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________________ २५२ महावीर | मेरी दृष्टि में हों या न हों यह सवाल नहीं है अपरिग्रह का । अपरिग्रह क सवाल है कि व्यक्ति चीजों के सदा बाहर है । उसके भीतर कोई चीज नहीं है । उस फकीर ने कहा कि हम तुम्हारे महल में थे लेकिन तुम्हारा महल हम में नहीं है । बस इतना ही फर्क है। तुम महल में कम हो, महल तुममें ज्यादा है। हम छोड़ कर कहीं भी जा सकते हैं । हमारे भीतर नहीं है कोई मामला । हम उसके भीतर से निकल सकते हैं । कोई महल हमको पकड़ नहीं सकता और जैसे हम नीम के नीचे सोते थे वैसे तुम्हारे महल में भी सोए। वही आदमी है, वैसे ही सोया है । 1 तो महाव्रत के अणुव्रत फलित हो सकते हैं लेकिन अणुव्रतों के जोर से कभी मह व्रत नहीं निकलता है क्योंकि अणुव्रत की कोशिश मूच्छित चित्त की कोशिश है । और महाव्रत की तुम कोशिश ही नहीं कर सकते । वह तो अमूर्च्छा लाभो तभी उपलब्ध होगा । महाव्रत अभ्यास से नहीं आ सकता । तुम्हारी मूर्च्छा टूट जाए तभी फलित होता है, तुम्हारा चित्त महाव्रती हो जाता है। लेकिन जीवन में हजार तरह से अणुओं में प्रकट होगा वह महाव्रत - हजारहजार अणुओं में । लेकिन जिसको हम साधक कहते हैं आम तौर पर वह अणुव्रत से चलता है महाव्रत तक पहुँचने की कोशिश में । मगर वह कभी नहीं पहुँच पाता । वह अणुओं के जोड़ पर पहुंच जाएगा, महाव्रत पर नहीं । महाव्रत अणुओं का जोड़ नहीं है। महाव्रत विस्फोट है और जब चेतना पूरी की पूरी विस्फोट होती है तब उपलब्ध होता है । महावीर महाव्रती हैं। जीवन तो अणुव्रती होगा क्योंकि कहीं जाकर भिक्षा मांग लेंगे। विश्राम के लिए किसी छाया के तले रुकेंगे, फिर चलेंगे, फिरेंगे, बात करेंगे। इस सब में अणु होंगे लेकिन भीतर जो विस्फोट हो गया, वहाँ महान् होगा । फिर जो दूसरी बात पूछी गई वह इसी से सम्बन्धित है । तीन शब्द हैं महावीर के : सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र । लेकिन अनुयायियों ने बिल्कुल उल्टा किया हुआ है। वे कहते हैं सम्यक् चारित्र, सम्यक् ज्ञान, सम्यक दर्शन । वे कहते हैं पहले चरित्र साधो, फिर ज्ञान स्थिर होगा । जब ज्ञान स्थिर होगा तब दर्शन होगा। पहले चारित्र को बनाओ, जब चरित्र शुद्ध होगा तो मन स्थिर होगा, • स्थिर मन से ज्ञान होगा। जानोगे तुम, जानने से दर्शन उपलब्ध होगा तो मुक्त हो जाओगे । स्थिति बिल्कुल उल्टी है । सम्यक् दर्शन पहले है । जिसका हमें दर्शन होता है, उसका हमें ज्ञान होता है। दर्शन है शुद्ध वृष्टि । जैसा तुम एक फूल के पास से निकले, और तुम खड़े हो गए और
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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