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________________ महावीर : मेरी दृष्टि में यह पूर्ण स्वभाव सदा से हमारे पास है। हम उसका उपयोग ऐसा कर रहे है कि वह कभी पूर्ण नहीं हो पाता। बल्कि अपूर्ण बिन्दुओं पर हम पूरी ताकत लगा कर सीमित कर लेते हैं। जागरण हमारे पास है लेकिन हमने कभी जागरण समग्र के प्रति प्रयोग नहीं किया है। न प्रयोग करने के कारण शेष के प्रति मूर्छा है, कुछ के प्रति जागरूकता है और इसलिए यह सवाल पैदा हो जाता है कि मूर्छा कहाँ से आई ? मूर्छा कहीं से भी नहीं आई । मूर्छा हमारे द्वारा निर्मित है । और निरन्तर अनुभव दिखाई पड़ जाएगा तो मूर्छा विसर्जित हो जाएगी । तब हम पारदर्शी हो जाएंगे। तब सिर्फ जागरण होगा और उसकी कोई छाया नहीं बनेगी । कहीं भी कोई छाया नहीं बनेगी । ६६० प्रश्न : तीर्थकरों के जीवन में हम पूर्व तीर्थंकरों की परम्परा के आचार्य नहीं देखते । किन्तु महावीर के समय पार्श्वनाथ की परम्परा के आचार्य थे । वह परम्परा बाद में भी चलती रही । इसका क्या कारण था ? नये तीर्थंकर का जन्म तो पुरातन परम्परा के लुप्तप्राय होने पर होता है। जब पार्श्वनाथ की परम्परा प्रचलित थी तब नवीन तीर्थकर की स्थापना क्यों की गई और पुराने की कैसे चलती रही ? उत्तर : पहली बात तो यह समझनी चाहिए कि परम्परा बनती है तब जब जीवित सत्य खो जाता है । परम्परा जीवित सत्य की अनुपस्थिति पर रह गई सूखी रेखा है । परम्परा तो चल सकती है करोड़ों वर्षों तक । परम्परा बनती हो तब है जब हमारे हाथ में अतीत का मृत बोझ रह जाता है । मैंने सुना है कि एक घर से बूढ़ा बाप था । उसके छोटे बच्चे थे । बाप भी मर गया, माँ भी मर गई । बच्चे बहुत ही छोटे थे। देर उम्र में बच्चे हुए थे। फिर वे बड़े हुए। उन बच्चों ने निरन्तर देखा था अपने पिता को कि रोज भोजन के बाद आले पर जाकर वह कुछ उठाता रखता था । पिता के मर जाने पर उन्होने सोचा कि यह काम रोज का था । यह कोई साधारण काम न होगा । जरूर कोई अनुष्ठान होगा । तो उन्होंने जाकर देखा तो वहाँ बाप ने दाँत साफ करने के लिए एक छोटी सी लकड़ी रख छोड़ी थी। वह पिता रोज भोजन के बाद उठता, आले पर जाकर दांत साफ करता । उन बच्चों ने सोचा : इस लकड़ी का जरूरी कोई अर्थ है । यह तो उन्हें पता नहीं था कि अर्थ क्या हो सकता है। यह भी पता नहीं था कि पिता बूढ़ा था। उसे दांत साफ करने के लिए लकड़ी की जरूरत थी ।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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