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प्रतिस्प्रवपन-२५
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यह भी समझ लेना चाहिए कि जहाँ दुःख है, वहां हम रुक नहीं सकते। वहाँ से हम भागेंगे क्योंकि जहाँ दुल है वहां कैसे रुका जा सकता है। सुख भागता है, दुःख से हम हट जाना चाहते है भोर दुःख से हटने का उपाय क्या है ? एक ही उपाय दिखाई पड़ता है साधारणतः और वह यह है कि सुख की किसी बाशा में हम बाज के दुःख को भुला दें, विस्मरण कर दें। तो फिर से हो दुःख शुरू होता है, हम नयी भाशा में बंध जाते है। इस तरह आदमी जीता दुःख में है, होता दुःख में है लेकिन उसकी माखें सुख में लगी होती है । जैसे बादमी पलता पृथ्वी पर है, देखता आकाश को है । माकाश पर देखने में सुविधा हो सकती है कि पृथ्वी पर होना भूल जाए। फिर भी होंगे पृथ्वी पर । हम खड़े हुए दुःख में है लेकिन आंखें सदा सुख में है। इससे हमें सुविधा हो जाती है कि हम दुःख को भूल जाते हैं और दुःख को झेलने की क्षमता उपलब्ध कर लेते है।
अब अगर बहुत गहरे में देखा जाए तो सुख सिर्फ सम्भावना है, सत्य कभी महीं । दुःख सदा सत्य है, तथ्य है, वास्तविक है लेकिन दुःख कैसे झेला जाए? तो हम उसे सुख की बाशा में मेल लेते हैं। कल का सुख बाज के दुःख को सहनीय बता देता है। और वह सुख जो कल का है, कभी मिलता नहीं । और जिस दिन मिल जाता है भूल-चूक से उसी दिन हम पाते है कि भ्रान्ति टूट गई। बह वो बाशा हमने बांधी थी, सही सिद्ध नहीं हुई। लेकिन इससे सिर्फ इतना ही हम समझ पाते हैं कि यह सुख सही नहीं था। दूसरे सुख सही होंगे । उनकी भाषा में बागे दौड़ते रहो। यह भूल भ्रान्ति सिद्ध हो गई, टूट गई, दुःखमा गया तो बब फिर चित भागेगा ।
हम एक माशा से उखड़ते हैं, मामा-मात्र से नहीं उतरते हैं। एक सुस की व्यर्थता को जानते है लेकिन सुखमात्र को व्यर्यता को नहीं जान पाते । इसलिए यह होड़ जारी रहती है। अगर दुःख ही है जीवन में और सुख की' कोई सम्भावना नहीं है तो एक व्यक्ति क्षणमात्र भी संसार में नहीं रह सकता। एक क्षण भर रहना भी मुश्किल है। एक क्षण में ही वह मुक्त हो जाएगा। लेकिन बाशा उसे आगे गतिमान् रखती है। और मुक्त व्यक्ति को को मिलता है उसे सुख नहीं कहना चाहिए। उसे जो मिलता है, वह सुख और दुःख दोनों से भिन्न है । इसलिए उसे आनन्द कहना चाहिए ।
बब यह बड़े मजे की बात है कि बानन्द से विपरीत कोई शब्द नहीं है। सुख दुःख एक दूसरे के विपरीत है मेकिन मानन्द के विपरीत कोई बस्याही