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महाबीर । मेरी दृष्टि में
भगदान के नियमों में गड़बड़ कर रहा है । असल में बड़े छोटे पत्थर बड़े-छोटे होने के कारण नहीं गिरते। गिरते हैं जमीन की कशिश के कारण। और कशिश दोनों के लिए बराबर है। छत पर से गिर भर जाएं फिर बड़ा और छोटा होने का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य कशिश की है और वह सबके लिए बराबर है।
एक सीमा है मनुष्य की। उस सीमा से बाहर मनुष्य छलांग भर लगा जाए, फिर परमात्मा की कशिश उसे खींचती है। फिर उसे कुछ नहीं करना पड़ता । उस सीमा के बाद कोई छोटा-बड़ा नहीं रह जाता। फिर सब पर बराबर कशिश काम करती है । एक सीमा भर है। उस सीमा को मैं कहता हूँ विचार । जिस दिन आदमी विचार से निर्विचार में कूद जाता है उसके बाद फिर कोई छोटा बड़ा नहीं रहता, कोई कमजोर नहीं है, कोई ताकतवर नहीं है। कोई फर्क हो नहीं है। बस एक बार विचार से कूद जाए निविचार में फिर जो जीवन की, अस्तित्व की परम शक्ति है, वह खींच लेती है एक साथ । तो हमारे सब फर्क कूदने के पहले के फर्क हैं। जब तक हम नहीं कूदे हैं तब तक के हमारे फर्क हैं । जिस दिन हम कूद गएं उस दिन कोई फर्क नहीं है । महावीर ने जो छलांग लगाई है वही कृष्ण की है, वही क्राइस्ट की है। उसमें कोई फर्क नहीं है। __ इसलिए कोई विकास अहिंसा में कभी नहीं होगा। महावीर ने कोई विकास किया है, इस भूल में भी नहीं पड़ना चाहिए। महावीर ने जो छलांग लगाई है, वह अनुभव वही है। मगर उस अनुभव की अभिव्यक्ति में भेद है। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है कि महावीर ने पहली बार अहिंसा का अनुभव किया हो । लाखों लोगों ने पहले किया है। लाखों लोग पीछे करेंगे। यह अनुभव किसी की बपौती नहीं है। जैसे हम आँख खोलेंगे तो प्रकाश का अनुभव होगा। यह. किसी की बपौती नहीं है। मेरे पहले लाखों, करोड़ों, अरबों लोगों ने आँख खोली और प्रकाश देखा। और मैं भी आँख खोलूंगा तो प्रकाश देखूगा । मेरी इसमें कोई बपौती नहीं है कि मेरे पीछे आने वाले लोग आँख खोलेंगे तो मुझसे कम देखेंगे या ज्यादा देखेंगे। आँख खुलती है तो प्रकाश दिखता है। कोई विकास नहीं हुआ है, कोई विकास हो ही नहीं सकता।
कुछ चीजें हैं जिनमें विकास होता है । परिवर्तनशील जगत् में विकास होता है। शाश्वत, सनातन अन्तरात्मा के जगत् में कोई विकास नहीं होता। वहीं जो जाता है, परम अन्तिम में पहुंच जाता है। वहाँ कोई विकास नहीं, कोई