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महाबीर : मेरी दृष्टि में
एक गांव के पास से में गुजर रहा था। एक मित्र संन्यासी हो गए हैं। उनका सोपड़ा पड़ता था पास, दो में देखने गया। जंगल में, एकान्त में झोपड़ा है। पास पहुंच कर देखा मैने कि अपने कमरे में वह नग्न टहल रहे है। वरवाजा खटखटाया तो देखा वह चादर लपेट कर पाए है। मैंने उनसे पूछा। भूलता नहीं है, खिड़की से मुझे लगा कि बाप नंगे टहल रहे थे। फिर पादर क्यों पहन की है ? उन्होंने कहा : नग्नता का अभ्यास कर रहा हूँ। धीरे-धीरे एक-एक पल छोड़ता गया है। अब अपने कमरे में नग्न रहता है। फिर धीरेपीरे मित्रों में, प्रियजनों में, फिर गांव में, फिर रावधानी में मग्न रहने का इरावा है, धीरे-धीरे नग्नता का अभ्यास कर रहा है क्योंकि नग्न हुप विना मोक्ष नहीं है।
यह व्यक्ति भी नग्न बड़े हो जाएंगे। महावीर की नग्नता से इनकी नग्नता का क्या सम्बन्ध होगा? मैंने उनसे कहा कि संन्यासी होने के बजाय सरकस में भर्ती हो जाबो तो अच्छा है। ऐसे भी संन्यासियों में अधिकतम सरकस में भर्ती होने की योग्यता रखते हैं। अभ्यास से साषी हुई नग्नता का क्या मूल्य है ? भीतर निर्दोषता का कोई अनुभव हो, कोई फूल खिले सरलता का और बाहर वस्त्र गिर पाएं और पता न चले तो यह समझ में आ सकता है। लेकिन हमें तो दिखाई पड़ता है वापरण, अनुभव तो दिखाई नहीं पड़ता। महावीर को हमने देखा तो दिखाई पड़ा बावरण । अनुभव तो दिखाई नहीं पड़ सकता। लेकिन महावीर का आचरण सबको दिखाई पड़ सकता है। फिर हम उस बाचरण को पकड़ कर नियम बनाते है, संयम का शास्त्र बनाते हैं, अहिंसा : की व्यवस्था बनाते है और फिर उसे साधना शुरु कर देते है। फिर क्या खाना, क्या पीना, कब उठना, कब सोना, क्या करना, क्या नहीं करना-उस सबको व्यवस्थित कर लेते हैं, उसका एक अनुशासन पोप लेते हैं। अनुशासन पुरा हो जाएगा और अहिंसा की कोई खबर न मिलेगी। अनुशासन से अहिंसा का क्या सम्बन्ध ? सच तो यह है कि ऊपर से थोपा गया अनुशासन भीतर की मात्मा को उघाड़ता कम है, ढांकता ज्यादा है। जितना दुविहीन बावमी हो उतना अनुशासन को सरलता से थोप सकता है। जितना बुद्धिमान मादमी हो उतना मुश्किल होगा, उतना वह उस स्रोत की खोज में होगा जहाँ से बाचरण माया छाया की भांति। - इसलिए पहली बात मैंने कही : अहिंसा अनुभव है। दूसरी बात आपसे कहता है कि अहिंसा आचरण नहीं है। आपरण अहिंसा बनता है लेकिन