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________________ • ૪૬ महावीर : मेरी दृष्टि में जीतता है, न गैलीलियो जीतता है, न क्राइस्ट जीतते हैं, न कृष्ण, न महावीर, न मुहम्मद | जीतना सत्य है, असत्य हारता है । लेकिन वक्त लग सकता है । असत्य अपने को बचाने की सारी कोशिश करता है, अपनी सुरक्षा करता है और उसकी सबसे बड़ी सुरक्षा है स्वीकृति, लोगों में स्वीकृति पैदा कर देना । इसलिए असत्य स्वीकृति में जीता है। सत्य स्वीकृति की चिन्ता भी नहीं करता । वह अस्वीकृति में जी लेगा क्योंकि उसके पास अपने पैर है, अपनी स्वास है, अपने प्राण हैं और वह प्रतीक्षा करता है अनन्तकाल तक । कभी तो आँखें खुलती हैं और चीजें दिखाई पड़ती हैं । मुझे चिन्ता नहीं है जरा भी कि जो मैं कह रहा हूँ उसे कौन मानेगा । जिस व्यक्ति को यह चिन्ता होती है, वह कभी सत्य बोल नहीं सकता । क्योंकि तब यह पहले आपकी तरफ देख लेता है कि आप क्या मानोगे ? उसको मान्यता ज्यादा मूल्यवान् है । और मान्यता जिन लोगों से पानी है अगर वे सत्य को हो उपलब्ध होते तो बात करने की कोई जरूरत न थी । अंधेरे में खड़े लोगों से सूरज के लिए मान्यता लेनी है तो वे अंधेरे में खड़े लोग कहते हैं कि सूरज से अंधेरा निकलता है । उनकी स्वीकृति लेनी हो तो कहो कि बहुत घना अंधेरा सूरज से निकलता है । वे ताली पीट देगें । या उनसे कहो कि सूरज से अंधेरा कभी निकला ही नहीं । सूरज तो अंधेरे को तोड़ता है तो इसका मतलब हुभा कि तुम अकेले, आँख वाले पैदा हुए हो, हम सब अंधे हैं । और यह बात बड़ी अपमानजनक है कि कोई आदमी कहे कि मेरे पास आँख है और सब अंधे हैं । इससे बड़ा दुःख होता है । फिर सब मिलकर आँख वाले की आंख फोड़ने की कोशिश करें तो उसमें कुछ हर्जा भी नहीं है । वह ठीक ही प्रतिकार ले रहे है । वह उनको चोट पहुँची, उनके मन का अपमान हुआ, उनके अहंकार को धक्का पहुँचा। लेकिन सत्य प्रतीक्षा करता है और प्रतीक्षा करने का धैर्य रखता है । प्रश्न : आप कहते हैं कि समाज प्रसत्य में जीता है ता क्या असत्य समाज के लिए अनिवार्य है, जीने के लिए ? उत्तर : जैसा समाज है हमारा, उस समाज के जीने के लिए असत्य अनिवार्य है । जैसा हमारा समाज है दुःख से भरा हुआ, पीड़ा से भरा हुआ, शोषण, अहंकार, ईर्ष्या और द्वेष से भरा हुआ, इस समाज को जिलाना हो तो यह असत्य पर ही जी सकता है। अगर बदलना हो, नया बनाना हो — आनन्द से, प्रकाश से, प्रेम से भरा हुआ, जहां ईर्ष्या न हो, महत्त्वाकांक्षा न हो, घृणा न हो, द्वेष न हो, क्रोष न हो तो फिर सत्य लाना पड़ेगा ? -
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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