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________________ ५७२ महावीर : मेरी दृष्टि में नासमझी में पड़े हैं। क्राइस्ट भी गल्ती कर रहे हैं। असल में तब मोक्ष की बात करने वाले सब पागल है। क्योंकि अगर सबको घूमते ही रहना है तो सब बात व्यर्थ हो गई। अगर हम मोक्ष की धारणा को, जो सतत (कान्स्टेन्ट) है, समझ लें तो उसका मतलब ही कुल इतना है कि चक्र के बाहर कूदा जा सकता है और जो व्यक्ति इस चक्र के प्रति सचेत हो जाएगा, वह बिना कूदे नहीं रह सकता क्योंकि चक्र बिल्कुल कोल्हू के बैल की तरह घूम रहा है । और कोल्हू के बैल में कौन जुता रहना चाहेगा। जीवन की जो साधारण यात्रा है, उसकी जो लोहपटरी है, उससे कोई अगर छलांग लगा जाता है, तो वह मुक्त हो जाता है। उसको वापस चक्र में रखने का कोई उपाय नहीं है। हां, जैसा मैंने कहा, एक बार वह स्वयं, अपनी इच्छा से चाहे तो उस चक्र में लौट सकता है जिसमें अपने प्रियजनों को, अपने मित्रों को, उन सबको जिनके लिए वह आया है आनन्द में लाना चाहता है । एक बार फिर वापस आकर बैठ सकता है उस चक्र पर लेकिन चक्र पर बैठा हुआ भी वह घूमेगा नहीं। घूमेगा वह इसलिए नहीं कि अब घूमने का कोई मतलब न रहा । और इसलिए हम उसे पहचान भी पाएंगे कि कुछ अजब तरह का आदमी है, कुछ भिन्न तरह की बात है, यह कुछ और अनुभव करके लौटा है । अब वह खड़ा भी होगा हमारे बाजार में लेकिन हमारे बाजार का हिस्सा नहीं होगा। अब वह हमारे वीच भी खड़ा होगा लेकिन ठीक हमारे बीच नहीं होगा। कहीं हमसे दूर फासले पर होगा। उस व्यक्ति में दोहरी घटना घट रही होगी । वह होगा हमारे बीच और हमसे बिल्कुल अलग होगा। यह हम प्रतिपल अनुभव भर पाएंगे कि कहीं उससे हमारा मेल होता भी है, कहीं नहीं भी होता और कहीं बात बिल्कुल अलग हो जाती है। वह कुछ और ही तरह का आदमी है। यह जो वैज्ञानिक है, भौतिकवादी है, वह यही कह रहा है कि यहां तो सब 'नियम वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से हम आते हैं। आपका जाने का कोई उपाय नहीं है । सागर का पानी सागर में पहुँच जाता है, पत्तों में आई मिट्टो वापिस मिट्टी में पहुंच जाती है। पत्ते गिर कर फिर मिट्टी हो जाते हैं। वही वैज्ञानिक कहता है, वही भौतिकवादी कहता है लेकिन पार्मिक खोजी यह कह रहा है कि एक ऐसी भी जगह है जहाँ से हम नहीं आए हैं और जहाँ जा सकते हैं और जहाँ हम चले जाएं तो फिर इस चक्कर में गिर जाने का कोई उपाय नहीं है। अगर यह सम्भव नहीं है तो धर्म की सम्भावना खत्म हो गई; साधना का प्रयोजन व्यर्थ हो गया। फिर कुछ बात ही नहीं। फिर तो चक्र में हम घूमते
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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