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________________ ५१४ महावीर : मेरी दृष्टि में बिदा हो जाता है ऐसे गालो भो बिदा हो जाती है भीतर कुछ पकड़ा नहीं जाता। ___ इसलिए महावीर के चित्त की अलग-अलग स्थितियां नहीं है जिनका वर्णन किया जाए। इसलिए वर्णन नहीं किया गया। कोई स्थिति ही नहीं है। अब क्या दर्पण का वर्णन करो बार-बार ? इतना कहना ही काफी है कि दर्पण है। जो भी आता है वह झलकता है, जो चला जाता है। झलक बंद हो जाती है। इसको रोज-रोज क्या लिखो ? इसको रोज-रोज क्या कहो ? इसे कहने का कोई अर्थ नहीं है । न महावीर की, न क्राइस्ट की, न बुद्ध की, न कृष्ण की-- किन्ही की अन्तः परिस्थिति का कोई उल्लेख नहीं किया गया, नहीं किए जाने का कारण है । उल्लेख योग्य कुछ है ही नहीं । एक समता आ गई है चित्त की। वह वैसा ही रहता है। जैसे कि महावीर को कुछ लोग पत्थर मार रहे हैं या कान में कोलें ठोंक रहे हैं, या गांव के बाहर खदेड़ रहे हैं तो महावीर को मानने वाले कहते हैं कि बड़े क्षमावान् है वह । महावीर ने गाली नहीं दी उन्हें, क्षमा कर दिया और आगे बढ़ गए। लेकिन वह भूल जाते हैं कि क्षमा तभी की जा सकती है जब मन में क्रोध आ गया होगा। क्षमा अकेली बेमानी है। वह क्रोध के साथ ही साथ आती है। नहीं तो उसका कोई अर्थ ही नहीं है। हम क्षमा कैसे करेंगे यदि हम क्रुद्ध न हुए। और वह कहते हैं कि उन्होंने लोटकर गाली न दो, क्षमा कर दी और आगे बढ़ गए। लेकिन लौटकर तभी कुछ दिया जा सकता है जब भीतर कुछ हुआ हो। नहीं तो लोटकर कुछ भी नहीं दिया जा सकता। तो मैं आपसे कहता है कि महावीर क्षमावान नहीं थे क्योंकि महावीर क्रोधी नहीं है । और महावीर ने क्षमा भी नहीं किया, चाहे देखने वालों को लगा हो कि हमने गाली दी, और इस आदमी ने गाली नहीं दो, बड़ा क्षमावान् है । बस इतना ही कहना चाहिए कि इस आदमी ने गाली नहीं दी। बड़ा क्षमावान है, यह कहना भूल हो जायेगी। इस आदमी ने गाली सुनी जैसे एक शून्य भवन में आवाज गूंजे, चाहे गाली की, चाहे भजन की। आवाज गूंजे और निकल जाए और भवन फिर शून्य हो जाए। इस तल पर, इस चेतना में जीने वाले व्यक्ति शून्य भवन की तरह हैं । जिन में जो भी आता है, वह गूंजता जरूर है, हमसे ज्यादा गूंजता है क्योंकि हमारी संवेदनशीलता इतनी तीव नहीं होती। क्योंकि हमने इतनी चीजें पहले
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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