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________________ ३६६ महावीर । मेरी दृष्टि में तो हम न चल उसके प्रति जागे नहीं हैं, वह जल रही है। सिर्फ हम पीठ किए हैं। वह कभी बुझी नहीं क्योंकि वह हमारी चेतना का अन्तिम हिस्सा है, वह हमारा स्वभाव हैं । पीठ फेरेंगे; लौट कर देखेंगे तो उसे जली हुई पाएंगे । जलेगी नहीं वह, जली हुई थी ही, सिर्फ हमारी पीठ बदलेगी । हम पाएँगे कि वह जली है और ऐसी ज्योति जो कभी बुझी नहीं, जो कभी बुझती नहीं, न तेल है, न बाती है, जहाँ जो हमारे अन्तर्जीवन की अनिवार्य क्षमता है, उसको हमने एक बार देख लिया तो बात खत्म हो गई। एक बार हमें पता चल गया कि ज्योति पीछे है फिर हम चाहें भी कि हम पीठ करके चलें ज्योति को तरफ पाएँगे क्योंकि ज्योति की तरफ पीठ करके कोन चल पाया है ? कौन चलेगा ? एक बार जान लें । न जानें तो बात अलग है । इसलिए एक क्षण को भी उसकी उपलब्धि हो जाती है तो वह उपलब्धि सदा के लिए स्थायी हो गई और उसके अनुपात में हमारा जीवन व्यवहार बदलना शुरू हो जाएगा । एकदम ही बदल जाएगा क्योंकि कल जो हम करते थे, वे आज हम कैसे कर सकेंगे ? वह करते थे अंधेरे के कारण । अब है प्रकाश इसलिए वह करना असम्भव है । प्रश्न : एक प्रश्न जो मन में उठता है वह है पुनर्जन्म वाली बात | क्या अन्य प्राणी मनुष्य योनि के अन्दर आ सकते हैं ? और आ सकते हैं तो स्वतः आते हैं या वह उनकी उपलब्धि है ? एक अनिवार्य उत्तर : कर्म के सम्बन्ध में बहुत कुछ समझना जरूरी है क्योंकि जितनी इस बात के सम्बन्ध में नासमझी है, उतनी शायद किसी बात के सम्बन्ध में नहीं । इतनी आमूल भ्रान्तियाँ परम्पराओं ने पकड़ ली हैं कि देख कर आश्चर्य होता है कि किसी सत्य-चिन्तन के आस-पास असत्य की कितनी दीवारें खड़ी हो सकती हैं । साधारणतः कर्मवाद ऐसा कहता हुआ प्रतीत होता है कि जो हमने किया है, वह हमें भोगना पड़ेगा । हमारे कर्म और हमारे भोग में कार्य-कारण सम्बन्ध है । यह बिल्कुल सत्य है कि जो हम करेंगे, हम उससे अन्यथा नहीं भोगते हैं । भोग भी नहीं सकते । कर्म भोग की तैयारी है । असल में, कर्म भोग का प्रारम्भिक बीज है । फिर वही बीज भोग में है । जो हम करते हैं, वही हम भोगते । यह बात तो ठीक है लेकिन कर्मवाद का जो सिद्धान्त प्रचलित मालूम पड़ता है, उसमें ठीक बात को भी इस ढंग से रखा गया है कि वह बिल्कुल गैर ठीक हो गई है । उस सिद्धान्त में ऐसी बात न मालूम किन कारणों से प्रविष्ट हो गई है और वह यह है कि कर्म तो हम अभी करेंगे और भोगेंगे अगले जन्म में । अब कार्य-कारण के बीच कभी प्रन्तराल वृक्ष बन जाता
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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