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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-२ . ५६ उपयोगी है जो जीतने में समर्थ है, जो सिर्फ जीत ही सकते हैं । इसलिए 'महावीर' शब्द उनको मिल गया। महावीर शब्द मिलने का और कोई कारण नहीं है। लड़ने को, आक्रमण की जो चरम समता है उससे वह महावीर कहलाए। और कोई कारण नहीं है। यानी वहां गुंजाइश नहीं छोड़ी कोई उन्होंने किसी तरह के भय की, किसी तरह के समर्पण की। इसीलिए महावीर परमात्मा को इन्कार करते हैं। उसकी वजह है कि अगर भगवान् है तो समर्पण करना पड़ेगा । हम से ऊपर कोई है यह महावीर मान ही नहीं सकते। पुरुष यह मान ही नहीं सकता कि वह जो पुरुष का चित्त है, उसके ऊपर है कोई। यह असम्भव है। महावीर भगवान् से इन्कार करते हैं । यह दार्शनिक ( फिलासफिकल ) नहीं है मामला । यह कोई दर्शन का मामला नहीं है कि कोई परमात्मा नहीं है। तुम ही परमात्मा हो । मैं ही परमात्मा हूँ। आत्मा शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है । यानी आत्मा ही जब पूर्ण रूप से जीत ली जाती है तो परमात्मा हो जाती है। ऐसा कोई परमात्मा नहीं है जिसके पैरों में तुम सिर झुकायो, जिसकी तुम प्रार्थना करो। परमात्मा से इन्कार कर देते हैं बिल्कुल क्योंकि परमात्मा है तो समर्पण करना पड़ेगा, भक्ति करनी पड़ेगी। इसलिए परमात्मा से बिल्कुल इन्कार है। * लाओत्से अपने को इन्कार करता है । लाओत्से कहता है : 'मैं हूँ ही नहीं। वही है; क्योंकि मैं अगर थोड़ा सा भी बचा तो हमला जारी रहेगा, लड़ाई जारी रहेगी। अगर जरा इंच भर 'मैं हूँ तो वह 'मैं' लड़ेगा।' इसलिए लाओत्से कहता है कि 'मैं हूँ ही नहीं। मैं एक सूखा पत्ता हूँ। जब हवाएं मुझे पूरब ले जाती हैं, मैं परब चला जाता हूँ; पश्चिम ले जाती हैं, पश्चिम चला जाता हूँ। मैं एक सूखा पत्ता हूँ। जब हवाएं नीचे गिरा देती हैं, नीचे गिर जाता हूँ ऊपर उठा लेती हैं, ऊपर उठ जाता हूँ। क्योंकि 'मैं हूँ ही नहीं।' हवाओं की जो मर्जी है वह मेरी मर्जी है। सूखे पत्ते की तरह 'मैं नहीं हूँ।' तो उसके लिए परमात्मा ही रह जाता है। __ ये दोनों रास्ते एक ही जगह पहुंचा देते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । या तो मैं पूरी तरह मिट जाऊं। तो एक ही बच गया परमात्मा । या परमात्मा को पूरी तरह मिटा दूं तो एक ही बच गया 'मैं' | बस एक ही बच जाना चाहिए आखिर में। दो रहेगा तो उपद्रव है, आसक्ति है। एक ही बचाने के दो उपाय हैं। पुरुष एक को बचा लेता है, एकदम स्त्री को मिटाकर अपने में विलीन कर लेता है। स्त्री भी एक को बचा लेती है, वह अपने को मिटा देती
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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