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________________ धश्नोत्तर - प्रवचन- २ ३९ • चूका बाहर कभी न आ पाते । और अब उस मकान के भीतर कभी न जाएंगे । यद्यपि उस मकान में आग नहीं लगी है लेकिन मकान में होना ही आग में होना है । मेरा मतलब समझे न तुम ? यानी यह जरूरी नहीं है तुम बांहर से मुझसे यही कहो कि मकान में आग नहीं लगी है लेकिन प्रकान में होना ही भाग में होना है, क्योंकि हम चूके जा रहे थे, वह सब जला जा रहा था जीवन, जा रहा था सब कुछ जो मिल सकता था । इसलिए बहुत सी बातें हैं और जिसको आम तौर पर हम प्रमाण करते हैं उस पर मेरी कोई श्रद्धा नहीं, किसी तरह के प्रमाण पर । प्रमाण एक ही है कि तुम पहुंच जाओ। जाओगे तो इन्कार नहीं कर सकते; इतना मैं वादा करता हूं। जाओ तो मैं जो कहता हूं उससे करता हूं । इन्कार नहीं कर सकते, और तुम पहुंच यानी तुम पहुंच इतना मैं वादा प्रश्न : 3|पने रात को शास्त्रों के बारे में कुछ बात कही थी। मुझे ऐसा लगता है कि आप जो भी कुछ कहते हैं वह शास्त्रों में भी उपलब्ध हो सकता है । और आप जो कुछ कह रहे हैं वह भी स्वयं में एक शास्त्र ही बनते चले जा रहे हैं । और जो बात आप शास्त्रों के सम्बन्ध में कह रहे हैं वह आपकी कही हुई बातों पर भी ज्यों की त्यों लागू हो जाएगी। जो देखने वाला है उसे इसमें भी दीखेगा, जो नहीं देखने वाला है उसे इसमें भी नहीं दीखेगा । जो देखने वाला है उसे प्राचीन शास्त्रों में भी दीख हो जाता है और न देखने वाले को उनमें भी नहीं दीखता । फिर उनकी निन्दा का क्या प्रयोजन ? • उत्तर : उनकी निंदा मैं करता हो नहीं हूं । शास्त्र की निंदा मैं नहीं करता हूं क्योंकि शास्त्रों को मैं निन्दा योग्य भी नहीं मानता । प्रशंसा के योग्य मानना तो दूर, निन्दा योग्य भी नहीं मानता। क्योंकि निन्दा भी हम उसकी करते हैं जिससे कुछ मिल सकता होता और नही मिला । शास्त्र से मिल ही नहीं सकता । उसकी निन्दा का कोई अर्थ नहीं है क्योंकि शास्त्र से न मिलना शास्त्र का स्वभाव है यानी यह शास्त्र का स्वभाव है कि उससे सत्य नहीं मिल सकता । मिल जाए तो आश्चर्य हो जाएगा; असम्भव घटना हो जाएगी । मैं शास्त्र की निन्दा नहीं करता हूं कि शास्त्र से नहीं मिलता है । जैसे समझिए कि एक आदमी एक रास्ते से जा रहा है और किसी जगह पहुंचना चाहता है और हम उससे कहते हैं कि यह रास्ता वहां नहीं जाता है । इसका मतलब यह नहीं कि हम उस रास्ते की निन्दा करते हैं । इसका कुल मतलब इतना है कि हम यह कहते हैं कि वह जहां जाना चाहता है वहां वह रास्ता नहीं जाता। हम यह भी नहीं •
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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