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________________ ६०४ महावीर : मेरी दृष्टि में कम है कि उस कम में वह व्यवस्था बना सकता है। लेकिन जिसने सारा जाना है और जिन्दगी के सब रूप देखे है उसे व्यवस्था बनाना मुश्किल है। महावीर के अनेकान्त का यही अर्थ है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई दृष्टि विरोधी नहीं है। सब दृष्टियाँ सहयोगी है और सब दृष्टियां किसी बड़े सत्य में समाहित हो जाती हैं। जो विराट् सत्य को जानता है, न वह किसी के पक्ष में होगा, न वह किसी के विपक्ष में होगा। ऐसा व्यक्ति निष्पक्ष हो सकता है। यह बड़े मजे की बात है कि सिर्फ वही व्यक्ति, अनेकान्त की जिसकी दृष्टि हो, निष्पक्ष हो सकता है और इसलिए मैं कहता हूँ कि जैनी अनेकान्त को दृष्टि वाले लोग नहीं है क्योंकि वे पक्ष पर है, उनका पक्ष है । वे कहते हैं कि हम महावीर के पक्ष में हैं । और महावीर का. कोई पक्ष नहीं हो सकता क्योंकि अनेकान्त जिसकी दृष्टि है, उसका पक्ष कहाँ ? सब पक्ष उसके है, कोई पक्ष उसका नहीं। सब पक्षों से अनुस्यूत सत्य उसका है लेकिन किसी पक्ष का दावा नहीं। तो महावीर का पक्ष कैसे हो सकता है ? महावीर को दोहरा नुकसान पहुंचा। पहला नुकसान तो यह पहुँचा कि बहुजन तक उनकी बात नहीं पहुंच सकी। दूसरा नुकसान यह पहुँचा कि जिन तक उनकी बात पहुंची, वे पक्षघर हो गए। कुछ मित्र न बन पाए और जो मित्र बने वे शत्रु सिद्ध हुए। यह इतनी दुर्घटनापूर्ण बात है कि एक तो मित्र न बन पाए बहुत क्योंकि बात ऐसी थी कि इतने मित्र खोजने मुश्किल थे। दूसरे, जो मित्र बने वे शत्रु सिख हए क्योंकि वे पक्षषर हो गए। और महावीर पक्षधरता के विपरीत हैं। ___ अब यह बड़े मजे की बात है कि अनेकान्त को भी उनके अनुयायियों ने अनेकान्तवाद बना दिया। अनेकान्त का मतलब है 'बाद' का विरोध क्योंकि 'वाद' हमेशा पक्ष होगा, दृष्टि होगी, नय होगा, एक दावा होगा। वाद का मतलब ही होता है दावा। अनेकान्त को वाद के साथ जोड़ देना, फिर दावा शुरू हो गया। यानी फिर 'अनेकान्त' के पीछे चलने वाले लोगों ने एक नया दावा बनाया जबकि वह दावे का विरोधी था। इसी ख्याल में यह भी समझ लेना चाहिए कि महावीर शायद हजार दो हजार वर्ष बाद पुनः प्रभावी हो सकें; उनका विचार बहुत से लोगों के काम मा सके। क्योंकि जैसे-जैसे दुनिया आगे बढ़ रही है एक बहुत अद्भुत घटना घट रही है। वह यह है कि 'वादी' चित्त नष्ट हो रहा है; पक्षपर बेमानी होता
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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