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________________ महावीर : मेरी दृष्टि में बिल्कुल असहमत हूँ। और वैसी धारणा महावीर को भी नहीं थी, ऐसा भी मैं कहता हूँ। एक दृष्टि है बाह्य आवरण को व्यवस्थित करने की। असल में बाह्य आचरण को व्यवस्थित नहीं कर सकता है वह जिसके पास अन्तविवेक नहीं है । अन्तविवेक हो तो बाह्य आचरण स्वयं व्यवस्थित हो जाता है, करना नहीं पड़ता। जिसे करना पड़ता है वह इस बात की खबर देता है कि उसके पास अन्तविवेक नहीं है। अन्तविवेक की अनुपस्थिति में बाल बाचरण अंधा है चाहे हम उसे अच्छा कहें या बुरा कहें, नैतिक कहें या अनैतिक कहें। निश्चित ही समाज को फर्क पड़ेगा। एक को समाज अच्छा आचरण कहता है, एक को बुरा कहता है। समाज मच्छा आचरण उसे कहता है जिससे समाज के जीवन में सुविधा बनती है। पुरा बाचरण उसे कहता है जिससे असुविधा बनती है। समाज को व्यक्ति की मात्मा से कोई मतलब नहीं है, सिर्फ व्यक्ति के व्यवहार है मतलब है क्योंकि समाज व्यवहार से बनता है, आत्मानों से नहीं बनता । समाज की चिन्ता यह है कि भाप सब बोलें। यह चिन्ता नहीं है वि थाप सत्य हों। बाप खूठ हो कोई चिन्ता नहीं, पर बोलें सच । भाप मन में भूठ को गढ़े, कोई चिन्ता नहीं लेकिन प्रकट करें सच को। आपका जो चेहरा प्रकट होता है समाज को मतलब है उससे । नापकी मात्मा जो अप्रकट रह जाती है, उससे कोई पतषष नहीं। समाव की चिन्ता ही नहीं करता कि भीतर आप कैसे हैं। समाज कहता है वाहर बाप से है ? बस हमारी बात पूरी हो जाती है। बाहर बाप ऐसा व्यवहार करें जो समाज के लिए अनुकूल है, समाज के जीवन के लिए सुविषापूर्ण है, जो सबके साथ रहने में व्यवस्था लाता है। समाज की चिन्ता आपके वापरण' है, धर्म की चिन्ता बापको पात्मा से है। इसलिए समान इतना फिक्र पर कर लेता है कि मादमी बाल रूप से ठीक हो पाए । बस इसके बाद वह फिक्र ोड़ देता है। बाल रूप को ठीक करने के लिए वह जो सपाय जाला है ये उपाय भव के हैं। या तो पुलिस है, बवालत है, कानून है, पाप-पुण्य कार है, स्वर्ग है, नरक है। ये सारे भय के रूप उपयोग में जाता है। अब यह बड़े मजे की बात है कि समाज के द्वारा आचरण की वो व्यवस्था है वह भव पर भाषारित है और बाहर तक समास हो जाती है। परिणाम में समाज पति को केवल पाखण्डी बना पाता है या अनैतिकनैतिक कमी नहीं। पाखण्डी इन अषों में कि भीतर व्यकि कुछ होता है, बाहर कुछ होता है। मोर जो व्यक्ति पासणी हो गया उसके पार्मिक
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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