SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रश्नोत्तरवचन २५१ मैं कैसे जा सकता हूँ ? फिर भी, सम्राट ने कहा, देखें, कोशिश करें, जांचपड़ताल करें। तो जो उसका अपना कमरा बा, जहाँ बहुमूल्य सामान पा, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ गद्दियां थों, मखमलें थी, कीमती कालीन थी, उसने कहा कि आप तो यहाँ ठहर सकेंगे न ? उसने कहा बिल्कुल मजे से। वह जैसा नीम के नीचे सोया था, वैसे ही मखमली गद्दे पर सो गया । सम्राट् ने अपना सिर ठोका और कहा : कुछ गलती एकदम हो गई है। हम एकदम गलत आदमी को ले माए हैं क्योंकि परिग्रही को अपरिग्रहीं तब समझ में आता है जब वह परिग्रह की दुश्मनी में हो । परिग्रही को, जिसको चीजों से पकड़ है, सिर्फ वही समझ में जाता है जो चीजों को पकड़ने से ऐसा र कर हाथ फैला दे कि 'नहीं' मैं छू नहीं सकता। ये चीजें पाप हैं । जिसको रुपए से मोह है, वह रुपए लात मारने वाले को ही आदर देता है । परिग्रही सिर्फ उसको ही समझ सकता है जो ठीक उससे उल्टा करे। . सम्राट् बहुत मुश्किल में पड़ गया। वह फकीर ऐसे रहने लगा जैसे सम्राट रहता है। छः महीने बीत गए तो एक सुबह अपने बगीचे में टहलते हुए सम्राट ने उससे पूछा कि अब तो मुझ में और आप में कोई भेद नहीं मालूम पड़ता। बल्कि शायद आप ही ज्यादा सम्राट् है। मुझे चिन्ता, फिक्र और सब इन्तजाम भी करना पड़ता है। तब तो एक फर्क था जब आप नीम के नीचे पड़े थे, मैं सम्राट् था। क्या मैं पूछ सकता हूँ कि कोई फर्क बाको है। संन्यासी ने कहा : 'फर्क पूछते तो। चलो, थोड़ा आगे चले चलें, थोड़ा आगे बताएंगे।' बगीचा पार हो गया। गांव निकल गया। सम्राट ने कहा : बता दें। उसने कहा : थोड़ा और आगे चलें । गांव की नदी आ गई । वे नदी के पार हो गए । सम्राट ने कहा, 'कब बताएंगे। धूप चढ़ी जाती है।' उसने कहा : 'चले चलो अभी, अपने आप पता चल जाएगा।' सम्राट ने कहा : 'क्या मतलब ।' फकीर ने कहा : अब मैं लौटूंगा नहीं । अब तुम चले ही चलो मेरे साथ । सम्राट् ने कहा : मैं कैसे चल सकता है। मेरा मकान, मेरा राज्य !' उस फकीर ने कहा तो तुम लौट जाओ। लेकिन अब हम जाते हैं। अगर फर्क दिख जाए तो दिख जाए । मगर यह मत समझना कि हम कोई तुम्हारे महल से भर गए। तुम अगर कहो कि 'लौट चलो' तो हम लोट जाएं। लेकिन तुम्हारी शंका फिर पैदा हो जाएगी। इसलिए अब हम जाते हैं। अब तुम अपना महल संभालो। इसमें फर्क तुम्हें दिखता है कि हम जा सकते हैं किसी भी क्षण । अपरिग्रह का मतलब यह नहीं है कि चीजें न हों। क्योंकि चीजें न होने । पर जो जोर है, वह चीजें होने पर जो जोर था उसका ही प्रतिरूप है। बीजे.
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy