में मैं उसको सहारा दे रहा हूँ और एक अर्थ में उसे सहारे से बचा रहा हूँ। यह दोनों बातें हैं । महावीर जो सहारा दे रहे हैं वह इसी तरह का सहारा है। वह लोगों को कह रहे हैं कि मैं अकेला भीतर गया। जब तक मैंने सहारा पकड़ा तब तक मैं भीतर नहीं गया; तुम भी तो कहीं सहारा नहीं पकड़ रहे हो ? अगर सहारा पकड़ रहे हो तो भीतर नहीं जा सकोगे । बेसहारे हो जाओ। मैं जो कहता हूँ लोगों से कि किसी विधि से तुम न जा सकोगे यह केवल मैं खबर कर रहा हूँ कि विधि के चक्कर में मत पड़ना, नहीं तो भटक जाओगे । मैं भटका हूँ। यह खबर मैं तुम्हें दे देता हूँ। यह मुझे हक है कि मैं किसी को इतनी बात कह दूं कि विधि से कभी कोई नहीं पहुंचा है, इसलिए तुम विधि मत पकड़ना। और मेरी भी बात मत पकड़ना । इसको भी तुम खोज-बीन करना क्योंकि इसको भी अगर तुमने पकड़ा तो यह तुम्हारो विधि हो जाएगो । यूनान के नीचे सिसली एक छोटा सा द्वीप है। वहाँ सूफिस्ट विचारक हुए जो बड़े अद्भुत थे एक अर्थ में और एक अर्थ में बिल्कुल फिजूल थे। अद्भुत इस अर्थ में थे कि जितना तर्क उन्होंने किया किसी ने भी नहीं किया और फिजूल इस अर्थ में थे कि उन्होंने सिर्फ तर्क किया और कुछ भी नहीं किया । तो वे प्रत्येक चीज को खंडित कर सकते थे और प्रत्येक चीज का समर्थन कर सकते थे। क्योंकि उनका कहना था कि कोई भी चीज ऐसी नहीं है जो एक पहलू से खरित न की जा सके और दूसरे पहलू से समर्थित न की जा सके । इसलिए वे कहते थे कि यह सवाल ही नहीं है कि सत्य क्या है। सवाल यह है कि तुम्हारा दिल क्या है, तुम्हारो मर्जी क्या है ? तो वे कहते थे कि हम पैसे पर भी सत्य को सिद्ध करते हैं। उनको कोई नौकरी पर रख ले तो वह जो कहेगा वे उसको सत्य सिद्ध कर देंगे और कल उससे विपरीत आदमी उनको नौकरी पर रख ले तो वह उसकी बात सिद्ध कर देंगे। उनका कहना था कि कोई चीज सिद्ध ही नहीं है। जिन्दगी इतनी जटिल है कि उसमें सब पहलू मौजूद हैं और तर्क देने वाला सिर्फ उस पहलू को जोर से कार उठा लेता है जो पहलू वह सिद्ध करना चाहता है और शेष पहलुओं Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१९ ५९७ को पीछे हटा देता है और कुछ भी नहीं करता। लेकिन अगर हमें पूरी जिन्दगी देखनी हो तो हमें ख्याल रखना होगा कि यह बात सच है कि किसी का सहारा कभी मत लेना क्योंकि सहारा भटकाने वाला होगा। और यह बात तो फिर उसके साथ ही जुड़ गई कि मैं आपको सहारा दे रहा हूँ यह बात कह कर । अब आप क्या करेंगे? - सूफिस्ट एक उदाहरण देते थे कि सिसली से एक आदमी आया और उसने ऐयन्स में आकर कहा कि सिसलो में सब लोग झूठ बोलने वाले हैं। तो एक आदमी ने खड़े होकर उससे पूछा कि तुम कहाँ के रहने वाले हो। उसने कहा कि मैं सिसली का रहने वाला हूँ। तो उसने कहा : हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए । तुम कहते हो सिसली में सब झूठ बालने वाले हैं। तुम सिसली के रहने वाले हो । तुम एक झूठ बोलने वाले आदमी हो। अब हम तुम्हारी बात को क्या कहें ? अगर हम यह बात मान लें कि सिसली में कम से कम एक आदमो है जो सच बोलता है तो भी तुम्हारी बात गलत हो जाती हैं कि सिसली में सब झूठ बोलने वाले लोग हैं । अगर हम तुम्हें झूठ मानते हैं तो मुश्किल हो जाती है। तो एक आदमी ने खड़े होकर कहा कि अब हम करें क्या ? अब उस आदमी को शायद कुछ भी नहीं सूझा कि अब वह क्या करे, क्या कहे ? जिन्दगी इतनी जटिल है कि दोनों बातें सही हो सकती हैं । सिसली में सब झूठ बोलने वाले लोग भी हो सकते हैं। इस आदमी का वक्तव्य भी सही हो सकता है । क्योंकि सब लोग सब समय झूठ न बोलते हों। बस मौके पर सिसलो का यह आदमी झूठ न बोल रहा हो। जिन्दगी इतनी जटिल है कि हम जब कभी उसे एक कोने से पकड़ कर आग्रह करने लगते हैं तभी हमारा आग्रह भूठा हो जाता है। परसों कोई पूछ रहा था अनेकान्त के लिए। तो इस सन्दर्भ में यह समझ लेना जरूरी है। महावीर कहते हैं कि जीवन के एक पहलू को पकड़कर कोई दावा करे तो यह है एकान्त । एकान्तवादी वह है जिसने जीवन का एक ही कोना देखा है, एक ही कोने को देखकर पूरी जिन्दगी के निष्कर्ष निकाले हैं । इसने सब कोने अभी नहीं देखे हैं। और अगर यह सब कोने देख लेगा तो यह दावा छोड़ देगा। क्योंकि इसे ऐसे कोने मिलेंगे जो ठीक इससे विपरीत हैं और इतने ही सही हैं जितना यह सही है । और तब यह दावा नहीं करेगा । महावीर बड़े अद्भुत व्यक्ति है । वह कहते हैं कि सत्य का मापह भी गलत है क्योंकि Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५९८ महावीर : मेरी दृष्टि में वह भी एकान्त है। क्योंकि सत्य के अनेक पहलू हैं और सत्य इतनी बड़ी बात है कि ठीक एक सत्य से विपरीत सत्य भी सही हो सकता है। इसलिए महावीर कहते हैं कि मैं अनेकान्तवादी हूँ यानी सब एकान्तों को स्वीकार करता है। अगर एक आदमी आकर महावीर को पूछता है : आत्मा शाश्वत है कि अशाश्वत ? तो महावीर कहेंगे शाश्वत भी, अशाश्वत भी। वह आदमी कहेगा कि ये दोनों कैसे हो सकते हैं। तो महावीर कहेंगे : किस कोने में खड़े होकर तुम देखते हो। अगर तुम शरीर को ही आत्मा समझते हो जैसा कि नास्तिक समझता है तो अशाश्वत है। अगर तुम आत्मा को शरीर से भिन्न समझते हो जैसा आत्मवादी समझता है तो आत्मा शाश्वत है और मैं कोई एक वक्तव्य न दूँगा। क्योंकि एक वक्तव्य एकान्त होगा। अनेकान्त का अर्थ है जीवन के सब पहलुओं को एक साथ स्वीकृति । हम सब कहानी जानते हैं कि एक हाथी के पास पांच अन्धे खड़े हो गए । और जिसने हाथी का पैर छुआ उसने कहा : हाथी खम्भे की तरह है, केले के वृक्ष की तरह है। जिसने कान छुए उसने कहा कि हाथी गेहूँ साफ करने वाले सूप की तरह है और उन सबने अपने-अपने दावे किए हैं क्योंकि हाथी न तो खम्भे की तरह है, न सूप की तरह है। और हाथी में कुछ है जो सूप की तरह है और कुछ है जो खम्भे को तरह है। महावीर कहते हैं कि अगर कोई आदमी दिया जलाकर वहां पहुंच जाए और उन पांच अन्धों को विवाद करते देखे तो वह आदमी जिसने दिया जला लिया है वह क्या करे, वह किसका साथ दे । वह प्रत्येक अन्धे से कहेगा कि तुम ठीक कहते हो लेकिन पूरा ठीक नहीं कहते हो। और वह प्रत्येक अन्धे से कहेगा कि तुम जिसे विरोधो समझ रहे हो वह तुम्हारा विरोधी नहीं है । वह भी हाथो के एक अंग के बाबत बात कर रहा है। पूरा हाथी-तुम जो कहते हो उन सब का जोड़ और उससे ज्यादा भी है। अगर हर पांचों अन्धों के अनुभवों को भी हम जोड़ लें तो भी असली हाथी नहीं बनेगा। असली हाथी उन सबके अनुभव से ज्यादा भी है क्योंकि कुछ तो ऐसा है जो कि हाथी ही अनुभव कर सकता है कि वह क्या है, जिसको न अन्धा अनुभव कर सकता है, न दिया जलाने वाला अनुभव कर सकता है। यानी पुरो तरह देख लो हाथी को तो वह भी हाथी नहीं है। हाथो का एक अपना अनुभव है । और हो सकता है कि हाथी का वह अनुभव अगर हाथी कभी कह सके तो न पांच अन्धों से मेल खाए और न दिए जलाने वाले से मेल खाए । Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनोसर-प्रवचन-१९ ५६९ महावीर कहते हैं कि अनुभव के अनन्त कोण हैं और प्रत्येक कोण पर खड़ा हुआ भादमी सही है। बस भूल यहां हो जाती है कि वह अपने कोण को सर्वग्राही बनाना चाहता है। वह कहता है कि जो मैंने जाना, बही ठीक है । और हम जल्दी करते हैं इस बात की कि अगर हमने एक ही कोना जान लिया और पूरी तरह से जान लिया तो हम सोचते हैं कि बस जानना पूरा हो गया। .. यहाँ समझ लें कि एक बिजली का बल्व जला हुआ है । उस बिजली के बल्ल को बुझाना हो तो एक आदमी डंडे से बल्ब को चोट कर दे तो बल्ब बुझ जाएगा। दूसरा आदमी कैची लाए और वायर को काट दे तो भी बल्ब बुझ जाएगा। तीसरा आदमी बटन दबा दे तो भी बल्ब बुझ जाएगा। जिस आदमी ने वापर काटा वह कह सकता है कि बिजली वायर थी। जिस आदमी ने बल्ब फोड़ा वह आदमी कह सकता है कि बिजली बल्ब थी। तीसरा आदमी कह सकता है कि बटन बिजली थी और वह भी हो सकता है कि बटन भी न दबे, बल्ब भी न फूटे, तार भी कायम रहे और बिजली भी खो जाए । किसी ने यह भी देखा हो तो वह कहेगा कि इस सबमें कोई बिजली नहीं है । ये चारों आदमी अपनी-अपनी दृष्टि से बिल्कुल हो ठीक कह रहे हैं और प्रत्येक की दृष्टि ऐसी लगती है कि दूसरे की दृष्टि के विरोध में है। लेकिन महावीर कहते हैं कि विरोधी दृष्टि ही नहीं है और सब एक दूसरे के परिपूरक हैं और सब एक ही सत्य के कोने हैं । सिर्फ हमारी सीमित दृष्टि के कारण ही यह सब विरोधी दिखाई पड़ रहा है । अगर हम पूरे को देख सकें तो वह भी एक सहयोगी दृष्टि है। __ महावीर कहते हैं कि हम सब दृष्टियां जोड़ लें तो भी सत्य पूरा नहीं हो जाता क्योंकि और दृष्टियां भी हो सकती है जो हमारे ख्याल में न हों। इस. लिए महावीर अनेक की सम्भावना रखते हैं, एक का आग्रह नहीं करते । और उसी युग में उनके कम से कम प्रभाव पड़ने का कारण यही था। बुद्ध की एक दृष्टि है । उनकी दृष्टि पक्की है। वह अपनी दृष्टि पर सख्ती से खड़े हैं । उस दृष्टि में वह इंच मात्र यहाँ-वहाँ नहीं हिलते। और जब कोई एक आदमी सस्ती से एक दृष्टि पर बात करता है तो लगता है कि वह आदमी कुछ जानता है। ढीला ढाला नहीं है दिमाग उसका, हर किसी बात में ही नहीं कह देता। बहत साफ दृष्टि है उसको । अब यह बड़े मजे की बात है कि साफ दृष्टिवाला हम जिसको कहते हैं वह एकान्तवादी होता है। क्योंकि वह बिल्कुल एक बात पक्की कह देता है कि सूप जैसा है हाथी, इसमें रत्ती पर गुंजाइश नहीं रह जाती शक को । और जो इससे अन्यथा कहता है, वह पागल है, नासमझ है, अज्ञानी Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरो दृष्टि में 3, झूठ है । वह साफ कह देता है और वह बिल्कुल पक्का है। उसने हाथी को सूर्प को तरह जाना है और बात खत्म हो गई है । लेकिन एक आदमी है जो कहता है : हाथी सूप की तरह भो है, हाथी सूप की तरह नहीं भी है; हाथी खम्भे की तरह भी है, हाथी खम्भे की तरह नहीं भी है। जो सब दृष्टियों में कहता है कि ऐसा भी है, ऐसा नहीं भी है । मेरे पिता हैं । मुझे निरन्तर बचपन में उनसे बड़ी परेशानी भी रही । मेरी समझ के हो बाहर था यह । मेरे घर में सब तरह के लोग थे । नास्तिक भी थे घर में । कोई कम्युनिस्ट भी था, कोई सोशलिस्ट भी था, कोई कांग्रेसी भी था, बड़ा परिवार भी था । उसमें सब तरह के लोग थे । घर पूरी की पूरी एक तरह की जमात थी जिसमें अपनी-अपनी दृष्टि पर पक्के लोग थे, और जिसको ठीक समझते थे ठीक हो समझते थे, जिसको गलत समझते थे, गलत हो समझते थे । इसमें कोई समझोते का उपाय भी न था । और मैं बहुत हैरान था कि अगर मेरे पिता को जाकर कोई कहे कि ईश्वर नहीं है तो वह कहते कि ठीक कहते हैं । अगर कोई कहे कि ईश्वर है वह कहते कि ठीक कहते हैं । यह मैंने बहुत बार सुना उनके मुख से । सब तरह की बात में स्वीकृति देखी । मैंने उनसे पूछा कि यह बात क्या है ? आप सब बातों को स्वीकार कर लेते हैं यह तो बड़ी मुश्किल बात है । सब ठोक कैसे हो सकती है । उन्होंने कहा कि सत्य बहुत बड़ा है, इतना बड़ा कि वह सबको समा लेता है । उसमें आस्तिक भी समा जाता है, नास्तिक भी । और सत्य अगर इतना छोटा है कि उसमें सिर्फ आस्तिक समाता है तो ऐसे सत्य की कोई जरूरत नहीं । असत्य बहुत छोटा है, अत्यन्त संकीर्ण है । और सत्य संकीर्ण नहीं हो सकता है । सत्य होगा विराट् । उसमें सब समा जाएंगे । इसलिए सबके लिए 'हाँ' कहा जा सकता है । और कोई चाहे तो सब के लिए 'न' भी कह सकता है । 'न' इसलिए कह सकता है कि कोई भी सत्य पूरे को नहीं घेरेगा । और 'हाँ' इसलिए कह सकता है कि कोई भी सत्य पूरे सत्य का हिस्सा होगा । तो इसलिए जो जानता है वह बड़ी मुश्किल में पड़ जाएगा कि वह क्या कहे, 'हाँ' कहे या 'न' कहे या दोनों कहे, या चुप रह जाए । तो महावीर साफ नहीं मालूम बढ़ते । हर किसी बात में 'हाँ' कहते हैं, हर किसी बात में 'न' कहते हैं । इसका मतलब है कि या तो इन्हें पता नहीं या पता है तो साफ-साफ पता नहीं । Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #517 --------------------------------------------------------------------------  Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : अन्तर्राष्ट्रीय विचारकों में बुद्ध या कमफ्युसियस का नाम लिया जाता है, महावीर का नाम नहीं लिया जाता है। करोड़ों लोग मिल जाएँगे पृथ्वी पर जिन्होंने महावीर के नाम को कभी नहीं सुना। इतना अद्भुत व्यक्ति और इतने कम लोगों तक उसकी खबर पहुंचे तो इसका क्या कारण हो सकता है ? उत्तर : ठीक पूछा आपने। इसका कारण है । महावीर वादी नहीं है । और जो बादी नहीं है उसकी बात हमारी समझ में आनी बहुत मुश्किल है । जो वादी नहीं है वह सुबह कुछ, साँझ कुछ, दोपहर कुछ कहेगा । उसका हर वक्तव्य दूसरे वक्तव्य का विरोधी मालूम होगा । और हम चाहते हैं सुसंगति कि वह एक बार जो बात कहे फिर वही कहता रहे। टालस्टाय ने कहा है कि जब मैं जवान था तो मैं सोचता था कि वही असली विचारक है जो सुसंगत चीज कहता है । जब एक चीज कहता है तो उसके विरोध में कभी दूसरी बात नहीं कहता है । लेकिन अब जब मैं बूढ़ा हो गया है तो मैं जानता हूँ कि सुसंगति है, उसने विचार ही नहीं किया क्योंकि जिन्दगी सारे विरोध से भरी है । जो विचार करेगा उसके विचार में भी विरोध आ जाएँगे। वह ऐसा सत्य नहीं कह सकता जो एकांगी, पूर्ण और दावेदार हो । उसके प्रत्येक सत्य की घोषणा में भी झिझक होगी । लेकिन झिझक उसके अज्ञान की सूचक बन जाएगी जबकि झिझक उसके ज्ञान की सूचक है । अज्ञानी जितनी तीव्रता से दावा करता हैं उतना ज्ञानी के लिए करना मुश्किल है । असल में अज्ञानी सदा दावा करता है, दावा कर सकता है क्योंकि समझ इतनी कम है, देखा इतना कम है, जाना इतना कम है, पहचाना इतना Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०४ महावीर : मेरी दृष्टि में कम है कि उस कम में वह व्यवस्था बना सकता है। लेकिन जिसने सारा जाना है और जिन्दगी के सब रूप देखे है उसे व्यवस्था बनाना मुश्किल है। महावीर के अनेकान्त का यही अर्थ है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई दृष्टि विरोधी नहीं है। सब दृष्टियाँ सहयोगी है और सब दृष्टियां किसी बड़े सत्य में समाहित हो जाती हैं। जो विराट् सत्य को जानता है, न वह किसी के पक्ष में होगा, न वह किसी के विपक्ष में होगा। ऐसा व्यक्ति निष्पक्ष हो सकता है। यह बड़े मजे की बात है कि सिर्फ वही व्यक्ति, अनेकान्त की जिसकी दृष्टि हो, निष्पक्ष हो सकता है और इसलिए मैं कहता हूँ कि जैनी अनेकान्त को दृष्टि वाले लोग नहीं है क्योंकि वे पक्ष पर है, उनका पक्ष है । वे कहते हैं कि हम महावीर के पक्ष में हैं । और महावीर का. कोई पक्ष नहीं हो सकता क्योंकि अनेकान्त जिसकी दृष्टि है, उसका पक्ष कहाँ ? सब पक्ष उसके है, कोई पक्ष उसका नहीं। सब पक्षों से अनुस्यूत सत्य उसका है लेकिन किसी पक्ष का दावा नहीं। तो महावीर का पक्ष कैसे हो सकता है ? महावीर को दोहरा नुकसान पहुंचा। पहला नुकसान तो यह पहुँचा कि बहुजन तक उनकी बात नहीं पहुंच सकी। दूसरा नुकसान यह पहुँचा कि जिन तक उनकी बात पहुंची, वे पक्षघर हो गए। कुछ मित्र न बन पाए और जो मित्र बने वे शत्रु सिद्ध हुए। यह इतनी दुर्घटनापूर्ण बात है कि एक तो मित्र न बन पाए बहुत क्योंकि बात ऐसी थी कि इतने मित्र खोजने मुश्किल थे। दूसरे, जो मित्र बने वे शत्रु सिख हए क्योंकि वे पक्षषर हो गए। और महावीर पक्षधरता के विपरीत हैं। ___ अब यह बड़े मजे की बात है कि अनेकान्त को भी उनके अनुयायियों ने अनेकान्तवाद बना दिया। अनेकान्त का मतलब है 'बाद' का विरोध क्योंकि 'वाद' हमेशा पक्ष होगा, दृष्टि होगी, नय होगा, एक दावा होगा। वाद का मतलब ही होता है दावा। अनेकान्त को वाद के साथ जोड़ देना, फिर दावा शुरू हो गया। यानी फिर 'अनेकान्त' के पीछे चलने वाले लोगों ने एक नया दावा बनाया जबकि वह दावे का विरोधी था। इसी ख्याल में यह भी समझ लेना चाहिए कि महावीर शायद हजार दो हजार वर्ष बाद पुनः प्रभावी हो सकें; उनका विचार बहुत से लोगों के काम मा सके। क्योंकि जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ रही है एक बहुत अद्भुत घटना घट रही है। वह यह है कि 'वादी' चित्त नष्ट हो रहा है; पक्षपर बेमानी होता Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२० ६०५ जा रहा है। जितनी बुद्धिमत्ता और विवेक बढ़ रहा है उतना आदमी निष्पक्ष होता चला जा रहा है। सम्प्रदाय जाएगा, वाद जाएगा। आज नहीं कल, ज्यादा दिन टिकने वाला नहीं है। जिस दिन 'वाद' चला जाएगा उस दिन हो सकता है कि आज जो नाम बहुत महत्त्वपूर्ण मालूम पड़ते हैं, कम महत्त्वपूर्ण हो जाएं और जो नाम आज तक एकदम ही गैर महत्व का मालूम पड़ रहा है वह एकदम पुनः महत्त्व स्थापित कर ले। लेकिन जैन अगर महावीर के पीछे इसी तरह पड़े रहे तो महावोर के विचार की क्रान्ति सब लोगों तक कभी नहीं पहुँच सकती। प्रश्न : आन्तरिक जीवन में असुरक्षा का भाव कठिन है लेकिन व्यावहारिक जीवन में असुरक्षा का भाव कैसे प्रारम्भ किया जा सकता है ? यानी यह जो बाह्य जीवन है इसमें असुरक्षा का भाव कैसे प्रारम्भ कर सकते हैं ? उत्तर : असल में सवाल बाहर और भीतर का नहीं है । सवाल इस सत्य को जानने का है कि हम क्या असुरक्षित हैं या सुरक्षित हैं, बाहर या भीतर या कहीं भी । सम्बन्ध सुरक्षित हैं ? नहीं। कल जो अपना था, वह आज भो अपना होगा ? नहीं। जो आज अपना है, वह कल सुबह अपना होगा ? नहीं । सम्मान सुरक्षित है ? नहीं । कल जिसके पीछे भीड़ थी, आज वह आदमी जिन्दा है या मर गया इसका भी कोई पता नहीं चल रहा। कौन सी चीज सुरक्षित है ? कोई भी नहीं । तो असुरक्षा इस सत्य का बोध है कि जीवन असुरक्षित है । न जन्म का भरोसा, न जीवन का भरोसा, न शरीर का भरोसा, किसी भो चीज का कोई भरोसा नहीं है । इस सत्य का बोध और इस सत्य के बोध के साप जोना, भीतर और बाहर दोनों तलों पर। __ मैं यह नहीं कहता हूँ कि एक आदमी मकान न बनाए । लेकिन मैं यह कहता हूँ कि मकान बनाते वक्त भी जान ले कि असुरक्षा खत्म नहीं होती। असुरक्षा अपनी जगह खड़ी है । मकान रहे तो भी, मकान न रहे तो भी । ज्यादा से ज्यादा जो फर्क पड़ता है, वह इतना कि जिसके पास मकान नहीं है, उसे असुरक्षा प्रतीत होती है, और जिसके पास मकान है, उसे असुरक्षा प्रतीत नहीं होती लेकिन वह खड़ी अपनी जगह है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ___ गरीब भी असुरक्षित है, अमीर भी। लेकिन अमोर को सुरक्षा का भ्रम पैदा होता है । यह मैं नहीं कहता हूँ कि परिवार न बसाएँ, विवाह न करें, मित्र न बनाएं। यह मैं नहीं कहता हूँ। यह जानते हुए कि सब असुरक्षित है आपको Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ महावीर : मेरो दृष्टि में पकड़ नहीं होगी। तब आप जी जान से नहीं पकड़ेंगे क्योंकि आप जानते हैं कि पकड़ो, या न पकड़ो, असुरक्षा अपनी जगह खड़ी है। तब धन भी होगा, आप धनी नहीं हो पाएंगे। क्योंकि धनी होने का कोई कारण नहीं है। तब धन भी होगा और आप दरिद्र बने रहेंगे । क्योंकि आप जानते है कि दरिद्रता अपनी जगह खड़ी है; वह धन से नहीं मिट जाती । तब जितना ही अच्छा स्वास्थ्य होगा तो भी मौत भूल नहीं लाएगी क्योंकि आप जानेंगे कि अच्छे या बुरे स्वास्थ्य का सवाल नहीं है । मोत है। वह खड़ी है। वह बीमार के लिए भी खड़ी है, स्वस्थ के लिए भी खड़ी है। असुरक्षा का बोध, असुरक्षा की भावना आपको करनी नहीं है। हम सुरक्षा की भावना कर-करके असुरक्षा के बोष को मिटाते हैं । लेकिन असुरक्षा सत्य है। अभी मैं भावनगर में था । एक चित्रकार युवक मेरे पास आया। वह कई वर्ष अमेरीका रह कर लौटा है और बड़ी प्रतिभा का युवक है । लेकिन परेशान हो गए हैं मां-बाप । पत्नी परेशान है। वे सब मेरे पास आए । पत्नी, मां, बाप, बूढ़े-और यह एक ही लड़का है उनका । उसी पर सब लगा दिया है और अब बड़ी मुश्किल हो गई है । उन्होंने मुझे आकर कहा कि हम बड़ी मुश्किल में पड़ गए हैं । हमारा लड़का बिल्कुल ही व्यर्थ की असुरक्षाओं से परेशान है, व्यर्थ के भय से पीड़ित है। जो घटना कभी नहीं हो सकती उसके साथ वह मरा जा रहा है। यह लड़का अगर बाहर जाए, किसी को अन्धा देख ले तो एकदम घर लौट आता है, बिस्तर पर लेट जाता है, कंपने लगता है और कहता है कि कहों में अंधा न हो जाऊँ। कोई मर जाए पड़ोस में तो उसकी हमें फिक्र नहीं होती जितनी हमें इसकी फिक्र होती है कि इसको पता न चल जाए क्योंकि इसे पता चला कि यह दो चार दिन के लिए बिल्कुल ठंडा हो जाता है और कहता है कि मैं मर तो नहीं जाऊंगा। हम समझा-समझा कर परेशान 'हो गए । अमेरिका में उसका मनोविश्लेषण भी करवाया है। उससे भी कुछ हित नहीं हुआ। हिन्दुस्तान के भी कुछ डाक्टरों को दिखा चुके हैं, उससे भी कुछ फायदा नहीं हुआ। जिसके पास ले जाते हैं वह कहता है कि ये फिजूल के भय हैं। अभी तुम पूरे जवान हो, कहाँ मर जाओगे, तुम्हारी माखे बिल्कुल ठीक हैं । हम परीक्षाएं करवा देते हैं, आँखें तुम्हारी बिल्कुल ठीक है। वह कहता है : यह सब तो ठीक है लेकिन क्या यह पक्का है कि आँख ठीक हो तो अन्धा नहीं हो सकता आदमी । क्या यह बिल्कुल पक्का है कि आदमी जवान हो तो नहीं मरता । वह कहता है कि हम यह सब समझ जाते हैं लेकिन फिर भी Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२० ६०७ भय पकड़ता है। एक आदमी लंगड़ा हो गया है तो मुझे डर लगता है कि मैं लंगड़ा तो नहीं हो जाऊंगा। वह युवक मेरे पास बैठा है। वह डरा हुआ है। मैंने उसके पिता को, उसकी मां को, उसकी पत्नी को कहा कि तुम सरासर झूठी बातें इस युवक को सिखा रहे हो। एकदम बिल्कुल झूठी बातें। वह युवक एकदम ठीक कह रहा है। मैंने इतना वहा कि वह युवक जो सिर झुकाए, रीढ़ नीचे किए बैठा था सीषा होकर बैठ गया। उसने सिर ऊंचा किया। उसने मुझे गौर से देखा। उसने कहा, क्या कहते हैं आप कि मैं ठीक कह रहा हूँ। मैंने कहा : हो तुम ठीक कह रहे हो। आँख का कोई भरोसा नहीं, जिन्दगी का भी कोई भरोसा नहीं। तुम्हारे मां-बाप सरासर झूठी बातें करके तुम्हें एक भ्रम में रखना चाहते हैं जबकि तुम सच ही कह रहे हो। लेकिन मैंने कहा कि तुम इससे भागना क्यों चाहते हो ? भाग कहाँ सकते हो? क्या तुम मरने से बच सकते हो? कोई रास्ता है बचने का ? उसने कहा कि कैसे बच सकता हूँ? मैंने कहा कि मृत्यु की जो स्थिति है, इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। जिससे बच ही नहीं सकते हो वह मृत्यु है। फिर इसमें चिन्ता की क्या बात है? उस युवक ने कहा कि नहीं, ऐसी चिन्ता की बात नहीं मालूम होती। लेकिन यह सब मुझे समझाते हैं कि यह बात ही झूठ है। तब मैं द्वन्द्व में पड़ जाता हूँ। उधर मुझे लगता है कि मौत होगी और ये लोग कहते हैं कि नहीं होगी। तो मैं द्वन्द्व में पड़ जाता है। आप कहते हैं मौत होगी। ___ मैंने कहा बिल्कुल पक्का है। कल सुबह भी पक्का नहीं कि तुम जिन्दा उठोगे। इसलिए आज की रात में ही ठीक से सो जाओ। कल सुबह का कोई भरोसा नहीं। मैंने उससे पूछा कि तुम्हें आँख जाने का डर क्यों है। उसने कहा तो फिर मैं पेन्ट कैसे करूंगा? अगर मेरी आँख चली गई तो मैं पेन्ट कैसे कलंगा ? मैंने कहा कि जब तक आँख है तब तक पेन्ट करना। क्योंकि आंख का कोई भरोसा नहीं। जब तुम्हारी आँख नहीं होगी तब तुम पेन्ट नहीं कर सकोगे। अभी तुम्हारी आँख है तो भी तुम पेन्ट नहीं कर रहे हो। आँख नहीं होगी इस चिन्ता में नष्ट किए दे रहे हो। आँख खत्म हो सकती है अगर यह पक्का है तो तुम शीघ्रता से पेन्ट करो। मां-बाप लाए थे उसे मेरे पास कि मैं उसे आश्वासन हूँ। वे बहुत घबड़ा गए और बोले कि यह आप क्या कर रहे हैं, हम तो और मुश्किल में पड़ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०५ महावीर : मेरी दृष्टि में जाएंगे। मैंने कहा : मुश्किल में आप नहीं पड़ेंगे। वह युवक दूसरे दिन सुबह मेरे पास आया। उसने कहा कि चार साल बाद मैं पहली बार सो पाया। क्योंकि जब मैंने कहा कि ऐसा है और ऐसा हो सकता है तो अब क्या सवाल है । अब ठीक है। बात खत्म हो गई। अगर मौत है और उसकी स्वीकृति है तो संघर्ष कहाँ है ? मौत है और स्वीकृति नहीं, तो हम मौत नहीं है ऐसे भाव पैदा करते हैं। और इस तरह की व्यवस्था करते हैं कि पता ही न चले कि मौत है। मरघट गांव के बाहर बनाते हैं कि पता ही न चले कि मौत जिन्दगी का कोई हिस्सा है। गांव में किसी को पता ही नहीं चलता कि कोई मरता है। मरघट होना चाहिए ठीक गांव के बीच में जहां से दिन में दस बार निकलना पड़े और दस बार खबर आए कि मौत खड़ी है। उसको बनाते हैं गांव के बाहर ताकि किसी को पता ही न चले कि मौत है । अपर कोई मर जाए तो उनको भेज आते हैं लेकिन जिन्दा आदमी को बचाते हैं। कोई मर जाए, रास्ते से अर्थी निकल रही हो तो बच्चे को माँ भीतर घर में बुला लेती है, दरवाजा बन्द कर लेती है कि अर्थी निकल रही है बेटा, भीतर आ जाओ। जबकि मां को थोड़ी समझ हो तो बच्चों को बाहर ले आना चाहिए कि बेटा अर्थी निकल रही है, इसको ठीक से देखो और समझो कि कल मैं मरूंगी, परसों तुम मरोगे। यह जीवन का सत्य है। इससे भागने का, बचने का कोई उपाय नहीं है। ___ असुरक्षा के बोध का यह मतलब है कि उसके अन्दर पूरी चेतनता होनी चाहिए । वह अचेतन में दबा न रह जाए। चेतन हमें ख्याल में हो तो हमारी जिन्दगी बिल्कूल दूसरी हो । जो कुछ चल रहा है उसमें कुछ भी फर्क नहीं होगा लेकिन आप बिल्कुल बदल जाएंगे। आपकी पकड़ बदल जाएगी, आसक्ति बदल जाएगी, राग बदल जाएगा, द्वेष बदल जाएगा, आप दूसरे आदमी हो जाएंगे, क्योंकि क्या राग करना, क्या द्वेष करना? अगर जिन्दगी इतनी असुरक्षित है तो इस सब पागलपन का क्या अर्थ है ? क्यों ाि करनी ? क्यों आकांक्षा करनी ? क्यों महत्त्वाकांक्षा ? वह बोध आपकी इन सारी चीजों को मिटा देगा। मेरा सारा जोर इस बात.पर है कि अगर हम जीवन के तथ्य को देख लें तो हम सत्य की ओर अपने आप गति कर जाएंगे। हम क्या किये हैं कि तथ्य तक को मुठला दिया है और सब ओर से लीप पोतकर ऐसा कर दिया है कि Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२० ६०५ वह तथ्य ही नहीं रहा है। और मूठ से सत्य की यात्रा नहीं हो सकती । तस्य से सत्य तक. जाया जा सकता है लेकिन तथ्य को छिपा कर, बदल कर, तोड़ मरोड़ कर, हम कभी सत्य तक नहीं जा सकते। महावीर भी उसी असुरक्षा के बोष को संन्यास कहते हैं। लेकिन अब जिसको हम संन्यासी कहते हैं, वह हमारा बिल्कुल उल्टा आदमी है। संन्यासी हमारे गृहस्थ से ज्यादा सुरक्षित है । गृहस्थ का दिवाला निकल चुका है, संन्यासी का कोई दिवाला निकलने का कोई सवाल ही नहीं उठता। तो गृहस्थ के ऊपर हजारों चिन्ताएं और झंझटें हैं । संन्यासी के ऊपर वे चिन्ताएं और झंझटें नहीं हैं । संन्यासी बिल्कुल सुरक्षित है। अगर आज संन्यासी को हम देखें तो आज जो उल्टी बात दिखाई पड़ती है वह यह कि संन्यासी ज्यादा सुरक्षित है । उसे न बाजार के भाव से कोई चिन्ता है, न किसी दूसरी बात से कोई चिन्ता है। उसे न कोई दिक्कत है, न कोई कठिनाई है। खाने-पीने का सब इन्तजाम है, भक्त है, समाज हैं, मन्दिर हैं, आश्रम है । सब इन्तजाम है । संन्यासी इस समय सबसे ज्यादा सुरक्षित है जबकि संन्यासी का मतलब यह है कि जिसने सुरक्षा का मोह छोड़ दिया, जो इस बोष के प्रति जाग गया कि सभी असुरक्षित है और जब सुरक्षा के ख्याल में भी नहीं रहा, अब जो असुरक्षा में ही जीने लगा, कल की बात ही नहीं करता, भविष्य का विचार ही नहीं करता, योजना नहीं बनाता, बस क्षण-क्षण जिए चला जाता है, जो होना होगा, वह उसके लिए राजी है । मौत आए तो राजी है, जीवन हो तो राजी है, दुःख हो तो राजी है, सुख हो तो राजी है। ऐसी चित्त-दशा का नाम संन्यास है और ऐसा व्यक्ति अगृही है । अगर बहुत गहरे में खोजने जाएं तो सुरक्षा 'गृह' है, असुरक्षा 'अगृह' है ! मुरक्षा में जीने वाला, सुरक्षा में जीने की व्यवस्था करने वाला 'गृहस्थ' है। सुरक्षा में न जीने वाला, असुरक्षा की स्वीकृति में जीने वाला संन्यासी है, अगृही है। इस सम्बन्ध में एक प्रश्न किसी ने पूछा है कि महावीर ने संन्यासियों से यह क्यों कहा कि तुम गृहस्थों को विनय मत देना, उनको तुम नमस्कार मत करना, उनका तुम आदर मत करना। यह बात महावीर ने क्यों कही? इसे संन्यासी और गृहस्थ के बीच बना लेने से भूल हो जाती है। असल में अगर हम बहुत ध्यान से देखें तो जो असुरक्षित व्यक्ति है, वह ऐसे जो रहा है जैसे हवा-पानी जी रहा है। वह जो सुरक्षा के भ्रम में, सपने में और नींद में खोया है वह ऐसा ही है जैसे कोई कहे जागे हुए आदमी को कि तू सोए हुए मारमो ३९ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० महावीर : मेरी दृष्टि में को नमस्कार मत करना। क्योंकि कहीं ऐसा न हो कि आदर उसके सोए हुए होने को और बढ़ाए । लगता तो ऐसा है लेकिन महावीर के पीछे आने वाले साधुओं ने उसका दूसरा ही मतलब निकाला है। उन्होंने इसे बिल्कुल अहंकार की प्रतिष्ठा बना ली है । यानी वे कुछ ऊंचे हैं, अहंकार में प्रतिष्ठित हैं, सम्मानित हैं, पूज्य हैं, दूसरे को उनकी पूजा करनी है। लेकिन बड़े मजे की बात है कि महावीर ने यह कहीं नहीं कहा कि साधु गृहस्थ से पूजा ले, संन्यासी गृहस्थ से विनय मांगे। इतना ही कहा है कि गृहस्थ को अगृही विनय न दे। क्योंकि गृहस्थ से मतलब ही इतना है कि जो अज्ञान में घिरा हुआ खड़ा है इसके अज्ञान की तृप्ति को जगह-जगह से गिराना जरूरी है। इसके अहंकार को बढ़ाना उचित नहीं है । 0 अहंकार न बढ़ जाए गृही का इसलिए महावीर कहते हैं कि साधु उसे विनय न दे। लेकिन उन्हें पता नहीं था शायद कि उनका साधु ही इसको अहंकार का पोषण बना लेगा और साधु ही इस अहंकार में जीने लगेगा कि उसे पूजा मिलनी चाहिए और वह अविनीत हो जाएगा। महावीर की कल्पना भी नहीं है कि साधु अविनीत हो सकता है, इसलिए वह कहते हैं कि साधुता का तो मतलब ही है पूर्ण विनम्रता में जीना चौबीस घंटे । यानी कोई न भी हो पास में तो भी विनम्रता में ही जीना। वह तो साधुता का मतलब ही है । क्योंकि साधुता का मतलब है सरलता और सरलता अविनम्र कैसे होगी ? महावीर को यह कल्पना हो नहीं कि साधु भी अविनम्र हो सकता है । हाँ, गृहस्थ अविनम्र हो सकता है क्योंकि वह अहंकार में जीता है, वहीं उसका घर है । उसे विनय मत देना । लेकिन भूल हो गई । मालूम होता है कि भूल ऐसी हो गई कि उन्हें पता नहीं कि साधु भी एक प्रकार का गृहस्थ हो सकता है । इसका कोई ख्याल नहीं है उन्हें कि साधु भी बदला हुआ गृहस्थ हो सकता है । सिर्फ कपड़े बदल कर साधु हो सकता है और उसकी चित्तवृत्तियों को सारी माँग वही हो सकती है जो गृहस्थ की है। असल बात यह है कि जिसे हम गृहस्थ कह रहे हैं वह तो गृहस्थ है लेकिन जिसे हम साधु कह रहे हैं, वह साधु नहीं है। जापान के एक सम्राट ने एक बार अपने वजीरों को कहा कि तुम जाकर पता लगाओ कि अगर कहीं कोई सांधु हो तो मैं उससे मिलना चाहता हूँ । वजीरों ने कहा कि यह बहुत मुश्किल काम है । सम्राट् ने कहा मुश्किल ? मैं Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २० तो रोज सड़क से भिक्षुओं को, साधुओं को निकलते देखता हूँ। वजीरों ने कहा कि यह बहुत कठिन है, वर्षो लग सकते हैं । फिर भी हम खोज करेंगे । उन्होंने बहुत खोज-बीन की । आखिर वह खबर लाए कि एक पहाड़ पर एक बूढ़ा है । वह आदमी साधु है । सम्राट् वहाँ गया । वह बूढ़ा एक वृक्ष के पास दोनों पैर फैलाए हुए आराम से बैठा था । सम्राट् जाकर खड़ा हो गया । साधु ने न तो उठकर सम्राट् को नमस्कार किया जैसी सम्राट् की अपेक्षा थी, न उसने पैर सिकोड़े । वह पैर फैलाए ही बैठा रहा । न उसने इसकी कोई फिक्र की कि सम्राट् आया है । वह जैसा बैठा था, बैठा रहा । सम्राट् ने कहा : आप जाग तो रहे हैं न ? खड़े होकर नमस्कार करने का शिष्टाचार भी नहीं निभाते हैं आप ! पैर फैलाकर अशिष्ट ग्रामीणों की तरह बैठे हैं ? मैं तो यह सुनकर आया कि मैं एक साधु के पास जा रहा । वह बूढ़ा खूब खिलखिलाकर हंसने लगा । उसने कहा कि कौन सन्नाट् और कौन साधु ? यह सब नींद के हिस्से हैं। कौन किसको आदर दे ? कौन किससे आदर ले ? अगर साधु के सन्नाद होना छोड़कर आओ। क्योंकि सम्राट् और साधु का बड़ा मुश्किल हो जाएगा। तुम कहीं पहाड़ पर खड़े हो, हम कहीं गड्ढे में विश्राम कर रहे हैं । मेल कहाँ होगा ? मुलाकात कैसे होगी ? से मिलना है तो सम्राट् होना छोड़ कर आओ। और रही पैर सिकोड़ने, अगर शरीर पर ही नजर है तो यहाँ तक आने की कोशिश व्यर्थ हुई । अगर इसी पर ही दृष्टि अटकी है तो नाहक तुम यहाँ चढ़े, वापिस लौट जाओ । पास आना हो तो मेल कैसे होगा ? ६११ साधु फैलाने की बात । सम्राट् को सुन कर लगा कि आदमी असाधारण है । उसके पास कुछ दिन रुका, उसके जीवन को देखा, परखा, पहचाना, बहुत आनन्दित हुआ । जाते वक्त एक बहुमूल्य मखमल का कोट, जिसमें लाखों रुपयों के हीरे-जवाहरात जड़े थे, भेंट करना चाहा । उस साधु ने कहा कि तुम भेंट करो और मैं न लूँ तो तुम दुखी होगे । लेकिन तुम तो भेट करके चले जामोगे । इस जंगल के पशु-पक्षी ही यहाँ मेरे जान-पहचान के हैं । यह सब मुझ पर बहुत हँसेंगे कि बुढ़ापे में भी मुझे बचपन सूझा है । तुम सोचते हो कि करोड़ों की चीज दिए जा रहे हो, लेकिन वे आँख कहाँ हैं जो इसको करोड़ों का समझती हैं । इधर में निपट अकेला हूँ । यह पशु-पक्षी मेरे साथी हैं । ये इनको कंकड़-पत्थर समझेंगे और मुझको पागल समझेंगे । यह कोट तो ले जाओ। किसी दिन कोई बहुमूल्य चीज तुम्हें लगे तो ले आना जिसको यहाँ भी बहुमूल्य समझा जा सके। ये पक्षी, ये आकाश, ये चाँद और तारे भी जिसे बहुमूल्य समझें । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में सम्राट् वापस लोटा । उसने अपने वजीरों से कहा कि उन्हें कुछ न कुछ तो भेंट देनी ही चाहिए । लेकिन ऐसी कौन सी बहुमूल्य चीज है जिसे मैं वहाँ ले जा सकूं। तो उन वजीरों ने कहा कि वह तो सिर्फ आप ही हो सकते हैं। लेकिन आपको बदल कर जाना पड़ेगा, साधु होकर जाना पड़ेगा क्योंकि वह बहुमूल्य चीज सिर्फ साधुता ही हो सकती है जो उस पहाड़ पर, उस एकान्त जंगल में भी पहचानी जा सके । आदमी के मूल्य तो राजधानी की सड़कों पर पहचाने जा सकते हैं । परमात्मा के मूल्य एकान्त में ही पहचाने जा सकते हैं । जहाँ कोई भी पारखी नहीं है वहीं वे परखे जा सकते हैं । साघुता का अर्थ ही खो गया है आजकल । तो साधु के नाम से बैठे हैं वे आमतौर से बदले हुए गृहस्थ हैं, जिन्होंने कपड़े बदल लिए हैं मगर गृहस्थी का ही काम कर रहे हैं। ६१२ एक साधु मुझसे मिलने आए। मैंने उनसे कहा कि आप मुँहपट्टी क्यों बांधे हुए है ? यह सच में आपको लगती है कुछ बांधने जैसी ? उन्होंने कहा : बिल्कुल नहीं लगती। मैंने कहा कि इसे छोड़ दे आप | उन्होंने कहा कि अगर छोड़ दें तो कल खाने पीने का क्या होगा ? कौन सम्मान देगा ? यह मुँहपट्टी की वजह से सब व्यवस्था | यह गई कि सब व्यवस्था चली जाएगी । , अब यह मुंह- पट्टी की व्यवस्था का इन्तजाम है । हम मुँह-पट्टी बांधते हैं, हम गेरुआ वस्त्र पहनते हैं क्योंकि ये सब हमारी सुरक्षा के साधन हैं । जैसे हम कुछ इन्तजाम कर रहे हैं, ऐसा यह साधु भी इन्तजाम कर रहा है । यह भी हिम्मत करने को राजी नहीं है कि खड़ा हो जाय कि कोई दे देगा तो ठीक, नहीं देगा तो ठीक; रोटी मिलेगी तो ठीक, नहीं मिलेगी तो ठीक। इतनी हिम्मत जुटाकर खड़ा न हो जाए तो इसे गृहस्थ से भिन्न कहने का क्या कारण है ? सिर्फ एक ही कारण है कि गृहस्थ दूसरों का शोषण करता है, यह गृहस्थों का शोषण करता है । गृहस्थ शोषण करता है तो वह उसकी वजह से पापी हुआ जा रहा है । ओर यह उन पापियों का शोषण करता है तो उसकी वजह से पापी नहीं हो रहा है । यह किसी बन्धन में नहीं है । इसने बंधन में न होने का भी इन्तजाम किया हुआ है । लेकिन इन्तजाम हो बन्धन है यह इसे ख्याल में नहीं है । 1 तो यह साधु की जो कल्पना महावीर के मन में है, उस कल्पना का साघु इतना विनम्र होगा कि उसे विनीत होने की जरूरत ही नहीं है । विनोत होना पड़ता है सिर्फ अहंकारियों को । वह इतना सरल होगा कि कोम साधु है, कौन गहस्य है इसकी पहचान मुश्किल हो जाएगी। लेकिन जो उन्होंने कही है, वह Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२० सिर्फ यह है कि सूक्ति व्यक्ति को, जागृत व्यक्ति सम्मान नदे। लेकिल मजा यह है कि बिना इसकी फिक्र किए कि हम जागृत है या नहीं, सम्मान न दिया जाए तो सब गड़बड़ हो जाता है। उसमें भाषी शर्त ख्याल में रखी गई है कि जागृत व्यक्ति मूछित को सम्मान न दे। दूसरा व्यक्ति मूछित है, यह पक्का है ? लेकिन हम जागृत हैं या नहीं, यह अगर पक्का नहीं है तो शर्त कहां पूरी हो रही है ? और दूसरा मूछित है यह पता भी हमें तभी चल सकता है जब हम जागृत हों । लेकिन पता ही नहीं चलता है कि आदमी सोया हुआ है । अब दस आदमी कमरे में सोए हुए हैं तो सिर्फ जागे हुए आदमी को ही पता चल सकता है कि बाकी लोग सोए हुए हैं । सोए हुए को पता नहीं चल सकता कि कोन सोया हुआ है और जागृत व्यक्ति को कैसी विनम्रता, कैसा अविनय, यह सवाल ही नहीं है । पर ध्यान उनका यही है कि मूछित को सम्मान कम हो, अमूछित को सम्मान हो ताकि समाज अमूर्जा की ओर बढ़े और व्यक्ति अमूछित दिशा को तरफ अग्रसर हो । साधु के लिए सम्मान का बड़ा ध्यान उन्होंने किया है सिर्फ इसीलिए कि साधु वह है जो सम्मान नहीं मांगता। जो समाज ऐसे व्यक्तियों को सम्मान देता है, वह समाज धीरे-धीरे निरहंकारिता की ओर बढ़ने का कदम उठा रहा है। Page #529 --------------------------------------------------------------------------  Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ · २१ प्रश्नोत्तर - प्रवचन Page #531 --------------------------------------------------------------------------  Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : महावीर प्राकृत भाषा में क्यों बोले ? संस्कृत में क्यों नहीं ? उत्तर : यह प्रश्न सच में गहरा है । संस्कृत कभी भी लोकभाषा नहीं थी । सदा से पंडित की भाषा रही - दार्शनिक की, विचार की। प्राकृत लोकभाषा थी - साधारण जन की, अशिक्षित की, ग्रामीण की ।। शब्द भी बड़े अद्भुत हैं । प्रकृति का मतलब है स्वाभाविकः संस्कृत का मतलब है परिष्कृत । प्रकृति से ही जो परिष्कृत रूप हुए थे, वे संस्कृत बने । प्राकृत मूलभाषा है। संस्कृत उसका परिष्कार है । इसलिए संस्कृत शब्द शुरू हुआ उस भाषा के लिए जो परिष्कृत थी । संस्कृत धीरे-धीरे इतनी परिष्कृत होती चली गई कि वह अत्यन्त थोड़े से लोगों की भाषा रह गई । लेकिन पंडित, पुरोहित के यह हित में है कि जीवन में जो कुछ भी मूल्यवान् है वह सब ऐसी भाषा में हो जिसे साधारण जन न समझ सके । साधारण जन जिस भाषा को समझता हो, अगर वह उस भाषा में होगा तो पंडित पुरोहित और गुरु बहुत गहरे अर्थों में अनावश्यक हो जाएंगे । उनकी आवश्यकता शास्त्र का अर्थ करने में । साधारण जन को भाषा में हो अगर सारी बातें होंगी तो पंडित का क्या प्रयोजन ? वह किस बात का अर्थ करे ? पुराने जमाने में विवाद को हम कहते थे शास्त्रार्थ । शास्त्रार्थ का मतलब है - शास्त्र का अर्थ | दो पंडित लड़ते हैं । विवाद यह नहीं है कि सत्य क्या है । विवाद यह है कि शास्त्र का अर्थ क्या है ? पुरामा सारा विवाद सत्य के लिए नहीं है, शास्त्र के अर्थ के लिए है कि व्याख्या क्या है शास्त्र की ? इतनी दुरूह और इतनी परिष्कृत शब्दावली विकसित को गई जो साधारण जन की हैसियत के बाहर है और जिस बात को Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ महावीर : मेरी दृष्टि में साधारण जन कम से कम समझ पाए, वह अनिवार्य-रूपेण जनता का नेता और गुरु हो सकता है । इसलिए इस देश में दो परम्पराएं चल पड़ों। एक परम्परा थी जो संस्कृत में ही लिखती और सोचती थी। वह बहुत थोड़े से लोगों की थी। एक प्रतिशत लोगों का भी उसमें हाथ न था। बाकी सब दर्शक थे। ज्ञान का जो आन्दोलन चलता था वह बहुत थोड़े से अभिजातवर्गीय लोगों का था। जनता अनिवार्य रूप से अज्ञान में रहने को बाध्य थी। महावीर और बुद्ध-दोनों ने जन-भाषाओं का उपयोग किया। जिस भाषा में लोग बोलते थे उसी भाषा में वे बोले । और शायद यह भी एक कारण है कि हिन्दू ग्रन्थों में महावीर के नाम का कोई उल्लेख नहीं है । न उल्लेख होने का कारण है क्योंकि संस्कृत में न उन्होंने कोई शास्त्रार्थ किए, न उन्होंने कोई दर्शन विकसित किया । न उनके ऊपर, उनके सम्बन्ध में, कोई शास्त्र निमित हआ। आज भी हिन्दुस्तान में अंग्रेजी दो प्रतिशत लोगों की अभिजात भाषा है । हो सकता है कि मैं हिन्दी में ही बोलता चला जाऊँ तो दो प्रतिशत लोगों को यह पता ही न चले कि मैं भी कुछ बोल रहा हूँ। वे अंग्रेजी में पढ़ने और सुनने के आदी हैं । महावीर चूंकि अत्यन्त जन-भाषा में बोले, इन पंडितों का जो वर्ग था, उसने उनको बाहर ही रखा। जनसाधारण ग्राम्य ही थे, उनको उसने भीतर नहीं लिया । इसलिए किसी भी हिन्दू ग्रन्थ में महावीर का उल्लेख नहीं है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि महावीर जैसी प्रतिभा का व्यक्ति पैदा हो और देश की सबसे बड़ी परम्परा में, उसके शास्त्र में, उस समय के लिपिबद्ध ग्रन्थों में उसका कोई उल्लेख भी न हो, विरोध में भी नहीं। अगर कोई हिन्दू प्रत्यों को पढ़े तो शक होगा कि महावीर जैसा व्यक्ति कभी हुआ भी या नहीं। अकल्पनीय मालूम पड़ता है कि ऐसे व्यक्ति का नाम भी नहीं है। ____ मैं उसके बुनियादी कारणों में एक कारण यह मानता हूँ कि महावीर उस भाषा में बोल रहे है जो जनता को है । पंडितों से शायद उनका बहुत कम सम्पर्क बन पाया। हो सकता है कि हजारों पंडित अपरिचित ही रहे हों कि यह आदमी क्या बोलता है। क्योंकि पंडितों का अपना एक अभिजात भाव है। वे साधारण जन नहीं है। वे साधारण जन की भाषा में न बोलते हैं न सोचते हैं । वे असाधारण जन हैं। वे चुने हुए लोग हैं। उन चुने हुए लोगों की दुनिया का सब कुछ न्यारा है । साधारण जन से कुछ लेना-देना नहीं। साधारण जन तो भवन के बाहर हैं, मन्दिर के बाहर हैं। कभी-कभी दया करके, कृपा करके साधारण पन को भी वे कुछ बता देते हैं । लेकिन गहरी और गम्भीर चर्चा Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतर-प्रवचन-२१ ६१५ तो वहां मन्दिर के भीतर चल रही है जहाँ साधारण जन को प्रवेश निषिद्ध है। ___ महावीर और बुद्ध को बड़ी से बड़ी क्रान्तियों में एक क्रान्ति यह भी है कि उन्होंने धर्म को ठेठ बाजार में लाकर खड़ा कर दिया, ठेठ गांव के बीच । वह किसी भवन के भीतर बन्द चुने हुए लोगों की बात न रही, वह सबकी-जो सुन सकता है, जो समझ सकता है, बात हो गई। ___ इसलिए उन्होंने संस्कृत का उपयोग नहीं किया। और भी कई कारण है। असल में प्रत्येक भाषा जो किसी परम्परा से सम्बद्ध हो जाती है, उसके अपने सम्बन्ध हो जाते हैं । उसका प्रत्येक शब्द एक निहित अर्थ ले लेता है। और उसके किसी भी शब्द का प्रयोग खतरे से खाली नहीं हैं। क्योंकि जब उस शब्द का प्रयोग करते हैं तो उस शब्द के साथ जुड़ी हुई परम्परा का सारा भाव पीछे खड़ा हो जाता है। इस अर्थ में जनता की जो सीधी-सादी भाषा है, वह अद्भुत है । वह काम करने की, व्यवहार करने की, जीवन की भाषा है । उसमें बहुत शब्द ऐसे हैं जिनको नए अर्थ दिए जा सकते हैं । और महावीर को जरूरी था कि वह जैसा सोच रहे थे, वैसे अर्थ के लिए नई शब्दावली लें। कठिन या कि वह संस्कृत शब्दावली को उपयोग में ला सकें। क्योंकि संस्कृत सैकड़ों वर्षों से, हजारों वर्षों से, परम्पराबद्ध विचार की एक विशेष दिशा में काम कर रही थी। उसके प्रत्येक शब्द का अर्थ निश्चित हो गया था। तो उचित यह था कि ठीक अनपढ़ जनता की भाषा को सीधा उठा लिया जाए। उसे नए अर्थ, नए तराश, नए कोने दिए जा सकते थे। तो उन्होंने सीधी जनता की भाषा उठा ली और उस जनता की भाषा में अद्भुत चमत्कारपूर्ण व्यवस्था दी। __यह इस बात का भी प्रमाण हो सकता है कि महावीर का मन, शास्त्रीय नहीं है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जिनका मन शास्त्रीय होता है, जो सोचते हैं शास्त्र में, समझते हैं शास्त्र में, जीते हैं शास्त्र में। शास्त्र के बाहर उन्हें कोई जीवन लगता ही नहीं। अगर उनकी बातचीत सुनने जाएंगे तो पता चलेगा कि शास्त्र के बाहर कहीं कुछ है ही नहीं, और शास्त्र बड़ी संकीर्ण चीज है, जिन्दगी बड़ी विराट् चीज है। उनके प्रश्न भी उठते हैं तो जिन्दगी से नहीं आते, किताब से आते हैं। वे अगर कुछ पूछेगे भी तो वह इसलिए कि उन्होंने किताबें पढ़ी हैं। उनकी सीधी जिन्दगी से कोई प्रश्न नहीं उठते । और इस लिहाज से यह बड़ी हैरानी की बात है कि कभी ग्रामीण से ग्रामीण व्यक्ति भी Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर :मेरी दृष्टि में जीवन से सम्बन्धित प्रश्नों की बात उठा देता है जबकि पंडित से वैसी वाशा असम्भव है। __पंडित प्रश्न भी उधार ही पूछता है यानी प्रश्न भी उसका अपना नहीं होता। उत्तर तो बहुत दूर की बात है। वह प्रश्न भी उसने किताब में पढ़ा होगा । और जब वह प्रश्न पूछता है तब उसके पास उत्तर तैयार होता है । यानी वह आपसे कोई बड़े प्रश्न के उत्तर की आकांता नहीं कर रहा है। वह शायद आपका परीक्षण ही कर रहा है कि आपको भी यह उत्तर पता है या नहीं। उत्तर भी उसके पास है, प्रश्न भी उसके पास है। प्रश्न से भी पहले वह उत्तर को पकड़ कर बैठा हुमा है। और अब वह जो प्रश्न उठा रहा है, वह प्रामाणिक नहीं है, उत्तर प्राणों से नहीं आ रहे हैं। तो शास्त्रीय लोग भी है जिनकी सारी जिन्दगी किताबों के द्वन्द्व-फंदों के भीतर गुजरती है । महावीर खुलो जिन्दगी के पक्षपात है, खुले आकाश के नीचे नग्न खड़े हैं । खुली जिन्दगी, सच्ची जिन्दगी, जैसी है वह उसको छूना चाहते हैं, इसलिए शास्त्र को बिल्कुल हटा देते हैं, शास्त्रीयता को बिल्कुल हटा देते हैं, शास्त्रीय व्यवस्था को ही हटा देते हैं और हमेशा ऐसी जरूरत पड़ जाती है कि कुछ लोग वापिस जिन्दगी का हमें स्मरण दिलाएँ। नहीं तो किताबें बड़ो खतरनाक है। धीरे-धीरे हम यह भूल हो जाते हैं कि जिन्दगी कुछ और है और किताब कुछ और है । एक घोड़ा वह है जो बाहर सड़क पर चल रहा है। ___ एक घोड़ा वह है जो शब्दकोष में लिखा हुआ है। जिन्दगो भर जो किताब में उलझे रहते हैं, वे किताब के घोड़े को ही असली घोड़ा समझने लगे तो आश्चर्य नहीं है । यहाँ, इतना जरूर है कि किताब के घोड़े पर चढ़ने को भूल कोई कभी नहीं करता । लेकिन किताब के परमात्मा पर प्रार्थना करने की भूल निरन्तर हो जाती है। किताब का परमात्मा इतना हो सही मालूम पड़ने लगता है जितना कि असली परमात्मा होगा। लेकिन किताब का परमात्मा बात हो और है । शब्द 'आग' आग नहीं है। किसी मकान पर 'आग' लिख देने से मकान नहीं जल जाता । 'आग' बात ही और है। 'भाग' तो कुछ बात ऐसी है कि 'आग' शब्द भी जल जाएगा उसमें । वह भी नहीं बच सकेगा । लेकिन भूल होने का डर है कि शब्द 'आग' को कहीं हम 'आग' न समझ लें और शब्द 'परमात्मा' को कहीं हम परमात्मा न समझ लें । और जो शब्दों की दुनिया में जीते हैं, उनमें यह भूल होती ही है। उन्हें याद ही नहीं रह जाता कि कब जिन्दगी से वे खिसक गए हैं और एक शब्दों को दुनिया में भटक गए हैं। Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्नोत्तर-प्रवचन-११ पंडित का अपना जमत् है। महावीर उस शब्द जाल से भी बाहर वा जाना चाहते हैं । इसलिए पंडित का शब्द-जाल है संस्कृत का । बाम जनता की बातचीत तो सीधी-सादी है उसमें जाल नहीं है । न व्याख्या है , न परिभाषा है। जिंदगी को इंगित करने वाले शब्द हैं । तो उन्होंने वे शब्द पकड़ लिए और सीधी जनता से बात शुरू कर दो। वह जनता के आदमी हैं । इन अर्थों में वे पंडित नहीं है । और उन्होंने यह भी न चाहा कि उनके शास्त्र निर्मित हों। किसी ने पूछा भी है एक सवाल कि महावीर के बहुत पूर्व काल से लिखने को कला विकसित हो गई थी और जैन कहते हैं कि खुद प्रथम तीर्थकर ने लोगों को लिखने की कला सिखाई । प्रथम तीर्थकर को हुए कितना काल व्यतीत हो चुका था। लोग लिखना जानते थे, पढ़ना जानते थे, किताब बन सकती थी फिर महावीर के जीते जी महावीर ने जो कहा उसका शास्त्र क्यों नहीं बना ? हमें ऐसा लगता है कि लिखने की कला न हो तो शास्त्र निर्मित होने में बाधा पड़ती है। लिखने की कला हो तो शास्त्र निर्मित होना ही चाहिए । मेरी अपनी दृष्टि यह है कि महावीर चूंकि शास्त्रीय-बुद्धि नहीं है, उन्होंने नहीं चाहा होगा कि उनका शास्त्र निर्मित हो और जब तक उनका बल चला शास्त्र न बन पाये । शास्त्रीय व्यक्ति की बुद्धि जीवन से पृथक होकर शब्दों की दुनिया में प्रवेश कर जाती है और एक विचित्र काल्पनिक लोक में भटकने लगती है । तो महावीर ने सुनिश्चित रूप से, शास्त्र को रोकने की कोशिश की होगी। इसलिए मर जाने के दो-तीन चार सौ वर्षों तक, जब तक लोगों को उनका स्पष्ट स्मरण रहा होगा कि शास्त्र नहीं लिखने है तब तक शास्त्र नहीं लिखा जा सका होगा। लेकिन हमारा मोह भारी है, हम प्रत्येक चीज को स्मृति में रख लेना चाहते हैं । तो कहीं ऐसा न हो कि महावीर का कहा हुआ विरस्मरण हो जाए; कहीं ऐसा न हो कि महावीर विस्मरण हो जाएं, तो हमारे पास उपाय क्या है ? हम लिपिबद्ध कर लें, शास्त्रबद्ध कर लें, फिर नहीं खोएगा। महावीर खो जाएंगे लेकिन शास्त्र बचेगा। लेकिन कभी हमें सोचना चाहिए कि जब महावीर जैसे बीवन्त व्यक्ति भी खो जाते हैं तो शास्त्र को तुम बचा कर क्या महावीर को बचा सकोगे। महावीर जैसे व्यक्ति तो यही उचित समझेंगे कि जब क्यक्ति ही बिदा हो जाता है, और वहां चीजें परिवर्तनीय है, सभी बाती हैं और चली जाती है वहीं कुछ भी स्थिर न हो, वहाँ शब्द और शास्त्र भी स्थिर न हों, वह भी खो जाएँ। क्योंकि जीवन का नियम जब यह है-जन्म लेना और मर जाना, होना और Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२२ महावीर : मेरी दृष्टि में मिट जाना, और महावीर को भी जब वह जीवन का नियम नहीं छोड़ता है तो महापीर की वाणी पर भी यह क्यों न लागू हो? हम क्यों आशा बांधे कि हम शब्दों को बचा कर महावीर को बचा लेंगे। क्या बचेगा हमारे हाथ में ? अंधारा कभी नहीं बचता। अंगारा तो बुझ ही जाता है। राख बच जाती है। अंगारे को आप सदा नहीं रख सकते; राख को आप सदा रख सकते हैं । राख बड़ी सुविधापूर्ण है । अंगारे को थोड़ी देर रखा जा सकता है । क्योंकि वह जीवन्त है इसलिए वह बुझेगा । असल में अंगारा जिस क्षण चलना शुरू हुआ है, उसी क्षण बुझना भी शुरू हो गया है। एक पर्त जल गई है, वह राख हो गई है । दूसरी पर्त जल रही है, वह राख हो रही है। तीसरी पतं जलेगी, वह राख हो जाएगी। अंगार जो है वह थोड़ी देर में राख हो जाएगा। राख बचाई जा सकती है करोड़ों वर्षों तक क्योंकि राख मृत है। हम उसे बांध कर रख सकते हैं और खतरा यह है कि कभी हम राख को कहीं अंगार न समझ लें। कभी राख अंगार थी लेकिन राख बनी ही तब जब अंगार 'न' हो गया। अब इसमें सोचने की दो बातें हैं। - राख अंगार थी और राख अंगार नहीं थी। राख अंगार थी-इसका मतलब यह हुआ कि अंगार से ही राख आई है। अंगार के जीने से ही राख का आना हुआ है । लेकिन एक अर्थ में राख कभी भी अंगार नहीं थी क्योंकि जहाँजहाँ राख हो गई थी, वहाँ-वहाँ अंगार तिरोहित हो गया था। राख जो है वह जीवित अंगार की छूटी हुई छाया है । अंगार तो गया, राख हाथ में रह गई। राख को संजोकर रखा जा सकता है। महावीर ने चाहा होगा कि राख को मत बचाना। क्योंकि असली सवाल अंगार का है । वह तो बचेगा नहीं। उसे तो तुम संभाल नहीं सकोगे । राख संभाल कर रख लोगे । और कल यह धोखा होगा तुम्हारे मन को कि यही है संगार । और तब इतनी बड़ी भ्रान्ति पैदा होगी जितनी महावीर को सब वाणी खो जाए तो भी पैदा होने को नहीं है। हिम्मतवर आदमी रहे होंगे। अपनी स्मृति के लिए कोई व्यवस्था न करना बड़े साहस की बात है । मृत्यु के विरोष में हम सभी यह उपाय करते हैं कि किसी तरह तो मरेंगे लेकिन किसी तरह स्मृति की एक रेखा हमारे पीछ रह जाए, बची ही रहे। फिर वह शब्द जो पत्थर पर लगा हुआ नाम है, शास्त्र है, रह जाए। हमारा मन न मरने की आकांक्षा करता है। न मरने के लिए हम कुछ व्यवस्था कर जाते हैं। महावीर ने जीते जी न मरने की कोई व्यवस्था नहीं की Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतर - प्रवचन- २१ ६२३ है। क्योंकि महावीर की दृष्टि में जो मरने वाला है, वह मरेगा ही । जो नहीं मरने वाला है वह नहीं मरता है । और जो मरने वाले को बचाने की कोशिश करते हैं वे बड़ी भ्रान्ति में पड़ जाते हैं । वह अक्सर राख को अंगार समझ लेते हैं । धर्म है, वह अंगार है । तीन चार सौ वर्षों तक, शास्त्र से जो धर्म है, वह राख है। जीवन में जो तो जीते जी उन्होंने शास्त्र निर्मित नहीं होने दिया। जब तक कि लोगों को ख्याल रहा होगा उस आदमी का, उसके निषेध का, उसके इन्कार का, तब तक उन्होंने प्रलोभन को रोका होगा लेकिन जब वह स्मृति शिथिल पड़ गई होगी, धीरे-धीरे विस्मरण के गर्त में चली गई होगी, तब उनके सामने सबसे बड़ा सवाल यही रह गया होगा कि हम कैसे सुरक्षित कर लें जो भी उन्होंने कहा । यह ध्यान रखने की बात है कि आज तक जगत् में जो भी महत्वपूर्ण है, जो भी सत्य है, जो भी सुन्दर है, वह लिखा नहीं गया है, वह कहा हो गया है । कहने में एक बड़ी जीवन्न बात है, लिखने में वह मुर्दा हो जाती है । क्योंकि जब हम कहते हैं तो कोई जीवन्त सामने होता है जिससे कहते हैं । अकेले में तो कह नहीं सकते, लिखने वाले के समक्ष कोई भी मौजूद नहीं है, सिर्फ लिखने वाला मोजूद है। बोलने वाले के समक्ष बोलने वाले से भी ज्यादा सुनने वाला मौजूद है । और एक जीवन्त सम्पर्क है । इस जीवन्त सम्पर्क के कारण न तो उन्होंने शास्त्रों की भाषा उपयोग को, न शास्त्रीयता का उपयोग किया; न अपने पीछे शास्त्र की रेखा बनने दी । और लोकमानस का, सामान्य जन का बहुत पुराना संघर्ष है यह जोकि अभी पूर्ण नहीं हो पाया है । ऐसी धारणा रही है कि धर्म थोड़े से चुने हुए लोगों की बात है । ओर सत्य थोड़े से लोगों की समझ को बात है । मुझसे लोग आकर कहते हैं कि आप ऐसी बातें लोगों से मत कहिए। ये बातें तो थोड़े. लोगों के लिए है । सामान्य आदमी को मत कहिए । सामान्य आदमी इनसे भटक जाएगा । अब यह बड़े मजे की बात है कि सामान्य आदमी को सत्य भटकता है और असत्य मार्ग पर लाता है । और मेरी दृष्टि यह है कि वह बेचारा सामान्य हो इसीलिए है कि उसे सत्य की कोई खबर नहीं मिलती । प्रश्न : क्या अनधिकारी को ज्ञान नहीं मिलना चाहिए ? उत्तर : कोई भी अनधिकारी नहीं है ज्ञान की दृष्टि से । कौन निर्णायक है कि कौन अधिकारी है । निर्णय कौन करेगा ? फूल नहीं कहता कि अधिकारी Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ महावीर : मेरी दृष्टि में को सौन्दर्य दिखाई पड़ेगा, अधिकारी को सुगंध देंगे। सूरज नहीं कहता कि अधिकारी को प्रकाश मिलेगा। स्वांस नहीं कहती कि अधिकारी के हृदय में पलूंगा? खून नहीं कहता कि अधिकारी के भीतर बहूँगा। जगत् अधिकारी की मांग नहीं करता। सिर्फ ज्ञान के सम्बन्ध में पंडित कहता है कि अधिकारी पहले पक्का हो जाए । क्यों ? सारा जीवन अनधिकारी को मिला हुआ है, सिर्फ ज्ञान भर अधिकारी को मिलेगा। तो भगवान् बड़ा नासमझ है। अनधिकारियों को जीवन देता है और पंडित बड़ा समझदार है। और अधिकारी को पक्का कर ले तब ज्ञान देगा। अधिकारी की बात ही अत्यन्त व्यापारिक और तरकीब की बात है। तब वह उसको देना चाह रहा है, जिससे उसे कुछ मिलता हो। वह मिलना किसी भी तल पर हो सकता है । इज्जत, आदर, श्रद्धा, धन, मान-सम्मान, किसी भी तरकीब से उसको देगा जिससे कुछ मिलने का पक्का होगा । और उसको देगा, जो उसका अपना है। सबको नहीं देगा खुले हाथ। अपरिचित, अनजान, अजनबी ले जाए, ऐसा नहीं देगा। इसी वजह से ज्ञान को गुरु-शिष्य की परम्परा में बांधने की तरकीब है। उस तरकीब में कभी भी ज्ञान विस्तीर्ण नहीं हो सका। ___ एडीसन को अगर पता चल गया कि बिजली कैसे बनता है तो वह ज्ञान सबके लिए हो गया। और एडीशन ने नहीं पूछा कि अधिकारी कोन है जिसके घर में बिजली जले । वह सबके लिए खुली किताब हो गई, जो भी उपयोग में लाना चाहें, ले आए। विज्ञान इसीलिए जीता है धर्म के खिलाफ कि धर्म था थोड़े से लोगों के हाथ में, और विज्ञान ने सत्य दे दिया सबके हाथ में। विज्ञान की जीत का कारण यह है कि विज्ञान ने पहली दफा ज्ञान को सार्वलौकिक जना विया । और धार्मिक लोगों ने ज्ञान को बना लिया बिल्कुल ही सोमित दायरे में रहने वाला यानी सोच-विचार कर किसको देना, किसको नहीं देना। और कई बार ऐसा होता है कि जानने वाला आदमी पात्र को, अधिकारी को खोजते-खोजते ही मर जाता है और उसे अधिकारी नहीं मिल पाता है । ___मैंने सुना है कि एक फकीर हिमालय की तराई पर रहता था और नब्बे वर्ष का हो गया था। कई बार लोगों ने आकर कहा कि हमें ज्ञान दो, पर उसने कहा कि अधिकारी के सिवाय शान तो किसी को नहीं मिल सकता। अधिकारी लामो। शर्ते उसकी ऐसी थीं कि वैसा आदमी पूरी पृथ्वी पर खोजना Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ १२५ मुश्किल था। अधिकारी की शर्ते ऐसी थीं। यानी ऐसा ही है कि जैसे कोई डाक्टर किसी से कहे कि हम बीमार को दवा नहीं देते, हम तो स्वस्थ आदमी को दवा देंगे। स्वस्थ आदमी ले आओ। अब मेरी अपनी समझ है कि स्वस्थ आदमी डाक्टर के पास जाएगा ही नहीं । अधिकारी जो हो गया है, वह किसी से लेने क्यों जाएगा ? क्योंकि जिस दिन अधिकार उपलब्ध होता है उसी दिन अपनी उपलब्धि हो जाती है। जिस दिन पात्रता पूरी होती है । उसी दिन परमात्मा खुद ही उतर आता है। मनषिकारी ही खोजता है। अधिकारी खोजेगा ही क्यों ? अधिकारी का मतलब है कि जिसका अधिकार हो गया। अब तो ज्ञान उसे मिलेगा ही। वह सीधी मांग कर सकता है इस बात की। तो अधिकारी किसी के पास नहीं जाता है। तो लोग थक गये थे। फिर वह बूढ़ा हो गया, बहुत बूढ़ा । फिर एक दिन उसने एक आदमी को जो रास्ते से गुजर रहा था, कहा : सुनो ! ज्यादा नहीं, मैं तीन दिन में मर जाऊँगा। गांव में जितने लोगों को खबर हो सके, पहुंचा दो। जिसको भी ज्ञान चाहिए वह एकदम चला आए। उस आदमी ने कहा लेकिन मेरा गांव बहुत छोटा है, अधिकारी वहां कोई भी नहीं। फकीर ने कहा, अब अधिकारी, गैर-अधिकारी का सवाल नहीं रहा। क्योंकि तीन दिन बाद मैं मर जाने को हूँ। जाओ, जो भी आए, उसको ले आओ। वह आदमी गांव में गया, और डोंडी पीट दी । उस बूढ़े से तो लोगों का कभी कुछ सम्बन्ध नहीं था। फिर भी किसी को दूकान पर आज काम नहीं था तो उसने कहा कि चलो, मैं भी चल सकता है। किसी की पत्नी मर गई थी तो उसने कहा कि चलो, हम भी चलते हैं। किसी को कुछ और हो गया था। कोई दस बारह लोग मिल गए और वे पहाड़ पर चढ़कर वहां जा पहुंचे। लेकिन वह जो ले जा रहा था मन में बड़ा चिन्तित था कि इन सबको वह फौरन ही बाहर निकाल देगा। इनमें कोई भी अधिकारी नहीं है, कोई भी पात्र नहीं है। उसने डरते. डरते जाकर कहा कि दस-बारह लोग आए हैं लेकिन मुझे शक है कि कोई मापके अधिकार के नियम में उतरेगा। फकोर ने कहा : वह बात ही मत करो। एक-एक को भीतर लाओ। तो उसने पूछा : आपने अब अधिकार की बात छोड़ दो। तो फकीर ने कहा कि सच बात यह है कि जब तक मेरे पास कुछ नहीं था, तब तक मैं इस भांति अपने को बचाता था कि अनधिकारी को कैसे हूँ? मेरे पास ही नहीं था देने को कुछ । लेकिन यह मानने की हिम्मत नहीं पड़ती थी कि मेरे पास कुछ नहीं है। तो मैंने यह तरकीब निकाली थी कि पात्र कहाँ है Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में तब प्राण ऐसे आतुर हैं कि जाएगा क्योंकि अपात्र रह ६१६ जिसको मैं हूँ । लेकिन अब जब मुझे ज्ञान हो गया है, कीई अपात्र भी आ जाए तो उसको लेकर पात्र हो कैसे सकेगा ? तो अब मेरी फिक्र नहीं है कि तुम किसको लाते हो । महावीर ने इस सम्बन्ध में बड़ी भारी क्रान्ति की । ठेठ बाजार में पहुँचा दी सारी बात । इससे क्रोध भी बहुत हुआ । रहस्य की बातें तो हैं ये । पंडित का धंधा चलता था कि बातें गुप्त थीं । आप जानते हैं कि जब डाक्टर प्रिसक्रिप्शन लिखता है दवाई का तो लैटिन और ग्रीक भाषा का उपयोग करता है, सीधीसादी अंग्रेजी का भी उपयोग नहीं करता, हिन्दी की तो बात दूर है। लैटिन और ग्रीक शब्दों का उपयोग दवाइयों के नाम के लिए किया जाता है। कारण कि अगर आपको उसका ठीक-ठीक नाम, पता चल जाए तो आप उसके लिए पांच रुपये देने को राजी नहीं होंगे। आपको वह दवा बाजार में दो पैसे में मिल सकती है । रहस्य यह है कि जो उसने लिखा है, वह आपकी पकड़ के बाहर है। हो सकता है उसने लिखा हो अजवाइन । लेकिन लिखा है लैटिन में । अजवाइन का सत तो हम घर में ही निकाल लेंगे। इसके लिए लिए हम पाँच या दस रुपए क्यों देंगे बाजार में ? लेकिन अजवाइन का सत लिखा है ग्रीक में । आपको पता चलता नहीं कि क्या मतलब है ? आप दो पैसे की चीज को पांच या दस रुपए में खरीद कर लाते हैं । पूरा मेडिकल धन्धा बेईमानी का है। क्योंकि अगर सीधी-सीधी बातें लिख दी जाएँ तो सब दवाई की दूकानें खत्म होने के करीब पहुँच जाएँ । क्योंकि दवाइयां बहुत सस्ती हैं और उन्हीं चीजों से बनी है जो बाजार में आम मिल रही हैं लेकिन एक तरकीब उपयोग की जा रही है निरन्तर कि नाम अंग्रेजी में भी नहीं हैं, लेटिन और ग्रीक में हैं । अंग्रेजी पढ़ा लिखा आदमी भी नहीं समझ सकता। डाक्टर जिस ढंग से लिखते हैं, वह ढंग भी कारण है उसमें । यानी वह लैटिन और ग्रीक भी आप ठीक से नहीं समझ सकते कि वह क्या लिखा हुआ है। वह भी सिर्फ दूकानदार ही समझता है जो बेचता है दवा । वह भी शायद नहीं समझता है। बड़े अज्ञान में काम चलता है । मैंने सुना है कि एक आदमी को किसी डाक्टर की चिट्ठी आई थी। किसी डाक्टर ने चिट्ठी लिखी थी। घर पर उसने भोज बुलाया हुआ था और या तो उसने क्षमा माँगी थी लेकिन निरन्तर आदत के से हिला दिया था, जैसा वह प्रिस्क्रिप्शन लिखता था। पढ़ा। उसे समझ में नहीं आया कि वह जा रहा है डाक्टर नहीं आ सकता बस उसने उसी ढंग कि उस आदमी ने बहुत नहीं आ रहा है। Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ तो उसने सोचा कि छोड़ो, मेरी समझ में नहीं आएगा, जरा चल कर केमिस्ट को दिखा लूं। वह तो कम से कम गक्टरों की भाषा समझता है। वह बता देगा कि क्या लिखा है। उसने जाकर वह चिट्ठी एक केमिस्ट को दी। केमिस्ट ने चिट्ठी देखी : कहा रुकिए, भीतर गया। दो बोतलें निकाल कर ले आया। उसने कहा : माफ करिए ! बोतल का सवाल ही नहीं है । इसमें सिर्फ उसले क्षमा मांगी है कि मैं आज भोज में आ सकूँगा, कि नहीं। यह मेरी समझ में नहीं पा रहा है कि बात क्या है ? यह सारा का सारा खेल चलता है । तो पंडित ने एक तरकीब निकाली है बहुत पुराने दिन से। वह यह कि जनता की भाषा में सीधी-सीधी बात मत कहना कभी भी। उसको ऐसी शब्दावली में कहना कि वह रहस्य हो जाए, वह उसकी समझ से बाहर पड़ 'जाए और तब लोग तुमसे समझने आएंगे। इसलिए दुनिया में दो तरह के लोग हुए हैं। एक जो जीवन के रहस्य के लिए द्वार बनाना चाहते हैं ताकि प्रत्येक के लिए द्वार खुल जाए और एक जीवन में जो रहस्य नहीं भी है, उसको जबरदस्ती चारों तरफ से गोल-गोल करके उसे ऐसी स्थिति में खड़ा कर देना चाहते हैं कि वह किसी के लिए सीधा-सरल तथ्य न रह जाए। उमर खय्याम ने लिखा है कि जब मैं जवान था तो साधुओं के पास गया, ज्ञानियों के पास गया, परितों के पास गया। और उसी दरवाजे से बाहर आया जिस दरवाजे से भीतर गया था, क्योंकि मेरी कुछ पकड़ में ही नहीं पड़ा कि वहाँ क्या हो रहा है । वही का वही वापस लौटा जो मैं था क्योंकि मेरी कुछ पकड़ में नहीं पड़ा कि वहाँ क्या हो रहा है ? कोन शब्द वहाँ चल रहा है ? किन शब्दों को वे बातें कर रहे हैं ? किन लोगों की वे चर्चा कर रहे हैं ? जीवन से उनका कोई सम्पर्क नहीं है। महावीर की क्रान्तियों में एक क्रान्ति यह भी है कि उन्होंने धर्म के गृह रूप को जो छिपा हुआ था, उघड़ा हुआ कर दिया। इसलिए पंडित उन पर नाराज रहे हों तो कोई आश्चर्य नहीं। क्योंकि उन्होंने वह काम किया जैसे कोई डाक्टर सीधी हिन्दी में लिखने लगे कि अजवाइन का सत ले आओ तो दूसरे सारे डाक्टर उस पर नाराज हो जाएंगे कि तुम क्या कर रहें हो, तुम सब धंधा चौपट करवा दोगे। तो महावीर पर पंडितों की नाराजगी बड़ी अर्थपूर्ण है। इसलिए उन्होंने सीधी-सीधी जनभाषा का उपयोग किया है, शास्त्रों की भाषा को एकदम छोड़ दिया है जैसे कि शास्त्र हो ही नहीं। महावीर इस तरह बोल रहें है कि जैसे शास्त्र रहे ही नहीं। उनका यह उल्लेख भी नहीं करते। ऐसा Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में नहीं है कि उन शास्त्रों में कुछ भी न था। उन शास्त्रों में बहुत कुछ था। और महावीर जो कह रहे हैं वह यह है कि कोई खोज करेगा तो उसे शास्त्रों में भी मिल जाएगा, लेकिन महावीर उन शास्त्रों को बीच में लाना ही नहीं चाहते क्योंकि उन शास्त्रों को लाते ही शास्त्रीयता आती हैं, पांडित्य आता है, सारी दूकान आती है, सारी व्यवस्था आती है। वह ऐसे बोल रहे हैं जैसे कि कोई पहला आदमी जमीन पर खड़ा होकर बोल रहा हो जिसको किसी शास्त्र का कोई पता भी न हो। प्रश्न : गोशालक की कथा का क्या महत्त्व है ? महावीर ने प्रथम दो मुनियों को न बचा कर तीसरे को ही क्यों बचाया ? उत्तर : असल में कहानियों को समझना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि प्रताक हैं । और उन प्रतीकों में बड़ी बातें हैं जो खोली जाएं तो ख्याल में आ सकती है, न खोली जाएं तो बड़ी कठिनाइयां पैदा करती है। महावीर पर गोशालक ने तेजोलेश्या का प्रयोग किया है। वह एक ऐसी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया का, एक योग का प्रयोग कर रहा है कि जिसमें कोई भी जल जाए और भस्म हो जाए । महावीर को बचाने के लिए एक साधु उठा, वह नष्ट हो गया । दूसरा उठा वह मर गया। महावीर देखते रहे। तीसरा उठा उसको महावीर ने रोक लिया। क्या दो के समय महावीर तटस्थ रहे और तीसरे के समय तटस्थता छोड़ दो ? यानी दो के समय उनमें कोई करुणा न आई। तीसरे के समय उन पर करुणा आ गई। अगर रोकना था तो पहली ही बार रोक देना था ताकि दो व्यक्ति न मर पाते। या नहीं रोकना था, तटस्थ ही रहना था तो तटस्थ हो रहना था । कोई मरता या जीता, इसकी चिन्ता न थी। इसमें बहुत बातें हो सकती हैं। पहली बात यह कि व्यक्ति किसलिए उठा, यह बड़ा महत्त्वपूर्ण है । जो व्यक्ति उठा पहले, जरूरी नहीं कि महावीर को बचाने उठा हो। सिर्फ दिखाने उठा हो कि मैं बचा सकता है, सिर्फ अहंकार से उठा हो और अहंकार को कोई भी नहीं बचा सकता, महावोर भी नहीं बचा सकते हैं । अहंकार तो जलेगा और नष्ट होगा। कहानी तो सीधी-सीधी होती है लेकिन पीछे हमें उतरने की जरूरत होती है । पहला आदमी किसलिए उठा ? क्या वह यह सोचता है कि क्या करेगा गोशालक मेरा ? मैं उससे ज्यादा प्रबल है; अभी उसे पछाड़ कर रख दूंगा। तो महावीर चुपचाप बैठे रहे होंगे। क्योंकि असल में वहां एक महावीर का साघु और दूसरा गोशालक-ऐसा नहीं रहा होगा। वहाँ दो गोशालक थे। दो अहंकार ये जो लड़ने को बड़े हो गए। Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ ६२९ महावीर चुप रह गए । चुप रहना ही पड़ा होगा और कोई उपाय न रहा होगा। तीसरे व्यक्ति के सम्बन्ध में हो सकता है कि वह किसी अहंकार से न उठा हो। विनम्र सीधा-साधा आदमी रहा हो, सिर्फ आहूति देने उठा हो। एक व्यक्ति और मरे, इतनी देर भी महावीर जी जाएं, इसलिए उठा हो। महावीर ने रोका उसे। ___असल में कहानी सब नहीं कह पाती और हजारों साल से चलने के बाद रूखे तथ्य हाथ में रह जाते है जिनके पीछे की सब व्यवस्था साथ में नहीं रह जाती । क्या कारण होगा ? लेकिन अगर महावीर को हम समझ सकते हैं तो हमें बहुत कठिनाई नहीं मालूम पड़ती। जिन दो व्यक्तियों को बचाने के लिए वे कुछ नहीं कहें हैं, वे दो व्यक्ति ऐसे होंगे जिनको बचाने के लिए कुछ किया ही नहीं जा सकता होगा । वे दो व्यक्ति ऐसे होंगे जो महावीर के लिये खड़े ही नहीं हो रहे हैं, अपने लिए ही खड़े हो रहे हैं जो गोशालक को भी कुछ दिखा देना चाहते हैं कि हम भी कुछ हैं । तो महावीर के पास सिवाय दर्शक होने के और कोई उपाय नहीं रहा होगा। तीसरे व्यक्ति को उन्होंने रोका, तो इसका मतलब यह हो सकता है कि तीसरा व्यक्ति अहंकार से उठा हो, सिर्फ इसलिए कि जितनी देर तक मैं मरूंगा उतनी देर तक महावीर बचते हैं। वह इतनी विनम्रता से उठा हो कि महावीर को कुछ कहना पड़ा, रोकना पड़ा। ___ महावीर के चित्त में क्या हुआ यह समझना हमें कठिन हो जाता है। क्योकि हम ऊपर से तथ्य देखते है -कि दो को मर जाने दिया, एक को बचा लिया। हमें ख्याल में नहीं आता कि भीतर क्या कारण हो सकता है। भीतर से महावीर देखते खड़े होंगे तो सिवाय इसके कुछ भी नहीं दिखाई पड़ा होगा। उन दोनों के प्रति भी करुणा रही हो क्योंकि महावीर के लिए करुणा कोई शर्तबंद चीज नहीं है कि इस व्यक्ति के लिए रहेगी और उनके लिए नहीं रहेगी। लेकिन वे दोनों करुणा के पात्र रहे होंगे। महावीर यह भी जानते होंगे कि उन्हें रोकने से कोई मतलब नहीं है। क्योंकि कुछ लोग हैं जो रोकने से और बढ़ते हैं । न रोके जाएं तो शायद रुक जाएं । अंहकारी व्यक्ति ऐसा ही होता है। उसे रोको तो और तेज होता है। तो महावीर चुप रहे होंगे। एक घटना से में तुम्हें समझाऊँ। मैं जब पढ़ता था तो एक युवक मेरे साथ पढ़ता था। उसका एक बंगाली लड़की से प्रेम था। इतना दीवाना था, इतना पागल था कि वह दो साल Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१० महावीर : मेरी दृष्टि में यूनिवर्सिटी छोड़ कर कलकत्ता जाकर रहा, ताकि ठीक बंगाली हावभाव, बंगाली भाषा, बंगाली कपड़ा, बंगाली उठना-बैठना, सब बंगाली हो जाए । वह दो साल बाद बंगाली होकर लोटा और इतना बंगाली हो गया कि हिन्दी भी बोलता तो ऐसे बोलता जैसे बंगाली हिन्दी बोलता है। लेकिन ठीक वक्त पर उस लड़की ने इन्कार कर दिया। उस लड़की को मैंने पूछा कि क्या बात हो गई है ? इन्कारी का क्या कारण है ? तो उस लड़की ने कहा कि वह मेरे पीछे इतना पागल है और इतनी गुलाम वृत्ति से भरा हुआ है कि ऐसे गुलाम को पति बनाना मुझे पसन्द नहीं है। व्यक्ति ऐसा तो चाहिए जिसमें कुछ तो अपना हो, कुछ व्यक्तित्व तो हो? अब बड़ी मजेदार घटना घटी। वह बेचारा इसलिए झुका चला आ रहा था और सब स्वीकार करता चला जाता था कि लड़की उसे पसन्द करे। वह लड़को कहे रात तो रात, दिन तो दिन-ऐसा सब भाव ले लिया था लेकिन यही कारण उस लड़की का विवाह से इन्कार करने का था। उसने इन्कार कर दिया। एक रात मुझे खबर आई, नौ बजे होंगे कि उसने कमरे में अपने को बंद कर लिया है, ताला अन्दर से लगा लिया है और जो भी बाहर से कहे 'दरवाजा खोलो तो वह कहता है कि मेरी लाश निकलेगी, अब मुझसे बात मत करो। अब जिन्दा मेरे निकलने की कोई जरूरत नहीं है। यह बात फैल गई। भीड़ इकट्ठी हो गई। सब प्रियजन इकट्ठे हो गए। बूढ़ा बाप रोया। जितना रोया उतनी उसकी जिद्द बढ़ती गई । मुझे खबर आई, मैं गया । मैंने देखा वहां बाहर का सब इन्तजाम । मैंने कहा : यह सब मिल कर उसको मार डालेंगे क्योंकि उसका जोश बढ़ता चला जा रहा था। जितना वह समझाते थे कि अच्छी लड़की ला देंगे वह कहता : अच्छी लड़की ! मेरे लिए कोई अच्छी लड़की ही नहीं है दूसरी । अच्छे-बुरे का सवाल ही नहीं है। जितना वह समझाते कि ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे दरवाजा खोलो, वह बढ़ता चला जा रहा है, वह रुकता नहीं। मैंने उनसे कहा : अगर आप उसे बचाना चाहते हैं तो कृपा करके दरवाजे से हट जाएं, मुझे बात करने दें। मैं दरवाजे पर गया। मैंने उससे कहा : अरुण ! अगर मरना है तो इतना शोर-गुल मचाने की जरूरत नहीं। मरने वाले इतना शोर-गुल नहीं मचाते । यह तो जीने वालों के ढंग हैं। मरने वाले चुपचाप मर जाते हैं। तुम्हें तीन घंटे हो गए। क्या तीन चार साल लगेंगे मरने में ? तुम जल्दी मरो ताकि हम सब तुम्हें मरघट पर पहुंचा कर निश्चिन्त हो जाएं। उसने चुपचाप सुना, वह Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ ६३१ कुछ नहीं बोला। अभी वह बड़ा चिल्ला-चिल्ला कर बोल रहा था। मैंने कहा : बोलते क्यों नहीं ? उसने कहा : हा ! मैं मर जाऊंगा। मैंने कहा : इसमें हमें कोई एतराज ही नहीं है। कौन किसको रोक सकता है ? आज रोकेंगे, कल मर जाओगे । इसलिये रोकें भी क्यों? दरवाजा खोलो। मरने वाले क्या ऐसा दरवाजा बन्द करके भयभीत दिखाई पड़ते हैं ? एक ही तो भय है जिन्दगी में मर न जाएं, मौर तो कोई भय ही नहीं। और तुमने जब वह भय भी त्याग दिया तो अब तुम किससे डर कर अन्दर बन्द हो। दरवाजा खोलो। उसने दरवाजा खोला और मुझे नीचे से ऊपर तक ऐसा देखा जैसे मैं उनका दुश्मन है। मैंने कहा : तुम मेरे साथ गाड़ी में बैठ जाओ, चलो। उसने कहा : कहाँ जाना है ? मैंने कहा : भेड़ाघाट जबलपुर में अच्छी जगह है मरने के लिए। समझदार आदमी कम से कम मरने के लिए अच्छी जगह तो चुन ले। नासमझ तो जिन्दा रहने के लिए भी अच्छी जगह नहीं चुनता। तो तू भेड़ाघाट मर। और मैं तेरा मित्र रहा इतने दिन तक तो मेरा कर्तव्य है कि तुझे आखिरी विदा करने जाऊँ। यानी मित्र का यही मतलब है कि जो हर वक्त काम आए । इस वक्त कोई तेरे काम नहीं पड़ेगा, इस वक्त मैं ही तेरे काम पड़ सकता है। समझने लगा कि यह आदमी पागल हो गया है। लेकिन अब मुझसे कहने की कोई हिम्मत न रही। क्योंकि अब धमकी देने का कोई सवाल न था कि मर जाऊँगा । यह धमकी तो बेमानी थी। वह चुपचाप चला आया। रात हम सोए। दोनों तरफ बिस्तर लगा कर, एक बीच में अलार्म घड़ो रखकर मैंगे कहा कि ठंडी रात है और हो सकता है कि मेरी नींद न खुले । और अलार्म बजे तो तुम कृपा करके मुझे उठा देना क्योंकि तीन बजे हमें निकल चलना है। एक घंटे का रास्ता है। तुम वहाँ कूद जाना। मैं अन्तिम नमस्कार करके लोट आऊँगा और मुझे फिर वापस भी आना है । और भोर होने के पहले आना चाहिये नहीं तो तुम मरोगे, फैसूगा मैं। तो तीन बजे ही ठीक होगा। सब बातें वह मेरी ऐसे सुनता रहा चौंक कर लेकिन वह मुझसे कुछ कहता नहीं था। रात हम सो गए। अलार्म बजा। उसने जल्दी से बन्द किया। जब मैं हाथ ले गया तो वह अलार्म बन्द कर रहा था। उसका हाथ मैंने अपने हाथ में ले लिया। मैंने कहा : ठीक है अब मेरी भी नींद खुल गई है। उसने कहा लेकिन अभी मुझे बहुत ठंड मालूम हो रही है। मैंने कहा । यह तो जोने वालों को भाषा है। ठंड मालूम होना, गरमो मालूम होना, यह कोई मरने वालों के स्याल नहीं है। ठंड का क्या मतलब है ? यह बाखिरी ठंड है। घंटे Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में भर का सवाल है । सब खत्म । ओर मुझे वापस भी लोटना है। मैंने उससे कहा कि ठंड तो मुझे लगेगी क्योंकि तू जब डूब जाएगा तब मुझे वापस भी फिर आना है। ६३२ वह एकदम गुस्से में बैठ गया और बोला कि आप मेरे दोस्त हो कि दुश्मन ? आप मेरी जान लेना चाहते हो; मैंने आपका क्या बिगाड़ा है ? मैंने कहा : मैं तुम्हारी जान नहीं लेना चाहता हूँ और न तुमने मेरा कभी कुछ बिगाड़ा है । लेकिन अगर तुम जीना चाहते हो तो मैं जीने में साथी हो जाऊंगा । अगर तुम मरना चाहते हो तो मैं उसमें साथी हो जाऊँगा । मैं तुम्हारा साथी हूँ । तुम्हारी क्या मर्जी है । उसने कहा मैं जीना चाहता है । मैंने कहा, तो इतना शोरगुल क्यों मचा रहे थे ? · अब इस आदमी को क्या हुआ ? देखिए । यह आदमी अब भी जी रहा है ! और जब भी मुझे मिलता है तो कहता है : आपने मुझे बचाया है, नहीं तो मैं मर जाता । वे सारे बाहर के लोग मुझे मारने की तैयारी करवा रहे थे । वे जितना मुझे बचाने की बातें करते उतना मेरा जोश बढ़ता चला जाता। आदमी के मन को समझना बड़ा मुश्किल है, एकदम मुश्किल है । और यह भी समझना मुश्किल है कि किस भाँति आदमी का चित्त काम करता है । क्यों महावीर किसी को रोकते हैं, किसी को नहीं रोकते हैं, इसे एकदम ऊपर से नहीं पकड़ लेना है । इसे बहुत भीतर से देखना चाहिए कि महावीर के लिएं क्या कारण हो सकता है । करुणा उनकी समान है । लेकिन व्यक्ति भिन्नभिन्न है। रोकना किसके लिए सार्थक होगा, किसके लिए नहीं सार्थक होगा, यह भी वह जानते हैं । कौन रोकने से रुकेगा, कौन रोकने से बढ़ेगा यह भी वह जानते हैं। कौन किस कारण से बढ़ रहा है, यह भी वह जानते हैं । इसलिए हो सकता है कि दो व्यक्तियों को नहीं, दो सौ व्यक्तियों को भी न रोकते । एक एक व्यक्ति भिन्न-भिन्न है । उनकी सारी व्यवस्था भिन्न-भिन्न है । और उस व्यक्ति को अगर हम गौर से देखेंगे तो उस व्यक्ति के साथ हमें भिन्न-भिन्न व्यवहार करना पड़ेगा । इसका यह मतलब नहीं है कि मैं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न हो जाता हूँ। मैं न भी भिन्न-भिन्न होऊं तब भी प्रत्येक व्यक्ति भिन्न है, और उसे देख कर मुझे कुछ करना जरूरी है । फिर और भी बहुत सी बातें महावीर देखते हैं, जो कि साधारणतः नहीं देखी जा सकतीं। उनकी मैं इसलिए बात नहीं करता है कि वह एकदम अदृश्य Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालोतरप्रवचन-२१ को बातें हैं। महावीर यह देख सकते हैं कि इस व्यक्ति की उम्र समाप्त हो गई है। यह सिर्फ निमित्त है इसके मरने का, इसलिए चुप भी रह सकते हैं । और कोई कारण भी न हो, सिर्फ इतना ही दिखता हो कि इस आदमी की उम्र तो समाप्त हो गई है और यह सिर्फ निमित्त है इसके मरने का और कोई निमित्त सुन्दर है तो इसे मर जाने दें। और एक व्यक्ति की उम्र समाप्त नहीं हुई है, और व्यर्थ उलझाव में पड़ा है, व्यर्थ उपद्रप में पड़ा है, सोच सकते हैं रोक लें तो वह उसे रोक लेते हैं। किन्हीं क्षणों में मरना भी हितकर है लेकिन उतने क्षण को अनुभूति और उतनी गहराई हमें ख्याल में नहीं आ सकती है। अगर मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो कोई ऐसा भी क्षण हो सकता है जब मैं चाहूँ कि वह मर हो जाए। हालांकि यह कैसी अजीब बात है क्योंकि जिसको हम प्रेम करते है, उसे हम कभी भी मरने नहीं देना चाहते। चाहे जीना उसके मरने से ज्यादा दुःखदाई हो जाए तो भी हम उसे जिन्दा रखना चाहते हैं किसी भी हालत में । एक बूढ़ा बाप है, नब्बे साल का हो गया है, बीमार है, दुःखी है, आंख नहीं है, उठ नहीं सकता, बैठ नहीं सकता। फिर भी बेटे, बहू, बेटियां, प्रेम में उसको जिन्दा रखे चले जा रहे हैं, चेष्टा कर रहे हैं उसको जिन्दा रखने की। अब पता नहीं यह प्रेम है या बहुत गहरे में सताने की इच्छा है। कहना बहुत मुश्किल है। अगर सब में यह प्रेम है तो बड़ा अजीब प्रेम मालूम पड़ता है कि मेरे सुख के लिए आप जिन्दा रहें। मैं आपको दुःख में भी जिन्दा रखना चाहूँ तो यह प्रेम नहीं है । मैं दुःखी होना पसंद करूंगा। आप मर जाएंगे, मुझे दुःख होगा, पीड़ा होगी। एक खाली घाव रह जाएगा। वह कभी नहीं भरेगा । वह मैं पसन्द करूंगा । लेकिन यह पीड़ा और दुःख आपका नहीं सहूँगा। मगर ऐसे प्रेम का शायद पाना बहुत कठिन होगा कि कोई बेटा अपने बाप को जहर दे दे और कहे कि अब नहीं जीना है आपको क्योंकि मेरा प्रेम नहीं कहता है कि आपको जीना है । मुझे दुःख होगा आपके मरने का । वह दुःख मैं सहूँगा । लेकिन आप-मुझे दुःख न हो इसलिए जिएं यह तो ठीक नहीं । ऐसे क्षण हो सकते हैं मगर ऐसे बेटे का प्रेम समझ में आना बहुत मुश्किल है। लेकिन कभी वह वक्त आएगा दुनिया में जब बेटे इतना प्रेम भी करेंगे, पलियां इतना प्रेम भी करेंगी, पति इतना प्रेम भी करेंगे। प्रेम का मतलब ही यह है कि हम दूसरे को दुःख में न डाल सकें, उसे हम सुख में ले जा सकें। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी कृषि तो इसलिए किसी भी घटना में बहुत गहरे उतरने की जरूरत है। अब तक हमें ख्याल में आ सकता है कि क्या प्रयोजन रहा होगा । और न भी ख्याल में आए तो भी जल्दी निष्कर्ष बहुत मंहगी चीज है । और महावीर जैसे व्यक्ति के प्रति तो जल्दी निष्कर्ष बहुत ही मंहगा है क्योंकि उन्हें समझना बहुत कठिन है । जिस जगह हम खड़े होते हैं, वहां से जो हमें दिखाई पड़ता है, हम वहीं तक सोच सकते हैं । जिन्हें दूर तक दिखाई पड़ता होगा, वे क्या सोचते हैं, कैसे सोचते हैं, वे सोचते भी है कि नहीं सोचते हैं यह सब हमारे लिए विचार करना मुश्किल है। वे किसी भांति जीते हैं, क्यों उस भांति जीते हैं, अन्यथा क्यों नहीं जीते यह भी हमें सोचना मुश्किल हो जाता है। हम ज्यादा से ज्यादा अपना ही रूप प्रोजेक्ट कर सकते हैं। हम यहीं सोच सकते हैं कि इस हालत में हम होते तो क्या करते, दो आदमियों को न मरने देते, या फिर तोनों को हो मरने देते । ये दो ही उपाय थे हमारे सामने । पर हमें उस चेतनास्थिति का कोई अनुभव नहीं है, जो बहुत दूर तक देखती है, और जिसका हमें कोई ख्याल नहीं है। ___महावीर और गोशालक एक गांव से गुजर रहे थे। गोशालक ने कहा : जो होने वाला है वही होता है । महावीर कहते है : ऐसा ही है, जो होने वाला है वही होता है । पास में ही जिस खेत से वे गुजर रहे हैं, दो पंखुड़ियों वाला एक पौधा लगा हुआ है, जिसमें अभी कलियां हैं जो कि कल फूल बनेंगी। गोशालक उस पौधे को उखाड़ कर फेंक देता है और कहता है कि यह पौधा फूल होने वाला था, और अब नहीं होगा। वे दोनों गांव से भिक्षा लेकर वापस लौटते हैं । इस बीच पानी गिर गया है, पानी गिरने से कीचड़ हो गया है और उस पौधे ने कीचड़ में फिर जड़ें पकड़ ली हैं, वह फिर खड़ा हो गया है । जब वह उस जगह से वापस लौटते हैं, तो महावीर उससे कहते हैं कि देख ! वह 'कली फूल बनने लगी। वह पौषा लग गया है जमीन से और कली फूल बन जिसे दूर तक दिखाई पड़ता है उसे बहुत सी बात दिखाई पड़ती है जो हमारे ख्याल में भी नहीं आती और जिन्दगी बहुत लम्बा विस्तार है। जैसे कोई एक उपन्यास के पन्ने को फाड़ डाले और उस पन्ने को पढ़े तो क्या तुम सोचते हो कि उस पन्ने से पूरे उपन्यास के बाबत कोई नतीजा निकल सकता है । हो सकता है कि उपन्यास का बिल्कुल उल्टे नतीजों पर अन्त हो। जो उस पन्ने पर लिखा हो उससे भिन्न चला जाए क्योंकि यह पन्ना सिर्फ उस लम्बी पुस्तक का Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर- प्रवचन- २१ छोटा सा हिस्सा है । जिन्दगी में हम भी क्या करते हैं। एक टुकड़े को उठा लेते हैं और उस टुकड़े को फैला कर पूरी जिन्दगी को जांचने चल पड़ते हैं । मुश्किल है; ऐसा नहीं जांचा जा सकता। पूरी जिन्दगी को देखना होगा और पूरी जिन्दगी को देखेंगे तो हम एक टुकड़े को भी समझ सकते हैं । नहीं तो यह टुकड़ा भी हमारी समझ में नहीं आ सकता । ६३५ प्रश्न : ध्यान के लिए शुद्धीकरण की आवश्यकता है और जब भी किसी का मन केन्द्र पर है, तो उसकी बाह्य क्रिया, उठना-बैठना अनायास स्वयं हो जाती है। जब महावीर ध्यान के लिए बैठते हैं तो कुकुरासन और गोदोहासन यह विचित्र बात क्यों ? उत्तर : यह भी समझने जैसी बात है। महावीर को ज्ञान भी हुआ गोदोहासन में । जैसे कोई गाय को दोहते वक्त बैठता है, ऐसे बैठे-बैठे महावीर को परम ज्ञान की उपलब्धि हुई । यह बड़ा अजीब आसन है। न तो वह गाय दोह रहे थे, गाय भी दोह रहे होते तो एक बात थी । वह गाय भी नहीं दोह रहे थे । बैठे थे ऐसे । क्यों बैठे थे ? ऐसे कोई साधारणतः बैठता नहीं । यह बड़ी विचित्र स्थिति मालूम पड़ती है । इसे समझना चाहिए । इसमें तीन बातें समझनी जरूरी हैं । पहली बात तो यह कि गोदोहासन हमें असहज लगता | लेकिन सहज और असहज हमारी आदतों की बातें हैं । पश्चिमी व्यक्ति को जमीन पर बैठना असहज है । पालथी मारकर बैठना तो ऐसी असहज बात है कि पश्चिमी व्यक्ति को सोखने में छः महीने भी लग सकते हैं । और छः महीने मालिश चले उसकी और वह बेचारा हाथ पैर भी सिकोड़े तभी वह ठीक से पालथी मार सकता है और फिर भी वह सहज नहीं होने वाला । क्योंकि पश्चिम में नीचे बैठता ही नहीं कोई । सब कुर्सी पर बैठते हैं । इसलिए नीचे बैठने की जो हमारी अत्यन्त' सहज बात मालूम पड़ती है वह जो लोग नहीं बैठते उनके लिए अत्यन्त असहज है । जो अभ्यास में हैं, वही सहज मालुम पड़ता है। जिसका अभ्यास नहीं है, वह असहज मालूम होने लगता है । हो सकता है महावीर निरन्तर पहाड़ में, जंगल में, वर्षा में, धूप में, ताप में रहे न कोई घर, न कोई द्वार, न बैठने के लिए कोई आसन, न कोई कुर्सी, न कोई गद्दो ।" कुछ भी नहीं है तो, यह बहुत कठिन नहीं है कि महावीर जंगल में रोज सहज उकडू ही बैठते रहे हों । यह बहुत कठिन नहीं है । CAND Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में फिर महावीर की एक धारणा और अद्भुत है। महावीर कहते हैं जितना O कम से कम पृथ्वी पर दबाव डाला जाए उतना अच्छा है। क्योंकि उतनी कम हिंसा होने की सम्भावना है। महावीर रात सोते हैं तो करवट नहीं बदलते क्योंकि जब एक हो करवट सोया जा सकता हो, तो दूसरी करवट विलासपूर्ण है । अकारण दूसरी करवट लेने में कोई चींटी, कोई मकोड़ा मर सकता है । किसी वृक्ष के तले, जंगल में वह सो रहे हैं। करवट बदली है । चींटियाँ मर सकती हैं । तो महावीर एक ही करवट सो लेते हैं । और दूसरी करवट बदलते नहीं रात भर । ऐसा जो व्यक्ति है, वह उकडू ही बैठता रहा होगा । 1 ६३६ जीवन में उनकी जो दृष्टि है, वह यह है कि क्यों व्यर्थ किसी के जीवन को सोतेनुकसान पहुँचाएँ । सारी पृथ्वी पर लोग अलग-अलग ढंग से उठते-बैठते, जागते, खाते-पीते हैं । जो हमें बिल्कुल सहज लगता है, वह दूसरे को बिल्कुल असहज लगेगा । तुम हाथ जोड़ कर नमस्कार करते हो, बिल्कुल सहज लगता है । कुछ लोग हैं जो जीभ निकाल कर नमस्कार करते हैं । दो आदमी मिलेंगे तो दोनों जीभ निकालेंगे । अब हम सोच भी नहीं सकते कि किसी को नमस्कार करो तो जीभ निकालो। लेकिन दो आदमी मिलें तो हाथ जोड़ें यह कोन सी बात है । अगर हाथ जोड़े जा सकते हैं तो जीभ भी निकाली जा सकती है । कुछ कीमों में जब आदमी मिलते हैं तो नाक से हैं । यह बिल्कुल उनके लिए सहज मालूम होगा सड़क पर नाक से नाक लगाते देखें तो हमें हैरानी होगी कि हो गया है। पश्चिम में चुम्बन सहज-सरल सी बात है। ऊहापोह की बात है कि कोई आदमी सड़क पर दूसरे आदमी को ले । जो चूम अभ्यास में हो जाता है वह सहज लगने लगता है । जो अभ्यास में नहीं है वह . असहज लगने लगता है । । कुछ दिमाग खराब हमारे लिये भारी नाक रगड़कर नमस्कार करते लेकिन हम दो आदमियों को महावीर अहिंसा की दृष्टि से दो पंजों पर बैठते रहे होंगे। सर्वाधिक, न्यूनतम हिंसा उसमें है । दूसरा उनके लिए यह सहज भी हो सकता है। अगर दस आदमियों को रात सोते देखें तो आप उन्हें अलग-अलग ढंग से सोते देखेंगे । चूंकि अभी अमेरिका में एक प्रयोगशाला बनाई गई है जिसमें अब तक वे दस हजार लोगों को सुलाकर देख चुके हैं। कोई बीस साल से परीक्षण चलता है जिसमें अजीब-अजीब नतीजे निकाले गए हैं। कोई दो आदमी एक जैसे सोते नहीं । सोने का ढंग, उठने का ढंग अपना-अपना है । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ दूसरी बात यह कि जगत् में सहज कुछ भी नहीं है । परिस्थिति अनुकूल, प्रतिकूल, व्यक्ति के सोचने, समझने का ढंग, जीने की व्यवस्था अलग-अलग स्थितियां ला सकती है । जैसे आम तौर पर महावीर खड़े होकर ध्यान करते हैं । वह भी साधारण नहीं लगता क्योंकि साधारणतः लोग बैठ कर ध्यान करते हैं। शायद बड़े होकर ध्यान करने में ज्यादा सरल पड़ता हो क्योंकि उसमें मूर्धा मोर तन्द्रा का कोई उपाय नहीं है और हो सकता है कि उकडू बैठने में भी वही दृष्टि हो । उकडू बैठ कर भी आप सो नहीं सकते। महावीर कहते हैं : भीतर पूर्ण सजग रहना है । पूर्ण सजगता के लिए अथक श्रम जरूरी है। हो सकता है कि निरन्तर प्रयोग से उन्हें पता चला हो कि उकडू बैठ कर नींद आने का कोई उपाय नहीं तो वह उकडू बैठने लगे हों। फिर महावीर का मस्तिष्क परम्परागत नहीं है। महावीर का मार्ग परम्परा-मुक्त ही नहीं बल्कि एक अर्थ में परम्परानिरोषक भी है। वे किसी भी चीज में किसी का अनुकरण नहीं करते। उन्हें जो सरल और आनन्दपूर्ण लगेगा, वह वैसा ही करेंगे। जगत् में किसी ने किया हो या न किया हो, यह सवाल नहीं है। हम सब परम्परा के अनुयायी है । सब जैसे बैठते हैं, वैसे ही हम बैठते हैं । सब जैसे खड़े होते हैं, वैसे ही हम खड़े होते हैं। सब जैसे वस्त्र पहनते हैं, वैसे ही हम वस्त्र पहनते हैं । सब जैसी बातें करते है, वैसी ही हम बातें करते हैं। क्योंकि सबके साथ हमें रहना है और सबसे भिन्न होकर खड़े होना अत्यन्त कठिन है इसलिए सबके साथ चलना सरल मालुम पड़ता है। ___ महावीर इस तरह के व्यक्ति नहीं हैं । वे कहते हैं : सब क्या करते हैं, यह सवाल नहीं है । मुझे क्या करने जैसा लगता है यह सवाल है । और हो सकता है कि मुझसे पहले किसी को भी करने जैसा न लगा हो और हो सकता है कि मेरे बाद भी किसी को करने जैसा न लगे, लेकिन जो मुझे करने जैसा लगता है, उसका मुझे अधिकार है । मैं वैसा ही जिऊंगा; वैसा ही करूंगा। इन अर्थों में वह निपट व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के अपूर्व पक्षपाती हैं। ऐसी-ऐसी बातों में भी, जिनमें कि हम कहेंगे कि इनमें स्वातंत्र्य की क्या जरूरत है। __ यह भी समझ लेना जरूरी है इस प्रसंग में कि हमारे शरीर की, और हमारे मन की दशाओं के बीच में एक तरह का तादात्म्य हो जाता है। जैसे आपने देखा होगा कि अगर कोई आदमी चिन्तित है' तो वह सिर खुजलाने लगेगा। सभी नहीं खुजलाने लगते । कोई चिन्तित होगा तभी सिर खुजलायेगा । अगर यह आवमी बिना कारण भी सिर खुजलाने लगे तो आप पाएंगे कि वह चिन्तित Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में हो, ऐसे कहीं ज्ञान मिला है किसी को, तो वे कहेंगे : तुम अपने रास्ते पायो, क्योंकि मान को अगर माना है तो मेरी शर्तों पर, मैं कोई ज्ञान की शर्ते मानने वाला नहीं हूँ। मेरी शों पर, मैं जैसा है, उसको वैसे में आना है तो ठीक । अगर कोई व्यक्ति इतना हिम्मतवर और साहसी है तो परमात्मा को उसी की शता पर आना होगा। कोई रुकावट उसमें नहीं पड़ सकती। यह अगर स्याल में आ जाए तो व्यक्ति स्वातंत्र्य की धारणा स्पष्ट हो जाती है।। अब मैं कहता हूँ कि किसी भी आसन में सोए, बैठे, लेटे, खड़े ध्यान हो सकता है। यह अपने-अपने चुनाव की बात है कि उसके लिए कैसा सरल हो सकता है। क्योंकि गोदोहासन तक में एक व्यक्ति मोष में जा चुका है। इसलिए अब कोई चिन्ता की बात नहीं। अब किसी भी आसन में यह घटना घट सकती है । लेकिन शायद ही कोई जैन मुनि गोदोहासन में बैठा मिल जाए क्योंकि माजकल का जैन मुनि परम्परागत ढंग बांध कर बैठा है। उसको चलाए जाता है। महावीर का गोवोहासन परम्परा को तोड़ने का प्रतीक है सिर्फ । महावीर जैसा व्यक्ति छोटी-मोटी चीजों में भो परम्परा को तोड़ देना चाहेगा। यानी ऐसी छोटी बातों में भी वह कहेगा, नहीं, मैं जैसा हूँ वैसा हूँ। और प्रत्येक व्यक्ति में इतना साहस आना चाहिए तो ही व्यक्ति साधक हो सकता है । और जिस दिन परम साहस प्रकट होता है उसी दिन सिद्ध होने में क्षण भर को भी देर नहीं लगती। प्रश्न : आपने पिछले दिनों महावीर के सम्बन्ध में एकान्त की बात कही पी। तो क्या महावीर का आत्मदर्शन भी एकान्त ही था, सम्पूर्ण नहीं पा ? उत्तर : इस सम्बन्ध में दो बातें समझ लेनी चाहिए। एक शब्द है 'दृष्टि' और दूसरा शब्द है 'दर्शन' । वृष्टि एकांकी, अधूरी और खण्ड-खण्ड होगी। दृष्टि का मतलब है कि मैं एक जगह खड़ा है, वहाँ से जैसा दिखाई पड़ रहा है, जो दिखाई दे रहा है, वह महत्त्वपूर्ण है और जिस जगह में खड़ा हूँ वह जगह भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। जहाँ से खड़े होकर मैं देख रहा है, जैसा मुझे दिखाई पड़ेगा वह दृष्टि होगी और इसी के सम्बन्ध में दर्शन शब्द को समझना बड़ा कीमती है। दर्शन का मतलब है जहाँ सब वृष्टियां मिट गई, जहाँ मेरे खड़े होने की कोई जगह न रही, सब में जहाँ में ही न रहा। वहाँ को होगा, इसका नाम वर्ष है। वन सदा ही समय होगा। दृष्टि सवा ही सण्डित होगी। तो Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरप्रवचन-२१ ६४५ जिसे हम आत्मानुभूति कहें यहां जब दृष्टियां सब मिट गई, असल में देखने वाला भी मिट गया, असल में वह जगह भी मिट गई जहाँ हम खड़े थे, वह भो मिट गया जो खड़ा हो सकता है, सब मिट गया, मेरी तरफ से कुछ भी न बचा, अब जो मुझे प्रतीति होगी, अब जो अनुभव घटित होगा वह समग्र पटित होगा। तो महावीर का जो दर्शन है, या बुद्ध का या कृष्ण का या क्राइस्ट का या मुहम्मद का वह सदा ही समग्र होगा। दर्शन कभी भी अधूरा नहीं हो सकता क्योंकि अधूरा बनाने वाली जो भी बातें थीं, वे सब समाप्त हो गई। और एक तरफ से समझें । जब तक मेरे चित्त में विचार है, तब तक मेरे पास दृष्टि होगी, दर्शन नहीं होगा। क्योंकि मैं अपने विचार के चश्में से देखूगा। मेरे विचार का जो रंग होगा, वही उस चीज पर भी पड़ जाएगा, जिसे मैं देखंगा। और दर्शन होगा तब जब में निर्विचार हो जाऊँगा, जब कोई विचार मेरे पास नहीं होगा। जब विचार मात्र नहीं होगा, खाली जगह से मैं देखूगा, जहां मेरा कोई पक्ष नहीं, कोई विचार नहीं, कोई शास्त्र नहीं, कोई सिद्धान्त नहीं, मैं हिन्दू नहीं, मुसलमान नहीं, ईसाई नहीं, जैन नहीं। जब मैं कोई भी नहीं, निपट खाली मन रह गया है वहां से जब देखूगा तो वह जो होगा दर्शन होगा। विचार, वृष्टि तक ले जाता है, निविषार, दर्शन तक। एक बात और भी समझनी उपयोगी है । दर्शन कितना हो समग्र होसमय होगा हो लेकिन जब वर्शन को कोई प्रकट करने जाएगा तब फिर दृष्टि शुरू हो जाएगी। क्योंकि दर्शन को फिर प्रकट करने के लिए विचार का उपयोग करना पड़ेगा। और जैसे ही विचार का उपयोग किया कि समग्र नहीं हो सकता। असल में विचार को एक व्यवस्था है, वह कभी भी पूरी नहीं हो सकती। विचार चीजों को तोड़कर देखता है। और वस्तु में, सत्य में, सब पीजें जुड़ी हुई हैं। अगर हम विचार से देखने जाएंगे तो जन्म अलग है, मृत्यु अलग है। जन्म और मृत्यु को विचार में जोड़ना अत्यन्त कठिन है। क्योंकि जन्म बिल्कुल उल्टी चीज है, मृत्यु बिल्कुल उल्टी चीज है। लेकिन वस्तुतः जीवन में जन्म और मृत्यु, एक ही चीज के दो छोर है। वहाँ जन्म अलग नहीं, मृत्यु अलग नहीं। जो जन्म पर शुरू होता है, वही मृत्यु पर बिदा होता है। वह एक ही यात्रा के यो बिन्दु है। पहला बिन्दु जन्म है, बन्तिम विन्दु मृत्यु है। अगर हम जीवन को देखेंगे तो ये इकट्ठे है और अगर विचार से सोचने जाएंगे तो जन्म और मृत्यु अलग-अलग हो जाएंगे। अगर विचार में सोचेंगे तो काला Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में और सफेद बिल्कुल अलग-अलग है। ठंडा और गर्म बिल्कुल अलग-अलग है। लेकिन अगर अनुभव में सोचने जाएंगे तो ठंडा और गर्म एक ही चीज के दो रूप है, काला और सफेद भी एक ही नमूने के दो छोर हैं। लेकिन जब भी हम प्रकट करने चलेंगे तो हमें फिर विचार का उपयोग करना पड़ेगा। मुहम्मद को, महावीर को, बुद्ध को, कृष्ण को, क्राइस्ट को जो अनुभूति हुई है वह तो समय है लेकिन जब वे उसे अभिव्यक्त करते हैं तो वह समग्र नहीं रह जाती। तब वह एक दृष्टि रह जाती है। और इसीलिए जो प्रकट दृष्टियां है, उनमें विरोध पड़ जाता है । दर्शन में कोई विरोध नहीं है लेकिन प्रकट दृष्टि में विरोष है। मैं और आप श्रीनगर आ रहे हैं। श्रीनगर तो एक ही है जिसमें मैं आऊंगा और आप आएंगे। फिर हम दोनों श्रीनगर से गए। फिर कोई हमसे कहेगा कि क्या देखा? जो मैं कहूँगा वह भिन्न होगा, जो आप कहेंगे उससे । श्रीनगर एक था। हम आए एक ही नगर से थे। लेकिन हो सकता है कि मुझे झील पसन्द हो और मैं झील की बात करूं, और आपको पहाड़ पसन्द हो और आप पहाड़ की बात करें। और हो सकता है कि मुझे दिन पसन्द हो मैं सूरज की बात करूं और आपको रात पसन्द हो आप चाँद की बात करें। और हमारी दोनों बातें ऐसी मालूम पड़ने लगें कि हम दो नगरों में गए होंगे। क्योंकि एक चांद की बात करता है एक सूरज की, एक अंधेरे को बात करता है एक उजाले की. एक सुबह की बात करता है एक सांझ की, एक पहाड़ की बात करता है एक झील की। शायद सुनने वाले को मुश्किल हो जाए यह बात कि यह पहाड़ और झील, यह चांद और सूरज, यह रात और दिन-ये सब किसी एक ही नगर के हिस्से हैं। ये इतने विरोधी भी मालूम पड़ सकते हैं कि ताल-मेल बिठाना मुश्किल हो जाए। वे जो खबरें हम ले जाएंगे, वे दृष्टियां होंगी, वे विचार होंगे। लेकिन जो हमने जाना और जिया था, वह दर्शन था। उस दर्शन में श्रीनगर एक था। वहां रात और दिन जुड़े थे, पहाड़ और झील जुड़ी थी, वहाँ अच्छा-बुरा जुड़ा था, वहाँ सब इकट्ठा था। लेकिन जब हम बात करने गए, चुनाव हमने किया, छोटा तो हम अलग खड़े हो गए । और हमने एक दृष्टि से चुनाव किया। वैसे ही कोई बात बोली जाएगी वैसे ही दृष्टि बन जाएगी। और यही बहुत सतरा रहा है कि दृष्टियों को दर्शन समझने की भूल होती रही है और इसलिए नों की एक दृष्टि है, दर्शन नहीं; हिन्दुओं को एक दृष्टि है, दर्शन नहीं; मुसल Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ मानों की एक दृष्टि है, दर्शन नहीं। अगर दर्शन की हम बात करते है तो हिन्दू मुसलमान जैन-सब खो जाएंगे। वहां तो एक ही रह जाएगा। वहाँ कोई दृष्टि नहीं है, कोई विचार नहीं है। ___ महावीर का जो अनुभव है, वह तो समप्र है लेकिन अभिव्यक्ति समय नहीं हो सकती। जब भी हम कहने जाते हैं, तभी समग्र को हम कह नहीं सकते । परमात्मा का अनुभव तो बहुत बड़ी बात है। छोटे से, सरल अनुभव भी समग्ररूपेण प्रकट नहीं होते। आपने फूल को देखा। यह बहुत सुन्दर हैऐसा अनुभव किया । फिर आप कहने गए। फिर जब आप कहते हैं तो आपको लगता है कि कुछ बात अधूरी रह गई। यानी बहुत-बहुत सुन्दर है, ऐसा कहने पर भी पता नहीं चलता फूल जैसा था उसका। वह जो आपको अनुभव हुआ जीवन्त, वह जो आपका सम्पर्क हुआ फूल से, वह जो सौन्दर्य आप पर प्रकट हुआ, वह जो सुगन्ध आई, वह जो हवाओं ने फूल का नृत्य देखो, वह जो सूरज को किरणों ने फूल की खुशी देखी वह कितनी ही बार कहें कि बहुत-बहुत सुन्दर है तब भी लगता है कि बात कुछ अधूरी रह गई, कुछ बेस्वाद, बिना सुगन्ध को, मृत, मुर्दा रह गई। कुछ पता नहीं चलता। वह जो देखा था उसका कोई पता नहीं चलता। जब हम साधारण सी भी बात कहते हैं तो जो हमने अनुभव किया उसके वर्णनों में बहत कमी पड़ जाती है। और जब कोई असाधारण अनुभव को कहने जाता है, तब इतनो कमी पड़ जाती है जिसका हिसाब लगाना कठिन है । और दुनिया में जो सम्प्रदाय हैं, वह कही हुई बात पर निर्भर हैंजानी हुई बात पर नहीं। जानी हुई बात पर कभी सम्प्रदाय निर्मित हो जाएँ यह असम्भव है क्योंकि जो जाना गया है, वह भिन्न है ही नहीं। एक बार ऐसा हुआ कि फरीद यात्रा कर रहा था। कुछ मित्र साथ थे। और कबीर का आश्रम निकट आया। फरीद के मित्रों ने कहा कि किटना अच्छा हो कि हम कबीर के पास दो दिन रुक जाएँ। आप दोनों की बातें होंगी तो हम धन्य हो जाएंगे। शायद हो जन्मों में ऐसा अवसर मिले कि कीर और फरीद का मिलना हो और लोग सुन लें। फरीद ने कहा कि तुम कहते हो तो हम जरूर रुक जाएंगे, लेकिन बात शायद ही हो। उन्होंने कहा लेकिन बात क्यों नहीं होगी? फरीद ने कहा कि वह तो चलकर ठहरेंगे तो ही पता चल सकता है। कबीर के मित्रों को भी खबर लग गई और उन्होंने कहा कि फरीद निकलता है पर से, रोक लें। प्रार्थना करें हमारे आश्रम में रुक जाएं दो दिन । बाप दोनों की बातें होंमी तो कितना मानन्द होगा! कबीर ने कहा : Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ महावीर । मेरी दृष्टि में रोको जबर, आनन्द बहुत होगा लेकिन बातें शायद ही हों। पर उन्होंने कहा : बातें क्यों न होंगी? कबीर ने कहा कि वे तो फरीद आ जाए तो पता चले । फरीद को रोक लिया गया। वे दोनों गले मिले। वे दोनों हसे। वे दोनों पास बैठे। दो दिन बीत गए लेकिन कोई बात नहीं हुई। सुनने वाले बहुत ऊब गए है, बहुत घबड़ा गए हैं। फिर बिदाई भी हो गई। फिर कबीर गांव के बाहर जाकर छोड़ भी आए। वे गले मिले, रोए भी लेकिन फिर भी नहीं बोले । छूटते ही कबीर के शिष्यों ने पूछा : यह क्या पागलपन है ? दो दिन आप बोले ही नहीं। कबीर के शिष्यों ने पूछा : यह क्या हुआ ? हम तो घबड़ा गए। दो दिन कैसे चुप रहे ? कबीर ने कहा : जो मैं जानता हूं, वही फरीद जानते हैं। अब बोलने का उपाय क्या है ? दो अज्ञानी बोल सकते हैं, एक ज्ञानो और एक अज्ञानी बोल सकता है। दो ज्ञानियों के बोलने का उपाय क्या है ? और जो बोलता है वह नाहक अज्ञानी बन जाता है क्योंकि वह जो बोल कर कहता है वह दूसरे ने जो जाना है उससे छोटा होता है। और एक बोल कर कहता है तो जानते हुए कि सामने बोल कर कहना बहुत कठिन बात है। क्योंकि उसको लगता है कि उसका जाना हुआ तो अपार है और बोला हुआ छोटा है । तो जो बोलता है वह नासमझ होता है। फरीद के शिष्यों ने पूछा तो फरीद ने कहा क्या बोलते ? कबीर के सामने क्या बोलते ? बोल कर में फंसता। क्योंकि जो बोलता है वह बोलने से हो गलत हो जाता है। जो जान गया है उसके सामने बोला हुआ सब गलत है। सब न जाना गया हो तो तभी बोला हुमा सच मालूम पड़ता है । लेकिन जिसने जाना हो उसके सामने बोला हुआ इतना फीका है, जैसे मैंने आपको देखा हो निकट से, जाना हो, पहचाना हो और फिर मुझे कोई सिर्फ आपका नाम बता दे और नाम का हो परिचय बता दे तो नाम क्या परिचय बनेगा? जिस व्यक्ति को मैं जानता हूँ उसका नाम क्या परिचय बनेगा? हाँ, जिसको हम नहीं जानते उसके लिए नाम भी परिचय बन जाता है। लेकिन जिसको हम जानते हैं उसके नाम से क्या फर्क पड़ता है ? नाम कोई परिचय नहीं बनाता । नाम कोई परिचय है क्या? फरीद ने कहा कि जरूरी था कि मैं चुप रह जाऊं क्योंकि बोल कर जो मैं कहता, वह सिर्फ नाम होता। और उस आदमी ने जो जाना उसका नाम लेना एकदम बड़ी भूल होती। तो वहाँ मान ही यहाँ मेव नहीं है और जहां शम्ब है वहाँ मेव है। जैसे ही शब्द का प्रयोग करना शुरू हुबा, भेद पड़ने शुरू हो गए । जैसे हम सूरज की Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ ६४९ किरण को देखें वहां कोई भेद नहीं है। सूरज की किरण सीधी और साफ है। लेकिन एक प्रिज्म लें और फिर सूरज की किरण को देखें तो प्रिज्म किरण को सात टुकड़ों में तोड़ देता है। प्रिज्म के इस पार सूरज की इकहरी किरण देखनी मुश्किल है। प्रिज्म के उस पार सूरज की सात खण्डों में विभाजित किरण देखनी मुश्किल है। शब्द प्रिज्म का काम कर रहा है। जो जाना गया है वह शब्द के उस पार है, जो कहा गया है वह शब्द के इस पार है। शव के इस पार सब टूट जाता है खण्ड खण । शब्द के उस पार सब अखण्ड है। इसलिए महावीर ने जो जाना है वह तो समग्र है लेकिन जो कहा है वह चाहे महावीर कहें, चाहे कोई भी कहे, समन नहीं हो सकता। वह एकान्त ही होगा, वह खंड ही होगा। और इसीलिए जैन खंडित होगा; वह एकांती होगा। क्योंकि महावीर ने जो कहा है, वह उसे पकड़ेगा। महावीर का समग्र उसकी पकड़ में नहीं आने वाला। इसलिए वह जैन होकर बैठ जाएगा। वह अनेकान्त को भी 'वाद' बना लेगा। वह महावीर के दर्शन को भी दृष्टि बना लेगा और उसको पकड़ कर बैठ जाएगा। इसलिए सभी अनुयायी खंड सत्य को पकड़ने वाले होते हैं। और यह भी समझ लेना जरूरी है कि जिसने खंड सत्य को पकड़ा है, वह जाने-अनजाने अखंड-सत्य का दुश्मन हो जाता है क्योंकि उसका आग्रह होता है कि मेरा खंड ही समग्न है। और सभी खंडवालों का यही आग्रह होता है कि मेरा खंड समग्र है। सभी खंड मिलकर समग्र हो सकते हैं लेकिन प्रत्येक खंड का यह दावा है कि मैं समग्र है, दूसरे खंड का भी यही. दावा है कि मैं समग्र हूँ। यह दावे मिलकर समग्र नहीं हो सकते। यह दावे सारी मनुष्य जाति को खंडखंड में बांट देते हैं। मनुष्य जो कि अखंड है, इसी तरह टुकड़ों में, सम्प्रदायों में बंटकर टूट गया है। दृष्टि पर हमारा जोर होगा तो सम्प्रदाय होंगे। वर्शन पर हमारा जोर होगा तो सम्प्रदायों का कोई उपाय नहीं । मेरा सारा जोर दर्शन पर है, दृष्टि पर जरा भी नहीं। महावीर का भो जोर दर्शन पर है और बड़े मजे की बात है कि जितमी दृष्टियों से हम मुक्त होते चले जाते हैं उतना ही हम दर्शन के निकट पहुंच जाते हैं। आमतौर से शब्दों से ऐसा भ्रम होता है कि दृष्टि ही दर्शन देती है । लेकिन दृष्टि ही सबसे बड़ी बाधा है दर्शन में। अगर मेरी कोई भी दृष्टि है तो मैं सत्य को कभी नहीं जान सकता हूँ। अगर मेरी कोई दृष्टि नहीं है, मैं Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में दृष्टिसुक्त, दृष्टिशून्य होकर बड़ा हो गया हूँ तो ही मैं पूर्ण को जान सकता हूँ क्योंकि तब पूर्ण को मेरे तक आने में कोई बाधा नहीं है । ६५० प्रश्न : दर्शन और अनुभूति एक बात है ? उत्तर : हाँ, बिल्कुल ही एक बात है । प्रश्न : महावीर ने घर में ही रहकर साधना क्यों नहीं की ? बाहर जाने को क्या आवश्यकता थी ? 1 उतर: ये सवाल भी हमें उठते हैं । ये प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि घर और बाहर हमें दो विरोधी चीजें मालूम पड़ती हैं । हमें ऐसा लगता है कि घर एक अलग दुनिया है, और बाहर एक अलग दुनिया है । हमें कभी भी ख्याल नहीं आता कि घर और बाहर, एक ही विराट् के दो हिस्से हैं । एक स्वस भीतर गई तो मैं कहता हूँ कि भीतर गई । और एक क्षण भीतर रही नहीं कि बाहर हो गई । जो एक क्षण पहले बाहर थी वह एक क्षण बाद भोतर हो जाती है । जो एक क्षण भीतर थी वह एक क्षण बाद बाहर हो जाती है । क्या बाहर है और क्या भीतर है ? कौन सा घर है, ओर कौन सा घर से. अतिरिक्त अन्यथा है ? 1 हमारी जो दृष्टि है वह हमने बड़ी सीमित बना रखी है। घर से हमारा मतलब है जो अपना है और बाहर से हमारा मतलब है जो अपना नहीं है । लेकिन क्या ऐसा नहीं हो सकता कि किसी के लिए कुछ भी ऐसा न हो जो अपना नहीं है । और अगर किसी व्यक्ति के लिए ऐसा हो जाए कि कुछ भी ऐसा नहीं है जो अपना नहीं है तो घर और बाहर का सवाल समाप्त हो गया । तब घर ही रह गया, बाहर कुछ भी न रहा । या उल्टा भी कह सकते हैं कि बाहर ही रह गया, घर कुछ भी न रहा। एक बात तय है कि जिस व्यक्ति को दिखाई पड़ना शुरू होगा उसे बाहर और भीतर की जो भेव रेखा है, वह मिट जाएगी। वही बाहर है, वही भीतर है। ये हवाएं हमारे घर के भीतर भर गई हैं तो हम कह रहे हैं घर के भीतर । और हमें ख्याल नहीं है कि प्रतिपल ये हवाएँ बाहर हुई चली जाती हैं और प्रतिपल जो बाहर थीं वे भीतर चली आती है। घर के भीतर हवाएं कुछ अलग हैं घर के बाहर से ? यह जो प्रकाश घर में आ गया है वह कुछ अलग है उस प्रकाश से जो बाहर है। हाँ, इतना ही फर्क है कि दिवालों ने इसकी प्रखरता छीन ली है। दीवालों ने इसे उतना ताजा और जीवन्त नहीं रहने दिया है Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ जितना वह बाहर है । हवाएं जो घर के भीतर आ गई है थोड़ी गंदी हो गई हैं। दीवालों ने, सीमाओं ने उनको स्वच्छता छीन ली है, ताजगी छीन ली है। और अगर कोई व्यक्ति घर के भीतर बैठे-बैठे पाता है कि अस्वच्छ हो गया है सब और द्वार के बाहर जाकर आकाश खुले नीचे खड़ा हो जाता है तो हम नहीं कहते है कि उसने घर छोड़ दिया है, हम इतना ही कहते हैं कि घर के बाहर और बड़ा घर है जहाँ और स्वच्छ हवाएं हैं और स्वच्छ सूरज है, और साफ सुन्दर जगह है। आदमी की बनाई हुई दीवालें हैं और गौर से हम देखें तो हमारे मोह की दीवाले हैं जो हमारा घर बनाती हैं। तो मकान बांधे हुए हैं या हमारा 'मेरा' बांधे हुए हैं ? इसे हम जरा ठीक से समझ लें तो हमें दिखाई पड़ेगा 'मेरा' हमारा घेरा है। बहुत गहरे में 'मेरे' का भाव, महत्त्व हमारा मकान है । और ध्यान रहे जो कहता है 'मेरा वह अनिवार्य रूप से शेष को 'तेरे में बदल देता है। जो कहता है 'मेरा' वह शेष .को शत्रु बना लेता है । जो कहता है 'अपना' वह दूसरे को पराया बना देता है। ___ गांधी जी के आश्रम में एक भजन गाया जाता था। 'वैष्णव जन तो तेने कहिए जे पोर पराई जाने ।' कोई मुझे पढ़कर सुना रहा था तो मैंने कहा कि इसमें थोड़ा सुधार कर लेना चाहिए । असल में वैष्णव जन तो वह है जो पराए को ही नहीं जानता। पराई पोर तो बहुत दूसरी बात है । पराए की पीर को जानना हो तो पराए को मानना जरूरी है, और अपने को भी मानना जरूरी है । वैष्णव जन तो वह है जो जानता ही नहीं कि कोई पराया है, और तभी यह सम्भव भी है कि पराए की पीर उसे अपनी मालूम होने लगे, तभी. जबकि पराया न रह जाए। __ तो जो एक हमारे 'मैं' का घेरा है, वही हमारा घर है-'मेरा घर', 'मेरी पत्नी', 'मेरे पिता', 'मेरा बेटा', 'मेरा मित्र', एक 'मेरे' की हमने दुनिया बनाई हुई है। उस 'मेरे' की दुनिया में हमने कई तरह की दीवालें उठाई हुई हैं-पत्थर की भी उठाई है, प्रेम की भी उठाई हैं, घृणा की भी उठाई हैं, द्वेष की भी, राग की भी। और एक घर बनाया है। जबकि पूछा जाता है कि महावीर ने घर क्यों छोड़ दिया है। क्या घर में ही सम्भव नहीं था? नहीं, घर हो सम्भव नहीं था। घर हो असम्भावना थी। अगर हम बहुत गौर से देखेंगे तो वह जो 'मेरे' का भाव था वही तो असम्भावना थी। वही रोकता था, वही समस्त से नहीं जुड़ने देता था। लेकिन अगर किसी को दिखाई पड़ गया हो कि Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५२ महावीर : मेरी दृष्टि में सब ही 'मेरा' है, या कुछ भी ऐसा नहीं जो 'मेरा है और 'तेरा' है तो फिर कौन-सा घर है जो अपना है और कौन-सा घर है जो अपना नहीं है। हमें एक ही बात दिखाई पड़ती है कि महावीर ने घर छोड़ा। वह क्यों दिखाई पड़ती है क्योंकि हम घर को पकड़े हुए हैं। हमारे लिए जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है, वह यह कि इस आदमी ने घर क्यों छोड़ा क्योंकि हम घर को पकड़े हुए लोग हैं। घर को छोड़ने की बात ही असह्य है । यह कल्पना भी असह्य है कि घर छुड़ा लिया जाए । इस आदमी ने घर क्यों छोड़ा? लेकिन हम समझ नहीं पा रहे कि घर की धारणा क्या है? महावीर ने घर छोड़ा या कि घर मिट गया ? जैसे ही जाना तो घर मिट गया। जैसे ही समझा तो मेरा और अपना कुछ भी न रहा। सबका सब हो गया। यह अगर हमें दिखाई पड़ जाए तो बड़ा फर्क पड़ जाता है। हम यहाँ बैठे हुए हैं । दस करोड़ मील दूर पर सूरज है । वह अगर ठंडा हो जाए तो हमें पता भी नहीं चलेगा कि वह ठंडा हो गया क्योंकि उसी के साथ हम सब ठंडे . हो जाएंगे। दस करोड़ मोल जो सूरज है, वह भी हमारे प्राण के स्पन्दन को बांधे हुए है, वह भी हमारे घर का हिस्सा है। उसके बिना हम हो ही नहीं सकते । वह हमारे होने को भी संभाले हुए है। लेकिन कब हमने सूरज को घर का साथी समझा है ? कब हमने माना है कि सूरज भी अपना है मित्र और अपने परिवार का है ? लेकिन जिसे हमने कभी परिवार का नहीं समझा है उसके बिना हम कोई भी नहीं होंगे। न परिवार होगा न हम होंगे। वह दस करोड़ मील दूर बैठा हुआ सूरज भी हमारे हृदय की धड़कन का हिस्सा है। घर के भीतर है या बाहर अगर यह सवाल पूछा जाए तो क्या उत्तर होंगे? सूरज घर के भीतर है या घर के बाहर ? अगर सूरज को घर के बाहर करते हैं तो हम जीवित नहीं रहते। सूरज अगर हमारे घर के भीतर हो तो ही हम जीवित हैं। हवाएँ, जो सारी पृथ्वी को घेरे हुए हैं, हमारे घर के भीतर है, अगर एक क्षण को न हो जाएं तो हम उसी क्षण 'न' हो जाएंगे। सूरज तो पास है। दूर के चांद तारे भी, दूर के यह ग्रह उपग्रह भी, दूर के सूरज और महासूरज भी वे सब भी किसी न किसी अर्थ में हमारे जीवन का हिस्सा है। पत्नी ने आपका खाना बना दिया है. तो वह आपके घर के भीतर है। लेकिन एक गाय ने घास घरी है और आपके लिए दूध बना दिया है तो वह आपके घर के भीतर नहीं है। और घास को सीधा बाप पर कर दूष नहीं बना Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ ६५५ सकते हैं। बीच में एक गाय चाहिए जो पास को उस स्थिति में बदल दे जहाँ से वह आपके योग्य हो पाए। लेकिन पास ने भी कुछ किया है। उसने भी मिट्टी को बदला है और पास बन गया। पास बापके घर के भीतर है या बाहर? क्योंकि अगर घास न हो तो आपके होने की कोई सम्भावना नहीं है । और पास अगर न हो तो मिट्टी को खाकर गाय भी दूष नहीं बना सकती। और घास मिट्टी ही है लेकिन उस रूप में जहां से गाय उसका दूष बना सकती है और जहाँ से दूध आपका भोजन बन सकता है। क्या हमारा घर है ? क्या हमारे घर के बाहर है ? अगर हम आंख खोल कर देखना शुरू करें तो हमें पता चलेगा कि सारा जीवन एक परिवार है, जिसमें एक कड़ी न हो तो कुछ भी नहीं होगा। जीवन मात्र एक परिवार है एक सामने पड़ा हुआ पत्थर भी किसी न किसी अर्थ में हमारे जीवन का हिस्सा है । अगर वह भी न हो तो हम नहीं कह सकते कि क्या होगा ? सब बदल सकता है। तो जिसको जीवन की इतनी विराटता का दर्शन हो जाएगा, वह कहेगा कि सभी सब है, सभी मेरे है, सभी अपने हैं या कोई भी अपना नहीं है। ये वो भाषाएं रह जाएंगी उसके पास । अगर वह विधायक ढंग से बोलेगा तो वह कहेगा : मेरा ही परिवार है सब और अगर वह निषेधात्मक ढंग से बोलेगा तो वह कहेगा कि 'मैं ही नहीं हूँ, परिवार कैसा ?' ये दो उपाय रह जाएंगे और ये दोनों उपाय एक ही अर्थ रखते हैं। तो महावीर ने छोड़ा घर, परिवार यह बिल्कुल भूल है। असल में बड़े परिवार के दर्शन हुए, छोटा परिवार खो गया । और जिसको सागर मिल जाए, वह बूंद को कैसे पकड़े बैठा रहेगा ? बूंद को तभी तक कोई पकड़ सकता है जब तक सागर न मिला हो और सागर मिल जाए तो हम कहेंगे कि बूंद को आपने छोड़ा । असल में हमें सागर दिखाई नहीं पड़ता, सिर्फ बूंद ही दिखाई पड़ती है । बूंद को पकड़े हुए लोग, बूंद को छोड़ते हुए लोग ऐसे हमें दिखाई पड़ते हैं। हमें सागर नहीं दिखाई पड़ता। लेकिन जिसे सागर दिखाई पड़ जाए, वह कैसे बूंद को पकड़े रहे। तो बूंद को पकड़ना निपट अज्ञान हो जाएगा। ज्ञान विराट में ले जाता है, अज्ञान द्रशु को बांध कर पकड़ा देता है । अज्ञान क्षुद्र में ही रुक जाता है, शान निरन्तर विराट् से विराट् हो जाता है। महावीर ने घर नहीं छोड़ा, घर को पकड़ना असम्भव हो गया। और इन दोनों बातों में फर्क हैं। जब हम कहते हैं कि घर छोड़ा तो ऐसा लगता है कि पर से कोई दुश्मनी है। और जब मैं कहता है कि घर को पकड़ना असम्भव Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५४ महावीर : मेरी दृष्टि में हो गया तो ऐसा लगता है कि और बड़ा घर मिल गया, विराट् सा घर । उसमें पहलाधर छूट नहीं गया, सिर्फ वह बड़े घर का हिस्सा हो गया। यह हमारे ख्याल में आ जाए तो त्याग का एक नया अर्थ ख्याल में आ जाएगा। त्याग का अर्थ कुछ छोड़ना नहीं, त्याग का बहुत गहरा अर्थ विराट को पाना है । लेकिन त्याग शब्द में खतरा है । उसमें छोड़ना छिपा हुआ है। उसमें लगता है कि कुछ छोड़ा है। मेरी दृष्टि में, महावीर या बुद्ध या कृष्ण जैसे लोगों को त्यागी कहने में बुनियादी भूल है। इनते बड़ा भोगी खोजना असम्भव है। अगर अर्थ समझ लें तो त्याग का अर्थ है कुछ छोड़ना, भोगो का अर्थ है कुछ पाना। महावीर से बड़ा कोई भोगो होना असम्भव है क्योंकि जगत् में जो भी है सब उसका ही हो गया है; उसका भोग भी अनन्त हो गया है, उसका घर भी अनन्त हो गया है, उसकी स्वांस भी अनन्त हो गई है, उसका प्राण भी अनन्त हो गया है, उसका जीवन भी अनन्त हो गया है। इतने विराट को भोगने की सामर्थ्य क्षुद्र चित्त में नहीं होती। क्षुद्र, क्षुद्र को हो भोग सकता है इसलिए वह क्षुद्र को पकड़ लेता है । लेकिन जब विराट् होने लगे तो ? एक नदी है, वह चलती है हिमालय से और सागर में गिर गई है। दो तरह से देखी जा सकती है यह बात । कोई नदी से पूछ सकता है : तूने पुराने किनारे क्यों छोड़ दिए? तूने पुराने किनारों का त्याग क्यों किया? ऐसे भी पूछा जा सकता है नदी से : किनारे क्यों छोड़े तूने ? और नदी ऐसा भी कह सकती है कि किनारे मैंने छोड़े नहीं, किनारे अनन्त हो गए हैं। किनारे अब भी हैं। लेकिन अब उनकी कोई सीमा नहीं है। अब वे असीम हो गए हैं । अब जो छोटे-छोटे किनारे थे, एक छोटी सी धारा बहती थी और रोज छोटे किनारे छोड़ती चली आई है इसलिए बड़ी होती चली गई। गंगोत्री पर बड़ा छोटा किनारा था गंगा का। फिर आकर सागर के पास बड़े-बड़े किनारे हो गए। लेकिन फिर भी किनारे थे। फिर सागर में उसने अपने को छोड़ दिया । सागर के बड़े किनारे हैं, लेकिन फिर भी किनारे हैं । कल वह भाप बनेगी और आकाश में उठ जाएगी और किनारे छोड़ देगी, कोई किनारा नहीं रह जाएगा। ___ जीवन की खोज मूलतः किनारों को छोड़ने को या बड़े किनारों को पाने की खोज है। लेकिन जिसको असीम और अनन्त मिल जाता हो उससे जब हम पूछने जाते है कि तुमने किनारे क्यों छोड़े तो क्या उत्तर होगा उसके पास ? वह Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२१ ६५५ सिर्फ हंसेगा और कहेगा कि तुम भी आओ और छोड़कर देखो क्योंकि जो मैंने पाया है वह बहुत ज्यादा है और उसमें वह पुराना मौजूद ही है। . जो तुम कहते हो छोड़ दिया, वह कहीं छोड़ा नहीं। घर छूटा नहीं है महावीर का, सिर्फ बड़ा हो गया है। इतना बड़ा हो गया है कि हमें दिखाई भी नहीं पड़ता क्योंकि हमें छोटे घर ही दिखाई पड़ सकते हैं। अगर घर बहुत बड़ा हो जाए तो फिर हमें दिखाई नहीं पड़ता। त्याग से हटा देनी चाहिए बात और विराट् भोग पर ज्यादा जोर दिया जाना चाहिए। और मेरी अपनी समझ है कि जो त्याग से हमने बांध लिया है इन सब महापुरुषों को इसलिए हम इनके निकट नहीं पहुंच पाए क्योंकि त्याग बहुत गहरे में किसी व्यक्ति को भी अपील नहीं कर सकता है। बहुत गहरे में, त्याग की बात ही निषेध की बात है। यह छोड़ो वह छोड़ो, छोड़ने की भाषा ही मरने की भाषा है। छोड़ना आत्मघाती है। इसलिए अगर धर्म इस बात पर जोर देता हो कि छोड़ो, छोड़ो, तो बहुत थोड़े से लोग हैं जो उसमें सुक हो सकते हैं। और अक्सर ऐसा होगा कि रुग्ण लोग उत्सुक हो जाएंगे और स्वस्थ लोग उत्सुक नहीं रह जाएंगे। स्वस्थ भोगना चाहता है, रुग्ण छोड़ना चाहता है क्योंकि वह भोग नहीं सकता। बीमार, आत्मघाती चित्त के लोग इकट्ठे हो जाएंगे धर्म के नाम पर । स्वस्थ, जीवन्त, जीवन जानने वाले अलग चले जाएंगे, कहेंगे धर्म हमारा नहीं है। इवलिए तो लोग कहते हैं । युवावस्था में धर्म की क्या जरूरत ? वह तो वृद्धावस्था के लिए है। जबकि चीजें अपने से छूटने लगती है तो उन्हें छोड़ ही दो। फिर अब क्या दिक्कत है ? छोड़ ही दो, छूट ही रहा है, छीना ही जा रहा है, लेकिन जब जीवन भोग रहा है, पा रहा है, उपलब्ध कर रहा है तब छोड़ने की भाषा समझ में नहीं आती। इसलिए मन्दिरों में, मस्जिदों में, गिरजों में बूढ़े लोग दिखाई पड़ते हैं, जवान आदमी. दिखाई नहीं पड़ते। वह जो छोड़ने पर जोर था उसने दिक्कत डाल दी है। मैं इस जोर को एकदम बदलना चाहता है। मैं कहता हूँ : भोगो और ज्यादा भोगो ? परमात्मा को भोगो और उसका भोग बहुत अनन्त है, अपर मत जाना । क्षुद्र को छोड़ना तो इसलिए कि विराट को भोगना है। जितना हम विराट् होते चले पाएंगे, उतना हमारा अस्तित्व मिटता चला जाएगा। लेकिन असल में, 'अस्तित्व Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५६ महावीर : मेरी दृष्टि में मिट जाता है', ऐसा कहना भूल है । मेरा अस्तित्व मिट जाता है इतना ही कहना सही है । ईगो चली जाती है, बस्तित्व तो रहेगा। प्रश्न : नवी सागर में गई तो नवी का कैसे पता लगेगा? उत्तर : पता नहीं लगेगा लेकिन नदी है। अस्तित्व तो है। नदी में जो कण-कण था, वह खोया नहीं है, वह सब है। हाँ, नदी की तरह नहीं है, सागर की तरह है। और नदी की तरह अब नहीं खोजा जा सकता। नदी मर गई लेकिन नदी का जो अस्तित्व था वह पूरा का पूरा सुरक्षित है। प्रश्न : फिर माप कहते हैं कि छोड़ना तो आत्मघाती है। उत्तर : हाँ, बिल्कुल आत्मघाती है। छोड़ने को भाषा ही आत्मघाती है । नदी से मत कहो कि नदी होना छोड़ो । नवी से कहो कि सागर होना सीखो। नदी से मत कहो कि छोड़ो, नदी से कहो कि भोगो। विराटता के पहले रुको मत । दौड़ो, कूद जाओ सागर में, भोगो, सागर को भोगो। मुझे लगता है कि जगत् को ज्यादा पार्मिक जीवन दिया जा सकता है। क्योंकि जो हमारा सामान्य चित्त है और सामान्य चित्त का जो भाव है, वह भोगने का है, त्यागने का नहीं है । और सामान्य विरा को अगर धर्म की ओर उठाना है तो उसे विराट भोग का मामंत्रण बनाना चाहिए । अभी उल्टा हो गया है। जो छोटा-मोटा भोग चल रहा है उसके भी निषेध करने का आमंत्रण बना हआ है। उसे भी इन्कार करो। और यह मैं मानता हूँ कि अगर हम विराट को भोगने जाएंगे तो क्षुद्र का निषेध करना पड़ेगा। नदी को सागर बनना है तो वह नदी नहीं रह जाएगी। यह कोई कहने की बात नहीं है। नदी को सागर बनना है तो उसे नदी होना छोड़ना ही होगा। लेकिन इस बात पर जोर मत दो। ___ दो घटनाएं घट रही हैं । नदी मिट रही है-एक घटना। नदी सागर हो रही है-दूसरी घटना । किस पर जोर देते हैं, आप ? अगर सागर होने पर जोर देते हैं तो मैं मानता हूँ कि ज्यादा नदियों को आप आकर्षित कर सकते हैं कि वे सागर बन जाएं। अगर बाप कहते है कि नही मिट जाओ, सागर को बात मत करो तो शायद ही कोई एक बाष नदी को आप तैयार कर लें जो मिटने को राजी हो जाए, जो नदी होने से घबड़ा गई हो। बाकी नदियां तो रुक जाएंगी और कहेंगी: हम बहुत आनन्दित है। हमें नहीं मिटना है। हाँ मिटना तभी सार्थक है जब विराट का मिलना सार्थक हो रहा हो, अर्य दे रहा हो। Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २१ तो मेरा जोर इस बात पर है कि धर्म का त्याग मत करो। धर्म को बिहाद भोग बनाओ । त्याग आएगा, वह सीधा अपने आप होगा । अगर आपको आगे की सीढ़ी पर पैर रखना है तो पिछली सीढ़ी छूटेगी । लेकिन इस पर जोर मत दो कि पोछे की सीढ़ी छोड़नी है । जोर इस पर दो कि आगे की सीढ़ी पानी है । ६५७ प्रश्न : जैसे त्याग शब्द ने गलती की अब तक, वैसे आपका भोग शब्द भी गलती कर सकता है ? उत्तर : बिल्कुल कर सकता है । सब शब्द गलती करते हैं । शब्द कोई हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा । सब शब्द गलती कर सकते हैं क्योंकि अन्ततः शब्द गलती नहीं करते, अन्ततः लोग गलती करते हैं। लेकिन त्याग शब्द व्यर्थ हो गया है । और त्याग के विपरीत कोई शब्द नहीं है सिवाय भोग के । लेकिन जो मैं कह रहा हूँ अगर उसे ठीक से समझा जाए तो मेरा भोग त्याग के विपरीत नहीं है । मेरा भोग त्याग में से ही है क्योंकि मैं कह रहा हूँ कि दूसरी सीढ़ीचर पैर रखना है तो पहली सीढ़ी छोड़नी ही पड़ेगी । लेकिन मेरा जोर दूसरी सीढ़ी पर पैर रखने पर है । मेरा जोर आगे बढ़ने पर है । मेरा जोर पिछली सोढ़ी छोड़ने पर नहीं है। जोर इस बात पर है कि अगली सीढ़ी पाओ। इसे मैं भोग कह रहा है । पिछला जोर इस बात पर था कि जिस सीढ़ी पर खड़े हो उसे छोड़ो। वह जोर छोड़ने पर था । पिछली सीढ़ी छोड़ो-इसके लिए बहुत कम लोगों को राजी किया जा सकता है क्योंकि जिस तरह हम खड़े हैं, उसे भी छोड़ दें यह कठिन है। हीं, जो उस सीढ़ी पर अत्यन्त दुःख में है, शायद वह छोड़ने को राजी हो जाए। वह कहे कि इससे बुरा तो कुछ नहीं हो सकता, यह तो छोड़ ही देते हैं फिर जो होगा, होगा । I रुग्ण चित्त त्याग की भाषा को समझ लेता है, स्वस्थ चित्त त्याग की भाषा को नहीं समझ सकता। वृद्ध चित्त त्याग की भाषा को समझ लेगा, युवा चित्त त्याग की भाषा को नहीं समझ सकेगा । इसलिए मैं कह रहा हूँ कि पिछले पाँच हजार वर्षों में धर्म ने जो भी रूपरेखा ली है, वह रुग्ण, विक्षिप्त, वृद्ध, बीमार — इस तरह के लोगों को आकृष्ट करने का कारण बनी । 'त्याग' शब्द पर जोर देने का परिणाम यह हुआ कि जो स्वस्थ जीवन्त, जीने के लिए लालायित है वह उस ओर नहीं गया है। उसने कहा : जब जीवन की लालसा चली जाएगी, तब देखेंगे, अभी तो हमें जीना है । ४२. Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६५० महावीर : मेरी रष्टि में . में यह कह रहा हूँ कि यह जो जीवन्त धारा है, इसे आकृष्ट करो। और यह तभी बाकृष्ट होगी जब विराट् जीवन का स्याल इसके सामने होगा कि छोड़ना नहीं है, पाना है । और छोड़ना होगा ही इसमें क्योंकि बिना छोड़े कुछ भी पाया नहीं जा सकता है। असम्भव ही है कि हम बिना छोड़े कुछ भी पा लें। कुछ भो हम पाने चलेंगे तो कुछ छोड़ना पड़ेगा। और इसलिए सवाल छोड़ने के विरोध का नहीं है। सवाल जोर का है, हम किस चीज पर जोर दें। भोग शब्द में बहुत निन्दा छिप गई है। वह त्यागियों ने पैदा की है। इसलिए मैं भोग का ही उपयोग करना चाहता हूँ, जानबूझ कर । क्योंकि वह जो भोग की निन्दा है, वह इन त्यागियों ने ही पैदा की है। वे कहते हैं कि भोग की बात ही मत करो, रस की बात ही मत करो, सुख की बात ही मत करो, क्योंकि त्याग करना है। मेरा कहना है कि यह पूरी की पूरी भाषा गलत हो गई है । इसने गलत तरह के आदमी को आकृष्ट किया है, स्वस्थ आदमी को आकृष्ट नहीं किया है। . . जीवन को भोगना है उसकी गहराइयों में । जीवन को जीना है उसकी आत्यन्तिक उपलषियों में, उसके पूर्ण रस में, उसके पूर्ण सौन्दर्य में । परमात्मा इन अर्थों में प्रकट होना चाहिए कि जो व्यक्ति जितना परमात्मा में जा रहा है उतने जीवन की गहराइयों में जा रहा है। अभी तक का नो त्यागवादी रुख था वह ऐसा था कि जो व्यक्ति परमात्मा की ओर जा रहा है, वह जीवन की ओर पीठ कर रहा है, वह जीवन को छोड़कर भाग रहा है, वह जीवन की गहराइयों में नहीं आ रहा है, वह जीवन को इन्कार कर रहा है। वह कहता है कि जीवन हमें नहीं चाहिए, हमें मृत्यु चाहिए इसलिए; वह मोत की बातें करता है । दूसरी ओर अगर कोई जीवन को मानकर चलेगा तो भी सब छूट जाएगा लेकिन तब उस छूटने पर जोर नहीं होगा। मेरा जोर यह है कि आपके हाथ में पत्थर है तो मैं आपसे नहीं कहता कि आप पत्थर फेंक दो। मैं आपसे कहता हूँ : सामने हीरों की खदान है। मैं नहीं कहता कि पत्थर फेंको। मैं कहता हूँ कि हीरे बड़े पाने योग्य हैं और सामने चमक रहे हैं । मैं यह जानता हूँ कि हाथ खाली करने पड़ेंगे। क्योंकि बिना हाथ खाली किए होरों से हाथ भरेंगे कैसे ? पत्पर छूट जाएंगे, लेकिन यह छूटना बड़ा सहज होगा। आपको शायद पता भी नहीं चलेगा कि अब आपने हाथ से पत्थर गिरा दिए और हीरे हाथ में भर लिए। शायद आपको ख्याल भी नहीं आएगा कि मैंने पत्थर छोड़े क्योंकि जिसे होरे मिल गए वह पत्थर छोड़ने की Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरप्रवचन-२१ बात ही नहीं कर सकता। लेकिन पुराना जोर इस बात पर था कि पत्थर छोड़ो और इसलिए ऐसे लोग हैं जो पत्थर छोड़ने के आधार पर ही जिन्दगी भर जी रहे हैं कि हमने पत्थर छोड़े। उन्हें कुछ मिला कि नहीं, इसका कुछ पता नहीं, उन्हें आगे की सीढ़ी मिली कि नहीं, इसका कुछ पता नहीं क्योंकि मैं यह कहता हूँ कि यह हो सकता है कि पत्थर छोड़ दिए जाएं और होरे न मिले। लेकिन यह कभी नहीं हो सकता कि हीरे मिल जाएं और पत्थर न छोड़े जाएं। हाथ खाली भी रह सकते हैं। ___ त्याग की भाषा में बहुत से लोगों के हाथ खाली भी करवा दिए हैं । तो जिसके हाय खाली है, वह उन लोगों पर क्रोध से भर जाता है जिनके हाथ भरे हैं । इसलिए हमारा साधु-संन्यासी बहुत ग्लानि में जीता है। वह चौबीस घंटे उनकी निन्दा कर रहा है जिनके हाथ भरे है, जो भोग रहे हैं, जो जीवन में सुख पा रहे हैं। वह उन सब को गालियां दे रहा है; उनको नरक भेजने का इन्तजाम कर रहा है । उनको आग में जलवा डालेगा, वह इन्तजाम कर रहा है। यह उसकी मानसिक तृप्तियाँ है । वह खाली हाथ का आदमी उन लोगों से बदला ले रहा है, जिनके हाथ भरे हुए हैं और जो राजी नहीं है खाली हाथ करने को। और जो लोग उनके आस-पास इकटे हुए हैं उनको भी उसके हाथ खाली दिखाई पड़ते हैं, भरा हुआ कुछ दिखाई पड़ता नहीं। क्योंकि मेरा मानना यह है कि अगर भरा हुआ कुछ दिखाई पड़े तो स्वाभाविक होगा कि हम भी उसी यात्रा पर निकल जाएं जहाँ आदमी और भी भर गया है। आप एक संन्यासी के पास जाते हैं, एक त्यागी के पास जाते हैं तो आप भला कितनी ही प्रशंसा करें उसके त्याग की, आप कितना ही कहें कि 'बड़े हिम्मत का आदमी है, इसने यह छोड़ा, वह छोड़ा, लेकिन न तो उसकी आँखों में, न उसके व्यक्तित्व में, न उसके जीवन में, यह सुगंध दिखाई पड़ती है जो कुछ आने की है। मेरा मानना है कि अगर उसके जीवन में कुछ आ जाए तो वह भी त्याग की बातें बन्द कर दे क्योंकि वह भूल जाएगा उन पत्थरों को जो छोड़े हैं । अब हीरों की चर्चा होगी जो पाए हैं। लेकिन जो भो त्याग की बातें वह करते चला जा रहा है, अभी भी पत्थर छोड़ने की बातें करता चला जा रहा है, निश्चित है कि उसके हाथ में कुछ और नहीं पाया है। पत्थर छूट गए है । अब एक ही रस रह गया है कि मैंने इतने पत्थर छोड़े, मैंने यह छोड़ा, वह छोड़ा। यही उसका रस रह गया है । और हम जो चारो ओर इकट्ठे लोग हैं, हमें भी और कुछ दिखाई नहीं पड़ता है उसमें । सिर्फ छोड़ना दिखाई पड़ता है। Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में छोड़ना कभी भी चित्त के लिए आकर्षण नहीं बन सकता । असहज सहज नहीं है । पाना ही चित्त के लिए सहज आकर्षण है। तो अगर वह हमारे स्याल में हो जाए, अगर वह साफ हो जाए तो महावीर ने घर छोड़ा - इस भाषा को हम नहीं बोलेंगे। महावीर ने घर छोड़ा यह तथ्य है। तथ्य इतना है देखें यह हम पर कि महावीर घर में नहीं रहे। लेकिन इसको हम किस तरह से निर्भर है यह महावीर पर निर्भर नहीं है अब । और मेरी दृष्टि यह है कि महावीर घर छोड़कर जितने आनन्दित दिखाई पड़ते हैं, जितने प्रसन्न दिखाई पड़ते हैं, उनके जीवन में जैसी सुगंध मालूम पड़ती है, वह खबर देती है कि घर छोड़ो नहीं, बड़ा घर मिल गया है। अगर घर ही छूटता और बाहर रह गए होते सड़क पर तो यह हालत नहीं होने वाली थी। बड़ा घर मिल गया, महल मिल गया, झोपड़ा ही छूटा है । इसलिए जो छूटा है, उसकी बात ही नहीं । जो मिल गया है, वह चारों ओर से उसको आनन्द से भर रहा है । वह मिला नहीं । लेकिन महावीर के पीछे चलने वाले साधु को देखें । ऐसा लगता है कि वह सड़क पर खड़ा है, जो था वह खो दिया और जो मिलना था तो एक अधूरे में अटक गया है। वह एक कष्ट में जी रहा है, वह एक परेशानी में जी रहा है । और हमें जरा सोच लेना चाहिए कि हम किसी को परेशानी में जीते देखकर आदर क्यों देते हैं ? ६६० • असल में यह भी बड़ी गहरी हिंसा का भाव है। एक आदमी जब परेशानी में होता है तो हम उसको आदर देते हैं । और परेशानी अगर खुद ही स्वेच्छा से ली हैं तब हम और आदर देते हैं । लेकिन यह हमारा प्रावर भी रुग्ण है। असल में हम दूसरे को दुःख देना चाहते हैं, भीतर से हमारे चित्त में यही होता है कि हम किसको कितना दुःख दे दें। और जब कोई ऐसा आदमी मिल जाता है जो दुःख खुद ही वरण करता है तो हम बड़े आदर से भर जाते हैं कि यह आदमी बिल्कुल ठीक है । यह हमारे भीतर की किसी बहुत गहरी आर्काचा को तृप्त करता है । अगर एक आदमी सुखी हो जाए तो आप सुखी नहीं होते । एक आदमी ज्यादा से ज्यादा सुख में जाने लगे तो आप दुःख में जाने लगते हैं । किसी का सुख में जाना आपका दुःख में जाना बन जाता है लेकिन किसी का दुःख में जाना आपका दुःख में जाना नहीं बनता । हालांकि कभी हो जाता है कि कोई आदमी दुःख में पड़ा हो तो आप बहुत सहानुभूति प्रकट करते हैं लेकिन अगर थोड़ा भीतर झांकेंगे तो आप पाएंगे कि सहानुभूति में भी रस. आ रहा है । हो सकता है कोई आदमी बड़ा सुखी हो गया है, या बड़े मकान में जीने Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरप्रवचन-२१ लगा है वो आप प्रशंसा भी करते हो और कहते हो कि बहुत अच्छा है, भगवान् की छपा है लेकिन इसमें भो भीतर ईष्या घाव कर रही होगी लेकिन जब कोई आदमो स्वेच्छा से दुःख में जाता है तब हम उसको बड़ा आदर देते है क्योंकि वह वही काम कर रहा है जो हम चाहते थे कि करे । इसलिए त्यागियों, तपस्वियों, तथाकषित छोड़ने वाले लोगों को जो इतना सम्मान मिला है उसका यही कारण है। आप किसी सुखी आदमी को कभी सम्मान नहीं दे सकते। टुःखी हो, और दुःख मोढा गया हो, तब हम उसके पैरों में सिर रख देंगे कि आदमी अद्भुत है। __ यह भो मेरा मानना है कि मनुष्य जाति भीतर से रुग्ण है, इसकी वजह से त्यागियों को सम्मान मिलता है। अगर मनुष्य जाति स्वस्थ होगी तो सुखी लोगों को सम्मान मिलेगा। जो स्वेच्छा से ज्यादा से ज्यादा सुखी हो गए हैं, उनका सम्मान होगा। और यह भी ध्यान रहे कि हम जिसको सम्मान देते हैं, धीरेधीरे हम भी वैसे होते चले जाते हैं। दुःख को सम्मान दिया जाएगा तो हम दुःखी होते चले जाएंगे; सुख को सम्मान दिया जाएगा तो हम सुख की यात्रा पर कदम बढ़ाएंगे। लेकिन अब तक सुखी आदमियों को सम्मान नहीं दिया गया। अब तक सिर्फ दुःखी आदमियों को सम्मान दिया गया है। यह मनुष्य जाति के भीतर दूसरे को दुःख देने की प्रबल आकांक्षा का हिस्सा है। प्रश्न: क्या त्यागी आपस में एक दूसरे को सम्मान नहीं बैंगे? उत्तर : सम्मान देंगे। अगर बड़ा त्यागी मिल जाए, अपने को ज्यादा दुःख देने वाला मिल जाए तो सम्मान देंगे। कारण वही होगा। छोटा त्यागी बड़े त्यागी को सम्मान देगा। क्योंकि छोटा त्यागी पन्द्रह दिन खाता है, बड़ा त्यागी महीने भर भूखा बैठा हुआ है। छोटा त्यागी बड़े त्यागी को सम्मान देगा लेकिन बात वही है। दूसरे का दुःख देख कर हमारे मन में सम्मान पैदा होने की बात ही एक भयंकर भूल है। Page #571 --------------------------------------------------------------------------  Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६६ महावीर : मेरी दृष्टि में कितना शान्त है, कोन मादमी प्रत्येक चीज से कितना सुख लेता है। समझ लें कि एक आदमी फूल के पौधे के पास खड़ा हुआ है, गुलाब के पास खड़ा हुआ है तो दिखता है कि वह अपना हाथ काटे में चुभो रहा है। वह बादमी हमें नहीं दिखेगा जो फूल की सुगन्ध ले रहा है। वह भी दिख सकता है लेकिन हमने उसे देखा नहीं है। अब तक हमने उस आदमी को आदर दिया है जिसने गुलाब के कांटे को हाथ में चुभो लिया है और खून बहा लिया है। हमने कहा कि यह आदमी अद्भुत है। हमने उस आदमी को आदर दिया। जिसने फूल की सुगंध ली है हमने कहा कि यह आदमी तो साधारण है, फूल की सुगंध कोई भी लेता है। असली सवाल तो काटे चुभोने का है। मगर वास्तविक स्थिति इससे बिल्कुल भिन्न है। कांटा चुभोने वाला भी बीमार है, रुग्ण है और काटा चुभोने वाले को आदर देने वाला भी खतरनाक है, रुग्ण है। फूल सूंघने वाला भी स्वस्थ है और फूल सूंघने वाले को सम्मान देने वाला भी स्वस्थ है। . एक ऐसा समाज चाहिए जहाँ सुख का समादर हो, दुःख का अनादर हो। लेकिन हुमा उल्टा है और इस समाज ने इस तरह का धर्म पैदा कर लिया कि इस जगत् में जो सबसे ज्यादा सुखी लोग ये उनको सबसे ज्यादा दुःखी लोगों की श्रेणी में रख दिया। इसलिए महावीर जैसे व्यक्ति को सर्वाधिक सुखी लोगों में से गिना जाना चाहिए। यानी उनके मानन्द की कोई सीमा लगानी मुश्किल है। यह आदमी चौबीस घंटे मानन्द में है। लेकिन हमारी त्याग की दृष्टि ने वह सारा मानन्द क्षीण कर दिया। हमने यह कहना शुरू किया कि यह मादमी इतने मानन्द में इसलिए है क्योंकि इसने इतना-तना त्याग किया। जो इतनाइतना त्याग करेगा वह इतने आनन्द में हो सकता है लेकिन बात उल्टी है । यह बादमी इतने बानन्द में है इसलिए इससे इतना त्याग हो गया। यह त्याग हो जाना इतने बानन्द में होने का परिणाम है। कोई बादमी इतने भानन्द में होगा तो उससे इतने त्याग हो जाएंगे। लेकिन हमने उल्टा पकड़ा। हमने पकड़ा कि इतने-इतने त्याग किए तो महावीर इतने मानन्द में हुए। तुम भी इतने त्याग करोगे तो इतने बानन्द में हो जाबोगे । बस बात एकदम गलत हो गई। त्याग करने से कोई मानन्द में नहीं हो जाता। हाप के पत्पर छोड़ देने से हीरे नहीं आ जाते। लेकिन हीरे आ जाएं तो पत्थर छूट जाते है। त्याग पीछे है, पहले नहीं। और अगर महावीर को हम इस भाषा में देखें और मुझे लगता है कि यही सही भाषा है उनको देखने की, तो हमारा धर्म के प्रति, जीवन के प्रति दृष्टिकोण अलग होगा। महावीर ने पर नहीं छोड़ा, बड़ा घर पायां । Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २२ मैं छोड़ने की भाषा के ही विरोध में हूँ। बड़ा घर पाया, छोटा घर छूट गया । लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह उसके दुश्मन हो गए। इसका भैतलब सिर्फ यह है कि अब छोटे घर में रहना असम्भव हो गया है । जब बड़ा घर मिल गया है तो छोटा घर उसका हिस्सा हो गया है । ६६७ मैं मानता हूँ कि प्रत्येक चीज भ्रान्ति ला सकती है। यह सवाल नहीं है । अगर इसमें भी चुनाव करना हो तो मैं कहता हूँ कि भोग भी भ्रान्ति ला सकता है । अगर भोग या त्याग दोनों में ही चुनाव करना हो तो मैं कहता हूँ कि फिर भोग ही ठीक है क्योंकि वह जीवन के स्वस्थ, सहज और सरल होने का प्रतीक है । और यह भी बड़े मजे की बात है कि जो आदमी भोगने चलेगा उससे त्याग धीरे-धीरे अनिवार्य हो जाएँगे । वह जैसे-जैसे भोग में उतरेगा वैसे-वैसे बड़े भोग की सम्भावनाएँ प्रकट होंगी । और त्याग उससे अनिवार्य हो जाएंगे । लेकिन जो आदमी त्याग करने चलेगा, उससे पुराने भोग की सम्भावनाएँ छिन जाएंगी और नये भोग की सम्भावनाएं प्रकट नहीं होंगी। वह आदमी सूखता चला जाएगा । यानी यह बात सच है कि ज्यादा खाना भी खतरनाक है, न खाना भी खतरनाक है । फिर भी अगर दोनों में चुनाव हो तो मैं कहूँगा ज्यादा खाना चुन लेना क्योंकि न खाने वाला तो मर ही जाएगा नाहक । ज्यादा खाने वाला बीमार ही पड़ सकता है । ओर ज्यादा खाने वाला आज नहीं, कल इस अनुभव को पहुँच जाएगा कि कम खाना सुखद है। लेकिन न खाने वाला कभी इस अनुभव पर नहीं पहुंचेगा क्योंकि वह मर ही जाएगा । से लौटने का कोई मेरा कहना यह है कि अगर भूल भी चुननी हो तो सोच-समझकर चुमनी चाहिए । भूल सब जगह सम्भव है क्योंकि आदमी अज्ञान में है । इसलिए जो कुछ भी पकड़ता है तो वह भ्रान्ति ला सकता है लेकिन फिर भी भ्रान्ति ऐसी चुननी चाहिए जिससे लोटने का उपाय हो । जैसे न खाने उपाय नहीं है, लेकिन ब्यादा खाने से लोटने का उपाय है। साफ समझ रहे है न ? ज्यादा खाने से लोटने का उपाय है खुद दुःख देगा फिर लौटना पड़ेगा। लेकिन न खाना दुःख नहीं देगा, समाप्ति कर देगा, मिटा ही डालेगा। उससे लौटने की सम्भावना कम हो जाएगी । मेरा मतलब आप और ज्यादा साना फिर यह बात तो ठीक ही है कि सभी शब्द हमें भरमा सकते हैं, भटका सकते हैं क्योंकि हम शब्दों से वही अर्थ निकाल लेना चाहते हैं, जो हम चाहते. हैं कि निकले। हम यह नहीं देखना चाहते कि जो कहा गया है वह हमेशा Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबीर । मेरी दृष्टि में रहेगा । इसलिए जो आदमी जिन शब्दों का प्रयोग करता है, उन शब्दों के लिए बहुत साफ दृष्टि साथ देनी चाहिए। मैं कह रहा हूँ कि भोग अन्ततः त्याग बन जाता है, लेकिन त्याग अन्ततः भोग नहीं बनता । एक वेश्या भी ब्रह्मचर्य को उपलब्ध हो सकती है लेकिन जो जबरदस्ती ब्रह्मचर्य थोप कर साध्वी बन गई है, उसका ब्रह्मचर्य को उपलब्ध होना बहुत मुश्किल है। एक वेश्या का अनुभव निरन्तर उसे ब्रह्मचर्य की दिशा में गतिमान करता है । लेकिन थोपा हुमा ब्रह्मचर्य निरंतर वासना की दिशा में गतिमान करता है। प्रश्न : वे लोग जो खुद को कोड़े मारते हैं अथवा दूसरे को कोड़े मारते हैं, स्वयं को दुख देते हैं अपवा दूसरों को दुःख देते हैं वे सारे लोग कामशक्ति के विकृत रूप ( सेक्स परवदस) हैं। इसी ढंग से इषर हम जिन्हें त्यागी कहते हैं वे कामशक्ति के विकृत रूप हैं और निर्माता हैं साधु के । दोनों सेक्स परवत्स में क्या अन्तर है ? क्या हम दोनों को एक ही स्तर पर रख सकते हैं? तर : आपकी बात बहुत ठीक है। सारे पिछले सौ वर्षों के मनोविज्ञान को खोज यह है कि दूसरे को दुःख देना या अपने को दुःख देना या दुःखियों को आदर देना या दुःख की सम्भावना को सहारा देना किसी न किसी प्रकार की कामशक्ति का विकृत रूप है। यह बिल्कुल ही सच बात है । इसे समझना जरूरी है । असल में काम या सेक्स निम्नतम सम्भावना है सुख को। समझना चाहिए कि काम प्रकृति के द्वारा दिया गया सुख है इससे कोई ऊपर उठे, और बड़े सुख को खोज ले तो फिर काम के सुख की जरूरत नहीं रह जाती। धीरे-धोरे काम रूपान्तरित हो जाता है और अन्ततः ब्रह्मचर्य बन सकता है लेकिन इससे बड़े सुख को न खोजें और इस सुख को भी इन्कार कर दें तो फिर दुःख को सम्माबनाएं शुरू हो जाती हैं। यह सीमारेखा है। कामवासना के नीचे दुःख की सम्भावनाएं हैं, कामवासना के ऊपर सुख की सम्भावनाएं है। अगर कोई बड़े सुखको खोज ले तो कामवासना से मुक्त हो जाता है। अगर कोई बड़े सुख को न खोजे और कामवासना को इन्कार कर दे तो नीचे दुःखों में उतर आता है। तो कामवासना बीच की रेखा है जहाँ से हमारे सुख दुःखों में रूपान्तरित होते हैं । यह सीमारेखा है, जहां नीचे दुःख है, ऊपर सुख है। इसलिए दुःखी आदमी कामी हो जाता है। सुखी आदमी कामी नहीं होता। क्योंकि दुःखो के लिए ही सुख है । जैसे दरिद्र समाज है, दोन समाज है, दुःखी समाज है तो वह एकदम बच्चा पैदा करेगा। गरीब आदमी जितने बच्चे पैदा करता है, अमोर Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२२ ६६९ आदमी नहीं करता । अमीर आदमी को अक्सर गोद लेने पड़ते हैं । उसका कारण है कि गरीब आदमी के पास एक ही सुख है बाकी सब दुःख ही दुःख है। इस दुःख से बचने के लिए एक ही मौका है उसके पास कि वह कामवासना में चला जाए। एकमात्र सुख का जो अनुभव उसे हो सकता है, वह वही है। अमीर आदमी को और भी बहुत सुख है । सुख फैल जाता है तो कामवासना तीव नहीं रह जाती । उसकी तीव्रता कम हो जाती है । सुख कई जगहों में फैल जाता है। वह बहुत तरह के सुख लेता है-संगीत का भी, साहित्य का भी, नृत्य का भी, विधाम का भी। उसका सुख और तलों पर फैलता है। फैलने की वजह से काम की तीव्रता कम हो जाती है। गरीब और किसी तरह के सुख नहीं लेता। बस एक ही तरह का सुख रह जाता है। वह सेक्स भर उसको सुख देता है। बाकी सब दुःख हैं दिन भर । सिर्फ मेहनत, गिट्टी फोड़ना, तोड़नावही सब है। सेक्स है प्रकृति के द्वारा दिया गया सुख । अगर कोई आदमी इसमें ही जीता चला जाए तो सामान्यतः जीवन दुःख होगा, सेक्स सुख होगा । और आदमी सारे दुःख सहेगा सिर्फ सेक्स के सुख के लिए । लेकिन अगर इससे ऊपर उठना शुरू हो जाए यानी और सुख खोजें, वहीं धर्म का जगत् है, सेक्स के ऊपर सुख खोजने का जगत् है । जैसे-जैसे सेक्स के ऊपर सुख मिलना शुरू होता है वह शक्ति जो सेक्स से प्रकट होकर सुख पाती थी, नये द्वारों से झांक कर सुख पाने लगती है और धीरे-धीरे सेक्स के द्वार से विदा लेने लगती है, ऊपर उठने लगती है। इसको कोई कुंडलिनी कहे, कोई और नाम दे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। मामला केवल इतना है कि सेक्स सेण्टर के पास सारी शक्ति इकट्ठी है। वह रिजरवायर है। अगर आप शक्ति को ऊपर ले जा सकते हैं तो वह रिजरवायर नीचे की तरफ शक्ति को फेंकना बंद कर देगा। और अगर आप ऊपर नहीं ले जा सकते तो वह रिजरवायर रिलीज करेगा । और बड़े मजे की बात है कि सेक्स का जो सुख है साधारणतः वह रिलीज का ही सुख है । इतनी शक्ति इकट्ठी हो जाती है कि वह भारी हो जाती है तो वह उसको रिलीज कर देता है । अब समझ लो एक आदमी ऊपर भी नहीं गया और सेक्स के रिजरवायर को भी उसने रिलीज करना बंद कर दिया तो अब उसकी शक्तियां नीचे उतरनी शरू होंगी, सेक्स से भी नीचे क्योंकि सेक्स सुख की सीमा है। उसके नीचे दुःख की सीमाएं है। और ये शक्तियां क्या करेंगी ? अब ये किया क्या करेंगी? Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७० महावीर : मेरी दृष्टि में या तो ये दुःख को सताएंगी या दूसरे को सताएंगी। और मजे की बात यह है कि जो मजा आएगा वह सेक्सुअल जैसा ही है। यानी जो आदमी अपने को कोड़े मार रहा है, वह कोड़े मार कर उतनी शक्ति रिलीज कर देगा जितनी सेक्स से रिलीज होती तो सुख देती । उतनी शक्ति रिलीज होने पर वह थक कर विश्राम करेगा । उसको बड़ा आराम मिलेगा । हमको लगेगा कि उस आदमी ने बड़ा कष्ट दिया अपने को । उसके लिए एक तरह का आराम है क्योंकि वह शक्ति रिलिज हो गई । ऐसा आदमी खुद को दुःख देने में सुख पाने लगेगा। यह एक तरह का खुद को दुःख देने में सुख पाना है । जो आदमी खुद को दुःख देने में सुख पाने लगेगा, वह दूसरों को दुःख देने में भी सुख पाने लगेगा । वह दूसरों को भी सताएगा । वह दूसरों को भी परेशान करेगा । वह दूसरों को भी परेशान करने के कई उपाय खोजेगा | आपने पूछा है कि क्या धार्मिक विकृत परवर्ट) व्यक्ति और साधारण विकृत व्यक्ति में कोई फर्क है । मेरा कहना है कि थोड़ा फर्क है । साधारण विकृत व्यक्ति उस धार्मिक विकृत व्यक्ति से अच्छी हालत में इसलिए है कि उसको भी यह बोध निरन्तर होगा कि कुछ पागलपन हो रहा है, कुछ गलती हो रही है, कुछ भूल हो रही है, मैं कुछ बीमार हूँ । धार्मिक विकृत को यह बोध भी नहीं होता । वह समझता है कि उससे गलती हो ही नहीं रही। वह साधना कर रहा है। वह सहो कर रहा है । और जो वह कर रहा है उसके लिए उसने न्याययुक्त कारण खोज रखे हैं । इसलिए वह कभी अपने को पागल, विक्षिप्त या रुग्ण नहीं समझेगा । दूसरी बात यह है कि साधारण विक्षिप्त आदमी अपनी विक्षिप्तता को छिपाएगा, प्रकट नहीं करेगा। हो सकता है कि वह रात में अपनी पत्नी की गर्दन दबाए, कांटे चुभोए । 'डी सादे' एक बहुत बड़ा लेखक हुआ । उसके प्रेम करने का ढंग हो यही था । उसी से दुःखवादी (सैडिस्ट) शब्द बना । वह जब भी किसी स्त्री को प्रेम करता उसके लिए कोड़ा, चाकू, कांटे अपने साथ रखता । एक ही बैग था उसके पास । जब वह किसी स्त्री को प्रेम करता तब वह दरवाजे बन्द कर देता । उसका पहला काम यह था कि वह उसको नग्न कर देता और कोड़े मारना शुरू कर देता । वह भागती और चिल्लाती । वह जितनी चीखती और चिल्लाती उता उसको आनन्द आने लगता । वह कांटे चुभोता। आम तौर से हमको ख्याल में Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पस्तोसर प्रवचन-२२ ६७१ नहीं आता है कि अगर प्रेम में कोई व्यक्ति किसी स्त्री को नाखून खपा रहा है, नोच रहा है तो किसी अंश में यह सैडिज्म है। अब एक आदमी जरा इसमें आगे चला गया, उसको नाखून काफी नहीं मालूम पड़ते, तो उसने कांटे बना रखे हैं । लेकिन मजे की बात यह है कि दो सादे' से सैकड़ों स्त्रियों का सम्बन्ध रहा । वह बहुत अद्भुत आदमी था । उसको न मालूम कितनी स्त्रियाँ प्रेम करती थीं-वह ऐसा आदमी था। वह बड़ा प्रतिभाशाली भी था। जिन स्त्रियों ने उसको प्रेम किया उनका भी कहना है कि जो आनन्द उसके साथ आया वह कभी किसी के साथ नहीं आया । अब यह बड़े मजे की बात है कि उसका कोड़ा मारना भी स्त्रियां पसंद करती थीं। कारण कि वह कोड़े मार कर इतनी वेदना पैदा कर देता कि वे दौड़ रही हैं, वह कोड़े मार रहा है, कांटे चुमो रहा है, बाल खींच रहा है, नाखून चुभो रहा है, काट रहा है तो स्त्रो के पूरे शरीर को वह इतना कम्पन से भर देता कि जब वह सेक्स में जाता उसके साथ तो स्त्री आनन्द की चरम सीमा को उपलब्ध होती जो कि साधारणतः स्त्रियां महीं छ पातीं । सम्भोग में सो में से निन्यानवें स्त्रियाँ आनन्द की चरम सीमा को कभी नहीं पहुँच पातीं क्योंकि उनका पूरा शरीर ही नहीं जग पाता । तो इतना सताने के बाद भी वे उसको पसंद करतीं। वह आदमी अद्भुत था। और उसका कहना था कि जब तक मैं सता न लूँ तब तक मुझे कुछ आनन्द आता ही नहीं। ठीक डी सादे जैसा एक दूसरा आदमी था 'मेसोच' जिसके नाम पर 'मैसोचिज्म' चला है। वह अपने को सताता था । और सता कर बड़ा सुखी होता था। असल में हमारे पास जो शक्ति बच जाती है, या तो हम उसे सुख को दिशा में गतिमान कर सकते हैं या फिर दुःख की दिशा में । दो ही दिशाएं हैं । तीसरी कोई दिशा नहीं। आप ठहर नहीं सकते बीच में। या तो आप सुख की दिशा में अपने को ले जाएं, नहीं तो फिर शक्तियों दुःख की दिशा में जाना शुरू हो जाएंगी। ____ अब एक तीसरा आदमो भी है जो थोड़ा अपने को भी सताता है, थोड़ा दूसरे को भी सताता है। सताने के कई ढंग हो सकते हैं जो हमको ख्याल में नहीं आते । असल में आदमी कैसे-कैसे सताता है, वह हमें पता ही नहीं चलता। जब वह सीमा के बाहर हो जाता है तब पता चलना शुरू होता है कि मामला गड़बड़ हो गया, यह आदमी कुछ गड़बड़ हो गया। मैं यह कह रहा है कि दो ही दिशाएं हैं। अगर आप बीच में ठहरते हैं तो दोनों दिशाओं का गोलमोल ' आपके व्यक्तित्व में होगा। कभी आप सताएंगे, कभी न सताएंगे। इसलिए यह Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७२ महावीर : मेरी दृष्टि में होता है कि पति कमी पत्नी को सताएगा भी, कभी प्रेम भी करेगा। सताएगा फिर प्रेम करेगा, प्रेम करेगा फिर सताएगा। पत्नी भी सताएगी। एक दिन प्रेम करती दिखाई पड़ेगी, दूसरे दिन सताती दिखाई पड़ेगा। सुबह उपद्रव मचाएगी, सांझ पैर दाबेगी। यह कुछ समझ में आना मुश्किल होता है कि यह दोनों बातें एक साथ क्यों चलती है। और ध्यान रहे कि जिससे हमने थोड़ी देर प्रेम किया, थोड़ी देर बाद हम उसको सताएंगे। अक्सर यह होता है कि पति-पत्नी लड़ते-लड़ते प्रेम में आ जाते हैं और प्रेम में आते-आते लड़ना शुरू कर देते हैं। यह तो रही साधारण व्यक्ति को बात लेकिन जो असाधारण ( एबनार्मल ) व्यक्ति है वह या तो सुख की दिशा में चला जाता है या दुख की दिशा में चला जाता है । लेकिन सुख की दिशा में जाने से शायद वह अन्ततः परमात्मा तक पहुंच जाता है क्योंकि परमात्मा परम सुख है । और दुःख की दिशा में जाने से शायद वह शैतान तक पहुंच जाता है क्योंकि शैतान होना अन्तिम दुःख है। यहां एक और बात को भी समझ लेना जरूरी है कि धार्मिक आदमी इन कामों को प्रकट में करेगा; अधार्मिक आदमी इनको अप्रकट में करेगा। धार्मिक आदमी ज्यादा खतरनाक भी है क्योंकि वह प्रकट में करके उनको फैलाता भी है, उनका विस्तार भी करता है। वह लोगों में यह भाव भी पैदा करता है कि जो वह काम कर रहा है वे कोई विक्षिमता के नहीं। वे काम बड़ी साधना के हैं। और पागल आदमी को यह ख्याल में आ जाए कि वह ऊंची बात कर रहा है तो पागलपन के ठीक होने की सम्भावना ही नहीं रहती। हिन्दुस्तान में पागलों की संख्या कम है, यूरोप में पागलों की संख्या ज्यादा है। लेकिन अभी संन्यासी, साधुनों और अपने को सताने वालों की संख्या हिन्दुस्तान के पागलों से जोड़ दी जाए तो संख्या बराबर हो जाती है। वहाँ जो आदमी पागल है वह पागल है; जो आदमी पागल नहीं है वह पागल नहीं है । यहाँ पागल और गैर पागल के पीछे एक रास्ता दूसरा ही है। जबलपुर में एक भादमी है जो एक सौ आठ बार बर्तन साफ करेगा तब पानी भर कर लाएगा। यह आदमी यूरोप में हो तो पागल समझा जाएगा। यह आदमी हिन्दुस्तान में है तो धार्मिक समझा जाता है। लोग कहते हैं कि परम पार्मिक आदमी है, शुद्धि का कैसा ख्याल है। यह आदमी एक सौ माठ बार बर्तन साफ करता है। और इसमें भी अगर कोई स्त्री निकल गई बीच में तो Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२२ टूट गई पहली श्रृंखला । वह फिर एक से शुरू करेगा। यह आदमी धार्मिक है। कई लोग इसके पैर छुएंगे और कहेंगे कि आदमी परम धार्मिक है। कभी-कभी उसका दिन-दिन लग जाएगा इसी में क्योंकि वह नल पर बर्तन धो रहा है, और स्त्री फिर निकल गई, अशुद्ध हो गया बर्तन । अब वह फिर शुद्ध कर रहा है । अब यह आदमी अगर यूरोप में हो तो फौरन पागलखाने में भेज दिया जाएगा। मंगर यहां वह मन्दिर में बैठ जाएगा, पुजारी हो जाएगा, साधु हो जाएगा। इसको आदर मिलने लगेगा। तो धार्मिक पागलपन ज्यादा खतरनाक है। महावीर के जीवन की एक घटना है। महावीर ने सब तरह के उपकरण बन्द कर दिए हैं। वह साथ में कोई सामान नहीं रखेंगे क्योंकि साधन भी एक बोझ हो जाता है । जिस व्यक्ति ने सारे जीवन को अपना ही मान लिया है वह समझ गया कि अब ठीक है, कल सुबह जो होगा, होगा। तो महावीर कुछ साथ न रखेंगे। कौन बोझ को ढोता फिरे ? वह बाल बनाने का उस्तरा भी नहीं रखते। जब बाल बहुत बढ़ जाते हैं तो उनको उखाड़ देते हैं । महावीर के लिए यह बाल का उखाड़ना भी विक्षिप्तता का कारण नहीं है। यह अत्यन्त सहज बात है क्योंकि कुछ रखना नहीं है साथ । सरलतम यही है कि बाल उखाड़ दिए, साल-दो साल में बढ़ गए, फिर उखाड़ दिए, यात्रा चलती रही। इतना भी सामान साथ क्यों रखकर बांधना ? क्यों बोझ लेना है क्योंकि सामान का बोझ नहीं है गहरे में लेकिन सामान को पकड़ कर रखने में सुरक्षित होने की कामना है । और वह असुरक्षित ही पूरा जीते हैं। कोई सुरक्षा का भाव नहीं, कुछ रखने का भाव नहीं। जहाँ जो मिल गया वही हाथ में लेकर खा लेते हैं । कोन बर्तन का उपद्रव साथ में करे ? लेकिन महावीर का यह बाल उखाड़ना कुछ पामलों के लिए बहुत आकर्षक मालूम पड़ा होगा। पागलों का एक वर्ग है जो बाल उखाड़ता है, जो बाल उखाड़ने में रस लेता है। वह भी एक तरह का सताना है अपने को। तो इसमें कठिनाई नहीं है कि महावीर का बाल उखाड़ना देखकर कुछ पागल बाल उखाड़ने में रस लेने लगे हों, महावीर के पीछे साधु हो गए होंगे इसलिए कि अब बाल उखाड़ने से कोई उनको पागल नहीं कह सकता। ___ महावीर नग्न हो गए हैं क्योंकि अगर कोई व्यक्ति इतना सरल हो जाए, इतना निर्दोष हो जाए कि उसे नग्नता का बोध ही न रहे तो कोई बात नहीं। खुद को नग्नता का बोध हमें तभी तक होता है जब तक हम दूसरे के शरीर को नग्न देखना चाहते हैं। जब तक हमारा शरीर कोई नग्न देख ले इससे भयभीत ४३. Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ tor महावीर : मेरी दृष्टि में होते हैं। यह दोनों बातें एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जब तक हम दूसरे के तब तक हम खुद पर कपड़े ढाँकना चाहते हैं । लेकिन शरीर को नग्न देखने का भाव चला गया हो वह खुद महावीर नग्न खड़े हो गए । लेकिन कुछ लोग हैं जो अपने को नंगा दिखाना चाहते हैं । यह पागलों का वर्ग है। तो महावीर के पासपास ऐसे संन्यासी हो गए हैं जो यह चाहते हैं कि कोई उन्हें नंगा देखे यानी उनकी चाह बिल्कुल दूसरी है। लेकिन घटना एक सो मालूम होती है कपड़े उघाड़ना चाहते हैं जिस आदमी का दूसरे के नग्न खड़ा हो सकता है । अभी यूरोप में और कई मुल्कों में ऐसे लोग हैं जो रास्ते के किनारे पर खड़े रहेंगे। जब कोई अकेला निकल रहा है तो पेन्ट खोलकर, नंगा होकर एकदम भाग जाएंगे उसको दिखाकर इन पर रोक है कि ये आदमी खतरनाक है । अब इनको क्या हो रहा है ? इनको क्या रस आ रहा है ? दूसरा इनको नंगा देख ले यह इनका रस है । और ये पागल हैं । ये निपट पागल हैं । लेकिन हिन्दुस्तान में ये नंगे साधु हो सकते हैं और तब इनका पागलपन हमको पता ही नहीं चलेगा | अब कठिनाई यह है कि जीवन में दोनों घटनाएँ घट सकती हैं । एक आदमी इसलिए नग्न हो सकता है कि अब उसके मन में नग्नता को छिपाने, ढाँकने, देखने का कोई भाव ही नहीं रहा । वह परम सरल हो गया है तो बच्चे की तरह नग्न हो सकता है । और एक आदमी पागल की तरह नग्न हो सकता है लेकिन नग्न होने में उसे रस है कि लोग उसे नंगा होते हुए देखें | और यह दोनों घटनाएँ एक साथ घट सकती हैं । इसलिए बड़ी कठिनाई है जीवन को साफ-साफ समझने में । लेकिन कठिनाई पहचानी जा सकती है, नियम बनाए जा सकते हैं । जो आदमी सरलता की वजह से नग्न हुआ है, वह जीवन के और हिस्सों में भी सरल होगा। मगर जिसे नग्नता का आनन्द है उसके लिए यह भोग का ही हिस्सा है । उसके लिए, कपड़े छोड़े, जोर इस पर नहीं, लेकिन नग्नता आई, जोर इस पर है । दूसरी ओर एक आदमी ऐसा है जिसका जीवन इतना सरल हो गगा जैसे एक बच्चे का, पशु-पक्षी का वह नग्न खड़ा हो गया । लेकिन यह आदमी जीवन के दूसरे हिस्सों में एकदम सरल होगा, निष्कपट होगा, निर्दोष होगा । इसके जीवन के दूसरे हिस्सों में Pod सरल और निर्दोष कि कहीं पागलपन के लक्षण नहीं होंगे। है कि दूसरे लोग उसको नंगा देखें, लेकिन जो आदमी सिर्फ इसलिए नग्न हुआ यह उसकी बीमारी है । वह आदमी दूसरे Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२२ ३७५ हिस्सों में सरल नहीं होगा। दूसरे हिस्सों में भी उसकी विक्षिप्तता प्रकट होगी, उसका पागलपन प्रकट होगा। और इस देश में निर्णय लेने की जरूरत पड़ गई है अब । क्योंकि यह कोई पांच हजार साल से उपद्रव चल रहा है । उस उपद्रव में तय करना मुश्किल हो गया है कि कौन आदमी प्रामाणिक है और कौन आदमी पागलपन की ओर झुक रहा है। ये दोनों ही हो सकते हैं, इसलिए बहुत साफ रेखा खींचना जरूरी है। धार्मिक पागलपन ज्यादा खतरनाक चीज है क्योंकि उसमें धर्म भी जुड़ा हुआ है। पागलपन सीधा हो तो एक अर्थ में सरल होता है। क्योंकि पागल आदमी निरीह हो जाता है। धार्मिक पागल निरोह नहीं होता, दूसरों को निरीह करता है। खुद तो उनके ऊपर खड़ा हो जाता है। अब जैसे कि सेंट जोन आफ आर्क को एक पोप ने आग में जलाए जाने की सजा दी। आग में जला दी गई वह औरत । जलाई इसलिए गई कि वह धर्म के विपरीत बातें कर रही थी।.. पोप को पूरा मजा था इस बात का कि वह धार्मिक आदमी है और एक औरत को जला रहा है क्योंकि वह बहुत अधार्मिक बातें कर रही है और वह भगवान् का काम कर रहा हैं। अब एक स्त्री को जलाना और जोन जैसी सरल स्त्री को जलाना एकदम अधार्मिक कृत्य था। लेकिन पोप को एक तृप्ति है। अगर कोई दूसरा आदमी ऐसा काम कर दे तो वह आदमी पागल सिद्ध होता है, अपराधी सिद्ध होता है । पोप अपराधी नहीं हुआ। सात साल बाद, दूसरे पोप जब सत्ता में आए तो उन्होंने विचार किया और पाया कि यह तो ज्यादती हो गई; जोन तो बड़ी सरल औरत थी और उसे तो सन्त की पदवी दी जानी चाहिए। तो वह सेन्ट जोन बनी। जिस पोप ने आग लगवाई थी वह पोप अपराधी हो गया था लेकिन वह मर चुका था। अब क्या किया जाए ? तो इस पोप ने उसको सजा दी कि उसकी हड्डियों को निकाल कर जूते मारे जाएं और सड़क पर घसीटा जाए। उस मरे हुए पोप की हड्डियाँ निकाली गई, उसकी कब्र खोली गई, उसको जूते मारे गए, उसके ऊपर थूका गया और उसकी हड्डियों को सड़क पर घसीट कर अपमानित किया गया । अब यह आदमी उससे भी ज्यादा पागल है। लेकिन इसका पागलपन दिखाई नहीं पड़ता । इसका पागलपन एक धार्मिक परिभाषा ले रहा है। यह धार्मिक एक जाल पैदा करेगा शब्दों का जो कि बिल्कुल ठोक मालूम पड़ेगा। धर्म इसकी विक्षिप्तता को औचित्य दे रहा है। Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि मे धर्म मे बहुत तरह की विक्षिप्तताओं को ओचित्य दिया है। पर इस ओचित्य को तोड़ देने की जरूरत है ओर मह साफ समझ में आ जाना चाहिए कि यह तभी टूटेगा जब हम दुःख को धर्म से अलग करेंगे। नहीं तो वह टूटेगा नहीं । क्योंकि वह जो दुख:बाद है, उसी के भीतर सारा औचित्य छिप जाता है । दूसरे को दुःख देना भी, अपने को दुःख देना भी सब उसमें छिप जाता है । इसलिए मेरी दृष्टि में धर्म सुख की खोज है, परम सुख की ओर धार्मिक व्यक्ति वह है जो स्वयं भी आनन्द की ओर निरन्तर गति करता है और चारों ओर भी निरन्तर आनन्द बढ़े, इसके लिए चेष्टारत होता है। न वह स्वयं को दुःख देता है, न वह दूसरे को दुःख देने की आकांक्षा करता है । न उसके मन में दुःख का कोई आदर है न कोई सम्मान है। ऐसे व्यक्ति को अगर हम धार्मिक कहें तो धर्म परम आनन्द की दिशा बनता है । नहीं तो अब तक वह परम दुःख की दिशा बना हुआ है । པ་ प्रश्न : महावीर नासाग्र दृष्टि से ध्यानावस्थित हुए। क्या यह ध्यान की "ही सुना है ? उत्तर : यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है । नासाग्र दृष्टि का मतलब है--आँख आधी बंद, आधी खुली । अगर नाक के अग्रभाग को आप आंख से देखेंगे तो आधी आंख बंद हो जाएगी, आघी खुली रहेगी। न तो आँख बंद न आँख खुली । साधारणतः हम दो ही काम करते हैं । या तो आंख बंद होती है नींद में या आंख खुली होती है जागरण में । नासाग्र दृष्टि होती ही नहीं । इसका कोई कारण नहीं है । आंख या तो पूरी खुली होती है या पूरी बंद होती है । दोनों के बीच में एक बिन्दु है जहाँ आँख आधी खुली है, आधी बंद है। अगर हम खड़े होंगे और नासाग्र दृष्टि होगी तो करीब चार फुट तक जमीन हमें दिखाई पड़ेगी । तो साधारणतः कोई भी नासाग्र नहीं होता । 1 इसमें दो तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं । एक तो यह कि पूरी बंद आँख, आंखों के जो स्नायु हैं भीतर उनको निद्रा में ले जाए । पूरी बंद आँख निद्रा में ले जाती है। आँख जिसकी बन्द होती है पूरी तो मस्तिष्क के जो स्नायु आंख से जुड़े हैं, वे एकदम शिथिल हो जाते हैं निद्रा हो जाती है। पूरी खुलो आँख जागरण लाती है। ध्यान दोनों से अलग अवस्था है । म तो वह निद्रा है, न वह बागरण है। वह निद्रा जैसा शिथिल है, जागरण जैसा चेतन है । और ध्यान तीसरी अवस्था है । नींद नहीं है वह नींद भी है और जागरण भी है। उसमें और जागरण भी नहीं है वह । और दोनों के तत्त्व हैं। नींद में जितनी Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २२ ६७७ शिथिलता होती है उतनी ध्यान में होनी चाहिए। और जागरण में जितना चैतम्य होता है उतना ध्यान में होना चाहिए । तो ध्यान एक मध्य अवस्था है और नासाग्र दृष्टि ऑल के पीछे के स्नायुओं को मध्य अवस्था में छोड़ देती है । उस हालत में न तो स्नायु इतने तने होते हैं जितने कि जागरण में तने होते हैं, न इतने शिथिल होते हैं जितने कि निद्रा में शिथिल होते हैं और सो जाते हैं। मध्य में होते हैं । एक मध्य बिन्दु, सम बिन्दु होता है । नासाग्र दृष्टि का यौगिक मूल्य है, फिजियोलॉजिकल मूल्य है ओर ध्यान के लिए वह कीमती प्रभाव पैदा करती है | दूसरी बात समझने की यह है कि पूरी आँख बन्द कर लेने पर व्यक्ति सब ओर से बन्द हो जाता है, जगत् से टूट जाता है । पूरी अखि बन्द है तो व्यक्ति का जगत् से सब सम्बन्ध टूट गया। पूरी आँख खुली है तो व्यक्ति को बाहर के जगत् से जोड़ देती है और वह अपने को भूल जाता है। उसे अपना कोई पता ही नहीं रहता । बन्द आँख में सब मिट जाता है, वही खुद रह जाता है। खुली आँख में सब सत्य हो जाता है और वह खुद ही मिट जाता है । ५. आधी बन्द, आधी खुली आंख का यह भी अर्थ है कि न तो हम टूटे हुए हैं सब से और न जुड़े हुए हैं सबसे । और न ही यह बात सच है कि सब सच है और हम झूठे हैं और न ही यह बात कि सब झूठे हैं और हम सच है । हम भी हैं और सब भी है। महावीर का सारा जोर सम पर है निरन्तर । 'सम्यक्' शब्द उनका सर्वाधिक प्रयोग में आने वाला शब्द है । प्रत्येक चीज में सम, प्रत्येक बात में मध्य, प्रत्येक बात में वहां खड़े हो जाना जहाँ अतियाँ न हों । आँख के मामले में भी उनकी अनति है। न तो पूरी खुली आंख और न पूरी बंद । संसार भी सत्य है आधा । जितना हमें दिखाई पड़ता है उतना सत्य नहीं है । हम भी सत्य हैं लेकिन आधे, जितना बन्द आँख से मालूम पड़ते हैं उतने ही । शंकर कहते हैं : सब जगत् असत्य है, सत्य है ही नहीं । आँख बन्द हो तो जगत् एकदम असत्य हो जाता है । क्या सत्य है ? तो जो व्यक्ति आँख बन्द करके ध्यानावस्थित होने की चेष्टा करेगा वह माया के किसी न किसी सिद्धान्त के करीब पहुँच जाएगा। क्योंकि जब बन्द आँख में उसे आत्मा का अनुभव होगा तो जगत् एकदम असत्य मालूम पड़ेगा । तो जिन लोगों ने माया है, वह बन्द आँख का अनुभव है । अगर बन्द आँख से तो जगत् असत्य ही हो जाएगा क्योंकि कुछ बचता ही नही वहाँ । सिर्फ स्वयं कहा है कि जगत् · ध्यान किया गया Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७६ महावीर : मेरी दृष्टि में बच जाता है । बन्द आँख में बाहर के जगत् का कोई अनुभव नहीं रह जाता, स्वयं की अनुभूति रह जाती है । वह इतनी प्रखर होती है कि कोई भी कह देगा कि बाहर जो था सब असत्य था । अगर कोई बाहर के जगत् में पूरी आंख खुली करके जी रहा है जैसा चार्वाक तो वह कहता है : "भीतर कुछ भी नहीं है, आत्मा को सब झूठी बातें हैं, खाओ, पियो, मोज करो ।" यह बाहर पूरी खुली आंख का अनुभव है कि बाहर ही सब कुछ है । खाओ, पियो, मोज करो, भीतर कुछ भी नहीं है, भीतर गए कि मरे, भीतर है ही नहीं कुछ, आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है, अगर कोई पूरी खुली आंख के अनुभव से जिये तो इन्द्रियों के रस ही शेष रह जाते हैं, आत्मा विलीन हो जाती है, तत्र जगत् सत्य होता है, आत्मा असत्य हो जाती है । । 'महावीर कहते हैं । जगत् भी सत्य है और आत्मा भी सत्य है।' जगत् असत्य नहीं है और आत्मा भी असत्य नहीं है यह एक दृष्टि है : आँख बन्द करके अगर कोई अनुभव करेगा तो स्वयं सत्य मालूम पड़ेगा, जगत् असत्य " मालूम पड़ेगा। और अगर कोई आदमी ध्यान में नहीं बैठेगा और बाहर के जगत् में ही जिएगा तो वह कहेगा : आत्मा असत्य है, जगत् ही सत्य है । ये दो दृष्टियाँ हैं । यह दर्शन नहीं है । महावीर कहते हैं : जगत् भी सत्य है, आत्मा भी सत्य है; पदार्थ भी सत्य है, परमात्मा भी सत्य है । दोनों एक बड़े सत्य के हिस्से हैं । दोनों सत्य है । और प्रतीक है वह नासाग्र दृष्टि । यानी महावीर कभी पूरी आँख बन्द करके ध्यान नहीं करेंगे, पूरी खुली आँख रखकर भी ध्यान नहीं करेंगे। आधी आंख खुली और आधी बन्द ताकि बाहर और भीतर एक सम्बन्ध बना रहे। जागे भी, न जागे भी । बाहर और भीतर एक प्रवाह होता रहे चेतना का । ऐसी स्थिति में जो ध्यान को उपलब्ध होगा उस ध्यान में उमे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं ही सत्य हूँ। ऐसा भी नहीं लगेगा कि बाहर असत्य है या बाहर ही सत्य है। ऐसा लगेगा कि सत्य दोनों में है । वह दोनों को जोड़ रहा है । वह आधी खुली आँख प्रतीकात्मक रूप से भी अर्थ रखती है और ध्यान के लिए सर्वोत्तम है लेकिन थोड़ी कठिन है । क्योंकि दो अनुभव हमें बहुत सरल हैं - खुली आँख, बन्द आँख । लेकिन आधी खुली आँख थोड़ी कठिन है लेकिन सर्वोत्तम है । प्रश्न : आप चार्वाक को भी उसी श्रेणी में लेते हैं जिस श्रेणी में शंकर हैं ? उत्तर : नहीं, उससे बिल्कुल उल्टी श्रेणी है वह । Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २२ · ६७९ प्रश्न । स्तर दोनों का एक ही है ? उत्तर : नहीं, स्तर भी एक नहीं है। दोनों अधूरे सत्यों को कह रहे हैं इस मामले भर में एक हैं । प्रश्न : शंकर ने बन्द आँख में ध्यान किया तो उसको दुनिया कैसी मालूम पड़ेगी ? उत्तर : असत्य मालूम पड़ेगी । प्रश्न : चार्वाक ने खुली आंख में ध्यान किया तो उसको दुनिया कैसी मालूम पड़ेगी ? उर : ध्यान किया नहीं, बस खुली आँख रखी। खुली आँख में ध्यान करने का उपाय नहीं है । खुली आँख में तो बाहर का जगत् ही सब कुछ है । और उसी में जिया, पिया, मोज किया और कभी भीतर गया नहीं क्योंकि भीतर जाना पड़ता तो आँख बन्द करनी पड़ती। अभी पश्चिम में एक था जोड़ नाम का विचारक । उससे कई बार लोगों ने कहा कि कभी ध्यान भी करो । गुरजिएफ से वह मिलने गया । तो गुरजिएफ ने कहा कि कभी आँख भी बन्द करो १ उसमे कहा : फुरसत कहाँ, लेकिन सुबह उठता हूँ तो भाग दौड़ शुरू हो जाती है । साँझ जब सोता है तब तक भागता रहता है। ध्यान की फुरसत कहाँ ? अलग वक्त कहाँ ? या मैं जागता हूँ या सोता हूँ । फुरसत कहाँ है ? और तीसरी बात यह कि उपाय कहा है ? कहा या तो जागो या सोयो । सोओ तो तुम ही रह जाते हो, जागो तो सब रह जाते हैं, तुम नहीं रह जाते । जोड ने जो कहा, वह ठीक कहा । ऐसे अगर चार्वाक से कोई कहता तो वह कहता : कैसा ध्यान ! जब थक जाते हैं, सो जाते हैं। जब थकान मिट जाती है फिर जग जाते हैं । जीते हैं इन्द्रियों में, इसलिए जीते हैं। अगर जाग सकते हो तो जिओ । जितनी देर जाग सकते हो जिओ । जितना जाग कर जी सको जिओ, जितना भोग सको भोगो । प्रत्येक चीज का रस लो। और भीतर क्या है ? भीतर कुछ भी नहीं है । भीतर एक झूठ है । क्योंकि भीतर जो कभी गया नहीं है, भीतर झूठ हो हो जाएगा । तो चार्वाक बाहर ही जी रहा है । वही उसके लिए सत्य है । शंकर जैसे व्यक्ति भीतर ही जी रहे हैं। तो जो भीतर है वही सत्य है और बाहर का सब असत्य हो गया है । एक अर्थ में ये दोनों समान हैं, इस अर्थ में कि ये आधे सत्य को पूरा सत्य कह रहे हैं। फिर भी चुनाव करना हो तो शंकर चुनने योग्य हैं, चार्वाक चुनने योग्य नहीं है क्योंकि Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में चार्वाक कह रहा है कि बस इतना ही जीवन है । खाओ, पियो । बस इतना ही जीवन है । महावीर कह रहे हैं कि दोनों बातें सत्य हैं । प्रश्न : यह तो आप दोनों बातों को उल्टा कह रहे हैं ? उत्तर : नहीं । ६५० प्रश्न: आप कह रहे हैं कि चुनने योग्य हो तो चार्वाक को नहीं, शंकर को चुना जाए। उत्तर : हाँ, हाँ ! बिल्कुल ही । प्रश्न : तो क्या शंकर त्याग की ओर गया ? उत्तर : नहीं। मैं कहता हूँ कि वह ज्यादा गहरे योग की ओर गया क्योंकि भीतर में जितना योग है, उतना बाहर नहीं है । प्रश्न: क्या चार्वाक भोग की ओर गया ? उत्तर : नहीं, यह मैं नहीं कह रहा हूँ। ऐसी भूल हो जाती है, मेरी निरन्तर बातों से । साधारणतः हम चार्वाक को भोगी कहेंगे । साधारणतः मैं चार्वाक को त्यागी कहूँगा । मैं कहूँगा कि वह, जो अन्तर्योग है, बड़ा योग है उसको छोड़ रहा है । चार्वाक कह रहा है कि घी भी ऋण लेकर पीना पड़े तो पियो । ऋण की चिन्ता मत करो । बस घी मिलना चाहिए। तो वह घी पर ही जी रहा है । लेकिन बहुत बाहर जी रहा है। खाने-पीने तक उसका योग है । लेकिन एक अन्तर्योग भी है । उस ओर कोई दृष्टि नहीं है । उस ओर कोई ध्यान नहीं है । शंकर भी बड़े योगी हैं। क्योंकि शंकर ज्यादा गहरे योग में जा रहे हैं । और महावीर चूंकि प्रत्येक चीज में एक सन्तुलन और समता का ध्यान रखते हैं, वे कहेंगे चार्वाक को कि तुम बिल्कुल ठीक कहते हो कि बाहर सत्य है ! लेकिन 'अगर तुम भीतर जाओगे तो तुम पाओगे कि वहाँ भी सत्य है । शंकर को भी यही कहेंगे कि तुम बिल्कुल ही ठीक कहते हो, एकदम ठीक हो बात है कि भीतर सत्य है । लेकिन तुम्हारे आँख बंद करने से बाहर असत्य नहीं हो जाता। सिर्फ इतना ही है कि तुम्हें पता चलना बंद हो जाएगा । I पूरा जीवन बाहर और भीतर से मिलकर बना है । एक को तोड़ देना दूसरे के हित में अधूरा है । इस दृष्टि में महावीर अनेकांगी है । और प्रत्येक पहलू पर क्या-क्या विरोध है वह दोनों में से सत्य को निचोड़ लेना चाहते हैं । Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ महावीर : मेरी तिम चिन्ता नहीं है। चित्त को जहां भागना है, भागता है, दौड़ना है दौड़ता है । चित्त फोकस ले रहा है और इस चित्त को बाहर देखने को निरन्तर जरूरत है। बहिर्मुखता जीवन की व्यर्षता में उलझा देती है एकदम और भीतर से तोड़ देती है। दूसरी बात, अन्तर्मुखता जीवन से तोड़ देती है भीतर डुबो देती है कि सब तरफ से दरवाजे बंद हो गए। पहली बात भी अधूरी है। दूसरी बात भी अधूरी है । असल में एक तीसरी स्थिति है जबकि हम फोकस को तोड़ देते हैं। न हम भीतर देखते हैं न बाहर देखते हैं। सिर्फ देखना रह जाता है, न बाहर की तरफ बढ़ता हुआ, न भीतर की तरफ बढ़ता हुआ। सिर्फ प्रकाश रह जाता है जिसका कोई फोकस नहीं है। जैसे कि एक दिया जल रहा है। सब ओर एक-सा प्रकाश फैलता है। पर दिए से भी हम ठीक से नहीं समझ सकते। क्योंकि दिए का भी बहुत गहरे में छोटा-सा फोकस है। इसलिए दिया छुट जाता है, अपने प्रकाश के बाहर छूट जाता है । एक तीसरी स्थिति है जहाँ न व्यक्ति अन्तर्मुसी है, न बहिर्मुखी है । जहाँ व्यक्ति सिर्फ है, न बाहर की ओर देख रहा है, न भीतर की ओर देख रहा है, बस है। यह बस होना मात्र का नाम है जागति-पूर्ण जागृति । तो महावीर कहते हैं : ऐसा जो पूरी तरह जाग गया वह साधु है। जो सोया है वह असाधु है। असाषु दो तरह के हो सकते हैं : एक जो बाहर की ओर सोया हुवा है, एक जो भीतर की ओर सोया हुआ है। साधु एक ही तरह का हो सकता है जो सोया हुआ ही नहीं है, जिसकी मूर्छा कहीं भी नहीं है। और इसलिए एक छोटा सा, फर्क ख्याल में लेना चाहिए कि एकाग्रता और ध्यान में बुनियादी फर्क है। - एकाग्रता का मतलब है कि ध्यान किसी एक बिन्दु पर एकाग्र हो जाए । लेकिन शेष सब जगह सो जाए। जैसा कि महाभारत में कथा है कि द्रोण ने पूछा अपने शिष्यों से कि वृक्ष पर तुम्हें क्या दिखाई पड़ता है। तो किसी ने कहा पूरा वृक्ष । किसी ने कहा कि वृक्ष के पीछे सूरज भी दिखाई पड़ता है। किसी ने कहा कि दूर गांव भी दिखाई पड़ रहा है, पूरा आकाश दिखाई पड़ता है, बादल दिखाई पड़ते हैं, सब दिखाई पड़ता है । अर्जुन कहता है कि कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता । सिर्फ वह जो पक्षी लटकाया हुआ है नकली, उसकी आंख दिखाई पड़ती है।तो द्रोण कहते हैं कि तू ही एका चित्त है। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरप्रवचन-२५ ६८९ एकाग्र चित्त का मतलब यह हुआ कि जिस विन्दु को हम देख रहे है, बस सारा ध्यान वहीं हो गया है, सिकुड़ कर एक जगह आ गया है, शेष के प्रति बन्द हो गया है, शेष के प्रति सो गया है। तो एकाग्रता एक विन्दु के प्रति जागरण और शेष सब बिन्दुओं के प्रति सो माना है। लेकिन चंचलता और एकाग्रता में थोड़ा फर्क है । एकाग्रता का बिन्दु बदलता नहीं, चंचलता का विन्दु बदलता चला जाता है । फर्क नहीं है दोनों में । एकाग्रता में एक बिन्दु रह गया है । शेष सब सो गया है । सब तरह मूर्छ है । बस एक बिन्दु की तरफ जागृति रह गई है। चंचलता में भी यह है लेकिन फर्क इतना है कि चंचलता में एक बिन्दु तेजी से बदलता रहता है, अभी यह है, अभी वह है, और शेष के प्रति सोया रहता है। ध्यान का मतलब है ऐसा कोई बिन्दु नहीं है जिसके प्रति चित्त सोया हुआ है। तो ध्यान एकाग्रता नहीं है, ध्यान चंचलता भी नहीं है। ध्यान बस जागरण है। इसे और गहराई में समझें। अगर हम किसी के प्रति जागते हैं तो हम समग्र के प्रति नहीं जाग सकते । अगर तुम मेरी बात सुन रहे हो तो शेष सारी आवाजें जो इस जगत् में चारों ओर हो रही है, तुम्हें सुनाई नहीं पड़ेंगी । मेरी तरफ एकाग्रता हो जाएगी तो बाहर कोई पक्षी चिल्लाया, कोई कुत्ता भोंका, कोई आदमी निकला, उसका तुम्हें पता नहीं चलेगा । यह एकापता हुई । नागरूकता का अर्थ यह है कि एकसाय जो भी हो रहा है, वह सब पता चल रहा है। हम किसी एक चीज के प्रति जागे हुए नहीं है। समस्त जो हो रहा है उसके प्रति जागे हुए हैं । मेरी बात भी सुनाई पड़ रही है, कोमा आवाज लगा रहा है वह भी सुनाई पड़ रहा है, कुत्ता भोंका वह भी सुनाई पड़ रहा है । और यह सब अलग-अलग नहीं क्योंकि काल में ये सभी एक साथ घट रहे हैं । यानी अभी जब हम बैठे हैं तो हजार घटनाएं घट रही है । इन सब के प्रति एक साप जागाहमा होने को महावीर अमूर्छा कहेंगे, जागरण कहेंगे । और ऐसा जागरण इतना बड़ा हो जाए कि न केवल बाहर की आवाज सुनाई पड़े, बल्कि अपने श्वास की धड़कन भी सुनाई पड़े, अपनी आंख के पलक का हिलना भी पता चल रहा हो, भीतर चलते विचार भी पता चल रहे हों, जो भी हो रहा है इस जग में मेरी चेतना के वर्पण पर प्रतिफलित हो रहा है वह सब मुझे पता चल रहा हो, अगर वह समग्र मुझे पता चल रहा है-भीतर से लेकर बाहर तक वो फोकस टूट गया, तब जागरण रह गया । यह पूर्ण स्वभाव की उपलब्धि हुई। . Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में यह पूर्ण स्वभाव सदा से हमारे पास है। हम उसका उपयोग ऐसा कर रहे है कि वह कभी पूर्ण नहीं हो पाता। बल्कि अपूर्ण बिन्दुओं पर हम पूरी ताकत लगा कर सीमित कर लेते हैं। जागरण हमारे पास है लेकिन हमने कभी जागरण समग्र के प्रति प्रयोग नहीं किया है। न प्रयोग करने के कारण शेष के प्रति मूर्छा है, कुछ के प्रति जागरूकता है और इसलिए यह सवाल पैदा हो जाता है कि मूर्छा कहाँ से आई ? मूर्छा कहीं से भी नहीं आई । मूर्छा हमारे द्वारा निर्मित है । और निरन्तर अनुभव दिखाई पड़ जाएगा तो मूर्छा विसर्जित हो जाएगी । तब हम पारदर्शी हो जाएंगे। तब सिर्फ जागरण होगा और उसकी कोई छाया नहीं बनेगी । कहीं भी कोई छाया नहीं बनेगी । ६६० प्रश्न : तीर्थकरों के जीवन में हम पूर्व तीर्थंकरों की परम्परा के आचार्य नहीं देखते । किन्तु महावीर के समय पार्श्वनाथ की परम्परा के आचार्य थे । वह परम्परा बाद में भी चलती रही । इसका क्या कारण था ? नये तीर्थंकर का जन्म तो पुरातन परम्परा के लुप्तप्राय होने पर होता है। जब पार्श्वनाथ की परम्परा प्रचलित थी तब नवीन तीर्थकर की स्थापना क्यों की गई और पुराने की कैसे चलती रही ? उत्तर : पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि परम्परा बनती है तब जब जीवित सत्य खो जाता है । परम्परा जीवित सत्य की अनुपस्थिति पर रह गई सूखी रेखा है । परम्परा तो चल सकती है करोड़ों वर्षों तक । परम्परा बनती हो तब है जब हमारे हाथ में अतीत का मृत बोझ रह जाता है । मैंने सुना है कि एक घर से बूढ़ा बाप था । उसके छोटे बच्चे थे । बाप भी मर गया, माँ भी मर गई । बच्चे बहुत ही छोटे थे। देर उम्र में बच्चे हुए थे। फिर वे बड़े हुए। उन बच्चों ने निरन्तर देखा था अपने पिता को कि रोज भोजन के बाद आले पर जाकर वह कुछ उठाता रखता था । पिता के मर जाने पर उन्होने सोचा कि यह काम रोज का था । यह कोई साधारण काम न होगा । जरूर कोई अनुष्ठान होगा । तो उन्होंने जाकर देखा तो वहाँ बाप ने दाँत साफ करने के लिए एक छोटी सी लकड़ी रख छोड़ी थी। वह पिता रोज भोजन के बाद उठता, आले पर जाकर दांत साफ करता । उन बच्चों ने सोचा : इस लकड़ी का जरूरी कोई अर्थ है । यह तो उन्हें पता नहीं था कि अर्थ क्या हो सकता है। यह भी पता नहीं था कि पिता बूढ़ा था। उसे दांत साफ करने के लिए लकड़ी की जरूरत थी । Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतर अपवन-२ तो बरचे नियमित रूप से माने के पास जाते, लकड़ी को उठाकर देखते , और रख देते । पिता का नियम रोज पालन करते रहे। फिर वे.बड़े हुए। फिर उन्होंने बहुत कमाई को, फिर उन्होंने नया मकान बनाया तो सोचा कि इतनी छोटी सी लकड़ी भी क्या रखनी ? अब उन्हें कुछ भी पता न था कि वह लकड़ी किसलिए पी तो उन्होंने एक सुन्दर कारीगर से एक बड़ा लकड़ी का डंडा बनवाया, उस पर खुदाई करवाई। और उसे आले में उन्होंने उसे स्थापित कर दिया । बड़ा आला बनवाया, अब रोज उठाने की बात न रही । उनके भी बच्चे पैदा हो गए। उन बच्चों ने भी अपने पिता को बड़े आदर-भाव से उस बाले के पास जाते देखा था। फिर उनके पिता भी चल बसे । फिर बच्चे वहाँ जाकर रोज नमस्कार कर लेते क्योंकि उनके पिता उस आले के पास भोजन के बाद जरूर हो जाते थे। यह नियमित कृत्य हो गया था। परम्परा बन गई थी। अब इसमें कुछ भी अर्थ न रह गया था। एक जड़ लीक पड़ जाती है जो पीछे चलती है। महावीर के समय में विचार की लोक छूट गई थी। आचार्य थे, साधु थे लेकिन मृत पी धारा । मृतधारा कितने समय तक चल सकती है ? और मृतधारा जिद्दी हो जाती है। महावीर ने नयो विचारदृष्टि को जन्म दिया, नयी हवा फैली । नया सूरज निकला। लेकिन पुरानी लोक पर चलने वाले लोगों ने नये को स्वीकार नहीं किया । वह अपनी लीक को बांधे हुए चलते गए । ऐसा भी हुमा कि महावीर ने जो कहा था वह भी चला और जो पिछली परम्परा थी, वह भी चलती रही। एक मृतधारा की तरह उसको थोड़ी सी रूपरेखा भी चलती रही। यह प्रश्न सार्थक दिखाई पड़ता है लेकिन सार्थक नहीं है । परम्परा मात्र होने से कोई जीवित नहीं होता। बल्लि उलटी हो बात है। जब कोई चीज परम्परा बनती है तब मर गई होती है। और आचार्यों के होने से जरूरी नहीं है कि वे किसी जीवित परम्परा के वंशधर हों। सच तो यह है कि उनका होना इसी बात की खबर है कि अब कोई जीवित अनुभवी व्यक्ति नहीं रह गया जो जानता हो। इसलिए जो जाना गया था उसको जानने वाले लोग गुरु का काम निवाहने लगते है। साधु मी है लेकिन न तो साधु से कुछ होता है, न शिक्षकों से कुछ होता है, न गुरुओं से कुछ होता है जब तक कि जीवित अनुभव को लिप हुए, कोई व्यक्ति न हो। और वे व्यक्ति हो गए थे। वे व्यक्ति न रहे थे। इसलिए महावीर के मार्ग-वन में इस बात से कोई अवरोध नहीं पड़ता है Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में उनमें जो भी थोड़े समझदार जीवित लोग शेष थे। साथ आ गए। जो नहीं थे, जिद्दी थे, अन्धे थे, आग्रह को पकड़ कर चलते गए । फिर महावीर जैसे व्यक्तियों का जन्म पिछले व्यक्तियों से नहीं जोड़ा जा सकता । जोड़ने की कोई जरूरत नहीं है । जब भी जगत् में जरूरत होती है, प्राण पुकार करते हैं, तब कोई न कोई उपलब्ध चेतना करुणावश वापस लोट जाती है । जैरूरत पर निर्भर है, हमारी पुकार पर निर्भर है। जैसे इस युग में धीरे-धीरे पुकार कम होती चली गई है। एक वक्त था कि लोग ईश्वर को इन्कार करने का भी कष्ट करते थे । अब लोग ऐसे हैं जो इम्कार करने का कष्ट भी नहीं उठाना चाहते । ईश्वर को इन्कार करने में भी उत्सुकता थी । जो इन्कार करता था, वह रस लेता था । अब ऐसे लोग हैं जो कहेंगे : 'बस छोड़ो, ठीक है । हो तो हो, न हो तो न हो ईश्वर का प्रस्तित्व इन्कार करने की भी किसी की फुरसत नहीं है । स्वीकार करने की आशा तो बहुत दूर है। लेकिन इन्कार कैरने के लिए भी फुरसत नहीं है। नोत्से ने कहा है कि वह वक्त जल्दी आएगा जब ईश्वर को कोई इन्कार भी न करेगा। तुम उस दिन के लिए तैयार रहो । ठीक कहा उसने । पूरे युग की भावदृष्टि बताती है कि स्थिति क्या है । ६२९ कि पिछले तीर्थंकर के C साधक थे, वे महावीर के रखते थे वे अपनी लीक जिसकी हमारे गहरे प्राणों में आकांक्षा और प्यास होती है, वह आकांचा और प्यास ही उसका जन्म बनती है। एक गड्डा है। पहाड़ पर पानी गिरता है । पहाड़ पर नहीं भरता पानी गिरता पहाड़ पर है, भरता गड्ढे में है। गड्ढा तैयार है, प्रतीक्षा कर रहा है। पानी भागा हुआ चला आता है, गड्ढे में भर जाता है। शायद हम में से कोई यह कहे कि पानी की बड़ी करुणा है कि वह गड्ढे में भर गया, गड्ढे की बड़ी पुकार है । क्योंकि वह खाली है इसलिए पानी को आना पड़ा। बाकी गहरे में दोनों बातें एक साथ सच हैं। जब भी जरूरत है, जब भी प्राण प्यासे हैं तब कोई भी उपलब्ध चेतना, इस गड्ढे को भरने के लिए उतर आती है। महावीर के वक्त पुरानी परम्परा चलती थी, पुराने गुरु थे। पर वे मृत थे । कोई जीवन उनमें न था । इसलिए उनके आविर्भाव पर कोई असंगति की बात नहीं कही जा सकती । प्रश्न : महावीर ने हमें गया क्या दिया ? प्रेम की चर्चा तो जब से मनुष्यजाति है तब से हीं होती आई है। उत्तर : सत्य न तो नया है न पुराना । सत्य सदा है। जो सहा है वह न कभी पुराना होगा और न कभी नया हो सकता है। जो नया होता है, वह कल Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रालोसप्रवचन-२१ पुराना हो जाएगा। जो आज पुराना दीखता है, वह कल नया था। असल में सत्य के सम्बन्ध में नये और पुराने शब्द एकदम व्यर्थ है । नया वह होता है जो जन्मता है, पुराना वह होता है जो बूढ़ा होता है। सत्य न जन्मता है, न बूढ़ा होता है, न मरता है। लहर नयी हो सकती है, लहर पुरानी भी हो सकती है। लेकिन सागर न नया है, न पुराना है । बादल नये हो सकते हैं, पुराने भी हो सकते हैं । लेकिन आकाश न नया है न पुराना है। असल में आकाश वह है जिसमें नया बनता पुराना होता, पुराना मिटता नया बनता है। लेकिन स्वयं आकाश म तो नया है न पुराना है। सत्य भी नया पुराना नहीं है । इसलिए जब भी कोई दावा करता है कि सत्य प्राचीन है या नया तब भी वह मूर्खतापूर्ण दावा करता है । नये-पुराने के दावे ही नासमझी से भरे है। दो हो तरह के दावेदार दुनिया में हुए हैं। एक वे हैं जो कहते हैं कि सत्य पुराना है, हमारी किताब में लिखा हुआ है। हमारी किताब इतने हजार वर्ष पुरानी है । दूसरे दावेदार है वो कहते हैं कि सत्य बिल्कुल नया है क्योंकि किसी किताब में नहीं लिखा हुआ है। लेकिन सत्य के सम्बन्ध में ऐसे कोई दावे नहीं किये जा सकते। फिर भी क्या कहा जा सकता है ? फिर यही कहा जा सकता है कि जो सत्य निरन्तर है उससे भी हमारा निरन्तर सम्बन्ध नहीं रहता । सम्बन्ध कमी-कभी होता है। सत्य निरन्तर है। सत्य एक निरन्तरता है, शाश्वतता है, लेकिन जरूरी नहीं कि आकाश हमारे ऊपर निरन्तर है तो हम आकाश को देखते ही रहें। और अगर कोई ऐसा गांव हो जहाँ के सारे लोग जमीन की ओर देखते ही वक्त गुजारते हों और उस गांव में किसी को पता ही न हो कि आकाश भी है और अगर एक आदमी आकाश की ओर आंख उठाए और बिल्ला, कर लोगों को पुकारे कि देखते हो आकाश है, तुम क्यों जमीन की ओर आँखें गड़ाये हुए मरे जा रहे हो तो शायद उनमें से कोई कहे कि इसने पड़ा नया सत्य बताया है या शायद उनमें से कोई कहे कि इसमें क्या नया है। हमारे बापदादों ने, आकाश की बातें किताबों में लिखी है। लेकिन ये दोनों ही ठीक नहीं कह रहे। सवाल यह नहीं है कि आकाश के सम्बन्ध में कुछ कहा गया है या नहीं कहा गया है। सवाल यह भी नहीं है कि आकाश के सम्बन्ध में जो कहा गया है वह नया है या पुराना। सवाल यह है कि क्या उससे हमारा निरन्तर संबंध है। Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीरः मेरी दृष्टि में महावीर जो कहते हैं, बुर जो कहते हैं, जीसस जो कहते हैं, कृष्ण जो कहते है 'वह शायद वही है जो निरन्तर मौजूद है । लेकिन उससे हमारा निरन्तर सम्बन्ध छूट जाता है। वह फिर चिल्ला-चिल्ला कर, पुकार-पुकार कर, उस ओर आंखें उठवाते हैं । आँखें उठ भी नहीं पातीं कि हमारी आँखें फिर वापिस लौट आती हैं। इस अर्थ में अगर हम देखेंगे तो जब भी कोई व्यक्ति सत्य को उपलब्ध होता है तो कहना चाहिए नया ही उपलब्ध होता है। सत्य कोई नया पुराना नहीं है लेकिन व्यक्ति को जब भी उपलब्ध होता है तो वह नया है। इस अर्थ में भी सत्य को नया कहा जा सकता है क्योंकि दूसरे का सत्य बासी हो जाता है और हमारे लिए कभी काम का नहीं होता। हमारे लिए तो तब काम का होगा जब वह फिर नया होगा। ___ महावीर ने क्या नया दिया यह सवाल नहीं है क्योंकि अगर नया दिया भी होगा तो अब एकदम पुराना हो गया। सवाल यह नहीं है कि महावीर ने क्या नया दिया ? सवाल यह है कि सामान्य जन जैसा जीता है क्या महावीर उससे भिन्न जिए है। वह जीना बिल्कुल नया था। नया इस अर्थ में नहीं कि वैसा पहले कभी कोई नहीं जिया होगा। कोई भी जिया हो, करोड़ों लोग जिए हों, तो भी फर्क नहीं पड़ता। जब मैं किसी को प्रेम करता हूँ तो वह प्रेम नया ही है । मुझसे पहले करोड़ों लोगों ने प्रेम किया है लेकिन कोई भी प्रेमी यह मानने को राजी नहीं होगा कि मैं जो प्रेम कर रहा है, वह बासी या पुराना है । वह नया है । उसके लिए बिल्कुल नया है। और दूसरे का प्रेम किसी दूसरे के काम का नहीं है । वह अनुभूति अपने ही काम को है। तो महावीर बिल्कुल हो अपने सत्य को उपलब्ध होते हैं, जो उन्हें उपलब्ध हुआ है, वह बहुतों को उपलब्ध हुआ होगा, बहुतों को उपलब्ध होता रहेगा। लेकिन उस उपलब्धि पर किसी व्यक्ति की कोई सोल-मोहर नहीं लग जाती। यानी में अगर कल सुबह उठकर सूरज को देखू तो आप आकर मुझसे यह नहीं कह सकते हैं कि तुम बासी सूरज को देख रहे हो क्योंकि मैं भी इस सूरज को देख चुका है। इसे करोड़ों लोग देख चुके हों तब भी सूरज बासी नहीं हो जाता आपके देखने से । और जब मैं देखता हूँ तब नया ही देखता हूँ । उतना ही ताजा, जितना ताजा आपने देखा होगा। सूरज पर कुछ बासे होने की छाप नहीं बन जाती । सत्य पर भी नहीं बन जातो.। ठीक है, प्रेम की चर्चा बहुत लोगों ने की है, बहुत लोग करते रहेंगे। लेकिन फिर भी जब कोई प्रेम को उपलब्ध होगा तब वह नया ही उपलब्ध Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन- ११ होगा । महावीर जब प्रेम को उपलब्ध हुए हैं, ही उपलब्ध हुए हैं । सत्य के सम्बन्ध में अनुभूति के सम्बन्ध में नया पुराना होता है बहुत नया पुराना होता है। महावीर ने जो अभिव्यक्ति दी है ६६५ जिसे अहिंसा कहते हैं, तो वे नये तो नया पुराना नहीं होता लेकिन और अभिव्यक्ति के सम्बम्ध में तो अहिंसा को वह अब एकदम अनूठी और नयी है। शायद वैसी किसी ने भी पहले नहीं दी थी । अभिव्यक्ति नयी हो सकती है क्योंकि अभिव्यक्ति पुरानी पड़ जाती है महावीर की अभिव्यक्ति भी पुरानी पड़ गई है। कल पुराना पड़ जाएगा। कल तो बहुत दूर है, पुराना हो गया । आज अगर मैं कुछ कहूँगा अभी मैंने कहा और वह अभी अभिव्यक्ति नयी भी होती है, अभिव्यक्ति पुरामी भी पड़ जाती है । 'सत्य' न नया होता है और न पुराना पड़ता है। लेकिन फिर भी जब सत्य किसी व्यक्ति को उपलब्ध होता है तो एकदम नया ही उपलब्ध होता है - ताजा, युवा, अछूता, एकदम कुँवारा। इसलिए जिसको उपलब्ध होता है, वह अगर चिल्ला कर कहता है कि नया सत्य मिल गया तो उस पर नाराज भी नहीं होना है । क्योंकि उसे ऐसा ही लगा है। उसके जीवन में पहली बार ही यह सूरज निकला है । किसी और के जीवन में निकला हो, इससे कोई सम्बन्ध ही नहीं है । उसे बिल्कुल ही नया हुआ है। वह एकदम ताजा हो गया है उसके स्पर्श से कि वह चिल्लाकर कह सकता है कि यह बिल्कुल नया है । शास्त्रों में भी खोजी जा सकती है वह बात जो उसे हुई है । और शास्त्र का अधिकारी कह सकता है कि क्या नया है ? यह तो हमारी किताब में लिखा है । मगर सारी किताबों में भी लिखा हो तब भी जब व्यक्ति को सत्य मिलेगा तो उसकी प्रतीति ताजे की, नये की उपलब्धि की ही होगी । उसे हम यों भी कह यह हमारे कहने की सकते हैं कि सत्य सदा जीवन्त है, ताजा और नया है । दृष्टि पर निर्भर करता है कि हम क्या कहते हैं । मेरी अपनी समझ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति को सत्य नया ही उपलब्ध होता है । सत्य सदा से है लेकिन जब कोई व्यक्ति सत्य से सम्बन्धित होता है तब सत्य उसके लिए नया हो जाता है और प्रत्येक व्यक्ति की अनुभूति जिसे वह अभिव्यक्त करता है नयी होती है क्योंकि वैसो अभिव्यक्ति कोई दूसरा नहीं दे सकता क्योंकि वैसा कोई दूसरा व्यक्ति न हुआ है, नं है, न हो सकता है । मुब हम कितनी साधारण सी बात समझते हैं एक व्यक्ति का पैदा होना । मेरे पैदा होने में या आपके पैदा होने में कितना बड़ा जगत् सम्बन्धित है, इसका Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी पृष्टि में हमें कोई स्थान नहीं है। मेरे पैदा होने में बाज तक, इस समय के विन्दु तक, विश्व की जो भी स्थिति थी, वह सबकी सब जिम्मेदार है और अगर मुझे फिर से पैदा करना हो तो ठीक इतनी ही विश्व की स्थिति पूरी की पूरी पुनरुक्त हो तोही में पैदा हो सकता है, नहीं तो पैदा नहीं हो सकता। मेरे पिता चाहिए, मेरी मां चाहिए। वे भी उन्हीं पिताओं और माताओं से पैदा होने चाहिए जिनसे बे पैदा हुए। इस तरह हम पीछे लोटते चले जाएंगे तो हम पाएंगे कि पूरी विश्व की स्थिति एक छोटे से व्यक्ति के पैदा होने में संयुक्त है, जुड़ी हुई है। और अगर इसमें एक इंच भी इधर-उपर हो जाए तो मैं पैदा नहीं हो सकूँगा। जो भी पैदा होगा, वह कोई दूसरा होगा। और अगर मुझे पैदा करना हो तो इतने जगत् का पूरा का पूरा अतीत फिर से पुनरुक्त हो तभी मैं पैदा हो सकता है। इसकी कोई सम्भावना नहीं दिखाई पड़ती। यह कैसे पुनरुक्त होगा? तो एक व्यक्ति को दुबारा पैदा नहीं किया जा सकता । और इसलिए एक व्यक्ति के अनुभव को, उसकी अभिव्यक्ति को भी दुवारा पैदा नहीं किया जा सकता। इस अर्थ में अगर हम देखते चले तो सत्य का अनुभव व्यक्तिगत है । वह एकदम एक ही अनुभव प्रत्येक को भिन्न-भिन्न होता है। रवीन्द्रनाप ने लिखा है कि एक बूढ़ा आदमी था जो मेरे पड़ोस में रहता पा। पिता के दोस्तों में एक था जो अक्सर उनके पास बावा और मुझे बहुत परेशान करता। जब मैं आत्मा, परमात्मा की कविताएं लिखता तो वह खूब हेसता और हाथ पकड़ कर हिला देता कि क्या ईश्वर का अनुभव हुआ है, क्या ईश्वर को देखा है और इतना खिल-खिल कर हंसता कि उस आदमी से पर पैदा हो जाता। बोर वह कहीं सड़क पर मिल जाता तो बचकर निकल जाता क्योंकि वह वहीं पकड़ लेता । अनुभव हुआ है ईश्वर का ? ईश्वर को देखा है ? और मेरी हिम्मत न पड़ती कहने की कि सच में अनुभव क्या हुआ है। कविताएं लिख रहा था । वह आदमी बहुत ज्यादा परेशान करने लगा था। एक बार वर्षा के दिन में घर के बाहर समुद्र की तरफ गया। सूरज निकला है। सुबह का वक्त है । समुद्र के जल पर भी सूरज का प्रतिविम्ब बना है। रास्ते के किनारे जो गन्दे पानी के गड्ढ़े बने है उनमें भी सूरज का प्रतिबिम्ब बना है। लोटते वक्त मुझे अचानक ऐसा लगा कि सागर का जो प्रतिविम्ब है और इस गन्दे गड्ढ़े में वो प्रतिविम्ब है इन दोनों में कोई भेद नहीं है । मुझे लगा कि प्रतिविम्ब को गंवा गळा कैसे छू सकता है? प्रतिविम्ब कैसे गंदा Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन- २३ ६८७ होगा ? वह चाहे शुद्ध जल में बने, चाहे गंदे जल में वह तो वही है । लेकिन फिर भी सागर में वह और दिखाई पड़ रहा है, गंदे डबरे में और दिखाई पड़ रहा है । उस दिन मैं इतनी खुशी से लोटा कि रास्ते पर जो भी मिला मैं आनन्द से भर गया । मैं उसे गले लगाता, आलिंगन करता । वह आदमी भी मिल गया जिससे मैं बचकर निकलता था । मुझे पहली बार लगा कि वह आदमो भी ईश्वर है । और आज मैंने उसे भी गले लगा लिया । उस आदमी ने कहा ठीक है, अब मैं पहचाना कि तुझे अनुभव हो गया है, अब नहीं पूछूंगा । क्योंकि जब मैं तेरे पास आता था तो तू ऐसे बचता था मुझसे कि मुझे लगता था कि इसको कैसे ईश्वर का अनुभव हुआ होगा । मैं भी तो ईश्वर ही है। अगर ईश्वर का अनुभव हो गया है तो अब किससे बचना है, किससे भागना है ? अब तुझे अनुभव हो गया, अब ठीक है । अब मैं देखता हूँ तेरी आंख में। तीन दिन तक यह हालत रही । आदमी चुक गए तो गाय, भैंस, घोड़े जो भी मिल जाते, उनसे भी गले लगता । वे भी चुक जाते तो वृक्षों के गले लगता । तीन दिन यह अवस्था थी । उन तीन दिनों में जो जाना बस फिर वह जीवन भर के लिए सम्पदा बन गया । सब चीज में वही दिखाई पड़ने लगा । · यह एक छोटी सी घटना है। गंदे डबरे में बना हुआ प्रतिबिम्ब सागर में बने हुए प्रतिविम्ब से भिन्न थोड़े ही हो जाएगा । वह तो वही है। फिर भी, सागर का प्रतिबिम्ब सागर का ही है, गड्ढ़े का गड्ढ़े का है। महावीर में जो प्रतिबिम्ब बनेगा सत्य का, वह वही है जो मुझ में बने आप में बने, किसी में बने । लेकिन फिर भी महावीर का महावीर का होगा, मेरा मेरा होगा, आपका आपका होगा । चांद वही है, सूरज वही है, सत्य वही है, प्रतिबिम्ब भी वही 1 और फिर जब के । महावीर के पहले है । लेकिन जिन-जिन में बनता है, वह अलग-अलग है। उसकी अभिव्यक्ति देने जाते हैं तब और अलग हो जाते हैं मी चर्चा यी प्रेम की और बाद में भी रहेगी। लेकिन महावीर में जो प्रतिबिम्ब बना है, वह निपट महावीर का है। वैसा प्रतिबिम्ब न कभी बना था, न बन सकता है । प्रश्न: क्या आप मत-मतान्तरों के पक्षपाती हैं? क्या बुद्ध के बीड, महावीर के जैन, ईसा के ईसाई आदि सम्प्रदाय समाप्त करके एक मानव धर्म की स्थापना नहीं की जा सकती ? Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ महावीर : मेरी दृष्टि में उत्तर :में मत-मतान्तरों का तनिक भी पक्षपाती नहीं है। न कोई जैन है, न कोई बौद्ध है, न कोई हिन्दू है, न कोई ईसाई है, न कोई मुसलमान है। ___ दुनिया में दो तरह के ही लोग हैं सिर्फ धार्मिक और अधार्मिक । जो धार्मिक है, वह बुद्ध हो सकता है, महावीर हो सकता है, कृष्ण हो सकता है, क्राइस्ट हो सकता है। लेकिन वह हिन्दू, जैन, मुसलमान और ईसाई नहीं हो सकता । धार्मिक व्यक्ति वही हो पाता है जो बुद्ध और महावीर हो सकता है। अधार्मिक व्यक्ति न बुद्ध हो पाता है न महावीर हो पाता है। वह जैन हो जाता है और बुद्ध हो जाता है। अधार्मिक आदमियों के सम्प्रदाय है। पार्मिक आदमी का कोई सम्प्रदाय नहीं। इसे ऐसा भी कह सकते हैं कि धर्म का कोई सम्प्रदाय नहीं है, सब सम्प्रदाय अधर्म के हैं । अधार्मिक आदमी महावीर होने की हिम्मत नहीं जुटा पाता, जीसस नहीं हो सकता, बुद्ध नहीं हो सकता, कृष्ण नहीं हो सकता। अधार्मिक आदमी क्या करे ? अधार्मिक आदमी भी धार्मिक होने का मजा लेना चाहता है लेकिन धार्मिक नहीं हो सकता क्योंकि धार्मिक हो जाना एक बड़ी क्रान्ति से गुजरना है । तब वह एक सस्ता रास्ता निकाल लेता है। वह कहता है कि महावीर तो हम नहीं हो सकते लेकिन जैन तो हो सकते हैं। वह कहता है कि महावीर को हम मान तो सकते हैं, अगर महावीर नहीं हो सकते । मानने में तो कोई कठिनाई नहीं है। हम महावीर के अनुयायी तो हो सकते हैं। तो हम जैन है। लेकिन उसे पता नहीं कि जिन हुए बिना कोई जैन कैसे हो सकता है ? जिसने जीता नहीं सत्य को वह जैन कैसे हो सकता है ? महावीर इसलिए जिन है क्योंकि उन्होंने सत्य को जीता है। यह इसलिए जैन है कि यह महावीर को मानता है। जागे बिना कोई बोट कैसे हो सकता है ? बुद्ध जागकर बुद्ध हुए हैं । बुद्ध का अर्थ है जागा हुआ यानी जो जाग गया। बुद्ध को जगाना पड़ा बुद्ध होने के लिए लेकिन हम जागने की हिम्मत नहीं जुटा पाते तो हम बुद्ध को मान लेते हैं और बौद्ध हो जाते हैं। जीसस को सूली पर लटकाना पड़ा था क्राइस्ट होने के लिए लेकिन सूली पर लटकना बहुत मुश्किल है। हम एक सूली बना लेते हैं लकड़ी की, चांदी की, सोने की, गले में लटका लेते हैं और क्रिश्चियन हो जाते है । ये तरकीबें है धार्मिक होने से बचने की। सम्प्रदाय तरको है धार्मिक होने से बचने की। धर्म का कोई सम्प्रदाय नहीं है। पार्मिक आदमी का कोई पच नहीं है। सब अधामिक बादमी के.सगड़े Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्र ६९६ हैं। मेरा तो कोई पक्ष नहीं, कोई मत नहीं । महावीर से मुझे प्रेम है, इसलिए मैं महावीर की बात करता है; बुद्ध से मुझे प्रेम है, मैं बुद्ध की बात करता हूँ; कृष्ण से मुझे प्रेम है, मैं कृष्ण की बात करता है; क्राइस्ट से मुझे प्रेम है, मैं क्राइस्ट की बात करता हूँ। मैं किसी का अनुयायी नहीं हूँ। किसी का मत चलना चाहिए, इसका भी पक्षपाती नहीं हूँ । इस बात का जरूर आग्रह मन में है कि इन सबको समझा जाना चाहिए। क्योंकि इन्हें समझने से बहुत परोक्षरूप से हम अपने को समझने में समर्थ होते चले जाते हैं । इनके पीछे चलने से कोई कहीं नहीं पहुँच सकता । लेकिन इन्हें अगर कोई पूरी तरह से समझ ले तो स्वयं को समझने के लिए बड़े गहरे आधार उपलब्ध हो जाते हैं । की जा सकती । दूसरी बात यह है कि क्या मानवधर्म की स्थापना नहीं यह सब नासमझी की बातें हैं। दुनिया में कभी एक धर्म स्थापित नहीं हो सकता । असल में सभी धर्मों ने यह कोशिश की है। और इस कोशिश ने इतना पागलपन पैदा किया जिसका कोई हिसाब नहीं । इस्लाम भी यही चाहता है कि एक ही धर्म - इस्लाम – स्थापित हो जाए । ईसाई भी यही चाहते हैं कि उन्हीं का धर्म स्थापित हो जाए । बौद्ध भी यही चाहते हैं । जैन भी यही चाहेंगे कि उन्हीं का धर्म रह जाए । मानवधर्म वही होगा जो उनका धर्म है । अपने धर्म को वह मानव मात्र का धर्म बना लेना चाहते हैं । यह कोशिश असफल होने को बनी हुई है। क्योंकि मनुष्य-मनुष्य इतना भिन्न है कि कभी एक धर्म होना असम्भव है । धार्मिकता हो सकती है एक में। इस दोनों बातों के भेद को भी समझ लीजिए । मैं किसी मानव धर्म के पक्ष में नहीं है । क्योंकि अगर मैं मानव धर्म की कोशिश में लगूं तो वह सिर्फ हजार धर्मों में एक हजार एक और होगा । इससे ज्यादा कुछ नहीं होगा। सभी धर्म मानव-धर्म की आवाज लेकर आए और मनुष्य का एक धर्म स्थापित करने की चेष्टा की लेकिन उन्होंने एक की संख्या और बढ़ा दी और कोई अन्तर नहीं पड़ सका । मेरी दृष्टि यह है कि मानव धर्म एक हो यह बात ही बेमानी है। धार्मिकता हो जीवन में। धार्मिकता के लिये किसी संगठन की जरूरत नहीं कि सारे मनुष्य इकट्ठे हों, एक ही मस्जिद में, एक ही मन्दिर में, एक ही झंडे के नीचे । यह सब पागलपन की बातें हैं । धर्म का इनसे कोई लेना-देना नहीं। हाँ पृथ्वी धार्मिक हो इसकी चेष्टा होनी चाहिए । मनुष्य धार्मिक हो इसकी चेष्टा होनी चाहिए। कोई एक मनुष्य धर्म निर्मित करता है तो फिर वहीं पागलपन शुरू होगा और फिर एक सम्प्रदाय खड़ा होकर Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०० नया उपद्रव करेगा और कुछ भी नहीं कर सकता को स्थापित करने की चेष्टा में नहीं है । महाबीर : मेरी दृष्टि में । तो मैं किसी मानव धर्म मेरी चेष्टा कुल इतनी है कि धार्मिकता क्या है, धार्मिक होने का मतलब क्या है । यह साफ हो जाए और जगत् में धार्मिक होने की आकांक्षा जग जाए । और फिर जिसको जिस ढंग से धार्मिक होना हो वह हो जाए। वह कैसी टोपी लगाए, वह चोटी रखे कि दाढी रखे, वह कपड़े गेरुए पहने कि सफेद पहने, मन्दिर में जाए कि मस्जिद में, पूरब में हाथ जोड़े कि पश्चिम में, यह एक-एक व्यक्ति की स्वतन्त्रता होगी। इसके लिए कोई संगठन, कोई शास्त्र, कोई परम्परा आवश्यक नहीं है । मैं इस चेष्टा में नहीं हूँ कि एक मानव धर्म स्थापित हो, मैं इस चेष्टा में हूँ कि धर्मों के नाम से सम्प्रदाय बिदा हो जाएं। बस वह जगह खाली कर दें। उनकी कोई जगह न रह जाए । आदमी हो, सम्प्रदाय न हो, और आदमी को धार्मिक होने को कामना पैदा हो, उसका प्रयास हो, फिर हर आदमी अपने ढंग से धार्मिक हो और जिसको जैसा ठीक लगे वैसा हो । सिर्फ धार्मिक होने की बात समझ में आ जाए, उतनी बात ख्याल में आ जाए तो दुनिया में धार्मिकता होगी, सम्प्रदाय नहीं होंगे । लेकिन कोई मानव धर्म नहीं बन जाएगा । धार्मिकता होगी। और एक-एक व्यक्ति अपने-अपने ढंग से धार्मिक होगा । और जगत् में दो तरह के लोग रह जाएंगे - धार्मिक और अधार्मिक । अधार्मिक होंगे वे जो धार्मिक होने के लिए राजी नहीं है । लेकिन मेरी दृष्टि यह है कि अगर सम्प्रदाय मिट जाएं तो अधार्मिक आदमी बहुत कम रह जाएँगे क्योंकि बहुत से लोग इसलिए अधार्मिक है कि साम्प्रदायिक लोगों की मूर्खताएं देखकर वे धर्म के साथ खड़े होने को राजी नहीं हैं । कोई बुद्धिमान आदमी इनके साथ खड़ा नहीं हो सकता । ये बुद्धुओं की इतनी बड़ी जमाते हैं कि इनमें बुद्धिमान आदमी का खड़ा होना मुश्किल है। तो वह अन्ततः अधार्मिक दिखने लगता है । खोजबीन की जाए तो शायद पता चले कि उसके धार्मिक होने की अभिलाषा इतनी तीव्र थी कि इसमें से कोई उसे तृप्त नहीं कर सका। इसलिए वह अलग खड़ा हो गया । अगर सम्प्रदाय मिट जाएं तो दुनिया में धार्मिक आदमी के प्रति विरोध भी विलीन हो जाएगा । और धार्मिकता इतने आनन्द की बात है कि असम्भव है ऐसा आदमी लोजना जो धार्मिक होना न चाहता हो । लेकिन धार्मिकता बननी Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१५ ७०१ चाहिए स्वतन्त्रता। धार्मिकता बननी चाहिए सहवता। धार्मिकता बननी चाहिए सद्विचार, विवेक । धार्मिकता न हो पाखंग, न हो वमन, न हो पवरदस्ती, न हो जन्म से, न हो क्रिया-काण्ड से। धार्मिकता हो मन से, समझ है, तो पृथ्वी पर धर्म होगा लेकिन मानव धर्म नहीं। कोई आदमी अपने को क्या करता है, इससे क्या प्रयोजन है? यह सवाल नहीं है। वह कैसी प्रार्थनाएं करता है यह सवाल नहीं है। वह किससे प्रार्थना करता है यह सवाल नहीं है । वह प्रार्थनापूर्ण है यह सवाल है । वह आदमी किस शास्त्र को सत्य कहता है, किस परम्परा को सत्य कहता है यह बात व्यर्थ है। सार्थक बात यह है कि वह आदमी किस सत्य के अन्वेषण में संलग्न है, किस प्रकार के प्रेम को, ईसाइयत के प्रेम को,.जैनियों की अहिंसा को, बौद्धों की करुणा को ढूंढने में लगा है, किस का शोरगुल मचाता है, किसका नारा लगाता है यह सवाल नहीं है। सवाल यह है : क्या वह बादमी प्रेमपूर्ण है ? क्या वह आदमी अहिंसक है ? क्या उस भादमी में करुणा है ? करणा का कोई लेवल हो सकता है ? प्रेम पर कोई चाप हो सकती है? कैसा प्रेम ? किताबें हैं ऐसी जिनके शीर्षक है। ईसाई प्रेम । अब ईसाई प्रेम क्या बला होगी? क्या मतलब होगा ईसाई प्रेम का ? प्रेम हो सकता है। मगर ईसाई प्रेम क्या ? ___ मैं किसी मानव धर्म के लिए चेष्टारत नहीं है, पुरानी दो तरह की चेष्टाएं है, दोनों असफल हो गई है। एक चेष्टा यह है कि किसी एक धर्म ने कोशिश की कि वह सबका धर्म बन जाए । वह सफल नहीं हो सकी। उससे बहुत रक्तपात हुआ, बहुत उपद्रव फैला। फिर उससे हार कर दूसरी चेष्टा हुई कि सब धर्मों में जो सारभूत है, उसको निकाल कर, निचोड़ कर इकट्ठा कर लिया जाए। थियोसाफी ने वह प्रयोग किया कि सब धर्मों में जो-जो महत्त्वपूर्ण है, सबको निकाल लो। प्रश्न : अकबर ने भी किया था? उत्तर : हाँ, अकबर ने भी किया था। अकबर ने भी दीने इलाही की शक्ल में उसकी कोशिश की। अकबर भी असफल हुमा, पियोसॉफी भी असफल हुई वह भी सम्भव नहीं हो सका। वह कोशिश भी इसलिए असफल हुई कि उसने भी सब सम्प्रदायों को मान्यता दे दी थी। यानी यह तो कहा नहीं कि साम्प्रदायिक होना भूल है, उसने कहा कि साम्प्रदायिक होने में कोई भूल नहीं है। तुम्हारे पास भी सत्य है वह भी हम ले लेते है। कुरान से भी, बाइबरू से Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में भी, हिन्दू से भो, मुसलमान से भी सबसे ले लेते है। सबको जोड़कर हम एक मानव धर्म बना लेते हैं। उससे कोई सम्प्रदाय खंडित न हुमा। सम्प्रदाय अपनी जगह बड़े रहे और थियोसॉफी एक नया सम्प्रदाय बन गई। उससे कुछ फर्क नहीं पड़ा । थियोसोफिस्ट का अपना-अपना मन्दिर, अपनी व्यवस्था हो गई। थियोसॉफिस्ट का अपनी पूजा का ढंग अपना हिसाब हो गया। एक नया धर्म खड़ा हो गया। उसका अपना तीर्थ बना, अपना सब हिसाब हुवा। लेकिन उससे किसी पुराने सम्प्रदाय को कोई चोट नहीं पहुंची। दो कोशिशें की गई । एक, धर्म सर्वग्राही हो जाए, वह नहीं हुमा । दूसरा, सभी धर्मों में जो सार है उसको इकट्ठा कर लिया जाए, वह भी नहीं हो सका। अब मैं आपको तीसरी दिशा सुझाना चाहता हूँ और वह यह कि सम्प्रदाय मात्र का विरोध किया जाए; सम्प्रदाय मात्र को विजित किया जाए और धामिकता की स्थापना की जाए-धर्म की नहीं, पार्मिकता की। अगर वह सम्भव हो सका तो मानव धर्म तो नहीं बनेगा, कोई एक धर्म, एक घर्ष नहीं होगा, एक पोप नहीं होगा, एक झंडा नहीं होगा लेकिन फिर भी; बहुत गहरे अर्थों में मानव धर्म स्थापित हो जाएगा। उस गहरे अर्थ पर ही मेरी दृष्टि है। Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ प्रश्नोत्तर-प्रवचन Page #603 --------------------------------------------------------------------------  Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्न : जब आत्मा अमर है, ज्ञानस्वरूप है, फिर वह कैसे अज्ञान में गिरती है, कैसे बन्धन में गिरती है, कैसे शरीर लेती है ? जबकि शरीर छोड़ना है, शरीर से मुक्त होना है तो यह कैसे सम्भव हो पाता है ? उत्तर : यह सवाल महत्वपूर्ण है और बहुत ऊपर से देखे जाने पर समझ में नहीं आ सकता । थोड़ा भीतर गहरे झांकने से बात स्पष्ट हो जाती है कि ऐसा क्यों होता है । जैसे इस कमरे में आप हैं और आप इस कमरे के बाहर कभी नहीं गए, बड़े आनन्द में हैं, बड़े सुरक्षित हैं, न कोई भय न कोई अंधकार, न कोई दुःख । लेकिन इस कमरे के बाहर आप कभी नहीं गए । तो इस कमरे में रहने की दो शर्तें हो सकती हैं। एक तो यह कि आपको इस कमरे से बाहर जाने की स्वतन्त्रता ही नहीं है। यानी आप जाना भी चाहें तो नहीं जा सकते। आप परतंत्र हैं इस कमरे में रहने को। एक तो शर्त यह हो सकती है । दूसरी शर्त यह हो सकती है कि अगर आप परतंत्र हैं बाहर जाने के लिए तो आपका सुख, आपकी शांति, आपकी सुरक्षा सभी थोड़े दिनों में आपको कष्टदायी हो जाएगी क्योंकि परतंत्रता से बड़ा कष्ट और कोई भी नहीं है । अगर आपको सुख में रहने के लिए बाध्य किया जाए तो सुख भी दुःख हो जाएगा । एक आदमी को हम कहें कि हम तुम्हें सारे सुख देते हैं सिर्फ स्वतंत्रता नहीं, यानी यह भी स्वतंत्रता नहीं कि अगर तुम चाहो तो उन सुखों को भोगने से इन्कार कर सको, तुम्हें भोगना ही पड़ेगा तो वह सुख भी दुःख में बदल जाएगा । परतंत्रता बड़ा दुःख है । वह सारे सुखों को मिट्टी करी देती है । अगर यह शर्त हो इस कमरे के भीतर रहने की कि बाहर नहीं जा सकते, सुख नहीं छोड़ सकते तो यह सब सुख दुःख हो जाएंगे मोर बाहर निकलवे की प्यास ४५. Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१० महावीर : मेरी दृष्टि में और खोकर पर बाप दुवारा पाते है तब आपको पता चलता है कि मानन्द या है। निगोद में भी वही था, पर उसे खोना जरूरी था ताकि वह पाया जा सके । असल में को मिला ही हुआ है, उसका हमें पता होना बन्द हो जाता है। जो हमें मिला ही हुआ है, धीरे-धीरे हम उसके प्रति अचेतन हो जाते है, मूछित हो जाते हैं क्योंकि उसे याद रखने की कोई जरूरत ही नहीं होती। ये सवाल ही मिट जाता है हमारे मन से कि वह है क्योंकि वह है हो। यह इतना है कि जब हम ये तब वह था। तो जरूरी है कि उसे फिर से सचेतन होने के लिए खो दिया जाए। संसारमात्मा की यात्रा में खोने का विन्दु है। और वह भी हमारी स्वतंत्रता है। पर निपोव और मोक्ष में जमीन आसमान का फर्क है। बात बिल्कुल एक ही है। लेकिन निगोद बिल्कुल मूछित है, मोक्ष बिल्कुल अमूखित है। और निगोर को मोम बनाने की यो प्रक्रिया है, वह संसार है। यानी इस प्रक्रिया के बिना निगोद मोक्ष नहीं बन सकता। इसलिए अगर हम स्वतंत्रता के तत्व को समझ लें तो हमें सब समझ में आ जाएगा कि यह सारी यात्रा हमारा निर्णय है, यह हमारा चुनाव है। हमने ऐसा पाहा है, इसलिए ऐसा हुआ है। हमने जो चाहा है, वही हो गया है। कल अगर हम न पाहेंगे इसे तो यह होना बन्द हो जाएगा। परसों अगर हम बिल्कुल न चाहेंगे सब निर्णय छोड़ देंगे, तो वही संन्यास का अर्थ है । जब हम न चाहेंगे, हम छोड़ देंगे । हम नहीं चाहते हैं अब, हम वापिस लौटना शुरू हो जाएंगे। वही बिन्दु हमें फिर उपलब्ध होगी लेकिन हम बदल गए हैं। इस खोने की यात्रा में हमने विपरीत का अनुभव किया होगा, हमने दरिद्रता जानी होगी । बब सम्पत्ति हमें सम्पत्ति मालूम पड़ेगी, मानन्द हमें आनन्द मालूम पड़ेगा। इसलिए प्रत्येक बात्मा के जीवन में यह अनिवार्य है कि वह संसार में धूमे और इसलिए कई बार ऐसा हो जाता है कि जो संसार में जितने गहरे उतर जाते है, जिनको हम पापो कहते है, वे उतनी ही तीव्रता से वापिस लौट आते है। और दूसरी मोर जो साधारण जन पाप भी नहीं करते, जो संसार में भी पहरे नहीं उतरते, वे शायद मोर की ओर भी उतनी जल्दी नहीं लौटते क्योंकि लौटने में तीव्रता तभी होगी जब दुल और पीड़ा मी तीच हो पाएगी। जब हम इतनी पीड़ा से गुजरेंगे कि लोटना जरूरी हो पाए-लेकिन बगर हम बहुत पीड़ा से नहीं गुजरे है वो शायद लौटना पहरी न हो। पैसे यह पेली लेकर मसम्दीन भागापा-पूरी पेली लेकर भागापा। पीड़ा भारी पी। वह दो Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रमान-२४ ७११ रुपये लेकर भागा होता तो हो सकता है कि उस भादमी ने थैली गोष ली होती और वह अपने घर चला गया होता कि ठीक है लेकिन तब इस पैली की उपलब्धि का वह रस नहीं हो सकता था क्योंकि थैली फिर वही की वही पी और मादमी फिर गांव-गांव में पूछता कि मानन्द का रास्ता क्या है ? . सुख कैसे मिले ? नसरुद्दीन ने कहा कि 'सुख को सोओ तो सुख मिलेगा। अब यह बड़ा अजोब मालूम पड़ता है। जिसे पाना है, उसे लोगो क्योंकि अगर वह पाया ही हुआ है तो उसका पता ही नहीं चलेगा। तो संसार में हम वही सोते हैं जो हमें मिला हुआ है। मोल में हम वही पाते हैं जो हमें मिला हमा है। और यह सारा का सारा चक्र स्वतंत्रता के केन्द्र पर घूमता है । जितना शान, जितना आनन्द, उससे भी गहरी स्वतंत्रता-इसलिए मुक्ति की हमारी इतनी आकांक्षा है, बंधन का इतना विरोष है और हम मुक्त होना चाहते हैं लेकिन बन्धन को अनुभव कर लेंगे तभी। प्रश्न : मारमा स्वतन्त्र है। लेकिन वासना के कारण परतन्त्र ही उत्तरवासना भी उसकी स्वतन्त्रता है। वासना को भी वही चुनती है, बंधन को भी वही चुनती है। यानी में स्वतन्त्र होकर चाहूं तो हथकड़ी अपने हाथ में बांध लूं। कोई मुझे रोकने वाला नहीं है। और इसके लिए भी स्वतन्त्र हूँ कि चाबी से ताला लगाकर चाबी को फेंक दूं, कि उसको खोजना ही मुश्किल हो जाए । मैं इसके लिए भी स्वतन्त्र हूँ कि अपनी हथकड़ी पर सोना चढ़ा हू। लेकिन अन्तिम निर्णय मेरा ही है। यहां कोई किसी को परतन्त्र नहीं कर रहा है । हम होना चाहते हैं तो हो रहे हैं। हम नहीं होना चाहते तो नहीं होंगे। बहुत गहरे में जो वासना का है वह भी हमारा चुनाव है। कौन तुमसे कहता है कि वासना करो। तुम्हें लगता है कि वासना को पाने, पहचानें, शायद उसमें भी सुख हो, तो उसे खोजें तो तुम यात्रा करो। यात्रा जरूरी है ताकि तुम जानो कि सुख वहां नहीं था और दुःख ही था । और अगर वासना का ख प्रकट हो जाएगा तो तुम वासना छोड़ दोगे। तब तुम्हें कोई रोकने नहीं आएगा कि क्यों वासना छोड़ी जा रही है। कोई तुम्हें कहने नहीं पाएगा कमी कि क्यों तुम वासना पकर रहे हो। मन्य को स्वतन्त्रता परम है और स्वतन्त्रता तभी पूर्ण है जब पूरा करने का भी हक हो । बगर कोई कहे कि बच्चा करने की स्वतन्त्रता है, पूरा करने Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ महावीर । मेरी दृष्टि की नहीं तो स्वतन्त्रता कैसी है यह? एक बाप अपने बेटे से कहे कि तुझे मन्दिर जाने की स्वतन्त्रता है, वेश्यालय जाने को नहीं तो यह मन्दिर जाने की स्वतबता कैसी स्वतन्त्रता हुई ? यह तो परतन्त्रता हुई। अगर आप कहें कि मन्दिर जाने की हो तुझे स्वतन्त्रता है बस तू मन्दिर ही जा सकता है, वेश्यालय जाने को स्वतन्त्रता नहीं है, वहाँ तू नहीं जा सकता तो यह स्वतन्त्रता कैसी हुई? यह मन्दिर जाने की स्वतंत्रता को स्वतन्त्रता का नाम देना झूठा है । यह बाप परतन्त्रता को स्वतन्त्रता के नाम से लाद रहा है। लेकिन अगर बाप स्वतन्त्रता देता है तो वह कहता है कि तुझे हक है कि तू चाहे तो मधुशाला जा, चाहे तो मन्दिर जा। तू अनुभव कर, सोच, समझ, जो तुझे ठीक लगे, कर । परम स्वतन्त्रता का मतलब होता है सदा मूल करने की स्वतन्त्रता भी। प्रश्न : और हमें स्वतन्त्रता के कारण ही भूल होती है ? उत्तर : स्वतन्त्रता के कारण भूल नहीं होती। प्रश्न : चुनाव पुरे का ही होता है ? उत्तर : यह जरूरी नहीं है। क्योंकि बुरे का चुनाव करने के बाद जिन्होंने भले का चुनाव किया है, वह भी उन्हीं का है। यानी जो मोक्ष गए है, मोक्ष जाने में वे उतना ही चुनाव कर रहे हैं जितना कि संसार में आकर वे चुनाव कर रहे हैं । असल में जो मन्दिर की ओर जा रहा है वह भी उसका चुनाव है जो वेश्यालय की ओर जा रहा है वह भी उसका चुनाव है। जहां तक स्वतन्त्रता का सम्बन्ध है, दोनों बराबर है । स्वतन्त्रता का दोनों उपयोग कर रहे हैं। यह दूसरी बात है कि एक बन्धन बनाने के लिए उपयोग कर रहा है, एक बंधन तोड़ने के लिए उपयोग कर रहा है। यह बिल्कुल दूसरी बात है। और इसके लिए भी हमें स्वतन्त्रता होनी चाहिए कि अगर मैं बंधन ही बनाना चाहता है और हथकड़ियां हो डालना चाहता हूँ तो दुनिया में मुझे कोई रोक न सके । नहीं तो वह भी परतंत्रता होगी। यानी मान लो कि मैं हथकड़ी डालकर बैठना चाहता है, जंजीरें बांधकर पैरों में और दुनिया मुझे कहे कि यह हम न करने देंगे तो यह परतंत्रता हो जाएगी क्योंकि हथकड़ियां गलने की मुझे स्वतंत्रता है। क्योंकि अन्तिम निर्णायक मैं हूँ और जो मैं कह रहा है वह यह कि अगर सुख को जानना हो तो दुःख की स्वतन्त्रता भोगनी ही पड़ेगी। उसकी ही पृष्ठभूमि में सुख की सफेद रेखाएं उभरेंगी। हम पहीं लोट माते है जहाँ से हम आते है लेकिन न तो हम वही रह जाते है, न वही बिन्दु Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन- २४ ७१३ वही रह जाता है क्योंकि हमारी सब दृष्टि बदल जाती है। एक सन्त फिर बच्चा हो जाता है लेकिन एक बच्चा सन्त नहीं हो जाता । प्रश्न : तो फिर मोक्ष की अवस्था में अगर वह वापिस आना चाहेसमभो करुणावश, फिर वह चुन सकता है, चुनाव तो फिर भी हो सकता है ? उत्तर : बिल्कुल चुनाव हो सकता है। लेकिन सिर्फ करुणावश हो । लेकिन फिर वह संसार में आता नहीं है । हमें दिखता भर है आया हुआ । यह भी समझ लेना जरूरी है कि हम जिस भांति संसार में आते हैं फिर वह उस भांति संसार में नहीं आता । मैंने पीछे कहीं एक वक्तव्य दिया है । जापान में एक फकीर था जो कुछ चोरी कर लेता और जेलखाने चला जाता । उसके घर के लोग परेशान थे । वे कहते थे कि हमारी बदनामी होती है तुम्हारे पीछे और तुम आदमी ऐसे हो कि तुम्हें प्रेम करना पड़ता है और तुम्हारे पीछे हम भी बदनाम होते हैं। जब तुम बूढ़े हो गए, अब तुम चोरी बंद करो। लेकिन फिर वह कहता है कि वह जो जेल में बंद हैं, उनको खबर कौन देगा कि बाहर कैसा मजा है । मैं उन्हें खबर देने जाता है और कोई रास्ता नहीं इसलिए कुछ चोरी कर लेता हूँ और जेल चला जाता है । और वहाँ जो बंद हैं उनको खबर देता हूँ कि बाहर स्वतन्त्रता कैसी है । उनको कौन खबर देगा अगर वहाँ चोर ही चोर जाते रहेंगे ? लेकिन इस फकीर का जाना भिन्न है वहीं जाता ही नहीं । क्योंकि यह चोरी चोरी के हथकड़ियाँ डाली जाती हैं तब भी यह कैदी नहीं है और जब यह किया जाता है तब भी यह कैदी नहीं है । यह कंद से बाहर का बल्कि और कैदियों को भी मुक्त करने के स्याल से आया हुआ है । । और यह फकीर लिए नहीं करता। एक अर्थ में जब इसके जेल में बंद आदमी है तो जब बुद्ध या महावीर या जीसस जैसा आदमी जमीन पर आता है तो हमें लगता है कि वह आया । सच में वह आता नहीं है । यह संसार अब उसके लिए संसार नहीं है । अब यह उसके अनुभव की यात्रा नहीं है । अब इसमें उसकी कोई पकड़ नहीं है, कोई जकड़ नहीं है । अब इसमें कोई रस नहीं है । इसमें कुल करुणा इतनी है कि वे जो और भटक रहे हैं उनको वह खबर दे • यहां करुणावश उतरना जाए कि एक और लोक है जहां पहुंचना हो सकता है। हो सकता है। लेकिन यह करना अन्तिम . बासमा है से देखें तो कहना में भी थोड़ा सा अज्ञान शेष है जिसको बज्ञान नहीं कह क्योंकि अगर बहुत गौर Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में बहुत बारीक अज्ञान जा सकता है क्योंकि ७१४ मुक्त करोगे ? कोई सकते लेकिन जिसको ज्ञान भी नहीं कहा जा सकता । की रेखा शेष है। वह यह है कि किसी को मुक्त किया जो अपनी स्वतन्त्रता से अमुक्त हुए हैं उनको तुम कैसे दुःख में है, यह भी अज्ञान है । क्योंकि वह दुःख उसके स्वयं का निर्णय है । और किसी को उसके समय के पहले वापिस लोटाया जा सकता है यह भी सम्भव नहीं । उसका अनुभव तो पूरा होगा ही । यानी अगर इस शर्त पर हम गौर करें तो करुणा अन्तिम वासना है। पर उसे वासना कहने में, अज्ञान कहने में भी बुरा लगता है। इसलिए वह एक आध बार जन्म ले सकता है, इससे ज्यादा नहीं | क्योंकि तब वह करुणा भी क्षीण हो जाएगी। वह भी जल जाएगी। वह भी विलीन हो जाएगी । U प्रश्न : यह बात आप कहते हैं कि समय के पहले नहीं लोटता है ? उत्तर : समय के पहले का मतलब यह नहीं है कि किसी का समय कोई तय है। समय के पहले का मतलब यह है कि उसका पूरा भोग हो जाए । समय के पहले का मतलब यह नहीं है कि एक तारीख तय है कि उस तारीख को तुम लौटोगे | तारीख तय नहीं है लेकिन तुम्हारा अनुभव तो पूरा हो जाए । उसके पहले तुम्हें नहीं लौटाया जा सकता । प्रश्न: क्या मेरे पर ही निर्भर करता है कि कब लौटें ? उत्तर : बिल्कुल तुम पर ही निर्भर करता है, नहीं तो परतंत्र हो जाओगे तुम । फिर मुक्ति नहीं हो सकती तुम्हारी कभी भी । अगर किसी ने तुम्हें मुक्त कर दिया तो वह नयी तरह की परतंत्रता होगी । फिर तुम कभी मुक्त नहीं हो सकते । और इसलिए मैं कहता हूँ कि परम स्वतंत्रता है आत्मा को दुःख भोगने की, नरकों की यात्रा करने की, पीड़ाओं में उतरने की, जलने की सब में उतर जाने की उसे पूरी स्वतंत्रता है और कोई नहीं सकता । ईर्ष्याओं में उसे लौटा प्रश्न : उतरने की जरूरत क्या है वापस ? जिन आत्माओं को कररणा की अन्तिम इच्छा रहती है वही उतरती हैं। सभी को उतरने की जरूरत नहीं है । उत्तर : यही तो मैं कह रहा है । उतरने की जरूरत नहीं है। लेकिन मैं यह कह रहा हूँ कि करुणा अन्तिम वासना है और यह उसका चुनाव है। यानी यह जो मैं कह रहा हूँ कि स्वतंत्रता, परम स्वतंत्रता है हमें। और अगर मैं बाज मुक्त हो जाता है और फिर भी लौट आना चाहता हूँ तो दुनिया में मुझे कोई Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तरप्रमाण-२४ ७१५ रोकने को नहीं है। यानी अगर मुझे ऐसा लगता है कि मैं आपके द्वार पर खटखटाऊँ यह भी जानते हुए कि किसी को षगाया नहीं जा सकता उसके पहले। यह भी हो सकता है कि मैं जानता होऊँ कि किसी को जागने के पहले जगाया नहीं जा सकता, सब को अपनी सुबह है और वक्त पर सबकी नींद पूरी होगी तभी वे जागेंगे और बीच में जगाना दुःखद भी हो क्योंकि वे फिर सो जाएं यानी नींद तो पूरी हो जानी चाहिए किसी की। मैं जाकर पांच बजे उसका दरवाजा खटखटा हूँ और वह जाग भी जाए, करवट बदले और फिर सो जाए। और शायद पहले वह पांच बजे उठा था, अब वह आठ बजे उठे क्योंकि यह बीच का जो अन्तर पड़ा, वह नुकसान दे जाए उसे । बाप जगेंगे कि नहीं, सवाल यह नहीं है। सवाल यह है कि मैं जाग कर जो आनन्द अनुभव कर रहा हूँ, वह मुझे परेशान किए जा रहा है। वह मानन्द मुझे कह रहा है : जाबो, किसी के द्वार खटखटा दो। यानी अब बहुत गहरे में हम समझे तो बाप नहीं है केन्द्र करुणा के। यानी बाप बगेंगे कि.नहीं यह विचारणीय नहीं है। लेकिन जो जग गया है, वह एक ऐसे मानन्द को अनुभव करता है कि बन्तिम वासना उसकी यह होगी कि वह अपने प्रियजनों को खबर कर दे, भले ही प्रियजन उसको गाली दें कि बेवक्त नींद तोड़ दी, दुश्मन दरवाजा खटखटा रहा है। बहुत गहरे में देखने पर पता चलेगा कि यह करुणा अपना चुनाव है । हमसे, मापसे कोई गहरा सम्बन्ध नहीं है। वासना भी अपना चुनाव है। जैसे समझ लें कि मैं आपको प्रेम करने लगू यह मेरा चुनाव है। जरूरी नहीं कि आप मुझसे प्रेम करें और जरूरी नहीं कि मेरे प्रेम से आपको आनन्द भी मिले। और हो सकता है कि मेरा प्रेम बापको दुःख दे और मेरा प्रेम बापको परेशानी में डाले । फिर भी मैं पापके लिए प्रेम से भरा है। यह मेरी भीतरी बात है। और मैं प्रेम करूंगा और यह प्रेम आपके लिए क्या लाएगा, कुछ भी नहीं कहा जा सकता । हालांकि मेरा प्रेम कोशिश करें कि आपके लिए हित माए, मंगल पाए, लेकिन यह परी नहीं। करुणा को मैं कह रहा है बन्तिम वासना। जिसकी सारी वासनाएँ क्षीण हो गई, उस बादमी को मानन्द उपलब्ध हो गया। मन्तिम वासना एक रह बाती है कि वह मालमसरों को भी उपलब्ध हो जाए। अब अपने लिए पाने को कुछ भी शेष नहीं रहा। उसने मानन्द पा लिया। बब एक अन्तिम Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मेरी दृष्टि में वासना शेष रह जाती है कि यह मानन्द दूसरों को भी उपलब्ध हो पाए और वह भी एक तीव्र भाव है, हालांकि वह भी चुनाव है। तो जरूरी नहीं कि सभी शिक्षक वापिस लौटें। इसलिए मैंने कहा कि यह मौज की बात है कि कोई सीधा चुपचाप विलीन हो सकता है मोक्ष में, कोई ठिठक जाए, वापिस लौट आए। हालांकि वह भी एक जन्म, दो जन्म के बाद विलीन हो जाएगा कहीं लेकिन वह अन्तिम उपाय कर सकता है । यह भी अज्ञान का ही हिस्सा है बहुत गहरे में, क्योंकि अगर पूर्ण ज्ञान हो तो यह बात भी खत्म हो जाने वाली है। जो जा रहा है, अपनी-अपनी स्वतंत्रता है, अपनी-अपरी यात्रा है । लेकिन वैसा पूर्ण ज्ञानी हमें कठोर मालूम पड़ेगा। क्योंकि राह चलता अगर कोई प्यासा पड़ा है तो शायद उसको पानी भी न दे। क्योंकि वह कहेगा, अपनी-अपनी यात्रा है। हालांकि वह तुम्हें कठोर मालूम पड़ेगा। तो अपनी-अपनी यात्रा है। त्याग भी तुम्हारा चुनाव है, तुमने जो पीछे किया, जैसे जो हुआ, जैसे तुम चले, वैसे तुम पहुंचे। जब तक जरा सी भीण मात्मा है विशेष करुणा की जरूरत होगी और तब तक व्यक्तित्व रहेगा। पूर्ण वासना निषेष होने पर ही व्यक्तित्व विलीन हो जाता है। तो पूर्ण जैसा व्यक्ति तुम्हें बहुत कठोर मालूम होगा। यानी शायद हम समझ ही न पाएं कि यह आदमी कैसा है ? कोई बादमी कुएं में डूब कर मर रहा होगा वो वह खड़ा देखता रहेगा। अपनी-अपनी यात्रा है, अपना-अपना चुनाव है। इसको पकड़ना मुश्किल हो जाएगा, इसको पहचानना मुश्किल हो जाएगा। कोई आदमी आग में हाथ गल रहा होगा तो वह खड़ा देखता रहेगा कि अपना-अपना अनुभव है, अपना-अपना ज्ञान है; आग में हाथ डालोगे तो अनुभव होगा कि हाथ जलता है; तो मैं कह कर क्यों व्यर्थ बात कह ? मेरे कहने से कुछ होगा नहीं; तुम जब हाय गलोगे, तभी तुम जानोगे। और अगर बिना हाथ डाले तुमने जान किया तो हो सकता है कि और कष्ट में तुम पड़ जाओ। क्योंकि मैं तुम्हें कह दूं कि भाग में डालने से हाप जलता है और तुम मान जाओ लेकिन तुम्हारा अनुभव न हो, कल तुम्हारे घर में आग लग जाए और तुम सोचो कि कौन जलता है तो जिम्मेदार कौन होगा? यानी में ही हूँगा? इससे तो अच्छा होता कि तुम हाथ गल लेते और जल जाते, कल तुम्हारे घर में भाग लगती तो तुम निकल कर बाहर हो जाते क्योंकि तुम्हारा अनुभव काम करता। अपना अनुभव ही काम करता है। और इसलिए व्यक्तित्व के विदा होने की जो अन्तिम बेला होगी उस वेला में करुणा प्रकट होगी। यह ऐसे ही है जैसे Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१७ सूर्यास्त की लालिमा है । कभी स्थाल ही नहीं क्रिया कि सूर्यास्त की लालिमा का क्या मतलब है । सुबह भी लालिमा होती है। अभी सूरज बढ़ेगा और चढ़ेगा; अभी फैलेगा और विस्तीर्ण होगा, अभी जलेगा औरं तपेगा । अभी दोपहर पाएगा और जवान होगा। सुबह की लालिमा सिर्फ खबर है जन्म की । वह भी वासना है लेकिन विकासमान, फैलने वाली । साँझ को फिर आकाश लाल हो जाएगा । यह सूर्यास्त की लालिमा है लेकिन वह अन्तिम लालिमा है । लेकिन फैलने की नहीं, सिकुड़ने की है। अब सब सिकुड़ता जा रहा है। सूरज सिकुड़ रहा है, किरणें वापस लौट रही हैं, सूरज डूबता चला जा रहा है । लेकिन लोटती किरणें भी लालिमा फेकेंगो, उपती किरणों ने भी फेंकी थीं और अगर किसी को पता न हो तो उगते और डूबते सूरज में भेद करना मुश्किल हो सकता है । अगर पता न रहा हो, एक आदमी दो चार दिन बेहोश रहा हो और एकदम होश में लाया जाए और उससे कहा जाय कि सूरज डूब रहा है कि उठ रहा है तो उसे थोड़ा वक्त लग जाएगा क्योंकि उगता और डूबता सूरज एक-सा लगता है । किरणों का जाल एक में फैलता होता है, एक में सिकुड़ता होता है । एक में लालिमा घटती है, एक में बढ़ती है। लेकिन लालिमा दोनों में होती हैं, किरणें दोनों में होती हैं। थोड़ी देर लग सकती है उसको पहचानने में कि यह लालिमा सिकुड़ने की है या फैलने की है। तो व्यक्ति का पहला जन्म किरण होता है जहाँ से वासना फैलती है । वासना ही फैलती हुई इच्छाएँ हैं—फैलता हुआ सूर्योदय । जब सब इच्छाएँ सिकुड़ जाती हैं और सूरज का सिर्फ गोल हिस्सा रह जाता है डूबता हुआ आखिरी - इसकी फिर भी कालिमा है । में बाते हैं, महावीर डूबते की है यह आखिरी लालिमा । यह करुणा है। यह डूब जाएगा । और कई बार चूक हो जाती है। हम समझते हैं कि सूरज उग रहा है और जब तक हम समझ पाते हैं तब तक वह डूब जाता है। और हम उससे कुछ लोभ नहीं ले पाते हैं । यह बहुत बार होता है । बुद्ध गांव गांव में आते हैं, जीसस भी जाते हैं, कृष्ण भी आते हैं। कि अभी सूर्योदय हो रहा है। और तुम वासनाग्रस्त हो और तब तक सूरज डूब गया। फिर रोते बैठे रहो। सकता । तब जानने के लिए उपाय नहीं रह जाता। लेकिन उगता, डूबता सूरज एक जैसे मालूम पड़ते हैं। हो सकता है कि बुद्ध जिस गांव में आए हों, लोगों ने सोचा हो कि यह सब भी बासना है । लेकिन हो सकता है और तुम चूक गए हो फिर कुछ भी नहीं हो Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर :मेरी दृष्टि एक गांव में तीन बार गुजरे जीवन में। तो गांव में एक आदमी पा जो अपनी दूकान पर बैठा रहा। लोगों ने उससे कहा कि पुख बाप है। उसने कहा कि अभी तो बहुत ग्राहक है, दुबारा जब पाएंगे तब सुन लूंगा। मुख तीन बार उस गांव से गुजरे । आखिर पुट भी क्या कर सकते है, कितनी बार उस गांव से गुजर सकते हैं ? बुद्ध की सीमा है और गांव भी बहुत है। और युद्ध भी क्या कर सकते हैं ? अगर ग्राहकी चलती हो रहे और वह कहे मान तो बहुत काम है, दुवारा जब भाएंगे तब देखा जाएगा। फिर बुद्ध दुबारा उस गांव में नहीं पाते । लेकिन एक दिन उस गांव से खबर आती है कि पड़ोस के गांव में बुद्ध का अन्तिम दिन है, लोग इकट्ठे हो रहे हैं । वे मरने के करीब हैं और उन्होंने कह दिया कि जल्दी हो डूब जाएंगे, बस्त हो जाएंगे, जिन्हें जो पूछना हो, भागो। उस आदमी ने दूकान बन्द की, शायद दूकान भी बन्द नहीं कर पाया। घर के लोगों ने कहा : क्या करते हो, अभी बहुत वक्त है, अभी काम है, अभी दूकान पर काफी लोग हैं। उसने कहा, वह तो ठीक है, लेकिन फिर उस आदमी से मिलना नहीं हो पाएगा। वह बादमी भागता हुआ दूसरे गांव गया। वहां लोग इकट्ठे थे। बुद्ध ने उनसे पूछा : तुम्हें कुछ और पूछना है ? उन सब ने कहा कि हमने इतना पूण और इतना जाना कि अब कुछ भी पूछने को नहीं है, अब तो करने को है कि हम कुछ करें। तो बुद्ध ने कहा कि फिर मैं विदा लूं। तीन बार उन्होंने पूछा जैसी कि उनकी मावत थी। लोगों ने कहा : कुछ भी नहीं पूछना, अब क्या पूछने को है ? तब बुद्ध ने कहा कि मैं विवायूँ और वृक्ष के पीछे चले गए। ध्यान में बैठे और डूबने लगे। तब वह आदमी भागा हुमा पहुंचा। तब उसने कहा कि बुद्ध कहाँ है ? लोगों ने कहा चुप, अब बात मत करना। अब वह वृक्ष के पीछे चले गए हैं। अब वह शान्ति से अपने में उतर रहे है, वापिस दूब रहे हैं, व्यक्तित्व छोड़ रहे है, निर्वाण में जा रहे है। उस बादमी ने कहा : मेरा क्या होगा ? क्योंकि मैं चूक ही गया है, उनसे कुछ पूछना था । लोगों ने कहा, पागल हो गए हो। चालीस साल से इसी इलाके में वह पक्कर लगाते थे तब तुम कहां थे? उसने कहा तब दूकान पर बहुत भीड़ थी। भीड़ तो बाज भी पी। लेकिन तब मैंने समझा था सूरज उग रहा है। तब मुझे यह ध्यान न पा कि डूबने का वक्त भी आ पाएगा। पर मुझे पूछना है, देर मत करो क्योंकि सूरज तो वा पा रहा है। लेकिन कोगों ने कहा कि तुम जोर से बावाब मत करना, नहीं तो वह इतने करणावा है कि वापिस लोट सकते है। लेकिन मी पूर्व Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २४ ७१८ बाहर आ गए वृक्ष के पीछे से और उन्होंने कहा कि ऐसा मत करो, नहीं तो सदियों तक लोग मेरा नाम धरेंगे कि बुद्ध जिन्दा थे और एक आदमी पूछने भाया और द्वार से खाली हाथ लौट गया । अभी नहीं ? क्या तुझे पूछना है ? यह जो लोटना है यह उतना ही लोटना है जितना कि सच में कोई मोक्ष से लौट आए। इससे कुछ बहुत फर्क नहीं है । लेकिन यह अन्तिम वासना है, मोर यह अन्तिम वासना भी अर्थपूर्ण है । इसलिए कि जगत् में इससे ज्ञान की सम्भावना होती है, इतने विचार का जन्म होता है। अगर यह न हो तो जगत् में प्रकाश की कोई सबर ही न पाए। अगर कोई इतना करुणावान् न हो कि इसलिए चोरी करे कि जेलखाने जाए तो हो सकता है कि जेलखाने के लोग भूल ही जाएँ कि बाहर कोई जगत् भी है। लेकिन एक बात पक्की है कि जगे हुए लोग हमारे मन में जागने की कोई न कोई सूक्ष्म वासना पैदा कर जाते हैं। जगे हुए लोगों की मौजूदगी, इनकी बात, इनका चलना, इनका उठना, इनका बैठना- हमारे भीतर कहीं कोई धक्का दे जाता है, शायद अपने घर की याद दिला जाता है । यह करुणा इसलिए अर्थपूर्ण है । मेरी दृष्टि में तो जगत् में कुछ भी अर्थहीन निगोद भी अर्थपूर्ण है, लेकिन सबसे पीछे जो नहीं है । वासना भी अर्थपूर्ण है, मोक्ष भी अर्थपूर्ण है । संसार के परम सत्य है वह स्वतन्त्रता का है । वह हम स्वतन्त्रता के तत्व का प्रयोग कर रहे हैं। कैसा कर रहे हैं यह हम पर निर्भर है। हित के लिए कर रहे हैं, अहित के लिए कर रहे हैं करुणा भी अर्थपूर्ण है, सब काम अर्थपूर्ण हैं । दुःख के लिए कर रहे हैं यह हम पर इसकी भी निर्भर है। अपने सुख के लिए कर रहे हैं, स्वतन्त्रता है । ईश्वर को जो इन्कार किया भगवान् के इन्कार में लेकिन ईश्वरपन में महावीर और बुद्ध जैसे व्यक्तियों ने कारण यह भी है। ईश्वर के इन्कार में, इन्कार नहीं है। ईश्वर को इन्कार किया है है। अगर ईश्वर को मानें तो स्वतन्त्रता फिर पूरी नहीं हो सकती और अगर उसके रहते स्वतन्त्रता पूरी हुई तो वह बेमानी है। यानी अगर वह है और उसको हम कहते हैं स्रष्टा, नियम और फिर कहते हैं कि आदमी पूर्ण स्वतन्त्र है तो महावीर कहते हैं कि दोनों में मेल नहीं है । उसकी मौजूदगी ही बाधा बनेगी । उसका नियमन भी किसी तरह की परतन्त्रता होगी । उसमें एक भगवत्ता का पूर्ण स्वीकृति • इसलिए वे परमात्मा का इन्कार करते हैं ताकि परतन्त्रता का कोई उपाय म रह जाए। इसका यह मतलब नहीं कि वह परमात्मा से इन्कार करते हैं । Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२० महावीर : मेरी टिम इसका मतलब है कि परमात्मा के व्यक्तित्व को इन्कार करते हैं और परमात्मा को संब में व्याप्त मानते हैं लेकिन नियामक नहीं। परमात्मा के ऊपर वह किसी को नहीं बिठाते हैं। फिर हो सकता है कि परतन्त्रता परमात्मा की इच्छा हो जैसा कि साधारण मास्तिक मानता है कि उसकी इच्छा हुई तो उसने जगत् बनाया। फिर हम बिल्कुल परतंत्र मालूम होते हैं। यानी हमारी इच्छा से हम जगत् में नहीं है, उसकी इच्छा से हम जगत् में है । फिर उसकी इच्छा होगी तो वह जगत् मिटा देगा। हम मोक्ष में हो जाएंगे और जब तक उसकी इच्छा नहीं होगी तब तक कोई उपाय भी नहीं है। तब जगत् बहुत बेमानी है, वह कठपतलियों का खेल हो जाता है, जिसमें कोई अर्थ नहीं रह जाता। जहां स्वतंत्रता नहीं है वहां कोई अर्थ नहीं है। जहां परम स्वतन्त्रता है वह प्रत्येक चीज में अर्थ है। और परम स्वतन्त्रता की घोषणा के लिए ईश्वर को इन्कार कर देना पड़ा कि उसको हम कोई जगह नहीं देंगे; वह है ही नहीं। साधारण मास्तिक की दृष्टि में परमात्मा नियामक है, नियन्ता है, स्रष्टा है तो स्वतन्त्रता खत्म हो गई। मगर गहरे आस्तिक को दृष्टि में ईश्वर स्वतन्त्रता है । वह जो परम स्वतन्त्रता का व्याप्त कण-कण है, उस सबका समग्र नाम ही परमात्मा है। अगर इसको हम समझ पाएं तो फिर पापी को दोष देने का कोई कारण नहीं। इतना ही कहना काफी है कि तूने स्वतन्त्रता को जिस ढंग से चुना है वह दुःख लाएगी। इससे ज्यादा कुछ भी कहने को नहीं। लेकिन वह कह सकता है कि अभी मुझे दुःख अनुभव करने हैं । निन्दा का कोई कारण नहीं, कोई सवाल नहीं। मैं कहता हूँ कि मुझे गड्ढे में उतरना है। आप कहते हैं. गड्ढे में प्रकाश नहीं होगा। सूरज की किरणें गड्ढे तक नहीं पहुंचेंगी। वहाँ अधेरा है । मैं कहता हूँ लेकिन मुझे गड्ढे का अनुभव लेना है। तो अगर आपने अनुभव लिया हो गड्ढे का तो गड्ढे में जाने को सीढ़ियां मुझे बता दें। अगर 'आप गए हों गड्ढे में, और आप जरूर गए होंगे क्योंकि आप कहते हैं कि वहाँ सूरज की किरणें नहीं पहुँचतीं तो मैं भी गड्ढे को जानना चाहता हूँ ताकि गड्ढे में जाने की वासना विदा हो जाए। तो निन्दा कहाँ है ? मेरी दृष्टि में पापी व्यक्ति की कोई निन्दा नहीं है और पुण्यात्मा व्यक्ति की कोई प्रशंसा नहीं है। क्योंकि सवाल यह नहीं है कि वह अपनी स्वतन्त्रता का उपयोग कर रहा है और तुम अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग कर रहे हो। और मजा यह है तुम तो सुख के लिए स्वतन्त्रता का उपयोग कर रहे हो। प्रशंसा की बात क्या है ? प्रशंसा करनी हो तो उसकी करो जो दुःसके लिए अपनी Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतरप्रवचन-२४ स्वतन्त्रता का उपयोग कर रहा है, जो अजीब आदमी है, हिम्मतबर मोहै, साहसी भी है, क्योंकि दुःख उठाता है और दुःख में जाने के लिए स्वतन्त्रता का उपयोग भी कर रहा है। हो सकता है कि वह इतना दुःख जानकर लोटे कि उसके लिए सुख की गहराइयों का अन्त न रहे। __ सभी को जाना पड़ेगा अंधकार में ताकि वे प्रकाश में भा सके और समो को स्वयं को सोना पड़ेगा ताकि वे स्वयं को पा सकें। यह बहुत अजीब बात मालूम पड़ती है लेकिन बात यही है और अगर कोई इसको भी पूछे कि ऐसा क्यों है तो वह बेमानी पूछता है। ऐसा है और इससे अन्यथा नहीं है। इसके सिवाय जानने का कोई उपाय नहीं है। आग जलाती है। कोई पूछे कि क्यों जलाती है तो हम कहेंगे बस बाग जलाती है । बस एक ही उपाय है । न जलना हो तो हाथ मत डालो आग में। जलना हो तो हाथ डाल दो बाग में । बाग जलाती है। और आग क्यों जलाती है, इसका कोई उपाय नहीं है। और बर्फ क्यों ठंडी है, इसका कोई उपाय नहीं है। बर्फ ठंडी है, आग आग है। पोर्षे जैसी है, वैसी है। स्वतन्त्रता जगत् की मौलिक स्थिति है। इससे अन्यथा नहीं है । आगे जाने का कोई उपाय नहीं है क्योंकि अगर कोई कहे कि किसने यह स्वतन्त्रता दी, तो दी गई स्वतन्त्रता स्वतन्त्रता नहीं होगी। किसी ने स्वतन्त्रता नहीं दी। मगर किसी ने स्वतन्त्रता ली तो स्वतन्त्रता तभी लेनी पड़ती है जबकि परतन्त्रता हो, नहीं तो स्वतन्त्रता लेने का कोई सवाल ही नहीं। अगर स्वतन्त्रता है तो उसे न कोई देता है न कोई लेता है। वह जगत् का स्वरूप है, वह वस्तुस्थिति है, वह स्वभाव है। और उसके उपयोग की बात है। कोई उसको दु:ख के लिए उपयोग करता है, करे, कोई सुख के लिए उपयोग करता है, करे। सुख वाला चिल्ला कर कह सकता है भाई, देखा, उस तरफ जाकर दुःख होगा। फिर भी दुःख वाला कह सकता है कि आप गए तब मैं नहीं चिल्लाया। बाप क्यों परेशान होते हैं ? मुझे जाने दें। तो बात खत्म हो जाती है। इससे ज्यादा कोई मतलब नहीं है। इसलिए मुझे निरन्तर लोग पूछते है कि आप इतना लोगों को समझाते है, क्या हुवा ? तो मैं कहता है कि यह पूछना ही ठीक नहीं है। अगर हम पूछते है तो हम उनकी स्वतन्त्रता में पाषा गलते है। यानी मेरा काम पाकिम पिल्ला दिया। मेरा काम या पिल्लाना। उन्होंने मुझे कहा भी नहीं पाकिपिललामो। Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - महावीर : मेरी मिन यह मेरी मौलवी कि मैं चिल्लाया। यह मेरा चुनावया। यह उनकी मौज पांकि उन्होंने सुना या उनकी मौज पी किनहीं सुना। या उनकी मौन थी कि सुना बोर बनसुना कर दिया। इस बात में वे स्वतन्त्र थे। इससे भागे पूछने की कोई जरूरत ही नहीं। । हम सब अपनी स्वतन्त्रता में जी रहे हैं और दुःख या सुख हमारे निर्णय हैं । और इसलिए बड़ी मौज है, और जिन्दगी बड़ी रसपूर्ण है। कहीं कोई रोकने वाला नहीं है, कहीं कोई मालिक नहीं है। हम ही मालिक हैं। और इतना समझ में बा जाए तो फिर और क्या समझाने को शेष रह जाता है ? कोई निर्णायक है ही नहीं सिवाय आपके । वह आपका निर्णय है। अब जैसे कि नसरूद्दीन थैली लेकर भाग गया। वह आदमी यह भी निर्णय कर सकता है कि ठीक है, ले जाओ, हम नहीं आते पोछे और कभी न लौटे। वह उसका निर्णय है कि वह पीछा करता है और तब तक पीछा करता है जब तक पा नहीं लेता। लेकिन वह कह सकता है कि ठीक है, ले जाओगे तो हो सकता है कि तुम्हें खोजना पड़े कि मैं कहाँ गया। हालत यह हो जाए कि तुम खोजते थक जाओ, दुःखी हो जाओ, परेशान हो जाओ क्योंकि तुम कोई चोर तो ये नहीं । वह थैली तो लोटाना है। प्रश्न : यह निर्णय करना कौन कराता है ? इसका कोई उत्तर नहीं ? उत्तर : कोई नहीं कराता । आप करते हैं । स्वतन्त्रता का मतलब ही रही है कि आप निर्णायक हैं और आप हो निर्णय करते हैं । प्रश्न : प्रारम्प क्या है? उत्तर : प्रारम्ष कुछ भी नहीं। अपने किए हुए निर्णय प्रारब्ध बन जाते हैं। जैसे कि मैंने एक निर्णय किया कि मैं इस कमरे में बैठेगा। तो एक ही बात हो सकती है कि या तो में इस कमरे में पैलूं, या बाहर बैठू । निर्णय करते ही प्रारम्ष शुरू हो जाता है । निर्णय का मतलब है कि मैं प्रारम्ष मिमित कर रहा हूँ। अब में एक ही काम कर सकता हूँ-बाहर बैठू कि भीतर । भीतर बैठता तो यह प्रारम्भ हो गया। मेरा निर्णय शुरू हो गया। अब मैं बाहर नहीं हो सकता एक ही साथ । मगर बाहर जाऊंगा तो भीतर नहीं होऊंगा। भीतर के सुखममीवर मिलेंगे, बाहर के सुख दुख पाहर मिलेंगे। अब यह फिर मेरा प्रारम हो गया क्योंकि वो मैने निर्णय लिया हमें मोगा। Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोतलप्रवचन-१४ अब एक भावमी ने निर्णय किया है कि मैं धूप में पैठूमा। तो धूप का जो भी फल होने वाला है, वह उसे मिलने वाला है। इसमें धूप जिम्मेदार नहीं है। इसमें कोई जिम्मेदार नहीं है । धूप का काम धूप है। आपका काम है कि बापने निर्णय किया धूप में बाहर बैठने का। आपका चेहरा काला हो जाएगा। वह जिम्मेदारी आपकी है। वह बापका प्रारब्ध हो जाएगा। लेकिन बाज मगर चेहरा काला हो गया तो उसको ठीक करने में इस दिन लग पाएंगे। तो दस दिन तक प्रारम्प पीछा करेगा क्योंकि वह जो हो गया उसका क्रम होगा। तो हम जिसको प्रारब्ध कहते हैं वह हमारे अतीत में किए गए निर्णयों का इकट्ठा सारांश है । वह निर्णय हमने किए थे, उनकी व्यवस्था हो गई है। ये हमें करने पड़ रहे हैं। प्रश्न : और अभी पुरुषार्थ करेंगे, सोचेंगे ? उत्तर : बिल्कुल नहीं, वह तो सवाल ही नहीं, पुरुषार्थ और प्रारब्ध का। तुम स्वतन्त्र हो आज भी। और आज तुम जो करोगे वह फिर निर्णय बनेगा और फिर एक तरह का प्रारब्ध निर्मित होगा उससे । बहुत गौर से देखें तो मोच भी एक प्रारम्ष है। जो आदमी स्वतन्त्र होने का निर्णय करता है अन्त में मुक्त हो जाता है। संसार भी एक प्रारम्य है। प्रारष का मतलब ही इतना होता है कि तुमने कुछ निर्णय किया फिर उस निर्णय का फल भोगो। प्रश्न : शास्त्रों में पुरुषार्थ मानी हई भवितव्यता बताई है। इसका क्या अर्थ है? उत्तर : शास्त्रों से मुझे कुछ मतलब ही नहीं। शास्त्रों से क्या लेना-देना है । शास्त्र लिखने वाले की मौज थी। तुम्हारी मौज है पढ़ो या न पढ़ो। वह कहीं बांधता नहीं। उससे क्या लेना-देना ? उससे क्या प्रयोजन ? प्रश्न : क्या वासना की उन्मत्तता के समय मुक्तात्मा स्वतंत्रता का उपयोग संसार में आने के लिए कर सकता है ? उत्तर : नहीं कर सकता क्योंकि एक आदमी आग में हाथ मलने के लिए पहली बार स्वतन्त्रता का उपयोग कर सकता है। लेकिन जल जाने के बाद उपयोग करेगा, मुश्किल है। एक बच्चा है वह दिए पर हाथ रखकर को पकड़ सकता है। स्वतंत्रता का उपयोग उसने किया, हाप जल गया, अनुभव हुमा । अब दुबारा इस बच्चे से कम माता है कि विएं की को पकड़े, क्योंकि इसका Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महागीर : मेरी दृष्टि में अनुभव भी इसके साथ खड़ा हो गया। अब स्वतन्त्रता का पैसा उपयोग करना मुस्किल है। तो को मुक्त हो गया वह संसार का दुःख झेलने के लिए वासना करे यह असम्भव है। चाहे वो बा जाए, कोई रोकने वाला नहीं है उसको, लेकिन वह चाहनहीं सकता। महावीर अगर सिशिला छोड़कर वापिस आना चाहें तो कोई उन्हें रोक नहीं सकता। कौन रोकने वाला है? लेकिन महावीर नहीं आ सकते क्योंकि अब अनुभव भी साथ है। यहाँ का अनुभव काफी भोग लिया, वह दुःख काफी झेल लिया। वह अनुभव इतना गहरा हो गया कि उसका कोई अर्थ नहीं है, उसका कोई प्रयोजन नहीं है। Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ प्रश्नोत्तर - प्रवचन Page #621 --------------------------------------------------------------------------  Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुःख, सुख, और आनन्द इन तीन शब्दों को समझना बहुत उपयोगी होगा। दुःख और सुख भिन्न चीजें नहीं है बल्कि उन दोनों के बीच में जो भेद है वह ज्यादा से ज्यादा मात्रा का, परिमाण का, डिग्री का है। और इसलिए दुःल. सुख बन सकता है और सुख दुःस बन सकता है। जिसे हम सुख कहते है वह भी दुःख बन सकता है और जिसे हम दुःख कहते हैं वह भी सुख बन सकता है। इन दोनों के बीच का जो फासला है. भेद है, वह भेद विरोधी का नहीं है, वह भे। मात्रा का है : एक आदमी को हम गरीब कहते हैं। एक बादमी को हम भोर कहते हैं। गरीब और अमीर में भेद किस बात का है ? विरोष है दोनों में ? आमतौर से ऐसा दिखता है कि परीब और अमीर विरोधी व्यवस्थाएं है। ले कन सच्चाई यह है कि गरीबी-अमीरी एक ही चीज की मात्राएं है। एक अनमी के पास एक रुपया है तो गरीब है, एक करोड़ रुपया है तो ममीर है। अगर एक रुपए में गरीब है तो एक करोड़ में अमीर कैसे हो सकता है ? इतना हो हम कह सकते है कि यह एक करोड़ गुना कम गरोष है। और एक करोड़ वाला अमीर है तो एक रूपए वाला गरीब कैसे ? फिर इतना ही हम कह सकते है कि यह एक करोड़ गुना कम अमीर है। इन दोनों में जो भेद है, वह ऐसा नहीं है जैसा दो विरोषियों में होता है। वह भेद ऐसा है जैसे एक ही चीज की मात्रा में होता है। लेकिन गरीबी दुःख हो सकती है और अमीरी सुख हो सकती है । गरीब दुःखी है और अमीर होना चाहता है ! तो दुःख और सुख में को भी भेव है, वह मेव सिर्फ मात्रा का ही है। इसी भांति हमारी सारी सुख की अनु. भूतियां दुःख से जुड़ी हुई है और हमारी सारी.दुःखको अनुभूतियां भी सुबसे पुड़ी हुई है। इन दोनों के बीच जो गेल रहा है वह संसार में है। संसार में Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ महावीर : मेरी दृष्टि में होने का मतलब इतना ही न है कि सिर्फ दुःखानुभूति । अगर संसार में सिर्फ दुःख की अनुभूति हो तो कोई भटक ही नहीं। फिर तो भटकने का उपाय ही न रहा । भटकता सिर्फ इसलिए है कि सुख की आशा होती है, अनुभूति दुःख की होती है । और सुख मिल जाता है तो मिलते ही दुःख में बदल जाता है। संसार की अनुभूति को दो तीन तरह से देखना चाहिए। एक तो यह कि सुख सदा भविष्य में होता है कि कल मिलेगा। और कल मिलने वाले सुख के लिए आज हम दुःख झेलने को तैयार होते हैं । आज के दु:ख को हम इस आशा में झेल लेते है कि कल सुख मिलेगा। अगर कल सुख की कोई आशा न हो तो बाज के दुःख को एक क्षण भी झेलना कठिन है। उमरखय्याम ने एक गीत लिखा है और उस गीत में वह कहता है कि मैं कई जन्मों से भटक रहा है और सबसे पूछ चुका हूँ कि बादमी भटकता क्यों है । लेकिन कोई उत्तर नहीं मिलता। और तब मैंने थक कर एक दिन भाकाश से ही पूछा कि तूने तो सब भटकते लोगों को देखा है और उन सबको भी देखा है जो भटकने के बाहर हो गए, बोर उन सबको भी देखता रहेगा जो भटकन में बाएंगे और उनको भी देखता रहेगा जो भटकन के बाहर होंगे। तू ही मुझे बता दे कि आदमी भटकता क्यों है ? तो चारों ओर आकाश से, वह अपने गीत में कहता है, मुझे नावाज सुनाई पड़ी : माशा के कारण । आदमी भटकता क्यों है ? बाशा के कारण । और आशा क्या है ? इस बात की सम्भावना बोर आश्वासन कि कल सुख मिलेगा, मज दुःख झेल लो। बाज का दुख हमसेलते है कल के सुख की बाशा में । फिर जब कल सुख मिलता है तो बड़ो अजीब घटना घटती है। सुख मिलते ही फिर दुःख हो बाता है। जो चीज उपलब्ध हो जाती है वह कुछ भी नहीं होती। कितनी कल्पना की थी कि उसके मिलने पर यह होगा, वह होगा। प्रत्येक व्यक्ति माने अनुभव को पोड़ा जांचेगा तो हैरान होगा कि उसने कितने-कितने सपने संजोए है । फिर वह चीज मिल गई और पाया कि कुछ भी नहबा। वह सबके सब सपने कहाँ सो गर, यह पता ही न चला । वह सब की सब कल्पनार कैसे विलीन हो गई, कुछ पता न चला । चीज हाथ में पाई कि जो-जो उसके मिलने की सम्भावना में छिपा हुमा सुखपा, वह एकदम तिरोहित हो गया। अब तक नहीं मिला था तब तक प्रतीक्षा में सुख था। जब मिल जाता है तब सब सुख समाप्त हो जाता है। फिर दौड़ शुरू हो जाती है क्योंकि वहाँ दुःख है, वहाँ से हम भोगेंगे । Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिस्प्रवपन-२५ ७२९ यह भी समझ लेना चाहिए कि जहाँ दुःख है, वहां हम रुक नहीं सकते। वहाँ से हम भागेंगे क्योंकि जहाँ दुल है वहां कैसे रुका जा सकता है। सुख भागता है, दुःख से हम हट जाना चाहते है भोर दुःख से हटने का उपाय क्या है ? एक ही उपाय दिखाई पड़ता है साधारणतः और वह यह है कि सुख की किसी बाशा में हम बाज के दुःख को भुला दें, विस्मरण कर दें। तो फिर से हो दुःख शुरू होता है, हम नयी भाशा में बंध जाते है। इस तरह आदमी जीता दुःख में है, होता दुःख में है लेकिन उसकी माखें सुख में लगी होती है । जैसे बादमी पलता पृथ्वी पर है, देखता आकाश को है । माकाश पर देखने में सुविधा हो सकती है कि पृथ्वी पर होना भूल जाए। फिर भी होंगे पृथ्वी पर । हम खड़े हुए दुःख में है लेकिन आंखें सदा सुख में है। इससे हमें सुविधा हो जाती है कि हम दुःख को भूल जाते हैं और दुःख को झेलने की क्षमता उपलब्ध कर लेते है। अब अगर बहुत गहरे में देखा जाए तो सुख सिर्फ सम्भावना है, सत्य कभी महीं । दुःख सदा सत्य है, तथ्य है, वास्तविक है लेकिन दुःख कैसे झेला जाए? तो हम उसे सुख की बाशा में मेल लेते हैं। कल का सुख बाज के दुःख को सहनीय बता देता है। और वह सुख जो कल का है, कभी मिलता नहीं । और जिस दिन मिल जाता है भूल-चूक से उसी दिन हम पाते है कि भ्रान्ति टूट गई। बह वो बाशा हमने बांधी थी, सही सिद्ध नहीं हुई। लेकिन इससे सिर्फ इतना ही हम समझ पाते हैं कि यह सुख सही नहीं था। दूसरे सुख सही होंगे । उनकी भाषा में बागे दौड़ते रहो। यह भूल भ्रान्ति सिद्ध हो गई, टूट गई, दुःखमा गया तो बब फिर चित भागेगा । हम एक माशा से उखड़ते हैं, मामा-मात्र से नहीं उतरते हैं। एक सुस की व्यर्थता को जानते है लेकिन सुखमात्र को व्यर्यता को नहीं जान पाते । इसलिए यह होड़ जारी रहती है। अगर दुःख ही है जीवन में और सुख की' कोई सम्भावना नहीं है तो एक व्यक्ति क्षणमात्र भी संसार में नहीं रह सकता। एक क्षण भर रहना भी मुश्किल है। एक क्षण में ही वह मुक्त हो जाएगा। लेकिन बाशा उसे आगे गतिमान् रखती है। और मुक्त व्यक्ति को को मिलता है उसे सुख नहीं कहना चाहिए। उसे जो मिलता है, वह सुख और दुःख दोनों से भिन्न है । इसलिए उसे आनन्द कहना चाहिए । बब यह बड़े मजे की बात है कि बानन्द से विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख दुःख एक दूसरे के विपरीत है मेकिन मानन्द के विपरीत कोई बस्याही Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. महावीर मराहिम नहीं । मानन्द सुख नहीं है। अगर उसे सुख बनाया तो फिर पुल की दुनिया शुरू हो गई। साधारणतः हम कहते है कि वह व्यक्ति मानन्द को उपलब्ध होता है जो पुल से मुक्त हो जाता है। लेकिन यह कहने में थोड़ी प्रान्ति हैं। कहना ऐसा चाहिए कि मानन्द को वह व्यक्ति उपलब्ध होता है, जो सुख दुःख से मुक्त हो जाता है। क्योंकि जो सुख दुःख है, वह कोई दो चीज नहीं है। इसलिए साधारण जन को निरन्तर यह भूम हो जाती है समझने में और वह मानाद को सुख ही समझ लेता है। समझता है कि दुःख से मुक्त हो जाना ही सुख है । इसलिए बहुत से लोग सत्य की खोज में या मोक्ष की खोज में वस्तुतः सुख की ही खोज में होते हैं। इसलिए महावीर ने एक बहुत बढ़िया काम किया है । सुख के खोजी को उन्होंने कहा है कि वह मर्ग का खोजी है। मानन्द के खोपी को उन्होंने कहा कि वह मोक्ष का खोजी है। दुःख का खोजी नरक का खोजी है, सुख का खोजी स्वर्ग का खोजी है। लेकिन दोनों से अलग जो मुक्ति का खोजी है, वह आनन्द का खोजी है। स्वर्ग मोष नहीं है। महावीर के पहले बहुत व्यापक धारणा यही थी कि स्वर्ग परम उपलब्धि है। उसके आगे क्या उपलब्धि है ? सब सुख मिल गया तो परम उपलब्धि हो गई। लेकिन मनोवैज्ञानिक रीति से समझना चाहिए कि जहाँ सुख होगा, वहाँ दुःख अनिवार्य है । जैसे, जहाँ उष्णता होगी, वहां शीत अनिवार्य है। जहाँ प्रकाश होगा, वहां अंधकार अनिवार्य है। असल में ये एक ही सत्य के दो पहलू है और एक साथ हो जीते हैं। और इनमें से एक को बचाना और दूसरे को फेंक देना असम्भव है। ज्यादा से ज्यादा इतना ही किया जा सकता है कि हम एक को ऊपर कर लें और दूसरा नीचे हो जाए। जब हम सुख के भ्रम में होते हैं तब दुःख नीचे छिपा है और प्रतीक्षा करता है कि कब प्रकट हो जाऊं। और जब हम दुःख में होते हैं तब सुप नीचे छिपा होता है और प्रतिपल आशा 'दिए जाता है कि अभी प्रकट होता है, अभी प्रकट होता है। लेकिन दोनों चीजें एक ही है और अगर यह समझ में आ जाए तो सुख का भ्रम टूट जाता है। सुख का भ्रम टूटे तो दुःख का साचात् होता है। सुख का भ्रम बना रहे तो दुःख का साक्षात् नहीं होता। क्योंकि उस भ्रम के कारण हम दुःख को सहनीय बना लेते हैं। हम उसे झेल लेते हैं। सुख का भ्रम दुःख का पूर्ण साक्षात् नहीं होने देता, जैसा दुःख है उसे पूरा प्रकट नहीं होने देता। उसकी पूरी पैनी धार हमें छेद नहीं पाती। सुख, दुःख की धार को खोखला कर देता है। असल में हम दुःला की ओर देखते ही नहीं। हम सुख की ओर ही देखे चले जाते है। Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GTT दुःख इधर पैरों के नीचे से निकलता है लेकिन हम कभी बस गड़ा कर दु को नहीं देखते हैं । दुःख से सुख की आशा में हम सदा भागे चले जाते हैं । वही व्यक्ति सुख के भ्रम से मुक्त होगा जिसे यह दिखाई पड़ेगा कि सुख जैसा कुछ भी नहीं है । लोटकर पीछे देखो तो स्याल में आ सके। लेकिन इम सदा देखते हैं बागे, इसलिए क्याल में नहीं माता । लोटकर पीछे देखो : ऐसा कोन सा क्षण था जब सुख पाया। तो बड़ी हैरानी होगी पीछे लौटकर देखने से । एकदम मरुस्थल मालूम पड़ता है, जहाँ सुख का कोई फूल कभी नहीं खिला । हालांकि बहुत बार जब अतीत नहीं था, भविष्य था तो हमने सोचा था कि सुख मिलेगा। फिर वह अतीत हो गया बोर हमारी बाशा भविष्य में चली गई । कल जो भविष्य था, आज अतीत हो गया । आज जो भविष्य है, कल अतीत हो जाएगा । और अतीत को मोटकर देखो तो सुख कभी न था । हालांकि ठीक इतनी ही आशा तब भी बी-मिलने की, पाने की, उपलब्धि की । ओर इतनी ही धारणा अब भी है । और आगे भी हम वही कर रहे हैं जो हमने पीछे किया था। आज झेल रहे हैं कल की आशा में । इसलिए आज को देख नहीं पाते । इस सूत्र को समझ लेना चाहिए कि जो व्यक्ति सुख के भ्रम में है वह दुःख का साक्षात्कार नहीं कर सकता है। भविष्य में सुख का भ्रम दुःख का साक्षात्कार नहीं होने देता। बल्कि असलियत यह है कि हम सुख का भ्रम इसलिए पैदा करते हैं ताकि दुःख का साक्षात्कार न हो सके । एक आदमी भूखा पड़ा है। वह भूख का साक्षात्कार नहीं कर पाता क्योंकि वह उस वक्त कल जो भोजन बनेगा, मिलेगा उसके सपने देख रहा है । एक आदमी बीमार पड़ा है । वह बीमारी का साक्षात्कार नहीं कर पाता क्योंकि वह कल के उन सपनों में सोया है जब वह स्वस्थ हो जाएगा । हम पलायन करते हैं । हम पूरे समय चूक गए हैं उन जगह से जहाँ हम है झेलना इतना जीना पड़ेगा, दुख वहाँ निरन्तर दुःख है । शायद उस दुःख को चूकना पड़ता है, भागना पड़ता है। जाए तो भागोगे कहां, यह कभी सोचा है ? हमें दुःख में भोगना पड़ेगा, दुःख जानना पड़ेगा, दुःख के साथ आंखें गढ़ानी पड़ेंगी, क्योंकि कोई उपाय नहीं है कहीं ओर जाने का। हम हैं और दुःख है । जो व्यक्ति दुःख का साक्षात्कार कर लेता है वह उस तीव्रता पर पहुँच जाता है, जहाँ से वह लोटता है । जब सब ओर दुःख के कांटे उसे छेद लेते है और भविष्य में कोई और जहाँ हम हैं कठिन है कि हमें सुख का भ्रम टूट । Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१२ महाबीर । मेरी एण्टि में माशा नहीं रह पाती और बामे कोई उपाय भी नहीं रह जाता मवह जाएगा कहाँ ? फिर वह अपने में लौटता है । जिस दिन दुःख का पूर्ण साक्षात्कार होता है, उसी दिन वापसी शुरु हो जाती है। उसी दिन व्यक्ति लोटने लगता है। इसे समझ लेना। . दुःख से भागोगे तो सुख में पहुंच पायोगे । दु. जामोगे तो मानन्द में पहुँचगानोगे । दुःला से नहीं भागे, दुम्स में खड़े हो गए, दुःख को पूरा देखा और दुःख को साक्षात् किया तो रूपान्तरण शुरू हुना। क्योंकि जैसे ही दुःख का पूर्ण सामात्कार हुमा, हम वही फिर कैसे कर सकेंगे जिससे दुःख पाए । फिर हम उन्हीं डंगों से कैसे जी सकेंगे जिनसे दुःस बाता है। फिर हम उन्हीं वासनाओं, उन्हीं तृष्णाओं में कैसे फिरेंगे जिनका फलाख है। फिर हम ये बीज कैसे गोएंगे जिनके फलों में दुःख आता है। लेकिन दुःख को हमने कभी देखा नहीं। दुमका साक्षात् मानन्द की यात्रा बन जाता है। पुर कहते है यह किया तो इससे यह हवा यह मत करो, उससे यह नहीं होगा। ऐसा नियम है। मैंने गाली दी, गाली लोटी। मैंने दुःख दिया, दुःख पाया। अब अगर इस दुःख का पूरा-पूरा बोष मुझे हो जाए तो कल मैं गाली नहीं दूंगा कल मैं दु:ख नहीं पहुंचाऊंगा क्योंकि पहुंचाया हुआ दुल वापिस लौट जाता है और तब दुःख की सम्भावना क्षीण हो जाती है। इसी तरह जीवन के प्रत्येक विकल्प पर कैसे-कैसे दुःख पैदा होता है, वह मुझे दिखाई पड़ना शुरू हो जाए तो कोई भादमी दुःख में कभी नहीं उतरता। सब बादमी सुख की नाव पर सवार होते है, दुःख की नाव पर कोई सवार नहीं होता। कौन दुःख की नाव पर सवार होने को राजी होगा। अगर पक्का , पता है कि यह नाव दुःख के घाट उतार देगी तो इस पर कौन सवार होगा। हम दुःख की नाव में सवार होते है लेकिन पाट सदा सुखका होता है। नाव अगर राह में कष्ट भी देती है, डूबने का हर भी है तो भी कोई फिक्र नहीं। घाट के उस पार सुख है। लेकिन दुःख की नाव सुख के घाट पर कैसे पहुंच सकती है ? बस में दुःख देने वाला साधन सुख का साथी कैसे बन सकता है ? बसल में प्रथम कदम पर पो हो रहा है, वही अन्तिम पर भी होगा। अगर मैने ऐसा कदम उठाया है जो अभी पुःख दे रहा है तो यह कैसे सम्भव है कि यही कदम का और भागे चलकर सुख देगा। इतना ही सम्भव है कि कल बोर मागे बहार पुल देगा। क्योंकि बाज जो छोटा है, कल और बड़ा हो जाएगा । कल Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन- २५ मैं दस कदम और उठा लूंगा, परसों दस कदम और उठा लूंगा और यह रोज बढ़ता चला जाएगा । यह दुःख का छोटा सा बीज रोज वृक्ष होता चला जाएगा। इसमें और शाखाएँ निकलेंगी, इसमें और फल लगेंगे, इसमें और फूल लगेंगे । और न केवल फूल बल्कि एक बीज बहुत जल्दो वृक्ष होकर करोड़ बोज हो जाएगा । बीज गिरेंगे और वृक्ष उठेंगे और यह अन्तहीन फैलाव है। यानी एक बीज कितने वृक्ष पैदा कर सकता है, कोई हिसाब लगाए । शायद पृथ्वी पर जितने वृक्ष हैं उन्हें एक ही बीच पैदा कर सकता है । शायद सारे ब्रह्माण्ड में जितने वृक्ष हैं, एक ही बीज पैदा कर सकता है। एक बीज की फैलने की कितनी अनन्त सम्भावना है, इसको सोचने जाओगे तो एकदम घबड़ा जाओगे । अनन्त सम्भावना इसलिए है कि एक ही बीज करोड़ बीज हो सकता है । फिर प्रत्येक बीज करोड़ बीज होता चला जाता है, इसके फैलाव का कोई रुकाव नहीं है । हम जो पहला कदम उठाते हैं वह बीज बन जाता है और अन्तिम फल उसको सहज परिणति है । लेकिन हम बीज जहर के बो देते हैं, इस आशा में कि फल अमृत के होंगे । वे कभी अमृत के नहीं होते। बार-बार हमने यह अनुभव किया है । निरन्तर प्रतिपक हमने यह जाना है कि जो बीज बोए थे, वही फल आ गए । लेकिन हम अपने को धोखा देने में कुशल हैं और जब फल आते हैं तो हम कहते हैं : जरूर कहीं कोई भूल हो गई है। जरूर परिस्थितियाँ अनुकूल न थीं । हवाएं ठीक न थीं। सूरज वक्त पर न निकला, वर्षा ठीक समय वर न हुई, ठीक समय पर खाद नहीं डाला गया । इसलिए फल कड़ने आ गए। हम दूसरी सब चीजों पर दोष देते हैं । लेकिन हम एक चीज को छोड़ जाते हैं कि बीज जहरीला था । और मजे की बात यह है कि अगर वर्षा ठीक समय पर न हुई हो, अनुकूल परिस्थिति न मिली हो, माली ने ठीक वक्त पर खाद न दिया हो, सूरज न निकला हो तो हो सकता है कि फल जितना बड़ा हो सकता था, उतना बड़ा न हुआ हो। हो सकता है कि जितना जहरीला फल मिला वह छोटा ही रहा हो। इसे थोड़ा समझना चाहिए। जितना दु.ख हमें मिलता है, आम तौर से हम कह देते हैं कि यह परिस्थितियों के ऊपर निर्भर है। यह परिस्थितियाँ हमें दुःख दे रही है। मैं ठो ठीक हूँ लेकिन मित्र, पत्नी, पिता, पति, संसार, परिस्थितियां अनुकूल नहीं हैं। ऐसे हम बीज को बचा रहे है। मैंने जो किया वह तो ठीक है, लेकिन साथ अनुकूल न मिला। हवाएं उल्टी Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३४ महावीर । मेरीष्टि में बह गई, सूरज न निकला, सब गड़बड़ हो गया। लेकिन ध्यान रहे कि अगर प्रतिकूल परिस्थिति में इतना कडुवा फल माया तो अनुकूल परिस्थितियों में कितना कडुवा फल पाता है इसका कोई हिसाब नहीं। हम जो इच्छाएं करते हैं अगर वे पूरी की पूरी हो जाएं तो हम इतने बड़े दुःख में गिरेंगे जितने दुःख में हम कभी भी नहीं गिरे । इसे थोड़ा समझना चाहिए। ' आमतौर से हम सोचते हैं कि हम इसलिए दुःखी हैं कि हमारी इच्छाएं पूरी नहीं होती हैं। हमारा तर्क यह है, हमारे दुःख का कारण यह है कि हम इच्छा करते हैं, वह पूरी नहीं होती। जबकि सच्चाई यह है, हमारे दु.ख का कारण यह है कि हम जो इच्छा करते हैं, वह दुःख का बीज है और वह बिना पूरा हुए इतना दुःख दे जाती है तो अगर पूरी हो जाए तो कितना दुःख दे जाएगी, बहुत मुश्किल है कहना । समझ लें कि एक व्यक्ति की अभी इच्छा पूरी नहीं हुई, वह बहुत दुःखी रहता है। उससे पूछो तो वह कहेगा कि मैं इतना दुःखी हूँ जिसका कोई हिसाब नहीं क्योंकि जिसे पाना है वह नहीं मिल रहा है। हजार बाधाएं आ रही है। एक प्रेमी है जो अपनी प्रेयसी को पाने की खोज में लगा है। वह नहीं मिली है। एक प्रेयसी है जो अपने प्रेमी को पाने की खोज में लगी है, वह नहीं मिला है। लेकिन प्रेयसी मिल जाए तो एक इच्छा पूरी हुई मिलने की और मिलते ही जो आशाएं है वे सब तत्काल क्षीण हो जाएंगी क्योंकि पाने का, जीतने का, सफल होने का जो भी सुख है वह सब चला गया। वह जो इतने दिन तक आशा थी कि पाने पर यह होगा, वह होगा, वह आशा चली गई क्योंकि वह सब आशा पाने से सम्बन्धित न थी। वह सब आशा हमारे ही सपने और काव्य थे, हमारी ही कल्पनाएं थीं जो हमने पारोपित की हुई थीं। और एक प्रेयसी दूर से जैसी लगती है वैसी पास से नहीं। दूर के ढोल सुहावने होते है । दूर की चीजें सुहावनी होती है। असल में दूरी एक सुहावना. पन पैदा करती है। जितनी दूरी उतनी सुखद क्योंकि दूर से हम चीजों को पूरा नहीं देख पाते । जो नहीं देख पाते हैं वह हम अपना सपना हो उसकी जगह रख देते हैं। दूर से एक व्यक्ति को हम देखते हैं । दिखती है एक रूप-रेखा लेकिन बहुत कुछ हम अपने सपने से उसमें जोड़ देते हैं। इसमें दूसरे व्यक्ति का कहीं कसूर नहीं है। लेकिन जो हमने जोड़ा था वह विषलकर बहने लगे निकट माने.पर, और जो हमने सपना जोड़ दिया था, काव्य जोड़ दिया था वह मिटने लगे, जैसा व्यक्ति वा पैसा प्रकट होजाए ऐसा हमने कमी नहीं मा। Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तोतस्प न-२५ ७५ असम में हम सोच भी कैसे सकते हैं कि दूसरा व्यक्ति कैसा है। हम सिर्फ कामना कर सकते है कि ऐसा हो। लेकिन हमारी कामनाओं के अनुकूल किसी व्यक्ति का जन्म नहीं हुवा है। व्यक्ति का जन्म उसकी अपनी कामनाबों के अनुकूल हुआ है। कोई किसी दूसरे व्यक्ति की इच्छाओं के अनुकूल पैदा नहीं हुआ है । प्रत्येक व्यक्ति अपनी इच्छाओं के अनुकूल पैदा हुआ है। लेकिन हमने अपनी इच्छाएं आरोपित की थीं। वे मिलते ही खंडित हो जाएंगी और वह व्यक्ति प्रकट होगा जैसा हमने उसे कभी नहीं जाना था और जितने हमने सपने जोड़े थे वास्तविकता उन सबको तोड़ देगी, एक-एक चीज़ में तोड़ देगी। फिर मैंने चाहा था कि व्यक्ति पूरा मिल जाए। यानी मैं कहूँ रात तो वह कहे रात, मैं कई दिन तो वह कहे दिन । यह इच्छा कभी पूरी नहीं होगी। बोर मजे की बात यह है कि उसने भी यही कामनाएं की थीं कि मैं कहूँ रात तो वह कहे रात और में कई दिन तो वह कहे दिन । दोनों के प्रेम की कसौटो यही थी। तब बड़ी मुश्किल हो गई बात क्योंकि आप भी उससे कहलवाना चाहते हैं, वह भी आपसे कहलवाना चाहता है । सोचा था शान्ति, होगा संघर्ष; सोचा था सुख, और होगा विषाद । लेकिन मजे की बात यह है कि यह तो इसलिए.हो रहा है कि मैंने जो चाहा था वह नहीं हो सका है। मैंने कहा था रात और चाहा था कि वह भी कहे रात । यह नहीं हो सका, इसलिए मैं दुःखी हूँ। इच्छा के कारण दुखी नहीं हूँ। ठोक व्यक्ति नहीं मिला, इच्छा पूरी नहीं हुई, इसलिए मैं दुखी हूँ। पूरी हो जाए तो मैं सुखी हो जाऊं। लेकिन कोई दूसरा व्यक्ति मिल जाए जो तुम कहो रात तो वह भी कहे रात हालांकि दिन हो । तुमने उसके पैर में जंजीरें बाँधी तो भी तुमने कहा आभूषण, उसने कहा माभूषण । तुमने उस व्यक्ति को पाया कि वह तुम्हारे बिल्कुल हो अनुकूल है, तुम जैसे हो वैसा ही है-तुम्हारी छाया । और ऐसे व्यक्ति को पाकर तुम्हें जितना दुःख होगा उसका अनुमान तुम लगा ही नहीं सकते क्योंकि वह व्यक्ति हो। नहीं होगा, वह एक मशीन होगा, वह एक यंत्र होगा। उसमें कोई व्यक्तित्व नहीं होगा, उसमें कोई आत्मा नहीं होगी और जिस व्यक्ति में कोई व्यक्तित्व नहीं होगा, कोई बात्मा नहीं होगी उससे क्या तुम प्रेम कर पायोगे ? उससे तुम एक पण प्रेम नहीं कर सकते। यह इच्छा पूरी हो जाए तो इतमा पुल होगा जितना इच्छा के न पूरी होने से कमी भी नहीं हुआ है। कोई भी या महीं खरीदना चाहता । हम भ्यक्ति चाहते है मेकिन हमारी इन्चा बड़ी बनून है।हम ऐशक्ति पाहते है जो हमारी पात माने। ल दोनों बातों में कोई Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में मेल ही नहीं है। अगर वह व्यक्ति होगा तो अपने ढंग से जिएगा। और मगर हमारी बात मानेगा तो व्यक्ति नहीं होगा, उसमें कोई आत्मा नहीं होगी। वह मरी हुई चीज होगी, वह फर्नीवर की तरह होगा जिसे कहीं भी उठाकर रख दिया, वह वहीं रखा रह गया। । एक आदमी गरीब है और वह कहता है कि मैं इसलिए गरीब हूँ कि जितना धन मैं चाहता हूँ, वह मुझको नहीं मिलता। अगर मुझे उतना धन मिल जाए तो मैं दुखी न रहै। ठीक है उसे उतना धन दे दिया गया। पहली बात यह है कि उसे इतना धन मिलने पर उसकी इच्छा और आगे चली जायगी । वह कहेगा : इतने से क्या होता है, यह तो कुछ भी नहीं है । समझ लीजिए कि उसकी इच्छा है कि सारे जगत् का धन उसे मिल जाए और उसकी यह इच्छा पूरी हो जाय कि उसे सारी पृथ्वी का धन मिल जाए तो क्या आपको पता है कि वह कितना दुःख झेलेगा? आपको कल्पना भी नहीं है। धनी होने का मजा ही इसमें था कि दूसरे पनियों को पीछे छोड़ा। धनी होने का मजा ही यह था कि प्रतियोगिता पी, प्रतिस्पर्षा थी कि उसमें हम जीते। अगर एक व्यक्ति को सारी दुनिया का धन मिल जाए उसकी इच्छा के अनुकूल तो वह बिल्कुल उदास हो जाएगा क्योंकि न कोई प्रतिस्पर्धा है, न कोई प्रतिस्पर्षा का उपाय है। अगर सारी पृथ्वी का धन एक व्यक्ति को मिल जाए तो वह व्यक्ति आत्महत्या कर लेगा क्योंकि वह कहेगा अब क्या करें ? और वह बहुत उदास . हो जाएगा। सिकन्दर के सम्बन्ध में एक कथा है कि सिकन्दर से योजनीन ने कहा कि अगर तूने सारी पृथ्वी जीत ली तो फिर सोचा है कि क्या होगा ? सिकन्दर ने कहा कि अभी तो जीतना ही मुश्किल है। लेकिन आयोजनीज ने कहा कि अभी तो जीतना ही मुश्किल है। लेकिन डायोजनीज ने कहा कि समझ लें, जीत ही ली, फिर क्या होगा ? और कहानी है कि सिकन्दर एकदम उदास हो गया। उसने कहा कि यह मैंने कभी ख्याल नहीं किया। लेकिन सच ही बगर पूरी पृथ्वी जीत ली तो फिर ? वह योजनीज से पूछने लगा कि फिर क्या करूंगा? गयोजनीज ने कहा कि मान लो कि तूने सारी पृथ्वी जीत ली तब तू सुखी होगा कि दुखी होगा? यह भी दूर रहा । तू तो अभी दुखी हो गया यह बात सोचकर कि सारी पृथ्वी जीतं लो तो फिर? फिर सवाल ही क्या रहा? हमारी मचाएं पूरी नहीं होती को हम गुल पाते हैं, हमारी रचाएं पूरी हो Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२५ ७३७ जाए तो हम परम दुःख पाएंगे। लेकिन हम यही समझते हैं कि हम इसलिए दुःख पाते हैं कि हमारी इच्छाएं पूरी नहीं होती। _____टालस्टाय ने एक कहानी लिखी है। एक बाप की तीन बेटियां है। तीनों की अलग-अलग जगह शादियां हो गई है। एक लड़की किसान के घर है, एक लड़की कुम्हार के घर है, एक लड़की जुलाहे के घर है। वर्षा आने के दिन है लेकिन वर्षा नहीं आई। कुम्हार बड़ा खुश है। उसकी पत्नी भगवान् को धन्यवाद देती है कि भगवान् तेरा धन्यवाद क्योंकि हमारे सब बड़े बनाए हुए रखे थे। यदि वर्षा आती तो हम मर जाते । एक आठ दिन पानी रुक जाए तो हमारे सब घड़े पक जाएं और बाजार चले जाएं। लेकिन किसान की पत्नी बड़ी परेशान है क्योंकि खेत तैयार है, पानी नहीं गिर रहा है। अगर आठ दिन की देरी हो गई तो फिर फसल बोने में देरी हो जाएगी और हमारे बच्चे भूखे मर जाएंगे। तीसरी लड़की जुलाहे के घर है। उसके कपड़े तैयार हो गए हैं। उसने रंग कर लिया है और वह भगवान् से कहती है कि अब तेरी मर्जी । चाहे आज गिरा, चाहे कल गिरा; अब हमें कोई फर्क नहीं पड़ता है। कहानी कहती है कि भगवान् अपने देवताओं से पूछता है कि बोलो : मैं क्या करूं? मैं किसकी इच्छा पूरी करूं। और ये तो सिर्फ तीन लोग है । अगर सारी पृथ्वी के लोगों की इच्छाएं पूछी जाएं और पूरी कर दी जाएँ इसी वक्त तो पृथ्वी समाप्त हो जाए। हमारी इच्छाएं और उनके दौर से हम क्या पाना चाह रहे हैं, हमें कुछ भी पता नहीं है लेकिन भ्रान्ति चलती चली जाती है क्योंकि हमारा ख्याल यह होता है कि दुःख मिल रहा है इसलिए कि इच्छा पूरी नहीं हुई। सुख मिलता अगर इच्छा पूरी हो जाती। लेकिन जो गहरे इस विचार में उतरेगा उसे पता चल जाएगा कि कोई इच्छा की पूर्ति सुख नहीं लाती है बल्कि वह बड़ा इ.स. लाती है । अपूर्ति इतना दुःख लाती है तो पूति कितना दुःख लाएगी। बीज को जब इतनी सुविधा मिली तो वह इतमा जहरीला फल लाया है। पूरी सुविधा मिलती तो कितना जहरीला फल लाता। तो प्रत्येक इच्छा दुःख में ले जाती है लेकिन सुख में ले जाने का आश्वासन देती है। प्रत्येक नाव दुःख की है लेकिन सुख के घाट उतार देने का वचन है। और हजार बार हम नाव में बैठते हैं रोज और हजार बार दुःख की नाव दुःख के घाट पर उतार देती है। लेकिन हम कहते है कि कहीं कोई भूल हो गई है Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में अन्यथा यह कैसे हो सकता है कि जो नाव सुख के पाठ की जोर चली थी वह दुख के घाट पर पहुंच जाए। लेकिन हम यह कभी नहीं पूछते कि कहीं नाव हो तो दुःख को नहीं है। सवाल यह नहीं है कि आप कहां पहुंचेंगे। सवाल यह है कि आप कहां से चलते है, आप किस पर सवार है। यह सवाल ही नहीं कि फल कैसा होगा। सवाल यह है कि बीज कैसा बोया ? जीसस कहते हैं कि जो बोलोगे वही तुम फाटोगे लेकिन काटते वक्त पछताना मत । पछताना हो तो बोते वक्त । काटते वक्त पछताने का क्या सवाल ? फिर तो काटना ही पड़ेगा, लेकिन हम सब काटना कुछ और चाहते हैं, बोते कुछ और है। और यह जो द्वन्द्व है चित्त का कि बोते कुछ और हैं और काटना कुछ और चाहते हैं, हमें भटका सकता है अनन्त काल तक, अनन्त जन्मों तक, और इस भ्रम को तोड़ देने की जरूरत है-इससे जाग जाने की जरूरत है और एक सूत्र समझ लेने की जरूरत है कि जो हम बोते हैं वही हम काटते हैं। हो सकता है कि बीज पहचान में न आता हो । क्योंकि बीज जाहिर नहीं है, अप्रकट है, अभी अभिव्यक्त नहीं हुआ है। यहाँ एक बीज रखा है। हो सकता है न पहचान सकें कि इसका वृत्त कैसा होगा? क्योंकि बीज में वृक्ष है लेकिन दिखाई नहीं पड़ता। जीसस कहते हैं कि जो तुम बोते हो वही तुम काटते हो। मैं इससे उल्टी बात भी जोड़ देना चाहता हूँ कि जो तुम काटो समझ लेना कि वही तुमने बोया था क्योंकि हो सकता है कि बोते वक्त तुम न पहचान सके हो। बोते वक्त पहचानना जरा कठिन भी है क्योंकि बीज में कुछ दिखाई नहीं पड़ता साफसाफ । बीज क्या होगा ? जहर होगा कि अमृत होगा ? तो हो सकता है कि बोते बत भूल हो गई हो लेकिन काटते वक्त तो भूल नहीं हो सकती। हो सकता है कि नाव में बैठते वक्त ठीक से न समझ पाए हो कि नाव क्या है, लेकिन घाट पर उतरते वक्त तो समझ पाओगे कि घाट कैसा है। नाव ने कहाँ पहुँचा दिया है, यह तो समझ में आ जाएगा। तो काटते वक्त देख लेना। अगर दुःख कटा हो तो जान लेना कि दुःख पोया था और तब जरा समझने की कोशिश करना कि आगे दुःख के बीज को तुम पहचान सको कि वह कौन-कौन से बीज है बो दुःख ले आते हैं। कितनी पार हा दुःख,लाती है, कितनी बार वृणा दुःख लाती है, कितनी बार क्रोष दुस लाता है। लेकिन हम है कि फिर उन्हीं का बीज बोए चले जाते है। और Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२५ ७०९ बार-बार हम पछताते हैं कि यह दुःख क्यों ? दुःख हमें झेलना नहीं और बीर दुःख के ही बोते हैं। और इस द्वन्न में कितना समय हम व्यतीत करते है, कितने जन्म और कितने जीवन । लेकिन द्वन्द्व हमें दिखाई नहीं पड़ता क्योंकि हमारी खूबी यह है, हमारा मजा यह है, हमारी आत्ववंचना यह है कि हम सिर्फ जो काटता है उस वक्त नाराज होते हैं कि यह कैसी चीज कटी । लेकिन जो हमने बोया है, हम उसका ख्याल हो नहीं करते। अगर सही नहीं कटा है तो समझना कि सही नहीं बोया था। और दोनों के तारतम्य को समझ लेना जरूरी है ताकि कल हम सहो बोएं। जिस घाट पर उतरे हैं, वहाँ खतरा है हमारी नाव को लेकिन हम कल फिर उसी नाव पर बैठ गये हैं और दूसरे घाट पर उतरने को घटना फिर घटती है । और हैरानी यह है कि आवमी रोज-रोज वही-वही भूल करता है, नयी भूलें नहीं करता। नयी भूल भी कोई करे तो कहीं पहुंच जाएं। भूल भी पुरानो ही करता है। लेकिन कुछ ऐसा है कि पीछे जो हमने किया उसे हम भूल जाते हैं और फिर से हम वही सोचने लगते हैं। एक आदमी ने अमेरिका में आठ विवाह किए। उसने पहला विवाह किया बड़ी आशाओं से जैसा कि सभी लोग करते हैं। लेकिन सब आशाएं महीने में मिट्टी में मिल गई। तो उसने सोचा कि औरत ठीक नहीं मिली जैसा कि सभी आदमी समझते है। उसकी सभो आशाएं धूमिल हो गई। तो उसने तलाक दे दिया। फिर साल भर लगाकर उसने दूसरी स्त्री बामुश्किल खोजी और वह अब बड़ा खुश था क्योंकि अब पहले अनुभव के बाद उसने खोज-बीन की थी। फिर उतनी आशाओं के साथ उसने पाया कि छः महीने में सब गड़बड़ हो गया है। तो उसने समझा कि फिर स्त्री ठीक नहीं मिली है। इस बादमी ने आठ शादियां की जीवन में मोर हर बार यही हुआ। पाठवीं शादी के बाद वह एक मनोवैज्ञानिक के पास गया और कहा कि मैं बड़ी मुश्किल में पड़ गया है। में बाठ विवाह कर चुका और जिन्दगी गंवा चुका लेकिन हर बार वैसी की वैसो बोरस मिली। तब वैज्ञानिक ने कहा कि वह तो ठीक है लेकिन तुम्हारी खोजबीन का मापदण्ड क्या था? अगर कसोटी वह पी जिसने तुमने पहली बोच्च को कसा था तो कसौटी फिर भी वही रही होगी जिससे तुमने दूसरी बोरख को कसा और हर बार तुम उस टाइप की स्वीको खोज.काए जिस टाइप की स्त्री को हुम बोल सकते थे। तुम जिस तरह के Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४० महावीर : मेरी दृष्टि में आदमी हो उस तरह का मादमी जैसी स्त्री को खोज सकता था, तुम खोज लाए। हो सकता है कि बहुत पुराने दिनों में इसी अनुभव के आधार पर एक ही विवाह की व्यवस्था कर ली गई हो। क्योंकि एक बादमी एक ही तरह की स्थियां खोज सकता है साधारणतः यानी इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। हर बार नाप बदल जाएगा, शकल बदल जायगी लेकिन स्त्री वह वैसी ही खोज लाएगा जैसा उसका दिमाग है । उस दिमाग से वह वैसी ही स्त्री फिर बोज लाएगा। फिर बार-बार फिजूल की परेशानी में क्यों पड़ेगा। कुछ समझदार लोगों ने कहा है कि एक ही विवाह काफी है, एक ही दफा खोज लो वही बहुत है। और यह भी हो सकता है कि उसी अनुभव के आधार पर व्यक्ति खोजेगा जो उसका पहला अनुभव होगा, इसलिए उनमें भूल हो जाना निश्चित है । इसलिए मां बाप जिन्हें ये अनुभव हो चुके हैं उसके लिए खोजते हैं । जो इस अनुभव से गुजर चुके हैं और बेवकूफी भोग चुके हैं और ना समझी झेल चुके हैं, वे शायद ज्यावा ठोक से खोज सकें। और आदमी की जो पहली खोज होगी वह उसमें भूल करेगा। इसलिए हो सकता है कि वह मां-बाप पर छोड़ दिया गया हो। इषर निरन्तर अनुभव के बाद कुछ मनोवैज्ञानिक अमेरिका में यह कहने लगे हैं कि बाल-विवाह शुरू कर दो। यह बात भी दुखद है कि मां-बाप बच्चे का विवाह तय करें। लेकिन जैसी स्थिति है उससे यही सुखद मालूम पड़ता है। इससे भिन्न होना अभी कठिन है और यह हो सकता है कि जब हम उसके बीजों को समझ लें तो हम जो खोज करें वह और तरह की हो। हम जिस नाव पर सवार हों वह और तरह की हो जीवन के सब मामलों में । सुख दुःख को अलग मत समझना । सुख दुःख को एक समझना। हो, जरा देरी लगती है दोनों को मिलने में । फासला है। फासले की वजह से वो समझ लिए जाते है । मुष्टि छोटी है और फासला बड़ा है। हमको कमरे की दोनों दीवारें दिखाई पड़ती हैं। और हम जानते है कि दोनों दीवारें इसी कमरे की है और हम ऐसी भूल न करेंगे कि यह दीवार बचा लें और यह मिटा दें। क्योंकि ऐसी भूल हम करेंगे तो दीवार भी गिरेगी और मकान भी गिरेगा। मगर पोवार गिरानी हों तो दोनों को गिरा दो, न गिरानी हों तो दोनों को बबने दो क्योंकि दोनों दीवारें दिखाई पड़ती है। लेकिन कमरा इतना बड़ा हो सकता है कि जब भी हमें दिखाई पड़ती हो एक ही दीवार दिखाई पड़ती हो। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२५ ७४१ दूसरी दीवार इतने फासले पर है कि हम कभी सोच हो न पाते हों कि यह कमरा और यह दीवार उसी दीवार से जुड़े है और यह वही कमरा है। उसमें फासले बड़े हैं और आदमी की दृष्टि बड़ी छोटी है। ज्यादा देर तक वह देख नहीं पाता, उमे खबर नहीं हो पाती कि कब मैंने क्या बोया था, कब मैं क्या काट रहा है। यह दूसरी दीवार है। और ये दोनों एक हैं। , ___ आदमी को ठीक से दृष्टि मिल जाए दूर तक देखने को तो हम उसे अपने सुखों की आकांक्षा में घिरा हुआ पाएंगे। हमारे सब दुःख हमारे सुख की आशामों में हो पैदा किए गए हैं । हमारे सब दुःख हमने ही सुख की सम्भावनागों में बोए है। काटते वक्त दुःख निकलें, सम्भावनाएं सुख की हैं। बीज हमने दुःख के हो बोए हैं । इसे हम देखें, अपनी जिन्दगी में खोजें। अपने दुःख को देखें और पीछे लोट कर देखें कि हम कैसे उनको बोते चले आए हैं । और कहीं ऐसा तो नहीं कि आज भी हम वही कर रहे हैं। ___ आखिर यह दिखाई पड़ जाए तो तुम सुख की आशा को छोड़ दोगे। सुख की आशा एक दुराशा है, असम्भावना है। अगर ऐसा दिखाई पड़ जाए कि जीवन में सुख की सम्भावना ही नहीं है, दुःख ही होगा चाहे तुम उसे कितना ही सुख कहो, आज नहीं कल वह दुःख हो जाएगा। अगर जिन्दगी में दुःख की ही सम्भावना है तो सुख की आशा छूट जाती है । और जिस व्यक्ति की आशा छुट जाती है वह दुःख के साथ सीधा खड़ा हो जाता है। भागने का उपाय न रहा । यहां दुःख है, और यहां मैं हूँ और हम आमने-सामने है । और मजे की बात यह है कि जो बादमी दु ख के सामने खड़ा हो जाता है उसका दुःख ऐसे तिरोहित हो जाता है कि जैसे कभी था ही नहीं। तब दुःख नहीं जीत पाता क्योंकि तब दुःख के जीतने की तरकीब ही गई। तरकीब यो सुख की सम्भाबनामों में । दुःख के जीत को जो तरकीब थी, वह थी सुख को सम्भावना में। वह सुख को सम्भावना नहीं रही । दुःख यहां सामने खड़ा है और मैं यहां खड़ा हूँ और अब कोई उपाय नहीं है, न मेरे भागने का, न दुःख के भागने का। दुःख और हम है आमने-सामने । यह साक्षात्कार है। इस साक्षात्कार में जो रहस्यपूर्ण घटना घटती है वह यह है कि दुःख तिरोहित हो जाता है। मैं अपने में वापिस लोट आता हूं क्योंकि सुख पर जाने की चेष्टा छोड़ देता है। सुख में जाने का एक रास्ता था, वह रास्ता मैंने छोड़ दिया है। अब दुःख के सामने सीधा खड़ा हो गया है। अब यह एक ही रास्ता है कि मैं अपने में लौट बाऊं क्योंकि दुःख में तो कोई रह हो नहीं सकता, या तो सुख को बांशा में भागेगा या अपने पर लोट Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४२ महावीर : मेरी रष्टि में पाएगा; या मानन्द में चला जाएगा या सुख में चला जाएगा। सुख में हम जाते रहे है । और मानन्द में नहीं पहुंच पाए हैं। अगर दुःख में हम सीधे खड़े हो जाएं तो हम आनन्द में पहुंच जाते हैं । ___ आनन्द सुख में नहीं है। आनन्द सुख दुःख का अभाव है। मानन्द में न सुख है, न दुःख है। इसलिए बुद्ध ने आनन्द शब्द का प्रयोग नहीं किया है । बुद्ध ने बहुत समझ कर शब्दों का प्रयोग किया है। इतनी समझ किसी आदमी ने नहीं दिखाई क्योंकि आनन्द में कितना ही समझाओ सुख का भाव छुगा हुमा है। यानी कितना भी मैं समझाऊं कि आनन्द सख नहीं है आप फिर भी कहेंगे कि आनन्द कैसे मिले ? और जब आप कहेंगे तब आपके मन में यही होगा कि सुख कैसे मिले ? शब्द बदल लेंगे लेकिन भाव सुख का ही रहेगा तो आप कहेंगे कि ठीक है, फिर तरकीब बताइए कि आनन्द कैसे पाया जाए। दुःख है तो दुःख से कैसे बचा जाए ? कोई विधि बताइये कि हम आनन्द कैसे पा लें और मानन्द तो पाना जरूरी है। और अगर गहरे में देखेंगे तो आप आनन्द शब्द का प्रयोग ठीक नहीं कर रहे हैं आप कह रहे है कि सुख पाना जरूरी है । सुख कैसे पाया पाए ? दुःख से कैसे बचा जाए ? बहुत कठिन है आदमी को समझाना कि आनन्द सुख नहीं है और आमतौर पर हम दोनों का पर्यायवाची प्रयोग करते हैं कि आदमी सुखी है, बड़े मानन्द में है । बुद्ध ने इसलिए प्रयोग किया 'शांति' । वह बानन्द नहीं कहते हैं । आनन्द शब्द ठीक नहीं है, खतरनाक है । शांति में भाव बिल्कुल दूसरा है। शांति का अर्थ हैम सुन न दुःस, सब शान्त । कोई तरंग नहीं है न दुःख की, न सुख की। म सुख का भाव है न दुःख का भाव है । न कहीं जाना है, कहीं आना है । ठहर गया है सब । रक गए हैं, मौन हैं, चुप है। झोल पर एक भी लहर नहीं है । इसलिए बुद्ध कहते हैं : मैं आनन्द का आश्वासन नहीं देता। क्योंकि मैं तुम्हें मानन्ध का आश्वासन दूंगा और तुम सुख का आश्वासन लोगे। कठिनाई यह है कि बात आनन्द को की जाएगी, समझी सुख की जाएगी क्योंकि हमारी बाकांचा सुख की है। Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ समापन प्रवचन Page #639 --------------------------------------------------------------------------  Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर पर इतने दिनों तक आनन्दपूर्ण बात की। यह ऐसे ही था जैसे मैं अपने सम्बन्ध में बात कर रहा है : पराये के सम्बन्ध में बात नहीं की जा सकती। दूसरे के सम्बन्ध में कुछ कहा नहीं जा सकता। अपने सम्बन्ध में हो सत्य कहा जा सकता है। अब महावीर पर इस भौति मैंने बात नहीं की जैसे वे कोई दूसरे और पराये हैं। जैसे हम अपने आन्तरिक जीवन के सम्बन्ध में ही बात कर रहे हों ऐसा ही मैंने उन पर बात की है। उन्हें केवल निमित्त माना है और उनके चारों ओर उन सारे प्रश्नों पर चर्चा की है जो प्रत्येक साधक के मार्ग पर अनिवार्य रूप से खड़े हो जाते हैं । महत्त्वपूर्ण भी यही है । ___ महावीर एक दार्शनिक की भांति नहीं हैं। वे एक सिड, एक महायोगी हैं। दार्शनिक तो बैठकर विचार करता है जीवन के सम्बन्ध में । योगी जीता है जीवन में । दार्शनिक पहुँचता है सिद्धान्तों पर, योगा पहुंचता है सिद्धावस्था पर । सिद्धान्त बातचीत है, सिद्धावस्था उपलब्धि है। महावीर पर ऐसी ही बात को है जैसे वे कोई मात्र कोरे विचारक नहीं है । और इसलिए भी बात की है कि जो इस बात को सुनेंगे, समझेंगे, वे भी जीवन में कोरे विचारक न रह जाएं। विचार अद्भुत है लेकिन पर्याप्त नहीं । विचार कीमती है, लेकिन कहीं पहुंचाता नहीं। विचार से ऊपर उठे बिना कोई भी व्यक्ति आत्म-उपलब्धि तक नहीं पहुंचता है। महावीर कैसे विचार से उठे, कैसे ध्यान से, कैसी समाधि से ये सब बातें हमने की, कैसे महावीर को परम जीवन उपलब्ध हुमा और कैसे परम जीवन की उपलब्धि के बाद भी वे अपनी उपलब्धि की खबर देने वापिस लौट आएऐसी करुणा की भी हमने बात की। जैसे कोई नदी सागर में गिरने के पहले Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૭૪૬ लीट कर देखे एक क्षण को, ऐसे ही महावीर ने अपनी अनन्त जीवन की यात्रा के अन्तिम पड़ाव पर पीछे लौट कर देखा है । लेकिन उनके पीछे लौटकर देखने को केवल वे ही लोग समझ सकते हैं, जो अपने जीवन की अन्तिम यात्रा की ओर आगे देख रहे हैं । महावीर पीछे लौटकर उन्हें देखें लेकिन हम उन्हें तभी समझ सकते हैं जब हम भी अपने जीवन के आगे के पड़ाव की ओर देख रहे हों । अन्यथा महावीर को नहीं समझा जा सकता । महावीर : मेरी दृष्टि में · साधारणतः महावीर को दो हजार पाँच सौ वर्ष हुए। वह अतीत की घटना है । इतिहास यही कहेगा । मैं यह नहीं कहूँगा । साधक के लिए महावीर भविष्य की घटना है । उसके जीवन में आने वाले किसी क्षण में वह वहाँ पहुँचेगा जहाँ महावीर पहुँचे हैं । और जब तक हम उस जगह न पहुँच जाएँ तब तक महावीर को समझा नहीं जा सकता है। क्योंकि उस अनुभूति को हम कैसे समझेंगे जो अनुभूति हमें नहीं हुई है । अन्धा कैसे समझेगा प्रकाश के सम्बन्ध में । और जिसने कभी प्रेम नहीं किया वह कैसे समझेगा प्रेम के सम्बन्ध में । • हम उतना ही समझ सकते हैं जितने हम हैं, जहाँ हम हैं । हमारे होने की स्थिति से हमारी समझ ज्यादा नहीं होती । इसलिए महापुरुष के प्रति अनिवार्य होता है कि हम नासमझी में रहें। महापुरुष को समझना अत्यन्त कठिन है बिना स्वयं महापुरुष हुए। जब तक कि कोई व्यक्ति उस स्थिति में खड़ा न हो जाए जहाँ कृष्ण है, जहाँ क्राइस्ट है, जहाँ मुहम्मद हैं, जहाँ महावीर हैं तब तक हम समझ नहीं पाते । और जो हम समझते हैं वह अनिवार्य रूपेण भूल भरा होता है । इसलिए एक बात ध्यान में रखनी चाहिए । I महावीर को समझना हो तो सीधे ही महावीर को समझ लेना सम्भव नहीं है । महावीर को समझना हो तो बहुत गहरे में स्वयं को समझना और रूपान्तरित करना ज्यादा जरूरी है। लेकिन हम तो शास्त्र से समझने जाते हैं और तब भूल हो जाती है। शब्द से, सिद्धान्त से, परम्परा से समझने जाते हैं तब भूल हो जाती है । हम तो स्वयं के भीतर उतरेंगे तो उस जगह पहुँचेंगे जहाँ महावीर कभी पहुँचे हों । तभी हम समझ पाएंगे । 1 मैंने जो बातें कीं इन दिनों में, उन बातों का शास्त्रों से कोई सम्बन्ध नहीं है । इसलिए हो सकता है कि बहुतों को वे बातें कठिन भी मालूम पड़ें, स्वीकारयोग्य भी न हों, जिनकी शास्त्रीय बुद्धि है; उन्हें अत्यन्त अजीब मालूम पड़ें और वे शायद पूछें कि शास्त्रों में यह सब कहीं है तो उनसे मैं पहले ही कह देना Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाधन: प्रवचन- १६ ७४७ चाहता हूँ कि शास्त्रों में हो या न हो, जो स्वयं में खोजेगा वह इनको पा लेगा और स्वयं से बड़ा न कोई शास्त्र है और न कोई दूसरी आप्तता है । · वे मुझसे यह भी पूछ सकते हैं कि मैं किस अधिकार से कह रहा हूँ। तो उनसे पहले यह भी कह देना उचित है कि मेरा कोई शास्त्रीय अधिकार नहीं है । मैं शास्त्रों का विश्वासी नहीं है बल्कि जो शास्त्र में लिखा है, वह मुझे इसीलिए संदिग्ध हो जाता है कि शास्त्र में लिखा है । क्योंकि वह लिखने वाले के चित्त की खबर देता है । मगर जिसके सम्बन्ध में लिखा गया है, उसके चित्त की नहीं । फिर हजारों वर्षों की धूल उस पर जम जाती है । और शास्त्रों पर जितनी धूल जम गई है उतनी किसी और चीज पर नहीं जमी है । मुझे एक घटना स्मरण आती है। एक आदमी एक घर में 'शब्दकोष' बेचने गया। घर की गृहिणी ने उसे टालने के लिए उससे कहा कि 'शब्दकोष' हमारे घर में है । वह सामने टेबिल पर रखा है । लेकिन उस आदमी ने कहा : देवी जी क्षमा करें, वह कोई शब्दकोष नहीं है, वह कोई धर्मग्रन्थ मालूम होता है । स्त्री बड़ी परेशान हुई । वह धर्मग्रन्थ था । पर दूर से टेबिल पर रखी किताब को कैसे वह व्यक्ति पहचान गया । उस देवी ने पूछा : कैसे आप जान गये कि वह धर्मग्रन्थ है । उसने कहा उस पर जमी हुई धूल बता रही है । शब्दकोष पर धूल नहीं जमती । उसे कोई रोज खोलता है, देखता है, पढ़ता है। उसका उपयोग होता है । उस पर इतनी धूल जमी है कि यह निश्चित हो धर्मग्रन्थ है । • सब धर्मग्रन्थों पर धूल जम जाती है क्योंकि न तो हम उनसे जीते है, न जानते हैं । फिर धूल इकट्ठी होती चली जाती है । सदियों की धूल इकट्ठी होती चली जाती है । उस धूल में से पहचानना मुश्किल हो जाता है कि क्या-क्या है ? इसलिए मैंने महावीर और अपने बीच शास्त्र को नहीं लिया है। उसे अलग 1 और सीधा हम उसे ही रखा है। महावीर को सीधा देखने की कोशिश की ही देख सकते हैं जिससे हमारा प्रेम हो। जिससे हमारा प्रेम न हो उसे हम कभी सोधा नहीं देख सकते । और वही हमारे सामने पूरी तरह प्रकट होता है जिससे हमारा प्रेम हो । जैसे सूरज के निकलने पर कली खिल जाती है और फूल बन जाती है। ऐसा ही जिससे भी हम आत्यन्तिक रूप से प्रेम कर सकें, उसका जीवन बन्द कली से खिले फूल का जीवन हो जाता है। कर पाएँ । 1 जरूरत है कि हम प्रेम • Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४८ महावीर : मेरी दृष्टि में ज्ञान की जरूरत कम है, ज्ञान तो दूर ही कर देता है और ज्ञान से शायद ही कोई किसी को जान पाता हो। सूचनाएं बाधा डाल देती है। सूचनाओं से शायद ही कोई कभी किसी से परिचित हो पाता हो। वे बीच में बड़ी हो जाती हैं। वे पूर्वाग्रह बन जाती है, पक्षपात बन जाती है। हम पहले से हो जानते हुए होते हैं। जो हम जानते हुए होते हैं वही हम देख भी लेते हैं । जो महावीर को भगवान् मानकर जाएगा उसे महावीर में भगवान् भी मिल जाएंगे। लेकिन वह उसके अपने आरोपित भगवान् हैं । जो महावीर को नास्तिक, महानास्तिक मान कर जाएगा उसे नास्तिक, महानास्तिक भी मिल जाएगा। वह नास्तिकता उसकी अपनी रोपी हुई होगी। जो महावीर को मान कर जाएगा वही पा लेगा। क्योंकि गहरे में हम अन्ततः अपनी मान्यता को निर्मित कर लेते हैं और खोज लेते हैं, और व्यक्ति इतनी बड़ी घटना है कि उसमें सब मिल सकता है । फिर हम चुनाव करते हैं । जो हम मानते जाते हैं, वह हम चुन लेते हैं । और तब जो हम जानते हैं वह जानते हुए लोटना नहीं है। वह हमारी ही मान्यता की प्रतिध्वनि है । प्रेम के जानने का रास्ता दूसरा है, ज्ञान के जानने का रास्ता दूसरा है। जान पहले जान लेता है, फिर खोज पर निकलता है। प्रेम जानता नहीं । खोज पर निकल जाता है-अज्ञान में, अपरिचित में । प्रेम सिर्फ अपने हृदय को खोल लेता है, प्रेम सिर्फ दर्पण बन जाता है कि जो भी उसके सामने आएगा, जो भी जो है, वही उसमें प्रतिफलित हो जाएगा। इसलिए प्रेम के अतिरिक्त कोई कभी किसी को नहीं जान सका है। हम सब शान के मार्ग से ही जानते हैं, जीते हैं . इसलिए नहीं जान पाते । महावीर को प्रेम करेंगे तो पहचान जाएंगे, कृष्ण को प्रेम करेंगे तो पहचान जाएंगे। . और भी एक मजे की बात है कि जो महावीर को प्रेम करेगा, वह कृष्ण को, क्राइस्ट को, मुहम्मद को प्रेम करने से बच नहीं सकता। अगर महावीर को प्रेम करने वाला ऐसा कहता हो कि महावीर से मेरा प्रेम है, इसलिए मैं मुहम्मद से कैसे प्रेम करूं, तो जानना चाहिए कि प्रेम उसके पास नहीं है। क्योंकि अगर महावीर से प्रेम होगा तो जो उसे महावीर में दिखाई पड़ेगा वही बहुत गहरे में मुहम्मद में, कृष्ण में, क्राइस्ट में, कनफ्यूसियस में भी दिखाई पड़ जाएगा, जरथ स्त में भी दिखाई पड़ जाएगा। प्रेम प्रत्येक कली को खोल लेता है जैसे सूरज प्रत्येक कली को खोल लेता है। पंखुड़ियां खुल जाती है। और तब अन्त में सिर्फ फूल का खिलना रह जाता है । पंखुड़ियां गैर अर्थ की हो जाती है, सुगंध Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापन-प्रवचन-२६ ७४९ बेमानी हो जाती है, रंग भूल जाते हैं। और अन्ततः प्रत्येक फूल में जो घटना गहरी रह जाती है, वह है उसका खिल जाना। महावीर खिलते हैं एक ढंग से, कृष्ण खिलते हैं दूसरे ढंग से। लेकिन जिसने इस फूल के खिलने को पहचान लिया वह इस खिलने को सारे जगत् में सब जगह पहचान लेगा। इन व्यक्तियों में से एक से भी कोई प्रेम कर सके तो वह सबके प्रेम में उतर जाएगा, लेकिन दिखाई उल्टा पड़ता है। मुहम्मद को प्रेम करने वाला महावीर को प्रेम करना तो दूर, घृणा करता है। बुद्ध को प्रेम करने वाला, क्राइस्ट को प्रेम नहीं करता है। तब हमारा प्रेम संदिग्ध हो जाता है। इसका अर्थ यह है कि हमारा प्रेम, प्रेम नहीं है। शायद यह भी गहरे में कोई स्वार्थ है, कोई सौदा है। शायद हम अपने प्रेम के द्वारा भी महावीर से कुछ पाना चाहते हैं। शायद हमारा प्रेम भी एक गहरे सौदे का निर्णय है कि हम इतना प्रेम तुम्हें देंगे, तुम हमें क्या दोगे । और तब हम अपने प्रेम में संकीर्ण होते चले जाते हैं बोर तब प्रेम इतना सीमित हो जाता है कि धूणा में और प्रेम में कोई फर्क नहीं रह जाता। क्योंकि जो प्रेम एक पर प्रेम बनता हो, और शेष पर घृणा बन जाता हो वह एक पर भी कितने दिन प्रेम रहेगा! घृणा हो जाएगी बहुत । महावीर को प्रेम करने वाला महावीर को प्रेम करेगा और शेष को अप्रेम करेगा। अप्रेम इतना ज्यादा हो जाएगा कि वह प्रेम का बिन्दु कब विलीन हो जाएगा, पता भी नहीं चलेगा। घृणा के बड़े सागर में प्रेम की छोटी सी बूंद को कैसे बचाया जा सकता है। वह तो प्रेम के बड़े सागर में ही प्रेम की बूंद बच सकती है । घृणा के बड़े सागर में प्रेम की बूंद नहीं बचाई जा सकती। लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे प्रेम की बूंद बच जाए और शेष घृणा का सागर हो। एक मुसलमान फकोर औरत हुई राबिया । कुरान में एक जगह वचन माता है : "शैतान को घृणा करो।" तो उसने उस वचन पर स्याही फेर दी। लेकिन कुरान में कोई सुधार करे, यह तो उचित नहीं है। हसन नाम का एक फकीर उसके घर मेहमान था। सुबह उसने कुरान पढ़ने को उठाई तो देखा उसमें सुधार किया गया है । तो उसने कहा कि यह कोन नासमझ है जिसने कुरान में सुधार किया है । कुरान में तो सुधार नहीं किया जा सकता । राबिया ने कहा कि मुझ को ही सुधार करना पड़ा। हसन ने कहा कि तू नास्तिक मालूम होती है। कुरान और सुधार करने कीम्तेरी हिम्मत ! यह तो बड़ा पाप है । राबिया ने कहा : पाप हो या नहीं, Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर। मेरी बुधि पड़तीं। पुराने महापुरुषों का जो अनुयायी है उसने धारणाएं बना रखी हैं जिन्हें वह महावीर पर कसने की कोशिश करता है। महावीर उस पर नहीं उतर पाते इसलिए व्यर्थ हो जाता है। लेकिन महावीर का अनुयायी वही बातें बुद्ध पर कसने की कोशिश करता है और तब फिर मुश्किल हो जाती है। हमारा चित्त अगर पूर्वाग्रह से भरा है, महापुरुष तो दूर एक छोटे से व्यक्ति को भी हम प्रेम नहीं कर सकते । एक पलो पति को प्रेम नहीं कर पाती क्योंकि पति कैसा होना चाहिए, इसकी धारणा पक्की मजबूत है। एक पति पत्नी को प्रेम नहीं कर पाता क्योंकि पत्नी कैसी होनी चाहिए, शास्त्रों से सब उसने सीख कर तैयार कर लिया है और वही अपेक्षा कर रहा है। वह इस व्यक्ति को, जो सामने पत्नी या पति की तरह मौजूद है, देख ही नहीं रहा। मैंने जो बातें महावीर के सम्बन्ध में कही है, उन पर मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। किन्हीं सूचनाओं के, किम्ही धारणाओं के, किन्हीं मापदण्डों के आधार पर मैंने उन्हें नहीं कसा। मेरे प्रेम में वह जैसे दिखाई पड़ते हैं, वैसी मैने बात को । दौर जरूरी नहीं है कि मेरे प्रेम में वे जैसे दिखाई पड़ते है वैसे आपके प्रेम में भी दिखाई पड़ते हों। मगर वैसा भी मैं बाग्रह करूं तो मैं फिर आपसे धारणाओं की अपेक्षा कर रहा है। मैंने अपनी बात कही जैसा वे मुझे दिखाई पड़ते हैं, जैसा मैं उन्हें देख पाता है। और इसलिए एक बात निरन्तर ध्यान में रखनी जरूरी होगी कि महावीर के सम्बन्ध में जो भी मैंने कहा है, वह मैंने कहा है । और मैं उसमें अनिवार्य रूप से उतना ही मौजूद है जितने महावीर मौजूद है। वह मेरे और महावीर के बीच हुआ लेन-देन है। उसमें अकेले महावीर नहीं है। उसमें अकेला में भी नहीं है। उसमें हम दोनों हैं । और इसलिए बिल्कुल ही असम्भव है कि जो मैंने कहा है ठीक बिल्कुल वैसा ही किसी दूसरे को भी दिखाई पड़े। मैं किसी दूर वस्तु की तरह बड़े हुए व्यक्ति की बात नहीं कर रहा है। मैं तो उस महावीर की बात कर रहा हूं जिसमें मैं भी सम्मिलित हो गया हूं, जो मेरे लिए एक बात्मगत अनुभूति बन गया है। जो मेरी बात को पढ़ेंगे उन्हें समझने में बहुत कठिनाई और मुश्किल हो सकती है। सबसे बड़ी मुश्किल यह होगी कि वे उस जगह खड़े नहीं हो सकते, पहा में बड़े होकर देख रहा हूं। लेकिन इतनी ही उनकी कृपा काफी होगी किनकी चिन्ता न करें। एक व्यक्ति ने एक जगह बड़े होकर कैसे महावीर को देखा है, यह समक्ष भर लें। और फिर अपनी जगह से बड़े होकर देखने की Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाप- प्रल-२६ ७५५ कोशिश करे। यह जरूरी नहीं कि उनका जो स्याल होगा, वह मुझसे मेल खाए। मेल खाने की कोई जरूरत भी नहीं है । लेकिन अगर इतने निष्पक्ष भाष से मेरी बातों को समझा गया तो जो भी व्यक्ति इतने निष्पक्ष भाव से समझेगा, उसे महावीर को समझने की बड़ी अद्भुत कुशलता उपलब्ध होगी। मगर उसने बहुत गौर से समझा है तो वह महावीर को ही नहीं, बुर को भी, मुहम्मद को भी, कृष्ण को भी समझने में इतना ही समर्ष हो जाएगा। इतिहास को बाहर से दिखाई पड़ता है, लिखा जाता है। और जो बाहर से दिखाई पड़ता है, वह एक अत्यन्त छोटा पहल होता है। इसलिए इतिहास बड़ी सच्ची बातें लिखते हुए भी बहुत बार असत्य हो जाता है। वर्क नाम का एक इतिहास कोई पन्द्रह वर्षों से विश्व इतिहास लिख रहा था। दोपहर की बात है कि घर के पीछे शोर-गुल हुबा, दरवाजा खोलकर वह पीछे गया। उसके मकान के बगल से गुजरने वाली सड़क पर झगड़ा हो गया था। एक बादमी की हत्या कर दी गई थी। बड़ी भीड़ थी, सैकड़ों लोग इकट्ठे थे। आंखों देखे गवाह मौजूद थे और वह एक-एक भावमी से पूछने लगा कि क्या हुमा । एक आदमी कुछ कहता है, दूसरा कुछ कहता है. तीसरा कुछ कहता है। आंखों देखे गवाह मौजूद है। लाश सामने पड़ी है, खून सड़क पर पड़ा हुआ है । अभी पुलिस के माने में देर है । हत्यारा पकड़ लिया गया है। लेकिन हर आदमो अलग-अलग बात करता है। किन्हीं दो आदमियों की बातों में कोई ताल-मेल नहीं कि क्या हुआ ? सगड़ा कैसे हुआ? कोई हत्यारे को जिम्मेदार ठहरा रहा है, कोई मृतक को जिम्मेदार ठहरा रहा है, कोई कुछ कह रहा है और कोई कुछ रहा है। वे सब आंखों देखे गवाह है। बर्फ खूब हंसने लगा। लोगों ने पूछा, आप किसलिए हंस रहे हैं। आदमी की हत्या हो गई है। उसने कहा कि मैं और किसी कारण से हंस रहा है। अन्दर माया और वह पन्द्रह वर्षों की जो मेहनत यो उसमें आग लगा दी और अपनी डायरी में लिखा कि में हजारों साल पहले की घटनाओं पर इतिहास लिख रहा हूँ। मेरे घर के पीछे एक घटना घट गई है जिसमें चश्मदीद गवाह मौजूद है। फिर भी किसी का वक्तव्य मेल नहीं खाता। हजार-हजार साल पहले जो घटनाएं घटीं उनके लिए किस हिसाब से हम माने कि क्या हुबा, क्या नहीं हुमा, कोन सही है कौन सही नहीं। कहना मुश्किल है। बर्क ने लिखा है कि इतिहास भी एक कल्पना हो सकती है अगर हमने बहुत अमर से पकड़ने की कोशिश की। Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : kare मोर कल्पना भी सत्य हो सकती है अगर हममें बहते भीतर से पकाने की कोशिश की। सबाले वस्तुपरक नहीं है । सवाल बामपरक है। जो महावीर उतने ही महत्वपूर्ण है जितना महावीर को देखने वाला है। और वह वही देख पाएगा जितना देख सकता है। क्या हम महावीर को अपने भीयर लेकर जी सकते है ? जैसे एक मां अपने पेट में एक बच्चे को लेकर जीती है। क्या हम जिसे प्रेम करते है उसे हम अपने भीतर लेंकर जीने लगते हैं ? उस जीने से जो निखर आता है, उसमें हमारा भी हाप होता है । उसमें महावीर भी होते हैं, हम भी होते हैं। यह इतना ही गहरा है जैसे कि अब बाप रास्ते के किनारे लगे हुए फूल को देखकर कहते हैं 'बहुत सुन्दर' तो आप सिर्फ फूल के बावतं ही नहीं कह रहे है, अपने बाबत भी कह रहे हैं। क्योंकि हो सकता है कि पड़ोस से एक आदमी निकले, और कहे : या सुन्दर है इसमें ! इसमें तो कुछ भी सुन्दर नहीं है। साधारण-सा फूल है, घास की फूल।" यह मादमी जो कह रहा है, वह भी उसी फूल के सम्बन्ध में कह रहा है। रात एक भूखा भादमी है । आकाश की तरफ देखता है। चांद उसे रोटी की तरह मालूम पड़ता है। जैसे रोटी तैर रही हो आसमान में।। हेनरिक हेन एक जर्मन कवि था। वह तीन दिन तक भूखा भटक गया जंगल में । पूर्णिमा का चांद निकला तो उसने कहा, "बाश्चर्य अब तक मुझे चांद में सदा स्त्रियों के चेहरे दिखाई पड़े थे और पहली दफा मुझे चांद रोटी दिखाई पड़ी। मैंने कभी सोचा ही नहीं था कि चांद भी रोटी जैसा दिखाई पड़ सकता है लेकिन भूखे आदमी को दिखाई पड़ सकता है।" तीन दिन के भूखे भावमी को चांद ऐसा लगा जैसे रोटी आकाश में तैर रही हो । आकाश में रोटी तैर रही है। चांद तो है ही, इसमें एक भूखे आदमी की नजर भी है। एक फूल सुन्दर है, इसमें फूल तो है ही, एक सौन्दर्य बोष वाले व्यक्ति की नजर भी सम्मिलित है। कोई फूल इतना सुन्दर नहीं है अकेले जितना बांख उसे सुन्दर बना देती है और प्रेम करने वाला उसे सुन्दर बना देता है और ऐसी चीजें खोल देता है उसमें जो शायद साधारण किनारे से गुजरने वाले को कभी दिखाई न पड़ी हों। तो मने जो भी कहा है, वह महावीर के सम्बन्ध में ही कहा है। लेकिन में उसमें मौजूद है और जो हम दोनों को समझने की कोशिश करेगा वही मेरी बात को समझ पा सकता है । जो सिर्फ मुझे समझता है वह नहीं समझ पाएगा। जो सिर्फ शास्त्र से महावीर को समझता है वह भी नहीं समझ पाएगा। यहां दो Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म. ७५७ कि हमारा प्राण व्यक्ति, जैसे दो नदियाँ हैं, संगम पर आकर घुल-मिल जाए और तय करना मुश्किल हो जाए कि कौन-सा पानी किसका है, ऐसा ही मिलता हुआ है । और मैं मानता है कि ऐसा मिलना हो तो ही नदी को पहचान प्रातां है, नहीं तो पहचान नहीं प्रदा । और इसलिए इस निवेदन के साथ महावीर की जड़ प्रतिमा को, मृत प्रतिमा को शब्दों से निर्मित रूपरेखा को मैंने बिल्कुल ही अलग छोड़ दिया है। मैंने एक जीवित महावीर को पकड़ने की कोशिश की है और यह कोशिश तभी सम्भव है जब हम इतने गहरे में प्रेम दे सकें उनके प्राण से एक हो जाए तो ही वे पुनर्जीवित हो सकते हैं। जब भी कोई व्यक्ति कृष्ण, बुद्ध, महावीर के निकट पहुँचेगा तब पहुंचना पड़ेगा। उसे फिर प्राण डाल देने पड़ेंगे। अपने ही प्राण ही उसे दिखाई पड़ सकेगा कि क्या है लेकिन फिर भी इस बात को निरन्तर ध्यान में रखने की जरूरत है कि यह एक व्यक्ति के द्वारा देखे गए महावीर की बात है— दूसरे व्यक्ति को इतनी ही परम स्वतंत्रता है कि वह और तरह से देख सके और इन दोनों में न कोई विरोध की बात है, न कोई संघर्ष की बात है और न किसी विवाद की कोई जरूरत है । और प्रत्येक बार उसे ऐसे ही उड़ेल देगा तो 17 आप पूछते हैं कि जो मैंने कहा उसके लिए क्या हो सकता है ? और मैं शास्त्रों के आधार को शास्त्रों के सिवाय आधार भी पूर्णतः निषेध करता है । बहुत सी बातें उसने कहीं है ऐसे वक्तव्य भी दिए हैं जिनका कहीं भी 'जोड़ सेना ।' फकीर था एक बोकोजू । बुद्ध के सम्बन्ध में जो शास्त्रों में नहीं हैं । और बहुत से कोई उल्लेख नहीं हैं। पंडित उसके पास आए शास्त्र लेकर और कहा कि कहीं हैं बुद्ध की ये बातें ? शास्त्रों में ये नहीं हैं । तो बोकोजू ने कहा, किन्तु उन्होंने कहा, 'बुद्ध ने यह कहा ही नहीं है।' तो बोकोजू मिलें तो उनसे कह देना कि बोकोजू ऐसा कहता था कि कहा है। और न कहा हो तो कह देंगे । यह बोकोजू अद्भुत आदमी रहा होगा। और बुद्ध से कहलवाने की हिम्मत किसी बड़े गहरे प्रेम से ही आ सकती है । या कोई साधारण हिम्मत नहीं है। यह उतने गहरे प्रेम से आ सकती है कि बुद्ध को सुधार करना पड़े । ने कहा कि बुद्ध एक और घटना मुझे स्मरण आती है। एक संत रामकथा लिखते थे और रोज शाम पढ़कर सुनाते थे। कहानी यह है कि हनुमान तक उत्सुक हो गए इस कथा को सुनने के लिए अब हनुमान का तो सब देखा हुवा था लेकिन Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७५८ महापौर मेरो लि क्या इतनी रसपूर्ण हो रही पो कि हनुमान भी छिपकर उसे सुनते थे। वह जगह पाई, जहां हनुमान अशोक वाटिका में गए सीता से मिलने । तो संत ने कहा । हनुमान गए अशोक वाटिका में, वहाँ सफेद फूल खिले थे। सुनकर हनुमान अपने से बाहर हो गए क्योंकि फूल सब लाल थे। हनुमान ने खुब देखा था। इस आदमी ने देखा भी नहीं था। हजारों साल बाद कहानी कह रहा था यह संत। हनुमान ने खड़े होकर कहा : माफ करें-इसमें बरा सुधार कर लें। फूल सफेद नहीं, लाल थे। उस आदमी ने कहा कि फूल सफेद ही थे। हनुमान कहा कि मुझे स्पष्ट करना पड़ेगा कि मैं खुद हनुमान है और मैं गया था। अब तो सुधार कर लो। तो उसने कहा, नहीं, तुम्हीं सुधार कर लेना। फूल सफेद ही थे। हनुमान ने कहा, 'यह तो हद हो गई। हजारों साल बाद तुम कथा कह रहे हो और में मौजूद था, मैं खुद गया था। तुम मेरी कथा कह रहे हो और मुझे इन्कार कर रहे हो।' उस आदमी ने कहा, लेकिन फूल सफेद ही थे, तुम सुधार कर लेना अपनी स्मृति में । हनुमान बहुत नाराज हए । कया कहती है कि उस संत को लेकर वे राम के पास गए। राम से उन्होंने कहा, 'हर हो गई है। इस भादमी की जिद देखो ! मुझसे सुधार करवाता है। मेरी स्मृति में फूल बिल्कुल लाल थे। राम ने कहा कि वह सन्त ही ठीक कहते हैं। फूल सफेद ही थे, तुम सुधार कर लेना। तो हनुमान ने कहा, हद हो गई। राम ने कहा. कि तुम इतने क्रोष में थे कि तुम्हारी आँखें खून से भरी थीं, फूल लाल दिखाई पड़े होंगे । फूल सफेद थे। बहुत बार देखा हो तो भी जरूरी नहीं कि सच हो। और बहुत बार न देखा हो तो भी हो सकता है कि सच हो। सच बड़ी रहस्यपूर्ण बात है। अभी में एक नगरी में था। एक बौद्ध भिक्षु मिलने आए। कुछ बात चल रही थी तो मैंने कहा किबुद्ध के सामने एक व्यक्ति बैठा हमा था। वह पैर का अंगूठा हिला रहा था। बुट बोल रहे थे। बुद्ध ने उससे कहा कि 'मित्र, तेरे पैर का अंगूठा क्यों हिलाता है ?' उस आदमी ने अपने पैर का अंगूठग हिलाना रोक लिया और कहा कि अपनी बात आप जारी रखिए, फिजूल की बातों से क्या मतलब ! बुद्ध ने कहा कि नहीं, मैं पीछे बात शुरू करूंगा, पहले पता चल जाए कि पैर का अंगूग क्यों हिलता है ? उस भावमी ने कहा कि मुझे पता ही नहीं। मैं क्या बताऊँ क्यों हिलता है। बुद्ध ने कहा कि तू बड़ा पागल भावमी है । तेरा अंगूठा हिलता है और तुझे पता नहीं। जब शरीर की होश नहीं रखेगा तो Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापन-प्रवचन- २६ ७१८ आत्मा की होश बहुत दूर की बात है । तब बौद्ध भिक्षु ने कहा कि यह किस ग्रन्थ में लिखा हुआ है । मैंने कहा : मुझे पता नहीं, हो सकता है न हो। लेकिन न भी हो तो घटना घटनी चाहिए। क्या फर्क पड़ता है कि घटीं कि न घुटी । यह भी बहुत मूल्य का नहीं है कि कौन सी घटना घटती है कि नहीं घटती । बहुत मूल्य का यह है कि वह घटना क्या कहती है । बुद्ध ने बहुत मौकों पर यह बात लोगों को कही होगी कि जो शरीर के प्रति नहीं जगा हुआ है, वह खात्मा के प्रति कैसे जगेगा ? और बहुत बार उन्होंने लोगों को टोका होगा उनकी मूर्छा में। घटना कैसी घटी होगी यह बहुत गो बात है । महत्वपूर्ण बात यह है कि बुद्ध जागरण के लिए निरन्तर आग्रह करते हैं । और जो शरीर के प्रति सोया हुआ है, वह आत्मा के प्रति कैसे जागेगा, और बहुत बार वे लोगों को मूर्छा में पकड़ लेते हैं और कहते हैं कि 'देखो ! तुम बिल्कुल सोए हो ।' और सोए हुए आदमी को बताना पड़ता है कि 'यह रही नींद !' और नींद तभी टूट सकती है । घटना बिल्कुल सच है, ऐतिहासिक न हो तब भी । ऐतिहासिक होने से भी क्या होता है ? इतिहास भी क्या है ? जहाँ घटनाएँ पर्दे पर साकार हो जाती हैं, इतिहास बन जाता है। और घटनाएँ अगर पर्दे के पीछे ही रह जाएँ तो इतिहास नहीं बनता है । इस देश में और सारी दुनिया में जो लोग जानते हैं, वे बड़े अद्भुत हैं । कहानी है कि वाल्मीकि ने राम की कथा राम के होने के पहले लिखी । यह बड़ी मधुर और बड़ी अद्भुत बात है। राम हुए नहीं तब वाल्मीकि ने कथा लिखो और फिर राम को कथा के हिसाब से होना पड़ा। फिर कोई उपाय न था क्योंकि वाल्मीकि ने लिख दी तो फिर राम को वेसा होना पड़ा । वह सब करना पड़ा जो वाल्मीकि ने लिख दिया था। यह बड़ी अद्भुत बात है, इतनी अद्भुत कि इसे सोचना भी हैरान करने वाला है । पहले राम हो जाएं फिर कथा लिखी जाए, यह समझ में आता है। लेकिन वाल्मीकि कथा लिख दें और फिर • राम को होना पड़े और सब वैसा ही करना पड़े, जो वाल्मीकि ने लिख दिया था, मुश्किल है । वाल्मीकि ने लिख दिया है तो अब वैसा करना पड़ेगा । तो उस बोकूजो ने जो कहा कि कह देना बुद्ध को कि वह फिर यह कह दें, अगर न कहा हो तो कह दें तो वह उसी अधिकार से कह रहा है जिस अधिकार से बाल्मीकि कथा लिख गए है। इतिहास पीछे लिखा जाता है । सत्य पहले ही लिखा जा सकता है क्योंकि सम का मतलब है जिससे अन्यथा हो ही नहीं सकता । इतिहास का मतलब है, Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबीर : मेरी दृष्टि में पैसा हुआ लेकिन इससे अन्यथा हो सकता था। सत्य का मतलब है जैसा हो सकता है, जिससे अन्यथा कोई उपाय नहीं है। महावीर, बुद्ध, जीसस इन जैसे लोगों के प्रति इतिहास की फिक्र नहीं करनी चाहिए। इतिहास इतनी मोटी बुद्धि की बात है कि ये बारीक लोग उससे निकल ही जाएं, पस में हो न आएं। उन्हें तो किसी और आंख से देखने की जरूरत है, सत्य की भांख से । और उस बांख से देखने पर बहुत सी बातें उद्घाटित होंगी जो शायद इविहास नहीं पकड़ पाया है। और इसलिए मैंने जो कहा है और आगे भी कृष्ण, बुद्ध, कनफ्यूसियम, मामोत्से और क्राइस्ट के सम्बन्ध में जो कहूंगा, उसका ऐतिहासिक होने से कोई सम्बन्ध नहीं है। इसलिए जिनको ऐतिहासिक बुद्धि हो उनसे कोई झगड़ा ही नहीं है, उनसे कोई विवाद ही नहीं है। जगत् को एक कवि की दृष्टि से भी देखा जा सकता है और तब जगत् इतने रहस्य खोल देता है जितने इतिहास की दृष्टि से देखने वालों के सामने उसने कभी भी नहीं खोले हैं। काव्य का अपना दर्शन है। चूंकि वह ज्यादा प्रेम से भरा है इसलिए ज्यादा सत्य के निकट है। शास्त्र उससे मेल भी पड़ सकते है, बेमेल भी पड़ सकते है। चूंकि हमें ख्याल में नहीं रहा है इसलिए जिन लोगों ने बतीत में इन सारे महापुरुषों की गाथाएं लिखी है उनको समझना मुश्किल हो गया। क्योंकि उन गाथाओं को लिखते वक्त भी सत्य पर दृष्टि ज्यादा थी, तथ्य पर बहुत कम । तय तो रोज बदल जाते हैं। सत्य कमी नहीं बदलता। इतिहास तथ्यों का लेखा-जोखा रखता है। सत्य का लेखा-जोखा कौन रखेगा? इसलिए जिनको सत्य को बहुत फिक थी उन्होंने इतिहास लिखा तक नहीं। यह बात बेमानी पी कि कौन आवमी कब पैदा हुमा, किस तारीख में, किस तिथि में । यह बात बेमानी थी कि कौन आवमी कब मरा। यह बात भी अर्थहीन थी कि कान भावमी कब उठा, कब चला, कब क्या किया। महत्त्वपूर्ण तो वह अन्तर्घटना थी जिसने सत्य के निकट पहुंचा दिया और सत्य उस घटना को प्रकट कर सके, ऐसी पूरी की पूरी व्यवस्था की । व्यवस्था बिल्कुल ही काल्पनिक हो सकती है तो भी कठिनाई नहीं है। इतिहास बिल्कुल ही वास्तविक है तो भी व्यर्थ हो सकता है। इतिहास यह है कि जीसस एक बई के बेटे थे। और सत्य यह है कि वे ईघर के पुत्र है। इतिहास खोजने जाएगा तो बढई के बेटे से ज्यादा क्या खोज पाएगा? मेकिन जिन्होंने जीसस को देखा उन्होंने जाना कि परमात्मा के बेटे है।यह किसी और आंख से देखी गई बात है बीर इन दोनों बातों में तालमेल Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समापन-प्रवचन-२६ नहीं हो सकता है क्योंकि बढई के बेटे बोर ईश्वर के बेटे में बहुत फर्क है। इससे ज्यादा फर्क क्या हो सकता है। फिर भी मैं कहूंगा कि उन्होंने बढई का बेय हो देखा वे पहचान नहीं पाए उस आदमी को जो बढई से आया था, लेकिन बाई का बेटा नहीं था। इसका आना और बड़े जगत् से था और वह नहीं पहचान पाया कोई भी, क्योंकि जब जीसस ने कहा कि सारा राज्य मेरा है और वो मेरे साथ चलते है, ये साम्राज्य के मालिक हो जाएंगे तो जो तथ्यों को जानने वाले थे चिन्तित हो गए। उन्होंने कहा मालूम होता है कि जीसस कोई क्रान्ति, कोई बगावत करना चाहता है और जो सच में राजा है उस पर हावी होना चाहता है । जब जीसस को पकड़ा गया और उसको कोटे का ताज पहनाया गया और पूछा गया कि क्या तुम राजा हो तो उसने कहा, हां ! लेकिन फिर भी समझ में नहीं आ सका कि वह आदमी क्या कह रहा है ? फिर उससे पूछा गया, क्या तुम सम्राट होने का दावा करते हो? तो उसने कहा, 'हां, क्योंकि मैं सम्राट हूँ।' लेकिन यह बात बिल्कुल असत्य थी क्योंकि जीसस सम्राट् नहीं थे। एक गरीब बादमी के बेटे थे। उस लाख आदमियों की भीड़ में जो सूली देने इकट्ठे हुए थे, दस-पांच ही में जो पहचान पाए कि हाँ वह सम्राट है। बाकी ने कहा 'खत्म करो, इस आदमी को। यह कैसी झूठी बातें बोल रहा है।' और पायलट ने, जो गवर्नर था, जिसकी आज्ञा से सूली दी गई थी; मरते वक्त जीसस के पास खड़े होकर पूछा : सत्य क्या है ? जीसस चुप रह गए। कुछ उत्तर नहीं दिया । सूली हो गई । प्रश्न वहीं खड़ा रह गया। जीसस ने उत्तर इसलिए नहीं दिया कि सत्य दिखाई पड़ता है या नहीं दिखाई पड़ता है पूछा नहीं जा सकता है। तव्य पूछे जा सकते हैं। बताया जा सकता है कि यह तथ्य है। जो कोई पूछे सत्य क्या है तो बताया नहीं जा सकता । वह देखा जा सकता है । तो जीसस चुपचाप खड़े रह गए कि देख लो अगर दिखाई पड़ जाए तो तुम्हें पता चल जाएगा कि सत्य क्या है, यह बादमी सम्राट् है या नहीं। और अगर तथ्य की बात पूछते हो तो फिर ठीक है, आदमी बढई का लड़का है, सूली पर लटका देने योग्य है क्योंकि दिमाग खराब हो गया है और अपने को सम्राट घोषित कर रहा है। इधर मैं निरन्तर इस सम्बन्ध में चिन्तन करता रहा है कि तथ्य को पकड़ने वाली बुद्धि सत्य को पकड़ सकती है या नहीं। और मुझे लगता है कि नहीं पकर सकती। सत्य को पकड़ने के लिए और गहरी आँस चाहिए जो तथ्यों के भीतर उतर जाता है और तब ऐसे सत्य हाप लगते है जिनको तथ्य कोई खबर नहीं दे पाता । इसी दृष्टि से यह सारी बात मने कही है। Page #653 --------------------------------------------------------------------------  Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट १ : अहिंसा परिशिष्ट २ : ध्यान Page #655 --------------------------------------------------------------------------  Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट (१) अहिंसा बहिसा एक अनुभव है, सिवान्त नहीं। और अनुभव के रास्तै बहुत भिन्न है, सिवान्त को समझने के रास्ते बहुत भिन्न है-अक्सर विपरीत । सिद्धान्त को समझना हो तो शास्त्र में चले जाएं, शब्द की यात्रा करें, तक का प्रयोग करें। अनुभव में गुजरना हो तो शब्द से, तर्क से, शास्त्र से क्या प्रयोजन है ? सिद्धान्त को शब्द से बिना नहीं जाना जा सकता पीर अनुभूति शब्द से कभी नहीं पाई गई । अनुभूति पाई जाती है निशम्न में और तिवान्त है शब्द में । दोनों के बीच विरोष है। जैसे ही माहिसा सिवान्त बन गई तेही भरमई। फिर अहिंसा के अनुभव का क्या रास्ता हो सकता है? अब महावीर पैसा या बुद्ध जैसा कोई व्यक्ति है तो उसके चारों तरफ जीवन में हमें बहुत कुछ दिखाई पड़ता है। जो हमें दिखाई पड़ता है, उसे हम पकड़ लेते है : महावीर कैसे चलते हैं, कैसे खाते हैं, क्या पहनते है, किस बात को हिंसा मानते है, किस बात को अहिंसा, महावीर के आचरण को देखकर हम निर्णय करते है और सोचते हैं कि वैसा। थावरण अगर हम भी बना लें तो शायद जो अनुभव है वह मिल जाए। लेकिन यहां भी बड़ी भूल हो जाती है। अनुभव मिले तो आचरण भाता है, लेकिन माचरण बना लेने से मनुमब नहीं आता। अनुभव हो भीतर तो नाचरण पदलता है, रूपान्तरित होता है। लेकिन बावरण को कोई बदल ले तो अभिनय से ज्यादा नहीं हो पाता। महावीर नग्न खड़े है तो हम भी नग्न खड़े हो सकते हैं। महावीर की नग्नता किसी निर्दोष तल पर नितान्त सरल हो जाने से आई है। हमारी नसता हिसाब से, गणित से, चालाकी से पाएगी। हम सोचेंगे नग्न हुए बिना मोल नहीं मिल सकता । तो फिर एक-एक बात को उतारते चले जाएंगे। हम नग्नता का अभ्यास करेंगे । अभ्यास से कभी कोई सत्य आया है ? अभ्यास से अभिनय भाता है। १. दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा मायोजित अखिल भारतीय महिला-गोष्ठी में दिया गया भगवान् श्री का यह प्रवचन मूल पुस्तक के विषय से सम्बद होने सकारण यहाँ दिया जा रहा है सम्पादक Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाबीर : मेरी दृष्टि में एक गांव के पास से में गुजर रहा था। एक मित्र संन्यासी हो गए हैं। उनका सोपड़ा पड़ता था पास, दो में देखने गया। जंगल में, एकान्त में झोपड़ा है। पास पहुंच कर देखा मैने कि अपने कमरे में वह नग्न टहल रहे है। वरवाजा खटखटाया तो देखा वह चादर लपेट कर पाए है। मैंने उनसे पूछा। भूलता नहीं है, खिड़की से मुझे लगा कि बाप नंगे टहल रहे थे। फिर पादर क्यों पहन की है ? उन्होंने कहा : नग्नता का अभ्यास कर रहा हूँ। धीरे-धीरे एक-एक पल छोड़ता गया है। अब अपने कमरे में नग्न रहता है। फिर धीरेपीरे मित्रों में, प्रियजनों में, फिर गांव में, फिर रावधानी में मग्न रहने का इरावा है, धीरे-धीरे नग्नता का अभ्यास कर रहा है क्योंकि नग्न हुप विना मोक्ष नहीं है। यह व्यक्ति भी नग्न बड़े हो जाएंगे। महावीर की नग्नता से इनकी नग्नता का क्या सम्बन्ध होगा? मैंने उनसे कहा कि संन्यासी होने के बजाय सरकस में भर्ती हो जाबो तो अच्छा है। ऐसे भी संन्यासियों में अधिकतम सरकस में भर्ती होने की योग्यता रखते हैं। अभ्यास से साषी हुई नग्नता का क्या मूल्य है ? भीतर निर्दोषता का कोई अनुभव हो, कोई फूल खिले सरलता का और बाहर वस्त्र गिर पाएं और पता न चले तो यह समझ में आ सकता है। लेकिन हमें तो दिखाई पड़ता है वापरण, अनुभव तो दिखाई नहीं पड़ता। महावीर को हमने देखा तो दिखाई पड़ा बावरण । अनुभव तो दिखाई नहीं पड़ सकता। लेकिन महावीर का आचरण सबको दिखाई पड़ सकता है। फिर हम उस बाचरण को पकड़ कर नियम बनाते है, संयम का शास्त्र बनाते हैं, अहिंसा : की व्यवस्था बनाते है और फिर उसे साधना शुरु कर देते है। फिर क्या खाना, क्या पीना, कब उठना, कब सोना, क्या करना, क्या नहीं करना-उस सबको व्यवस्थित कर लेते हैं, उसका एक अनुशासन पोप लेते हैं। अनुशासन पुरा हो जाएगा और अहिंसा की कोई खबर न मिलेगी। अनुशासन से अहिंसा का क्या सम्बन्ध ? सच तो यह है कि ऊपर से थोपा गया अनुशासन भीतर की मात्मा को उघाड़ता कम है, ढांकता ज्यादा है। जितना दुविहीन बावमी हो उतना अनुशासन को सरलता से थोप सकता है। जितना बुद्धिमान मादमी हो उतना मुश्किल होगा, उतना वह उस स्रोत की खोज में होगा जहाँ से बाचरण माया छाया की भांति। - इसलिए पहली बात मैंने कही : अहिंसा अनुभव है। दूसरी बात आपसे कहता है कि अहिंसा आचरण नहीं है। आपरण अहिंसा बनता है लेकिन Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिसि-1 बहिंसा स्वयं भाचरण नहीं है। इस घर में हम दिए को जलाएं तो खिड़कियों के बाहर भी रोशनी दिखाई पड़ती है। लेकिन दिया सिरकी के बाहर दिखाई पड़ती रोशनी का ही नाम नहीं है। दिया जलेगा तो खिड़की से रोशनी भी दिखाई पड़ेगी। अब उसके पीछे पाने वाली घटना है जो अपने बाप घट जाती है। एक आदमी गेहूँ बोता है तो गेहूँ के साथ भूसा अपने बाप पैदा हो जाता है, उसे पैदा नहीं करना पड़ता। लेकिन किसी को भूसा पैदा करने का ख्याल हो और वह भूसा बोने लगे तो फिर कठिनाई शुरू हो जाएगी। बोया गया भूसा मो सड़ जाएगा, नष्ट हो जाएगा। उससे भूसा तो पैदा होने वाला ही नहीं। गेहे बोया जाता है, भूसा पीछे से अपने-आप साथ-साथ बाता है। अहिंसा वह अनुभव है, वह आवरण है जो पीछे से अपने आप आता है, लाना नहीं पड़ता। जिस आचरण को लाना पड़े वह भाचरण सच्चा नहीं है। मोबावरण पाए, उतरे, प्रकट हो, फले, पता भीमबले, सहम वही माचरण सत्य है । तो दूसरी बात यह है कि आवरण को साध कर हम अहिंसा को उपलब्ध न हो सकेंगे। हिंसा पाए तो आचरण भी बा सकता है। फिर महिसा कैसे जाए? हमें सीधा-सरल यही दिखाई देता है कि जीवन को एक व्यवस्था देने से अहिंसा पैदा हो जाएगी। लेकिन अमल में जीवन को व्यवस्था देने से अहिंसा पैदा नहीं होती। पित्त के पान्तरण से महिसा पैदा होती है। और यह रूपान्तरण कैसे आए, इसे समझने के लिए दो-तीन बातें समझनी उपयोगी होंगी। पहला तो यह शब्द अहिंसा बहुत अद्भुत है । यह शब्द बिल्कुल नकारात्मक है। महावीर प्रेम शब्द का भी प्रयोग कर सकते थे, नहीं किया। जीसस को प्रेम शब्द का प्रयोग करते हैं। शायद प्रेम शब्द का प्रयोग करने के कारण ही जीसस जल्दी समझ में बाते है बजाय महावीर के । महावीर निषेषात्मक शब्द का. प्रयोग करते है । अहिंसा में वह कहना चाहते हैं 'हिंसा नहीं है।' वह और कुष भी नहीं कहना चाहते । हिंसा न हो जाए तो जो शेष रह जाएगा, वह हिंसा होगी । अहिंसा को लाने का सवाल ही नहीं है। वह उस शब्द में ही छिपा है। अहिंसा को विषायक प से लाने का कोई सवाल ही नहीं है, कोई उपाय हो इसे बार एक तरह से देखना परी है। हिसा और अहिंसा विरोधी नहीं है। प्रकास वोर अंधकार विरोधी नहीं है। मगर प्रकाश बोर अंधकार विरोधी Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी हों तो हम अंधकार को काकर दिए के अपर अल सकते है; दिए को बुमना पड़ेगा। नहीं, बंधकार विरोधी नहीं है प्रकाश का, अंधकार बमाव है प्रकाश का अभाव बोर विरोध में कुछ फर्क है। विरोधी का अस्तित्व होता है, अभाव का अस्तित्व नहीं होता। अंधेरे का कोई अस्तित्व नहीं होता प्रकाश का अस्तित्व है। अगर अंधेरे के साथ कुछ करना हो तो सीधा अंधेरे के साथ कुछ नहीं किया जा सकता। न तो अंधेरा लाया जा सकता है न निकाला जा सकता है। नहीं तो दुश्मन के घर में हम अंधेरा फेंक आएं । कुछ भी करना हो बंधेरे के साथ तो प्रकाश के साथ करना पड़ेगा। अंधेरा लाना हो तो प्रकाश बझामा पड़ेगा। बंधेरा हटाना हो तो प्रकाश जलाना पड़ेगा। इसलिए जब यहां अंधेरा मिटता है तो प्रकाश हो जाता है। हम कहते है, अंधेरा मिट गया, इससे ऐसा लगता है जैसे अंधेरा था। लेकिन अंधेरा है सिर्फ प्रकाश का अभाव । प्रकाश या गया-इतना सार्थक है। और प्रकाश मा गया तो बंधेरा कैसे रह सकता है ? वह अब नहीं है । न वह कभी था। महावीर निषेषात्मक अहिंसा शब्द का प्रयोग करते है। वह कहते है कि हिंसा है, हिंसा में हम बड़े हुए है। हिसान हो जाए तो बो शेष रह जाएगा उसका नाम अहिंसा है। लेकिन अगर किसी ने अहिंसा को विधायक बनाया तो वह हिंसक रहते हुए अहिंसा सापने की कोशिश करेगा । हिंसक रहेगा. मोर अहिंसा साधेगा । हिंसक के द्वारा अहिंसा कभी नहीं सामी जा सकती। और अगर साप भी लेगा तो उसकी अहिंसा में हिंसा के सब तत्व मौजूद रहेंगे। वह अहिंसा से भी सताने का काम शुरू कर देगा। इसलिए मैं गांधीजी की अहिंसा को अहिंसा नहीं मानता है। गांधीजी को अहिंसा उस अर्थ में अहिंसा नहीं है जिस अर्थ में महावीर की हिंसा है। गांधीजी की अहिंसा में भी दूसरे को दबाने, दूसरे को बदलने, दूसरे को मिन्न करने का आग्रह है। उसमें हिंसा है। अगर हम ठीक से कहें तो नापीजो की अहिंसा अहिंसात्मक हिंसा है । मैं आपकी छाती पर छुरी लेकर खड़ा हो जाऊँ और कहूँ कि जो मैं कहता हूँ वह ठीक है, आप उसे मानें तो यह हिंसा है। मीर में अपनी अती पर छुरी लेकर खड़ा हो जाऊं और कई कि जो ठीक है यह माने नहीं तो मैं छुरी मार दूंगा, यह अहिंसा कैसे हो पाएगी? . ___ अनशन कैसे बहिंसा हो सकता है ?. सत्याग्रह कैसे अहिंसा हो सकता है ? उसमें एवरे पर वगाव गलने वा पाव पूरी रह उपस्थित है।सर्फ दबाव पाने का रंग बदल गया है । एक मामी कहना है कि भूखा मर जाम Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष् ofe अगर तुम नहीं बदले । अम्बेडकर के विरोध में गांधी जी ने अनशन किया । अम्बेडकर शुक गया। लेकिन बाद में अम्बेडकर ने कहा कि गांधी जी इस भूक में न पड़े कि मेरा हृदय बदल गया है। मैं सिर्फ यह सोचकर कि मेरे कारण गांधीजी जैसा आदमी न मर जाए, पीछे हट गया है। और गांधीजी अपने पूरे जीवन में एक आदमी का भी हृदय परिवर्तन नहीं कर पाए । असल में, हिंसा से हृदय परिवर्तन हो ही नहीं सकता। हिंसा दमन है, दवाव है, जबरदस्ती है। हाँ, जबरदस्ती दो ढंग की हो सकती है। मैं आपको मारने की धमकी दूँ, तब भी जबरदस्ती है और मैं अपने को मारने की धमकी हैं, तब भी जबरदस्ती है। गौर मेरी दृष्टि में दूसरी जबरदस्ती ज्यादा खतरनाक है। पहली जबरदस्ती में आपके पास उपाय भी है सीधा सिर खड़ा करके लड़ने का । दूसरी जबरदस्ती में मैं आपको निःशस्त्र कर रहा हूँ, आपका नैतिक बल मी छीन रहा है, आपको दवा भी रहा हूँ । अहिंसा अगर हिंसा के भीतर रहते साधी जाएगी तो ऊपर अहिंसा हो जाएगी, भीतर हिंसा मोजूद रहेगी। क्योंकि अहिंसा और हिंसा विरोधी चीजें नहीं हैं । गांधी जी के ख्याल में अहिंसा और हिंसा विरोधी चीजें है । अहिंसा को साधो तो हिंसा खत्म हो जाएगी । लेकिन कोन साधेगा अहिंसा को ? हिंसक आदमी साधेगा तो अहिंसा भी साधन बनेगी उसकी हिंसा का । वह फिर अहिंसा से वही उपयोग लेना शुरू कर देगा जो . उसने तलवार से लिया होगा । पूछा जा सकता है कि महावीर ने जिन्दगी भर सत्याग्रह क्यों नहीं किया ? पूछा जा सकता है कि महावीर ने किसी को बदलने का आग्रह क्यों नहीं किया ? सच तो यह है कि सत्याग्रह शब्द ही बेहूदा है । सत्य का कोई आग्रह नहीं हो सकता क्योंकि जहाँ आग्रह है, वहाँ सत्य कैसे टिकेगा ? आग्रह असत्य का ही होता है । सब सत्याग्रह असत्य आग्रह है । कैसे सत्य का आग्रह हो सकता है ? महावीर कहते है कि सत्य का आग्रह भी किया तो हिंसा शुरू हो गई क्योंकि अगर मैंने यह कहा कि जो मैं कहता है वही सत्य है तो मैंने हिंसा करनी शुरू कर दी। मैंने दूसरे व्यक्ति को चोट पहुंचानी शुरू कर दी । इसलिए महावीर सत्य का आग्रह भी नहीं करते। इसी से उनके स्यात् उनके अनेकान्त की धारणा का जन्म हुआ है । की कल्पना है, इसी से एक छोटो सो कहानी समझाना चाहूँगा । गांव में एक क्रोषी आदमी है जिसके क्रोध ने चरम स्थिति ले ली है। उसने अपने बच्चे को कुएं में पक्का 48 Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर : मेरी दृष्टि में C मुनि ने कहा कि सब देकर मार डाला । उसने अपनी पत्नी को मकान के भीतर करके आग लगा ही । फिर पछताया है, दुःखी हुआ है। गाँव में एक मुनि आए हुए हैं। वह उनके पास गया और उनसे कहा कि मैं अपने क्रोध को किस प्रकार मिटाऊँ । मुझे कुछ रास्ता बताएं कि मैं इस क्रोध से मुक्त हो जाऊँ । त्याग कर दो, संम्यासी हो जाओ, सब छोड़ दो तभी क्रोध जाएगा । मुनि मन थे। उस व्यक्ति ने भी कपड़े फेंक दिएं। वह वही नग्न खड़ा हो गया । मुनि ने कहा : अब तक मैंने बहुत लोग देखे संन्यास माँगने वाले लेकिन तुम जैसा तेजस्वी कोई भी नहीं दिखा। इतनी तीव्रता से तुमचे वस्त्र फेंक दिए । लेकिन मुनि भी न समझ पाए कि जितनी तीव्रता से कुएं में धक्का दे सकता है, वह उतनी ही तीव्रता से वस्त्र भी फेंक सकता है। वह क्रोध का ही रूप है । असल में क्रोष बहुत रूपों में प्लकट होता है । क्रोष संन्यास भी लेता है । इसलिए संन्यासियों में निन्यानवें प्रतिशत क्रोधी इकट्ठे मिल जाते हैं । उनके कारण है । ७७० में उसने वस्त्र फेंक दिए हैं, वह नग्न हो गया है, वह संन्यासी हो गया है । दूसरे साधक पीछे पड़ गए हैं। उससे साधना में कोई आगे नहीं निकल सकता । क्रोम किसी को भी आगे नहीं निकलने देता । क्रोध ही इसी बात का है कि कोई मुझ से आगे न हो जाएं। वह साधना में भी उतना ही क्रोधी है । लेकिन साधना की खबर फैलने लगी । जब दूसरे छाया में बैठे रहते हैं वह धूप खड़ा रहता है । जब दूसरे भोजन करते हैं वह उपवास करता है । जब दूसरे शीत से बचते हैं वह शीत झेलता है। उसके महातपस्वी होने की खबर गाँवगाँव में फैल गई है। उसके क्रोध ने बहुत अद्भुत रूप ले लिया है। कोई नहीं पहचानता, वह खुद भी नहीं पहचानता कि यह क्रोध ही है जो नये-नये रूप ले रहा है । फिर वह देश की राजधानी में भाया। दूर-दूर से लोग उसे देखने आते है। देश की राजधानी में उसका एक मित्र है बचपन का । वह बड़ा हैरान है कि यह क्रोषी व्यक्ति संन्यासी कैसे हो गया हालांकि नियम यही है । वह देखने गया उसे । संम्यासी मंच पर बैठा है। वह मित्र सामने बैठ गया । संम्बासी की आंखों से मित्र को लगा है कि वह पहचान तो गया । लेकिन मंच पर कोई भी बैठ जाए फिर वह नीचे मंच वालों को कैसे पहचाने ? पहचानना बहुत मुश्किल है। फिर वह मंच कोई भी हो। चाहे वह राजनीतिक हो, चाहे गुरु की हो । मित्र ने पूछा, आपका नाम ? संन्यासी ने कहा शान्तिनाथ । फिर परमात्मा Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-१. ७७१ की बात करते रहे । मित्र ने संन्यासो से फिर वही प्रश्न किया। संन्यासी का हाय डंडे पर गया । उसने कहा : बहरे तो नहीं हो, बुर्मिहीन तो नहीं हो ? कितनी बार कई कि मेरा नाम है शांतिनाप । मित्र थोड़ी देर चुप रहा । कुछ और बात चलती रही आत्मा परमात्मा की। फिर उसने पूण किक्षमा करिए । आपका नाम क्या है ? फिर माप सोच सकते हैं क्या हुआ? वह रंग उस मित्र के सिर पर पड़ा। उसने कहा कि तुझे समझ नहीं पड़ता कि मेरा नाम क्या है ? मित्र ने कहा कि अब मैं पूरी तरह समझ गया। यह पता लगाने के लिए तीन बार नाम पूछा है कि आदमी भीतर बदला है या नहीं बदला है। अहिंसा काटों पर लेट सकती है, भूख सह सकती है, शीर्षासन कर सकती हैं, आत्म-पीड़ा बन सकती है अगर भीतर हिंसा मौजूद हो। दूसरों को भी दुःख और पीड़ा का उपदेश दे सकती है। हिंसा मीतर होगी तो वह इस तरह के रूप लेगी, खुद को सताएगी, दूसरों को सताएगी और इस तरह के ढंग खोजेगी कि ढंग अहिंसक मालूम होंगे लेकिन भीतर सताने की प्रवृत्ति परिपूर्ण होगी। असल में अगर एक व्यक्ति अपने अनुयायी इकट्ठा करता फिरता हो तो उसके अनुयायी इकट्ठा करने में और हिटकर के लाखों लोगों को गोली मार देने में कोई बुनियादी फर्क नहीं है। असल में गुरु भी मांग करता है अनुयायी से कि तुम पूरी तरह मिट जाबो, तुम बिल्कुल न रहो, तुम्हारा कोई व्यक्तित्व न बचे । समर्पित हो जाबो पूरे । अनुयायी की मांग करने वाला गुरु भी व्यक्तित्व को मिटाता है बम ढंगों से, पॉछ देता है व्यक्तियों को। फिर सैनिक रह जाते है जिनके भीतर बात्मा समास कर दी गई है। हिटलर जैसा बारमी सीषा गोली मार कर शरीर को मार देता है। .. पूछना परी है कि शरीर को मिटा देने वाले ज्यादा हिंसक होंगे या फिर बात्मा को, व्यकित्व को मिटा देने वाले ज्यादा हिंसक होते है ? कहना मुश्किल है। लेकिन विताई तो यही पड़ता है कि किसी के शरीर को मारा जा सकता है पौर हो सकता है किपकि बच पाए। तब मापने कुछ भी नहीं मारा । और यह भी हो सकता है कि परीर पर बाए बोर व्यक्ति भीतर मार मला जाए तो बापने सबमार मला । अपर मोतर हिंसा हो, ऊपर हिंसा हो तो दूसरों को मारने की, बाने की नई-नई तरकीबें सोजी पाएंगी बौर तरकीबें खोजी बाती है। यह भी हो सकता है कि एक मामी सिर्फ इसीलिए एक तरह का परिष बनाने में बनाए कि उस परिष के माध्यम से यह किसी को पता सकतामा पॉट सकता है बार में पवित्र है म सन्त, मला :-सकी Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर मेरी दृष्टि में भावना से दूसरे की छाती पर बैठ सकती है, इस अहंकार की दूसरे की फांसी बना सकता है, इसकी पूरी सम्भावना है। • इसलिए महावीर अहिंसा की विधायक साचना का कोई प्रश्न ही नहीं उठाते। बात बिल्कुल दूसरी है उनके हिसाब से उनके हिसाब से बात यह है कि मैं हिंसक हूँ, दूसरे को दुःख देने में मुझे सुख मालूम होता है; दूसरे के सुख से भी दुःख मालूम होता है । यह हमारी स्थिति है, यहाँ हम खड़े हैं । अब क्या किया जा सकता है ? ऐसे आचरण को क्षीण किया जाए जो दूसरे का अहित करता हो, और ऐसे आचरण को प्रस्तावित किया जाए जो दूसरे का मंगल करता हो । एक रास्ता यह है । इस रास्ते को मैं नैतिक कहता है मोर नैतिक व्यक्ति कभी पूरे. अर्थी में अहिंसक नहीं हो सकता । ७७२ गांधी जी को मैं नैतिक महापुरुष कहता हूँ, धार्मिक महापुरुष नहीं । शायद उन पैसा नैतिक व्यक्ति हुआ भी नहीं। लेकिन वह नैतिक ही हैं। उनकी अहिंसा नैतिक तल पर है। महावीर नैतिक व्यक्ति नहीं है। महावीर धार्मिक व्यक्ति है । और धार्मिक व्यक्ति से मेरा क्या प्रयोजन है ? धार्मिक व्यक्ति से मेरा प्रयोजन है ऐसा व्यक्ति जिसने अपनी हिंसा को जाना-पहचाना और जिसने अपनी हिंसा के साथ कुछ भी नहीं किया, जो अपनी हिंसा के प्रति पूरी तरह ध्यानस्थ हुमा, जागृय हुआ, जिसने अपनी हिंसा की कुरूपता को पूरा-पूरा देखा और कुछ भी नहीं किया । तो मेरी दृष्टि ऐसी है कि अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर की हिंसा को पूरी तरह देखने में समर्थ हो जाए और उसे पूरा पहचान से, उसके अणु-परमाणुओं को पकड़ ले, उठने-बैठने चलने में, मुद्रा में जो हिंसा है उस सबको पहचान ले, जान ले, साक्षी हो जाए, विवेक से भर जाए तो वह व्यक्ति अचानक पाएगा कि जहाँ-जहाँ विवेक का प्रकाश पड़ता है हिंसा पर वहाँ-वहाँ हिंसा बिदा हो जाती है, उसे बिदा नहीं करना होता । वह वहाँ से क्षीण हो जाती है, समाप्त हो जाती है । न उसे बढ़ाना पड़ता है, न उसे बदलना पड़ता है । सिर्फ चेतना जैसे सुबह सूरज निकले और मोस के समक्ष आते वह वैसे हो बिदा हो जाती है बिदा होने लगे । वह ओसकण विदा होते हैं सूरज के निकलते ही, उन्हें बिदा करना नहीं होता । जतने ताप को वह झेलने में असमर्थ है। चेतना का एक ताप है। महावीर बिसे तर कुड़ते हैं, वह चेतना का साथ है। बगर चेतना पूरी की पूरी व्यक्ति के प्रति जागरूक हो जाए तो व्यक्तित्व में जो भी कुरूप है वह रूपान्तरित होता शुरू हो जाएगा। उसे रूपास्तरित करता नहीं होगा 11 Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७६ महावीर मेरी में जो शेष रह गया है वह अपरिग्रह है । कोई चोरी छोड़ेगा तो सिर्फ छोड़ा हुआ चोर होगा । इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हो सकता । भीतर बोरी जारी रहेगी । हाथ-पांव बांध लेगा, रोक लेगा अपने को छाती पर पत्थर रखकर कि चोरी नहीं करनी लेकिन भीतर चोर होगा । कोई चोरी करने से थोड़ी ही चोर होता है । लेकिन अगर कोई जागेगा और चोरी बिदा हो जाएगी तो अचीर्य शेष रहा जाएगा । अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह नकारात्मक है । क्योंकि कुछ बिदा होगा तो कुछ शेष रह जाएगा । हमें पता ही खुल जाए तो और यह बड़े मजे की बात है कि अगर हिंसा बिदा हो जाए, परिग्रह विदा हो जाए, चोरी बिदा हो जाए- अगर यह तीनों बिदा हो जाएं तो अहिंसा, अचौर्य और अपरिग्रह की जो वित्तदशा होगी उसमें सत्य का उदय होगा । इन तीन के विदा होने पर सत्य का अनुभव होगा। ये द्वार बन जाएंगे और सत्य दिखाई पड़ेगा | सत्य को कोई खोज नहीं सकता। नहीं कि वह कहाँ है । हम उस स्थिति में आ जाएँ जहाँ द्वार सत्य दिखाई पड़ेगा । सत्य होगा इन तीन के द्वार से उपलब्ध अनुभव और ब्रह्मचर्य होगा उसकी अभिव्यक्ति । वह जो सत्य मिल गया उस जीवन के सब हिस्सों में प्रकट होने लगेगा | ब्रह्मचर्य का अर्थ है ब्रह्म जैसी चर्या, ईश्वर जैसा आचरण । ये तीन बनेंगे द्वार और टीम में अहिंसा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। क्योंकि जिस आदमी की हिंसा बिदा हो गई है, वह चोरी कैसे करेगा ? क्योंकि चोरी करने में हिंसा है और जिस आदमी की हिंसा बिदा हो गई है, वह कैसे संग्रह करेगा, क्योंकि, सब संग्रह के भीतर चोरी है । इसलिए अगर हम बाकी बो को बिदा भी कर दें वो तीन बातें रह जाती है : अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य। अहिंसा के दो हिस्से हैंअचौर्य, अपरिग्रह | 1 अहिंसक चित्त में सत्य का अनुभव होगा और ब्रह्मचर्य उसका आचरण होगा । लेकिन यह अहिंसा समाधि से, ध्यान से उपलब्ध होती है । आप कह सकते हैं कि बहुत से ध्यांनी लोग हुए हैं जो अहिंसक नहीं है । जैसे, रामकृष्ण जैसा व्यक्ति भी मांसाहारी है । रामकृष्ण मछली खाते हैं और विवेकानन्द भी । तो विचार होता है कि रामकृष्ण जैसा व्यक्ति भी अगर ध्यान को, समाधि को मुक्त नहीं होता है तो मामला क्या है ? मेरी दृष्टि में उस ध्यान से गुजरने पर ही अहिंसा की उपलब्धि का ध्यान है । ओर रामकृष्ण का जो ध्यान है, वह जायने का नहीं, सो जाने का, मूडित हो जाने का ध्यान है। रामकृष्ण का ध्यान उपलब्ध होकर मछलियों से महावीर का जो ध्यान है, हो सकती है । 'वह जागने Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पक्षिर दूसरी बार पापोकात दिवा पूछी, वहकिकुरणकोहो विवेका और साप में यह भी पूछा कि में बताऊंना जे फिर वह वास्व हो पाया। बिल्कुल ठीक है। बबर मेरे बताने के कारण आप उस पर पलेंगे तो आप शास्त्र पर पले । लेकिन अपने विवेक के कारण अगर बाप उस परुपले तो शास्त्र यहीं पड़ा रह गया। जैसे मुझसे कोई पूछे कि तैरना कैसे ? क्या उपाय है ? तो मैं कहूंगा कि तैरने का कोई उपाय नहीं होता सिवाय तैरने के । लेकिन एक बादमी अगर कहे कि में नदी में तभी उतरूंगा जब मैं तैरना सीख जाऊंगा क्योंकि बिना तैरना सीखे कसे उतरू तो वह तर्कयुक बात कह रहा है। बिना तैरना सीखे उसे नदी में उतरना खतरे से भरा है। लेकिन सिखाने वाला कहेगा कि जब तक उतरोगे नहीं तब तक तैर भी नहीं सकोगे। तैरना भी सीखना हो तो पानी में उतरना होगा। लेकिन पहली बार पानी में उतरना तड़फड़ाना ही होगा, तैरना नहीं हो सकता । असल में तैरना क्या है ? तड़फड़ाने का व्यवस्थित रूप है । पहले तड़फड़ाएंगे, फिर तड़फड़ाने में तकलीफ होगी तो व्यवस्थित हो जाएंगे। धीरे-धीरे बाप पाएंगे कि तैरना ना गया, तड़फड़ाना चला गया । तैरना तड़फड़ाने का ही व्यवस्थित रूप है । मादमी पहले दिन पानी में पटकने से ही तैरता है । फिर बाद में जो विकास होता है, वह उसके अपने तैरने के अनुभव से होता है, तो मैं आपको क्या कई कि विवेक कैसे जगे? विवेक को जगाना हो तो विवेक करना होगा; तैरना सीखना है तो तेरना शुरू करना होगा। और कोई उपाय नहीं है । रास्ते पर चलते, खाना खाते, बात करते, सुनते, उठते, बैठते विवेकपूर्ण होना होगा। लेकिन ठीक माप पूछते हैं कि जो मैं कर रहा हूँ और मेरी बात जब मैंने समझाई तो शास्त्र हो गई । मगर यह ध्यान में रखना जरूरी है कि बात समझाने से शास्त्र नहीं होती, बात आपके माने से बाल होती है। अगर मैंने कहा कि बात किसी तीर्थकर ने कही है, किसी सश ने कही है, और मापने कहा कि ऐसे व्यनि ने कही है जो बानता है और 'मूल नहीं करता फिर वह शास्त्र बन जाती है, नहीं तो किताब ही रह जाती है। किताव और शास्त्र में फर्क है। जो किताव पागल हो जाता है यह शास्त्र है। बोक्सिब पवा करने ममती है वह बाल बन जावी है। मैं किताबों का दुष्मन नहीं है, शास्त्र का दुश्मन है। किसानो सानी पाहिए.बी अदभुत है, बड़ी जरूरी है। किवा के बिना नुकसान हो जाएगा। लेकिन शास्त्र बड़े सबरनाक है। पर कोई : किसान पवा करती है कि मैं परम सत्य है और को Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ७८९ एक मित्र यह पूछते है कि विवेक के लिए विवेक के प्रति जागना क्या अपनी बविवेक बुद्धि के साथ प्रतिहिंसा न होगी। फिर आप मेरे विवेक का मतलब नहीं समझे । मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि विवेक से अविवेक को काटें। अंगर का तो हिंसा होगी। मैं तो यह कह रहा है कि आप सिर्फ विवेक में जागें। कुछ है जो कट जाएगा, कट जाएगा इस अर्थ में कि वह था ही नहीं, आप सोए हुए थे इसीलिए था, अन्यथा वह गया। कटेगा भी कुछ नहीं, अंधेरा कटेगा पोड़े ही दिए के जलाने से। इसलिए अंधेरे के साथ कभी भी हिंसा नहीं हुई है। वह नहीं रहेगा बस। विवेक जगेगा और अविवेक चला जाएगा। इसमें में हिंसा नहीं देख पाता है जरा भी । आप यह कहते है कि यह तो ठीक दिखाई पड़ता है कि दिएको जलाया और अंधेरा चला गया। इसको हम सच मान सकते है क्योंकि यह हमारा अनुभव है। दूसरे को कैसे सच मानें ? मैं कहता ही नहीं कि मानें। अनुभव हो जाएगा तो मान लेंगे। इसको मैं कहता भी नहीं कि माने मैं कहता हूँ कि आप प्रयोग करके देखें। यदि संशय सच में ही जगा है तो प्रयोग करवा कर ही रहेगा। तभी संशय सच्चा है। तो प्रयोग करके देख लें। विवेक जग जाए और अगर अहिंसा रह जाए तो समझना कि मैं जो कहता था, सत्य नहीं कहता था। लेकिन अब तक ऐसा नहीं हुआ है और न हो सकता है। Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24. Wisdom of Folly *25. Two Hundred Two *26. Meet Mulla Nasrudin *27. Thus Spoke Mulla Nasrudin *28. Let Go *29, Beyond Laughter *30. The Inward Revolution 31. I Am the Gate 32. Seriousness 33. Secrets of Discipleship *34. Dynamics of Meditation *35. The Ultimate Alchemy (2 vols ) " Gof) 36. Acharya Rajneesh : a Glimpse 37. Acharya Rajneesh : The Mystic of Feeling 38. Lifting the Veil ←(New 6,00 Mulla Jokes Note; Star (*) marked books are in Press. Israil Mohalla 31, Bhagwan Bhuvan Masjid Bunder Road III. Critical Studies on Bhagwan Shree Rajneesh : For enquiries and books please contact: JEEVAN JAGRITI KENDRA (Life Awakening Centre) BOMBAY-9 Phones: 327618/321085 15.00 10:00 2.00 3,00 20,00 • 1.25 20,00 10.00 A-1, Woodlands Peddar Road BOMBAY-26 Tel. 381159 Page #668 --------------------------------------------------------------------------