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________________ महावीर । मेरी दृष्टि में . आनन्द पहुंचाने का कारण ही तभी कोई व्यक्ति बनता है जब वह सुख और दुःख के चक्कर से मुक्त होता है और उस दृष्टि को उपलब्ध होता है जहाँ सुख और दुःख का कोई मूल्य नहीं रह जाता। पर आनन्द को हम जानते नहीं। हमें कोई दुःख पहुंचाए तो हम पहचान जाते हैं कि यह आदमी बुरा है । हमें कोई सुख पहुँचाए तो हम पहचान जाते हैं कि यह आदमी अच्छा है । लेकिन हमें कोई आनन्द पहुंचाए तो हम बिल्कुल नहीं पहचान पाते कि यह आदमी कसा है क्योंकि हम आनन्द को पहचान ही नहीं पाते, पकड़ ही नहीं पाते। आनन्द उस चेतना से सहज ही विकोण होने लगता है जो चेतना सुख और दुःख के द्वन्द्व के पार चली जाती है। ऐसे व्यक्ति के जीवन से सहज ही आनन्द की. किरणें चारों तरफ फैलने लगती हैं। निश्चित हो जिनके पास आँखे होती है, वे उस आनन्द को देख लेते हैं। जिनके पास आँखें नहीं होती हैं, वे नहीं देख पाते। लेकिन सूरज को चाहे कोई देख पाए, चाहे न देख पाए, जो देखता है उसको भी सूरज गर्मो पहुँचाता है, और जो नहीं देखता है उसको भी गर्मी पहुँचाता है । फर्क इतना हो है कि नहीं देखने वाला कहता है : कैसा सूरज ? किस सूरज को धन्यवाद +, कोई सूरज कभी देखा नहीं, किसी ने कभी कोई गर्मी पहुँचाई नहीं। गर्मी अगर पहुँची है तो वह मेरो अपनो है क्योंकि सूरज का कोई पता नहीं । आँख वाला जानता है कि गर्मी सूरज से आई है और इसलिए अनुगृहीत भी है, धन्यवाद भी करता है, कृतज्ञ भी है । लेकिन अन्धे को समझना बहुत मुश्किल है। __ महावीर किसी के पैर दाब रहे हों तो हमें समझ में आ सकता है कि वह किसी की सेवा कर रहे हैं । यह ऐसा ही है कि जैसे घर में छोटे बच्चे होते हैं और अगर एक भिखमंगा आए और मैं उसे सौ का नोट उठाकर दे दूं, और वह बच्चा बाद में मुझसे पूछे कि आपने एक भी पैसा उसे नहीं दिया क्योंकि सौ के नोट का उसे कोई अर्थ ही नहीं होता। वह पहचानता है पैसों को। वह कहता है कि एक पैसा भी उसको नहीं दिया, आप कैसे कठोर हैं ? आया था मांगने, कागज पकड़ा दिया। भूखा था, कागज से क्या होगा ? एक पैसा दे देते कम से कम । और वह लड़का जाकर गांव में कहे कि बड़ी कठोरता है मेरे घर में । एक भिखमंगा आया था तो उसको कागज का टुकड़ा पकड़ा दिया। कागज के टुकड़े से किसी की भूख मिटी है क्या ? एक पैसा ही दे देते कम से कम । लेकिन पैसे का सिक्का बच्चा पहचानता है, रुपये के सिक्के से उसे कोई मतलब नहीं, और सौ के नोट का कोई अर्थ नहीं । महावीर निकल रहे हैं एक रास्ते से । एक
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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