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________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २४ ७१८ बाहर आ गए वृक्ष के पीछे से और उन्होंने कहा कि ऐसा मत करो, नहीं तो सदियों तक लोग मेरा नाम धरेंगे कि बुद्ध जिन्दा थे और एक आदमी पूछने भाया और द्वार से खाली हाथ लौट गया । अभी नहीं ? क्या तुझे पूछना है ? यह जो लोटना है यह उतना ही लोटना है जितना कि सच में कोई मोक्ष से लौट आए। इससे कुछ बहुत फर्क नहीं है । लेकिन यह अन्तिम वासना है, मोर यह अन्तिम वासना भी अर्थपूर्ण है । इसलिए कि जगत् में इससे ज्ञान की सम्भावना होती है, इतने विचार का जन्म होता है। अगर यह न हो तो जगत् में प्रकाश की कोई सबर ही न पाए। अगर कोई इतना करुणावान् न हो कि इसलिए चोरी करे कि जेलखाने जाए तो हो सकता है कि जेलखाने के लोग भूल ही जाएँ कि बाहर कोई जगत् भी है। लेकिन एक बात पक्की है कि जगे हुए लोग हमारे मन में जागने की कोई न कोई सूक्ष्म वासना पैदा कर जाते हैं। जगे हुए लोगों की मौजूदगी, इनकी बात, इनका चलना, इनका उठना, इनका बैठना- हमारे भीतर कहीं कोई धक्का दे जाता है, शायद अपने घर की याद दिला जाता है । यह करुणा इसलिए अर्थपूर्ण है । मेरी दृष्टि में तो जगत् में कुछ भी अर्थहीन निगोद भी अर्थपूर्ण है, लेकिन सबसे पीछे जो नहीं है । वासना भी अर्थपूर्ण है, मोक्ष भी अर्थपूर्ण है । संसार के परम सत्य है वह स्वतन्त्रता का है । वह हम स्वतन्त्रता के तत्व का प्रयोग कर रहे हैं। कैसा कर रहे हैं यह हम पर निर्भर है। हित के लिए कर रहे हैं, अहित के लिए कर रहे हैं करुणा भी अर्थपूर्ण है, सब काम अर्थपूर्ण हैं । दुःख के लिए कर रहे हैं यह हम पर इसकी भी निर्भर है। अपने सुख के लिए कर रहे हैं, स्वतन्त्रता है । ईश्वर को जो इन्कार किया भगवान् के इन्कार में लेकिन ईश्वरपन में महावीर और बुद्ध जैसे व्यक्तियों ने कारण यह भी है। ईश्वर के इन्कार में, इन्कार नहीं है। ईश्वर को इन्कार किया है है। अगर ईश्वर को मानें तो स्वतन्त्रता फिर पूरी नहीं हो सकती और अगर उसके रहते स्वतन्त्रता पूरी हुई तो वह बेमानी है। यानी अगर वह है और उसको हम कहते हैं स्रष्टा, नियम और फिर कहते हैं कि आदमी पूर्ण स्वतन्त्र है तो महावीर कहते हैं कि दोनों में मेल नहीं है । उसकी मौजूदगी ही बाधा बनेगी । उसका नियमन भी किसी तरह की परतन्त्रता होगी । उसमें एक भगवत्ता का पूर्ण स्वीकृति • इसलिए वे परमात्मा का इन्कार करते हैं ताकि परतन्त्रता का कोई उपाय म रह जाए। इसका यह मतलब नहीं कि वह परमात्मा से इन्कार करते हैं ।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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