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________________ महावीर : मेरी दृष्टि मैं अब जैसे देखिए कि आज सुशिक्षित और सुरुचिपूर्ण घर में कैक्टस लगा हुआ है। हां, कांटे वाले पौधे हैं, मरुस्थल में उगने वाले । गाँव के बाहर लगते थे धतूरा, नागफनी । वे आज के घर के बैठक खाने में लगे हुए हैं। आज से सो साल पहले अगर उन्हें कोई बैठकखाने में ले आता तो उस आदमी को हम पागलखाने ले गए होते कि तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। क्या नागफनी घर में लगाने की चीज है ? लेकिन गुलाब एकदम बहिष्कृत हो गया है । नागफनी आ गई है उसकी जगह । सुशिक्षित आदमी के घर में नागफनी लगी हुई है, क्या हो गया ? नागफनी एकदम सुन्दर हो गई। जो कभी सुन्दर न थी, जो कुरूपता का साकार रूप थी सदा; वह आजकल एकदम सौन्दर्य की अनुभूति बन गई | क्या हो गया ? रंग बदल गए; एकदम रंग बदल गए । और हर बार हम रंग से ऊब जाते हैं, तो बदल देते हैं क्योंकि एक ही रंग को देखते-देखते ऊब हो जाती है। गुलाब को हजार साल तक सुन्दर-सुन्दर कहते हुए ऊब हो गई । तो छोड़ो। इसको बाहर करो। इसको घर से बाहर करो । ब्राह्मण को आदर देते बहुत ऊब हो गई तो अब शूद्र को बिठाओ । नागफनी शूद्र थी बहुत दिनों तक, अब एकदम ब्राह्मण हो गई । नागफनी गाँव के बाहर रहती थी जैसे शूद्र रहता था अब वह एकदम से अभिजात्य हो गई, घर के भीतर आ गई । १२२ ऊब सदा अति पर ले जाती है। जब हम एक चीज से ऊबते हैं तो ठीक उससे उल्टी चीज पर चले जाते हैं । जो आदमी नाच-गाने से ऊब जाएगा, खाने से ऊब जाएगा, उपवास करने लगेगा । कपड़ों से ऊब जाएगा, त्याग करने लगेगा | धन से ऊब जाएगा, धर्म की तरफ चला जाएगा । मधुशाला से ऊबेगा; मन्दिर जाएगा । मन्दिर से ऊबा आदमी मधुशाला की खोज में निकलता हैं । जहाँ से हम ऊबते हैं, उल्टे हो जाते हैं । राग से ऊनते हैं तो विराग पकड़ लेता है । विराग से ऊब जाते हैं तो राग पकड़ने लगता है । और अगर हम रागियों और विरागियों के मस्तिष्क को खोलकर देखें तो हमें बड़ी हैरानी होगी कि उसके भीतर हमें उल्टे आदमी मिलेंगे । रागी के भीतर निरन्तर विरागी होने का भाव मिलेगा, बुरी से बुरी स्थिति में भी । इसलिए रागी विरागी की पूजा करते हैं वह उनका गहरा भाव है । वह भी होना चाहते हैं यही । और विरागी के भीतर अगर हम झांकें तो रागी के प्रति ईर्ष्या मिलेगी । जैसे रागो के मन में विरागी के प्रति आदर मिलेगा । इसलिए विरागी निरन्तर रागियों को गाली दे रहा है । वह गाली ईर्ष्याजन्य है । उसके भी मन में यही कामना है । जो-जो उसकी कामना है, उस उसके लिए वह रागी को गाली दे रहा है कि तुम यह यह पाप .
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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