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________________ ४१८ महावीर । मेरी दृष्टि चेतना ने कदम उठा लिया है जो इसे आगे ले जाएगी। उसका स्मारक बना है। वह स्मारक के लायक कुत्ता था। कई आदमी भी स्मारक के लायक नहीं होते जिनके स्मारक बने हुए हैं। दूसरा रास्ता यह है कि हम पशु-पक्षियों के निकट जाकर उनको जाने, पहचानें। इसके भी बहुत से प्रयोग किए गए हैं और इनके आधार पर कहा जा सकता है कि विकास स्वेच्छा से हो रहा है। इसलिए सारे प्राणी विकसित नहीं हो पाते। जो श्रम करते हैं विकसित हो जाते हैं। जो श्रम नहीं करते वे पुनरुक्ति करते रहते हैं उसी योनि में । अनन्त पुनरुक्तियां भी हो सकती हैं। लेकिन कभी न कभी वह क्षण आ जाता है कि पुनरुक्ति ऊबा देती है और ऊपर उठने को आकांक्षा पैदा कर देती है। तो विकास किया हुआ है, चेतना श्रम कर रही है विकास में। वह जितनी विकसित होती चली जाती है, उतने विकसित शरीर भी निर्णय कर लेती है। इसलिए शरीर में जो विकास हो रहा है वह भी, जैसा डार्विन समझता है कि स्वचालित है वैसा नहीं है । जितनी चेतना तीव्र विकास कर लेती है उतना शरीर के तल पर भी विकास होना अनिवार्य हो जाता है। लेकिन वह होता है पीछे, पहले नहीं होता। यानी बन्दर का शरीर अगर कभी आदमी का शरीर बनता है तो तभी जब किसी बन्दर की आत्मा इसके पूर्व आदमी की आत्मा का कदम उठा चुकी होती है। उस आत्मा की जरूरत के लिए ही पीछे से शरीर भी विकसित होता है । आत्मा का विकास पहले है, शरीर का विकास पीछे है। शरीर सिर्फ अवसर बनता है। जितनी आत्मा विकसित होती चली जाती है उतना विकसित शरीर को भी बनना पड़ता है। __ मनुष्य आगे भी गति कर सकता है और ऐसो चेतना विकसित हो सकती है जो मनुष्य से श्रेष्ठतर शरीरों को जन्म दे सके । इसमें कोई कठिनाई नहीं है । लेकिन मनुष्य तक आ जाना कोई साधारण घटना नहीं है। लेकिन जो मनुष्य है उसे यह ख्याल नहीं आता। हम जिन्दगी ऐसे गंवाते हैं जैसे कि मुफ्त में मिल गई हो। मनुष्य हो जाना साधारण घटना है। लंबी प्रक्रियाओं, लंबी चेष्टाओं, लंबे श्रम और लंबी यात्रा से मनुष्य को चेतना-स्थिति उपलब्ध होती है । लेकिन अगर हमने ऐसा मान लिया कि यह मुक्त में मिल गई है, और अक्सर ऐसा होता है कि अमीर बाप का बेटा जब घर में पैदा होता है तो वह घर की सम्पत्ति को मुफ्त में हुआ ही मान लेता है। वह एक ही काम करता है कि बाप की अमीरी कैसे विसर्जित हो। बाप कमाता है, बेटा गंवाता है। क्योंकि
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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