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________________ परिशिष्ट (१) अहिंसा बहिसा एक अनुभव है, सिवान्त नहीं। और अनुभव के रास्तै बहुत भिन्न है, सिवान्त को समझने के रास्ते बहुत भिन्न है-अक्सर विपरीत । सिद्धान्त को समझना हो तो शास्त्र में चले जाएं, शब्द की यात्रा करें, तक का प्रयोग करें। अनुभव में गुजरना हो तो शब्द से, तर्क से, शास्त्र से क्या प्रयोजन है ? सिद्धान्त को शब्द से बिना नहीं जाना जा सकता पीर अनुभूति शब्द से कभी नहीं पाई गई । अनुभूति पाई जाती है निशम्न में और तिवान्त है शब्द में । दोनों के बीच विरोष है। जैसे ही माहिसा सिवान्त बन गई तेही भरमई। फिर अहिंसा के अनुभव का क्या रास्ता हो सकता है? अब महावीर पैसा या बुद्ध जैसा कोई व्यक्ति है तो उसके चारों तरफ जीवन में हमें बहुत कुछ दिखाई पड़ता है। जो हमें दिखाई पड़ता है, उसे हम पकड़ लेते है : महावीर कैसे चलते हैं, कैसे खाते हैं, क्या पहनते है, किस बात को हिंसा मानते है, किस बात को अहिंसा, महावीर के आचरण को देखकर हम निर्णय करते है और सोचते हैं कि वैसा। थावरण अगर हम भी बना लें तो शायद जो अनुभव है वह मिल जाए। लेकिन यहां भी बड़ी भूल हो जाती है। अनुभव मिले तो आचरण भाता है, लेकिन माचरण बना लेने से मनुमब नहीं आता। अनुभव हो भीतर तो नाचरण पदलता है, रूपान्तरित होता है। लेकिन बावरण को कोई बदल ले तो अभिनय से ज्यादा नहीं हो पाता। महावीर नग्न खड़े है तो हम भी नग्न खड़े हो सकते हैं। महावीर की नग्नता किसी निर्दोष तल पर नितान्त सरल हो जाने से आई है। हमारी नसता हिसाब से, गणित से, चालाकी से पाएगी। हम सोचेंगे नग्न हुए बिना मोल नहीं मिल सकता । तो फिर एक-एक बात को उतारते चले जाएंगे। हम नग्नता का अभ्यास करेंगे । अभ्यास से कभी कोई सत्य आया है ? अभ्यास से अभिनय भाता है। १. दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा मायोजित अखिल भारतीय महिला-गोष्ठी में दिया गया भगवान् श्री का यह प्रवचन मूल पुस्तक के विषय से सम्बद होने सकारण यहाँ दिया जा रहा है सम्पादक
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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