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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन २३७ --- होते हैं क्योंकि इस दावे में उनको रस मालूम होता है। लेकिन एक आदमी कहे, ' यह भी सही, वह भी सही, तुम जो कहते हो वह भी ठीक, हम जो कहते . हैं वह भी ठीक । तीसरा जो कहता है वह भी ठीक तो ऐसे आदमी के पास पागल इकट्ठे नहीं हो सकते। क्योंकि वे कहेंगे कि इस आदमी की बातों में क्या मतलब है यानी यह तो सभी को ठीक कहता है । यह कहता है नास्तिक भी ठीक है, आस्तिक भी ठोक है क्योंकि दोनों में ठोक का कोई अंश है। तो इसके पास पागल समूह इकट्ठा नहीं हो सकता । अन्धविश्वासी इकट्ठे करने हों तो दावा इतना पक्का मजबूत होना चाहिए कि उसमें संशय की जरा भी रेखा न हो । क्योंकि महावीर की बातों में संशय की रेखा मालूम पड़ती है, वह संशय नहीं है, सम्भावना है लेकिन साधारण आदमी को समझना मुश्किल होता है कि सम्भावना और संशय में क्या फर्क है ? महावीर से कोई कहे : 'ईश्वर है ।' तो महावीर कहेंगे : 'हो भो सकता है, नहीं भी हो सकता । किसी अर्थ में हो सकता है, किसी अर्थ में नहीं हो सकता है ।' यह महावीर सिर्फ सब सत्यों को सम्भावना की बात कर रहे हैं । वह यह नहीं कह रहे कि मुझे संशय है कि ईश्वर है, या नहीं । वह यह नहीं कह रहे कि मैं संशय करता हूँ कि ईश्वर हैं, या नहीं। वह यह कह रहे हैं कि सम्भावना है ईश्वर के होने की भी न होने की भी । अगर कोई ऐसा मानता हो कि आत्मा परम शुद्ध होकर परमात्मा हो जाती है तो ठीक हो कहता है। अगर कोई ऐसा मानता है कि परमात्मा कहीं पर बैठा हुआ हम सबको खिलौनों की तरह नचा रहा है तो ऐसा नहीं है। जब वह कहते हैं कि ईश्वर है और ईश्वर नहीं हैदोनों एक साथ तो वह ईश्वर के अर्थों में भेद करते हैं। लेकिन महावीर की इतनी सूक्ष्म दृष्टि अन्धविश्वास नहीं बनाई जा सकतो क्योंकि दूसरे को गलत एकदम से नहीं कहा जा सकता । और जहाँ दूसरे को एकदम गलत न कहा जा सकता हो वहाँ अनुयायी इकट्ठे करना बहुत मुश्किल हैं, एकदम असम्भव है । क्योंकि अनुयायी पक्का मानकर आना चाहता है । अनुयायो पूरी सुरक्षा चाहता है । मगर जब वह देखता है कि यह आदमी खुद ही संदिग्ध दिखता है, सुबह कुछ कहता है, दोपहर कुछ कहता है, साँझ कुछ कहता है, कभी इसका खुद का ही ठिकाना नहीं हो पाया है तो हम इसके पीछे कैसे जाएं ? जब एक आदमी - . जोर से टेबिल पर घूंसा मार कर कहता है कि जो मैं कहता हूँ, परम सत्य है और सबके सब गलत हैं तो जितने कमजोर बुद्धि के लोग हैं वे सब उससे एकदम प्रभावित हो जाते हैं ।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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