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________________ ४६२ महापौर : मेरी दृष्टि में सामायिक पाई जा सकती है, उसे खरीदा नहीं जा सकता। लेकिन अहंकार उसको भी खरीदना चाहता है, भगवान् को भी खरीदना चाहता है। ऐसा कोई न कहे कि बस तुम्हारे पास धन ही धन है और कुछ भी नहीं। अहंकार धर्म को भी खरीदने जाता है । लेकिन हमें यह दिखाई पड़ना बहुत मुश्किल होता है। असल में कठिनाई क्या है ? हमारे मन में दो चीजें हैं : अहंकार या नम्रता । नम्रता अहंकार का ही रूप है, यह हमारे ख्याल में नहीं है। ___ अहंकार एक विधायक घोषणा है : नम्रता अहंकार को निषेधात्मक घोषणा है। महावीर नियन्ता के प्रति, गुरु के प्रति, परम्परा के प्रति न नम्र है, न अनम्र हैं। दोनों बातें असंगत हैं महावीर के लिए। इनसे कुछ लेना-देना नहीं है । मैं एक बड़े वृक्ष के पास निकलूँ और नमस्कार न करूं तो आप मुझे अनम्र न कहेंगे। लेकिन एक महात्मा के पास से निकलू और नमस्कार न करूं तो आप कहेंगे अनम्र है। लेकिन यह भी हो सकता है कि मेरे लिए महात्मा और वृक्ष दोनों बराबर हों। मेरे लिए दोनों असंगत हों, इस बात से ही मुझे कुछ लेना-देना न हो। लेकिन आप की तोल में एक स्थिति में मैं नम्र हो गया और एक स्थिति में अनम्र हो गया जबकि मुझे इसका कुछ पता ही नहीं। एक फकीर एक गाँव से निकल रहा है। एक आदमी एक लकड़ी उठा कर उसको मार रहा है पीछे से। चोट लगने पर लकड़ी उसके हाथ से छूट गई है और एक तरफ गिर गई है । उस फकीर ने पीछे लौट कर देखा, लकड़ी उठा कर उसके हाथ में दे दी और अपने रास्ते चला गया। एक दुकानदार यह सब देख रहा है, उसने फकीर को बुलाया और कहा कि तुम कैसे पागल हो ? तुम्हें उसने लकड़ी भारी, उसकी लकड़ी छूट गई तो तुमने सिर्फ इतना ही किया कि उसकी लकड़ी उसको उठाकर वापस दे दी और तुम अपने रास्ते चले गए । उस फकीर ने कहा कि एक दिन मैं एक झाड़ के नीचे से गुजर रहा था। उसकी एक शाखा गिर पड़ी मेरे ऊपर तो मैंने कुछ नहीं किया। मैंने कहा कि संयोग की बात है कि जब शाखा गिरी तो मैं उसके नीचे आ गया। मैं शाखा को रास्ते के किनारे सरका कर चला गया। संयोग की बात होगी कि उस आदमी को लकड़ी मारनी होगी हम पर तो इसकी लड़की टूट गई, उसको उठाकर दे दी, और हम क्या कर सकते थे ? हम अपने रास्ते चल पड़े। जो मैंने वृक्ष के साथ व्यवहार किया था वही मैंने इस आदमी के साथ भी किया। एक स्थिति ऐसी हो सकती है कि हमारे प्रश्न असंगत हो जाते हैं । क्योंकि हम जब सोचते हैं तो दो ही में सोच सकते हैं। और यह समझना गलत हो
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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