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________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन४ ११३ जा रहा है शरीर में, वह आ रहा है शरीर से । अगर चेतना साक्षी हो सके तो बात समाप्त हो गई है। तब नदी से गुजर सकते हो ऐसे कि पाँव न भीगें । नदी से गुजरोगे तो पांव भीग हो जाएंगे। लेकिन बिल्कुल ऐसे जैसे पाँव न भीगें : अगर पीछे कोई साक्षी रह गया है तो बात खत्म हो गई है। गहरे में प्रश्न सातिभाव का है । सिर्फ और कुछ नहीं । फिर कौन सी क्रिया है, इससे कोई सम्बन्ध नहीं । जैसे ही क्रिया के साक्षी हुए कर्ता मिट गया । कर्ता मिटा कि कर्म मिट गया । क्रिया रह गई सिर्फ । अब यह क्रिया हजारों कारणों से उद्भूत हो सकती है । वह जो तुम कहते हो सन्तति है उसके पैदा करने में कोई वासना न हो । सच तो यह है कि जब ऐसी सन्तति पैदा हो जिसमें कोई वासना न हो तब केवल शरीर एक उपकरण बना है एक क्रिया का । इससे ज्यादा कुछ भी नहीं हुआ है | चेतना उपकरण नहीं बन सकती । लेकिन साधारणतः आदमी मैथुन में बिल्कुल खो जाता है । होश रह ही नहीं पाता । बेहोश हो जाता है । तब केवल शरीर हो उपकरण नहीं बनता, भीतर आत्मा सो गई होती है, मूच्छित हो गई होती है । और मैथुन का जो विरोध है वह केवल इसीलिए है कि आत्मा की मूर्च्छा सर्वाधिक मैथुन में होती है । अगर वहाँ आत्मा अमूच्छित रह जाए तो बात खत्म हो गई । कोई बात न रही। और प्रश्न भोजन का नहीं। वह भी एक क्रिया है । किसी भी क्रिया में, जैसे अभी तुम मुझे सुन रहे हो, सुनना भी एक क्रिया है, अगर तुम साक्षी हो जाओ तो तुम पाओगे कि सुना भी जा रहा है और तुम दूर खड़े होकर सुनने को देख भी रहे हो ! नहीं चल रहा जैसे मैं बोल रहा हूँ और मैं साक्षी है। मैं बोल भी रहा हूँ और पूरे वक्त मैं जानता हूँ कि मेरे भीतर प्रबोसा भी कोई खड़ा हुआ है। और असल में जो अबोला खड़ा है वही मैं हूँ। जो बोला जा रहा है, वह उपकरण है वह साधन है । वह मैं नहीं है । चल रहे हो रास्ते पर और अगर जाग जाओ तो तुम पाओगे कि चल भी रहे हो, कुछ भीतर प्रचल भी खड़ा है जो है, जो कभी चला ही नहीं, जो चल ही नहीं सकता है । और क्रिया में तुम पूरे जाग गए हो तो तुम पाते हो कि चलने की और भीतर कोई अचल भी खड़ा है। और इस अचल का तुम किसी दिन कह सकते हो कि मैं कभी चला ही नहीं । तुम्हें चलते देखा होगा और रिकार्ड होंगे तुम्हारे चलने के तुम्हारे चलने के कि तुम चले थे, यह रहा फोटोग्राफ, और अदालत निर्णय देगी और हजारों लोगों ने और फोटोग्राफ होंगे अगर चलने की क्रिया हो रही है बोध हो जाए तो
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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