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प्रश्नोत्तर-प्रवचन-८
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फिर पीड़ एक जगह से दो शाखाओं में टूट जाती है। अब हम जो शाखाओं पर बैठे हों, पूछ सकते हैं कि पीड़ के समय में हमारी शाखा कहाँ थी। शाखा थी ज्ञान की पर पीड़ में इकट्ठी एक ही जगह थी।
भारत में जो विचार का विकास हुवा है, वह वृक्ष की भांति है। उसमें पीड़ तो आयं जीवन-पद्धति है। उसमें दो शाखाएं टूटी है-एक हिन्दू, एक श्रमण । श्रमण में भी दो शाखाएं टूटी है-बोट और जैन । हिन्दुओं में भी कई शाखाएं टूटी है-सांख्य, वैशेषिक, योग, मीमांसा, वेदान्त ।
प्रश्न : पहले सम्प्रदाय जो मापने कहा वह तो महावीर के बाद का मालूम होता है।
उत्तर : हाँ, हाँ वही तो मैं कह रहा हूँ। प्रश्न : महावीर के समय में नहीं ?
उत्तर : नहीं, नहीं, वह महावीर के साथ ही टूट गया। अनुभव बहुत बाद में होता है हमें। महावीर पहला सुसबम्बद्ध चिन्तक है जैन तीर्थकरों की धारा में । महावीर के समय में भी भारी विवाद था कि चौबीसवाँ तीर्थकर कौन है ? इसके लिए गोशालक भी दावेदार था कि चौबीसवा तीर्थकर मैं हूँ। क्योंकि तेईस तीर्थकर हो गए थे और चौबीसवें की तलाश थी कि चौबीसवां कौन ? और जो भी व्यक्ति चौबीसा सिद्ध हो सकता था वह निर्णायक होने वाला था क्योंकि वह अन्तिम होने वाला था। दूसरा, उसके वचन सदा के लिए आप्त हो जाने वाले थे क्योंकि पच्चीसवें तीर्थकर के होने की बात नहीं थी। भारी विवाद था महावीर के समय में । अजित केश कम्बल और मंखली गोशाल दावेदार थे चौबीसवें तीर्थकर होने के। परम्परा अपना अन्तिम सुसंगति देने वाला व्यक्ति खोज रही थी । बुद्ध और महावीर के समय में कोई आठ व्यक्ति तीर्थकर होने के दावेदार थे। इनमें महावीर विजेता हो गए क्योंकि परम्परा ने उनमें वह सब पा लिया जो उसे पाने जैसा लगता था और वह सील-मोहर बन गई।
सम्प्रदाय तो फिर धोरे-धीरे बना है। महावीर के मन में सम्प्रदाय का सवाल ही नहीं था लेकिन महावीर ने जितनी सुसम्बद्ध रूप रेखा दे दी श्रमण जीवन-दृष्टि को उतनी ही वह धारा बंध गई, सम्प्रदाय बन गया । सम्प्रदाय शब्द बहत पीछे जाकर बदनाम हो गया है । गन्दगी की कोई बात न थी इसके साथ। सम्प्रदाय का मतलब इतना था कि जहां से जीवन-दृष्टि मिलती हो, जहाँ से