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महावीर : मेरी दृष्टि में
बच जाता है । बन्द आँख में बाहर के जगत् का कोई अनुभव नहीं रह जाता, स्वयं की अनुभूति रह जाती है । वह इतनी प्रखर होती है कि कोई भी कह देगा कि बाहर जो था सब असत्य था ।
अगर कोई बाहर के जगत् में पूरी आंख खुली करके जी रहा है जैसा चार्वाक तो वह कहता है : "भीतर कुछ भी नहीं है, आत्मा को सब झूठी बातें हैं, खाओ, पियो, मोज करो ।" यह बाहर पूरी खुली आंख का अनुभव है कि बाहर ही सब कुछ है । खाओ, पियो, मोज करो, भीतर कुछ भी नहीं है, भीतर गए कि मरे, भीतर है ही नहीं कुछ, आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है, अगर कोई पूरी खुली आंख के अनुभव से जिये तो इन्द्रियों के रस ही शेष रह जाते हैं, आत्मा विलीन हो जाती है, तत्र जगत् सत्य होता है, आत्मा असत्य हो जाती है ।
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'महावीर कहते हैं । जगत् भी सत्य है और आत्मा भी सत्य है।' जगत् असत्य नहीं है और आत्मा भी असत्य नहीं है यह एक दृष्टि है : आँख बन्द करके अगर कोई अनुभव करेगा तो स्वयं सत्य मालूम पड़ेगा, जगत् असत्य " मालूम पड़ेगा। और अगर कोई आदमी ध्यान में नहीं बैठेगा और बाहर के जगत् में ही जिएगा तो वह कहेगा : आत्मा असत्य है, जगत् ही सत्य है ।
ये दो दृष्टियाँ हैं । यह दर्शन नहीं है । महावीर कहते हैं : जगत् भी सत्य है, आत्मा भी सत्य है; पदार्थ भी सत्य है, परमात्मा भी सत्य है । दोनों एक बड़े सत्य के हिस्से हैं । दोनों सत्य है । और प्रतीक है वह नासाग्र दृष्टि । यानी महावीर कभी पूरी आँख बन्द करके ध्यान नहीं करेंगे, पूरी खुली आँख रखकर भी ध्यान नहीं करेंगे। आधी आंख खुली और आधी बन्द ताकि बाहर और भीतर एक सम्बन्ध बना रहे। जागे भी, न जागे भी । बाहर और भीतर एक प्रवाह होता रहे चेतना का । ऐसी स्थिति में जो ध्यान को उपलब्ध होगा उस ध्यान में उमे ऐसा नहीं लगेगा कि मैं ही सत्य हूँ। ऐसा भी नहीं लगेगा कि बाहर असत्य है या बाहर ही सत्य है। ऐसा लगेगा कि सत्य दोनों में है । वह दोनों को जोड़ रहा है । वह आधी खुली आँख प्रतीकात्मक रूप से भी अर्थ रखती है और ध्यान के लिए सर्वोत्तम है लेकिन थोड़ी कठिन है । क्योंकि दो अनुभव हमें बहुत सरल हैं - खुली आँख, बन्द आँख । लेकिन आधी खुली आँख थोड़ी कठिन है लेकिन सर्वोत्तम है ।
प्रश्न : आप चार्वाक को भी उसी श्रेणी में लेते हैं जिस श्रेणी में शंकर हैं ? उत्तर : नहीं, उससे बिल्कुल उल्टी श्रेणी है वह ।