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________________ महावीर : मेरी दृष्टि में आनन्द समय को बिल्कुल मिटा देता है। इसलिए आनन्द कालातीत (टाइमलैस) है, वहाँ समय है हो नहीं, साधारण से सुख में समय छोटा हो जाता है, साधारण से दुःख में समय बड़ा हो जाता है। ___ आइंस्टीन से कोई पूछ रहा था कि आप सापेक्षता का सिद्धान्त ( थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी ) हमें समझाएं। आइंस्टोन ने कहा कि बहुत मुश्किल है समझाना क्योंकि जमीन पर थोड़े से लोग हैं, जो सापेक्षता की बात समझ सके हैं क्योंकि उसे समझना बहुत कठिन है। सापेक्ष का मतलब है कि जो प्रत्येक परिस्थिति में छोटा-बड़ा हो सकता है। चौड़ा-संकरा हो सकता है, जिसका कोई स्थिर होना नहीं है। फिर उसने कहा कि उदाहरण के लिए मैं कहता हूँ कि तुम अपनी प्रेयसी के पास बैठे हो, आषा घंटा बीत जाता है, कितना लगता है। तो उस आदमी ने कहा कि क्षण भर । तो आइंस्टीन ने कहा : छोड़ो प्रेयसी को। तुम एक जलते हुए स्टोव पर बैठा दिये गये हो और आधा घंटा रखे गए हो। उसने कहा कि आधा घंटा, क्या आप कह रहे हैं ? तब तक तो मैं मर ही चुकूँगा। आधा घंटा ! जलते हुए स्टोव पर । अनन्त हो जाएगा, समय का एक-एक क्षण गुजारना मुश्किल हो जाएगा, बहुत लम्बा हो जाएगा। आधा घंटा बहुत ज्यादा हो जाएगा। तो आइंस्टीन ने कहा कि सापेक्ष से मेरा यहो प्रयोजन है। . समय वही है लेकिन तुम्हारी चित्त की अवस्था के अनुसार बड़ा-छोटा हो जाता है । स्वप्न में एकदम छोटे समय में कितनी लम्बी यात्रा हो जाती है। जागरण में नहीं हो पाती। जागने में समय की परिधि पर हम खड़े हैं । सोने में हम अपने भीतर आए हैं। तो स्वप्न भीतर की ओर है, जागृति बाहर की ओर है। स्वप्न में हम अपने भीतर बन्द हैं, केन्द्र के ज्यादा निकट हैं । जागने में ज्यादा दूर हैं । जब कोई व्यक्ति केन्द्र पर पहुंच जाता है, उसका नाम समाधि है। तब समय एकदम मिट जाता है, एकदम लीन हो जाता है । समय होता ही नहीं। सब ठहर गया होता है। फिर क्षण हो जाता है । यह समय रहित कालातीत सण है। इस क्षण में ठहरे हुए पच्चीस सौ साल बीत गए कि पच्चीस हजार साल बीत गए, कोई फर्क नहीं होता। सब फर्क परिषि पर है, केन्द्र पर कोई फर्क नहीं है। वहाँ सब परिधि से खीची गई रेखाएं संयुक्त हो गई हैं। तो ऐसा व्यक्ति प्रतीक्षा कर सकता है उस क्षण को जब यह सर्वाधिक उपयोगी हो सके और ऐसा भी हो सकता है कि कुछ शिक्षक प्रतीक्षा करते-करते
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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