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________________ ७२ महावीर : मेरी दृष्टि में भीतर चली जाए कि बाहर का उसको ख्याल ही न रहे। इसका शरीर तो स्वांस छोड़ देगा फौरन । लेकिन शब्दों में ध्यान ही नहीं है । मैंने उस संन्यासी को कहा कि तुम भी जिस दिन ध्यान करो, ध्यान में इतना डूब जानो कि उठने का मन न करे तो उठना ही मत तुम । जब उठने का मन हो उठना, न हो तो मत उठना। तो उन्होंने तीन महीने ध्यान किया था। उनके साथ एक युवक रहता था। उसने एक दिन सुबह आकर खबर दी कि आज चार बजे से वह ध्यान में गए हैं तो नौ बज गया है। अभी तक उठे नहीं हैं और उन्होंने कह दिया है कि यदि न उठे तो उठाना मत लेकिन मुझे बहुत डर लग रहा है । वह पड़े हैं। मैंने कहा उन्हें पड़े रहने दो। दो बजे वह फिर दोपहर में आया फिर जरा घबराहट होने लगी क्योंकि वह पड़े ही है, न करवट लेते हैं, न हाथ चलाते हैं, कहीं कुछ नुकसान न हो जाए। मैंने कहा तुम मत डरो। आज उपवास हो गया तो हो जाने दो। रात नौ बजे वह फिर आया और कहा अब तो मेरी हिम्मत से बाहर हो गया है और आप चलिए । मैंने कहा कोई जाने की जरूरत नहीं है। ग्यारह बजे रात वह आदमी उठा और भागा हझा मेरे पास आया। उसने कहा कि आज समझा कि उपवास और अनशन का क्या अर्थ है, कितना भेद है। कभी कल्पना भी नहीं की थी कि ऐसा भी उपवास का अर्थ हो सकता है । जब आप भीतर चले जाते हैं तो बाहर का स्मरण ही छूट जाता है । उस स्मरण के छूटने में पानी भी छूट जाता है। और शरीर इतना अद्भुत यन्त्र है कि जब आप भीतर रहते हैं तो शरीर सावधान हो जाता है, अपनी व्यवस्था पूरी कर लेता है। आपको कोई चिन्ता की जरूरत नहीं। और शरीर को साधना का मतलब है कि शरीर ऐसा हो कि जब आप भीतर चले जाएं तो उसे आपकी कोई जरूरत न हो, वह अपनी व्यवस्था कर ले। वह स्वचालित यन्त्र की तरह अपना काम करता है, आपकी प्रतीक्षा करता रहे कि जब माप बाहर आयेंगे तो वह आपको खबर देगा कि मुझे भूख लगी है, कि मुझे प्यास लगी है, नहीं तो वह चुपचाप झेलेगा, आपको खबर भी नहीं देगा । काया-क्लेश का मतलब है काया की ऐसी साधना कि बाषा न रह जाए, साधन हो जाए, सीढ़ी बन जाए । लेकिन शब्द बड़े खतरनाक है इसलिए इसको काया-क्लेश मत कहो, इसको काया-साधना कहो। इसको क्लेश कहा तो क्लेश शन्द ऐसा बेहूदा है कि उससे ऐसा लगता है कि सता रहे हो । उपवास को 'न खाना' मत कहो, अनशन मत कहो, उपवास को कहो मात्मा के निकट होना। आत्मा के निकट
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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