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महावीर : मेरी दृष्टि मे
धर्म मे बहुत तरह की विक्षिप्तताओं को ओचित्य दिया है। पर इस ओचित्य को तोड़ देने की जरूरत है ओर मह साफ समझ में आ जाना चाहिए कि यह तभी टूटेगा जब हम दुःख को धर्म से अलग करेंगे। नहीं तो वह टूटेगा नहीं । क्योंकि वह जो दुख:बाद है, उसी के भीतर सारा औचित्य छिप जाता है । दूसरे को दुःख देना भी, अपने को दुःख देना भी सब उसमें छिप जाता है । इसलिए मेरी दृष्टि में धर्म सुख की खोज है, परम सुख की ओर धार्मिक व्यक्ति वह है जो स्वयं भी आनन्द की ओर निरन्तर गति करता है और चारों ओर भी निरन्तर आनन्द बढ़े, इसके लिए चेष्टारत होता है। न वह स्वयं को दुःख देता है, न वह दूसरे को दुःख देने की आकांक्षा करता है । न उसके मन में दुःख का कोई आदर है न कोई सम्मान है। ऐसे व्यक्ति को अगर हम धार्मिक कहें तो धर्म परम आनन्द की दिशा बनता है । नहीं तो अब तक वह परम दुःख की दिशा बना हुआ है ।
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प्रश्न : महावीर नासाग्र दृष्टि से ध्यानावस्थित हुए। क्या यह ध्यान की "ही सुना है ?
उत्तर : यह बड़ी महत्त्वपूर्ण बात है । नासाग्र दृष्टि का मतलब है--आँख आधी बंद, आधी खुली । अगर नाक के अग्रभाग को आप आंख से देखेंगे तो आधी आंख बंद हो जाएगी, आघी खुली रहेगी। न तो आँख बंद न आँख खुली । साधारणतः हम दो ही काम करते हैं । या तो आंख बंद होती है नींद में या आंख खुली होती है जागरण में । नासाग्र दृष्टि होती ही नहीं । इसका कोई कारण नहीं है । आंख या तो पूरी खुली होती है या पूरी बंद होती है । दोनों के बीच में एक बिन्दु है जहाँ आँख आधी खुली है, आधी बंद है। अगर हम खड़े होंगे और नासाग्र दृष्टि होगी तो करीब चार फुट तक जमीन हमें दिखाई पड़ेगी । तो साधारणतः कोई भी नासाग्र नहीं होता ।
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इसमें दो तीन बातें महत्त्वपूर्ण हैं । एक तो यह कि पूरी बंद आँख, आंखों के जो स्नायु हैं भीतर उनको निद्रा में ले जाए । पूरी बंद आँख निद्रा में ले जाती है। आँख जिसकी बन्द होती है पूरी तो मस्तिष्क के जो स्नायु आंख से जुड़े हैं, वे एकदम शिथिल हो जाते हैं निद्रा हो जाती है। पूरी खुलो आँख जागरण लाती है। ध्यान दोनों से अलग अवस्था है । म तो वह निद्रा है, न वह बागरण है। वह निद्रा जैसा शिथिल है, जागरण जैसा चेतन है ।
और
ध्यान तीसरी अवस्था है । नींद नहीं है वह नींद भी है और जागरण भी है। उसमें
और जागरण भी नहीं है वह । और दोनों के तत्त्व हैं। नींद में जितनी