SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 315
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६४ महावीर । मेरी दृष्टि में पड़ती है उसका मतलब कुल इतना है कि 'सामायिक' है मार्ग, 'वीतरागता' है उपलब्धि । इससे जाना है, वहां पहुंच जाना है । तो दोनों में मेल होगा ही। यहां थोड़ा सा समझ लेना उपयोगी है। सामायिक के लिए मैंने जो कहा, वीतरागता के लिए जो कहा, वह बिल्कुल समान प्रतीक होगा क्योंकि 'सामायिक' मार्ग है, वीतरागता मंजिल है। सामायिक द्वार है, वीतरागता उपलब्धि है। साधना और साध्य अन्ततः अलग-अलग नहीं हैं। क्योंकि साधन हो विकसित होते-होते साध्य हो जाता है। तो वीतरागता में परम उपलब्धि होगी उसकी जिसे सामायिक में धीरे-धीरे उपलब्ध किया जाता है। सामायिक में पूरी तरह स्थिर हो जाना वीतरागता में प्रवेश करना है। कृष्ण ने जिसे "स्थिर' या 'स्थितप्रज्ञ' कहा है, वह वही है जो वीतराग है। निश्चित ही वह वही है । दोनों शब्द बहुमूल्य है । वीतराग वह है जो सब द्वन्द्वों के पार चला गया है, सब दो के पार चला गया है, जो एक में ही पहुंच गया है। अब ध्यान रहे कि स्थिर या स्थितप्रज्ञ का अर्थ है जिसकी प्रज्ञा ठहर गई, जिसको प्रज्ञा कांपती नहीं। प्रज्ञा उसकी कांपती है जो द्वन्द्व में जीता है, दो के बीच में जीता है । वह कांपता रहता है, कभी इधर कभी उधर । जहाँ द्वन्द्व है, वहाँ कम्पन है। जैसे कि एक दिया जल रहा है । तो दिए की लो कांपती है क्योंकि हवा कभी पूरब झुका देती है, कभी पश्चिम झुका देती है। दिया कांपता रहता है। दिए का कंपन तभी मिटेगा जब हवा के झोके न हों, यानी जब इस तरफ, उस तरफ जाने का उपाय न रह जाए, दिया वहीं रह जाए जहां है । तो कृष्ण उदाहरण देते हैं कि जैसे किसी बन्द भवन में जहां हवा का कोई झोंका न जाता हो दिया स्थिर हो जाता है ऐसे ही जब प्रज्ञा, विवेक, बुद्धि स्थिर हो जाती है और कांपती नहीं; डोलती नहीं तब वैसा व्यक्ति 'स्थितधी' है, 'स्थितप्रज्ञ' है । वीतराग का भी यही मतलब है कि जहां राग और विराग खो गया, जदा द्वन्द्व खो गया वहीं कांपने का उपाय सो गया और जब चित्त कांपता नहीं है तो वह स्थिर हो जाता है, ठहर जाता है। महावीर ने द्वन्द्व के निषेष पर जोर दिया है इसलिए वीतराग शब्द का उपयोग किया है। द्वन्द्व के निषेष पर जोर है, द्वन्द्व न रह जाए। कृष्ण ने द्वन्द्व की बात ही नहीं की, स्थिरता पर जोर दिया है। एक ही चीज को दो तरफ से पकड़ने की कोशिश की है दोनों ने । कृष्ण पकड़ रहे हैं दिए की स्थिरता से; महावीर पकड़ रहे है द्वन्द्र के निषेध से। लेकिन इनका निषेष हो तो प्रक्षा स्थिर हो जाती है, प्रज्ञा स्थिर हो जाए तो इन्द्र का निषेष हो जाता है। ये दोनों एक ही अर्थ रखते हैं। इनमें जरा भी फर्क नहीं है।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy