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________________ प्रश्नोतर-प्रवचन-११ १४७ जागने की कोई जरूरत नहीं पड़ती। दूसरा रास्ता यह है कि अव्रती स्थिति के प्रति जागो ताकि अवती स्थिति बिदा हो जाए। तब व्रत से तुम जो मांग करते थे, वह आएगा । वह तुम्हें लाना नहीं पड़ेगा। ___ जैसे मैंने उदाहरण के लिए अभी कहा कि सेक्स हमारी स्थिति है, ब्रह्मचर्य हमारा व्रत है। सेक्स के प्रति जागना साधना है। जो व्यक्ति सेक्स की स्थिति को अस्वीकार करेगा, ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर, उसका सेक्स कभी मिटाने वाला नहीं। व्रत बाहर खड़ा रहेगा, सेक्स भीतर खड़ा हो जाएगा। जो व्यक्ति ब्रह्मचर्य का व्रत नहीं लेता, सिर्फ सेक्स की वस्तुस्थिति को समझने की साधना का प्रयोग करता है, उसका धीरे-धीरे सेक्स बिदा होता है और ब्रह्मचर्य आता है। यानी ब्रह्मचर्य तुम्हारे व्रत की तरह कभी नहीं आता; वह तुम्हारी समझ को छाया की तरह आता है। और जब आता है तो तुम्हें कसम नहीं खानी पड़ती किसी मन्दिर में जाकर कि मैं ब्रह्मचर्य धारण रखूगा। क्योंकि कोई सवाल ही नहीं है। आ गया है। इसके लिए कोई कसम की जरूरत नहीं है और जिसकी तुम कसम खाते हो उससे तुम सदा उलटे होते हो। और जो तुम होते हो उसको तुम्हें कभी कसम नहीं खानी पड़ती। प्रश्न : पर इतने लम्बे काल में जो साधक हुए, उनमें कोई ऐसा साधक नहीं जिसका सहज फलित ब्रह्मचर्य हो ? उत्तर : वह बिल्कुल अलग बात है। मगर उसको मैं व्रती नहीं कह रहा। तुम जो कह रहे हो कि अढ़ाई हजार साल में व्रती....व्रती तो कभी नहीं पहुँचता। अढ़ाई हजार साल या पच्चीस हजार साल हों उसका कोई सवाल नहीं उठता। व्रती तो कभी नहीं पहुंचता। जो पहुँचता है वह सदा अवती, प्रज्ञावान् व्यक्ति होता है। पर इनमें कुछ लोग ऐसे हैं जैसे कुन्दकुन्द । कुन्दकुन्द वैसा ही व्यक्ति है जैसा महावीर । कुन्दकुन्द कोई व्रत नहीं पाल रहा है। वह समझ को जगा रहा है। जो समझ रहा है, वह छूटता जा रहा है। जो व्यर्थ है, वह फिकता चला जा रहा है। लेकिन है वह अवती व्यक्ति । और वह जो व्रतो व्यक्ति है, वह सदा झूठ है, निपट पाखण्ड है। व्रत पालना बिल्कुल सरल है। इसमें क्या कठिनाई है ? क्योंकि यह सिर्फ वासनाओं को दबाना है । लेकिन व्रत पालने से कोई कभी कहीं नहीं पहुंचा। महावीर को भी मैं अवती कहता हूं। कुन्दकुन्द भी अव्रती है। ऐसा है उमास्वाति । ऐसे कुछ और लोग भी हैं। लेकिन जब तुम कहते हो 'जैन श्रावक', 'जैन साधु' तो न तो कुन्दकुन्द जैन हैं, न उमास्वाति जैन हैं। मतलब यह है कि
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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