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महावीर : मेरी दृष्टि में
है और पूरी तरह मिद जाती है। इसमें जो सवाल है किसी के ऊपर-नीचे होने का नहीं है। सवाल टाइप ऑफ माइन्ड का है। वह जो हमारे मस्तिष्क का टाइप है उसका।
सो महावीर का एक है मार्ग, एक है ढंग; बुद्ध का ढंग दूसरा है । बुद्ध की एक नई भाषा खड़ी हो रही है अब, नए प्रतीक खड़े हो रहे हैं । बुद्ध को समझना होगा तो उन्हीं प्रतीकों से समझना होगा । बुद्ध की एक नई मूर्ति निर्मित हो रही है। क्राइस्ट का बिल्कुल और है मार्ग-तीसरा है। क्राइस्ट जैसा तो कोई आदमी नहीं है इनमें से। क्राइस्ट तो बिना सूली पर चढ़े हुए सार्थक ही नहीं। और महावीर अगर सूली पर चढ़े तो हमारे लिए व्यर्थ हो जाएंगे। जो महावीर को एक धारा में सोचते हैं उनके लिए बिल्कुल व्यर्थ हो जाएंगे। लेकिन क्राइस्ट का बिना सूली पर चढ़े अर्थ ही नहीं है। क्राइस्ट का और तरह व्यक्तित्व है। कृष्ण का और ही तरह का, उसका कोई हिसाब ही नहीं। हम कल्पना ही नहीं कर सकते कि कृष्ण और महावीर में कैसे मेल बिठाएं, कोई मेल ही नहीं।
और यह सब सार्थक है, सब सार्थक इन अर्थों में कि पता नहीं कौन सा व्यक्तित्व ज्योति की अनुभूति कराए; किस व्यक्तित्व में आपको ज्योति दिखे। आपको उसमें ही ज्योति दिखेगी, जिस व्यक्तित्व का आपका ‘टाइप होगा। नहीं तो आपको नहीं दिखेगी। मैं मानता हूँ कि यह बड़ा विचित्र है कि यह सब भिन्न-भिन्न टाइप है, यह भिन्न-भिन्न तरह के लोग हैं, इन-इन भिन्न-भिन्न ज्योतियों से भिन्न-भिन्न तरह के लोगों को दर्शन हो सकते हैं। और हो सकता है, अभी भी बहुत सम्भावना शेष है। और हो सकता है उन्हीं सम्भावनाओं के शेष होने की वजह से बहुत बड़ी मानव जाति अब तक धार्मिक नहीं हो पाई । उसका कारण है कि उस टाइप का आदमी अब तक ज्योति को उपलब्ध नहीं हुआ। मेरा मतलब आपने समझा न ? यानी जिसको वह समझ सकता था उस आदमी की पहुँच ही नहीं उस जगह जहां से उसको ज्योति दिखाई पड़ जाए।
मेरी अपनी दृष्टि है, मेरा अपना प्रयोग रहा और मैं नहीं समझता कि किसी ने वैसा प्रयोग अब तक किया है। मेरा प्रयोग यह रहा कि मैं अपने व्यक्तित्व का टाइप मिटा दूं। मेरा प्रयोग यह रहा कि मैं सिर्फ व्यक्ति रह जाऊँ अत्यन्त व्यक्तित्वहीन, जिसका कोई टाइप नहीं। जैसे मकान में दो खिड़कियां हैं। एक तरफ से हम देखेंगे तो एक दृश्य दिखाई पड़ेगा। दूसरी