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________________ ७२० महावीर : मेरी टिम इसका मतलब है कि परमात्मा के व्यक्तित्व को इन्कार करते हैं और परमात्मा को संब में व्याप्त मानते हैं लेकिन नियामक नहीं। परमात्मा के ऊपर वह किसी को नहीं बिठाते हैं। फिर हो सकता है कि परतन्त्रता परमात्मा की इच्छा हो जैसा कि साधारण मास्तिक मानता है कि उसकी इच्छा हुई तो उसने जगत् बनाया। फिर हम बिल्कुल परतंत्र मालूम होते हैं। यानी हमारी इच्छा से हम जगत् में नहीं है, उसकी इच्छा से हम जगत् में है । फिर उसकी इच्छा होगी तो वह जगत् मिटा देगा। हम मोक्ष में हो जाएंगे और जब तक उसकी इच्छा नहीं होगी तब तक कोई उपाय भी नहीं है। तब जगत् बहुत बेमानी है, वह कठपतलियों का खेल हो जाता है, जिसमें कोई अर्थ नहीं रह जाता। जहां स्वतंत्रता नहीं है वहां कोई अर्थ नहीं है। जहां परम स्वतन्त्रता है वह प्रत्येक चीज में अर्थ है। और परम स्वतन्त्रता की घोषणा के लिए ईश्वर को इन्कार कर देना पड़ा कि उसको हम कोई जगह नहीं देंगे; वह है ही नहीं। साधारण मास्तिक की दृष्टि में परमात्मा नियामक है, नियन्ता है, स्रष्टा है तो स्वतन्त्रता खत्म हो गई। मगर गहरे आस्तिक को दृष्टि में ईश्वर स्वतन्त्रता है । वह जो परम स्वतन्त्रता का व्याप्त कण-कण है, उस सबका समग्र नाम ही परमात्मा है। अगर इसको हम समझ पाएं तो फिर पापी को दोष देने का कोई कारण नहीं। इतना ही कहना काफी है कि तूने स्वतन्त्रता को जिस ढंग से चुना है वह दुःख लाएगी। इससे ज्यादा कुछ भी कहने को नहीं। लेकिन वह कह सकता है कि अभी मुझे दुःख अनुभव करने हैं । निन्दा का कोई कारण नहीं, कोई सवाल नहीं। मैं कहता हूँ कि मुझे गड्ढे में उतरना है। आप कहते हैं. गड्ढे में प्रकाश नहीं होगा। सूरज की किरणें गड्ढे तक नहीं पहुंचेंगी। वहाँ अधेरा है । मैं कहता हूँ लेकिन मुझे गड्ढे का अनुभव लेना है। तो अगर आपने अनुभव लिया हो गड्ढे का तो गड्ढे में जाने को सीढ़ियां मुझे बता दें। अगर 'आप गए हों गड्ढे में, और आप जरूर गए होंगे क्योंकि आप कहते हैं कि वहाँ सूरज की किरणें नहीं पहुँचतीं तो मैं भी गड्ढे को जानना चाहता हूँ ताकि गड्ढे में जाने की वासना विदा हो जाए। तो निन्दा कहाँ है ? मेरी दृष्टि में पापी व्यक्ति की कोई निन्दा नहीं है और पुण्यात्मा व्यक्ति की कोई प्रशंसा नहीं है। क्योंकि सवाल यह नहीं है कि वह अपनी स्वतन्त्रता का उपयोग कर रहा है और तुम अपनी स्वतन्त्रता का दुरुपयोग कर रहे हो। और मजा यह है तुम तो सुख के लिए स्वतन्त्रता का उपयोग कर रहे हो। प्रशंसा की बात क्या है ? प्रशंसा करनी हो तो उसकी करो जो दुःसके लिए अपनी
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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