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________________ उनमें पाप और पुण्य होनाकोको बोर सोने की प्रेसला माना गया है। दूसरे भगवान् श्री ने वर्शन को ही महत्वपूर्ण माना है; परिण को दर्शन का सहन प्रतिपाल माना है। यह पुष्टि भी न शास्त्रों की मूल दृष्टि है। न शास्त्रों में सम्यक दृष्टि के जमाव में मछे से अच्छे कर्म को भी निरर्षक माना गया है। मन्या दृष्टि के बिना, जावरण पर से बोड़ा जा सकता है किन्तु वह पाखंड है। वास्तविक पाचरण सम्बावन में स्वतः प्रस्फुटित होता है । वस्तुतः सम्बार पहिलो करती है वही सम्बारित है। यह कहना सत्य नहीं होगा कि सम्प-सिम्यक् पारिश का पालन करता है। सूर्य पूर्व में उक्ति नहीं होता कीय विश्र सूर्य उक्ति होता है उस दिशा को हम पूर्व दिशा कहते है। भगवान् बोके इन प्रयकों की सरी महतापूर्ण विशेषता यह है कि महावीर के जीवन के सम्बन्ध में वो साम्प्रदायिक मतमेव का निराकरण हो गया है। बिन्होंने सभ्य को देखा, उन्होंने यह पाया कि महावीर विवाहित और पुत्रीमान् है। किन्तु जिनकी दृष्टि सत्य पर गई, उन्होंने पाया कि वे अविवाहित है । विवाह उनका हवा, यह एक घटना है किन्तु सारिभाव के कारण वे विवाह करते हए मो अविवाहित रहे, यह एक दार्शनिक सत्व है। भगवान श्री ने तर्कसंवत होने का भाग्रह नहीं किया है। तर्क विरोध को स्वीकार नहीं करता, किन्तु वीरम विरोधी तत्वों माह-सलिए जीवन तकी पकडलेलबाला है। अतः बीवन का सत्य तर्क में नहीं, तकसे परे है। भगवान् श्री की यह दृष्टि मो जैन शास्त्रों से मेल खाती है जिनका कहना है कि सत्य यहाँ है जहाँ से शब्द कोट आते है, यहाँ तक नहीं पा सकता बोर नवहाँ बुटिकी पहुंच है-सम्वे सरा जियहनि का बलम पिण्यतिमलि तस्य न गाहिता (माचाराग)। भगवान् श्री की दृष्टि में महावीर न परिग्रही है, में पलायनवादी है उन्होंने पर छोगा, जो घर नहीं पा । एक सपना पा, जो टूट गया। भोग और त्याग दोनों सपने है बो प्रष्टा हो जाने पर विदा हो जाते हैं। महावीर जबाट हुएतवन भोग रहा, न त्याग रहा । राम-पिराग, सुख-दुःसन रहे वह निम हो गए । लेकिन अनुयायियों ने सोश कि वह महात्यागी क्योंकि उन्होंने जीवन के सापी त्यागे, पर त्वाना, सम्पत्ति त्यागी । मगर सही भी में उन्होंने कुछ मोगा ही नहीं। सिर्फ मोगी ही त्यान कर सकता है। भोग मार त्याग, राम और विराग एक ही तराब से उतर गए, वीतराम हो गए। फिर उनके क .. सवाल ही नहीं उठता।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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