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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१२ और आपने पूछा है कि एक क्षण में, एक क्षण के हजारवें हिस्से में जिसे समय कहते हैं अगर ज्ञान उपलब्ध हो गया, दर्शन हुआ तो क्या जीवन व्यवहार में वह स्थिर रहेगा? असल में जीवन व्यवहार आता कहाँ से है ? जीवन व्यवहार आता है हमसे ! तो जो हम हैं, गहरे में, जीवन व्यवहार वहीं से आता है । अगर झरना जहर से भरा है, अगर मूल स्रोत जहर से भरा है तो जो लहरे छलकतीं हैं, जो बिन्दु फिरते हैं, और बूंद उचटती है उनमें जहर होगा। अगर मूल स्रोत अमृत से भर गया तो फिर उन्हीं बूंदों में, उन्हों लहरों में अमृत हो जाता है । जीवन व्यवहार हमसे निकलता है। हम जैसे हैं वैसा ही हो जाता है। हम मूच्छित है तो जीवन व्यवहार मच्छित होता है। जो हम करते हैं, उसमें मूर्छा होती है। हम अज्ञान में हैं तो जीवन-व्यवहार अज्ञान से भरा होता है। और अगर हम ज्ञान में पहुंच गए तो जीवन व्यवहार ज्ञान से भर जाता है। जैसे यह कमरा अंधेरे से भरा हो तो हम घिर उठते हैं और निकलने की कोशिश करते हैं। कभी द्वार से टकरा जाते हैं, कभी दीवार से टकरा जाते हैं, कभी फर्नीचर से टकरा जाते हैं। बिना टकराए निकलना मुश्किल होता है। और कई बार ऐसा हुआ है कि टकराते ही रहते हैं और नहीं निकल पाते । निकल भी जाते हैं तो टकराए बिना नहीं निकल पाते हैं। फिर कोई व्यक्ति हमसे कहे कि एक दिया जला लो तो हम उससे कहेंगे कि दिया जला लेंगे। लेकिन क्या दिए के जल जाने पर हम बिना टकराए निकल सकेंगे ? क्या फिर टकराना नहीं रड़ेगा? क्या फिर सदा ही हमारा टकराने का जो व्यवहार था बन्द हो जाएगा? तो वह कहेगा कि तुम दिया जलामो और देखो । क्योंकि दिया जलाने पर तुम टकराओगे कैसे ? टकराते थे अंधेरे के कारण । टकराना भी चाहो तो न टकराओगे क्योंकि चाह कर कभी कोई टकराया है और द्वार जब दिखलाई पड़ेगा तो तुम दीवार से क्यों निकलोगे ? दीवार से भी निकलने की. कोशिश चलती थी क्योंकि द्वार दिखाई नहीं पड़ता था। ज्योति जल जाए भीतर तो वह ऐसी नहीं है कि क्षण भर जले और फिर बुझ जाए, दिया हम जलाएं, वह फिर बुझ सकता है, हम फिर टकरा सकते हैं । दिए का तेल चुक सकता है, दिए को बातो बुझ सकती है, हवा का झोंका आ सकता है, हजारों घटनाएं घट सकती है। जला हुआ दिया भी जरूरी नहीं कि जलता ही रहे। बुझ भो सकता है। लेकिन जिस अन्तर्योति की हम बात कर रहे हैं, वह ऐसी ज्योति नहीं है जो कभी बुझती है। अभी भी वह जल रही है। अभी भी जब हम
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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