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________________ १२१ नहीं होना था। ऐसे निरन्तर कि वह चुनाव के बाहर हो गए हैं, अच्छे-बुरे इसके बाहर हो गए हैं। यह वीतसम्भव है। जीवन की यात्रा में जो कर रहे हैं कि ऐसा होना था और ऐसा राग और विरान के बाहर हो गए हैं, के बाहर हो गए हैं, कौन क्या कहता है, रागता परम उपलब्धि है जो जीवन में परम बिन्दु है वह वीतरागता है। वह जीवन का अन्तिम बिन्दु है क्योंकि उसके बाद फिर मुक्ति की यात्रा शुरू हो जाती है । वीतराग हुए बिना कोई मुक्त नहीं होता । रागी मुक्त नहीं हो सकता । विरागी मुक्त नहीं हो सकता । दोनों बंधे हैं । लेकिन हम जो समझते नहीं है, वीतराग का मतलब विरागी कहते हैं जो कि राग से छूट गया है । नहीं, विराग राग ही है, सिर्फ उल्टा राग है जो राग से छूट गया है। रंग । विराग का राग शब्द बड़ा अच्छा है । राग का मतलब होता है मतलब होता है उससे उल्टा । हमारी आँखें हमेशा रंगी हैं, कुछ रंग है आँख पर । उस रंग से ही हम देखते हैं। चीजें हमें वैसी दिखाई पड़ती हैं, जो हमारा रंग होता है आंख का । चीजें वैसी नहीं दिखाई पड़ती जैसी वे हैं । रंगी आंख कभी सत्य को नहीं देख सकती हैं। अब एक रागी है। उसे राह जाती दिखाई पड़ती है तो लगता स्वर्ग है । स्त्री सिर्फ स्त्री है। लगता है स्वर्ग है । विरागी बैठा है वहीं पर । उसको लगता है नरक जा रहा है; आँख बन्द करो । स्त्री सिर्फ स्त्री है । विरागी को दिखता है नरक जा रहा है । आँख बन्द करो। इसलिए लिखता है अपनी किताबों में ने एक स्त्री है रागी को स्त्री नरक का द्वार है, और रागी लिखता है कि स्त्री स्वर्ग है; वही मुक्ति है, वही आनन्द है । स्त्रियाँ सोचेंगी कि यह ऐसे ही लिख रहे हैं । रागी स्त्री को स्वर्ग बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर । विरागी स्त्री को नरक बना लेता है, एक रंग है उसकी आंख पर । वीतरागी खड़ा रह जाता है । स्त्री - स्त्री है। वह अपने रास्ते जाती है, मैं अपनी जगह खड़ा हूँ । न वह स्वर्ग है, न वह नरक है । वह उसके बाबत कोई निष्कर्ष नहीं लेता क्योंकि उसकी आंखों में कोई रंग नहीं है, रंगमुक्त है वह । इसलिए जो-जो जैसा जैसा है, वैसा-वैसा उसे दिखाई पड़ता है। बात खत्म हो जाती है । वह कुछ भी अपनी तरफ से नहीं डालता । न वह कहता है सुन्दर किसी को; न वह कहता है असुन्दर । क्योंकि सुन्दर और असुन्दर हमारे रंग हैं, जो हम थोपते हैं। चीजें सिर्फ चीजें हैं। न तो कुछ सुन्दर है, न कुछ असुन्दर है । हमारा भाव है जो हम उसमें डाल देते हैं । •
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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