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________________ प्रश्नोत्तर - प्रवचन- १८ ५७१ घूम रहा है । फिर काँटे बाहर पर आ जाते हैं। सिर्फ आत्मा के लिए ही इस नियम को तोड़ना उचित नहीं मालूम पड़ता क्योंकि विज्ञान बनता है निरपवाद नियमों से । अगर जीवन के सब पहलुओं पर यह सच है कि बच्चा जवान होता है, जवान बूढ़ा होता है, बूढ़ा मरता है, बच्चे पैदा होते हैं, फिर जवान होते हैं, फिर बूढ़े होते हैं, फिर मरते हैं। अगर जीवन की चक्रीय गति इस तरह चल रही है और आत्मा का पुनर्जन्म मानने वाले भी इस चक्रीय गति को स्वीकार करते हैं कि जो अभी मरा वह फिर बच्चा होगा, वह फिर जवान होगा, फिर बूढ़ा होगा, फिर मरेगा, फिर बच्चा होगा, फिर वह चक्र घूमता रहेगा तो सिर्फ आत्मा को यह चक्र क्यों लागू नहीं होगा । साधारणतः लागू नहीं होता । नियम यही है और ऐसे ही सब घूमता चलता है । मुक्त आत्मा एक अनूठी घटना है, सामान्य घटना नहीं है । सामान्य नियम लागू भी नहीं होते । अमल में चक्र के बाहर जो कूद जाता है, उसी को मुक्त आत्मा कहते हैं । नहीं तो मुक्त कहने का कोई मतलब नहीं है । संसार का मतलब है जो घूम रहा है, तो घूमता ही रहता है। मुक्त का मतलब है जो इस घुमने के बाहर छलांग लगा जाता है। मुक्त को अगर हम फिर चक्रीय गति में रख लेते हैं तो मुक्ति व्यर्थ हो गई । अगर मोक्ष से फिर निगोद में आत्मा को आना है तो पागल हैं वे जो मुक्त होने की कोशिश कर रहे हैं। क्योंकि इससे कोई मतलब ही नहीं । अगर कांटे को बारह पर लौट ही आना है - वह कुछ भी करे, चाहे मुक्त हो, चाहे न हो— फिर तो मोक्ष अर्थहीन हो गया । अगर छलांग लगानी है तो हमें सजग होना पड़ेगा इस चक्र के प्रति । जैसे कि कल आपने क्रोध किया, फिर पश्चात्ताप किया। आज फिर आप क्रोध कर रहे हैं, फिर पश्चात्ताप कर रहे हैं । फिर क्रोध है, फिर पश्चात्ताप है । हर क्रोध के पीछे पश्चात्ताप, हर पश्चात्ताप के आगे फिर क्रोध हैं । एक चक्र में आप घूम रहे हैं । और अगर इस चक्र में आप खड़े रहते हैं, तो घूमना जारी' 1 रहेगा । लेकिन यह भी हो सकता है कि आप चक्र के बाहर छलांग लगा जाएँ । छलांग लगाने का मतलब है कि एक आदमी न तो क्रोध करता है न पश्चात्ताप करता है, बाहर हो जाता है। जब उसे कोई गाली देता है तो न वह क्षमा करता है, न वह पश्चात्ताप करता है । वह कुछ करता ही नहीं, वह एकदम बाहर हो जाता है । यह जो बाहर हो जाना है, 'यह जो छिटक जाना है, चक्र के बाहर, यह तो चक्र में नहीं गिना जा सकता। जा सकता है तो महावीर नासमझ हैं, बड़ी भूल में अगर इसे भी चक्र में गिना पड़े हैं । बुद्ध नासमझ हैं
SR No.010413
Book TitleMahavira Meri Drushti me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorOsho Rajnish
PublisherJivan Jagruti Andolan Prakashan Mumbai
Publication Year1917
Total Pages671
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size40 MB
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