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________________ १५२ महावीर : मेरी दृष्टि में क्योंकि स्वप्न में बाप दृष्टा रहे हैं, कर्ता नहीं हो पाए। सुबह आप जानते हैं सपना देखा था। इसलिए रात हत्या कर दी है, तब से सुबह से हाथ पैर नहीं घो रहे हैं, पता नहीं रहे हैं और घबरा भी नहीं रहे हैं कि पाप हो गया। आप जानते हैं कि देखा था सपना ही। हो सकता है सपने में आप संन्यासी हो गए हों, सब त्याग कर दिया हो लेकिन सुबह आप हंसते हैं क्योंकि आप द्रष्टा हो गए हैं। हो सकता है सपने में जब सो रहे हों तो हत्या करके भागे हो, छाती घड़क गई हो, पसीना छूट गया हो, छिप गए हों कि अब फैसे, अब फसे । और हो सकता है कि सपने में जब त्याग किया हो तो अकड़ कर चले हों, फूल-मालाएं पहनी हों रास्ते पर जुलूस निकले हों, स्वागत-सत्कार हुआ हो और अकड़ कर समझा हो कि हां, मैंने सब कुछ त्याग कर दिया लेकिन सुबह जाग कर आप कहते हैं कि सपना था, मतलब कि मैं द्रष्टा था। ___ अब इस बात को ठीक से समझ लेना कि जिस चीज के हम द्रष्टा हो जाते है, वह सपना हो जाती है। और जिस चीज के हम कर्ता हो जाते हैं वह सत्य हो जाती है चाहे वह सपना ही हो। जब हम कर्ता हो जाते हैं सपने में तो वह सत्य हो जाता है सपना । और चाहे जीवन सत्य ही क्यों न हो जब हम द्रष्टा हो जाते हैं तो वह सपना हो जाता है। यानी सपने को अगर सत्य बनाना हो तो प्रक्रिया यह है कि आप द्रष्टा भर मत हों, आप कर्ता हों तब सपना बिल्कुल सत्य हो जाएगा। और ठीक इससे उल्टी प्रक्रिया यह है कि आप जिसको सत्य कहते हैं, उसके द्रष्टा होना, कर्ता भर मत बनना, तब सत्य एकदम सपना हो जाएगा। तो महावोर छोड़ कर इसलिए नहीं जा रहे हैं कि सपना था और छोड़ना है और छोड़ रहे हैं। नहीं, एक सपना टूट गया है, और द्रष्टा हो गए हैं और बाहर हो गए हैं। अब कोई लौट कर उनसे कहे कि कितनी सम्पदा थी जो छोड़ी थी तो वह कहेंगे कि सपने की भी कोई सम्पदा होती है, सपने में कोई त्याग होता है । भोग भी सपना है, त्याग भी सपना है क्योंकि दोनों हालत में कर्ता मौजूद है। इसलिए जानी न त्यागी है, न भोगी है, सिर्फ द्रष्टा रह गया है। और इसलिए जो भी द्रष्टा रह जाए उसके जीवन से भोग और त्याग दोनों एक साथ विदा हो जाते हैं। ऐसा नहीं कि त्याग बच रहा है और भोग बिदा हो जाता है। भोग और त्याग एक ही सिक्के के दो पहलू थे, वह दीख जाता है। दूसरी दृष्टि से देखें तो इसी का अर्थ ही वीतरागता हुआ। अगर मैं कर्ता 'नहीं है तो वीतरागता फलित हो जाएगी। और अगर मैं कर्ता हूँ तो राग फलित
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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