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ऐसा बोष महावीर जन्म के साथ लेकर पैदा हुए थे। ऐसा बोध हम चाहें तो हमें भी हो सकता है। और ऐसे बोष के लिए जो जरूरी है, वह सम्पत्ति का त्याग नहीं, सम्पत्ति के सत्य का अनुभव है। सम्पत्ति का त्याग, हो सकता है, उतना ही अज्ञानपूर्ण हो जितना सम्पत्ति का संग्रह था। इसलिए प्रश्न संग्रह और त्याग का नहीं, प्रश्न सत्य के अनुभव का है।
सम्पत्ति क्या है ? है कुछ मेरा, यह वोध त्याग बनता है, ऐसा त्याग किया नहीं जाता। इसलिए ऐसे त्याग के पीछे कर्ता का भाव इकट्ठा नहीं होता और जिस कर्म के पीछे कर्ता का भाव इकट्ठा नहीं होता उस कर्म से कोई बन्धन पैदा नहीं होता। और जिस कर्म से कर्ता का भाव पैदा होता है वह कर्म बन्धन का कारण हो जाता है। यानी कर्म कभी नहीं बांधता। कर्म के साथ कर्ता का भाव जुड़ा हो तो वह बांधता है। और कर्ता का जो भाव है वही हमारा कारागृह, अहंकार है । महावीर से अगर कोई कहे कि यह तुमने त्याग किया तो वह हंसेंगे, कहेंगे किसका त्याग ? जो मेरा नहीं था, वह नहीं था। यह मैंने जान लिया। त्याग कैसे करूं ? त्याग दोहरी भूल है-भोग की दोहरी भूल । भोग पीछा नहीं छोड़ रहा है। • • तो पहली बात यह समझ लें कि महावीर जैसे व्यक्ति को त्यागी समझने को भूल कभी नहीं करनी चाहिए। सिर्फ अज्ञानी त्यागी हो सकते हैं; शानी कभी त्यागी नहीं होते। ज्ञानी इसलिए त्यागी नहीं होते कि ज्ञान ही त्याग है। उसे त्यागी होना ही नहीं पड़ता। उसके लिए कोई प्रयास, कोई श्रम नहीं उठाना पड़ता। अज्ञानी को त्याग करना पड़ता है, श्रम लेना पड़ता है, संकल्प बांधना पड़ता है, साधना करनी पड़ती है । अज्ञानी के लिए त्याग एक कर्म है ।
और इसलिए अज्ञानी का जब त्याग होता है तो अज्ञानी 'त्याग किया' ऐसे कर्ता का निर्माण कर लेता है। यह कर्ता उसका पीछा करता है। और यही कर्ता गहरे में हमारा परिग्रह है। सम्पत्ति हमारा परिग्रह नहीं है । जो कहता है 'मैंने किया' वही हमारा परिग्रह है।। ___ कभी आपने सोचा ? रात आप सपना देखते हैं कि नींद में आप एक नादमी की हत्या करते हैं। सुबह आप उठे और आपको याद माया कि आपने सपने में एक आदमी की हत्या कर दी है। फिर क्या आप ऐसा कहते हैं कि यह हत्या मैने की ? चूंकि, ऐसा नहीं कहते, इसलिए कोई पचात्ताप भी नहीं। आप सुबह बिल्कुल हल्के फुल्के हैं । एक आदमी की हत्या की है रात और सुबह आप मस्त है।