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________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- २२ ६७७ शिथिलता होती है उतनी ध्यान में होनी चाहिए। और जागरण में जितना चैतम्य होता है उतना ध्यान में होना चाहिए । तो ध्यान एक मध्य अवस्था है और नासाग्र दृष्टि ऑल के पीछे के स्नायुओं को मध्य अवस्था में छोड़ देती है । उस हालत में न तो स्नायु इतने तने होते हैं जितने कि जागरण में तने होते हैं, न इतने शिथिल होते हैं जितने कि निद्रा में शिथिल होते हैं और सो जाते हैं। मध्य में होते हैं । एक मध्य बिन्दु, सम बिन्दु होता है । नासाग्र दृष्टि का यौगिक मूल्य है, फिजियोलॉजिकल मूल्य है ओर ध्यान के लिए वह कीमती प्रभाव पैदा करती है | दूसरी बात समझने की यह है कि पूरी आँख बन्द कर लेने पर व्यक्ति सब ओर से बन्द हो जाता है, जगत् से टूट जाता है । पूरी अखि बन्द है तो व्यक्ति का जगत् से सब सम्बन्ध टूट गया। पूरी आँख खुली है तो व्यक्ति को बाहर के जगत् से जोड़ देती है और वह अपने को भूल जाता है। उसे अपना कोई पता ही नहीं रहता । बन्द आँख में सब मिट जाता है, वही खुद रह जाता है। खुली आँख में सब सत्य हो जाता है और वह खुद ही मिट जाता है । ५. आधी बन्द, आधी खुली आंख का यह भी अर्थ है कि न तो हम टूटे हुए हैं सब से और न जुड़े हुए हैं सबसे । और न ही यह बात सच है कि सब सच है और हम झूठे हैं और न ही यह बात कि सब झूठे हैं और हम सच है । हम भी हैं और सब भी है। महावीर का सारा जोर सम पर है निरन्तर । 'सम्यक्' शब्द उनका सर्वाधिक प्रयोग में आने वाला शब्द है । प्रत्येक चीज में सम, प्रत्येक बात में मध्य, प्रत्येक बात में वहां खड़े हो जाना जहाँ अतियाँ न हों । आँख के मामले में भी उनकी अनति है। न तो पूरी खुली आंख और न पूरी बंद । संसार भी सत्य है आधा । जितना हमें दिखाई पड़ता है उतना सत्य नहीं है । हम भी सत्य हैं लेकिन आधे, जितना बन्द आँख से मालूम पड़ते हैं उतने ही । शंकर कहते हैं : सब जगत् असत्य है, सत्य है ही नहीं । आँख बन्द हो तो जगत् एकदम असत्य हो जाता है । क्या सत्य है ? तो जो व्यक्ति आँख बन्द करके ध्यानावस्थित होने की चेष्टा करेगा वह माया के किसी न किसी सिद्धान्त के करीब पहुँच जाएगा। क्योंकि जब बन्द आँख में उसे आत्मा का अनुभव होगा तो जगत् एकदम असत्य मालूम पड़ेगा । तो जिन लोगों ने माया है, वह बन्द आँख का अनुभव है । अगर बन्द आँख से तो जगत् असत्य ही हो जाएगा क्योंकि कुछ बचता ही नही वहाँ । सिर्फ स्वयं कहा है कि जगत् · ध्यान किया गया
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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