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________________ प्रश्नोत्तर-प्रवचन-१८ ५६७ सोए, रात में एक सपना देखा । सपने में सैकड़ों वर्ष बीत जाते हैं । नींद टूटती है और आप पाते हैं कि झपको लग गई थी और घड़ी में अभी मुश्किल से एक मिनट हुआ है। सपने में वर्षों बीत गए । और अभी आँख खुली है तो देखते हैं कि घड़ी में एक ही मिनट सरका है। झपकी लग गई थी कुर्सी पर और एक लम्बा सपना देख गए । तब सवाल उठता है कि इतना लम्बा सपना वर्षों बीतने वाला, एक मिनट में कैसे देखा जा सका ? देखा जा सका इसलिए कि जागने के समय की धारणा अलग है, समय की गति अलग है । सोने के समय की गति अलग है। मुक्त व्यक्ति के लिए समय की गति का कोई अर्थ नहीं रह जाता। वहाँ समय की गति है ही नहीं। हमारे तल पर समय की गति है। हम ऐसा सोच सकते हैं कि अगर हम एक वृत्त खींचे और एक वृत्त पर, परिधि पर तीन बिन्दु बनाएँ, वे तीनों काफी दूर पर हैं, फिर हम तीनों बिन्दुओं से वृत्त के केन्द्र की तरफ रेखायें खींचें। जैसे-जैसे केन्द्र के पास रेखाएं पहुँचती जाती है, वैसे-वैसे करीब होती जाती हैं। परिधि पर इतना फासला था। केन्द्र के पास आतेआते फासला कम हो गया । केन्द्र पर आकर दोनों रेखाएं मिल गई। परिधि पर दूरी थी, केन्द्र पर एक ही बिन्दु पर आकर मिल गई हैं। केन्द्र पर परिधि से खींचो गई सभी रेखाएँ मिल जाती हैं। और जैसे-जैसे पास आती जाती है वैसे-वैसे मिलती चली जाती हैं। समय का बड़ा विस्तार है जितना हम जीवन केन्द्र से दूर हैं, समय उतना बड़ा है। और जितना हम जीवन केन्द्र के करीब आते-जाते हैं, उतना समय छोटा होता जाता है। __ कभी शायद आपने ख्याल नहीं किया होगा कि दुःख में समय बहुत लम्बा होता है, सुख में बहुत छोटा होता है। किसी को अपना प्रियजन मिल गया है, रात बीत गई है और सुबह प्रियजन बिदा हो गया है तो वह कहता है कि कितनी . जल्दो रात बीत गई। इस घड़ी को क्या हो गया कि आज जल्दी चली जाती है। घड़ी अपनी चाल से चली जाती है । घड़ी को कुछ मतलब नहीं है कि किस का प्रियजन मिला है किसका नहीं मिला है, घर में कोई बीमार है, उसकी खाट के किनारे बैठकर आप प्रतीक्षा कर रहे हैं । चिकित्सक कहते हैं बचेगा नहीं। रात बड़ी लम्बी हो गई है। ऐसा कि घड़ी के कांटे, चलते हुए भी मालूम नहीं पड़ते । ऐसा लगने लगता है कि घड़ी आज चलती ही नहीं, रात बड़ी लम्बी हो गई है। दुःख समय को बहुत बना देता है, सुख समय को एकदम सिकोड़ देता है । उसका कारण है क्योंकि सुख भीतर के कुछ निकट है, दुम्न परिषि पर है।
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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